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पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न विकारों की पहचान जिन साधनों द्वारा होती है उन्हें लिंग कहते हैं। इसके चार भेद हैं : पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय। पूर्वरूप- किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोगविशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं उन्हें पूर्वरूप (प्रोडामेटा) कहते हैं। रूप (साइंस एंड सिंप्टम्स) - जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है उन्हें रूप कहते हैं। संप्राप्ति (पैथोजेनेसिस) : किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूप का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है। उपशय और अनुपशय (थेराप्यूटिक टेस्ट) - जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार-विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है उसे उपचय के विवेचन में आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार-विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाते हुए उपशय के १८ भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सापद्धति का उदय हो गया है; जैसे,(१) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। (२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं एलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ = विपरीत ; अपैथोज़ = वेदना)। (३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना। (४) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है। (५) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियोपैथी से तुलना करें : होमियो =समान, अपैथोज़ =वेदना )। (६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग। उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए। | जिन साधनों से विकारों की पहचान की जाती है उसे क्या कहा जाता है? | लिंग | jin sadhano se vikaron kii pahchaan kii jaati he use kya kaha jaataa he? |
पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न विकारों की पहचान जिन साधनों द्वारा होती है उन्हें लिंग कहते हैं। इसके चार भेद हैं : पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय। पूर्वरूप- किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोगविशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं उन्हें पूर्वरूप (प्रोडामेटा) कहते हैं। रूप (साइंस एंड सिंप्टम्स) - जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है उन्हें रूप कहते हैं। संप्राप्ति (पैथोजेनेसिस) : किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूप का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है। उपशय और अनुपशय (थेराप्यूटिक टेस्ट) - जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार-विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है उसे उपचय के विवेचन में आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार-विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाते हुए उपशय के १८ भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सापद्धति का उदय हो गया है; जैसे,(१) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। (२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं एलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ = विपरीत ; अपैथोज़ = वेदना)। (३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना। (४) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है। (५) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियोपैथी से तुलना करें : होमियो =समान, अपैथोज़ =वेदना )। (६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग। उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए। | लिंग के चार प्रकारों का क्या नाम हैं? | पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय | ling ke chaar prakaaron kaa kya naam hai? |
पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न विकारों की पहचान जिन साधनों द्वारा होती है उन्हें लिंग कहते हैं। इसके चार भेद हैं : पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय। पूर्वरूप- किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोगविशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं उन्हें पूर्वरूप (प्रोडामेटा) कहते हैं। रूप (साइंस एंड सिंप्टम्स) - जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है उन्हें रूप कहते हैं। संप्राप्ति (पैथोजेनेसिस) : किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूप का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है। उपशय और अनुपशय (थेराप्यूटिक टेस्ट) - जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार-विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है उसे उपचय के विवेचन में आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार-विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाते हुए उपशय के १८ भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सापद्धति का उदय हो गया है; जैसे,(१) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। (२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं एलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ = विपरीत ; अपैथोज़ = वेदना)। (३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना। (४) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है। (५) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियोपैथी से तुलना करें : होमियो =समान, अपैथोज़ =वेदना )। (६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग। उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए। | रोगी परीक्षा के कितने साधन हैं? | हेतु और लिंगों | rogi pariksha ke kitne saadhan hai? |
पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न विकारों की पहचान जिन साधनों द्वारा होती है उन्हें लिंग कहते हैं। इसके चार भेद हैं : पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय। पूर्वरूप- किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोगविशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं उन्हें पूर्वरूप (प्रोडामेटा) कहते हैं। रूप (साइंस एंड सिंप्टम्स) - जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है उन्हें रूप कहते हैं। संप्राप्ति (पैथोजेनेसिस) : किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूप का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है। उपशय और अनुपशय (थेराप्यूटिक टेस्ट) - जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार-विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है उसे उपचय के विवेचन में आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार-विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाते हुए उपशय के १८ भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सापद्धति का उदय हो गया है; जैसे,(१) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। (२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं एलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ = विपरीत ; अपैथोज़ = वेदना)। (३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना। (४) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है। (५) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियोपैथी से तुलना करें : होमियो =समान, अपैथोज़ =वेदना )। (६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग। उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए। | आयुर्वेदिक चिकित्सा ने आहार और औषधि प्रयोग के तरीके को समझाते हुए कितने प्रकार के लिंग का वर्णन किया है? | १८ भेदों | ayurvedic chikitsa ne aahaar or aushadhi prayog ke tareeke ko samajhaate hue kitne prakaar ke ling kaa varnan kiya he? |
पृथ्वी की आकृति अण्डाकार है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है। भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से 43 किलोमीटर (27 मील) ज्यादा बड़ा है। इस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र से सतह की सबसे लम्बी दूरी, इक्वाडोर के भूमध्यवर्ती चिम्बोराज़ो ज्वालामुखी का शिखर तक की है। इस प्रकार पृथ्वी का औसत व्यास 12,742 किलोमीटर (7, 918 मील) है। कई जगहों की स्थलाकृति इस आदर्श पैमाने से अलग नजर आती हैं हालाँकि वैश्विक पैमाने पर यह पृथ्वी के त्रिज्या की तुलना नजरअंदाज ही दिखाई देता है: सबसे अधिकतम विचलन 0.17% का मारियाना गर्त (समुद्रीस्तर से 10,911 मीटर (35,797 फुट) नीचे) में है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट (समुद्र स्तर से 8,848 मीटर (29,029 फीट) ऊपर) 0.14% का विचलन दर्शाता है। यदि पृथ्वी, एक बिलियर्ड गेंद के आकार में सिकुड़ जाये तो, पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों जैसे बड़े पर्वत शृंखलाएँ और महासागरीय खाईयाँ, छोटे खाइयों की तरह महसूस होंगे, जबकि ग्रह का अधिकतर भू-भाग, जैसे विशाल हरे मैदान और सूखे पठार आदि, चिकने महसूस होंगे. धरती का घनत्व पूरे सौरमंडल मे सबसे ज्यादा है। बाकी चट्टानी ग्रह की संरचना कुछ अंतरो के साथ पृथ्वी के जैसी ही है। चन्द्रमा का केन्द्रक छोटा है, बुध का केन्द्र उसके कुल आकार की तुलना मे विशाल है, मंगल और चंद्रमा का मैंटल कुछ मोटा है, चन्द्रमा और बुध मे रासायनिक रूप से भिन्न भूपटल नही है, सिर्फ पृथ्वी का अंत: और बाह्य मैंटल परत अलग है। ध्यान दे कि ग्रहो (पृथ्वी भी) की आंतरिक संरचना के बारे मे हमारा ज्ञान सैद्धांतिक ही है। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना शल्कीय अर्थात परतों के रूप में है जैसे प्याज के छिलके परतों के रूप में होते हैं। इन परतों की मोटाई का सीमांकन रासायनिक विशेषताओं अथवा यान्त्रिक विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी, स्थलमण्डल, दुर्बलता मण्डल, मध्यवर्ती आवरण, बाह्य सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) से बना हुआ हैं। रासायनिक संरचना के आधार पर इसे भूपर्पटी, ऊपरी आवरण, निचला आवरण, बाहरी सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) में बाँटा गया है। पृथ्वी की ऊपरी परत भूपर्पटी एक ठोस परत है, मध्यवर्ती आवरण अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य सत्व(कोर) तरल तथा आन्तरिक सत्व(कोर) ठोस अवस्था में है। आन्तरिक सत्व(कोर) की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या की लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। पृथ्वी के अन्तरतम की यह परतदार संरचना भूकम्पीय तरंगों के संचलन और उनके परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन पर आधारित है जिनका अध्ययन भूकम्पलेखी के आँकड़ों से किया जाता है। भूकम्प द्वारा उत्पन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगें पृथ्वी के अन्दर स्नेल के नियम के अनुसार प्रत्यावर्तित होकर वक्राकार पथ पर चलती हैं। जब दो परतों के बीच घनत्व अथवा रासायनिक संरचना का अचानक परिवर्तन होता है तो तरंगों की कुछ ऊर्जा वहाँ से परावर्तित हो जाती है। परतों के बीच ऐसी जगहों को दरार कहते हैं। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी का स्रोतों को दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष स्रोत, जैसे ज्वालामुखी से निकले पदार्थो का अध्ययन, वेधन से प्राप्त आँकड़े इत्यादि, कम गहराई तक ही जानकारी उपलब्ध करा पते हैं। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष स्रोत के रूप में भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन अधिक गहराई की विशेषताओं के बारे में जानकारी देता है। पृथ्वी की आंतरिक गर्मी, अवशिष्ट गर्मी के संयोजन से आती है ग्रहों में अनुवृद्धि से (लगभग 20%) और रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से (80%) ऊष्मा उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी के भीतर, प्रमुख ताप उत्पादक समस्थानिक (आइसोटोप) में पोटेशियम-40, यूरेनियम-238 और थोरियम-232 सम्मलित है। पृथ्वी के केन्द्र का तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस (10,830 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक हो सकता है, और दबाव 360 जीपीए तक पहुंच सकता है। क्योंकि सबसे अधिक गर्मी रेडियोधर्मी क्षय द्वारा उत्पन्न होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, कम या आधा-जीवन के समस्थानिक के समाप्त होने से पहले, पृथ्वी का ऊष्मा उत्पादन बहुत अधिक था। धरती से औसतन ऊष्मा का क्षय 87 एमडब्ल्यू एम -2 है, वही वैश्विक ऊष्मा का क्षय 4.42×1013 डब्ल्यू हैं। कोर की थर्मल ऊर्जा का एक हिस्सा मेंटल प्लम्स द्वारा पृष्ठभागो की ओर ले जाया जाता है, इन प्लम्स से प्रबल ऊर्जबिन्दु तथा असिताश्म बाढ़ का निर्माण होता है। ऊष्माक्षय का अंतिम प्रमुख माध्यम लिथोस्फियर से प्रवाहकत्त्व के माध्यम से होता है, जिसमे से अधिकांश महासागरों के नीचे होता है क्योंकि यहाँ भु-पपर्टी, महाद्वीपों की तुलना में बहुत पतली होती है। पृथ्वी का कठोर भूपटल कुछ ठोस प्लेटो मे विभाजित है जो निचले द्रव मैंटल पर स्वतण्त्र रूप से बहते रहते है, जिन्हें विवर्तनिक प्लेटें कहते है। ये प्लेटें, एक कठोर खण्ड की तरह हैं जोकि परस्पर तीन प्रकार की सीमाओं से एक दूसरे की ओर बढ़ते हैं: अभिसरण सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें एक साथ आती हैं, भिन्न सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें अलग हो जाती हैं, और सीमाओं को बदलना, जिसमें दो प्लेटें एक दूसरे के ऊपर-नीचे स्लाइड करती हैं। इन प्लेट सीमाओं पर भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, पहाड़-निर्माण, और समुद्री खाई का निर्माण हो सकता है। जैसे ही विवर्तनिक प्लेटों स्थानान्तरित होती हैं, अभिसरण सीमाओं पर महासागर की परत किनारों के नीचे घटती जाती है। उसी समय, भिन्न सीमाएं से ऊपर आने का प्रयास करती मेन्टल पदार्थ, मध्य-समुद्र में उभार बना देती है। इन प्रक्रियाओं के संयोजन से समुद्र की परत फिर से मेन्टल में पुनर्नवीनीकरण हो जाती हैं। इन्हीं पुनर्नवीनीकरण के कारण, अधिकांश समुद्र की परत की उम्र 100 मेगा-साल से भी कम हैं। सबसे पुराना समुद्री परत पश्चिमी प्रशान्त सागर में स्थित है जिसकी अनुमानित आयु 200 मेगा-साल है। (वर्तमान में) आठ प्रमुख प्लेट:पृथ्वी की कुल सतह क्षेत्र लगभग 51 करोड़ किमी2 (19.7 करोड़ वर्ग मील) है। जिसमे से 70.8%, या 36.113 करोड़ किमी2 (13.943 करोड़ वर्ग मील) क्षेत्र समुद्र तल से नीचे है और जल से भरा हुआ है। महासागर की सतह के नीचे महाद्वीपीय शेल्फ का अधिक हिस्सा है, महासागर की सतह, महाद्वीपीय शेल्फ, पर्वत, ज्वालामुखी, समुद्री खन्दक, समुद्री-तल दर्रे, महासागरीय पठार, अथाह मैदानी इलाके, और मध्य महासागर रिड्ज प्रणाली से बहरी पड़ी हैं। शेष 29.2% (14.894 करोड़ किमी2, या 5.751 करोड़ वर्ग मील) जोकि पानी से ढँका हुआ नहीं है, जगह-जगह पर बहुत भिन्न है और पहाड़ों, रेगिस्तान, मैदानी, पठारों और अन्य भू-प्राकृतिक रूप में बँटा हुआ हैं। भूगर्भीय समय पर धरती की सतह को लगातार नयी आकृति प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं में विवर्तनिकी और क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, अपक्षय, हिमाच्छेद, प्रवाल भित्तियों का विकास, और उल्कात्मक प्रभाव इत्यादि सम्मलित हैं। महाद्वीपीय परत, कम घनत्व वाली सामग्री जैसे कि अग्निमय चट्टानों ग्रेनाइट और एंडसाइट के बने होते हैं। वही बेसाल्ट प्रायः काम पाए जाने वाला, एक सघन ज्वालामुखीय चट्टान हैं जोकि समुद्र के तल का मुख्य घटक है। अवसादी शैल, तलछट के संचय बनती है जोकि एक साथ दफन और समेकित हो जाती है। महाद्वीपीय सतहों का लगभग 75% भाग अवसादी शैल से ढका हुआ हैं, हालांकि यह सम्पूर्ण भू-पपटल का लगभग 5% हिस्सा ही हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले चट्टानों का तीसरा रूप कायांतरित शैल है, जोकि पूर्व-मौजूदा शैल के उच्च दबावों, उच्च तापमान या दोनों के कारण से परिवर्तित होकर बनता है। | पृथ्वी पर पाई जाने वाली चट्टानों का तीसरा रूप कौन सा चट्टान है ? | कायांतरित शैल | prithvi par pai jane vaali chattaanon kaa teesraa rup koun sa chattan he ? |
पृथ्वी की आकृति अण्डाकार है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है। भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से 43 किलोमीटर (27 मील) ज्यादा बड़ा है। इस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र से सतह की सबसे लम्बी दूरी, इक्वाडोर के भूमध्यवर्ती चिम्बोराज़ो ज्वालामुखी का शिखर तक की है। इस प्रकार पृथ्वी का औसत व्यास 12,742 किलोमीटर (7, 918 मील) है। कई जगहों की स्थलाकृति इस आदर्श पैमाने से अलग नजर आती हैं हालाँकि वैश्विक पैमाने पर यह पृथ्वी के त्रिज्या की तुलना नजरअंदाज ही दिखाई देता है: सबसे अधिकतम विचलन 0.17% का मारियाना गर्त (समुद्रीस्तर से 10,911 मीटर (35,797 फुट) नीचे) में है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट (समुद्र स्तर से 8,848 मीटर (29,029 फीट) ऊपर) 0.14% का विचलन दर्शाता है। यदि पृथ्वी, एक बिलियर्ड गेंद के आकार में सिकुड़ जाये तो, पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों जैसे बड़े पर्वत शृंखलाएँ और महासागरीय खाईयाँ, छोटे खाइयों की तरह महसूस होंगे, जबकि ग्रह का अधिकतर भू-भाग, जैसे विशाल हरे मैदान और सूखे पठार आदि, चिकने महसूस होंगे. धरती का घनत्व पूरे सौरमंडल मे सबसे ज्यादा है। बाकी चट्टानी ग्रह की संरचना कुछ अंतरो के साथ पृथ्वी के जैसी ही है। चन्द्रमा का केन्द्रक छोटा है, बुध का केन्द्र उसके कुल आकार की तुलना मे विशाल है, मंगल और चंद्रमा का मैंटल कुछ मोटा है, चन्द्रमा और बुध मे रासायनिक रूप से भिन्न भूपटल नही है, सिर्फ पृथ्वी का अंत: और बाह्य मैंटल परत अलग है। ध्यान दे कि ग्रहो (पृथ्वी भी) की आंतरिक संरचना के बारे मे हमारा ज्ञान सैद्धांतिक ही है। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना शल्कीय अर्थात परतों के रूप में है जैसे प्याज के छिलके परतों के रूप में होते हैं। इन परतों की मोटाई का सीमांकन रासायनिक विशेषताओं अथवा यान्त्रिक विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी, स्थलमण्डल, दुर्बलता मण्डल, मध्यवर्ती आवरण, बाह्य सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) से बना हुआ हैं। रासायनिक संरचना के आधार पर इसे भूपर्पटी, ऊपरी आवरण, निचला आवरण, बाहरी सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) में बाँटा गया है। पृथ्वी की ऊपरी परत भूपर्पटी एक ठोस परत है, मध्यवर्ती आवरण अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य सत्व(कोर) तरल तथा आन्तरिक सत्व(कोर) ठोस अवस्था में है। आन्तरिक सत्व(कोर) की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या की लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। पृथ्वी के अन्तरतम की यह परतदार संरचना भूकम्पीय तरंगों के संचलन और उनके परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन पर आधारित है जिनका अध्ययन भूकम्पलेखी के आँकड़ों से किया जाता है। भूकम्प द्वारा उत्पन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगें पृथ्वी के अन्दर स्नेल के नियम के अनुसार प्रत्यावर्तित होकर वक्राकार पथ पर चलती हैं। जब दो परतों के बीच घनत्व अथवा रासायनिक संरचना का अचानक परिवर्तन होता है तो तरंगों की कुछ ऊर्जा वहाँ से परावर्तित हो जाती है। परतों के बीच ऐसी जगहों को दरार कहते हैं। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी का स्रोतों को दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष स्रोत, जैसे ज्वालामुखी से निकले पदार्थो का अध्ययन, वेधन से प्राप्त आँकड़े इत्यादि, कम गहराई तक ही जानकारी उपलब्ध करा पते हैं। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष स्रोत के रूप में भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन अधिक गहराई की विशेषताओं के बारे में जानकारी देता है। पृथ्वी की आंतरिक गर्मी, अवशिष्ट गर्मी के संयोजन से आती है ग्रहों में अनुवृद्धि से (लगभग 20%) और रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से (80%) ऊष्मा उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी के भीतर, प्रमुख ताप उत्पादक समस्थानिक (आइसोटोप) में पोटेशियम-40, यूरेनियम-238 और थोरियम-232 सम्मलित है। पृथ्वी के केन्द्र का तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस (10,830 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक हो सकता है, और दबाव 360 जीपीए तक पहुंच सकता है। क्योंकि सबसे अधिक गर्मी रेडियोधर्मी क्षय द्वारा उत्पन्न होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, कम या आधा-जीवन के समस्थानिक के समाप्त होने से पहले, पृथ्वी का ऊष्मा उत्पादन बहुत अधिक था। धरती से औसतन ऊष्मा का क्षय 87 एमडब्ल्यू एम -2 है, वही वैश्विक ऊष्मा का क्षय 4.42×1013 डब्ल्यू हैं। कोर की थर्मल ऊर्जा का एक हिस्सा मेंटल प्लम्स द्वारा पृष्ठभागो की ओर ले जाया जाता है, इन प्लम्स से प्रबल ऊर्जबिन्दु तथा असिताश्म बाढ़ का निर्माण होता है। ऊष्माक्षय का अंतिम प्रमुख माध्यम लिथोस्फियर से प्रवाहकत्त्व के माध्यम से होता है, जिसमे से अधिकांश महासागरों के नीचे होता है क्योंकि यहाँ भु-पपर्टी, महाद्वीपों की तुलना में बहुत पतली होती है। पृथ्वी का कठोर भूपटल कुछ ठोस प्लेटो मे विभाजित है जो निचले द्रव मैंटल पर स्वतण्त्र रूप से बहते रहते है, जिन्हें विवर्तनिक प्लेटें कहते है। ये प्लेटें, एक कठोर खण्ड की तरह हैं जोकि परस्पर तीन प्रकार की सीमाओं से एक दूसरे की ओर बढ़ते हैं: अभिसरण सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें एक साथ आती हैं, भिन्न सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें अलग हो जाती हैं, और सीमाओं को बदलना, जिसमें दो प्लेटें एक दूसरे के ऊपर-नीचे स्लाइड करती हैं। इन प्लेट सीमाओं पर भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, पहाड़-निर्माण, और समुद्री खाई का निर्माण हो सकता है। जैसे ही विवर्तनिक प्लेटों स्थानान्तरित होती हैं, अभिसरण सीमाओं पर महासागर की परत किनारों के नीचे घटती जाती है। उसी समय, भिन्न सीमाएं से ऊपर आने का प्रयास करती मेन्टल पदार्थ, मध्य-समुद्र में उभार बना देती है। इन प्रक्रियाओं के संयोजन से समुद्र की परत फिर से मेन्टल में पुनर्नवीनीकरण हो जाती हैं। इन्हीं पुनर्नवीनीकरण के कारण, अधिकांश समुद्र की परत की उम्र 100 मेगा-साल से भी कम हैं। सबसे पुराना समुद्री परत पश्चिमी प्रशान्त सागर में स्थित है जिसकी अनुमानित आयु 200 मेगा-साल है। (वर्तमान में) आठ प्रमुख प्लेट:पृथ्वी की कुल सतह क्षेत्र लगभग 51 करोड़ किमी2 (19.7 करोड़ वर्ग मील) है। जिसमे से 70.8%, या 36.113 करोड़ किमी2 (13.943 करोड़ वर्ग मील) क्षेत्र समुद्र तल से नीचे है और जल से भरा हुआ है। महासागर की सतह के नीचे महाद्वीपीय शेल्फ का अधिक हिस्सा है, महासागर की सतह, महाद्वीपीय शेल्फ, पर्वत, ज्वालामुखी, समुद्री खन्दक, समुद्री-तल दर्रे, महासागरीय पठार, अथाह मैदानी इलाके, और मध्य महासागर रिड्ज प्रणाली से बहरी पड़ी हैं। शेष 29.2% (14.894 करोड़ किमी2, या 5.751 करोड़ वर्ग मील) जोकि पानी से ढँका हुआ नहीं है, जगह-जगह पर बहुत भिन्न है और पहाड़ों, रेगिस्तान, मैदानी, पठारों और अन्य भू-प्राकृतिक रूप में बँटा हुआ हैं। भूगर्भीय समय पर धरती की सतह को लगातार नयी आकृति प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं में विवर्तनिकी और क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, अपक्षय, हिमाच्छेद, प्रवाल भित्तियों का विकास, और उल्कात्मक प्रभाव इत्यादि सम्मलित हैं। महाद्वीपीय परत, कम घनत्व वाली सामग्री जैसे कि अग्निमय चट्टानों ग्रेनाइट और एंडसाइट के बने होते हैं। वही बेसाल्ट प्रायः काम पाए जाने वाला, एक सघन ज्वालामुखीय चट्टान हैं जोकि समुद्र के तल का मुख्य घटक है। अवसादी शैल, तलछट के संचय बनती है जोकि एक साथ दफन और समेकित हो जाती है। महाद्वीपीय सतहों का लगभग 75% भाग अवसादी शैल से ढका हुआ हैं, हालांकि यह सम्पूर्ण भू-पपटल का लगभग 5% हिस्सा ही हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले चट्टानों का तीसरा रूप कायांतरित शैल है, जोकि पूर्व-मौजूदा शैल के उच्च दबावों, उच्च तापमान या दोनों के कारण से परिवर्तित होकर बनता है। | पृथ्वी का औसत ऊष्मा क्षय कितना है ? | 87 एमडब्ल्यू एम -2 | prithvi kaa ausat ooshmaa kshay kitna he ? |
पृथ्वी की आकृति अण्डाकार है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है। भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से 43 किलोमीटर (27 मील) ज्यादा बड़ा है। इस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र से सतह की सबसे लम्बी दूरी, इक्वाडोर के भूमध्यवर्ती चिम्बोराज़ो ज्वालामुखी का शिखर तक की है। इस प्रकार पृथ्वी का औसत व्यास 12,742 किलोमीटर (7, 918 मील) है। कई जगहों की स्थलाकृति इस आदर्श पैमाने से अलग नजर आती हैं हालाँकि वैश्विक पैमाने पर यह पृथ्वी के त्रिज्या की तुलना नजरअंदाज ही दिखाई देता है: सबसे अधिकतम विचलन 0.17% का मारियाना गर्त (समुद्रीस्तर से 10,911 मीटर (35,797 फुट) नीचे) में है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट (समुद्र स्तर से 8,848 मीटर (29,029 फीट) ऊपर) 0.14% का विचलन दर्शाता है। यदि पृथ्वी, एक बिलियर्ड गेंद के आकार में सिकुड़ जाये तो, पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों जैसे बड़े पर्वत शृंखलाएँ और महासागरीय खाईयाँ, छोटे खाइयों की तरह महसूस होंगे, जबकि ग्रह का अधिकतर भू-भाग, जैसे विशाल हरे मैदान और सूखे पठार आदि, चिकने महसूस होंगे. धरती का घनत्व पूरे सौरमंडल मे सबसे ज्यादा है। बाकी चट्टानी ग्रह की संरचना कुछ अंतरो के साथ पृथ्वी के जैसी ही है। चन्द्रमा का केन्द्रक छोटा है, बुध का केन्द्र उसके कुल आकार की तुलना मे विशाल है, मंगल और चंद्रमा का मैंटल कुछ मोटा है, चन्द्रमा और बुध मे रासायनिक रूप से भिन्न भूपटल नही है, सिर्फ पृथ्वी का अंत: और बाह्य मैंटल परत अलग है। ध्यान दे कि ग्रहो (पृथ्वी भी) की आंतरिक संरचना के बारे मे हमारा ज्ञान सैद्धांतिक ही है। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना शल्कीय अर्थात परतों के रूप में है जैसे प्याज के छिलके परतों के रूप में होते हैं। इन परतों की मोटाई का सीमांकन रासायनिक विशेषताओं अथवा यान्त्रिक विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी, स्थलमण्डल, दुर्बलता मण्डल, मध्यवर्ती आवरण, बाह्य सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) से बना हुआ हैं। रासायनिक संरचना के आधार पर इसे भूपर्पटी, ऊपरी आवरण, निचला आवरण, बाहरी सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) में बाँटा गया है। पृथ्वी की ऊपरी परत भूपर्पटी एक ठोस परत है, मध्यवर्ती आवरण अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य सत्व(कोर) तरल तथा आन्तरिक सत्व(कोर) ठोस अवस्था में है। आन्तरिक सत्व(कोर) की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या की लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। पृथ्वी के अन्तरतम की यह परतदार संरचना भूकम्पीय तरंगों के संचलन और उनके परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन पर आधारित है जिनका अध्ययन भूकम्पलेखी के आँकड़ों से किया जाता है। भूकम्प द्वारा उत्पन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगें पृथ्वी के अन्दर स्नेल के नियम के अनुसार प्रत्यावर्तित होकर वक्राकार पथ पर चलती हैं। जब दो परतों के बीच घनत्व अथवा रासायनिक संरचना का अचानक परिवर्तन होता है तो तरंगों की कुछ ऊर्जा वहाँ से परावर्तित हो जाती है। परतों के बीच ऐसी जगहों को दरार कहते हैं। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी का स्रोतों को दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष स्रोत, जैसे ज्वालामुखी से निकले पदार्थो का अध्ययन, वेधन से प्राप्त आँकड़े इत्यादि, कम गहराई तक ही जानकारी उपलब्ध करा पते हैं। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष स्रोत के रूप में भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन अधिक गहराई की विशेषताओं के बारे में जानकारी देता है। पृथ्वी की आंतरिक गर्मी, अवशिष्ट गर्मी के संयोजन से आती है ग्रहों में अनुवृद्धि से (लगभग 20%) और रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से (80%) ऊष्मा उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी के भीतर, प्रमुख ताप उत्पादक समस्थानिक (आइसोटोप) में पोटेशियम-40, यूरेनियम-238 और थोरियम-232 सम्मलित है। पृथ्वी के केन्द्र का तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस (10,830 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक हो सकता है, और दबाव 360 जीपीए तक पहुंच सकता है। क्योंकि सबसे अधिक गर्मी रेडियोधर्मी क्षय द्वारा उत्पन्न होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, कम या आधा-जीवन के समस्थानिक के समाप्त होने से पहले, पृथ्वी का ऊष्मा उत्पादन बहुत अधिक था। धरती से औसतन ऊष्मा का क्षय 87 एमडब्ल्यू एम -2 है, वही वैश्विक ऊष्मा का क्षय 4.42×1013 डब्ल्यू हैं। कोर की थर्मल ऊर्जा का एक हिस्सा मेंटल प्लम्स द्वारा पृष्ठभागो की ओर ले जाया जाता है, इन प्लम्स से प्रबल ऊर्जबिन्दु तथा असिताश्म बाढ़ का निर्माण होता है। ऊष्माक्षय का अंतिम प्रमुख माध्यम लिथोस्फियर से प्रवाहकत्त्व के माध्यम से होता है, जिसमे से अधिकांश महासागरों के नीचे होता है क्योंकि यहाँ भु-पपर्टी, महाद्वीपों की तुलना में बहुत पतली होती है। पृथ्वी का कठोर भूपटल कुछ ठोस प्लेटो मे विभाजित है जो निचले द्रव मैंटल पर स्वतण्त्र रूप से बहते रहते है, जिन्हें विवर्तनिक प्लेटें कहते है। ये प्लेटें, एक कठोर खण्ड की तरह हैं जोकि परस्पर तीन प्रकार की सीमाओं से एक दूसरे की ओर बढ़ते हैं: अभिसरण सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें एक साथ आती हैं, भिन्न सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें अलग हो जाती हैं, और सीमाओं को बदलना, जिसमें दो प्लेटें एक दूसरे के ऊपर-नीचे स्लाइड करती हैं। इन प्लेट सीमाओं पर भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, पहाड़-निर्माण, और समुद्री खाई का निर्माण हो सकता है। जैसे ही विवर्तनिक प्लेटों स्थानान्तरित होती हैं, अभिसरण सीमाओं पर महासागर की परत किनारों के नीचे घटती जाती है। उसी समय, भिन्न सीमाएं से ऊपर आने का प्रयास करती मेन्टल पदार्थ, मध्य-समुद्र में उभार बना देती है। इन प्रक्रियाओं के संयोजन से समुद्र की परत फिर से मेन्टल में पुनर्नवीनीकरण हो जाती हैं। इन्हीं पुनर्नवीनीकरण के कारण, अधिकांश समुद्र की परत की उम्र 100 मेगा-साल से भी कम हैं। सबसे पुराना समुद्री परत पश्चिमी प्रशान्त सागर में स्थित है जिसकी अनुमानित आयु 200 मेगा-साल है। (वर्तमान में) आठ प्रमुख प्लेट:पृथ्वी की कुल सतह क्षेत्र लगभग 51 करोड़ किमी2 (19.7 करोड़ वर्ग मील) है। जिसमे से 70.8%, या 36.113 करोड़ किमी2 (13.943 करोड़ वर्ग मील) क्षेत्र समुद्र तल से नीचे है और जल से भरा हुआ है। महासागर की सतह के नीचे महाद्वीपीय शेल्फ का अधिक हिस्सा है, महासागर की सतह, महाद्वीपीय शेल्फ, पर्वत, ज्वालामुखी, समुद्री खन्दक, समुद्री-तल दर्रे, महासागरीय पठार, अथाह मैदानी इलाके, और मध्य महासागर रिड्ज प्रणाली से बहरी पड़ी हैं। शेष 29.2% (14.894 करोड़ किमी2, या 5.751 करोड़ वर्ग मील) जोकि पानी से ढँका हुआ नहीं है, जगह-जगह पर बहुत भिन्न है और पहाड़ों, रेगिस्तान, मैदानी, पठारों और अन्य भू-प्राकृतिक रूप में बँटा हुआ हैं। भूगर्भीय समय पर धरती की सतह को लगातार नयी आकृति प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं में विवर्तनिकी और क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, अपक्षय, हिमाच्छेद, प्रवाल भित्तियों का विकास, और उल्कात्मक प्रभाव इत्यादि सम्मलित हैं। महाद्वीपीय परत, कम घनत्व वाली सामग्री जैसे कि अग्निमय चट्टानों ग्रेनाइट और एंडसाइट के बने होते हैं। वही बेसाल्ट प्रायः काम पाए जाने वाला, एक सघन ज्वालामुखीय चट्टान हैं जोकि समुद्र के तल का मुख्य घटक है। अवसादी शैल, तलछट के संचय बनती है जोकि एक साथ दफन और समेकित हो जाती है। महाद्वीपीय सतहों का लगभग 75% भाग अवसादी शैल से ढका हुआ हैं, हालांकि यह सम्पूर्ण भू-पपटल का लगभग 5% हिस्सा ही हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले चट्टानों का तीसरा रूप कायांतरित शैल है, जोकि पूर्व-मौजूदा शैल के उच्च दबावों, उच्च तापमान या दोनों के कारण से परिवर्तित होकर बनता है। | पृथ्वी का औसत व्यास कितना है ? | 12,742 | prithvi kaa ausat vyas kitna he ? |
पृथ्वी की आकृति अण्डाकार है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है। भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से 43 किलोमीटर (27 मील) ज्यादा बड़ा है। इस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र से सतह की सबसे लम्बी दूरी, इक्वाडोर के भूमध्यवर्ती चिम्बोराज़ो ज्वालामुखी का शिखर तक की है। इस प्रकार पृथ्वी का औसत व्यास 12,742 किलोमीटर (7, 918 मील) है। कई जगहों की स्थलाकृति इस आदर्श पैमाने से अलग नजर आती हैं हालाँकि वैश्विक पैमाने पर यह पृथ्वी के त्रिज्या की तुलना नजरअंदाज ही दिखाई देता है: सबसे अधिकतम विचलन 0.17% का मारियाना गर्त (समुद्रीस्तर से 10,911 मीटर (35,797 फुट) नीचे) में है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट (समुद्र स्तर से 8,848 मीटर (29,029 फीट) ऊपर) 0.14% का विचलन दर्शाता है। यदि पृथ्वी, एक बिलियर्ड गेंद के आकार में सिकुड़ जाये तो, पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों जैसे बड़े पर्वत शृंखलाएँ और महासागरीय खाईयाँ, छोटे खाइयों की तरह महसूस होंगे, जबकि ग्रह का अधिकतर भू-भाग, जैसे विशाल हरे मैदान और सूखे पठार आदि, चिकने महसूस होंगे. धरती का घनत्व पूरे सौरमंडल मे सबसे ज्यादा है। बाकी चट्टानी ग्रह की संरचना कुछ अंतरो के साथ पृथ्वी के जैसी ही है। चन्द्रमा का केन्द्रक छोटा है, बुध का केन्द्र उसके कुल आकार की तुलना मे विशाल है, मंगल और चंद्रमा का मैंटल कुछ मोटा है, चन्द्रमा और बुध मे रासायनिक रूप से भिन्न भूपटल नही है, सिर्फ पृथ्वी का अंत: और बाह्य मैंटल परत अलग है। ध्यान दे कि ग्रहो (पृथ्वी भी) की आंतरिक संरचना के बारे मे हमारा ज्ञान सैद्धांतिक ही है। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना शल्कीय अर्थात परतों के रूप में है जैसे प्याज के छिलके परतों के रूप में होते हैं। इन परतों की मोटाई का सीमांकन रासायनिक विशेषताओं अथवा यान्त्रिक विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी, स्थलमण्डल, दुर्बलता मण्डल, मध्यवर्ती आवरण, बाह्य सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) से बना हुआ हैं। रासायनिक संरचना के आधार पर इसे भूपर्पटी, ऊपरी आवरण, निचला आवरण, बाहरी सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) में बाँटा गया है। पृथ्वी की ऊपरी परत भूपर्पटी एक ठोस परत है, मध्यवर्ती आवरण अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य सत्व(कोर) तरल तथा आन्तरिक सत्व(कोर) ठोस अवस्था में है। आन्तरिक सत्व(कोर) की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या की लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। पृथ्वी के अन्तरतम की यह परतदार संरचना भूकम्पीय तरंगों के संचलन और उनके परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन पर आधारित है जिनका अध्ययन भूकम्पलेखी के आँकड़ों से किया जाता है। भूकम्प द्वारा उत्पन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगें पृथ्वी के अन्दर स्नेल के नियम के अनुसार प्रत्यावर्तित होकर वक्राकार पथ पर चलती हैं। जब दो परतों के बीच घनत्व अथवा रासायनिक संरचना का अचानक परिवर्तन होता है तो तरंगों की कुछ ऊर्जा वहाँ से परावर्तित हो जाती है। परतों के बीच ऐसी जगहों को दरार कहते हैं। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी का स्रोतों को दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष स्रोत, जैसे ज्वालामुखी से निकले पदार्थो का अध्ययन, वेधन से प्राप्त आँकड़े इत्यादि, कम गहराई तक ही जानकारी उपलब्ध करा पते हैं। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष स्रोत के रूप में भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन अधिक गहराई की विशेषताओं के बारे में जानकारी देता है। पृथ्वी की आंतरिक गर्मी, अवशिष्ट गर्मी के संयोजन से आती है ग्रहों में अनुवृद्धि से (लगभग 20%) और रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से (80%) ऊष्मा उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी के भीतर, प्रमुख ताप उत्पादक समस्थानिक (आइसोटोप) में पोटेशियम-40, यूरेनियम-238 और थोरियम-232 सम्मलित है। पृथ्वी के केन्द्र का तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस (10,830 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक हो सकता है, और दबाव 360 जीपीए तक पहुंच सकता है। क्योंकि सबसे अधिक गर्मी रेडियोधर्मी क्षय द्वारा उत्पन्न होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, कम या आधा-जीवन के समस्थानिक के समाप्त होने से पहले, पृथ्वी का ऊष्मा उत्पादन बहुत अधिक था। धरती से औसतन ऊष्मा का क्षय 87 एमडब्ल्यू एम -2 है, वही वैश्विक ऊष्मा का क्षय 4.42×1013 डब्ल्यू हैं। कोर की थर्मल ऊर्जा का एक हिस्सा मेंटल प्लम्स द्वारा पृष्ठभागो की ओर ले जाया जाता है, इन प्लम्स से प्रबल ऊर्जबिन्दु तथा असिताश्म बाढ़ का निर्माण होता है। ऊष्माक्षय का अंतिम प्रमुख माध्यम लिथोस्फियर से प्रवाहकत्त्व के माध्यम से होता है, जिसमे से अधिकांश महासागरों के नीचे होता है क्योंकि यहाँ भु-पपर्टी, महाद्वीपों की तुलना में बहुत पतली होती है। पृथ्वी का कठोर भूपटल कुछ ठोस प्लेटो मे विभाजित है जो निचले द्रव मैंटल पर स्वतण्त्र रूप से बहते रहते है, जिन्हें विवर्तनिक प्लेटें कहते है। ये प्लेटें, एक कठोर खण्ड की तरह हैं जोकि परस्पर तीन प्रकार की सीमाओं से एक दूसरे की ओर बढ़ते हैं: अभिसरण सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें एक साथ आती हैं, भिन्न सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें अलग हो जाती हैं, और सीमाओं को बदलना, जिसमें दो प्लेटें एक दूसरे के ऊपर-नीचे स्लाइड करती हैं। इन प्लेट सीमाओं पर भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, पहाड़-निर्माण, और समुद्री खाई का निर्माण हो सकता है। जैसे ही विवर्तनिक प्लेटों स्थानान्तरित होती हैं, अभिसरण सीमाओं पर महासागर की परत किनारों के नीचे घटती जाती है। उसी समय, भिन्न सीमाएं से ऊपर आने का प्रयास करती मेन्टल पदार्थ, मध्य-समुद्र में उभार बना देती है। इन प्रक्रियाओं के संयोजन से समुद्र की परत फिर से मेन्टल में पुनर्नवीनीकरण हो जाती हैं। इन्हीं पुनर्नवीनीकरण के कारण, अधिकांश समुद्र की परत की उम्र 100 मेगा-साल से भी कम हैं। सबसे पुराना समुद्री परत पश्चिमी प्रशान्त सागर में स्थित है जिसकी अनुमानित आयु 200 मेगा-साल है। (वर्तमान में) आठ प्रमुख प्लेट:पृथ्वी की कुल सतह क्षेत्र लगभग 51 करोड़ किमी2 (19.7 करोड़ वर्ग मील) है। जिसमे से 70.8%, या 36.113 करोड़ किमी2 (13.943 करोड़ वर्ग मील) क्षेत्र समुद्र तल से नीचे है और जल से भरा हुआ है। महासागर की सतह के नीचे महाद्वीपीय शेल्फ का अधिक हिस्सा है, महासागर की सतह, महाद्वीपीय शेल्फ, पर्वत, ज्वालामुखी, समुद्री खन्दक, समुद्री-तल दर्रे, महासागरीय पठार, अथाह मैदानी इलाके, और मध्य महासागर रिड्ज प्रणाली से बहरी पड़ी हैं। शेष 29.2% (14.894 करोड़ किमी2, या 5.751 करोड़ वर्ग मील) जोकि पानी से ढँका हुआ नहीं है, जगह-जगह पर बहुत भिन्न है और पहाड़ों, रेगिस्तान, मैदानी, पठारों और अन्य भू-प्राकृतिक रूप में बँटा हुआ हैं। भूगर्भीय समय पर धरती की सतह को लगातार नयी आकृति प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं में विवर्तनिकी और क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, अपक्षय, हिमाच्छेद, प्रवाल भित्तियों का विकास, और उल्कात्मक प्रभाव इत्यादि सम्मलित हैं। महाद्वीपीय परत, कम घनत्व वाली सामग्री जैसे कि अग्निमय चट्टानों ग्रेनाइट और एंडसाइट के बने होते हैं। वही बेसाल्ट प्रायः काम पाए जाने वाला, एक सघन ज्वालामुखीय चट्टान हैं जोकि समुद्र के तल का मुख्य घटक है। अवसादी शैल, तलछट के संचय बनती है जोकि एक साथ दफन और समेकित हो जाती है। महाद्वीपीय सतहों का लगभग 75% भाग अवसादी शैल से ढका हुआ हैं, हालांकि यह सम्पूर्ण भू-पपटल का लगभग 5% हिस्सा ही हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले चट्टानों का तीसरा रूप कायांतरित शैल है, जोकि पूर्व-मौजूदा शैल के उच्च दबावों, उच्च तापमान या दोनों के कारण से परिवर्तित होकर बनता है। | सबसे पुराना समुद्र तल पृथ्वी के किस भाग में स्थित है ? | पश्चिमी प्रशान्त सागर | sabase purana samudr tal prithvi ke kis bhaag main sthit he ? |
पृथ्वी की आकृति अण्डाकार है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है। भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से 43 किलोमीटर (27 मील) ज्यादा बड़ा है। इस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र से सतह की सबसे लम्बी दूरी, इक्वाडोर के भूमध्यवर्ती चिम्बोराज़ो ज्वालामुखी का शिखर तक की है। इस प्रकार पृथ्वी का औसत व्यास 12,742 किलोमीटर (7, 918 मील) है। कई जगहों की स्थलाकृति इस आदर्श पैमाने से अलग नजर आती हैं हालाँकि वैश्विक पैमाने पर यह पृथ्वी के त्रिज्या की तुलना नजरअंदाज ही दिखाई देता है: सबसे अधिकतम विचलन 0.17% का मारियाना गर्त (समुद्रीस्तर से 10,911 मीटर (35,797 फुट) नीचे) में है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट (समुद्र स्तर से 8,848 मीटर (29,029 फीट) ऊपर) 0.14% का विचलन दर्शाता है। यदि पृथ्वी, एक बिलियर्ड गेंद के आकार में सिकुड़ जाये तो, पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों जैसे बड़े पर्वत शृंखलाएँ और महासागरीय खाईयाँ, छोटे खाइयों की तरह महसूस होंगे, जबकि ग्रह का अधिकतर भू-भाग, जैसे विशाल हरे मैदान और सूखे पठार आदि, चिकने महसूस होंगे. धरती का घनत्व पूरे सौरमंडल मे सबसे ज्यादा है। बाकी चट्टानी ग्रह की संरचना कुछ अंतरो के साथ पृथ्वी के जैसी ही है। चन्द्रमा का केन्द्रक छोटा है, बुध का केन्द्र उसके कुल आकार की तुलना मे विशाल है, मंगल और चंद्रमा का मैंटल कुछ मोटा है, चन्द्रमा और बुध मे रासायनिक रूप से भिन्न भूपटल नही है, सिर्फ पृथ्वी का अंत: और बाह्य मैंटल परत अलग है। ध्यान दे कि ग्रहो (पृथ्वी भी) की आंतरिक संरचना के बारे मे हमारा ज्ञान सैद्धांतिक ही है। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना शल्कीय अर्थात परतों के रूप में है जैसे प्याज के छिलके परतों के रूप में होते हैं। इन परतों की मोटाई का सीमांकन रासायनिक विशेषताओं अथवा यान्त्रिक विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी, स्थलमण्डल, दुर्बलता मण्डल, मध्यवर्ती आवरण, बाह्य सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) से बना हुआ हैं। रासायनिक संरचना के आधार पर इसे भूपर्पटी, ऊपरी आवरण, निचला आवरण, बाहरी सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) में बाँटा गया है। पृथ्वी की ऊपरी परत भूपर्पटी एक ठोस परत है, मध्यवर्ती आवरण अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य सत्व(कोर) तरल तथा आन्तरिक सत्व(कोर) ठोस अवस्था में है। आन्तरिक सत्व(कोर) की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या की लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। पृथ्वी के अन्तरतम की यह परतदार संरचना भूकम्पीय तरंगों के संचलन और उनके परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन पर आधारित है जिनका अध्ययन भूकम्पलेखी के आँकड़ों से किया जाता है। भूकम्प द्वारा उत्पन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगें पृथ्वी के अन्दर स्नेल के नियम के अनुसार प्रत्यावर्तित होकर वक्राकार पथ पर चलती हैं। जब दो परतों के बीच घनत्व अथवा रासायनिक संरचना का अचानक परिवर्तन होता है तो तरंगों की कुछ ऊर्जा वहाँ से परावर्तित हो जाती है। परतों के बीच ऐसी जगहों को दरार कहते हैं। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी का स्रोतों को दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष स्रोत, जैसे ज्वालामुखी से निकले पदार्थो का अध्ययन, वेधन से प्राप्त आँकड़े इत्यादि, कम गहराई तक ही जानकारी उपलब्ध करा पते हैं। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष स्रोत के रूप में भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन अधिक गहराई की विशेषताओं के बारे में जानकारी देता है। पृथ्वी की आंतरिक गर्मी, अवशिष्ट गर्मी के संयोजन से आती है ग्रहों में अनुवृद्धि से (लगभग 20%) और रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से (80%) ऊष्मा उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी के भीतर, प्रमुख ताप उत्पादक समस्थानिक (आइसोटोप) में पोटेशियम-40, यूरेनियम-238 और थोरियम-232 सम्मलित है। पृथ्वी के केन्द्र का तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस (10,830 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक हो सकता है, और दबाव 360 जीपीए तक पहुंच सकता है। क्योंकि सबसे अधिक गर्मी रेडियोधर्मी क्षय द्वारा उत्पन्न होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, कम या आधा-जीवन के समस्थानिक के समाप्त होने से पहले, पृथ्वी का ऊष्मा उत्पादन बहुत अधिक था। धरती से औसतन ऊष्मा का क्षय 87 एमडब्ल्यू एम -2 है, वही वैश्विक ऊष्मा का क्षय 4.42×1013 डब्ल्यू हैं। कोर की थर्मल ऊर्जा का एक हिस्सा मेंटल प्लम्स द्वारा पृष्ठभागो की ओर ले जाया जाता है, इन प्लम्स से प्रबल ऊर्जबिन्दु तथा असिताश्म बाढ़ का निर्माण होता है। ऊष्माक्षय का अंतिम प्रमुख माध्यम लिथोस्फियर से प्रवाहकत्त्व के माध्यम से होता है, जिसमे से अधिकांश महासागरों के नीचे होता है क्योंकि यहाँ भु-पपर्टी, महाद्वीपों की तुलना में बहुत पतली होती है। पृथ्वी का कठोर भूपटल कुछ ठोस प्लेटो मे विभाजित है जो निचले द्रव मैंटल पर स्वतण्त्र रूप से बहते रहते है, जिन्हें विवर्तनिक प्लेटें कहते है। ये प्लेटें, एक कठोर खण्ड की तरह हैं जोकि परस्पर तीन प्रकार की सीमाओं से एक दूसरे की ओर बढ़ते हैं: अभिसरण सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें एक साथ आती हैं, भिन्न सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें अलग हो जाती हैं, और सीमाओं को बदलना, जिसमें दो प्लेटें एक दूसरे के ऊपर-नीचे स्लाइड करती हैं। इन प्लेट सीमाओं पर भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, पहाड़-निर्माण, और समुद्री खाई का निर्माण हो सकता है। जैसे ही विवर्तनिक प्लेटों स्थानान्तरित होती हैं, अभिसरण सीमाओं पर महासागर की परत किनारों के नीचे घटती जाती है। उसी समय, भिन्न सीमाएं से ऊपर आने का प्रयास करती मेन्टल पदार्थ, मध्य-समुद्र में उभार बना देती है। इन प्रक्रियाओं के संयोजन से समुद्र की परत फिर से मेन्टल में पुनर्नवीनीकरण हो जाती हैं। इन्हीं पुनर्नवीनीकरण के कारण, अधिकांश समुद्र की परत की उम्र 100 मेगा-साल से भी कम हैं। सबसे पुराना समुद्री परत पश्चिमी प्रशान्त सागर में स्थित है जिसकी अनुमानित आयु 200 मेगा-साल है। (वर्तमान में) आठ प्रमुख प्लेट:पृथ्वी की कुल सतह क्षेत्र लगभग 51 करोड़ किमी2 (19.7 करोड़ वर्ग मील) है। जिसमे से 70.8%, या 36.113 करोड़ किमी2 (13.943 करोड़ वर्ग मील) क्षेत्र समुद्र तल से नीचे है और जल से भरा हुआ है। महासागर की सतह के नीचे महाद्वीपीय शेल्फ का अधिक हिस्सा है, महासागर की सतह, महाद्वीपीय शेल्फ, पर्वत, ज्वालामुखी, समुद्री खन्दक, समुद्री-तल दर्रे, महासागरीय पठार, अथाह मैदानी इलाके, और मध्य महासागर रिड्ज प्रणाली से बहरी पड़ी हैं। शेष 29.2% (14.894 करोड़ किमी2, या 5.751 करोड़ वर्ग मील) जोकि पानी से ढँका हुआ नहीं है, जगह-जगह पर बहुत भिन्न है और पहाड़ों, रेगिस्तान, मैदानी, पठारों और अन्य भू-प्राकृतिक रूप में बँटा हुआ हैं। भूगर्भीय समय पर धरती की सतह को लगातार नयी आकृति प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं में विवर्तनिकी और क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, अपक्षय, हिमाच्छेद, प्रवाल भित्तियों का विकास, और उल्कात्मक प्रभाव इत्यादि सम्मलित हैं। महाद्वीपीय परत, कम घनत्व वाली सामग्री जैसे कि अग्निमय चट्टानों ग्रेनाइट और एंडसाइट के बने होते हैं। वही बेसाल्ट प्रायः काम पाए जाने वाला, एक सघन ज्वालामुखीय चट्टान हैं जोकि समुद्र के तल का मुख्य घटक है। अवसादी शैल, तलछट के संचय बनती है जोकि एक साथ दफन और समेकित हो जाती है। महाद्वीपीय सतहों का लगभग 75% भाग अवसादी शैल से ढका हुआ हैं, हालांकि यह सम्पूर्ण भू-पपटल का लगभग 5% हिस्सा ही हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले चट्टानों का तीसरा रूप कायांतरित शैल है, जोकि पूर्व-मौजूदा शैल के उच्च दबावों, उच्च तापमान या दोनों के कारण से परिवर्तित होकर बनता है। | माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई कितनी है ? | 29,029 फीट | mount everest kii oonchai kitni he ? |
पृथ्वी की आकृति अण्डाकार है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है। भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से 43 किलोमीटर (27 मील) ज्यादा बड़ा है। इस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र से सतह की सबसे लम्बी दूरी, इक्वाडोर के भूमध्यवर्ती चिम्बोराज़ो ज्वालामुखी का शिखर तक की है। इस प्रकार पृथ्वी का औसत व्यास 12,742 किलोमीटर (7, 918 मील) है। कई जगहों की स्थलाकृति इस आदर्श पैमाने से अलग नजर आती हैं हालाँकि वैश्विक पैमाने पर यह पृथ्वी के त्रिज्या की तुलना नजरअंदाज ही दिखाई देता है: सबसे अधिकतम विचलन 0.17% का मारियाना गर्त (समुद्रीस्तर से 10,911 मीटर (35,797 फुट) नीचे) में है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट (समुद्र स्तर से 8,848 मीटर (29,029 फीट) ऊपर) 0.14% का विचलन दर्शाता है। यदि पृथ्वी, एक बिलियर्ड गेंद के आकार में सिकुड़ जाये तो, पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों जैसे बड़े पर्वत शृंखलाएँ और महासागरीय खाईयाँ, छोटे खाइयों की तरह महसूस होंगे, जबकि ग्रह का अधिकतर भू-भाग, जैसे विशाल हरे मैदान और सूखे पठार आदि, चिकने महसूस होंगे. धरती का घनत्व पूरे सौरमंडल मे सबसे ज्यादा है। बाकी चट्टानी ग्रह की संरचना कुछ अंतरो के साथ पृथ्वी के जैसी ही है। चन्द्रमा का केन्द्रक छोटा है, बुध का केन्द्र उसके कुल आकार की तुलना मे विशाल है, मंगल और चंद्रमा का मैंटल कुछ मोटा है, चन्द्रमा और बुध मे रासायनिक रूप से भिन्न भूपटल नही है, सिर्फ पृथ्वी का अंत: और बाह्य मैंटल परत अलग है। ध्यान दे कि ग्रहो (पृथ्वी भी) की आंतरिक संरचना के बारे मे हमारा ज्ञान सैद्धांतिक ही है। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना शल्कीय अर्थात परतों के रूप में है जैसे प्याज के छिलके परतों के रूप में होते हैं। इन परतों की मोटाई का सीमांकन रासायनिक विशेषताओं अथवा यान्त्रिक विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी, स्थलमण्डल, दुर्बलता मण्डल, मध्यवर्ती आवरण, बाह्य सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) से बना हुआ हैं। रासायनिक संरचना के आधार पर इसे भूपर्पटी, ऊपरी आवरण, निचला आवरण, बाहरी सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) में बाँटा गया है। पृथ्वी की ऊपरी परत भूपर्पटी एक ठोस परत है, मध्यवर्ती आवरण अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य सत्व(कोर) तरल तथा आन्तरिक सत्व(कोर) ठोस अवस्था में है। आन्तरिक सत्व(कोर) की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या की लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। पृथ्वी के अन्तरतम की यह परतदार संरचना भूकम्पीय तरंगों के संचलन और उनके परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन पर आधारित है जिनका अध्ययन भूकम्पलेखी के आँकड़ों से किया जाता है। भूकम्प द्वारा उत्पन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगें पृथ्वी के अन्दर स्नेल के नियम के अनुसार प्रत्यावर्तित होकर वक्राकार पथ पर चलती हैं। जब दो परतों के बीच घनत्व अथवा रासायनिक संरचना का अचानक परिवर्तन होता है तो तरंगों की कुछ ऊर्जा वहाँ से परावर्तित हो जाती है। परतों के बीच ऐसी जगहों को दरार कहते हैं। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी का स्रोतों को दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष स्रोत, जैसे ज्वालामुखी से निकले पदार्थो का अध्ययन, वेधन से प्राप्त आँकड़े इत्यादि, कम गहराई तक ही जानकारी उपलब्ध करा पते हैं। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष स्रोत के रूप में भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन अधिक गहराई की विशेषताओं के बारे में जानकारी देता है। पृथ्वी की आंतरिक गर्मी, अवशिष्ट गर्मी के संयोजन से आती है ग्रहों में अनुवृद्धि से (लगभग 20%) और रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से (80%) ऊष्मा उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी के भीतर, प्रमुख ताप उत्पादक समस्थानिक (आइसोटोप) में पोटेशियम-40, यूरेनियम-238 और थोरियम-232 सम्मलित है। पृथ्वी के केन्द्र का तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस (10,830 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक हो सकता है, और दबाव 360 जीपीए तक पहुंच सकता है। क्योंकि सबसे अधिक गर्मी रेडियोधर्मी क्षय द्वारा उत्पन्न होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, कम या आधा-जीवन के समस्थानिक के समाप्त होने से पहले, पृथ्वी का ऊष्मा उत्पादन बहुत अधिक था। धरती से औसतन ऊष्मा का क्षय 87 एमडब्ल्यू एम -2 है, वही वैश्विक ऊष्मा का क्षय 4.42×1013 डब्ल्यू हैं। कोर की थर्मल ऊर्जा का एक हिस्सा मेंटल प्लम्स द्वारा पृष्ठभागो की ओर ले जाया जाता है, इन प्लम्स से प्रबल ऊर्जबिन्दु तथा असिताश्म बाढ़ का निर्माण होता है। ऊष्माक्षय का अंतिम प्रमुख माध्यम लिथोस्फियर से प्रवाहकत्त्व के माध्यम से होता है, जिसमे से अधिकांश महासागरों के नीचे होता है क्योंकि यहाँ भु-पपर्टी, महाद्वीपों की तुलना में बहुत पतली होती है। पृथ्वी का कठोर भूपटल कुछ ठोस प्लेटो मे विभाजित है जो निचले द्रव मैंटल पर स्वतण्त्र रूप से बहते रहते है, जिन्हें विवर्तनिक प्लेटें कहते है। ये प्लेटें, एक कठोर खण्ड की तरह हैं जोकि परस्पर तीन प्रकार की सीमाओं से एक दूसरे की ओर बढ़ते हैं: अभिसरण सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें एक साथ आती हैं, भिन्न सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें अलग हो जाती हैं, और सीमाओं को बदलना, जिसमें दो प्लेटें एक दूसरे के ऊपर-नीचे स्लाइड करती हैं। इन प्लेट सीमाओं पर भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, पहाड़-निर्माण, और समुद्री खाई का निर्माण हो सकता है। जैसे ही विवर्तनिक प्लेटों स्थानान्तरित होती हैं, अभिसरण सीमाओं पर महासागर की परत किनारों के नीचे घटती जाती है। उसी समय, भिन्न सीमाएं से ऊपर आने का प्रयास करती मेन्टल पदार्थ, मध्य-समुद्र में उभार बना देती है। इन प्रक्रियाओं के संयोजन से समुद्र की परत फिर से मेन्टल में पुनर्नवीनीकरण हो जाती हैं। इन्हीं पुनर्नवीनीकरण के कारण, अधिकांश समुद्र की परत की उम्र 100 मेगा-साल से भी कम हैं। सबसे पुराना समुद्री परत पश्चिमी प्रशान्त सागर में स्थित है जिसकी अनुमानित आयु 200 मेगा-साल है। (वर्तमान में) आठ प्रमुख प्लेट:पृथ्वी की कुल सतह क्षेत्र लगभग 51 करोड़ किमी2 (19.7 करोड़ वर्ग मील) है। जिसमे से 70.8%, या 36.113 करोड़ किमी2 (13.943 करोड़ वर्ग मील) क्षेत्र समुद्र तल से नीचे है और जल से भरा हुआ है। महासागर की सतह के नीचे महाद्वीपीय शेल्फ का अधिक हिस्सा है, महासागर की सतह, महाद्वीपीय शेल्फ, पर्वत, ज्वालामुखी, समुद्री खन्दक, समुद्री-तल दर्रे, महासागरीय पठार, अथाह मैदानी इलाके, और मध्य महासागर रिड्ज प्रणाली से बहरी पड़ी हैं। शेष 29.2% (14.894 करोड़ किमी2, या 5.751 करोड़ वर्ग मील) जोकि पानी से ढँका हुआ नहीं है, जगह-जगह पर बहुत भिन्न है और पहाड़ों, रेगिस्तान, मैदानी, पठारों और अन्य भू-प्राकृतिक रूप में बँटा हुआ हैं। भूगर्भीय समय पर धरती की सतह को लगातार नयी आकृति प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं में विवर्तनिकी और क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, अपक्षय, हिमाच्छेद, प्रवाल भित्तियों का विकास, और उल्कात्मक प्रभाव इत्यादि सम्मलित हैं। महाद्वीपीय परत, कम घनत्व वाली सामग्री जैसे कि अग्निमय चट्टानों ग्रेनाइट और एंडसाइट के बने होते हैं। वही बेसाल्ट प्रायः काम पाए जाने वाला, एक सघन ज्वालामुखीय चट्टान हैं जोकि समुद्र के तल का मुख्य घटक है। अवसादी शैल, तलछट के संचय बनती है जोकि एक साथ दफन और समेकित हो जाती है। महाद्वीपीय सतहों का लगभग 75% भाग अवसादी शैल से ढका हुआ हैं, हालांकि यह सम्पूर्ण भू-पपटल का लगभग 5% हिस्सा ही हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले चट्टानों का तीसरा रूप कायांतरित शैल है, जोकि पूर्व-मौजूदा शैल के उच्च दबावों, उच्च तापमान या दोनों के कारण से परिवर्तित होकर बनता है। | पृथ्वी के केंद्र का अधिकतम तापमान कितना होता है ? | 6,000 डिग्री | prithvi ke centre kaa adhiktam taapmaana kitna hota he ? |
पेडोस्फीयर पृथ्वी की महाद्वीपीय सतह की सबसे बाहरी परत है और यह मिट्टी से बना हुआ है तथा मिट्टी के गठन की प्रक्रियाओं के अधीन है। कुल कृषि योग्य भूमि, भूमि की सतह का 10.9% हिस्सा है, जिसके 1.3% हिस्से पर स्थाईरूप से फसलें ली जाती हैं। धरती की 40% भूमि की सतह का उपयोग चारागाह और कृषि के लिए किया जाता है। पृथ्वी की सतह पर पानी की बहुतायत एक अनोखी विशेषता है जो सौर मंडल के अन्य ग्रहों से इस "नीले ग्रह" को अलग करती है। पृथ्वी के जलमंडल में मुख्यतः महासागर हैं, लेकिन तकनीकी रूप से दुनिया में उपस्थित अन्य जल के स्रोत जैसे: अंतर्देशीय समुद्र, झीलों, नदियों और 2,000 मीटर की गहराई तक भूमिगत जल सहित इसमें शामिल हैं। पानी के नीचे की सबसे गहरी जगह 10,911.4 मीटर की गहराई के साथ, प्रशान्त महासागर में मारियाना ट्रेंच की चैलेंजर डीप है। महासागरों का द्रव्यमान लगभग 1.35×1018 मीट्रिक टन या पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का 1/4400 हिस्सा है। महासागर औसतन 3682 मीटर की गहराई के साथ, 3.618×108 किमी2 का क्षेत्रफल में फैला हुआ है, जिसकी अनुमानित मात्रा 1.332 ×109 किमी3 हो सकती है। यदि सभी पृथ्वी की उबड़-खाबड़ सतह यदि एक समान चिकने क्षेत्र में के रूप में हो तो, महासागर की गहराई 2.7 से 2.8 किमी होगी। लगभग 97.5% पानी खारा है; शेष 2.5% ताजा पानी है, अधिकतर ताजा पानी, लगभग 68.7%, बर्फ के पहाड़ो और ग्लेशियरों के बर्फ के रूप में मौजूद है। पृथ्वी के महासागरों की औसत लवणता लगभग 35 ग्राम नमक प्रति किलोग्राम समुद्री जल (3.5% नमक) होती है। ये नमक अधिकांशत: ज्वालामुखीय गतिविधि से निकालकर या शांत अग्निमय चट्टानों से निकल कर सागर में मिलते हैं। महासागर विघटित वायुमण्डलीय गैसों के लिए एक भंडारण की तरह भी है, जो कई जलीय जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक हैं। समुद्रीजल विश्व के जलवायु के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, यह एक बड़े ऊष्मा संग्रह की तरह कार्य करता हैं। समुद्री तापमान वितरण में बदलाव, मौसम बदलाव में गड़बड़ी का कारण हो सकता हैं, जैसे; एल नीनो। पृथ्वी के वातावरण मे ७७% नाइट्रोजन, २१% आक्सीजन, और कुछ मात्रा मे आर्गन, कार्बन डाय आक्साईड और जल बाष्प है। पृथ्वी पर निर्माण के समय कार्बन डाय आक्साईड की मात्रा ज्यादा रही होगी जो चटटानो मे कार्बोनेट के रूप मे जम गयी, कुछ मात्रा मे सागर द्वारा अवशोषित कर ली गयी, शेष कुछ मात्रा जीवित प्राणियो द्वारा प्रयोग मे आ गयी होगी। प्लेट टेक्टानिक और जैविक गतिविधी कार्बन डाय आक्साईड का थोड़ी मात्रा का उत्त्सर्जन और अवशोषण करते रहते है। कार्बनडाय आक्साईड पृथ्वी के सतह का तापमान का ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा नियंत्रण करती है। ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा पृथ्वी सतह का तापमान 35 डिग्री सेल्सीयस होता है अन्यथा वह -21 डिग्री सेल्सीयस से 14 डिग्री सेल्सीयस रहता; इसके ना रहने पर समुद्र जम जाते और जीवन असम्भव हो जाता। जल बाष्प भी एक आवश्यक ग्रीन हाउस गैस है। रासायनिक दृष्टि से मुक्त आक्सीजन भी आवश्यक है। सामान्य परिस्थिती मे आक्सीजन विभिन्न तत्वो से क्रिया कर विभिन्न यौगिक बनाती है। पृथ्वी के वातावरण मे आक्सीजन का निर्माण और नियन्त्रण विभिन्न जैविक प्रक्रियाओ से होता है। जीवन के बिना मुक्त आक्सीजन सम्भव नही है। पृथ्वी के वायुमण्डल की कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह आकाश की ओर धीरे-धीरे पतला होता जाता है और बाह्य अन्तरिक्ष में लुप्त हो जाता है। वायुमण्डल के द्रव्यमान का तीन-चौथाई हिस्सा, सतह से 11 किमी (6.8 मील) के भीतर ही निहित है। सबसे निचले परत को ट्रोफोस्फीयर कहा जाता है। सूर्य की ऊर्जा से यह परत ओर इसके नीचे तपती है, और जिसके कारण हवा का विस्तार होता हैं। फिर यह कम-घनत्व वाली वायु ऊपर की ओर जाती है और एक ठण्डे, उच्च घनत्व वायु में प्रतिस्थापित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही वायुमण्डलीय परिसंचरण बनता है जो तापीय ऊर्जा के पुनर्वितरण के माध्यम से मौसम और जलवायु को चलाता है। प्राथमिक वायुमण्डलीय परिसंचरण पट्टी, 30° अक्षांश से नीचे के भूमध्य रेखा क्षेत्र में और 30° और 60° के बीच मध्य अक्षांशों में पच्छमी हवा की व्यापारिक पवन से मिलकर बने होते हैं। जलवायु के निर्धारण करने में महासागरीय धारायें भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं, विशेष रूप से थर्मोहेलिन परिसंचरण, जो भूमध्यवर्ती महासागरों से ध्रुवीय क्षेत्रों तक ऊष्मीय ऊर्जा वितरित करती है। सतही वाष्पीकरण से उत्पन्न जल वाष्प परिसंचरण तरीको द्वारा वातावरण में पहुँचाया जाता है। जब वायुमंडलीय स्थितियों के कारण गर्म, आर्द्र हवा ऊपर की ओर जाती है, तो यह वाष्प सघन हो वर्षा के रूप में पुनः सतह पर आ जाती हैं। तब अधिकांश पानी, नदी प्रणालियों द्वारा नीचे की ओर ले जाया जाता है और आम तौर पर महासागरों या झीलों में जमा हो जाती है। यह जल चक्र भूमि पर जीवन हेतु एक महत्वपूर्ण तंत्र है, और कालांतर में सतही क्षरण का एक प्राथमिक कारक है। वर्षा का वितरण व्यापक रूप से भिन्न हैं, कही पर कई मीटर पानी प्रति वर्ष तो कही पर एक मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती हैं। वायुमण्डलीय परिसंचरण, स्थलाकृतिक विशेषताएँ और तापमान में अन्तर, प्रत्येक क्षेत्र में औसत वर्षा का निर्धारण करती है। बढ़ते अक्षांश के साथ पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाली सौर ऊर्जा की मात्रा कम होते जाती है। उच्च अक्षांशों पर, सूरज की रोशनी निम्न कोण से सतह तक पहुँचती है, और इसे वातावरण के मोटे कतार के माध्यम से गुजरना होता हैं। परिणामस्वरूप, समुद्री स्तर पर औसत वार्षिक हवा का तापमान, भूमध्य रेखा की तुलना में अक्षांशो में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस (0.7 डिग्री फारेनहाइट) प्रति डिग्री कम होता है। पृथ्वी की सतह को विशिष्ट अक्षांशु पट्टी में, लगभग समरूप जलवायु से विभाजित किया जा सकता है। भूमध्य रेखा से लेकर ध्रुवीय क्षेत्रों तक, ये उष्णकटिबंधीय (या भूमध्य रेखा), उपोष्णकटिबंधीय, शीतोष्ण और ध्रुवीय जलवायु में बँटा हुआ हैं। इस अक्षांश के नियम में कई विसंगतियाँ हैं:महासागरों की निकटता जलवायु को नियंत्रित करती है। उदाहरण के लिए, स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप में उत्तरी कनाडा के समान उत्तरी अक्षांशों की तुलना में अधिक उदार जलवायु है। पृथ्वी का अपना चुम्बकीय क्षेत्र है जो कि बाह्य केन्द्रक के विद्युत प्रवाह से निर्मित होता है। सौर वायू, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र और उपरी वातावरण मीलकर औरोरा बनाते है। | पृथ्वी का कितना प्रतिशत पानी खारा है? | 97.5% | prithvi kaa kitna pratishat pani khaaraa he? |
पेडोस्फीयर पृथ्वी की महाद्वीपीय सतह की सबसे बाहरी परत है और यह मिट्टी से बना हुआ है तथा मिट्टी के गठन की प्रक्रियाओं के अधीन है। कुल कृषि योग्य भूमि, भूमि की सतह का 10.9% हिस्सा है, जिसके 1.3% हिस्से पर स्थाईरूप से फसलें ली जाती हैं। धरती की 40% भूमि की सतह का उपयोग चारागाह और कृषि के लिए किया जाता है। पृथ्वी की सतह पर पानी की बहुतायत एक अनोखी विशेषता है जो सौर मंडल के अन्य ग्रहों से इस "नीले ग्रह" को अलग करती है। पृथ्वी के जलमंडल में मुख्यतः महासागर हैं, लेकिन तकनीकी रूप से दुनिया में उपस्थित अन्य जल के स्रोत जैसे: अंतर्देशीय समुद्र, झीलों, नदियों और 2,000 मीटर की गहराई तक भूमिगत जल सहित इसमें शामिल हैं। पानी के नीचे की सबसे गहरी जगह 10,911.4 मीटर की गहराई के साथ, प्रशान्त महासागर में मारियाना ट्रेंच की चैलेंजर डीप है। महासागरों का द्रव्यमान लगभग 1.35×1018 मीट्रिक टन या पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का 1/4400 हिस्सा है। महासागर औसतन 3682 मीटर की गहराई के साथ, 3.618×108 किमी2 का क्षेत्रफल में फैला हुआ है, जिसकी अनुमानित मात्रा 1.332 ×109 किमी3 हो सकती है। यदि सभी पृथ्वी की उबड़-खाबड़ सतह यदि एक समान चिकने क्षेत्र में के रूप में हो तो, महासागर की गहराई 2.7 से 2.8 किमी होगी। लगभग 97.5% पानी खारा है; शेष 2.5% ताजा पानी है, अधिकतर ताजा पानी, लगभग 68.7%, बर्फ के पहाड़ो और ग्लेशियरों के बर्फ के रूप में मौजूद है। पृथ्वी के महासागरों की औसत लवणता लगभग 35 ग्राम नमक प्रति किलोग्राम समुद्री जल (3.5% नमक) होती है। ये नमक अधिकांशत: ज्वालामुखीय गतिविधि से निकालकर या शांत अग्निमय चट्टानों से निकल कर सागर में मिलते हैं। महासागर विघटित वायुमण्डलीय गैसों के लिए एक भंडारण की तरह भी है, जो कई जलीय जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक हैं। समुद्रीजल विश्व के जलवायु के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, यह एक बड़े ऊष्मा संग्रह की तरह कार्य करता हैं। समुद्री तापमान वितरण में बदलाव, मौसम बदलाव में गड़बड़ी का कारण हो सकता हैं, जैसे; एल नीनो। पृथ्वी के वातावरण मे ७७% नाइट्रोजन, २१% आक्सीजन, और कुछ मात्रा मे आर्गन, कार्बन डाय आक्साईड और जल बाष्प है। पृथ्वी पर निर्माण के समय कार्बन डाय आक्साईड की मात्रा ज्यादा रही होगी जो चटटानो मे कार्बोनेट के रूप मे जम गयी, कुछ मात्रा मे सागर द्वारा अवशोषित कर ली गयी, शेष कुछ मात्रा जीवित प्राणियो द्वारा प्रयोग मे आ गयी होगी। प्लेट टेक्टानिक और जैविक गतिविधी कार्बन डाय आक्साईड का थोड़ी मात्रा का उत्त्सर्जन और अवशोषण करते रहते है। कार्बनडाय आक्साईड पृथ्वी के सतह का तापमान का ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा नियंत्रण करती है। ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा पृथ्वी सतह का तापमान 35 डिग्री सेल्सीयस होता है अन्यथा वह -21 डिग्री सेल्सीयस से 14 डिग्री सेल्सीयस रहता; इसके ना रहने पर समुद्र जम जाते और जीवन असम्भव हो जाता। जल बाष्प भी एक आवश्यक ग्रीन हाउस गैस है। रासायनिक दृष्टि से मुक्त आक्सीजन भी आवश्यक है। सामान्य परिस्थिती मे आक्सीजन विभिन्न तत्वो से क्रिया कर विभिन्न यौगिक बनाती है। पृथ्वी के वातावरण मे आक्सीजन का निर्माण और नियन्त्रण विभिन्न जैविक प्रक्रियाओ से होता है। जीवन के बिना मुक्त आक्सीजन सम्भव नही है। पृथ्वी के वायुमण्डल की कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह आकाश की ओर धीरे-धीरे पतला होता जाता है और बाह्य अन्तरिक्ष में लुप्त हो जाता है। वायुमण्डल के द्रव्यमान का तीन-चौथाई हिस्सा, सतह से 11 किमी (6.8 मील) के भीतर ही निहित है। सबसे निचले परत को ट्रोफोस्फीयर कहा जाता है। सूर्य की ऊर्जा से यह परत ओर इसके नीचे तपती है, और जिसके कारण हवा का विस्तार होता हैं। फिर यह कम-घनत्व वाली वायु ऊपर की ओर जाती है और एक ठण्डे, उच्च घनत्व वायु में प्रतिस्थापित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही वायुमण्डलीय परिसंचरण बनता है जो तापीय ऊर्जा के पुनर्वितरण के माध्यम से मौसम और जलवायु को चलाता है। प्राथमिक वायुमण्डलीय परिसंचरण पट्टी, 30° अक्षांश से नीचे के भूमध्य रेखा क्षेत्र में और 30° और 60° के बीच मध्य अक्षांशों में पच्छमी हवा की व्यापारिक पवन से मिलकर बने होते हैं। जलवायु के निर्धारण करने में महासागरीय धारायें भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं, विशेष रूप से थर्मोहेलिन परिसंचरण, जो भूमध्यवर्ती महासागरों से ध्रुवीय क्षेत्रों तक ऊष्मीय ऊर्जा वितरित करती है। सतही वाष्पीकरण से उत्पन्न जल वाष्प परिसंचरण तरीको द्वारा वातावरण में पहुँचाया जाता है। जब वायुमंडलीय स्थितियों के कारण गर्म, आर्द्र हवा ऊपर की ओर जाती है, तो यह वाष्प सघन हो वर्षा के रूप में पुनः सतह पर आ जाती हैं। तब अधिकांश पानी, नदी प्रणालियों द्वारा नीचे की ओर ले जाया जाता है और आम तौर पर महासागरों या झीलों में जमा हो जाती है। यह जल चक्र भूमि पर जीवन हेतु एक महत्वपूर्ण तंत्र है, और कालांतर में सतही क्षरण का एक प्राथमिक कारक है। वर्षा का वितरण व्यापक रूप से भिन्न हैं, कही पर कई मीटर पानी प्रति वर्ष तो कही पर एक मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती हैं। वायुमण्डलीय परिसंचरण, स्थलाकृतिक विशेषताएँ और तापमान में अन्तर, प्रत्येक क्षेत्र में औसत वर्षा का निर्धारण करती है। बढ़ते अक्षांश के साथ पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाली सौर ऊर्जा की मात्रा कम होते जाती है। उच्च अक्षांशों पर, सूरज की रोशनी निम्न कोण से सतह तक पहुँचती है, और इसे वातावरण के मोटे कतार के माध्यम से गुजरना होता हैं। परिणामस्वरूप, समुद्री स्तर पर औसत वार्षिक हवा का तापमान, भूमध्य रेखा की तुलना में अक्षांशो में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस (0.7 डिग्री फारेनहाइट) प्रति डिग्री कम होता है। पृथ्वी की सतह को विशिष्ट अक्षांशु पट्टी में, लगभग समरूप जलवायु से विभाजित किया जा सकता है। भूमध्य रेखा से लेकर ध्रुवीय क्षेत्रों तक, ये उष्णकटिबंधीय (या भूमध्य रेखा), उपोष्णकटिबंधीय, शीतोष्ण और ध्रुवीय जलवायु में बँटा हुआ हैं। इस अक्षांश के नियम में कई विसंगतियाँ हैं:महासागरों की निकटता जलवायु को नियंत्रित करती है। उदाहरण के लिए, स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप में उत्तरी कनाडा के समान उत्तरी अक्षांशों की तुलना में अधिक उदार जलवायु है। पृथ्वी का अपना चुम्बकीय क्षेत्र है जो कि बाह्य केन्द्रक के विद्युत प्रवाह से निर्मित होता है। सौर वायू, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र और उपरी वातावरण मीलकर औरोरा बनाते है। | पृथ्वी के वायुमंडल में कितनी प्रतिशत नाइट्रोजन है? | ७७% नाइट्रोजन | prithvi ke vayumandal main kitni pratishat nitrogen he? |
पेडोस्फीयर पृथ्वी की महाद्वीपीय सतह की सबसे बाहरी परत है और यह मिट्टी से बना हुआ है तथा मिट्टी के गठन की प्रक्रियाओं के अधीन है। कुल कृषि योग्य भूमि, भूमि की सतह का 10.9% हिस्सा है, जिसके 1.3% हिस्से पर स्थाईरूप से फसलें ली जाती हैं। धरती की 40% भूमि की सतह का उपयोग चारागाह और कृषि के लिए किया जाता है। पृथ्वी की सतह पर पानी की बहुतायत एक अनोखी विशेषता है जो सौर मंडल के अन्य ग्रहों से इस "नीले ग्रह" को अलग करती है। पृथ्वी के जलमंडल में मुख्यतः महासागर हैं, लेकिन तकनीकी रूप से दुनिया में उपस्थित अन्य जल के स्रोत जैसे: अंतर्देशीय समुद्र, झीलों, नदियों और 2,000 मीटर की गहराई तक भूमिगत जल सहित इसमें शामिल हैं। पानी के नीचे की सबसे गहरी जगह 10,911.4 मीटर की गहराई के साथ, प्रशान्त महासागर में मारियाना ट्रेंच की चैलेंजर डीप है। महासागरों का द्रव्यमान लगभग 1.35×1018 मीट्रिक टन या पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का 1/4400 हिस्सा है। महासागर औसतन 3682 मीटर की गहराई के साथ, 3.618×108 किमी2 का क्षेत्रफल में फैला हुआ है, जिसकी अनुमानित मात्रा 1.332 ×109 किमी3 हो सकती है। यदि सभी पृथ्वी की उबड़-खाबड़ सतह यदि एक समान चिकने क्षेत्र में के रूप में हो तो, महासागर की गहराई 2.7 से 2.8 किमी होगी। लगभग 97.5% पानी खारा है; शेष 2.5% ताजा पानी है, अधिकतर ताजा पानी, लगभग 68.7%, बर्फ के पहाड़ो और ग्लेशियरों के बर्फ के रूप में मौजूद है। पृथ्वी के महासागरों की औसत लवणता लगभग 35 ग्राम नमक प्रति किलोग्राम समुद्री जल (3.5% नमक) होती है। ये नमक अधिकांशत: ज्वालामुखीय गतिविधि से निकालकर या शांत अग्निमय चट्टानों से निकल कर सागर में मिलते हैं। महासागर विघटित वायुमण्डलीय गैसों के लिए एक भंडारण की तरह भी है, जो कई जलीय जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक हैं। समुद्रीजल विश्व के जलवायु के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, यह एक बड़े ऊष्मा संग्रह की तरह कार्य करता हैं। समुद्री तापमान वितरण में बदलाव, मौसम बदलाव में गड़बड़ी का कारण हो सकता हैं, जैसे; एल नीनो। पृथ्वी के वातावरण मे ७७% नाइट्रोजन, २१% आक्सीजन, और कुछ मात्रा मे आर्गन, कार्बन डाय आक्साईड और जल बाष्प है। पृथ्वी पर निर्माण के समय कार्बन डाय आक्साईड की मात्रा ज्यादा रही होगी जो चटटानो मे कार्बोनेट के रूप मे जम गयी, कुछ मात्रा मे सागर द्वारा अवशोषित कर ली गयी, शेष कुछ मात्रा जीवित प्राणियो द्वारा प्रयोग मे आ गयी होगी। प्लेट टेक्टानिक और जैविक गतिविधी कार्बन डाय आक्साईड का थोड़ी मात्रा का उत्त्सर्जन और अवशोषण करते रहते है। कार्बनडाय आक्साईड पृथ्वी के सतह का तापमान का ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा नियंत्रण करती है। ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा पृथ्वी सतह का तापमान 35 डिग्री सेल्सीयस होता है अन्यथा वह -21 डिग्री सेल्सीयस से 14 डिग्री सेल्सीयस रहता; इसके ना रहने पर समुद्र जम जाते और जीवन असम्भव हो जाता। जल बाष्प भी एक आवश्यक ग्रीन हाउस गैस है। रासायनिक दृष्टि से मुक्त आक्सीजन भी आवश्यक है। सामान्य परिस्थिती मे आक्सीजन विभिन्न तत्वो से क्रिया कर विभिन्न यौगिक बनाती है। पृथ्वी के वातावरण मे आक्सीजन का निर्माण और नियन्त्रण विभिन्न जैविक प्रक्रियाओ से होता है। जीवन के बिना मुक्त आक्सीजन सम्भव नही है। पृथ्वी के वायुमण्डल की कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह आकाश की ओर धीरे-धीरे पतला होता जाता है और बाह्य अन्तरिक्ष में लुप्त हो जाता है। वायुमण्डल के द्रव्यमान का तीन-चौथाई हिस्सा, सतह से 11 किमी (6.8 मील) के भीतर ही निहित है। सबसे निचले परत को ट्रोफोस्फीयर कहा जाता है। सूर्य की ऊर्जा से यह परत ओर इसके नीचे तपती है, और जिसके कारण हवा का विस्तार होता हैं। फिर यह कम-घनत्व वाली वायु ऊपर की ओर जाती है और एक ठण्डे, उच्च घनत्व वायु में प्रतिस्थापित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही वायुमण्डलीय परिसंचरण बनता है जो तापीय ऊर्जा के पुनर्वितरण के माध्यम से मौसम और जलवायु को चलाता है। प्राथमिक वायुमण्डलीय परिसंचरण पट्टी, 30° अक्षांश से नीचे के भूमध्य रेखा क्षेत्र में और 30° और 60° के बीच मध्य अक्षांशों में पच्छमी हवा की व्यापारिक पवन से मिलकर बने होते हैं। जलवायु के निर्धारण करने में महासागरीय धारायें भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं, विशेष रूप से थर्मोहेलिन परिसंचरण, जो भूमध्यवर्ती महासागरों से ध्रुवीय क्षेत्रों तक ऊष्मीय ऊर्जा वितरित करती है। सतही वाष्पीकरण से उत्पन्न जल वाष्प परिसंचरण तरीको द्वारा वातावरण में पहुँचाया जाता है। जब वायुमंडलीय स्थितियों के कारण गर्म, आर्द्र हवा ऊपर की ओर जाती है, तो यह वाष्प सघन हो वर्षा के रूप में पुनः सतह पर आ जाती हैं। तब अधिकांश पानी, नदी प्रणालियों द्वारा नीचे की ओर ले जाया जाता है और आम तौर पर महासागरों या झीलों में जमा हो जाती है। यह जल चक्र भूमि पर जीवन हेतु एक महत्वपूर्ण तंत्र है, और कालांतर में सतही क्षरण का एक प्राथमिक कारक है। वर्षा का वितरण व्यापक रूप से भिन्न हैं, कही पर कई मीटर पानी प्रति वर्ष तो कही पर एक मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती हैं। वायुमण्डलीय परिसंचरण, स्थलाकृतिक विशेषताएँ और तापमान में अन्तर, प्रत्येक क्षेत्र में औसत वर्षा का निर्धारण करती है। बढ़ते अक्षांश के साथ पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाली सौर ऊर्जा की मात्रा कम होते जाती है। उच्च अक्षांशों पर, सूरज की रोशनी निम्न कोण से सतह तक पहुँचती है, और इसे वातावरण के मोटे कतार के माध्यम से गुजरना होता हैं। परिणामस्वरूप, समुद्री स्तर पर औसत वार्षिक हवा का तापमान, भूमध्य रेखा की तुलना में अक्षांशो में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस (0.7 डिग्री फारेनहाइट) प्रति डिग्री कम होता है। पृथ्वी की सतह को विशिष्ट अक्षांशु पट्टी में, लगभग समरूप जलवायु से विभाजित किया जा सकता है। भूमध्य रेखा से लेकर ध्रुवीय क्षेत्रों तक, ये उष्णकटिबंधीय (या भूमध्य रेखा), उपोष्णकटिबंधीय, शीतोष्ण और ध्रुवीय जलवायु में बँटा हुआ हैं। इस अक्षांश के नियम में कई विसंगतियाँ हैं:महासागरों की निकटता जलवायु को नियंत्रित करती है। उदाहरण के लिए, स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप में उत्तरी कनाडा के समान उत्तरी अक्षांशों की तुलना में अधिक उदार जलवायु है। पृथ्वी का अपना चुम्बकीय क्षेत्र है जो कि बाह्य केन्द्रक के विद्युत प्रवाह से निर्मित होता है। सौर वायू, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र और उपरी वातावरण मीलकर औरोरा बनाते है। | पृथ्वी के वायुमंडल में कितनी प्रतिशत ऑक्सीजन है? | २१% आक्सीजन | prithvi ke vayumandal main kitni pratishat oxigen he? |
पेडोस्फीयर पृथ्वी की महाद्वीपीय सतह की सबसे बाहरी परत है और यह मिट्टी से बना हुआ है तथा मिट्टी के गठन की प्रक्रियाओं के अधीन है। कुल कृषि योग्य भूमि, भूमि की सतह का 10.9% हिस्सा है, जिसके 1.3% हिस्से पर स्थाईरूप से फसलें ली जाती हैं। धरती की 40% भूमि की सतह का उपयोग चारागाह और कृषि के लिए किया जाता है। पृथ्वी की सतह पर पानी की बहुतायत एक अनोखी विशेषता है जो सौर मंडल के अन्य ग्रहों से इस "नीले ग्रह" को अलग करती है। पृथ्वी के जलमंडल में मुख्यतः महासागर हैं, लेकिन तकनीकी रूप से दुनिया में उपस्थित अन्य जल के स्रोत जैसे: अंतर्देशीय समुद्र, झीलों, नदियों और 2,000 मीटर की गहराई तक भूमिगत जल सहित इसमें शामिल हैं। पानी के नीचे की सबसे गहरी जगह 10,911.4 मीटर की गहराई के साथ, प्रशान्त महासागर में मारियाना ट्रेंच की चैलेंजर डीप है। महासागरों का द्रव्यमान लगभग 1.35×1018 मीट्रिक टन या पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का 1/4400 हिस्सा है। महासागर औसतन 3682 मीटर की गहराई के साथ, 3.618×108 किमी2 का क्षेत्रफल में फैला हुआ है, जिसकी अनुमानित मात्रा 1.332 ×109 किमी3 हो सकती है। यदि सभी पृथ्वी की उबड़-खाबड़ सतह यदि एक समान चिकने क्षेत्र में के रूप में हो तो, महासागर की गहराई 2.7 से 2.8 किमी होगी। लगभग 97.5% पानी खारा है; शेष 2.5% ताजा पानी है, अधिकतर ताजा पानी, लगभग 68.7%, बर्फ के पहाड़ो और ग्लेशियरों के बर्फ के रूप में मौजूद है। पृथ्वी के महासागरों की औसत लवणता लगभग 35 ग्राम नमक प्रति किलोग्राम समुद्री जल (3.5% नमक) होती है। ये नमक अधिकांशत: ज्वालामुखीय गतिविधि से निकालकर या शांत अग्निमय चट्टानों से निकल कर सागर में मिलते हैं। महासागर विघटित वायुमण्डलीय गैसों के लिए एक भंडारण की तरह भी है, जो कई जलीय जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक हैं। समुद्रीजल विश्व के जलवायु के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, यह एक बड़े ऊष्मा संग्रह की तरह कार्य करता हैं। समुद्री तापमान वितरण में बदलाव, मौसम बदलाव में गड़बड़ी का कारण हो सकता हैं, जैसे; एल नीनो। पृथ्वी के वातावरण मे ७७% नाइट्रोजन, २१% आक्सीजन, और कुछ मात्रा मे आर्गन, कार्बन डाय आक्साईड और जल बाष्प है। पृथ्वी पर निर्माण के समय कार्बन डाय आक्साईड की मात्रा ज्यादा रही होगी जो चटटानो मे कार्बोनेट के रूप मे जम गयी, कुछ मात्रा मे सागर द्वारा अवशोषित कर ली गयी, शेष कुछ मात्रा जीवित प्राणियो द्वारा प्रयोग मे आ गयी होगी। प्लेट टेक्टानिक और जैविक गतिविधी कार्बन डाय आक्साईड का थोड़ी मात्रा का उत्त्सर्जन और अवशोषण करते रहते है। कार्बनडाय आक्साईड पृथ्वी के सतह का तापमान का ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा नियंत्रण करती है। ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा पृथ्वी सतह का तापमान 35 डिग्री सेल्सीयस होता है अन्यथा वह -21 डिग्री सेल्सीयस से 14 डिग्री सेल्सीयस रहता; इसके ना रहने पर समुद्र जम जाते और जीवन असम्भव हो जाता। जल बाष्प भी एक आवश्यक ग्रीन हाउस गैस है। रासायनिक दृष्टि से मुक्त आक्सीजन भी आवश्यक है। सामान्य परिस्थिती मे आक्सीजन विभिन्न तत्वो से क्रिया कर विभिन्न यौगिक बनाती है। पृथ्वी के वातावरण मे आक्सीजन का निर्माण और नियन्त्रण विभिन्न जैविक प्रक्रियाओ से होता है। जीवन के बिना मुक्त आक्सीजन सम्भव नही है। पृथ्वी के वायुमण्डल की कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह आकाश की ओर धीरे-धीरे पतला होता जाता है और बाह्य अन्तरिक्ष में लुप्त हो जाता है। वायुमण्डल के द्रव्यमान का तीन-चौथाई हिस्सा, सतह से 11 किमी (6.8 मील) के भीतर ही निहित है। सबसे निचले परत को ट्रोफोस्फीयर कहा जाता है। सूर्य की ऊर्जा से यह परत ओर इसके नीचे तपती है, और जिसके कारण हवा का विस्तार होता हैं। फिर यह कम-घनत्व वाली वायु ऊपर की ओर जाती है और एक ठण्डे, उच्च घनत्व वायु में प्रतिस्थापित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही वायुमण्डलीय परिसंचरण बनता है जो तापीय ऊर्जा के पुनर्वितरण के माध्यम से मौसम और जलवायु को चलाता है। प्राथमिक वायुमण्डलीय परिसंचरण पट्टी, 30° अक्षांश से नीचे के भूमध्य रेखा क्षेत्र में और 30° और 60° के बीच मध्य अक्षांशों में पच्छमी हवा की व्यापारिक पवन से मिलकर बने होते हैं। जलवायु के निर्धारण करने में महासागरीय धारायें भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं, विशेष रूप से थर्मोहेलिन परिसंचरण, जो भूमध्यवर्ती महासागरों से ध्रुवीय क्षेत्रों तक ऊष्मीय ऊर्जा वितरित करती है। सतही वाष्पीकरण से उत्पन्न जल वाष्प परिसंचरण तरीको द्वारा वातावरण में पहुँचाया जाता है। जब वायुमंडलीय स्थितियों के कारण गर्म, आर्द्र हवा ऊपर की ओर जाती है, तो यह वाष्प सघन हो वर्षा के रूप में पुनः सतह पर आ जाती हैं। तब अधिकांश पानी, नदी प्रणालियों द्वारा नीचे की ओर ले जाया जाता है और आम तौर पर महासागरों या झीलों में जमा हो जाती है। यह जल चक्र भूमि पर जीवन हेतु एक महत्वपूर्ण तंत्र है, और कालांतर में सतही क्षरण का एक प्राथमिक कारक है। वर्षा का वितरण व्यापक रूप से भिन्न हैं, कही पर कई मीटर पानी प्रति वर्ष तो कही पर एक मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती हैं। वायुमण्डलीय परिसंचरण, स्थलाकृतिक विशेषताएँ और तापमान में अन्तर, प्रत्येक क्षेत्र में औसत वर्षा का निर्धारण करती है। बढ़ते अक्षांश के साथ पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाली सौर ऊर्जा की मात्रा कम होते जाती है। उच्च अक्षांशों पर, सूरज की रोशनी निम्न कोण से सतह तक पहुँचती है, और इसे वातावरण के मोटे कतार के माध्यम से गुजरना होता हैं। परिणामस्वरूप, समुद्री स्तर पर औसत वार्षिक हवा का तापमान, भूमध्य रेखा की तुलना में अक्षांशो में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस (0.7 डिग्री फारेनहाइट) प्रति डिग्री कम होता है। पृथ्वी की सतह को विशिष्ट अक्षांशु पट्टी में, लगभग समरूप जलवायु से विभाजित किया जा सकता है। भूमध्य रेखा से लेकर ध्रुवीय क्षेत्रों तक, ये उष्णकटिबंधीय (या भूमध्य रेखा), उपोष्णकटिबंधीय, शीतोष्ण और ध्रुवीय जलवायु में बँटा हुआ हैं। इस अक्षांश के नियम में कई विसंगतियाँ हैं:महासागरों की निकटता जलवायु को नियंत्रित करती है। उदाहरण के लिए, स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप में उत्तरी कनाडा के समान उत्तरी अक्षांशों की तुलना में अधिक उदार जलवायु है। पृथ्वी का अपना चुम्बकीय क्षेत्र है जो कि बाह्य केन्द्रक के विद्युत प्रवाह से निर्मित होता है। सौर वायू, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र और उपरी वातावरण मीलकर औरोरा बनाते है। | पृथ्वी के सतह की कितनी प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है ? | 1.3% | prithvi ke sataha kii kitni pratishat bhoomi krishi yogya he ? |
पेडोस्फीयर पृथ्वी की महाद्वीपीय सतह की सबसे बाहरी परत है और यह मिट्टी से बना हुआ है तथा मिट्टी के गठन की प्रक्रियाओं के अधीन है। कुल कृषि योग्य भूमि, भूमि की सतह का 10.9% हिस्सा है, जिसके 1.3% हिस्से पर स्थाईरूप से फसलें ली जाती हैं। धरती की 40% भूमि की सतह का उपयोग चारागाह और कृषि के लिए किया जाता है। पृथ्वी की सतह पर पानी की बहुतायत एक अनोखी विशेषता है जो सौर मंडल के अन्य ग्रहों से इस "नीले ग्रह" को अलग करती है। पृथ्वी के जलमंडल में मुख्यतः महासागर हैं, लेकिन तकनीकी रूप से दुनिया में उपस्थित अन्य जल के स्रोत जैसे: अंतर्देशीय समुद्र, झीलों, नदियों और 2,000 मीटर की गहराई तक भूमिगत जल सहित इसमें शामिल हैं। पानी के नीचे की सबसे गहरी जगह 10,911.4 मीटर की गहराई के साथ, प्रशान्त महासागर में मारियाना ट्रेंच की चैलेंजर डीप है। महासागरों का द्रव्यमान लगभग 1.35×1018 मीट्रिक टन या पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का 1/4400 हिस्सा है। महासागर औसतन 3682 मीटर की गहराई के साथ, 3.618×108 किमी2 का क्षेत्रफल में फैला हुआ है, जिसकी अनुमानित मात्रा 1.332 ×109 किमी3 हो सकती है। यदि सभी पृथ्वी की उबड़-खाबड़ सतह यदि एक समान चिकने क्षेत्र में के रूप में हो तो, महासागर की गहराई 2.7 से 2.8 किमी होगी। लगभग 97.5% पानी खारा है; शेष 2.5% ताजा पानी है, अधिकतर ताजा पानी, लगभग 68.7%, बर्फ के पहाड़ो और ग्लेशियरों के बर्फ के रूप में मौजूद है। पृथ्वी के महासागरों की औसत लवणता लगभग 35 ग्राम नमक प्रति किलोग्राम समुद्री जल (3.5% नमक) होती है। ये नमक अधिकांशत: ज्वालामुखीय गतिविधि से निकालकर या शांत अग्निमय चट्टानों से निकल कर सागर में मिलते हैं। महासागर विघटित वायुमण्डलीय गैसों के लिए एक भंडारण की तरह भी है, जो कई जलीय जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक हैं। समुद्रीजल विश्व के जलवायु के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, यह एक बड़े ऊष्मा संग्रह की तरह कार्य करता हैं। समुद्री तापमान वितरण में बदलाव, मौसम बदलाव में गड़बड़ी का कारण हो सकता हैं, जैसे; एल नीनो। पृथ्वी के वातावरण मे ७७% नाइट्रोजन, २१% आक्सीजन, और कुछ मात्रा मे आर्गन, कार्बन डाय आक्साईड और जल बाष्प है। पृथ्वी पर निर्माण के समय कार्बन डाय आक्साईड की मात्रा ज्यादा रही होगी जो चटटानो मे कार्बोनेट के रूप मे जम गयी, कुछ मात्रा मे सागर द्वारा अवशोषित कर ली गयी, शेष कुछ मात्रा जीवित प्राणियो द्वारा प्रयोग मे आ गयी होगी। प्लेट टेक्टानिक और जैविक गतिविधी कार्बन डाय आक्साईड का थोड़ी मात्रा का उत्त्सर्जन और अवशोषण करते रहते है। कार्बनडाय आक्साईड पृथ्वी के सतह का तापमान का ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा नियंत्रण करती है। ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा पृथ्वी सतह का तापमान 35 डिग्री सेल्सीयस होता है अन्यथा वह -21 डिग्री सेल्सीयस से 14 डिग्री सेल्सीयस रहता; इसके ना रहने पर समुद्र जम जाते और जीवन असम्भव हो जाता। जल बाष्प भी एक आवश्यक ग्रीन हाउस गैस है। रासायनिक दृष्टि से मुक्त आक्सीजन भी आवश्यक है। सामान्य परिस्थिती मे आक्सीजन विभिन्न तत्वो से क्रिया कर विभिन्न यौगिक बनाती है। पृथ्वी के वातावरण मे आक्सीजन का निर्माण और नियन्त्रण विभिन्न जैविक प्रक्रियाओ से होता है। जीवन के बिना मुक्त आक्सीजन सम्भव नही है। पृथ्वी के वायुमण्डल की कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह आकाश की ओर धीरे-धीरे पतला होता जाता है और बाह्य अन्तरिक्ष में लुप्त हो जाता है। वायुमण्डल के द्रव्यमान का तीन-चौथाई हिस्सा, सतह से 11 किमी (6.8 मील) के भीतर ही निहित है। सबसे निचले परत को ट्रोफोस्फीयर कहा जाता है। सूर्य की ऊर्जा से यह परत ओर इसके नीचे तपती है, और जिसके कारण हवा का विस्तार होता हैं। फिर यह कम-घनत्व वाली वायु ऊपर की ओर जाती है और एक ठण्डे, उच्च घनत्व वायु में प्रतिस्थापित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही वायुमण्डलीय परिसंचरण बनता है जो तापीय ऊर्जा के पुनर्वितरण के माध्यम से मौसम और जलवायु को चलाता है। प्राथमिक वायुमण्डलीय परिसंचरण पट्टी, 30° अक्षांश से नीचे के भूमध्य रेखा क्षेत्र में और 30° और 60° के बीच मध्य अक्षांशों में पच्छमी हवा की व्यापारिक पवन से मिलकर बने होते हैं। जलवायु के निर्धारण करने में महासागरीय धारायें भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं, विशेष रूप से थर्मोहेलिन परिसंचरण, जो भूमध्यवर्ती महासागरों से ध्रुवीय क्षेत्रों तक ऊष्मीय ऊर्जा वितरित करती है। सतही वाष्पीकरण से उत्पन्न जल वाष्प परिसंचरण तरीको द्वारा वातावरण में पहुँचाया जाता है। जब वायुमंडलीय स्थितियों के कारण गर्म, आर्द्र हवा ऊपर की ओर जाती है, तो यह वाष्प सघन हो वर्षा के रूप में पुनः सतह पर आ जाती हैं। तब अधिकांश पानी, नदी प्रणालियों द्वारा नीचे की ओर ले जाया जाता है और आम तौर पर महासागरों या झीलों में जमा हो जाती है। यह जल चक्र भूमि पर जीवन हेतु एक महत्वपूर्ण तंत्र है, और कालांतर में सतही क्षरण का एक प्राथमिक कारक है। वर्षा का वितरण व्यापक रूप से भिन्न हैं, कही पर कई मीटर पानी प्रति वर्ष तो कही पर एक मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती हैं। वायुमण्डलीय परिसंचरण, स्थलाकृतिक विशेषताएँ और तापमान में अन्तर, प्रत्येक क्षेत्र में औसत वर्षा का निर्धारण करती है। बढ़ते अक्षांश के साथ पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाली सौर ऊर्जा की मात्रा कम होते जाती है। उच्च अक्षांशों पर, सूरज की रोशनी निम्न कोण से सतह तक पहुँचती है, और इसे वातावरण के मोटे कतार के माध्यम से गुजरना होता हैं। परिणामस्वरूप, समुद्री स्तर पर औसत वार्षिक हवा का तापमान, भूमध्य रेखा की तुलना में अक्षांशो में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस (0.7 डिग्री फारेनहाइट) प्रति डिग्री कम होता है। पृथ्वी की सतह को विशिष्ट अक्षांशु पट्टी में, लगभग समरूप जलवायु से विभाजित किया जा सकता है। भूमध्य रेखा से लेकर ध्रुवीय क्षेत्रों तक, ये उष्णकटिबंधीय (या भूमध्य रेखा), उपोष्णकटिबंधीय, शीतोष्ण और ध्रुवीय जलवायु में बँटा हुआ हैं। इस अक्षांश के नियम में कई विसंगतियाँ हैं:महासागरों की निकटता जलवायु को नियंत्रित करती है। उदाहरण के लिए, स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप में उत्तरी कनाडा के समान उत्तरी अक्षांशों की तुलना में अधिक उदार जलवायु है। पृथ्वी का अपना चुम्बकीय क्षेत्र है जो कि बाह्य केन्द्रक के विद्युत प्रवाह से निर्मित होता है। सौर वायू, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र और उपरी वातावरण मीलकर औरोरा बनाते है। | पृथ्वी की महाद्वीपीय सतह की सबसे बाहरी परत का क्या नाम है ? | पेडोस्फीयर | prithvi kii mahadwipiya sataha kii sabase bahari parat kaa kya naam he ? |
प्रणव मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के यहाँ हुआ था। उनके पिता 1920 से कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होने के साथ पश्चिम बंगाल विधान परिषद में 1952 से 64 तक सदस्य और वीरभूम (पश्चिम बंगाल) जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके थे। उनके पिता एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की खिलाफत के परिणामस्वरूप 10 वर्षो से अधिक जेल की सजा भी काटी थी। प्रणव मुखर्जी ने वीरभूम के सूरी विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की, जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के साथ साथ कानून की डिग्री हासिल की। वे एक वकील और कॉलेज प्राध्यापक भी रह चुके हैं। उन्हें मानद डी.लिट उपाधि भी प्राप्त है। उन्होंने पहले एक कॉलेज प्राध्यापक के रूप में और बाद में एक पत्रकार के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। वे बाँग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक (मातृभूमि की पुकार) में भी काम कर चुके हैं। प्रणव मुखर्जी बंगीय साहित्य परिषद के ट्रस्टी एवं अखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे। उनका संसदीय कैरियर करीब पाँच दशक पुराना है, जो 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में (उच्च सदन) से शुरू हुआ था। वे 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से चुने गये। 1973 में वे औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मन्त्री के रूप में मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। वे सन 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे और और सन् 1982 में भारत के वित्त मंत्री बने। सन 1984 में, यूरोमनी पत्रिका के एक सर्वेक्षण में उनका विश्व के सबसे अच्छे वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया गया। उनका कार्यकाल भारत के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के ऋण की 1.1 अरब अमरीकी डॉलर की आखिरी किस्त नहीं अदा कर पाने के लिए उल्लेखनीय रहा। वित्त मंत्री के रूप में प्रणव के कार्यकाल के दौरान डॉ॰ मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। वे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव के बाद राजीव गांधी की समर्थक मण्डली के षड्यन्त्र के शिकार हुए जिसने इन्हें मन्त्रिमणडल में शामिल नहीं होने दिया। कुछ समय के लिए उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया, लेकिन सन 1989 में राजीव गान्धी के साथ समझौता होने के बाद उन्होंने अपने दल का कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया। उनका राजनीतिक कैरियर उस समय पुनर्जीवित हो उठा, जब पी.वी. नरसिंह राव ने पहले उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में और बाद में एक केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला किया। उन्होंने राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया। सन 1985 के बाद से वह कांग्रेस की पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के भी अध्यक्ष हैं। सन 2004 में, जब कांग्रेस ने गठबन्धन सरकार के अगुआ के रूप में सरकार बनायी, तो कांग्रेस के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक राज्यसभा सांसद थे। इसलिए जंगीपुर (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रणव मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा, वित्त, विदेश विषयक मन्त्रालय, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्वपूर्ण मन्त्रालयों के मन्त्री होने का गौरव भी हासिल है। वह कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधायक दल के नेता रह चुके हैं, जिसमें देश के सभी कांग्रेस सांसद और विधायक शामिल होते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोकसभा में सदन के नेता, बंगाल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिषद में केन्द्रीय वित्त मन्त्री भी रहे। | प्रणब मुखर्जी के पिता का क्या नाम था? | कामदा किंकर मुखर्जी | pranab mukherjee ke pita kaa kya naam tha? |
प्रणव मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के यहाँ हुआ था। उनके पिता 1920 से कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होने के साथ पश्चिम बंगाल विधान परिषद में 1952 से 64 तक सदस्य और वीरभूम (पश्चिम बंगाल) जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके थे। उनके पिता एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की खिलाफत के परिणामस्वरूप 10 वर्षो से अधिक जेल की सजा भी काटी थी। प्रणव मुखर्जी ने वीरभूम के सूरी विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की, जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के साथ साथ कानून की डिग्री हासिल की। वे एक वकील और कॉलेज प्राध्यापक भी रह चुके हैं। उन्हें मानद डी.लिट उपाधि भी प्राप्त है। उन्होंने पहले एक कॉलेज प्राध्यापक के रूप में और बाद में एक पत्रकार के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। वे बाँग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक (मातृभूमि की पुकार) में भी काम कर चुके हैं। प्रणव मुखर्जी बंगीय साहित्य परिषद के ट्रस्टी एवं अखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे। उनका संसदीय कैरियर करीब पाँच दशक पुराना है, जो 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में (उच्च सदन) से शुरू हुआ था। वे 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से चुने गये। 1973 में वे औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मन्त्री के रूप में मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। वे सन 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे और और सन् 1982 में भारत के वित्त मंत्री बने। सन 1984 में, यूरोमनी पत्रिका के एक सर्वेक्षण में उनका विश्व के सबसे अच्छे वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया गया। उनका कार्यकाल भारत के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के ऋण की 1.1 अरब अमरीकी डॉलर की आखिरी किस्त नहीं अदा कर पाने के लिए उल्लेखनीय रहा। वित्त मंत्री के रूप में प्रणव के कार्यकाल के दौरान डॉ॰ मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। वे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव के बाद राजीव गांधी की समर्थक मण्डली के षड्यन्त्र के शिकार हुए जिसने इन्हें मन्त्रिमणडल में शामिल नहीं होने दिया। कुछ समय के लिए उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया, लेकिन सन 1989 में राजीव गान्धी के साथ समझौता होने के बाद उन्होंने अपने दल का कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया। उनका राजनीतिक कैरियर उस समय पुनर्जीवित हो उठा, जब पी.वी. नरसिंह राव ने पहले उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में और बाद में एक केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला किया। उन्होंने राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया। सन 1985 के बाद से वह कांग्रेस की पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के भी अध्यक्ष हैं। सन 2004 में, जब कांग्रेस ने गठबन्धन सरकार के अगुआ के रूप में सरकार बनायी, तो कांग्रेस के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक राज्यसभा सांसद थे। इसलिए जंगीपुर (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रणव मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा, वित्त, विदेश विषयक मन्त्रालय, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्वपूर्ण मन्त्रालयों के मन्त्री होने का गौरव भी हासिल है। वह कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधायक दल के नेता रह चुके हैं, जिसमें देश के सभी कांग्रेस सांसद और विधायक शामिल होते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोकसभा में सदन के नेता, बंगाल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिषद में केन्द्रीय वित्त मन्त्री भी रहे। | प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री किस वर्ष बने थे? | सन् 1982 | pranab mukherjee vitt mantri kis varsh bane the? |
प्रणव मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के यहाँ हुआ था। उनके पिता 1920 से कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होने के साथ पश्चिम बंगाल विधान परिषद में 1952 से 64 तक सदस्य और वीरभूम (पश्चिम बंगाल) जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके थे। उनके पिता एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की खिलाफत के परिणामस्वरूप 10 वर्षो से अधिक जेल की सजा भी काटी थी। प्रणव मुखर्जी ने वीरभूम के सूरी विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की, जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के साथ साथ कानून की डिग्री हासिल की। वे एक वकील और कॉलेज प्राध्यापक भी रह चुके हैं। उन्हें मानद डी.लिट उपाधि भी प्राप्त है। उन्होंने पहले एक कॉलेज प्राध्यापक के रूप में और बाद में एक पत्रकार के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। वे बाँग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक (मातृभूमि की पुकार) में भी काम कर चुके हैं। प्रणव मुखर्जी बंगीय साहित्य परिषद के ट्रस्टी एवं अखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे। उनका संसदीय कैरियर करीब पाँच दशक पुराना है, जो 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में (उच्च सदन) से शुरू हुआ था। वे 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से चुने गये। 1973 में वे औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मन्त्री के रूप में मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। वे सन 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे और और सन् 1982 में भारत के वित्त मंत्री बने। सन 1984 में, यूरोमनी पत्रिका के एक सर्वेक्षण में उनका विश्व के सबसे अच्छे वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया गया। उनका कार्यकाल भारत के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के ऋण की 1.1 अरब अमरीकी डॉलर की आखिरी किस्त नहीं अदा कर पाने के लिए उल्लेखनीय रहा। वित्त मंत्री के रूप में प्रणव के कार्यकाल के दौरान डॉ॰ मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। वे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव के बाद राजीव गांधी की समर्थक मण्डली के षड्यन्त्र के शिकार हुए जिसने इन्हें मन्त्रिमणडल में शामिल नहीं होने दिया। कुछ समय के लिए उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया, लेकिन सन 1989 में राजीव गान्धी के साथ समझौता होने के बाद उन्होंने अपने दल का कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया। उनका राजनीतिक कैरियर उस समय पुनर्जीवित हो उठा, जब पी.वी. नरसिंह राव ने पहले उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में और बाद में एक केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला किया। उन्होंने राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया। सन 1985 के बाद से वह कांग्रेस की पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के भी अध्यक्ष हैं। सन 2004 में, जब कांग्रेस ने गठबन्धन सरकार के अगुआ के रूप में सरकार बनायी, तो कांग्रेस के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक राज्यसभा सांसद थे। इसलिए जंगीपुर (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रणव मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा, वित्त, विदेश विषयक मन्त्रालय, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्वपूर्ण मन्त्रालयों के मन्त्री होने का गौरव भी हासिल है। वह कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधायक दल के नेता रह चुके हैं, जिसमें देश के सभी कांग्रेस सांसद और विधायक शामिल होते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोकसभा में सदन के नेता, बंगाल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिषद में केन्द्रीय वित्त मन्त्री भी रहे। | प्रणब मुखर्जी का जन्म कहां हुआ था? | पश्चिम बंगाल | pranab mukherjee kaa janm kahaan hua tha? |
प्रणव मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के यहाँ हुआ था। उनके पिता 1920 से कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होने के साथ पश्चिम बंगाल विधान परिषद में 1952 से 64 तक सदस्य और वीरभूम (पश्चिम बंगाल) जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके थे। उनके पिता एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की खिलाफत के परिणामस्वरूप 10 वर्षो से अधिक जेल की सजा भी काटी थी। प्रणव मुखर्जी ने वीरभूम के सूरी विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की, जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के साथ साथ कानून की डिग्री हासिल की। वे एक वकील और कॉलेज प्राध्यापक भी रह चुके हैं। उन्हें मानद डी.लिट उपाधि भी प्राप्त है। उन्होंने पहले एक कॉलेज प्राध्यापक के रूप में और बाद में एक पत्रकार के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। वे बाँग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक (मातृभूमि की पुकार) में भी काम कर चुके हैं। प्रणव मुखर्जी बंगीय साहित्य परिषद के ट्रस्टी एवं अखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे। उनका संसदीय कैरियर करीब पाँच दशक पुराना है, जो 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में (उच्च सदन) से शुरू हुआ था। वे 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से चुने गये। 1973 में वे औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मन्त्री के रूप में मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। वे सन 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे और और सन् 1982 में भारत के वित्त मंत्री बने। सन 1984 में, यूरोमनी पत्रिका के एक सर्वेक्षण में उनका विश्व के सबसे अच्छे वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया गया। उनका कार्यकाल भारत के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के ऋण की 1.1 अरब अमरीकी डॉलर की आखिरी किस्त नहीं अदा कर पाने के लिए उल्लेखनीय रहा। वित्त मंत्री के रूप में प्रणव के कार्यकाल के दौरान डॉ॰ मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। वे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव के बाद राजीव गांधी की समर्थक मण्डली के षड्यन्त्र के शिकार हुए जिसने इन्हें मन्त्रिमणडल में शामिल नहीं होने दिया। कुछ समय के लिए उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया, लेकिन सन 1989 में राजीव गान्धी के साथ समझौता होने के बाद उन्होंने अपने दल का कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया। उनका राजनीतिक कैरियर उस समय पुनर्जीवित हो उठा, जब पी.वी. नरसिंह राव ने पहले उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में और बाद में एक केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला किया। उन्होंने राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया। सन 1985 के बाद से वह कांग्रेस की पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के भी अध्यक्ष हैं। सन 2004 में, जब कांग्रेस ने गठबन्धन सरकार के अगुआ के रूप में सरकार बनायी, तो कांग्रेस के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक राज्यसभा सांसद थे। इसलिए जंगीपुर (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रणव मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा, वित्त, विदेश विषयक मन्त्रालय, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्वपूर्ण मन्त्रालयों के मन्त्री होने का गौरव भी हासिल है। वह कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधायक दल के नेता रह चुके हैं, जिसमें देश के सभी कांग्रेस सांसद और विधायक शामिल होते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोकसभा में सदन के नेता, बंगाल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिषद में केन्द्रीय वित्त मन्त्री भी रहे। | प्रणब मुखर्जी ने अपनी शिक्षा कहां से प्राप्त की थी? | सूरी विद्यासागर कॉलेज | pranab mukherjee ne apni shiksha kahaan se praapt kii thi? |
प्रमुख शहरों के अलावा अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में भेड़ाघाट, भीमबेटका, भोजपुर, महेश्वर, मांडू, ओरछा, पचमढ़ी, कान्हा और उज्जैन शामिल हैं। राज्य की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 13880 मेगावॉट (31 मार्च 2015) है। सभी राज्यों की तुलना में मध्य प्रदेश बिजली उत्पादन में सबसे ज्यादा वार्षिक वृद्धि (46.18%) दर्ज की हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भारत के सबसे बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र योजना बनाई गई हैं। संयंत्र की बिजली उत्पादन की क्षमता 750 मेगावाट होगी, तथा इसे लगाने हेतु 4,000 करोड़ रुपये की लागत आएगी। मध्य प्रदेश के रीवा जिले के गूढ तहसील में 1,590 हेक्टेयर के क्षेत्र में एक रीवा अल्ट्रा मेगा सौर पार्क प्रस्तावित है। मध्य प्रदेश में बस और ट्रेन सेवाएं चारो तरफ फैली हुई हैं। प्रदेश की 99,043 किमी लंबी सड़क नेटवर्क में 20 राष्ट्रीय राजमार्ग भी शामिल है। प्रदेश में 4948 किलोमीटर लंबी रेल नेटवर्क का जाल फैला हुआ हैं, जबलपुर को भारतीय रेलवे के पश्चिम मध्य रेलवे का मुख्यालय बनाया गया है। मध्य रेलवे और पश्चिम रेलवे भी राज्य के कुछ हिस्सों को कवर करते हैं। पश्चिमी मध्य प्रदेश के अधिकांश क्षेत्र पश्चिम रेलवे के रतलाम रेल मंडल के अंर्तगत आते है, जिनमे इंदौर, उज्जैन, मंदसौर, खंडवा, नीमच, सीहोर और बैरागढ़ भोपाल आदि शहर शामिल हैं। राज्य में 20 प्रमुख रेलवे जंक्शन है। प्रमुख अंतर-राज्यीय बस टर्मिनल भोपाल, इंदौर, ग्वालियर जबलपुर और रीवा में स्थित हैं। प्रतिदिन 2000 से भी अधिक बसों का संचालन इन पांच शहरो से होता हैं। | मध्य प्रदेश राज्य की बिजली उत्पादन क्षमता वर्ष 2015 तक कितनी थी? | 13880 मेगावॉट | madhya pradesh rajya kii bijli utpaadan kshamta varsh 2015 tak kitni thi? |
प्रमुख शहरों के अलावा अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में भेड़ाघाट, भीमबेटका, भोजपुर, महेश्वर, मांडू, ओरछा, पचमढ़ी, कान्हा और उज्जैन शामिल हैं। राज्य की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 13880 मेगावॉट (31 मार्च 2015) है। सभी राज्यों की तुलना में मध्य प्रदेश बिजली उत्पादन में सबसे ज्यादा वार्षिक वृद्धि (46.18%) दर्ज की हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भारत के सबसे बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र योजना बनाई गई हैं। संयंत्र की बिजली उत्पादन की क्षमता 750 मेगावाट होगी, तथा इसे लगाने हेतु 4,000 करोड़ रुपये की लागत आएगी। मध्य प्रदेश के रीवा जिले के गूढ तहसील में 1,590 हेक्टेयर के क्षेत्र में एक रीवा अल्ट्रा मेगा सौर पार्क प्रस्तावित है। मध्य प्रदेश में बस और ट्रेन सेवाएं चारो तरफ फैली हुई हैं। प्रदेश की 99,043 किमी लंबी सड़क नेटवर्क में 20 राष्ट्रीय राजमार्ग भी शामिल है। प्रदेश में 4948 किलोमीटर लंबी रेल नेटवर्क का जाल फैला हुआ हैं, जबलपुर को भारतीय रेलवे के पश्चिम मध्य रेलवे का मुख्यालय बनाया गया है। मध्य रेलवे और पश्चिम रेलवे भी राज्य के कुछ हिस्सों को कवर करते हैं। पश्चिमी मध्य प्रदेश के अधिकांश क्षेत्र पश्चिम रेलवे के रतलाम रेल मंडल के अंर्तगत आते है, जिनमे इंदौर, उज्जैन, मंदसौर, खंडवा, नीमच, सीहोर और बैरागढ़ भोपाल आदि शहर शामिल हैं। राज्य में 20 प्रमुख रेलवे जंक्शन है। प्रमुख अंतर-राज्यीय बस टर्मिनल भोपाल, इंदौर, ग्वालियर जबलपुर और रीवा में स्थित हैं। प्रतिदिन 2000 से भी अधिक बसों का संचालन इन पांच शहरो से होता हैं। | भारत के किस राज्य ने पहला सबसे बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने की योजना बनाई थी? | मध्य प्रदेश | bharat ke kis rajya ne pehla sabase bade saura urja sanyantr sthapit karne kii yojana banaai thi? |
प्रमुख शहरों के अलावा अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में भेड़ाघाट, भीमबेटका, भोजपुर, महेश्वर, मांडू, ओरछा, पचमढ़ी, कान्हा और उज्जैन शामिल हैं। राज्य की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 13880 मेगावॉट (31 मार्च 2015) है। सभी राज्यों की तुलना में मध्य प्रदेश बिजली उत्पादन में सबसे ज्यादा वार्षिक वृद्धि (46.18%) दर्ज की हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भारत के सबसे बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र योजना बनाई गई हैं। संयंत्र की बिजली उत्पादन की क्षमता 750 मेगावाट होगी, तथा इसे लगाने हेतु 4,000 करोड़ रुपये की लागत आएगी। मध्य प्रदेश के रीवा जिले के गूढ तहसील में 1,590 हेक्टेयर के क्षेत्र में एक रीवा अल्ट्रा मेगा सौर पार्क प्रस्तावित है। मध्य प्रदेश में बस और ट्रेन सेवाएं चारो तरफ फैली हुई हैं। प्रदेश की 99,043 किमी लंबी सड़क नेटवर्क में 20 राष्ट्रीय राजमार्ग भी शामिल है। प्रदेश में 4948 किलोमीटर लंबी रेल नेटवर्क का जाल फैला हुआ हैं, जबलपुर को भारतीय रेलवे के पश्चिम मध्य रेलवे का मुख्यालय बनाया गया है। मध्य रेलवे और पश्चिम रेलवे भी राज्य के कुछ हिस्सों को कवर करते हैं। पश्चिमी मध्य प्रदेश के अधिकांश क्षेत्र पश्चिम रेलवे के रतलाम रेल मंडल के अंर्तगत आते है, जिनमे इंदौर, उज्जैन, मंदसौर, खंडवा, नीमच, सीहोर और बैरागढ़ भोपाल आदि शहर शामिल हैं। राज्य में 20 प्रमुख रेलवे जंक्शन है। प्रमुख अंतर-राज्यीय बस टर्मिनल भोपाल, इंदौर, ग्वालियर जबलपुर और रीवा में स्थित हैं। प्रतिदिन 2000 से भी अधिक बसों का संचालन इन पांच शहरो से होता हैं। | मध्य प्रदेश राज्य में कितना लंबा रेलवे नेटवर्क है? | 4948 किलोमीटर | madhya pradesh rajya main kitna lanbaa railway network he? |
प्राचीन काल में कुमाऊँ कई छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित था, और नैनीताल क्षेत्र एक खसिया परिवार की विभिन्न शाखाओं के अधीन था। कुमायूँ पर समेकित प्रभुत्व प्राप्त करने वाला पहला राजवंश चन्द वंश था। इस वंश के संस्थापक इलाहाबाद के पास स्थित झूसी से आये सोम चन्द थे, जिन्होंने लगभग सातवीं शताब्दी में, कत्यूरी राजा की बेटी से शादी की, फिर कुमाऊं के अंदरूनी हिस्सों में बढ़ गए। दहेज के रूप में उन्हें चम्पावत नगर और साथ ही भाबर और तराई की भूमि दी गयी थी। चम्पावत में अपनी राजधानी स्थापित कर सोम चन्द और उनके वंशजों ने धीरे धीरे आस पास के क्षेत्रों पर आक्रमण और फिर अधिकार करना शुरू किया। इस प्रकार चम्पावत ही वह नाभिक था, जहाँ से पूरे कुमायूं पर चन्द प्रभुत्व का विस्तार हुआ, लेकिन यह पूरा होने में कई शताब्दियाँ लग गयी थी, और नैनीताल तथा इसके आसपास का क्षेत्र अवशोषित होने वाले अंतिम क्षेत्रों में से एक था। भीमताल, जो नैनीताल से केवल तेरह मील की दूरी पर है, वहाँ तेरहवीं शताब्दी में त्रिलोकी चन्द ने अपनी सरहदों की रक्षा के लिए एक किला बनाया था। लेकिन उस समय, नैनीताल स्वयं चन्द शासन के अधीन नहीं था, और राज्य की पश्चिमी सीमा से सटा हुआ था। सन १४२० में राजा उद्यान चन्द के शासनकाल में, चन्द राज्य की पश्चिमी सीमा कोशी और सुयाल नदियों तक विस्तृत थी, लेकिम रामगढ़ और कोटा अभी भी पूर्व खसिया शासन के अधीन थे। किराट चन्द, जिन्होंने १४८८ से १५०३ तक शासन किया, और अपने क्षेत्र का विस्तार किया, आखिरकार नैनीताल और आस पास के क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर पाए, जो इतने लंबे समय तक स्वतंत्र रहा था। खसिया राजाओं ने अपनी स्वतंत्रता का पुन: प्राप्त करने का एक प्रयास किया। १५६० में, रामगढ़ के एक खसिया के नेतृत्व में, उन्होंने सफलता के एक संक्षिप्त क्षण का आनंद लिया, लेकिन बालो कल्याण चंद द्वारा निर्ममतापूर्वक गंभीरता के साथ उन्हें वश में कर लिया गया। इस अवधि में पहाड़ी क्षेत्र के प्रशासन पर बहुत कम या कोई प्रयास नहीं किया गया था। आइन-ए-अकबरी में कुमाऊँ के जिन भी महलों का उल्लेख किया गया है, वे सभी मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं। देवी चंद के शासनकाल के दौरान, जो १७२० में राजा बने थे, कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा द्वारा आक्रमण किया गया, लेकिन उन्होंने क्षेत्र पर कोई कब्ज़ा नहीं किया। इसके बीस वर्ष बाद कुमाऊं की पहाड़ियों पर फिर से आक्रमण हुआ, इस बार रुहेलों द्वारा, जिनके साथ वर्ष १७४३ में युद्ध छिड़ गया था। रुहेला लड़ते हुए भीमताल तक घुस गए, और इसे लूट लिया। हालाँकि, उन्हें अंततः गढ़वाल के राजा द्वारा खरीद लिया गया, जिन्होंने उस समय कुमाऊं के तत्कालीन राजा कल्याण चंद के साथ एक अस्थायी गठबंधन बना लिया था। एक और आक्रमण, दो साल बाद, कल्याण चंद के प्रधान मंत्री शिव देव जोशी द्वारा निरस्त कर दिया गया। १७४७ में कल्याण चंद की मृत्यु के साथ, कुमायूं के राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी। | चंद राजवंश के संस्थापक कौन थे ? | सोम चन्द | chand rajvansh ke sansthaapak koun the ? |
प्राचीन काल में कुमाऊँ कई छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित था, और नैनीताल क्षेत्र एक खसिया परिवार की विभिन्न शाखाओं के अधीन था। कुमायूँ पर समेकित प्रभुत्व प्राप्त करने वाला पहला राजवंश चन्द वंश था। इस वंश के संस्थापक इलाहाबाद के पास स्थित झूसी से आये सोम चन्द थे, जिन्होंने लगभग सातवीं शताब्दी में, कत्यूरी राजा की बेटी से शादी की, फिर कुमाऊं के अंदरूनी हिस्सों में बढ़ गए। दहेज के रूप में उन्हें चम्पावत नगर और साथ ही भाबर और तराई की भूमि दी गयी थी। चम्पावत में अपनी राजधानी स्थापित कर सोम चन्द और उनके वंशजों ने धीरे धीरे आस पास के क्षेत्रों पर आक्रमण और फिर अधिकार करना शुरू किया। इस प्रकार चम्पावत ही वह नाभिक था, जहाँ से पूरे कुमायूं पर चन्द प्रभुत्व का विस्तार हुआ, लेकिन यह पूरा होने में कई शताब्दियाँ लग गयी थी, और नैनीताल तथा इसके आसपास का क्षेत्र अवशोषित होने वाले अंतिम क्षेत्रों में से एक था। भीमताल, जो नैनीताल से केवल तेरह मील की दूरी पर है, वहाँ तेरहवीं शताब्दी में त्रिलोकी चन्द ने अपनी सरहदों की रक्षा के लिए एक किला बनाया था। लेकिन उस समय, नैनीताल स्वयं चन्द शासन के अधीन नहीं था, और राज्य की पश्चिमी सीमा से सटा हुआ था। सन १४२० में राजा उद्यान चन्द के शासनकाल में, चन्द राज्य की पश्चिमी सीमा कोशी और सुयाल नदियों तक विस्तृत थी, लेकिम रामगढ़ और कोटा अभी भी पूर्व खसिया शासन के अधीन थे। किराट चन्द, जिन्होंने १४८८ से १५०३ तक शासन किया, और अपने क्षेत्र का विस्तार किया, आखिरकार नैनीताल और आस पास के क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर पाए, जो इतने लंबे समय तक स्वतंत्र रहा था। खसिया राजाओं ने अपनी स्वतंत्रता का पुन: प्राप्त करने का एक प्रयास किया। १५६० में, रामगढ़ के एक खसिया के नेतृत्व में, उन्होंने सफलता के एक संक्षिप्त क्षण का आनंद लिया, लेकिन बालो कल्याण चंद द्वारा निर्ममतापूर्वक गंभीरता के साथ उन्हें वश में कर लिया गया। इस अवधि में पहाड़ी क्षेत्र के प्रशासन पर बहुत कम या कोई प्रयास नहीं किया गया था। आइन-ए-अकबरी में कुमाऊँ के जिन भी महलों का उल्लेख किया गया है, वे सभी मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं। देवी चंद के शासनकाल के दौरान, जो १७२० में राजा बने थे, कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा द्वारा आक्रमण किया गया, लेकिन उन्होंने क्षेत्र पर कोई कब्ज़ा नहीं किया। इसके बीस वर्ष बाद कुमाऊं की पहाड़ियों पर फिर से आक्रमण हुआ, इस बार रुहेलों द्वारा, जिनके साथ वर्ष १७४३ में युद्ध छिड़ गया था। रुहेला लड़ते हुए भीमताल तक घुस गए, और इसे लूट लिया। हालाँकि, उन्हें अंततः गढ़वाल के राजा द्वारा खरीद लिया गया, जिन्होंने उस समय कुमाऊं के तत्कालीन राजा कल्याण चंद के साथ एक अस्थायी गठबंधन बना लिया था। एक और आक्रमण, दो साल बाद, कल्याण चंद के प्रधान मंत्री शिव देव जोशी द्वारा निरस्त कर दिया गया। १७४७ में कल्याण चंद की मृत्यु के साथ, कुमायूं के राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी। | कुमाऊं पर समेकित नियंत्रण हासिल करने वाला पहला राजवंश कौन थे ? | चन्द वंश | kumaun par samekit niyantran hasil karne vaala pehla rajvansh koun the ? |
प्राचीन काल में कुमाऊँ कई छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित था, और नैनीताल क्षेत्र एक खसिया परिवार की विभिन्न शाखाओं के अधीन था। कुमायूँ पर समेकित प्रभुत्व प्राप्त करने वाला पहला राजवंश चन्द वंश था। इस वंश के संस्थापक इलाहाबाद के पास स्थित झूसी से आये सोम चन्द थे, जिन्होंने लगभग सातवीं शताब्दी में, कत्यूरी राजा की बेटी से शादी की, फिर कुमाऊं के अंदरूनी हिस्सों में बढ़ गए। दहेज के रूप में उन्हें चम्पावत नगर और साथ ही भाबर और तराई की भूमि दी गयी थी। चम्पावत में अपनी राजधानी स्थापित कर सोम चन्द और उनके वंशजों ने धीरे धीरे आस पास के क्षेत्रों पर आक्रमण और फिर अधिकार करना शुरू किया। इस प्रकार चम्पावत ही वह नाभिक था, जहाँ से पूरे कुमायूं पर चन्द प्रभुत्व का विस्तार हुआ, लेकिन यह पूरा होने में कई शताब्दियाँ लग गयी थी, और नैनीताल तथा इसके आसपास का क्षेत्र अवशोषित होने वाले अंतिम क्षेत्रों में से एक था। भीमताल, जो नैनीताल से केवल तेरह मील की दूरी पर है, वहाँ तेरहवीं शताब्दी में त्रिलोकी चन्द ने अपनी सरहदों की रक्षा के लिए एक किला बनाया था। लेकिन उस समय, नैनीताल स्वयं चन्द शासन के अधीन नहीं था, और राज्य की पश्चिमी सीमा से सटा हुआ था। सन १४२० में राजा उद्यान चन्द के शासनकाल में, चन्द राज्य की पश्चिमी सीमा कोशी और सुयाल नदियों तक विस्तृत थी, लेकिम रामगढ़ और कोटा अभी भी पूर्व खसिया शासन के अधीन थे। किराट चन्द, जिन्होंने १४८८ से १५०३ तक शासन किया, और अपने क्षेत्र का विस्तार किया, आखिरकार नैनीताल और आस पास के क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर पाए, जो इतने लंबे समय तक स्वतंत्र रहा था। खसिया राजाओं ने अपनी स्वतंत्रता का पुन: प्राप्त करने का एक प्रयास किया। १५६० में, रामगढ़ के एक खसिया के नेतृत्व में, उन्होंने सफलता के एक संक्षिप्त क्षण का आनंद लिया, लेकिन बालो कल्याण चंद द्वारा निर्ममतापूर्वक गंभीरता के साथ उन्हें वश में कर लिया गया। इस अवधि में पहाड़ी क्षेत्र के प्रशासन पर बहुत कम या कोई प्रयास नहीं किया गया था। आइन-ए-अकबरी में कुमाऊँ के जिन भी महलों का उल्लेख किया गया है, वे सभी मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं। देवी चंद के शासनकाल के दौरान, जो १७२० में राजा बने थे, कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा द्वारा आक्रमण किया गया, लेकिन उन्होंने क्षेत्र पर कोई कब्ज़ा नहीं किया। इसके बीस वर्ष बाद कुमाऊं की पहाड़ियों पर फिर से आक्रमण हुआ, इस बार रुहेलों द्वारा, जिनके साथ वर्ष १७४३ में युद्ध छिड़ गया था। रुहेला लड़ते हुए भीमताल तक घुस गए, और इसे लूट लिया। हालाँकि, उन्हें अंततः गढ़वाल के राजा द्वारा खरीद लिया गया, जिन्होंने उस समय कुमाऊं के तत्कालीन राजा कल्याण चंद के साथ एक अस्थायी गठबंधन बना लिया था। एक और आक्रमण, दो साल बाद, कल्याण चंद के प्रधान मंत्री शिव देव जोशी द्वारा निरस्त कर दिया गया। १७४७ में कल्याण चंद की मृत्यु के साथ, कुमायूं के राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी। | सोम चंद ने किस शासक की बेटी से शादी की थी ? | कत्यूरी राजा | som chand ne kis shaasha kii beti se shaadi kii thi ? |
प्राचीन काल में कुमाऊँ कई छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित था, और नैनीताल क्षेत्र एक खसिया परिवार की विभिन्न शाखाओं के अधीन था। कुमायूँ पर समेकित प्रभुत्व प्राप्त करने वाला पहला राजवंश चन्द वंश था। इस वंश के संस्थापक इलाहाबाद के पास स्थित झूसी से आये सोम चन्द थे, जिन्होंने लगभग सातवीं शताब्दी में, कत्यूरी राजा की बेटी से शादी की, फिर कुमाऊं के अंदरूनी हिस्सों में बढ़ गए। दहेज के रूप में उन्हें चम्पावत नगर और साथ ही भाबर और तराई की भूमि दी गयी थी। चम्पावत में अपनी राजधानी स्थापित कर सोम चन्द और उनके वंशजों ने धीरे धीरे आस पास के क्षेत्रों पर आक्रमण और फिर अधिकार करना शुरू किया। इस प्रकार चम्पावत ही वह नाभिक था, जहाँ से पूरे कुमायूं पर चन्द प्रभुत्व का विस्तार हुआ, लेकिन यह पूरा होने में कई शताब्दियाँ लग गयी थी, और नैनीताल तथा इसके आसपास का क्षेत्र अवशोषित होने वाले अंतिम क्षेत्रों में से एक था। भीमताल, जो नैनीताल से केवल तेरह मील की दूरी पर है, वहाँ तेरहवीं शताब्दी में त्रिलोकी चन्द ने अपनी सरहदों की रक्षा के लिए एक किला बनाया था। लेकिन उस समय, नैनीताल स्वयं चन्द शासन के अधीन नहीं था, और राज्य की पश्चिमी सीमा से सटा हुआ था। सन १४२० में राजा उद्यान चन्द के शासनकाल में, चन्द राज्य की पश्चिमी सीमा कोशी और सुयाल नदियों तक विस्तृत थी, लेकिम रामगढ़ और कोटा अभी भी पूर्व खसिया शासन के अधीन थे। किराट चन्द, जिन्होंने १४८८ से १५०३ तक शासन किया, और अपने क्षेत्र का विस्तार किया, आखिरकार नैनीताल और आस पास के क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर पाए, जो इतने लंबे समय तक स्वतंत्र रहा था। खसिया राजाओं ने अपनी स्वतंत्रता का पुन: प्राप्त करने का एक प्रयास किया। १५६० में, रामगढ़ के एक खसिया के नेतृत्व में, उन्होंने सफलता के एक संक्षिप्त क्षण का आनंद लिया, लेकिन बालो कल्याण चंद द्वारा निर्ममतापूर्वक गंभीरता के साथ उन्हें वश में कर लिया गया। इस अवधि में पहाड़ी क्षेत्र के प्रशासन पर बहुत कम या कोई प्रयास नहीं किया गया था। आइन-ए-अकबरी में कुमाऊँ के जिन भी महलों का उल्लेख किया गया है, वे सभी मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं। देवी चंद के शासनकाल के दौरान, जो १७२० में राजा बने थे, कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा द्वारा आक्रमण किया गया, लेकिन उन्होंने क्षेत्र पर कोई कब्ज़ा नहीं किया। इसके बीस वर्ष बाद कुमाऊं की पहाड़ियों पर फिर से आक्रमण हुआ, इस बार रुहेलों द्वारा, जिनके साथ वर्ष १७४३ में युद्ध छिड़ गया था। रुहेला लड़ते हुए भीमताल तक घुस गए, और इसे लूट लिया। हालाँकि, उन्हें अंततः गढ़वाल के राजा द्वारा खरीद लिया गया, जिन्होंने उस समय कुमाऊं के तत्कालीन राजा कल्याण चंद के साथ एक अस्थायी गठबंधन बना लिया था। एक और आक्रमण, दो साल बाद, कल्याण चंद के प्रधान मंत्री शिव देव जोशी द्वारा निरस्त कर दिया गया। १७४७ में कल्याण चंद की मृत्यु के साथ, कुमायूं के राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी। | भीमताल से नैनीताल की दूरी कितनी है ? | तेरह मील | bhimtal se nainital kii duuri kitni he ? |
प्राचीन काल में लोग वैदिक मंत्रों और अग्नि-यज्ञ से कई देवताओं की पूजा करते थे। आर्य देवताओं की कोई मूर्ति या मन्दिर नहीं बनाते थे। प्रमुख देवता थे : देवराज इन्द्र, अग्नि, सोम और वरुण। उनके लिये वैदिक मन्त्र पढ़े जाते थे और अग्नि में घी, दूध, दही, जौ, इत्यागि की आहुति दी जाती थी। भारत एक विशाल देश है, लेकिन उसकी विशालता और महानता को हम तब तक नहीं जान सकते, जब तक कि उसे देखें नहीं। इस ओर वैसे अनेक महापुरूषों का ध्यान गया, लेकिन आज से बारह सौ वर्ष पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने इसके लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होनें चारों दिशाओं में भारत के छोरों पर, चार पीठ (मठ) स्थापित उत्तर में बदरीनाथ के निकट ज्योतिपीठ, दक्षिण में रामेश्वरम् के निकट श्रृंगेरी पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ और पश्चिम में द्वारिकापीठ। तीर्थों के प्रति हमारे देशवासियों में बड़ी भक्ति भावना है। इसलिए शंकराचार्य ने इन पीठो की स्थापना करके देशवासियों को पूरे भारत के दर्शन करने का सहज अवसर दे दिया। ये चारों तीर्थ चार धाम कहलाते है। लोगों की मान्यता है कि जो इन चारों धाम की यात्रा कर लेता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है। ज्यादातर हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिये मूर्ति एक आसान सा साधन है, जिसमें कि एक ही निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिये ईश्वर की भक्ति करने के लिये एक साधन मात्र हैं। हिन्दुओं के उपासना स्थलों को मन्दिर कहते हैं। प्राचीन वैदिक काल में मन्दिर नहीं होते थे। तब उपासना अग्नि के स्थान पर होती थी जिसमें एक सोने की मूर्ति ईश्वर के प्रतीक के रूप में स्थापित की जाती थी। एक नज़रिये के मुताबिक बौद्ध और जैन धर्मों द्वारा बुद्ध और महावीर की मूर्तियों और मन्दिरों द्वारा पूजा करने की वजह से हिन्दू भी उनसे प्रभावित होकर मन्दिर बनाने लगे। हर मन्दिर में एक या अधिक देवताओं की उपासना होती है। गर्भगृह में इष्टदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। मन्दिर प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। कई मन्दिरों में हर साल लाखों तीर्थयात्री आते हैं। अधिकाँश हिन्दू चार शंकराचार्यों को (जो ज्योतिर्मठ, द्वारिका, शृंगेरी और पुरी के मठों के मठाधीश होते हैं) हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं। नववर्ष - द्वादशमासै: संवत्सर:। ' ऐसा वेद वचन है, इसलिए यह जगत्मान्य हुआ। | चार पीठों की स्थापना किसने की थी? | आदिगुरू शंकराचार्य | chaar peethon kii sthapana kisne kii thi? |
प्राचीन काल में लोग वैदिक मंत्रों और अग्नि-यज्ञ से कई देवताओं की पूजा करते थे। आर्य देवताओं की कोई मूर्ति या मन्दिर नहीं बनाते थे। प्रमुख देवता थे : देवराज इन्द्र, अग्नि, सोम और वरुण। उनके लिये वैदिक मन्त्र पढ़े जाते थे और अग्नि में घी, दूध, दही, जौ, इत्यागि की आहुति दी जाती थी। भारत एक विशाल देश है, लेकिन उसकी विशालता और महानता को हम तब तक नहीं जान सकते, जब तक कि उसे देखें नहीं। इस ओर वैसे अनेक महापुरूषों का ध्यान गया, लेकिन आज से बारह सौ वर्ष पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने इसके लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होनें चारों दिशाओं में भारत के छोरों पर, चार पीठ (मठ) स्थापित उत्तर में बदरीनाथ के निकट ज्योतिपीठ, दक्षिण में रामेश्वरम् के निकट श्रृंगेरी पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ और पश्चिम में द्वारिकापीठ। तीर्थों के प्रति हमारे देशवासियों में बड़ी भक्ति भावना है। इसलिए शंकराचार्य ने इन पीठो की स्थापना करके देशवासियों को पूरे भारत के दर्शन करने का सहज अवसर दे दिया। ये चारों तीर्थ चार धाम कहलाते है। लोगों की मान्यता है कि जो इन चारों धाम की यात्रा कर लेता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है। ज्यादातर हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिये मूर्ति एक आसान सा साधन है, जिसमें कि एक ही निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिये ईश्वर की भक्ति करने के लिये एक साधन मात्र हैं। हिन्दुओं के उपासना स्थलों को मन्दिर कहते हैं। प्राचीन वैदिक काल में मन्दिर नहीं होते थे। तब उपासना अग्नि के स्थान पर होती थी जिसमें एक सोने की मूर्ति ईश्वर के प्रतीक के रूप में स्थापित की जाती थी। एक नज़रिये के मुताबिक बौद्ध और जैन धर्मों द्वारा बुद्ध और महावीर की मूर्तियों और मन्दिरों द्वारा पूजा करने की वजह से हिन्दू भी उनसे प्रभावित होकर मन्दिर बनाने लगे। हर मन्दिर में एक या अधिक देवताओं की उपासना होती है। गर्भगृह में इष्टदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। मन्दिर प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। कई मन्दिरों में हर साल लाखों तीर्थयात्री आते हैं। अधिकाँश हिन्दू चार शंकराचार्यों को (जो ज्योतिर्मठ, द्वारिका, शृंगेरी और पुरी के मठों के मठाधीश होते हैं) हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं। नववर्ष - द्वादशमासै: संवत्सर:। ' ऐसा वेद वचन है, इसलिए यह जगत्मान्य हुआ। | हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को क्या कहा जाता है? | चार धाम | hinduon ke tirth sthalon ko kya kaha jaataa he? |
प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया। बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है। बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे. बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है। बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है, उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता। अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय, किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए। बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया. ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है। बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त ("उत्तेजनाहीन होना, क्षणस्थायी होना") को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था। इन्हें भी देखें: प्राणायामयोगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास", शब्द विन्यास योगाचारा, दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था। योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया, एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है। ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग सिखाता है। ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन" के माध्यम से)महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है। बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है। पश्चिम में, जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है। यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है। [81]योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं। योग तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है। न्यिन्गमा परंपरा में, ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानों, या वाहन मे विभाजित है, कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है। अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है, यह है:क्रिया योग, उप योग (चर्या), योगा याना, महा योग, अनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग, उपा (चर्या) और योग को शामिल किया हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं। यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है। (तिब. तरुल खोर), यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम), ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है। लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाया है। चांग (1993) द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो) अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है कि "यह संपूर्ण तिब्बती योगा की बुनियाद है". चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा प्राना और मन को सुलह करता है, और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है। | महायान बौद्ध धर्म के दुसरे रूप का क्या नाम है? | ज़ेन | mahayan buddha dharm ke dusre rup kaa kya naam he? |
प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया। बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है। बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे. बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है। बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है, उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता। अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय, किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए। बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया. ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है। बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त ("उत्तेजनाहीन होना, क्षणस्थायी होना") को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था। इन्हें भी देखें: प्राणायामयोगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास", शब्द विन्यास योगाचारा, दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था। योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया, एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है। ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग सिखाता है। ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन" के माध्यम से)महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है। बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है। पश्चिम में, जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है। यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है। [81]योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं। योग तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है। न्यिन्गमा परंपरा में, ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानों, या वाहन मे विभाजित है, कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है। अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है, यह है:क्रिया योग, उप योग (चर्या), योगा याना, महा योग, अनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग, उपा (चर्या) और योग को शामिल किया हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं। यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है। (तिब. तरुल खोर), यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम), ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है। लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाया है। चांग (1993) द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो) अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है कि "यह संपूर्ण तिब्बती योगा की बुनियाद है". चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा प्राना और मन को सुलह करता है, और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है। | बोधिसत्व तक पहुंचने मार्ग किसके द्वारा दिखाया गया था ? | योगकारा | bodhisattva tak pahunchane maarg kiske dwaara dikhaaya gaya tha ? |
प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया। बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है। बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे. बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है। बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है, उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता। अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय, किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए। बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया. ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है। बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त ("उत्तेजनाहीन होना, क्षणस्थायी होना") को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था। इन्हें भी देखें: प्राणायामयोगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास", शब्द विन्यास योगाचारा, दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था। योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया, एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है। ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग सिखाता है। ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन" के माध्यम से)महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है। बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है। पश्चिम में, जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है। यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है। [81]योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं। योग तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है। न्यिन्गमा परंपरा में, ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानों, या वाहन मे विभाजित है, कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है। अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है, यह है:क्रिया योग, उप योग (चर्या), योगा याना, महा योग, अनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग, उपा (चर्या) और योग को शामिल किया हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं। यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है। (तिब. तरुल खोर), यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम), ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है। लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाया है। चांग (1993) द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो) अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है कि "यह संपूर्ण तिब्बती योगा की बुनियाद है". चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा प्राना और मन को सुलह करता है, और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है। | निंग्मा परंपरा का दूसरा नाम क्या है? | परम व्यूत्पन्न | ningma parampara kaa doosraa naam kya he? |
प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया। बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है। बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे. बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है। बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है, उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता। अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय, किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए। बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया. ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है। बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त ("उत्तेजनाहीन होना, क्षणस्थायी होना") को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था। इन्हें भी देखें: प्राणायामयोगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास", शब्द विन्यास योगाचारा, दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था। योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया, एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है। ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग सिखाता है। ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन" के माध्यम से)महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है। बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है। पश्चिम में, जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है। यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है। [81]योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं। योग तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है। न्यिन्गमा परंपरा में, ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानों, या वाहन मे विभाजित है, कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है। अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है, यह है:क्रिया योग, उप योग (चर्या), योगा याना, महा योग, अनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग, उपा (चर्या) और योग को शामिल किया हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं। यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है। (तिब. तरुल खोर), यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम), ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है। लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाया है। चांग (1993) द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो) अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है कि "यह संपूर्ण तिब्बती योगा की बुनियाद है". चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा प्राना और मन को सुलह करता है, और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है। | निंग्मा परंपरा में ध्यान के अभ्यास के रास्ते को कितने भागो में विभाजित किया गया हैं ? | नौ यानों, या वाहन | ningma parampara main dhyaan ke abhyaas ke raste ko kitne bhaago main vibhajit kiya gaya hai ? |
प्रारंभिक 1500 के आसपास तैमूरी राजवंश के राजकुमार बाबर के द्वारा उमैरिड्स साम्राज्य के नींव की स्थापना हुई, जब उन्होंने दोआब पर कब्जा किया और खोरासन के पूर्वी क्षेत्र द्वारा सिंध के उपजाऊ क्षेत्र और सिंधु नदी के निचले घाटी को नियंत्रित किया। [5][5] 1526 में, बाबर ने दिल्ली के सुल्तानों में आखिरी सुलतान, इब्राहिम शाह लोदी, को पानीपत के पहले युद्ध में हराया। अपने नए राज्य की स्थापना को सुरक्षित करने के लिए, बाबर को खानवा के युद्ध में राजपूत संधि का सामना करना पड़ा जो चित्तौड़ के राणा साँगा के नेतृत्व में था। विरोधियों से काफी ज़्यादा छोटी सेना द्वारा हासिल की गई, तुर्क की प्रारंभिक सैन्य सफलताओं को उनकी एकता, गतिशीलता, घुड़सवार धनुर्धारियों और तोपखाने के इस्तेमाल में विशेषता के लिए ठहराया गया है। 1530 में बाबर का बेटा हुमायूँ उत्तराधिकारी बना लेकिन पश्तून शेरशाह सूरी के हाथों प्रमुख उलट-फेर सहे और नए साम्राज्य के अधिकाँश भाग को क्षेत्रीय राज्य से आगे बढ़ने से पहले ही प्रभावी रूप से हार गए। 1540 से हुमायूं एक निर्वासित शासक बने, 1554 में साफाविद दरबार में पहुँचे जबकि अभी भी कुछ किले और छोटे क्षेत्र उनकी सेना द्वारा नियंत्रित थे। लेकिन शेर शाह सूरी के निधन के बाद जब पश्तून अव्यवस्था में गिर गया, तब हुमायूं एक मिश्रित सेना के साथ लौटे, अधिक सैनिकों को बटोरा और 1555 में दिल्ली को पुनः जीतने में कामयाब रहे। हुमायूं ने अपनी पत्नी के साथ मकरन के खुरदुरे इलाकों को पार किया, लेकिन यात्रा की निष्ठुरता से बचाने के लिए अपने शिशु बेटे जलालुद्दीन को पीछे छोड़ गए। जलालुद्दीन को बाद के वर्षों में अकबर के नाम से बेहतर जाना गया। वे सिंध के शहर, अमरकोट में पैदा हुए जहाँ उनके चाचा अस्करी ने उन्हें पाला। | दिल्ली के अंतिम सुल्तान का क्या नाम था? | इब्राहिम शाह लोदी | dilli ke antim sultan kaa kya naam tha? |
प्रारंभिक 1500 के आसपास तैमूरी राजवंश के राजकुमार बाबर के द्वारा उमैरिड्स साम्राज्य के नींव की स्थापना हुई, जब उन्होंने दोआब पर कब्जा किया और खोरासन के पूर्वी क्षेत्र द्वारा सिंध के उपजाऊ क्षेत्र और सिंधु नदी के निचले घाटी को नियंत्रित किया। [5][5] 1526 में, बाबर ने दिल्ली के सुल्तानों में आखिरी सुलतान, इब्राहिम शाह लोदी, को पानीपत के पहले युद्ध में हराया। अपने नए राज्य की स्थापना को सुरक्षित करने के लिए, बाबर को खानवा के युद्ध में राजपूत संधि का सामना करना पड़ा जो चित्तौड़ के राणा साँगा के नेतृत्व में था। विरोधियों से काफी ज़्यादा छोटी सेना द्वारा हासिल की गई, तुर्क की प्रारंभिक सैन्य सफलताओं को उनकी एकता, गतिशीलता, घुड़सवार धनुर्धारियों और तोपखाने के इस्तेमाल में विशेषता के लिए ठहराया गया है। 1530 में बाबर का बेटा हुमायूँ उत्तराधिकारी बना लेकिन पश्तून शेरशाह सूरी के हाथों प्रमुख उलट-फेर सहे और नए साम्राज्य के अधिकाँश भाग को क्षेत्रीय राज्य से आगे बढ़ने से पहले ही प्रभावी रूप से हार गए। 1540 से हुमायूं एक निर्वासित शासक बने, 1554 में साफाविद दरबार में पहुँचे जबकि अभी भी कुछ किले और छोटे क्षेत्र उनकी सेना द्वारा नियंत्रित थे। लेकिन शेर शाह सूरी के निधन के बाद जब पश्तून अव्यवस्था में गिर गया, तब हुमायूं एक मिश्रित सेना के साथ लौटे, अधिक सैनिकों को बटोरा और 1555 में दिल्ली को पुनः जीतने में कामयाब रहे। हुमायूं ने अपनी पत्नी के साथ मकरन के खुरदुरे इलाकों को पार किया, लेकिन यात्रा की निष्ठुरता से बचाने के लिए अपने शिशु बेटे जलालुद्दीन को पीछे छोड़ गए। जलालुद्दीन को बाद के वर्षों में अकबर के नाम से बेहतर जाना गया। वे सिंध के शहर, अमरकोट में पैदा हुए जहाँ उनके चाचा अस्करी ने उन्हें पाला। | बादशाह अकबर के चाचा का क्या नाम था? | अस्करी | badshaah akbar ke chachaa kaa kya naam tha? |
प्रारंभिक 1500 के आसपास तैमूरी राजवंश के राजकुमार बाबर के द्वारा उमैरिड्स साम्राज्य के नींव की स्थापना हुई, जब उन्होंने दोआब पर कब्जा किया और खोरासन के पूर्वी क्षेत्र द्वारा सिंध के उपजाऊ क्षेत्र और सिंधु नदी के निचले घाटी को नियंत्रित किया। [5][5] 1526 में, बाबर ने दिल्ली के सुल्तानों में आखिरी सुलतान, इब्राहिम शाह लोदी, को पानीपत के पहले युद्ध में हराया। अपने नए राज्य की स्थापना को सुरक्षित करने के लिए, बाबर को खानवा के युद्ध में राजपूत संधि का सामना करना पड़ा जो चित्तौड़ के राणा साँगा के नेतृत्व में था। विरोधियों से काफी ज़्यादा छोटी सेना द्वारा हासिल की गई, तुर्क की प्रारंभिक सैन्य सफलताओं को उनकी एकता, गतिशीलता, घुड़सवार धनुर्धारियों और तोपखाने के इस्तेमाल में विशेषता के लिए ठहराया गया है। 1530 में बाबर का बेटा हुमायूँ उत्तराधिकारी बना लेकिन पश्तून शेरशाह सूरी के हाथों प्रमुख उलट-फेर सहे और नए साम्राज्य के अधिकाँश भाग को क्षेत्रीय राज्य से आगे बढ़ने से पहले ही प्रभावी रूप से हार गए। 1540 से हुमायूं एक निर्वासित शासक बने, 1554 में साफाविद दरबार में पहुँचे जबकि अभी भी कुछ किले और छोटे क्षेत्र उनकी सेना द्वारा नियंत्रित थे। लेकिन शेर शाह सूरी के निधन के बाद जब पश्तून अव्यवस्था में गिर गया, तब हुमायूं एक मिश्रित सेना के साथ लौटे, अधिक सैनिकों को बटोरा और 1555 में दिल्ली को पुनः जीतने में कामयाब रहे। हुमायूं ने अपनी पत्नी के साथ मकरन के खुरदुरे इलाकों को पार किया, लेकिन यात्रा की निष्ठुरता से बचाने के लिए अपने शिशु बेटे जलालुद्दीन को पीछे छोड़ गए। जलालुद्दीन को बाद के वर्षों में अकबर के नाम से बेहतर जाना गया। वे सिंध के शहर, अमरकोट में पैदा हुए जहाँ उनके चाचा अस्करी ने उन्हें पाला। | अकबर के पिता कौन थे ? | हुमायूं | akbar ke pita koun the ? |
प्रारंभिक 1500 के आसपास तैमूरी राजवंश के राजकुमार बाबर के द्वारा उमैरिड्स साम्राज्य के नींव की स्थापना हुई, जब उन्होंने दोआब पर कब्जा किया और खोरासन के पूर्वी क्षेत्र द्वारा सिंध के उपजाऊ क्षेत्र और सिंधु नदी के निचले घाटी को नियंत्रित किया। [5][5] 1526 में, बाबर ने दिल्ली के सुल्तानों में आखिरी सुलतान, इब्राहिम शाह लोदी, को पानीपत के पहले युद्ध में हराया। अपने नए राज्य की स्थापना को सुरक्षित करने के लिए, बाबर को खानवा के युद्ध में राजपूत संधि का सामना करना पड़ा जो चित्तौड़ के राणा साँगा के नेतृत्व में था। विरोधियों से काफी ज़्यादा छोटी सेना द्वारा हासिल की गई, तुर्क की प्रारंभिक सैन्य सफलताओं को उनकी एकता, गतिशीलता, घुड़सवार धनुर्धारियों और तोपखाने के इस्तेमाल में विशेषता के लिए ठहराया गया है। 1530 में बाबर का बेटा हुमायूँ उत्तराधिकारी बना लेकिन पश्तून शेरशाह सूरी के हाथों प्रमुख उलट-फेर सहे और नए साम्राज्य के अधिकाँश भाग को क्षेत्रीय राज्य से आगे बढ़ने से पहले ही प्रभावी रूप से हार गए। 1540 से हुमायूं एक निर्वासित शासक बने, 1554 में साफाविद दरबार में पहुँचे जबकि अभी भी कुछ किले और छोटे क्षेत्र उनकी सेना द्वारा नियंत्रित थे। लेकिन शेर शाह सूरी के निधन के बाद जब पश्तून अव्यवस्था में गिर गया, तब हुमायूं एक मिश्रित सेना के साथ लौटे, अधिक सैनिकों को बटोरा और 1555 में दिल्ली को पुनः जीतने में कामयाब रहे। हुमायूं ने अपनी पत्नी के साथ मकरन के खुरदुरे इलाकों को पार किया, लेकिन यात्रा की निष्ठुरता से बचाने के लिए अपने शिशु बेटे जलालुद्दीन को पीछे छोड़ गए। जलालुद्दीन को बाद के वर्षों में अकबर के नाम से बेहतर जाना गया। वे सिंध के शहर, अमरकोट में पैदा हुए जहाँ उनके चाचा अस्करी ने उन्हें पाला। | जलालुद्दीन को किस नाम से जाना जाता है? | अकबर | jilaluddin ko kis naam se janaa jaataa he? |
प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं नंद वंश के बारे में। उनके मुताबिक, वह महापद्मनंद ही थे, जिन्हें पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इन्हें ही परशुराम के रूप में चित्रित किया होपहले बता चुका हूं कि महाजनपदीय राजतंत्रों में सत्ता पलट के लिए हिंसा और विश्वासघात धीरे-धीरे साधारण चीजें होती गयीं। सभी राजा हर समय हिंसा और विश्वासघात से डरे-सहमे रहते थे। यह डर उन्हें अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों, अधिकारियों से लेकर बाहरी दुश्मनों तक से था। मगध के प्रथम वृहद्रथ राजवंश के तीसरे राजा रिपुंजय की हत्या उसके मंत्री पुलिक ने कर दी थी। बिम्बिसार का हर्यंक वंश तो पितृहन्ता वंश ही कहा जाता है, जिसमें लगातार दो राजकुमारों ने अपने पिता राजाओं को वध कर सत्ता झपट ली। इस राजवंश ने लम्बे समय तक शासन किया, लेकिन इसके एक राजा महानन्दिन को शिशुनाग नाम के एक व्यक्ति ने अंततः उखाड़ फेंका और मगध की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। यह घटना ईसापूर्व 412 में हुई थी। हर्यंक वंश ने कुल मिला कर 133 वर्षों तक राज किया। लेकिन 412 से 344 ईसापूर्व तक मगध पर शिशुनाग अथवा शैशुनाग वंश का राज रहा। शिशुनाग ने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से वैशाली में स्थानांतरित किया और इसके बेटे कला-अशोक के शासनकाल में 383 ईस्वीपूर्व में बौद्धों की दूसरी महासंगीति अथवा महापरिषद वैशाली में आयोजित हुई। इसके पश्चात मगध की राजधानी को पुनः पाटलिपुत्र में ला दिया गया, क्योंकि व्यापार और प्रशासन के ख्याल से यह अधिक उपयुक्त था। कला-अशोक के बेटे नन्दिवर्धन के राजकाल (366-344 ईसापूर्व) में एकबार फिर खूनी-खेल हुआ। इस राजा के एक अधिकारी ने राजकाज और दरबार में खास रुतबा बना लिया और अंततः धोखे से राजा की हत्या कर दी। हत्या करने वाला अधिकारी महापद्मनंद था, जिसका कहीं-कहीं महापद्मपति, उग्रसेन, अग्रसेन और यूनानी ग्रंथों में अग्रेमिस के रूप में भी उल्लेख मिलता है। वह निश्चित रूप से चालाक, कुटिल और महत्वाकांक्षी था। लेकिन यह भी कहा जाना चाहिए कि इन सब के साथ वह स्वप्नदर्शी था और उसमें राज-प्रबंधन और शासन करने की अद्भुत क्षमता थी। उसने जल्दी ही शिशुनाग-राजतन्त्र को अपने काबू में कर लिया और स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। यह घटना 344 ईसापूर्व की है। इस महापद्मनंद के नाम से ही इस पूरे राजवंश को नन्द वंश कहा जाता है। इस वंश के अंतिम राजा धननंद को ही अपदस्थ कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य राजवंश की स्थापना की थी। धननंद 322 ईसापूर्व में अपदस्थ हुआ और इसके साथ ही मौर्य काल का आरम्भ हो गया ,क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सत्ता संभाल ली। इस तरह बहुत लम्बे समय तक नन्द वंश का शासन नहीं चला। 344 से 322 ईसापूर्व तक, यानि कुल जमा बाईस वर्षों तक। जनश्रुतियों और इतिहास में नौ नंदों की चर्चा है। माना जाता है कि ये सभी राजा थे। इनके नाम जान लेना बुरा नहीं होगा। ये थे – उग्रसेन, पाण्डुक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविश्नक, दाससिद्धक, कैवर्त तथा धननंद। लेकिन यह भी कहा जाता है कि नन्द बस दो पीढ़ियों तक राज कर सके। उग्रसेन – जिसे महापद्मनंद भी कहा जाता है के आठ पुत्र थे। इन आठों में धननंद ही राजा हुआ। शेष नन्द संभव है सत्ता में भागीदार हों, और इसलिए सब मिलकर नौ-नन्द कहा जाता होगा। महापद्मनंद इतना होशियार था कि अपने पुत्रों के बीच एकता बनाये रखने हेतु एक तरकीब के तहत नौ-नन्द की पहल की होगी, ताकि सब संतुष्ट रहें। हालांकि यह एक अनुमान ही है। हमारा काम तो इतने भर से है कि नन्द वंश का राज बाईस वर्षों तक रहा। इस वंश को इतिहासकारों ने अपेक्षित महत्व नहीं दिया है। इसके अनेक कारण हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों और स्रोतों के अनुसार यह पहला शासक था, जो समाज के निचले पायदान से आया था। महापद्मनंद नापित (नाई ) परिवार से आता था और जन्म तथा तत्कालीन रिवाजों के अनुसार उसकी जाति शूद्र थी, जिसका काम लोगों की सेवा करना निर्धारित था, राज करना नहीं। मगध के समाज में भी ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में थे, जो इस तरह के एक व्यक्ति के राजसत्ता में आ जाने से चकित और चिढ़े हुए थे। इसलिए महापद्मनंद की जितनी भी भर्त्सना संभव थी, उतनी की गयी है। उसे गणिका (वेश्या) पुत्र से लेकर नीच कुलोत्पन्न, अनभिजात, नापितकुमार आदि कह कर अवहेलना की गई है। यह तो निश्चित है कि समाज के तथाकथित ‘बड़े लोगों’ के बीच उसकी मान्यता नहीं थी। चूकि यही ‘बड़े लोग’ पुराण और अभिलेखों के रचयिता होते थे, इसलिए इन लोगों ने अपनी राय महापद्मनंद और पूरे नन्द-काल के बारे में रखी है। लेकिन उनकी इन घृणित टिप्पणियों से ही नन्द राजाओं की प्रकृति और प्रवृत्ति का भी पता चलता है। वह यह कि महापद्मनंद और अन्य नन्द राजा तथाकथित बड़े लोगों अर्थात द्विजों के सामाजिक स्वार्थों के अनुकूल नहीं रहे होंगे। इस आधुनिक ज़माने में भी इसी मगध (बिहार) में कर्पूरी ठाकुर को राजनीति में अपमानित होते देखा गया है। संयोग से कर्पूरी ठाकुर भी उसी नाई समाज से थे, जिससे महापद्मनंद थे। महापद्मनंद या उसके पुत्र धननंद ने भी द्विज समाज से समझौते की कोई पहल नहीं की और तथाकथित बड़े लोगों के ठसक की अवहेलना ही की। ऐसा भी कोई संकेत-साक्ष्य नहीं मिलता कि नंदों ने इन प्रश्रय-प्राप्त लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई की हो, जैसा कि हम आगे विचार करेंगे कि किस प्रकार नंदों ने वृहद परिप्रेक्ष्य में राजनीति को देखा और ईर्ष्या-डाह जैसी प्रवृत्तियों को विकसित करने में उनकी कोई रूचि नहीं रही। बावजूद धननंद के शासनकाल में द्विजों का एक कुटिल-विद्रोह हुआ, इसकी सूचना मिलती है। संभवतः इस विद्रोह का नेता चाणक्य था, जिसकी आज भी द्विज समाज में काफी प्रतिष्ठा है। कथा और इतिहास यही है कि चाणक्य ने एक दूसरे शूद्र युवक चन्द्रगुप्त को आगे किया और धननंद को सत्ताच्युत कर दिया गया। ऐतिहासिक स्रोत बतलाते हैं कि शूद्र चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मण कौटिल्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। विवरणों के अनुसार कौटिल्य ने ऐसी पहल धननंद से भी की थी। उसके इंकार को कौटिल्य चाणक्य ने अपना अपमान माना और प्रतिज्ञा की कि हर हाल में नन्द वंश का नाश कर दूंगा। अंततः शूद्र चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की यह प्रतिज्ञा पूरी की। किसने किसका इस्तेमाल किया, यह एक पहेली है और शायद रहेगी भी। इतिहासकारों और इतिहास समीक्षकों ने नंदों की भूमिका का सम्यक आकलन नहीं किया है। मौर्य भी शूद्र थे। लेकिन मौर्यों को आवश्यकता से अधिक प्रशस्ति मिली। इसके कारण वही हैं जिसकी चर्चा मैंने ऊपर में की है। मौर्यों और नंदों में अंतर यही था कि एक ने द्विज नेतृत्व को स्वीकार लिया था और दूसरे ने इंकार दिया था। नंदों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन हम फिलहाल नंदों की भूमिका पर ही विचार करना चाहेंगे, क्योंकि इधर-उधर जाना विषयांतर होना होगा। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा, महापद्मनंद ऐसा राजा या शासक नहीं था, जिसकी हम उपेक्षा करें। उसकी चुनौतियाँ चन्द्रगुप्त से कहीं अधिक कठिन थी। उसने किसी मजबूत और यशस्वी राजा को नहीं, बल्कि एक पिलपिले कठपुतली चरित्र वाले राजा को अपदस्थ किया था। यह उसके अपने हित से अधिक समाज और देश हित के लिए उचित था। यह ठीक है कि उसकी सामाजिक औकात कमजोर थी और यह भी मान लिया कि वह “नीच -कुलोत्पन्न” था। वह किसी राजा का बेटा नहीं, एक फटेहाल नाई का बेटा था, जैसा कि कर्टियस ने लिखा है कि ‘उसका पिता नाई था, जो दिन भर अपनी कमाई से किसी तरह पेट भरता था। ’ ऐसे फटेहाल व्यक्ति का बेटा यदि एक बड़े निरंकुश राजतन्त्र का संस्थापक बनता है, तब इसे एक उल्लेखनीय घटना ही कहा जाना चाहिए। हमें इस बात की खोज भी करनी चाहिए कि इसके कारण तत्व क्या थे और पूरे इतिहास-चक्र पर इस घटना का कोई प्रभाव पड़ा या नहीं? महापद्मनंद के इस तरह उठ खड़े होने के पीछे उसके व्यक्तिगत गुण तो निश्चय रूप से थे, लेकिन सामाजिक कारण भी रहे थे। मगध में, जैसा कि पहले ही कहा है, वर्ण धर्म के आधार कमजोर रहे हैं। इसी कारण वैदिक ऋषि इस इलाके से इतने रुष्ट रहते थे कि ज्वर से उस कीकट (मगध का पुराना नाम) में जाने की प्रार्थना करते हैं, जहाँ उसके विरोधी रहते हैं। यह अकारण नहीं था कि बौद्धों को यहां आधार मिला था। उनलोगों ने भी स्थिर समाज में थोड़ी हलचल पैदा की थी। बुद्ध की मृत्यु के कुछ ही समय बाद प्रथम बौद्ध परिषद्, जो राजगीर के सप्तपर्णी गुफा में हुई थी, की अध्यक्षता एक नाई उपालि ने की थी। | मौर्य वंश की स्थापना किसने की थी? | चन्द्रगुप्त मौर्य | maury vansh kii sthapana kisne kii thi? |
प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं नंद वंश के बारे में। उनके मुताबिक, वह महापद्मनंद ही थे, जिन्हें पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इन्हें ही परशुराम के रूप में चित्रित किया होपहले बता चुका हूं कि महाजनपदीय राजतंत्रों में सत्ता पलट के लिए हिंसा और विश्वासघात धीरे-धीरे साधारण चीजें होती गयीं। सभी राजा हर समय हिंसा और विश्वासघात से डरे-सहमे रहते थे। यह डर उन्हें अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों, अधिकारियों से लेकर बाहरी दुश्मनों तक से था। मगध के प्रथम वृहद्रथ राजवंश के तीसरे राजा रिपुंजय की हत्या उसके मंत्री पुलिक ने कर दी थी। बिम्बिसार का हर्यंक वंश तो पितृहन्ता वंश ही कहा जाता है, जिसमें लगातार दो राजकुमारों ने अपने पिता राजाओं को वध कर सत्ता झपट ली। इस राजवंश ने लम्बे समय तक शासन किया, लेकिन इसके एक राजा महानन्दिन को शिशुनाग नाम के एक व्यक्ति ने अंततः उखाड़ फेंका और मगध की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। यह घटना ईसापूर्व 412 में हुई थी। हर्यंक वंश ने कुल मिला कर 133 वर्षों तक राज किया। लेकिन 412 से 344 ईसापूर्व तक मगध पर शिशुनाग अथवा शैशुनाग वंश का राज रहा। शिशुनाग ने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से वैशाली में स्थानांतरित किया और इसके बेटे कला-अशोक के शासनकाल में 383 ईस्वीपूर्व में बौद्धों की दूसरी महासंगीति अथवा महापरिषद वैशाली में आयोजित हुई। इसके पश्चात मगध की राजधानी को पुनः पाटलिपुत्र में ला दिया गया, क्योंकि व्यापार और प्रशासन के ख्याल से यह अधिक उपयुक्त था। कला-अशोक के बेटे नन्दिवर्धन के राजकाल (366-344 ईसापूर्व) में एकबार फिर खूनी-खेल हुआ। इस राजा के एक अधिकारी ने राजकाज और दरबार में खास रुतबा बना लिया और अंततः धोखे से राजा की हत्या कर दी। हत्या करने वाला अधिकारी महापद्मनंद था, जिसका कहीं-कहीं महापद्मपति, उग्रसेन, अग्रसेन और यूनानी ग्रंथों में अग्रेमिस के रूप में भी उल्लेख मिलता है। वह निश्चित रूप से चालाक, कुटिल और महत्वाकांक्षी था। लेकिन यह भी कहा जाना चाहिए कि इन सब के साथ वह स्वप्नदर्शी था और उसमें राज-प्रबंधन और शासन करने की अद्भुत क्षमता थी। उसने जल्दी ही शिशुनाग-राजतन्त्र को अपने काबू में कर लिया और स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। यह घटना 344 ईसापूर्व की है। इस महापद्मनंद के नाम से ही इस पूरे राजवंश को नन्द वंश कहा जाता है। इस वंश के अंतिम राजा धननंद को ही अपदस्थ कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य राजवंश की स्थापना की थी। धननंद 322 ईसापूर्व में अपदस्थ हुआ और इसके साथ ही मौर्य काल का आरम्भ हो गया ,क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सत्ता संभाल ली। इस तरह बहुत लम्बे समय तक नन्द वंश का शासन नहीं चला। 344 से 322 ईसापूर्व तक, यानि कुल जमा बाईस वर्षों तक। जनश्रुतियों और इतिहास में नौ नंदों की चर्चा है। माना जाता है कि ये सभी राजा थे। इनके नाम जान लेना बुरा नहीं होगा। ये थे – उग्रसेन, पाण्डुक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविश्नक, दाससिद्धक, कैवर्त तथा धननंद। लेकिन यह भी कहा जाता है कि नन्द बस दो पीढ़ियों तक राज कर सके। उग्रसेन – जिसे महापद्मनंद भी कहा जाता है के आठ पुत्र थे। इन आठों में धननंद ही राजा हुआ। शेष नन्द संभव है सत्ता में भागीदार हों, और इसलिए सब मिलकर नौ-नन्द कहा जाता होगा। महापद्मनंद इतना होशियार था कि अपने पुत्रों के बीच एकता बनाये रखने हेतु एक तरकीब के तहत नौ-नन्द की पहल की होगी, ताकि सब संतुष्ट रहें। हालांकि यह एक अनुमान ही है। हमारा काम तो इतने भर से है कि नन्द वंश का राज बाईस वर्षों तक रहा। इस वंश को इतिहासकारों ने अपेक्षित महत्व नहीं दिया है। इसके अनेक कारण हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों और स्रोतों के अनुसार यह पहला शासक था, जो समाज के निचले पायदान से आया था। महापद्मनंद नापित (नाई ) परिवार से आता था और जन्म तथा तत्कालीन रिवाजों के अनुसार उसकी जाति शूद्र थी, जिसका काम लोगों की सेवा करना निर्धारित था, राज करना नहीं। मगध के समाज में भी ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में थे, जो इस तरह के एक व्यक्ति के राजसत्ता में आ जाने से चकित और चिढ़े हुए थे। इसलिए महापद्मनंद की जितनी भी भर्त्सना संभव थी, उतनी की गयी है। उसे गणिका (वेश्या) पुत्र से लेकर नीच कुलोत्पन्न, अनभिजात, नापितकुमार आदि कह कर अवहेलना की गई है। यह तो निश्चित है कि समाज के तथाकथित ‘बड़े लोगों’ के बीच उसकी मान्यता नहीं थी। चूकि यही ‘बड़े लोग’ पुराण और अभिलेखों के रचयिता होते थे, इसलिए इन लोगों ने अपनी राय महापद्मनंद और पूरे नन्द-काल के बारे में रखी है। लेकिन उनकी इन घृणित टिप्पणियों से ही नन्द राजाओं की प्रकृति और प्रवृत्ति का भी पता चलता है। वह यह कि महापद्मनंद और अन्य नन्द राजा तथाकथित बड़े लोगों अर्थात द्विजों के सामाजिक स्वार्थों के अनुकूल नहीं रहे होंगे। इस आधुनिक ज़माने में भी इसी मगध (बिहार) में कर्पूरी ठाकुर को राजनीति में अपमानित होते देखा गया है। संयोग से कर्पूरी ठाकुर भी उसी नाई समाज से थे, जिससे महापद्मनंद थे। महापद्मनंद या उसके पुत्र धननंद ने भी द्विज समाज से समझौते की कोई पहल नहीं की और तथाकथित बड़े लोगों के ठसक की अवहेलना ही की। ऐसा भी कोई संकेत-साक्ष्य नहीं मिलता कि नंदों ने इन प्रश्रय-प्राप्त लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई की हो, जैसा कि हम आगे विचार करेंगे कि किस प्रकार नंदों ने वृहद परिप्रेक्ष्य में राजनीति को देखा और ईर्ष्या-डाह जैसी प्रवृत्तियों को विकसित करने में उनकी कोई रूचि नहीं रही। बावजूद धननंद के शासनकाल में द्विजों का एक कुटिल-विद्रोह हुआ, इसकी सूचना मिलती है। संभवतः इस विद्रोह का नेता चाणक्य था, जिसकी आज भी द्विज समाज में काफी प्रतिष्ठा है। कथा और इतिहास यही है कि चाणक्य ने एक दूसरे शूद्र युवक चन्द्रगुप्त को आगे किया और धननंद को सत्ताच्युत कर दिया गया। ऐतिहासिक स्रोत बतलाते हैं कि शूद्र चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मण कौटिल्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। विवरणों के अनुसार कौटिल्य ने ऐसी पहल धननंद से भी की थी। उसके इंकार को कौटिल्य चाणक्य ने अपना अपमान माना और प्रतिज्ञा की कि हर हाल में नन्द वंश का नाश कर दूंगा। अंततः शूद्र चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की यह प्रतिज्ञा पूरी की। किसने किसका इस्तेमाल किया, यह एक पहेली है और शायद रहेगी भी। इतिहासकारों और इतिहास समीक्षकों ने नंदों की भूमिका का सम्यक आकलन नहीं किया है। मौर्य भी शूद्र थे। लेकिन मौर्यों को आवश्यकता से अधिक प्रशस्ति मिली। इसके कारण वही हैं जिसकी चर्चा मैंने ऊपर में की है। मौर्यों और नंदों में अंतर यही था कि एक ने द्विज नेतृत्व को स्वीकार लिया था और दूसरे ने इंकार दिया था। नंदों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन हम फिलहाल नंदों की भूमिका पर ही विचार करना चाहेंगे, क्योंकि इधर-उधर जाना विषयांतर होना होगा। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा, महापद्मनंद ऐसा राजा या शासक नहीं था, जिसकी हम उपेक्षा करें। उसकी चुनौतियाँ चन्द्रगुप्त से कहीं अधिक कठिन थी। उसने किसी मजबूत और यशस्वी राजा को नहीं, बल्कि एक पिलपिले कठपुतली चरित्र वाले राजा को अपदस्थ किया था। यह उसके अपने हित से अधिक समाज और देश हित के लिए उचित था। यह ठीक है कि उसकी सामाजिक औकात कमजोर थी और यह भी मान लिया कि वह “नीच -कुलोत्पन्न” था। वह किसी राजा का बेटा नहीं, एक फटेहाल नाई का बेटा था, जैसा कि कर्टियस ने लिखा है कि ‘उसका पिता नाई था, जो दिन भर अपनी कमाई से किसी तरह पेट भरता था। ’ ऐसे फटेहाल व्यक्ति का बेटा यदि एक बड़े निरंकुश राजतन्त्र का संस्थापक बनता है, तब इसे एक उल्लेखनीय घटना ही कहा जाना चाहिए। हमें इस बात की खोज भी करनी चाहिए कि इसके कारण तत्व क्या थे और पूरे इतिहास-चक्र पर इस घटना का कोई प्रभाव पड़ा या नहीं? महापद्मनंद के इस तरह उठ खड़े होने के पीछे उसके व्यक्तिगत गुण तो निश्चय रूप से थे, लेकिन सामाजिक कारण भी रहे थे। मगध में, जैसा कि पहले ही कहा है, वर्ण धर्म के आधार कमजोर रहे हैं। इसी कारण वैदिक ऋषि इस इलाके से इतने रुष्ट रहते थे कि ज्वर से उस कीकट (मगध का पुराना नाम) में जाने की प्रार्थना करते हैं, जहाँ उसके विरोधी रहते हैं। यह अकारण नहीं था कि बौद्धों को यहां आधार मिला था। उनलोगों ने भी स्थिर समाज में थोड़ी हलचल पैदा की थी। बुद्ध की मृत्यु के कुछ ही समय बाद प्रथम बौद्ध परिषद्, जो राजगीर के सप्तपर्णी गुफा में हुई थी, की अध्यक्षता एक नाई उपालि ने की थी। | प्रेम कुमार किस वंश के बारे में बात करते है? | नंद वंश | prem kumaar kis vansh ke bare main baat karte he? |
प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं नंद वंश के बारे में। उनके मुताबिक, वह महापद्मनंद ही थे, जिन्हें पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इन्हें ही परशुराम के रूप में चित्रित किया होपहले बता चुका हूं कि महाजनपदीय राजतंत्रों में सत्ता पलट के लिए हिंसा और विश्वासघात धीरे-धीरे साधारण चीजें होती गयीं। सभी राजा हर समय हिंसा और विश्वासघात से डरे-सहमे रहते थे। यह डर उन्हें अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों, अधिकारियों से लेकर बाहरी दुश्मनों तक से था। मगध के प्रथम वृहद्रथ राजवंश के तीसरे राजा रिपुंजय की हत्या उसके मंत्री पुलिक ने कर दी थी। बिम्बिसार का हर्यंक वंश तो पितृहन्ता वंश ही कहा जाता है, जिसमें लगातार दो राजकुमारों ने अपने पिता राजाओं को वध कर सत्ता झपट ली। इस राजवंश ने लम्बे समय तक शासन किया, लेकिन इसके एक राजा महानन्दिन को शिशुनाग नाम के एक व्यक्ति ने अंततः उखाड़ फेंका और मगध की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। यह घटना ईसापूर्व 412 में हुई थी। हर्यंक वंश ने कुल मिला कर 133 वर्षों तक राज किया। लेकिन 412 से 344 ईसापूर्व तक मगध पर शिशुनाग अथवा शैशुनाग वंश का राज रहा। शिशुनाग ने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से वैशाली में स्थानांतरित किया और इसके बेटे कला-अशोक के शासनकाल में 383 ईस्वीपूर्व में बौद्धों की दूसरी महासंगीति अथवा महापरिषद वैशाली में आयोजित हुई। इसके पश्चात मगध की राजधानी को पुनः पाटलिपुत्र में ला दिया गया, क्योंकि व्यापार और प्रशासन के ख्याल से यह अधिक उपयुक्त था। कला-अशोक के बेटे नन्दिवर्धन के राजकाल (366-344 ईसापूर्व) में एकबार फिर खूनी-खेल हुआ। इस राजा के एक अधिकारी ने राजकाज और दरबार में खास रुतबा बना लिया और अंततः धोखे से राजा की हत्या कर दी। हत्या करने वाला अधिकारी महापद्मनंद था, जिसका कहीं-कहीं महापद्मपति, उग्रसेन, अग्रसेन और यूनानी ग्रंथों में अग्रेमिस के रूप में भी उल्लेख मिलता है। वह निश्चित रूप से चालाक, कुटिल और महत्वाकांक्षी था। लेकिन यह भी कहा जाना चाहिए कि इन सब के साथ वह स्वप्नदर्शी था और उसमें राज-प्रबंधन और शासन करने की अद्भुत क्षमता थी। उसने जल्दी ही शिशुनाग-राजतन्त्र को अपने काबू में कर लिया और स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। यह घटना 344 ईसापूर्व की है। इस महापद्मनंद के नाम से ही इस पूरे राजवंश को नन्द वंश कहा जाता है। इस वंश के अंतिम राजा धननंद को ही अपदस्थ कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य राजवंश की स्थापना की थी। धननंद 322 ईसापूर्व में अपदस्थ हुआ और इसके साथ ही मौर्य काल का आरम्भ हो गया ,क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सत्ता संभाल ली। इस तरह बहुत लम्बे समय तक नन्द वंश का शासन नहीं चला। 344 से 322 ईसापूर्व तक, यानि कुल जमा बाईस वर्षों तक। जनश्रुतियों और इतिहास में नौ नंदों की चर्चा है। माना जाता है कि ये सभी राजा थे। इनके नाम जान लेना बुरा नहीं होगा। ये थे – उग्रसेन, पाण्डुक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविश्नक, दाससिद्धक, कैवर्त तथा धननंद। लेकिन यह भी कहा जाता है कि नन्द बस दो पीढ़ियों तक राज कर सके। उग्रसेन – जिसे महापद्मनंद भी कहा जाता है के आठ पुत्र थे। इन आठों में धननंद ही राजा हुआ। शेष नन्द संभव है सत्ता में भागीदार हों, और इसलिए सब मिलकर नौ-नन्द कहा जाता होगा। महापद्मनंद इतना होशियार था कि अपने पुत्रों के बीच एकता बनाये रखने हेतु एक तरकीब के तहत नौ-नन्द की पहल की होगी, ताकि सब संतुष्ट रहें। हालांकि यह एक अनुमान ही है। हमारा काम तो इतने भर से है कि नन्द वंश का राज बाईस वर्षों तक रहा। इस वंश को इतिहासकारों ने अपेक्षित महत्व नहीं दिया है। इसके अनेक कारण हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों और स्रोतों के अनुसार यह पहला शासक था, जो समाज के निचले पायदान से आया था। महापद्मनंद नापित (नाई ) परिवार से आता था और जन्म तथा तत्कालीन रिवाजों के अनुसार उसकी जाति शूद्र थी, जिसका काम लोगों की सेवा करना निर्धारित था, राज करना नहीं। मगध के समाज में भी ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में थे, जो इस तरह के एक व्यक्ति के राजसत्ता में आ जाने से चकित और चिढ़े हुए थे। इसलिए महापद्मनंद की जितनी भी भर्त्सना संभव थी, उतनी की गयी है। उसे गणिका (वेश्या) पुत्र से लेकर नीच कुलोत्पन्न, अनभिजात, नापितकुमार आदि कह कर अवहेलना की गई है। यह तो निश्चित है कि समाज के तथाकथित ‘बड़े लोगों’ के बीच उसकी मान्यता नहीं थी। चूकि यही ‘बड़े लोग’ पुराण और अभिलेखों के रचयिता होते थे, इसलिए इन लोगों ने अपनी राय महापद्मनंद और पूरे नन्द-काल के बारे में रखी है। लेकिन उनकी इन घृणित टिप्पणियों से ही नन्द राजाओं की प्रकृति और प्रवृत्ति का भी पता चलता है। वह यह कि महापद्मनंद और अन्य नन्द राजा तथाकथित बड़े लोगों अर्थात द्विजों के सामाजिक स्वार्थों के अनुकूल नहीं रहे होंगे। इस आधुनिक ज़माने में भी इसी मगध (बिहार) में कर्पूरी ठाकुर को राजनीति में अपमानित होते देखा गया है। संयोग से कर्पूरी ठाकुर भी उसी नाई समाज से थे, जिससे महापद्मनंद थे। महापद्मनंद या उसके पुत्र धननंद ने भी द्विज समाज से समझौते की कोई पहल नहीं की और तथाकथित बड़े लोगों के ठसक की अवहेलना ही की। ऐसा भी कोई संकेत-साक्ष्य नहीं मिलता कि नंदों ने इन प्रश्रय-प्राप्त लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई की हो, जैसा कि हम आगे विचार करेंगे कि किस प्रकार नंदों ने वृहद परिप्रेक्ष्य में राजनीति को देखा और ईर्ष्या-डाह जैसी प्रवृत्तियों को विकसित करने में उनकी कोई रूचि नहीं रही। बावजूद धननंद के शासनकाल में द्विजों का एक कुटिल-विद्रोह हुआ, इसकी सूचना मिलती है। संभवतः इस विद्रोह का नेता चाणक्य था, जिसकी आज भी द्विज समाज में काफी प्रतिष्ठा है। कथा और इतिहास यही है कि चाणक्य ने एक दूसरे शूद्र युवक चन्द्रगुप्त को आगे किया और धननंद को सत्ताच्युत कर दिया गया। ऐतिहासिक स्रोत बतलाते हैं कि शूद्र चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मण कौटिल्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। विवरणों के अनुसार कौटिल्य ने ऐसी पहल धननंद से भी की थी। उसके इंकार को कौटिल्य चाणक्य ने अपना अपमान माना और प्रतिज्ञा की कि हर हाल में नन्द वंश का नाश कर दूंगा। अंततः शूद्र चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की यह प्रतिज्ञा पूरी की। किसने किसका इस्तेमाल किया, यह एक पहेली है और शायद रहेगी भी। इतिहासकारों और इतिहास समीक्षकों ने नंदों की भूमिका का सम्यक आकलन नहीं किया है। मौर्य भी शूद्र थे। लेकिन मौर्यों को आवश्यकता से अधिक प्रशस्ति मिली। इसके कारण वही हैं जिसकी चर्चा मैंने ऊपर में की है। मौर्यों और नंदों में अंतर यही था कि एक ने द्विज नेतृत्व को स्वीकार लिया था और दूसरे ने इंकार दिया था। नंदों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन हम फिलहाल नंदों की भूमिका पर ही विचार करना चाहेंगे, क्योंकि इधर-उधर जाना विषयांतर होना होगा। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा, महापद्मनंद ऐसा राजा या शासक नहीं था, जिसकी हम उपेक्षा करें। उसकी चुनौतियाँ चन्द्रगुप्त से कहीं अधिक कठिन थी। उसने किसी मजबूत और यशस्वी राजा को नहीं, बल्कि एक पिलपिले कठपुतली चरित्र वाले राजा को अपदस्थ किया था। यह उसके अपने हित से अधिक समाज और देश हित के लिए उचित था। यह ठीक है कि उसकी सामाजिक औकात कमजोर थी और यह भी मान लिया कि वह “नीच -कुलोत्पन्न” था। वह किसी राजा का बेटा नहीं, एक फटेहाल नाई का बेटा था, जैसा कि कर्टियस ने लिखा है कि ‘उसका पिता नाई था, जो दिन भर अपनी कमाई से किसी तरह पेट भरता था। ’ ऐसे फटेहाल व्यक्ति का बेटा यदि एक बड़े निरंकुश राजतन्त्र का संस्थापक बनता है, तब इसे एक उल्लेखनीय घटना ही कहा जाना चाहिए। हमें इस बात की खोज भी करनी चाहिए कि इसके कारण तत्व क्या थे और पूरे इतिहास-चक्र पर इस घटना का कोई प्रभाव पड़ा या नहीं? महापद्मनंद के इस तरह उठ खड़े होने के पीछे उसके व्यक्तिगत गुण तो निश्चय रूप से थे, लेकिन सामाजिक कारण भी रहे थे। मगध में, जैसा कि पहले ही कहा है, वर्ण धर्म के आधार कमजोर रहे हैं। इसी कारण वैदिक ऋषि इस इलाके से इतने रुष्ट रहते थे कि ज्वर से उस कीकट (मगध का पुराना नाम) में जाने की प्रार्थना करते हैं, जहाँ उसके विरोधी रहते हैं। यह अकारण नहीं था कि बौद्धों को यहां आधार मिला था। उनलोगों ने भी स्थिर समाज में थोड़ी हलचल पैदा की थी। बुद्ध की मृत्यु के कुछ ही समय बाद प्रथम बौद्ध परिषद्, जो राजगीर के सप्तपर्णी गुफा में हुई थी, की अध्यक्षता एक नाई उपालि ने की थी। | जनश्रुतियों और इतिहास में कितने नंद थे? | नौ | janashrutiyon or itihaas main kitne nand the? |
प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं नंद वंश के बारे में। उनके मुताबिक, वह महापद्मनंद ही थे, जिन्हें पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इन्हें ही परशुराम के रूप में चित्रित किया होपहले बता चुका हूं कि महाजनपदीय राजतंत्रों में सत्ता पलट के लिए हिंसा और विश्वासघात धीरे-धीरे साधारण चीजें होती गयीं। सभी राजा हर समय हिंसा और विश्वासघात से डरे-सहमे रहते थे। यह डर उन्हें अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों, अधिकारियों से लेकर बाहरी दुश्मनों तक से था। मगध के प्रथम वृहद्रथ राजवंश के तीसरे राजा रिपुंजय की हत्या उसके मंत्री पुलिक ने कर दी थी। बिम्बिसार का हर्यंक वंश तो पितृहन्ता वंश ही कहा जाता है, जिसमें लगातार दो राजकुमारों ने अपने पिता राजाओं को वध कर सत्ता झपट ली। इस राजवंश ने लम्बे समय तक शासन किया, लेकिन इसके एक राजा महानन्दिन को शिशुनाग नाम के एक व्यक्ति ने अंततः उखाड़ फेंका और मगध की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। यह घटना ईसापूर्व 412 में हुई थी। हर्यंक वंश ने कुल मिला कर 133 वर्षों तक राज किया। लेकिन 412 से 344 ईसापूर्व तक मगध पर शिशुनाग अथवा शैशुनाग वंश का राज रहा। शिशुनाग ने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से वैशाली में स्थानांतरित किया और इसके बेटे कला-अशोक के शासनकाल में 383 ईस्वीपूर्व में बौद्धों की दूसरी महासंगीति अथवा महापरिषद वैशाली में आयोजित हुई। इसके पश्चात मगध की राजधानी को पुनः पाटलिपुत्र में ला दिया गया, क्योंकि व्यापार और प्रशासन के ख्याल से यह अधिक उपयुक्त था। कला-अशोक के बेटे नन्दिवर्धन के राजकाल (366-344 ईसापूर्व) में एकबार फिर खूनी-खेल हुआ। इस राजा के एक अधिकारी ने राजकाज और दरबार में खास रुतबा बना लिया और अंततः धोखे से राजा की हत्या कर दी। हत्या करने वाला अधिकारी महापद्मनंद था, जिसका कहीं-कहीं महापद्मपति, उग्रसेन, अग्रसेन और यूनानी ग्रंथों में अग्रेमिस के रूप में भी उल्लेख मिलता है। वह निश्चित रूप से चालाक, कुटिल और महत्वाकांक्षी था। लेकिन यह भी कहा जाना चाहिए कि इन सब के साथ वह स्वप्नदर्शी था और उसमें राज-प्रबंधन और शासन करने की अद्भुत क्षमता थी। उसने जल्दी ही शिशुनाग-राजतन्त्र को अपने काबू में कर लिया और स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। यह घटना 344 ईसापूर्व की है। इस महापद्मनंद के नाम से ही इस पूरे राजवंश को नन्द वंश कहा जाता है। इस वंश के अंतिम राजा धननंद को ही अपदस्थ कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य राजवंश की स्थापना की थी। धननंद 322 ईसापूर्व में अपदस्थ हुआ और इसके साथ ही मौर्य काल का आरम्भ हो गया ,क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सत्ता संभाल ली। इस तरह बहुत लम्बे समय तक नन्द वंश का शासन नहीं चला। 344 से 322 ईसापूर्व तक, यानि कुल जमा बाईस वर्षों तक। जनश्रुतियों और इतिहास में नौ नंदों की चर्चा है। माना जाता है कि ये सभी राजा थे। इनके नाम जान लेना बुरा नहीं होगा। ये थे – उग्रसेन, पाण्डुक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविश्नक, दाससिद्धक, कैवर्त तथा धननंद। लेकिन यह भी कहा जाता है कि नन्द बस दो पीढ़ियों तक राज कर सके। उग्रसेन – जिसे महापद्मनंद भी कहा जाता है के आठ पुत्र थे। इन आठों में धननंद ही राजा हुआ। शेष नन्द संभव है सत्ता में भागीदार हों, और इसलिए सब मिलकर नौ-नन्द कहा जाता होगा। महापद्मनंद इतना होशियार था कि अपने पुत्रों के बीच एकता बनाये रखने हेतु एक तरकीब के तहत नौ-नन्द की पहल की होगी, ताकि सब संतुष्ट रहें। हालांकि यह एक अनुमान ही है। हमारा काम तो इतने भर से है कि नन्द वंश का राज बाईस वर्षों तक रहा। इस वंश को इतिहासकारों ने अपेक्षित महत्व नहीं दिया है। इसके अनेक कारण हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों और स्रोतों के अनुसार यह पहला शासक था, जो समाज के निचले पायदान से आया था। महापद्मनंद नापित (नाई ) परिवार से आता था और जन्म तथा तत्कालीन रिवाजों के अनुसार उसकी जाति शूद्र थी, जिसका काम लोगों की सेवा करना निर्धारित था, राज करना नहीं। मगध के समाज में भी ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में थे, जो इस तरह के एक व्यक्ति के राजसत्ता में आ जाने से चकित और चिढ़े हुए थे। इसलिए महापद्मनंद की जितनी भी भर्त्सना संभव थी, उतनी की गयी है। उसे गणिका (वेश्या) पुत्र से लेकर नीच कुलोत्पन्न, अनभिजात, नापितकुमार आदि कह कर अवहेलना की गई है। यह तो निश्चित है कि समाज के तथाकथित ‘बड़े लोगों’ के बीच उसकी मान्यता नहीं थी। चूकि यही ‘बड़े लोग’ पुराण और अभिलेखों के रचयिता होते थे, इसलिए इन लोगों ने अपनी राय महापद्मनंद और पूरे नन्द-काल के बारे में रखी है। लेकिन उनकी इन घृणित टिप्पणियों से ही नन्द राजाओं की प्रकृति और प्रवृत्ति का भी पता चलता है। वह यह कि महापद्मनंद और अन्य नन्द राजा तथाकथित बड़े लोगों अर्थात द्विजों के सामाजिक स्वार्थों के अनुकूल नहीं रहे होंगे। इस आधुनिक ज़माने में भी इसी मगध (बिहार) में कर्पूरी ठाकुर को राजनीति में अपमानित होते देखा गया है। संयोग से कर्पूरी ठाकुर भी उसी नाई समाज से थे, जिससे महापद्मनंद थे। महापद्मनंद या उसके पुत्र धननंद ने भी द्विज समाज से समझौते की कोई पहल नहीं की और तथाकथित बड़े लोगों के ठसक की अवहेलना ही की। ऐसा भी कोई संकेत-साक्ष्य नहीं मिलता कि नंदों ने इन प्रश्रय-प्राप्त लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई की हो, जैसा कि हम आगे विचार करेंगे कि किस प्रकार नंदों ने वृहद परिप्रेक्ष्य में राजनीति को देखा और ईर्ष्या-डाह जैसी प्रवृत्तियों को विकसित करने में उनकी कोई रूचि नहीं रही। बावजूद धननंद के शासनकाल में द्विजों का एक कुटिल-विद्रोह हुआ, इसकी सूचना मिलती है। संभवतः इस विद्रोह का नेता चाणक्य था, जिसकी आज भी द्विज समाज में काफी प्रतिष्ठा है। कथा और इतिहास यही है कि चाणक्य ने एक दूसरे शूद्र युवक चन्द्रगुप्त को आगे किया और धननंद को सत्ताच्युत कर दिया गया। ऐतिहासिक स्रोत बतलाते हैं कि शूद्र चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मण कौटिल्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। विवरणों के अनुसार कौटिल्य ने ऐसी पहल धननंद से भी की थी। उसके इंकार को कौटिल्य चाणक्य ने अपना अपमान माना और प्रतिज्ञा की कि हर हाल में नन्द वंश का नाश कर दूंगा। अंततः शूद्र चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की यह प्रतिज्ञा पूरी की। किसने किसका इस्तेमाल किया, यह एक पहेली है और शायद रहेगी भी। इतिहासकारों और इतिहास समीक्षकों ने नंदों की भूमिका का सम्यक आकलन नहीं किया है। मौर्य भी शूद्र थे। लेकिन मौर्यों को आवश्यकता से अधिक प्रशस्ति मिली। इसके कारण वही हैं जिसकी चर्चा मैंने ऊपर में की है। मौर्यों और नंदों में अंतर यही था कि एक ने द्विज नेतृत्व को स्वीकार लिया था और दूसरे ने इंकार दिया था। नंदों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन हम फिलहाल नंदों की भूमिका पर ही विचार करना चाहेंगे, क्योंकि इधर-उधर जाना विषयांतर होना होगा। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा, महापद्मनंद ऐसा राजा या शासक नहीं था, जिसकी हम उपेक्षा करें। उसकी चुनौतियाँ चन्द्रगुप्त से कहीं अधिक कठिन थी। उसने किसी मजबूत और यशस्वी राजा को नहीं, बल्कि एक पिलपिले कठपुतली चरित्र वाले राजा को अपदस्थ किया था। यह उसके अपने हित से अधिक समाज और देश हित के लिए उचित था। यह ठीक है कि उसकी सामाजिक औकात कमजोर थी और यह भी मान लिया कि वह “नीच -कुलोत्पन्न” था। वह किसी राजा का बेटा नहीं, एक फटेहाल नाई का बेटा था, जैसा कि कर्टियस ने लिखा है कि ‘उसका पिता नाई था, जो दिन भर अपनी कमाई से किसी तरह पेट भरता था। ’ ऐसे फटेहाल व्यक्ति का बेटा यदि एक बड़े निरंकुश राजतन्त्र का संस्थापक बनता है, तब इसे एक उल्लेखनीय घटना ही कहा जाना चाहिए। हमें इस बात की खोज भी करनी चाहिए कि इसके कारण तत्व क्या थे और पूरे इतिहास-चक्र पर इस घटना का कोई प्रभाव पड़ा या नहीं? महापद्मनंद के इस तरह उठ खड़े होने के पीछे उसके व्यक्तिगत गुण तो निश्चय रूप से थे, लेकिन सामाजिक कारण भी रहे थे। मगध में, जैसा कि पहले ही कहा है, वर्ण धर्म के आधार कमजोर रहे हैं। इसी कारण वैदिक ऋषि इस इलाके से इतने रुष्ट रहते थे कि ज्वर से उस कीकट (मगध का पुराना नाम) में जाने की प्रार्थना करते हैं, जहाँ उसके विरोधी रहते हैं। यह अकारण नहीं था कि बौद्धों को यहां आधार मिला था। उनलोगों ने भी स्थिर समाज में थोड़ी हलचल पैदा की थी। बुद्ध की मृत्यु के कुछ ही समय बाद प्रथम बौद्ध परिषद्, जो राजगीर के सप्तपर्णी गुफा में हुई थी, की अध्यक्षता एक नाई उपालि ने की थी। | नंद राजवंश के अंतिम राजा कौन थे? | धननंद | nand rajvansh ke antim raja koun the? |
प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं नंद वंश के बारे में। उनके मुताबिक, वह महापद्मनंद ही थे, जिन्हें पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इन्हें ही परशुराम के रूप में चित्रित किया होपहले बता चुका हूं कि महाजनपदीय राजतंत्रों में सत्ता पलट के लिए हिंसा और विश्वासघात धीरे-धीरे साधारण चीजें होती गयीं। सभी राजा हर समय हिंसा और विश्वासघात से डरे-सहमे रहते थे। यह डर उन्हें अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों, अधिकारियों से लेकर बाहरी दुश्मनों तक से था। मगध के प्रथम वृहद्रथ राजवंश के तीसरे राजा रिपुंजय की हत्या उसके मंत्री पुलिक ने कर दी थी। बिम्बिसार का हर्यंक वंश तो पितृहन्ता वंश ही कहा जाता है, जिसमें लगातार दो राजकुमारों ने अपने पिता राजाओं को वध कर सत्ता झपट ली। इस राजवंश ने लम्बे समय तक शासन किया, लेकिन इसके एक राजा महानन्दिन को शिशुनाग नाम के एक व्यक्ति ने अंततः उखाड़ फेंका और मगध की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। यह घटना ईसापूर्व 412 में हुई थी। हर्यंक वंश ने कुल मिला कर 133 वर्षों तक राज किया। लेकिन 412 से 344 ईसापूर्व तक मगध पर शिशुनाग अथवा शैशुनाग वंश का राज रहा। शिशुनाग ने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से वैशाली में स्थानांतरित किया और इसके बेटे कला-अशोक के शासनकाल में 383 ईस्वीपूर्व में बौद्धों की दूसरी महासंगीति अथवा महापरिषद वैशाली में आयोजित हुई। इसके पश्चात मगध की राजधानी को पुनः पाटलिपुत्र में ला दिया गया, क्योंकि व्यापार और प्रशासन के ख्याल से यह अधिक उपयुक्त था। कला-अशोक के बेटे नन्दिवर्धन के राजकाल (366-344 ईसापूर्व) में एकबार फिर खूनी-खेल हुआ। इस राजा के एक अधिकारी ने राजकाज और दरबार में खास रुतबा बना लिया और अंततः धोखे से राजा की हत्या कर दी। हत्या करने वाला अधिकारी महापद्मनंद था, जिसका कहीं-कहीं महापद्मपति, उग्रसेन, अग्रसेन और यूनानी ग्रंथों में अग्रेमिस के रूप में भी उल्लेख मिलता है। वह निश्चित रूप से चालाक, कुटिल और महत्वाकांक्षी था। लेकिन यह भी कहा जाना चाहिए कि इन सब के साथ वह स्वप्नदर्शी था और उसमें राज-प्रबंधन और शासन करने की अद्भुत क्षमता थी। उसने जल्दी ही शिशुनाग-राजतन्त्र को अपने काबू में कर लिया और स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। यह घटना 344 ईसापूर्व की है। इस महापद्मनंद के नाम से ही इस पूरे राजवंश को नन्द वंश कहा जाता है। इस वंश के अंतिम राजा धननंद को ही अपदस्थ कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य राजवंश की स्थापना की थी। धननंद 322 ईसापूर्व में अपदस्थ हुआ और इसके साथ ही मौर्य काल का आरम्भ हो गया ,क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सत्ता संभाल ली। इस तरह बहुत लम्बे समय तक नन्द वंश का शासन नहीं चला। 344 से 322 ईसापूर्व तक, यानि कुल जमा बाईस वर्षों तक। जनश्रुतियों और इतिहास में नौ नंदों की चर्चा है। माना जाता है कि ये सभी राजा थे। इनके नाम जान लेना बुरा नहीं होगा। ये थे – उग्रसेन, पाण्डुक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविश्नक, दाससिद्धक, कैवर्त तथा धननंद। लेकिन यह भी कहा जाता है कि नन्द बस दो पीढ़ियों तक राज कर सके। उग्रसेन – जिसे महापद्मनंद भी कहा जाता है के आठ पुत्र थे। इन आठों में धननंद ही राजा हुआ। शेष नन्द संभव है सत्ता में भागीदार हों, और इसलिए सब मिलकर नौ-नन्द कहा जाता होगा। महापद्मनंद इतना होशियार था कि अपने पुत्रों के बीच एकता बनाये रखने हेतु एक तरकीब के तहत नौ-नन्द की पहल की होगी, ताकि सब संतुष्ट रहें। हालांकि यह एक अनुमान ही है। हमारा काम तो इतने भर से है कि नन्द वंश का राज बाईस वर्षों तक रहा। इस वंश को इतिहासकारों ने अपेक्षित महत्व नहीं दिया है। इसके अनेक कारण हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों और स्रोतों के अनुसार यह पहला शासक था, जो समाज के निचले पायदान से आया था। महापद्मनंद नापित (नाई ) परिवार से आता था और जन्म तथा तत्कालीन रिवाजों के अनुसार उसकी जाति शूद्र थी, जिसका काम लोगों की सेवा करना निर्धारित था, राज करना नहीं। मगध के समाज में भी ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में थे, जो इस तरह के एक व्यक्ति के राजसत्ता में आ जाने से चकित और चिढ़े हुए थे। इसलिए महापद्मनंद की जितनी भी भर्त्सना संभव थी, उतनी की गयी है। उसे गणिका (वेश्या) पुत्र से लेकर नीच कुलोत्पन्न, अनभिजात, नापितकुमार आदि कह कर अवहेलना की गई है। यह तो निश्चित है कि समाज के तथाकथित ‘बड़े लोगों’ के बीच उसकी मान्यता नहीं थी। चूकि यही ‘बड़े लोग’ पुराण और अभिलेखों के रचयिता होते थे, इसलिए इन लोगों ने अपनी राय महापद्मनंद और पूरे नन्द-काल के बारे में रखी है। लेकिन उनकी इन घृणित टिप्पणियों से ही नन्द राजाओं की प्रकृति और प्रवृत्ति का भी पता चलता है। वह यह कि महापद्मनंद और अन्य नन्द राजा तथाकथित बड़े लोगों अर्थात द्विजों के सामाजिक स्वार्थों के अनुकूल नहीं रहे होंगे। इस आधुनिक ज़माने में भी इसी मगध (बिहार) में कर्पूरी ठाकुर को राजनीति में अपमानित होते देखा गया है। संयोग से कर्पूरी ठाकुर भी उसी नाई समाज से थे, जिससे महापद्मनंद थे। महापद्मनंद या उसके पुत्र धननंद ने भी द्विज समाज से समझौते की कोई पहल नहीं की और तथाकथित बड़े लोगों के ठसक की अवहेलना ही की। ऐसा भी कोई संकेत-साक्ष्य नहीं मिलता कि नंदों ने इन प्रश्रय-प्राप्त लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई की हो, जैसा कि हम आगे विचार करेंगे कि किस प्रकार नंदों ने वृहद परिप्रेक्ष्य में राजनीति को देखा और ईर्ष्या-डाह जैसी प्रवृत्तियों को विकसित करने में उनकी कोई रूचि नहीं रही। बावजूद धननंद के शासनकाल में द्विजों का एक कुटिल-विद्रोह हुआ, इसकी सूचना मिलती है। संभवतः इस विद्रोह का नेता चाणक्य था, जिसकी आज भी द्विज समाज में काफी प्रतिष्ठा है। कथा और इतिहास यही है कि चाणक्य ने एक दूसरे शूद्र युवक चन्द्रगुप्त को आगे किया और धननंद को सत्ताच्युत कर दिया गया। ऐतिहासिक स्रोत बतलाते हैं कि शूद्र चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मण कौटिल्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। विवरणों के अनुसार कौटिल्य ने ऐसी पहल धननंद से भी की थी। उसके इंकार को कौटिल्य चाणक्य ने अपना अपमान माना और प्रतिज्ञा की कि हर हाल में नन्द वंश का नाश कर दूंगा। अंततः शूद्र चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की यह प्रतिज्ञा पूरी की। किसने किसका इस्तेमाल किया, यह एक पहेली है और शायद रहेगी भी। इतिहासकारों और इतिहास समीक्षकों ने नंदों की भूमिका का सम्यक आकलन नहीं किया है। मौर्य भी शूद्र थे। लेकिन मौर्यों को आवश्यकता से अधिक प्रशस्ति मिली। इसके कारण वही हैं जिसकी चर्चा मैंने ऊपर में की है। मौर्यों और नंदों में अंतर यही था कि एक ने द्विज नेतृत्व को स्वीकार लिया था और दूसरे ने इंकार दिया था। नंदों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन हम फिलहाल नंदों की भूमिका पर ही विचार करना चाहेंगे, क्योंकि इधर-उधर जाना विषयांतर होना होगा। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा, महापद्मनंद ऐसा राजा या शासक नहीं था, जिसकी हम उपेक्षा करें। उसकी चुनौतियाँ चन्द्रगुप्त से कहीं अधिक कठिन थी। उसने किसी मजबूत और यशस्वी राजा को नहीं, बल्कि एक पिलपिले कठपुतली चरित्र वाले राजा को अपदस्थ किया था। यह उसके अपने हित से अधिक समाज और देश हित के लिए उचित था। यह ठीक है कि उसकी सामाजिक औकात कमजोर थी और यह भी मान लिया कि वह “नीच -कुलोत्पन्न” था। वह किसी राजा का बेटा नहीं, एक फटेहाल नाई का बेटा था, जैसा कि कर्टियस ने लिखा है कि ‘उसका पिता नाई था, जो दिन भर अपनी कमाई से किसी तरह पेट भरता था। ’ ऐसे फटेहाल व्यक्ति का बेटा यदि एक बड़े निरंकुश राजतन्त्र का संस्थापक बनता है, तब इसे एक उल्लेखनीय घटना ही कहा जाना चाहिए। हमें इस बात की खोज भी करनी चाहिए कि इसके कारण तत्व क्या थे और पूरे इतिहास-चक्र पर इस घटना का कोई प्रभाव पड़ा या नहीं? महापद्मनंद के इस तरह उठ खड़े होने के पीछे उसके व्यक्तिगत गुण तो निश्चय रूप से थे, लेकिन सामाजिक कारण भी रहे थे। मगध में, जैसा कि पहले ही कहा है, वर्ण धर्म के आधार कमजोर रहे हैं। इसी कारण वैदिक ऋषि इस इलाके से इतने रुष्ट रहते थे कि ज्वर से उस कीकट (मगध का पुराना नाम) में जाने की प्रार्थना करते हैं, जहाँ उसके विरोधी रहते हैं। यह अकारण नहीं था कि बौद्धों को यहां आधार मिला था। उनलोगों ने भी स्थिर समाज में थोड़ी हलचल पैदा की थी। बुद्ध की मृत्यु के कुछ ही समय बाद प्रथम बौद्ध परिषद्, जो राजगीर के सप्तपर्णी गुफा में हुई थी, की अध्यक्षता एक नाई उपालि ने की थी। | बिंबिसार के हर्यंक वंश को दुसरे किस नाम से जाना जाता है ? | पितृहन्ता वंश | bimbisar ke haryank vansh ko dusre kis naam se janaa jaataa he ? |
फायर क्ले, गृह-निर्माण-योग्य पत्थर आदि अन्य खनिज हैं। असम एक कृषिप्रधान राज्य है। 1970-71 में कुल (मिजोरमयुक्त) लगभग 25,50,000 हेक्टेयर भूमि (कुल क्षेत्रफल का लगभग 1/3) कृषिकार्य कुल भूमि का 90 प्रतिशत मैदानी भाग में है। धान (1971) कुल भूमि (कृषियोग्य) के 72 प्रतिशत क्षेत्र में पैदा किया जाता है (20,00,000 हेक्टेयर) तथा उत्पादन 20,16,000 टन होता है। अन्य फसलें (क्षेत्रपफल 1,000 हेक्टेयर में) इस प्रकार हैं- गेहूँ 21; दालें 79; सरसों तथा अन्य तिलहन 139। कुल कृषिभूमि का 77 प्रतिशत खाद्य फसलों के उत्पादन में लगा है। इतना होते हुए भी प्रति व्यक्ति कृषिभूमि का औसत 0.5 एकड़ (0.2 हेक्टेयर) ही है। विभिन्न साधनों द्वारा भूमि को सुधारने के उपरान्त कृषि क्षेत्र को पाँच प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। चाय, जूट तथा गन्ना यहाँ की प्रमुख औद्योगिक तथा धनद फसलें हैं। चाय की कृषि के अन्तर्गत लगभग 65 प्रतिशत कृषिगत भूमि सम्मिलित है। आसाम के आर्थिक तन्त्र में इसका विशेष हाथ है। भारत की छोटी बड़ी 7,100 चाय बागान में से लगभग 700 असम में ही स्थित हैं। 1970 ई॰ में कुल 2,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बाग थे जिनसे लगभग 21,5 करोड़ कि॰ग्रा॰ (1970) चाय तैयार की गई। इस उद्योग में प्रतिदिन 3,79,781 मजदूर लगे हैं, जिनमें अधिकांश उत्तर बिहार तथा पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के हैं। जूट लगभग छह प्रतिशत कृषियोग्य भूमि में उगाई जाती है। आर्थिक दृष्टिकोण से यह अधिक महत्वपूर्ण है। आसाम घाटी के पूर्वी भाग तथा दरंग जनपद इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। 1970 ई॰ में यहाँ की नदियों में से 26.5 हजार टन मछलियाँ भी पकड़ी गईं। वर्षा की अधिकता के कारण सिंचाई की व्यवस्था व्यापक रूप से लागू नहीं की जा सकी, केवल छोटी-छोटी योजनाएँ ही क्रियान्वित की गई हैं। कुल कृषिगत भूमि का मात्र 22 प्रतिशत ही सिंचित है। 1964 में प्रारम्भ की गई जमुना सिंचाई योजना (दीफू के निकट) इस राज्य की सबसे बड़ी योजना है जिससे लगभग 26,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाने का अनुमान है। नहरों की कुल लम्बाई 137.15 कि॰मी॰ रहेगी। राज्य के प्रमुख शक्ति-उत्पादक-केन्द्र (क्षमता तथा स्वरूप के साथ) ये हैं - गुवाहाटी (तापविद्युत्) 32,500 किलोवाट, नामरूप (तापविद्युत्) लखीमपुर में नहरकटिया से 20 कि॰मी॰, 23,000 किलोवाट का प्रथम चरण 1965 में पूर्ण। 30,000 किलोवाट का दूसरा चरण 1972-73 तक पूर्ण। जलविद्युत् केन्द्रों में यूनिकेम प्रमुख है (पूरी क्षमता 72,000 किलोवाट)। आसाम के आर्थिक तन्त्र में उद्योग धन्धों में, विशेष रूप से कृषि पर आधारित, तथा खनिज तेल का महत्वपूर्ण योगदान है। गुवाहाटी तथा डिब्रूगढ़ दो स्थान इसके मुख्य केन्द्र हैं। कछार का सिलचर नगर तीसरा प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। चाय उद्योग के अतिरक्ति वस्त्रोद्योग (शीलघाट, जूट तथा जारीरोड सिल्क) भी यहाँ उन्नत है। हाल ही में एक कपड़ा मिल गौहाटी में स्थापित की गई है। एरी, मूगा तथा पाट आसाम के उत्कृष्ट वस्त्रों में हैं। तेलशोधक कारखाने दिगबोई (पाँच लाख टन प्रति वर्ष) तथा नूनमाटी (7.5 लाख टन प्रति वर्ष) में है। उर्वरक केन्द्र नामरूप में हैं जहाँ प्रतिवर्ष 2,75,000 टन यूरिया तथा 7,05,000 टन अमोनिया का उत्पादन किया जाता है। चीरा में सीमेण्ट का कारखाना है जहाँ प्रतिवर्ष 54,000 टन सीमेण्ट का उत्पादन होता है। इनके अतिरिक्त वनों पर आधारित अनेक उद्योग धन्धे प्राय: सभी नगरों में चल रहे हैं। धुबरी की हार्डबोर्ड फैक्टरी तथा गुवाहाटी का खैर तथा आगर तैल विशेष उल्लेखनीय हैं। आवागमन तथा यातायात के साधनों के सुव्यवस्थित विकास में इस प्रदेश के उच्चावचन तथा नदियों का विशेष महत्त्व है। आसाम घाटी उत्तरी दक्षिणी भाग को स्वतन्त्र भारत में एक दूसरे से जोड़ दिया गया है। गौहाटी के निकट यह सम्पूर्ण ब्रह्मपुत्र घाटी का एक मात्र सेतु है। 1966 में रेलमार्गों की कुल लम्बाई 5,827 कि॰मी॰ थी (3,334 कि॰मी॰ साइडिंग के साथ)। धुबरी, गौहाटी, लामडि, सिलचर आदि रेलमार्ग द्वारा मिले हुए हैं। राजमार्ग कुल 20,678 कि॰ मी॰ है जिसमें राष्ट्रीय मार्ग 2,934 कि॰मी॰ (1968) है। | जमुना सिंचाई योजना कब शुरु हुई थी? | 1964 | jamuna sinchai yojana kab shuru hui thi? |
फायर क्ले, गृह-निर्माण-योग्य पत्थर आदि अन्य खनिज हैं। असम एक कृषिप्रधान राज्य है। 1970-71 में कुल (मिजोरमयुक्त) लगभग 25,50,000 हेक्टेयर भूमि (कुल क्षेत्रफल का लगभग 1/3) कृषिकार्य कुल भूमि का 90 प्रतिशत मैदानी भाग में है। धान (1971) कुल भूमि (कृषियोग्य) के 72 प्रतिशत क्षेत्र में पैदा किया जाता है (20,00,000 हेक्टेयर) तथा उत्पादन 20,16,000 टन होता है। अन्य फसलें (क्षेत्रपफल 1,000 हेक्टेयर में) इस प्रकार हैं- गेहूँ 21; दालें 79; सरसों तथा अन्य तिलहन 139। कुल कृषिभूमि का 77 प्रतिशत खाद्य फसलों के उत्पादन में लगा है। इतना होते हुए भी प्रति व्यक्ति कृषिभूमि का औसत 0.5 एकड़ (0.2 हेक्टेयर) ही है। विभिन्न साधनों द्वारा भूमि को सुधारने के उपरान्त कृषि क्षेत्र को पाँच प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। चाय, जूट तथा गन्ना यहाँ की प्रमुख औद्योगिक तथा धनद फसलें हैं। चाय की कृषि के अन्तर्गत लगभग 65 प्रतिशत कृषिगत भूमि सम्मिलित है। आसाम के आर्थिक तन्त्र में इसका विशेष हाथ है। भारत की छोटी बड़ी 7,100 चाय बागान में से लगभग 700 असम में ही स्थित हैं। 1970 ई॰ में कुल 2,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बाग थे जिनसे लगभग 21,5 करोड़ कि॰ग्रा॰ (1970) चाय तैयार की गई। इस उद्योग में प्रतिदिन 3,79,781 मजदूर लगे हैं, जिनमें अधिकांश उत्तर बिहार तथा पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के हैं। जूट लगभग छह प्रतिशत कृषियोग्य भूमि में उगाई जाती है। आर्थिक दृष्टिकोण से यह अधिक महत्वपूर्ण है। आसाम घाटी के पूर्वी भाग तथा दरंग जनपद इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। 1970 ई॰ में यहाँ की नदियों में से 26.5 हजार टन मछलियाँ भी पकड़ी गईं। वर्षा की अधिकता के कारण सिंचाई की व्यवस्था व्यापक रूप से लागू नहीं की जा सकी, केवल छोटी-छोटी योजनाएँ ही क्रियान्वित की गई हैं। कुल कृषिगत भूमि का मात्र 22 प्रतिशत ही सिंचित है। 1964 में प्रारम्भ की गई जमुना सिंचाई योजना (दीफू के निकट) इस राज्य की सबसे बड़ी योजना है जिससे लगभग 26,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाने का अनुमान है। नहरों की कुल लम्बाई 137.15 कि॰मी॰ रहेगी। राज्य के प्रमुख शक्ति-उत्पादक-केन्द्र (क्षमता तथा स्वरूप के साथ) ये हैं - गुवाहाटी (तापविद्युत्) 32,500 किलोवाट, नामरूप (तापविद्युत्) लखीमपुर में नहरकटिया से 20 कि॰मी॰, 23,000 किलोवाट का प्रथम चरण 1965 में पूर्ण। 30,000 किलोवाट का दूसरा चरण 1972-73 तक पूर्ण। जलविद्युत् केन्द्रों में यूनिकेम प्रमुख है (पूरी क्षमता 72,000 किलोवाट)। आसाम के आर्थिक तन्त्र में उद्योग धन्धों में, विशेष रूप से कृषि पर आधारित, तथा खनिज तेल का महत्वपूर्ण योगदान है। गुवाहाटी तथा डिब्रूगढ़ दो स्थान इसके मुख्य केन्द्र हैं। कछार का सिलचर नगर तीसरा प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। चाय उद्योग के अतिरक्ति वस्त्रोद्योग (शीलघाट, जूट तथा जारीरोड सिल्क) भी यहाँ उन्नत है। हाल ही में एक कपड़ा मिल गौहाटी में स्थापित की गई है। एरी, मूगा तथा पाट आसाम के उत्कृष्ट वस्त्रों में हैं। तेलशोधक कारखाने दिगबोई (पाँच लाख टन प्रति वर्ष) तथा नूनमाटी (7.5 लाख टन प्रति वर्ष) में है। उर्वरक केन्द्र नामरूप में हैं जहाँ प्रतिवर्ष 2,75,000 टन यूरिया तथा 7,05,000 टन अमोनिया का उत्पादन किया जाता है। चीरा में सीमेण्ट का कारखाना है जहाँ प्रतिवर्ष 54,000 टन सीमेण्ट का उत्पादन होता है। इनके अतिरिक्त वनों पर आधारित अनेक उद्योग धन्धे प्राय: सभी नगरों में चल रहे हैं। धुबरी की हार्डबोर्ड फैक्टरी तथा गुवाहाटी का खैर तथा आगर तैल विशेष उल्लेखनीय हैं। आवागमन तथा यातायात के साधनों के सुव्यवस्थित विकास में इस प्रदेश के उच्चावचन तथा नदियों का विशेष महत्त्व है। आसाम घाटी उत्तरी दक्षिणी भाग को स्वतन्त्र भारत में एक दूसरे से जोड़ दिया गया है। गौहाटी के निकट यह सम्पूर्ण ब्रह्मपुत्र घाटी का एक मात्र सेतु है। 1966 में रेलमार्गों की कुल लम्बाई 5,827 कि॰मी॰ थी (3,334 कि॰मी॰ साइडिंग के साथ)। धुबरी, गौहाटी, लामडि, सिलचर आदि रेलमार्ग द्वारा मिले हुए हैं। राजमार्ग कुल 20,678 कि॰ मी॰ है जिसमें राष्ट्रीय मार्ग 2,934 कि॰मी॰ (1968) है। | चीरा के सीमेंट कारखाने में प्रतिवर्ष कितने टन सीमेंट का उत्पादन होता है ? | 54,000 टन | chira ke cement kaarkaane main prativarsh kitne ton cement kaa utpaadan hota he ? |
फायर क्ले, गृह-निर्माण-योग्य पत्थर आदि अन्य खनिज हैं। असम एक कृषिप्रधान राज्य है। 1970-71 में कुल (मिजोरमयुक्त) लगभग 25,50,000 हेक्टेयर भूमि (कुल क्षेत्रफल का लगभग 1/3) कृषिकार्य कुल भूमि का 90 प्रतिशत मैदानी भाग में है। धान (1971) कुल भूमि (कृषियोग्य) के 72 प्रतिशत क्षेत्र में पैदा किया जाता है (20,00,000 हेक्टेयर) तथा उत्पादन 20,16,000 टन होता है। अन्य फसलें (क्षेत्रपफल 1,000 हेक्टेयर में) इस प्रकार हैं- गेहूँ 21; दालें 79; सरसों तथा अन्य तिलहन 139। कुल कृषिभूमि का 77 प्रतिशत खाद्य फसलों के उत्पादन में लगा है। इतना होते हुए भी प्रति व्यक्ति कृषिभूमि का औसत 0.5 एकड़ (0.2 हेक्टेयर) ही है। विभिन्न साधनों द्वारा भूमि को सुधारने के उपरान्त कृषि क्षेत्र को पाँच प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। चाय, जूट तथा गन्ना यहाँ की प्रमुख औद्योगिक तथा धनद फसलें हैं। चाय की कृषि के अन्तर्गत लगभग 65 प्रतिशत कृषिगत भूमि सम्मिलित है। आसाम के आर्थिक तन्त्र में इसका विशेष हाथ है। भारत की छोटी बड़ी 7,100 चाय बागान में से लगभग 700 असम में ही स्थित हैं। 1970 ई॰ में कुल 2,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बाग थे जिनसे लगभग 21,5 करोड़ कि॰ग्रा॰ (1970) चाय तैयार की गई। इस उद्योग में प्रतिदिन 3,79,781 मजदूर लगे हैं, जिनमें अधिकांश उत्तर बिहार तथा पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के हैं। जूट लगभग छह प्रतिशत कृषियोग्य भूमि में उगाई जाती है। आर्थिक दृष्टिकोण से यह अधिक महत्वपूर्ण है। आसाम घाटी के पूर्वी भाग तथा दरंग जनपद इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। 1970 ई॰ में यहाँ की नदियों में से 26.5 हजार टन मछलियाँ भी पकड़ी गईं। वर्षा की अधिकता के कारण सिंचाई की व्यवस्था व्यापक रूप से लागू नहीं की जा सकी, केवल छोटी-छोटी योजनाएँ ही क्रियान्वित की गई हैं। कुल कृषिगत भूमि का मात्र 22 प्रतिशत ही सिंचित है। 1964 में प्रारम्भ की गई जमुना सिंचाई योजना (दीफू के निकट) इस राज्य की सबसे बड़ी योजना है जिससे लगभग 26,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाने का अनुमान है। नहरों की कुल लम्बाई 137.15 कि॰मी॰ रहेगी। राज्य के प्रमुख शक्ति-उत्पादक-केन्द्र (क्षमता तथा स्वरूप के साथ) ये हैं - गुवाहाटी (तापविद्युत्) 32,500 किलोवाट, नामरूप (तापविद्युत्) लखीमपुर में नहरकटिया से 20 कि॰मी॰, 23,000 किलोवाट का प्रथम चरण 1965 में पूर्ण। 30,000 किलोवाट का दूसरा चरण 1972-73 तक पूर्ण। जलविद्युत् केन्द्रों में यूनिकेम प्रमुख है (पूरी क्षमता 72,000 किलोवाट)। आसाम के आर्थिक तन्त्र में उद्योग धन्धों में, विशेष रूप से कृषि पर आधारित, तथा खनिज तेल का महत्वपूर्ण योगदान है। गुवाहाटी तथा डिब्रूगढ़ दो स्थान इसके मुख्य केन्द्र हैं। कछार का सिलचर नगर तीसरा प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। चाय उद्योग के अतिरक्ति वस्त्रोद्योग (शीलघाट, जूट तथा जारीरोड सिल्क) भी यहाँ उन्नत है। हाल ही में एक कपड़ा मिल गौहाटी में स्थापित की गई है। एरी, मूगा तथा पाट आसाम के उत्कृष्ट वस्त्रों में हैं। तेलशोधक कारखाने दिगबोई (पाँच लाख टन प्रति वर्ष) तथा नूनमाटी (7.5 लाख टन प्रति वर्ष) में है। उर्वरक केन्द्र नामरूप में हैं जहाँ प्रतिवर्ष 2,75,000 टन यूरिया तथा 7,05,000 टन अमोनिया का उत्पादन किया जाता है। चीरा में सीमेण्ट का कारखाना है जहाँ प्रतिवर्ष 54,000 टन सीमेण्ट का उत्पादन होता है। इनके अतिरिक्त वनों पर आधारित अनेक उद्योग धन्धे प्राय: सभी नगरों में चल रहे हैं। धुबरी की हार्डबोर्ड फैक्टरी तथा गुवाहाटी का खैर तथा आगर तैल विशेष उल्लेखनीय हैं। आवागमन तथा यातायात के साधनों के सुव्यवस्थित विकास में इस प्रदेश के उच्चावचन तथा नदियों का विशेष महत्त्व है। आसाम घाटी उत्तरी दक्षिणी भाग को स्वतन्त्र भारत में एक दूसरे से जोड़ दिया गया है। गौहाटी के निकट यह सम्पूर्ण ब्रह्मपुत्र घाटी का एक मात्र सेतु है। 1966 में रेलमार्गों की कुल लम्बाई 5,827 कि॰मी॰ थी (3,334 कि॰मी॰ साइडिंग के साथ)। धुबरी, गौहाटी, लामडि, सिलचर आदि रेलमार्ग द्वारा मिले हुए हैं। राजमार्ग कुल 20,678 कि॰ मी॰ है जिसमें राष्ट्रीय मार्ग 2,934 कि॰मी॰ (1968) है। | असम में वर्ष 1970 में कितने किलोग्राम चाय का उत्पादन होता था? | 21,5 करोड़ कि॰ग्रा | assam main varsh 1970 main kitne kilogram chaay kaa utpaadan hota tha? |
फायर क्ले, गृह-निर्माण-योग्य पत्थर आदि अन्य खनिज हैं। असम एक कृषिप्रधान राज्य है। 1970-71 में कुल (मिजोरमयुक्त) लगभग 25,50,000 हेक्टेयर भूमि (कुल क्षेत्रफल का लगभग 1/3) कृषिकार्य कुल भूमि का 90 प्रतिशत मैदानी भाग में है। धान (1971) कुल भूमि (कृषियोग्य) के 72 प्रतिशत क्षेत्र में पैदा किया जाता है (20,00,000 हेक्टेयर) तथा उत्पादन 20,16,000 टन होता है। अन्य फसलें (क्षेत्रपफल 1,000 हेक्टेयर में) इस प्रकार हैं- गेहूँ 21; दालें 79; सरसों तथा अन्य तिलहन 139। कुल कृषिभूमि का 77 प्रतिशत खाद्य फसलों के उत्पादन में लगा है। इतना होते हुए भी प्रति व्यक्ति कृषिभूमि का औसत 0.5 एकड़ (0.2 हेक्टेयर) ही है। विभिन्न साधनों द्वारा भूमि को सुधारने के उपरान्त कृषि क्षेत्र को पाँच प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। चाय, जूट तथा गन्ना यहाँ की प्रमुख औद्योगिक तथा धनद फसलें हैं। चाय की कृषि के अन्तर्गत लगभग 65 प्रतिशत कृषिगत भूमि सम्मिलित है। आसाम के आर्थिक तन्त्र में इसका विशेष हाथ है। भारत की छोटी बड़ी 7,100 चाय बागान में से लगभग 700 असम में ही स्थित हैं। 1970 ई॰ में कुल 2,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बाग थे जिनसे लगभग 21,5 करोड़ कि॰ग्रा॰ (1970) चाय तैयार की गई। इस उद्योग में प्रतिदिन 3,79,781 मजदूर लगे हैं, जिनमें अधिकांश उत्तर बिहार तथा पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के हैं। जूट लगभग छह प्रतिशत कृषियोग्य भूमि में उगाई जाती है। आर्थिक दृष्टिकोण से यह अधिक महत्वपूर्ण है। आसाम घाटी के पूर्वी भाग तथा दरंग जनपद इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। 1970 ई॰ में यहाँ की नदियों में से 26.5 हजार टन मछलियाँ भी पकड़ी गईं। वर्षा की अधिकता के कारण सिंचाई की व्यवस्था व्यापक रूप से लागू नहीं की जा सकी, केवल छोटी-छोटी योजनाएँ ही क्रियान्वित की गई हैं। कुल कृषिगत भूमि का मात्र 22 प्रतिशत ही सिंचित है। 1964 में प्रारम्भ की गई जमुना सिंचाई योजना (दीफू के निकट) इस राज्य की सबसे बड़ी योजना है जिससे लगभग 26,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाने का अनुमान है। नहरों की कुल लम्बाई 137.15 कि॰मी॰ रहेगी। राज्य के प्रमुख शक्ति-उत्पादक-केन्द्र (क्षमता तथा स्वरूप के साथ) ये हैं - गुवाहाटी (तापविद्युत्) 32,500 किलोवाट, नामरूप (तापविद्युत्) लखीमपुर में नहरकटिया से 20 कि॰मी॰, 23,000 किलोवाट का प्रथम चरण 1965 में पूर्ण। 30,000 किलोवाट का दूसरा चरण 1972-73 तक पूर्ण। जलविद्युत् केन्द्रों में यूनिकेम प्रमुख है (पूरी क्षमता 72,000 किलोवाट)। आसाम के आर्थिक तन्त्र में उद्योग धन्धों में, विशेष रूप से कृषि पर आधारित, तथा खनिज तेल का महत्वपूर्ण योगदान है। गुवाहाटी तथा डिब्रूगढ़ दो स्थान इसके मुख्य केन्द्र हैं। कछार का सिलचर नगर तीसरा प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। चाय उद्योग के अतिरक्ति वस्त्रोद्योग (शीलघाट, जूट तथा जारीरोड सिल्क) भी यहाँ उन्नत है। हाल ही में एक कपड़ा मिल गौहाटी में स्थापित की गई है। एरी, मूगा तथा पाट आसाम के उत्कृष्ट वस्त्रों में हैं। तेलशोधक कारखाने दिगबोई (पाँच लाख टन प्रति वर्ष) तथा नूनमाटी (7.5 लाख टन प्रति वर्ष) में है। उर्वरक केन्द्र नामरूप में हैं जहाँ प्रतिवर्ष 2,75,000 टन यूरिया तथा 7,05,000 टन अमोनिया का उत्पादन किया जाता है। चीरा में सीमेण्ट का कारखाना है जहाँ प्रतिवर्ष 54,000 टन सीमेण्ट का उत्पादन होता है। इनके अतिरिक्त वनों पर आधारित अनेक उद्योग धन्धे प्राय: सभी नगरों में चल रहे हैं। धुबरी की हार्डबोर्ड फैक्टरी तथा गुवाहाटी का खैर तथा आगर तैल विशेष उल्लेखनीय हैं। आवागमन तथा यातायात के साधनों के सुव्यवस्थित विकास में इस प्रदेश के उच्चावचन तथा नदियों का विशेष महत्त्व है। आसाम घाटी उत्तरी दक्षिणी भाग को स्वतन्त्र भारत में एक दूसरे से जोड़ दिया गया है। गौहाटी के निकट यह सम्पूर्ण ब्रह्मपुत्र घाटी का एक मात्र सेतु है। 1966 में रेलमार्गों की कुल लम्बाई 5,827 कि॰मी॰ थी (3,334 कि॰मी॰ साइडिंग के साथ)। धुबरी, गौहाटी, लामडि, सिलचर आदि रेलमार्ग द्वारा मिले हुए हैं। राजमार्ग कुल 20,678 कि॰ मी॰ है जिसमें राष्ट्रीय मार्ग 2,934 कि॰मी॰ (1968) है। | हार्डबोर्ड फैक्ट्री कहां स्थित है? | धुबरी | hardboard factory kahaan sthit he? |
बंगाल की खाड़ी एक क्षारीय जल का सागर है। यह हिन्द महासागर का भाग है। पृथ्वी का स्थलमंडल कुछ भागों में टूटा हुआ है जिन्हें विवर्तनिक प्लेट्स कहते हैं। बंगाल की खाड़ी के नीचे जो प्लेट है उसे भारतीय प्लेट कहते हैं। यह प्लेट हिन्द-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट का भाग है और मंथर गति से पूर्वोत्तर दिशा में बढ़ रही है। यह प्लेट बर्मा लघु-प्लेट से सुंडा गर्त पर मिलती है। निकोबार द्वीपसमूह एवं अंडमान द्वीपसमूह इस बर्मा लघु-प्लेट का ही भाग हैं। भारतीय प्लेट सुंडा गर्त में बर्मा प्लेट के नीचे की ओर घुसती जा रही है। यहां दोनों प्लेट्स के एक दूसरे पर दबाव के परिणामस्वरूप तापमान एवं दबाव में ब्ढ़ोत्तरी होती है। यह बढ़ोत्तरी कई ज्वालामुखी उत्पन्न करती है जैसे म्यांमार के ज्वालामुखी और एक अन्य ज्वालामुखी चाप, सुंडा चाप। २००४ के सुमात्र-अंडमान भूकम्प एवं एशियाई सूनामी इसी क्षेत्र में उत्पन्न दबाव के कारण बने एक पनडुब्बी भूकम्प के फ़लस्वरूप चली विराट सूनामी का परिणाम थे। सीलोन द्वीप से कोरोमंडल तटरेखा से लगी-लगी एक ५० मीटर चौड़ी पट्टी खाड़ी के शीर्ष से फ़िर दक्षिणावर्त्त अंडमान निकोबार द्वीपसमूह को घेरती जाती है। ये १०० सागर-थाह रेखाओं से घिरी है, लगभग ५० मी. गहरे। इसके परे फ़िर ५००-सागर-थाह सीमा है। गंगा के मुहाने के सामने हालांकि इन थाहों के बीच बड़े अंतराल हैं। इसका कारण डेल्टा का प्रभाव है। एक 14 कि.मी चौड़ा नो-ग्राउण्ड स्वैच बंगाल की खाड़ी के नीचे स्थित समुद्री घाटी है। इस घाटी के अधिकतम गहरे अंकित बिन्दुओं की गहरायी १३४० मी. है। पनडुब्बी घाटी बंगाल फ़ैन का ही एक भाग है। यह फ़ैन विश्व का सबसे बड़ा पनडुब्बी फ़ैन है। | बंगाल की खाड़ी के नीचे की प्लेट को क्या कहा जाता है? | विवर्तनिक प्लेट्स | bengal kii khadi ke neeche kii plate ko kya kaha jaataa he? |
बंगाल की खाड़ी एक क्षारीय जल का सागर है। यह हिन्द महासागर का भाग है। पृथ्वी का स्थलमंडल कुछ भागों में टूटा हुआ है जिन्हें विवर्तनिक प्लेट्स कहते हैं। बंगाल की खाड़ी के नीचे जो प्लेट है उसे भारतीय प्लेट कहते हैं। यह प्लेट हिन्द-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट का भाग है और मंथर गति से पूर्वोत्तर दिशा में बढ़ रही है। यह प्लेट बर्मा लघु-प्लेट से सुंडा गर्त पर मिलती है। निकोबार द्वीपसमूह एवं अंडमान द्वीपसमूह इस बर्मा लघु-प्लेट का ही भाग हैं। भारतीय प्लेट सुंडा गर्त में बर्मा प्लेट के नीचे की ओर घुसती जा रही है। यहां दोनों प्लेट्स के एक दूसरे पर दबाव के परिणामस्वरूप तापमान एवं दबाव में ब्ढ़ोत्तरी होती है। यह बढ़ोत्तरी कई ज्वालामुखी उत्पन्न करती है जैसे म्यांमार के ज्वालामुखी और एक अन्य ज्वालामुखी चाप, सुंडा चाप। २००४ के सुमात्र-अंडमान भूकम्प एवं एशियाई सूनामी इसी क्षेत्र में उत्पन्न दबाव के कारण बने एक पनडुब्बी भूकम्प के फ़लस्वरूप चली विराट सूनामी का परिणाम थे। सीलोन द्वीप से कोरोमंडल तटरेखा से लगी-लगी एक ५० मीटर चौड़ी पट्टी खाड़ी के शीर्ष से फ़िर दक्षिणावर्त्त अंडमान निकोबार द्वीपसमूह को घेरती जाती है। ये १०० सागर-थाह रेखाओं से घिरी है, लगभग ५० मी. गहरे। इसके परे फ़िर ५००-सागर-थाह सीमा है। गंगा के मुहाने के सामने हालांकि इन थाहों के बीच बड़े अंतराल हैं। इसका कारण डेल्टा का प्रभाव है। एक 14 कि.मी चौड़ा नो-ग्राउण्ड स्वैच बंगाल की खाड़ी के नीचे स्थित समुद्री घाटी है। इस घाटी के अधिकतम गहरे अंकित बिन्दुओं की गहरायी १३४० मी. है। पनडुब्बी घाटी बंगाल फ़ैन का ही एक भाग है। यह फ़ैन विश्व का सबसे बड़ा पनडुब्बी फ़ैन है। | अंडमान द्वीप समूह और निकोबार द्वीप समूह किस प्लेट का हिस्सा हैं? | बर्मा लघु-प्लेट | andaman dweep samooh or nicobar dweep samooh kis plate kaa hissaa hai? |
बंगाल की खाड़ी एक क्षारीय जल का सागर है। यह हिन्द महासागर का भाग है। पृथ्वी का स्थलमंडल कुछ भागों में टूटा हुआ है जिन्हें विवर्तनिक प्लेट्स कहते हैं। बंगाल की खाड़ी के नीचे जो प्लेट है उसे भारतीय प्लेट कहते हैं। यह प्लेट हिन्द-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट का भाग है और मंथर गति से पूर्वोत्तर दिशा में बढ़ रही है। यह प्लेट बर्मा लघु-प्लेट से सुंडा गर्त पर मिलती है। निकोबार द्वीपसमूह एवं अंडमान द्वीपसमूह इस बर्मा लघु-प्लेट का ही भाग हैं। भारतीय प्लेट सुंडा गर्त में बर्मा प्लेट के नीचे की ओर घुसती जा रही है। यहां दोनों प्लेट्स के एक दूसरे पर दबाव के परिणामस्वरूप तापमान एवं दबाव में ब्ढ़ोत्तरी होती है। यह बढ़ोत्तरी कई ज्वालामुखी उत्पन्न करती है जैसे म्यांमार के ज्वालामुखी और एक अन्य ज्वालामुखी चाप, सुंडा चाप। २००४ के सुमात्र-अंडमान भूकम्प एवं एशियाई सूनामी इसी क्षेत्र में उत्पन्न दबाव के कारण बने एक पनडुब्बी भूकम्प के फ़लस्वरूप चली विराट सूनामी का परिणाम थे। सीलोन द्वीप से कोरोमंडल तटरेखा से लगी-लगी एक ५० मीटर चौड़ी पट्टी खाड़ी के शीर्ष से फ़िर दक्षिणावर्त्त अंडमान निकोबार द्वीपसमूह को घेरती जाती है। ये १०० सागर-थाह रेखाओं से घिरी है, लगभग ५० मी. गहरे। इसके परे फ़िर ५००-सागर-थाह सीमा है। गंगा के मुहाने के सामने हालांकि इन थाहों के बीच बड़े अंतराल हैं। इसका कारण डेल्टा का प्रभाव है। एक 14 कि.मी चौड़ा नो-ग्राउण्ड स्वैच बंगाल की खाड़ी के नीचे स्थित समुद्री घाटी है। इस घाटी के अधिकतम गहरे अंकित बिन्दुओं की गहरायी १३४० मी. है। पनडुब्बी घाटी बंगाल फ़ैन का ही एक भाग है। यह फ़ैन विश्व का सबसे बड़ा पनडुब्बी फ़ैन है। | सबमरीन घाटी किसका हिस्सा है? | फ़ैन | sabamarine ghati kiskaa hissaa he? |
बहुत सी निजी बस सेवाएं भी चेन्नई को अन्य शहरों से सुलभ कराती हैं। चेन्नई दक्षिण रेलवे का मुख्यालय है। शहर में दो मुख्य रेलवे टार्मिनल हैं। चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन, जहां से सभी बड़े शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, कोच्चि, कोयंबतूर, तिरुवनंतपुरम, इत्यादि के लिए रेल-सुविधा उपलब्ध हैं। चेन्नई एगमोर रेलवे स्टेशन से प्रायः तमिलनाडु के शहरों की रेल सेवाएं ही उपलब्ध हैं। कुछ निकटवर्ती राज्य के शहरों की भी रेलगाड़ियां यहां से चलती हैं। शहर में लोक यातायात हेतु बस, रेल, ऑटोरिक्शा आदि सर्वसुलभ यातायात हैं। चेन्नई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क भारत में सबसे पुराना है। इसमें चार ब्रॉड गेज रेल क्षेत्र हैं जो शहर में दो स्थानों चेन्नई सेंट्रल और चेन्नई बीच रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। इन टर्मिनल से शहर में निम्न सेक्टरों के लिए नियमित सेवाएं उपलब्ध हैं:चेन्नई सेंट्रल/चेन्नई बीच - अरक्कोणम - तिरुट्टनी (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – पश्चिम लाइन)चेन्नई सेंट्रल/ चेन्नई बीच – गुम्मिडीपूंडी - सुलुरपेट (चेन्नई उपनगरीय रेलवे)चेन्नई बीच – तांबरम - चेंगलपट्टू - तिरुमलैपुर (कांचीपुरम) (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – दक्षिण लाइन)चौथा सेक्टर भूमि से उच्च स्तर पर है और चेन्नई बीच को वेलाचेरी से जोड़ता है और शेष जाल से भी जुड़ा हुआ है। चेन्नई मेट्रो चेन्नई मेट्रो चेन्नई के लिए अनुमोदित एक त्वरित यातायात सेवा है। इसके प्रथम चरण में दो लाइने प्रयोग में है एवम् अन्य लाइनों का कार्य निर्माणाधीन है यह पूरी परियोजना पहले चरण के दो गलियारों की लागत १४,६०० करोड़ रुपये है। जो ५०.१ कि॰मी॰ लंबे है २००७ के अनुंआन से ९५९६ करोड लागत आयी थी। [3].मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन (MTC) शहर में बस यातायात संचालित करता है। निगम का २७७३ बसों का बेड़ा २८८ मार्गों पर ३२.५ लाख यात्रियों को दैनिक परिवहन उपलब्ध कराता है। | चेन्नई में कितने मुख्य रेलवे टर्मिनल हैं? | दो | chennai main kitne mukhya railway terminal hai? |
बहुत सी निजी बस सेवाएं भी चेन्नई को अन्य शहरों से सुलभ कराती हैं। चेन्नई दक्षिण रेलवे का मुख्यालय है। शहर में दो मुख्य रेलवे टार्मिनल हैं। चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन, जहां से सभी बड़े शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, कोच्चि, कोयंबतूर, तिरुवनंतपुरम, इत्यादि के लिए रेल-सुविधा उपलब्ध हैं। चेन्नई एगमोर रेलवे स्टेशन से प्रायः तमिलनाडु के शहरों की रेल सेवाएं ही उपलब्ध हैं। कुछ निकटवर्ती राज्य के शहरों की भी रेलगाड़ियां यहां से चलती हैं। शहर में लोक यातायात हेतु बस, रेल, ऑटोरिक्शा आदि सर्वसुलभ यातायात हैं। चेन्नई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क भारत में सबसे पुराना है। इसमें चार ब्रॉड गेज रेल क्षेत्र हैं जो शहर में दो स्थानों चेन्नई सेंट्रल और चेन्नई बीच रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। इन टर्मिनल से शहर में निम्न सेक्टरों के लिए नियमित सेवाएं उपलब्ध हैं:चेन्नई सेंट्रल/चेन्नई बीच - अरक्कोणम - तिरुट्टनी (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – पश्चिम लाइन)चेन्नई सेंट्रल/ चेन्नई बीच – गुम्मिडीपूंडी - सुलुरपेट (चेन्नई उपनगरीय रेलवे)चेन्नई बीच – तांबरम - चेंगलपट्टू - तिरुमलैपुर (कांचीपुरम) (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – दक्षिण लाइन)चौथा सेक्टर भूमि से उच्च स्तर पर है और चेन्नई बीच को वेलाचेरी से जोड़ता है और शेष जाल से भी जुड़ा हुआ है। चेन्नई मेट्रो चेन्नई मेट्रो चेन्नई के लिए अनुमोदित एक त्वरित यातायात सेवा है। इसके प्रथम चरण में दो लाइने प्रयोग में है एवम् अन्य लाइनों का कार्य निर्माणाधीन है यह पूरी परियोजना पहले चरण के दो गलियारों की लागत १४,६०० करोड़ रुपये है। जो ५०.१ कि॰मी॰ लंबे है २००७ के अनुंआन से ९५९६ करोड लागत आयी थी। [3].मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन (MTC) शहर में बस यातायात संचालित करता है। निगम का २७७३ बसों का बेड़ा २८८ मार्गों पर ३२.५ लाख यात्रियों को दैनिक परिवहन उपलब्ध कराता है। | चेन्नई में कितने ब्रॉड गेज रेलवे जोन हैं ? | चार | chennai main kitne broad gej railway jone hai ? |
बहुत सी निजी बस सेवाएं भी चेन्नई को अन्य शहरों से सुलभ कराती हैं। चेन्नई दक्षिण रेलवे का मुख्यालय है। शहर में दो मुख्य रेलवे टार्मिनल हैं। चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन, जहां से सभी बड़े शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, कोच्चि, कोयंबतूर, तिरुवनंतपुरम, इत्यादि के लिए रेल-सुविधा उपलब्ध हैं। चेन्नई एगमोर रेलवे स्टेशन से प्रायः तमिलनाडु के शहरों की रेल सेवाएं ही उपलब्ध हैं। कुछ निकटवर्ती राज्य के शहरों की भी रेलगाड़ियां यहां से चलती हैं। शहर में लोक यातायात हेतु बस, रेल, ऑटोरिक्शा आदि सर्वसुलभ यातायात हैं। चेन्नई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क भारत में सबसे पुराना है। इसमें चार ब्रॉड गेज रेल क्षेत्र हैं जो शहर में दो स्थानों चेन्नई सेंट्रल और चेन्नई बीच रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। इन टर्मिनल से शहर में निम्न सेक्टरों के लिए नियमित सेवाएं उपलब्ध हैं:चेन्नई सेंट्रल/चेन्नई बीच - अरक्कोणम - तिरुट्टनी (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – पश्चिम लाइन)चेन्नई सेंट्रल/ चेन्नई बीच – गुम्मिडीपूंडी - सुलुरपेट (चेन्नई उपनगरीय रेलवे)चेन्नई बीच – तांबरम - चेंगलपट्टू - तिरुमलैपुर (कांचीपुरम) (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – दक्षिण लाइन)चौथा सेक्टर भूमि से उच्च स्तर पर है और चेन्नई बीच को वेलाचेरी से जोड़ता है और शेष जाल से भी जुड़ा हुआ है। चेन्नई मेट्रो चेन्नई मेट्रो चेन्नई के लिए अनुमोदित एक त्वरित यातायात सेवा है। इसके प्रथम चरण में दो लाइने प्रयोग में है एवम् अन्य लाइनों का कार्य निर्माणाधीन है यह पूरी परियोजना पहले चरण के दो गलियारों की लागत १४,६०० करोड़ रुपये है। जो ५०.१ कि॰मी॰ लंबे है २००७ के अनुंआन से ९५९६ करोड लागत आयी थी। [3].मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन (MTC) शहर में बस यातायात संचालित करता है। निगम का २७७३ बसों का बेड़ा २८८ मार्गों पर ३२.५ लाख यात्रियों को दैनिक परिवहन उपलब्ध कराता है। | महानगर परिवहन निगम कितनी बसों का संचालन करती है? | २७७३ बसों | mahanagar parivahan nigam kitni bason kaa sanchaalan karti he? |
बहुत सी निजी बस सेवाएं भी चेन्नई को अन्य शहरों से सुलभ कराती हैं। चेन्नई दक्षिण रेलवे का मुख्यालय है। शहर में दो मुख्य रेलवे टार्मिनल हैं। चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन, जहां से सभी बड़े शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, कोच्चि, कोयंबतूर, तिरुवनंतपुरम, इत्यादि के लिए रेल-सुविधा उपलब्ध हैं। चेन्नई एगमोर रेलवे स्टेशन से प्रायः तमिलनाडु के शहरों की रेल सेवाएं ही उपलब्ध हैं। कुछ निकटवर्ती राज्य के शहरों की भी रेलगाड़ियां यहां से चलती हैं। शहर में लोक यातायात हेतु बस, रेल, ऑटोरिक्शा आदि सर्वसुलभ यातायात हैं। चेन्नई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क भारत में सबसे पुराना है। इसमें चार ब्रॉड गेज रेल क्षेत्र हैं जो शहर में दो स्थानों चेन्नई सेंट्रल और चेन्नई बीच रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। इन टर्मिनल से शहर में निम्न सेक्टरों के लिए नियमित सेवाएं उपलब्ध हैं:चेन्नई सेंट्रल/चेन्नई बीच - अरक्कोणम - तिरुट्टनी (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – पश्चिम लाइन)चेन्नई सेंट्रल/ चेन्नई बीच – गुम्मिडीपूंडी - सुलुरपेट (चेन्नई उपनगरीय रेलवे)चेन्नई बीच – तांबरम - चेंगलपट्टू - तिरुमलैपुर (कांचीपुरम) (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – दक्षिण लाइन)चौथा सेक्टर भूमि से उच्च स्तर पर है और चेन्नई बीच को वेलाचेरी से जोड़ता है और शेष जाल से भी जुड़ा हुआ है। चेन्नई मेट्रो चेन्नई मेट्रो चेन्नई के लिए अनुमोदित एक त्वरित यातायात सेवा है। इसके प्रथम चरण में दो लाइने प्रयोग में है एवम् अन्य लाइनों का कार्य निर्माणाधीन है यह पूरी परियोजना पहले चरण के दो गलियारों की लागत १४,६०० करोड़ रुपये है। जो ५०.१ कि॰मी॰ लंबे है २००७ के अनुंआन से ९५९६ करोड लागत आयी थी। [3].मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन (MTC) शहर में बस यातायात संचालित करता है। निगम का २७७३ बसों का बेड़ा २८८ मार्गों पर ३२.५ लाख यात्रियों को दैनिक परिवहन उपलब्ध कराता है। | भारत का सबसे पुराना रेलवे नेटवर्क कौन सा है? | चेन्नई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क | bharat kaa sabase purana railway network koun sa he? |
बहुत सी निजी बस सेवाएं भी चेन्नई को अन्य शहरों से सुलभ कराती हैं। चेन्नई दक्षिण रेलवे का मुख्यालय है। शहर में दो मुख्य रेलवे टार्मिनल हैं। चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन, जहां से सभी बड़े शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, कोच्चि, कोयंबतूर, तिरुवनंतपुरम, इत्यादि के लिए रेल-सुविधा उपलब्ध हैं। चेन्नई एगमोर रेलवे स्टेशन से प्रायः तमिलनाडु के शहरों की रेल सेवाएं ही उपलब्ध हैं। कुछ निकटवर्ती राज्य के शहरों की भी रेलगाड़ियां यहां से चलती हैं। शहर में लोक यातायात हेतु बस, रेल, ऑटोरिक्शा आदि सर्वसुलभ यातायात हैं। चेन्नई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क भारत में सबसे पुराना है। इसमें चार ब्रॉड गेज रेल क्षेत्र हैं जो शहर में दो स्थानों चेन्नई सेंट्रल और चेन्नई बीच रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। इन टर्मिनल से शहर में निम्न सेक्टरों के लिए नियमित सेवाएं उपलब्ध हैं:चेन्नई सेंट्रल/चेन्नई बीच - अरक्कोणम - तिरुट्टनी (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – पश्चिम लाइन)चेन्नई सेंट्रल/ चेन्नई बीच – गुम्मिडीपूंडी - सुलुरपेट (चेन्नई उपनगरीय रेलवे)चेन्नई बीच – तांबरम - चेंगलपट्टू - तिरुमलैपुर (कांचीपुरम) (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – दक्षिण लाइन)चौथा सेक्टर भूमि से उच्च स्तर पर है और चेन्नई बीच को वेलाचेरी से जोड़ता है और शेष जाल से भी जुड़ा हुआ है। चेन्नई मेट्रो चेन्नई मेट्रो चेन्नई के लिए अनुमोदित एक त्वरित यातायात सेवा है। इसके प्रथम चरण में दो लाइने प्रयोग में है एवम् अन्य लाइनों का कार्य निर्माणाधीन है यह पूरी परियोजना पहले चरण के दो गलियारों की लागत १४,६०० करोड़ रुपये है। जो ५०.१ कि॰मी॰ लंबे है २००७ के अनुंआन से ९५९६ करोड लागत आयी थी। [3].मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन (MTC) शहर में बस यातायात संचालित करता है। निगम का २७७३ बसों का बेड़ा २८८ मार्गों पर ३२.५ लाख यात्रियों को दैनिक परिवहन उपलब्ध कराता है। | महानगर परिवहन निगम चेन्नई शहर में किस यातायात को संचालित करता है? | बस यातायात | mahanagar parivahan nigam chennai shahar main kis yatayaat ko sanchalit karata he? |
बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में 16 किलोमीटर (9.9 मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन ने 3,000 ईसा पूर्व और 1,000 ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्त्व के चार चरणों का खुलासा किया है। अवधि I और II नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि IV प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला। कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था। मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा। कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहाँ के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये। रणबीर सिंह के पोते महाराज हरि सिंह, जो 1925 में कश्मीर के सिंहासन पर चढ़े थे, 1947 में उपमहाद्वीप के ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के बाद के नए स्वतन्त्र डोमिनियन ऑफ़ इण्डिया और डोमिनियन के पाकिस्तान विभाजन के बाद राज करने वाले सम्राट थे। 1948 के अन्तिम दिनों में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम पर सहमति बनी। | बुर्जहोम पुरातात्विक स्थल कहाँ स्थित है ? | श्रीनगर | burjahome puratathvik sthal kahan sthit he ? |
बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में 16 किलोमीटर (9.9 मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन ने 3,000 ईसा पूर्व और 1,000 ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्त्व के चार चरणों का खुलासा किया है। अवधि I और II नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि IV प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला। कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था। मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा। कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहाँ के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये। रणबीर सिंह के पोते महाराज हरि सिंह, जो 1925 में कश्मीर के सिंहासन पर चढ़े थे, 1947 में उपमहाद्वीप के ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के बाद के नए स्वतन्त्र डोमिनियन ऑफ़ इण्डिया और डोमिनियन के पाकिस्तान विभाजन के बाद राज करने वाले सम्राट थे। 1948 के अन्तिम दिनों में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम पर सहमति बनी। | राजा हरि सिंह ने कश्मीर की राजगद्दी कब संभाली ? | 1925 | raja hari singh ne kashmir kii rajgaddi kab sanbhali ? |
बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में 16 किलोमीटर (9.9 मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन ने 3,000 ईसा पूर्व और 1,000 ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्त्व के चार चरणों का खुलासा किया है। अवधि I और II नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि IV प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला। कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था। मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा। कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहाँ के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये। रणबीर सिंह के पोते महाराज हरि सिंह, जो 1925 में कश्मीर के सिंहासन पर चढ़े थे, 1947 में उपमहाद्वीप के ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के बाद के नए स्वतन्त्र डोमिनियन ऑफ़ इण्डिया और डोमिनियन के पाकिस्तान विभाजन के बाद राज करने वाले सम्राट थे। 1948 के अन्तिम दिनों में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम पर सहमति बनी। | अवधि I और II किस काल को प्रदर्शित करते हैं ? | नवपाषाण युग | avadhi I or II kis kaal ko pradarshit karte hai ? |
बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में 16 किलोमीटर (9.9 मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन ने 3,000 ईसा पूर्व और 1,000 ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्त्व के चार चरणों का खुलासा किया है। अवधि I और II नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि IV प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला। कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था। मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा। कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहाँ के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये। रणबीर सिंह के पोते महाराज हरि सिंह, जो 1925 में कश्मीर के सिंहासन पर चढ़े थे, 1947 में उपमहाद्वीप के ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के बाद के नए स्वतन्त्र डोमिनियन ऑफ़ इण्डिया और डोमिनियन के पाकिस्तान विभाजन के बाद राज करने वाले सम्राट थे। 1948 के अन्तिम दिनों में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम पर सहमति बनी। | राजतरंगिणी के लेखक कौन थे ? | कल्हण | rajtarangini ke lekhak koun the ? |
बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में 16 किलोमीटर (9.9 मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन ने 3,000 ईसा पूर्व और 1,000 ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्त्व के चार चरणों का खुलासा किया है। अवधि I और II नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि IV प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला। कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था। मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा। कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहाँ के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये। रणबीर सिंह के पोते महाराज हरि सिंह, जो 1925 में कश्मीर के सिंहासन पर चढ़े थे, 1947 में उपमहाद्वीप के ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के बाद के नए स्वतन्त्र डोमिनियन ऑफ़ इण्डिया और डोमिनियन के पाकिस्तान विभाजन के बाद राज करने वाले सम्राट थे। 1948 के अन्तिम दिनों में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम पर सहमति बनी। | कश्यपमार का क्या अर्थ होता है ? | कछुओं की झील | kashyapamar kaa kya arth hota he ? |
बेगम हज़रत महल का नाम मुहम्मदी ख़ानुम था, और उनका जन्म फ़ैज़ाबाद, अवध में हुआ था। वह पेशे से एक तवायफ़ थी और अपने माता-पिता द्वारा बेचे जाने के बाद ख़्वासीन के रूप में शाही हरम में ले लिया गया था। तब उन्हें शाही आधिकारियों के पास बेचा गया था, और बाद में वे 'परि' के तौर पर पदोन्नत हुईं, और उन्हें 'महक परि' के नाम से जाना जाता था। अवध के नवाब की शाही रखैल के तौर पर स्वीकार की जाने पर उन्हें "बेगम" का ख़िताब हासिल हुआ, और उनके बेटे बिरजिस क़द्र के जन्म के बाद उन्हें 'हज़रत महल' का ख़िताब दिया गया था। वे आख़िरी ताजदर-ए-अवध, वाजिद अली शाह की छोटी पत्नी थीं। 1856 में अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया था और वाजिद अली शाह को कलकत्ते में निर्वासित कर दिया गया था। कलकत्ते में उनके पति निर्वासित होने के बाद, बेगम हज़रत महल ने अवध रियासत के राजकीय मामलों को संभाला। आज़ादी के पहले युद्ध के दौरान, 1857 से 1858 तक, राजा जयलाल सिंह की अगुवाई में बेगम हज़रत महल के हामियों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ बग़ावत की; बाद में, उन्होंने लखनऊ पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध के वली (शासक) घोषित कर दिया। बेगम हज़रत महल की प्रमुख शिकायतों में से एक यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सड़कें बनाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों को आकस्मिक रूप से ध्वस्त किया था। विद्रोह के अंतिम दिनों में जारी की गई एक घोषणा में, उन्होंने अंग्रेज़ सरकार द्वारा धार्मिक आज़ादी की अनुमति देने के दावे का मज़ाक उड़ाया: जब अंग्रेज़ों के आदेश के तहत सेना ने लखनऊ और ओध के अधिकांश इलाक़े को क़ब्ज़ा कर लिया, तो हज़रत महल को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। | हजरत महल किस प्रदेश में काम करती थी ? | अवध | hazrat mahal kis pradesh main kaam karti thi ? |
बेगम हज़रत महल का नाम मुहम्मदी ख़ानुम था, और उनका जन्म फ़ैज़ाबाद, अवध में हुआ था। वह पेशे से एक तवायफ़ थी और अपने माता-पिता द्वारा बेचे जाने के बाद ख़्वासीन के रूप में शाही हरम में ले लिया गया था। तब उन्हें शाही आधिकारियों के पास बेचा गया था, और बाद में वे 'परि' के तौर पर पदोन्नत हुईं, और उन्हें 'महक परि' के नाम से जाना जाता था। अवध के नवाब की शाही रखैल के तौर पर स्वीकार की जाने पर उन्हें "बेगम" का ख़िताब हासिल हुआ, और उनके बेटे बिरजिस क़द्र के जन्म के बाद उन्हें 'हज़रत महल' का ख़िताब दिया गया था। वे आख़िरी ताजदर-ए-अवध, वाजिद अली शाह की छोटी पत्नी थीं। 1856 में अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया था और वाजिद अली शाह को कलकत्ते में निर्वासित कर दिया गया था। कलकत्ते में उनके पति निर्वासित होने के बाद, बेगम हज़रत महल ने अवध रियासत के राजकीय मामलों को संभाला। आज़ादी के पहले युद्ध के दौरान, 1857 से 1858 तक, राजा जयलाल सिंह की अगुवाई में बेगम हज़रत महल के हामियों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ बग़ावत की; बाद में, उन्होंने लखनऊ पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध के वली (शासक) घोषित कर दिया। बेगम हज़रत महल की प्रमुख शिकायतों में से एक यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सड़कें बनाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों को आकस्मिक रूप से ध्वस्त किया था। विद्रोह के अंतिम दिनों में जारी की गई एक घोषणा में, उन्होंने अंग्रेज़ सरकार द्वारा धार्मिक आज़ादी की अनुमति देने के दावे का मज़ाक उड़ाया: जब अंग्रेज़ों के आदेश के तहत सेना ने लखनऊ और ओध के अधिकांश इलाक़े को क़ब्ज़ा कर लिया, तो हज़रत महल को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। | बेगम हजरत महल का नाम क्या था? | मुहम्मदी ख़ानुम | begum hazrat mahal kaa naam kya tha? |
बेगम हज़रत महल का नाम मुहम्मदी ख़ानुम था, और उनका जन्म फ़ैज़ाबाद, अवध में हुआ था। वह पेशे से एक तवायफ़ थी और अपने माता-पिता द्वारा बेचे जाने के बाद ख़्वासीन के रूप में शाही हरम में ले लिया गया था। तब उन्हें शाही आधिकारियों के पास बेचा गया था, और बाद में वे 'परि' के तौर पर पदोन्नत हुईं, और उन्हें 'महक परि' के नाम से जाना जाता था। अवध के नवाब की शाही रखैल के तौर पर स्वीकार की जाने पर उन्हें "बेगम" का ख़िताब हासिल हुआ, और उनके बेटे बिरजिस क़द्र के जन्म के बाद उन्हें 'हज़रत महल' का ख़िताब दिया गया था। वे आख़िरी ताजदर-ए-अवध, वाजिद अली शाह की छोटी पत्नी थीं। 1856 में अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया था और वाजिद अली शाह को कलकत्ते में निर्वासित कर दिया गया था। कलकत्ते में उनके पति निर्वासित होने के बाद, बेगम हज़रत महल ने अवध रियासत के राजकीय मामलों को संभाला। आज़ादी के पहले युद्ध के दौरान, 1857 से 1858 तक, राजा जयलाल सिंह की अगुवाई में बेगम हज़रत महल के हामियों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ बग़ावत की; बाद में, उन्होंने लखनऊ पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध के वली (शासक) घोषित कर दिया। बेगम हज़रत महल की प्रमुख शिकायतों में से एक यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सड़कें बनाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों को आकस्मिक रूप से ध्वस्त किया था। विद्रोह के अंतिम दिनों में जारी की गई एक घोषणा में, उन्होंने अंग्रेज़ सरकार द्वारा धार्मिक आज़ादी की अनुमति देने के दावे का मज़ाक उड़ाया: जब अंग्रेज़ों के आदेश के तहत सेना ने लखनऊ और ओध के अधिकांश इलाक़े को क़ब्ज़ा कर लिया, तो हज़रत महल को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। | अवध पर अंग्रेजों ने कब्जा कब किया था? | 1856 | avadh par angrejon ne kabja kab kiya tha? |
बेगम हज़रत महल का नाम मुहम्मदी ख़ानुम था, और उनका जन्म फ़ैज़ाबाद, अवध में हुआ था। वह पेशे से एक तवायफ़ थी और अपने माता-पिता द्वारा बेचे जाने के बाद ख़्वासीन के रूप में शाही हरम में ले लिया गया था। तब उन्हें शाही आधिकारियों के पास बेचा गया था, और बाद में वे 'परि' के तौर पर पदोन्नत हुईं, और उन्हें 'महक परि' के नाम से जाना जाता था। अवध के नवाब की शाही रखैल के तौर पर स्वीकार की जाने पर उन्हें "बेगम" का ख़िताब हासिल हुआ, और उनके बेटे बिरजिस क़द्र के जन्म के बाद उन्हें 'हज़रत महल' का ख़िताब दिया गया था। वे आख़िरी ताजदर-ए-अवध, वाजिद अली शाह की छोटी पत्नी थीं। 1856 में अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया था और वाजिद अली शाह को कलकत्ते में निर्वासित कर दिया गया था। कलकत्ते में उनके पति निर्वासित होने के बाद, बेगम हज़रत महल ने अवध रियासत के राजकीय मामलों को संभाला। आज़ादी के पहले युद्ध के दौरान, 1857 से 1858 तक, राजा जयलाल सिंह की अगुवाई में बेगम हज़रत महल के हामियों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ बग़ावत की; बाद में, उन्होंने लखनऊ पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध के वली (शासक) घोषित कर दिया। बेगम हज़रत महल की प्रमुख शिकायतों में से एक यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सड़कें बनाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों को आकस्मिक रूप से ध्वस्त किया था। विद्रोह के अंतिम दिनों में जारी की गई एक घोषणा में, उन्होंने अंग्रेज़ सरकार द्वारा धार्मिक आज़ादी की अनुमति देने के दावे का मज़ाक उड़ाया: जब अंग्रेज़ों के आदेश के तहत सेना ने लखनऊ और ओध के अधिकांश इलाक़े को क़ब्ज़ा कर लिया, तो हज़रत महल को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। | वाजिद अली शाह को अंग्रेजो द्वारा कहाँ निर्वासित कर दिया गया था? | कलकत्ते | waajid ali shah ko angrejo dwaara kahan nirvasit kar diya gaya tha? |
बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का ८वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की। मान्यता के अनुसार १४वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम के मिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना की। १६४२ ईस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल (राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ। फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात १६७० में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। सन १७०० में भूटान में चोग्याल की अर्ध-बहन, जिसे राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था, द्वारा सिक्किम पर आक्रमण हुआ। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। १७१७ तथा १७३३ के बीच सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण रबदेन्त्से का अन्तत:पतन हो गया। 1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम १८१४ का गोरखा युद्ध रहा। सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और ब्रतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष १८१७ में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष १८४९ में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे। | बौद्ध भिक्षुओं द्वारा सिक्किम का पहला राजा कहां घोषित किया गया था? | युक्सोम | buddha bhikshuon dwaara sikkim kaa pehla raja kahaan ghoshit kiya gaya tha? |
बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का ८वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की। मान्यता के अनुसार १४वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम के मिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना की। १६४२ ईस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल (राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ। फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात १६७० में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। सन १७०० में भूटान में चोग्याल की अर्ध-बहन, जिसे राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था, द्वारा सिक्किम पर आक्रमण हुआ। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। १७१७ तथा १७३३ के बीच सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण रबदेन्त्से का अन्तत:पतन हो गया। 1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम १८१४ का गोरखा युद्ध रहा। सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और ब्रतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष १८१७ में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष १८४९ में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे। | फुंटसॉन्ग नामग्याल के बेटे का क्या नाम था? | तेन्सुंग नामग्याल | phutsong namagyal ke bete kaa kya naam tha? |
बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का ८वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की। मान्यता के अनुसार १४वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम के मिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना की। १६४२ ईस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल (राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ। फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात १६७० में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। सन १७०० में भूटान में चोग्याल की अर्ध-बहन, जिसे राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था, द्वारा सिक्किम पर आक्रमण हुआ। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। १७१७ तथा १७३३ के बीच सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण रबदेन्त्से का अन्तत:पतन हो गया। 1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम १८१४ का गोरखा युद्ध रहा। सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और ब्रतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष १८१७ में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष १८४९ में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे। | सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार कौन थे ? | डाक्टर अर्चिबाल्ड | sikkim or british sarkaar ke bich sambandhon ke liye jimmedaar koun the ? |
बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का ८वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की। मान्यता के अनुसार १४वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम के मिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना की। १६४२ ईस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल (राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ। फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात १६७० में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। सन १७०० में भूटान में चोग्याल की अर्ध-बहन, जिसे राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था, द्वारा सिक्किम पर आक्रमण हुआ। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। १७१७ तथा १७३३ के बीच सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण रबदेन्त्से का अन्तत:पतन हो गया। 1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम १८१४ का गोरखा युद्ध रहा। सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और ब्रतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष १८१७ में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष १८४९ में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे। | खे बुम्सा के वंशजों ने सिक्किम राज्य में किस प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की थी? | राजतन्त्र | khe bumsa ke vanshajon ne sikkim rajya main kis prashasnic tantra kii sthapana kii thi? |
बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का ८वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की। मान्यता के अनुसार १४वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम के मिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना की। १६४२ ईस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल (राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ। फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात १६७० में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। सन १७०० में भूटान में चोग्याल की अर्ध-बहन, जिसे राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था, द्वारा सिक्किम पर आक्रमण हुआ। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। १७१७ तथा १७३३ के बीच सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण रबदेन्त्से का अन्तत:पतन हो गया। 1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम १८१४ का गोरखा युद्ध रहा। सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और ब्रतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष १८१७ में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष १८४९ में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे। | नेपाल द्वारा सिक्किम के कुछ भागो को किस वर्ष अधिकृत किया गया था ? | १८१७ | nepal dwaara sikkim ke kuch bhaago ko kis varsh adhikrut kiya gaya tha ? |
भगवान राम के छोटे भाई भरत को समर्पित यह मन्दिर त्रिवेणी घाट के निकट ओल्ड टाउन में स्थित है। मन्दिर का मूल रूप 1398 में तैमूर आक्रमण के दौरान क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। हालाँकि मन्दिर की बहुत सी महत्वपूर्ण चीजों को उस हमले के बाद आज तक संरक्षित रखा गया है। मन्दिर के अन्दरूनी गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा एकल शालीग्राम पत्थर पर उकेरी गई है। आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रखा गया श्रीयन्त्र भी यहाँ देखा जा सकता है। लक्ष्मण झूले को पार करते ही कैलाश निकेतन मन्दिर है। 12 खण्डों में बना यह विशाल मंदिर ऋषिकेश के अन्य मन्दिरों से भिन्न है। इस मंदिर में सभी देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। ऋषिकेश से 22 किलोमीटर की दूरी पर 3,000 साल पुरानी वशिष्ठ गुफा बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग पर स्थित है। इस स्थान पर बहुत से साधुओं विश्राम और ध्यान लगाए देखे जा सकते हैं। कहा जाता है यह स्थान भगवान राम और बहुत से राजाओं के पुरोहित वशिष्ठ का निवास स्थल था। वशिष्ठ गुफा में साधुओं को ध्यानमग्न मुद्रा में देखा जा सकता है। गुफा के भीतर एक शिवलिंग भी स्थापित है। यह जगह पर्यटन के लिये बहुत मशहूर है। राम झूला पार करते ही गीता भवन है जिसे विकतमसंवत 2007 में श्री जयदयाल गोयन्दकाजी ने बनवाया गया था। यह अपनी दर्शनीय दीवारों के लिए प्रसिद्ध है। यहां रामायण और महाभारत के चित्रों से सजी दीवारें इस स्थान को आकर्षण बनाती हैं। यहां एक आयुर्वेदिक डिस्पेन्सरी और गीताप्रेस गोरखपुर की एक शाखा भी है। ऋषिकेश से नीलकण्ठ मार्ग के बीच यह स्थान आता है जिसका नाम है फूलचट्टी , मोहनचट्टी , यह स्थान बहुत ही शान्त वातावरण का है यहाँ चारो और सुन्दर वादियाँ है , नीलकण्ठ मार्ग पर मोहनचट्टी आकर्षण का केंद्र बनता है |यह हिन्दी-अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान अंग्रेजी- All India Institute of Medical Science का संक्षिप्त नाम है, भारत का दिल्ली के बाद यह देश का सबसे बड़ा चिकित्सालय है,अस्पताल परिसर 400 मीटर के दायरे में फैला है देखने योग्य भव्य ईमारत है,इसके कई भाग हैं-ट्रॉमा सेण्टर, Emergency आदि | कैलाश निकेतन मंदिर कितने ब्लाक में बना हुआ है? | 12 | kailash niketan mandir kitne blaak main bana hua he? |
भगवान राम के छोटे भाई भरत को समर्पित यह मन्दिर त्रिवेणी घाट के निकट ओल्ड टाउन में स्थित है। मन्दिर का मूल रूप 1398 में तैमूर आक्रमण के दौरान क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। हालाँकि मन्दिर की बहुत सी महत्वपूर्ण चीजों को उस हमले के बाद आज तक संरक्षित रखा गया है। मन्दिर के अन्दरूनी गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा एकल शालीग्राम पत्थर पर उकेरी गई है। आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रखा गया श्रीयन्त्र भी यहाँ देखा जा सकता है। लक्ष्मण झूले को पार करते ही कैलाश निकेतन मन्दिर है। 12 खण्डों में बना यह विशाल मंदिर ऋषिकेश के अन्य मन्दिरों से भिन्न है। इस मंदिर में सभी देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। ऋषिकेश से 22 किलोमीटर की दूरी पर 3,000 साल पुरानी वशिष्ठ गुफा बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग पर स्थित है। इस स्थान पर बहुत से साधुओं विश्राम और ध्यान लगाए देखे जा सकते हैं। कहा जाता है यह स्थान भगवान राम और बहुत से राजाओं के पुरोहित वशिष्ठ का निवास स्थल था। वशिष्ठ गुफा में साधुओं को ध्यानमग्न मुद्रा में देखा जा सकता है। गुफा के भीतर एक शिवलिंग भी स्थापित है। यह जगह पर्यटन के लिये बहुत मशहूर है। राम झूला पार करते ही गीता भवन है जिसे विकतमसंवत 2007 में श्री जयदयाल गोयन्दकाजी ने बनवाया गया था। यह अपनी दर्शनीय दीवारों के लिए प्रसिद्ध है। यहां रामायण और महाभारत के चित्रों से सजी दीवारें इस स्थान को आकर्षण बनाती हैं। यहां एक आयुर्वेदिक डिस्पेन्सरी और गीताप्रेस गोरखपुर की एक शाखा भी है। ऋषिकेश से नीलकण्ठ मार्ग के बीच यह स्थान आता है जिसका नाम है फूलचट्टी , मोहनचट्टी , यह स्थान बहुत ही शान्त वातावरण का है यहाँ चारो और सुन्दर वादियाँ है , नीलकण्ठ मार्ग पर मोहनचट्टी आकर्षण का केंद्र बनता है |यह हिन्दी-अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान अंग्रेजी- All India Institute of Medical Science का संक्षिप्त नाम है, भारत का दिल्ली के बाद यह देश का सबसे बड़ा चिकित्सालय है,अस्पताल परिसर 400 मीटर के दायरे में फैला है देखने योग्य भव्य ईमारत है,इसके कई भाग हैं-ट्रॉमा सेण्टर, Emergency आदि | गीता भवन का निर्माण किसने करवाया था? | श्री जयदयाल गोयन्दकाजी | gita bhawan kaa nirmaan kisne karavaaya tha? |
भगवान राम के छोटे भाई भरत को समर्पित यह मन्दिर त्रिवेणी घाट के निकट ओल्ड टाउन में स्थित है। मन्दिर का मूल रूप 1398 में तैमूर आक्रमण के दौरान क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। हालाँकि मन्दिर की बहुत सी महत्वपूर्ण चीजों को उस हमले के बाद आज तक संरक्षित रखा गया है। मन्दिर के अन्दरूनी गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा एकल शालीग्राम पत्थर पर उकेरी गई है। आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रखा गया श्रीयन्त्र भी यहाँ देखा जा सकता है। लक्ष्मण झूले को पार करते ही कैलाश निकेतन मन्दिर है। 12 खण्डों में बना यह विशाल मंदिर ऋषिकेश के अन्य मन्दिरों से भिन्न है। इस मंदिर में सभी देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। ऋषिकेश से 22 किलोमीटर की दूरी पर 3,000 साल पुरानी वशिष्ठ गुफा बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग पर स्थित है। इस स्थान पर बहुत से साधुओं विश्राम और ध्यान लगाए देखे जा सकते हैं। कहा जाता है यह स्थान भगवान राम और बहुत से राजाओं के पुरोहित वशिष्ठ का निवास स्थल था। वशिष्ठ गुफा में साधुओं को ध्यानमग्न मुद्रा में देखा जा सकता है। गुफा के भीतर एक शिवलिंग भी स्थापित है। यह जगह पर्यटन के लिये बहुत मशहूर है। राम झूला पार करते ही गीता भवन है जिसे विकतमसंवत 2007 में श्री जयदयाल गोयन्दकाजी ने बनवाया गया था। यह अपनी दर्शनीय दीवारों के लिए प्रसिद्ध है। यहां रामायण और महाभारत के चित्रों से सजी दीवारें इस स्थान को आकर्षण बनाती हैं। यहां एक आयुर्वेदिक डिस्पेन्सरी और गीताप्रेस गोरखपुर की एक शाखा भी है। ऋषिकेश से नीलकण्ठ मार्ग के बीच यह स्थान आता है जिसका नाम है फूलचट्टी , मोहनचट्टी , यह स्थान बहुत ही शान्त वातावरण का है यहाँ चारो और सुन्दर वादियाँ है , नीलकण्ठ मार्ग पर मोहनचट्टी आकर्षण का केंद्र बनता है |यह हिन्दी-अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान अंग्रेजी- All India Institute of Medical Science का संक्षिप्त नाम है, भारत का दिल्ली के बाद यह देश का सबसे बड़ा चिकित्सालय है,अस्पताल परिसर 400 मीटर के दायरे में फैला है देखने योग्य भव्य ईमारत है,इसके कई भाग हैं-ट्रॉमा सेण्टर, Emergency आदि | गीता भवन किस प्रसिद्ध पुल के समीप स्थित है? | राम झूला | gita bhawan kis prasiddh pul ke sameep sthit he? |
भारत का अंतरिक्ष सम्बन्धी अनुभव बहुत पुराना है। भारत और चीन के बीच रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खदेड़ने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने 1804 में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, रॉकेट पड़ोसी देश चीन का आविष्कार था और आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया। आज के आधुनिक तोपखानों कीमंगल भाटी ने ििसरओ की खोज 1945 में की थी। 1947 में अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई। 1960-1970भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। 1957 में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, 1962 में 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त कियाजापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। 1962 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। | भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक किसे कहा जाता है ? | डॉ विक्रम साराभाई | bhartiya antariksh kaarykram kaa janak kise kaha jaataa he ? |
भारत का अंतरिक्ष सम्बन्धी अनुभव बहुत पुराना है। भारत और चीन के बीच रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खदेड़ने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने 1804 में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, रॉकेट पड़ोसी देश चीन का आविष्कार था और आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया। आज के आधुनिक तोपखानों कीमंगल भाटी ने ििसरओ की खोज 1945 में की थी। 1947 में अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई। 1960-1970भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। 1957 में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, 1962 में 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त कियाजापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। 1962 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। | कांग्रेव रॉकेट का आविष्कार किस देश ने किया था ? | चीन | congrev rocket kaa avishkaar kis desh ne kiya tha ? |
भारत का अंतरिक्ष सम्बन्धी अनुभव बहुत पुराना है। भारत और चीन के बीच रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खदेड़ने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने 1804 में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, रॉकेट पड़ोसी देश चीन का आविष्कार था और आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया। आज के आधुनिक तोपखानों कीमंगल भाटी ने ििसरओ की खोज 1945 में की थी। 1947 में अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई। 1960-1970भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। 1957 में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, 1962 में 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त कियाजापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। 1962 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। | स्पुतनिक का प्रक्षेपण किस वर्ष हुआ था ? | 1957 | sputanik kaa prakshepan kis varsh hua tha ? |
भारत का अंतरिक्ष सम्बन्धी अनुभव बहुत पुराना है। भारत और चीन के बीच रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खदेड़ने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने 1804 में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, रॉकेट पड़ोसी देश चीन का आविष्कार था और आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया। आज के आधुनिक तोपखानों कीमंगल भाटी ने ििसरओ की खोज 1945 में की थी। 1947 में अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई। 1960-1970भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। 1957 में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, 1962 में 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त कियाजापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। 1962 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। | टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों को खदेरने के लिए रॉकेट का इस्तेमाल किस युद्ध में किया था ? | मैसूर युद्ध में | tipu sultan ne angrejon ko khaderne ke liye rocket kaa istemaal kis yuddh main kiya tha ? |
भारत का संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली की संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है। भारत का प्रशासन संघीय ढांचे के अन्तर्गत चलाया जाता है, जिसके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार और राज्य स्तर पर राज्य सरकारें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा संविधान में दी गई रूपरेखा के आधार पर होता है। वर्तमान में भारत में २८ राज्य और ८ केंद्र-शासित प्रदेश हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में, स्थानीय प्रशासन को राज्यों की तुलना में कम शक्तियां प्राप्त होती हैं। भारत का सरकारी ढाँचा, जिसमें केंद्र राज्यों की तुलना में ज़्यादा सशक्त है, उसे आमतौर पर अर्ध-संघीय (सेमि-फ़ेडेरल) कहा जाता रहा है, पर १९९० के दशक के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों के कारण इसकी रूपरेखा धीरे-धीरे और अधिक संघीय (फ़ेडेरल) होती जा रही है। इसके शासन में तीन मुख्य अंग हैं:- न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका। व्यवस्थापिका संसद को कहते हैं, जिसके दो सदन हैं – उच्चसदन राज्यसभा, अथवा राज्यपरिषद् और निम्नसदन लोकसभा. राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं जबकि लोकसभा में ५४५। राज्यसभा एक स्थाई सदन है और इसके सदस्यों का चुनाव, अप्रत्यक्ष विधि से ६ वर्षों के लिये होता है। राज्यसभा के ज़्यादातर सदस्यों का चयन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है, और हर दूसरे साल राज्य सभा के एक तिहाई सदस्य पदमुक्त हो जाते हैं। लोकसभा के ५४३ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष विधि से, ५ वर्षों की अवधि के लिये आम चुनावों के माध्यम से किया जाता है जिनमें १८ वर्ष से अधिक उम्र के सभी भारतीय नागरिक मतदान कर सकते हैं। | भारत में किस तरह की संसदीय प्रणाली चलती है ? | द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली | bharat main kis tarah kii sansadeey pranali chalati he ? |
भारत का संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली की संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है। भारत का प्रशासन संघीय ढांचे के अन्तर्गत चलाया जाता है, जिसके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार और राज्य स्तर पर राज्य सरकारें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा संविधान में दी गई रूपरेखा के आधार पर होता है। वर्तमान में भारत में २८ राज्य और ८ केंद्र-शासित प्रदेश हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में, स्थानीय प्रशासन को राज्यों की तुलना में कम शक्तियां प्राप्त होती हैं। भारत का सरकारी ढाँचा, जिसमें केंद्र राज्यों की तुलना में ज़्यादा सशक्त है, उसे आमतौर पर अर्ध-संघीय (सेमि-फ़ेडेरल) कहा जाता रहा है, पर १९९० के दशक के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों के कारण इसकी रूपरेखा धीरे-धीरे और अधिक संघीय (फ़ेडेरल) होती जा रही है। इसके शासन में तीन मुख्य अंग हैं:- न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका। व्यवस्थापिका संसद को कहते हैं, जिसके दो सदन हैं – उच्चसदन राज्यसभा, अथवा राज्यपरिषद् और निम्नसदन लोकसभा. राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं जबकि लोकसभा में ५४५। राज्यसभा एक स्थाई सदन है और इसके सदस्यों का चुनाव, अप्रत्यक्ष विधि से ६ वर्षों के लिये होता है। राज्यसभा के ज़्यादातर सदस्यों का चयन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है, और हर दूसरे साल राज्य सभा के एक तिहाई सदस्य पदमुक्त हो जाते हैं। लोकसभा के ५४३ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष विधि से, ५ वर्षों की अवधि के लिये आम चुनावों के माध्यम से किया जाता है जिनमें १८ वर्ष से अधिक उम्र के सभी भारतीय नागरिक मतदान कर सकते हैं। | भारत में राज्य सभा में कितने सदस्य होते है ? | २४५ | bharat main rajya sabha main kitne sadsy hote he ? |
भारत का संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली की संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है। भारत का प्रशासन संघीय ढांचे के अन्तर्गत चलाया जाता है, जिसके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार और राज्य स्तर पर राज्य सरकारें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा संविधान में दी गई रूपरेखा के आधार पर होता है। वर्तमान में भारत में २८ राज्य और ८ केंद्र-शासित प्रदेश हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में, स्थानीय प्रशासन को राज्यों की तुलना में कम शक्तियां प्राप्त होती हैं। भारत का सरकारी ढाँचा, जिसमें केंद्र राज्यों की तुलना में ज़्यादा सशक्त है, उसे आमतौर पर अर्ध-संघीय (सेमि-फ़ेडेरल) कहा जाता रहा है, पर १९९० के दशक के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों के कारण इसकी रूपरेखा धीरे-धीरे और अधिक संघीय (फ़ेडेरल) होती जा रही है। इसके शासन में तीन मुख्य अंग हैं:- न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका। व्यवस्थापिका संसद को कहते हैं, जिसके दो सदन हैं – उच्चसदन राज्यसभा, अथवा राज्यपरिषद् और निम्नसदन लोकसभा. राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं जबकि लोकसभा में ५४५। राज्यसभा एक स्थाई सदन है और इसके सदस्यों का चुनाव, अप्रत्यक्ष विधि से ६ वर्षों के लिये होता है। राज्यसभा के ज़्यादातर सदस्यों का चयन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है, और हर दूसरे साल राज्य सभा के एक तिहाई सदस्य पदमुक्त हो जाते हैं। लोकसभा के ५४३ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष विधि से, ५ वर्षों की अवधि के लिये आम चुनावों के माध्यम से किया जाता है जिनमें १८ वर्ष से अधिक उम्र के सभी भारतीय नागरिक मतदान कर सकते हैं। | कार्यपालिका के प्रमुख रूप से कितने अंग होते है ? | तीन | karypalika ke pramukh rup se kitne ang hote he ? |
भारत का संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली की संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है। भारत का प्रशासन संघीय ढांचे के अन्तर्गत चलाया जाता है, जिसके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार और राज्य स्तर पर राज्य सरकारें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा संविधान में दी गई रूपरेखा के आधार पर होता है। वर्तमान में भारत में २८ राज्य और ८ केंद्र-शासित प्रदेश हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में, स्थानीय प्रशासन को राज्यों की तुलना में कम शक्तियां प्राप्त होती हैं। भारत का सरकारी ढाँचा, जिसमें केंद्र राज्यों की तुलना में ज़्यादा सशक्त है, उसे आमतौर पर अर्ध-संघीय (सेमि-फ़ेडेरल) कहा जाता रहा है, पर १९९० के दशक के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों के कारण इसकी रूपरेखा धीरे-धीरे और अधिक संघीय (फ़ेडेरल) होती जा रही है। इसके शासन में तीन मुख्य अंग हैं:- न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका। व्यवस्थापिका संसद को कहते हैं, जिसके दो सदन हैं – उच्चसदन राज्यसभा, अथवा राज्यपरिषद् और निम्नसदन लोकसभा. राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं जबकि लोकसभा में ५४५। राज्यसभा एक स्थाई सदन है और इसके सदस्यों का चुनाव, अप्रत्यक्ष विधि से ६ वर्षों के लिये होता है। राज्यसभा के ज़्यादातर सदस्यों का चयन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है, और हर दूसरे साल राज्य सभा के एक तिहाई सदस्य पदमुक्त हो जाते हैं। लोकसभा के ५४३ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष विधि से, ५ वर्षों की अवधि के लिये आम चुनावों के माध्यम से किया जाता है जिनमें १८ वर्ष से अधिक उम्र के सभी भारतीय नागरिक मतदान कर सकते हैं। | राज्य सभा में राज्य सभा सदस्यों का कार्यकाल कितने वर्षो का होता है ? | ६ वर्षों | rajya sabha main rajya sabha sadasyon kaa kaarykaal kitne varsho kaa hota he ? |
भारत के उत्तर में बसा नेपाल रंगों से भरपूर एक सुन्दर देश है। यहाँ वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना एक आम सैलानी को होती है। देवताओं का घर कहे जाने वाले नेपाल विविधाताओं से पूर्ण है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ एक ओर यहाँ बर्फ से ढकीं पहाड़ियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थस्थान है। रोमांचक खेलों के शौकीन यहाँ रिवर राफ्टिंग, रॉक क्लाइमिंग, जंगल सफ़ारी और स्कीइंग का भी मजा ले सकते हैं। लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यह उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा के निकट वर्तमान नेपाल में स्थित है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, बज्रयान, थेरवाद आदि) के अनुसार यह स्थान नेपाल के कपिलवस्तु में है जहाँ पर युनेस्को का आधिकारिक स्मारक लगायत सभी बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं ने अपने संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया है। इस स्थान पर सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान होने का वर्णन किया हुआ शिलापत्र अवस्थित है। जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जहाँ सीता माँ माता का जन्म हुवा था। ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे जो सीता माता जी के पिता थे। सीता माता का जन्म मिट्टी के घड़े से हुआ था। यह शहर भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। मुक्तिनाथ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्थ तीर्थस्थानों में से एक है। काठमाण्डु नगर से 29 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर 7134 मी॰, चौबा भामर 6109 मी॰, मनस्लु 8163 मी॰, हिमालचुली 7893 मी॰, अन्नपूर्णा 8091 मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है। समुद्र तल से 4360 मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से 132 किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि। | माता सीता का जन्म कहाँ हुआ था? | जनकपुर नेपाल | mata sita kaa janm kahan hua tha? |
भारत के उत्तर में बसा नेपाल रंगों से भरपूर एक सुन्दर देश है। यहाँ वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना एक आम सैलानी को होती है। देवताओं का घर कहे जाने वाले नेपाल विविधाताओं से पूर्ण है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ एक ओर यहाँ बर्फ से ढकीं पहाड़ियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थस्थान है। रोमांचक खेलों के शौकीन यहाँ रिवर राफ्टिंग, रॉक क्लाइमिंग, जंगल सफ़ारी और स्कीइंग का भी मजा ले सकते हैं। लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यह उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा के निकट वर्तमान नेपाल में स्थित है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, बज्रयान, थेरवाद आदि) के अनुसार यह स्थान नेपाल के कपिलवस्तु में है जहाँ पर युनेस्को का आधिकारिक स्मारक लगायत सभी बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं ने अपने संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया है। इस स्थान पर सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान होने का वर्णन किया हुआ शिलापत्र अवस्थित है। जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जहाँ सीता माँ माता का जन्म हुवा था। ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे जो सीता माता जी के पिता थे। सीता माता का जन्म मिट्टी के घड़े से हुआ था। यह शहर भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। मुक्तिनाथ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्थ तीर्थस्थानों में से एक है। काठमाण्डु नगर से 29 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर 7134 मी॰, चौबा भामर 6109 मी॰, मनस्लु 8163 मी॰, हिमालचुली 7893 मी॰, अन्नपूर्णा 8091 मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है। समुद्र तल से 4360 मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से 132 किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि। | नेपाल के किस क्षेत्र में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था? | लुम्बिनी | nepal ke kis kshetra main bhagwaan buddha kaa janm hua tha? |
भारत के उत्तर में बसा नेपाल रंगों से भरपूर एक सुन्दर देश है। यहाँ वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना एक आम सैलानी को होती है। देवताओं का घर कहे जाने वाले नेपाल विविधाताओं से पूर्ण है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ एक ओर यहाँ बर्फ से ढकीं पहाड़ियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थस्थान है। रोमांचक खेलों के शौकीन यहाँ रिवर राफ्टिंग, रॉक क्लाइमिंग, जंगल सफ़ारी और स्कीइंग का भी मजा ले सकते हैं। लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यह उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा के निकट वर्तमान नेपाल में स्थित है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, बज्रयान, थेरवाद आदि) के अनुसार यह स्थान नेपाल के कपिलवस्तु में है जहाँ पर युनेस्को का आधिकारिक स्मारक लगायत सभी बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं ने अपने संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया है। इस स्थान पर सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान होने का वर्णन किया हुआ शिलापत्र अवस्थित है। जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जहाँ सीता माँ माता का जन्म हुवा था। ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे जो सीता माता जी के पिता थे। सीता माता का जन्म मिट्टी के घड़े से हुआ था। यह शहर भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। मुक्तिनाथ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्थ तीर्थस्थानों में से एक है। काठमाण्डु नगर से 29 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर 7134 मी॰, चौबा भामर 6109 मी॰, मनस्लु 8163 मी॰, हिमालचुली 7893 मी॰, अन्नपूर्णा 8091 मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है। समुद्र तल से 4360 मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से 132 किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि। | माता सीता के पिता का क्या नाम था? | राजा जनक | mata sita ke pita kaa kya naam tha? |
भारत के उत्तर में बसा नेपाल रंगों से भरपूर एक सुन्दर देश है। यहाँ वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना एक आम सैलानी को होती है। देवताओं का घर कहे जाने वाले नेपाल विविधाताओं से पूर्ण है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ एक ओर यहाँ बर्फ से ढकीं पहाड़ियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थस्थान है। रोमांचक खेलों के शौकीन यहाँ रिवर राफ्टिंग, रॉक क्लाइमिंग, जंगल सफ़ारी और स्कीइंग का भी मजा ले सकते हैं। लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यह उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा के निकट वर्तमान नेपाल में स्थित है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, बज्रयान, थेरवाद आदि) के अनुसार यह स्थान नेपाल के कपिलवस्तु में है जहाँ पर युनेस्को का आधिकारिक स्मारक लगायत सभी बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं ने अपने संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया है। इस स्थान पर सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान होने का वर्णन किया हुआ शिलापत्र अवस्थित है। जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जहाँ सीता माँ माता का जन्म हुवा था। ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे जो सीता माता जी के पिता थे। सीता माता का जन्म मिट्टी के घड़े से हुआ था। यह शहर भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। मुक्तिनाथ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्थ तीर्थस्थानों में से एक है। काठमाण्डु नगर से 29 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर 7134 मी॰, चौबा भामर 6109 मी॰, मनस्लु 8163 मी॰, हिमालचुली 7893 मी॰, अन्नपूर्णा 8091 मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है। समुद्र तल से 4360 मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से 132 किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि। | समुद्र तल से गोसाई कुंड झील की ऊंचाई कितनी है? | 4360 मी॰ | samudr tal se gosai kunda jhil kii oonchai kitni he? |
भारत के उत्तर में बसा नेपाल रंगों से भरपूर एक सुन्दर देश है। यहाँ वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना एक आम सैलानी को होती है। देवताओं का घर कहे जाने वाले नेपाल विविधाताओं से पूर्ण है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ एक ओर यहाँ बर्फ से ढकीं पहाड़ियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थस्थान है। रोमांचक खेलों के शौकीन यहाँ रिवर राफ्टिंग, रॉक क्लाइमिंग, जंगल सफ़ारी और स्कीइंग का भी मजा ले सकते हैं। लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यह उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा के निकट वर्तमान नेपाल में स्थित है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, बज्रयान, थेरवाद आदि) के अनुसार यह स्थान नेपाल के कपिलवस्तु में है जहाँ पर युनेस्को का आधिकारिक स्मारक लगायत सभी बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं ने अपने संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया है। इस स्थान पर सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान होने का वर्णन किया हुआ शिलापत्र अवस्थित है। जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जहाँ सीता माँ माता का जन्म हुवा था। ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे जो सीता माता जी के पिता थे। सीता माता का जन्म मिट्टी के घड़े से हुआ था। यह शहर भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। मुक्तिनाथ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्थ तीर्थस्थानों में से एक है। काठमाण्डु नगर से 29 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर 7134 मी॰, चौबा भामर 6109 मी॰, मनस्लु 8163 मी॰, हिमालचुली 7893 मी॰, अन्नपूर्णा 8091 मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है। समुद्र तल से 4360 मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से 132 किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि। | यूनेस्को के अनुसार दुनियां के सभी बौद्ध संप्रदायों ने कहाँ अपने मंदिर, गुम्बा और निवास का निर्माण किया है? | नेपाल के कपिलवस्तु | unesco ke anusaar duniyaan ke sabhi buddha sampradaayon ne kahan apane mandir, gumba or nivas kaa nirmaan kiya he? |
भारत में रेलवे के लिए पहली बार प्रस्ताव मद्रास में १८३२ में किए गए थे. भारत में पहली ट्रेन १८३७ में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल तक चली थी. इसे आर्थर कॉटन द्वारा सड़क-निर्माण के लिए ग्रेनाइट परिवहन के लिए बनाया गया था| इसम विलियम एवरी द्वारा निर्मित रोटरी स्टीम लोकोमोटिव प्रयोग किया गया था| १८४५ में, गोदावरी बांध निर्माण रेलवे को गोदावरी नदी पर बांध के निर्माण के लिए पत्थर की आपूर्ति करने के लिए राजामुंदरी के डोलेस्वरम में कॉटन द्वारा बनाया गया था। ८ मई १८४५ को, मद्रास रेलवे की स्थापना की गई, उसके बाद उसी वर्ष ईस्ट इंडिया रेलवे की स्थापना की गई। १ अगस्त १८४९ में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे (GIPR) की स्थापना की गई संसद के एक अधिनियम द्वारा। १८५१ में रुड़की में सोलानी एक्वाडक्ट रेलवे बनाया गया था। इसका नाम थॉमसन स्टीम लोकोमोटिव द्वारा रखा गया था, जिसका नाम उस नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी के नाम पर रखा गया था। रेलवे ने सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई। १८५२ में, मद्रास गारंटी रेलवे कंपनी की स्थापना की गई। सन् १८५० में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे कम्पनी ने बम्बई से थाणे तक रेल लाइन बिछाने का कार्य प्रारम्भ किया गया था। इसी वर्ष हावड़ा से रानीगंज तक रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ। सन् १८५३ में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली प्रवासी ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (३४ कि॰मी॰ की दूरी) की दूरी तय की थी, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है। तीर्थयात्रा और पर्यटन के लिए समर्पित गाड़ियों को लॉन्च करने के लिए कदम उठाए जा राहा है| २०१९ तक, भारतीय रेल के सभी कोचों को जैव-शौचालयों के साथ फिट किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है| मानव रहित रेलवे स्तरीय क्रॉसिंग को २०२० तक समाप्त किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है|ऐसे नेटवर्क को आधुनिक बनाने, सुदृढ़ करने और इसका विस्तार करने के लिए भारत सरकार निजी पूंजी तथा रेल के विभिन्न वर्गों में, जैसे पत्तन में- पत्तन संपर्क के लिए परियोजनाएं, गेज परिवर्तन, दूरस्थ/पिछड़े क्षेत्रों को जोड़ने, नई लाइन बिछाने, सुंदरबन परिवहन आदि के लिए राज्य निधियन को आकर्षित करना चाहती है। | भारत में पहली ट्रेन किस वर्ष चली थी ? | १८३७ | bharat main pehali train kis varsh chali thi ? |
भारत में रेलवे के लिए पहली बार प्रस्ताव मद्रास में १८३२ में किए गए थे. भारत में पहली ट्रेन १८३७ में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल तक चली थी. इसे आर्थर कॉटन द्वारा सड़क-निर्माण के लिए ग्रेनाइट परिवहन के लिए बनाया गया था| इसम विलियम एवरी द्वारा निर्मित रोटरी स्टीम लोकोमोटिव प्रयोग किया गया था| १८४५ में, गोदावरी बांध निर्माण रेलवे को गोदावरी नदी पर बांध के निर्माण के लिए पत्थर की आपूर्ति करने के लिए राजामुंदरी के डोलेस्वरम में कॉटन द्वारा बनाया गया था। ८ मई १८४५ को, मद्रास रेलवे की स्थापना की गई, उसके बाद उसी वर्ष ईस्ट इंडिया रेलवे की स्थापना की गई। १ अगस्त १८४९ में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे (GIPR) की स्थापना की गई संसद के एक अधिनियम द्वारा। १८५१ में रुड़की में सोलानी एक्वाडक्ट रेलवे बनाया गया था। इसका नाम थॉमसन स्टीम लोकोमोटिव द्वारा रखा गया था, जिसका नाम उस नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी के नाम पर रखा गया था। रेलवे ने सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई। १८५२ में, मद्रास गारंटी रेलवे कंपनी की स्थापना की गई। सन् १८५० में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे कम्पनी ने बम्बई से थाणे तक रेल लाइन बिछाने का कार्य प्रारम्भ किया गया था। इसी वर्ष हावड़ा से रानीगंज तक रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ। सन् १८५३ में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली प्रवासी ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (३४ कि॰मी॰ की दूरी) की दूरी तय की थी, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है। तीर्थयात्रा और पर्यटन के लिए समर्पित गाड़ियों को लॉन्च करने के लिए कदम उठाए जा राहा है| २०१९ तक, भारतीय रेल के सभी कोचों को जैव-शौचालयों के साथ फिट किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है| मानव रहित रेलवे स्तरीय क्रॉसिंग को २०२० तक समाप्त किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है|ऐसे नेटवर्क को आधुनिक बनाने, सुदृढ़ करने और इसका विस्तार करने के लिए भारत सरकार निजी पूंजी तथा रेल के विभिन्न वर्गों में, जैसे पत्तन में- पत्तन संपर्क के लिए परियोजनाएं, गेज परिवर्तन, दूरस्थ/पिछड़े क्षेत्रों को जोड़ने, नई लाइन बिछाने, सुंदरबन परिवहन आदि के लिए राज्य निधियन को आकर्षित करना चाहती है। | मद्रास रेलवे की स्थापना कब हुई थी ? | ८ मई १८४५ | madras railway kii sthapana kab hui thi ? |
भारत में रेलवे के लिए पहली बार प्रस्ताव मद्रास में १८३२ में किए गए थे. भारत में पहली ट्रेन १८३७ में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल तक चली थी. इसे आर्थर कॉटन द्वारा सड़क-निर्माण के लिए ग्रेनाइट परिवहन के लिए बनाया गया था| इसम विलियम एवरी द्वारा निर्मित रोटरी स्टीम लोकोमोटिव प्रयोग किया गया था| १८४५ में, गोदावरी बांध निर्माण रेलवे को गोदावरी नदी पर बांध के निर्माण के लिए पत्थर की आपूर्ति करने के लिए राजामुंदरी के डोलेस्वरम में कॉटन द्वारा बनाया गया था। ८ मई १८४५ को, मद्रास रेलवे की स्थापना की गई, उसके बाद उसी वर्ष ईस्ट इंडिया रेलवे की स्थापना की गई। १ अगस्त १८४९ में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे (GIPR) की स्थापना की गई संसद के एक अधिनियम द्वारा। १८५१ में रुड़की में सोलानी एक्वाडक्ट रेलवे बनाया गया था। इसका नाम थॉमसन स्टीम लोकोमोटिव द्वारा रखा गया था, जिसका नाम उस नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी के नाम पर रखा गया था। रेलवे ने सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई। १८५२ में, मद्रास गारंटी रेलवे कंपनी की स्थापना की गई। सन् १८५० में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे कम्पनी ने बम्बई से थाणे तक रेल लाइन बिछाने का कार्य प्रारम्भ किया गया था। इसी वर्ष हावड़ा से रानीगंज तक रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ। सन् १८५३ में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली प्रवासी ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (३४ कि॰मी॰ की दूरी) की दूरी तय की थी, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है। तीर्थयात्रा और पर्यटन के लिए समर्पित गाड़ियों को लॉन्च करने के लिए कदम उठाए जा राहा है| २०१९ तक, भारतीय रेल के सभी कोचों को जैव-शौचालयों के साथ फिट किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है| मानव रहित रेलवे स्तरीय क्रॉसिंग को २०२० तक समाप्त किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है|ऐसे नेटवर्क को आधुनिक बनाने, सुदृढ़ करने और इसका विस्तार करने के लिए भारत सरकार निजी पूंजी तथा रेल के विभिन्न वर्गों में, जैसे पत्तन में- पत्तन संपर्क के लिए परियोजनाएं, गेज परिवर्तन, दूरस्थ/पिछड़े क्षेत्रों को जोड़ने, नई लाइन बिछाने, सुंदरबन परिवहन आदि के लिए राज्य निधियन को आकर्षित करना चाहती है। | भारत में रेलवे के लिए पहला रेलवे प्रस्ताव किस राज्य में रखा गया था ? | मद्रास | bharat main railway ke liye pehla railway prastaav kis rajya main rakhaa gaya tha ? |
भारत में रेलवे के लिए पहली बार प्रस्ताव मद्रास में १८३२ में किए गए थे. भारत में पहली ट्रेन १८३७ में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल तक चली थी. इसे आर्थर कॉटन द्वारा सड़क-निर्माण के लिए ग्रेनाइट परिवहन के लिए बनाया गया था| इसम विलियम एवरी द्वारा निर्मित रोटरी स्टीम लोकोमोटिव प्रयोग किया गया था| १८४५ में, गोदावरी बांध निर्माण रेलवे को गोदावरी नदी पर बांध के निर्माण के लिए पत्थर की आपूर्ति करने के लिए राजामुंदरी के डोलेस्वरम में कॉटन द्वारा बनाया गया था। ८ मई १८४५ को, मद्रास रेलवे की स्थापना की गई, उसके बाद उसी वर्ष ईस्ट इंडिया रेलवे की स्थापना की गई। १ अगस्त १८४९ में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे (GIPR) की स्थापना की गई संसद के एक अधिनियम द्वारा। १८५१ में रुड़की में सोलानी एक्वाडक्ट रेलवे बनाया गया था। इसका नाम थॉमसन स्टीम लोकोमोटिव द्वारा रखा गया था, जिसका नाम उस नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी के नाम पर रखा गया था। रेलवे ने सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई। १८५२ में, मद्रास गारंटी रेलवे कंपनी की स्थापना की गई। सन् १८५० में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे कम्पनी ने बम्बई से थाणे तक रेल लाइन बिछाने का कार्य प्रारम्भ किया गया था। इसी वर्ष हावड़ा से रानीगंज तक रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ। सन् १८५३ में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली प्रवासी ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (३४ कि॰मी॰ की दूरी) की दूरी तय की थी, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है। तीर्थयात्रा और पर्यटन के लिए समर्पित गाड़ियों को लॉन्च करने के लिए कदम उठाए जा राहा है| २०१९ तक, भारतीय रेल के सभी कोचों को जैव-शौचालयों के साथ फिट किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है| मानव रहित रेलवे स्तरीय क्रॉसिंग को २०२० तक समाप्त किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है|ऐसे नेटवर्क को आधुनिक बनाने, सुदृढ़ करने और इसका विस्तार करने के लिए भारत सरकार निजी पूंजी तथा रेल के विभिन्न वर्गों में, जैसे पत्तन में- पत्तन संपर्क के लिए परियोजनाएं, गेज परिवर्तन, दूरस्थ/पिछड़े क्षेत्रों को जोड़ने, नई लाइन बिछाने, सुंदरबन परिवहन आदि के लिए राज्य निधियन को आकर्षित करना चाहती है। | भारतीय रेलवे के सभी डिब्बों में बायो-टॉयलेट किस वर्ष तक लगाए जा चुके थे ? | २०१९ | bhartiya railway ke sabhi dibbon main baio-toilet kis varsh tak lagaae ja chuke the ? |
भारत में रेलवे के लिए पहली बार प्रस्ताव मद्रास में १८३२ में किए गए थे. भारत में पहली ट्रेन १८३७ में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल तक चली थी. इसे आर्थर कॉटन द्वारा सड़क-निर्माण के लिए ग्रेनाइट परिवहन के लिए बनाया गया था| इसम विलियम एवरी द्वारा निर्मित रोटरी स्टीम लोकोमोटिव प्रयोग किया गया था| १८४५ में, गोदावरी बांध निर्माण रेलवे को गोदावरी नदी पर बांध के निर्माण के लिए पत्थर की आपूर्ति करने के लिए राजामुंदरी के डोलेस्वरम में कॉटन द्वारा बनाया गया था। ८ मई १८४५ को, मद्रास रेलवे की स्थापना की गई, उसके बाद उसी वर्ष ईस्ट इंडिया रेलवे की स्थापना की गई। १ अगस्त १८४९ में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे (GIPR) की स्थापना की गई संसद के एक अधिनियम द्वारा। १८५१ में रुड़की में सोलानी एक्वाडक्ट रेलवे बनाया गया था। इसका नाम थॉमसन स्टीम लोकोमोटिव द्वारा रखा गया था, जिसका नाम उस नाम के एक ब्रिटिश अधिकारी के नाम पर रखा गया था। रेलवे ने सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई। १८५२ में, मद्रास गारंटी रेलवे कंपनी की स्थापना की गई। सन् १८५० में ग्रेट इंडियन प्रायद्वीपीय रेलवे कम्पनी ने बम्बई से थाणे तक रेल लाइन बिछाने का कार्य प्रारम्भ किया गया था। इसी वर्ष हावड़ा से रानीगंज तक रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ। सन् १८५३ में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली प्रवासी ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (३४ कि॰मी॰ की दूरी) की दूरी तय की थी, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है। तीर्थयात्रा और पर्यटन के लिए समर्पित गाड़ियों को लॉन्च करने के लिए कदम उठाए जा राहा है| २०१९ तक, भारतीय रेल के सभी कोचों को जैव-शौचालयों के साथ फिट किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है| मानव रहित रेलवे स्तरीय क्रॉसिंग को २०२० तक समाप्त किया गया| यह कार्य पूरा हो गया है|ऐसे नेटवर्क को आधुनिक बनाने, सुदृढ़ करने और इसका विस्तार करने के लिए भारत सरकार निजी पूंजी तथा रेल के विभिन्न वर्गों में, जैसे पत्तन में- पत्तन संपर्क के लिए परियोजनाएं, गेज परिवर्तन, दूरस्थ/पिछड़े क्षेत्रों को जोड़ने, नई लाइन बिछाने, सुंदरबन परिवहन आदि के लिए राज्य निधियन को आकर्षित करना चाहती है। | सोलानी एक्वीडक्ट रेलवे का निर्माण किस शहर में किया गया था ? | रुड़की | solani equiduct railway kaa nirmaan kis shahar main kiya gaya tha ? |
भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े। गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं। पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार। आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू। कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू॥ ६॥(आदिग्रन्थ, पृ. 55)गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ। ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ॥ (आदिग्रन्थ, पृ. 617)सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर साहेब, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास 15 संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया। उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर साहेब के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। | आदि ग्रंथ में कबीर साहेब के कितने श्लोक है ? | 541 | aadi granth main kabir sahib ke kitne shloke he ? |
भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े। गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं। पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार। आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू। कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू॥ ६॥(आदिग्रन्थ, पृ. 55)गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ। ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ॥ (आदिग्रन्थ, पृ. 617)सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर साहेब, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास 15 संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया। उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर साहेब के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। | सिखों के पहले गुरु कौन थे ? | गुरुनानक देव | sikhon ke pehle guru koun the ? |
भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े। गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं। पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार। आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू। कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू॥ ६॥(आदिग्रन्थ, पृ. 55)गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ। ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ॥ (आदिग्रन्थ, पृ. 617)सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर साहेब, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास 15 संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया। उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर साहेब के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। | आदि ग्रंथ का संपादन किसने किया था ? | गुरु अर्जुन-देव | aadi granth kaa sampadan kisne kiya tha ? |
भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े। गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं। पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार। आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू। कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू॥ ६॥(आदिग्रन्थ, पृ. 55)गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ। ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ॥ (आदिग्रन्थ, पृ. 617)सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर साहेब, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास 15 संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया। उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर साहेब के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। | गुरु नानक देव किस धर्म के संस्थापक थे ? | सिख | guru nanak dev kis dharm ke sansthaapak the ? |
भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े। गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं। पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार। आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू। कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू॥ ६॥(आदिग्रन्थ, पृ. 55)गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ। ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ॥ (आदिग्रन्थ, पृ. 617)सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर साहेब, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास 15 संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया। उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर साहेब के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। | आदि ग्रंथ का सम्पादन कब पूरा हुआ था ? | 1604 ई. | aadi granth kaa sampaadan kab puraa hua tha ? |
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। बहुदलीय प्रणाली वाले इस संसदीय गणराज्य में छ: मान्यता-प्राप्त राष्ट्रीय पार्टियां, और ४० से भी ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जिसकी नीतियों को केंद्रीय-दक्षिणपंथी या रूढिवादी माना जाता है, के नेतृत्व में केंद्र में सरकार है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हैं। अन्य पार्टियों में सबसे बडी भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस (कॉंग्रेस) है, जिसे भारतीय राजनीति में केंद्र-वामपंथी और उदार माना जाता है। २००४ से २०१४ तक केंद्र में मनमोहन सिंह की गठबन्धन सरकार का सबसे बड़ा हिस्सा कॉंग्रेस पार्टी का था। १९५० में गणराज्य के घोषित होने से १९८० के दशक के अन्त तक कॉंग्रेस का संसद में निरंतर बहुमत रहा। पर तब से राजनैतिक पटल पर भाजपा और कॉंग्रेस को अन्य पार्टियों के साथ सत्ता बांटनी पडी है। १९८९ के बाद से क्षेत्रीय पार्टियों के उदय ने केंद्र में गठबंधन सरकारों के नये दौर की शुरुआत की है। गणराज्य के पहले तीन चुनावों (१९५१–५२, १९५७, १९६२) में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने आसान जीत पाई। १९६४ में नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री कुछ समय के लिये प्रधानमंत्री बने, और १९६६ में उनकी खुद की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। १९६७ और १९७१ के चुनावों में जीतने के बाद १९७७ के चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पडा। | भारतीय संसदीय गणतंत्र में कितने मान्यता प्राप्त क्षेत्रिय दल है ? | छ: | bhartiya sansadeey ganatantr main kitne manyata praapt kshetriy dal he ? |
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। बहुदलीय प्रणाली वाले इस संसदीय गणराज्य में छ: मान्यता-प्राप्त राष्ट्रीय पार्टियां, और ४० से भी ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जिसकी नीतियों को केंद्रीय-दक्षिणपंथी या रूढिवादी माना जाता है, के नेतृत्व में केंद्र में सरकार है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हैं। अन्य पार्टियों में सबसे बडी भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस (कॉंग्रेस) है, जिसे भारतीय राजनीति में केंद्र-वामपंथी और उदार माना जाता है। २००४ से २०१४ तक केंद्र में मनमोहन सिंह की गठबन्धन सरकार का सबसे बड़ा हिस्सा कॉंग्रेस पार्टी का था। १९५० में गणराज्य के घोषित होने से १९८० के दशक के अन्त तक कॉंग्रेस का संसद में निरंतर बहुमत रहा। पर तब से राजनैतिक पटल पर भाजपा और कॉंग्रेस को अन्य पार्टियों के साथ सत्ता बांटनी पडी है। १९८९ के बाद से क्षेत्रीय पार्टियों के उदय ने केंद्र में गठबंधन सरकारों के नये दौर की शुरुआत की है। गणराज्य के पहले तीन चुनावों (१९५१–५२, १९५७, १९६२) में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने आसान जीत पाई। १९६४ में नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री कुछ समय के लिये प्रधानमंत्री बने, और १९६६ में उनकी खुद की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। १९६७ और १९७१ के चुनावों में जीतने के बाद १९७७ के चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पडा। | जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु किस वर्ष हुई थी ? | १९६४ | jawaharlal nehru kii mrityu kis varsh hui thi ? |
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। बहुदलीय प्रणाली वाले इस संसदीय गणराज्य में छ: मान्यता-प्राप्त राष्ट्रीय पार्टियां, और ४० से भी ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जिसकी नीतियों को केंद्रीय-दक्षिणपंथी या रूढिवादी माना जाता है, के नेतृत्व में केंद्र में सरकार है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हैं। अन्य पार्टियों में सबसे बडी भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस (कॉंग्रेस) है, जिसे भारतीय राजनीति में केंद्र-वामपंथी और उदार माना जाता है। २००४ से २०१४ तक केंद्र में मनमोहन सिंह की गठबन्धन सरकार का सबसे बड़ा हिस्सा कॉंग्रेस पार्टी का था। १९५० में गणराज्य के घोषित होने से १९८० के दशक के अन्त तक कॉंग्रेस का संसद में निरंतर बहुमत रहा। पर तब से राजनैतिक पटल पर भाजपा और कॉंग्रेस को अन्य पार्टियों के साथ सत्ता बांटनी पडी है। १९८९ के बाद से क्षेत्रीय पार्टियों के उदय ने केंद्र में गठबंधन सरकारों के नये दौर की शुरुआत की है। गणराज्य के पहले तीन चुनावों (१९५१–५२, १९५७, १९६२) में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने आसान जीत पाई। १९६४ में नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री कुछ समय के लिये प्रधानमंत्री बने, और १९६६ में उनकी खुद की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। १९६७ और १९७१ के चुनावों में जीतने के बाद १९७७ के चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पडा। | वर्ष 2004-2014 में भारत की सबसे बड़ी राजनितिक पार्टी का क्या नाम था ? | कॉंग्रेस पार्टी | varsh 2004-2014 main bharat kii sabase badi rajanithik party kaa kya naam tha ? |
भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा,और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया। वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी; उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द 'जेब' लिया जिसका अर्थ है "पोशाक में एक तह", एल साइनस (सी.११५०).आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही। आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया, जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी। भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया। चंद्र खड्ड आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। | अरबी तालिकाए जिनका उपयोग गणना के लिए किया जाता है, वह किस नाम से जाना जाता है? | जिज | arabi talikaaye jinka upyog gananaa ke liye kiya jaataa he, vah kis naam se janaa jaataa he? |
भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा,और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया। वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी; उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द 'जेब' लिया जिसका अर्थ है "पोशाक में एक तह", एल साइनस (सी.११५०).आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही। आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया, जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी। भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया। चंद्र खड्ड आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। | किसके अनुयायी का मानना था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है? | आर्यभट | kiske anuyaayi kaa maananaa tha ki prithvi apni dhuree par gumti he? |
भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा,और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया। वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी; उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द 'जेब' लिया जिसका अर्थ है "पोशाक में एक तह", एल साइनस (सी.११५०).आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही। आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया, जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी। भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया। चंद्र खड्ड आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। | "साइन" "और" "कोसाइन" को अरबी भाषा में किस नाम से उच्चारित किया जाता है? | जिबा और कोजिबा | "sin" "or" "kosine" ko arabi bhashaa main kis naam se uccharit kiya jaataa he? |
भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तार से कहने पर अर्जुन ने फिर से रथारूढ़ हो युद्ध के लिये शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युम्न थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। और शिखंडी को अपने पूर्व जन्म के अपमान का बदला भी लेना था उसके लिये शिवजी से वरदान भी लिया कि भीष्म कि मृत्यु का कारण बनेगी। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। मतस्यनरेश विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया। द्रोण वध के पश्चात कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया। गुरु परशुराम के शाप के कारण वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी को वेश्या और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है, तब अर्जुन ने अंजलिकास्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया। दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध हुआ। भीम ने छ्ल से उसकी जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को सदा के लिये सुला दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। फिर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसका गर्भ उसके अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरवपक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डवपक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए। ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादवकुल का संहार हो गया। बलभद्रजी योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये। भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा? मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बना उनके पास लाए हैं। मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्रापा कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अन्त होगा। कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया। उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये। यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। 'ज़रा' नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरणकमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया। उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर का चुम्बन उनके परमधाम गमन का कारण बना। प्रभु अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान किये। इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राजासन पर बिठाया और द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। | दुर्योधन की सेना के पहले सेनापति कौन थे ? | पितामह भीष्म | duryodhana kii sena ke pehle senapati koun the ? |