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1400 | समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है। हिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है)टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद। पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं। मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक। इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है। समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद। तिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है। आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है। इस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है। अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है। डार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है। चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है। स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। | दार्जिलिंग और उसके आसपास वर्तमान में कुल कितने चाय बगान है? | {
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"८७ चाय उद्यान"
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} | How many tea gardens are there in and around Darjeeling at present? | Time: Open all day.Photography is allowed only outside the monastery.The Himalayan Mountaining Institute was established in 1956 AD.It may be known that the Himalayas were conquered for the first time in 1953 AD.Tanzing was the director of this institute for many years.There is also a mountaining museum here.The museum has objects related to many historical campaigns for climbing the Himalayas.A gallery of this museum is known as the Everest Museum.In this gallery, obresting obresting objections are kept.Mountaineering training is also imparted in this institution.Entrance Shul: 25 Rs.Brihaspati closed.The Padmaja-Nadu-Himalayan biological park is located on the right side of the Mountnigment Institute.This garden is famous for the breeding program of icy tendua and Lal Pandey.You can also see the Siberian tiger and Tibetian Bhedia here.The main bus is the leordus bastardly garden in the old market under the stop.This name to this garden is Malu Lewu.It is given after Lioard.Lioard was a famous banker from here who donated land for this park in 14 AD.This park has a valuable collection of 50 castes of orchids.Time: 4 am to 5 pm.There is a natural history museum near this monotonical garden.This museum was founded in 1903 AD.Here, various varieties of birds, reptiles, animals and insect-moths have been kept in the preservation.Time: 10 am to 6:30 pm.Brihaspati closed.The Tibetian Refugee Swayam Sahanta Center (Tele: 0357-2252552) is located on a 75-minute walk from the square.This camp was established in 1959 AD.A year before this, the Dalai Lama sought shelter from India in 1956.In this camp, the 13th Dalai Lama (currently the 14th Dalai Lama) spent his exile time from 1910 to 1912.The building in which the 13th Dalai Lama lived is in the Bhagavanti today.Today this Refugee Camp is a shelter of 450 Tibetan families.These Tibetan people sell various types of goods here.These accessories include carpets, woolen fabrics, wooden artefacts, toys made of metal.But if you want to take full joy to visit this refugee camp, then definitely look at the workshop to make these goods.This workshop remains open to tourists.This unique train was constructed in the 19th century of 19th century.Dargerying is a surprising sample of Himalayan railroad, engineering.This railroad is 40 km long.This entire railway block is located at an altitude of 758 feet above sea level.Engineers had to work hard in the construction of this railway block.This railway block passes through many crooked routes and circular routes.But the most beautiful part of this railway block is Batia Loop.At this place the railway block is in the size of eight digits.If you do not want to roam the entire dargling by train, then you can go from this train to the dargling station from the dargling station.While traveling by this train, you can enjoy the natural views around it.To travel on this train either go too in the morning or late evening.Other times there is a lot of crowd here.Darurgeling was once famous for spices.Darurgeling for tea is known at the world.Dr. Campbell, who was the first inspector appointed by East India Company in Dargeling, first planted tea seeds in his garden in about 1830 or 60s.The Christian religious Branus brothers planted average tea plants in the 180s.The Baren brothers had done a lot of work in this direction.The tea garden installed by Baren Bandhas is currently known as the Banukavarna Tea Park (Tele: 0357-22412).The first seed of tea which was of the Chinese bush was brought from Kumaon Hill.But over time it became famous as Dargoring Tea.In 14 AD, TT Copper estimated that Tibet used to consume 60,000,000 LB of LB Chinese tea every year.It was produced mainly in Sejhwan province.Copper's view was that if people of Tibet used Chinese tea instead of India's tea, then India would get a very valuable market.After this, everyone knows the history.Due to local soil and Himalayan wind, the dargerying tea is of good quality.Currently there are about 6 tea gardens in and around dargling.About 5000 people have got work in these gardens.Each tea garden has its own history.Similarly, every tea garden tea is different.But this tea is collectively known as 'Dargling Tea'.The best time to roam these gardens is the summer period when tea leaves are broken.Happy-Valley-Cay Park (Tele: 2252605) which is 3 kilometers from the city can be easily reached. | {
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"87 Tea Gardens"
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1401 | समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है। हिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है)टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद। पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं। मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक। इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है। समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद। तिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है। आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है। इस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है। अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है। डार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है। चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है। स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। | ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त दार्जिलिंग के पहले निरीक्षक कौन थे? | {
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"डॉ॰ कैम्पबेल"
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} | Who was the first Inspector of Darjeeling appointed by the East India Company? | Time: Open all day.Photography is allowed only outside the monastery.The Himalayan Mountaining Institute was established in 1956 AD.It may be known that the Himalayas were conquered for the first time in 1953 AD.Tanzing was the director of this institute for many years.There is also a mountaining museum here.The museum has objects related to many historical campaigns for climbing the Himalayas.A gallery of this museum is known as the Everest Museum.In this gallery, obresting obresting objections are kept.Mountaineering training is also imparted in this institution.Entrance Shul: 25 Rs.Brihaspati closed.The Padmaja-Nadu-Himalayan biological park is located on the right side of the Mountnigment Institute.This garden is famous for the breeding program of icy tendua and Lal Pandey.You can also see the Siberian tiger and Tibetian Bhedia here.The main bus is the leordus bastardly garden in the old market under the stop.This name to this garden is Malu Lewu.It is given after Lioard.Lioard was a famous banker from here who donated land for this park in 14 AD.This park has a valuable collection of 50 castes of orchids.Time: 4 am to 5 pm.There is a natural history museum near this monotonical garden.This museum was founded in 1903 AD.Here, various varieties of birds, reptiles, animals and insect-moths have been kept in the preservation.Time: 10 am to 6:30 pm.Brihaspati closed.The Tibetian Refugee Swayam Sahanta Center (Tele: 0357-2252552) is located on a 75-minute walk from the square.This camp was established in 1959 AD.A year before this, the Dalai Lama sought shelter from India in 1956.In this camp, the 13th Dalai Lama (currently the 14th Dalai Lama) spent his exile time from 1910 to 1912.The building in which the 13th Dalai Lama lived is in the Bhagavanti today.Today this Refugee Camp is a shelter of 450 Tibetan families.These Tibetan people sell various types of goods here.These accessories include carpets, woolen fabrics, wooden artefacts, toys made of metal.But if you want to take full joy to visit this refugee camp, then definitely look at the workshop to make these goods.This workshop remains open to tourists.This unique train was constructed in the 19th century of 19th century.Dargerying is a surprising sample of Himalayan railroad, engineering.This railroad is 40 km long.This entire railway block is located at an altitude of 758 feet above sea level.Engineers had to work hard in the construction of this railway block.This railway block passes through many crooked routes and circular routes.But the most beautiful part of this railway block is Batia Loop.At this place the railway block is in the size of eight digits.If you do not want to roam the entire dargling by train, then you can go from this train to the dargling station from the dargling station.While traveling by this train, you can enjoy the natural views around it.To travel on this train either go too in the morning or late evening.Other times there is a lot of crowd here.Darurgeling was once famous for spices.Darurgeling for tea is known at the world.Dr. Campbell, who was the first inspector appointed by East India Company in Dargeling, first planted tea seeds in his garden in about 1830 or 60s.The Christian religious Branus brothers planted average tea plants in the 180s.The Baren brothers had done a lot of work in this direction.The tea garden installed by Baren Bandhas is currently known as the Banukavarna Tea Park (Tele: 0357-22412).The first seed of tea which was of the Chinese bush was brought from Kumaon Hill.But over time it became famous as Dargoring Tea.In 14 AD, TT Copper estimated that Tibet used to consume 60,000,000 LB of LB Chinese tea every year.It was produced mainly in Sejhwan province.Copper's view was that if people of Tibet used Chinese tea instead of India's tea, then India would get a very valuable market.After this, everyone knows the history.Due to local soil and Himalayan wind, the dargerying tea is of good quality.Currently there are about 6 tea gardens in and around dargling.About 5000 people have got work in these gardens.Each tea garden has its own history.Similarly, every tea garden tea is different.But this tea is collectively known as 'Dargling Tea'.The best time to roam these gardens is the summer period when tea leaves are broken.Happy-Valley-Cay Park (Tele: 2252605) which is 3 kilometers from the city can be easily reached. | {
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1402 | समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है। हिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है)टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद। पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं। मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक। इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है। समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद। तिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है। आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है। इस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है। अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है। डार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है। चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है। स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। | हिमालय पर्वतारोहण संस्थान की स्थापना किस वर्ष हुई थी ? | {
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} | In which year was the Himalayan Mountaineering Institute established? | Time: Open all day.Photography is allowed only outside the monastery.The Himalayan Mountaining Institute was established in 1956 AD.It may be known that the Himalayas were conquered for the first time in 1953 AD.Tanzing was the director of this institute for many years.There is also a mountaining museum here.The museum has objects related to many historical campaigns for climbing the Himalayas.A gallery of this museum is known as the Everest Museum.In this gallery, obresting obresting objections are kept.Mountaineering training is also imparted in this institution.Entrance Shul: 25 Rs.Brihaspati closed.The Padmaja-Nadu-Himalayan biological park is located on the right side of the Mountnigment Institute.This garden is famous for the breeding program of icy tendua and Lal Pandey.You can also see the Siberian tiger and Tibetian Bhedia here.The main bus is the leordus bastardly garden in the old market under the stop.This name to this garden is Malu Lewu.It is given after Lioard.Lioard was a famous banker from here who donated land for this park in 14 AD.This park has a valuable collection of 50 castes of orchids.Time: 4 am to 5 pm.There is a natural history museum near this monotonical garden.This museum was founded in 1903 AD.Here, various varieties of birds, reptiles, animals and insect-moths have been kept in the preservation.Time: 10 am to 6:30 pm.Brihaspati closed.The Tibetian Refugee Swayam Sahanta Center (Tele: 0357-2252552) is located on a 75-minute walk from the square.This camp was established in 1959 AD.A year before this, the Dalai Lama sought shelter from India in 1956.In this camp, the 13th Dalai Lama (currently the 14th Dalai Lama) spent his exile time from 1910 to 1912.The building in which the 13th Dalai Lama lived is in the Bhagavanti today.Today this Refugee Camp is a shelter of 450 Tibetan families.These Tibetan people sell various types of goods here.These accessories include carpets, woolen fabrics, wooden artefacts, toys made of metal.But if you want to take full joy to visit this refugee camp, then definitely look at the workshop to make these goods.This workshop remains open to tourists.This unique train was constructed in the 19th century of 19th century.Dargerying is a surprising sample of Himalayan railroad, engineering.This railroad is 40 km long.This entire railway block is located at an altitude of 758 feet above sea level.Engineers had to work hard in the construction of this railway block.This railway block passes through many crooked routes and circular routes.But the most beautiful part of this railway block is Batia Loop.At this place the railway block is in the size of eight digits.If you do not want to roam the entire dargling by train, then you can go from this train to the dargling station from the dargling station.While traveling by this train, you can enjoy the natural views around it.To travel on this train either go too in the morning or late evening.Other times there is a lot of crowd here.Darurgeling was once famous for spices.Darurgeling for tea is known at the world.Dr. Campbell, who was the first inspector appointed by East India Company in Dargeling, first planted tea seeds in his garden in about 1830 or 60s.The Christian religious Branus brothers planted average tea plants in the 180s.The Baren brothers had done a lot of work in this direction.The tea garden installed by Baren Bandhas is currently known as the Banukavarna Tea Park (Tele: 0357-22412).The first seed of tea which was of the Chinese bush was brought from Kumaon Hill.But over time it became famous as Dargoring Tea.In 14 AD, TT Copper estimated that Tibet used to consume 60,000,000 LB of LB Chinese tea every year.It was produced mainly in Sejhwan province.Copper's view was that if people of Tibet used Chinese tea instead of India's tea, then India would get a very valuable market.After this, everyone knows the history.Due to local soil and Himalayan wind, the dargerying tea is of good quality.Currently there are about 6 tea gardens in and around dargling.About 5000 people have got work in these gardens.Each tea garden has its own history.Similarly, every tea garden tea is different.But this tea is collectively known as 'Dargling Tea'.The best time to roam these gardens is the summer period when tea leaves are broken.Happy-Valley-Cay Park (Tele: 2252605) which is 3 kilometers from the city can be easily reached. | {
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"1954."
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1403 | समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है। हिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है)टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद। पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं। मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक। इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है। समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद। तिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है। आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है। इस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है। अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है। डार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है। चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है। स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। | चाय बगानों में जाने से पहले किसकी अनुमति लेना आवश्यक होता है? | {
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} | Whose permission is required before visiting tea gardens? | Timings: Open all days. Photography is allowed only outside the monastery. Himalayan Mountaineering Institute was established in 1954 AD. It may be noted that the Himalayas were conquered for the first time in 1953 AD. Tenzing was the director of this institute for many years. There is also a mountaineering museum here. In this museum, items related to many historical expeditions undertaken to climb the Himalayas have been kept. One gallery of this museum is known as Everest Museum. Items related to Everest have been kept in this gallery. Mountaineering training is also given in this institute. Entry Fee: Rs 25 (this includes the entry fee of Biological Park) Tel: 0354-2270158 Timings: 10 am to 4:30 pm (closed half an hour in between). Closed Thursday. Padmaja-Naidu-Himalayan Biological Park is situated on the right side of the Mountaineering Institute. This park is famous for the breeding program of snow leopard and red panda. You can also see the Siberian tiger and Tibetan wolf here. Below the main bus stop is the Liordas Botanical Garden in the old market. This garden was named after Mr. W. Named after Leoard. Leoard was a famous banker here who donated the land for this garden in 1878 AD. This garden has a valuable collection of 50 species of orchids. Timings: 6 am to 5 pm. The Natural History Museum is near this botanical garden. This museum was established in 1903 AD. Various varieties of birds, reptiles, animals and insects have been kept in protected condition here. Timings: 10 am to 4:30 pm. Closed Thursday. The Tibetan Refugee Self-Help Center (tel: 0354-2252552) is located at a 45-minute walk from Chowrasta. This camp was established in 1959 AD. A year before this, in 1958, the Dalai Lama had sought asylum from India. It was in this camp that the 13th Dalai Lama (currently the 14th Dalai Lama) spent his time in exile from 1910 to 1912. The building where the 13th Dalai Lama lived is in ruins today. Today this refugee camp is a shelter for 650 Tibetan families. These Tibetan people sell various types of goods here. These goods include carpets, woolen clothes, wooden artefacts, toys made of metal. But if you want to fully enjoy visiting this refugee camp, then definitely see the workshop for making these items. This workshop remains open to tourists. This unique train was built in the second half of the 19th century. The Darjeeling Himalayan Railway is a stunning example of engineering. This railway is 70 kilometers long. This entire railway section is situated at an altitude of 7546 feet above sea level. Engineers had to work hard in the construction of this railway section. This railway section passes through many crooked roads and circular routes. But the most beautiful part of this railway section is Batashia Loop. At this place the railway section becomes in the shape of a figure eight. If you do not want to visit the entire Darjeeling by train, then you can go from Darjeeling station to Ghoom Math by this train. While traveling by this train, you can enjoy the natural views around it. To travel on this train, go either very early in the morning or late in the evening. At other times it is very crowded. Darjeeling was once famous for spices. Darjeeling is known globally for tea. Dr. Campbell, the first inspector appointed by the East India Company in Darjeeling, first planted tea seeds in his garden in about the 1830s or 40s. The Christian missionaries Barenas brothers planted the average-sized tea plants in the 1880s. The Baren brothers had done a lot of work in this direction. The tea garden planted by the Baren Bandhas is currently known as the Bainukvarna Tea Garden (tel: 0354-2276712). The first seeds of tea, which were from the Chinese bush, were brought from the Kumaon Hills. But with time it became famous as Darjeeling tea. In 1886 T.T. Copper estimated that 600,000 lb of Chinese tea was consumed in Tibet every year. It was mainly produced in Sejhwaan province. Copper's idea was that if the people of Tibet used Indian tea instead of Chinese tea, India would get a very valuable market. Everyone knows the history after this. Due to the local soil and Himalayan air, the quality of Darjeeling tea is of excellent quality. At present there are about 87 tea gardens in and around Darjeeling. About 50,000 people are employed in these gardens. Each tea garden has its own history. Similarly, the variety of tea from each tea garden is different. But this tea is collectively known as 'Darjeeling tea'. The best time to visit these gardens is during summer when tea leaves are plucked. Happy-Valley-Tea Garden (Tel: 2252405) which is at a distance of 3 kilometers from the town, is easily accessible. | {
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1404 | सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस सम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया। सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ती साली सम्राज्य था। इसका राज पशिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पटलीपुत्र था। इस सम्राजय का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिय तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार के नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी। १८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। | सम्राट अशोक का पूरा नाम क्या था? | {
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"देवानामप्रिय प्रियादर्शी"
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} | What was the full name of Emperor Ashoka? | Emperor Ashoka was the greatest king of this empire. His full royal name was Devanampriya Priyadarshi and Raja the Great Emperor Ashoka. He wrote his sermons on pillars, mountains and inscriptions which are very important for the history of India. These writings were written in Brahmi, Greek and Aramaic throughout his empire. After his death, his sons divided the Maurya Empire into two parts and ruled like East and West Maurya Empire. The last ruler of this empire, Brihadrata, was killed by his Brahmin commander Pushyamitra Sunga and established his rule over Magadha. The Gupta Empire, which arose in Magadha in 240 AD, was called the Golden Age of India in science, mathematics, astronomy, commerce, religion and Indian philosophy. Samudragupta of this dynasty established this empire in the whole of South Asia. His son Chandragupta Vikramaditya defeated all the foreign infiltrators of India and expelled them from the country, hence he was given the title of Sakari. Skandagupta, the chief among these Gupta kings, stopped the attack of Huns in India and drove them out of India and protected the country from outsiders. At that time the Gupta Empire was the biggest power in the world. Its rule extended from Persia or Baghdad in the west to Burma in the east and from Central Asia in the north to Kanchipuram in the south. Its capital was Pataliputra. The influence of this empire was all over the world, from Rome, Greece, Arabia to South-East Asia. Buddhism in Magadha fell into decline due to the invasion of Muhammad bin Bakhtiyar Khilji, during which many viharas, including the famous universities of Nalanda and Vikramshila, were destroyed. It was claimed that thousands of Buddhist monks were murdered during the 12th century. D.N. Jha suggests, instead, that these events were the result of Buddhist Brahmin skirmishes in the fight for supremacy. In 1540, Sher Shah Suri of Sasaram, chief of the Great Pastis, defeated Humayun's Mughal army and took northern India from the Mughals. Sher Shah declared Delhi his capital and from the 11th century to the 20th century, Mithila was ruled by various indigenous dynasties. The first of these, where Karnata, followed by the Anwar dynasty, Raghuvanshi and finally the Raj of Darbhanga. During this period the capital of Mithila was shifted to Darbhanga. Babu Kunwar Singh of Bihar played an important role in the first Sepoy Mutiny of 1857. As a result of the partition of Bengal in 1905, the state named Bihar came into existence. Orissa was separated from it in 1936. | {
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"Devanampriya Priyadarshi"
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1405 | सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस सम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया। सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ती साली सम्राज्य था। इसका राज पशिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पटलीपुत्र था। इस सम्राजय का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिय तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार के नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी। १८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। | गुप्त सम्राज्य मगध किस समय स्थापित हुआ था ? | {
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} | At what time was the Gupta Empire of Magadha founded? | Emperor Ashoka was the greatest king of this empire. His full royal name was Devanampriya Priyadarshi and Raja the Great Emperor Ashoka. He wrote his sermons on pillars, mountains and inscriptions which are very important for the history of India. These writings were written in Brahmi, Greek and Aramaic throughout his empire. After his death, his sons divided the Maurya Empire into two parts and ruled like East and West Maurya Empire. The last ruler of this empire, Brihadrata, was killed by his Brahmin commander Pushyamitra Sunga and established his rule over Magadha. The Gupta Empire, which arose in Magadha in 240 AD, was called the Golden Age of India in science, mathematics, astronomy, commerce, religion and Indian philosophy. Samudragupta of this dynasty established this empire in the whole of South Asia. His son Chandragupta Vikramaditya defeated all the foreign infiltrators of India and expelled them from the country, hence he was given the title of Sakari. Skandagupta, the chief among these Gupta kings, stopped the attack of Huns in India and drove them out of India and protected the country from outsiders. At that time the Gupta Empire was the biggest power in the world. Its rule extended from Persia or Baghdad in the west to Burma in the east and from Central Asia in the north to Kanchipuram in the south. Its capital was Pataliputra. The influence of this empire was all over the world, from Rome, Greece, Arabia to South-East Asia. Buddhism in Magadha fell into decline due to the invasion of Muhammad bin Bakhtiyar Khilji, during which many viharas, including the famous universities of Nalanda and Vikramshila, were destroyed. It was claimed that thousands of Buddhist monks were murdered during the 12th century. D.N. Jha suggests, instead, that these events were the result of Buddhist Brahmin skirmishes in the fight for supremacy. In 1540, Sher Shah Suri of Sasaram, chief of the Great Pastis, defeated Humayun's Mughal army and took northern India from the Mughals. Sher Shah declared Delhi his capital and from the 11th century to the 20th century, Mithila was ruled by various indigenous dynasties. The first of these, where Karnata, followed by the Anwar dynasty, Raghuvanshi and finally the Raj of Darbhanga. During this period the capital of Mithila was shifted to Darbhanga. Babu Kunwar Singh of Bihar played an important role in the first Sepoy Mutiny of 1857. As a result of the partition of Bengal in 1905, the state named Bihar came into existence. Orissa was separated from it in 1936. | {
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1406 | सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस सम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया। सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ती साली सम्राज्य था। इसका राज पशिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पटलीपुत्र था। इस सम्राजय का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिय तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार के नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी। १८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। | सम्राट अशोक के मृत्यु के बाद उनके सम्राज्य को उनके पुत्रो द्वारा कितने भागो में विभाजित किया गया था? | {
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"दो"
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333
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} | After the death of Emperor Ashoka, his empire was divided into how many parts by his sons? | Emperor Ashoka was the greatest king of this emperor.His entire Raj name was Devanampriya Priyasarshi and King the great emperor Ashoka.He wrote on his preaching pillar, hill, sheelekh, which is very important for India history.This article was inscribed in his empire in Brahmi, Greek, Armik.After his death, his Putrao divided the Maurya empire into two parts and ruled like East and West Maurya kingdom.The last ruler of this empire, Brihdrat, was killed by his Brahmin commander Pushyamitra Shong and established his rule on Magadha.In 240A, the Gupta Empire generated in Magadha was called the golden age of India in science, mathematics, astronomy, commerce, religion and Indian philosophy.Samudragupta of this dynasty installed this emperor throughout South Asia.His son Chandragupta Vikramaditya defeated all the foreign intruders of India and excluded him, hence he was given the help of Sakari.Skandagupta, the chief of these secret kings, stopped the Huns' Huns in India and drove them out of India and protected from the outsiders of the country.At that time, the Gupta Empire was the biggest power of the world.Its secret was spread in Pashim from Parsiya or Baghdad to Burma in the east and from Central Asia to Kanchipuram in the north.Its capital was Patlaputra.The influence of this emperor was all over the world from Rome, Greece, Arabia to South-East Asia.Buddhism in Magadha fell into decline due to the invasion of Muhammad bin Bakhtiyar Khilji, during which famous universities of Nalanda and Vikramashila were destroyed.It was claimed that thousands of Buddhist monks were killed during the 12th century.D.N.Jha suggests, instead, these incidents were the result of the clashes of Buddhist Brahmins in the battle for supremacy.In 1580, the head of the great twenty -six, Sasaram's Sher Shah Suri, defeated the Mughal army of Humayun and took the Mughals to Northern India.Sher Shah announced his capital Delhi and from the 11th century to the 20th century, Mithila was ruled by various indigenous dynasties.The first of these, where Karnat, Anwar Dynasty, Raghuvanshi and eventually Raj Darbhanga.During this period, Mithila's capital was transferred to Darbhanga.Babu Kunwar Singh of Bihar played an important role in the first constable rebellion of 1857.As a result of the partition of Bengal in 1905, a state named Bihar came into existence.In 1937, Orissa was separated from it. | {
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333
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"Two"
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} |
1407 | सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस सम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया। सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ती साली सम्राज्य था। इसका राज पशिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पटलीपुत्र था। इस सम्राजय का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिय तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार के नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी। १८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। | पहला सिपाही विद्रोह किस वर्ष हुआ था ? | {
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"१८५७"
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2069
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} | In which year did the first Sepoy Mutiny take place? | Emperor Ashoka was the greatest king of this emperor.His entire Raj name was Devanampriya Priyasarshi and King the great emperor Ashoka.He wrote on his preaching pillar, hill, sheelekh, which is very important for India history.This article was inscribed in his empire in Brahmi, Greek, Armik.After his death, his Putrao divided the Maurya empire into two parts and ruled like East and West Maurya kingdom.The last ruler of this empire, Brihdrat, was killed by his Brahmin commander Pushyamitra Shong and established his rule on Magadha.In 240A, the Gupta Empire generated in Magadha was called the golden age of India in science, mathematics, astronomy, commerce, religion and Indian philosophy.Samudragupta of this dynasty installed this emperor throughout South Asia.His son Chandragupta Vikramaditya defeated all the foreign intruders of India and excluded him, hence he was given the help of Sakari.Skandagupta, the chief of these secret kings, stopped the Huns' Huns in India and drove them out of India and protected from the outsiders of the country.At that time, the Gupta Empire was the biggest power of the world.Its secret was spread in Pashim from Parsiya or Baghdad to Burma in the east and from Central Asia to Kanchipuram in the north.Its capital was Patlaputra.The influence of this emperor was all over the world from Rome, Greece, Arabia to South-East Asia.Buddhism in Magadha fell into decline due to the invasion of Muhammad bin Bakhtiyar Khilji, during which famous universities of Nalanda and Vikramashila were destroyed.It was claimed that thousands of Buddhist monks were killed during the 12th century.D.N.Jha suggests, instead, these incidents were the result of the clashes of Buddhist Brahmins in the battle for supremacy.In 1580, the head of the great twenty -six, Sasaram's Sher Shah Suri, defeated the Mughal army of Humayun and took the Mughals to Northern India.Sher Shah announced his capital Delhi and from the 11th century to the 20th century, Mithila was ruled by various indigenous dynasties.The first of these, where Karnat, Anwar Dynasty, Raghuvanshi and eventually Raj Darbhanga.During this period, Mithila's capital was transferred to Darbhanga.Babu Kunwar Singh of Bihar played an important role in the first constable rebellion of 1857.As a result of the partition of Bengal in 1905, a state named Bihar came into existence.In 1937, Orissa was separated from it. | {
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2069
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"1857."
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1408 | सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस सम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया। सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ती साली सम्राज्य था। इसका राज पशिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पटलीपुत्र था। इस सम्राजय का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिय तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार के नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी। १८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। | भारत छोड़ो आंदोलन में किस राज्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी? | {
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} | Which state played an important role in the Quit India Movement? | Emperor Ashoka was the greatest king of this emperor.His entire Raj name was Devanampriya Priyasarshi and King the great emperor Ashoka.He wrote on his preaching pillar, hill, sheelekh, which is very important for India history.This article was inscribed in his empire in Brahmi, Greek, Armik.After his death, his Putrao divided the Maurya empire into two parts and ruled like East and West Maurya kingdom.The last ruler of this empire, Brihdrat, was killed by his Brahmin commander Pushyamitra Shong and established his rule on Magadha.In 240A, the Gupta Empire generated in Magadha was called the golden age of India in science, mathematics, astronomy, commerce, religion and Indian philosophy.Samudragupta of this dynasty installed this emperor throughout South Asia.His son Chandragupta Vikramaditya defeated all the foreign intruders of India and excluded him, hence he was given the help of Sakari.Skandagupta, the chief of these secret kings, stopped the Huns' Huns in India and drove them out of India and protected from the outsiders of the country.At that time, the Gupta Empire was the biggest power of the world.Its secret was spread in Pashim from Parsiya or Baghdad to Burma in the east and from Central Asia to Kanchipuram in the north.Its capital was Patlaputra.The influence of this emperor was all over the world from Rome, Greece, Arabia to South-East Asia.Buddhism in Magadha fell into decline due to the invasion of Muhammad bin Bakhtiyar Khilji, during which famous universities of Nalanda and Vikramashila were destroyed.It was claimed that thousands of Buddhist monks were killed during the 12th century.D.N.Jha suggests, instead, these incidents were the result of the clashes of Buddhist Brahmins in the battle for supremacy.In 1580, the head of the great twenty -six, Sasaram's Sher Shah Suri, defeated the Mughal army of Humayun and took the Mughals to Northern India.Sher Shah announced his capital Delhi and from the 11th century to the 20th century, Mithila was ruled by various indigenous dynasties.The first of these, where Karnat, Anwar Dynasty, Raghuvanshi and eventually Raj Darbhanga.During this period, Mithila's capital was transferred to Darbhanga.Babu Kunwar Singh of Bihar played an important role in the first constable rebellion of 1857.As a result of the partition of Bengal in 1905, a state named Bihar came into existence.In 1937, Orissa was separated from it. | {
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1409 | सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस सम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया। सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ती साली सम्राज्य था। इसका राज पशिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पटलीपुत्र था। इस सम्राजय का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिय तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार के नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी। १८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। | झारखंड और बिहार का विभाजन कब हुआ था? | {
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} | When was the partition of Jharkhand and Bihar? | Emperor Ashoka was the greatest king of this emperor.His entire Raj name was Devanampriya Priyasarshi and King the great emperor Ashoka.He wrote on his preaching pillar, hill, sheelekh, which is very important for India history.This article was inscribed in his empire in Brahmi, Greek, Armik.After his death, his Putrao divided the Maurya empire into two parts and ruled like East and West Maurya kingdom.The last ruler of this empire, Brihdrat, was killed by his Brahmin commander Pushyamitra Shong and established his rule on Magadha.In 240A, the Gupta Empire generated in Magadha was called the golden age of India in science, mathematics, astronomy, commerce, religion and Indian philosophy.Samudragupta of this dynasty installed this emperor throughout South Asia.His son Chandragupta Vikramaditya defeated all the foreign intruders of India and excluded him, hence he was given the help of Sakari.Skandagupta, the chief of these secret kings, stopped the Huns' Huns in India and drove them out of India and protected from the outsiders of the country.At that time, the Gupta Empire was the biggest power of the world.Its secret was spread in Pashim from Parsiya or Baghdad to Burma in the east and from Central Asia to Kanchipuram in the north.Its capital was Patlaputra.The influence of this emperor was all over the world from Rome, Greece, Arabia to South-East Asia.Buddhism in Magadha fell into decline due to the invasion of Muhammad bin Bakhtiyar Khilji, during which famous universities of Nalanda and Vikramashila were destroyed.It was claimed that thousands of Buddhist monks were killed during the 12th century.D.N.Jha suggests, instead, these incidents were the result of the clashes of Buddhist Brahmins in the battle for supremacy.In 1580, the head of the great twenty -six, Sasaram's Sher Shah Suri, defeated the Mughal army of Humayun and took the Mughals to Northern India.Sher Shah announced his capital Delhi and from the 11th century to the 20th century, Mithila was ruled by various indigenous dynasties.The first of these, where Karnat, Anwar Dynasty, Raghuvanshi and eventually Raj Darbhanga.During this period, Mithila's capital was transferred to Darbhanga.Babu Kunwar Singh of Bihar played an important role in the first constable rebellion of 1857.As a result of the partition of Bengal in 1905, a state named Bihar came into existence.In 1937, Orissa was separated from it. | {
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1410 | सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महातवपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस सम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया। सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्ण युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपादि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी लोगो से रक्षा की। उस समय गुप्त सम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ती साली सम्राज्य था। इसका राज पशिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पटलीपुत्र था। इस सम्राजय का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिय तक था। मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई विहार के नालंदा और विक्रमशिला के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी। १८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। | बृहद्रथ की हत्या किसने की थी? | {
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} | Who killed Brihadratha? | Emperor Ashoka was the greatest king of this emperor.His entire Raj name was Devanampriya Priyasarshi and King the great emperor Ashoka.He wrote on his preaching pillar, hill, sheelekh, which is very important for India history.This article was inscribed in his empire in Brahmi, Greek, Armik.After his death, his Putrao divided the Maurya empire into two parts and ruled like East and West Maurya kingdom.The last ruler of this empire, Brihdrat, was killed by his Brahmin commander Pushyamitra Shong and established his rule on Magadha.In 240A, the Gupta Empire generated in Magadha was called the golden age of India in science, mathematics, astronomy, commerce, religion and Indian philosophy.Samudragupta of this dynasty installed this emperor throughout South Asia.His son Chandragupta Vikramaditya defeated all the foreign intruders of India and excluded him, hence he was given the help of Sakari.Skandagupta, the chief of these secret kings, stopped the Huns' Huns in India and drove them out of India and protected from the outsiders of the country.At that time, the Gupta Empire was the biggest power of the world.Its secret was spread in Pashim from Parsiya or Baghdad to Burma in the east and from Central Asia to Kanchipuram in the north.Its capital was Patlaputra.The influence of this emperor was all over the world from Rome, Greece, Arabia to South-East Asia.Buddhism in Magadha fell into decline due to the invasion of Muhammad bin Bakhtiyar Khilji, during which famous universities of Nalanda and Vikramashila were destroyed.It was claimed that thousands of Buddhist monks were killed during the 12th century.D.N.Jha suggests, instead, these incidents were the result of the clashes of Buddhist Brahmins in the battle for supremacy.In 1580, the head of the great twenty -six, Sasaram's Sher Shah Suri, defeated the Mughal army of Humayun and took the Mughals to Northern India.Sher Shah announced his capital Delhi and from the 11th century to the 20th century, Mithila was ruled by various indigenous dynasties.The first of these, where Karnat, Anwar Dynasty, Raghuvanshi and eventually Raj Darbhanga.During this period, Mithila's capital was transferred to Darbhanga.Babu Kunwar Singh of Bihar played an important role in the first constable rebellion of 1857.As a result of the partition of Bengal in 1905, a state named Bihar came into existence.In 1937, Orissa was separated from it. | {
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1411 | सारनाथ के संदर्भ के ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को उस समय हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। इस घटना से जनता का आकर्षण सारनाथ की ओर बढ़ा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया लेकिन उनको कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। इस उत्खनन से प्राप्त सामग्री अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित है। कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में उन्होंने मुख्य रूप से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला। कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का) मिला। इसके अतिरिक्त यहाँ से बड़ीं संख्या में भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ भी मिलीं, जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने यहाँ उत्खनन करवाया जिसमें उन्हें धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले, परंतु इस उत्खनन की रिपोर्ट प्रकाशित न हो सकी। किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज कार्य जारी रखा। उनके द्वारा उत्खनित वस्तुएँ अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम विस्तृत एवं वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने करवाया। उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। यहाँ से मुख्य मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ भी हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने अपने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले। इनमें से कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं। उत्खनन का यह कार्य बाद के वर्षों में भी जारी रहा। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली। इस क्षेत्र का अंतिम उत्खनन दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। इस उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले। उपर्युक्त उत्खननों से निम्नलिखित स्मारक प्रकाश में आए हैं-धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ। एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। [18]इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था। इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। 1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। | सारनाथ क्षेत्र का पहला उत्खनन कब किया गया था? | {
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"1815 ई."
],
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247
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} | When was the Sarnath area first excavated? | Archaeologists got historical information about the context of Sarnath when Dewan Jagat Singh of Kashinaresh Chet Singh dug the Dharmarajika Stupa out of ignorance. Due to this incident the public's attraction towards Sarnath increased. The first limited excavation of this area was done by Colonel Kaikenji in 1815 AD but he did not get any significant success. The material obtained from this excavation is now preserved in the Indian Museum, Calcutta. 20 years after the excavation of Kaikenji, in 1835-36, Cunningham conducted a detailed excavation of Sarnath. During the excavation, he mainly excavated Dhamekh Stupa, Chaukhandi Stupa and medieval monasteries. An inscribed stone tablet (28 ¾ inches X 13 inches Apart from this, a large number of pieces of stones used in buildings and statues were also found here, which are now safe in the Indian Museum, Calcutta. In 1851-52 AD, Major Kitoi got the excavation done here in which he found the remains of several stupas and two viharas around the Dhamek Stupa, but the report of this excavation could not be published. After Kitoi, Edward Thomas and Prof. Fitz Edward Horn continued the research work. The objects excavated by him are now in the Indian Museum, Calcutta. The first detailed and scientific excavation of this area was done by H.B. Ortal got it done. Excavation was carried out in an area of 200 square feet. Apart from the main temple and the Ashoka Pillar, a large number of statues and inscriptions have been found here. Major statues include the huge inscribed statue of Bodhisattva, statue of seated Buddha, statues of Avalokiteshvara, Bodhisattva, Manjushri, Neelkantha and statues of Tara, Vasundhara etc. John Marshall, Director General of the Department of Archaeology, along with his colleagues Stankono and Dayaram Sahni conducted excavations in the north-south areas of Sarnath in 1907. Excavations revealed three Kushan period monasteries in the northern region. They found the remains of many small stupas and temples in the southern region, especially around the Dharmarajika Stupa and in the north of the Dhamekh Stupa. Among these, some statues containing inscriptions of Kumaradevi are of special importance. This excavation work continued in subsequent years also. In 1914 to 1915 AD, H. Hargreaves conducted excavations in the east and west of the main temple. Many objects from the Maurya period to the medieval period were found during the excavation. The final excavation of this area continued for 5 seasons under the direction of Dayaram Sahni. The entire area from Dhamek Stupa to the main temple was excavated. From this excavation, Dayaram Sahni found the remains of a drain 1 foot 9 ½ inches long, 2 feet 7 inches wide and 3 feet deep. The following monuments have come to light from the above excavations - This stupa is situated half a mile south of Dhamekh Stupa, which is different from the residual monuments of Sarnath. At this place, Gautam Buddha gave his first sermon to his five disciples, as a memorial of which this stupa was built. Hiuen Tsang has described the location of this stupa as 0.8 km south-west of Sarnath, which is 91.44 m. Was high. Its identification seems to be correct with Chaukhandi Stupa. An octagonal tower is built on top of this stupa. There is an inscription in Persian on the stone lying on its northern door, from which it is known that Todar Mal's son Govardhan had built it in 1589 AD (996 Hijri). It is mentioned in the article that Humayun had spent a night at this place, in whose memory the construction of this tower became possible. In 1836, Alexander Cunningham excavated the central part of this stupa in search of the tombstones kept in it, but he did not find anything important from this excavation. In 1905 AD, Mr. Oertel excavated it again. During the excavation, they found some statues, octagonal post of the stupa and four yards high platforms. The upper bricks used in the platform were of size 12 inches X10 inches X2 ¾ inches and 14 ¾ X10 inches [18]The name ‘Chaukhandi’ of this stupa seems old. From its shape it is known that three successively decreasing floors of solid bricks were built on a square plinth. There was probably a statue installed on the open terrace of the top floor. During the Gupta period, this type of stupas were called 'Trimedhi Stupa'. On the basis of the materials obtained from the excavation, it becomes certain that this stupa was built during the Gupta period. This stupa was built by Ashoka. Unfortunately, in 1794 AD, Jagat Singh's men dug up its bricks to build the famous locality of Kashi, Jagatganj. At the time of excavation 8.23 m. Some bones and gold vessels, pearl beads and gems were found in a marble casket inside a stone vessel at the depth of 100 m, which they considered to be of no special importance and were thrown into the Ganga. In an article from the time of Mahipala, dated 1026 AD, obtained from here, it is mentioned that two brothers named Sthirpal and Basantpal renovated Dharmarajika and Dharmachakra. Excavations under the direction of Marshall in 1907-08 AD revealed the history of successive constructions of this stupa. This stupa was expanded and renovated several times. The original part of this stupa was built by Ashoka. At that time its diameter was 13.48 meters. (44 feet 3 inches). The dimensions of the cuneiform bricks used were 19 ½ inches X 14 ½ inches X 2 ½ inches and 16 ½ inches X 12 ½ inches X 3 ½ inches. The first development took place in the Kushan period or early Gupta period. The size of the bricks used in the stupa at this time was 17 inches X10 ½ inches X 2 ¾ It was itch. The second expansion took place in the fifth or sixth century after the attack of the Huns. At this time a 16 feet (4.6 m) wide circumambulation path was added around it. The stupa was expanded for the third time during the reign of Harsha (7th century). | {
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"1815 B.C.E."
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1412 | सारनाथ के संदर्भ के ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को उस समय हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। इस घटना से जनता का आकर्षण सारनाथ की ओर बढ़ा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया लेकिन उनको कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। इस उत्खनन से प्राप्त सामग्री अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित है। कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में उन्होंने मुख्य रूप से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला। कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का) मिला। इसके अतिरिक्त यहाँ से बड़ीं संख्या में भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ भी मिलीं, जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने यहाँ उत्खनन करवाया जिसमें उन्हें धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले, परंतु इस उत्खनन की रिपोर्ट प्रकाशित न हो सकी। किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज कार्य जारी रखा। उनके द्वारा उत्खनित वस्तुएँ अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम विस्तृत एवं वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने करवाया। उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। यहाँ से मुख्य मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ भी हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने अपने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले। इनमें से कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं। उत्खनन का यह कार्य बाद के वर्षों में भी जारी रहा। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली। इस क्षेत्र का अंतिम उत्खनन दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। इस उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले। उपर्युक्त उत्खननों से निम्नलिखित स्मारक प्रकाश में आए हैं-धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ। एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। [18]इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था। इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। 1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। | टोडरमल के पुत्र का क्या नाम है ? | {
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"गोवर्द्धन"
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} | What is the name of Todarmal's son? | Archaeologists got historical information about the context of Sarnath when Dewan Jagat Singh of Kashinaresh Chet Singh dug the Dharmarajika Stupa out of ignorance. Due to this incident the public's attraction towards Sarnath increased. The first limited excavation of this area was done by Colonel Kaikenji in 1815 AD but he did not get any significant success. The material obtained from this excavation is now preserved in the Indian Museum, Calcutta. 20 years after the excavation of Kaikenji, in 1835-36, Cunningham conducted a detailed excavation of Sarnath. During the excavation, he mainly excavated Dhamekh Stupa, Chaukhandi Stupa and medieval monasteries. An inscribed stone tablet (28 ¾ inches X 13 inches Apart from this, a large number of pieces of stones used in buildings and statues were also found here, which are now safe in the Indian Museum, Calcutta. In 1851-52 AD, Major Kitoi got the excavation done here in which he found the remains of several stupas and two viharas around the Dhamek Stupa, but the report of this excavation could not be published. After Kitoi, Edward Thomas and Prof. Fitz Edward Horn continued the research work. The objects excavated by him are now in the Indian Museum, Calcutta. The first detailed and scientific excavation of this area was done by H.B. Ortal got it done. Excavation was carried out in an area of 200 square feet. Apart from the main temple and the Ashoka Pillar, a large number of statues and inscriptions have been found here. Major statues include the huge inscribed statue of Bodhisattva, statue of seated Buddha, statues of Avalokiteshvara, Bodhisattva, Manjushri, Neelkantha and statues of Tara, Vasundhara etc. John Marshall, Director General of the Department of Archaeology, along with his colleagues Stankono and Dayaram Sahni conducted excavations in the north-south areas of Sarnath in 1907. Excavations revealed three Kushan period monasteries in the northern region. They found the remains of many small stupas and temples in the southern region, especially around the Dharmarajika Stupa and in the north of the Dhamekh Stupa. Among these, some statues containing inscriptions of Kumaradevi are of special importance. This excavation work continued in subsequent years also. In 1914 to 1915 AD, H. Hargreaves conducted excavations in the east and west of the main temple. Many objects from the Maurya period to the medieval period were found during the excavation. The final excavation of this area continued for 5 seasons under the direction of Dayaram Sahni. The entire area from Dhamek Stupa to the main temple was excavated. From this excavation, Dayaram Sahni found the remains of a drain 1 foot 9 ½ inches long, 2 feet 7 inches wide and 3 feet deep. The following monuments have come to light from the above excavations - This stupa is situated half a mile south of Dhamekh Stupa, which is different from the residual monuments of Sarnath. At this place, Gautam Buddha gave his first sermon to his five disciples, as a memorial of which this stupa was built. Hiuen Tsang has described the location of this stupa as 0.8 km south-west of Sarnath, which is 91.44 m. Was high. Its identification seems to be correct with Chaukhandi Stupa. An octagonal tower is built on top of this stupa. There is an inscription in Persian on the stone lying on its northern door, from which it is known that Todar Mal's son Govardhan had built it in 1589 AD (996 Hijri). It is mentioned in the article that Humayun had spent a night at this place, in whose memory the construction of this tower became possible. In 1836, Alexander Cunningham excavated the central part of this stupa in search of the tombstones kept in it, but he did not find anything important from this excavation. In 1905 AD, Mr. Oertel excavated it again. During the excavation, they found some statues, octagonal post of the stupa and four yards high platforms. The upper bricks used in the platform were of size 12 inches X10 inches X2 ¾ inches and 14 ¾ X10 inches [18]The name ‘Chaukhandi’ of this stupa seems old. From its shape it is known that three successively decreasing floors of solid bricks were built on a square plinth. There was probably a statue installed on the open terrace of the top floor. During the Gupta period, this type of stupas were called 'Trimedhi Stupa'. On the basis of the materials obtained from the excavation, it becomes certain that this stupa was built during the Gupta period. This stupa was built by Ashoka. Unfortunately, in 1794 AD, Jagat Singh's men dug up its bricks to build the famous locality of Kashi, Jagatganj. At the time of excavation 8.23 m. Some bones and gold vessels, pearl beads and gems were found in a marble casket inside a stone vessel at the depth of 100 m, which they considered to be of no special importance and were thrown into the Ganga. In an article from the time of Mahipala, dated 1026 AD, obtained from here, it is mentioned that two brothers named Sthirpal and Basantpal renovated Dharmarajika and Dharmachakra. Excavations under the direction of Marshall in 1907-08 AD revealed the history of successive constructions of this stupa. This stupa was expanded and renovated several times. The original part of this stupa was built by Ashoka. At that time its diameter was 13.48 meters. (44 feet 3 inches). The dimensions of the cuneiform bricks used were 19 ½ inches X 14 ½ inches X 2 ½ inches and 16 ½ inches X 12 ½ inches X 3 ½ inches. The first development took place in the Kushan period or early Gupta period. The size of the bricks used in the stupa at this time was 17 inches X10 ½ inches X 2 ¾ It was itch. The second expansion took place in the fifth or sixth century after the attack of the Huns. At this time a 16 feet (4.6 m) wide circumambulation path was added around it. The stupa was expanded for the third time during the reign of Harsha (7th century). | {
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1413 | सारनाथ के संदर्भ के ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को उस समय हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। इस घटना से जनता का आकर्षण सारनाथ की ओर बढ़ा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया लेकिन उनको कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। इस उत्खनन से प्राप्त सामग्री अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित है। कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में उन्होंने मुख्य रूप से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला। कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का) मिला। इसके अतिरिक्त यहाँ से बड़ीं संख्या में भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ भी मिलीं, जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने यहाँ उत्खनन करवाया जिसमें उन्हें धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले, परंतु इस उत्खनन की रिपोर्ट प्रकाशित न हो सकी। किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज कार्य जारी रखा। उनके द्वारा उत्खनित वस्तुएँ अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम विस्तृत एवं वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने करवाया। उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। यहाँ से मुख्य मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ भी हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने अपने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले। इनमें से कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं। उत्खनन का यह कार्य बाद के वर्षों में भी जारी रहा। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली। इस क्षेत्र का अंतिम उत्खनन दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। इस उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले। उपर्युक्त उत्खननों से निम्नलिखित स्मारक प्रकाश में आए हैं-धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ। एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। [18]इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था। इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। 1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। | गौतम बुद्ध ने अपने पांच शिष्यों को पहला उपदेश कहां दिया था? | {
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"धमेख स्तूप"
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} | Where did Gautama Buddha give his first sermon to his five disciples? | Archaeologists got historical information about the context of Sarnath when Dewan Jagat Singh of Kashinaresh Chet Singh dug the Dharmarajika Stupa out of ignorance. Due to this incident the public's attraction towards Sarnath increased. The first limited excavation of this area was done by Colonel Kaikenji in 1815 AD but he did not get any significant success. The material obtained from this excavation is now preserved in the Indian Museum, Calcutta. 20 years after the excavation of Kaikenji, in 1835-36, Cunningham conducted a detailed excavation of Sarnath. During the excavation, he mainly excavated Dhamekh Stupa, Chaukhandi Stupa and medieval monasteries. An inscribed stone tablet (28 ¾ inches X 13 inches Apart from this, a large number of pieces of stones used in buildings and statues were also found here, which are now safe in the Indian Museum, Calcutta. In 1851-52 AD, Major Kitoi got the excavation done here in which he found the remains of several stupas and two viharas around the Dhamek Stupa, but the report of this excavation could not be published. After Kitoi, Edward Thomas and Prof. Fitz Edward Horn continued the research work. The objects excavated by him are now in the Indian Museum, Calcutta. The first detailed and scientific excavation of this area was done by H.B. Ortal got it done. Excavation was carried out in an area of 200 square feet. Apart from the main temple and the Ashoka Pillar, a large number of statues and inscriptions have been found here. Major statues include the huge inscribed statue of Bodhisattva, statue of seated Buddha, statues of Avalokiteshvara, Bodhisattva, Manjushri, Neelkantha and statues of Tara, Vasundhara etc. John Marshall, Director General of the Department of Archaeology, along with his colleagues Stankono and Dayaram Sahni conducted excavations in the north-south areas of Sarnath in 1907. Excavations revealed three Kushan period monasteries in the northern region. They found the remains of many small stupas and temples in the southern region, especially around the Dharmarajika Stupa and in the north of the Dhamekh Stupa. Among these, some statues containing inscriptions of Kumaradevi are of special importance. This excavation work continued in subsequent years also. In 1914 to 1915 AD, H. Hargreaves conducted excavations in the east and west of the main temple. Many objects from the Maurya period to the medieval period were found during the excavation. The final excavation of this area continued for 5 seasons under the direction of Dayaram Sahni. The entire area from Dhamek Stupa to the main temple was excavated. From this excavation, Dayaram Sahni found the remains of a drain 1 foot 9 ½ inches long, 2 feet 7 inches wide and 3 feet deep. The following monuments have come to light from the above excavations - This stupa is situated half a mile south of Dhamekh Stupa, which is different from the residual monuments of Sarnath. At this place, Gautam Buddha gave his first sermon to his five disciples, as a memorial of which this stupa was built. Hiuen Tsang has described the location of this stupa as 0.8 km south-west of Sarnath, which is 91.44 m. Was high. Its identification seems to be correct with Chaukhandi Stupa. An octagonal tower is built on top of this stupa. There is an inscription in Persian on the stone lying on its northern door, from which it is known that Todar Mal's son Govardhan had built it in 1589 AD (996 Hijri). It is mentioned in the article that Humayun had spent a night at this place, in whose memory the construction of this tower became possible. In 1836, Alexander Cunningham excavated the central part of this stupa in search of the tombstones kept in it, but he did not find anything important from this excavation. In 1905 AD, Mr. Oertel excavated it again. During the excavation, they found some statues, octagonal post of the stupa and four yards high platforms. The upper bricks used in the platform were of size 12 inches X10 inches X2 ¾ inches and 14 ¾ X10 inches [18]The name ‘Chaukhandi’ of this stupa seems old. From its shape it is known that three successively decreasing floors of solid bricks were built on a square plinth. There was probably a statue installed on the open terrace of the top floor. During the Gupta period, this type of stupas were called 'Trimedhi Stupa'. On the basis of the materials obtained from the excavation, it becomes certain that this stupa was built during the Gupta period. This stupa was built by Ashoka. Unfortunately, in 1794 AD, Jagat Singh's men dug up its bricks to build the famous locality of Kashi, Jagatganj. At the time of excavation 8.23 m. Some bones and gold vessels, pearl beads and gems were found in a marble casket inside a stone vessel at the depth of 100 m, which they considered to be of no special importance and were thrown into the Ganga. In an article from the time of Mahipala, dated 1026 AD, obtained from here, it is mentioned that two brothers named Sthirpal and Basantpal renovated Dharmarajika and Dharmachakra. Excavations under the direction of Marshall in 1907-08 AD revealed the history of successive constructions of this stupa. This stupa was expanded and renovated several times. The original part of this stupa was built by Ashoka. At that time its diameter was 13.48 meters. (44 feet 3 inches). The dimensions of the cuneiform bricks used were 19 ½ inches X 14 ½ inches X 2 ½ inches and 16 ½ inches X 12 ½ inches X 3 ½ inches. The first development took place in the Kushan period or early Gupta period. The size of the bricks used in the stupa at this time was 17 inches X10 ½ inches X 2 ¾ It was itch. The second expansion took place in the fifth or sixth century after the attack of the Huns. At this time a 16 feet (4.6 m) wide circumambulation path was added around it. The stupa was expanded for the third time during the reign of Harsha (7th century). | {
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581
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"Dhamekh Stupa"
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1414 | सारनाथ के संदर्भ के ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को उस समय हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। इस घटना से जनता का आकर्षण सारनाथ की ओर बढ़ा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया लेकिन उनको कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। इस उत्खनन से प्राप्त सामग्री अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित है। कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में उन्होंने मुख्य रूप से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला। कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का) मिला। इसके अतिरिक्त यहाँ से बड़ीं संख्या में भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ भी मिलीं, जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने यहाँ उत्खनन करवाया जिसमें उन्हें धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले, परंतु इस उत्खनन की रिपोर्ट प्रकाशित न हो सकी। किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज कार्य जारी रखा। उनके द्वारा उत्खनित वस्तुएँ अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम विस्तृत एवं वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने करवाया। उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। यहाँ से मुख्य मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ भी हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने अपने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले। इनमें से कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं। उत्खनन का यह कार्य बाद के वर्षों में भी जारी रहा। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली। इस क्षेत्र का अंतिम उत्खनन दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। इस उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले। उपर्युक्त उत्खननों से निम्नलिखित स्मारक प्रकाश में आए हैं-धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ। एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। [18]इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था। इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। 1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। | सारनाथ को किसने नष्ट किया था? | {
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"सारनाथ"
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} | Who destroyed Sarnath? | Archaeologists got historical information about the context of Sarnath when Dewan Jagat Singh of Kashinaresh Chet Singh dug the Dharmarajika Stupa out of ignorance. Due to this incident the public's attraction towards Sarnath increased. The first limited excavation of this area was done by Colonel Kaikenji in 1815 AD but he did not get any significant success. The material obtained from this excavation is now preserved in the Indian Museum, Calcutta. 20 years after the excavation of Kaikenji, in 1835-36, Cunningham conducted a detailed excavation of Sarnath. During the excavation, he mainly excavated Dhamekh Stupa, Chaukhandi Stupa and medieval monasteries. An inscribed stone tablet (28 ¾ inches X 13 inches Apart from this, a large number of pieces of stones used in buildings and statues were also found here, which are now safe in the Indian Museum, Calcutta. In 1851-52 AD, Major Kitoi got the excavation done here in which he found the remains of several stupas and two viharas around the Dhamek Stupa, but the report of this excavation could not be published. After Kitoi, Edward Thomas and Prof. Fitz Edward Horn continued the research work. The objects excavated by him are now in the Indian Museum, Calcutta. The first detailed and scientific excavation of this area was done by H.B. Ortal got it done. Excavation was carried out in an area of 200 square feet. Apart from the main temple and the Ashoka Pillar, a large number of statues and inscriptions have been found here. Major statues include the huge inscribed statue of Bodhisattva, statue of seated Buddha, statues of Avalokiteshvara, Bodhisattva, Manjushri, Neelkantha and statues of Tara, Vasundhara etc. John Marshall, Director General of the Department of Archaeology, along with his colleagues Stankono and Dayaram Sahni conducted excavations in the north-south areas of Sarnath in 1907. Excavations revealed three Kushan period monasteries in the northern region. They found the remains of many small stupas and temples in the southern region, especially around the Dharmarajika Stupa and in the north of the Dhamekh Stupa. Among these, some statues containing inscriptions of Kumaradevi are of special importance. This excavation work continued in subsequent years also. In 1914 to 1915 AD, H. Hargreaves conducted excavations in the east and west of the main temple. Many objects from the Maurya period to the medieval period were found during the excavation. The final excavation of this area continued for 5 seasons under the direction of Dayaram Sahni. The entire area from Dhamek Stupa to the main temple was excavated. From this excavation, Dayaram Sahni found the remains of a drain 1 foot 9 ½ inches long, 2 feet 7 inches wide and 3 feet deep. The following monuments have come to light from the above excavations - This stupa is situated half a mile south of Dhamekh Stupa, which is different from the residual monuments of Sarnath. At this place, Gautam Buddha gave his first sermon to his five disciples, as a memorial of which this stupa was built. Hiuen Tsang has described the location of this stupa as 0.8 km south-west of Sarnath, which is 91.44 m. Was high. Its identification seems to be correct with Chaukhandi Stupa. An octagonal tower is built on top of this stupa. There is an inscription in Persian on the stone lying on its northern door, from which it is known that Todar Mal's son Govardhan had built it in 1589 AD (996 Hijri). It is mentioned in the article that Humayun had spent a night at this place, in whose memory the construction of this tower became possible. In 1836, Alexander Cunningham excavated the central part of this stupa in search of the tombstones kept in it, but he did not find anything important from this excavation. In 1905 AD, Mr. Oertel excavated it again. During the excavation, they found some statues, octagonal post of the stupa and four yards high platforms. The upper bricks used in the platform were of size 12 inches X10 inches X2 ¾ inches and 14 ¾ X10 inches [18]The name ‘Chaukhandi’ of this stupa seems old. From its shape it is known that three successively decreasing floors of solid bricks were built on a square plinth. There was probably a statue installed on the open terrace of the top floor. During the Gupta period, this type of stupas were called 'Trimedhi Stupa'. On the basis of the materials obtained from the excavation, it becomes certain that this stupa was built during the Gupta period. This stupa was built by Ashoka. Unfortunately, in 1794 AD, Jagat Singh's men dug up its bricks to build the famous locality of Kashi, Jagatganj. At the time of excavation 8.23 m. Some bones and gold vessels, pearl beads and gems were found in a marble casket inside a stone vessel at the depth of 100 m, which they considered to be of no special importance and were thrown into the Ganga. In an article from the time of Mahipala, dated 1026 AD, obtained from here, it is mentioned that two brothers named Sthirpal and Basantpal renovated Dharmarajika and Dharmachakra. Excavations under the direction of Marshall in 1907-08 AD revealed the history of successive constructions of this stupa. This stupa was expanded and renovated several times. The original part of this stupa was built by Ashoka. At that time its diameter was 13.48 meters. (44 feet 3 inches). The dimensions of the cuneiform bricks used were 19 ½ inches X 14 ½ inches X 2 ½ inches and 16 ½ inches X 12 ½ inches X 3 ½ inches. The first development took place in the Kushan period or early Gupta period. The size of the bricks used in the stupa at this time was 17 inches X10 ½ inches X 2 ¾ It was itch. The second expansion took place in the fifth or sixth century after the attack of the Huns. At this time a 16 feet (4.6 m) wide circumambulation path was added around it. The stupa was expanded for the third time during the reign of Harsha (7th century). | {
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"Sarnath"
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} |
1415 | सारनाथ के संदर्भ के ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को उस समय हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। इस घटना से जनता का आकर्षण सारनाथ की ओर बढ़ा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया लेकिन उनको कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। इस उत्खनन से प्राप्त सामग्री अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित है। कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में उन्होंने मुख्य रूप से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला। कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का) मिला। इसके अतिरिक्त यहाँ से बड़ीं संख्या में भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ भी मिलीं, जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने यहाँ उत्खनन करवाया जिसमें उन्हें धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले, परंतु इस उत्खनन की रिपोर्ट प्रकाशित न हो सकी। किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज कार्य जारी रखा। उनके द्वारा उत्खनित वस्तुएँ अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम विस्तृत एवं वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने करवाया। उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। यहाँ से मुख्य मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ भी हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने अपने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले। इनमें से कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं। उत्खनन का यह कार्य बाद के वर्षों में भी जारी रहा। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली। इस क्षेत्र का अंतिम उत्खनन दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। इस उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले। उपर्युक्त उत्खननों से निम्नलिखित स्मारक प्रकाश में आए हैं-धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ। एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। [18]इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था। इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। 1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। | सारनाथ क्षेत्र का पहला विस्तृत और वैज्ञानिक उत्खनन किसके द्वारा किया गया था? | {
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"एच.बी. ओरटल"
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1196
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} | The first detailed and scientific excavation of the Sarnath area was carried out by whom? | Archaeologists got historical information about the context of Sarnath when Dewan Jagat Singh of Kashinaresh Chet Singh dug the Dharmarajika Stupa out of ignorance. Due to this incident the public's attraction towards Sarnath increased. The first limited excavation of this area was done by Colonel Kaikenji in 1815 AD but he did not get any significant success. The material obtained from this excavation is now preserved in the Indian Museum, Calcutta. 20 years after the excavation of Kaikenji, in 1835-36, Cunningham conducted a detailed excavation of Sarnath. During the excavation, he mainly excavated Dhamekh Stupa, Chaukhandi Stupa and medieval monasteries. An inscribed stone tablet (28 ¾ inches X 13 inches Apart from this, a large number of pieces of stones used in buildings and statues were also found here, which are now safe in the Indian Museum, Calcutta. In 1851-52 AD, Major Kitoi got the excavation done here in which he found the remains of several stupas and two viharas around the Dhamek Stupa, but the report of this excavation could not be published. After Kitoi, Edward Thomas and Prof. Fitz Edward Horn continued the research work. The objects excavated by him are now in the Indian Museum, Calcutta. The first detailed and scientific excavation of this area was done by H.B. Ortal got it done. Excavation was carried out in an area of 200 square feet. Apart from the main temple and the Ashoka Pillar, a large number of statues and inscriptions have been found here. Major statues include the huge inscribed statue of Bodhisattva, statue of seated Buddha, statues of Avalokiteshvara, Bodhisattva, Manjushri, Neelkantha and statues of Tara, Vasundhara etc. John Marshall, Director General of the Department of Archaeology, along with his colleagues Stankono and Dayaram Sahni conducted excavations in the north-south areas of Sarnath in 1907. Excavations revealed three Kushan period monasteries in the northern region. They found the remains of many small stupas and temples in the southern region, especially around the Dharmarajika Stupa and in the north of the Dhamekh Stupa. Among these, some statues containing inscriptions of Kumaradevi are of special importance. This excavation work continued in subsequent years also. In 1914 to 1915 AD, H. Hargreaves conducted excavations in the east and west of the main temple. Many objects from the Maurya period to the medieval period were found during the excavation. The final excavation of this area continued for 5 seasons under the direction of Dayaram Sahni. The entire area from Dhamek Stupa to the main temple was excavated. From this excavation, Dayaram Sahni found the remains of a drain 1 foot 9 ½ inches long, 2 feet 7 inches wide and 3 feet deep. The following monuments have come to light from the above excavations - This stupa is situated half a mile south of Dhamekh Stupa, which is different from the residual monuments of Sarnath. At this place, Gautam Buddha gave his first sermon to his five disciples, as a memorial of which this stupa was built. Hiuen Tsang has described the location of this stupa as 0.8 km south-west of Sarnath, which is 91.44 m. Was high. Its identification seems to be correct with Chaukhandi Stupa. An octagonal tower is built on top of this stupa. There is an inscription in Persian on the stone lying on its northern door, from which it is known that Todar Mal's son Govardhan had built it in 1589 AD (996 Hijri). It is mentioned in the article that Humayun had spent a night at this place, in whose memory the construction of this tower became possible. In 1836, Alexander Cunningham excavated the central part of this stupa in search of the tombstones kept in it, but he did not find anything important from this excavation. In 1905 AD, Mr. Oertel excavated it again. During the excavation, they found some statues, octagonal post of the stupa and four yards high platforms. The upper bricks used in the platform were of size 12 inches X10 inches X2 ¾ inches and 14 ¾ X10 inches [18]The name ‘Chaukhandi’ of this stupa seems old. From its shape it is known that three successively decreasing floors of solid bricks were built on a square plinth. There was probably a statue installed on the open terrace of the top floor. During the Gupta period, this type of stupas were called 'Trimedhi Stupa'. On the basis of the materials obtained from the excavation, it becomes certain that this stupa was built during the Gupta period. This stupa was built by Ashoka. Unfortunately, in 1794 AD, Jagat Singh's men dug up its bricks to build the famous locality of Kashi, Jagatganj. At the time of excavation 8.23 m. Some bones and gold vessels, pearl beads and gems were found in a marble casket inside a stone vessel at the depth of 100 m, which they considered to be of no special importance and were thrown into the Ganga. In an article from the time of Mahipala, dated 1026 AD, obtained from here, it is mentioned that two brothers named Sthirpal and Basantpal renovated Dharmarajika and Dharmachakra. Excavations under the direction of Marshall in 1907-08 AD revealed the history of successive constructions of this stupa. This stupa was expanded and renovated several times. The original part of this stupa was built by Ashoka. At that time its diameter was 13.48 meters. (44 feet 3 inches). The dimensions of the cuneiform bricks used were 19 ½ inches X 14 ½ inches X 2 ½ inches and 16 ½ inches X 12 ½ inches X 3 ½ inches. The first development took place in the Kushan period or early Gupta period. The size of the bricks used in the stupa at this time was 17 inches X10 ½ inches X 2 ¾ It was itch. The second expansion took place in the fifth or sixth century after the attack of the Huns. At this time a 16 feet (4.6 m) wide circumambulation path was added around it. The stupa was expanded for the third time during the reign of Harsha (7th century). | {
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"H. B. Ortl"
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1416 | सारनाथ के संदर्भ के ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को उस समय हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। इस घटना से जनता का आकर्षण सारनाथ की ओर बढ़ा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया लेकिन उनको कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। इस उत्खनन से प्राप्त सामग्री अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित है। कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में उन्होंने मुख्य रूप से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला। कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का) मिला। इसके अतिरिक्त यहाँ से बड़ीं संख्या में भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ भी मिलीं, जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने यहाँ उत्खनन करवाया जिसमें उन्हें धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले, परंतु इस उत्खनन की रिपोर्ट प्रकाशित न हो सकी। किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस तथा प्रो॰ फिट्ज एडवर्ड हार्न ने खोज कार्य जारी रखा। उनके द्वारा उत्खनित वस्तुएँ अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम विस्तृत एवं वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने करवाया। उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। यहाँ से मुख्य मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ भी हैं। पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने अपने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले। इनमें से कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं। उत्खनन का यह कार्य बाद के वर्षों में भी जारी रहा। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली। इस क्षेत्र का अंतिम उत्खनन दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा। धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। इस उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले। उपर्युक्त उत्खननों से निम्नलिखित स्मारक प्रकाश में आए हैं-धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ। एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं। [18]इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था। इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया। 1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। | सारनाथ क्षेत्र का पहला उत्खनन किसके द्वारा किया गया था? | {
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"कर्नल कैकेंजी"
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} | The Sarnath region was first excavated by whom? | Archaeologists got historical information about the context of Sarnath when Dewan Jagat Singh of Kashinaresh Chet Singh dug the Dharmarajika Stupa out of ignorance. Due to this incident the public's attraction towards Sarnath increased. The first limited excavation of this area was done by Colonel Kaikenji in 1815 AD but he did not get any significant success. The material obtained from this excavation is now preserved in the Indian Museum, Calcutta. 20 years after the excavation of Kaikenji, in 1835-36, Cunningham conducted a detailed excavation of Sarnath. During the excavation, he mainly excavated Dhamekh Stupa, Chaukhandi Stupa and medieval monasteries. An inscribed stone tablet (28 ¾ inches X 13 inches Apart from this, a large number of pieces of stones used in buildings and statues were also found here, which are now safe in the Indian Museum, Calcutta. In 1851-52 AD, Major Kitoi got the excavation done here in which he found the remains of several stupas and two viharas around the Dhamek Stupa, but the report of this excavation could not be published. After Kitoi, Edward Thomas and Prof. Fitz Edward Horn continued the research work. The objects excavated by him are now in the Indian Museum, Calcutta. The first detailed and scientific excavation of this area was done by H.B. Ortal got it done. Excavation was carried out in an area of 200 square feet. Apart from the main temple and the Ashoka Pillar, a large number of statues and inscriptions have been found here. Major statues include the huge inscribed statue of Bodhisattva, statue of seated Buddha, statues of Avalokiteshvara, Bodhisattva, Manjushri, Neelkantha and statues of Tara, Vasundhara etc. John Marshall, Director General of the Department of Archaeology, along with his colleagues Stankono and Dayaram Sahni conducted excavations in the north-south areas of Sarnath in 1907. Excavations revealed three Kushan period monasteries in the northern region. They found the remains of many small stupas and temples in the southern region, especially around the Dharmarajika Stupa and in the north of the Dhamekh Stupa. Among these, some statues containing inscriptions of Kumaradevi are of special importance. This excavation work continued in subsequent years also. In 1914 to 1915 AD, H. Hargreaves conducted excavations in the east and west of the main temple. Many objects from the Maurya period to the medieval period were found during the excavation. The final excavation of this area continued for 5 seasons under the direction of Dayaram Sahni. The entire area from Dhamek Stupa to the main temple was excavated. From this excavation, Dayaram Sahni found the remains of a drain 1 foot 9 ½ inches long, 2 feet 7 inches wide and 3 feet deep. The following monuments have come to light from the above excavations - This stupa is situated half a mile south of Dhamekh Stupa, which is different from the residual monuments of Sarnath. At this place, Gautam Buddha gave his first sermon to his five disciples, as a memorial of which this stupa was built. Hiuen Tsang has described the location of this stupa as 0.8 km south-west of Sarnath, which is 91.44 m. Was high. Its identification seems to be correct with Chaukhandi Stupa. An octagonal tower is built on top of this stupa. There is an inscription in Persian on the stone lying on its northern door, from which it is known that Todar Mal's son Govardhan had built it in 1589 AD (996 Hijri). It is mentioned in the article that Humayun had spent a night at this place, in whose memory the construction of this tower became possible. In 1836, Alexander Cunningham excavated the central part of this stupa in search of the tombstones kept in it, but he did not find anything important from this excavation. In 1905 AD, Mr. Oertel excavated it again. During the excavation, they found some statues, octagonal post of the stupa and four yards high platforms. The upper bricks used in the platform were of size 12 inches X10 inches X2 ¾ inches and 14 ¾ X10 inches [18]The name ‘Chaukhandi’ of this stupa seems old. From its shape it is known that three successively decreasing floors of solid bricks were built on a square plinth. There was probably a statue installed on the open terrace of the top floor. During the Gupta period, this type of stupas were called 'Trimedhi Stupa'. On the basis of the materials obtained from the excavation, it becomes certain that this stupa was built during the Gupta period. This stupa was built by Ashoka. Unfortunately, in 1794 AD, Jagat Singh's men dug up its bricks to build the famous locality of Kashi, Jagatganj. At the time of excavation 8.23 m. Some bones and gold vessels, pearl beads and gems were found in a marble casket inside a stone vessel at the depth of 100 m, which they considered to be of no special importance and were thrown into the Ganga. In an article from the time of Mahipala, dated 1026 AD, obtained from here, it is mentioned that two brothers named Sthirpal and Basantpal renovated Dharmarajika and Dharmachakra. Excavations under the direction of Marshall in 1907-08 AD revealed the history of successive constructions of this stupa. This stupa was expanded and renovated several times. The original part of this stupa was built by Ashoka. At that time its diameter was 13.48 meters. (44 feet 3 inches). The dimensions of the cuneiform bricks used were 19 ½ inches X 14 ½ inches X 2 ½ inches and 16 ½ inches X 12 ½ inches X 3 ½ inches. The first development took place in the Kushan period or early Gupta period. The size of the bricks used in the stupa at this time was 17 inches X10 ½ inches X 2 ¾ It was itch. The second expansion took place in the fifth or sixth century after the attack of the Huns. At this time a 16 feet (4.6 m) wide circumambulation path was added around it. The stupa was expanded for the third time during the reign of Harsha (7th century). | {
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"Colonel Kaikenji"
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1417 | सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुग़ल सल्तनत के आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया। हिन्दू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परन्तु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मन्दिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं। विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबन्ध का संचालन करते थे। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की समस्त मन्त्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबन्ध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामन्त वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुन्दर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है। विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक-पृथक कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दण्ड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल सम्बन्धी कार्यों में व्यय किया जाता था। भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पण्डित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रन्थों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिन्दू संस्कृति के आदि ग्रन्थ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं। बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। | सदाशिव के बाद विजयनगर साम्राज्य के राजा कौन बने थे ? | {
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"रामराय"
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39
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} | Who became the king of Vijayanagara Empire after Sadashiva? | Even while on the throne, all his work was edited by Ramarai.After Sadashiva, Ramarai became the lord of the Vijayanagar state and considers it the first emperor of the fourth dynasty Arvidu.Ramarai's life was full of difficulties.For centuries, the Hindu King of South India has been opposing Islam, so enmity with Bahmani Sultans increased.The Muslim army had good cannons and weapons, so the soldiers of Vijayanagar state bowed to Islamic boost.The Muslim generals appointed by the Vijayanagar rulers surrounded the king, so Ramrai was killed in the war of Talikot in 1565 AD.The Muslim army destroyed Vijayanagar, causing damage to Indian culture in South India.The name of Vakentapati Dev is also notable among the weak rulers of Arvidu.He tried to suppress the heroes.He was freed from the invasion of the Mughal Sultanate due to mutual war in the Bahmani and Mughal emperors.The main events of its reign were the business treaty with the Portuguese.Foreigners were welcomed due to the tolerance of the ruler and the Christian pastor also started propagating religion to some extent.Venkat's successor was weak.They failed as a ruler and the existence of the state of Vijayanagar disappeared as the dominance of the heroes increased.The state of Vijayanagar had an important place in the history of Hindu culture.Muslim soldiers and commanders continued to work in Vijayanagar's army, but this did not change the basic objective of Vijayanagar.In the Vijayanagar state, Sayan has two such historical monuments by Sayan's vaccine and huge temples which are still immortal.The rulers of Vijayanagar themselves operated the governance.The king did not accept all the mantras of the Central Cabinet and used to take cooperation from the qualified prince for the cleanliness.The policy of governance on the ancient Indian system was dependent.In the far south, the feudal was present which used to make the annual and did all the work under the supervision of the prince.The police department continued to work vigilantly for the protection of the subjects, which has been described by foreign writers.The rulers of Vijayanagar considered the fund as head in the seven parts of the state.He measured the land and separated on the barren and irrigation land.The octroi, state gifts, economic punishment and imports were determined and their other means of income.Vijayanagar was a war state, so two parts of income were spent in the army, the third part would be safe as accumulated funds and the fourth part was spent in charity and palace related works.The state of Vijayanagar is mentioned in the history of Indian literature.In the valley of Tungabhadra, Brahmins, Jains and Shaivism preachers adopted Kannada language in which Ramayana, Mahabharata and Bhagwat were composed.Kumar Vyas emerged in this era.Apart from this, Bukk donated land to Telugu language poets.The court of Krishnadeva Rai was beautified by skilled poets.Sanskrit literature has a descriptive Shrivardhi.Vidyarayana was a pandit of multiplicity talent.Madhav, the famous minister of Vijayanagar state, composed the texts named Jaiminish Nyayamala and Parasharmadhav respectively, his brother Sayan wrote a commentary on the Adi Granth Veda of Hindu culture during the reign of Vedic Market Harihar II respectively.They understand the meaning of Vedas.In the time of the kings of Vijayanagar, invaluable books were written in Sanskrit literature.Buddhist, Jain and Brahmin votes were spread in South India.The kings of Vijayanagar adopted Shaivism, although Vaishnavas etc. also flourished due to their tolerance. | {
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39
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"Ramrai"
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} |
1418 | सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुग़ल सल्तनत के आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया। हिन्दू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परन्तु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मन्दिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं। विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबन्ध का संचालन करते थे। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की समस्त मन्त्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबन्ध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामन्त वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुन्दर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है। विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक-पृथक कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दण्ड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल सम्बन्धी कार्यों में व्यय किया जाता था। भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पण्डित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रन्थों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिन्दू संस्कृति के आदि ग्रन्थ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं। बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। | रामराय की हत्या कब हुई थी ? | {
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"1565 ई."
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508
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} | When was Ramrai murdered? | Even when he was on the throne, all his work was done by Ram Rai. After Sadashiv, Ram Rai became the master of Vijayanagara state and is considered the first emperor of the fourth dynasty Arvidu. Ram Rai's life was full of difficulties. For centuries, the Hindu kings of South India continued to oppose Islam, hence the hostility towards the Bahmani Sultans kept increasing. The Muslim army had good cannons and weapons, so the soldiers of the Vijayanagara state succumbed to the Islamic advances. The Muslim generals appointed by the Vijayanagara rulers surrounded the king, hence Ram Rai was killed in the battle of Talikot in 1565 AD. The Muslim army destroyed Vijayanagar which led to the loss of Indian culture in South India. Even among the weak rulers of Arvidu, the name of Vekantapatidev is especially noteworthy. He tried to suppress the heroes. Due to mutual war between Bahmani and Mughal emperors, it was freed from the attack of the Mughal Sultanate. One of the main events of his reign was the trade treaty with the Portuguese. Due to the tolerance of the ruler, foreigners were welcomed and Christian priests also started propagating the religion to some extent. Venkata's successors were weak. He failed as a ruler and the Vijayanagara state ceased to exist as the Nayaks became dominant. Vijayanagara state held an important place in the history of Hindu culture. Muslim soldiers and generals continued to serve in the Vijayanagara army, but this did not change the basic objective of Vijayanagara. Sayana's commentary on Vedic literature and construction of huge temples in the Vijayanagara kingdom are two such historical monuments which have made his name immortal even today. The rulers of Vijayanagara themselves administered the administration. The king did not accept all the advice of the central cabinet and took help from the capable prince for good management. The policy of governance depended on the ancient Indian system. In the far south, feudal lords existed who used to pay annual taxes and did all the work under the supervision of the prince. The police department continued to work cautiously for the protection of the people, which has been beautifully described by foreign writers. The rulers of Vijayanagar considered treasury as the most important among the seven organs of the state. He got the land measured and allocated barren and irrigated lands separately. Octroi, state tribute, financial penalty and taxes imposed on imports were their other sources of income. Vijayanagara was a war state, hence two parts of the income were spent on the army, the third part was kept as treasury and the fourth part was spent on charity and palace related works. The mention of Vijayanagara state is immortal in the history of Indian literature. In the Tungabhadra valley, Brahmin, Jain and Shaiva preachers adopted the Kannada language in which Ramayana, Mahabharata and Bhagavata were composed. Kumar Vyas emerged in this era. Apart from this, Bukka donated land to Telugu language poets. The court of Krishnadev Rai was adorned by skilled poets. Sanskrit literature grew beyond description. Vidyaranya was a scholar of many talents. Madhava, the famous minister of Vijayanagara state, had written the books Jaiminiya Nyayamala and Parasharmadhava related to Mimamsa and Theology respectively. His brother Sayana, during the reign of Vedic pioneer Harihar II, wrote a commentary on the Vedas, the primary text of Hindu culture, with the help of which we know today. Understand the meaning of Vedas. Invaluable books in Sanskrit literature were written during the time of Vijayanagara kings. Buddhism, Jainism and Brahminism had spread in South India. The kings of Vijayanagara adopted Shaivism, although due to their tolerance other religions like Vaishnavism also continued to flourish. | {
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508
],
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"1565 A.D."
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1419 | सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुग़ल सल्तनत के आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया। हिन्दू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परन्तु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मन्दिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं। विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबन्ध का संचालन करते थे। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की समस्त मन्त्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबन्ध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामन्त वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुन्दर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है। विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक-पृथक कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दण्ड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल सम्बन्धी कार्यों में व्यय किया जाता था। भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पण्डित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रन्थों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिन्दू संस्कृति के आदि ग्रन्थ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं। बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। | अरविदु के कमजोर शासकों में किनका का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है ? | {
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"वेकंटपतिदेव"
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681
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} | Among the weak rulers of Arvidu, whose name is particularly noteworthy? | Even when he was on the throne, all his work was done by Ram Rai. After Sadashiv, Ram Rai became the master of Vijayanagara state and is considered the first emperor of the fourth dynasty Arvidu. Ram Rai's life was full of difficulties. For centuries, the Hindu kings of South India continued to oppose Islam, hence the hostility towards the Bahmani Sultans kept increasing. The Muslim army had good cannons and weapons, so the soldiers of the Vijayanagara state succumbed to the Islamic advances. The Muslim generals appointed by the Vijayanagara rulers surrounded the king, hence Ram Rai was killed in the battle of Talikot in 1565 AD. The Muslim army destroyed Vijayanagar which led to the loss of Indian culture in South India. Even among the weak rulers of Arvidu, the name of Vekantapatidev is especially noteworthy. He tried to suppress the heroes. Due to mutual war between Bahmani and Mughal emperors, it was freed from the attack of the Mughal Sultanate. One of the main events of his reign was the trade treaty with the Portuguese. Due to the tolerance of the ruler, foreigners were welcomed and Christian priests also started propagating the religion to some extent. Venkata's successors were weak. He failed as a ruler and the Vijayanagara state ceased to exist as the Nayaks became dominant. Vijayanagara state held an important place in the history of Hindu culture. Muslim soldiers and generals continued to serve in the Vijayanagara army, but this did not change the basic objective of Vijayanagara. Sayana's commentary on Vedic literature and construction of huge temples in the Vijayanagara kingdom are two such historical monuments which have made his name immortal even today. The rulers of Vijayanagara themselves administered the administration. The king did not accept all the advice of the central cabinet and took help from the capable prince for good management. The policy of governance depended on the ancient Indian system. In the far south, feudal lords existed who used to pay annual taxes and did all the work under the supervision of the prince. The police department continued to work cautiously for the protection of the people, which has been beautifully described by foreign writers. The rulers of Vijayanagar considered treasury as the most important among the seven organs of the state. He got the land measured and allocated barren and irrigated lands separately. Octroi, state tribute, financial penalty and taxes imposed on imports were their other sources of income. Vijayanagara was a war state, hence two parts of the income were spent on the army, the third part was kept as treasury and the fourth part was spent on charity and palace related works. The mention of Vijayanagara state is immortal in the history of Indian literature. In the Tungabhadra valley, Brahmin, Jain and Shaiva preachers adopted the Kannada language in which Ramayana, Mahabharata and Bhagavata were composed. Kumar Vyas emerged in this era. Apart from this, Bukka donated land to Telugu language poets. The court of Krishnadev Rai was adorned by skilled poets. Sanskrit literature grew beyond description. Vidyaranya was a scholar of many talents. Madhava, the famous minister of Vijayanagara state, had written the books Jaiminiya Nyayamala and Parasharmadhava related to Mimamsa and Theology respectively. His brother Sayana, during the reign of Vedic pioneer Harihar II, wrote a commentary on the Vedas, the primary text of Hindu culture, with the help of which we know today. Understand the meaning of Vedas. Invaluable books in Sanskrit literature were written during the time of Vijayanagara kings. Buddhism, Jainism and Brahminism had spread in South India. The kings of Vijayanagara adopted Shaivism, although due to their tolerance other religions like Vaishnavism also continued to flourish. | {
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681
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"Vekantapatideva"
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} |
1420 | सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुग़ल सल्तनत के आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया। हिन्दू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परन्तु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मन्दिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं। विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबन्ध का संचालन करते थे। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की समस्त मन्त्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबन्ध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामन्त वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुन्दर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है। विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक-पृथक कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दण्ड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल सम्बन्धी कार्यों में व्यय किया जाता था। भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पण्डित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रन्थों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिन्दू संस्कृति के आदि ग्रन्थ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं। बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। | किस नगर शैली की वास्तुकला आज भी अपने मंदिरों में शासकों की प्रशंसा करती है ? | {
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} | Which city style of architecture still praises the rulers in their temples? | Even while on the throne, all his work was edited by Ramarai.After Sadashiva, Ramarai became the lord of the Vijayanagar state and considers it the first emperor of the fourth dynasty Arvidu.Ramarai's life was full of difficulties.For centuries, the Hindu King of South India has been opposing Islam, so enmity with Bahmani Sultans increased.The Muslim army had good cannons and weapons, so the soldiers of Vijayanagar state bowed to Islamic boost.The Muslim generals appointed by the Vijayanagar rulers surrounded the king, so Ramrai was killed in the war of Talikot in 1565 AD.The Muslim army destroyed Vijayanagar, causing damage to Indian culture in South India.The name of Vakentapati Dev is also notable among the weak rulers of Arvidu.He tried to suppress the heroes.He was freed from the invasion of the Mughal Sultanate due to mutual war in the Bahmani and Mughal emperors.The main events of its reign were the business treaty with the Portuguese.Foreigners were welcomed due to the tolerance of the ruler and the Christian pastor also started propagating religion to some extent.Venkat's successor was weak.They failed as a ruler and the existence of the state of Vijayanagar disappeared as the dominance of the heroes increased.The state of Vijayanagar had an important place in the history of Hindu culture.Muslim soldiers and commanders continued to work in Vijayanagar's army, but this did not change the basic objective of Vijayanagar.In the Vijayanagar state, Sayan has two such historical monuments by Sayan's vaccine and huge temples which are still immortal.The rulers of Vijayanagar themselves operated the governance.The king did not accept all the mantras of the Central Cabinet and used to take cooperation from the qualified prince for the cleanliness.The policy of governance on the ancient Indian system was dependent.In the far south, the feudal was present which used to make the annual and did all the work under the supervision of the prince.The police department continued to work vigilantly for the protection of the subjects, which has been described by foreign writers.The rulers of Vijayanagar considered the fund as head in the seven parts of the state.He measured the land and separated on the barren and irrigation land.The octroi, state gifts, economic punishment and imports were determined and their other means of income.Vijayanagar was a war state, so two parts of income were spent in the army, the third part would be safe as accumulated funds and the fourth part was spent in charity and palace related works.The state of Vijayanagar is mentioned in the history of Indian literature.In the valley of Tungabhadra, Brahmins, Jains and Shaivism preachers adopted Kannada language in which Ramayana, Mahabharata and Bhagwat were composed.Kumar Vyas emerged in this era.Apart from this, Bukk donated land to Telugu language poets.The court of Krishnadeva Rai was beautified by skilled poets.Sanskrit literature has a descriptive Shrivardhi.Vidyarayana was a pandit of multiplicity talent.Madhav, the famous minister of Vijayanagar state, composed the texts named Jaiminish Nyayamala and Parasharmadhav respectively, his brother Sayan wrote a commentary on the Adi Granth Veda of Hindu culture during the reign of Vedic Market Harihar II respectively.They understand the meaning of Vedas.In the time of the kings of Vijayanagar, invaluable books were written in Sanskrit literature.Buddhist, Jain and Brahmin votes were spread in South India.The kings of Vijayanagar adopted Shaivism, although Vaishnavas etc. also flourished due to their tolerance. | {
"answer_start": [
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],
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""
]
} |
1421 | सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुग़ल सल्तनत के आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया। हिन्दू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परन्तु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मन्दिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं। विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबन्ध का संचालन करते थे। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की समस्त मन्त्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबन्ध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामन्त वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुन्दर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है। विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक-पृथक कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दण्ड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल सम्बन्धी कार्यों में व्यय किया जाता था। भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पण्डित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रन्थों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिन्दू संस्कृति के आदि ग्रन्थ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं। बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। | रामराय किस युद्ध में मारे गए थे ? | {
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"तलिकोट के युद्ध"
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520
]
} | In which war was Ramrai killed? | Even while on the throne, all his work was edited by Ramarai.After Sadashiva, Ramarai became the lord of the Vijayanagar state and considers it the first emperor of the fourth dynasty Arvidu.Ramarai's life was full of difficulties.For centuries, the Hindu King of South India has been opposing Islam, so enmity with Bahmani Sultans increased.The Muslim army had good cannons and weapons, so the soldiers of Vijayanagar state bowed to Islamic boost.The Muslim generals appointed by the Vijayanagar rulers surrounded the king, so Ramrai was killed in the war of Talikot in 1565 AD.The Muslim army destroyed Vijayanagar, causing damage to Indian culture in South India.The name of Vakentapati Dev is also notable among the weak rulers of Arvidu.He tried to suppress the heroes.He was freed from the invasion of the Mughal Sultanate due to mutual war in the Bahmani and Mughal emperors.The main events of its reign were the business treaty with the Portuguese.Foreigners were welcomed due to the tolerance of the ruler and the Christian pastor also started propagating religion to some extent.Venkat's successor was weak.They failed as a ruler and the existence of the state of Vijayanagar disappeared as the dominance of the heroes increased.The state of Vijayanagar had an important place in the history of Hindu culture.Muslim soldiers and commanders continued to work in Vijayanagar's army, but this did not change the basic objective of Vijayanagar.In the Vijayanagar state, Sayan has two such historical monuments by Sayan's vaccine and huge temples which are still immortal.The rulers of Vijayanagar themselves operated the governance.The king did not accept all the mantras of the Central Cabinet and used to take cooperation from the qualified prince for the cleanliness.The policy of governance on the ancient Indian system was dependent.In the far south, the feudal was present which used to make the annual and did all the work under the supervision of the prince.The police department continued to work vigilantly for the protection of the subjects, which has been described by foreign writers.The rulers of Vijayanagar considered the fund as head in the seven parts of the state.He measured the land and separated on the barren and irrigation land.The octroi, state gifts, economic punishment and imports were determined and their other means of income.Vijayanagar was a war state, so two parts of income were spent in the army, the third part would be safe as accumulated funds and the fourth part was spent in charity and palace related works.The state of Vijayanagar is mentioned in the history of Indian literature.In the valley of Tungabhadra, Brahmins, Jains and Shaivism preachers adopted Kannada language in which Ramayana, Mahabharata and Bhagwat were composed.Kumar Vyas emerged in this era.Apart from this, Bukk donated land to Telugu language poets.The court of Krishnadeva Rai was beautified by skilled poets.Sanskrit literature has a descriptive Shrivardhi.Vidyarayana was a pandit of multiplicity talent.Madhav, the famous minister of Vijayanagar state, composed the texts named Jaiminish Nyayamala and Parasharmadhav respectively, his brother Sayan wrote a commentary on the Adi Granth Veda of Hindu culture during the reign of Vedic Market Harihar II respectively.They understand the meaning of Vedas.In the time of the kings of Vijayanagar, invaluable books were written in Sanskrit literature.Buddhist, Jain and Brahmin votes were spread in South India.The kings of Vijayanagar adopted Shaivism, although Vaishnavas etc. also flourished due to their tolerance. | {
"answer_start": [
520
],
"text": [
"The Battle of Talikote"
]
} |
1422 | सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुग़ल सल्तनत के आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया। हिन्दू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परन्तु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मन्दिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं। विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबन्ध का संचालन करते थे। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की समस्त मन्त्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबन्ध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामन्त वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुन्दर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है। विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक-पृथक कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दण्ड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल सम्बन्धी कार्यों में व्यय किया जाता था। भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पण्डित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रन्थों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिन्दू संस्कृति के आदि ग्रन्थ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के समय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं। बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। | विजयनगर राज्य के मंत्री माधव की किताबे किस संबंध पर आधारित थी ? | {
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"मीमांसा एवं धर्मशास्त्र सम्बन्धी"
],
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2822
]
} | On which relation was the book of Madhava, a minister in the Vijayanagara kingdom, based? | Even while on the throne, all his work was edited by Ramarai.After Sadashiva, Ramarai became the lord of the Vijayanagar state and considers it the first emperor of the fourth dynasty Arvidu.Ramarai's life was full of difficulties.For centuries, the Hindu King of South India has been opposing Islam, so enmity with Bahmani Sultans increased.The Muslim army had good cannons and weapons, so the soldiers of Vijayanagar state bowed to Islamic boost.The Muslim generals appointed by the Vijayanagar rulers surrounded the king, so Ramrai was killed in the war of Talikot in 1565 AD.The Muslim army destroyed Vijayanagar, causing damage to Indian culture in South India.The name of Vakentapati Dev is also notable among the weak rulers of Arvidu.He tried to suppress the heroes.He was freed from the invasion of the Mughal Sultanate due to mutual war in the Bahmani and Mughal emperors.The main events of its reign were the business treaty with the Portuguese.Foreigners were welcomed due to the tolerance of the ruler and the Christian pastor also started propagating religion to some extent.Venkat's successor was weak.They failed as a ruler and the existence of the state of Vijayanagar disappeared as the dominance of the heroes increased.The state of Vijayanagar had an important place in the history of Hindu culture.Muslim soldiers and commanders continued to work in Vijayanagar's army, but this did not change the basic objective of Vijayanagar.In the Vijayanagar state, Sayan has two such historical monuments by Sayan's vaccine and huge temples which are still immortal.The rulers of Vijayanagar themselves operated the governance.The king did not accept all the mantras of the Central Cabinet and used to take cooperation from the qualified prince for the cleanliness.The policy of governance on the ancient Indian system was dependent.In the far south, the feudal was present which used to make the annual and did all the work under the supervision of the prince.The police department continued to work vigilantly for the protection of the subjects, which has been described by foreign writers.The rulers of Vijayanagar considered the fund as head in the seven parts of the state.He measured the land and separated on the barren and irrigation land.The octroi, state gifts, economic punishment and imports were determined and their other means of income.Vijayanagar was a war state, so two parts of income were spent in the army, the third part would be safe as accumulated funds and the fourth part was spent in charity and palace related works.The state of Vijayanagar is mentioned in the history of Indian literature.In the valley of Tungabhadra, Brahmins, Jains and Shaivism preachers adopted Kannada language in which Ramayana, Mahabharata and Bhagwat were composed.Kumar Vyas emerged in this era.Apart from this, Bukk donated land to Telugu language poets.The court of Krishnadeva Rai was beautified by skilled poets.Sanskrit literature has a descriptive Shrivardhi.Vidyarayana was a pandit of multiplicity talent.Madhav, the famous minister of Vijayanagar state, composed the texts named Jaiminish Nyayamala and Parasharmadhav respectively, his brother Sayan wrote a commentary on the Adi Granth Veda of Hindu culture during the reign of Vedic Market Harihar II respectively.They understand the meaning of Vedas.In the time of the kings of Vijayanagar, invaluable books were written in Sanskrit literature.Buddhist, Jain and Brahmin votes were spread in South India.The kings of Vijayanagar adopted Shaivism, although Vaishnavas etc. also flourished due to their tolerance. | {
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2822
],
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"Mimamsa and Dharmashastra."
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} |
1423 | सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी, किंतु व्यापार एव पशुपालन भी प्रचलन में था। यहीं के निवासियों से विश्व में सबसे पहले कपास की खेती करना शुरू कियें| जिसे यूनान के लोगों ने सिन्डन कहने लगें| यहाँ के लोग आवस्यकता से अधिक अनाज का उत्पादन करते थे| इसके अलावे कपडा जौहरी का काम, मनके और ताबीज बनाने का काम भी प्रचलित था जिसे विदेशो में निर्यात किया जाता था|आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। यहाँ के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे-धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिण्डन (Sindon) कहने लगे। हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहाँ के लोग पशुपालन भी करते थे। | हड़प्पा के लोगों का दूसरा व्यवसाय क्या था ? | {
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],
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]
} | What was the second occupation of the Harappans? | The economy of Indus civilization was agricultural oriented, but trade and animal husbandry were also in circulation.It is the first to start cultivating cotton from the residents of the world.Which the people of Greece started calling Sindon.People here used to produce more grains than need.Apart from this, the work of clothes, bead and amulets was also prevalent, which was exported abroad. Indus state was very fertile in the east.In the fourth century Jesus, a historian of Alexander had said that Sindh was counted among the fertile areas of this country.There was a lot of natural vegetation in the past due to which there was good rainfall here.The wood was used extensively to cook bricks from the forests and build a building, due to which the expansion of forests gradually was reduced.One reason for the fertility of Indus was also floods coming from the Indus River every year.The floods of the ripe brick standing to protect the village indicate the floods every year.People here used to sow seeds in flooded grounds in the month of November after the floods came down and in the month of April before the next flood, wheat and barley crops were cut.No shovel or fall has been found here, but the kunat (hallakha) of Kalibanga's Prak-Harappa civilization has been realized that in Rajasthan, there were plows in this period.People of Indus Valley civilization produced grains of wheat, barley, rye, peas, tides etc.They used to produce two types of gahiu.The barley found in Branli is of advanced type.Apart from this, he also grown sesame and mustard.Cotton was also born here first.In this name, the people of Greece started saying this Sindon.Harappa was an agrarian culture but people here also used to do animal husbandry. | {
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],
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} |
1424 | सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी, किंतु व्यापार एव पशुपालन भी प्रचलन में था। यहीं के निवासियों से विश्व में सबसे पहले कपास की खेती करना शुरू कियें| जिसे यूनान के लोगों ने सिन्डन कहने लगें| यहाँ के लोग आवस्यकता से अधिक अनाज का उत्पादन करते थे| इसके अलावे कपडा जौहरी का काम, मनके और ताबीज बनाने का काम भी प्रचलित था जिसे विदेशो में निर्यात किया जाता था|आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। यहाँ के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे-धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिण्डन (Sindon) कहने लगे। हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहाँ के लोग पशुपालन भी करते थे। | सिंधु घाटी के लोग प्रमुख रूप से कौन सी फसल उपजाते थे ? | {
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"गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार"
],
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1253
]
} | What was the major crop grown by the people of the Indus Valley? | The economy of Indus civilization was agricultural oriented, but trade and animal husbandry were also in circulation.It is the first to start cultivating cotton from the residents of the world.Which the people of Greece started calling Sindon.People here used to produce more grains than need.Apart from this, the work of clothes, bead and amulets was also prevalent, which was exported abroad. Indus state was very fertile in the east.In the fourth century Jesus, a historian of Alexander had said that Sindh was counted among the fertile areas of this country.There was a lot of natural vegetation in the past due to which there was good rainfall here.The wood was used extensively to cook bricks from the forests and build a building, due to which the expansion of forests gradually was reduced.One reason for the fertility of Indus was also floods coming from the Indus River every year.The floods of the ripe brick standing to protect the village indicate the floods every year.People here used to sow seeds in flooded grounds in the month of November after the floods came down and in the month of April before the next flood, wheat and barley crops were cut.No shovel or fall has been found here, but the kunat (hallakha) of Kalibanga's Prak-Harappa civilization has been realized that in Rajasthan, there were plows in this period.People of Indus Valley civilization produced grains of wheat, barley, rye, peas, tides etc.They used to produce two types of gahiu.The barley found in Branli is of advanced type.Apart from this, he also grown sesame and mustard.Cotton was also born here first.In this name, the people of Greece started saying this Sindon.Harappa was an agrarian culture but people here also used to do animal husbandry. | {
"answer_start": [
1253
],
"text": [
"Wheat, barley, rye, peas, sorghum"
]
} |
1425 | सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी, किंतु व्यापार एव पशुपालन भी प्रचलन में था। यहीं के निवासियों से विश्व में सबसे पहले कपास की खेती करना शुरू कियें| जिसे यूनान के लोगों ने सिन्डन कहने लगें| यहाँ के लोग आवस्यकता से अधिक अनाज का उत्पादन करते थे| इसके अलावे कपडा जौहरी का काम, मनके और ताबीज बनाने का काम भी प्रचलित था जिसे विदेशो में निर्यात किया जाता था|आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। यहाँ के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे-धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिण्डन (Sindon) कहने लगे। हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहाँ के लोग पशुपालन भी करते थे। | सिंधु घाटी में कपास की खेती करने वाले लोगो को यूनानियों ने क्या नाम दिया था ? | {
"text": [
"सिन्डन"
],
"answer_start": [
182
]
} | What was the name given by the Greeks to the people who cultivated cotton in the Indus Valley? | The economy of Indus civilization was agricultural oriented, but trade and animal husbandry were also in circulation.It is the first to start cultivating cotton from the residents of the world.Which the people of Greece started calling Sindon.People here used to produce more grains than need.Apart from this, the work of clothes, bead and amulets was also prevalent, which was exported abroad. Indus state was very fertile in the east.In the fourth century Jesus, a historian of Alexander had said that Sindh was counted among the fertile areas of this country.There was a lot of natural vegetation in the past due to which there was good rainfall here.The wood was used extensively to cook bricks from the forests and build a building, due to which the expansion of forests gradually was reduced.One reason for the fertility of Indus was also floods coming from the Indus River every year.The floods of the ripe brick standing to protect the village indicate the floods every year.People here used to sow seeds in flooded grounds in the month of November after the floods came down and in the month of April before the next flood, wheat and barley crops were cut.No shovel or fall has been found here, but the kunat (hallakha) of Kalibanga's Prak-Harappa civilization has been realized that in Rajasthan, there were plows in this period.People of Indus Valley civilization produced grains of wheat, barley, rye, peas, tides etc.They used to produce two types of gahiu.The barley found in Branli is of advanced type.Apart from this, he also grown sesame and mustard.Cotton was also born here first.In this name, the people of Greece started saying this Sindon.Harappa was an agrarian culture but people here also used to do animal husbandry. | {
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182
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"sindon"
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1426 | सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी, किंतु व्यापार एव पशुपालन भी प्रचलन में था। यहीं के निवासियों से विश्व में सबसे पहले कपास की खेती करना शुरू कियें| जिसे यूनान के लोगों ने सिन्डन कहने लगें| यहाँ के लोग आवस्यकता से अधिक अनाज का उत्पादन करते थे| इसके अलावे कपडा जौहरी का काम, मनके और ताबीज बनाने का काम भी प्रचलित था जिसे विदेशो में निर्यात किया जाता था|आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। यहाँ के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे-धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिण्डन (Sindon) कहने लगे। हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहाँ के लोग पशुपालन भी करते थे। | किस क्षेत्र के लोगो ने दुनिया में सबसे पहले कपास की खेती की थी ? | {
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"सिन्धु"
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} | The people of which region were the first to cultivate cotton in the world? | The economy of the Indus Valley Civilization was agricultural, but trade and animal husbandry were also prevalent. The residents here were the first in the world to start cultivating cotton. Which the people of Greece started calling Sindon. The people here used to produce more grains than required. Apart from this, textile jeweller's work, making of beads and amulets were also popular which were exported to foreign countries. In comparison to today, Indus region was very fertile in the past. In the fourth century BC, a historian of Alexander had said that Sindh was counted among the fertile areas of this country. In earlier times, there was a lot of natural vegetation due to which there was good rainfall here. Wood from the forests here was used on a large scale for baking bricks and making buildings, due to which the extent of forests gradually shrank. One reason for the fertility of the Indus was the annual floods from the Indus River. The baked brick wall erected to protect the village indicates floods occurred every year. The people here would sow seeds in the flood plains in the month of November after the floods receded and harvest wheat and barley in the month of April before the next flood arrived. No spade or plow has been found here, but the plowshares from the Pre-Harappan civilization of Kalibanga that have been found indicate that plows were used in Rajasthan during this period. The people of Indus Valley Civilization used to grow grains like wheat, barley, rye, peas, sorghum etc. They produced two types of wheat. The barley found in Banwali is of advanced quality. Apart from this, he also grew sesame and mustard. Cotton was also first produced here. After this name, the people of Greece started calling it Sindon. Harappa was an agricultural culture but the people here also practiced animal husbandry. | {
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"Sindhu"
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1427 | सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच॰ आर॰ ए॰ का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये। बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। | काकोरी ट्रेन डकैती क्रांतिकारी डकैत द्वारा एक सुनियोजित साजिश थी यह किसने सुनिश्चित की थी ? | {
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"सी॰ आई॰ डी॰"
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} | Who had ensured that the Kakori train robbery was a well-planned conspiracy by the revolutionary dacoit? | CID, after a serious investigation, confirmed to the government that the Kakori train robbery was a well-planned conspiracy by revolutionaries. The police put up advertisements at all prominent places announcing a reward for providing information regarding the Kakori incident and arresting anyone involved in the conspiracy. The result was that the police came to know from the washerman's mark on the bedsheet found at the spot that the bedsheet belonged to someone from Shahjahanpur. On asking the washermen of Shahjahanpur, it was found that the bedsheet belonged to Banarasi Lal. The police obtained all the secrets by meeting Banarasi Lal. It was also known that which people of his party had gone out of the city from Shahjahanpur on 9 August 1925 and when did they return? When it was secretly confirmed that Ram Prasad Bismil, who was the leader of H.R.A., was not in the city that day, more than 40 people from all over India accompanied Bismil on the night of 26 September 1925. Was arrested. Only 10 people were actually involved in the Kakori incident, hence all of them were named. Of these, except five - Chandrashekhar Azad, Murari Sharma (pseudonym), Keshav Chakraborty (pseudonym), Ashfaq Ullah Khan and Shachindra Nath Bakshi, who were not caught by the police, all the remaining persons were prosecuted and sentenced to imprisonment ranging from 5 years to The sentence was even death sentence. Apart from the absconding accused, 16 of the revolutionaries who were arrested on suspicion of being active workers of HRA were released due to lack of evidence. Special Magistrate Ainuddin left no stone unturned in tarnishing the image of every revolutionary. Not only this, even before sending the case to the Sessions Court, all the witnesses and evidence were collected so that even if an appeal was made, not a single accused would be left without punishment. Banarasi Lal was taken out of the lockup by the police under the threat of severe punishment. This same Banarasi had a fight with Bismil regarding party funds in Shahjahanpur District Congress Committee. | {
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"C.I.D."
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1428 | सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच॰ आर॰ ए॰ का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये। बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। | काकोरी प्रकरण में कितने लोग शामिल थे ? | {
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"पाँच"
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} | How many people were involved in the Kakori episode? | CID, after a serious investigation, confirmed to the government that the Kakori train robbery was a well-planned conspiracy by revolutionaries. The police put up advertisements at all prominent places announcing a reward for providing information regarding the Kakori incident and arresting anyone involved in the conspiracy. The result was that the police came to know from the washerman's mark on the bedsheet found at the spot that the bedsheet belonged to someone from Shahjahanpur. On asking the washermen of Shahjahanpur, it was found that the bedsheet belonged to Banarasi Lal. The police obtained all the secrets by meeting Banarasi Lal. It was also known that which people of his party had gone out of the city from Shahjahanpur on 9 August 1925 and when did they return? When it was secretly confirmed that Ram Prasad Bismil, who was the leader of H.R.A., was not in the city that day, more than 40 people from all over India accompanied Bismil on the night of 26 September 1925. Was arrested. Only 10 people were actually involved in the Kakori incident, hence all of them were named. Of these, except five - Chandrashekhar Azad, Murari Sharma (pseudonym), Keshav Chakraborty (pseudonym), Ashfaq Ullah Khan and Shachindra Nath Bakshi, who were not caught by the police, all the remaining persons were prosecuted and sentenced to imprisonment ranging from 5 years to The sentence was even death sentence. Apart from the absconding accused, 16 of the revolutionaries who were arrested on suspicion of being active workers of HRA were released due to lack of evidence. Special Magistrate Ainuddin left no stone unturned in tarnishing the image of every revolutionary. Not only this, even before sending the case to the Sessions Court, all the witnesses and evidence were collected so that even if an appeal was made, not a single accused would be left without punishment. Banarasi Lal was taken out of the lockup by the police under the threat of severe punishment. This same Banarasi had a fight with Bismil regarding party funds in Shahjahanpur District Congress Committee. | {
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"Five"
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1429 | सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच॰ आर॰ ए॰ का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये। बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। | काकोरी प्रकरण में शामिल लोगों को कितने साल की सज़ा दी गई थी ? | {
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"५ वर्ष"
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} | How many years were the people involved in the Kakori episode sentenced to? | CID, after a serious investigation, confirmed to the government that the Kakori train robbery was a well-planned conspiracy by revolutionaries. The police put up advertisements at all prominent places announcing a reward for providing information regarding the Kakori incident and arresting anyone involved in the conspiracy. The result was that the police came to know from the washerman's mark on the bedsheet found at the spot that the bedsheet belonged to someone from Shahjahanpur. On asking the washermen of Shahjahanpur, it was found that the bedsheet belonged to Banarasi Lal. The police obtained all the secrets by meeting Banarasi Lal. It was also known that which people of his party had gone out of the city from Shahjahanpur on 9 August 1925 and when did they return? When it was secretly confirmed that Ram Prasad Bismil, who was the leader of H.R.A., was not in the city that day, more than 40 people from all over India accompanied Bismil on the night of 26 September 1925. Was arrested. Only 10 people were actually involved in the Kakori incident, hence all of them were named. Of these, except five - Chandrashekhar Azad, Murari Sharma (pseudonym), Keshav Chakraborty (pseudonym), Ashfaq Ullah Khan and Shachindra Nath Bakshi, who were not caught by the police, all the remaining persons were prosecuted and sentenced to imprisonment ranging from 5 years to The sentence was even death sentence. Apart from the absconding accused, 16 of the revolutionaries who were arrested on suspicion of being active workers of HRA were released due to lack of evidence. Special Magistrate Ainuddin left no stone unturned in tarnishing the image of every revolutionary. Not only this, even before sending the case to the Sessions Court, all the witnesses and evidence were collected so that even if an appeal was made, not a single accused would be left without punishment. Banarasi Lal was taken out of the lockup by the police under the threat of severe punishment. This same Banarasi had a fight with Bismil regarding party funds in Shahjahanpur District Congress Committee. | {
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1201
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"5 years"
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1430 | सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच॰ आर॰ ए॰ का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये। बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। | गांधीजी शाहजहाँपुर कब आए थे ? | {
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} | When did Gandhiji come to Shahjahanpur? | CID, after a serious investigation, confirmed to the government that the Kakori train robbery was a well-planned conspiracy by revolutionaries. The police put up advertisements at all prominent places announcing a reward for providing information regarding the Kakori incident and arresting anyone involved in the conspiracy. The result was that the police came to know from the washerman's mark on the bedsheet found at the spot that the bedsheet belonged to someone from Shahjahanpur. On asking the washermen of Shahjahanpur, it was found that the bedsheet belonged to Banarasi Lal. The police obtained all the secrets by meeting Banarasi Lal. It was also known that which people of his party had gone out of the city from Shahjahanpur on 9 August 1925 and when did they return? When it was secretly confirmed that Ram Prasad Bismil, who was the leader of H.R.A., was not in the city that day, more than 40 people from all over India accompanied Bismil on the night of 26 September 1925. Was arrested. Only 10 people were actually involved in the Kakori incident, hence all of them were named. Of these, except five - Chandrashekhar Azad, Murari Sharma (pseudonym), Keshav Chakraborty (pseudonym), Ashfaq Ullah Khan and Shachindra Nath Bakshi, who were not caught by the police, all the remaining persons were prosecuted and sentenced to imprisonment ranging from 5 years to The sentence was even death sentence. Apart from the absconding accused, 16 of the revolutionaries who were arrested on suspicion of being active workers of HRA were released due to lack of evidence. Special Magistrate Ainuddin left no stone unturned in tarnishing the image of every revolutionary. Not only this, even before sending the case to the Sessions Court, all the witnesses and evidence were collected so that even if an appeal was made, not a single accused would be left without punishment. Banarasi Lal was taken out of the lockup by the police under the threat of severe punishment. This same Banarasi had a fight with Bismil regarding party funds in Shahjahanpur District Congress Committee. | {
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1431 | सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच॰ आर॰ ए॰ का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये। बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। | एचआरए के नेता कौन थे ? | {
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"राम प्रसाद बिस्मिल"
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} | Who were the leaders of the HRA? | CID, after a serious investigation, confirmed to the government that the Kakori train robbery was a well-planned conspiracy by revolutionaries. The police put up advertisements at all prominent places announcing a reward for providing information regarding the Kakori incident and arresting anyone involved in the conspiracy. The result was that the police came to know from the washerman's mark on the bedsheet found at the spot that the bedsheet belonged to someone from Shahjahanpur. On asking the washermen of Shahjahanpur, it was found that the bedsheet belonged to Banarasi Lal. The police obtained all the secrets by meeting Banarasi Lal. It was also known that which people of his party had gone out of the city from Shahjahanpur on 9 August 1925 and when did they return? When it was secretly confirmed that Ram Prasad Bismil, who was the leader of H.R.A., was not in the city that day, more than 40 people from all over India accompanied Bismil on the night of 26 September 1925. Was arrested. Only 10 people were actually involved in the Kakori incident, hence all of them were named. Of these, except five - Chandrashekhar Azad, Murari Sharma (pseudonym), Keshav Chakraborty (pseudonym), Ashfaq Ullah Khan and Shachindra Nath Bakshi, who were not caught by the police, all the remaining persons were prosecuted and sentenced to imprisonment ranging from 5 years to The sentence was even death sentence. Apart from the absconding accused, 16 of the revolutionaries who were arrested on suspicion of being active workers of HRA were released due to lack of evidence. Special Magistrate Ainuddin left no stone unturned in tarnishing the image of every revolutionary. Not only this, even before sending the case to the Sessions Court, all the witnesses and evidence were collected so that even if an appeal was made, not a single accused would be left without punishment. Banarasi Lal was taken out of the lockup by the police under the threat of severe punishment. This same Banarasi had a fight with Bismil regarding party funds in Shahjahanpur District Congress Committee. | {
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"Ram Prasad Bismil"
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1432 | सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच॰ आर॰ ए॰ का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये। बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। | बिस्मिल किस कमेटी के ऑडिटर थे ? | {
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} | Bismil was the auditor of which committee? | CID, after a serious investigation, confirmed to the government that the Kakori train robbery was a well-planned conspiracy by revolutionaries. The police put up advertisements at all prominent places announcing a reward for providing information regarding the Kakori incident and arresting anyone involved in the conspiracy. The result was that the police came to know from the washerman's mark on the bedsheet found at the spot that the bedsheet belonged to someone from Shahjahanpur. On asking the washermen of Shahjahanpur, it was found that the bedsheet belonged to Banarasi Lal. The police obtained all the secrets by meeting Banarasi Lal. It was also known that which people of his party had gone out of the city from Shahjahanpur on 9 August 1925 and when did they return? When it was secretly confirmed that Ram Prasad Bismil, who was the leader of H.R.A., was not in the city that day, more than 40 people from all over India accompanied Bismil on the night of 26 September 1925. Was arrested. Only 10 people were actually involved in the Kakori incident, hence all of them were named. Of these, except five - Chandrashekhar Azad, Murari Sharma (pseudonym), Keshav Chakraborty (pseudonym), Ashfaq Ullah Khan and Shachindra Nath Bakshi, who were not caught by the police, all the remaining persons were prosecuted and sentenced to imprisonment ranging from 5 years to The sentence was even death sentence. Apart from the absconding accused, 16 of the revolutionaries who were arrested on suspicion of being active workers of HRA were released due to lack of evidence. Special Magistrate Ainuddin left no stone unturned in tarnishing the image of every revolutionary. Not only this, even before sending the case to the Sessions Court, all the witnesses and evidence were collected so that even if an appeal was made, not a single accused would be left without punishment. Banarasi Lal was taken out of the lockup by the police under the threat of severe punishment. This same Banarasi had a fight with Bismil regarding party funds in Shahjahanpur District Congress Committee. | {
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1433 | सुरैय्या आजीवन कुंवारी ही रहीं! देव आनंद ने अभी कुछ ही समय पहले स्वीकार किया, की वो उनसे प्यार करते थे, यदि उनकी शादी सुरैया के साथ हो गयी होती तो उनका जीवन शायद कुछ और ही होता। १९६५ में उनकी पहली रंगीन फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था गाइड, ये एक मशहूर लेखक आर के नारायण के अपन्यास पर आधारित थी, जिसका निर्माण उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था, इस फ़िल्म में देव आनंद के साथ थीं वहीदा रहमान! ये फ़िल्म देव साहब ही बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, जिसके बारे में कहा जाता है की अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फ़िल्म सिर्फ एक बार ही बनती है। उसके बाद उन्होंने विजय आनंद के साथ मिल कर एक और फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था ज्वेल थीफ, इसमें उनके साथ थीं, वैजयंती माला, तनूजा, अंजू महिन्द्रू और हेलेन! इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म थी जॉनी मेरा नाम, जो उस समय सफलतम फ़िल्मों में से एक थी। १९७० में बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म आई प्रेम पुजारी, जो सफल नहीं हुई, लेकिन अगले ही वर्ष उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म हरे राम हरे कृष्णा ने सफलता का स्वाद चखा इस फ़िल्म में उनकी खोज ज़ीनत अमान ने "जेनिस" नाम की लड़की का किरदार निभाया, जो माता पिता के तनाव से तंग आ कर हिप्पियों के समूह में शामिल हो जाती है। इसी वर्ष उनकी एक और फ़िल्म तेरे मेरे सपने पर्दर्शित हुई, जिसमें उनके साथ थीं मुमताज़, ये फ़िल्म ए.जे क्रोनिन के उपन्यास The Citadel पर आधारित थी, इस फ़िल्म को उनके भाई विजय आनंद द्वारा निर्देशित किया गया था! ज़ीनत अमान के बाद उनकी नयी खोज थी टीना मुनीम, जिनके साथ उन्होंने १९७८ में फ़िल्म देस परदेस का निर्माण किया, ये भी उनकी एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में उन्होंने एक राजनितिक दल नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया का निर्माण किया, जो की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ था ! लेकिन ये राजनितिक दल ज्यादा समय तक नहीं रहा। देव आनंद की फ़िल्में उनके संगीत के कारण भी प्रसिद्ध है, उनकी फ़िल्मों का संगीत आज भी लोगों को मंत्र मुग्ध करता है! सितम्बर २००७ में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रदर्शित की गयी, जहाँ भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी उपस्थित थे। | देवानंद द्वारा किस वर्ष राजनितिक पार्टी का गठन किया गया ? | {
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"१९७७"
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} | In which year was a political party formed by Devananda? | Suraiya remained a virgin all her life! Dev Anand recently admitted that he loved her and if he had married Suraiya, his life might have been different. His first color film was released in 1965, named Guide, it was based on the novel by a famous writer RK Narayan, which was produced by his younger brother Vijay Anand. Waheeda Rehman was with Dev Anand in this film. This film Dev Saheb is one of the best films, about which it is said that Guide can never be made again, such a film is made only once. After that, he produced another film with Vijay Anand, named Jewel Thief, in which he was accompanied by Vyjayanti Mala, Tanuja, Anju Mahindru and Helen! After this, his next film was Johnny Mera Naam, which was one of the most successful films at that time. In 1970, his first film as a director was Prem Pujari, which was not successful, but the very next year he tasted success with the film Hare Ram Hare Krishna. In this film, his discovery Zeenat Aman played the character of a girl named "Janice". , who, fed up with the stress of her parents, joins a group of hippies. In the same year, his another film Tere Mere Sapne was released, in which Mumtaz was with him, this film was based on A.J Cronin's novel The Citadel, this film was directed by his brother Vijay Anand. After Zeenat Aman, his new discovery was Tina Munim, with whom he produced the film Des Pardes in 1978, which was also a successful film. In 1977, he formed a political party, National Party of India, which was against the then Prime Minister Mrs. Indira Gandhi. But this political party did not last long. Dev Anand's films are also famous because of his music, the music of his films still mesmerizes people. In September 2007, his autobiography Romancing with Life was released on the occasion of his birthday, where the Prime Minister of India, Shri Manmohan Singh was also present. | {
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"1977."
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1434 | सुरैय्या आजीवन कुंवारी ही रहीं! देव आनंद ने अभी कुछ ही समय पहले स्वीकार किया, की वो उनसे प्यार करते थे, यदि उनकी शादी सुरैया के साथ हो गयी होती तो उनका जीवन शायद कुछ और ही होता। १९६५ में उनकी पहली रंगीन फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था गाइड, ये एक मशहूर लेखक आर के नारायण के अपन्यास पर आधारित थी, जिसका निर्माण उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था, इस फ़िल्म में देव आनंद के साथ थीं वहीदा रहमान! ये फ़िल्म देव साहब ही बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, जिसके बारे में कहा जाता है की अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फ़िल्म सिर्फ एक बार ही बनती है। उसके बाद उन्होंने विजय आनंद के साथ मिल कर एक और फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था ज्वेल थीफ, इसमें उनके साथ थीं, वैजयंती माला, तनूजा, अंजू महिन्द्रू और हेलेन! इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म थी जॉनी मेरा नाम, जो उस समय सफलतम फ़िल्मों में से एक थी। १९७० में बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म आई प्रेम पुजारी, जो सफल नहीं हुई, लेकिन अगले ही वर्ष उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म हरे राम हरे कृष्णा ने सफलता का स्वाद चखा इस फ़िल्म में उनकी खोज ज़ीनत अमान ने "जेनिस" नाम की लड़की का किरदार निभाया, जो माता पिता के तनाव से तंग आ कर हिप्पियों के समूह में शामिल हो जाती है। इसी वर्ष उनकी एक और फ़िल्म तेरे मेरे सपने पर्दर्शित हुई, जिसमें उनके साथ थीं मुमताज़, ये फ़िल्म ए.जे क्रोनिन के उपन्यास The Citadel पर आधारित थी, इस फ़िल्म को उनके भाई विजय आनंद द्वारा निर्देशित किया गया था! ज़ीनत अमान के बाद उनकी नयी खोज थी टीना मुनीम, जिनके साथ उन्होंने १९७८ में फ़िल्म देस परदेस का निर्माण किया, ये भी उनकी एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में उन्होंने एक राजनितिक दल नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया का निर्माण किया, जो की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ था ! लेकिन ये राजनितिक दल ज्यादा समय तक नहीं रहा। देव आनंद की फ़िल्में उनके संगीत के कारण भी प्रसिद्ध है, उनकी फ़िल्मों का संगीत आज भी लोगों को मंत्र मुग्ध करता है! सितम्बर २००७ में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रदर्शित की गयी, जहाँ भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी उपस्थित थे। | देव आनंद ने विजय आनंद के साथ किस फिल्म में काम किया था ? | {
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"गाइड"
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236
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} | In which film did Dev Anand work with Vijay Anand? | Suraiya remained a virgin all her life! Dev Anand recently admitted that he loved her and if he had married Suraiya, his life might have been different. His first color film was released in 1965, named Guide, it was based on the novel by a famous writer RK Narayan, which was produced by his younger brother Vijay Anand. Waheeda Rehman was with Dev Anand in this film. This film Dev Saheb is one of the best films, about which it is said that Guide can never be made again, such a film is made only once. After that, he produced another film with Vijay Anand, named Jewel Thief, in which he was accompanied by Vyjayanti Mala, Tanuja, Anju Mahindru and Helen! After this, his next film was Johnny Mera Naam, which was one of the most successful films at that time. In 1970, his first film as a director was Prem Pujari, which was not successful, but the very next year he tasted success with the film Hare Ram Hare Krishna. In this film, his discovery Zeenat Aman played the character of a girl named "Janice". , who, fed up with the stress of her parents, joins a group of hippies. In the same year, his another film Tere Mere Sapne was released, in which Mumtaz was with him, this film was based on A.J Cronin's novel The Citadel, this film was directed by his brother Vijay Anand. After Zeenat Aman, his new discovery was Tina Munim, with whom he produced the film Des Pardes in 1978, which was also a successful film. In 1977, he formed a political party, National Party of India, which was against the then Prime Minister Mrs. Indira Gandhi. But this political party did not last long. Dev Anand's films are also famous because of his music, the music of his films still mesmerizes people. In September 2007, his autobiography Romancing with Life was released on the occasion of his birthday, where the Prime Minister of India, Shri Manmohan Singh was also present. | {
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"Guide"
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1435 | सुरैय्या आजीवन कुंवारी ही रहीं! देव आनंद ने अभी कुछ ही समय पहले स्वीकार किया, की वो उनसे प्यार करते थे, यदि उनकी शादी सुरैया के साथ हो गयी होती तो उनका जीवन शायद कुछ और ही होता। १९६५ में उनकी पहली रंगीन फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था गाइड, ये एक मशहूर लेखक आर के नारायण के अपन्यास पर आधारित थी, जिसका निर्माण उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था, इस फ़िल्म में देव आनंद के साथ थीं वहीदा रहमान! ये फ़िल्म देव साहब ही बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, जिसके बारे में कहा जाता है की अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फ़िल्म सिर्फ एक बार ही बनती है। उसके बाद उन्होंने विजय आनंद के साथ मिल कर एक और फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था ज्वेल थीफ, इसमें उनके साथ थीं, वैजयंती माला, तनूजा, अंजू महिन्द्रू और हेलेन! इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म थी जॉनी मेरा नाम, जो उस समय सफलतम फ़िल्मों में से एक थी। १९७० में बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म आई प्रेम पुजारी, जो सफल नहीं हुई, लेकिन अगले ही वर्ष उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म हरे राम हरे कृष्णा ने सफलता का स्वाद चखा इस फ़िल्म में उनकी खोज ज़ीनत अमान ने "जेनिस" नाम की लड़की का किरदार निभाया, जो माता पिता के तनाव से तंग आ कर हिप्पियों के समूह में शामिल हो जाती है। इसी वर्ष उनकी एक और फ़िल्म तेरे मेरे सपने पर्दर्शित हुई, जिसमें उनके साथ थीं मुमताज़, ये फ़िल्म ए.जे क्रोनिन के उपन्यास The Citadel पर आधारित थी, इस फ़िल्म को उनके भाई विजय आनंद द्वारा निर्देशित किया गया था! ज़ीनत अमान के बाद उनकी नयी खोज थी टीना मुनीम, जिनके साथ उन्होंने १९७८ में फ़िल्म देस परदेस का निर्माण किया, ये भी उनकी एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में उन्होंने एक राजनितिक दल नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया का निर्माण किया, जो की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ था ! लेकिन ये राजनितिक दल ज्यादा समय तक नहीं रहा। देव आनंद की फ़िल्में उनके संगीत के कारण भी प्रसिद्ध है, उनकी फ़िल्मों का संगीत आज भी लोगों को मंत्र मुग्ध करता है! सितम्बर २००७ में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रदर्शित की गयी, जहाँ भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी उपस्थित थे। | देव आनंद की आत्मकथा का क्या नाम है ? | {
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"रोमांसिंग विद लाइफ"
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} | What is the name of Dev Anand's autobiography? | Suraiya remained a virgin all her life! Dev Anand recently admitted that he loved her and if he had married Suraiya, his life might have been different. His first color film was released in 1965, named Guide, it was based on the novel by a famous writer RK Narayan, which was produced by his younger brother Vijay Anand. Waheeda Rehman was with Dev Anand in this film. This film Dev Saheb is one of the best films, about which it is said that Guide can never be made again, such a film is made only once. After that, he produced another film with Vijay Anand, named Jewel Thief, in which he was accompanied by Vyjayanti Mala, Tanuja, Anju Mahindru and Helen! After this, his next film was Johnny Mera Naam, which was one of the most successful films at that time. In 1970, his first film as a director was Prem Pujari, which was not successful, but the very next year he tasted success with the film Hare Ram Hare Krishna. In this film, his discovery Zeenat Aman played the character of a girl named "Janice". , who, fed up with the stress of her parents, joins a group of hippies. In the same year, his another film Tere Mere Sapne was released, in which Mumtaz was with him, this film was based on A.J Cronin's novel The Citadel, this film was directed by his brother Vijay Anand. After Zeenat Aman, his new discovery was Tina Munim, with whom he produced the film Des Pardes in 1978, which was also a successful film. In 1977, he formed a political party, National Party of India, which was against the then Prime Minister Mrs. Indira Gandhi. But this political party did not last long. Dev Anand's films are also famous because of his music, the music of his films still mesmerizes people. In September 2007, his autobiography Romancing with Life was released on the occasion of his birthday, where the Prime Minister of India, Shri Manmohan Singh was also present. | {
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1766
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"Romance with life"
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1436 | सुरैय्या आजीवन कुंवारी ही रहीं! देव आनंद ने अभी कुछ ही समय पहले स्वीकार किया, की वो उनसे प्यार करते थे, यदि उनकी शादी सुरैया के साथ हो गयी होती तो उनका जीवन शायद कुछ और ही होता। १९६५ में उनकी पहली रंगीन फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था गाइड, ये एक मशहूर लेखक आर के नारायण के अपन्यास पर आधारित थी, जिसका निर्माण उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था, इस फ़िल्म में देव आनंद के साथ थीं वहीदा रहमान! ये फ़िल्म देव साहब ही बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, जिसके बारे में कहा जाता है की अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फ़िल्म सिर्फ एक बार ही बनती है। उसके बाद उन्होंने विजय आनंद के साथ मिल कर एक और फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था ज्वेल थीफ, इसमें उनके साथ थीं, वैजयंती माला, तनूजा, अंजू महिन्द्रू और हेलेन! इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म थी जॉनी मेरा नाम, जो उस समय सफलतम फ़िल्मों में से एक थी। १९७० में बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म आई प्रेम पुजारी, जो सफल नहीं हुई, लेकिन अगले ही वर्ष उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म हरे राम हरे कृष्णा ने सफलता का स्वाद चखा इस फ़िल्म में उनकी खोज ज़ीनत अमान ने "जेनिस" नाम की लड़की का किरदार निभाया, जो माता पिता के तनाव से तंग आ कर हिप्पियों के समूह में शामिल हो जाती है। इसी वर्ष उनकी एक और फ़िल्म तेरे मेरे सपने पर्दर्शित हुई, जिसमें उनके साथ थीं मुमताज़, ये फ़िल्म ए.जे क्रोनिन के उपन्यास The Citadel पर आधारित थी, इस फ़िल्म को उनके भाई विजय आनंद द्वारा निर्देशित किया गया था! ज़ीनत अमान के बाद उनकी नयी खोज थी टीना मुनीम, जिनके साथ उन्होंने १९७८ में फ़िल्म देस परदेस का निर्माण किया, ये भी उनकी एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में उन्होंने एक राजनितिक दल नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया का निर्माण किया, जो की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ था ! लेकिन ये राजनितिक दल ज्यादा समय तक नहीं रहा। देव आनंद की फ़िल्में उनके संगीत के कारण भी प्रसिद्ध है, उनकी फ़िल्मों का संगीत आज भी लोगों को मंत्र मुग्ध करता है! सितम्बर २००७ में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रदर्शित की गयी, जहाँ भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी उपस्थित थे। | देव आनंद की आत्मकथा कब प्रकाशित हुई थी ? | {
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"२००७"
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} | When was Dev Anand's autobiography published? | Suraiya remained a virgin all her life! Dev Anand recently admitted that he loved her and if he had married Suraiya, his life might have been different. His first color film was released in 1965, named Guide, it was based on the novel by a famous writer RK Narayan, which was produced by his younger brother Vijay Anand. Waheeda Rehman was with Dev Anand in this film. This film Dev Saheb is one of the best films, about which it is said that Guide can never be made again, such a film is made only once. After that, he produced another film with Vijay Anand, named Jewel Thief, in which he was accompanied by Vyjayanti Mala, Tanuja, Anju Mahindru and Helen! After this, his next film was Johnny Mera Naam, which was one of the most successful films at that time. In 1970, his first film as a director was Prem Pujari, which was not successful, but the very next year he tasted success with the film Hare Ram Hare Krishna. In this film, his discovery Zeenat Aman played the character of a girl named "Janice". , who, fed up with the stress of her parents, joins a group of hippies. In the same year, his another film Tere Mere Sapne was released, in which Mumtaz was with him, this film was based on A.J Cronin's novel The Citadel, this film was directed by his brother Vijay Anand. After Zeenat Aman, his new discovery was Tina Munim, with whom he produced the film Des Pardes in 1978, which was also a successful film. In 1977, he formed a political party, National Party of India, which was against the then Prime Minister Mrs. Indira Gandhi. But this political party did not last long. Dev Anand's films are also famous because of his music, the music of his films still mesmerizes people. In September 2007, his autobiography Romancing with Life was released on the occasion of his birthday, where the Prime Minister of India, Shri Manmohan Singh was also present. | {
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1743
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"2007"
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1437 | सुरैय्या आजीवन कुंवारी ही रहीं! देव आनंद ने अभी कुछ ही समय पहले स्वीकार किया, की वो उनसे प्यार करते थे, यदि उनकी शादी सुरैया के साथ हो गयी होती तो उनका जीवन शायद कुछ और ही होता। १९६५ में उनकी पहली रंगीन फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था गाइड, ये एक मशहूर लेखक आर के नारायण के अपन्यास पर आधारित थी, जिसका निर्माण उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था, इस फ़िल्म में देव आनंद के साथ थीं वहीदा रहमान! ये फ़िल्म देव साहब ही बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, जिसके बारे में कहा जाता है की अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फ़िल्म सिर्फ एक बार ही बनती है। उसके बाद उन्होंने विजय आनंद के साथ मिल कर एक और फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था ज्वेल थीफ, इसमें उनके साथ थीं, वैजयंती माला, तनूजा, अंजू महिन्द्रू और हेलेन! इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म थी जॉनी मेरा नाम, जो उस समय सफलतम फ़िल्मों में से एक थी। १९७० में बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म आई प्रेम पुजारी, जो सफल नहीं हुई, लेकिन अगले ही वर्ष उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म हरे राम हरे कृष्णा ने सफलता का स्वाद चखा इस फ़िल्म में उनकी खोज ज़ीनत अमान ने "जेनिस" नाम की लड़की का किरदार निभाया, जो माता पिता के तनाव से तंग आ कर हिप्पियों के समूह में शामिल हो जाती है। इसी वर्ष उनकी एक और फ़िल्म तेरे मेरे सपने पर्दर्शित हुई, जिसमें उनके साथ थीं मुमताज़, ये फ़िल्म ए.जे क्रोनिन के उपन्यास The Citadel पर आधारित थी, इस फ़िल्म को उनके भाई विजय आनंद द्वारा निर्देशित किया गया था! ज़ीनत अमान के बाद उनकी नयी खोज थी टीना मुनीम, जिनके साथ उन्होंने १९७८ में फ़िल्म देस परदेस का निर्माण किया, ये भी उनकी एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में उन्होंने एक राजनितिक दल नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया का निर्माण किया, जो की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ था ! लेकिन ये राजनितिक दल ज्यादा समय तक नहीं रहा। देव आनंद की फ़िल्में उनके संगीत के कारण भी प्रसिद्ध है, उनकी फ़िल्मों का संगीत आज भी लोगों को मंत्र मुग्ध करता है! सितम्बर २००७ में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रदर्शित की गयी, जहाँ भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी उपस्थित थे। | देव आनंद की पहली फिल्म "मैं प्रेम पुजारी" को कब सफलता मिली थी ? | {
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} | When was Dev Anand's first film "Main Prem Pujari" a success? | Suraiya remained a virgin all her life! Dev Anand recently admitted that he loved her and if he had married Suraiya, his life might have been different. His first color film was released in 1965, named Guide, it was based on the novel by a famous writer RK Narayan, which was produced by his younger brother Vijay Anand. Waheeda Rehman was with Dev Anand in this film. This film Dev Saheb is one of the best films, about which it is said that Guide can never be made again, such a film is made only once. After that, he produced another film with Vijay Anand, named Jewel Thief, in which he was accompanied by Vyjayanti Mala, Tanuja, Anju Mahindru and Helen! After this, his next film was Johnny Mera Naam, which was one of the most successful films at that time. In 1970, his first film as a director was Prem Pujari, which was not successful, but the very next year he tasted success with the film Hare Ram Hare Krishna. In this film, his discovery Zeenat Aman played the character of a girl named "Janice". , who, fed up with the stress of her parents, joins a group of hippies. In the same year, his another film Tere Mere Sapne was released, in which Mumtaz was with him, this film was based on A.J Cronin's novel The Citadel, this film was directed by his brother Vijay Anand. After Zeenat Aman, his new discovery was Tina Munim, with whom he produced the film Des Pardes in 1978, which was also a successful film. In 1977, he formed a political party, National Party of India, which was against the then Prime Minister Mrs. Indira Gandhi. But this political party did not last long. Dev Anand's films are also famous because of his music, the music of his films still mesmerizes people. In September 2007, his autobiography Romancing with Life was released on the occasion of his birthday, where the Prime Minister of India, Shri Manmohan Singh was also present. | {
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1438 | सुरैय्या आजीवन कुंवारी ही रहीं! देव आनंद ने अभी कुछ ही समय पहले स्वीकार किया, की वो उनसे प्यार करते थे, यदि उनकी शादी सुरैया के साथ हो गयी होती तो उनका जीवन शायद कुछ और ही होता। १९६५ में उनकी पहली रंगीन फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था गाइड, ये एक मशहूर लेखक आर के नारायण के अपन्यास पर आधारित थी, जिसका निर्माण उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था, इस फ़िल्म में देव आनंद के साथ थीं वहीदा रहमान! ये फ़िल्म देव साहब ही बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, जिसके बारे में कहा जाता है की अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फ़िल्म सिर्फ एक बार ही बनती है। उसके बाद उन्होंने विजय आनंद के साथ मिल कर एक और फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था ज्वेल थीफ, इसमें उनके साथ थीं, वैजयंती माला, तनूजा, अंजू महिन्द्रू और हेलेन! इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म थी जॉनी मेरा नाम, जो उस समय सफलतम फ़िल्मों में से एक थी। १९७० में बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म आई प्रेम पुजारी, जो सफल नहीं हुई, लेकिन अगले ही वर्ष उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म हरे राम हरे कृष्णा ने सफलता का स्वाद चखा इस फ़िल्म में उनकी खोज ज़ीनत अमान ने "जेनिस" नाम की लड़की का किरदार निभाया, जो माता पिता के तनाव से तंग आ कर हिप्पियों के समूह में शामिल हो जाती है। इसी वर्ष उनकी एक और फ़िल्म तेरे मेरे सपने पर्दर्शित हुई, जिसमें उनके साथ थीं मुमताज़, ये फ़िल्म ए.जे क्रोनिन के उपन्यास The Citadel पर आधारित थी, इस फ़िल्म को उनके भाई विजय आनंद द्वारा निर्देशित किया गया था! ज़ीनत अमान के बाद उनकी नयी खोज थी टीना मुनीम, जिनके साथ उन्होंने १९७८ में फ़िल्म देस परदेस का निर्माण किया, ये भी उनकी एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में उन्होंने एक राजनितिक दल नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया का निर्माण किया, जो की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ था ! लेकिन ये राजनितिक दल ज्यादा समय तक नहीं रहा। देव आनंद की फ़िल्में उनके संगीत के कारण भी प्रसिद्ध है, उनकी फ़िल्मों का संगीत आज भी लोगों को मंत्र मुग्ध करता है! सितम्बर २००७ में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रदर्शित की गयी, जहाँ भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी उपस्थित थे। | देव आनंद ने किस राजनीतिक दल का गठन किया था ? | {
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"नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया"
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1474
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} | Which political party was formed by Dev Anand? | Suraiya remained a virgin all her life! Dev Anand recently admitted that he loved her and if he had married Suraiya, his life might have been different. His first color film was released in 1965, named Guide, it was based on the novel by a famous writer RK Narayan, which was produced by his younger brother Vijay Anand. Waheeda Rehman was with Dev Anand in this film. This film Dev Saheb is one of the best films, about which it is said that Guide can never be made again, such a film is made only once. After that, he produced another film with Vijay Anand, named Jewel Thief, in which he was accompanied by Vyjayanti Mala, Tanuja, Anju Mahindru and Helen! After this, his next film was Johnny Mera Naam, which was one of the most successful films at that time. In 1970, his first film as a director was Prem Pujari, which was not successful, but the very next year he tasted success with the film Hare Ram Hare Krishna. In this film, his discovery Zeenat Aman played the character of a girl named "Janice". , who, fed up with the stress of her parents, joins a group of hippies. In the same year, his another film Tere Mere Sapne was released, in which Mumtaz was with him, this film was based on A.J Cronin's novel The Citadel, this film was directed by his brother Vijay Anand. After Zeenat Aman, his new discovery was Tina Munim, with whom he produced the film Des Pardes in 1978, which was also a successful film. In 1977, he formed a political party, National Party of India, which was against the then Prime Minister Mrs. Indira Gandhi. But this political party did not last long. Dev Anand's films are also famous because of his music, the music of his films still mesmerizes people. In September 2007, his autobiography Romancing with Life was released on the occasion of his birthday, where the Prime Minister of India, Shri Manmohan Singh was also present. | {
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1474
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"National Party of India"
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1439 | सुरैय्या आजीवन कुंवारी ही रहीं! देव आनंद ने अभी कुछ ही समय पहले स्वीकार किया, की वो उनसे प्यार करते थे, यदि उनकी शादी सुरैया के साथ हो गयी होती तो उनका जीवन शायद कुछ और ही होता। १९६५ में उनकी पहली रंगीन फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था गाइड, ये एक मशहूर लेखक आर के नारायण के अपन्यास पर आधारित थी, जिसका निर्माण उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था, इस फ़िल्म में देव आनंद के साथ थीं वहीदा रहमान! ये फ़िल्म देव साहब ही बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, जिसके बारे में कहा जाता है की अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फ़िल्म सिर्फ एक बार ही बनती है। उसके बाद उन्होंने विजय आनंद के साथ मिल कर एक और फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था ज्वेल थीफ, इसमें उनके साथ थीं, वैजयंती माला, तनूजा, अंजू महिन्द्रू और हेलेन! इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म थी जॉनी मेरा नाम, जो उस समय सफलतम फ़िल्मों में से एक थी। १९७० में बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म आई प्रेम पुजारी, जो सफल नहीं हुई, लेकिन अगले ही वर्ष उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म हरे राम हरे कृष्णा ने सफलता का स्वाद चखा इस फ़िल्म में उनकी खोज ज़ीनत अमान ने "जेनिस" नाम की लड़की का किरदार निभाया, जो माता पिता के तनाव से तंग आ कर हिप्पियों के समूह में शामिल हो जाती है। इसी वर्ष उनकी एक और फ़िल्म तेरे मेरे सपने पर्दर्शित हुई, जिसमें उनके साथ थीं मुमताज़, ये फ़िल्म ए.जे क्रोनिन के उपन्यास The Citadel पर आधारित थी, इस फ़िल्म को उनके भाई विजय आनंद द्वारा निर्देशित किया गया था! ज़ीनत अमान के बाद उनकी नयी खोज थी टीना मुनीम, जिनके साथ उन्होंने १९७८ में फ़िल्म देस परदेस का निर्माण किया, ये भी उनकी एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में उन्होंने एक राजनितिक दल नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया का निर्माण किया, जो की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ था ! लेकिन ये राजनितिक दल ज्यादा समय तक नहीं रहा। देव आनंद की फ़िल्में उनके संगीत के कारण भी प्रसिद्ध है, उनकी फ़िल्मों का संगीत आज भी लोगों को मंत्र मुग्ध करता है! सितम्बर २००७ में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रदर्शित की गयी, जहाँ भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी उपस्थित थे। | गाइड फ़िल्म किस लेखक के उपन्यास पर आधारित थी ? | {
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"आर के नारायण"
],
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259
]
} | The film Guide was based on a novel by which author? | Suraiya remained a virgin all her life! Dev Anand recently admitted that he loved her and if he had married Suraiya, his life might have been different. His first color film was released in 1965, named Guide, it was based on the novel by a famous writer RK Narayan, which was produced by his younger brother Vijay Anand. Waheeda Rehman was with Dev Anand in this film. This film Dev Saheb is one of the best films, about which it is said that Guide can never be made again, such a film is made only once. After that, he produced another film with Vijay Anand, named Jewel Thief, in which he was accompanied by Vyjayanti Mala, Tanuja, Anju Mahindru and Helen! After this, his next film was Johnny Mera Naam, which was one of the most successful films at that time. In 1970, his first film as a director was Prem Pujari, which was not successful, but the very next year he tasted success with the film Hare Ram Hare Krishna. In this film, his discovery Zeenat Aman played the character of a girl named "Janice". , who, fed up with the stress of her parents, joins a group of hippies. In the same year, his another film Tere Mere Sapne was released, in which Mumtaz was with him, this film was based on A.J Cronin's novel The Citadel, this film was directed by his brother Vijay Anand. After Zeenat Aman, his new discovery was Tina Munim, with whom he produced the film Des Pardes in 1978, which was also a successful film. In 1977, he formed a political party, National Party of India, which was against the then Prime Minister Mrs. Indira Gandhi. But this political party did not last long. Dev Anand's films are also famous because of his music, the music of his films still mesmerizes people. In September 2007, his autobiography Romancing with Life was released on the occasion of his birthday, where the Prime Minister of India, Shri Manmohan Singh was also present. | {
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259
],
"text": [
"R K Narayan"
]
} |
1440 | सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक हजार अध्यायों तथा एक लाख श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे दोनों अश्विनीकुमारों ने, तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -संहिताकाल का समय 5वीं शती ई.पू. से 6वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि - चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी संहिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से कायचिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्रमुख विशेषता है। इसका समय 7वीं शती से लेकर 15वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हण की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है। शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है। इस काल का समय 14वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। | संहिता आयुर्वेद के त्रिमुनि कौन थे ? | {
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"चरक, सुश्रुत और वाग्भट,"
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990
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} | Who were the Trimuni of Samhita Ayurveda? | According to Sushruta (Dhanvantari sect), Dhanvantari also believes that Ayurveda was propounded by Brahmadev. According to Sushruta, Sushruta went to Lord Dhanvantari incarnate as Kashiraj Divodas along with other Maharishis to study Ayurveda and applied to him. At that time, Lord Dhanvantari, while preaching to those people, said that first of all, even before the creation of the universe, Brahma himself published the Upveda Ayurveda of Atharvaveda in one thousand chapters and one lakh verses and then considering man as less intelligent, he divided it into eight parts. . Again Lord Dhanvantari said that Daksh Prajapati studied Ayurveda from Brahma, the two Ashwinikumars from him, and Indra from him. The history of Ayurveda has been mainly divided into three parts - The time of Samhita period is 5th century BC. It is believed to be from 6th to 6th century. This period was the era of original creations of Ayurveda. At this time, the Acharyas, on the strength of their talent and experience, published their scholarly texts on different body parts. The period of rise of the trinity of Ayurveda – Charak, Sushruta and Vagbhata, is also the Samhita period. The amazing success in the field of Kayachikitsa through the book Charak Samhita is a major feature of this period. Its period is considered to be from 7th century to 15th century and this period is known for criticisms and commentators. During this period, commentators gave mature and healthy interpretations on the writings of the Samhita period. Sushruta Samhita Tika of Acharya Dalhan of this time is considered very important in the Ayurveda world. The research book 'Rasratnasamuccaya' is also a creation of this period, which Acharya Vagbhata has written on the basis of Charak and Sushruta Samhita and the works of many chemists. The time of this period is considered to be from 14th century to modern times. This period has been the period of writing books on specific subjects. Books like Madhvanidaan, Jwardarpan etc. were also written during this period. Special attention was also paid to various forms of medicine during this period, which are relevant even today. In this period, Ayurveda is being expanded and used on a large scale. | {
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990
],
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"Charaka, Sushruta and Vagbhata,"
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} |
1441 | सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक हजार अध्यायों तथा एक लाख श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे दोनों अश्विनीकुमारों ने, तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -संहिताकाल का समय 5वीं शती ई.पू. से 6वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि - चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी संहिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से कायचिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्रमुख विशेषता है। इसका समय 7वीं शती से लेकर 15वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हण की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है। शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है। इस काल का समय 14वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। | आयुर्वेद में सामाजिक चिकित्सा कितने वर्षों पहले से उल्लेखित है? | {
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""
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null
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} | Social medicine has been mentioned in Ayurveda since how many years ago? | According to Sushruta (Dhanvantari sect), Dhanvantari also believes that Ayurveda was propounded by Brahmadev. According to Sushruta, Sushruta went to Lord Dhanvantari incarnate as Kashiraj Divodas along with other Maharishis to study Ayurveda and applied to him. At that time, Lord Dhanvantari, while preaching to those people, said that first of all, even before the creation of the universe, Brahma himself published the Upveda Ayurveda of Atharvaveda in one thousand chapters and one lakh verses and then considering man as less intelligent, he divided it into eight parts. . Again Lord Dhanvantari said that Daksh Prajapati studied Ayurveda from Brahma, the two Ashwinikumars from him, and Indra from him. The history of Ayurveda has been mainly divided into three parts - The time of Samhita period is 5th century BC. It is believed to be from 6th to 6th century. This period was the era of original creations of Ayurveda. At this time, the Acharyas, on the strength of their talent and experience, published their scholarly texts on different body parts. The period of rise of the trinity of Ayurveda – Charak, Sushruta and Vagbhata, is also the Samhita period. The amazing success in the field of Kayachikitsa through the book Charak Samhita is a major feature of this period. Its period is considered to be from 7th century to 15th century and this period is known for criticisms and commentators. During this period, commentators gave mature and healthy interpretations on the writings of the Samhita period. Sushruta Samhita Tika of Acharya Dalhan of this time is considered very important in the Ayurveda world. The research book 'Rasratnasamuccaya' is also a creation of this period, which Acharya Vagbhata has written on the basis of Charak and Sushruta Samhita and the works of many chemists. The time of this period is considered to be from 14th century to modern times. This period has been the period of writing books on specific subjects. Books like Madhvanidaan, Jwardarpan etc. were also written during this period. Special attention was also paid to various forms of medicine during this period, which are relevant even today. In this period, Ayurveda is being expanded and used on a large scale. | {
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null
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""
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1442 | सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक हजार अध्यायों तथा एक लाख श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे दोनों अश्विनीकुमारों ने, तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -संहिताकाल का समय 5वीं शती ई.पू. से 6वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि - चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी संहिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से कायचिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्रमुख विशेषता है। इसका समय 7वीं शती से लेकर 15वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हण की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है। शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है। इस काल का समय 14वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। | अथर्ववेद के उप-वेद आयुर्वेद को सृष्टि से पहले किसने प्रकाशित किया था ? | {
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"ब्रह्मा"
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} | Who published Ayurveda, the sub-veda of Atharvaveda, before creation? | According to Sushruta (Dhanvantari sect), Dhanvantari also believes that Ayurveda was propounded by Brahmadev. According to Sushruta, Sushruta went to Lord Dhanvantari incarnate as Kashiraj Divodas along with other Maharishis to study Ayurveda and applied to him. At that time, Lord Dhanvantari, while preaching to those people, said that first of all, even before the creation of the universe, Brahma himself published the Upveda Ayurveda of Atharvaveda in one thousand chapters and one lakh verses and then considering man as less intelligent, he divided it into eight parts. . Again Lord Dhanvantari said that Daksh Prajapati studied Ayurveda from Brahma, the two Ashwinikumars from him, and Indra from him. The history of Ayurveda has been mainly divided into three parts - The time of Samhita period is 5th century BC. It is believed to be from 6th to 6th century. This period was the era of original creations of Ayurveda. At this time, the Acharyas, on the strength of their talent and experience, published their scholarly texts on different body parts. The period of rise of the trinity of Ayurveda – Charak, Sushruta and Vagbhata, is also the Samhita period. The amazing success in the field of Kayachikitsa through the book Charak Samhita is a major feature of this period. Its period is considered to be from 7th century to 15th century and this period is known for criticisms and commentators. During this period, commentators gave mature and healthy interpretations on the writings of the Samhita period. Sushruta Samhita Tika of Acharya Dalhan of this time is considered very important in the Ayurveda world. The research book 'Rasratnasamuccaya' is also a creation of this period, which Acharya Vagbhata has written on the basis of Charak and Sushruta Samhita and the works of many chemists. The time of this period is considered to be from 14th century to modern times. This period has been the period of writing books on specific subjects. Books like Madhvanidaan, Jwardarpan etc. were also written during this period. Special attention was also paid to various forms of medicine during this period, which are relevant even today. In this period, Ayurveda is being expanded and used on a large scale. | {
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357
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"text": [
"Brahma"
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1443 | सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक हजार अध्यायों तथा एक लाख श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे दोनों अश्विनीकुमारों ने, तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -संहिताकाल का समय 5वीं शती ई.पू. से 6वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि - चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी संहिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से कायचिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्रमुख विशेषता है। इसका समय 7वीं शती से लेकर 15वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हण की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है। शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है। इस काल का समय 14वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। | सुश्रुत के अनुसार, भगवान धन्वंतरि, किसके रूप में अवतरित हुए थे ? | {
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"काशीराज दिवोदास"
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140
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} | According to Sushruta, Lord Dhanvantari appeared in the form of? | According to Sushruta (Dhanvantari sect), Dhanvantari also believes that Ayurveda was propounded by Brahmadev. According to Sushruta, Sushruta went to Lord Dhanvantari incarnate as Kashiraj Divodas along with other Maharishis to study Ayurveda and applied to him. At that time, Lord Dhanvantari, while preaching to those people, said that first of all, even before the creation of the universe, Brahma himself published the Upveda Ayurveda of Atharvaveda in one thousand chapters and one lakh verses and then considering man as less intelligent, he divided it into eight parts. . Again Lord Dhanvantari said that Daksh Prajapati studied Ayurveda from Brahma, the two Ashwinikumars from him, and Indra from him. The history of Ayurveda has been mainly divided into three parts - The time of Samhita period is 5th century BC. It is believed to be from 6th to 6th century. This period was the era of original creations of Ayurveda. At this time, the Acharyas, on the strength of their talent and experience, published their scholarly texts on different body parts. The period of rise of the trinity of Ayurveda – Charak, Sushruta and Vagbhata, is also the Samhita period. The amazing success in the field of Kayachikitsa through the book Charak Samhita is a major feature of this period. Its period is considered to be from 7th century to 15th century and this period is known for criticisms and commentators. During this period, commentators gave mature and healthy interpretations on the writings of the Samhita period. Sushruta Samhita Tika of Acharya Dalhan of this time is considered very important in the Ayurveda world. The research book 'Rasratnasamuccaya' is also a creation of this period, which Acharya Vagbhata has written on the basis of Charak and Sushruta Samhita and the works of many chemists. The time of this period is considered to be from 14th century to modern times. This period has been the period of writing books on specific subjects. Books like Madhvanidaan, Jwardarpan etc. were also written during this period. Special attention was also paid to various forms of medicine during this period, which are relevant even today. In this period, Ayurveda is being expanded and used on a large scale. | {
"answer_start": [
140
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"text": [
"Kashiraj Divodas"
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1444 | सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक हजार अध्यायों तथा एक लाख श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे दोनों अश्विनीकुमारों ने, तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -संहिताकाल का समय 5वीं शती ई.पू. से 6वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि - चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी संहिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से कायचिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्रमुख विशेषता है। इसका समय 7वीं शती से लेकर 15वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हण की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है। शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है। इस काल का समय 14वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। | आधुनिक चिकित्सा में किस चिकित्सा को नई विचारधारा के रूप में माना जाता है? | {
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} | Which medicine is regarded as a new ideology in modern medicine? | According to Sushruta (Dhanvantari sect), Dhanvantari also believes that Ayurveda was propounded by Brahmadev. According to Sushruta, Sushruta went to Lord Dhanvantari incarnate as Kashiraj Divodas along with other Maharishis to study Ayurveda and applied to him. At that time, Lord Dhanvantari, while preaching to those people, said that first of all, even before the creation of the universe, Brahma himself published the Upveda Ayurveda of Atharvaveda in one thousand chapters and one lakh verses and then considering man as less intelligent, he divided it into eight parts. . Again Lord Dhanvantari said that Daksh Prajapati studied Ayurveda from Brahma, the two Ashwinikumars from him, and Indra from him. The history of Ayurveda has been mainly divided into three parts - The time of Samhita period is 5th century BC. It is believed to be from 6th to 6th century. This period was the era of original creations of Ayurveda. At this time, the Acharyas, on the strength of their talent and experience, published their scholarly texts on different body parts. The period of rise of the trinity of Ayurveda – Charak, Sushruta and Vagbhata, is also the Samhita period. The amazing success in the field of Kayachikitsa through the book Charak Samhita is a major feature of this period. Its period is considered to be from 7th century to 15th century and this period is known for criticisms and commentators. During this period, commentators gave mature and healthy interpretations on the writings of the Samhita period. Sushruta Samhita Tika of Acharya Dalhan of this time is considered very important in the Ayurveda world. The research book 'Rasratnasamuccaya' is also a creation of this period, which Acharya Vagbhata has written on the basis of Charak and Sushruta Samhita and the works of many chemists. The time of this period is considered to be from 14th century to modern times. This period has been the period of writing books on specific subjects. Books like Madhvanidaan, Jwardarpan etc. were also written during this period. Special attention was also paid to various forms of medicine during this period, which are relevant even today. In this period, Ayurveda is being expanded and used on a large scale. | {
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1445 | सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है। एक उँचे पठार पर बने इस किले तक पहुंचने के लिये एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आसपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तियां बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी गई हैं। किले की तीन सौ फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजपूत राजा मानसिंह तोमर और गुर्जर रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियां ग्वालियर के आसपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं। ग्वालियर का किला से आगरा 120 कि॰मी॰ दूर स्थित है। इसे 'भारत का जिब्राल्टर' कहा जाता है। 9वीं शताब्दी में निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो की 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड़ संगम है। इसे 1486 से 1517 के बीच ग्वालियर के प्रतापी राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छीनी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। राजा मानसिंह पराक्रमी योद्धा होने के साथ ही ललित कला प्रेमी व स्थापत्य शैली के जानकार भी थे। | औरंगजेब के भाई का क्या नाम था? | {
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} | What was the name of Aurangzeb's brother? | This fort made of sand stone is visible from every direction of the city and is the most important monument of the city. To reach this fort built on a high plateau, one has to go through a narrow road with a very steep slope. The huge sculptures of Jain Tirthankaras are carved very beautifully and intricately on the big rocks around this road. The three hundred feet height of the fort is a witness to the invincibility of this fort. Amazing examples of medieval architecture are located in the inner parts of this fort. Gujri Mahal, built in the fifteenth century, is one of them which is a symbol of the intense love of Rajput king Mansingh Tomar and Gurjar queen Mriganayani. The external part of this palace has been preserved in its original form by the State Archeology Department, but the internal part has been converted into a museum where rare ancient sculptures are kept which according to carbon dating are of the first century AD. These rare sculptures have been obtained from the areas around Gwalior. Gwalior Fort is located 120 km away from Agra. It is called the 'Gibraltar of India'. A unique architectural specimen built in the 9th century is the Teli temple of Lord Vishnu, which is 100 feet high. It is a unique confluence of Dravidian architecture and Aryan architecture. It was built between 1486 and 1517 by the illustrious Raja Mansingh of Gwalior. Time has definitely taken away the grandeur of this fort decorated with beautiful colorful tiles, but in some of its internal and external parts, the remains of excellent artworks made by these blue, yellow, green and white tiles still give an indication of the grand past of this fort. Apart from being a mighty warrior, Raja Mansingh was also a lover of fine arts and knowledgeable about architectural styles. | {
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1446 | सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है। एक उँचे पठार पर बने इस किले तक पहुंचने के लिये एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आसपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तियां बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी गई हैं। किले की तीन सौ फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजपूत राजा मानसिंह तोमर और गुर्जर रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियां ग्वालियर के आसपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं। ग्वालियर का किला से आगरा 120 कि॰मी॰ दूर स्थित है। इसे 'भारत का जिब्राल्टर' कहा जाता है। 9वीं शताब्दी में निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो की 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड़ संगम है। इसे 1486 से 1517 के बीच ग्वालियर के प्रतापी राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छीनी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। राजा मानसिंह पराक्रमी योद्धा होने के साथ ही ललित कला प्रेमी व स्थापत्य शैली के जानकार भी थे। | जौहर कुंड कहां स्थित है? | {
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} | Where is the Jauhar Kund located? | This fort made of sand stone is visible from every direction of the city and is the most important monument of the city. To reach this fort built on a high plateau, one has to go through a narrow road with a very steep slope. The huge sculptures of Jain Tirthankaras are carved very beautifully and intricately on the big rocks around this road. The three hundred feet height of the fort is a witness to the invincibility of this fort. Amazing examples of medieval architecture are located in the inner parts of this fort. Gujri Mahal, built in the fifteenth century, is one of them which is a symbol of the intense love of Rajput king Mansingh Tomar and Gurjar queen Mriganayani. The external part of this palace has been preserved in its original form by the State Archeology Department, but the internal part has been converted into a museum where rare ancient sculptures are kept which according to carbon dating are of the first century AD. These rare sculptures have been obtained from the areas around Gwalior. Gwalior Fort is located 120 km away from Agra. It is called the 'Gibraltar of India'. A unique architectural specimen built in the 9th century is the Teli temple of Lord Vishnu, which is 100 feet high. It is a unique confluence of Dravidian architecture and Aryan architecture. It was built between 1486 and 1517 by the illustrious Raja Mansingh of Gwalior. Time has definitely taken away the grandeur of this fort decorated with beautiful colorful tiles, but in some of its internal and external parts, the remains of excellent artworks made by these blue, yellow, green and white tiles still give an indication of the grand past of this fort. Apart from being a mighty warrior, Raja Mansingh was also a lover of fine arts and knowledgeable about architectural styles. | {
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1447 | सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है। एक उँचे पठार पर बने इस किले तक पहुंचने के लिये एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आसपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तियां बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी गई हैं। किले की तीन सौ फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजपूत राजा मानसिंह तोमर और गुर्जर रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियां ग्वालियर के आसपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं। ग्वालियर का किला से आगरा 120 कि॰मी॰ दूर स्थित है। इसे 'भारत का जिब्राल्टर' कहा जाता है। 9वीं शताब्दी में निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो की 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड़ संगम है। इसे 1486 से 1517 के बीच ग्वालियर के प्रतापी राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छीनी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। राजा मानसिंह पराक्रमी योद्धा होने के साथ ही ललित कला प्रेमी व स्थापत्य शैली के जानकार भी थे। | भगवान विष्णु की तेली मंदिर की ऊंचाई कितनी है ? | {
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"100 फीट"
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} | What is the height of the Teli temple of Lord Vishnu? | This fort made of sand stone is visible from every direction of the city and is the most important monument of the city. To reach this fort built on a high plateau, one has to go through a narrow road with a very steep slope. The huge sculptures of Jain Tirthankaras are carved very beautifully and intricately on the big rocks around this road. The three hundred feet height of the fort is a witness to the invincibility of this fort. Amazing examples of medieval architecture are located in the inner parts of this fort. Gujri Mahal, built in the fifteenth century, is one of them which is a symbol of the intense love of Rajput king Mansingh Tomar and Gurjar queen Mriganayani. The external part of this palace has been preserved in its original form by the State Archeology Department, but the internal part has been converted into a museum where rare ancient sculptures are kept which according to carbon dating are of the first century AD. These rare sculptures have been obtained from the areas around Gwalior. Gwalior Fort is located 120 km away from Agra. It is called the 'Gibraltar of India'. A unique architectural specimen built in the 9th century is the Teli temple of Lord Vishnu, which is 100 feet high. It is a unique confluence of Dravidian architecture and Aryan architecture. It was built between 1486 and 1517 by the illustrious Raja Mansingh of Gwalior. Time has definitely taken away the grandeur of this fort decorated with beautiful colorful tiles, but in some of its internal and external parts, the remains of excellent artworks made by these blue, yellow, green and white tiles still give an indication of the grand past of this fort. Apart from being a mighty warrior, Raja Mansingh was also a lover of fine arts and knowledgeable about architectural styles. | {
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1063
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"100 ft."
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1448 | सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है। एक उँचे पठार पर बने इस किले तक पहुंचने के लिये एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आसपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तियां बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी गई हैं। किले की तीन सौ फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजपूत राजा मानसिंह तोमर और गुर्जर रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियां ग्वालियर के आसपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं। ग्वालियर का किला से आगरा 120 कि॰मी॰ दूर स्थित है। इसे 'भारत का जिब्राल्टर' कहा जाता है। 9वीं शताब्दी में निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो की 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड़ संगम है। इसे 1486 से 1517 के बीच ग्वालियर के प्रतापी राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छीनी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। राजा मानसिंह पराक्रमी योद्धा होने के साथ ही ललित कला प्रेमी व स्थापत्य शैली के जानकार भी थे। | भगवान विष्णु की तेली मंदिर का निर्माण कब हुआ था ? | {
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"1486 से 1517 के बीच"
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} | When was the Teli temple of Lord Vishnu built? | This fort made of sand stone is visible from every direction of the city and is the most important monument of the city. To reach this fort built on a high plateau, one has to go through a narrow road with a very steep slope. The huge sculptures of Jain Tirthankaras are carved very beautifully and intricately on the big rocks around this road. The three hundred feet height of the fort is a witness to the invincibility of this fort. Amazing examples of medieval architecture are located in the inner parts of this fort. Gujri Mahal, built in the fifteenth century, is one of them which is a symbol of the intense love of Rajput king Mansingh Tomar and Gurjar queen Mriganayani. The external part of this palace has been preserved in its original form by the State Archeology Department, but the internal part has been converted into a museum where rare ancient sculptures are kept which according to carbon dating are of the first century AD. These rare sculptures have been obtained from the areas around Gwalior. Gwalior Fort is located 120 km away from Agra. It is called the 'Gibraltar of India'. A unique architectural specimen built in the 9th century is the Teli temple of Lord Vishnu, which is 100 feet high. It is a unique confluence of Dravidian architecture and Aryan architecture. It was built between 1486 and 1517 by the illustrious Raja Mansingh of Gwalior. Time has definitely taken away the grandeur of this fort decorated with beautiful colorful tiles, but in some of its internal and external parts, the remains of excellent artworks made by these blue, yellow, green and white tiles still give an indication of the grand past of this fort. Apart from being a mighty warrior, Raja Mansingh was also a lover of fine arts and knowledgeable about architectural styles. | {
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1144
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"Between 1486 and 1517"
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1449 | सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है। एक उँचे पठार पर बने इस किले तक पहुंचने के लिये एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आसपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तियां बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी गई हैं। किले की तीन सौ फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजपूत राजा मानसिंह तोमर और गुर्जर रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियां ग्वालियर के आसपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं। ग्वालियर का किला से आगरा 120 कि॰मी॰ दूर स्थित है। इसे 'भारत का जिब्राल्टर' कहा जाता है। 9वीं शताब्दी में निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो की 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड़ संगम है। इसे 1486 से 1517 के बीच ग्वालियर के प्रतापी राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छीनी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। राजा मानसिंह पराक्रमी योद्धा होने के साथ ही ललित कला प्रेमी व स्थापत्य शैली के जानकार भी थे। | भगवान विष्णु की तेली मंदिर का निर्माण किस शासक ने कराया था ? | {
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"राजा मानसिंह"
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} | The Teli temple of Lord Vishnu was built by which ruler? | This fort made of sand stone is visible from every direction of the city and is the most important monument of the city. To reach this fort built on a high plateau, one has to go through a narrow road with a very steep slope. The huge sculptures of Jain Tirthankaras are carved very beautifully and intricately on the big rocks around this road. The three hundred feet height of the fort is a witness to the invincibility of this fort. Amazing examples of medieval architecture are located in the inner parts of this fort. Gujri Mahal, built in the fifteenth century, is one of them which is a symbol of the intense love of Rajput king Mansingh Tomar and Gurjar queen Mriganayani. The external part of this palace has been preserved in its original form by the State Archeology Department, but the internal part has been converted into a museum where rare ancient sculptures are kept which according to carbon dating are of the first century AD. These rare sculptures have been obtained from the areas around Gwalior. Gwalior Fort is located 120 km away from Agra. It is called the 'Gibraltar of India'. A unique architectural specimen built in the 9th century is the Teli temple of Lord Vishnu, which is 100 feet high. It is a unique confluence of Dravidian architecture and Aryan architecture. It was built between 1486 and 1517 by the illustrious Raja Mansingh of Gwalior. Time has definitely taken away the grandeur of this fort decorated with beautiful colorful tiles, but in some of its internal and external parts, the remains of excellent artworks made by these blue, yellow, green and white tiles still give an indication of the grand past of this fort. Apart from being a mighty warrior, Raja Mansingh was also a lover of fine arts and knowledgeable about architectural styles. | {
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"Raja Man Singh."
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1450 | स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। | गुप्त साम्राज्य को कितने भागों में विभाजित किया गया था? | {
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"तीन भागों"
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846
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} | The Gupta Empire was divided into how many parts? | Skandagupta died in 467. Although the Gupta dynasty continued to exist for 100 years after this, it gradually became weak. After Skandagupta, there were the following major kings in this empire: He was the son of Kumaragupta and was the half brother of Skandagupta. Skandagupta did not have any son of his own. Purugupta was sitting on the throne in old age, as a result, he could not run the government smoothly and the decline of the empire started. Purugupta was succeeded by Kumaragupta II. Its time is mentioned in the Sarnath inscription as 445 AD. After Kumaragupta II, Budhagupta became the ruler who was the son of Purugupta according to the seal obtained from Nalanda. His mother was Chandradevi. He ruled from 475 AD to 495 AD. According to Hiuen Tsang, he was a follower of Buddhism. He gave a lot of money to Nalanda Buddhist Monastery. After the death of Budhagupta, his younger brother Narasimhagupta became the ruler. At this time the Gupta Empire was divided into three parts, Magadha, Malwa and Bengal respectively. Narasimhagupta in Magadha, Bhanugupta in Malwa, Vainyagupta in Bihar and Bengal region established their independent rule. Narasimhagupta was the most powerful king among the three. Kuru and the tyrannical attack of Huns had defeated Mihirkul. In the Nalanda currency inscription, Narasimhagupta has been called Param Bhagwat. After Narasimhagupta, his son Kumaragupta III ascended the throne of Magadha. He became the 24th ruler. Kumaragupta III was the last ruler of the Gupta dynasty. After the death of Kumaragupta, his son Damodargupta became the king. Ishaan Varma's son Sarvavarma was his main rival, the Maukhari ruler. Sarvavarma fought to avenge his father's defeat. Damodargupta was defeated in this war. This war took place around 582 AD. After Damodargupta, his son Mahasengupta became the ruler. | {
"answer_start": [
846
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"text": [
"Three parts"
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} |
1451 | स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। | स्कंदगुप्त की मृत्यु कब हुई थी? | {
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"सन् 467"
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20
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} | When did Skandagupta die? | Skandagupta died in 467. Although the Gupta dynasty continued to exist for 100 years after this, it gradually became weak. After Skandagupta, there were the following major kings in this empire: He was the son of Kumaragupta and was the half brother of Skandagupta. Skandagupta did not have any son of his own. Purugupta was sitting on the throne in old age, as a result, he could not run the government smoothly and the decline of the empire started. Purugupta was succeeded by Kumaragupta II. Its time is mentioned in the Sarnath inscription as 445 AD. After Kumaragupta II, Budhagupta became the ruler who was the son of Purugupta according to the seal obtained from Nalanda. His mother was Chandradevi. He ruled from 475 AD to 495 AD. According to Hiuen Tsang, he was a follower of Buddhism. He gave a lot of money to Nalanda Buddhist Monastery. After the death of Budhagupta, his younger brother Narasimhagupta became the ruler. At this time the Gupta Empire was divided into three parts, Magadha, Malwa and Bengal respectively. Narasimhagupta in Magadha, Bhanugupta in Malwa, Vainyagupta in Bihar and Bengal region established their independent rule. Narasimhagupta was the most powerful king among the three. Kuru and the tyrannical attack of Huns had defeated Mihirkul. In the Nalanda currency inscription, Narasimhagupta has been called Param Bhagwat. After Narasimhagupta, his son Kumaragupta III ascended the throne of Magadha. He became the 24th ruler. Kumaragupta III was the last ruler of the Gupta dynasty. After the death of Kumaragupta, his son Damodargupta became the king. Ishaan Varma's son Sarvavarma was his main rival, the Maukhari ruler. Sarvavarma fought to avenge his father's defeat. Damodargupta was defeated in this war. This war took place around 582 AD. After Damodargupta, his son Mahasengupta became the ruler. | {
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20
],
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"AD 467"
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} |
1452 | स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। | असम के राजा कौन थे? | {
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""
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null
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} | Who was the king of Assam? | Skandagupta died in 467. Although the Gupta dynasty continued to exist for 100 years after this, it gradually became weak. After Skandagupta, there were the following major kings in this empire: He was the son of Kumaragupta and was the half brother of Skandagupta. Skandagupta did not have any son of his own. Purugupta was sitting on the throne in old age, as a result, he could not run the government smoothly and the decline of the empire started. Purugupta was succeeded by Kumaragupta II. Its time is mentioned in the Sarnath inscription as 445 AD. After Kumaragupta II, Budhagupta became the ruler who was the son of Purugupta according to the seal obtained from Nalanda. His mother was Chandradevi. He ruled from 475 AD to 495 AD. According to Hiuen Tsang, he was a follower of Buddhism. He gave a lot of money to Nalanda Buddhist Monastery. After the death of Budhagupta, his younger brother Narasimhagupta became the ruler. At this time the Gupta Empire was divided into three parts, Magadha, Malwa and Bengal respectively. Narasimhagupta in Magadha, Bhanugupta in Malwa, Vainyagupta in Bihar and Bengal region established their independent rule. Narasimhagupta was the most powerful king among the three. Kuru and the tyrannical attack of Huns had defeated Mihirkul. In the Nalanda currency inscription, Narasimhagupta has been called Param Bhagwat. After Narasimhagupta, his son Kumaragupta III ascended the throne of Magadha. He became the 24th ruler. Kumaragupta III was the last ruler of the Gupta dynasty. After the death of Kumaragupta, his son Damodargupta became the king. Ishaan Varma's son Sarvavarma was his main rival, the Maukhari ruler. Sarvavarma fought to avenge his father's defeat. Damodargupta was defeated in this war. This war took place around 582 AD. After Damodargupta, his son Mahasengupta became the ruler. | {
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null
],
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""
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} |
1453 | स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। | पुरुगुप्त के उत्तराधिकारी कौन थे? | {
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"कुमारगुप्त द्वितीय"
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448
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} | Who were the successors of Purugupta? | Skandagupta died in 467. Although the Gupta dynasty continued to exist for 100 years after this, it gradually became weak. After Skandagupta, there were the following major kings in this empire: He was the son of Kumaragupta and was the half brother of Skandagupta. Skandagupta did not have any son of his own. Purugupta was sitting on the throne in old age, as a result, he could not run the government smoothly and the decline of the empire started. Purugupta was succeeded by Kumaragupta II. Its time is mentioned in the Sarnath inscription as 445 AD. After Kumaragupta II, Budhagupta became the ruler who was the son of Purugupta according to the seal obtained from Nalanda. His mother was Chandradevi. He ruled from 475 AD to 495 AD. According to Hiuen Tsang, he was a follower of Buddhism. He gave a lot of money to Nalanda Buddhist Monastery. After the death of Budhagupta, his younger brother Narasimhagupta became the ruler. At this time the Gupta Empire was divided into three parts, Magadha, Malwa and Bengal respectively. Narasimhagupta in Magadha, Bhanugupta in Malwa, Vainyagupta in Bihar and Bengal region established their independent rule. Narasimhagupta was the most powerful king among the three. Kuru and the tyrannical attack of Huns had defeated Mihirkul. In the Nalanda currency inscription, Narasimhagupta has been called Param Bhagwat. After Narasimhagupta, his son Kumaragupta III ascended the throne of Magadha. He became the 24th ruler. Kumaragupta III was the last ruler of the Gupta dynasty. After the death of Kumaragupta, his son Damodargupta became the king. Ishaan Varma's son Sarvavarma was his main rival, the Maukhari ruler. Sarvavarma fought to avenge his father's defeat. Damodargupta was defeated in this war. This war took place around 582 AD. After Damodargupta, his son Mahasengupta became the ruler. | {
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448
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"Kumaragupta II"
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1454 | स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। | बुद्धगुप्त के छोटे भाई का क्या नाम था? | {
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"नरसिंहगुप्त"
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802
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} | What was the name of Buddhagupta's younger brother? | Skandagupta died in 467. Although the Gupta dynasty continued to exist for 100 years after this, it gradually became weak. After Skandagupta, there were the following major kings in this empire: He was the son of Kumaragupta and was the half brother of Skandagupta. Skandagupta did not have any son of his own. Purugupta was sitting on the throne in old age, as a result, he could not run the government smoothly and the decline of the empire started. Purugupta was succeeded by Kumaragupta II. Its time is mentioned in the Sarnath inscription as 445 AD. After Kumaragupta II, Budhagupta became the ruler who was the son of Purugupta according to the seal obtained from Nalanda. His mother was Chandradevi. He ruled from 475 AD to 495 AD. According to Hiuen Tsang, he was a follower of Buddhism. He gave a lot of money to Nalanda Buddhist Monastery. After the death of Budhagupta, his younger brother Narasimhagupta became the ruler. At this time the Gupta Empire was divided into three parts, Magadha, Malwa and Bengal respectively. Narasimhagupta in Magadha, Bhanugupta in Malwa, Vainyagupta in Bihar and Bengal region established their independent rule. Narasimhagupta was the most powerful king among the three. Kuru and the tyrannical attack of Huns had defeated Mihirkul. In the Nalanda currency inscription, Narasimhagupta has been called Param Bhagwat. After Narasimhagupta, his son Kumaragupta III ascended the throne of Magadha. He became the 24th ruler. Kumaragupta III was the last ruler of the Gupta dynasty. After the death of Kumaragupta, his son Damodargupta became the king. Ishaan Varma's son Sarvavarma was his main rival, the Maukhari ruler. Sarvavarma fought to avenge his father's defeat. Damodargupta was defeated in this war. This war took place around 582 AD. After Damodargupta, his son Mahasengupta became the ruler. | {
"answer_start": [
802
],
"text": [
"Narasimhagupta"
]
} |
1455 | स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। | असम के राजा सुस्थ वर्मन को किसने हराया था? | {
"text": [
""
],
"answer_start": [
null
]
} | Who defeated the king of Assam, Susth Varman? | Skandagupta died in 467. Although the Gupta dynasty continued to exist for 100 years after this, it gradually became weak. After Skandagupta, there were the following major kings in this empire: He was the son of Kumaragupta and was the half brother of Skandagupta. Skandagupta did not have any son of his own. Purugupta was sitting on the throne in old age, as a result, he could not run the government smoothly and the decline of the empire started. Purugupta was succeeded by Kumaragupta II. Its time is mentioned in the Sarnath inscription as 445 AD. After Kumaragupta II, Budhagupta became the ruler who was the son of Purugupta according to the seal obtained from Nalanda. His mother was Chandradevi. He ruled from 475 AD to 495 AD. According to Hiuen Tsang, he was a follower of Buddhism. He gave a lot of money to Nalanda Buddhist Monastery. After the death of Budhagupta, his younger brother Narasimhagupta became the ruler. At this time the Gupta Empire was divided into three parts, Magadha, Malwa and Bengal respectively. Narasimhagupta in Magadha, Bhanugupta in Malwa, Vainyagupta in Bihar and Bengal region established their independent rule. Narasimhagupta was the most powerful king among the three. Kuru and the tyrannical attack of Huns had defeated Mihirkul. In the Nalanda currency inscription, Narasimhagupta has been called Param Bhagwat. After Narasimhagupta, his son Kumaragupta III ascended the throne of Magadha. He became the 24th ruler. Kumaragupta III was the last ruler of the Gupta dynasty. After the death of Kumaragupta, his son Damodargupta became the king. Ishaan Varma's son Sarvavarma was his main rival, the Maukhari ruler. Sarvavarma fought to avenge his father's defeat. Damodargupta was defeated in this war. This war took place around 582 AD. After Damodargupta, his son Mahasengupta became the ruler. | {
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null
],
"text": [
""
]
} |
1456 | स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। | नालंदा मुद्रा शिलालेख में नरसिंहगुप्त को क्या कहा जाता था? | {
"text": [
"परम भागवत"
],
"answer_start": [
1170
]
} | What was Narasimhagupta called in the Nalanda Mudra inscription? | Skandagupta died in 467. Although the Gupta dynasty continued to exist for 100 years after this, it gradually became weak. After Skandagupta, there were the following major kings in this empire: He was the son of Kumaragupta and was the half brother of Skandagupta. Skandagupta did not have any son of his own. Purugupta was sitting on the throne in old age, as a result, he could not run the government smoothly and the decline of the empire started. Purugupta was succeeded by Kumaragupta II. Its time is mentioned in the Sarnath inscription as 445 AD. After Kumaragupta II, Budhagupta became the ruler who was the son of Purugupta according to the seal obtained from Nalanda. His mother was Chandradevi. He ruled from 475 AD to 495 AD. According to Hiuen Tsang, he was a follower of Buddhism. He gave a lot of money to Nalanda Buddhist Monastery. After the death of Budhagupta, his younger brother Narasimhagupta became the ruler. At this time the Gupta Empire was divided into three parts, Magadha, Malwa and Bengal respectively. Narasimhagupta in Magadha, Bhanugupta in Malwa, Vainyagupta in Bihar and Bengal region established their independent rule. Narasimhagupta was the most powerful king among the three. Kuru and the tyrannical attack of Huns had defeated Mihirkul. In the Nalanda currency inscription, Narasimhagupta has been called Param Bhagwat. After Narasimhagupta, his son Kumaragupta III ascended the throne of Magadha. He became the 24th ruler. Kumaragupta III was the last ruler of the Gupta dynasty. After the death of Kumaragupta, his son Damodargupta became the king. Ishaan Varma's son Sarvavarma was his main rival, the Maukhari ruler. Sarvavarma fought to avenge his father's defeat. Damodargupta was defeated in this war. This war took place around 582 AD. After Damodargupta, his son Mahasengupta became the ruler. | {
"answer_start": [
1170
],
"text": [
"The Supreme Bhagavata"
]
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1457 | हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। | हर्षवर्धन ने किस धर्म को अपनाया था? | {
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} | Which religion was adopted by Harshavardhan? | Harshavardhana was one of the last great kings of India. When the Gupta dynasty, which ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century, came to an end, Emperor Harsha emerged on the horizon of the country. He succeeded in uniting the entire North India by making Kannauj his capital. Became king at the young age of 16. After the murder of elder brother Rajyavardhan, the throne was handed over to Harshvardhan. At the age of playing, Harshvardhan had to enter the battlefield against King Shashank. It was Shashank who killed Rajyavardhan. Ruled over a large part of North India. Harshvardhan prepared a huge army and in about 6 years established his dominance over the entire North India by conquering Vallabhi (Gujarat), Punjab, Ganjam (Orissa), Bengal, Mithila (Bihar) and Kannauj (Uttar Pradesh). Soon Harshavardhana's empire extended from Gujarat (west) to Assam (east) and from Kashmir (north) to the Narmada River (south). A huge army was prepared. It is believed that Emperor Harshvardhan had more than 1 lakh soldiers in his army. Not only this, more than 60 thousand elephants were kept in the army. Harsha was a charitable emperor. Even though Emperor Harshvardhan conquered different states, he allowed the kings of those states to rule. The only condition was that they would accept Harsha as their emperor. However, such a treaty was not made with the kings of Kannauj and Thaneshwar. Better relations with China. In the 21st century, where political relations between emerging countries like India and China seem to be deteriorating, in the 7th century, Harsha had maintained better relations between the two countries on the basis of art and culture. According to history, the famous Chinese traveler Hiuen Tsang had stayed in Harsha's court as his friend for 8 years. Harsh banned the practice of 'Sati'. Harsh Vardhan had taken the initiative to root out social evils. The practice of Sati was completely banned during his rule. | {
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1458 | हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। | हर्षवर्धन के शासन में किस प्रथा पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया था ? | {
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"सती’ प्रथा"
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1616
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} | Which practice was completely banned under Harshavardhan's rule? | Harshavardhana was one of the last great kings of India. When the Gupta dynasty, which ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century, came to an end, Emperor Harsha emerged on the horizon of the country. He succeeded in uniting the entire North India by making Kannauj his capital. Became king at the young age of 16. After the murder of elder brother Rajyavardhan, the throne was handed over to Harshvardhan. At the age of playing, Harshvardhan had to enter the battlefield against King Shashank. It was Shashank who killed Rajyavardhan. Ruled over a large part of North India. Harshvardhan prepared a huge army and in about 6 years established his dominance over the entire North India by conquering Vallabhi (Gujarat), Punjab, Ganjam (Orissa), Bengal, Mithila (Bihar) and Kannauj (Uttar Pradesh). Soon Harshavardhana's empire extended from Gujarat (west) to Assam (east) and from Kashmir (north) to the Narmada River (south). A huge army was prepared. It is believed that Emperor Harshvardhan had more than 1 lakh soldiers in his army. Not only this, more than 60 thousand elephants were kept in the army. Harsha was a charitable emperor. Even though Emperor Harshvardhan conquered different states, he allowed the kings of those states to rule. The only condition was that they would accept Harsha as their emperor. However, such a treaty was not made with the kings of Kannauj and Thaneshwar. Better relations with China. In the 21st century, where political relations between emerging countries like India and China seem to be deteriorating, in the 7th century, Harsha had maintained better relations between the two countries on the basis of art and culture. According to history, the famous Chinese traveler Hiuen Tsang had stayed in Harsha's court as his friend for 8 years. Harsh banned the practice of 'Sati'. Harsh Vardhan had taken the initiative to root out social evils. The practice of Sati was completely banned during his rule. | {
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"Sati 'custom"
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1459 | हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। | राज्यवर्धन सिंह राठौर की हत्या किसने की थी ? | {
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"शशांक"
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} | Who killed Rajyavardhan Singh Rathore? | Harshavardhana was one of the last great kings of India. When the Gupta dynasty, which ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century, came to an end, Emperor Harsha emerged on the horizon of the country. He succeeded in uniting the entire North India by making Kannauj his capital. Became king at the young age of 16. After the murder of elder brother Rajyavardhan, the throne was handed over to Harshvardhan. At the age of playing, Harshvardhan had to enter the battlefield against King Shashank. It was Shashank who killed Rajyavardhan. Ruled over a large part of North India. Harshvardhan prepared a huge army and in about 6 years established his dominance over the entire North India by conquering Vallabhi (Gujarat), Punjab, Ganjam (Orissa), Bengal, Mithila (Bihar) and Kannauj (Uttar Pradesh). Soon Harshavardhana's empire extended from Gujarat (west) to Assam (east) and from Kashmir (north) to the Narmada River (south). A huge army was prepared. It is believed that Emperor Harshvardhan had more than 1 lakh soldiers in his army. Not only this, more than 60 thousand elephants were kept in the army. Harsha was a charitable emperor. Even though Emperor Harshvardhan conquered different states, he allowed the kings of those states to rule. The only condition was that they would accept Harsha as their emperor. However, such a treaty was not made with the kings of Kannauj and Thaneshwar. Better relations with China. In the 21st century, where political relations between emerging countries like India and China seem to be deteriorating, in the 7th century, Harsha had maintained better relations between the two countries on the basis of art and culture. According to history, the famous Chinese traveler Hiuen Tsang had stayed in Harsha's court as his friend for 8 years. Harsh banned the practice of 'Sati'. Harsh Vardhan had taken the initiative to root out social evils. The practice of Sati was completely banned during his rule. | {
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"Shashank"
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1460 | हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। | हर्षवर्धन ने किसे सती होने से बचाया था? | {
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} | Whom did Harshavardhan save from sati? | Harshavardhana was one of the last great kings of India. When the Gupta dynasty, which ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century, came to an end, Emperor Harsha emerged on the horizon of the country. He succeeded in uniting the entire North India by making Kannauj his capital. Became king at the young age of 16. After the murder of elder brother Rajyavardhan, the throne was handed over to Harshvardhan. At the age of playing, Harshvardhan had to enter the battlefield against King Shashank. It was Shashank who killed Rajyavardhan. Ruled over a large part of North India. Harshvardhan prepared a huge army and in about 6 years established his dominance over the entire North India by conquering Vallabhi (Gujarat), Punjab, Ganjam (Orissa), Bengal, Mithila (Bihar) and Kannauj (Uttar Pradesh). Soon Harshavardhana's empire extended from Gujarat (west) to Assam (east) and from Kashmir (north) to the Narmada River (south). A huge army was prepared. It is believed that Emperor Harshvardhan had more than 1 lakh soldiers in his army. Not only this, more than 60 thousand elephants were kept in the army. Harsha was a charitable emperor. Even though Emperor Harshvardhan conquered different states, he allowed the kings of those states to rule. The only condition was that they would accept Harsha as their emperor. However, such a treaty was not made with the kings of Kannauj and Thaneshwar. Better relations with China. In the 21st century, where political relations between emerging countries like India and China seem to be deteriorating, in the 7th century, Harsha had maintained better relations between the two countries on the basis of art and culture. According to history, the famous Chinese traveler Hiuen Tsang had stayed in Harsha's court as his friend for 8 years. Harsh banned the practice of 'Sati'. Harsh Vardhan had taken the initiative to root out social evils. The practice of Sati was completely banned during his rule. | {
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1461 | हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। | हर्षवर्धन कितने साल की उम्र में राजा बने थे ? | {
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"16 वर्ष"
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282
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} | At what age did Harshavardhana become the king? | Harshavardhana was one of the last great kings of India. When the Gupta dynasty, which ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century, came to an end, Emperor Harsha emerged on the horizon of the country. He succeeded in uniting the entire North India by making Kannauj his capital. Became king at the young age of 16. After the murder of elder brother Rajyavardhan, the throne was handed over to Harshvardhan. At the age of playing, Harshvardhan had to enter the battlefield against King Shashank. It was Shashank who killed Rajyavardhan. Ruled over a large part of North India. Harshvardhan prepared a huge army and in about 6 years established his dominance over the entire North India by conquering Vallabhi (Gujarat), Punjab, Ganjam (Orissa), Bengal, Mithila (Bihar) and Kannauj (Uttar Pradesh). Soon Harshavardhana's empire extended from Gujarat (west) to Assam (east) and from Kashmir (north) to the Narmada River (south). A huge army was prepared. It is believed that Emperor Harshvardhan had more than 1 lakh soldiers in his army. Not only this, more than 60 thousand elephants were kept in the army. Harsha was a charitable emperor. Even though Emperor Harshvardhan conquered different states, he allowed the kings of those states to rule. The only condition was that they would accept Harsha as their emperor. However, such a treaty was not made with the kings of Kannauj and Thaneshwar. Better relations with China. In the 21st century, where political relations between emerging countries like India and China seem to be deteriorating, in the 7th century, Harsha had maintained better relations between the two countries on the basis of art and culture. According to history, the famous Chinese traveler Hiuen Tsang had stayed in Harsha's court as his friend for 8 years. Harsh banned the practice of 'Sati'. Harsh Vardhan had taken the initiative to root out social evils. The practice of Sati was completely banned during his rule. | {
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282
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"16 years"
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1462 | हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। | राजा हर्षवर्धन ने अपने शासनकाल में किस राज्य को अपनी राजधानी बनाई थी ? | {
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"कन्नौज"
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195
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} | Which kingdom was made the capital by King Harshavardhana during his reign? | Harshavardhana was one of the last great kings of India. When the Gupta dynasty, which ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century, came to an end, Emperor Harsha emerged on the horizon of the country. He succeeded in uniting the entire North India by making Kannauj his capital. Became king at the young age of 16. After the murder of elder brother Rajyavardhan, the throne was handed over to Harshvardhan. At the age of playing, Harshvardhan had to enter the battlefield against King Shashank. It was Shashank who killed Rajyavardhan. Ruled over a large part of North India. Harshvardhan prepared a huge army and in about 6 years established his dominance over the entire North India by conquering Vallabhi (Gujarat), Punjab, Ganjam (Orissa), Bengal, Mithila (Bihar) and Kannauj (Uttar Pradesh). Soon Harshavardhana's empire extended from Gujarat (west) to Assam (east) and from Kashmir (north) to the Narmada River (south). A huge army was prepared. It is believed that Emperor Harshvardhan had more than 1 lakh soldiers in his army. Not only this, more than 60 thousand elephants were kept in the army. Harsha was a charitable emperor. Even though Emperor Harshvardhan conquered different states, he allowed the kings of those states to rule. The only condition was that they would accept Harsha as their emperor. However, such a treaty was not made with the kings of Kannauj and Thaneshwar. Better relations with China. In the 21st century, where political relations between emerging countries like India and China seem to be deteriorating, in the 7th century, Harsha had maintained better relations between the two countries on the basis of art and culture. According to history, the famous Chinese traveler Hiuen Tsang had stayed in Harsha's court as his friend for 8 years. Harsh banned the practice of 'Sati'. Harsh Vardhan had taken the initiative to root out social evils. The practice of Sati was completely banned during his rule. | {
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"Kannauj"
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1463 | हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। | चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी तक मगध से भारत पर किस वंश ने शासन किया था ? | {
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"गुप्त वंश"
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116
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} | Which dynasty ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century? | Harshavardhana was one of the last great kings of India. When the Gupta dynasty, which ruled India from Magadha from the 4th century to the 6th century, came to an end, Emperor Harsha emerged on the horizon of the country. He succeeded in uniting the entire North India by making Kannauj his capital. Became king at the young age of 16. After the murder of elder brother Rajyavardhan, the throne was handed over to Harshvardhan. At the age of playing, Harshvardhan had to enter the battlefield against King Shashank. It was Shashank who killed Rajyavardhan. Ruled over a large part of North India. Harshvardhan prepared a huge army and in about 6 years established his dominance over the entire North India by conquering Vallabhi (Gujarat), Punjab, Ganjam (Orissa), Bengal, Mithila (Bihar) and Kannauj (Uttar Pradesh). Soon Harshavardhana's empire extended from Gujarat (west) to Assam (east) and from Kashmir (north) to the Narmada River (south). A huge army was prepared. It is believed that Emperor Harshvardhan had more than 1 lakh soldiers in his army. Not only this, more than 60 thousand elephants were kept in the army. Harsha was a charitable emperor. Even though Emperor Harshvardhan conquered different states, he allowed the kings of those states to rule. The only condition was that they would accept Harsha as their emperor. However, such a treaty was not made with the kings of Kannauj and Thaneshwar. Better relations with China. In the 21st century, where political relations between emerging countries like India and China seem to be deteriorating, in the 7th century, Harsha had maintained better relations between the two countries on the basis of art and culture. According to history, the famous Chinese traveler Hiuen Tsang had stayed in Harsha's court as his friend for 8 years. Harsh banned the practice of 'Sati'. Harsh Vardhan had taken the initiative to root out social evils. The practice of Sati was completely banned during his rule. | {
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116
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"The Secret Dynasty"
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1464 | हिंद महासागर का इतिहास समुद्री व्यापार द्वारा चिह्नित है; सांस्कृतिक और वाणिज्यिक विनिमय शायद कम से कम सात हज़ार साल तक वापस आते हैं। इस अवधि के दौरान, अपने समुद्र तट के किनारे पर स्वतंत्र, लघु-दूरी वाले विदेशी संचार एक सर्व-गुप्त नेटवर्क में विकसित हुआ है इस नेटवर्क के डेब्यूट एक केंद्रीकृत या उन्नत सभ्यता की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि फारस की खाड़ी, लाल सागर और अरब सागर में स्थानीय और क्षेत्रीय विनिमय का था। उबैद के शेरज (2500-500 ईसा पूर्व) मिट्टी के बर्तनों को पश्चिमी खाड़ी में दिलीमुन, वर्तमान दिन बहरीन में मिला है; इस व्यापारिक केंद्र और मेसोपोटामिया के बीच विनिमय के निशान सुमेरियन ने तांबे, पत्थर, लकड़ी, टिन, तिथियां, प्याज और मोती के लिए अनाज, मिट्टी के बर्तनों और बिटुमेन (रीड नावों के लिए इस्तेमाल किया गया) का कारोबार किया। तटबंधी जहाजों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता (2600-19 00 ईसा पूर्व) के बीच सामान ले जाया (आधुनिक पाकिस्तान और भारत में गुजरात) और फारस की खाड़ी और मिस्र। एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस, लाल सागर से परे दुनिया के लिए एक अलेक्ज़ांड्रियन गाइड - अफ्रीका और भारत सहित - पहली शताब्दी सीई से, इस क्षेत्र में व्यापार में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है न केवल यह दर्शाता है कि रोमन और ग्रीक नाविकों ने पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर लिया था मानसून हवाओं। इंडोनेशियन नाविकों द्वारा मेडागास्कर के समकालीन निपटान से पता चलता है कि हिंद महासागर के किनारे का किनारा अच्छी तरह से आबादी वाला और नियमित रूप से इस समय कम से कम चल रहे थे। यद्यपि मानसून को सदियों से हिंद महासागर में सामान्य ज्ञान होना चाहिए। मेसोपोटामिया (सुमेर के साथ शुरुआत), प्राचीन मिस्र और भारतीय उपमहाद्वीप (सिंधु घाटी सभ्यता के साथ शुरुआत) में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं क्रमशः टाइग्रिस-फफेट्स, नाइल और सिंधु नदियों की घाटियों से शुरू हुई, सभी भारतीयों के आसपास विकसित हुईं सागर। सभ्यताएं शीघ्र ही फारस (एलाम से शुरुआत) में और बाद में दक्षिण पूर्व एशिया (फ़नन से शुरुआत) में उठी। मिस्र के पहले राजवंश (ई 3000 ईसा पूर्व) के दौरान, नाविकों को पानी के बाहर भेज दिया गया, जो पंट की यात्रा थी, वर्तमान में सोमालिया का हिस्सा माना जाता था। लौटने वाले जहाजों ने सोना और गंधर को लाया हिंद महासागर के साथ मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी (सी। 2500 ईसा पूर्व) के बीच सबसे पहले ज्ञात समुद्री व्यापार का आयोजन किया गया था। तीसरे सहस्राब्दी बीसीई के फिनिशियन क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन कोई भी बस्ती नहीं हुई। हिंद महासागर के अपेक्षाकृत शांत पानी ने अटलांटिक या प्रशांत महासागरों से पहले व्यापार करने के लिए इसे सीमा के क्षेत्रों को खोला। | सबसे पहला ज्ञात समुद्री व्यापार कब हुआ था? | {
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"2500 ईसा पूर्व"
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2000
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} | When did the earliest known sea trade take place? | The history of the Indian Ocean is marked by maritime trade; Cultural and commercial exchanges probably go back at least seven thousand years. During this period, independent, short-distance foreign communications along its coastline developed into an all-secret network. The début of this network was not the achievement of a centralized or advanced civilization, but rather a connection between the Persian Gulf, the Red Sea and There was local and regional exchange in the Arabian Sea. Sheraz pottery from the Ubaids (2500–500 BCE) has been found in Dilimun, present-day Bahrain, in the western Gulf; Traces of exchange between this trading center and Mesopotamia The Sumerians traded grain, pottery and bitumen (used for reed boats) for copper, stone, wood, tin, dates, onions and pearls. Coastal ships carried goods between the Harappan civilization (2600–1900 BCE) in India (modern Pakistan and Gujarat in India) and the Persian Gulf and Egypt. The Periplus of the Erythraean Sea, an Alexandrian guide to the world beyond the Red Sea – including Africa and India – from the 1st century CE, provides insight into trade in the region not only by showing that Roman and Greek sailors already had the knowledge Had received monsoon winds. Contemporary settlement of Madagascar by Indonesian sailors suggests that the Indian Ocean shores were well populated and regularly visited at least at this time. Although monsoons should be common knowledge in the Indian Ocean for centuries. The world's oldest civilizations in Mesopotamia (beginning with Sumer), Ancient Egypt, and the Indian subcontinent (beginning with the Indus Valley Civilization) began in the valleys of the Tigris-Febtes, Nile, and Indus rivers, respectively, all developing around the Indian Ocean. Civilizations soon arose in Persia (beginning with Elam) and later in Southeast Asia (beginning with Funan). During the First Dynasty of Egypt (AD 3000 BC), sailors were sent out on the water, traveling to Punt, currently part of Somalia. Returning ships brought gold and myrrh. The earliest known maritime trade was conducted along the Indian Ocean between Mesopotamia and the Indus Valley (c. 2500 BC). The Phoenicians may have entered the area in the third millennium BCE, but no settlements occurred. The relatively calm waters of the Indian Ocean opened the areas bordering it to trade before the Atlantic or Pacific Oceans. | {
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2000
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"2500 BCE."
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1465 | हिंद महासागर का इतिहास समुद्री व्यापार द्वारा चिह्नित है; सांस्कृतिक और वाणिज्यिक विनिमय शायद कम से कम सात हज़ार साल तक वापस आते हैं। इस अवधि के दौरान, अपने समुद्र तट के किनारे पर स्वतंत्र, लघु-दूरी वाले विदेशी संचार एक सर्व-गुप्त नेटवर्क में विकसित हुआ है इस नेटवर्क के डेब्यूट एक केंद्रीकृत या उन्नत सभ्यता की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि फारस की खाड़ी, लाल सागर और अरब सागर में स्थानीय और क्षेत्रीय विनिमय का था। उबैद के शेरज (2500-500 ईसा पूर्व) मिट्टी के बर्तनों को पश्चिमी खाड़ी में दिलीमुन, वर्तमान दिन बहरीन में मिला है; इस व्यापारिक केंद्र और मेसोपोटामिया के बीच विनिमय के निशान सुमेरियन ने तांबे, पत्थर, लकड़ी, टिन, तिथियां, प्याज और मोती के लिए अनाज, मिट्टी के बर्तनों और बिटुमेन (रीड नावों के लिए इस्तेमाल किया गया) का कारोबार किया। तटबंधी जहाजों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता (2600-19 00 ईसा पूर्व) के बीच सामान ले जाया (आधुनिक पाकिस्तान और भारत में गुजरात) और फारस की खाड़ी और मिस्र। एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस, लाल सागर से परे दुनिया के लिए एक अलेक्ज़ांड्रियन गाइड - अफ्रीका और भारत सहित - पहली शताब्दी सीई से, इस क्षेत्र में व्यापार में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है न केवल यह दर्शाता है कि रोमन और ग्रीक नाविकों ने पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर लिया था मानसून हवाओं। इंडोनेशियन नाविकों द्वारा मेडागास्कर के समकालीन निपटान से पता चलता है कि हिंद महासागर के किनारे का किनारा अच्छी तरह से आबादी वाला और नियमित रूप से इस समय कम से कम चल रहे थे। यद्यपि मानसून को सदियों से हिंद महासागर में सामान्य ज्ञान होना चाहिए। मेसोपोटामिया (सुमेर के साथ शुरुआत), प्राचीन मिस्र और भारतीय उपमहाद्वीप (सिंधु घाटी सभ्यता के साथ शुरुआत) में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं क्रमशः टाइग्रिस-फफेट्स, नाइल और सिंधु नदियों की घाटियों से शुरू हुई, सभी भारतीयों के आसपास विकसित हुईं सागर। सभ्यताएं शीघ्र ही फारस (एलाम से शुरुआत) में और बाद में दक्षिण पूर्व एशिया (फ़नन से शुरुआत) में उठी। मिस्र के पहले राजवंश (ई 3000 ईसा पूर्व) के दौरान, नाविकों को पानी के बाहर भेज दिया गया, जो पंट की यात्रा थी, वर्तमान में सोमालिया का हिस्सा माना जाता था। लौटने वाले जहाजों ने सोना और गंधर को लाया हिंद महासागर के साथ मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी (सी। 2500 ईसा पूर्व) के बीच सबसे पहले ज्ञात समुद्री व्यापार का आयोजन किया गया था। तीसरे सहस्राब्दी बीसीई के फिनिशियन क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन कोई भी बस्ती नहीं हुई। हिंद महासागर के अपेक्षाकृत शांत पानी ने अटलांटिक या प्रशांत महासागरों से पहले व्यापार करने के लिए इसे सीमा के क्षेत्रों को खोला। | 1 सीई के आसपास इंडोनेशियाई लोगों को कहाँ बसने की अनुमति दी गई? | {
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} | Where were the Indonesians allowed to settle around 1 CE? | The history of the Indian Ocean is marked by maritime trade; Cultural and commercial exchanges probably go back at least seven thousand years. During this period, independent, short-distance foreign communications along its coastline developed into an all-secret network. The début of this network was not the achievement of a centralized or advanced civilization, but rather a connection between the Persian Gulf, the Red Sea and There was local and regional exchange in the Arabian Sea. Sheraz pottery from the Ubaids (2500–500 BCE) has been found in Dilimun, present-day Bahrain, in the western Gulf; Traces of exchange between this trading center and Mesopotamia The Sumerians traded grain, pottery and bitumen (used for reed boats) for copper, stone, wood, tin, dates, onions and pearls. Coastal ships carried goods between the Harappan civilization (2600–1900 BCE) in India (modern Pakistan and Gujarat in India) and the Persian Gulf and Egypt. The Periplus of the Erythraean Sea, an Alexandrian guide to the world beyond the Red Sea – including Africa and India – from the 1st century CE, provides insight into trade in the region not only by showing that Roman and Greek sailors already had the knowledge Had received monsoon winds. Contemporary settlement of Madagascar by Indonesian sailors suggests that the Indian Ocean shores were well populated and regularly visited at least at this time. Although monsoons should be common knowledge in the Indian Ocean for centuries. The world's oldest civilizations in Mesopotamia (beginning with Sumer), Ancient Egypt, and the Indian subcontinent (beginning with the Indus Valley Civilization) began in the valleys of the Tigris-Febtes, Nile, and Indus rivers, respectively, all developing around the Indian Ocean. Civilizations soon arose in Persia (beginning with Elam) and later in Southeast Asia (beginning with Funan). During the First Dynasty of Egypt (AD 3000 BC), sailors were sent out on the water, traveling to Punt, currently part of Somalia. Returning ships brought gold and myrrh. The earliest known maritime trade was conducted along the Indian Ocean between Mesopotamia and the Indus Valley (c. 2500 BC). The Phoenicians may have entered the area in the third millennium BCE, but no settlements occurred. The relatively calm waters of the Indian Ocean opened the areas bordering it to trade before the Atlantic or Pacific Oceans. | {
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1466 | हिंद महासागर का इतिहास समुद्री व्यापार द्वारा चिह्नित है; सांस्कृतिक और वाणिज्यिक विनिमय शायद कम से कम सात हज़ार साल तक वापस आते हैं। इस अवधि के दौरान, अपने समुद्र तट के किनारे पर स्वतंत्र, लघु-दूरी वाले विदेशी संचार एक सर्व-गुप्त नेटवर्क में विकसित हुआ है इस नेटवर्क के डेब्यूट एक केंद्रीकृत या उन्नत सभ्यता की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि फारस की खाड़ी, लाल सागर और अरब सागर में स्थानीय और क्षेत्रीय विनिमय का था। उबैद के शेरज (2500-500 ईसा पूर्व) मिट्टी के बर्तनों को पश्चिमी खाड़ी में दिलीमुन, वर्तमान दिन बहरीन में मिला है; इस व्यापारिक केंद्र और मेसोपोटामिया के बीच विनिमय के निशान सुमेरियन ने तांबे, पत्थर, लकड़ी, टिन, तिथियां, प्याज और मोती के लिए अनाज, मिट्टी के बर्तनों और बिटुमेन (रीड नावों के लिए इस्तेमाल किया गया) का कारोबार किया। तटबंधी जहाजों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता (2600-19 00 ईसा पूर्व) के बीच सामान ले जाया (आधुनिक पाकिस्तान और भारत में गुजरात) और फारस की खाड़ी और मिस्र। एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस, लाल सागर से परे दुनिया के लिए एक अलेक्ज़ांड्रियन गाइड - अफ्रीका और भारत सहित - पहली शताब्दी सीई से, इस क्षेत्र में व्यापार में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है न केवल यह दर्शाता है कि रोमन और ग्रीक नाविकों ने पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर लिया था मानसून हवाओं। इंडोनेशियन नाविकों द्वारा मेडागास्कर के समकालीन निपटान से पता चलता है कि हिंद महासागर के किनारे का किनारा अच्छी तरह से आबादी वाला और नियमित रूप से इस समय कम से कम चल रहे थे। यद्यपि मानसून को सदियों से हिंद महासागर में सामान्य ज्ञान होना चाहिए। मेसोपोटामिया (सुमेर के साथ शुरुआत), प्राचीन मिस्र और भारतीय उपमहाद्वीप (सिंधु घाटी सभ्यता के साथ शुरुआत) में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं क्रमशः टाइग्रिस-फफेट्स, नाइल और सिंधु नदियों की घाटियों से शुरू हुई, सभी भारतीयों के आसपास विकसित हुईं सागर। सभ्यताएं शीघ्र ही फारस (एलाम से शुरुआत) में और बाद में दक्षिण पूर्व एशिया (फ़नन से शुरुआत) में उठी। मिस्र के पहले राजवंश (ई 3000 ईसा पूर्व) के दौरान, नाविकों को पानी के बाहर भेज दिया गया, जो पंट की यात्रा थी, वर्तमान में सोमालिया का हिस्सा माना जाता था। लौटने वाले जहाजों ने सोना और गंधर को लाया हिंद महासागर के साथ मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी (सी। 2500 ईसा पूर्व) के बीच सबसे पहले ज्ञात समुद्री व्यापार का आयोजन किया गया था। तीसरे सहस्राब्दी बीसीई के फिनिशियन क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन कोई भी बस्ती नहीं हुई। हिंद महासागर के अपेक्षाकृत शांत पानी ने अटलांटिक या प्रशांत महासागरों से पहले व्यापार करने के लिए इसे सीमा के क्षेत्रों को खोला। | मिट्टी के बर्तन कहां पाए गए थे? | {
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} | Where were the pottery found? | The history of the Indian Ocean is marked by maritime trade; Cultural and commercial exchanges probably go back at least seven thousand years. During this period, independent, short-distance foreign communications along its coastline developed into an all-secret network. The début of this network was not the achievement of a centralized or advanced civilization, but rather a connection between the Persian Gulf, the Red Sea and There was local and regional exchange in the Arabian Sea. Sheraz pottery from the Ubaids (2500–500 BCE) has been found in Dilimun, present-day Bahrain, in the western Gulf; Traces of exchange between this trading center and Mesopotamia The Sumerians traded grain, pottery and bitumen (used for reed boats) for copper, stone, wood, tin, dates, onions and pearls. Coastal ships carried goods between the Harappan civilization (2600–1900 BCE) in India (modern Pakistan and Gujarat in India) and the Persian Gulf and Egypt. The Periplus of the Erythraean Sea, an Alexandrian guide to the world beyond the Red Sea – including Africa and India – from the 1st century CE, provides insight into trade in the region not only by showing that Roman and Greek sailors already had the knowledge Had received monsoon winds. Contemporary settlement of Madagascar by Indonesian sailors suggests that the Indian Ocean shores were well populated and regularly visited at least at this time. Although monsoons should be common knowledge in the Indian Ocean for centuries. The world's oldest civilizations in Mesopotamia (beginning with Sumer), Ancient Egypt, and the Indian subcontinent (beginning with the Indus Valley Civilization) began in the valleys of the Tigris-Febtes, Nile, and Indus rivers, respectively, all developing around the Indian Ocean. Civilizations soon arose in Persia (beginning with Elam) and later in Southeast Asia (beginning with Funan). During the First Dynasty of Egypt (AD 3000 BC), sailors were sent out on the water, traveling to Punt, currently part of Somalia. Returning ships brought gold and myrrh. The earliest known maritime trade was conducted along the Indian Ocean between Mesopotamia and the Indus Valley (c. 2500 BC). The Phoenicians may have entered the area in the third millennium BCE, but no settlements occurred. The relatively calm waters of the Indian Ocean opened the areas bordering it to trade before the Atlantic or Pacific Oceans. | {
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1467 | हिंद महासागर का इतिहास समुद्री व्यापार द्वारा चिह्नित है; सांस्कृतिक और वाणिज्यिक विनिमय शायद कम से कम सात हज़ार साल तक वापस आते हैं। इस अवधि के दौरान, अपने समुद्र तट के किनारे पर स्वतंत्र, लघु-दूरी वाले विदेशी संचार एक सर्व-गुप्त नेटवर्क में विकसित हुआ है इस नेटवर्क के डेब्यूट एक केंद्रीकृत या उन्नत सभ्यता की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि फारस की खाड़ी, लाल सागर और अरब सागर में स्थानीय और क्षेत्रीय विनिमय का था। उबैद के शेरज (2500-500 ईसा पूर्व) मिट्टी के बर्तनों को पश्चिमी खाड़ी में दिलीमुन, वर्तमान दिन बहरीन में मिला है; इस व्यापारिक केंद्र और मेसोपोटामिया के बीच विनिमय के निशान सुमेरियन ने तांबे, पत्थर, लकड़ी, टिन, तिथियां, प्याज और मोती के लिए अनाज, मिट्टी के बर्तनों और बिटुमेन (रीड नावों के लिए इस्तेमाल किया गया) का कारोबार किया। तटबंधी जहाजों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता (2600-19 00 ईसा पूर्व) के बीच सामान ले जाया (आधुनिक पाकिस्तान और भारत में गुजरात) और फारस की खाड़ी और मिस्र। एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस, लाल सागर से परे दुनिया के लिए एक अलेक्ज़ांड्रियन गाइड - अफ्रीका और भारत सहित - पहली शताब्दी सीई से, इस क्षेत्र में व्यापार में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है न केवल यह दर्शाता है कि रोमन और ग्रीक नाविकों ने पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर लिया था मानसून हवाओं। इंडोनेशियन नाविकों द्वारा मेडागास्कर के समकालीन निपटान से पता चलता है कि हिंद महासागर के किनारे का किनारा अच्छी तरह से आबादी वाला और नियमित रूप से इस समय कम से कम चल रहे थे। यद्यपि मानसून को सदियों से हिंद महासागर में सामान्य ज्ञान होना चाहिए। मेसोपोटामिया (सुमेर के साथ शुरुआत), प्राचीन मिस्र और भारतीय उपमहाद्वीप (सिंधु घाटी सभ्यता के साथ शुरुआत) में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं क्रमशः टाइग्रिस-फफेट्स, नाइल और सिंधु नदियों की घाटियों से शुरू हुई, सभी भारतीयों के आसपास विकसित हुईं सागर। सभ्यताएं शीघ्र ही फारस (एलाम से शुरुआत) में और बाद में दक्षिण पूर्व एशिया (फ़नन से शुरुआत) में उठी। मिस्र के पहले राजवंश (ई 3000 ईसा पूर्व) के दौरान, नाविकों को पानी के बाहर भेज दिया गया, जो पंट की यात्रा थी, वर्तमान में सोमालिया का हिस्सा माना जाता था। लौटने वाले जहाजों ने सोना और गंधर को लाया हिंद महासागर के साथ मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी (सी। 2500 ईसा पूर्व) के बीच सबसे पहले ज्ञात समुद्री व्यापार का आयोजन किया गया था। तीसरे सहस्राब्दी बीसीई के फिनिशियन क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन कोई भी बस्ती नहीं हुई। हिंद महासागर के अपेक्षाकृत शांत पानी ने अटलांटिक या प्रशांत महासागरों से पहले व्यापार करने के लिए इसे सीमा के क्षेत्रों को खोला। | हिंद महासागर को पार करने वाला पहला यूनानी कौन था? | {
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} | Who was the first Greek to cross the Indian Ocean? | The history of the Indian Ocean is marked by maritime trade; Cultural and commercial exchanges probably go back at least seven thousand years. During this period, independent, short-distance foreign communications along its coastline developed into an all-secret network. The début of this network was not the achievement of a centralized or advanced civilization, but rather a connection between the Persian Gulf, the Red Sea and There was local and regional exchange in the Arabian Sea. Sheraz pottery from the Ubaids (2500–500 BCE) has been found in Dilimun, present-day Bahrain, in the western Gulf; Traces of exchange between this trading center and Mesopotamia The Sumerians traded grain, pottery and bitumen (used for reed boats) for copper, stone, wood, tin, dates, onions and pearls. Coastal ships carried goods between the Harappan civilization (2600–1900 BCE) in India (modern Pakistan and Gujarat in India) and the Persian Gulf and Egypt. The Periplus of the Erythraean Sea, an Alexandrian guide to the world beyond the Red Sea – including Africa and India – from the 1st century CE, provides insight into trade in the region not only by showing that Roman and Greek sailors already had the knowledge Had received monsoon winds. Contemporary settlement of Madagascar by Indonesian sailors suggests that the Indian Ocean shores were well populated and regularly visited at least at this time. Although monsoons should be common knowledge in the Indian Ocean for centuries. The world's oldest civilizations in Mesopotamia (beginning with Sumer), Ancient Egypt, and the Indian subcontinent (beginning with the Indus Valley Civilization) began in the valleys of the Tigris-Febtes, Nile, and Indus rivers, respectively, all developing around the Indian Ocean. Civilizations soon arose in Persia (beginning with Elam) and later in Southeast Asia (beginning with Funan). During the First Dynasty of Egypt (AD 3000 BC), sailors were sent out on the water, traveling to Punt, currently part of Somalia. Returning ships brought gold and myrrh. The earliest known maritime trade was conducted along the Indian Ocean between Mesopotamia and the Indus Valley (c. 2500 BC). The Phoenicians may have entered the area in the third millennium BCE, but no settlements occurred. The relatively calm waters of the Indian Ocean opened the areas bordering it to trade before the Atlantic or Pacific Oceans. | {
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1468 | हिंद महासागर का इतिहास समुद्री व्यापार द्वारा चिह्नित है; सांस्कृतिक और वाणिज्यिक विनिमय शायद कम से कम सात हज़ार साल तक वापस आते हैं। इस अवधि के दौरान, अपने समुद्र तट के किनारे पर स्वतंत्र, लघु-दूरी वाले विदेशी संचार एक सर्व-गुप्त नेटवर्क में विकसित हुआ है इस नेटवर्क के डेब्यूट एक केंद्रीकृत या उन्नत सभ्यता की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि फारस की खाड़ी, लाल सागर और अरब सागर में स्थानीय और क्षेत्रीय विनिमय का था। उबैद के शेरज (2500-500 ईसा पूर्व) मिट्टी के बर्तनों को पश्चिमी खाड़ी में दिलीमुन, वर्तमान दिन बहरीन में मिला है; इस व्यापारिक केंद्र और मेसोपोटामिया के बीच विनिमय के निशान सुमेरियन ने तांबे, पत्थर, लकड़ी, टिन, तिथियां, प्याज और मोती के लिए अनाज, मिट्टी के बर्तनों और बिटुमेन (रीड नावों के लिए इस्तेमाल किया गया) का कारोबार किया। तटबंधी जहाजों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता (2600-19 00 ईसा पूर्व) के बीच सामान ले जाया (आधुनिक पाकिस्तान और भारत में गुजरात) और फारस की खाड़ी और मिस्र। एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस, लाल सागर से परे दुनिया के लिए एक अलेक्ज़ांड्रियन गाइड - अफ्रीका और भारत सहित - पहली शताब्दी सीई से, इस क्षेत्र में व्यापार में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है न केवल यह दर्शाता है कि रोमन और ग्रीक नाविकों ने पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर लिया था मानसून हवाओं। इंडोनेशियन नाविकों द्वारा मेडागास्कर के समकालीन निपटान से पता चलता है कि हिंद महासागर के किनारे का किनारा अच्छी तरह से आबादी वाला और नियमित रूप से इस समय कम से कम चल रहे थे। यद्यपि मानसून को सदियों से हिंद महासागर में सामान्य ज्ञान होना चाहिए। मेसोपोटामिया (सुमेर के साथ शुरुआत), प्राचीन मिस्र और भारतीय उपमहाद्वीप (सिंधु घाटी सभ्यता के साथ शुरुआत) में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं क्रमशः टाइग्रिस-फफेट्स, नाइल और सिंधु नदियों की घाटियों से शुरू हुई, सभी भारतीयों के आसपास विकसित हुईं सागर। सभ्यताएं शीघ्र ही फारस (एलाम से शुरुआत) में और बाद में दक्षिण पूर्व एशिया (फ़नन से शुरुआत) में उठी। मिस्र के पहले राजवंश (ई 3000 ईसा पूर्व) के दौरान, नाविकों को पानी के बाहर भेज दिया गया, जो पंट की यात्रा थी, वर्तमान में सोमालिया का हिस्सा माना जाता था। लौटने वाले जहाजों ने सोना और गंधर को लाया हिंद महासागर के साथ मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी (सी। 2500 ईसा पूर्व) के बीच सबसे पहले ज्ञात समुद्री व्यापार का आयोजन किया गया था। तीसरे सहस्राब्दी बीसीई के फिनिशियन क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन कोई भी बस्ती नहीं हुई। हिंद महासागर के अपेक्षाकृत शांत पानी ने अटलांटिक या प्रशांत महासागरों से पहले व्यापार करने के लिए इसे सीमा के क्षेत्रों को खोला। | सांस्कृतिक और वाणिज्यिक आदान-प्रदान कितने वर्षों में वापस आते थे? | {
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"सात हज़ार साल"
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103
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} | In how many years did cultural and commercial exchanges return? | The history of the Indian Ocean is marked by maritime trade; Cultural and commercial exchanges probably go back at least seven thousand years. During this period, independent, short-distance foreign communications along its coastline developed into an all-secret network. The début of this network was not the achievement of a centralized or advanced civilization, but rather a connection between the Persian Gulf, the Red Sea and There was local and regional exchange in the Arabian Sea. Sheraz pottery from the Ubaids (2500–500 BCE) has been found in Dilimun, present-day Bahrain, in the western Gulf; Traces of exchange between this trading center and Mesopotamia The Sumerians traded grain, pottery and bitumen (used for reed boats) for copper, stone, wood, tin, dates, onions and pearls. Coastal ships carried goods between the Harappan civilization (2600–1900 BCE) in India (modern Pakistan and Gujarat in India) and the Persian Gulf and Egypt. The Periplus of the Erythraean Sea, an Alexandrian guide to the world beyond the Red Sea – including Africa and India – from the 1st century CE, provides insight into trade in the region not only by showing that Roman and Greek sailors already had the knowledge Had received monsoon winds. Contemporary settlement of Madagascar by Indonesian sailors suggests that the Indian Ocean shores were well populated and regularly visited at least at this time. Although monsoons should be common knowledge in the Indian Ocean for centuries. The world's oldest civilizations in Mesopotamia (beginning with Sumer), Ancient Egypt, and the Indian subcontinent (beginning with the Indus Valley Civilization) began in the valleys of the Tigris-Febtes, Nile, and Indus rivers, respectively, all developing around the Indian Ocean. Civilizations soon arose in Persia (beginning with Elam) and later in Southeast Asia (beginning with Funan). During the First Dynasty of Egypt (AD 3000 BC), sailors were sent out on the water, traveling to Punt, currently part of Somalia. Returning ships brought gold and myrrh. The earliest known maritime trade was conducted along the Indian Ocean between Mesopotamia and the Indus Valley (c. 2500 BC). The Phoenicians may have entered the area in the third millennium BCE, but no settlements occurred. The relatively calm waters of the Indian Ocean opened the areas bordering it to trade before the Atlantic or Pacific Oceans. | {
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103
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"seven thousand years."
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1469 | हिंद महासागर का इतिहास समुद्री व्यापार द्वारा चिह्नित है; सांस्कृतिक और वाणिज्यिक विनिमय शायद कम से कम सात हज़ार साल तक वापस आते हैं। इस अवधि के दौरान, अपने समुद्र तट के किनारे पर स्वतंत्र, लघु-दूरी वाले विदेशी संचार एक सर्व-गुप्त नेटवर्क में विकसित हुआ है इस नेटवर्क के डेब्यूट एक केंद्रीकृत या उन्नत सभ्यता की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि फारस की खाड़ी, लाल सागर और अरब सागर में स्थानीय और क्षेत्रीय विनिमय का था। उबैद के शेरज (2500-500 ईसा पूर्व) मिट्टी के बर्तनों को पश्चिमी खाड़ी में दिलीमुन, वर्तमान दिन बहरीन में मिला है; इस व्यापारिक केंद्र और मेसोपोटामिया के बीच विनिमय के निशान सुमेरियन ने तांबे, पत्थर, लकड़ी, टिन, तिथियां, प्याज और मोती के लिए अनाज, मिट्टी के बर्तनों और बिटुमेन (रीड नावों के लिए इस्तेमाल किया गया) का कारोबार किया। तटबंधी जहाजों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता (2600-19 00 ईसा पूर्व) के बीच सामान ले जाया (आधुनिक पाकिस्तान और भारत में गुजरात) और फारस की खाड़ी और मिस्र। एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस, लाल सागर से परे दुनिया के लिए एक अलेक्ज़ांड्रियन गाइड - अफ्रीका और भारत सहित - पहली शताब्दी सीई से, इस क्षेत्र में व्यापार में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है न केवल यह दर्शाता है कि रोमन और ग्रीक नाविकों ने पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर लिया था मानसून हवाओं। इंडोनेशियन नाविकों द्वारा मेडागास्कर के समकालीन निपटान से पता चलता है कि हिंद महासागर के किनारे का किनारा अच्छी तरह से आबादी वाला और नियमित रूप से इस समय कम से कम चल रहे थे। यद्यपि मानसून को सदियों से हिंद महासागर में सामान्य ज्ञान होना चाहिए। मेसोपोटामिया (सुमेर के साथ शुरुआत), प्राचीन मिस्र और भारतीय उपमहाद्वीप (सिंधु घाटी सभ्यता के साथ शुरुआत) में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं क्रमशः टाइग्रिस-फफेट्स, नाइल और सिंधु नदियों की घाटियों से शुरू हुई, सभी भारतीयों के आसपास विकसित हुईं सागर। सभ्यताएं शीघ्र ही फारस (एलाम से शुरुआत) में और बाद में दक्षिण पूर्व एशिया (फ़नन से शुरुआत) में उठी। मिस्र के पहले राजवंश (ई 3000 ईसा पूर्व) के दौरान, नाविकों को पानी के बाहर भेज दिया गया, जो पंट की यात्रा थी, वर्तमान में सोमालिया का हिस्सा माना जाता था। लौटने वाले जहाजों ने सोना और गंधर को लाया हिंद महासागर के साथ मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी (सी। 2500 ईसा पूर्व) के बीच सबसे पहले ज्ञात समुद्री व्यापार का आयोजन किया गया था। तीसरे सहस्राब्दी बीसीई के फिनिशियन क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन कोई भी बस्ती नहीं हुई। हिंद महासागर के अपेक्षाकृत शांत पानी ने अटलांटिक या प्रशांत महासागरों से पहले व्यापार करने के लिए इसे सीमा के क्षेत्रों को खोला। | हिंद महासागर के किनारों में आबादी रहती थी यह किसके द्वारा पता चला था? | {
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"इंडोनेशियन नाविकों"
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1165
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} | By whom was it discovered that the shores of the Indian Ocean were inhabited? | The history of the Indian Ocean is marked by maritime trade; Cultural and commercial exchanges probably go back at least seven thousand years. During this period, independent, short-distance foreign communications along its coastline developed into an all-secret network. The début of this network was not the achievement of a centralized or advanced civilization, but rather a connection between the Persian Gulf, the Red Sea and There was local and regional exchange in the Arabian Sea. Sheraz pottery from the Ubaids (2500–500 BCE) has been found in Dilimun, present-day Bahrain, in the western Gulf; Traces of exchange between this trading center and Mesopotamia The Sumerians traded grain, pottery and bitumen (used for reed boats) for copper, stone, wood, tin, dates, onions and pearls. Coastal ships carried goods between the Harappan civilization (2600–1900 BCE) in India (modern Pakistan and Gujarat in India) and the Persian Gulf and Egypt. The Periplus of the Erythraean Sea, an Alexandrian guide to the world beyond the Red Sea – including Africa and India – from the 1st century CE, provides insight into trade in the region not only by showing that Roman and Greek sailors already had the knowledge Had received monsoon winds. Contemporary settlement of Madagascar by Indonesian sailors suggests that the Indian Ocean shores were well populated and regularly visited at least at this time. Although monsoons should be common knowledge in the Indian Ocean for centuries. The world's oldest civilizations in Mesopotamia (beginning with Sumer), Ancient Egypt, and the Indian subcontinent (beginning with the Indus Valley Civilization) began in the valleys of the Tigris-Febtes, Nile, and Indus rivers, respectively, all developing around the Indian Ocean. Civilizations soon arose in Persia (beginning with Elam) and later in Southeast Asia (beginning with Funan). During the First Dynasty of Egypt (AD 3000 BC), sailors were sent out on the water, traveling to Punt, currently part of Somalia. Returning ships brought gold and myrrh. The earliest known maritime trade was conducted along the Indian Ocean between Mesopotamia and the Indus Valley (c. 2500 BC). The Phoenicians may have entered the area in the third millennium BCE, but no settlements occurred. The relatively calm waters of the Indian Ocean opened the areas bordering it to trade before the Atlantic or Pacific Oceans. | {
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1165
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"The Indonesian sailors"
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1470 | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,ने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। | हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम किसके अवतार थे? | {
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"विष्णु"
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38
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} | According to Hindu mythology, Lord Rama was the incarnation of whom? | According to Hindu scriptures, Lord Rama was the human incarnation of Vishnu. The purpose of this incarnation was to guide mankind towards an ideal life in the mortal world. Ultimately Shri Ram killed Ravana, the king of the demon race and re-established religion. In the city of Ayodhya, there was a king named Dasharatha who had wives named Kaushalya, Kaikeyi and Sumitra. In order to have a child, Ayodhyapati Dasharatha, on the orders of his Guru Shri Vashishtha, performed the Putrakameshti Yagya, which was performed by Ringi Rishi. Agnidev was pleased after receiving the devotional offerings and he himself appeared and gave Havishyapatra (kheer, emulsion) to King Dashrath, which he distributed among his three wives. As a result of consumption of Kheer, Ram was born from Kaushalya's womb, Bharat from Kaikeyi's womb and Lakshman and Shatrughan were born from Sumitra's womb. When the princes grew up, sage Vishwamitra asked King Dasharatha to take Ram and Lakshman with him to protect the ashram from demons. Rama killed the demons Tataka and Subahu and sent Marich across the ocean by shooting him with a fruitless arrow. On the other hand, Lakshman killed the entire army of demons. On receiving the invitation of King Janak for Dhanushayagya, Vishwamitra came to his city Mithila (Janakpur) along with Ram and Lakshman. On the way, Ram saved Gautam Muni's wife Ahalya. After coming to Mithila, when Ram saw Shiv's bow and tried to lift it, it broke in the middle and as per the promise made by the people, Ram married Sita. Along with the marriage of Ram and Sita, Guru Vashishtha got Bharat married to Mandavi, Lakshman to Urmila and Shatrughan to Shrutkirti. Some time after Ram's marriage, King Dasharatha wanted to coronate Ram. Then Manthara, who was Kaikeyi's maid, changed Kaikeyi's mind. On the advice of Manthara, Kaikeyi went to the palace. When Dasharatha came to persuade, Kaikeyi asked him for a boon that Bharat should be made the king and Ram should be sent into exile for fourteen years. Sita and Lakshman also went to the forest with Ram. Nishadraj Guh served all three of them a lot in Ringverpur. After some reluctance, the boatman took all three across the river Ganga. After reaching Prayag, Ram met Sage Bhardwaj. From there, Ram reached the ashram of sage Valmiki while taking bath in Yamuna. According to the advice received from Valmiki, Ram, Sita and Lakshman started residing in Chitrakoot. Dasharatha died due to the separation of his son in Ayodhya. Vashishtha called Bharat and Shatrughan from their maternal home. On returning, Bharat scolded his mother Kaikeyi for her wickedness and performed the last rites of Dasharatha as per the orders of his teachers. Bharat rejected the kingdom of Ayodhya and went to Chitrakoot with all his loved ones to convince Ram and bring him back. Kaikeyi also felt extremely remorseful for her actions. Bharat and all the others proposed to Ram to return to Ayodhya and rule, which Ram rejected in order to obey his father's orders and follow the tradition of Raghuvansh. Bharat along with his loving people returned to Ayodhya taking Ram's Paduka with him. He placed Ram's Paduka on the throne and himself started residing in Nandigram. After some time, Ram left Chitrakoot and reached the ashram of Sage Atri. Atri praised Ram and his wife Anasuya explained the essence of Pativrata religion to Sita. From there Ram proceeded further and met Sage Sharbhang. Sage Sharbhang was residing there only with the desire of seeing Ram, hence after his desire of seeing Ram was fulfilled, he burnt his body with the fire of Yoga and went to Brahmalok. Moving further, Ram saw heaps of bones at various places, about which the sages told Ram that the demons had eaten many sages and these were the bones of those sages. On this, Ram promised that he would kill all the demons and make the earth demon-free. Ram proceeded further and meeting sages Sutikshna, Agastya etc. on the way, entered the Dandak forest where he met Jatayu. Ram made Panchavati his residence. Ravana's sister Shurpanakha came to Panchavati and proposed to Ram. Ram sent him to Lakshman saying that he was with his wife and his younger brother was alone. Rejecting her love request, Lakshman cut off her nose and ears, considering her to be his enemy's sister. Shurpanakha sought help from Khar-Dushan and he came to fight with his army. In the battle, Ram killed Khar-Dushan and his army. Shurpanakha went and complained to her brother Ravana. To take revenge, Ravana sent Marich as a golden deer whose bark Sita demanded from Ram. After ordering Lakshman to protect Sita, Ram went after her to kill Marich, the golden deer. He was killed by Marich, but while dying, Marich imitated Ram and cried 'Ha Lakshman', hearing which Sita, in fear, sent Lakshman to Ram. After Lakshman's departure, Ravana abducted Sita alone and took her with him to Lanka. On the way, Jatayu fought with Ravana to save Sita and Ravana killed him with a sword strike. Ram became very sad and started mourning after not finding Sita. When Jatayu met Jatayu on the way, he told Ram about his plight and about Ravana taking away Sita towards the south. to tell all this After this, Jatayu gave up his life and Ram performed his last rites and proceeded inside the dense forest in search of Sita. On the way, Ram saved Gandharva Kabandha, who had become a demon due to the curse of Durvasa, by killing him and reached Shabari's ashram where he ate the false berries given by her due to his devotion. Thus Ram proceeded further inside the dense forest in search of Sita. Ram came near Rishyamook mountain. | {
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"Vishnu"
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1471 | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,ने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। | भगवान राम के पिता का क्या नाम था? | {
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"दशरथ"
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} | What was the name of Lord Rama's father? | According to Hindu scriptures, Lord Rama was the human incarnation of Vishnu. The purpose of this incarnation was to guide mankind towards an ideal life in the mortal world. Ultimately Shri Ram killed Ravana, the king of the demon race and re-established religion. In the city of Ayodhya, there was a king named Dasharatha who had wives named Kaushalya, Kaikeyi and Sumitra. In order to have a child, Ayodhyapati Dasharatha, on the orders of his Guru Shri Vashishtha, performed the Putrakameshti Yagya, which was performed by Ringi Rishi. Agnidev was pleased after receiving the devotional offerings and he himself appeared and gave Havishyapatra (kheer, emulsion) to King Dashrath, which he distributed among his three wives. As a result of consumption of Kheer, Ram was born from Kaushalya's womb, Bharat from Kaikeyi's womb and Lakshman and Shatrughan were born from Sumitra's womb. When the princes grew up, sage Vishwamitra asked King Dasharatha to take Ram and Lakshman with him to protect the ashram from demons. Rama killed the demons Tataka and Subahu and sent Marich across the ocean by shooting him with a fruitless arrow. On the other hand, Lakshman killed the entire army of demons. On receiving the invitation of King Janak for Dhanushayagya, Vishwamitra came to his city Mithila (Janakpur) along with Ram and Lakshman. On the way, Ram saved Gautam Muni's wife Ahalya. After coming to Mithila, when Ram saw Shiv's bow and tried to lift it, it broke in the middle and as per the promise made by the people, Ram married Sita. Along with the marriage of Ram and Sita, Guru Vashishtha got Bharat married to Mandavi, Lakshman to Urmila and Shatrughan to Shrutkirti. Some time after Ram's marriage, King Dasharatha wanted to coronate Ram. Then Manthara, who was Kaikeyi's maid, changed Kaikeyi's mind. On the advice of Manthara, Kaikeyi went to the palace. When Dasharatha came to persuade, Kaikeyi asked him for a boon that Bharat should be made the king and Ram should be sent into exile for fourteen years. Sita and Lakshman also went to the forest with Ram. Nishadraj Guh served all three of them a lot in Ringverpur. After some reluctance, the boatman took all three across the river Ganga. After reaching Prayag, Ram met Sage Bhardwaj. From there, Ram reached the ashram of sage Valmiki while taking bath in Yamuna. According to the advice received from Valmiki, Ram, Sita and Lakshman started residing in Chitrakoot. Dasharatha died due to the separation of his son in Ayodhya. Vashishtha called Bharat and Shatrughan from their maternal home. On returning, Bharat scolded his mother Kaikeyi for her wickedness and performed the last rites of Dasharatha as per the orders of his teachers. Bharat rejected the kingdom of Ayodhya and went to Chitrakoot with all his loved ones to convince Ram and bring him back. Kaikeyi also felt extremely remorseful for her actions. Bharat and all the others proposed to Ram to return to Ayodhya and rule, which Ram rejected in order to obey his father's orders and follow the tradition of Raghuvansh. Bharat along with his loving people returned to Ayodhya taking Ram's Paduka with him. He placed Ram's Paduka on the throne and himself started residing in Nandigram. After some time, Ram left Chitrakoot and reached the ashram of Sage Atri. Atri praised Ram and his wife Anasuya explained the essence of Pativrata religion to Sita. From there Ram proceeded further and met Sage Sharbhang. Sage Sharbhang was residing there only with the desire of seeing Ram, hence after his desire of seeing Ram was fulfilled, he burnt his body with the fire of Yoga and went to Brahmalok. Moving further, Ram saw heaps of bones at various places, about which the sages told Ram that the demons had eaten many sages and these were the bones of those sages. On this, Ram promised that he would kill all the demons and make the earth demon-free. Ram proceeded further and meeting sages Sutikshna, Agastya etc. on the way, entered the Dandak forest where he met Jatayu. Ram made Panchavati his residence. Ravana's sister Shurpanakha came to Panchavati and proposed to Ram. Ram sent him to Lakshman saying that he was with his wife and his younger brother was alone. Rejecting her love request, Lakshman cut off her nose and ears, considering her to be his enemy's sister. Shurpanakha sought help from Khar-Dushan and he came to fight with his army. In the battle, Ram killed Khar-Dushan and his army. Shurpanakha went and complained to her brother Ravana. To take revenge, Ravana sent Marich as a golden deer whose bark Sita demanded from Ram. After ordering Lakshman to protect Sita, Ram went after her to kill Marich, the golden deer. He was killed by Marich, but while dying, Marich imitated Ram and cried 'Ha Lakshman', hearing which Sita, in fear, sent Lakshman to Ram. After Lakshman's departure, Ravana abducted Sita alone and took her with him to Lanka. On the way, Jatayu fought with Ravana to save Sita and Ravana killed him with a sword strike. Ram became very sad and started mourning after not finding Sita. When Jatayu met Jatayu on the way, he told Ram about his plight and about Ravana taking away Sita towards the south. to tell all this After this, Jatayu gave up his life and Ram performed his last rites and proceeded inside the dense forest in search of Sita. On the way, Ram saved Gandharva Kabandha, who had become a demon due to the curse of Durvasa, by killing him and reached Shabari's ashram where he ate the false berries given by her due to his devotion. Thus Ram proceeded further inside the dense forest in search of Sita. Ram came near Rishyamook mountain. | {
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1472 | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,ने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। | ऋषि गौतम की पत्नी का क्या नाम था? | {
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"अहल्या"
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1203
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} | What was the name of the wife of sage Gautama? | According to Hindu scriptures, Lord Rama was the human incarnation of Vishnu. The purpose of this incarnation was to guide mankind towards an ideal life in the mortal world. Ultimately Shri Ram killed Ravana, the king of the demon race and re-established religion. In the city of Ayodhya, there was a king named Dasharatha who had wives named Kaushalya, Kaikeyi and Sumitra. In order to have a child, Ayodhyapati Dasharatha, on the orders of his Guru Shri Vashishtha, performed the Putrakameshti Yagya, which was performed by Ringi Rishi. Agnidev was pleased after receiving the devotional offerings and he himself appeared and gave Havishyapatra (kheer, emulsion) to King Dashrath, which he distributed among his three wives. As a result of consumption of Kheer, Ram was born from Kaushalya's womb, Bharat from Kaikeyi's womb and Lakshman and Shatrughan were born from Sumitra's womb. When the princes grew up, sage Vishwamitra asked King Dasharatha to take Ram and Lakshman with him to protect the ashram from demons. Rama killed the demons Tataka and Subahu and sent Marich across the ocean by shooting him with a fruitless arrow. On the other hand, Lakshman killed the entire army of demons. On receiving the invitation of King Janak for Dhanushayagya, Vishwamitra came to his city Mithila (Janakpur) along with Ram and Lakshman. On the way, Ram saved Gautam Muni's wife Ahalya. After coming to Mithila, when Ram saw Shiv's bow and tried to lift it, it broke in the middle and as per the promise made by the people, Ram married Sita. Along with the marriage of Ram and Sita, Guru Vashishtha got Bharat married to Mandavi, Lakshman to Urmila and Shatrughan to Shrutkirti. Some time after Ram's marriage, King Dasharatha wanted to coronate Ram. Then Manthara, who was Kaikeyi's maid, changed Kaikeyi's mind. On the advice of Manthara, Kaikeyi went to the palace. When Dasharatha came to persuade, Kaikeyi asked him for a boon that Bharat should be made the king and Ram should be sent into exile for fourteen years. Sita and Lakshman also went to the forest with Ram. Nishadraj Guh served all three of them a lot in Ringverpur. After some reluctance, the boatman took all three across the river Ganga. After reaching Prayag, Ram met Sage Bhardwaj. From there, Ram reached the ashram of sage Valmiki while taking bath in Yamuna. According to the advice received from Valmiki, Ram, Sita and Lakshman started residing in Chitrakoot. Dasharatha died due to the separation of his son in Ayodhya. Vashishtha called Bharat and Shatrughan from their maternal home. On returning, Bharat scolded his mother Kaikeyi for her wickedness and performed the last rites of Dasharatha as per the orders of his teachers. Bharat rejected the kingdom of Ayodhya and went to Chitrakoot with all his loved ones to convince Ram and bring him back. Kaikeyi also felt extremely remorseful for her actions. Bharat and all the others proposed to Ram to return to Ayodhya and rule, which Ram rejected in order to obey his father's orders and follow the tradition of Raghuvansh. Bharat along with his loving people returned to Ayodhya taking Ram's Paduka with him. He placed Ram's Paduka on the throne and himself started residing in Nandigram. After some time, Ram left Chitrakoot and reached the ashram of Sage Atri. Atri praised Ram and his wife Anasuya explained the essence of Pativrata religion to Sita. From there Ram proceeded further and met Sage Sharbhang. Sage Sharbhang was residing there only with the desire of seeing Ram, hence after his desire of seeing Ram was fulfilled, he burnt his body with the fire of Yoga and went to Brahmalok. Moving further, Ram saw heaps of bones at various places, about which the sages told Ram that the demons had eaten many sages and these were the bones of those sages. On this, Ram promised that he would kill all the demons and make the earth demon-free. Ram proceeded further and meeting sages Sutikshna, Agastya etc. on the way, entered the Dandak forest where he met Jatayu. Ram made Panchavati his residence. Ravana's sister Shurpanakha came to Panchavati and proposed to Ram. Ram sent him to Lakshman saying that he was with his wife and his younger brother was alone. Rejecting her love request, Lakshman cut off her nose and ears, considering her to be his enemy's sister. Shurpanakha sought help from Khar-Dushan and he came to fight with his army. In the battle, Ram killed Khar-Dushan and his army. Shurpanakha went and complained to her brother Ravana. To take revenge, Ravana sent Marich as a golden deer whose bark Sita demanded from Ram. After ordering Lakshman to protect Sita, Ram went after her to kill Marich, the golden deer. He was killed by Marich, but while dying, Marich imitated Ram and cried 'Ha Lakshman', hearing which Sita, in fear, sent Lakshman to Ram. After Lakshman's departure, Ravana abducted Sita alone and took her with him to Lanka. On the way, Jatayu fought with Ravana to save Sita and Ravana killed him with a sword strike. Ram became very sad and started mourning after not finding Sita. When Jatayu met Jatayu on the way, he told Ram about his plight and about Ravana taking away Sita towards the south. to tell all this After this, Jatayu gave up his life and Ram performed his last rites and proceeded inside the dense forest in search of Sita. On the way, Ram saved Gandharva Kabandha, who had become a demon due to the curse of Durvasa, by killing him and reached Shabari's ashram where he ate the false berries given by her due to his devotion. Thus Ram proceeded further inside the dense forest in search of Sita. Ram came near Rishyamook mountain. | {
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1203
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"Ahalya"
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1473 | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,ने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। | हनुमान ने किसके बीच मित्रता करवाई थी? | {
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} | Between whom did Hanuman strike a friendship? | According to Hindu scriptures, Lord Rama was the human incarnation of Vishnu. The purpose of this incarnation was to guide mankind towards an ideal life in the mortal world. Ultimately Shri Ram killed Ravana, the king of the demon race and re-established religion. In the city of Ayodhya, there was a king named Dasharatha who had wives named Kaushalya, Kaikeyi and Sumitra. In order to have a child, Ayodhyapati Dasharatha, on the orders of his Guru Shri Vashishtha, performed the Putrakameshti Yagya, which was performed by Ringi Rishi. Agnidev was pleased after receiving the devotional offerings and he himself appeared and gave Havishyapatra (kheer, emulsion) to King Dashrath, which he distributed among his three wives. As a result of consumption of Kheer, Ram was born from Kaushalya's womb, Bharat from Kaikeyi's womb and Lakshman and Shatrughan were born from Sumitra's womb. When the princes grew up, sage Vishwamitra asked King Dasharatha to take Ram and Lakshman with him to protect the ashram from demons. Rama killed the demons Tataka and Subahu and sent Marich across the ocean by shooting him with a fruitless arrow. On the other hand, Lakshman killed the entire army of demons. On receiving the invitation of King Janak for Dhanushayagya, Vishwamitra came to his city Mithila (Janakpur) along with Ram and Lakshman. On the way, Ram saved Gautam Muni's wife Ahalya. After coming to Mithila, when Ram saw Shiv's bow and tried to lift it, it broke in the middle and as per the promise made by the people, Ram married Sita. Along with the marriage of Ram and Sita, Guru Vashishtha got Bharat married to Mandavi, Lakshman to Urmila and Shatrughan to Shrutkirti. Some time after Ram's marriage, King Dasharatha wanted to coronate Ram. Then Manthara, who was Kaikeyi's maid, changed Kaikeyi's mind. On the advice of Manthara, Kaikeyi went to the palace. When Dasharatha came to persuade, Kaikeyi asked him for a boon that Bharat should be made the king and Ram should be sent into exile for fourteen years. Sita and Lakshman also went to the forest with Ram. Nishadraj Guh served all three of them a lot in Ringverpur. After some reluctance, the boatman took all three across the river Ganga. After reaching Prayag, Ram met Sage Bhardwaj. From there, Ram reached the ashram of sage Valmiki while taking bath in Yamuna. According to the advice received from Valmiki, Ram, Sita and Lakshman started residing in Chitrakoot. Dasharatha died due to the separation of his son in Ayodhya. Vashishtha called Bharat and Shatrughan from their maternal home. On returning, Bharat scolded his mother Kaikeyi for her wickedness and performed the last rites of Dasharatha as per the orders of his teachers. Bharat rejected the kingdom of Ayodhya and went to Chitrakoot with all his loved ones to convince Ram and bring him back. Kaikeyi also felt extremely remorseful for her actions. Bharat and all the others proposed to Ram to return to Ayodhya and rule, which Ram rejected in order to obey his father's orders and follow the tradition of Raghuvansh. Bharat along with his loving people returned to Ayodhya taking Ram's Paduka with him. He placed Ram's Paduka on the throne and himself started residing in Nandigram. After some time, Ram left Chitrakoot and reached the ashram of Sage Atri. Atri praised Ram and his wife Anasuya explained the essence of Pativrata religion to Sita. From there Ram proceeded further and met Sage Sharbhang. Sage Sharbhang was residing there only with the desire of seeing Ram, hence after his desire of seeing Ram was fulfilled, he burnt his body with the fire of Yoga and went to Brahmalok. Moving further, Ram saw heaps of bones at various places, about which the sages told Ram that the demons had eaten many sages and these were the bones of those sages. On this, Ram promised that he would kill all the demons and make the earth demon-free. Ram proceeded further and meeting sages Sutikshna, Agastya etc. on the way, entered the Dandak forest where he met Jatayu. Ram made Panchavati his residence. Ravana's sister Shurpanakha came to Panchavati and proposed to Ram. Ram sent him to Lakshman saying that he was with his wife and his younger brother was alone. Rejecting her love request, Lakshman cut off her nose and ears, considering her to be his enemy's sister. Shurpanakha sought help from Khar-Dushan and he came to fight with his army. In the battle, Ram killed Khar-Dushan and his army. Shurpanakha went and complained to her brother Ravana. To take revenge, Ravana sent Marich as a golden deer whose bark Sita demanded from Ram. After ordering Lakshman to protect Sita, Ram went after her to kill Marich, the golden deer. He was killed by Marich, but while dying, Marich imitated Ram and cried 'Ha Lakshman', hearing which Sita, in fear, sent Lakshman to Ram. After Lakshman's departure, Ravana abducted Sita alone and took her with him to Lanka. On the way, Jatayu fought with Ravana to save Sita and Ravana killed him with a sword strike. Ram became very sad and started mourning after not finding Sita. When Jatayu met Jatayu on the way, he told Ram about his plight and about Ravana taking away Sita towards the south. to tell all this After this, Jatayu gave up his life and Ram performed his last rites and proceeded inside the dense forest in search of Sita. On the way, Ram saved Gandharva Kabandha, who had become a demon due to the curse of Durvasa, by killing him and reached Shabari's ashram where he ate the false berries given by her due to his devotion. Thus Ram proceeded further inside the dense forest in search of Sita. Ram came near Rishyamook mountain. | {
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1474 | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,ने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। | दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ के आदेश पर कौन सा यज्ञ किया था? | {
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"पुत्रकामेष्टि यज्ञ"
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394
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} | Which yajna was performed by Dasharatha on the orders of his guru Sri Vashishta? | According to Hindu scriptures, Lord Rama was the human incarnation of Vishnu. The purpose of this incarnation was to guide mankind towards an ideal life in the mortal world. Ultimately Shri Ram killed Ravana, the king of the demon race and re-established religion. In the city of Ayodhya, there was a king named Dasharatha who had wives named Kaushalya, Kaikeyi and Sumitra. In order to have a child, Ayodhyapati Dasharatha, on the orders of his Guru Shri Vashishtha, performed the Putrakameshti Yagya, which was performed by Ringi Rishi. Agnidev was pleased after receiving the devotional offerings and he himself appeared and gave Havishyapatra (kheer, emulsion) to King Dashrath, which he distributed among his three wives. As a result of consumption of Kheer, Ram was born from Kaushalya's womb, Bharat from Kaikeyi's womb and Lakshman and Shatrughan were born from Sumitra's womb. When the princes grew up, sage Vishwamitra asked King Dasharatha to take Ram and Lakshman with him to protect the ashram from demons. Rama killed the demons Tataka and Subahu and sent Marich across the ocean by shooting him with a fruitless arrow. On the other hand, Lakshman killed the entire army of demons. On receiving the invitation of King Janak for Dhanushayagya, Vishwamitra came to his city Mithila (Janakpur) along with Ram and Lakshman. On the way, Ram saved Gautam Muni's wife Ahalya. After coming to Mithila, when Ram saw Shiv's bow and tried to lift it, it broke in the middle and as per the promise made by the people, Ram married Sita. Along with the marriage of Ram and Sita, Guru Vashishtha got Bharat married to Mandavi, Lakshman to Urmila and Shatrughan to Shrutkirti. Some time after Ram's marriage, King Dasharatha wanted to coronate Ram. Then Manthara, who was Kaikeyi's maid, changed Kaikeyi's mind. On the advice of Manthara, Kaikeyi went to the palace. When Dasharatha came to persuade, Kaikeyi asked him for a boon that Bharat should be made the king and Ram should be sent into exile for fourteen years. Sita and Lakshman also went to the forest with Ram. Nishadraj Guh served all three of them a lot in Ringverpur. After some reluctance, the boatman took all three across the river Ganga. After reaching Prayag, Ram met Sage Bhardwaj. From there, Ram reached the ashram of sage Valmiki while taking bath in Yamuna. According to the advice received from Valmiki, Ram, Sita and Lakshman started residing in Chitrakoot. Dasharatha died due to the separation of his son in Ayodhya. Vashishtha called Bharat and Shatrughan from their maternal home. On returning, Bharat scolded his mother Kaikeyi for her wickedness and performed the last rites of Dasharatha as per the orders of his teachers. Bharat rejected the kingdom of Ayodhya and went to Chitrakoot with all his loved ones to convince Ram and bring him back. Kaikeyi also felt extremely remorseful for her actions. Bharat and all the others proposed to Ram to return to Ayodhya and rule, which Ram rejected in order to obey his father's orders and follow the tradition of Raghuvansh. Bharat along with his loving people returned to Ayodhya taking Ram's Paduka with him. He placed Ram's Paduka on the throne and himself started residing in Nandigram. After some time, Ram left Chitrakoot and reached the ashram of Sage Atri. Atri praised Ram and his wife Anasuya explained the essence of Pativrata religion to Sita. From there Ram proceeded further and met Sage Sharbhang. Sage Sharbhang was residing there only with the desire of seeing Ram, hence after his desire of seeing Ram was fulfilled, he burnt his body with the fire of Yoga and went to Brahmalok. Moving further, Ram saw heaps of bones at various places, about which the sages told Ram that the demons had eaten many sages and these were the bones of those sages. On this, Ram promised that he would kill all the demons and make the earth demon-free. Ram proceeded further and meeting sages Sutikshna, Agastya etc. on the way, entered the Dandak forest where he met Jatayu. Ram made Panchavati his residence. Ravana's sister Shurpanakha came to Panchavati and proposed to Ram. Ram sent him to Lakshman saying that he was with his wife and his younger brother was alone. Rejecting her love request, Lakshman cut off her nose and ears, considering her to be his enemy's sister. Shurpanakha sought help from Khar-Dushan and he came to fight with his army. In the battle, Ram killed Khar-Dushan and his army. Shurpanakha went and complained to her brother Ravana. To take revenge, Ravana sent Marich as a golden deer whose bark Sita demanded from Ram. After ordering Lakshman to protect Sita, Ram went after her to kill Marich, the golden deer. He was killed by Marich, but while dying, Marich imitated Ram and cried 'Ha Lakshman', hearing which Sita, in fear, sent Lakshman to Ram. After Lakshman's departure, Ravana abducted Sita alone and took her with him to Lanka. On the way, Jatayu fought with Ravana to save Sita and Ravana killed him with a sword strike. Ram became very sad and started mourning after not finding Sita. When Jatayu met Jatayu on the way, he told Ram about his plight and about Ravana taking away Sita towards the south. to tell all this After this, Jatayu gave up his life and Ram performed his last rites and proceeded inside the dense forest in search of Sita. On the way, Ram saved Gandharva Kabandha, who had become a demon due to the curse of Durvasa, by killing him and reached Shabari's ashram where he ate the false berries given by her due to his devotion. Thus Ram proceeded further inside the dense forest in search of Sita. Ram came near Rishyamook mountain. | {
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394
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"text": [
"Putrakameshti Yajna"
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} |
1475 | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,ने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। | हनुमान को राम और लक्ष्मण के बारे में पूछने के लिए किस रूप में भेजा गया था? | {
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} | In what form was Hanuman sent to ask about Rama and Lakshmana? | According to Hindu scriptures, Lord Rama was the human incarnation of Vishnu. The purpose of this incarnation was to guide mankind towards an ideal life in the mortal world. Ultimately Shri Ram killed Ravana, the king of the demon race and re-established religion. In the city of Ayodhya, there was a king named Dasharatha who had wives named Kaushalya, Kaikeyi and Sumitra. In order to have a child, Ayodhyapati Dasharatha, on the orders of his Guru Shri Vashishtha, performed the Putrakameshti Yagya, which was performed by Ringi Rishi. Agnidev was pleased after receiving the devotional offerings and he himself appeared and gave Havishyapatra (kheer, emulsion) to King Dashrath, which he distributed among his three wives. As a result of consumption of Kheer, Ram was born from Kaushalya's womb, Bharat from Kaikeyi's womb and Lakshman and Shatrughan were born from Sumitra's womb. When the princes grew up, sage Vishwamitra asked King Dasharatha to take Ram and Lakshman with him to protect the ashram from demons. Rama killed the demons Tataka and Subahu and sent Marich across the ocean by shooting him with a fruitless arrow. On the other hand, Lakshman killed the entire army of demons. On receiving the invitation of King Janak for Dhanushayagya, Vishwamitra came to his city Mithila (Janakpur) along with Ram and Lakshman. On the way, Ram saved Gautam Muni's wife Ahalya. After coming to Mithila, when Ram saw Shiv's bow and tried to lift it, it broke in the middle and as per the promise made by the people, Ram married Sita. Along with the marriage of Ram and Sita, Guru Vashishtha got Bharat married to Mandavi, Lakshman to Urmila and Shatrughan to Shrutkirti. Some time after Ram's marriage, King Dasharatha wanted to coronate Ram. Then Manthara, who was Kaikeyi's maid, changed Kaikeyi's mind. On the advice of Manthara, Kaikeyi went to the palace. When Dasharatha came to persuade, Kaikeyi asked him for a boon that Bharat should be made the king and Ram should be sent into exile for fourteen years. Sita and Lakshman also went to the forest with Ram. Nishadraj Guh served all three of them a lot in Ringverpur. After some reluctance, the boatman took all three across the river Ganga. After reaching Prayag, Ram met Sage Bhardwaj. From there, Ram reached the ashram of sage Valmiki while taking bath in Yamuna. According to the advice received from Valmiki, Ram, Sita and Lakshman started residing in Chitrakoot. Dasharatha died due to the separation of his son in Ayodhya. Vashishtha called Bharat and Shatrughan from their maternal home. On returning, Bharat scolded his mother Kaikeyi for her wickedness and performed the last rites of Dasharatha as per the orders of his teachers. Bharat rejected the kingdom of Ayodhya and went to Chitrakoot with all his loved ones to convince Ram and bring him back. Kaikeyi also felt extremely remorseful for her actions. Bharat and all the others proposed to Ram to return to Ayodhya and rule, which Ram rejected in order to obey his father's orders and follow the tradition of Raghuvansh. Bharat along with his loving people returned to Ayodhya taking Ram's Paduka with him. He placed Ram's Paduka on the throne and himself started residing in Nandigram. After some time, Ram left Chitrakoot and reached the ashram of Sage Atri. Atri praised Ram and his wife Anasuya explained the essence of Pativrata religion to Sita. From there Ram proceeded further and met Sage Sharbhang. Sage Sharbhang was residing there only with the desire of seeing Ram, hence after his desire of seeing Ram was fulfilled, he burnt his body with the fire of Yoga and went to Brahmalok. Moving further, Ram saw heaps of bones at various places, about which the sages told Ram that the demons had eaten many sages and these were the bones of those sages. On this, Ram promised that he would kill all the demons and make the earth demon-free. Ram proceeded further and meeting sages Sutikshna, Agastya etc. on the way, entered the Dandak forest where he met Jatayu. Ram made Panchavati his residence. Ravana's sister Shurpanakha came to Panchavati and proposed to Ram. Ram sent him to Lakshman saying that he was with his wife and his younger brother was alone. Rejecting her love request, Lakshman cut off her nose and ears, considering her to be his enemy's sister. Shurpanakha sought help from Khar-Dushan and he came to fight with his army. In the battle, Ram killed Khar-Dushan and his army. Shurpanakha went and complained to her brother Ravana. To take revenge, Ravana sent Marich as a golden deer whose bark Sita demanded from Ram. After ordering Lakshman to protect Sita, Ram went after her to kill Marich, the golden deer. He was killed by Marich, but while dying, Marich imitated Ram and cried 'Ha Lakshman', hearing which Sita, in fear, sent Lakshman to Ram. After Lakshman's departure, Ravana abducted Sita alone and took her with him to Lanka. On the way, Jatayu fought with Ravana to save Sita and Ravana killed him with a sword strike. Ram became very sad and started mourning after not finding Sita. When Jatayu met Jatayu on the way, he told Ram about his plight and about Ravana taking away Sita towards the south. to tell all this After this, Jatayu gave up his life and Ram performed his last rites and proceeded inside the dense forest in search of Sita. On the way, Ram saved Gandharva Kabandha, who had become a demon due to the curse of Durvasa, by killing him and reached Shabari's ashram where he ate the false berries given by her due to his devotion. Thus Ram proceeded further inside the dense forest in search of Sita. Ram came near Rishyamook mountain. | {
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1476 | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,ने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। | पुत्रकामेष्टी यज्ञ किस ऋषि के द्वारा किया गया था? | {
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"ऋंगी ऋषि"
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} | The Putrakameshti Yajna was performed by which sage? | According to Hindu scriptures, Lord Rama was the human incarnation of Vishnu. The purpose of this incarnation was to guide mankind towards an ideal life in the mortal world. Ultimately Shri Ram killed Ravana, the king of the demon race and re-established religion. In the city of Ayodhya, there was a king named Dasharatha who had wives named Kaushalya, Kaikeyi and Sumitra. In order to have a child, Ayodhyapati Dasharatha, on the orders of his Guru Shri Vashishtha, performed the Putrakameshti Yagya, which was performed by Ringi Rishi. Agnidev was pleased after receiving the devotional offerings and he himself appeared and gave Havishyapatra (kheer, emulsion) to King Dashrath, which he distributed among his three wives. As a result of consumption of Kheer, Ram was born from Kaushalya's womb, Bharat from Kaikeyi's womb and Lakshman and Shatrughan were born from Sumitra's womb. When the princes grew up, sage Vishwamitra asked King Dasharatha to take Ram and Lakshman with him to protect the ashram from demons. Rama killed the demons Tataka and Subahu and sent Marich across the ocean by shooting him with a fruitless arrow. On the other hand, Lakshman killed the entire army of demons. On receiving the invitation of King Janak for Dhanushayagya, Vishwamitra came to his city Mithila (Janakpur) along with Ram and Lakshman. On the way, Ram saved Gautam Muni's wife Ahalya. After coming to Mithila, when Ram saw Shiv's bow and tried to lift it, it broke in the middle and as per the promise made by the people, Ram married Sita. Along with the marriage of Ram and Sita, Guru Vashishtha got Bharat married to Mandavi, Lakshman to Urmila and Shatrughan to Shrutkirti. Some time after Ram's marriage, King Dasharatha wanted to coronate Ram. Then Manthara, who was Kaikeyi's maid, changed Kaikeyi's mind. On the advice of Manthara, Kaikeyi went to the palace. When Dasharatha came to persuade, Kaikeyi asked him for a boon that Bharat should be made the king and Ram should be sent into exile for fourteen years. Sita and Lakshman also went to the forest with Ram. Nishadraj Guh served all three of them a lot in Ringverpur. After some reluctance, the boatman took all three across the river Ganga. After reaching Prayag, Ram met Sage Bhardwaj. From there, Ram reached the ashram of sage Valmiki while taking bath in Yamuna. According to the advice received from Valmiki, Ram, Sita and Lakshman started residing in Chitrakoot. Dasharatha died due to the separation of his son in Ayodhya. Vashishtha called Bharat and Shatrughan from their maternal home. On returning, Bharat scolded his mother Kaikeyi for her wickedness and performed the last rites of Dasharatha as per the orders of his teachers. Bharat rejected the kingdom of Ayodhya and went to Chitrakoot with all his loved ones to convince Ram and bring him back. Kaikeyi also felt extremely remorseful for her actions. Bharat and all the others proposed to Ram to return to Ayodhya and rule, which Ram rejected in order to obey his father's orders and follow the tradition of Raghuvansh. Bharat along with his loving people returned to Ayodhya taking Ram's Paduka with him. He placed Ram's Paduka on the throne and himself started residing in Nandigram. After some time, Ram left Chitrakoot and reached the ashram of Sage Atri. Atri praised Ram and his wife Anasuya explained the essence of Pativrata religion to Sita. From there Ram proceeded further and met Sage Sharbhang. Sage Sharbhang was residing there only with the desire of seeing Ram, hence after his desire of seeing Ram was fulfilled, he burnt his body with the fire of Yoga and went to Brahmalok. Moving further, Ram saw heaps of bones at various places, about which the sages told Ram that the demons had eaten many sages and these were the bones of those sages. 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"Ringi Rishi"
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1477 | हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। शिमला हिल स्टेट्स की स्थापना1945 ई. तक प्रदेश में प्रजा मंडलों का गठन हो चुका था। 1946 ई. में सभी प्रजा मंडलों को एचएचएसआरसी में शामिल कर लिया तथा मुख्यालय मंडी में स्थापित किया गया। मंडी के स्वामी पूर्णानंद को अध्यक्ष, पदमदेव को सचिव तथा शिव नंद रमौल (सिरमौर) को संयुक्त सचिव नियुक्त किया। एचएचएसआरसी के नाहन में 1946 ई. में चुनाव हुए, जिसमें यशवंत सिंह परमार को अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, 1947 ई. में राजा दुर्गा चंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। जनवरी, 1948 ई. में इसका सम्मेलन सोलन में हुआ। हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा इस सम्मेलन में की गई। दूसरी तरफ प्रजा मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब शक्ति प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथ सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था। दो मार्च, 1948 ई. को शिमला हिल स्टेट के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगवाई मंडी के राजा जोगेंद्र सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए 8 मार्च 1948 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 15 अप्रैल 1948 ई. को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया था। उस समय प्रदेश भर को चार जिलों में बांटा गया और पंजाब हिल स्टेट्स को पटियाला और पूर्व पंजाब राज्य का नाम दिया गया। | एच एच एस आर सी के नाहन सबसे पहले कब चुने गए थे ? | {
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"1946 ई"
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} | When was Nahan of HHSRC first elected? | The history of Himachal Pradesh is as ancient as the history of human existence itself. Evidence of the truth of this fact comes from the materials found in excavations conducted in different parts of Himachal Pradesh. In ancient times, the original inhabitants of this region were known by the names of Das, Dasyu and Nishad. In the nineteenth century, Ranjit Singh annexed many parts of this region into his kingdom. When the British came here, they defeated the Gorkha people and annexed the princely states of some kings into their empire. Establishment of Shimla Hill States: By 1945 AD, Praja Mandals had been formed in the state. In 1946 AD, all the Praja Mandals were included in HHSRC and the headquarters was established in Mandi. Swami Purnanand of Mandi was appointed as President, Padamdev as Secretary and Shiv Nand Ramaul (Sirmour) as Joint Secretary. Elections were held in Nahan of HHSRC in 1946, in which Yashwant Singh Parmar was elected president. In January, 1947 AD, Shimla Hills States Union was established under the chairmanship of Raja Durga Chand (Baghat). Its conference was held in Solan in January, 1948. The creation of Himachal Pradesh was announced in this conference. On the other hand, a conference of Praja Mandal leaders was held in Shimla, in which Yashwant Singh Parmar emphasized that the creation of Himachal Pradesh is possible only when the power is handed over to the people of the state and the state. The Himalayan Plant Government was established under the chairmanship of Shivanand Ramaul, with its headquarters at Shimla. On March 2, 1948, a conference of the kings of Shimla Hill State was held in Delhi. Raja Jogendra Sen of Mandi was leading the kings. These kings signed an agreement on 8 March 1948 to join Himachal Pradesh. The state of Himachal Pradesh was created on 15 April 1948. At that time the entire state was divided into four districts and Punjab Hill States were named Patiala and East Punjab State. | {
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"1946 A.D."
]
} |
1478 | हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। शिमला हिल स्टेट्स की स्थापना1945 ई. तक प्रदेश में प्रजा मंडलों का गठन हो चुका था। 1946 ई. में सभी प्रजा मंडलों को एचएचएसआरसी में शामिल कर लिया तथा मुख्यालय मंडी में स्थापित किया गया। मंडी के स्वामी पूर्णानंद को अध्यक्ष, पदमदेव को सचिव तथा शिव नंद रमौल (सिरमौर) को संयुक्त सचिव नियुक्त किया। एचएचएसआरसी के नाहन में 1946 ई. में चुनाव हुए, जिसमें यशवंत सिंह परमार को अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, 1947 ई. में राजा दुर्गा चंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। जनवरी, 1948 ई. में इसका सम्मेलन सोलन में हुआ। हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा इस सम्मेलन में की गई। दूसरी तरफ प्रजा मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब शक्ति प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथ सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था। दो मार्च, 1948 ई. को शिमला हिल स्टेट के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगवाई मंडी के राजा जोगेंद्र सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए 8 मार्च 1948 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 15 अप्रैल 1948 ई. को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया था। उस समय प्रदेश भर को चार जिलों में बांटा गया और पंजाब हिल स्टेट्स को पटियाला और पूर्व पंजाब राज्य का नाम दिया गया। | सोलन की नालागढ़ रियासत को भारत में कब शामिल किया गया था? | {
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""
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null
]
} | When was the Nalagarh princely state of Solan incorporated into India? | The history of Himachal Pradesh is as ancient as the history of human existence itself. Evidence of the truth of this fact comes from the materials found in excavations conducted in different parts of Himachal Pradesh. In ancient times, the original inhabitants of this region were known by the names of Das, Dasyu and Nishad. In the nineteenth century, Ranjit Singh annexed many parts of this region into his kingdom. When the British came here, they defeated the Gorkha people and annexed the princely states of some kings into their empire. Establishment of Shimla Hill States: By 1945 AD, Praja Mandals had been formed in the state. In 1946 AD, all the Praja Mandals were included in HHSRC and the headquarters was established in Mandi. Swami Purnanand of Mandi was appointed as President, Padamdev as Secretary and Shiv Nand Ramaul (Sirmour) as Joint Secretary. Elections were held in Nahan of HHSRC in 1946, in which Yashwant Singh Parmar was elected president. In January, 1947 AD, Shimla Hills States Union was established under the chairmanship of Raja Durga Chand (Baghat). Its conference was held in Solan in January, 1948. The creation of Himachal Pradesh was announced in this conference. On the other hand, a conference of Praja Mandal leaders was held in Shimla, in which Yashwant Singh Parmar emphasized that the creation of Himachal Pradesh is possible only when the power is handed over to the people of the state and the state. The Himalayan Plant Government was established under the chairmanship of Shivanand Ramaul, with its headquarters at Shimla. On March 2, 1948, a conference of the kings of Shimla Hill State was held in Delhi. Raja Jogendra Sen of Mandi was leading the kings. These kings signed an agreement on 8 March 1948 to join Himachal Pradesh. The state of Himachal Pradesh was created on 15 April 1948. At that time the entire state was divided into four districts and Punjab Hill States were named Patiala and East Punjab State. | {
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""
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1479 | हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। शिमला हिल स्टेट्स की स्थापना1945 ई. तक प्रदेश में प्रजा मंडलों का गठन हो चुका था। 1946 ई. में सभी प्रजा मंडलों को एचएचएसआरसी में शामिल कर लिया तथा मुख्यालय मंडी में स्थापित किया गया। मंडी के स्वामी पूर्णानंद को अध्यक्ष, पदमदेव को सचिव तथा शिव नंद रमौल (सिरमौर) को संयुक्त सचिव नियुक्त किया। एचएचएसआरसी के नाहन में 1946 ई. में चुनाव हुए, जिसमें यशवंत सिंह परमार को अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, 1947 ई. में राजा दुर्गा चंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। जनवरी, 1948 ई. में इसका सम्मेलन सोलन में हुआ। हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा इस सम्मेलन में की गई। दूसरी तरफ प्रजा मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब शक्ति प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथ सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था। दो मार्च, 1948 ई. को शिमला हिल स्टेट के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगवाई मंडी के राजा जोगेंद्र सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए 8 मार्च 1948 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 15 अप्रैल 1948 ई. को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया था। उस समय प्रदेश भर को चार जिलों में बांटा गया और पंजाब हिल स्टेट्स को पटियाला और पूर्व पंजाब राज्य का नाम दिया गया। | हिमाचल के सभी प्रजा मंडलों को एच एच एस आर सी में कब शामिल किया गया था ? | {
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"1946 ई."
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559
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} | When were all the Praja Mandals of Himachal included in HHSRC? | The history of Himachal Pradesh is as ancient as the history of human existence itself. Evidence of the truth of this fact comes from the materials found in excavations conducted in different parts of Himachal Pradesh. In ancient times, the original inhabitants of this region were known by the names of Das, Dasyu and Nishad. In the nineteenth century, Ranjit Singh annexed many parts of this region into his kingdom. When the British came here, they defeated the Gorkha people and annexed the princely states of some kings into their empire. Establishment of Shimla Hill States: By 1945 AD, Praja Mandals had been formed in the state. In 1946 AD, all the Praja Mandals were included in HHSRC and the headquarters was established in Mandi. Swami Purnanand of Mandi was appointed as President, Padamdev as Secretary and Shiv Nand Ramaul (Sirmour) as Joint Secretary. Elections were held in Nahan of HHSRC in 1946, in which Yashwant Singh Parmar was elected president. In January, 1947 AD, Shimla Hills States Union was established under the chairmanship of Raja Durga Chand (Baghat). Its conference was held in Solan in January, 1948. The creation of Himachal Pradesh was announced in this conference. On the other hand, a conference of Praja Mandal leaders was held in Shimla, in which Yashwant Singh Parmar emphasized that the creation of Himachal Pradesh is possible only when the power is handed over to the people of the state and the state. The Himalayan Plant Government was established under the chairmanship of Shivanand Ramaul, with its headquarters at Shimla. On March 2, 1948, a conference of the kings of Shimla Hill State was held in Delhi. Raja Jogendra Sen of Mandi was leading the kings. These kings signed an agreement on 8 March 1948 to join Himachal Pradesh. The state of Himachal Pradesh was created on 15 April 1948. At that time the entire state was divided into four districts and Punjab Hill States were named Patiala and East Punjab State. | {
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559
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"1946 B.C.E."
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1480 | हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। शिमला हिल स्टेट्स की स्थापना1945 ई. तक प्रदेश में प्रजा मंडलों का गठन हो चुका था। 1946 ई. में सभी प्रजा मंडलों को एचएचएसआरसी में शामिल कर लिया तथा मुख्यालय मंडी में स्थापित किया गया। मंडी के स्वामी पूर्णानंद को अध्यक्ष, पदमदेव को सचिव तथा शिव नंद रमौल (सिरमौर) को संयुक्त सचिव नियुक्त किया। एचएचएसआरसी के नाहन में 1946 ई. में चुनाव हुए, जिसमें यशवंत सिंह परमार को अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, 1947 ई. में राजा दुर्गा चंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। जनवरी, 1948 ई. में इसका सम्मेलन सोलन में हुआ। हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा इस सम्मेलन में की गई। दूसरी तरफ प्रजा मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब शक्ति प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथ सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था। दो मार्च, 1948 ई. को शिमला हिल स्टेट के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगवाई मंडी के राजा जोगेंद्र सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए 8 मार्च 1948 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 15 अप्रैल 1948 ई. को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया था। उस समय प्रदेश भर को चार जिलों में बांटा गया और पंजाब हिल स्टेट्स को पटियाला और पूर्व पंजाब राज्य का नाम दिया गया। | एच एच एस आर सी के पहले अध्यक्ष का क्या नाम था ? | {
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"यशवंत सिंह परमार"
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819
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} | What was the name of the first president of HHSRC? | The history of Himachal Pradesh is as ancient as the history of human existence itself. Evidence of the truth of this fact comes from the materials found in excavations conducted in different parts of Himachal Pradesh. In ancient times, the original inhabitants of this region were known by the names of Das, Dasyu and Nishad. In the nineteenth century, Ranjit Singh annexed many parts of this region into his kingdom. When the British came here, they defeated the Gorkha people and annexed the princely states of some kings into their empire. Establishment of Shimla Hill States: By 1945 AD, Praja Mandals had been formed in the state. In 1946 AD, all the Praja Mandals were included in HHSRC and the headquarters was established in Mandi. Swami Purnanand of Mandi was appointed as President, Padamdev as Secretary and Shiv Nand Ramaul (Sirmour) as Joint Secretary. Elections were held in Nahan of HHSRC in 1946, in which Yashwant Singh Parmar was elected president. In January, 1947 AD, Shimla Hills States Union was established under the chairmanship of Raja Durga Chand (Baghat). Its conference was held in Solan in January, 1948. The creation of Himachal Pradesh was announced in this conference. On the other hand, a conference of Praja Mandal leaders was held in Shimla, in which Yashwant Singh Parmar emphasized that the creation of Himachal Pradesh is possible only when the power is handed over to the people of the state and the state. The Himalayan Plant Government was established under the chairmanship of Shivanand Ramaul, with its headquarters at Shimla. On March 2, 1948, a conference of the kings of Shimla Hill State was held in Delhi. Raja Jogendra Sen of Mandi was leading the kings. These kings signed an agreement on 8 March 1948 to join Himachal Pradesh. The state of Himachal Pradesh was created on 15 April 1948. At that time the entire state was divided into four districts and Punjab Hill States were named Patiala and East Punjab State. | {
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819
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"Yashwant Singh Parmar"
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1481 | हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। शिमला हिल स्टेट्स की स्थापना1945 ई. तक प्रदेश में प्रजा मंडलों का गठन हो चुका था। 1946 ई. में सभी प्रजा मंडलों को एचएचएसआरसी में शामिल कर लिया तथा मुख्यालय मंडी में स्थापित किया गया। मंडी के स्वामी पूर्णानंद को अध्यक्ष, पदमदेव को सचिव तथा शिव नंद रमौल (सिरमौर) को संयुक्त सचिव नियुक्त किया। एचएचएसआरसी के नाहन में 1946 ई. में चुनाव हुए, जिसमें यशवंत सिंह परमार को अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, 1947 ई. में राजा दुर्गा चंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। जनवरी, 1948 ई. में इसका सम्मेलन सोलन में हुआ। हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा इस सम्मेलन में की गई। दूसरी तरफ प्रजा मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब शक्ति प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथ सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था। दो मार्च, 1948 ई. को शिमला हिल स्टेट के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगवाई मंडी के राजा जोगेंद्र सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए 8 मार्च 1948 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 15 अप्रैल 1948 ई. को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया था। उस समय प्रदेश भर को चार जिलों में बांटा गया और पंजाब हिल स्टेट्स को पटियाला और पूर्व पंजाब राज्य का नाम दिया गया। | किस प्रदेश के लोग दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे ? | {
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"हिमाचल प्रदेश"
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} | The people of which state were known as Das, Dasyu and Nishad? | The history of Himachal Pradesh is as ancient as the history of human existence itself. Evidence of the truth of this fact comes from the materials found in excavations conducted in different parts of Himachal Pradesh. In ancient times, the original inhabitants of this region were known by the names of Das, Dasyu and Nishad. In the nineteenth century, Ranjit Singh annexed many parts of this region into his kingdom. When the British came here, they defeated the Gorkha people and annexed the princely states of some kings into their empire. Establishment of Shimla Hill States: By 1945 AD, Praja Mandals had been formed in the state. In 1946 AD, all the Praja Mandals were included in HHSRC and the headquarters was established in Mandi. Swami Purnanand of Mandi was appointed as President, Padamdev as Secretary and Shiv Nand Ramaul (Sirmour) as Joint Secretary. Elections were held in Nahan of HHSRC in 1946, in which Yashwant Singh Parmar was elected president. In January, 1947 AD, Shimla Hills States Union was established under the chairmanship of Raja Durga Chand (Baghat). Its conference was held in Solan in January, 1948. The creation of Himachal Pradesh was announced in this conference. On the other hand, a conference of Praja Mandal leaders was held in Shimla, in which Yashwant Singh Parmar emphasized that the creation of Himachal Pradesh is possible only when the power is handed over to the people of the state and the state. The Himalayan Plant Government was established under the chairmanship of Shivanand Ramaul, with its headquarters at Shimla. On March 2, 1948, a conference of the kings of Shimla Hill State was held in Delhi. Raja Jogendra Sen of Mandi was leading the kings. These kings signed an agreement on 8 March 1948 to join Himachal Pradesh. The state of Himachal Pradesh was created on 15 April 1948. At that time the entire state was divided into four districts and Punjab Hill States were named Patiala and East Punjab State. | {
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"Himachal Pradesh"
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1482 | हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी का हिस्सा है। शिवालिक पर्वत श्रेणी से ही घग्गर नदी निकलती है। राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में सतलुज और व्यास शामिल है। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्ता है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है। हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय; जिन्हें हिमाचल में धौलाधार और उत्तरांचल में नागतीभा कहा जाता है और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं। लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाले पांचों नदियां एवं छोटे-छोटे नाले बारह मासी हैं। इनके स्रोत बर्फ से ढकी पहाडि़यों में स्थित हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली पांच नदियों में से चार का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। उस समय ये अन्य नामों से जानी जाती थीं जैसे अरिकरी (चिनाब) पुरूष्णी (रावी), अरिजिकिया (ब्यास) तथा शतदुई (सतलुज) पांचवी नदी (कालिंदी) जो यमुनोत्तरी से निकलती है उसका सूर्य देव से पौराणिक संबंध दर्शाया जाता है। रावी नदीः रावी नदी का प्राचीन नाम ‘इरावती और परोष्णी’ है। रावी नदी मध्य हिमालय की धौलाधार शृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से निकलती है। रावी नदी ‘भादल’ और ‘तांतागिरि’ दो खड्डों से मिलकर बनती है। ये खड्डें बर्फ पिघलने से बनती है। यह नदी चंबा से खेड़ी के पास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है और पंजाब से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। यह भरमौर और चंबा शहर में बहती है। यह बहुत ही उग्र नदी है। इसकी सहायक नदियां तृण दैहण, बलजैडी, स्यूल, साहो, चिडाचंद, छतराड़ी और बैरा हैं। इसकी लंबाई 720 किलोमीटर है, परंतु हिमाचल में इसकी लंबाई 158 किलोमीटर है। | हिमालय की कितनी पर्वत श्रृंखलाएं है? | {
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"तीनों"
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} | How many mountain ranges of the Himalayas are there? | Himachal Pradesh is part of the Shivalik range of the Himalayan Mountains. Ghaggar river originates from the Shivalik mountain range. Other major rivers of the state include Sutlej and Beas. The far northern part of the Himachal Himalayas is the expanse of the cold desert of Ladakh and is in the Spiti sub-division of Lahaul and Spiti district. The three main mountain ranges of the Himalayas, Greater Himalayas, Lesser Himalayas; Which are called Dhauladhar in Himachal and Nagatibha in Uttaranchal and Shivalik range spread in north-south direction, are located in this Himalayan section. The mountains with a height of 1000 to 2000 meters in the Lesser Himalayas have been the main center of attraction for the British administration. Five major rivers flow in Himachal Pradesh. All the five rivers and small drains flowing in Himachal Pradesh are perennial. Their sources are located in snow covered hills. Of the five rivers flowing in Himachal Pradesh, four are mentioned in the Rigveda. At that time they were known by other names like Arikari (Chenab), Purushni (Ravi), Arijikia (Beas) and Shatdui (Sutlej). The fifth river (Kalindi) which originates from Yamunottari has a mythological relation with the Sun God. Ravi River: The ancient name of Ravi River is 'Iravati and Paroshni'. Ravi river originates from Bada Bhangal, a branch of the Dhauladhar range of the central Himalayas. Ravi river is formed by two ravines ‘Bhadal’ and ‘Tantagiri’. These ravines are formed by melting snow. This river enters Punjab (India) near Khedi from Chamba and enters Pakistan from Punjab. It flows in Bharmour and Chamba city. This is a very violent river. Its tributaries are Trin Daihan, Baljadi, Seul, Saho, Chidachand, Chhatrari and Baira. Its length is 720 kilometers, but in Himachal its length is 158 kilometers. | {
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290
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"The three"
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1483 | हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी का हिस्सा है। शिवालिक पर्वत श्रेणी से ही घग्गर नदी निकलती है। राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में सतलुज और व्यास शामिल है। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्ता है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है। हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय; जिन्हें हिमाचल में धौलाधार और उत्तरांचल में नागतीभा कहा जाता है और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं। लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाले पांचों नदियां एवं छोटे-छोटे नाले बारह मासी हैं। इनके स्रोत बर्फ से ढकी पहाडि़यों में स्थित हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली पांच नदियों में से चार का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। उस समय ये अन्य नामों से जानी जाती थीं जैसे अरिकरी (चिनाब) पुरूष्णी (रावी), अरिजिकिया (ब्यास) तथा शतदुई (सतलुज) पांचवी नदी (कालिंदी) जो यमुनोत्तरी से निकलती है उसका सूर्य देव से पौराणिक संबंध दर्शाया जाता है। रावी नदीः रावी नदी का प्राचीन नाम ‘इरावती और परोष्णी’ है। रावी नदी मध्य हिमालय की धौलाधार शृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से निकलती है। रावी नदी ‘भादल’ और ‘तांतागिरि’ दो खड्डों से मिलकर बनती है। ये खड्डें बर्फ पिघलने से बनती है। यह नदी चंबा से खेड़ी के पास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है और पंजाब से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। यह भरमौर और चंबा शहर में बहती है। यह बहुत ही उग्र नदी है। इसकी सहायक नदियां तृण दैहण, बलजैडी, स्यूल, साहो, चिडाचंद, छतराड़ी और बैरा हैं। इसकी लंबाई 720 किलोमीटर है, परंतु हिमाचल में इसकी लंबाई 158 किलोमीटर है। | ब्यास नदी का पुराना नाम क्या था? | {
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} | What was the old name of the Beas River? | Himachal Pradesh is part of the Shivalik range of the Himalayan Mountains. Ghaggar river originates from the Shivalik mountain range. Other major rivers of the state include Sutlej and Beas. The far northern part of the Himachal Himalayas is the expanse of the cold desert of Ladakh and is in the Spiti sub-division of Lahaul and Spiti district. The three main mountain ranges of the Himalayas, Greater Himalayas, Lesser Himalayas; Which are called Dhauladhar in Himachal and Nagatibha in Uttaranchal and Shivalik range spread in north-south direction, are located in this Himalayan section. The mountains with a height of 1000 to 2000 meters in the Lesser Himalayas have been the main center of attraction for the British administration. Five major rivers flow in Himachal Pradesh. All the five rivers and small drains flowing in Himachal Pradesh are perennial. Their sources are located in snow covered hills. Of the five rivers flowing in Himachal Pradesh, four are mentioned in the Rigveda. At that time they were known by other names like Arikari (Chenab), Purushni (Ravi), Arijikia (Beas) and Shatdui (Sutlej). The fifth river (Kalindi) which originates from Yamunottari has a mythological relation with the Sun God. Ravi River: The ancient name of Ravi River is 'Iravati and Paroshni'. Ravi river originates from Bada Bhangal, a branch of the Dhauladhar range of the central Himalayas. Ravi river is formed by two ravines ‘Bhadal’ and ‘Tantagiri’. These ravines are formed by melting snow. This river enters Punjab (India) near Khedi from Chamba and enters Pakistan from Punjab. It flows in Bharmour and Chamba city. This is a very violent river. Its tributaries are Trin Daihan, Baljadi, Seul, Saho, Chidachand, Chhatrari and Baira. Its length is 720 kilometers, but in Himachal its length is 158 kilometers. | {
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1484 | हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी का हिस्सा है। शिवालिक पर्वत श्रेणी से ही घग्गर नदी निकलती है। राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में सतलुज और व्यास शामिल है। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्ता है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है। हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय; जिन्हें हिमाचल में धौलाधार और उत्तरांचल में नागतीभा कहा जाता है और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं। लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाले पांचों नदियां एवं छोटे-छोटे नाले बारह मासी हैं। इनके स्रोत बर्फ से ढकी पहाडि़यों में स्थित हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली पांच नदियों में से चार का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। उस समय ये अन्य नामों से जानी जाती थीं जैसे अरिकरी (चिनाब) पुरूष्णी (रावी), अरिजिकिया (ब्यास) तथा शतदुई (सतलुज) पांचवी नदी (कालिंदी) जो यमुनोत्तरी से निकलती है उसका सूर्य देव से पौराणिक संबंध दर्शाया जाता है। रावी नदीः रावी नदी का प्राचीन नाम ‘इरावती और परोष्णी’ है। रावी नदी मध्य हिमालय की धौलाधार शृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से निकलती है। रावी नदी ‘भादल’ और ‘तांतागिरि’ दो खड्डों से मिलकर बनती है। ये खड्डें बर्फ पिघलने से बनती है। यह नदी चंबा से खेड़ी के पास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है और पंजाब से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। यह भरमौर और चंबा शहर में बहती है। यह बहुत ही उग्र नदी है। इसकी सहायक नदियां तृण दैहण, बलजैडी, स्यूल, साहो, चिडाचंद, छतराड़ी और बैरा हैं। इसकी लंबाई 720 किलोमीटर है, परंतु हिमाचल में इसकी लंबाई 158 किलोमीटर है। | घग्गर नदी कहां से निकलती है? | {
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"शिवालिक पर्वत श्रेणी"
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58
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} | Where does the Ghaggar River originate? | Himachal Pradesh is part of the Shivalik range of the Himalayan Mountains. Ghaggar river originates from the Shivalik mountain range. Other major rivers of the state include Sutlej and Beas. The far northern part of the Himachal Himalayas is the expanse of the cold desert of Ladakh and is in the Spiti sub-division of Lahaul and Spiti district. The three main mountain ranges of the Himalayas, Greater Himalayas, Lesser Himalayas; Which are called Dhauladhar in Himachal and Nagatibha in Uttaranchal and Shivalik range spread in north-south direction, are located in this Himalayan section. The mountains with a height of 1000 to 2000 meters in the Lesser Himalayas have been the main center of attraction for the British administration. Five major rivers flow in Himachal Pradesh. All the five rivers and small drains flowing in Himachal Pradesh are perennial. Their sources are located in snow covered hills. Of the five rivers flowing in Himachal Pradesh, four are mentioned in the Rigveda. At that time they were known by other names like Arikari (Chenab), Purushni (Ravi), Arijikia (Beas) and Shatdui (Sutlej). The fifth river (Kalindi) which originates from Yamunottari has a mythological relation with the Sun God. Ravi River: The ancient name of Ravi River is 'Iravati and Paroshni'. Ravi river originates from Bada Bhangal, a branch of the Dhauladhar range of the central Himalayas. Ravi river is formed by two ravines ‘Bhadal’ and ‘Tantagiri’. These ravines are formed by melting snow. This river enters Punjab (India) near Khedi from Chamba and enters Pakistan from Punjab. It flows in Bharmour and Chamba city. This is a very violent river. Its tributaries are Trin Daihan, Baljadi, Seul, Saho, Chidachand, Chhatrari and Baira. Its length is 720 kilometers, but in Himachal its length is 158 kilometers. | {
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"Shivalik Hills Range"
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1485 | हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी का हिस्सा है। शिवालिक पर्वत श्रेणी से ही घग्गर नदी निकलती है। राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में सतलुज और व्यास शामिल है। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्ता है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है। हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय; जिन्हें हिमाचल में धौलाधार और उत्तरांचल में नागतीभा कहा जाता है और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं। लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाले पांचों नदियां एवं छोटे-छोटे नाले बारह मासी हैं। इनके स्रोत बर्फ से ढकी पहाडि़यों में स्थित हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली पांच नदियों में से चार का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। उस समय ये अन्य नामों से जानी जाती थीं जैसे अरिकरी (चिनाब) पुरूष्णी (रावी), अरिजिकिया (ब्यास) तथा शतदुई (सतलुज) पांचवी नदी (कालिंदी) जो यमुनोत्तरी से निकलती है उसका सूर्य देव से पौराणिक संबंध दर्शाया जाता है। रावी नदीः रावी नदी का प्राचीन नाम ‘इरावती और परोष्णी’ है। रावी नदी मध्य हिमालय की धौलाधार शृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से निकलती है। रावी नदी ‘भादल’ और ‘तांतागिरि’ दो खड्डों से मिलकर बनती है। ये खड्डें बर्फ पिघलने से बनती है। यह नदी चंबा से खेड़ी के पास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है और पंजाब से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। यह भरमौर और चंबा शहर में बहती है। यह बहुत ही उग्र नदी है। इसकी सहायक नदियां तृण दैहण, बलजैडी, स्यूल, साहो, चिडाचंद, छतराड़ी और बैरा हैं। इसकी लंबाई 720 किलोमीटर है, परंतु हिमाचल में इसकी लंबाई 158 किलोमीटर है। | कितनी प्रमुख नदियां हिमाचल प्रदेश से होकर बहती हैं? | {
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"पांच"
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} | How many major rivers flow through Himachal Pradesh? | Himachal Pradesh is part of the Shivalik category of the Himalayan mountain.The Ghaggar River originates from the Shivalik mountain range.Other major rivers of the state include Sutlej and Vyas.The remote northern part of the Himachal Himalayas is a freezing of the cold desert of Ladakh and is in the Spiti subdivision of Lahaul and Spiti district.All three main mountain ranges of the Himalayas, large Himalayas, Small Himalayas;Those who are called Dhauladhar in Himachal and Nagatibha in Uttaranchal and the Shivalik category spread in the north-south direction, are located in this Himalayan section.Mountains with 1000 to 2000 meters height in the Small Himalayas have been the main attraction centers for British administration.Five major rivers flow in Himachal Pradesh.The five rivers and small drains flowing in Himachal Pradesh are twelve maasi.Their sources are located in snow -covered hills.Four of the five rivers flowing in Himachal Pradesh are mentioned in the Rigveda.At that time they were known by other names such as Arikari (Chenab) Purushi (Ravi), Arijikia (Beas) and Shatdui (Sutlej) The fifth river (Kalindi), which originates from Yamunottari, is shown mythological relationship with Sun God.Ravi River: The ancient name of the Ravi River is 'Iravati and Pratharani'.The Ravi River originates from Bada Bhangal, a branch of the Dhauladhar series of the Central Himalayas.Ravi river 'Bhadal' and 'Tantagiri' consist of two ravines.These ravines are made by melting ice.The river enters Punjab (India) near Khedi from Chamba and enters Pakistan from Punjab.It flows in Bharmour and Chamba city.This is a very fierce river.Its tributaries are Trin Dahan, Baljadi, Suul, Saaho, Chidachand, Chhatradi and Baira.Its length is 720 km, but its length in Himachal is 158 km. | {
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"Five"
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1486 | हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग 9,000 वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमांडू उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारों से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ईसा पूर्व महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु विनती की। तभी भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया। [कृपया उद्धरण जोड़ें] करीब 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) शाक्य वंश के राजकुमार थे, उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था, जिन्होंने अपना राज-पाट त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। 250 ईसा पूर्व तक इस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में कठपुतली राज्य हो गया। इस क्षेत्र में 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् 879 से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना हुआ था, इसका आकलन कर पाना कठिन है। 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: 1482 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका। 1765 में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे-छोटे बाइसे व चोबिसे राज्य के उपर चढ़ाई करते हुए एकीकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लड़ाइयों के पश्चात् उन्होंने 3 वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नही करना पड़ा। | हिन्दू धर्म में फसल का देवता किसे माना गया है? | {
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} | Who is considered as the god of harvest in Hinduism? | The fact of the arrival of humans in the Himalayan region is about 9,000 years ago is confirmed by the new stone tools found in Kathmandu Upatya.Probably people of Tibetan-Bermai origin had arrived in Nepal 2,500 years ago.In the Mahabharata period 5,500 BC, when Kunti son was departing towards the five Pandavas Swargaloka, Panduputra Bhima pleaded to see Lord Mahadev.Then Lord Shiva gave him darshan in the form of a gender, which is today known as "Pashupatinath Jyotirlinga".Around 1,500 BC, the Indian-Aryan castes entered Kathmandu Upataka.[Please add quotes] To form small state and state organizations in about 1,000 BC.Lord Shri Rampati Mata Sitaji was born at 7,500 BC in Janakpur, Nepal.Siddharth Gautam (BC 563–483) was the prince of the Shakya dynasty, he was born in Lumbini, Nepal, who renounced his kingdom and lived the life of ascetic and he became Buddha.By 250 BC, the Mauryan Empire of North India was influenced in the region and later became a puppet kingdom in the fourth century under the Gupta dynasty.In this region, the kingdom of Vaishali was established in the latter half of the 5th century.In the late 8th century, the Lichchhvi dynasty was set and the emergence of Newar (a caste of Nepal) era from 879, yet it is difficult to assess how much these people were controlled in the country.In the late 11th century, the influence of the Chalukya Empire from South India was seen in the southern land of Nepal.Under the influence of Chalukyas, at that time the kings left Buddhism and supported Hinduism and religious changes started to take place in Nepal.In the first half of the 13th century, the Sanskrit word Malla's dynasty began to rise.In 200 years, these kings united Shakti.In the late 14th century, a very large part of the country came under the integrated state.But this integration could last for a short time: In 1482, this state divided into three parts - Kantipur, Lalitpur and Bhaktapur - between which could not be mail till Shaktidia.In 1765, Gorkha Raja Prithvi Narayan Shah integrated down by climbing small halves of Nepal and Chobisa state, after very high bloody battles, he defeated the kings of Kantipur, Patan and Bhadgaon after 3 years and the name of his kingdomConverted from Gorkha to Nepal.However, he did not have to fight any war in Kantipur Vijay. | {
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1487 | हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग 9,000 वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमांडू उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारों से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ईसा पूर्व महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु विनती की। तभी भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया। [कृपया उद्धरण जोड़ें] करीब 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) शाक्य वंश के राजकुमार थे, उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था, जिन्होंने अपना राज-पाट त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। 250 ईसा पूर्व तक इस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में कठपुतली राज्य हो गया। इस क्षेत्र में 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् 879 से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना हुआ था, इसका आकलन कर पाना कठिन है। 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: 1482 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका। 1765 में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे-छोटे बाइसे व चोबिसे राज्य के उपर चढ़ाई करते हुए एकीकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लड़ाइयों के पश्चात् उन्होंने 3 वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नही करना पड़ा। | हिमालय क्षेत्र में मानव का आगमन कितने साल पहले से प्रमाणित होता है ? | {
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"9,000 वर्ष"
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} | The arrival of humans in the Himalayan region is attested from how many years ago? | The fact that humans arrived in the Himalayan region about 9,000 years ago is confirmed by the Neolithic tools found in the Kathmandu Valley. Probably people of Tibeto-Burmese origin had come to Nepal 2,500 years ago. During the Mahabharata period of 5,500 BC, when Kunti's sons and the five Pandavas were leaving for heaven, Pandu's son Bhima requested Lord Mahadev to give him darshan. Then Lord Shiva appeared to him in the form of a linga which is today known as "Pashupatinath Jyotirlinga". Indo-Aryan tribes entered the Kathmandu Valley around 1,500 BC. [Please add citation] Small states and state organizations formed around 1,000 BC. Lord Shri Ram's wife Mata Sitaji was born in Janakpur, Nepal, 7,500 BC. Siddhartha Gautama (563–483 BC) was a prince of the Shakya dynasty, born in Lumbini, Nepal, who renounced his kingdom and led an ascetic life and became Buddha. By 250 BC the region came under the influence of the Maurya Empire of North India and later became a puppet state under the Gupta dynasty in the 4th century. The kingdom of Lichchavi of Vaishali was established in this region in the second half of the 5th century. The Licchavi dynasty declined in the second half of the 8th century and the Newar (a caste of Nepal) era emerged from 879, yet it is difficult to assess how much control these people had over the country. In the second half of the 11th century, the influence of the Chalukya Empire, which came from South India, was visible in the southern region of Nepal. Under the influence of Chalukyas, the kings at that time abandoned Buddhism and supported Hinduism and religious changes started taking place in Nepal. In the first half of the 13th century, the Thar dynasty of the Sanskrit word Malla began to rise. These kings united power in 200 years. In the second half of the 14th century, a large part of the country came under the control of a unified state. But this unification was short-lived: in 1482 the kingdom was divided into three parts – Kantipur, Lalitpur and Bhaktapur – between which there was no harmony for centuries. In 1765, the Gorkha king Prithvi Narayan Shah invaded and unified the small kingdoms of Bise and Chobise of Nepal. After very bloody battles, he defeated the kings of Kantipur, Patan and Bhadgaon three years later and named his kingdom Converted from Gorkha to Nepal. However, he did not have to fight any war in the victory of Kantipur. | {
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41
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"9, 000 years"
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1488 | हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग 9,000 वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमांडू उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारों से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ईसा पूर्व महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु विनती की। तभी भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया। [कृपया उद्धरण जोड़ें] करीब 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) शाक्य वंश के राजकुमार थे, उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था, जिन्होंने अपना राज-पाट त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। 250 ईसा पूर्व तक इस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में कठपुतली राज्य हो गया। इस क्षेत्र में 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् 879 से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना हुआ था, इसका आकलन कर पाना कठिन है। 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: 1482 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका। 1765 में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे-छोटे बाइसे व चोबिसे राज्य के उपर चढ़ाई करते हुए एकीकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लड़ाइयों के पश्चात् उन्होंने 3 वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नही करना पड़ा। | भगवान शिव ने भीम को जिस लिंग के रूप में एक दर्शन दिया उस लिंग को किस नाम से जाना जाता है ? | {
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"पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग"
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} | The Linga in the form of which Lord Shiva gave a vision to Bhima is known as? | The fact that humans arrived in the Himalayan region about 9,000 years ago is confirmed by the Neolithic tools found in the Kathmandu Valley. Probably people of Tibeto-Burmese origin had come to Nepal 2,500 years ago. During the Mahabharata period of 5,500 BC, when Kunti's sons and the five Pandavas were leaving for heaven, Pandu's son Bhima requested Lord Mahadev to give him darshan. Then Lord Shiva appeared to him in the form of a linga which is today known as "Pashupatinath Jyotirlinga". Indo-Aryan tribes entered the Kathmandu Valley around 1,500 BC. [Please add citation] Small states and state organizations formed around 1,000 BC. Lord Shri Ram's wife Mata Sitaji was born in Janakpur, Nepal, 7,500 BC. Siddhartha Gautama (563–483 BC) was a prince of the Shakya dynasty, born in Lumbini, Nepal, who renounced his kingdom and led an ascetic life and became Buddha. By 250 BC the region came under the influence of the Maurya Empire of North India and later became a puppet state under the Gupta dynasty in the 4th century. The kingdom of Lichchavi of Vaishali was established in this region in the second half of the 5th century. The Licchavi dynasty declined in the second half of the 8th century and the Newar (a caste of Nepal) era emerged from 879, yet it is difficult to assess how much control these people had over the country. In the second half of the 11th century, the influence of the Chalukya Empire, which came from South India, was visible in the southern region of Nepal. Under the influence of Chalukyas, the kings at that time abandoned Buddhism and supported Hinduism and religious changes started taking place in Nepal. In the first half of the 13th century, the Thar dynasty of the Sanskrit word Malla began to rise. These kings united power in 200 years. In the second half of the 14th century, a large part of the country came under the control of a unified state. But this unification was short-lived: in 1482 the kingdom was divided into three parts – Kantipur, Lalitpur and Bhaktapur – between which there was no harmony for centuries. In 1765, the Gorkha king Prithvi Narayan Shah invaded and unified the small kingdoms of Bise and Chobise of Nepal. After very bloody battles, he defeated the kings of Kantipur, Patan and Bhadgaon three years later and named his kingdom Converted from Gorkha to Nepal. However, he did not have to fight any war in the victory of Kantipur. | {
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"Pashupatinath Jyotirlinga"
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"2,500 वर्ष"
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181
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} | How many years ago did people of Tibeto-Burman origin arrive in Nepal? | The fact of the arrival of humans in the Himalayan region is about 9,000 years ago is confirmed by the new stone tools found in Kathmandu Upatya.Probably people of Tibetan-Bermai origin had arrived in Nepal 2,500 years ago.In the Mahabharata period 5,500 BC, when Kunti son was departing towards the five Pandavas Swargaloka, Panduputra Bhima pleaded to see Lord Mahadev.Then Lord Shiva gave him darshan in the form of a gender, which is today known as "Pashupatinath Jyotirlinga".Around 1,500 BC, the Indian-Aryan castes entered Kathmandu Upataka.[Please add quotes] To form small state and state organizations in about 1,000 BC.Lord Shri Rampati Mata Sitaji was born at 7,500 BC in Janakpur, Nepal.Siddharth Gautam (BC 563–483) was the prince of the Shakya dynasty, he was born in Lumbini, Nepal, who renounced his kingdom and lived the life of ascetic and he became Buddha.By 250 BC, the Mauryan Empire of North India was influenced in the region and later became a puppet kingdom in the fourth century under the Gupta dynasty.In this region, the kingdom of Vaishali was established in the latter half of the 5th century.In the late 8th century, the Lichchhvi dynasty was set and the emergence of Newar (a caste of Nepal) era from 879, yet it is difficult to assess how much these people were controlled in the country.In the late 11th century, the influence of the Chalukya Empire from South India was seen in the southern land of Nepal.Under the influence of Chalukyas, at that time the kings left Buddhism and supported Hinduism and religious changes started to take place in Nepal.In the first half of the 13th century, the Sanskrit word Malla's dynasty began to rise.In 200 years, these kings united Shakti.In the late 14th century, a very large part of the country came under the integrated state.But this integration could last for a short time: In 1482, this state divided into three parts - Kantipur, Lalitpur and Bhaktapur - between which could not be mail till Shaktidia.In 1765, Gorkha Raja Prithvi Narayan Shah integrated down by climbing small halves of Nepal and Chobisa state, after very high bloody battles, he defeated the kings of Kantipur, Patan and Bhadgaon after 3 years and the name of his kingdomConverted from Gorkha to Nepal.However, he did not have to fight any war in Kantipur Vijay. | {
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181
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"2,500 years"
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} |
1490 | हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग 9,000 वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमांडू उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारों से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ईसा पूर्व महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु विनती की। तभी भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया। [कृपया उद्धरण जोड़ें] करीब 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) शाक्य वंश के राजकुमार थे, उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था, जिन्होंने अपना राज-पाट त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। 250 ईसा पूर्व तक इस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में कठपुतली राज्य हो गया। इस क्षेत्र में 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् 879 से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना हुआ था, इसका आकलन कर पाना कठिन है। 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: 1482 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका। 1765 में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे-छोटे बाइसे व चोबिसे राज्य के उपर चढ़ाई करते हुए एकीकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लड़ाइयों के पश्चात् उन्होंने 3 वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नही करना पड़ा। | राम की पत्नी सीता का जन्म कहाँ हुआ था ? | {
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"जनकपुर"
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655
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} | Where was Rama's wife Sita born? | The fact of the arrival of humans in the Himalayan region is about 9,000 years ago is confirmed by the new stone tools found in Kathmandu Upatya.Probably people of Tibetan-Bermai origin had arrived in Nepal 2,500 years ago.In the Mahabharata period 5,500 BC, when Kunti son was departing towards the five Pandavas Swargaloka, Panduputra Bhima pleaded to see Lord Mahadev.Then Lord Shiva gave him darshan in the form of a gender, which is today known as "Pashupatinath Jyotirlinga".Around 1,500 BC, the Indian-Aryan castes entered Kathmandu Upataka.[Please add quotes] To form small state and state organizations in about 1,000 BC.Lord Shri Rampati Mata Sitaji was born at 7,500 BC in Janakpur, Nepal.Siddharth Gautam (BC 563–483) was the prince of the Shakya dynasty, he was born in Lumbini, Nepal, who renounced his kingdom and lived the life of ascetic and he became Buddha.By 250 BC, the Mauryan Empire of North India was influenced in the region and later became a puppet kingdom in the fourth century under the Gupta dynasty.In this region, the kingdom of Vaishali was established in the latter half of the 5th century.In the late 8th century, the Lichchhvi dynasty was set and the emergence of Newar (a caste of Nepal) era from 879, yet it is difficult to assess how much these people were controlled in the country.In the late 11th century, the influence of the Chalukya Empire from South India was seen in the southern land of Nepal.Under the influence of Chalukyas, at that time the kings left Buddhism and supported Hinduism and religious changes started to take place in Nepal.In the first half of the 13th century, the Sanskrit word Malla's dynasty began to rise.In 200 years, these kings united Shakti.In the late 14th century, a very large part of the country came under the integrated state.But this integration could last for a short time: In 1482, this state divided into three parts - Kantipur, Lalitpur and Bhaktapur - between which could not be mail till Shaktidia.In 1765, Gorkha Raja Prithvi Narayan Shah integrated down by climbing small halves of Nepal and Chobisa state, after very high bloody battles, he defeated the kings of Kantipur, Patan and Bhadgaon after 3 years and the name of his kingdomConverted from Gorkha to Nepal.However, he did not have to fight any war in Kantipur Vijay. | {
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655
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"Janakpur"
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1491 | हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग 9,000 वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमांडू उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारों से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ईसा पूर्व महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु विनती की। तभी भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया। [कृपया उद्धरण जोड़ें] करीब 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) शाक्य वंश के राजकुमार थे, उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था, जिन्होंने अपना राज-पाट त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। 250 ईसा पूर्व तक इस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में कठपुतली राज्य हो गया। इस क्षेत्र में 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् 879 से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना हुआ था, इसका आकलन कर पाना कठिन है। 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: 1482 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका। 1765 में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे-छोटे बाइसे व चोबिसे राज्य के उपर चढ़ाई करते हुए एकीकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लड़ाइयों के पश्चात् उन्होंने 3 वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नही करना पड़ा। | 1,500 ईसा पूर्व इंडो-आर्यन जनजातियों ने किस घाटी में प्रवेश किया था ? | {
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"काठमांडू उपत्यका"
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} | The Indo-Aryan tribes had entered which valley by 1,500 BC? | The fact that humans arrived in the Himalayan region about 9,000 years ago is confirmed by the Neolithic tools found in the Kathmandu Valley. Probably people of Tibeto-Burmese origin had come to Nepal 2,500 years ago. During the Mahabharata period of 5,500 BC, when Kunti's sons and the five Pandavas were leaving for heaven, Pandu's son Bhima requested Lord Mahadev to give him darshan. Then Lord Shiva appeared to him in the form of a linga which is today known as "Pashupatinath Jyotirlinga". Indo-Aryan tribes entered the Kathmandu Valley around 1,500 BC. [Please add citation] Small states and state organizations formed around 1,000 BC. Lord Shri Ram's wife Mata Sitaji was born in Janakpur, Nepal, 7,500 BC. Siddhartha Gautama (563–483 BC) was a prince of the Shakya dynasty, born in Lumbini, Nepal, who renounced his kingdom and led an ascetic life and became Buddha. By 250 BC the region came under the influence of the Maurya Empire of North India and later became a puppet state under the Gupta dynasty in the 4th century. The kingdom of Lichchavi of Vaishali was established in this region in the second half of the 5th century. The Licchavi dynasty declined in the second half of the 8th century and the Newar (a caste of Nepal) era emerged from 879, yet it is difficult to assess how much control these people had over the country. In the second half of the 11th century, the influence of the Chalukya Empire, which came from South India, was visible in the southern region of Nepal. Under the influence of Chalukyas, the kings at that time abandoned Buddhism and supported Hinduism and religious changes started taking place in Nepal. In the first half of the 13th century, the Thar dynasty of the Sanskrit word Malla began to rise. These kings united power in 200 years. In the second half of the 14th century, a large part of the country came under the control of a unified state. But this unification was short-lived: in 1482 the kingdom was divided into three parts – Kantipur, Lalitpur and Bhaktapur – between which there was no harmony for centuries. In 1765, the Gorkha king Prithvi Narayan Shah invaded and unified the small kingdoms of Bise and Chobise of Nepal. After very bloody battles, he defeated the kings of Kantipur, Patan and Bhadgaon three years later and named his kingdom Converted from Gorkha to Nepal. However, he did not have to fight any war in the victory of Kantipur. | {
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80
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"The Kathmandu Valley"
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1492 | हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग 9,000 वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमांडू उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारों से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ईसा पूर्व महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु विनती की। तभी भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया। [कृपया उद्धरण जोड़ें] करीब 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) शाक्य वंश के राजकुमार थे, उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था, जिन्होंने अपना राज-पाट त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। 250 ईसा पूर्व तक इस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में कठपुतली राज्य हो गया। इस क्षेत्र में 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् 879 से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना हुआ था, इसका आकलन कर पाना कठिन है। 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: 1482 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका। 1765 में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे-छोटे बाइसे व चोबिसे राज्य के उपर चढ़ाई करते हुए एकीकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लड़ाइयों के पश्चात् उन्होंने 3 वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नही करना पड़ा। | पृथ्वी नारायण शाह के आक्रमण के समय कांतिपुर के लोग किस देवता की पूजा कर रहे थे? | {
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null
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} | Which god was worshipped by the people of Kantipur at the time of Prithvi Narayan Shah's invasion? | The fact of the arrival of humans in the Himalayan region is about 9,000 years ago is confirmed by the new stone tools found in Kathmandu Upatya.Probably people of Tibetan-Bermai origin had arrived in Nepal 2,500 years ago.In the Mahabharata period 5,500 BC, when Kunti son was departing towards the five Pandavas Swargaloka, Panduputra Bhima pleaded to see Lord Mahadev.Then Lord Shiva gave him darshan in the form of a gender, which is today known as "Pashupatinath Jyotirlinga".Around 1,500 BC, the Indian-Aryan castes entered Kathmandu Upataka.[Please add quotes] To form small state and state organizations in about 1,000 BC.Lord Shri Rampati Mata Sitaji was born at 7,500 BC in Janakpur, Nepal.Siddharth Gautam (BC 563–483) was the prince of the Shakya dynasty, he was born in Lumbini, Nepal, who renounced his kingdom and lived the life of ascetic and he became Buddha.By 250 BC, the Mauryan Empire of North India was influenced in the region and later became a puppet kingdom in the fourth century under the Gupta dynasty.In this region, the kingdom of Vaishali was established in the latter half of the 5th century.In the late 8th century, the Lichchhvi dynasty was set and the emergence of Newar (a caste of Nepal) era from 879, yet it is difficult to assess how much these people were controlled in the country.In the late 11th century, the influence of the Chalukya Empire from South India was seen in the southern land of Nepal.Under the influence of Chalukyas, at that time the kings left Buddhism and supported Hinduism and religious changes started to take place in Nepal.In the first half of the 13th century, the Sanskrit word Malla's dynasty began to rise.In 200 years, these kings united Shakti.In the late 14th century, a very large part of the country came under the integrated state.But this integration could last for a short time: In 1482, this state divided into three parts - Kantipur, Lalitpur and Bhaktapur - between which could not be mail till Shaktidia.In 1765, Gorkha Raja Prithvi Narayan Shah integrated down by climbing small halves of Nepal and Chobisa state, after very high bloody battles, he defeated the kings of Kantipur, Patan and Bhadgaon after 3 years and the name of his kingdomConverted from Gorkha to Nepal.However, he did not have to fight any war in Kantipur Vijay. | {
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null
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} |
1493 | हिमालय पर्वत विविध प्राकृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से महत्वपूर्ण है। हिमालय पर्वत का महत्व न केवल इसके आसपास के देशों के लिये हैं बल्कि पूरे विश्व के लिये हैं क्योंकि यह ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा हिमाच्छादित क्षेत्र है जो विश्व जलवायु को भी प्रभावित करता है। इसके महत्व को निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है:उत्तरी भारत का मैदान या सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान हिमालय से लाये गये जलोढ़ निक्षेपों से निर्मित है। हिमालय का सबसे बड़ा महत्व दक्षिणी एशिया के क्षेत्रों के लिये हैं जहाँ की जलवायु के लिये यह एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में कार्य करता है। हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलायें साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोक कर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में आधिक ठण्ढा होने से बचाती हैं। यह पर्वत श्रेणियाँ मानसूनी पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पान करके इस क्षेत्र में पर्वतीय वर्षा कराती हैं जिस पर इस क्षेत्र का पर्यावरण और अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक निर्भर हैं। हिमालय की उपस्थिति ही वह कारण है जिसकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के उन क्षेत्रों में भी उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु पायी जाती है जो कर्क रेखा के उत्तर में स्थित हैं, अन्यथा इन क्षेत्रों में अक्षांशीय स्थिति के अनुसार समशीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु मिलनी चाहिए थी। हिमालय की वर्ष-पर्यंत हिमाच्छादित श्रेणियाँ और इनके हिमनद सदावाहिनी नदियों के स्रोत हैं जिनसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश को महत्वपूर्ण जल संसाधन उपलब्ध होते हैं। वन संसाधनों के रूप में शीतोष्ण कटिबंधीय मुलायम लकड़ी वाली वनस्पति और शंक्वाकार वनों के स्रोत के रूप में जिसका काफ़ी आर्थिक महत्व है। | उत्तर भारतीय मैदान को दुसरे किस नाम से जाना जाता है ? | {
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"सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र"
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} | By what other name is the North Indian plain known? | The Himalayan Mountains are important for a variety of natural, economic and environmental reasons. The Himalayan Mountains are important not only for the countries around it but for the entire world because it is the largest glaciated region on Earth after the polar regions, which also affects the world climate. Its importance can be classified as follows: The plain of Northern India or the Indus-Ganga-Brahmaputra plain is formed from alluvial deposits brought from the Himalayas. The Himalayas are of greatest importance for the regions of Southern Asia where it acts as an important controlling factor for the climate. The huge mountain ranges of the Himalayas prevent the Indian subcontinent from getting too cold in winter by blocking cold Siberian air masses. These mountain ranges create obstacles in the path of monsoon winds and cause mountain rainfall in the region, on which the environment and economy of this region depend to a great extent. The presence of the Himalayas is the reason why tropical and subtropical climate is found even in those areas of the Indian subcontinent which are located north of the Tropic of Cancer, otherwise these areas should have found temperate tropical climate as per their latitudinal location. The year-round snow-clad ranges of the Himalayas and their glaciers are the source of perennial rivers that provide important water resources to India, Pakistan, Nepal and Bangladesh. It has considerable economic importance as a source of temperate softwood vegetation and coniferous forests as forest resources. | {
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354
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"Indus-Ganga-Brahmaputra"
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} |
1494 | हिमालय पर्वत विविध प्राकृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से महत्वपूर्ण है। हिमालय पर्वत का महत्व न केवल इसके आसपास के देशों के लिये हैं बल्कि पूरे विश्व के लिये हैं क्योंकि यह ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा हिमाच्छादित क्षेत्र है जो विश्व जलवायु को भी प्रभावित करता है। इसके महत्व को निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है:उत्तरी भारत का मैदान या सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान हिमालय से लाये गये जलोढ़ निक्षेपों से निर्मित है। हिमालय का सबसे बड़ा महत्व दक्षिणी एशिया के क्षेत्रों के लिये हैं जहाँ की जलवायु के लिये यह एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में कार्य करता है। हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलायें साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोक कर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में आधिक ठण्ढा होने से बचाती हैं। यह पर्वत श्रेणियाँ मानसूनी पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पान करके इस क्षेत्र में पर्वतीय वर्षा कराती हैं जिस पर इस क्षेत्र का पर्यावरण और अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक निर्भर हैं। हिमालय की उपस्थिति ही वह कारण है जिसकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के उन क्षेत्रों में भी उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु पायी जाती है जो कर्क रेखा के उत्तर में स्थित हैं, अन्यथा इन क्षेत्रों में अक्षांशीय स्थिति के अनुसार समशीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु मिलनी चाहिए थी। हिमालय की वर्ष-पर्यंत हिमाच्छादित श्रेणियाँ और इनके हिमनद सदावाहिनी नदियों के स्रोत हैं जिनसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश को महत्वपूर्ण जल संसाधन उपलब्ध होते हैं। वन संसाधनों के रूप में शीतोष्ण कटिबंधीय मुलायम लकड़ी वाली वनस्पति और शंक्वाकार वनों के स्रोत के रूप में जिसका काफ़ी आर्थिक महत्व है। | ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद दुनियां का कौन सा क्षेत्र सबसे ज्यादा बर्फ से ढका हुआ है ? | {
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"हिमालय पर्वत"
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} | Which region of the world is covered by the most snow after the polar regions? | The Himalayan Mountains are important for a variety of natural, economic and environmental reasons. The Himalayan Mountains are important not only for the countries around it but for the entire world because it is the largest glaciated region on Earth after the polar regions, which also affects the world climate. Its importance can be classified as follows: The plain of Northern India or the Indus-Ganga-Brahmaputra plain is formed from alluvial deposits brought from the Himalayas. The Himalayas are of greatest importance for the regions of Southern Asia where it acts as an important controlling factor for the climate. The huge mountain ranges of the Himalayas prevent the Indian subcontinent from getting too cold in winter by blocking cold Siberian air masses. These mountain ranges create obstacles in the path of monsoon winds and cause mountain rainfall in the region, on which the environment and economy of this region depend to a great extent. The presence of the Himalayas is the reason why tropical and subtropical climate is found even in those areas of the Indian subcontinent which are located north of the Tropic of Cancer, otherwise these areas should have found temperate tropical climate as per their latitudinal location. The year-round snow-clad ranges of the Himalayas and their glaciers are the source of perennial rivers that provide important water resources to India, Pakistan, Nepal and Bangladesh. It has considerable economic importance as a source of temperate softwood vegetation and coniferous forests as forest resources. | {
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"Himalayan Mountains"
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} |
1495 | हिमालय पर्वत विविध प्राकृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से महत्वपूर्ण है। हिमालय पर्वत का महत्व न केवल इसके आसपास के देशों के लिये हैं बल्कि पूरे विश्व के लिये हैं क्योंकि यह ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा हिमाच्छादित क्षेत्र है जो विश्व जलवायु को भी प्रभावित करता है। इसके महत्व को निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है:उत्तरी भारत का मैदान या सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान हिमालय से लाये गये जलोढ़ निक्षेपों से निर्मित है। हिमालय का सबसे बड़ा महत्व दक्षिणी एशिया के क्षेत्रों के लिये हैं जहाँ की जलवायु के लिये यह एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में कार्य करता है। हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलायें साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोक कर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में आधिक ठण्ढा होने से बचाती हैं। यह पर्वत श्रेणियाँ मानसूनी पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पान करके इस क्षेत्र में पर्वतीय वर्षा कराती हैं जिस पर इस क्षेत्र का पर्यावरण और अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक निर्भर हैं। हिमालय की उपस्थिति ही वह कारण है जिसकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के उन क्षेत्रों में भी उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु पायी जाती है जो कर्क रेखा के उत्तर में स्थित हैं, अन्यथा इन क्षेत्रों में अक्षांशीय स्थिति के अनुसार समशीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु मिलनी चाहिए थी। हिमालय की वर्ष-पर्यंत हिमाच्छादित श्रेणियाँ और इनके हिमनद सदावाहिनी नदियों के स्रोत हैं जिनसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश को महत्वपूर्ण जल संसाधन उपलब्ध होते हैं। वन संसाधनों के रूप में शीतोष्ण कटिबंधीय मुलायम लकड़ी वाली वनस्पति और शंक्वाकार वनों के स्रोत के रूप में जिसका काफ़ी आर्थिक महत्व है। | हिमालय की घाटियों में पाई जाने वाली घास को कुमाऊ क्षेत्र में किस नाम से जाना जाता है ? | {
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} | The grass found in the Himalayan valleys is known by what name in the Kumaon region? | The Himalayan mountain is important for diverse natural, economic and environmental reasons.The importance of the Himalayan mountains is not only for the countries around it but for the whole world because it is the largest snowy area on Earth after polar regions which also affects the world climate.Its importance can be classified as follows: Northern India's ground or Indus-Ganga-Brahmaputra ground is made up of alluvial deposits brought from the Himalayas.The biggest importance of the Himalayas is for the regions of Southern Asia where it acts as an important controller factor for the climate.The huge mountains of the Himalayas prevent the Siberian cold viurasis and protect the Indian subcontinent from getting more in winter.These mountain ranges make a hill rainfall in this region by creating a barrier to the path of monsoon winds, on which the environment and economy of this region depend to a great extent.The presence of the Himalayas is the reason that also contains tropical and subtropical climate in those areas of the Indian subcontinent which are located north of the Tropic of Cancer, otherwise these areas should have a temperate currency climate according to latitude status.The year-old snowly categories of the Himalayas and their glaciers are sources of Sadhwahini rivers that provide significant water resources to India, Pakistan, Nepal and Bangladesh.In the form of forest resources, as a source of temperamental soft wood and conical forests, which has a lot of economic importance. | {
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1496 | हिमालय पर्वत विविध प्राकृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से महत्वपूर्ण है। हिमालय पर्वत का महत्व न केवल इसके आसपास के देशों के लिये हैं बल्कि पूरे विश्व के लिये हैं क्योंकि यह ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा हिमाच्छादित क्षेत्र है जो विश्व जलवायु को भी प्रभावित करता है। इसके महत्व को निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है:उत्तरी भारत का मैदान या सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान हिमालय से लाये गये जलोढ़ निक्षेपों से निर्मित है। हिमालय का सबसे बड़ा महत्व दक्षिणी एशिया के क्षेत्रों के लिये हैं जहाँ की जलवायु के लिये यह एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में कार्य करता है। हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलायें साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोक कर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में आधिक ठण्ढा होने से बचाती हैं। यह पर्वत श्रेणियाँ मानसूनी पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पान करके इस क्षेत्र में पर्वतीय वर्षा कराती हैं जिस पर इस क्षेत्र का पर्यावरण और अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक निर्भर हैं। हिमालय की उपस्थिति ही वह कारण है जिसकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के उन क्षेत्रों में भी उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु पायी जाती है जो कर्क रेखा के उत्तर में स्थित हैं, अन्यथा इन क्षेत्रों में अक्षांशीय स्थिति के अनुसार समशीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु मिलनी चाहिए थी। हिमालय की वर्ष-पर्यंत हिमाच्छादित श्रेणियाँ और इनके हिमनद सदावाहिनी नदियों के स्रोत हैं जिनसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश को महत्वपूर्ण जल संसाधन उपलब्ध होते हैं। वन संसाधनों के रूप में शीतोष्ण कटिबंधीय मुलायम लकड़ी वाली वनस्पति और शंक्वाकार वनों के स्रोत के रूप में जिसका काफ़ी आर्थिक महत्व है। | हिमालय की घाटियों में किस प्रकार की घास पाई जाती है ? | {
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} | What type of grass is found in the Himalayan valleys? | The Himalayan mountain is important for diverse natural, economic and environmental reasons.The importance of the Himalayan mountains is not only for the countries around it but for the whole world because it is the largest snowy area on Earth after polar regions which also affects the world climate.Its importance can be classified as follows: Northern India's ground or Indus-Ganga-Brahmaputra ground is made up of alluvial deposits brought from the Himalayas.The biggest importance of the Himalayas is for the regions of Southern Asia where it acts as an important controller factor for the climate.The huge mountains of the Himalayas prevent the Siberian cold viurasis and protect the Indian subcontinent from getting more in winter.These mountain ranges make a hill rainfall in this region by creating a barrier to the path of monsoon winds, on which the environment and economy of this region depend to a great extent.The presence of the Himalayas is the reason that also contains tropical and subtropical climate in those areas of the Indian subcontinent which are located north of the Tropic of Cancer, otherwise these areas should have a temperate currency climate according to latitude status.The year-old snowly categories of the Himalayas and their glaciers are sources of Sadhwahini rivers that provide significant water resources to India, Pakistan, Nepal and Bangladesh.In the form of forest resources, as a source of temperamental soft wood and conical forests, which has a lot of economic importance. | {
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1497 | हिमालय पर्वत विविध प्राकृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से महत्वपूर्ण है। हिमालय पर्वत का महत्व न केवल इसके आसपास के देशों के लिये हैं बल्कि पूरे विश्व के लिये हैं क्योंकि यह ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा हिमाच्छादित क्षेत्र है जो विश्व जलवायु को भी प्रभावित करता है। इसके महत्व को निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है:उत्तरी भारत का मैदान या सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान हिमालय से लाये गये जलोढ़ निक्षेपों से निर्मित है। हिमालय का सबसे बड़ा महत्व दक्षिणी एशिया के क्षेत्रों के लिये हैं जहाँ की जलवायु के लिये यह एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में कार्य करता है। हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलायें साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोक कर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में आधिक ठण्ढा होने से बचाती हैं। यह पर्वत श्रेणियाँ मानसूनी पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पान करके इस क्षेत्र में पर्वतीय वर्षा कराती हैं जिस पर इस क्षेत्र का पर्यावरण और अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक निर्भर हैं। हिमालय की उपस्थिति ही वह कारण है जिसकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के उन क्षेत्रों में भी उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु पायी जाती है जो कर्क रेखा के उत्तर में स्थित हैं, अन्यथा इन क्षेत्रों में अक्षांशीय स्थिति के अनुसार समशीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु मिलनी चाहिए थी। हिमालय की वर्ष-पर्यंत हिमाच्छादित श्रेणियाँ और इनके हिमनद सदावाहिनी नदियों के स्रोत हैं जिनसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश को महत्वपूर्ण जल संसाधन उपलब्ध होते हैं। वन संसाधनों के रूप में शीतोष्ण कटिबंधीय मुलायम लकड़ी वाली वनस्पति और शंक्वाकार वनों के स्रोत के रूप में जिसका काफ़ी आर्थिक महत्व है। | हिमालय और उनके हिमनद किस तरह के नदी के स्रोत होते है ? | {
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"सदावाहिनी नदियों"
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1201
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} | What kind of river sources are the Himalayas and their glaciers? | The Himalayan mountain is important for diverse natural, economic and environmental reasons.The importance of the Himalayan mountains is not only for the countries around it but for the whole world because it is the largest snowy area on Earth after polar regions which also affects the world climate.Its importance can be classified as follows: Northern India's ground or Indus-Ganga-Brahmaputra ground is made up of alluvial deposits brought from the Himalayas.The biggest importance of the Himalayas is for the regions of Southern Asia where it acts as an important controller factor for the climate.The huge mountains of the Himalayas prevent the Siberian cold viurasis and protect the Indian subcontinent from getting more in winter.These mountain ranges make a hill rainfall in this region by creating a barrier to the path of monsoon winds, on which the environment and economy of this region depend to a great extent.The presence of the Himalayas is the reason that also contains tropical and subtropical climate in those areas of the Indian subcontinent which are located north of the Tropic of Cancer, otherwise these areas should have a temperate currency climate according to latitude status.The year-old snowly categories of the Himalayas and their glaciers are sources of Sadhwahini rivers that provide significant water resources to India, Pakistan, Nepal and Bangladesh.In the form of forest resources, as a source of temperamental soft wood and conical forests, which has a lot of economic importance. | {
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1201
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"Sadavahini Rivers"
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1498 | हुमायूँ की मृत्यु के बाद हेमू विक्रमादित्य के नेतृत्व में अफ़गानों नें मुगल सेना को पराजित कर आगरा व दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह अकबर ने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थान्तरित कर दिया। अकबर के पोते शाहजहाँ (१६२८-१६५८) ने सत्रहवीं सदी के मध्य में इसे सातवीं बार बसाया जिसे शाहजहाँनाबाद के नाम से पुकारा गया। शाहजहाँनाबाद को आम बोल-चाल की भाषा में पुराना शहर या पुरानी दिल्ली कहा जाता है। प्राचीनकाल से पुरानी दिल्ली पर अनेक राजाओं एवं सम्राटों ने राज्य किया है तथा समय-समय पर इसके नाम में भी परिवर्तन किया जाता रहा था। पुरानी दिल्ली १६३८ के बाद मुग़ल सम्राटों की राजधानी रही। दिल्ली का आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र था जिसकी मृत्यू निवार्सन में ही रंगून में हुई। १८५७ के सिपाही विद्रोह के बाद दिल्ली पर ब्रिटिश शासन के हुकूमत में शासन चलने लगा। १८५७ के इस प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के आंदोलन को पूरी तरह दबाने के बाद अंग्रेजों ने बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेज दिया तथा भारत पूरी तरह से अंग्रेजो के अधीन हो गया। प्रारम्भ में उन्होंने कलकत्ते (आजकल कोलकाता) से शासन संभाला परन्तु ब्रिटिश शासन काल के अन्तिम दिनों में पीटर महान के नेतृत्व में सोवियत रूस का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप में तेजी से बढ़ने लगा। जिसके कारण अंग्रेजों को यह लगने लगा कि कलकत्ता जो कि भारत के धुर पूरब में था वहां से अफ़ग़ानिस्तान एवं ईरान आदि पर सक्षम तरीके से आसानी से नियंत्रण नहीं स्थापित किया जा सकता है आगे चल कर के इसी कारण से १९११ में उपनिवेश राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया एवं अनेक आधुनिक निर्माण कार्य करवाए गये। शहर के बड़े हिस्सों को ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स सर एडविन लुटियंस और सर हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन किया गया था। १९४७ में भारत की आजादी के बाद इसे अधिकारिक रूप से भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया। | हमारे देश का कौन सा राज्य भविष्य, अतीत और वर्तमान का मिश्रण है? | {
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} | Which state of our country is a mixture of future, past and present? | After the death of Humayun, the Afghans led by Hemu Vikramaditya defeated the Mughal army and took control of Agra and Delhi again.Mughal emperor Akbar transferred his capital to Agra from Delhi.Akbar's grandson Shah Jahan (1827–1457) settled it for the seventh time in the middle of the seventeenth century, which was called as Shahjahanabad.Shahjahanabad is called the old city or Old Delhi in the language of common speech.Many kings and emperors have ruled Old Delhi since ancient times and from time to time its name was also changed.Old Delhi was the capital of the Mughal emperors after 1837.The last Mughal emperor of Delhi was Bahadur Shah Zafar, who died in Rangoon in Nivasan itself.After the soldiers rebellion of 1857, Delhi started ruling in the rule of British rule.After fully suppressed the movement of this first Indian freedom struggle of 1857, the British sent Bahadur Shah Zafar to Rangoon and India became completely under the British.Initially, he took over by Calcutta (nowadays Kolkata), but in the last days of the British rule, the influence of Soviet Russia under the leadership of Peter Great began to grow rapidly in the Indian subcontinent.Due to which the British felt that Calcutta, which was in the east of India, cannot be easily controlled on Afghanistan and Iran etc.It was done and many modern construction works were done.Large parts of the city were designed by British architects Sir Edwin Lutyens and Sir Herbert Baker.After India's independence in 1949, it was officially declared the capital of India. | {
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1499 | हुमायूँ की मृत्यु के बाद हेमू विक्रमादित्य के नेतृत्व में अफ़गानों नें मुगल सेना को पराजित कर आगरा व दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह अकबर ने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थान्तरित कर दिया। अकबर के पोते शाहजहाँ (१६२८-१६५८) ने सत्रहवीं सदी के मध्य में इसे सातवीं बार बसाया जिसे शाहजहाँनाबाद के नाम से पुकारा गया। शाहजहाँनाबाद को आम बोल-चाल की भाषा में पुराना शहर या पुरानी दिल्ली कहा जाता है। प्राचीनकाल से पुरानी दिल्ली पर अनेक राजाओं एवं सम्राटों ने राज्य किया है तथा समय-समय पर इसके नाम में भी परिवर्तन किया जाता रहा था। पुरानी दिल्ली १६३८ के बाद मुग़ल सम्राटों की राजधानी रही। दिल्ली का आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र था जिसकी मृत्यू निवार्सन में ही रंगून में हुई। १८५७ के सिपाही विद्रोह के बाद दिल्ली पर ब्रिटिश शासन के हुकूमत में शासन चलने लगा। १८५७ के इस प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के आंदोलन को पूरी तरह दबाने के बाद अंग्रेजों ने बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेज दिया तथा भारत पूरी तरह से अंग्रेजो के अधीन हो गया। प्रारम्भ में उन्होंने कलकत्ते (आजकल कोलकाता) से शासन संभाला परन्तु ब्रिटिश शासन काल के अन्तिम दिनों में पीटर महान के नेतृत्व में सोवियत रूस का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप में तेजी से बढ़ने लगा। जिसके कारण अंग्रेजों को यह लगने लगा कि कलकत्ता जो कि भारत के धुर पूरब में था वहां से अफ़ग़ानिस्तान एवं ईरान आदि पर सक्षम तरीके से आसानी से नियंत्रण नहीं स्थापित किया जा सकता है आगे चल कर के इसी कारण से १९११ में उपनिवेश राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया एवं अनेक आधुनिक निर्माण कार्य करवाए गये। शहर के बड़े हिस्सों को ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स सर एडविन लुटियंस और सर हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन किया गया था। १९४७ में भारत की आजादी के बाद इसे अधिकारिक रूप से भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया। | अंतिम मुग़ल बादशाह का क्या नाम है? | {
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"बहादुर शाह जफ़र"
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615
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} | What is the name of the last Mughal emperor? | After Humayun's death, the Afghans under the leadership of Hemu Vikramaditya defeated the Mughal army and recaptured Agra and Delhi. Mughal emperor Akbar shifted his capital from Delhi to Agra. Akbar's grandson Shahjahan (1628-1658) settled it for the seventh time in the middle of the seventeenth century, which was called Shahjahanabad. Shahjahanabad is colloquially called the Old City or Old Delhi. Since ancient times, many kings and emperors have ruled over Old Delhi and its name was also changed from time to time. Old Delhi remained the capital of the Mughal emperors after 1638. The last Mughal emperor of Delhi was Bahadur Shah Zafar who died in exile in Rangoon. After the Sepoy Mutiny of 1857, Delhi started being ruled under the British rule. After completely suppressing the movement of this first Indian independence struggle of 1857, the British sent Bahadur Shah Zafar to Rangoon and India became completely under the British. Initially he ruled from Calcutta (nowadays Kolkata), but in the last days of British rule, the influence of Soviet Russia started increasing rapidly in the Indian subcontinent under the leadership of Peter the Great. Due to which the British started feeling that they could not easily control Afghanistan and Iran etc. from Calcutta, which was in the far east of India. Later, for this reason, the colonial capital was shifted to Delhi in 1911. It was completed and many modern construction works were done. Large parts of the city were designed by the British architects Sir Edwin Lutyens and Sir Herbert Baker. After India's independence in 1947, it was officially declared the capital of India. | {
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"Bahadur Shah Zafar"
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