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रुक्मिणी ने निर्मला से त्यारियां बदलकर कहा- क्या नंगे पांव ही मदरसे जायेगा? निर्मला ने बच्ची के बाल गूंथते हुए कहा- मैं क्या करुं? मेरे पास रुपये नहीं हैं। रुक्मिणी- गहने बनवाने को रुपये जुड़ते हैं, लड़के के जूतों के लिए रुपयों में आग लग जाती है। दो तो चले ही गये, क्या तीसरे को भी रुला-रुलाकर मार डालने का इरादा है? निर्मला ने एक सांस खींचकर कहा- जिसको जीना है, जियेगा, जिसको मरना है, मरेगा। मैं किसी को मारने-जिलाने नहीं जाती। आजकल एक-न-एक बात पर निर्मला और रुक्मिणी में रोज ही झड़प हो जाती थी। जब से गहने चोरी गये हैं, निर्मला का स्वभाव बिलकुल बदल गया है। वह एक-एक कौड़ी दांत से पकड़ने लगी है। सियाराम रोते-रोते चहे जान दे दे, मगर उसे मिठाई के लिए पैसे नहीं मिलते और यह बर्ताव कुछ सियाराम ही के साथ नहीं है, निर्मला स्वयं अपनी जरुरतों को टालती रहती है। धोती जब तक फटकनर तार-तार न हो जाये, नयी धोती नहीं आती। महीनों सिर का तेल नहीं मंगाया जाता। पान खाने का उसे शौक था, कई-कई दिन तक पानदान खाली पड़ा रहता है, यहां तक कि बच्ची के लिए दूध भी नहीं आता। नन्हे से शिशु का भविष्य विराट् रुप धारण करके उसके विचार-क्षेत्र पर मंडराता रहता । मुंशीजी ने अपने को सम्पूर्णतया निर्मला के हाथों मे सौंप दिया है। उसके किसी काम में दखल नहीं देते। न जाने क्यों उससे कुछ दबे रहते हैं। वह अब बिना नागा कचहरी जाते हैं। इतनी मेहनत उन्होंने जवानी में भी न की थी। आंखें खराब हो गयी हैं, डॉक्टर सिन्हा ने रात को लिखने-पढ़ने की मुमुनियत कर दी है, पाचनशक्ति पहले ही दुर्बल थी, अब और भी खराब हो गयी है, दमें की शिकायत भी पैदा ही चली है, पर बेचारे सबेरे से आधी-आधी रात तक काम करते हैं। काम करने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अच्छी हो या न हो, काम करना ही पड़ता है। निर्मला को उन पर जरा भी दया आती। वही भविष्य की भीषण चिन्ता उसके आन्तरिक सद्भावों को सर्वनाश कर रही है। किसी भिक्षुक की आवाज सुनकर झल्ला पड़ती है। वह एक कोड़ी भी खर्च करना नहीं चाहती । एक दिन निर्मला ने सियाराम को घी लाने के लिए बाजार भेजा। भूंगी पर उनका विश्वास न था, उससे अब कोई सौदा न मांगती थी। सियाराम में काट-कपट की आदत न थी। औने-पौने करना न जानता था। प्रायः बाजार का सारा काम उसी को करना पड़ता। निर्मला एक-एक चीज को तोलती, जरा भी कोई चीज तोल में कम पड़ती, तो उसे लौटा देती। सियाराम का बहुत-सा समय इसी लौट-फेरी में बीत जाता था। बाजार वाले उसे जल्दी कोई सौदा न देते। आज भी वही नौबत आयी। सियाराम अपने विचार से बहुत अच्छा घी, कई दूकारन से देखकर लाया, लेकिन निर्मला ने उसे सूंघते ही कहा- घी खराब है, लौटा आओ। सियाराम ने झुंझलाकर कहा- इससे अच्छा घी बाजार में नहीं है, मैं सारी दूकाने देखकर लाया हूं? निर्मला- तो मैं झूठ कहती हूं? सियाराम- यह मैं नहीं कहता, लेकिन बनिया अब घी वापिस न लेगा। उसने मुझसे कहा था, जिस तरह देखना चाहो, यहीं देखो, माल तुम्हारे सामने है। बोहिनी-बट्टे के वक्त में सौदा वापस न लूंगा। मैंने सूंघकर, चखकर लिया। अब किस मुंह से लौटने जाऊ? निर्मला ने दांत पीसकर कहा- घी में साफ चरबी मिली हुई है और तुम कहते हो, घी अच्छा है। मैं इसे रसोई में न ले जाऊंगी, तुम्हारा जी चाहे लौटा दो, चाहे खा जाओ। घी की हांड़ी वहीं छोड़कर निर्मला घर में चली गयी। सियाराम क्रोध और क्षोभ से कातर हो उठा। वह कौन मुंह लेकर लौटाने जाये? बनिया साफ कह देगा- मैं नहीं लौटाता। तब वह क्या करेगा? आस-पास के दस-पांच बनिये और सड़क पर चलने वाले आदमी खाड़े हो जायेंगे। उन सबों के सामने उसे लज्जित होना पड़ेगा। बाजार में यों ही कोई बनिया उसे जल्दी सौदा नहीं देता, वह किसी दूकान पर खड़ा होने नहीं पाता। चारों ओर से उसी पर लताड़ पड़ेगी। उसने मन-ही-मन झुंझलाकर कहा- पड़ा रहे घी, मैं लौटाने न जाऊंगा। मातृ-हीन बालक के समान दुखी, दीन-प्राणी संसार में दूसरा नहीं होता और सारे दुःख भूल जाते हैं। बालक को माता याद आयी, अम्मां होती, तो क्या आज मुझे यह सब सहना पड़ता? भैया चले गये, मैं ही अकेला यह विपत्ति सहने के लिए क्यों बचा रहा? सियाराम की आंखों में आंसू की झड़ी लग गयी। उसके शोक कातर कण्ठ से एक गहरे निःश्वास के साथ मिले हुए ये शब्द निकल आये- अम्मां! तुम मुझे भूल क्यों गयीं, क्यों नहीं बुला लेतीं? सहसा निर्मला फिर कमरे की तरफ आयी। उसने समझा था, सियाराम चला गया होगा। उसे बैठा देखा, तो गुस्से से बोली- तुम अभी तक बैठे ही हो? आखिर खाना कब बनेगा? सियाराम ने आंखें पोंड डालीं। बोला- मुझे स्कूल जाने में देर हो जायेगी। निर्मला- एक दिन देर हो जायेगी तो कौन हरज है? यह भी तो घर ही का काम है? सियाराम- रोज तो यही धन्धा लगा रहता है। कभी वक्त पर स्कूल नहीं पहुंचता। घर पर भी पढ़ने का वक्त नहीं मिलत
ा। कोई सौदा दो-चार बार लौटाये बिना नहीं जाता। डांट तो मुझ पर पड़ती है, शर्मिंदा तो मुझे होना पड़ता है, आपको क्या? निर्मला- हां, मुझे क्या? मैं तो तुम्हारी दुश्मन ठहरी! अपना होता, तब तो उसे दुःख होता। मैं तो ईश्वर से मानाया करती हूं कि तुम पढ़-लिख न सको। मुझमें सारी बुराइयां-ही-बुराइयां हैं, तुम्हारा कोई कसूर नहीं। विमाता का नाम ही बुरा होता है। अपनी मां विष भी खिलाये, तो अमृत हैं; मैं अमृत भी पिलाऊं, तो विष हो जायेगा। तुम लोगों के कारण में मिट्टी में मिल गयी, रोते-रोत उम्र काटी जाती है, मालूम ही न हुआ कि भगवान ने किसलिए जन्म दिया था और तुम्हारी समझ में मैं विहार कर रही हूं। तुम्हें सताने में मुझे बड़ा मजा आता है। भगवान् भी नहीं पूछते कि सारी विपत्ति का अन्त हो जाता। यह कहते-कहते निर्मला की आंखें भर आयी। अन्दर चली गयी। सियाराम उसको रोते देखकर सहम उठा। ग्लानिक तो नहीं आयी; पर शंका हुई कि ने जाने कौन-सा दण्ड मिले। चुपके से हांड़ी उठा ली और घी लौटाने चला, इस तरह जैसे कोई कुत्ता किसी नये गांव में जाता है। उसे देखकर साधारण बुद्वि का मनुष्य भी आनुमान कर सकता था कि वह अनाथ है। सियाराम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, आनेवाले संग्राम के भय से उसकी हृदय-गति बढ़ती जाती थी। उसने निश्चय किया-बनिये ने घी न लौटाया, तो वह घी वहीं छोड़कर चला आयेगा। झख मारकर बनिया आप ही बुलायेगा। बनिये को डांटने के लिए भी उसने शब्द सोच लिए। वह कहेगा- क्यों साहूजी, आंखों में धूल झोंकते हो? दिखाते हो चोखा माल और और देते ही रद्दी माल? पर यह निश्चय करने पर भी उसके पैर आगे बहुत धीरे-धीरे उठते थे। वह यह न चाहता था, बनिया उसे आता हुआ देखे, वह अकस्मात् ही उसके सामने पहुंच जाना चाहता था। इसलिए वह चक्कार काटकर दूसरी गली से बनिये की दूकान पर गया। बनिये ने उसे देखते ही कहा- हमने कह दिया था कि हमे सौदा वापस न लेंगे। बोलों, कहा था कि नहीं। सियाराम ने बिगड़कर कहा- तुमने वह घी कहां दिया, जो दिखाया था? दिखाया एक माल, दिया दूसरा माल, लौटाओगे कैसे नहीं? क्या कुछ राहजनी है? साह- इससे चोखा घी बाजार में निकल आये तो जरीबाना दूं। उठा लो हांड़ी और दो-चार दूकार देख आओ। सियाराम- हमें इतनी फुर्सत नहीं है। अपना घी लौटा लो। साह- घी न लौटेगा। बनिये की दुकान पर एक जटाधारी साधू बैठा हुआ यह तमाश देख रहा था। उठकर सियाराम के पास आया और हांड़ी का घी सूंघकर बोला- बच्चा, घी तो बहुत अच्छा मालूम होता है। साह सने शह पाकर कहा- बाबाजी हम लोग तो आप ही इनको घटिया माल नहीं देते। खराब माल क्या जाने-सुने ग्राहकों को दिया जाता है? साधु- घी ले जाव बच्चा, बहुत अच्छा है। सियाराम रो पड़ा। घी को बुरा सिद्वा करने के लिए उसके पास अब क्या प्रमाण था? बोला- वही तो कहती हैं, घी अच्छा नहीं है, लौटा आओ। मैं तो कहता था कि घी अच्छा है। साधु- कौन कहता है? साह- इसकी अम्मां कहती होंगी। कोई सौदा उनके मन ही नहीं भाता। बेचारे लड़के को बार-बार दौड़ाया करती है। सौतेली मां है न! अपनी मां हो तो कुछ ख्याल भी करे। साधु ने सियराम को सदय नेत्रों से देखा, मानो उसे त्राण देने के लिए उनका हृदय विकल हो रहा है। तब करुण स्वर से बोले- तुम्हारी माता का स्वर्गवास हुए कितने दिन हुए बच्च? सियाराम- छठा साल है। साधु- ता तुम उस वक्त बहुत ही छोटे रहे होंगे। भगेवान् तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। इस दुधमुंहे बालक को तुमने मात्-प्रेम से वंचित कर दिया। बड़ा अनर्थ करते हो भगवान्! छः साल का बालक और राक्षसी विमाता के पानले पड़े! धन्य हो दयानिधि! साहजी, बालक पर दया करो, घी लौटा लो, नहीं तो इसकी मात इसे घर में रहने न देगी। भगवान की इच्छा से तुम्हारा घी जल्द बिक जायेगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगां साहजी ने रुपये वापस न किये। आखिर लड़के को फिर घी लेने आना ही पड़ेगा। न जाने दिन में कितनी बार चक्कर लगाना पड़े और किस जालिये से पाला पड़े। उसकी दुकान में जो घी सबसे अच्छा था, वह सियाराम दिल से सोच रहा था, बाबाजी कितने दयालु हैं? इन्होंने सिफारिश न की होती, तो साहजी क्यों अच्छा घी देते? सियाराम घी लेकर चला, तो बाबाजी भी उसके साथ ही लिये। रास्ते में मीठी-मीठी बातें करने लगे। 'बच्चा, मेरी माता भी मुझे तीन साल का छोड़कर परलोक सिधारी थीं। तभी से मातृ-विहीन बालकों को देखता हूं तो मेरा हृदय फटने लगता हैं।' सियाराम ने पूछा- आपके पिताजी ने भी तो दूसरा विवाह कर लिया था? साधु- हां, बच्चा, नहीं तो आज साधु क्यों होता? पहले तो पिताजी विवाह न करते थे। मुझे बहुत प्यार करते थे, फिर न जाने क्यों मन बदल गया, विवाह कर लिया। साधु हूं, कटु वचन मुंह से नहीं निकालना चाहिए, पर मेरी विमात जितनी ही सुन्दर थीं, उतनी ही कठोर थीं। मुझे दिन-दिन-भर खाने को न देतीं, रोता तो मारतीं। पिताजी की आंखें भी
फिर गयीं। उन्हें मेरी सूरत से घृणा होने लगी। मेरा रोना सुनकर मुझे पीटने लगते। अन्त को मैं एक दिन घर से निकल खड़ा हुआ। सियाराम के मन में भी घर से निकल भागने का विचार कई बार हुआ था। इस समय भी उसके मन में यही विचार उठ रहा था। बड़ी उत्सुकता से बोला-घर से निकलकर आप कहां गये? बाबाजी ने हंसकर कहा- उसी दिन मेरे सारे कष्टों का अन्त हो गया जिस दिन घर के मोह-बन्धन से छूटा और भय मन से निकला, उसी दिन मानो मेरा उद्वार हो गया। दिन भर मैं एक पुल के नीचे बैठा रहा। संध्या समय मुझे एक महात्मा मिल गये। उनका स्वामी परमानन्दजी था। वे बाल-ब्रह्रचारी थे। मुझ पर उन्होंने दया की और अपने साथ रख लिया। उनके साथ रख लिया। उनके साथ मैं देश-देशान्तरों में घूमने लगा। वह बड़े अच्छे योगी थे। मुझे भी उन्होंने योग-विद्या सिखाई। अब तो मेरे को इतना अभ्यास हो येगया है कि जब इच्छा होती है, माताजी के दर्शन कर लेता हूं, उनसे बात कर लेता हूं। सियाराम ने विस्फारित नेत्रों से देखकर पूछा- आपकी माता का तो देहान्त हो चुका था? साधु- तो क्या हुआ बच्च, योग-विद्या में वह शक्ति है कि जिस मृत-आत्म को चाहे, बुला ले। सियाराम- मैं योग-विद्या सीख् लूं, तो मुझे भी माताजी के दर्शन होंगे? साधु- अवश्य, अभ्यास से सब कुछ हो सकता है। हां, योग्य गुरु चाहिए। योग से बड़ी-बड़ी सिद्वियां प्राप्त हो सकती हैं। जितना धन चाहो, पल-मात्र में मंगा सकते हो। कैसी ही बीमारी हो, उसकी औषधि अता सकते हो। सियाराम- आपका स्थान कहां है? साधु- बच्चा, मेरे को स्थान कहीं नहीं है। देश-देशान्तरों से रमता फिरता हूं। अच्छा, बच्चा अब तुम जाओ, मै। जरा स्नान-ध्ययान करने जाऊंगा। सियराम- चलिए मैं भी उसी तरफ चलता हूं। आपके दर्शन से जी नहीं भरा। साधु- नहीं बच्चा, तुम्हें पाठशाला जाने की देरी हो रही है। सियराम- फिर आपके दर्शन कब होंगे? साधु- कभी आ जाऊंगा बच्चा, तुम्हारा घर कहां है? सियाराम प्रसन्न होकर बोला- चलिएगा मेरे घर? बहुत नजदीक है। आपकी बड़ी कृपा होगी। सियाराम कदम बढ़ाकर आगे-आगे चलने लगा। इतना प्रसन्न था, मानो सोने की गठरी लिए जाता हो। घर के सामने पहुंचकर बोला- आइए, बैठिए कुछ देर। साधु- नहीं बच्चा, बैठूंगा नहीं। फिर कल-परसों किसी समय आ जाऊंगा। यही तुम्हारा घर है? सियाराम- कल किस वक्त आइयेगा? साधु- निश्चय नहीं कह सकता। किसी समय आ जाऊंगा। साधु आगे बढ़े, तो थोड़ी ही दूर पर उन्हें एक दूसरा साधु मिला। उसका नाम था हरिहरानन्द। परमानन्द से पूछा- कहां-कहां की सैर की? कोई शिकार फंसा? हरिहरानन्द- इधरा चारों तरफ घूम आया, कोई शिकार न मिलां एकाध मिला भी, तो मेरी हंसी उड़ाने लगा। परमानन्द- मुझे तो एक मिलता हुआ जान पड़ता है! फंस जाये तो जानूं। हरिहरानन्द- तुम यों ही कहा करते हो। जो आता है, दो-एक दिन के बाद निकल भागता है। परमानन्द- अबकी न भागेगा, देख लेना। इसकी मां मर गयी है। बाप ने दूसरा विवाह कर लिया है। मां भी सताया करती है। घर से ऊबा हुआ है। हरिहरानन्द- खूब अच्छी तरह। यही तरकीब सबसे अच्छी है। पहले इसका पता लगा लेना चाहिए कि मुहल्ले में किन-किन घरों में विमाताएं हैं? उन्हीं घरों में फन्दा डालना चाहिए। निर्मला ने बिगड़कर कहा- इतनी देर कहां लगायी? सियाराम ने ढिठाई से कहा- रास्ते में एक जगह सो गया था। निर्मला- यह तो मैं नहीं कहती, पर जानते हो कै बज गये हैं? दस कभी के बज गये। बाजार कुद दूर भी तो नहीं है। सियाराम- कुछ दूर नहीं। दरवाजे ही पर तो है। निर्मला- सीधे से क्यों नहीं बोलते? ऐसा बिगड़ रहे हो, जैसे मेरा ही कोई कामे करने गये हो? सियाराम- तो आप व्यर्थ की बकवास क्यों करती हैं? लिया सौदा लौटाना क्या आसान काम है? बनिये से घंटों हुज्जत करनी पड़ी यह तो कहो, एक बाबाजी ने कह-सुनकर फेरवा दिया, नहीं तो किसी तरह न फेरता। रास्ते में कहीं एक मिनट भी न रुका, सीधा चला आता हूं। निर्मला- घी के लिए गये-गये, तो तुम ग्यारह बजे लौटे हो, लकड़ी के लिए जाओगे, तो सांझ ही कर दोगे। तुम्हारे बाबूजी बिना खाये ही चले गये। तुम्हें इतनी देर लगानी था, तो पहले ही क्यों न कह दिया? जाते ही लकड़ी के लिए। सियाराम अब अपने को संभाल न सका। झल्लाकर बोला- लकड़ी किसी और से मंगाइए। मुझे स्कूल जाने को देर हो रही है। निर्मला- खाना न खाओगे? सियाराम- न खाऊंगा। निर्मला- मैं खाना बनाने को तैयार हूं। हां, लकड़ी लाने नहीं जा सकती। सियाराम- भूंगी को क्यों नहीं भेजती? निर्मला- भूंगी का लाया सौदा तुमने कभी देखा नहीं हैं? सियाराम- तो मैं इस वक्त न जाऊंगा। निर्मला- मुझे दोष न देना। सियाराम कई दिनों से स्कूल नहीं गया था। बाजार-हाट के मारे उसे किताबें देखने का समय ही न मिलता था। स्कूल जाकर झिड़कियां खान, से बेंच पर खड़े होने या ऊंची टोपी देने के सिवा और क्या मिलता? वह घर से किताबें लेकर चलता, पर
शहर के बाहर जाकर किसी वृक्ष की छांह में बैठा रहता या पल्टनों की कवायद देखता। तीन बजे घर से लौट आता। आज भी वह घर से चला, लेकिन बैठने में उसका जी न लगा, उस पर आंतें अल ग जल रही थीं। हा! अब उसे रोटियों के भी लाले पड़ गये। दस बजे क्या खाना न बन सकता था? माना कि बाबूजी चले गये थे। क्या मेरे लिए घर में दो-चार पैसे भी न थे? अम्मां होतीं, तो इस तरह बिना कुछ खाये-पिये आने देतीं? मेरा अब कोई नहीं रहा। सियाराम का मन बाबाजी के दर्शन के लिए व्याकुल हो उठा। उसने सोचा- इस वक्त वह कहां मिलेंगे? कहां चलकर देखूं? उनकी मनोहर वाणी, उनकी उत्साहप्रद सान्त्वना, उसके मन को खींचने लगी। उसने आतुर होकर कहा- मैं उनके साथ ही क्यों न चला गया? घर पर मेरे लिए क्या रखा था? वह आज यहां से चला तो घर न जाकर सीधा घी वाले साहजी की दुकान पर गया। शायद बाबाजी से वहां मुलाकात हो जाये, पर वहां बाबाजी न थे। बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा लौट आया। घर आकर बैठा ही था किस निर्मला ने आकर कहा- आज देर कहां लगाई? सवेरे खाना नहीं बना, क्या इस वक्त भी उपवास होगा? जाकर बाजार से कोई तरकारी लाओ। सियाराम ने झल्लाकर कहा- दिनभर का भूखा चला आता हूं; कुछ पीनी पीने तक को लाई नहीं, ऊपर से बाजार जाने का हुक्म दे दिया। मैं नहीं जाता बाजार, किसी का नौकर नहीं हूं। आखिर रोटियां ही तो खिलाती हो या और कुछ? ऐसी रोटियां जहां मेहनत करुंगा, वहीं मिल जायेंगी। जब मजूरी ही करनी है, तो आपकी न करुंगा, जाइए मेरे लिए खाना मत बनाइएगा। निर्मला अवाक् रह गयी। लड़के को आज क्या हो गया? और दिन तो चुपके से जाकर काम कर लाता था, आज क्यों त्योरियां बदल रहा है? अब भी उसको यह न सूझी कि सियाराम को दो-चार पैसे कुछ खाने के दे दे। उसका स्वभाव इतना कृपण हो गया था, बोली- घर का काम करना तो मजूरी नहीं कहलाती। इसी तरह मैं भी कह दूं कि मैं खाना नहीं पकाती, तुम्हारे बाबूजी कह दें कि कचहरी नहीं जाता, तो क्या हो बताओ? नहीं जाना चाहते, तो मत जाओ, भूंगी से मंगा लूंगी। मैं क्या जानती थी कि तुम्हें बाजार जाना बुरा लगता है, नहीं तो बला से धेले की चीज पैसे में आती, तुम्हें न भेजती। लो, आज से कान पकड़ती हूं। सियाराम दिल में कुछ लज्जित तो हुआ, पर बाजार न गया। उसका ध्यान बाबाजी की ओर लगा हुआ था। अपने सारे दुखों का अन्त और जीवन की सारी आशाएं उसे अब बाबाजी क आशीर्वाद में मालूम होती थीं। उन्हीं की शरण जाकर उसका यह आधारहीन जीवन सार्थक होगा। सूर्यास्त के समय वह अधीर हो गया। सारा बाजार छान मारा, लेकिन बाबाजी का कहीं पता न मिला। दिनभर का भूख-प्यासा, वह अबोध बालक दुखते हुए दिल को हाथों से दबाये, आशा और भय की मूर्ति बना, दुकानों, गालियों और मन्दिरों में उस आश्रमे को खोजता फिरता था, जिसके बिना उसे अपना जीवन दुस्सह हो रहा था। एक बार मन्दिर के सामने उसे कोई साधु खड़ा दिखाई दिया। उसने समझा वही हैं। हर्षोल्लास से वह फूल उठा। दौड़ा और साधु के पास खड़ा हो गया। पर यह कोई और ही महात्मा थे। निराश हो कर आगे बढ़ गया। धारे-धीरे सड़कों पर सन्नाटा दा गया, घरों के द्वारा बन्द होने लगे। सड़क की पटरियों पर और गलियों में बंसखटे या बोरे बिछा-बिछाकर भारत की प्रजा सुख-निद्रा में मग्न होने लगी, लेकिन सियाराम घर न लौटा। उस घर से उसक दिल फट गया था, जहां किसी को उससे प्रेम न था, जहां वह किसी पराश्रित की भांति पड़ा हुआ था, केवल इसीलिए कि उसे और कहीं शरण न थी। इस वक्त भी उसके घर न जाने को किसे चिन्ता होगी? बाबूजी भोजन करके लेटे होंगे, अम्मांजी भी आराम करने जा रही होंगी। किसी ने मेरे कमरे की ओर झांककर देखा भी न होगा। हां, बुआजी घबरा रही होंगी, वह अभी तक मेरी राह देखती होंगी। जब तक मैं न जाऊंगा, भोजन न करेंगी। रुक्मिणी की याद आते ही सियाराम घर की ओर चल दिया। वह अगर और कुछ न कर सकती थी, तो कम-से-कम उसे गोद में चिमटाकर रोती थी? उसके बाहर से आने पर हाथ-मुंह धोने के लिए पानी तो रख देती थीं। संसार में सभी बालक दूध की कुल्लियों नहीं करते, सभी सोने के कौर नहीं खाते। कितनों के पेट भर भोजन भी नहीं मिलता; पर घर से विरक्त वही होते हैं, जो मातृ-स्नेह से वंचित हैं। सियाराम घर की ओर चला ही कि सहसा बाबा परमानन्द एक गली से आते दिखायी दिये। सियाराम ने जाकर उनका हाथ पकड़ लिया। परमानन्द ने चौंककर पूछा- बच्चा, तुम यहां कहां? सियाराम ने बात बनाकर कहा- एक दोस्त से मिलने आया था। आपका स्थान यहां से कितनी दूर है? परमानन्द- हम लोग तो आज यहां से जा रहे हैं, बच्चा, हरिद्वार की यात्रा है। सियाराम ने हतोत्साह होकर कहा- क्या आज ही चले जाइएगा? परमानन्द- हां बच्चा, अब लौटकर आऊंगा, तो दर्शन दूंगा? सियाराम ने कात कंठ से कहा- मैं भी आपके साथ चलूंगा। परमानन्द- मेरे साथ! तुम्हारे घर के लोग जाने देंगे? सियाराम- घर के लोगों को
मेरी क्या परवाह है? इसके आगे सियाराम और कुछ सन कह सका। उसके अश्रु-पूरित नेत्रों ने उसकी करुणा -गाथा उससे कहीं विस्तार के साथ सुना दी, जितनी उसकी वाणी कर सकती थी। परमानन्द ने बालक को कंठ से लगाकर कहा- अच्छा बच्च, तेरी इच्छा हो तो चल। साधु-सन्तों की संगति का आनन्द उठा। भगवान् की इच्छा होगी, तो तेरी इच्छा पूरी होगी। दाने पर मण्डराता हुआ पक्षी अन्त में दाने पर गिर पड़ा। उसके जीवन का अन्त पिंजरे में होगा या व्याध की छुरी के तले- यह कौन जानता है? मुंशीजी पांच बजे कचहरी से लौटे और अन्दर आकर चारपाई पर गिर पड़े। बुढ़ापे की देह, उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला। मुंह सूख गया। निर्मला समझ गयी, आज दिन खाली गयां निर्मला ने पूछा- आज कुछ न मिला। मुंशीजी- सारा दिन दौड़ते गुजरा, पर हाथ कुछ न लगा। निर्मला- फौजदारी वाले मामले में क्या हुआ? मुंशीजी- मेरे मुवक्किल को सजा हो गयी। निर्मला- पंडित वाले मुकदमे में? मुंशीजी- पंडित पर डिग्री हो गयी। निर्मला- आप तो कहते थे, दावा खरिज हो जायेगा। मुंशीजी- कहता तो था, और जब भी कहता हूं कि दावा खारिज हो जाना चाहिए था, मगर उतना सिर मगजन कौन करे? निर्मला- और सीरवाले दावे में? मुंशीजी- उसमें भी हार हो गयी। निर्मला- तो आज आप किसी अभागे का मुंह देखकर उठे थे। मुंशीजी से अब काम बिलकुल न हो सकता थां एक तो उसके पास मुकदमे आते ही न थे और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे। जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपये उधार लाकर निर्मला को देते, प्रायः सभी मित्रों से कुछ-न-कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न लगा। निर्मला ने चिन्तापूर्ण स्वर में कहा- आमदनी का यह हाल है, तो ईश्श्वर ही मालिक है, उसक पर बेटे का यह हाल है कि बाजार जाना मुश्किल है। भूंगी ही से सब काम कराने को जी चाहता है। घी लेकर ग्यारह बजे लौटा। कितना कहकर हार गयी कि लकड़ी लेते आओ, पर सुना ही नहीं। मुंशीजी- तो खाना नहीं पकाया? निर्मला- ऐसी ही बातों से तो आप मुकदमे हारते हैं। ईंधन के बिना किसी ने खाना बनाया है कि मैं ही बना लेती? मुंशीजी- तो बिना कुछ खाये ही चला गया। निर्मला- घर में और क्या रखा था जो खिला देती? मुंशीजी ने डरते-डरते कहका- कुछ पैसे-वैसे न दे दिये? निर्मला ने भौंहे सिकोड़कर कहा- घर में पैसे फलते हैं न? मुंशीजी ने कुछ जवाब न दिया। जरा देर तक तो प्रतीक्षा करते रहे कि शायद जलपान के लिए कुछ मिलेगा, लेकिन जब निर्मला ने पानी तक न मंगवाय, तो बेचारे निराश होकर चले गये। सियाराम के कष्ट का अनुमान करके उनका चित्त चचंल हो उठा। एक बार भूंगी ही से लकड़ी मंगा ली जाती, तो ऐसा क्या नुकसान हो जाता? ऐसी किफायत भी किस काम की कि घर के आदमी भूखे रह जायें। अपना संदूकचा खोलकर टटोलने लगे कि शायद दो-चार आने पैसे मिल जायें। उसके अन्दर के सारे कागज निकाल डाले, एक-एक, खाना देखा, नीचे हाथ डालकर देखा पर कुछ न मिला। अगर निर्मला के सन्दूक में पैसे न फलते थे, तो इस सन्दूकचे में शायद इसके फूल भी न लगते हों, लेकिन संयोग ही कहिए कि कागजों को झाडक़ते हुए एक चवन्नी गिर पड़ी। मारे हर्ष के मुंशीजी उछल पड़े। बड़ी-बड़ी रकमें इसके पहले कमा चुके थे, पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ, उनका पहले कभी न हुआ था। चवन्नी हाथ में लिए हुए सियाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा। कोई जवाब न मिला। तब कमरे में जाकर देखा। सियाराम का कहीं पता नहीं- क्या अभी स्कूल से नहीं लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुंशीजी ने अन्दर जाकर भूंगी से पूछा। मालूम हुआ स्कूल से लौट आये। मुंशीजी ने पूछा- कुछ पानी पिया है? भूंगी ने कुछ जवाब न दिया। नाक सिकोड़कर मुंह फेरे हुए चली गयी। मुंशीजी अहिस्ता-आहिस्ता आकर अपने कमरे में बैठ गये। आज पहली बार उन्हें निर्मेला पर क्रोध आया, लेकिन एक ही क्षण क्रोध का आघात अपने ऊपर होने लगा। उस अंधेरे कमेरे में फर्श पर लेटे हुए वह अपने पुत्र की ओर से इतना उदासीन हो जाने पर धिक्कारने लगे। दिन भर के थके थे। थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गयी। भूंगी ने आकर पुकारा- बाबूजी, रसोई तैयार है। मुंशीजी चौंककर उठ बैठे। कमरे में लैम्प जल रहा था पूछा- कै बज गये भूंगी? मुझे तो नींद आ गयी थी। भूंगी ने कहा- कोतवाली के घण्टे में नौ बज गये हैं और हम नाहीं जानित। मुंशीजी- सिया बाबू आये? भूंगी- आये होंगे, तो घर ही में न होंगे। मुंशीजी ने झल्लाकर पूछा- मैं पूछता हूं, आये कि नहीं? और तू न जाने क्या-क्या जवाब देती है? आये कि नहीं? भूंगी- मैंने तो नहीं देखा, झूठ कैसे कह दूं। मुंशीजी फिर लेट गये और बोले- उनको आ जाने दे, तब चलता हूं। आध घंटे द्वार की ओर आंख लगाए मुंशीजी लेटे रहे, तब वह उठकर बाहर आये और दाहिने हाथ कोई दो फर्लांग तक चले। तब लौटकर द्वार पर आये और पूछा-
सिया बाबू आ गये? अन्दर से आवाज आयी- अभी नहीं। मुंशीजी फिर बायीं ओर चले और गली के नुक्कड़ तक गये। सियाराम कहीं दिखाई न दिया। वहां से फिर घर आये और द्वारा पर खड़े होकर पूछा- सिया बाबू आ गये? अन्दर से जवाब मिला- नहीं। कोतवाली के घंटे में दस बजने लगे। मुंशीजी बड़े वेग से कम्पनी बाग की तरफ चले। सोचन लगे, शायद वहां घूमने गया हो और घास पर लेटे-लेट नींद आ गयी हो। बाग में पहुंचकर उन्होंने हरेक बेंच को देखा, चारों तरफ घूमे, बहुते से आदमी घास पर पड़े हुए थे, पर सियाराम का निशान न था। उन्होंने सियाराम का नाम लेकर जोर से पुकारा, पर कहीं से आवाज न आयी। ख्याल आया शायद स्कूल में तमाशा हो रहा हो। स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। स्कूल की तरफ चले, पर आधे रास्ते से ही लौट पड़े। बाजार बन्द हो गया था। स्कूल में इतनी रात तक तमाशा नहीं हो सकता। अब भी उन्हें आशा हो रही थी कि सियाराम लौट आया होगा। द्वार पर आकर उन्होंने पुकारा- सिया बाबू आये? किवाड़ बन्द थे। कोई आवाज न आयी। फिर जोर से पुकारा। भूंगी किवाड़ खोलकर बोली- अभी तो नहीं आये। मुंशीजी ने धीरे से भूंगी को अपने पास बुलाया और करुण स्वर में बोले- तू ता घर की सब बातें जानती है, बता आज क्या हुआ था? भूंगी- बाबूजी, झूठ न बोलूंगी, मालकिन छुड़ा देगी और क्या? दूसरे का लड़का इस तरह नहीं रखा जाता। जहां कोई काम हुआ, बस बाजार भेज दिया। दिन भर बाजार दौड़ते बीतता था। आज लकड़ी लाने न गये, तो चूल्हा ही नहीं जला। कहो तो मुंह फुलावें। जब आप ही नहीं देखते, तो दूसरा कौन देखेगा? चलिए, भोजन कर लीजिए, बहूजी कब से बैठी है। मुंशीजी- कह दे, इस वक्त नहीं खायेंगे। मुंशीजी फिर अपने कमेरे में चले गये और एक लम्बी सांस ली। वेदना से भरे हुए ये शब्द उनके मुंह से निकल पड़े- ईश्वर, क्या अभी दण्ड पूरा नहीं हुआ? क्या इस अंधे की लकड़ी को हाथ से छीन लोगे? निर्मला ने आकर कहा- आज सियाराम अभी तक नहीं आये। कहती रही कि खाना बनाये देती हूं, खा लो मगर सन जाने कब उठकर चल दिये! न जाने कहां घूम रहे हैं। बात तो सुनते ही नहीं। कब तक उनकी राह देखा करु! आप चलकर खा लीजिए, उनके लिए खाना उठाकर रख दूंगी। मुंशीजी ने निर्मला की ओर कठारे नेत्रों से देखकर कहा- अभी कै बजे होंगे? निर्मल- क्या जाने, दस बजे होंगे। मुंशीजी- जी नहीं, बारह बजे हैं। निर्मला- बारह बज गये? इतनी देर तो कभी न करते थे। तो कब तक उनकी राह देखोगे! दोपहर को भी कुछ नहीं खाया था। ऐसा सैलानी लड़का मैंने नहीं देखा। मुंशीजी- जी तुम्हें दिक करता है, क्यों? निर्मला- देखिये न, इतना रात गयी और घर की सुध ही नहीं। मुंशीजी- शायद यह आखिरी शरारत हो। निर्मला- कैसी बातें मुंह से निकालते हैं? जायेंगे कहां? किसी यार-दोस्त के यहां पड़ रहे होंगे। मुंशीजी- शायद ऐसी ही हो। ईश्वर करे ऐसा ही हो। निर्मला- सबेरे आवें, तो जरा तम्बीह कीजिएगा। मुंशीजी- खूब अच्छी तरह करुंगा। निर्मला- चलिए, खा लीजिए, दूर बहुत हुई। मुंशीजी- सबेरे उसकी तम्बीह करके खाऊंगा, कहीं न आया, तो तुम्हें ऐसा ईमानदान नौकर कहां मिलेगा? निर्मला ने ऐंठकर कहा- तो क्या मैंने भागा दिया? मुंशीजी- नहीं, यह कौन कहता है? तुम उसे क्यों भगाने लगीं। तुम्हारा तो काम करता था, शामत आ गयी होगी। निर्मला ने और कुछ नहीं कहा। बात बढ़ जाने का भय था। भीतर चली आयीय। सोने को भी न कहा। जरा देर में भूंगी ने अन्दर से किवाड़ भी बन्द कर दिये। क्या मुंशीजी को नींद आ सकती थी? तीन लड़कों में केवल एक बच रहा था। वह भी हाथ से निकल गया, तो फिर जीवन में अंधकार के सिवाय और है? कोई नाम लेनेवाल भी नहीं रहेगा। हा! कैसे-कैसे रत्न हाथ से निकल गये? मुंशीजी की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी, तो कोई आश्चर्य है? उस व्यापक पश्चाताप, उस सघन ग्लानि-तिमिर में आशा की एक हल्की-सी रेखा उन्हें संभाले हुए थी। जिस क्षण वह रेखा लुप्त हो जायेगी, कौन कह सकता है, उन पर क्या बीतेगी? उनकी उस वेदना की कल्पना कौन कर सकता है? कई बार मुंशीजी की आंखें झपकीं, लेकिन हर बार सियाराम की आहट के धोखे में चौंक पड़े। सबेरा होते ही मुंशीजी फिर सियाराम को खोजने निकले। किसी से पूछते शर्म आती थी। किस मुंह से पूछें? उन्हें किसी से सहानुभूति की आशा न थी। प्रकट न कहकर मन में सब यही कहेंगे, जैसा किया, वैसा भोगो! सारे दनि वह स्कूल के मैदानों, बाजारों और बगीचों का चक्कर लगाते रहे, दो दिन निराहार रहने पर भी उन्हें इतनी शक्ति कैसे हुई, यह वही जानें। रात के बारह बजे मुंशीजी घर लौटे, दरवाजे पर लालटेन जल रही थी, निर्मला द्वार पर खड़ी थी। देखते ही बोली- कहा भी नहीं, न जाने कब चल दिये। कुछ पता चला? मुंशीजी ने आग्नेय नेत्रों से ताकते हुए कहा- हट जाओ सामने से, नहीं तो बुरा होगा। मैं आपे में नहीं हूं। यह तुम्हारी करनी है। तुम्हारे ही कारण आज मेरी य
ह दशा हो रही है। आज से छः साल पहले क्या इस घर की यह दशा थी? तुमने मेरा बना-बनाया घर बिगाड़ दिया, तुमने मेरे लहलहाते बाग को उजाड़ डाला। केवल एक ठूंठ रह गया है। उसका निशान मिटाकर तभी तुम्हें सन्तोष होगा। मैं अपना सर्वनाश करने के लिए तुम्हें घर नहीं जाया था। सुखी जीवन को और भी सुखमय बनाना चाहता था। यह उसी का प्रायश्चित है। जो लड़के पान की तरह फेरे जाते थे, उन्हें मेरे जीते-जी तुमने चाकर समझ लिया और मैं आंखों से सब कुछ देखते हुए भी अंधा बना बैठा रहा। जाओ, मेरे लिए थोड़ा-सा संखिया भेज दो। बस, यही कसर रह गयी है, वह भी पूरी हो जाये। निर्मला ने रोते हुए कहा- मैं तो अभागिन हूं ही, आप कहेंगे तब जानूंगी? ने जाने ईश्वर ने मुझे जन्म क्यों दिया था? मगर यह आपने कैसे समझ लिया कि सियाराम आवेंगे ही नहीं? मुंशीजी ने अपने कमरे की ओर जाते हुए कहा- जलाओ मत जाकर खुशियां मनाओ। तुम्हारी मनोकामना पूरी हो गयी। निर्मला सारी रात रोती रही। इतना कलंक! उसने जियाराम को गहने ले जाते देखने पर भी मुंह खोलने का साहस नहीं किया। क्यों? इसीलिए तो कि लोग समझेंगे कि यह मिथ्या दोषारोपण करके लड़के से वैर साध रही हैं। आज उसके मौन रहने पर उसे अपराधिनी ठहराया जा रहा है। यदि वह जियाराम को उसी क्षण रोक देती और जियाराम लज्जावश कहीं भाग जाता, तो क्या उसके सिर अपराध न मढ़ा जाता? सियाराम ही के साथ उसने कौन-सा दुर्व्यवहार किया था। वह कुछ बचत करने के लिए ही विचार से तो सियाराम से सौदा मंगवाया करती थी। क्या वह बचत करके अपने लिए गहने गढ़वाना चाहती थी? जब आमदनी की यह हाल हो रहा था तो पैसे-पैसे पर निगाह रखने के सिवाय कुछ जमा करने का उसके पास और साधान ही क्या था? जवानों की जिन्दगी का तो कोई भरोसा हीं नहीं, बूढ़ों की जिन्दगी का क्या ठिकाना? बच्ची के विवाह के लिए वह किसके सामने हाथ फैलती? बच्ची का भार कुद उसी पर तो नहीं था। वह केवल पति की सुविधा ही के लिए कुछ बटोरने का प्रयत्न कर रही थी। पति ही की क्यों? सियाराम ही तो पिता के बाद घर का स्वामी होता। बहिन के विवाह करने का भार क्या उसके सिर पर न पड़ता? निर्मला सारी कतर- व्योंत पति और पुत्र का संकट-मोचन करने ही के लिए कर रही थी। बच्ची का विवाह इस परिस्थिति में सकंट के सिवा और क्या था? पर इसके लिए भी उसके भाग्य में अपयश ही बदा था। दोपहर हो गयी, पर आज भी चूल्हा नहीं जला। खाना भी जीवन का काम है, इसकी किसी को सुध ही नथी। मुंशीजी बाहर बेजान-से पड़े थे और निर्मला भीतर थी। बच्ची कभी भीतर जाती, कभी बाहर। कोई उससे बोलने वाला न था। बार-बार सियाराम के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ी होती और 'बैया-बैया' पुकारती, पर 'बैया' कोई जवाब न देता था। संध्या समय मुंशीजी आकर निर्मला से बोले- तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं? निर्मला ने चौंककर पूछा- क्या कीजिएगा। मुंशीजी- मैं जो पूछता हूं, उसका जवाब दो। निर्मला- क्या आपको नहीं मालूम है? देनेवाले तो आप ही हैं। मुंशीजी- तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं या नहीं अगेर हों, तो मुझे दे दो, न हों तो साफ जवाब दो। निर्मला ने अब भी साफ जवाब न दिया। बोली- होंगे तो घर ही में न होंगे। मैंने कहीं और नहीं भेज दिये। मुंशीजी बाहर चले गये। वह जानते थे कि निर्मला के पास रुपये हैं, वास्तव में थे भी। निर्मला ने यह भी नहीं कहा कि नही हैं या मैं न दूंगी, उर उसकी बातों से प्रकट हो यगया कि वह देना नहीं चाहती। नौ बजे रात तो मुंशीजी ने आकर रुक्मिणी से काह- बहन, मैं जरा बाहर जा रहा हूं। मेरा बिस्तर भूंगी से बंधवा देना और ट्रंक में कुछ कपड़े रखवाकर बन्द कर देना । रुक्मिणी भोजन बना रही थीं। बोलीं- बहू तो कमेरे में है, कह क्यों नही देते? कहां जाने का इरादा है? मुंशीजी- मैं तुमसे कहता हूं, बहू से कहना होता, तो तुमसे क्यों कहाता? आज तुमे क्यों खाना पका रही हो? रुक्मिणी- कौन पकावे? बहू के सिर में दर्द हो रहा है। आखिरइस वक्त कहां जा रहे हो? सबेरे न चले जाना। मुंशीजी- इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गये। इधर-इधर घूम-घामकर देखूं, शायद कहीं सियाराम का पता मिल जाये। कुछ लोग कहते हैं कि एक साधु के साथ बातें कर रहा था। शायद वह कहीं बहका ले गया हो। रुक्मिणी- तो लौटोगे कब तक? मुंशीजी- कह नहीं सकता। हफ्ता भर लग जाये महीना भर लग जाये। क्या ठिकाना है? रुक्मिणी- आज कौन दिन है? किसी पंडित से पूछ लिया है कि नहीं? मुंशीजी भोजन करने बैठे। निर्मला को इस वक्त उन पर बड़ी दया आयी। उसका सारा क्रोध शान्त हो गया। खुद तो न बोली, बच्ची को जगाकर चुमकारती हुई बोली- देख, तेरे बाबूजी कहां जो रहे हैं? पूछ तो? बच्ची ने द्वार से झांककर पूछा- बाबू दी, तहां दाते हो? मुंशीजी- बड़ी दूर जाता हूं बेटी, तुम्हारे भैया को खोजने जाता हूं। बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा- अम बी तलेंगे। मुंशीजी- बड़ी दूर ज
ाते हैं बच्ची, तुम्हारे वास्ते चीजें लायेंगे। यहां क्यों नहीं आती? बच्ची मुस्कराकर छिप गयी और एक क्षण में फिर किवाड़ से सिर निकालकर बोली- अम बी तलेंगे। मुंशीजी ने उसी स्वर में कहा- तुमको नर्ह ले तलेंगे। बच्ची- हमको क्यों नई ले तलोगे? मुंशीजी- तुम तो हमारे पास आती नहीं हो। लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गयी। थोड़ी देर के लिए मुंशीजी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपनी अन्तर्वेदना भूल गये। भोजन करके मुंशीजी बाहर चले गये। निर्मला खडेक़ी ताकती रही। कहना चाहती थी- व्यर्थ जो रहे हो, पर कह न सकती थी। कुछ रुपये निकाल कर देने का विचार करती थी, पर दे न सकती थी। अंत को न रहा गया, रुक्मिणी से बोली- दीदीजी जरा समझा दीजिए, कहां जा रहे हैं! मेरी जबान पकड़ी जायेगी, पर बिना बोले रहा नहीं जाता। बिना ठिकाने कहां खोजेंगे? व्यर्थ की हैरानी होगी। रुक्मिणी ने करुणा-सूचक नेत्रों से देखा और अपने कमरे में चली गईं। निर्मला बच्ची को गोद में लिए सोच रही थी कि शायद जाने के पहले बच्ची को देखने या मुझसे मिलने के लिए आवें, पर उसकी आशा विफल हो गई? मुंशीजी ने बिस्तर उठाया और तांगे पर जा बैठे। उसी वक्त निर्मला का कलेजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनसे भेंट न होगी। वह अधीर होकर द्वार पर आई कि मुंशीजी को रोक ले, पर तांगा चल चुका था।
उनको मंजूर था । वह उनको साथ लेकर बगीचे में गये । गुलेल और गोली उनके सुपुर्द कर कहा कि खूब खींचकर एक बन्दर को मारिये । मौलवीसाहब मे खूब खींचकर जो गोली छोड़ी और देखना चाहा कि बन्दर को कैसी चोट लगती है कि इतने में उनके बायें हाथ के अंगूठे से तरतर खून टपकने लगा और चोट के दर्द से सहमकर बैठ गये । गोली बन्दर को लगने के बदले मौलवीसाहब के अपने अंगूठे पर ही जा बैठी थी । एक दूसरे दिन का जिक्र है कि शाम को सब लोग, जिनमें हमारे दादासाहब भी शरीक थे, टहलने निकले । मौलवीसाहब और बलदेव चचा भी थे । तरह-तरह की बातें हो रही थीं । इतने में एक सांड़ देखने में आया । लोगों ने कहा कि सांड़ लोगों को मारता है । बलदेव चचा के इशारे पर मौलवीसाहब इससे कब डरनेवाले थे, बेखौफ आगे बढ़े कि इतने में सांड़ ने उनको दे पटका । इस प्रकार के मजाक बराबर ही हुआ करते । एक दिन बलदेव चचा ने मौलवीसाहब को बन्दूक चलाने की शिक्षा दी । मौलवीसाहब किसी चीज को न जानना कबूल करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे और उन्होंने साफ कह दिया कि वह अच्छा निशाना लगा सकते हैं । उन्हें साथ लेकर बलदेव चचा बन्दूक के साथ गये । मौलवीसाहब के दो लड़के थे, जो हम लोगों के साथ ही पढ़ा करते थे । हम सब और वह दोनों लड़के भी साथ हो लिये नय कुछ दूर पर एक ऊंचे दरख्त पर एक गीध बैठा नजर आया। बलदेव चचा ने उसीपर निशाना लगाने को कहा । वह काफी ऊंचाई पर था और प्रायः खड़ी बन्दूक करके ही निशाना लग सकता था । मौलवीसाहब को जो बन्दूक दी गई थी, वह पुराने किस्म की थी, जिसमें बारूद ऊपर से भरी जाती थी और वजनी भी थी । मौलवीसाहब ने शायद कभी पहले बन्दूक नहीं चलाई थी । उन्होंने प्रायः खड़ी बन्दूक अपने सीने पर रखकर निशाना लगाया । उधर बन्दूक का घोड़ा चटका, आवाज हुई और इधर गीध के बदले मौलवीसाहब जमीन पर चित गिरे । बलदेव चचा ने झट उनको उठाया और लड़कों को पानी लाने के लिए भेजा। मौलवीसाहब किसी तरह घर लाये गये । इस प्रकार के मजाकों के बीच हम लोग फारसी पढ़ते रहे । छः - आठ महीनों के बाद मौलवीसाहब चले गये । हम लोग शायद अक्षर सीख चुके थे और करीमा पढ़ने लगे थे । फिर दूसरे मौलवी बुलाये गये, जो बहुत गम्भीर थे और अच्छा पढ़ाते भी प्रारम्भिक शिक्षा थे । वही दो बरसों तक रहे और करीमा, मामकीमा, खालकबारी, खुशहालसीमिया, दस्तूरूलसीमिया, गुलिस्तां, बोस्तां तक हम लोगों को पढ़ा सके । उसी जमाने में हम लोगों ने कैथी लिखना और गिनती करना सीख लिया, पर यह याद नहीं है कि यह कब और कैसे सीखा । हफ्ते में साढ़े पांच दिन फारसी पढ़ते थे । वृहस्पतिवार के दोपहर के बाद और शुक्रवार के दोपहर तक फारसी से छुट्टी रहती थी और इसी में कैथी अथवा गिनती वगैरह सीखते । इसके अलावा कुछ खेलने-कूदने के लिए भी अधिक समय दिया जाता । पढ़ने का तरीका था कि खूब सवेरे हम लोग उठकर मकतब में चले आते । मकतब मेरे पक्के मकान से अलग एक दूसरे मकान के ओसारे में था । एक कोठरी थी, जिसमें मौलवीसाहब रहा करते और सामने ओसारे में तख्तपोश पर बैठकर हम लोग पढ़ा करते । मौलवीसाहब कभी अपनी चारपाई पर और कभी तख्तपोश पर बैठकर पढ़ाया करते । सवेरे आकर पहले का पढ़ा हुआ सबक एक बार आमोख्ता करना पड़ता और जो जितना जल्द आमोख्ता कर लेता उसको उतना ही जल्द नया सबक पढ़ा दिया जाता । मैं अक्सर अपने दोनों साथियों से पहले मकतब में पहुंच जाता और आमोख्ता भी पहले खतम करके सबक भी पहले पढ़ लिया करता । यह करते सूर्योदय होकर कुछ दिन भी निकल आता । तब नौकर आता और साथ ले जाकर मुंह- हाथ धुला देता और घर मां के पास कुछ खिलाने के लिए पहुंचा देता । इसके लिए प्रायः आध घंटे पौन घंटे की छुट्टी मिलती । नाश्ता करके लौटने पर सबक याद करना पड़ता और सबक याद करके सुना देने के बाद मौलवीसाहब हुकुम देते, किताब बन्द करो । किताब बन्द करके तख्ती निकालनी पड़ती । इन दोनों क्रियाओं के बीच कुछ समय खेलने-कूदने का भी मिल जाता या दोबारा घर जाकर कुछ खा लेने का भी मौका मिल जाता । तख्ती पर लिखना होता और जब तख्ती भर जाती तो उसे धोना पड़ता । इस क्रिया में भी कुछ समय आपस में हँसने- खेलने का मिलता । दोपहर को नहाने-खाने के लिए एक-डेढ़ घंटे की छुट्टी मिलती और खाकर फिर मकतब में ही उसी तख्तपोश पर सोना पड़ता । मौलवीसाहब चारपाई पर सोते । हम लोगों को अक्सर नींद नहीं आती और तख्तपोश पर लेटे-लेटे शतरंज खेलते और जब मौलवीसाहब के जागने का वक्त होता उसके पहले ही गोटियों को उठाकर रख देते । उसी जमाने में कभी शतरंज खेलना भी आ गया, पर इसका पता नहीं कि कब, कैसे और किससे सीखा । दोपहर बाद दूसरा सबक मिलता और उसको कुछ हद तक याद करके सुनाने के बाद घंटा - डेढ़ घंटा दिन रहते खेलने के लिए छुट्टी मिलती । इसी समय गेंद, चिक्का इत्यदि खेल खेले जाते । संध्या को फिर चिराग - बत्ती जलते किताब खोलकर पढ़ने के लिए बैठना पड़
ता । दिन के दोनों सबक याद करके फिर सुनाने पड़ते और तब हुक्म होता, किताब बन्द करो । किताब बन्द करके, कायदे के मुताबिक मौलवीसाहब को आदाब करके, घर जाकर सो जाते । संध्या को जल्द नींद आती । इससे हमेशा डर रहता कि कहीं झुकते देखकर मौलवीसाहब मार न बैठें । जल्द छुट्टी के लिए दो उपाय थे । खेल-कूद में जमुनाभाई 'लीडर' थे और जल्द छुट्टी पाने के उपाय भी वही करते। पढ़ने के लिए तेल देकर दिया जलाया जाता था । जमुनाभाई दिन को ही कपड़े में राख या धूल बांधकर छोटी-सी पोटली बनाकर छिपाकर रख लेते । जिस दिन दिया में तेल अधिक देखने में आता, चिराग की बत्ती उकसाने के बहाने, छिपाकर पोटली दिया में रख देते । वह देखते-देखते तेल सोख लेती और दिया जल्द बुझने पर आ जाता । मौलवीसाहब दाई पर गुस्सा होते कि तेल क्यों कम लाई, पर मजबूर होकर जल्द ही किताब बन्द करने का हुक्म दे देते । किसी-किसी दिन जमुनाभाई पेशाब करने के लिए छुट्टी मांगकर बाहर जाते और पेशाब करने के बदले दौड़कर कभी मेरी मां के पास, कभी-कभी अपनी मां के पास और कभी गंगाभाई की मां के पास जाकर कह आते कि अब नींद लग रही है, जल्द दाई को हमें बुलाने के लिए भेजो, नहीं तो पिट जायेंगे। उनके पेशाब से लौटने के थोड़े ही बाद दाई पहुंच जाती और मौलवीसाहब से कहती कि अब छुट्टी दे दीजिये । मौलवीसाहब छुट्टी दे देते । एक दिन, जब इस तरह जमुनाभाई दौड़े जा रहे थे, गांव के एक सज्जन ने, जो रिश्ते में हम लोगों के चचा होते थे, उन्हें देख लिया और जाकर मौलवीसाहब से कह दिया कि जमुना कहीं दौड़े जा रहे थे । तहकीकात हुई और जमुनाभाई की कैफियत हुई कि वह पेशाब करने गये और अंधेरे में डर गये, इसलिए भागे जा रहे थे । इस तरह से बचे । जो कुछ वहां फारसी का ज्ञान हुआ, उन्हीं मौलवीसाहब ने दिया । हम सब भी उनको प्यार करने लगे थे। जब घर छोड़कर छपरे अंगरेजी पढ़ने के लिए जाना पड़ा, तो मौलवीसाहब को और हम लोगों को भी बड़ा दुःख हुआ । उन दिनों गांव का जीवन आज से भी कहीं अधिक सादा था । जीरादेई और जमापुर दो गांव हैं, पर दोनों की बस्ती इस प्रकार मिली-जुली है कि यह कहना मुश्किल है कि कहां जीरादेई खतम है और कहां से जमापुर शुरू है । इसलिए आबादी के लिहाज से दोनों गांवों को साथ भी लिया जाय तो कोई हर्ज नहीं । दोनों गांवों में प्रायः सभी जातियों के लोग बसते हैं । आबादी दो हजार से अधिक होगी। उन दिनों गांव में मिलनेवाली प्रायः सभी चीजें वहां मिलती थीं। अब तो कुछ नये प्रकार की दुकानें भी हो गई हैं, जिनमें पान-बीड़ी भी बिकती है। उन दिनों ऐसी चीजें नहीं मिलती थीं, यद्यपि काला तम्बाकू और खैनी बिका करती थी । कपड़े की दुकानें अच्छी थीं, जहां से दूसरे गांवों के लोग और कुछ बाहर के व्यापारी भी कपड़ा ले जाया करते थे । चावल, दाल, आटा, मसाला, नमक, तेल इत्यादि वहां सबकुछ बिकता था और छोटी-मोटी दुकान दवा की भी थी, जिसमें हर्रे- बहेरा-पीपर इत्यादि की तरह की चीजें मिल सकती थीं। जहांतक मुझे याद है, केवल मिठाई की कोई दुकान नहीं थी। गांव में कोयरी लोगों की काफी बस्ती है, इसलिए साग-सब्जी भी काफी मिलती थी । अहीर कम थे, पर आसपास के गांवों में उनकी काफी आबादी है, इसलिए दही - दूध भी मिलते थे । चर्खे काफी चलते थे । गांव में जुलाहों को भी आबादी थी, जो सूत लेकर बुन दिया करते थे । चुड़िहार चूड़ियां बना लेते । बिसाती छोटी-मोटी चीजें, जैसे टिकुली इत्यादि, बाहर से लाकर बेचते और खुद भी बनाते । मुसलमानों में चुड़िहार, बिसाती, थवई ( राज), दर्जी और जुलाहे ही थे । कोई शेख - सैयद नहीं रहता था । हिन्दुओं में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ, कोयरी, कुरमी, कमकर, तुरहा, गोंड, डोम, चमार, दुसाध इत्यादि सभी जाति के लोग बसते थे । मेरा ख्याल है कि सबसे अधिक बस्ती राजपूतों की ही है। उनमें कुछ तो जमींदार वर्ग के हैं, जो पुराने खानदानी समझे जाते हैं और कुछ मामूली किसान वर्ग के हैं। कायस्थ जीरादेई में ही पांच घर थे, जिनमें तीन तो हमारे सगे थे और दो सम्बन्ध के कारण बाहर से आकर बस गये थे। सबकुछ प्रायः गांव में ही मिल जाता था । इसलिए गांव के बाहर जाने का लोगों को बहुत कम मौका आता था। गांव में हफ्ते में दो बार बाजार भी लगता था, जहां कुछ आसपास के गांव के दुकानदार भी अपना माल सौदा सिर पर अथवा बैल, घोड़ा या बैलगाड़ी पर लादकर अपना लाते थे। बाजार में मिठाई की दुकान भी आ जाती थी और जो चाहते उनको मछली -मांस भी खरीदने को मिल जाते । जिनकी जरूरतें इस प्रकार पूरी नहीं होतीं, वे 'सीवान' जाते । वहीं थाना और मजिस्ट्रेट हैं कचहरियां हैं और दूकानें भी हैं । वह एक कस्बा है, जो देहात के लोगों के लिए उन दिनों बहुत बड़ी जगह का रूतबा रखता था। मुझे याद है कि गांव में बाहर से सगे-सम्बन्धियों के सिवा बहुत कम लोग आया करते थे । मौलवीसाहब के यहां दो-चा
र महीने में एक बार एक आदमी फारसी की छोटी-मोटी किताबों की एक छोटी गठरी और एक-दो बोतलों में सियाही (आजकल की ब्लूब्लैक रोशनाई नहीं) लिये आ जाता था। जब वह आता तो हम बच्चों के कौतूहल का ठिकाना न रहता। कभी-कभी जाड़ों में कोई नारंगी- नीबू की टोकरी लिये बेचने आ जाता तो हम बच्चे इतना खुश होते कि मानों कुछ नायाब मिल गया । एक दिन ऐसा ही एक आदमी आया और मैं दौड़कर मां से कहने गया । वहां से दौड़कर जो बाहर आ रहा था कि पैर में जोर से किसी चीज की ठोकर लगी, गिर गया । ओठ में चोट आई और खून बहने लगा। बहुत दिनों में तक उसका चिहन रहा था। एक बार और किसी चीज के लिए दौड़ता हुआ गिर गया था -- उसका निशान तो आज तक दाहिनी आंख के नीचे गाल पर मौजूद है । गांव में फल-- आम के दिनों में आम और मामूली तरह से कभी-कभी बाग से केले --मिल जाते थे । चचासाहब, जिनको हम लोग नूनू कहा करते थे, छपरे से कभी-कभी अंगूर लाया करते थे । अंगूर आज की तरह खुले आम गुच्छों में नहीं बिका करते थे, काठ की छोटी पेटी में. रूई के फाहे के बीच में रखकर बिकते थे और दाम भी काफी लगता था । गांव के लोग केवल आम और केले ही मौसम में पाते थे । गांव में दो छोटे-मोटे मठ हैं, जिनमें एक-एक साधु रहा करते थे । गांव के लोग उनको भोजन देते हैं और वह सुबह-शाम घड़ी-घंटा बजाकर आरती करते हैं । आरती के समय कुछ लोग जुट भी जाते हैं। कभी-कभी हम लोग भी जाया करते हैं थे और बाबाजी तुलसीदल का प्रसाद दिया करते थे । रामनौमी और विशेषकर जन्माष्टमी में मठ में तैयारी होती थी । हम सब बच्चे कागज और पन्नी के फूल काटकर ठाकुरबारी के दरवाजों और सिंहासन पर साटते थे और उत्सव में शरीक होते थे, व्रत रखते थे और दधिकांदो के दिन खूब दही - हल्दी एक दूसरे पर डालते थे । प्रायः हर साल कार्तिक में कोई-न-कोई पंडित आ जाते, जो एक डेढ़ महीना रहकर रामायण, भागवत अथवा किसी दूसरे पुराण की कथा सुनाते थे । जिस दिन पूर्णाहुति होती थी उस दिन गांव के सब लोग इकट्ठे होते और कुछ-न-कुछ पूजा चढ़ाते । मेरे घर से अधिक पूजा चढ़ती, क्योंकि हम सबसे बड़े समझे जाते थे । अक्सर कथा तो मेरे ही दरवाजे पर हुआ करती थी । उसका सारा खर्च हमको ही देना पड़ता था । जब गांव में पंचायती कथा होती तब गांव - भर के लोग बारी-बारी से पंडित के भोजन का सामान पहुंचाते, उसमें मेरा घर भी शामिल रहता । हम बच्चे तो शायद ही कथा का कुछ ज्यादा अंश सुन पाते हों; क्योंकि मैं तो संझौत के बाद ही सो जाता । पर मैं जब आरती होती तो लोग जगाते और प्रसादी खिला देते । मनोरंजन और शिक्षा का एक दूसरा साधन रामलीला थी । वह आसिन में हुआ करती थी । रामलीला करनेवाली जमात कहीं से आ जाती और पन्द्रह-बीस दिनों तक खूब चहलपहल रहती । लीला कभी जमापुर में होती, कभी जीरादेई में । लीला भी विचित्र होती । उसमें राम-लक्ष्मण इत्यादि जो बनते, कुछ पढ़े-लिखे नहीं होते। एक आदमी तुलसीदास की रामायण हाथ में लेकर कहता -- 'रामजी कहीं, हे सीता' - - इत्यादि और रामजी वही दुहराते । इसी प्रकार, जिनको जो कुछ कहना होता उनको बताया जाता और वह पीछे-पीछे उसे दुहराते जाते । लोगों का मनोरंजन इस वार्तालाप में अधिक नहीं होता, क्योंकि भीड़ बड़ी लगती और सब कारबार प्रायः सौ-दो सौ गज में फैला रहता । मनोरंजन तो पात्रों की दौड़धूप और विशेषकर लड़ाई इत्यादि के नाट्य में ही होता । उत्तर में रामजी का गढ़ और दक्खिन में रावण का गढ़ बनता अथवा अयोध्या और जनकपुर बनता । जिस दिन जो कथा पड़ती, उसका कुछ-न-कुछ स्वांग तो होती ही । सबसे बड़ी तैयारी राम-विवाह, लंकाकाण्ड के युद्ध और रामजी के अभिषेक -- गद्दी पर बैठने के दिन होती । विवाह में तो हाथी-घोड़े मंगाये जाते और बरात की पूरी सजावट होती, लंकादहन के लिए छोटे-मोटे मकान भी बना दिये जाते जो सचमुच जला दिये जाते। हनुमान - वानर और निशाचरों के अलग-अलग चेहरे होते, जो उनको समय पर पहनने पड़ते और हम बच्चों को वे सचमुच डरावने लगते । वानरों के कपड़े अक्सर लाल होते और निशाचरों के काले । राम-लक्ष्मण - जानकी के विशेष कपड़े होते और उनके सिंगार में प्रायः डेढ़-दो घण्टे लग जाते । लीला संध् या समय चार बजे से छः बजे तक होती । राम-लक्ष्मण मामूली लोगों की तरह नहीं चलते । उनके कदम बहुत ऊंचे उठते और लड़ाई में पैंतरे देने की तो उनको खास तालीम दी जाती । जिस दिन राजगद्दी होती उसी दिन गांव-जवार के लोग पूजा चढ़ाते, जो नजर के रूप में रामजी के चरणों में चढ़ाई जाती । लीलावालों को भोजन के अलावा नकद जो कुछ मिलना होता उसी दिन मिलता । दूसरे दिन फिर राम-लक्ष्मण-जानकी को श्रृंगार करके बड़े-बड़े लोगों के घरों में ले जाते, जहां की स्त्रियां परदे के कारण भीड़-भाड़ में लीला देखने नहीं जाया करतीं । वहां उनकी पूजा होती और उनपर रूपये चढ़ाये जाते । एक चीज, जिसका असर मुझपर बचपन स
े ही पड़ा है, रामायण - पाठ है। गांव में अक्षर - ज्ञान तो थोड़े ही लोगों को था । उन दिनों एक भी प्राइमरी या दूसरे प्रकार का स्कूल उस गांव अथवा कहीं जवार-भर में नहीं था । मौलवीसाहब हम लोगों को तीन-चार रूपये मासिक और भोजन पाकर पढ़ाते थे । गांव में एक दूसरे मुसलमान थे, जो जाति के जुलाहा थे, मगर कैथी लिखना जानते थे । मुड़कट्टी हिसाब भी जानते थे, जिसमें पहाड़ा, ड्योढ़ा इत्यादि मन - सेर की बिकरी और खेत की पैमाइश का हिसाब शामिल है । उन्होंने एक पाठशाला खोल रखी थी, जिसमें गांव के कुछ लड़के पढ़ते थे । अक्षर पहचानना तो बहुत थोड़े लोग जानते, पर प्रायः प्रतिदिन संध्या के समय कुछ लोग कहीं-न-कहीं, मठ में या किसी के दरवाजे पर जमा हो जाते और एक आदमी रामायण की पुस्तक से चौपाई बोलता और दूसरे सब उसे दुहराते । साथ में झाल और ढोलक भी बजाते थे । वन्दना का हिस्सा तो जब रामायण का पाठ आरम्भ होता तो जरूर दुहराया जाता । इस प्रकार अक्षर से अपरिचित रहकर भी गांव में बहुतेरे ऐसे लोग थे, जो रामायण की चौपाइयां जानते और दुहरा सकते और विशेष करके वन्दना के कुछ दोहों को तो सभी प्रायः बरजबान रखते थे । त्योहारों में सबसे प्रसिद्ध होली है । उसमें अमीर-गरीब सभी शरीक होते थे । वसन्त-पंचमी के दिन से ही होली गाना शुरू होता । उसे गांव की भाषा में 'ताल उठना' कहते थे । उस दिन से होली के दिन तक जहां-जहां झाल-ढोलक के साथ कुछ आदमी जमा होते और होली गाते। कभी-कभी जीरादेई और जमापुर के लोगों में मुकाबला हो जाता और एक गीत एक गांव के लोग जैसे खतम करते, दूसरे गांव के लोग दूसरा शुरू करते । कभी-कभी गांव के आस-पास के दूसरे गांवों के लोग भी गोल बांधकर आ जाते और इस प्रकार का मीठा प्रतियोग बड़े उत्साह से हुआ करता । मुझे याद है कि एक बार दो गांवों में बाजी-सी लग गई और रात-भर गाते-गाते सवेरे सूर्योदय के बाद तक लोग गाते ही रह गये, और तब उनको कहकर हटाया गया । इस गाने में जो आदमी ढोलक बजाता है उसे काफी मेहनत पड़ती है और वह पसीने-पसीने हो जाता है । एक गांव में ढोलक बजानेवाला एक ही आदमी था । वह सारी रात बजाता रह गया । उसके हाथों में छाले पड़ गये, पर वह कहां रूकनेवाला था, गांव की इज्जत चली जाती ! छाले उठे और फूट गये और इस प्रकार रात-भर में कई बार छाले उठे और फूटे, पर उसने गांव की इज्जत नहीं जाने दी । यह बात दूसरे दिन प्रतियोगिता खतम होने पर सवेरे मालूम हुई और सब लोगों ने उसकी हिम्मत की सराहना की। होली के दिन बहुत गन्दा गाली-गलौज हुआ करता । उसमें बूढ़े और जवान और लड़के भी एक साथ शामिल होते । गांव के एक कोने से एक जमात चलती, जो प्रायः हर दरवाजे पर खड़ी होकर नाम ले-लेकर गालियां गाती और गन्दी मिट्टी, धूल और कीचड़ एक-दूसरे पर डालती गांव के दूसरे सिरे तक चली जाती । यही एक अवसर था जब बड़े-छोटे का लिहाज एकबारगी उठ जाता था । बड़े- छोटे केवल उम्र में ही नहीं, जाति और वर्ग की बड़ाई - छोटाई भी उठ जाती थी । चमार, ब्राह्मण और राजपूत एक-दूसरे को गालियां सुनाते और एक दूसरे पर कीचड़ फेंकते । जब कोई नया आदमी साफ-सुथरा मिल जाता तो उसकी जान नहीं बचती, मानो उसे भी कीचड़ लगाकर जाति में मिला लेना सभी अपना फर्ज समझते थे । वह धुरखेल दोपहर तक जारी रहता । उसके बाद सभी स्नान करते और घर-घर में पूजा होती । उस दिन का विशेष भोजन पूरी - मालपुआ है । गरीब लोग भी किसी-न-किसी प्रकार कुछ प्रबन्ध कर ही लेते । भोजन के बाद दोपहर को गुलाल और अबीर से रंग खेला जाता । सब लोग सफेद कपड़े पहनते । उसपर लाल-पीले रंग डाले जाते, अबीर और अबरख का चूर्ण छिड़का जाता । गरी - छुहारा, पान-कसैली बांटी जाती और खूब होली गाई जाती । मैंने सुना है कि और जगहों में लोग उस दिन खूब शराब- कबाब का भी व्यवहार है किया करते हैं । पर सौभाग्य से मैंने यह अपने गांव में कभी नहीं देखा । राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार तो हमारे यहां शराब पीना पाप मानते हैं । कहीं-कहीं कायस्थ लोग पीते हैं । पर मेरे घर में एक बहुत पुरानी प्रथा चली आ रही है। लोगों का विश्वास है कि हमारे वंश में जो कोई शराब पियेगा वह कोढ़ी हो जायगा । इसलिए वहां कायस्थों के घरों में भी कभी शराब नहीं आई। बड़ों को देखकर छोटे भी इससे परहेज करते हैं और यह बात आज तक जारी है । जन्माष्टमी-रामनौमी का जिक्र कर ही दिया है; दीवाली भी अच्छी मनाई जाती थी । कुछ पहले से ही सब लोग अपने-अपने घरों को साफ करते। दीवारों को लीपते और काठ के खम्भों और दरवाजों में तेल लगाते । उन दिनों किरासन का तेल नहीं जलाया जाता था - शायद मिलता ही नहीं था। सरसों, तीसी, दाना अथवा रेंड़ी का तेल की जलाया जाता । दीवाली में मिट्टी के छोटे-छोटे दिये जलाकर प्रायः अमीर-गरीब सब कुछ-न-कुछ रोशनी जरूर करते । बड़े लोगों के मकान पर बहुत दिये जलाये जाते, केले के खम्भे गाड़
े जाते, बांस की मेहराबें बनाई जात, रंग-बिरंग की तसवीरें दियों से बनाई जातीं, जो देखने में बहुत सुन्दर मालूम पड़तीं । बड़े लोग तो ये नक्शे बनाते और हम छोटे उनके बताये हुए स्थानों पर दिये रखते, तेल डालते, बत्ती जलाते । बत्ती जल जाने के पहले लक्ष्मी पूजा होती । लक्ष्मीजी तथा तुलसी के - पास बत्ती जलाने के बाद ही और सब जगहों में दिये जलाये जाते । दिये जल जाने के बाद कौड़ी खेलने की चाल थी। हम लोग तो नाममात्र के लिए कुछ कर लेते; पर मैंने देखा है कि कुछ लोग पैसे हारते-जीतते भी थे । दीवाली के दिन विशेष दीप की तैयारी होती, पर यों तो कार्तिक-भर कुछ लोग तुलसी- चौतरे पर और आकाश में कंदील लटकाकर दिये जलाया करते । दशहरा तो खास करके जमींदारों का त्योहार माना जाता था । पर नवरात्र में कभी-कभी कालीजी की पूजा हुआ करती थी । उसके लिए मूर्त्ति लाई जाती और बड़े धूमधाम से पूजा होती । मैंने अपने गांव में तो कालीपूजा नहीं देखी, पर जवार में कालीपूजा हुई, इसकी शोहरत सुनने पर हम बच्चे वहां दर्शन के लिए भेजे गये थे । वहां जाकर हमने काली का, जो सचमुच काली थी और हाथ में लाल खप्पर और खड्ग लिये हुए थी, दर्शन किया था । रामलीला में राजगद्दी भी प्रायः दशहरे के दिन, या एक-दो दिन उसके आगे-पीछे हुआ करती थी । खास दशहरे के दिन हमारे दादासाहब अपने साथ सब लोगों को लेकर छोटा-सा जलूस बनाकर निकलते और नीलकण्ठ का दर्शन करते । इनके अलावा एक और त्योहार था, जिसमें सभी लोग शरीक होते थे । वह था अनन्तचतुर्दशी का व्रत । यह भादों सुदी चतुर्दशी को हुआ करता था। दोपहर तक का ही व्रत था । दोपहर को कथा सुनने के बाद पूरी खीर खाने की प्रथा थी और संध्या को कुछ नहीं खाना होता था । सूर्यास्त के बाद पानी भी नहीं पिया जाता था । इस व्रत में हम सब बच्चे भी शरीक होते । कथा समाप्त होने पर एक क्रिया होती, जो बच्चों के लिए बहुत मजाक की चीज होती । एक बड़े थाल में एक या दो खीरे रख दिये जाते और थोड़ा जल उसमें पंडित डाल देते । सभी कथा सुननेवाले इस थाल में हाथ डालते और पंडित पूछते -- क्या ढूंढ़ते हो और लोग जवाब देते -- अनन्त फल । तब फिर पंडित पूछते -- पाया और उत्तर मिलता -- पाया । पंडित कहते, सिर पर चढ़ाओ और सब लोग जल अपने सिर पर छिड़कते । यह क्रिया समाप्त होने पर सभी लोगों को अनन्त, जो सूत में चौदह गांठ देकर बनाया जाता था, दिया जाता और वे उसे अपनी बांह पर बांध लेते। हम बच्चों के लिए सुन्दर रंगीन, कभी-कभी रेशम का, अनन्त पटहेरे के यहां से खरीद करके आता । कोई-कोई साल-भर बांह पर अनन्त बांधे रहते थे; इसलिए वे अपना अनन्त अपने हाथों मजबूत और काफी लम्बा बनाते, जिसमें वह सुभीते से बांधा जा सके। इस प्रकार जो अनन्त बांधता वह मांस-मछली नहीं खाता था । इसी प्रकार जो तुलसी की लकड़ी का माला या कंठी पहनता, वह भी मांस-मछली नहीं खाता । कथा, रामलीला, रामायण - पाठ और इन व्रत-त्योहारों द्वारा गांव में धार्मिक जीवन हमेशा जगा रहता था। इनके अलावा मुहर्रम में ताजिया रखने का भी रिवाज था । इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल होते थे । जीरादेई और जमापुर में कुछ हिन्दू ही कुछ सम्पन्न थे, इसलिए उनका ताजिया गरीब मुसलमानों के ताजिया से अधिक बड़ा और शानदार हुआ करता था । मुहर्रम - भर प्रायः रोज गदका, लाठी, फरी वगैरह के खेल लोग करते और पहलाम के दिन तो बहुत बड़ी भीड़ होती। गांव-गांव के ताजिया कर्बला तक पहुंचाये जाते । तमाम रास्ते में 'या अली, या इमाम' के नारे लगाये जाते और गदका इत्यादि के खेल होते । बड़ा उत्साह रहता और इसमें हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद नहीं रहता । शीरनी और तिचौरी (भिगोया हुआ चावल और गुड़ ) बांटी जाती । सभी उसे लेते और खाते; पर हिन्दू लोग मुसलमानों से पानी या शर्बत छुलाकर नहीं पाते । मुसलमान भी इसे बुरा नहीं मानते । वे समझते थे कि यह हिन्दुओं का धरम है, इसलिए वे स्वयं हट जाते । जिस तरह हिन्दू मुहर्रम में शरीक होते, उसी तरह मुसलमान भी होली के शोरगुल में शरीक होते । हम बच्चे दशहरा, दीवाली और होली के दिन मौलवीसाहब की बनाई 'ईदी' अपने बड़ों को पढ़कर सुनाते और उनसे रूपये मांगकर मौलवीसाहब को देते । ईदी कई दिन पहले से ही हम याद करते । कागज पर, मौलवीसाहब की मदद से, सुन्दर फूल बनाकर उसे लाल, हरे, नीले और बैंगनी रंगों से रंगते । उसीपर मौलवीसाहब सुन्दर अक्षरों में ईदी लिख देते, जिसे हम लोग पढ़कर सुनाते । उसमें जो लिखा जाता वह भी कुछ अजीब संमिश्रण होता । जैसे, दीवाली की ईदी में लिखा होता--'दीवाले आमदे हंगाम जूआ, इत्यादि; दशहरे की ईदी में लिखा जाता - - दशहरे को चले थे रामचन्दर, बनाकर रूप जोगी वो कलन्दर' इत्यादि । मुशाहरे के अलावा मौलवीसाहब को, प्रत्येक वृहस्पतिवार को कुछ पैसे जुमराती के रूप में और त्योहारों पर ईदी के बदले में, कुछ मिल जाया कर
ता था । उन दिनों गांव में मामला- मुकदमा कम हुआ करता था। जो झगड़े हुआ करते थे, गांव के पंच लोग उन्हें तय कर देते थे । अगर कोई बात पंचों के मान की न हुई, तो वह मेरे बाबा या चचासाहब के सामने पेश होती । वे लोग भी पंचायत में शरीक होकर तय करा देते । हां, कभी-कभी चोरी हो जाया करती थी । बनिया कुछ सम्पन्न थे । उनके घरों में रात को सेंध फोड़कर चोर कुछ पैसे उठा ले जाया करते । एक बार का मुझे स्मरण है कि दूसरे गांव के बाजार से लौटते वक्त संध्या को रास्ते में डाकू ने पैसे और कपड़े लूट लिये थे । जब कभी ऐसा वकूआ होता, थाने से दारोगा और सिपाही पहुंचते और गांव में एक-दो दिन ठहर जाते । उनका गांव में आना एक बड़ा हंगामा था । सारे गांव में सनसनी फैल जाती। जिन लोगों पर शुबहा होता उनके घर की तलाशी ली जाती । दो-तीन आदमी थे, जिनके बारे में मशहूर था कि वे चोर हैं; दारोगा पहुंचते ही उनको पकड़कर मुश्कें कसकर बांधकर गिरा देते और खूब पीटते । आसपास के गांव के भी ऐसे लोग, जो गलत या सही चोर समझे के जाते थे, इस प्रकार पकड़कर मंगाये जाते और गिरा दिये जाते। मैंने देखा है कि इस तरह एक साथ पांच-सात आदमी बांधकर गिराये जाते थे और घंटों तक पड़े रहते थे । हम लोगों की छोटी-सी जमींदारी थी । रैयतों के साथ मुकदमे तो कम होते, शायद ही कभी कचहरी में जाने की जरूरत होती । मगर एक दूसरे जमींदार के साथ, जिनका भी हिस्सा एक गांव में था, बहुत दिनों तक कुछ जमीन के लिए मुकदमा चलता रहा । बाबा के समय से शुरू होकर पिताजी के जमाने भर चलता रहा और उनकी मृत्यु के बाद भाई ने उसे सुलह करके तय किया । नूनू छपरे जाया करते और भाई जो छपरे पढ़ने के लिए भेज दिये गये थे, उनको देखते और मुकदमे की भी पैरवी करते । El pas अंगरेजी-शिक्षा का श्रीगणेश मैं पहले कह चुका हूं कि भाई के कारण मेरे लिए सब बातों में रास्ता साफ हो जाता था । मेरे बहुत छुटपन में ही भाई को पढ़ने के लिए पहले 'सीवान' भेजा गया । वहां कुछ दिनों तक वह रहे, मगर वहां कोई ठीक सुविधा नहीं जमी। एक तो उन दिनों सीवान में कोई हाईस्कूल नहीं था । दूसरा कोई स्कूल था कि नहीं, मुझे मालूम नहीं । मगर एक कारण यह भी हुआ कि जिनके साथ उनको रखा गया था, वह उनको संभाल नहीं सके । एक अग्रवाल सज्जन सीवान में रहा करते, जिनसे बाबा की बड़ी मित्रता थी । उनके पास भाई भेजे गये और कुछ दिनों तक वहां रहे । उनके मकान के पास एक नया कुआं खोदा जा रहा था । उसमें पानी आ चुका था, पर ऊपर की जगत तक अभी बंधाई नहीं हुई थी । एक दिन पानी देखने या खेलने के लिए भाई वहां गये और कुएं में गिर गये -- डूबते- डूबते मुश्किल से बचाये गये । उस सज्जन ने लिख भेजा कि ऐसे चुल्ला लड़के की देख-रेख उनसे नहीं हो सकेगी । उसके बाद ही भाई छपरे भेज दिये गये और वहां जिला स्कूल में नाम लिखाकर पढ़ने लगे । जब छुट्टियों में वह घर आते तो हम लोगों से छपरे और स्कूल की बातें कहते । हम बच्चे बहुत उत्सुकता से उन्हें सुनते । शायद उस समय तक मैं अपने होश में जवार के कुछ गांवों के सिवा, जहां कभी-कभी रामलीला या दूसरा कोई मेला देखने गया होऊं, और कहीं नहीं गया था । हां, सुनता हूं कि बहुत बचपन में मां के साथ ननिहाल गया था, जो बलिया जिले में हमारे गांव से प्रायः अठारह-बीस कोस की दूरी पर है; पर उसका मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है । छपरे में मेरे पढ़ने की बात तय हो जाने के बाद नूनू ने एक बार मुझे वहां ले जाकर सबकुछ दिखला देना अच्छा समझा, और साथ ले गये। मैं छपरे में कुछ दिनों तक भाई के साथ ठहरा और फिर घर वापस चला आया । मुझे जहांतक स्मरण है, यही पहला अवसर था जब मैं रेल पर चढ़ा था । पर इस यात्रा में मैं स्कूल में दाखिल नहीं हुआ । जीरादेई लौटकर मौलवीसाहब के पास फिर पढ़ने लगा । इसी बीच एक दुर्घटना हो गई - नूनू की मृत्यु हो गई ! हमारे खानदान से घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला
दूसरा शिकारी बोला, हां यार, बात तो तुम सच कह रहे हो। क्योंकि जब वह शेर मेरे पास से निकला था तो मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेर कर देखा था। पीठ बिल्कुल तरबतर हो रही थी पानी से। इस तरह की बकवास है। तुम चाहे शास्त्र कहो, मगर जरा गौर से देखोगे तो ऐसे-ऐसे झूठ पाओगे कि बड़े से बड़े झूठ बोलने वाले भी छोटे मालूम पड़ने लगें। एक गप्पी महोदय थे जिन्हें कि शिकार का बड़ा शौक था। वे जब-तब अपने मित्रों के बीच अपने शिकार के संस्मरण बढ़ा-चढ़ा कर सुनाया करते थे। उनके मित्र चंदूलाल ने उनसे कई दफे कहा कि देखो भाई, तुम गप्प हांको, उससे मुझे कुछ एतराज नहीं, मगर थोड़ी कम हांका करो। तुम तो बिल्कुल ऐसी सुनाते हो कि बस। शिकारी को बात जंची । बोला कि यार बात तो ठीक है । अच्छा ऐसा करो, जब तुम्हें लगे कि मैं कुछ ज्यादा ही हांक रहा हूं, तो तुम थोड़ा खांस-खकार दिया करो। चंदूलाल ने कहा, यह ठीक रहा। एक दिन शिकारी महोदय अपने मित्रों के बीच बैठे थे। बोले कि अभी पिछले ही शुक्रवार को मैं शेर के शिकार को गया। अभी मैं चल ही रहा था कि अचानक एक शेर सामने से आ गया, रहा होगा कोई पचास फीट लंबा। यह सुन चंदूलाल ने जोर से खांसा। गप्पी चौंका। बोला, लेकिन जब तक मैं सम्हलूं, मैंने देखा कि अरे शेर तो सिर्फ चालीस ही फीट लंबा है । चंदूलाल फिर खांसा। गप्पी उसका इशारा समझ कर बोला, लेकिन आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब मैंने निशाना साधा और बंदूक का घोड़ा दबाने जा ही रहा था कि देखा कि अरे, शेर तो कुल तीस ही फीट लंबा है। चंदूलाल फिर खांसा-खकारा । गप्पी समझ गया। लेकिन जब मैंने उसे गोली मारी और बिल्कुल उसके पास पहुंचा तो देखा कि वह तो कुल बीस फीट का ही है। अब तो चंदूलाल से न रहा गया। वह फिर खांसा-खकारा। गप्पी महोदय बोले, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि जब मैंने उसे टेप से नापा तो वह कुल पंद्रह फीट ही लंबा था। चंदूलाल और भी जोर से खांसा-खकारा। गप्पी महोदय क्रोध से बोले कि चुप रह बे चंदूलाल के बच्चे! पंद्रह फीट से अब मैं एक इंच भी कम नहीं करने वाला । साला खांसता ही जा रहा है, खांसता ही जा रहा है। आखिर शराफत भी कोई चीज है ! तुम जरा अपने शास्त्रों में देखो तो, किस बात के लिए तुम बात कर रहे हो! है क्या तुम्हारे शास्त्रों में? सौ में से निन्यानबे प्रतिशत तो व्यर्थ की बकवास है कि हनुमान ने लंका जला दी, कि एक छलांग में समुद्र पार कर गए। क्या-क्या नहीं होता तुम्हारे शास्त्रों में! साइकिल होती नहीं थी और रामचंद्र जी सीता मैया को पुष्पक विमान में बिठा कर लेकर चले आ रहे हैं! साइकिल का भी कोई उल्लेख नहीं है कि ऋषि-मुनि साइकिल पर चलते हों। रेलगाड़ी का भी कुछ पता नहीं है। हवाई जहाज एकदम से नहीं बनता। साइकिल से शुरू होती है बात। धीरे-धीरे, क्रमशः, हवाई जहाज अंतिम चरण में बनता है। प्राथमिक चरणों का कोई पता ही नहीं है --पुष्पक विमान! सब गप्प-सड़ाका है। इसमें न तो कुछ अध्यात्म है, न कुछ ब्रह्मज्ञान है, न ब्रह्मज्ञान को पाने की कोई इस तरह की चीजों से संभावना है। आत्मानंद ब्रह्मचारी, मेरा अभिप्राय बहुत सीधा-साफ है । मैं चाहता हूं कि तुम जानो कि सत्य तुम्हारे भीतर है, कहीं और नहीं । तुम पूछते होः "आपका धर्म क्या है ?" मैं हिंदू नहीं हूं, मुसलमान नहीं हूं, जैन नहीं हूं, बौद्ध नहीं हूं। मेरा धर्म विशेषण-शून्य है। मैं सिर्फ धार्मिक हूं। मैं इस अस्तित्व को प्रेम करता हूं। इस अस्तित्व में मेरी श्रद्धा है-- न किसी मंदिर में, न किसी मस्जिद में, न किसी गिरजे में, न किसी गुरुद्वारे में । शब्दों में मेरा रस नहीं है। बोल रहा हूं तुम्हारे कारण, अन्यथा मौन में मेरा आनंद है। बोल रहा हूं कि तुम्हें भी मौन की तरफ फुसला ले चलूं। और जिन्होंने मुझे सुना है वे मौन की तरफ सरकने शुरू हो गए हैं। जो मुझे समझ रहे हैं वे मौन होते जा रहे हैं। वे जब मुझे सुन रहे हैं तब भी मौन हैं। और तुम पूछते होः "समाज के लिए क्या कुछ नीति-नियमों का आप विधान करेंगे?" नहीं। बहुत हो चुका नीति नियमों का विधान । समाज कहां पहुंचा उस विधान से? मैं तो व्यक्ति में भरोसा करता हूं, समाज में मेरा भरोसा नहीं है। मैं व्यक्ति को ज्योति देना चाहता हूं, ध्यान देना चाहता हूं, समाधि देना चाहता हूं। फिर उसी समाधि से जीवन का आचरण निकलना चाहिए। उसी प्रकाश में लोग चलें। उसी प्रकाश को लोग अपने बच्चों को सिखाएं--कैसे पाया जा सकता है। उसी प्रकाश को शिक्षक विद्यार्थियों को समझाएं--कैसे पाया जा सकता है। वही प्रकाश फैले। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर से जीने की स्वतंत्रता मिले-- यही मेरा अभिप्राय है, यही मेरा धर्म है, यही मेरी क्रांति है। समाज नहीं--व्यक्ति मेरा लक्ष्य है। व्यक्ति के प्रति मेरी आत्यंतिक श्रद्धा है। समाज तो कोरा शब्द है, एक संज्ञा मात्र। समाज की कोई सत्ता नहीं है। सत्
ता है व्यक्ति की। और व्यक्ति के भीतर ही आत्मा का वास है। व्यक्ति है मंदिर परमात्मा का। वहीं खोजना है और वहीं से जीवन के सारे सूत्र पाने हैं। आठवां प्रवचन धर्म है कला जीवन की पहला प्रश्नः ओशो! मीरा मेरी प्रेरणा-स्रोत रही है और कृष्ण मेरे इष्टदेव । शांत क्षणों में मैंने भी मीरा जैसे भक्ति-भाव की कल्पना तथा चाह की है और उसी के अनुरूप कुछ प्रयास भी किया। मगर प्राणों में उतनी पुलक नहीं उठी कि मैं नाच सकूं। फिर मैं आपके संपर्क में आया; आपका शिष्य हुआ। मैं तरंगित हुआ; मैं रोया; मैं हंसा। मगर कृष्ण से अब कुछ लगाव नहीं रहा। अब तो उस छवि के पास आते और आंखें मिलाते भी संकोच लगता है, जिसे मैंने वर्षों पूजा, जिसकी अर्चना की। यह क्या है ओशो? कृष्ण चैतन्य! कल्पना और सत्य में बड़ा भेद है। मीरा के लिए कृष्ण कल्पना नहीं हैं, कृष्ण बाहर भी नहीं हैं। मीरा के लिए कृष्ण उसके अंतर्तम में विराजमान हैं। वह जिस कृष्ण की बात कर रही है, कृष्ण की मूर्ति में तुम उस कृष्ण को नहीं पाओगे। उस कृष्ण का कोई रूप नहीं है, कोई आकार नहीं है। तुमने कल्पना की, वहीं चूक हो गई, वहीं भेद पड़ गया। मीरा के लिए कृष्ण एक आंतरिक सत्य हैं और तुम्हारे लिए केवल कल्पना की बात। कल्पना से कैसे तुम तरंगित होते, कैसे नाच उठता, कैसे पुलक जगती? यूं समझो कि जैसे भोजन की कोई कल्पना करे, उससे कैसे पेट भरे ? प्यास लगी हो और पानी की कोई कल्पना करे, उससे कैसे तृप्ति हो? पानी चाहिए। लेकिन यह तुम्हारी ही भ्रांति नहीं थी, यह करोड़ों-करोड़ों लोगों की भ्रांति है। कल्पना सस्ती होती है, सत्य मंहगा--सत्य बहुत मंहगा -- प्राणों से दाम चुकाने पड़ते हैं। कल्पना के लिए तो कुछ करना ही नहीं होता, जब चाहो तब कर लो, मन की मौज है। मीरा ने सब गंवाया। कल्पना के लिए कोई कुछ भी नहीं गंवा सकता। लेकिन मीरा को पढ़ोगे, उसके शब्द तुम्हें प्रभावित कर सकते हैं। उन शब्दों में रस है। उन शब्दों में अनुगूंज है मीरा की वीणा की, मीरा की पायल की झंकार, लेकिन उन शब्दों से तुम सत्य तक न जा सकोगे। उन शब्दों को तुम प्रेरणा स्रोत बना लोगे, तो सपनों में खो जाओगे। ऐसे ही सपने में तुम खो गए थे। मीरा ने तुम्हें प्रभावित किया । और स्वभावतः, मीरा ने प्रभावित किया तो कृष्ण तुम्हारे इष्टदेव हो गए। अब यह दूर कोयल की आवाज सुनते हो! ऐसी आवाज तुम भी कर सकते हो, कुहू कुहू करने में कोई कठिनाई तो नहीं। मगर वह होगी नकल । तुम्हारे प्राणों में कुछ भी न होगा, बस कंठ में ही होगी बात, ऊपरऊपर होगी। जीवन नहीं होगा। सत्य नहीं होगा। यथार्थ नहीं होगा। तुम दोहरा दोगे। और यह भी हो सकता है कि तुम कोयल से भी बाजी मार लो, क्योंकि नकलची नकल का अभ्यास कर सकता है, गहन अभ्यास कर सकता है। लेकिन अंतिम परिणामों में तो तुम हारोगे, बुरी तरह हारोगे, क्योंकि तुम्हारे हाथ में कुछ होगा। कृष्ण की मूर्ति पर तुमने अपनी सारी कल्पनाओं का प्रक्षेपण कर दिया। कृष्ण की मूर्ति तो केवल एक सहारा बन गई, एक खूंटी बन गई, जिस पर तुम कल्पनाओं और भावनाओं को टांगते चले गए। मेरे पास तुम आए तो कृष्ण भूल गए । इसलिए भूल गए कि जो तुम चाहते थे सदा से घटना, वह घटने लगा। अब क्यों कोई कल्पना करे ! जब वस्तुतः जलधार मिल गई, तो क्यों कोई कल्पना और सपना देखे जल का! भूखे आदमी ही रात भोजन के सपने देखते हैं; जिनके पेट भरे हैं, वे नहीं। भिखमंगे ही सपने देखते हैं सम्राट होने के, सम्राट नहीं। यहां तो वस्तुतः पुलक पैदा होने लगी। तुम्हारे भीतर की कोयल जाग उठी। अब तुम्हें यहां कोई काल्पनिक कृष्ण के सहारे नहीं जीना है। यहां वस्तुतः जिसे तुम खोजते थे उसकी मौजूदगी है, उस ऊर्जा में तुम जी रहे हो, वह ऊर्जा तुम पर बरस रही है। मैं तुम्हें कल्पना नहीं सिखाता, मैं तुम्हें ध्यान सिखाता हूं। और ध्यान सीखने का अर्थ ही होता हैः कल्पनाओं से मुक्त हो जाना; मन से ही मुक्त हो जाना। फिर कैसी कल्पना, कैसी स्मृति, कैसा विचार! इसलिए सब गया -- तुम्हारी कल्पना गई, तुम्हारी भावना गई, तुम्हारी पूजा गई, तुम्हारी अर्चना गई। और स्वभावतः अब उस खूंटी को देख कर तुम्हें शर्म आती होगी कि इस खूंटी के सहारे तुमने कितना अपने को धोखा दिया! इसलिए आज कृष्ण की छवि को देखते भी तुम्हें संकोच होता है। आंखें मिलाते भी तुम्हें संकोच होता है। उस संकोच में सिर्फ एक बात की घोषणा है कि तुम्हें अपनी ही नासमझी याद आती है। उस संकोच का कृष्ण से कोई संबंध नहीं है। वर्षों तक तुमने जो नासमझी की, कैसे कर सके इतनी नासमझी --यही याद आता है। यह याद आकर पीड़ा होती है, शर्म से सिर झुक जाता है। लेकिन कृष्ण पर कल्पना करने की जरूरत न रही; वास्तविक से तुम्हारा संबंध होना शुरू हो गया है। इसलिए तुम कह रहे हो आज कि "मैं तरंगित हुआ; मैं रोया; मैं हंसा । " यही तो तुम चाहते थे। जो तुम च
ाहते थे, वह हो गया है। अब क्यों तुम व्यर्थ के सहारे खोजोगे! कृष्ण तुम्हें मिल गए। तुम्हें मैंने नाम ही "कृष्ण चैतन्य" इसीलिए दिया था। यही देख कर दिया था कि कृष्ण से तुम्हारा गहरा लगाव है। लेकिन झूठे कृष्ण को तो छोड़ना पड़ेगा। वह तुम्हारी कल्पना थी । और तुम जब कल्पना छोड़ दोगे, तो सत्य का साक्षात हो सकता है। सच्चे कृष्ण में तो क्राइस्ट भी समाए हुए हैं, बुद्ध भी, महावीर भी, जीसस भी--जिन्होंने भी जाना है सत्य को, वे सभी समाए हुए हैं। कृष्ण शब्द बड़ा प्यारा है। कृष्ण का अर्थ होता हैः जो आकृष्ट कर ले, जो खींच ले। जादू, कृष्ण का अर्थ होता है। उस जादू में तुम आ गए। किसी ने तुम्हें खींच लिया। उस गुरुत्वाकर्षण में तुम हो अब । अब तस्वीरों का क्या करोगे? जब मालिक मिल जाए तो तस्वीरों का क्या करना है? सब तस्वीरें फीकी पड़ जाती हैं। सब तस्वीरें झूठी हो जाती हैं। एक महिला ने प्रसिद्ध चित्रकार पिकासो से कहा, कल तुम्हारी एक तस्वीर, तुम्हारी एक फोटो एक घर में टंगी देखी। बड़ी प्यारी थी। किसी बड़े महत्वपूर्ण छविकार ने, फोटोग्राफर ने उतारी होगी। मुझे तो इतनी प्यारी लगी कि मैं उसे बिना चूमे न रह सकी। पिकासो ने कहा, फिर क्या हुआ? तस्वीर ने तुम्हें चुंबन का उत्तर दिया या नहीं? उस महिला ने बहुत चौंक कर पिकासो को देखा। उसने कहा, आप होश में हैं? तस्वीर कहीं चुंबन का उत्तर दे सकती है? पिकासो ने कहा, तो फिर वह मैं नहीं था। मुझे चूमो, और तब तुम भेद पाओगी। वह सिर्फ कागज ही था, भ्रांति थी। अगर तस्वीर ने उत्तर न दिया, तेरी जैसी प्यारी स्त्री के चुंबन का कोई उत्तर न मिला, तस्वीर कुछ बोली भी न, धन्यवाद भी न दिया, तुझे गले से भी न लगाया, वह झूठी थी। वह मैं नहीं था, इतना मैं तुझसे कहता हूं। पिकासो ठीक कह रहा है। कृष्ण चैतन्य, तुम कृष्ण की तस्वीर से बंधे थे इतने दिन तक। यहां आकर तुमने कृष्ण के यथार्थ को पहचाना है, जाना है। अब क्यों तस्वीर तुम्हें बांधेगी? लेकिन प्रश्न उठना स्वाभाविक है। तुम पूछते होः "यह क्या है भगवान? संकोच लगता है उस छवि के पास जाते, आंखें मिलाते भी, कि जिसे मैंने वर्षों पूजा, जिसकी अर्चना की!" संकोच इसीलिए लगता है। यह सोच कर, यह विचार कर कि मैं भी कैसा पागल था! मैं क्या कर रहा था! मैं कैसे बचकानेपन में खोया था! मैं कैसी नासमझी कर रहा था! लेकिन तुम सौभाग्यशाली हो, समय रहते जाग गए। बहुत हैं अभागे जो यूं ही मर जाएंगे, यूं ही तस्वीरों में अटके मर जाएंगे। शास्त्रों में जो अटका है, वह तस्वीरों में अटका है। मूर्तियों में जो अटका है, वह झूठों में अटका है। सत्य के खोजी को जीवंत गुरु खोजना होता है, उसके सिवाय कोई उपाय न कभी था, न है, न होगा। और जीवंत गुरु के साथ जुड़ना निश्चित ही साहस का काम है--दुस्साहस का काम है। क्योंकि जीवित गुरु के साथ जुड़ने का अर्थ हैः अहंकार की मृत्यु । जो मरने को राजी है, वही शिष्य हो सकता है। जो अपने को बचाए, वह शिष्य नहीं हो सकता। मूर्ति में यही तो सुविधा है-- तुम जब चाहो कृष्ण को लिटा दो, जब चाहो बिठा दो, जब चाहो भोग लगा दो, जब चाहो घंटी बजाओ, पूजा करो -- जो तुम्हें करना हो करो--जब पट खोलने हों मंदिर के, खोल दो; जब बंद करने हों, बंद कर दो। कृष्ण न हुए, तुम्हारे खिलौने हैं। जीवित सदगुरु के साथ तो तुम ऐसा न कर सकोगे। जीवित सदगुरु पर तो तुम्हारा कोई वश न चलेगा। जीवित सदगुरु के साथ तो मामला उलटा ही हो जाएगा -- उसका वश तुम पर चलेगा, उसका जादू तुम पर चलेगा। इसलिए तो लोग मुर्दों की पूजा करते हैं। जीसस मर जाते हैं, तब करोड़ों लोग ईसाई हो जाते हैं। जीसस जब जिंदा थे, तो सौ-पचास आदमी भी जीसस के साथ नहीं थे। जीसस को जिस दिन सूली लगी, उस दिन उनके शिष्य भी भाग गए थे। क्या खाक शिष्य रहे होंगे! जिस रात जीसस पकड़े गए, जब दुश्मन उन्हें ले चले, तो उनका एक शिष्य पीछे हो लिया। जीसस ने यूं कहा जैसे हवा में बोल रहे हों, जैसे आकाश से बात कर रहे हों। कहा कि लौट जा! क्योंकि सुबह होने के पहले, इसके पहले कि मुर्गा बांग दे, तू तीन बार मुझे इनकार करेगा। निश्चित ही शिष्य समझ गया। और लोग तो जरा हैरान हुए ! लेकिन लोग तो समझते ही थे कि यह आदमी पागल है। यह क्या कह रहा है, किससे कह रहा है--मुर्गा बांग देगा उसके पहले तीन बार तू मुझे इनकार करेगा! लेकिन शिष्य समझ गया। उसने मन ही मन में कहा --इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि जोर से कहता "कभी नहीं," क्योंकि तभी पकड़ लिया जाता--मन ही मन में कहा कि कभी नहीं। लेकिन जीसस ने कहा, मैं कहता हूं, तू तीन बार इनकार करेगा मुर्गे के बोलने के पहले। और यही हुआ। थोड़ी ही देर बाद, जो दुश्मनों की भीड़ जीसस को पकड़ कर ले जा रही थी--रात थी, अंधेरी थी, मशालें जला रखी थीं--उन्होंने देखा कि एक अजनबी सा आदमी साथ में है, जो उनका परिचित नहीं है, ज
ो उनका साथी तो निश्चित नहीं है। यह कौन है? उन्होंने पूछा उससे कि तुम कौन हो? क्या तुम जीसस के साथी हो? उसने कहा कि नहीं। कौन जीसस ? मैं तो पहचानता भी नहीं। मैं तो बाहर से आया हुआ एक यात्री हूं। मुझे भी शहर की तरफ जाना है, मशालों की रोशनी देख कर साथ हो लिया हूं। जीसस हंसे और उन्होंने कहा, देखा, अभी मुर्गे ने बांग नहीं दी है। चौंका शिष्य कि एक दफे तो इनकार कर दिया, मगर अब नहीं करूंगा। जीसस ने कहा, तू देख तो । तू तीन बार इनकार करेगा। और ऐसा हुआ बार-बार । फिर थोड़ी देर बाद किसी दूसरे ने पूछा कि तू है कौन? तेरा ढंग संदिग्ध मालूम पड़ता है। क्योंकि वह छिपा - छिपा सा, चोर-चोर सा मालूम हो रहा था। अपने को बचाने की कोशिश में लगा था। रोशनी में चेहरा न आ जाए, ऐसा- ऐसा चल रहा था, अंधेरे-अंधेरे में दब कर । तू है कौन? उसने कहा, मैं एक अजनबी हूं। बाहर के गांव से आया हुआ हूं। इस गांव के रास्तों से परिचित नहीं हूं, इसलिए साथ हो लिया हूं। उस आदमी ने पूछा, तू इस आदमी को पहचानता है जिसको हम पकड़ कर ले जा रहे हैं? उसने कहा, कभी देखा नहीं । जीसस ने कहा, देखा, अभी मुर्गे ने बांग नहीं दी और दो बार तू इनकार कर चुका! उसने भीतर ही भीतर कसम खाई कि कसम खाता हूं अब, कसम तुम्हारी, कसम परमात्मा की, नहीं तीसरी बार इनकार करूंगा। मगर सुबह होने के पहले तीसरी बार भी इनकार करनी ही पड़ी। और बाकी तो भाग ही गए थे। यह एक गया भी था तो तीन बार इनकार कर दिया! जब जीसस को सूली लगी और उन्होंने पानी मांगा। ... क्योंकि यहूदियों का जो सूली देने का ढंग था वह बहुत बेहूदा था, बहुत ही आदिम था। आदमी को हाथों में, पैरों में खीले ठोंक कर तख्ते पर जड़ देते थे। आदमी इतनी आसानी से नहीं मरता, उसके गले में फांसी भी नहीं लगाते थे, तो किसी को छह घंटे लगते मरने में, किसी को बारह घंटे लगते, किसी को अठारह घंटे लगते, किसी को चौबीस घंटे, किसी को अड़तालीस घंटे। कभी-कभी तो यूं होता कि आदमी को मरने में तीन दिन लग जाते, क्योंकि खून धीरे-धीरे बहता, बहता--हाथ से, पैर से, बहते-बहते आदमी क्षीण होता और मरता। जीसस को प्यास लगी और उन्होंने कहा, मुझे प्यास लगी है, कोई मुझे पानी पिला दो। वह एक शिष्य मौजूद था। उसकी इतनी भी हिम्मत नहीं हो सकी कि जीसस को पानी पिला दे। वह भीड़ में चुपचाप ही खड़ा रहा। जिंदा गुरु के साथ होना खतरनाक मामला है-- बहुत खतरनाक सौदा है। और वे जो ग्यारह भाग गए थे और यह बारहवां साथ था, ये ही बारह जीसस के गणधर हुए। इन्हीं बारह को अवसर मिला ईसाइयत को पैदा करने का। अब तुम समझ लो कि ईसाइयत शुरू से ही झूठ हो गई । आज करोड़ों लोग ईसाई हैं। आज ईसाई होना बड़ी सुविधा की बात है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है। इसमें कुछ उपद्रव नहीं है। आज कितने लोग ईसा के सामने आंसू बहाते हैं बैठ कर--तस्वीर के सामने। आज कितने घरों में सूली पर लटके हुए ईसा की तस्वीर या मूर्ति है! कितने लोग चर्चों में जाते हैं ! आज रविवार का दिन है, सारी दुनिया में चर्च ईसाइयों से भरे होंगे। प्रवचन दिए जा रहे होंगे, पादरी समझा रहे होंगे। लेकिन अब कुछ खतरा नहीं है। अब मजे से बात सुनो, चर्चा करो। अब इसमें कुछ लेना-देना नहीं है। अब कुछ अड़चन नहीं है। लेकिन जीसस के साथ कितने लोग थे? बुद्ध के साथ कितने लोग थे ? आज पूरा एशिया बौद्ध है, तब कितने लोग बुद्ध के साथ खड़े हुए? महावीर के साथ कितने लोग खड़े थे? नानक के साथ कितने लोग खड़े थे? कबीर के साथ कितने लोग खड़े थे? कारण साफ है--जिंदा गुरु के साथ होने में तलवार की धार पर चलना है। कल्पना करने में क्या कठिनाई है! बैठो और जो कल्पना करना हो करो--कृष्ण की करो, बुद्ध की करो, क्राइस्ट की करो -- तुम्हारी मौज है। और जैसी करना हो, जैसा रंग भरना हो कल्पना में वैसा रंग भरो। कृष्ण चैतन्य, तुम सौभाग्यशाली हो कि कल्पना की तूलिका से ही रंग नहीं भरते रहे। तुम सौभाग्यशाली हो कि जिस बात की तुम्हें अपेक्षा थी, जिसे तुमने चाहा था, वह घट सकी; जो तुम्हारी अभीप्सा थी, वह पूरी हो सकी। तुमने हिम्मत की तो पूरी हो सकी । तुमने साहस किया तो पूरी हो सकी। तुम चल पड़े। और जो चल पड़ा उसकी मंजिल दूर नहीं है । संकोच तुम्हें इसलिए नहीं लगता कि कृष्ण से तुम्हें कुछ एतराज है। कृष्ण से क्या एतराज होगा! कृष्ण का तो मैं दीवाना हूं। कृष्ण को जितना प्रेम मैं कर रहा हूं, संभवतः मीरा ने भी नहीं किया होगा। कृष्ण की जैसी प्रतिष्ठा मेरे भीतर है, शायद ही किसी के भीतर रही होगी। यह तुम्हारे भीतर जो संकोच उठ रहा है, वह कृष्ण के प्रति नहीं है, वह अपनी ही नासमझी के प्रति है। लेकिन अब उस खूंटी को देख कर तुम्हें अड़चन होती होगी कि अरे, मैं इसी खूंटी से बंधा था ! यही खूंटी सबूत है मेरे बंधनों का। मेरी अर्चना, मेरी पूजा--सब झूठी थी। इतने दिन मैं कैसे धोखा खाया
, कैसे अपने को धोखा दिया--इससे तुम्हें संकोच पैदा होता है। लेकिन सच यह है कि तुम पहली बार कृष्ण के करीब आने शुरू हुए हो। और पहली बार तुम्हारे भीतर भी मीरा जैसी पुलक पैदा हुई है। पहली बार तुम्हारे पैरों में भी नृत्य की क्षमता आई है, तुम्हारा हृदय भी गीत गा रहा है। तुम्हारे जीवन में धन्यता का क्षण आ गया है। दूसरा प्रश्नः ओशो! उज्जैन के सिंहस्थ मेले में उस स्थान पर काफी भीड़ होती थी जहां नागा साधु लैंगिक प्रदर्शन करते थे। जैसे लिंग से बांध कर जीप गाड़ी को खींचना, आदि। क्यों नग्न प्रदर्शन करने व नग्नता देखने में लोग उत्सुक होते हैं, और लोग उनकी तारीफ करते हैं? और जब आपके आश्रम में ऐसा कोई कृत्य नहीं होता, फिर भी लोग क्यों आप पर और आपके आश्रम पर नाराज हैं? कृष्ण वेदांत! इस देश का मन बहुत कुंठित मन है। और इस देश की कुंठा का जो मूल आधार है, वह है कामवासना का दमन। इस तरह दबाया है सदियों से कामवासना को कि वह अनेक विकृत रूपों में प्रकट होती है। ये विकृतियां हैं। वह जिन्हें तुमने देखा प्रदर्शन करते, वे भी विक्षिप्त लोग हैं। अब यह क्या पागलपन है? इसका धर्म से क्या संबंध हो सकता है? परमात्मा ने मनुष्य को जननेंद्रिय जीप गाड़ियां खींचने के लिए नहीं दी है। यह कौन सी धार्मिकता है? अगर यह धार्मिकता है तो फिर मूढ़ता किसको कहोगे? यह तो निपट गंवारी है। यह तो निपट शोषण है। लेकिन वे नागा साधु एक बात से भलीभांति परिचित हैं कि भारत का मन नग्नता में बहुत उत्सुक है। जितनी निंदा करता है, उतना ही उत्सुक है। वह निंदा भी उत्सुकता के ही कारण है। वह निंदा भी गहरे में उत्सुकता को दबाए बैठी है। सदियों से दबाई गई है बात, उभर-उभर कर आती है। और एक नियम समझ लेना कि जो प्राकृतिक है, उसे अगर दबाओगे तो वह अप्राकृतिक होकर प्रकट होगा। कुछ भी प्राकृतिक दबाया कि अप्राकृतिक ढंग से प्रकट होना निश्चित है। उससे बचना असंभव है, जब तक कि तुम्हारी प्रकृति रूपांतरित न हो। और प्रकृति के रूपांतरण में दमन का कभी कोई सहयोग नहीं होता। बाधा पड़ती है दमन से रूपांतरण में । तुम जिसे दबा लेते हो उसका कभी रूपांतरण न कर सकोगे। भारतीय मन जितना कामवासना से पीड़ित है उतना पृथ्वी पर कोई दूसरी जाति का मन, देश का मन नहीं है। और कारण? कारण कि भारत का धर्म बड़ा पुराना है, और सदियों से हमें एक ही बात सिखाई जा रही है कि कामवासना पाप है। क्यों आखिर कामवासना के विरोध में इतना प्रचार किया गया है ? एक सीधे से कारण से । मनुष्य को अगर अपराध के भाव से भरना हो, तो सबसे सुगम उपाय यह है-उसकी किसी ऐसी नैसर्गिक वृत्ति को पाप घोषित कर दो, जिसको वह लाख चाहे तो भी बदल न सके। स्वभावतः उसके भीतर अपराध-भाव की वृत्ति पैदा हो जाएगी। और जैसे ही व्यक्ति में अपराध-भाव पैदा हो जाता है, पंडित और पुरोहित को उसका शोषण करने का मौका मिल जाता है। अपराध-भाव से भरा हुआ व्यक्ति डरा हुआ व्यक्ति हो जाता है, घबड़ाया हुआ व्यक्ति हो जाता है। फिर उसे नर्क से डराओ तो वह डरता है, क्योंकि वह जानता है मैं पापी हूं। जो पापी नहीं है, वह क्यों नर्क से डरेगा? जो पापी नहीं है, उसे नर्क की धारणा में ही कुछ अर्थ नहीं मालूम होता। कोई नर्क कहीं भी नहीं है। वह सिर्फ तुम्हारी अपराध-भावना के कारण ही तुम्हारे मन में पुरोहित पैदा करने में सफल हो पाए हैं। और उन्होंने उसके ही दूसरे अंग की तरह स्वर्ग का प्रलोभन दिया है। लोभ और भय के बीच में आदमी को पीस डाला है। और पुरोहित का धंधा आदमी के शोषण का धंधा है। और जिस आदमी का भी शोषण करना हो, पहले उसे कमजोर बनाना जरूरी है। अगर वह शक्तिशाली है, अगर वह अपने निज के पैरों पर खड़ा है, खुद की बुद्धि पर उसे भरोसा है, तो तुम उसका शोषण न कर सकोगे। न तुम उसे गुलाम बना सकोगे। वह अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करेगा। वह अपनी प्रतिभा से जीएगा। वह ये दो कौड़ी के पंडित और पुरोहितों के चरण छूने नहीं जाएगा। लेकिन एक बार उसको कंपा दो, डरा दो, घबड़ा दो; एक बार उसके भीतर भय की लहर दौड़ा दो और लोभ का बवंडर खड़ा कर दो, बस फिर ठीक । फिर वह किसी के भी हाथ में पड़ जाएगा। फिर कोई भी उसका शोषण कर सकता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी भी बुद्धुओं के हाथ के नीचे पड़ गए हैं। पश्चिम का बहुत बड़ा वैज्ञानिक नाइल्सबोर, नोबल प्राइज विजेता था, उससे एक अमरीकी गणितज्ञ मिलने आया था। वह देख कर हैरान हुआ कि नाइल्सबोर ने अपने बैठकखाने में अपनी टेबल के पीछे ही, घोड़े के पैर में जो लोहे का टुकड़ा हम ठोंक देते हैं, जिससे वह चलने में सीमेंट की रोड पर तकलीफ न पाए, तेजी से दौड़ सके--हॉर्स शू--उसको उसने उलटा लटका हुआ देखा। पश्चिम में यह धारणा है कि हॉर्स-शू अगर उलटा लटका हुआ हो तो मंगलदायी है। वह अमरीकी गणितज्ञ तो बड़ा हैरान हुआ कि नाइल्सबोर जैसा वैज्ञानिक इस तरह के अंधविश
्वास में भरोसा करता होगा! उसने कहा, और बातें पीछे होंगी, पहले मैं यह पूछना चाहता हूं कि यह आपने अपनी कुर्सी के पीछे हॉर्स-शू को उलटा क्यों लटका रखा है? क्या आप भी अंधविश्वासी हैं? आप जैसा व्यक्ति! यह तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। क्या आप भी सोचते हैं कि इसको उलटा लटका रखने से मंगल होगा, शुभ होगा? नाइल्सबोर हंसा और उसने कहा, कभी नहीं, मैं इस तरह के अंधविश्वासों में भरोसा करता ही नहीं। मेरी इसमें कोई श्रद्धा नहीं है । तो फिर उसने कहा, फिर आप मुझे और हैरान करते हैं। फिर क्यों इसे लटका कर रखा हुआ है अपने कमरे नाइल्सबोर ने कहा, लेकिन जिस पुरोहित ने मुझे यह दिया है, उसने कहा है कि श्रद्धा हो या न हो, विश्वास हो या न हो, मगर मंगल तो होता ही है। लटकाओ। मुझे श्रद्धा नहीं है। मगर उसने कहा--श्रद्धा हो या न हो, लाभ तो होगा ही। सो मैंने सोचा हर्ज क्या है लटकाने में! अपना बिगड़ता क्या है लटकाने में। बड़े से बड़े वैज्ञानिक के भीतर भी वही मूढ़ता, वही भय-मंगल हो जाए, शुभ हो जाए! कुछ भी बेवकूफी करवाना आसान है आदमी से, मगर पहले उसे डराओ, घबड़ाओ। और सबसे आसान तरकीबें दो हैं और दोनों का धर्मों ने उपयोग किया है। एक तो है भोजन, क्योंकि आदमी बिना भोजन के जी नहीं सकता। इसलिए कुछ धर्मों ने भोजन पर हमला बोल दिया है - यह मत खाओ, वह मत खाओ। उन्होंने इतने नियम बना दिए हैं कि आदमी का जीना मुश्किल कर दिया है। और स्वभावतः आदमी स्वादिष्ट भोजन करना चाहेगा। करेगा तो अपराध-भाव पैदा होता है। नहीं करेगा तो तड़फेगा, परेशान होगा, हैरान होगा, मुश्किल में पड़ेगा। अगर नियम मान कर चले तो मुसीबत । अगर तुम ठीक-ठीक सारे नियम मान कर चलो तो जिंदा रहना मुश्किल । शायद ही कोई चीज बचती है जो तुम खा सको। क्या खाओगे? सिर्फ पके हुए फल, जो अपने आप गिरते हैं वृक्ष से, वे खाए जा सकते हैं। वे भी तभी तक, जब तक बहुत मीठे न हो गए हों। क्योंकि जैसे ही बहुत मीठे हो जाते हैं, उनमें कीटाणु पैदा हो जाते हैं। उनकी मिठास कीटाणु ले आती है। तो हिंसा हो जाएगी। अब यह समझना। जब तक वे बहुत न पक जाएं, अपने से गिरेंगे नहीं । बहुत पक जाएंगे, उनमें कीटाणु पैदा हो जाएंगे। असल में पकने की जो प्रक्रिया है वह बैक्टीरिया से ही होती है, कीटाणुओं से ही होती है। वह जो मिठास है, वह भी बैक्टीरिया की ही प्रक्रिया है, वह भी कीटाणुओं के द्वारा ही पैदा होती है। तो जब फल पूरा पकेगा, वह कीटाणुओं से भर जाएगा, तभी वह अपने आप गिरेगा। अगर फल कच्चा है, तो उसमें कीटाणु अभी कम हैं, इसलिए पका नहीं है। जब तक कच्चा है, अगर तुम तोड़ते हो तो वृक्ष को चोट पहुंचती है। और वृक्ष में जीवन है। फल तोड़ कर खा सकते नहीं। फल तोड़ कर खाना भी पाप है। दूध पीते हो, वह भी पाप है। तुम शायद चौंकोगे, क्योंकि भारत के धर्म ऐसा नहीं मानते। लेकिन क्वेकर हैं ईसाइयों में, वे दूध पीने को पाप मानते हैं। और उनकी बात में भी बल है। वे कहते हैं कि दूध जो है वह एक तरह से मां का रक्त ही है, खून ही है। आखिर अंडा जैसे शरीर से आता है वैसे ही खून भी शरीर से आता है। इसीलिए तो दूध पीने से तुम्हारा खून बढ़ जाता है, चेहरे पर सुर्खी आ जाती है। खून बढ़ाने के लिए दूध से बढ़िया और कोई चीज नहीं है । तो दूध पीना मत। एक क्वेकर मेरे घर में मेहमान थे। मैंने उनसे सुबह पूछा, आप चाय लेंगे, काफी लेंगे, दूध लेंगे--क्या लेंगे? वे ऐसे चौंके जैसे मैंने उनसे कोई बहुत गहन अपराध करने के लिए निवेदन किया हो। उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मैं और काफी, चाय और दूध? कभी नहीं! क्या आप दूध पीते हैं? मैंने कहा कि आप तो इतने गर्म हुए जा रहे हैं, मामला क्या है? उन्होंने कहा, मामला यह है कि दूध पीना तो पाप है। कोई क्वेकर दूध नहीं पी सकता। हालांकि सब क्वेकर दूध पीते हैं, मगर तब पाप का भाव पैदा होता है, तब अपराध का भाव पैदा होता है। काफी पी नहीं सकते, चाय पी नहीं सकते, उसमें दूध डालना पड़ेगा। और अगर दूध न भी डालो तो भी चाय में निकोटिन है। निकोटिन की वजह से चाय पी नहीं सकते। निकोटिन यानी नशा। काफी, कोको में भी नशा है। वही निकोटिन जो सिगरेट में होता है। क्या खाओगे? क्या पीओगे? कैसे जीओगे? जीना असंभव कर दिया उन्होंने। अगर उनकी तुम बात मान कर चलो तो सिवाय भूखे मरने के कोई उपाय नहीं है। और स्वभावतः, भूखे मरोगे तो दिन-रात भोजन की सोचोगे। तुम पूछ सकते हो, जो लोग पर्युषण में-- जैनियों से-- कि दस दिन का व्रत-उपवास करते हैं, दस दिन क्या सोचते हैं? आत्मा-परमात्मा की याद आती है? ऐसे कभी-कभी आ भी जाती हो आत्मा-परमात्मा की याद, मगर उन दस दिनों में कभी नहीं आती। उन दस दिनों में तो बस पकवानों की याद आती है। कहां का परमात्मा! एक से एक अदभुत चीजें दिखाई पड़ती हैं-रसगुल्ले तैरते हुए दिखाई मालूम होते हैं! पकौड़े उड़ रहे
हैं, पंख लग गए हैं पकौड़ों को! रात क्या-क्या कल्पनाएं और सपने दिखाई पड़ते हैं! और उससे भी पाप का भाव पैदा होता है, अपराध का भाव कि मैं कैसा पापी हूं! और वे मुनि महाराज हैं जो निरंतर गाली दे रहे हैं कि अपनी जीभ पर वश पाओ, काबू पाओ। तुम्हारी जीभ ही तुम्हें नर्क ले जाएगी। जिह्वा ही पाप का कारण है। ध्यान रखना, एक तो भोजन का उपयोग किया है आदमी को पापी करार देने में और दूसरा कामवासना का। और दोनों ही संयुक्त हैं। जैसे बिना भोजन के व्यक्ति नहीं जी सकता, वैसे ही बिना कामवासना के समूह नहीं जी सकता। अगर तुम्हारे मां-बाप कामवासना से भरे न होते तो तुम होते नहीं दुनिया में। अगर महावीर के मां-बाप कामवासना से भरे न होते तो महावीर न होते दुनिया में। अगर बुद्ध के मां-बाप कामवासना से न भरे होते तो बुद्ध न होते दुनिया में। तुम जरा सोचो तो कि ये दस-पांच लोग अगर ब्रह्मचारी होते तो यह जमीन की क्या गति होती! महावीर, बुद्ध, जीसस, कृष्ण, जरथुस्त्र, लाओत्सु, कबीर, नानक - इनके मां-बाप अगर ब्रह्मचारी होते तो क्या हालत होती जमीन की! यहां रेगिस्तान ही रेगिस्तान होता। यहां आदमियत नाम को न मिलती। वह तो भला हो इनके मां-बापों का कि उन्होंने बकवास नहीं सुनी पंडित पुरोहितों की । उनको ब्रह्मचर्य का भूत सवार नहीं हुआ। मगर भीतर कहीं न कहीं पाप का दंश तो रहा होगा, कि हम यह क्या कर रहे हैं--पाप कर रहे हैं! समाज जीता है कामवासना से। वह समाज का भोजन है। इसलिए कामवासना और भोजन दोनों जुड़े हैं। अगर तुम्हें भोजन न दिया जाए तो तुम्हारी कामवासना भी मर जाएगी । इक्कीस दिन के उपवास के बाद कामवासना क्षीण हो जाती है। इसलिए जो लोग लंबा उपवास करते हैं, वे इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि उनकी कामवासना समाप्त हो गई। समाप्त वगैरह कुछ नहीं हुई, सिर्फ सूख गई। फिर से भोजन दो, फिर सजग हो जाएगी। कुछ बदला नहीं है। जैन मुनियों को यह भ्रांति होती है कि कामवासना को उन्होंने विजय कर लिया है। क्योंकि भोजन इतना कम करते हैं कि वह उनकी जरूरतें ही न्यूनतम शरीर की पूरी नहीं कर पाता। कामवासना तो पैदा होती है जब तुम्हारे भीतर इतना भोजन जाए कि तुम्हारी जरूरतों से ज्यादा ऊर्जा पैदा हो -- तब कामवासना पैदा होती है। कामवासना तो यूं समझो कि तुम्हारे जीवन का फूल है। जिस वृक्ष को ऊर्जा ही नहीं मिल रही, उसमें क्या खाक फूल लगेंगे! उसमें पत्ते ही नहीं लगते, फूल तो बहुत दूर । वह तो सूखा डंठल रह जाएगा। सदियों तक मनुष्य को पापी करार दिया गया है। और पापी करार देने का परिणाम यह हुआ है कि प्रत्येक व्यक्ति बहुत गहरे में उन्हीं बातों में उत्सुक हो गया है, आतुर हो गया है, जिन बातों का निषेध किया गया है। निषेध का एक गुण होता हैः इनकार करो-रस पैदा होता है। जिस बात का इनकार करो, उसी में रस पैदा हो जाता है। इसलिए कृष्ण वेदांत, तुम कहते होः "सिंहस्थ मेले में उस स्थान पर काफी भीड़ होती थी।" होगी ही। भारत है यह। दुनिया में कोई और देश होता, तो इन नागा साधुओं को पकड़ कर पागलखाने में रख दिया जाता। इनका इलाज किया जाता। इनको बिजली के शॉक दिए जाते। ये होश में नहीं हैं। ये क्या कर रहे हैं! ये विक्षिप्त हैं। मगर यहां ये महात्मा हैं! यहां पागल परमहंस समझे जाते हैं! यहां विक्षिप्त मुक्त समझे जाते हैं! और भीड़ तो वहां सबसे ज्यादा होगी, क्योंकि ऐसा मौका क्यों चूकना ! नग्न आदमी को देखने की आकांक्षा तो बड़ी प्रबल है। और फिर इस तरह के बेहूदे प्रदर्शन... तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि इस तरह के बेहूदे प्रदर्शनों को देखने लिए भीड़ इकट्ठी होती है और इसका कोई विरोध नहीं है। विरोध क्यों होगा? यह सदियों पुरानी परंपरा है। यह परंपरावादी देश है। यह रूढ़िवादी देश है। यहां कोई भी मूर्खता पुरानी होनी चाहिए, बस फिर ठीक है। जितनी पुरानी हो उतनी ज्यादा ठीक है। तुम पूछ रहे हो कि आपके आश्रम में ऐसा कोई कृत्य नहीं होता, फिर भी लोग आप पर और आपके आश्रम पर नाराज हैं । उनके नाराज होने का कारण ही यही है कि मैं रूढ़िवादी नहीं हूं, परंपरावादी नहीं हूं। मैं रूढ़ि-विरोधी हूं, परंपरा-विरोधी हूं। मैं अतीत-विरोधी हूं। मैं राष्ट्र-विरोधी हूं, जाति-विरोधी हूं, वर्ण-विरोधी हूं। मैं चाहता हूं कि तुम्हें सारी सीमाओं से मुक्त कर दूं, तुम पर कोई सीमा न रह जाए । तुम सिर्फ चैतन्य हो, इसका बोध पर्याप्त है। तुम साक्षी मात्र हो। तुम देह भी नहीं हो तो भारतीय कैसे हो सकते हो? हिंदू कैसे हो सकते हो? मुसलमान कैसे हो सकते हो? ये सब तो मन के खेल हैं, मन के जाल हैं। तो मुझसे तो हिंदू भी नाराज होगा, मुसलमान भी नाराज होगा, ईसाई भी नाराज होगा। क्योंकि वे सभी परंपराओं में जी रहे हैं। उन सबका जीवन अतीत में है। और मैं चाहता हूं कि तुम अतीत से बिल्कुल मुक्त हो जाओ, तो ही तुम्हारे जीवन में वर्तमान से संस
्पर्श होगा। और वर्तमान ही परमात्मा है। और वर्तमान से जुड़ जाओ, तो परमात्मा का तुम्हें स्वाद मिले। इस तरह की मूर्खतापूर्ण चीजें, जैसे लिंग से बांध कर जीप गाड़ी को खींचना, बड़ी-बड़ी चट्टानों को उठाना--यह सदियों से चलता रहा है। मंदिर इसके अड्डे रहे हैं। आखिर खजुराहो, कोणार्क, पुरी के मंदिरों में सब तरह के लैंगिक प्रदर्शन हैं। उनकी दीवालों पर सब तरह की अश्लील से अश्लील मूर्तियां खोदी गई हैं। यूं भारतीय फिल्म में भी चुंबन पर बाधा डालेंगे, आलिंगन पर बाधा डालेंगे। चुंबन भी लो तो छह इंच की दूरी होनी चाहिए। और यही भारतीय मंदिरों में जाएंगे और इनको कोई अड़चन नहीं होगी। मंदिर में कोई भी मूर्खता चलती हो, चूंकि परंपरा उसके साथ है, इसलिए कोई अड़चन नहीं है, कोई बाधा नहीं है, कोई विरोध नहीं है। तुम भूल ही गए हो, तुम अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी ले जाते हो, क्योंकि साधु जो भी कर रहे हैं वह ठीक ही कर रहे हैं। यहां ठीक करने वाला साधु नहीं होता; यहां जो साधु है, वह जो करे वही ठीक है! मैं साधु नहीं हूं। मैं किसी परंपरा का न ऋषि हूं, न मुनि हूं, न महात्मा हूं। मैं बगावती हूं। मेरा कौन साथ दे? मेरा विरोध बिल्कुल स्वाभाविक है। मैं उसे अंगीकार करता हूं। मैं स्वागत भी करता हूं। चलो कुछ चहलपहल तो है। चलो कुछ आंधी तो उठी। चलो सदियों से जड़ बुद्धि में कुछ हलचल तो मची, कुछ तरंगें तो उठीं, कुछ जीवन का तो बोध हुआ। तुम जाते हो शंकर जी के मंदिर में, वहां शिवलिंग है। तुम्हें कभी संकोच नहीं लगता, शर्म नहीं लगती, अपने बच्चों को भी ले जाओगे, अपनी लड़कियों को भी ले जाओगे! हालांकि फिल्म देखने जाओगे तो पहले पता कर लोगे कि फिल्म वयस्कों के लिए है कि बच्चों के लिए भी है। फिल्मों में लिखा होता हैः सिर्फ वयस्कों के लिए। तब तुम अपने बच्चों को नहीं ले जाते, क्योंकि फिल्म में कुछ दृश्य होंगे स्त्री-पुरुषों के प्रेम के और वे तुम अपने बच्चों को नहीं दिखाना चाहते। लेकिन शंकर जी के मंदिर में क्या है? जिसको तुम शिवलिंग कहते हो, वह जननेंद्रिय का प्रतीक है। और सिर्फ पुरुष की जननेंद्रिय नहीं है वहां, उसी शिवलिंग के नीचे स्त्री की जननेंद्रिय भी है। पुरुष और स्त्री की जननेंद्रिय संभोग की अवस्था में हैं। मगर हम भूल ही गए हैं, क्योंकि परंपरागत है, स्वीकृत है, तो ठीक है। जो भी परंपरागत है, वह ठीक है! फिर उसमें कोई एतराज नहीं उठा सकता। नहीं तो अभद्र है, बेहूदा है । चुंबन में क्या खराबी हो सकती है? जब शुद्ध जननेंद्रियों के प्रतीक मंदिरों में रखे जा सकते हैं, तो चुंबन में क्या खराबी हो सकती है! दो स्त्री-पुरुषों के आलिंगन में क्या विरोध हो सकता है! और बच्चों से कब तक छिपाओगे? और छिपाने की जरूरत क्या है? जो सत्य है, सत्य है। बच्चे आज नहीं कल जानेंगे। तुमसे नहीं जानेंगे तो गलत रास्तों से जानेंगे, गलत स्रोतों से जानेंगे । और बेहतर यह है कि ठीक स्रोतों से जानें। मैं इस पक्ष में हूं कि फिल्मों में, जो-जो सत्य है, वैसा ही सत्य होना चाहिए, ताकि बच्चे सत्य से पहले से ही परिचित हों। नहीं तो एक दिन अड़चन खड़ी होती है --भारी अड़चन खड़ी होती है। बहुत दिनों तक हम बच्चों को अंधकार में रखते हैं, फिर एक दिन उनका विवाह कर देते हैं! फिर विवाहित युवक और युवती दोनों अपने को अपराधी अनुभव करते हैं। क्योंकि अब तक इस युवती को कहा गया था कि किसी पुरुष को छूना भी पाप है। अगर बीस वर्ष तक किसी युवती को कहा गया है कि किसी पुरुष को छूना भी पाप है, तो आज अचानक इस पुरुष के साथ सो जाना कैसे पुण्य हो सकता है! सो जाए भला, लेकिन प्राण सकुचाएंगे। भीतर पाप का बोध होगा। इसलिए मेरे अनुभव में... हजारों स्त्रियों ने मुझे कहा है कि हमारे पति हमें पाप में घसीटते हैं। पाप में घसीटते हैं, प्रेम में नहीं! उसका नाम है पाप। और उनका भी कोई कसूर नहीं है; उनको यही सिखाया गया था। बीस साल का संस्कार ऐसे छूट नहीं जा सकता। उनके प्राण पूरे के पूरे विषाक्त हो गए हैं। और फिर ऐसी स्त्रियां कैसे पति को पूरा का पूरा प्रेम दे सकती हैं? असंभव। वे मुर्दे की तरह पड़ी रहती हैं। फिर यह पति को इनसे कुछ रस नहीं मिलता। फिर यह दूसरी स्त्रियों में उत्सुक होता है। तब ईर्ष्या जगती है, वैमनस्य जगता है, क्रोध जगता है। और यही पुरुष फिर वेश्याओं को जन्म देता है। क्योंकि इसकी पत्नी तो बिल्कुल मुर्दे की तरह पड़ी रहती है, बिल्कुल ठंडी--उसमें जैसे कोई गर्मी नहीं, कोई जीवन नहीं। अगर वह गर्मी और जीवन बताए, तो यह भी एतराज उठाएगा कि यह अच्छा लक्षण नहीं है। अच्छी स्त्रियां रस नहीं लेतीं इन बातों में । ये तो बुरी स्त्रियां इन बातों में रस लेती हैं। यह बड़ी अजीब हालत हो गई। बुरी स्त्रियां रस लेती हैं बुरी बातों में, मगर वे ही जीवंत मालूम होती हैं। और अच्छी स्त्रियां तो इस तरह की
बातों में रस लेती नहीं! एक पुलिसवाले ने, एक स्त्री डूब गई सागर में, उसको खींच कर निकाला। सांझ हो रही थी, उसे तट पर लिटाया, बहुत कोशिश की उसे जिलाने की, मगर वह मर ही चुकी थी, तो बेचारा उसे वहीं छोड़ कर भागा पुलिस स्टेशन खबर करने । जब लौट कर आया तो देखा कि एक आदमी उससे संभोग कर रहा है। उसने उस आदमी को हिलाया और कहा, अरे मूरख, उठ, यह स्त्री मुर्दा है! उसने कहा, मुझे क्या मालूम, मैं समझा कि भारतीय है। भारतीय स्त्री को बिल्कुल मुर्दा-भाव से पड़े रहना चाहिए, हिलना-डुलना भी नहीं चाहिए ! हिली-डुली तो भी उसका मतलब हुआ कि वह कुछ रस ले रही है। उसको तो बिल्कुल आंख बंद करके पड़े रहना चाहिए, आंख भी नहीं खोलनी चाहिए। आंख खोली, मतलब यह कि वह रस ले रही है। आंख खोलना, मतलब खतरनाक है । प्रकाश भी बुझा देना चाहिए। तो रात के अंधेरे में, चुपचाप, बिना बोले... महाचोरी का कार्य हो रहा है! और इसी महाचोरी से फिर बच्चे पैदा होंगे। वे बच्चे भी कैसे होंगे ! उन बच्चों में भी क्या सौंदर्य होगा! उन बच्चों के पास भी क्या आत्मा होगी! मगर तुम शास्त्रों में एतराज नहीं उठाओगे। तुम्हारे पुराण बेहूदी कहानियों से भरे हैं। तुम्हारे मंदिर बेहूदे चित्रों से भरे हैं। ऐसी बेहूदी कहानियां कि तुम सोच कर भी चकित होओ, मगर शास्त्रों में हैं, तो सुंदर हैं। और मैं चूंकि उनका विरोध करता हूं, इसलिए स्वभावतः कौन मेरे पक्ष में खड़ा होगा! एक मित्र ने मुझे यह किसी पुराण से कहानी भेजी है। मुझे पता नहीं किस पुराण में है। जरूर होगी किसी पुराण में। एक बार पार्वती शिव से रूठ कर अपने मायके चली गईं और बहुत दिनों तक वापस नहीं लौटीं । शिवजी महाराज भी परेशान हो गए। उन्होंने नंदी से कहा, यार नंदी, मेरी प्रेम करने की बड़ी इच्छा हो रही है और पार्वती भी हैं कि अभी तक लौटी नहीं। ऐसा नहीं हो सकता कि भैया मैं तुझसे प्यार कर लूं? इस पर नंदी ने कहा, शिवजी महाराज, यह भी कोई बात है! क्या मैं आपके प्यार के लायक हूं? बहुत मनाने पर नंदी इस बात पर मान गया कि बाद में मैं भी फिर आपसे प्यार करूंगा। शिवजी ने नंदी बाबा से जी भर कर प्यार किया और जब नंदी बाबा की बारी प्यार करने की आई तो उठाया अपना डंडकमंडल और भागे। और बोले, अरे मूरख, तू बैल होकर और मुझसे प्यार करेगा? उल्लू के पट्टे, अपनी स्थिति इस पर नंदी बाबा को भी बहुत गुस्सा आया और वे भी पीछे-पीछे भागे। पर शिवजी एक मंदिर में घुस गए और अंदर बैठ गए -- नंगे ही। इसलिए शिव की प्रतिमा नग्न है । वह जो शिवलिंग है, वह नग्न प्रतिमा का प्रतीक है। इस पर नंदी मंदिर के सामने बैठ गया और बोला, शिवजी महाराज, आप जब बाहर निकलोगे तब आपसे प्यार करूंगा, छोडूंगा नहीं। और तब से नंदी महाराज वहीं बैठे हुए हैं। वे कहते हैं, कभी तो निकलोगे न! मगर यह तो कुछ भी नहीं, शास्त्रों में ऐसी कहानियां हैं कि तुम चकित होओगे। मैंने पढ़ा है, एक पुराण कहता है कि ब्रह्मा और विष्णु किसी गहन समस्या में विवादग्रस्त हो गए, हल न होता था, तो शिवजी के पास
बड़े जोर से चलने लगी और बड़ी गर्जना के साथ बादल रुधिर की बूँदे बरसाने लगे। महोदर, महापार्श्व, धूम्राक्ष, शुक और सारण को साथ लिये रावा वहाँ गया जहाँ राजा अर्जुन जलक्रीड़ा कर रहा था। वहाँ वह बहुत जल्दी जा पहुँचा। उसने देखा कि स्त्रियों से घिरा हुआ राजा जल-विहार में लवलीन हो रहा है। उसे देखते ही क्रोध से लाल आँखें करके वह गम्भीर वाणी से, राजा के मंत्रियों से, बोला - " हे मन्त्री लोगो ! तुम हैहय-राज से जल्दी जाकर कहो कि युद्ध की इच्छा से रावण आया है।" यह सुन कर वे लोग अपने शस्त्र लेकर खड़े हो गये और बोले - "वाह रे रावण ! वाह ! युद्ध के लिए तुमने अच्छा समय ढूँढ़ा है । कहाँ तो राजा मस्त होकर स्त्रियों के साथ विहार में लगे हुए हैं और कहाँ तुम युद्ध करना चाहते हो ! आज के दिन क्षमा करो। रात मे टिक जाओ । कल अर्जुन से मिलना; और जो युद्ध करने की तुम्हारी इच्छा बहुत ही प्रबल हो तो हमारे साथ लड़ो। हम लोगों को मार कर फिर अर्जुन के साथ लड़ना ।" यह सुनते ही रावण के मन्त्रियों ने उनमें से बहुतों को तो मार डाला और बहुतों को खा लिया। क्योंकि वे सब भूखे थे । उस समय नर्मदा के किनारे पर दोनों के मन्त्रियों का बड़ा ही 'हलहला' शब्द हुआ । अर्जुन के दल के योद्धा दौड़ कर सैकड़ों तोमर, प्रास, त्रिशूल, वज्र और कर्परण शत्रों के द्वारा रावण को और उसके मन्त्रियों को मारने लगे । उस समय अर्जुन के योद्धाओं का ऐसा कठोर गर्जन हुआ जैसा नक, मत्स्य, और मगर सहित समुद्र का होता है। जब रावण के मन्त्री प्रहस्त, शुक और सारण प्रभृति क्रुद्ध होकर कार्त्तवीर्य की सेना को मारने लगे तब दूतों ने जाकर रावण का वह कर्म अर्जुन से कहा । दूत लोग भय के मारे घबरा गये थे। राजा ने उन लोगों से कहा कि डरो मत, कोई चिन्ता नहीं । फिर उसने स्त्रियों को जल से इस तरह बाहर कर दिया जैसे अञ्जन नामक दिग्गज अपनी हथिनियों को गंगा से बाहर कर दे । वह क्रुद्ध हो लाल आँखें करके अर्जुन रूप अग्नि, प्रलयकाल की अग्नि की भाँति, भभक उठा । सोने के बाजूबन्दों से शोभायमान वह अर्जुन गढ़ा लेकर राक्षसों पर ऐसा झपटा जैसे सूर्य अन्धकार पर दौड़ता है। गदा घुमाता हुआ, गरुड़ की नाई, बड़ी जल्दी बह राक्षसों के पास आगया । राजा को झपटता हुआ देखकर, हाथ में मूसल लिये, प्रहस्त बीच ही में सामने खड़ा हो गया । वह लोहबद्ध मूसल उसने राजा के ऊपर चलाया । फिर उसने काल के समान बड़ा ' नाद भी किया। हाथ से छूटते ही उस मूसल के अप्रभाग से, अशोक के फूल की नाई, अग्नि भभक उठी मानों अर्जुन को जला देगी। परन्तु मूसल को अपनी ओर आता देख कर राजा ने सहज ही, गदा के पैंतड़े से, उसे व्यर्थ कर दिया और पाँच सौ हाथ ऊँची अपनी गदा घुमा कर प्रहस्त के मारी । उस प्रहार से प्रहस्त तो ऐसा लोट गया जैसे वज्र की चोट से पर्वत चूर हो जाता है । प्रहस्त की ऐसी दशा देख कर मारीच, शुक, और सारण संग्राम से भागने लगे। प्रहस्त का गिरना और मन्त्रियों का भागना देख कर अर्जुन पर राबण दौड़ा। अब हजार भुजावाले से बीस भुजावाले का, उस समय, बड़ा ही भयानक युद्ध आरम्भ हुआ। दो रहा है तब झट लपक कर उसे ऐसे पकड़ लिया जैसे गरुड़ सौंप को पकड़ता है। राजा ने अपनी हज्जार भुजाओं से उसे ऐसे बाँध लिया जैसे नारायण ने बलि को बाँधा था । यह चमत्कार देख सिद्ध, चारण और देवता 'वाह ! वाह !" कह कर राजा के सिर पर फूलों की वर्षा करने लगे। जैसे व्याघ्र हिरण को और सिंह गजेन्द्र को पकड़ लेता है उसी तरह रावण को पकड़ कर अर्जुन, बादलों की नाईं बार बार गरजने लगा। अब प्रहस्त की बेहोशी दूर हुई। उसने देखा कि रावण बँध गया । तब वह बड़े क्रोध से हैहयराज पर दौड़ा और कई राक्षस भी अर्जुन के पीछे पीछे दौड़े। उस समय वह ऐसा दृश्य हुआ मानों पानी लेने के लिए समुद्र में बादल दौड़ते हों। वे सब दौड़ते और 'छोड़, छोड़' चिल्लाते हुए मूसल और शुल चलाते जाते थे। पर अर्जुन ने उनके शस्त्रों को अपने पास पहुँचने तक न दिया किन्तु खेल भाँति उनके शस्त्रों को बीच ही में पकड़ लिया। फिर अर्जुन ने उनको अच्छे और भयानक आयुधों से ऐसा मार भगाया जैसे बादलों को हवा उड़ा देती है। वह उनको अच्छी तरह डराकर और भगाकर, अपने मित्रों को साथ लिये और राबण को पकड़े हुए नगर में घुस गया। उस समय ब्राह्मण और नगरवासी लोग राजा पर अक्षत और फूलों की वर्षा करने लगे। राजा अर्जुन रावण को लिए अपनी नगरी में इस तरह जा विराजे जिस तरह बलि को पकड़ कर इन्द्र अमरावती में घुसते हों । प्रक्षुब्ध महासागरों, चलते फिरते हुए दो पर्वतों और दो तेजस्वी सूर्यों की तरह, भस्म करनेवाली दो अग्नियों, दो मस्त साँड़ी, दो बलवान् सिंहों तथा साक्षात् रुद्र और काल के सदृश रावण एवं अर्जुन गदा लेकर, दो मेघों की भाँति गरजते गरजते, हथिनी के लिए दो उद्दण्ड गजेन्द्रों की नाई भयानक युद्ध करने लगे । जैसे पर्वत वज्र के
प्रहार सहते हैं उसी तरह वे दोनों परस्पर गदा की चोट सह रहे थे। जैसे बिजली की कड़क की प्रतिध्वनि होती है उसी तरह उन दोनों की गदा के शब्द की प्रतिध्वनियों से दिशायें गरज रही थीं। जब अर्जुन रावण की छाती पर गदा का प्रहार करते थे तब आकाश सोने की कान्ति से जगमगा उठता था । उस समय ऐसा मालूम होता था मानों बिजली चमचमा उठी हो। और जब रावण अर्जुन की छाती में मारता ●था तब पर्वत पर उल्कापात की नाई उसकी गदा चमक उठती थी । इस युद्ध में न अर्जुन को थकावट मालूम होती थी और न रावण को दोनों का एक सा युद्ध हो रहा था । प्राचीन काल में जैसा बलि और इन्द्र का युद्ध हुआ था वैसा ही यह था । परस्पर सींगों से दो बैल और दाँतों से दो हाथी जिस प्रकार प्रहार करते हैं उसी तरह वे दोनों प्रहार करते थे। इतने ही में अर्जुन ने पूरा जोर लगा कर रावण के वचःस्थल में गदा मारो । पर वरदान के बल से उसकी छाती तो बच गई किन्तु दो टुकड़े होकर गदा जमीन पर गिर पड़ी और वह दुर्बल सी जान पड़ी । परन्तु रावण को उसकी ऐसी भारी चोट लगी कि वह धनुष भर पीछे हट गया और मारे पीड़ा के रोने और चिल्लाने लगा । जब अर्जुन ने देखा कि रावण चोट के मारे विह्वल हो दससीसहि लघु कीट जिमि पकरे हैहय भूप । कारागृह में डारि दिय महा भयक्कर रूप ॥ अड़तीसवाँ सर्ग । पुलस्त्य मुनि का आकर रावण को छुड़ाना । अर्जुन ने रावण को क्या पकड़ा मानों वायु को बाँध लिया । स्वर्ग में बातचीत करते हुए देवताओं के मुँह से यह बात पुलस्त्य मुनि ने सुनी । सुनते हो, पुत्र के स्नेह के मारे, उनसेन रहा गया । वे काँप उठे और फट माहिष्मती पुरी में अर्जुन के देखने के लिए, वायु मार्ग के द्वारा पहुँच गये। अमरावती के तुल्य और हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरी हुई उस पुरी के भीतर वे घुस गये मानों ब्रह्मा अमरावती में गये हों, या पैरों से चलकर दर्शनीय रूप श्री सूर्य नारायण आये हों। उनको वहाँ देखकर राजा के नौकरों ने राजा से निवेदन किया । राजा ने जब पुलस्त्य का नाम सुना तब वह हाथ जोड़कर उनकी अगवानी के लिए गया । राजा के पुरोहित अर्ध्य और मधुपर्क की सामग्री लेकर राजा से आगे बढ़ गये मानों इन्द्र के आगे बृहस्पति गये हों। सूर्य के समान प्रकाशमान ऋषि को अर्जुन ने बड़े आदर से प्रणाम किया। मधुपर्क, गौ, पाद्य और अर्ध्य निवेदन कर बड़े हर्ष में भर कर गद्गद वाणी से राजा बोले - "हे महर्षे, द्विजेन्द्र ! मैंने आज आपका अलभ्य दर्शन पाया इसलिए मेरी यह माहिष्मती नगरी अमरावती के तुल्य हो गई। हे देव ! आज मेरी कुशल हुई, आज मेरे व्रत का साफल्य, आज मेरे जन्म का साफल्य, और आज मेरा तप सफल हुआ। क्योंकि आज मैं देवताओं के भी वन्दनीय आप के इन चरणों को देख रहा हूँ । हे ब्रह्मन् ! यह राज्य, ये पुत्र, ये स्त्रियाँ और हम लोग आपके किंकर हैं । आपका जो काम हो उसके लिए हमें आज्ञा कीजिये ।" यह सुन कर पुलस्त्य मुनि ने धर्म, अग्नियों और पुत्रों का कुशलमङ्गल पूछा । फिर वे बोले- "हे नरेन्द्र, हे कमलनयन, हे चन्द्रमुख ! तुम्हारा बल अतुल है। तुमने दशानन को भी जीत लिया। अहो ! जिसके डर से सागर और वायु भी चुपचाप आज्ञा पाने के लिए तैयार रहते हैं, हे राजन् ! तुमने मेरे उसी रणदुर्जय पौत्र को रण में बाँध लिया । उसका यश पीकर तुमने अपना नाम खूब प्रसिद्ध किया। हे वत्स ! अब मैं तुम से यही माँगता हूँ कि रावण को छोड़ दो । " ऋषि का कथन सिर माथे धर कर और कुछ भी उत्तर न देकर राजा ने खुशी से रावण को छोड़ दिया । और अच्छे अच्छे कपड़ों तथा आभूषणों और मालाओं से उसका सत्कार किया। अग्नि के सामने उसने हिंसा-रहित हो उससे मित्रता कर ली । फिर पुलस्त्य महर्षि को प्रणाम कर अर्जुन अपने राजभवन में चला गया। इसके बाद पुलस्त्य ने भी रावण को बिदा किया । यद्यपि रावण और अर्जुन की मित्रता हो गई, दोनों गले से गला लगा कर मिले, और राजा ने उसका यथायोग्य सत्कार भी किया तथापि हार जाने के कारण रावण लजाता हुआ लड्का को गया । महर्षि भी दशानन को छुड़ाकर ब्रह्मलोक को पधारे। हे रामचन्द्र ! इस तरह रावण ने कार्त्तवीर्य से हार खाई और पुलस्त्य के कहने से छुटकारा पाया। इस तरह एक से एक बली इस संसार में पड़े हैं। यदि कोई अपना कल्याण चाहे तो शत्रु का अनादर न करे । एहि विधि हैहयराज ते मैत्री करि सचुपाय । रावण खल मारत फिरत नृपतिन्ह कहँ हरषाय ।। उनतालीसवाँ सर्ग । रावण का बाली से अपमानित होना । अब रावण अर्जुन से छुटकारा पाकर और हार कर, कुछ भी पश्चात्ताप न करके, निर्लज्जतापूर्वक पृथ्वीमण्डल में घूमने फिरने लगा। जहाँ कहीं वह अधिक बलवान् मनुष्य या राक्षस का पता पाता वहीं दौड़ कर जाता और उसे युद्ध के लिए ललकारता था। एक दिन वह किष्किन्धा नगरी में गया। वहाँ उसने सुवर्ण-मालाधारी बाली से युद्ध करना चाहा । इसको देख कर तारा के पिता तार नामक बानर ने कहा- हे राक्षसेन्द्र ! बाली तो
कहीं बाहर गया है जो कि तुम से युद्ध कर सकता है। यहाँ और कोई ऐसा बानर नहीं है जो तुम्हारे सामने खड़ा होने का सामर्थ्य रखता ● हो । बाली चारों समुद्रों के किनारे जाकर संध्योपासन करके कुछ देर में आवेगा । इसलिए तुम यहीं ठहरो । शङ्ख के समान सफेद यह हड्डियों की ढेरी देखो। ये उनकी हड्डियाँ हैं जो पहले बानर राज से युद्ध करने की इच्छा से आये थे। हे रावण राक्षस ! अगर तुम ने अमृत रस पिया हो तो बाली के साथ युद्ध करो। परन्तु यह समझ लेना कि इस युद्ध में तुम्हारे जीवन का अन्त हो जावेगा। हे विश्रवा के पुत्र ! आज तुम इस विचित्र संसार को देख लो। थोड़ी देर ठहरो, फिर तुम्हारा जीवन दुर्लभ है। जो तुम बहुत जल्दी मरना ही चाहते हो तो दक्षिण समुद्र पर जाओ। उसके किनारे पर बाली से तुम्हारी भेंट होगी, जो एक अग्नि की नाई भभकता है । 'तार' की ये बातें' सुन कर और उसको घुड़क कर रावण विमान पर चढ़ दक्षिण समुद्र की ओर गया। वहाँ पहुँच कर उसने, सोने के पर्वत के समान तथा दोपहर के सूर्य के समान प्रकाशित मुखवाले और संध्योपासन में लगे हुए बालीको देखा । बालो को देखते ही रावण चुपचाप विमान से उतर पड़ा और उसे पकड़ने की इच्छा से ऐसे धीरे धीरे उसकी ओर चला जिससे पैरों की आवाज न हो । परन्तु बाली ने रावण को अचानक देख लिया। उसका बुरा मतलब जानकर भी बाली बिल्कुल नहीं घबराया । जैसे खरगोश को देखकर सिंह और साँप को देखकर गरुड़ कुछ भी नहीं समझता, वैसे ही बाली भी अपने सामने रावण की कुछ भी परवा न करता था। वह बानरराज अपने मन में यही सोच रहा था कि 'यह राक्षस मुझे पकड़ने आ रहा है, सो मेरे पास आया नहीं कि मैंने इसे अपनी काँख में दबा लिया। इसे लेकर मैं तीन समुद्रों पर जाऊँगा ताकि लोग देखेंगे कि शत्रु मेरी बग़ल में दबा हुआ है। कहीं इसकी जंघायें, में कहीं हाथ और कपड़े लटकेंगे । इसकी ऐसी दशा हो जायगी जैसी गरुड़ के पकड़े हुए साँप की होती है। इस तरह मन में ठान बाली चुप हो वेदमन्त्रों का जाप करता हुआ, पर्वत की नाई निश्चल हो, वहीं खड़ा रहा। उस समय एक दूसरे को पकड़ने की कामना से वे दोनों प्रयत्न करते अपने अपने बल का अहङ्कार कर रहे थे। पैरों की आहट पाकर जब बाली ने समझा कि वह लपेट में आ गया तब तो, पीछे को मुँह किये ही, झपट कर उसने रावण को इस तरह पकड़ लिया जिस तरह गरुड़ सौंप को पकड़ता है। अब वह पकड़ने के लिए आये हुए रावण को काँख ज़ोर से आकाश में उड़ गया । उस समय रावण ऐसा दब गया कि उसका कुछ वश ही न चलता था। तब बाली उसे दबाने और नाखूनों से नोचने खसोटने लगा। उसको लिये हुए वह ऐसा उड़ गया जैसे हवा मेघ को उड़ा ले जाती है। जब राक्षसों ने रावण की ऐसी दशा देखी तत्र वे उसे छुड़ाने के लिए बड़े वेग से दौड़े। बाली आगे आगे जा रहा था और राक्षस उसके पीछे दौड़ रहे थे। उस समय उसकी ऐसी शोभा हो रही थी मानों सूर्य के पीछे मेघ दौड़ रहे हों। राक्षस बहुत कोशिश करते थे कि हम बाली के पास पहुँच जायँ, पर उस की भुजाओं और जंघाओं के वेग से वे बेचारे थक कर बाचही में रह गये - उसके पास तक न पहुँच सके । बाली का वेग ऐसा था कि बड़े बड़े पर्वत भी उसके पीछे दौड़ते तो भी उसे न पा सकते, फिर भला जिसका शरीर मांस और रुधिर का बना हुआ है और जो जीना चाहता है, मरने से डरता है, उसका सामर्थ्य कहाँ तक हो सकता है ? दशानन को काँख में दबाये दबाये बाली ने, क्रम से, सब सागरों पर जाकर सन्ध्यावन्दन किया । उसका वेग पक्षी के भी सामर्थ्य से बाहर था। रास्ते में आकाशचारी प्राणी उसकी प्रशंसा कर रहे थे। अब वह पश्चिम समुद्र के किनारे पर गया । वहाँ स्नान, सन्ध्या और जप करके रावण को लिये हुए वह उत्तर सागर पर पहुँचा । आश्चर्य की बात है कि शत्रु को बग़ल में दबाये वह बानरराज कई हजार योजन, वायु की या मन की तरह, चला गया। उत्तर समुद्र के किनारे सन्ध्योपासन कर फिर उसी तरह वह दशा नन को लिये हुए पूर्व समुद्र पर गया। वहाँ भी सन्ध्योपासन कर फिर अपनी नगरी किष्किन्धा में रावण को लिये हुए आ पहुँचा । रावण को लिये लिये वह चारों समुद्रों पर गया और उसने सन्ध्योपासन किया इसलिए अब वह थक गया । किष्किन्धा में । पहुँच कर वह उपवन में उतर पड़ा। वहाँ रावण को बग़ल से अलग करके कुछ हँसता हुआ वह बार बार उससे पूछने लगा कि तुम कहाँ से आये ? बग़ल में दबे दबे रावण भी थंक गया था। उसकी आँखें चञ्चल हो रही थीं। वह कहने लगा - "हे इन्द्र के तुल्य बानरेन्द्र ! मैं राक्षसेन्द्र रावण हूँ। युद्ध की इच्छा से यहाँ आया था । सो तुम्हारे हाथ से पकड़ा गया। हे बानरराज ! तुम्हारा बल, पराक्रम और गाम्भीर्य आश्चर्य करने योग्य है। तुमने मुझे पशु की नाईं पकड़ कर चारों समुद्रों में घुमा डाला । मैं तो ऐसा कोई वीर नहीं देखता जो, बिना श्रम के, मुझे बग़ल में दाबे इतनी जल्दी चारों समुद्रों में घूम आवे । हे वीर ! तुम धन्य हो । हे बा
नरसिंह ! मन, वायु और गरुड़, इन्हीं तीन प्राणियों की ऐसी गति हो सकती है। आज ऐसे सामर्थ्य वाले तुम चौथे देख पड़े । हे हरिश्रेष्ठ ! मैंने तुम्हारा बल देखा। अब मैं अग्नि को साक्षी करके तुम्हारे साथ मैत्री करना चाहता हूँ। हे हरीश्वर ! स्त्री, पुत्र, पुर, राष्ट्र, भोग और आच्छादन आदि सब कुछ हमारा और तुम्हारा एक ही होगा। जो हमारा है सो तुम्हारा भी होगा और जो तुम्हारा है वह मेरा भी होगा ।" इस तरह विचार कर दोनों ने अग्नि जला कर मित्रता कर ली। वे दोनों गले से गला लगा कर मिले । आपस में हाथ से हाथ मिलाया । फिर दोनों किष्किन्धा में गये। रावण वहाँ सुप्रीव की भाँति एक महीने तक रहा फिर त्रैलोक्य का उच्छेद करने की इच्छा रखनेवाले रावण के मंत्री वहाँ आकर उस को लिवा ले गये । प्रभो रामचन्द्र ! इस तरह का पुराना हाल है। बालो से रावण ने पीड़ित होकर पीछे अनि के सामने उसे भाई बनाया। इस तरह का बलवान् बाली भी तुम्हारी बाणामि से ऐसा भस्म हो गया जैसे अनि से पतंग जलता है । पाया है। हे भगवन् ! बानरराज का मित्र हनुमान् जो मेरा सहायक न होता तो जानकी का पता चलना भी कठिन था । मैं आपसे एक बात पूछता हूँ कि जब सुप्रीव और बाली में वैर हो गया तब हनुमान् ने अपने पराक्रम से बाली को, घास को अग्नि की तरह, भस्म क्यों नहीं कर डाला ? मुझे यह जान पड़ता है कि उस समय हनुमान् को अपने बल का पता भी न रहा होगा, नहीं तो अपने प्राणप्रिय मित्र सुग्रीव के इतने क्लेश को देख कर ये चुपचाप न रह जाते । इसलिए हे भगवन् ! ये सब बातें विस्तारपूर्वक कह कर मुझे सुनाइए । यह सुन कर हनुमान के सामने ही अगस्त्य मुनि बोले- "हे रघूत्तम ! हनुमान् के विषय में जैसा आप कहते हैं वैसा ही है। इनकी गति, बुद्धि और बल जैसा आप कहते हैं वैसा ही है। इनके बराबर ये गुण किसी में नहीं हैं। परन्तु मुनियों ने इन को ऐसा भारी शाप दिया है जिससे इनको अपने बल का ज्ञान नहीं रहता । हे रघुनन्दन ! इन्होंने बचपन में ऐसे ऐसे दुष्कर काम किये हैं जिनका वर्णन भी मैं नहीं कर सकता । पर वे काम इन्होंने बाल्यबुद्धि से किये थे । अच्छा, यदि आप इनके विषय में सुनना ही चाहते हैं तो मैं कहता हूँ; सुनिए । "सूर्य के वरदान से सुमेरु नामक पर्वत सोने का है। वहाँ हनुमान् के पिता केसरी राज्य करते हैं । उनकी इष्टभार्या अञ्जना नामक थी । उस अञ्जना में वायु ने, धान की बाली की नोक के समान वर्ण वाले इस पुत्र को उत्पन्न किया। एक बार इसकी माता फलों के लिए वन में गई । उस समय माता के न रहने से, भूख के मारे, यह बड़ा दुखी हुआ । चालीसवाँ सर्ग । श्री हनुमान् की जन्मकथा । इसके बाद श्रीरामचन्द्र जी हाथ जोड़ कर अगस्त्य मुनि से फिर बोले- हे भगवन् ! बाली और रावण का अतुल बल था । परन्तु मेरी समझ हनुमान् के तुल्य ये दोनों नहीं थे। शौर्य, चातुर्य, बल, धैर्य, पाण्डित्य, नीति, शीघ्रता, विक्रम और • प्रभाव, ये सब गुण हनुमान में हैं। देखिए, सीता को ढूँढ़ते समय जब बानरी सेना समुद्र के किनारे दुःख पा रही थी तब यह वीर उन्हें समझा कर सौ योजन समुद्र को लाँघ गया । इसने वहाँ लंका पुरी की धर्षणा कर रावण का अन्तःपुर देखा; और सीता को देख कर उन्हें आदर-पूर्वक दिलासा दिया । और तो क्या, अकेले हनुमान् ने सेना के आगे चलनेवाले मंत्रियों के पुत्रों को नौकरों को और स्वयं रावण के पुत्र को भी मार डाला। इसके बाद ब्रह्मास्त्र के बन्धन से छूट कर बातचीत में रावण का निरादर किया और आग लगा कर लंका को भस्म किया। हनुमान् ने युद्ध में जो कर्म किये उन्हें न यम, न इन्द्र, न विष्णु और न कुवेर ही कर सकते हैं। मैंने इसी की भुजाओं के पराक्रम से लंका, सीता, लक्ष्मण, जय, राज्य, मित्र और बान्धवों को यह उस समय, शरवण में स्वामिकार्त्तिक की भाँति, रोने लगा। इतने में गुड़हल के फूल की नाई सूर्य निकल आया। हनुमान ने जाना कि यह कोई फल है । इसलिए लोभ के मारे यह उसी की ओर उड़ा । उस समय सूर्य को पकड़ने की इच्छा से यह मूर्त्तिमान् बाल-सूर्य बीच आकाश में पहुँचा। उस समय देवता, दानव, और यक्षों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे कि ऐसा वेग न वायु में, न गरुड़ में और न मन में है जैसे वेग से यह वायुपुत्र उड़ा चला जाता है। यदि बचपन में ही इसकी ऐसी गति और पराक्रम है तो न मालूम युवावस्था में कैसा होगा। अपने बालक के पीछे पीछे, पुत्रस्नेह के कारण, वायु भी चला जाता था । वह सूर्य के दाह से पुत्र को बचाने के लिए हिमराशि से ठण्डा होकर पीछे चल रहा था। अब यह बालक आकाश में कई हजार योजन चला गया। कुछ तो वायु का बल था और कुछ बचपन की उमङ्ग थी; इस कारण यह सूर्य के पास पहुँच गया। उस समय सूर्यदेव ने सोचा कि एक तो अभी यह बालक है, इसे कुछ भी ज्ञान नहीं; दूसरे यह आगे बहुत से काम करेगा; इस तरह सोच कर उन्होंने इसे भस्म नहीं किया। जिस दिन उड़ कर यह सूर्य के प
ास गया उसी दिन राहुप्रास अर्थात् सूर्य-प्रहरण था। जब इसने जाकर सूर्य के रथ पर उसको पकड़ लिया तब वह बेचारा राहु डर कर वहाँ से हट गया । वह इन्द्रासन पर जा कर कुपित हो इन्द्र से बोला -- "हे इन्द्र ! तुमने मेरी भूख मिटाने के लिए चन्द्र और सूर्य को मुझे दिया था। फिर इस समय उनको दूसरे के अधीन क्यों कर दिया ? देखिए, आज मेरा पर्वकाल था। इससे मैं सूर्य को पकड़ने के लिए ज्योंही वहाँ पहुँचा त्येही एक दूसरे राहु ने आकर सूर्य को पकड़ लिया ।" यह सुनते ही इन्द्र घबरा कर, सुवर्ण की माला पहने हुए, आसन से उठे और कैलास की चोटी के समान ऊँचे, चार दाँतों वाले, मद बहाते, सजे सजाये, सोने के घण्टे घनघनाते हुए गजेन्द्र पर चढ़े; और राहु को आगे करके वहाँ पहुँचे जहाँ हनुमान् तथा सूर्य थे। परन्तु इन्द्र से पहले ही राहु वहाँ पहुँच गया। हनुमान् ने राहु को देख कर समझा कि यह भी एक फल है। इसलिए वे सूर्य को छोड़ कर इसकी तरफ़ बढ़े । ये थे तो बालक ही, परन्तु पर्वत की चोटी की नाई बड़े दिखाई पड़ते थे । जब राहु ने समझा कि यह तो मेरे ही ऊपर दौड़ा तब वह बेचारा मारे डर के भागने लगा और चिल्लाने लगा कि 'हे इन्द्र ! मुझे बचाओ ।' इन्द्र ने कहा - "डरो मत । मैं इसे मारता हूँ।" इधर ये इस तरह बोल ही रहे थे कि इतने में हनुमान् ऐरावत हाथी को ही बड़ा सा फल समझ कर उसकी ओर लपके । जब हनुमान् लपक कर इन्द्र आदि के ऊपर पहुँचे उस समय उनका रूप क्षण भर में कालानल की भाँति भीषण देख पड़ा । उसे दौड़ते देखकर इन्द्र ने साधारण रीति से, क्रोध-पूर्वक, धीरे से एक वज्र मार दिया। उस वज्र की चोट से हनुमान् पर्वत पर गिर पड़े और उनकी बाई ठोढ़ी कुछ टूट गई । इनको गिरते और विकल होते देख कर वायु इन्द्र पर क्रुद्ध हुए। इससे उन्होंने प्रजा के अहित पर मन लगाया । वायु ने लोगों की देहों के भीतर अपना प्रचार रोक दिया और अपने पुत्र हनुमान् को गोद में ले वह चुपचाप गुफा में जा बैठा । वर्षा को रोक कर जिस तरह इन्द्र सब प्राणियों को पीड़ित करते हैं, उसी तरह अब विष्ठा और मूत्रस्थान की हवा को रोक कर वायु देवता प्रजा को सताने लगे । वायु के प्रकोप से प्राणी ऊपर को साँस नहीं ले सकते थे और सन्धियों के फूटने से वे लकड़ी की तरह अकड़ गये । वायु के कोप से न कहीं स्वाध्याय होता था, न कहीं वषद् कार और न कहीं क्रिया देख पड़ती थी । सब लोक धर्म-रहित और नरकयातना के भोग में पड़े हुए से देख पड़ते थे। देवता, गन्धर्व, दैत्य और मनुष्य, आदि हाहाकार करते और दुःख से छूटना चाहते थे। वे सब दौड़ते दौड़ते श्री ब्रह्मदेव के पास गये । महोदर रोग से पीड़ित रोगी की भाँति सभी, पेट फुलाये, हाथ जोड़ कर उनसे बोले- "हे भगवन् ! आपने चार तरह के जीव वनाये हैं, और जीवनोपाय-स्वरूप हमको आप वायुदान करते रहते हैं । वह पवन हमारा प्राणेश्वर होकर भी, पढ़े में स्त्री की तरह, रुक कर हमको इस तरह दुःख क्यों दे रहा है । हे दुःखनिवारक ! हम सब वायु के मारे बड़े दुखी होकर आपकी शरण ये है। हमें बचाइए । " यह सुन कर ब्रह्मा ने कहा - "इसका एक कारण है जिससे वायु क्रुद्ध होकर रुक गया । यह बात सुनने के योग्य है। आज इन्द्र ने केवल राहु के कहने से वायु के पुत्र को मारा है। इसी कारण वह क्रुद्ध है। इसी कारण वह क्रुद्ध हुआ है। यद्यपि वायु शरीर-रहित है तो भी वह शरीरों में घूमता फिरता और सबका पालन करता है। यह शरीर जब वायु-रहित हो जाता है तब काष्ठ के तुल्य हो जाता है। इसलिए वायु ही प्राण, वायु ही सुख और सब जगद्रूप है। जब वायु त्याग कर देता है तब जगत् सुख नहीं पा सकता । देखो, उसने आज ही छोड़ दिया तो लोगों की क्या दशा होगई ! बिना श्वास के सब काष्ठ और दीवार के समान हो गये। इसलिए चलो, इसी समय हम उसके पास चलें । उसको अप्रसन्न करके कहीं हम सब लोग नष्ट न हो जायँ ।" इतना कह कर प्रजापति - सब प्रजा और देवता, गन्धर्व, भुजंग तथा गुह्यकों को साथ लेकर- वहाँ गये जहाँ इन्द्र के मारे हुए अपने पुत्र को लिये वायु बैठा था । रविहुतभुक् सु सुवर्ण छबि सुतर्हि गोद महँ देखि । देव सहित चतुराननहिं लागी दया विसेखि ।। इकतालीसवाँ सर्ग । हनुमान को देवताओं का वर देना । पुत्रशोक से पीड़ित वायुदेव पितामह को देखते ही, पुत्र को लिये हुए, उठकर खड़े हो गये । उठने के वेग से उनके कानों के कुण्डल, मुकुट की माला और सोने के सब भूषण झलमला उठे। फिर तीन बार प्रणाम करके वे उनके चरणों में गिर पड़े । उस समय बड़े आभूषणों से भूषित हाथ से ब्रह्मा ने उनको उठाया और उस बालक के शरीर पर भी उन्होंने हाथ फेर। ब्रह्मा का हाथ लगते ही वह बालक, जल से सींचे हुए धान की नाईं, जीवित हो गया। अपने पुत्र को जीवित देखकर वायुदेव उसी क्षण प्रसन्न हो सब प्राणियों में संचार करने लगे । ठण्डी हवा से बचकर अम्बुज सहित कमलिनी जिस प्रकार प्रसन्न होती है उसी प्रकार सब प्र
ाणी वायुरोध से छूट कर हर्षित और प्रसन्न हुए। इसके बाद यश, वीर्य, ऐश्वर्य, श्री, ज्ञान और वैराग्य से भूषित त्रिमूत्तिधारी त्रैलोक्य धाम और देवों के पूज्य श्री ब्रह्मदेव - पवन की प्रसन्नता के लिए - देवताओं से बोले - हे इन्द्र ! हे अग्ने ! हे वरुण ! हे महेश्वर ! हे धनेश्वर ! यद्यपि तुम सब ज्ञानवान् हो तो भी जो मैं हित की बात कहता हूँ उसे सुना । देखो, यह बालक तुम्हारा काम करेगा इसलिए, इसके पिता को सन्तुष्ट करने को, तुम सब वरदान दो। तब पहले इन्द्र प्रसन्नमुख हो कमलों की माला देकर बोले - मेरे वज्र से इस लड़के की ठोढ़ी टेढ़ी हो गई है, इसलिए आज से इसका नाम 'हनुमान्' हो गया । अब मेरे वज्र से इसका कभी घात न होगा । फिर सूर्यनारायण बोले- इसको मैं अपने तेज की सौवीं कला देता हूँ। इसमें जब शास्त्रों के पढ़ने की शक्ति होगी तब मैं इसको शास्त्र पढ़ाऊँगा जिससे यह वाग्मी होगा। वरुण बोले- मेरे पाश और जल से भी दस लाख वर्ष तक इस की मृत्यु न होगी। यमराज ने कहा- मेरे दण्ड से इसका बाल भी बाँका न होगा और न कोई रोग इसे पीड़ा देगा । फिर कुवेर बोले- मैं सन्तुष्ट होकर इसे वर देता हूँ कि संग्राम में इसे दुःख न होगा और मेरी गदा की चोट भी इसे न लगेगी । श्रीशङ्कर ने भी कहा - मेरे त्रिशुल और पाशुपतास्त्र से यह न मारा जायगा । विश्वकर्मा बोले- मेरे बनाये जो अच्छे अच्छे शस्त्र हैं उनसे इसका कोई भी अङ्गभङ्ग न होगा। यह चिरंजीवी होगा । फिर ब्रह्मा ने कहा- यह बालक दीर्घायु, महात्मा और सब ब्रह्मदण्डों से अवध्य होगा। इस तरह जगत् के गुरु चतुर्मुख ब्रह्मा देवों के वरों को सुनकर इषित हो वायु से बोले - हे वायो ! यह तुम्हारा पुत्र मारुति शत्रुओं को भय देनेवाला और मित्रों को अभय करनेवाला तथा अजेय, कामरूप, कामचारी कामगामी, अव्याहत गतिवाला, बानरों में श्रेष्ठ तथा कीर्तिमान् होगा। यह संग्राम में रावण के नाश के लिए राम के हितकारक रोमांचकारी काम करेगा । करेगा। इतना कह कर वायु से विदा हो, और देवों को साथ लेकर, ब्रह्मा अपने लोक को सिधारे । वायुदेव अपने पुत्र को लेकर घर आये और अञ्जना को वरदानों का सब हाल सुना कर उन्होंने अपना मार्ग लिया । हे रामचन्द्र ! यह हनुमान् वरदान पाकर उनके बल से और स्वाभाविक वेग से ऐसा भरपूर हुआ जैसे पानी से समुद्र भरा रहता है । यह निडर हो, ऋषियों के आश्रमों में जा जाकर, उपद्रव करने लगा। कहीं यज्ञ के पात्रों-स्र ग्मांडों-को, अग्निहोत्र की अग्नि को और पहनने की छालों को तोडता फोड़ता और छिन्न भिन्न कर देता था। बेचारे ऋषि शान्त स्वभाव के थे, करते ही क्या । इसे तो शम्भु ने ब्रह्मदण्डों से अवध्य कर ही दिया था। इसलिए वे लोग, इस बात को जानकर, इसके अपराध सहते थे। फिर केशरी और वायु ने इसे ऐसे काम करने से रोका भी तो भी यह मर्यादा का उल्लङ्गन ही करता गया । तब भृगु और अंगिरा के वंशवाले महर्षि इसके अपराध न सह कर साधारण द्रोध से शाप के वचन बोले कि 'हे बानर ! जिस बल के भरोसे तू हम लोगों को सताता है वह बल तुझे बहुत दिन बाद याद होगा। वह तब याद आवेगा जब कोई तुझे उसकी याद दिलावेगा और तेरी कीर्ति का वर्णन करेगा। उस समय तेरा बल बढ़ेगा।" ऋषये के वचन के सामर्थ्य से हनुमान् का तेज और पराक्रम हीन हो गया। इसलिए ये साधारण बानरों की तरह उन आश्रमों में घूमने लगे। इनका सब उपद्रव करना छूट गया । बाली और सुग्रीव का पिता ऋक्षरजा नामक बानर तेज में सूर्य के सदृश था । वह सब बानरों पर राज्य करता था । बहुत काल तक राज्यशासन कर जब वह मरा तब मंत्रियों ने बाली को राजा और सुग्रीव को युवराज बनाया । बचपन से ही इनकी सुग्रीव के साथ ऐसी मैत्री थी जैसे अग्नि के साथ वायु की । ये शाप के कारण अपना बल नहीं जानते थे । हे रामचन्द्र ! जब बाली और सुग्रीव में वैर हुआ तब बाली सुप्रीव को बहुत दौड़ाता, घुमाता, और बहुत ही व्याकुल करता था। ये देखते रहते थे परन्तु बल का स्मरण न होने से इनका कुछ भी वश नहीं चलता था । संग्राम के समय सुप्रीव के साथ रह कर भी, हाथी सरुँधे हुए सिह की नाई, ये युद्ध नहीं कर सकते थे। हे राघव ! पर क्रम, उत्साह, मति, प्रताप, सुशीलता, माधुय, नीति और अनीति का ज्ञान, गम्भारता, चतुराई, वोये, और धीरता इन गुणा मे* हनुरान् से बढ़ कर काई इस लोक में नहीं है। ये व्याकरण पढ़न की इच्छा स सूर्य के पास गये और उदयगिरि से अस्ताचल तक पिछले पैरसं चले ओर व्याकरण पढ़।। सूत्र, वृत्ति, वात्तिक और संग्रह पढ़ कर इन्होंने सिद्धि प्राप्त कर ली। अन्यान्य शास्त्रों में विद्यावत्ता म और पूर्वोत्तर मीमांसा मूलक वेदार्थ का निणय करने मे इनकी जोड़ का कोई नहीं है। ये हनुमान् समस्त विद्याओं और तपोविधान में सुर-गुरु बृहस्पति के प्रतियोगी हैं; ये प्रलय के समय रसातल में प्रवेश करने के लिए उद्यत सागर की भाँति है; और ये समस्त संसार को भस्म करन
े के लिए उद्यत अग्नि की तरह तथा प्रजा का क्षय करनेवाले यम की तरह हैं। भला इन हनुमान् का सामना कौन कर सकता है ? इनके समान और भी बड़े बड़े बानरों को - अर्थात् सुग्रीव, मैन्द, द्विविद, नील, तार, तारेय, नल और रम्भ कोतुम्हारे लिए देवताओं ने उत्पन्न किया और गज, गवाक्ष, गवय, सुदंष्ट्र, मैन्द, और ज्योतिर्मुख को तथा भालुओं को भी उत्पन्न किया है। अगस्त्य की ये बातें सुनकर राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को, तथा बानरों और राक्षसों को बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर अगस्त्य महर्षि बोले"अब तो सब हाल तुमने सुना । हे राघत्र ! हमने तुमको देखा और बातचीत भी की। अब हम सब जाते हैं।" यह सुन, हाथ जोड़ नम्रतापूर्वक प्रणाम कर महाराज बोले - "आप के दर्शन मिलने से मेरे ऊपर देवता संतुष्ट हुए तथा पितृगण और प्रपितामहगण भी तृप्त हुए। परन्तु मेरी एक प्रार्थना है। उसे आप लोग मेरे लिए स्वीकार कीजिए । मैंने पुरवासियों और देशवासियों को अपने अपने कामों में लगा दिया है। आप सत्पुरुषों की कृपा से मैं यज्ञ करना चाहता हूँ। आप लोग महावीर्यवान् और मेरे हितैषी है। इसलिए आप लोग कृपा करके मेरे इस यज्ञ में नित्य सदस्य हूजिए । में तपोबल से आप लोगों में कोई पाप नहीं रहा, इसलिए आपके सहारे मैं पितर लोगों की कृपा का पात्र बनूँ और अपने मन को आनन्दित करूँ । उस समय आप लोग मिल कर नित्य यहाँ पधारिएगा।" यह सुन कर अगस्त्य आदि ऋषि लोग 'एवमस्तु' कह कर अपने अपने आश्रमों को सिधारे। उनके चले जाने पर श्रीरघुनन्दन ऋषि की वे बातें याद कर आश्चर्य करने लगे। इसके बाद दिन डूबने पर बानरों को बिदा कर प्रभु सन्ध्योपासन करने लगे । दोहा । सन्ध्या करि रघुवीरवर रात्रि समय पहिचानि । [[अन्तःपुरहिं प्रवेश किय रूप तेज बलखानि ॥ [ यहाँ से पाँच सर्ग प्रक्षिप्त हैं। ] बयालीसवाँ सर्ग । बाली और सुग्रीव की उत्पत्ति की कथा । इस तरह सब हाल सुन कर अगस्त्य से रामचन्द्र बोले - "हे ब्रह्मन् ! बाली और सुग्रीव के पिता का नाम तो अपने ऋक्षरजा बतलाया; कृपया बत लाइये कि इनकी माता का नाम क्या था और वह कहाँ की रहनेवाली थी ? और यह भी बतलाइये कि इनके 'बाली' और 'सुग्रीव' नाम क्यों रक्खे गये । यह सब समझाकर मुझे बतलाइए ।" अगस्त्यजी बोले - हे रामचन्द्र ! यह कथा सुनिए । मैंने यह कथा नारद मुनि से सुनी थी । एक दिन घूमते घामते नारद मुनि मेरे घर पर आये। मैंने उनका विधिपूर्वक पूजन किया । जब वे सुख से बैठे तब मैंने उनसे यह कथा पूछी थी । वे कहने लगे - हे महर्षि ! सुमेरु पर्वत के बीच शिखर पर ब्रह्मा की सभा सौ योजन के फैलाव में बनी हुई है। सभा में श्रीब्रह्मदेव सदा बैठा करते हैं। एक दिन वे योगाभ्यास कर रहे थे कि उनकी आँखों से जल बहने लगा। उसे उन्होंने हाथ से पोंछकर ज़मीन पर फेंक दिया। उससे एक बानर पैदा हुआ । तब ब्रह्मा ने उससे समझाकर कहा "हे बानरश्रेष्ठ ! देखो इस पर्वत पर देवता रहते हैं। इस पर मूलफल हैं से मिलते हैं। उन्हें तुम खाया करो और मेरे पास रहा करो। कुछ समय तक तुम यहीं ठहरो । फिर तुम्हारा कल्याण होगा ।" यह सुनकर बानर हाथ जोड़ कर बोला - हे देव ! आप जैसी आज्ञा करते हैं मैं वैसा ही करूँगा । मैं आपकी आज्ञा में रहूँगा । इस तरह ब्रह्मदेव से कह कर वह बानर प्रसन्नतापूर्वक उसी पर्वत के वृक्षों के जङ्गलों में जा कर फलफूल और मधु को ढूढ़ दूँ ढ़ कर खाता था। अब उसका शरीर प्रति दिन बढ़ने और बलवान् होने लगा। दिन भर तो वह वन में घूमता रहता था और शाम होते ही अच्छे अच्छे फूल फल ले कर ब्रह्मा के पास आ जाता था । वह फल फूल आदि सब चीजें देवदेव के चरणों पर रख देता था । इस तरह समय बिताते उसे बहुत समय बीत गया । एक दिन उस ऋक्षरजा बानर को प्यास लगी। वह मेरु के उत्तर शिखर पर गया। वहाँ से उसने तरह तरह के पक्षियों के शब्दों से गुञ्जायमान और स्वच्छ पानी से भरा हुआ। एक तालाब देखा । तब वह प्रसन्नतापूर्वक अपनी गर्दन के बाल दिला कर उसके किनारे पर चला गया । उस समय दैव-वश उसे पानी में अपनी परछाई देख पड़ी। उसे देख कर वह सोचने लगा कि इस पानी में यह कोई मेरा शत्रु बानर रहता है। यह क्रुद्ध सा होकर मुझे कुछ समझता नहीं। मेरी समझ में इस दुष्ट और मूर्ख का यही निवास स्थान है। यह मन में विचार कर, अपने स्वभाव की चपलता के कारण, वह उछल कर पानी में घुस पड़ा और फिर वहाँ से कूद कर ऊपर आया । हे रामचन्द्र ! उसी क्षण वह बानर से बानरी बन गया। वह बानरी बड़ी सुन्दर लावण्यवती थी । मोटी मोटी तो उसकी जवाएँ और सुन्दर घुँघराले बाल, और मनोहर हँसमुख चेहरा था। स्तन खूब पुष्ट थे ! वह रूपवती बड़ी अच्छी मालूम होती थी । उस तालाब के किनारे वह ऐसी देख पड़ती थी मानों सीधी लम्बी लता हो । सब के चित्त को मथन करनेवाली वह त्रैलोक्य-सुन्दरी स्त्री ऐसी देख पड़ती थी जैसी कमलरहित लक्ष्मी और निर्मल चन्द्रप्रभा हो । कहाँ तक कहा जाय, उ
समें साक्षात् लक्ष्मी या पार्वती की उपमा झलकती थी । वह अपने प्रकाश से दिशाओं को प्रकाशित करती हुई किनारे पर खड़ी थी। इतने में ब्रह्मा के चरणों की उपासना करके देवराज इन्द्र उसी मार्ग से लौट रहे थे। उसी बीच में घूमते हुए श्रीसूर्यदेव की दृष्टि भी उस स्त्री पर जा पड़ी। ये दोनों ही देवता उस स्त्री को देखते ही काम के वश में होगये । इन दोनों देवताओं के सब अङ्ग, सर्प की भाँति, क्षुब्ध हो गये । उस स्त्री का अद्भुत रूप देखते ही इन दोनों देवताओं का धैर्य जाता रहा । इन्द्र तो उस स्त्री तक पहुँचते पहुँचते रास्ते ही में स्खलित हो गये। इनका तेज उस स्त्री के बालों पर जा गिरा। परन्तु वह देवराज का वीर्य अमोघ था। निष्फल कैसे हो सकता था ? उससे जो बालक उत्पन्न हुआ उसका नाम बाली रक्खा गया । सूर्य का रेतस् भी उस सुन्दरी की गर्दन पर गिरा था । उस समय ये दोनों देवता उस स्त्री से बोलने तक न पाये । दूर से ही उन दोनों का काम से ही उन दोनों का काम दूर हो गया । गर्दन ( श्रीवा ) पर गिरे हुए वीर्य से जो लड़का पैदा हुआ उसका नाम सुग्रीव रक्खा गया। इस तरह वे दोनों दो पुत्रों को उत्पन्न कर निवृत्त हो गये। फिर इन्द्र ने बाली को एक सुवर्णमयी माला देकर स्वर्ग का मार्ग लिया । वह माला नष्ट न होनेवाली और अनेक गुणों से पूर्ण थी । सूर्यदेव अपने पुत्र के कामों और उद्योगों को अग्रगन्ता कर आकाश में चले गये। अब रात बीत गई और सबेरा हो गया । वह स्त्री भी ज्ये की त्यों बानर रूप हो गई। बाली और सुग्रीव पिङ्गल नयन, बानरश्रेष्ठ, बली और कामरूपी थे। दोनों पुत्रों को ऋक्षरजा ने अमृत के तुल्य मधु लाकर पिलाया और फिर उन्हें साथ लेकर वह ब्रह्मा के पास गया । ब्रह्मा ने उसको उन दोनों बच्चों के साथ देख कर बहुत समझाया । फिर देवदत्त को आज्ञा दी कि तुम ऋक्षरजा को साथ लेकर परम सुन्दर किष्किन्धा नगरी में जाओ। वह अनेक गुणों से सम्पन्न बढ़िया नगरी इस ऋक्षरजा के योग्य है। वहाँ बहुत से बानर रहते हैं, उसमें और भी कामरूपी बानर वास करते हैं। वह बहुत रत्नों से भरी पुरी और दुर्गम हैं; उसमें चारों वरण रहते हैं। वह परम पवित्र और व्यापार के लिए प्रसिद्ध है। मेरी आज्ञा से उसे विश्वकर्मा ने बनाया था। वह बड़ी दिव्य हूं। वहाँ तुम पुत्रों सहित ऋऋक्षरजा का स्थापित करो। तुम यूथपति बानरों तथा और और साधारण बानरों को इकट्ठा कर उन सब को आदर देना और सभा करके इन्हें सिंहासन पर बैठा कर राजतिलक कर देना । इनको देखती ही वे बानर इनके वश में हो अनुचर हो जायेंगे । ब्रह्मा की आज्ञा पा कर ऋक्षरजा को साथ ले वह दूत किष्किन्धा को गया और गुफा में घुस कर पितामह के आज्ञानुसार उनका राजतिलक कर दिया। राजतिलक पाकर, तथा राजमुकुट पहन कर और अनेक भूषणों से भूषित हो ऋजरजा प्रसन्न हुआ । वह सब बानरों को यथाचित कार्मों में नियुक्त कर राजकाज करने लगा । हे श्रीराघव ! बाली और सुप्रीव का जो पिता था
जानता ही न था। मनु महाराज ने ही उन्हें अपने अंगों को ढकना सिखलाया। अलसी के रेशों से अथवा मूँज घास से रस्सी बटकर वे अपनी कमर में बाँध लेते और उस पर पत्तों की लँगोटी लगा लिया करते थे। उन्होंने पत्थरों और हड्डियों के नुकीले हथियार बनाना, शत्रुओं पर सफल आक्रमण करने की तरकीब बतलाना, संकट के समय एकजुट होना आदि अच्छीअच्छी बातें सिखलाईं। बहुत दिनों तक मनुष्य जाति के नेता पद को सुशोभित करके मनु और शतरूपा जंगल को चले गए। उन्होंने अपना राज-पाट अपने दोनों लड़कों को सौंप दिया। प्रियव्रत और उनके बेटे तो अपने पिता के स्थान में ही रहे, मगर उत्तानपाद वहाँ से चलकर उस जगह आ पहुँचे जहाँ आजकल परास्य, गान्धार आदि देश बसे हुए हैं। उन्होंने इस इलाके में रहने वाली मनुष्य जाति को सभ्य बनाकर उनके ऊपर राज्य करना आरम्भ कर दिया। उत्तानपाद ने धीरे-धीरे अपना राज्य बढ़ाकर उस जगह तक फैला लिया, जिसे आज हम मथुरा कहते हैं। ध्रुव की कथा • जा उत्तानपाद ने विवाह के मामले में अपने पिता की नीति नहीं अपनाई। उन्होंने दो रः रानियाँ बनाईँ, एक का नाम सुनीति और दूसरी का नाम सुरुचि था। सुनीति बड़ी थी, उसके एक बेटा भी था जिसका नाम ध्रुव था। सुरुचि के भी एक बेटा था, उसका नाम उत्तम था। तपस्वी मनु महाराज ने अपने बेटे उत्तानपाद से कहा- "हे पुत्र! तुम अपनी दोनों रानियों के बेटों को एक-सा प्यार देना। ध्रुव बड़ा है इसलिए वही तुम्हारे बाद अपने समाज का चौधरी बनेगा। अगर तुमने इस नीति में कोई फेर-फार किया तो याद रखना उसका नतीजा सदा बुरा ही होगा।" उत्तानपाद यों तो बड़े समझदार थे, मगर वे अपनी दूसरी रानी सुरुचि को इतना अधिक चाहते थे कि उसके इशारों पर नाचने वाली कठपुतली हो जाते थे। वे मन-ही-मन में तो ध्रुव को भी उत्तम की ही तरह बहुत चाहते थे, पर सुरुचि रानी के सामने वे उसे अपना प्यार देने का साहस भी नहीं कर पाते थे। एक दिन उत्तानपाद अपने दोनों बेटों को चुपचाप साथ लेकर अपने रहने के स्थान से दूर एक नदी के किनारे चले गए। वहाँ उन्होंने जी भरके अपने दोनों बेटों को खेलाया और उनका मनोरंजन किया। बालक ध्रुव को अपनी दाहिनी गोद और बालक उत्तम को बाईं गोद में बैठाकर प्यार से एक जगह कहानी सुनाने लगे, तभी आईं सुरुचि रानी। अपने बेटे के साथ सौत के भी बेटे को बैठा हुआ देखकर ईर्ष्या और क्रोध के कारण सुरुचि कुरुचि बन गई। अपने पति को लाल-लाल आँखें दिखाकर उसने कहा -"मैं तो तुम्हें चारों ओर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गई और तुम निकम्मे आदमी की तरह यहाँ बैठे हुए बच्चों से खिलवाड़ कर रहे हो ।" बेचारे उत्तानपाद खिसिया गए, तभी सुरुचि ने आगे बढ़कर ध्रुव का हाथ पकड़कर खींचा और कहा-"पिता की गोद में तू नहीं मेरा बेटा ही बैठेगा। चल हट" सुरुचि ने बच्चे को इतनी ज़ोर से झटकारा कि वह बेचारा अपने पिता की गोद से धरती पर आ गिरा। उत्तानपाद बालक ध्रुव को चोटिल और भयग्रस्त देखकर भी कुछ बोल न सके। उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। सौतेली माँ से यह निरादर पाकर ध्रुव थोड़ी देर तक तो स्तब्ध रह गया, लेकिन जब सौतेली माँ उसे लात मारने के लिए झपटी तो वह सर्र से उठकर भाग गया। अपने ही झटके से सुरुचि रानी का पाँव मुड़ गया और उसे मोच आ गई । वह हाय-हाय चिल्लाने लगी और उत्तानपाद जोरु के गुलाम बने उसका पैर सहलाते हुए डाँट खाने लगे। उधर बालक ध्रुव दौड़ता हुआ सीधा अपनी माँ सुनीति रानी के पास गया। वह अपनी माँ से चिपककर फफक-फफककर रो उठा। उसका इस प्रकार बिलखना देखकर सुनीति रानी घबरा गईं कि जाने क्या आफत आ पड़ी जिससे यह बच्चा इतना रो रहा है। सुनीति रानी ने अपने बेटे को बार-बार दुलराया और कलेजे से लगाया। जब बच्चे के मन में कुछ धीरज बँधा तो उसने सारी घटना अपनी माँ को सुनाकर आँखों में आँसू भरकर पूछा - "माँ, क्या तुम्हारा बेटा अपने पिता की गोद में बैठने का अधिकारी नहीं? तुम भी तो मेरे पिता की रानी हो, बल्कि पटरानी। मेरे दादा जी और दादी एक बार जब आए थे तब उन्होंने कितना प्यार किया था मुझे। माँ! सौतेली माता मुझे अपने पिता का प्यार तक नहीं पाने देती?" सुनकर बेचारी सुनीति रानी की आँखें छलछला उठीं। वह बड़ी सीधी और नेक थी । उन्होंने कहा - "बेटा तू अपनी सौतेली माँ के व्यवहार को बुरा मत मान । मैं तो तुझे प्यार करती हूँ और तेरे पिता जी भी तुझे दिल से बहुत चाहते हैं।" "मैं अपने पिता की गोद में कभी नहीं बैठूंगा। वे मुझे चाहते अवश्य हैं, पर वे मेरी सौतेली माता से डरते भी हैं। " सुनीति रानी ने बच्चे के क्रोध को शान्त करने के लिए समझाकर कहा- "हे पुत्र! तू अभी नासमझ है। सुरुचि रानी के द्वारा इस तरह तेरा अपमान करने के पीछे उसकी एक स्वार्थ भावना है। वह चाहती है कि बड़ा होकर उसका बेटा ही नया नेता बने। वह उत्तम को पिता की गद्दी पर बिठाना चाहती है।" माँ की बात पूरी भी न हो पाई थी कि ध्रुव
आवेश से बोल उठा, "मुझे नहीं चाहिए अपने पिता की गद्दी। मुझे तो उनकी गोद में बैठने का अधिकार चाहिए। अकेले में वे मुझे जो प्यार देते हैं, मुझे उस प्यार का अधिकार चाहिए।" बेटे की बात सुनकर माँ ने एक ठण्डी साँस भरी और कहा - "गोद और गद्दी का अधिकार स्वार्थियों की दृष्टि में एक ही होता है। बेटा तू उसे भूल जा। भगवान तुझे उससे ऊँचा आसन देगा।" बालक ध्रुव आश्चर्य से अपनी माँ का मुख देखने लगा। उसने पूछा, "पिताजी की गोद से ऊँचा आसन कौन सा है माँ?" "परमपिता परमेश्वर की गोद। जिसे परमात्मा प्यार करने लगता है वह सारी दुनिया का प्यारा हो जाता है। वह लोगों के मन में आप-ही- आप श्रेष्ठ आदर का स्थान पा जाता है। " "तब माँ मैं अपने-आपको परमपिता की गोद में बैठने का अधिकारी बनाऊँगा। मुझे परमपिता का ठिकाना बताइए।" "वह कठिन तपस्या से मिलते हैं मेरे लाल!" "तब मैं तपस्या करूँगा। वह कैसे होती है माँ !" पाँच वर्ष के नन्हें बालक की बात माँ के कलेजे में मुक्का मार गई। सुनीति रानी मन-हीमन विचार में पड़ गईं। एक ओर जहाँ अपने पुत्र की आत्म-प्रतिष्ठा का सवाल उनके मन में आता था, वहाँ तो वह मन से यही चाहती थीं कि मेरे बेटे को सबसे ऊँचा पद, परमपिता के दर्शन, वरदान और उनका अपार स्नेह मिले। परन्तु दूसरी ओर माँ का ममता भरा कायर मन डरता भी था कि मेरा सुकुमार नन्हां-मुन्ना तपस्या की कठिनाइयों को कैसे झेल सकेगा। लेकिन सुनीति रानी अपने नाम के अनुसार ही सदा सुनीति पर ही चलने वाली थीं। उन्होंने सोचा कि बच्चे की परीक्षा लेने के लिए हम अपने मन का भय चित्रित करेंगे। अगर वह भय से तप का मार्ग छोड़ देगा तो अच्छा ही है, और यदि न माने तो फिर आगे के उपायों पर विचार किया जावेगा। माँ ने बच्चे को डराया, कि तपस्या में भूखे रहना पड़ता है, प्राणायाम सीखना पड़ता है। और प्राणायाम में कोई गलती हो गई तो आदमी पागल हो जाता है। इसके अतिरिक्त जंगल के जानवर शेर, भालू आदि सताते हैं। काले नाग और अजगर चींटियों की तरह धरती पर डोला करते हैं। तपस्या करना और भगवान के दर्शन करना आसान काम नहीं है। परन्तु जितना ही अधिक सुनीति रानी ने अपने बच्चे को डराना चाहा उतना ही बच्चे का हठ प्रबल होता गया। उसने कहा - "माँ तुमने बहुत अच्छा किया जो सारी कठिनाइयाँ मेरे आगे बखान कीं। लेकिन मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि इन सारी कठिनाइयों को जीत लूँगा और परमपिता की गोद में बैठूंगा। तुम मुझे आशीर्वाद दो और किसी अच्छे गुरु की सेवा में डाल दो, जिससे योग-मार्ग से परमपिता को पा लूँ।" रानी बोली - "बेटा मैं तुम्हें दूर देश में तुम्हारे पितामह के तपोवन में लिये चलती हूँ। उनसे बढ़कर सच्चा मार्ग तुम्हें और कोई न दिखला सकेगा।" माँ-बेटा चलते-चलते स्वयंभूव मनु महाराज के तपोवन में जा पहुँचे। मनु महाराज ने अपनी पुत्रवधू से सारा हाल सुना और ध्रुव को उचित शिक्षा दी तथा कहा - "तुम मधुवन में जाकर तप करो। तुम्हें संसार में सबसे ऊँचा पद मिलेगा।" बाबा के पैर छूकर और माँ से आशीर्वाद लेकर बालक ध्रुव दृढ़ निश्चय के साथ प्रभु का नाम जपता हुआ मधुवन पहुँच गया। उसने वहाँ सारे नियम साधने शुरू किए और जी लगाकर भगवान का नाम जपने लगा। उसने इतनी सच्चाई के साथ योग के नियमों का पालन किया कि उसकी ज्ञान शक्तियाँ जागे बिना रह न सकीं। ध्रुव अनुभव करने लगा कि अब जंगल के जानवर भी उसे प्यार करने लगे है। उसे शेर से भी उतना प्यार था जितना मामूली कीड़े से । ध्रुव ने देखा कि सब लोग उसकी बात सुनते और मानते हैं। ध्यान से बुद्धि सधने लगी, दृष्टि पैनी हुई और धीरे-धीरे रात के तारों भरे आकाश में अपनी नजर साधते-साधते देखा कि और सब तारे तो चलते हैं, मगर एक नन्हां-सा तारा अपनी जगह पर अटल है। बस, इसी नन्हें तारे से योग रचाकर उसने अपनी तपस्या और बढ़ाई। लगन और मेहनत से धीरे-धीरे वह दिन भी आ पहुँचा जब कि उसने परमपिता परमात्मा का प्रकाश अपने अन्दर देख लिया। बालक ध्रुव की ख्याति अब चारों ओर फैलने लगी। आकाश के उस नन्हें अटल तारे का नाम भी ध्रुव रख दिया गया। भीष्म पितामह बोले कि जब किसी के मन में किसी अच्छे काम के लिए सच्ची लगन लग जाती है तो वह अवश्य सफलता सिद्ध करता है, चाहे वह बच्चा हो या बूढ़ा । ध्रुव की कथा सुनाकर भीष्म पितामह ने स्वयंभूव मनु के दूसरे बेटे प्रियव्रत के वंश के सम्बन्ध में बतलाना आरम्भ कर दिया। प्रियव्रत के वंश की कथा प्रि यव्रत का परिवार अपने पिता के मूल स्थान, कश्यप सागर से कुछ दूर ऋषिकुल और बलाकाश नामक झीलों के आस-पास की उपजाऊ भूमि में रहा करता था। प्रियव्रत के बेटे अभिनेत्र के समय में सब ठीक-ठीक रहा। परन्तु उनके बेटे नाभिराज के ज़माने में बहुत-सी प्राकृतिक हलचलें आरम्भ हुईं। चूँकि वह काल हमारी पृथ्वी के निर्माण के लिए नया था, इसलिए उसमें जल्दी-जल्दी परिवर्तन हो रहे
थे। नाभिराज के ज़माने में धरती पर जमी हुई बर्फ ही सूर्य की गर्मी से पिघलकर पृथ्वी सींचती थी, किन्तु अब आकाश पर काले बादल भी मँडराने लगे और कुछ ही दिनों बाद मनुष्य जाति ने ऐसी प्रबल वर्षा के दर्शन किए कि वह भय से भर उठे। बिजलियाँ कड़कने लगीं, बादल गरजने लगे और मूसलाधार पानी बरसने लगा। ताल-तलैया, बर्फीली नदियाँ आदि उफन उठीं। चारों ओर एक प्रलय-सी मच गई। आँधी, बिजली और बाढ़ के पानी से सारे कल्पवृक्ष सूख गए। बहुत-स - सी जानें भी गईं। इसलिए नाभिराज अपनी प्रजा को लेकर वहाँ से किसी सुरक्षित स्थान की ओर चलने लगे। उन्हें पता लगा कि उनके कुल के महान पुरुष मनु महाराज ने कश्मीर में तपस्या की थी। इसलिए वे उधर ही जा पहुँचे। कहा जाता है कि राजा नाभि ने ही कश्मीर से लेकर मगध तक की भूमि अपने अधिकार में कर ली और अपने राज्य रूपी शरीर की नाभि स्थल में अयोध्या बसाई । राजा नाभि के समय में ही धनुष का आविष्कार हुआ। उन्होंने ही पहली बार विधिवत हल से खेती कराई। उनके समय में औजार और हथियार यद्यपि हड्डियों और पत्थरों से बनते थे, परन्तु वे अपने पहले वाले ज़माने से मजबूत और नुकीले बनते थे। धातुओं की जान-पहचान भी राजा नाभि के ज़माने में आरम्भ हुई ऋषभ की कथा -भि के बेटे ऋषभ अपने समय के बहुत बड़े बुद्धिमान और ज्ञानी महापुरुष थे। उन्होंने देखा कि मनुष्य अब तरह-तरह का काम करना जान तो गया है, परन्तु सब काम एक साथ करने के हौसले में वह कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाता था। राजा ऋषभ ने समाज में कामों का बँटवारा किया। कुछ लोग केवल खेती ही करने लगे और कुछ लड़ने और राज-काज चलाने की विद्या में निपुण हुए, कुछ लिखने-पढ़ने के काम में और कुछ तरह-तरह के व्यवसाय - वाणिज्य के धन्धों में लगे। इस प्रकार समाज में व्यवस्था आने से मनुष्य समाज की सामूहिक उन्नति हुई। यह ऋषभ देव एक बार अपने राज दरबार में बैठे हुए नर्तकी का नाच देख रहे थे। वह नर्तकी जैसी अनुपम सुन्दरी थी वैसी ही अनोखी नाचने वाली भी थी। राजा ऋषभ देव उसकी कला और व्यवहार से बहुत खुश थे। एकाएक नाचते-नाचते वह नर्तकी धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी। घबराकर बहुत से लोग उसे उठाने के लिए आए, लेकिन देखा कि वह तो निष्प्राण हो चुकी है। सभा में उपस्थित हर आदमी के मन को गहरा धक्का लगा। मगर राजा ऋषभ देव की मानो दुनिया ही बदल गई। वह सोचने लगे कि कितनी सुन्दर काया थी और उससे कितनी ऊँची कला का सुन्दर प्रदर्शन हो रहा था। काया तो अब भी सामने पड़ी हुई है, पर उसके अन्दर प्रदर्शन करने वाला जीव कहाँ गया? मैं राजा हूँ, मुझसे पूछे बिना कोई काम नहीं होता है, परन्तु इस काया के भीतर रहने वाला जीव राजाज्ञा की परवाह किए बिना ही निकल गया। क्या राजा से भी बड़ी कोई सत्ता है? इस प्रश्न ने राजा ऋषभ देव को तपस्वी बना दिया। उन्होंने अपना राजपाट अपने बेटे भरत को सौंपकर मगध देश की राह पकड़ी और एक ऊँची पहाड़ी पर जाकर एकान्त में कठोर तपस्या करने लगे। वे अपने समय के श्रेष्ठ सिद्ध पुरुष हुए। उनकी प्रशंसा में वेद में ऋचाएँ तक लिखी गईं और बाद में उनकी तपस्या-पद्धति को ही जैन धर्म माना गया। ऋषभ देव आदिनाथ भगवान के नाम से भी पुकारे जाते हैं। भरत की कथा भरत विद्या और पराक्रम में अपने पिता से भी बढ़-चढ़कर निकले। उन्होंने उस सारी भूमि को अपने पराक्रम से जीत लिया, जिसे अब हम भारतवर्ष कहते हैं। उन्होंने बाल्हीक, ऐलम अथवा ऐलवर्त से लेकर यौन द्वीप तब सबको हराया। उनके राज्य का सारा इलाका उस समय भरतखण्ड कहलाता था। इन्हीं राजा भरत ने समाज में ऋषिकर्मी ब्राह्मणों को पहली बार एक वर्ग के रूप में प्रतिष्ठा दी। उन्होंने ऋषियों की संगति में बैठ-बैठकर ऊँचा ज्ञान लाभ किया। अब वे सोचने लगे कि मैं भरतखण्ड का सम्राट् हूँ। मुझ में बड़ी शक्ति है, पर मैं अपनी मृत्यु तक को नहीं टाल सकता। मेरे बिना चाहे भी मौत किसी दिन आकर मुझे धर दबोचेगी और बेबस होकर अपनी इस काया से निकल जाऊँगा। इन विचारों से राजा भरत के मन में वैराग्यभाव उत्पन्न हो गया। वे तपस्या करने लगे और तपस्या करते-करते वे इतने बड़े सिद्ध हुए कि उनके लिए सर्दी, गर्मी, बरसात, सुख-दुःख आदि सब भाव एक समान हो गया। वे अपनी काया से बिल्कुल अलिप्त होकर भगवान में लीन रहते थे। उन्हें न कपड़ों की आवश्यकता थी और न भूख, प्यास ही अधिक लगती थी। वे इतने सीधे थे कि लोग उन्हें जड़ भरत तक कह देते थे। एक बार प्रतापी राजा नहुष ने उन्हें कोई मामूली जंगली समझकर अपने कहार के बीमार पड़ने पर अपनी डोली उठाने की आज्ञा दे दी और वे बिना किसी प्रकार की चिन्ता के सरल भाव से डोली के कहार बन गए। बाद में जब राजा नहुष को यह मालूम हुआ कि यह तो प्रतापी चक्रवर्ती महाराज मनु भरत हैं और अपनी तपस्या के कारण जड़ भरत कहलाते हैं, तो उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्हांने भरत से क्षमा माँगी
। जब तक यह पृथ्वी रहेगी और उसमें भारतवर्ष रहेगा तब तक महाराज भरत जी की कीर्ति सदा अमर रहेगी। वेद की कथा दों का आरम्भ सम्राट भरत ने ही नहीं बल्कि उनके पुरखे स्वयंभूव मनु के समय से भी पहले आरम्भ हो चुका था। स्वयंभूव मनु के पुरखे जब उत्तरी ध्रुव में रहते थे, तभी वेद की ऋचाएँ रची जाने लगी थीं। हमारी पृथ्वी में उत्तरी ध्रुव ही ऐसा भू-भाग है जहाँ लम्बे-लम्बे दिन और रातें होती हैं। दिन और रात की लम्बाइयाँ केवल कुछ घण्टों तक ही सीमित नहीं रहतीं बल्कि महीनों तक चलती हैं। ऐसी दिन रात वाली प्राकृतिक शोभा के गीत हमारे वेद में गाए गए हैं। इस तरह महाराज भरत के समय तक वेद की काफी ऋचाएँ बन गई थीं और उन्हें श्रद्धा से पढ़ने वालों का समाज भारत से बाहर उत्तरी ध्रुव तक फैला हुआ था। ऋग्वेद की ऋचाएँ रचने वालों में भरतवंशी परमेष्ठी भी थे जिन्होंने नासिधीय सूत्र रचा। वेन और पृथु की कथा स समय हमारे देश में महाराज नाभि शासन चला रहे थे, उसी समय भारतवर्ष से बाहर किन्तु भरतखण्ड के अन्दर ही वेन नामक पराक्रमी राजा राज्य कर रहा था। वह जैसा प्रतापी था वैसा ही लालची और दुष्ट था। उसे यहाँ तक घमण्ड हो गया कि अपनेआप ही अपने को ईश्वर मानने लगा। राजा ही ईश्वर है, उसके मुख से निकला हुआ वाक्य ही वेदवाक्य है। समाज पर इन ऋषियों-फिसियों का प्रभाव नहीं होना चाहिए। यह सोचकर राजा वेन ने ऋषियों का अपमान करने की नीति बरती। ऋषिगण राजा के घमण्ड और मूर्खता से तंग आ गए। राजा वेन की सेना भी जनता के क्रोध के आगे ठहर न सकी और अन्त में वेन राजा भी मार डाला गया । वेन जैसा निर्बुद्ध था वैसा ही उसका बेटा पृथु प्रबुद्ध और ज्ञानी था। उसने भी उसी तरह अपने क्षेत्र में पहली बार पृथ्वी को हल से जुतवाया जैसा राजा नाभि ने किया था। पृथु ने भी भरत की तरह ही बहुत-सी भूमि जीती। जैसे भरत के नाम पर भरतखण्ड और भारतवर्ष नाम पड़े वैसे ही पृथु के नाम पर इस धरती को पृथ्वी कहा जाने लगा। यह पृथु वैन्य भी राजा भीम परमेष्ठी के समान ही ऋग्वेद के मन्त्रद्रष्टा ऋषि हुए। मनुष्य के आदि पुरखों की कथाएँ सुनाते हुए पितामह भीष्म बोले, "हे युधिष्ठिर! जो अपने पुरखों के इतिहास को सही ढंग से पहचानता, जानता और समझता है, वह मानव सभ्यता के विकास को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाकर यश पाता है। हे युधिष्ठिर! हमारी यह आर्य सभ्यता बड़े-बड़े योद्धाओं और ऋषि-महर्षियों ने बड़े परिश्रम, बड़ी सूझ-बूझ और लगन से सारी दुनिया में बैठाई थी। उन्होंने जंगली जातियों से जंगलीपन छुड़वाकर उन्हें सभ्य बनाया। खानों से सोना-चाँदी, हीरे मानिक-मणियाँ आदि का वैभव खोद निकाला। समुद्र के गर्भ से मोती निकाले। यह सुन्दर-सुन्दर भवन और सुखद जीवन जो आज हम भोग रहे हैं वह इन्हीं पुरखों की कृपा का फल है। हमारे इन्द्र, वरुण और आदित्य जैसे प्रतापी राजा और भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, पुलह, पुलस्ति, विश्वामित्र आदि महर्षियों ने दुनिया में ज्ञान और सुशासन का उजाला कर दिया। भीष्म पितामह सुनाने लगे, "हे युधिष्ठिर! मानव सभ्यता को विकास देने में जैसे पहले मनुओं की परम्परा ने हमें राह दिखलाई वैसे ही उनके बाद इन्द्रों की परम्परा ने भी हमारा बड़ा उपकार किया। उनके समय में मनुष्य जाति का जो वर्ग सभ्य और संस्कारवान् बना वह देव जाति कहलाया। देव लोग शुरू में तो बड़े सभ्य और धार्मिक लोग रहे। बाद में दूसरी जातियों पर शासन करते-करते उनमें घमण्ड, स्वार्थपरता और क्रूरता जाग उठी, वे अत्याचारी भी हो गए। अपने कर्मों और व्यवहार में उन्होंने नीति-अनीति का विचार करना छोड़ दिया। हे युधिष्ठिर! शासक वर्ग के लोग जब-जब अन्यायी और अत्याचारी हो जाते हैं तब-तब उनके अन्याय को दबाने के लिए मनुष्य जाति अपने भीतर से एक नयी और न्यायशील चेतना जागृत करती है। इस सामाजिक चेतना को बल देने के लिए नियति भी मानो अदृश्य से दृश्यमान होकर सहायक बनती है। हे पुत्र! मनुष्य अर्थात् नेताओं का अत्याचार जब अति पर पहुँच गया तब समाज से एक नया नेता जागा । वह आगे चलकर इन्द्र कहलाया। इन्द्र की कथा व जाति में कश्यप कुल सिरमौर था। उसके एक कुशिक नामक सरदार ने अपने ओहदे एवं शारीरिक शक्ति के घमण्ड में अत्याचारों को सीमा तक पहुँचा दिया। एक अदिति नाम की किसी प्रजानन की बेटी थी। वह बड़ी ही रूपवती थी। उसका स्वभाव भी सीधा और सच्चा था। दुष्ट कुशिक ने अदिति की सुन्दरता को बड़ी लालच भरी गन्दी नज़र से देखा। वह उसे बराबर घेरने लगा। अदिति बेचारी दिन-रात डर के मारे सहमी-सहमी-सी रहने लगी। उसके माँ-बाप भी दुखित और चिन्तित रहने लगे। बहुत बचाव करते हुए भी शासक की बुरी निगाह से भला कौन बच सकता। अदिति बेचारी एक दिन वैसे ही कुशिक की दबोच में आ गई जैसे सिंह की दबोच में बेचारी हिरनी आ जाती है। कुशिक के इस पाप-परिणाम से बेचारी अदिति को मजबूरन माँ बनना पड़ा। लेकिन जब
वह माँ बन गई तो उसने निश्चय किया कि अत्याचारी कुशिक को मैं उसी के बेटे से दण्ड दिलवाऊँगी। अदिति माता ने अपने बेटे को बहुत लाड़ प्यार और साथ-ही-साथ कठोर अनुशासन में पाल-पोसकर बड़ा किया। उसने अपने बेटे को कसरत, कुश्ती एवं अपने समय के श्रेष्ठ हथियार चलाना सिखलाया। वह अच्छे-अच्छे ज्ञानवान गुरुओं के पास ले गई और उनसे उसे श्रेष्ठ शिक्षा दिलवाई। बेटा जब माँ के पास रहता तो वह उसे यही शिक्षा बार-बार देती थी कि हे पुत्र! तुम श्रेष्ठ विद्वान, ज्ञानी और न्यायी बनो। न्याय की रक्षा के लिए अपने शरीर और मन में इतनी शक्ति पैदा करो कि महाबली दुष्ट भी तुम्हारी शक्ति के आगे घुटने टेक दे। शक्ति के बिना न्याय का पालन हो ही नहीं सकता। न्याय का पालन ज्ञान के बिना नहीं होता। बालक जब धीरे-धीरे बड़ा हुआ तो अपने देशकाल के शासक वर्ग का अन्याय और अत्याचार देख-देखकर उसका जी बार-बार विद्रोह करने के लिए मचल उठता था। अदिति माँ ने सोचा कि बेटे को उसकी जन्म की कथा सुनाने का समय आ गया। एक दिन माँ ने अपने बेटे को उसके बाप का नाम बतलाया। जब बेटे ने यह जाना कि उसके इलाके का अत्याचारी शासक ही उसका पिता है तब वह क्षोभ और क्रोध से भर उठा। अपने जन्म की कथा जानकर उसे बड़ी लज्जा आने लगी। वीर की आँखों में आँसू छलछला उठे। माँ बोली - "हे पुत्र! इस निकम्मी लज्जा से अपने को निकम्मा मत बना और तुम्हारे पिता को अपनी अपार शारीरिक शक्ति और प्रतापी सेना का घमण्ड है। गाँव-भर के सारे लड़के तुम्हें चाहते हैं। तुमसे प्रेरणा पाते हैं, उनको सेना के रूप में संगठित करो और जाओ अपने अत्याचारी पिता का वध करके मुझे शीघ्र-से- शीघ्र विधवा बनाओ। यही मेरे दूध का मूल्य होगा। हे पुत्र! तुम जनजाति के इन्द्र बनो और देवों के घमण्ड को चूर करो। हे पुत्र! तुम भी देव हो। तुम अपनी जाति के सिरमौर बनो, यह मेरा आशीर्वाद है।" अपनी माँ के द्वारा इन्द्र पद की लालसा लेकर बेटा उसका चरण छूकर बाहर आया। उसने गाँव के सयाने लड़कों और मित्रों के सामने निःसंकोच भाव से अपने जन्म का इतिहास बतलाया। सुनकर उसके कई साथियों ने दबी जबान से अपने-अपने जन्म की सच्चाई को प्रकट कर दिया। जहाँ-जहाँ देवों का राज्य था, वहाँ-वहाँ आमतौर से ऐसे ही अत्याचारों की सैकड़ों कहानियाँ भरी पड़ी थीं। एक युवक कहने लगा, "यह देव शासक लोग, हम से कड़ी मेहनत लेकर सोना, चाँदी आदि धातुएँ एवं मणि-माणिक खुदवाते हैं। अपने गुलछरें उड़ाते हैं, हमें सताते हैं। उनकी स्त्री की मर्यादा बहुत बड़ी है। हम दीन-हीनों की स्त्रियों का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं । हे मित्र! तुम्हारी तपस्वी माता ने तुम्हें इन्द्र बनने का वरदान दिया है। हम भी यह मानते हैं कि तुम हमारे इन्द्र बनने के सच्चे अधिकारी हो। चलो देवों की अकल ठिकाने लगा दो। इन्द्र ने कहा - "वह यदि देव हैं तो हम असुर हैं, यानी हम प्रणापन है। हम प्राणव से यह प्रतिज्ञा करते हैं कि अपनी संगठित शक्ति से शत्रुओं की कुमति को कुचल देंगे।" भीष्म कहने लगे - "हे पुत्रो! जो इन्द्र बाद में देवों का राजा बना उसी ने पहले असुर पद धारण किया था। इन्द्र और उसके साथियों ने सचमुच अपने असुर का प्राणवान होने का प्रत्यक्ष चमत्कार दिखाया। गाँव-गाँव के विद्रोही लड़कों ने इन्द्र के झण्डे के नीचे इकट्ठे हो देव सरदारों की अकल ठिकाने लगानी शुरू कर दी। देव लोग घबड़ाए। उन्होंने अपने हाकिम कुशिक के दरबार में गोहार लगा दी। कुशिक ने घमण्ड से कहा - "मैं, मैं इन नालायक लड़कों की अकल ठिकाने लगा दूँगा, चलो सेना सजाओ और इन दुष्टों के गाँव-के-गाँव उजाड़ दो।" सरदार कुशिक कश्यप की यह चुनौती युवक विद्रोहियों के जासूसों ने आनन-फानन में ही इन्द्र के कानों तक पहुँचा दी। इन्द्र तो इस मौके की तलाश में पहले ही बैठा था। देवों की सेना सजकर मैदान में जम भी न पाई थी कि लड़के उन पर अचानक बिजली की तरह टूट पड़े। बचे-खुचे लोग किले में दुम दबाकर भाग गए। किले मिट्टी के बनते थे उनकी दीवारें खूब चौड़ी-चौड़ी होती थीं और उनके चारों ओर पानी से भरी हल्की खाई होती थी। देव लोग अपनी नदियों पर मिट्टी के पक्के बाँध भी बाँधा करते थे, जिससे नदी उनके आदेशानुसार उनके किले के किनारे से होकर उन इलाकों में बहती थी जिसे देव सींचना चाहते थे। इन्द्र ने अपने बहादुरों से कहा - "मित्रो, अगर हम इस बाँध की दीवार को तोड़ दें तो जमा किया हुआ पानी सीधे इनके किले की दीवारों से टकराएगा और इन्हें तोड़ देगा। मित्रो, तुम्हारे इन्द्र का यह नारा है कि बाढ़ लाओ। देवों के नगरों को जला दो और बिजली बनकर इन पर अचानक टूटो। इन तीन नारों को यदि तुम बराबर याद रखोगे और चूक नहीं करोगे तो अत्याचारी शत्रु तुम्हारे आगे घुटने टेककर धरती पर अपनी लम्बी नाकें घिसने लगेंगे।" इसके बाद बड़ा युद्ध हुआ। किला ध्वस्त हुआ । देव लोगों
के परिवार डूबे । बचे-खुचों को इन्द्र की सेना ने लूटा और इन्द्र की आज्ञा से उनकी बस्तियों को जला डाला। कुशिक को मारते ही इन्द्र का नाम सारी देव जाति में सूरज की धूप-सा फैल गया। सब लोग उससे डरने लगे। फिर तो इन्द्र और उसकी सेना जगह-जगह बाँधों को तोड़कर देवजातियों की बस्तियों पर बाढ़ लाने लगी। जगह-जगह उनकी बस्तियाँ जलाई जाने लगीं। देवों में त्राहि-त्राहि मचने लगी। उस समय देवों के मुखिया आदित्य विष्णु बड़े समझदार और बड़े परम आचरण के थे। उन्होंने इन्द्र को बुलाया और बड़े प्यार से समझाया और कहा - "हे पुत्र! मैं तुम्हारी न्यायबुद्धि की प्रशंसा करता हूँ और तुम्हारी शक्ति से भी प्रभावित हूँ। बेटे अपने क्रोध को विवेकयुक्त बनाओ। तुम देवों की अन्यायवृत्ति के शत्रु हो, उनके शत्रु मत बनो। इन्द्र तुम भी अपने पिता के कारण हमारे कश्यप कुल के देवपुत्र हो। इसलिए स्वजाति का संहार मत करो। तुम मनु शासन के महासेनाधिकारी बनो।" इन्द्र ने विष्णु भगवान की आज्ञा के आगे अपना सिर सादर झुका दिया। इस प्रकार पाण्डवों को बहुत उपदेश देते हुए भीष्म पितामह ने अपने अन्तिम दिन बिताए और सर्दी के दिनों में सूर्य उत्तरायण हुए तब उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त कर दी।
‎तुम लोग कौन हो? ‎क्या इसे मारना ज़रूरी था? ‎चलो चलें। ‎वे किसी भी पल हमला कर सकते हैं। ‎और हमें कोई जानकारी नहीं है। ‎जानकारी निकालनी होगी। ‎ज़ेनेप। ‎जानकारी कहाँ से मिली। ‎डेरया ने मुझे बताया। ‎लेकिन उससे बात करके कोई फायदा नहीं। ‎वह बस उतना ही जानती है। ‎जिसका संबंध अतीत से है। ‎तुम इतने यकीन से कैसे कह सकती हो? ‎तो आप झूठ बोलती? ‎ज़ेनेप। ‎हाँ। ‎कातिल को जिन्दा नहीं देख सकती। ‎मुश्किल नहीं होगी। ‎पहले ही बहुत सारी मुश्किलें हैं। ‎हमले की जानकारी है। ‎अब मेरी बारी है। ‎नहीं, हकान। पुलिस तुम्हारे पीछे है। ‎हमें हमारा हमारा काम करने दो। ‎लेकिन तुम अभी भी सिर्फ बोल रही हो। ‎जबान संभाल कर, ज़ेनेप। ‎उनकी चिंता मत कीजिए। ‎क्यूँकि मेरे पिता अब नहीं रहें। ‎यह सब तुम्हारे नियमों की वजह से हुआ। ‎तो वह आज यहाँ होता। ‎बस कीजिए। ‎तुम लड़ना चाहते हो? ‎तो अपनी ताकत शैतानों के लिए रखो। ‎युद्ध की शुरुआत हो चुकी है. ‎और मैं हर हाल में यह युद्ध जीतूँगा। ‎मैं एक एक कर के सारे शैतानों को मारूँगा। ‎तुम्हारे साथ या तुम्हारे बिना। ‎लैला? ‎तुम कहाँ गई थी? मुझे चिंता हो रही थी। ‎हकान ‎यह सही नहीं है ‎मुझे यहाँ तुम्हारे साथ नहीं होना चाहिए। ‎तुम यह क्या कह रही हो? ‎तुम अब हम में से एक हो। ‎मैं नहीं हूँ। ‎मैं अब तुम लोगों जैसी नहीं रही। ‎तुम ‎कोई फर्क नहीं पड़ता। ‎मैं तुम्हें कभी नहीं छोडूंगा। ‎हकान, हमें बात करनी होगी। ‎मैं अभी आता हूँ। ‎मैं तुम्हारे जज़्बात समझ सकती हूँ। ‎तुम कोई आम इंसान नहीं हो। ‎आप सीधे मुद्दे की बात कीजिए। ‎चुनाव करना होगा। ‎सुरक्षित है। ‎सुनो, हकान। ‎उस कमीज को ढूँढने में लगाना चाहिए। ‎लैला पर नहीं। ‎मैं संरक्षक हूँ। ‎मैं हर पल इस सच को समझ रहा हूँ। ‎आप सिर्फ एक वफादार हैं। ‎मेरे निजी मामलों में दखल मत देना। ‎एक ताजा खबर है। ‎क्या खबर है? ‎लाइव रिपोर्टिंग कर रही हूँ। ‎अभी भी अनजान है। ‎पुलिस के पास कोई आरोपी नहीं है। ‎तुम्हें यह देखना चाहिए। ‎म्युझियम के तहखाने से। ‎शक्ल देना चाहते हैं। ‎यह कोई मामूली छोटी नहीं लगती। ‎हाथ है। ‎चलो इसकी जांच करते हैं। ‎हम जानकारी निकलते हैं। ‎ठीक है। ‎नहीं, मैं खुद वहाँ जाऊंगा। ‎मैं तुम्हारे साथ आ रही हूँ। ‎मेरा दोस्त मेटिन म्युझियम में काम करता है। ‎ठीक है। लैला चलो। ‎चान को अपने साथ ले जाओ। ‎रक्षा करना। ‎जल्दी करो, बच्चे। ‎सु प्रभात। ‎डरने की कोई बात नहीं। मैं हूँ। ‎सु प्रभात। ‎मैं खुद को रोक नहीं पाया। ‎जिन्दा होकर अच्छा लग रहा है। ‎तो नहीं हैं ना? ‎मुझे कोई एतराज नहीं है। ‎और मैं यहाँ रहकर उब चुकी हूँ। ‎जिंदगी जीने का यह कोई तरीका नहीं। ‎फिर बाकी सब बहुत आसान है। ‎लैला को एक मौका दो। ‎तुम उस पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हो। ‎वह बस एक छोटी लड़की है। ‎हाँ, लेकिन वह मेरी कठपुतली है। ‎फिर भी, प्यार लोगों को बहका सकता है। ‎वह संरक्षक से बहुत प्यार करती है। ‎तुम बाकि लोगों से मिले? ‎वे कैसे हैं? क्या करना चाहते हैं? ‎मैं नहीं जानता। ‎शायद वे मेरी संपत्ति का मजा ले रहे हैं। ‎वे चुपचाप नहीं बैठेंगे। ‎वे जरुर कोई साजिश बना रहे होंगे। ‎हम उनसे कब मिलेंगे? ‎बाद में बात कर सकते हैं? ‎बाद में। ‎जाओ अब तैयार हो जाओ। ‎मेरे पास तुम्हारे लिए सरप्राइज है। ‎पुलिस सब जगह तुम्हें ढूँढ रही है। ‎और हम खुद उनके पास जा रहे हैं। ‎यकीन नहीं होता! ‎चिंता मत करो। ‎बात सुनो। कृपया रुक जाइए। ‎मुझे आपकी तलाशी लेनी होगी। ‎हेलो। ‎तुम पीछे मुडोगे? ‎हम यहाँ मेटिन से मिलने आए हैं। ‎वह मेरा दोस्त है। ‎ठीक है, तुम जा सकते हो। शुक्रिया। ‎हम जल्द ही लौटेंगे, चान। ‎तुम्हें थोड़ी देर इन्तजार करना होगा। ‎शुक्रिया। ‎मैंने कहा था, हमें नहीं आना चाहिए था। ‎उन्हें पता चल गया तो? ‎चलो, जल्दी काम निपटाते हैं। ‎ए रुको! ‎ओह! ‎ज़ेनेप? ‎कैसे हो तुम? ‎तुम कहाँ गायब हो गई थी? ‎बहुत दिनों बाद मिल रही हो! ‎तुम स्कूल में भी नहीं दिखी। ‎हाँ, मैं काम में व्यस्त थी। ‎मुझे तुम्हारी बहुत याद आई। ‎मुझे भी तुम्हारी याद आई। ‎मेटिन, यह मेरे दोस्त हैं। ‎जानकारी लेने आए हैं। ‎क्या तुम कुछ जानते हो? ‎चीजे नहीं, सि
र्फ एक कीड़ा चोरी हुआ है। ‎एक कीड़ा? ‎हाँ। ‎लगता है, उनके पास पूरी जानकारी थी। ‎क्या तुम देखना चाहोगे? ‎जरुर देखना चाहेंगे। ‎मेरे साथ चलो। ‎कीड़ों का पूर्वज है। ‎जो जमीन के निचे रहती थी। ‎कि उनके घोसलों से भूकंप आ सकते थे। ‎सेकड़ो सालों पहले वे विलुप्त हो गए। ‎यह रहा वह। ‎टिड्डे से अलग है। ‎संरक्षित नमूना है। ‎लेकिन उसकी चोरी क्यों की होगी? ‎हानिकारक कीड़ों में से एक है। ‎...लैला। ‎...इनकी वजह से अकाल पड़ते थे। ‎तो क्या चोर यही चाहते हैं? ‎वे लोगों को भूका मारना चाहते है? ‎यह अकाल कब तक चलता है? ‎तो हालात बदल जाते हैं। ‎लेकिन यह कीड़ा बहुत खतरनाक है। ‎लैला ‎लाशें, पेड़, पौधे, जानवर ‎यह सब को खा जाते हैं। ‎यह वही आदमी है ना? ‎तो वहाँ के सारे जीवों को खा जाते हैं। ‎वे उसे पकड़ने आ रहे हैं। ‎हकान, हमें अब चलना चाहिए। ‎क्या वे पुरे शहर को तबाह कर सकते हैं? ‎अतीत में कई बार ऐसा हुआ है। ‎उम्मीद करता हूँ, वे वापिस नहीं लौटेंगे। ‎हकान! ‎यह क्या हो रहा है? ‎शिट। ‎शुक्रिया। ‎लैला कहाँ है? ‎हमें जाना होगा। ‎भागो! ‎भागो! ‎लैला! ‎वे आ रहे हैं। भागो! ‎और तुम्हारा क्या? ‎तुम जाओ। मैं उन्हें रोकती हूँ। ‎मैं तुमसे प्यार करता हूँ, ख्याल रखना। ‎हम अड्डे पर मिलते हैं। ‎वे कहाँ है? किस तरफ भागे? ‎वे इस तरफ गए। ‎पुलिस! हिलना मत! ‎अपनी जगह पर रुक जाओ! ‎यह मेटिन कौन है? ‎तुम यह क्या कह रहे हो? ‎वह मेरा दोस्त है। ‎अच्छा, दोस्त है। तुम्हें मिस कर रहा था। ‎शांत रहो, वे हमें सुन सकते हैं। ‎वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? ‎वह मेरा दोस्त है। ‎पता है। ‎तुम वहाँ देखो। ‎क्या वे चले गए होंगे? ‎वे चले गए। ‎बाहर निकलो। ‎जल्दी करो। ‎हम लैला को यहाँ नहीं छोड़ सकते। ‎बकवास मत करो! ‎पुलिस तुम्हारे पीछे है, उसके नहीं। चलो। ‎लैला ‎तुम्हारा स्वागत है। ‎मैंने किसी चीज को नहीं छुआ। ‎सब कुछ अपनी जगह पर है। ‎जुडी हैं, है ना? ‎जैसे मेरा क़त्ल हुआ था? ‎रुया? ‎बुरी यादों को भूल जाते हैं। ‎काश तुमने ऐसा सोचा होता। ‎इसे जलाकर ख़ाक करना चाहिए था। ‎मुझे माफ़ करो। मैंने ‎रुया, मुझे माफ़ कर दो। ‎मुझे माफ़ करो, मैं यह सब ‎मेरा यह इरादा नहीं था, मुझे माफ़ करो। ‎तुम्हारी नाक ‎तुम्हारी नाक से खून बह रहा है, रुया। ‎तुम ठीक हो ना? ‎मुझे इस घर से नफरत है। ‎हम इंसान नहीं हैं। ‎तुम्हारा खून नहीं बह सकता। ‎अगर यह घर वजह नहीं, तो फिर क्या है? ‎मुझे नहीं पता। ‎मुझे नहीं पता। ‎हमें संरक्षक को मारना होगा। ‎अकाल लाना लगभग नामुमकिन है। ‎कोई योजना बना रहे होंगे। ‎हकान, तुम मेरी बात सुन रहे हो? ‎लैला फोन नहीं उठा रही है। ‎चिंता मत करो। ‎उसका फोन शुरू नहीं होता। ‎मैं यहाँ इंतजार नहीं कर सकता। ‎ए! रुको, तुम कहाँ जा रहे हो? ‎हकान, तुम क्या कर रहे हो? ‎तुम गिरफ्तार होना चाहते हो? ‎पूरा पुलिस दल तुम्हारे पीछे है। ‎गायब नहीं हुई है। ‎नहीं उठाया था। ‎तब लैला वहाँ नहीं थी। ‎फिर वह अचानक आ गई। ‎मुझे उसका बर्ताव थोडा अजीब लगा। ‎तुम्हें ऐसे नहीं लगा? ‎तुम हमेशा उस पर शक क्यों करती हो? ‎तुम हमेशा उसका बचाव करते हो। ‎मैंने उसे कॉल किया। तो क्या हुआ? ‎हकान, बात वो नहीं है। ‎मुझे उस पर यकीन नहीं है, समझे? ‎मुझे पसंद नहीं। ‎जानती हो मुझे क्या लगता है? ‎तुम लैला से जलती हो। ‎तुम मेरे बारे में ऐसा सोचते हो? ‎भाड़ में जाओ तुम! ‎ज़ेनेप, रुको। तुम कहाँ जा रही हो? ‎इसलिए मैं अपने रास्ते जा रही हूँ। ‎ज़ेनेप, तुम कहाँ जा रही हो? ‎एक मिनट रुक जाओ। ‎कोई बात नहीं। ‎उसने जोर से थप्पड़ मारी थी। ‎जरुर लगी होगी। ‎हेलो। ‎फिर कभी मेरे साथ ऐसा मत करना। ‎काबू नहीं कर सकते। ‎मैंने तुम्हें काबू नहीं करूँगा, लैला। ‎तुम्हें इन सबकी आदत पड़ जायेगी। ‎तुम खुद से भाग नहीं सकती। ‎लेकिन तुम सही हो। ‎शुरुआत में। ‎काश मैं मर चुकी होती। ‎इस तरह मुझे ज्यादा तकलीफ हो रही है। ‎तुम और तुम्हारी योजना गई भाड़ में! ‎लड़ने से कोई फायदा नहीं। ‎तुम मेरी हो। ‎शाबाश। ‎अब सब ठीक है। ‎हम एक दुसरे के साथ है, है ना? ‎और अब, मुझे सब कुछ बता दो। ‎मुझे क्यों पूछ रहे हो? ‎मुझे इतना ही पता है। ‎हमन
े चाल चली? ‎यह तुम्हें पता नहीं था? ‎मतलब, अब मुलाक़ात का वक्त आ गया है। ‎ठीक है, हम जा रहे हैं। ‎और तुम भी मेरे साथ आ रही हो। ‎हमला नहीं किया था। ‎जैसे ज़ेनेप ने कहा था। ‎यह उनका तरिका नहीं है। ‎क्या किसी के पास दूसरी योजना है? ‎क्या हमारे पास कोई सबूत नहीं है? ‎जिसने इन कीटों पर संशोधन किया है। ‎बारे में जानकारी दे सकता है। ‎यह आदमी कहाँ मिलेगा? ‎मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगा। ‎ठीक है, तो चलो। ‎मैं आ सकती हूँ? ‎यहाँ रुको, और अड्डे पर नजर रखना। ‎ठीक है। ‎मिलते हैं। ‎पुलिस से बचकर रहना, हकान। ‎तुम एक भगोड़े हो! ‎ध्यान रखूँगा। ‎ज़ेनेप! इतने दिनों से तुम कहाँ थी? ‎क्या हुआ? कोई मुश्किल है? ‎कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन एक मौका है। ‎वे एक प्रोजेक्ट शुरू करने वाले हैं। ‎कहा है। ‎और मुझे तुम्हारा ख्याल आया। ‎क्या बात है? तुम खुश नहीं हो? ‎नहीं। बदकिस्मती से, मैं नहीं जा सकती। ‎जल्दबाजी में फैसला लेने की जरुरत नहीं। ‎नहीं, मेरा फैसला हो चूका है। ‎मुझे यहाँ रहना होगा। ‎यहाँ लोगों को मेरी जरुरत है। ‎लायक हैं भी या नहीं। ‎ठीक है। जैसी तुम्हारी मर्जी। ‎रुको। तुम यह भूल गई। ‎रख लो। ‎शायद तुम्हारा फैसला बदल जाए। ‎क्या तुमने विझीएर को देखा है? ‎वह कई दिनों से गायब है। ‎जल्द ही पता चल जायेगा। ‎हमें और कितने दिन इंतजार करना होगा? ‎हमें पता चल जाएगा। ‎लो वह आ गया। ‎देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ। ‎हमारी नई साथी को तैयार करना था। ‎लैला,अब तुम हम में से एक हो। ‎आओ, शरमाओ मत। यहाँ आओ। ‎मैं तुम्हें सबसे मिलवाता हूँ। ‎यह है लैला। ‎यह क्या बकवास है? ‎पहले कभी कोई इंसान हमारा साथी नहीं बना। ‎मैंने लैला को पुनर्जीवित किया है। ‎उसकी रगों में मेरा खून है। ‎चिंता मत करो। ‎क्या सिर्फ खून होना काफी है? ‎हम जो कहेंगे लैला वही करेगी। ‎तुमपर यकीन करना सही नहीं होगा। ‎आधी इंसान, आधी अमर शैतान। ‎मुझे ऐसे लोग पसंद है। ‎मेरा तुमसे कोई लेना देना नहीं है। ‎इसने सही कहा, मेरे दोस्तों। ‎मैंने तुम्हें नींद से जगाया है। ‎है ना? ‎मैंने तुम्हें नई जिंदगी दी है। ‎और तुमने क्या किया? ‎तुम लोगों ने क्या किया? ‎मेरे पीछे साजिश रची? ‎तुमने कोई गुप्त योजना बनाई है? ‎अब मेरी बात कान खोलकर सुन लो। ‎लैला को कोई हाथ नहीं लगाएगा। ‎कोई भी नहीं! तुम सुन रहे हो? ‎ठीक है, फैजल। अब बस करो। ‎मुझे माफ़ करो। ‎ऐसा मत करो। ‎मुझे माफ़ करो। ‎मुझे माफ़ करो। रुया। ‎लेकिन मैंने अपनी बात कह दी है। ‎बकवास। ‎तुम कहीं नहीं जाओगी। ‎अब काम की बात करते हैं। ‎मेरे पीठ पीछे बनाई है ‎उस पर अमल नहीं होगा। ‎समझ गए? ‎लैला संरक्षक को हमारे पास लेकर आएगी। ‎है ना, लैला? ‎तुम जरुर लाओगी? ‎हम उसे रास्ते से हटा देंगे। ‎समझे? ‎के बारे में बात करेंगे। ‎तुम बकवास कर रहे हो। ‎इंसानियत को तबाह करना है। ‎संरक्षक को हमसे दूर रखो। ‎इतना काफी होगा। ‎तुम हमेशा बेसब्री से काम लेते हो। ‎हमेशा बेसब्री से। ‎तुम धीरज से काम लेना नहीं जानता। ‎मार डाला था। ‎इस बार धीरज से काम लो। ‎मैं ऐसा क्यों करूंगा? ‎मजे कर सको? ‎क्या कहा? ‎बस। बस, बहुत हुआ। ‎हम कमजोर बन रहे हैं। ‎मुझे नहीं। ‎मकसद से भटक गया है। ‎यह कभी भी इंसानों से दोस्ती कर सकता है। ‎अच्छा हुआ इसने हमें जिंदा कर दिया। ‎तुम्हारे बिना भी सफल होगी। ‎मुझे हकान को ढूँढना होगा। ‎मेरे साथ चलो। ‎नहीं उठाए? ‎हमें बात करनी होगी। ‎जा रहा हूँ। ‎तो वहीँ मिलते हैं, ठीक है? ‎मैं आई रही हूँ। ‎ठीक है। ‎एंटोमोलॉजी विभाग कहाँ है? ‎पहली मंजिल पर है। ‎शुक्रिया। ‎फैजल? ‎तुम अभी तक गए नहीं? ‎चाहता था। ‎तुम दौलत के मजे लुट रही हो। ‎तुम्हारा कोई इरादा नहीं है। ‎शानदार तरीके से जी रहे हो। ‎मुझे पैसे या ऐशो आराम की कोई जरुरत नहीं। ‎मेरी जिंदगी का एक मकसद है। ‎ताकि मैं घर जा सकू। ‎हम सब यही चाहते है। ‎क्या फैजल भी यही चाहता है? ‎हम में से एक को मार डाला? ‎तो यह सिलसिला युही जारी रहेगा। ‎हमें उस लड़की को हटाना होगा। ‎और इस काम में मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। ‎मुझे फैजल पर यकीन है। ‎और तुम्हें भी उस पर यकीन करना चाहिए। ‎देखो, हम अभी जिन्दा हुए है। ‎हमें साथ
मिलकर काम करना होगा। ‎हमारे बिच अजनबी होने के बावजूद? ‎फैजल एक दुसरे से प्यार करते हो। ‎गलत पक्ष चुना है। ‎मेर्गन? ‎शायद तुम भूल गए हो मैं कौन हूँ। ‎मैं पक्ष नहीं चुनती। ‎आरोपी इसी इमारत में हैं। ‎अगले मंगलवार की मिलते हैं। ‎शुक्रिया, सर। ‎एर्सान इमाझ? ‎बोलिए। ‎जांच कर रहे है। ‎प्रजाति पर संशोधन किया था। ‎शायद आप हमारी मदद कर सकते हैं। ‎आर्टिकल लिखा था। ‎तुम पुलिस हो? ‎हाँ। ‎हाँ। ‎क्यों की गई? ‎नहीं, मुझे नहीं पता। ‎चुराना चाहेगा? ‎शायद वे अकाल फैलाना चाहते हो? ‎उम्मीद करता हूँ, यही वजह होगी। ‎काली मौत के बारे में कभी सूना है? ‎मैं बताता हूँ। ‎तो ‎यह यूरोप है। ‎जो इजिप्त से इटली जा रहा था। ‎एक खतरनाक वायरस लेकर आए। ‎यह बीमारी फ़ैल गई। ‎यूरोप में महामारी फ़ैल गई। ‎जख्म होने लगते थे। ‎इससे दर्दनाक और खुनी मौत होती थी। ‎एक तिहाई आबादी मर गई। ‎सूरज भी काला नजर आता था। ‎इसलिए इसे काली मौत कहते है। ‎और यह सब उस किट की वजह से हुआ था। ‎होने के बाद वायरस गायब हो गया। ‎अगर वह लौट आया तो? ‎यह नामुमकिन है। ‎मान लीजिए ऐसा हुआ तो। ‎आज, दुनिया की आबादी ज्यादा है। ‎बीमारी तेजी से फैलती है। ‎लायक नहीं रहेगा। इतना तय है। ‎अंत हो सकता है। ‎पुलिस ‎हिलना मत! ‎यहाँ आओ! ‎रुको! ‎भागना मत! ‎वहीँ रुको वरना गोली मार दूंगा! ‎जल्दी करो! ‎वह निचे गया है! ‎यहाँ आओ! पकड़ो इसे! ‎निचे बैठो! ‎हाथ ऊपर करो! सर पर रखो। ‎घुटनों पर बैठो! ‎सुनो! आप गलती कर रहे हैं। ‎मैं मासूम हूँ। मैंने कुछ नहीं किया। ‎सर हमें हमलावर मिल गया है। ‎NETFLIX ओरिजिनल सीरिज ‎तुम लोग कौन हो? ‎क्या इसे मारना ज़रूरी था? ‎चलो चलें। ‎वे किसी भी पल हमला कर सकते हैं। ‎और हमें कोई जानकारी नहीं है। ‎हमें हमले की योजना की ‎जानकारी निकालनी होगी। ‎ज़ेनेप। ‎तुम्हें हमें बताना होगा, तुम्हें यह ‎जानकारी कहाँ से मिली। ‎डेरया ने मुझे बताया। ‎लेकिन उससे बात करके कोई फायदा नहीं। ‎वह बस उतना ही जानती है। ‎वे बहुत बड़ा हमला करने वाले हैं, ‎जिसका संबंध अतीत से है। ‎तुम इतने यकीन से कैसे कह सकती हो? ‎आपकी जिंदगी दांव पर होती ‎तो आप झूठ बोलती? ‎ज़ेनेप। ‎हाँ। ‎माफ़ कीजिए, लेकिन मैं अपने पिता के ‎कातिल को जिन्दा नहीं देख सकती। ‎उम्मीद करता हूँ, इससे आगे कोई ‎मुश्किल नहीं होगी। ‎पहले ही बहुत सारी मुश्किलें हैं। ‎चलो, कम से कम हमें ‎हमले की जानकारी है। ‎अब मेरी बारी है। ‎नहीं, हकान। पुलिस तुम्हारे पीछे है। ‎हमें हमारा हमारा काम करने दो। ‎ओयकू पुलिस थाने में है ‎शैतान किसी भी पल हमला कर सकते हैं, ‎लेकिन तुम अभी भी सिर्फ बोल रही हो। ‎जबान संभाल कर, ज़ेनेप। ‎अगर तुम्हारे पिता यहाँ होते ‎उनकी चिंता मत कीजिए। ‎क्यूँकि मेरे पिता अब नहीं रहें। ‎यह सब तुम्हारे नियमों की वजह से हुआ। ‎अगर वह नियम का पालन करता ‎और गद्दार वफादार से मिलने नहीं जाता, ‎तो वह आज यहाँ होता। ‎बस कीजिए। ‎तुम लड़ना चाहते हो? ‎तो अपनी ताकत शैतानों के लिए रखो। ‎युद्ध की शुरुआत हो चुकी है. ‎और मैं हर हाल में यह युद्ध जीतूँगा। ‎मैं एक एक कर के सारे शैतानों को मारूँगा। ‎तुम्हारे साथ या तुम्हारे बिना। ‎लैला? ‎तुम कहाँ गई थी? मुझे चिंता हो रही थी। ‎हकान... ‎यह सही नहीं है... ‎मुझे यहाँ तुम्हारे साथ नहीं होना चाहिए। ‎तुम यह क्या कह रही हो? ‎तुम अब हम में से एक हो। ‎मैं नहीं हूँ। ‎मैं अब तुम लोगों जैसी नहीं रही। ‎हकान, सुनो ‎एक मिनिट रुको ‎हकान, मैं ‎तुम... ‎देखो, तुम वफादार नहीं हो, इस बात से ‎कोई फर्क नहीं पड़ता। ‎मैं तुम्हें कभी नहीं छोडूंगा। ‎हकान, हमें बात करनी होगी। ‎मैं अभी आता हूँ। ‎मैं तुम्हारे जज़्बात समझ सकती हूँ। ‎लेकिन हकान, ‎तुम कोई आम इंसान नहीं हो। ‎आप सीधे मुद्दे की बात कीजिए। ‎तुम्हें सोच समझ कर लोगों का ‎चुनाव करना होगा। ‎संरक्षक सिर्फ वफादारों के बिच ‎सुरक्षित है। ‎सुनो, हकान। ‎संरक्षक होने के नाते, तुम्हें अपना ध्यान ‎उस कमीज को ढूँढने में लगाना चाहिए। ‎लैला पर नहीं। ‎देखो, मुझे अच्छी तरह से पता है ‎मैं संरक्षक हूँ। ‎मैं हर पल इस सच को समझ रहा हूँ। ‎लेकिन आपको यह नहीं भूलना चाहिए
कि ‎आप सिर्फ एक वफादार हैं। ‎मेरे निजी मामलों में दखल मत देना। ‎एक ताजा खबर है। ‎ब्रेकिंग न्यूज ‎हत्या हुई है ‎क्या खबर है? ‎नेचुरल हिस्ट्री म्युझियम से ‎लाइव रिपोर्टिंग कर रही हूँ। ‎पुलिस इस हत्या की वजह ऐ ‎अभी भी अनजान है। ‎पुलिस के पास कोई आरोपी नहीं है। ‎तुम्हें यह देखना चाहिए। ‎सिर्फ इतना पता चला है, ‎एक विलुप्त मध्ययुगीन प्रजाति गायब है ‎म्युझियम के तहखाने से। ‎पुलिस इस संभावना पर विचार कर रही है ‎कि इस हत्या का कारण ‎निजी झगडा हो सकता है, ‎और खुनी इस मामले को चोरी की ‎शक्ल देना चाहते हैं। ‎यह कोई मामूली छोटी नहीं लगती। ‎इस चोरी के पीछे ज़रूर शैतानों का ‎हाथ है। ‎चलो इसकी जांच करते हैं। ‎हम जानकारी निकलते हैं। ‎ठीक है। ‎नहीं, मैं खुद वहाँ जाऊंगा। ‎मैं तुम्हारे साथ आ रही हूँ। ‎मेरा दोस्त मेटिन म्युझियम में काम करता है। ‎ठीक है। लैला चलो। ‎चान को अपने साथ ले जाओ। ‎अपनी जान देकर भी इसकी ‎रक्षा करना। ‎जल्दी करो, बच्चे। ‎सु प्रभात। ‎डरने की कोई बात नहीं। मैं हूँ। ‎सु प्रभात। ‎तुम इतनी खुबसूरत लग रही थी, ‎मैं खुद को रोक नहीं पाया। ‎जिन्दा होकर अच्छा लग रहा है। ‎हम हमेशा के लिए यहाँ छुपने वाले ‎तो नहीं हैं ना? ‎मुझे कोई एतराज नहीं है। ‎मैंने बहुत कुछ मिस किया है, ‎और मैं यहाँ रहकर उब चुकी हूँ। ‎जिंदगी जीने का यह कोई तरीका नहीं। ‎हमें पहले संरक्षक को रोकना होगा, ‎फिर बाकी सब बहुत आसान है। ‎लैला को एक मौका दो। ‎तुम उस पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हो। ‎वह बस एक छोटी लड़की है। ‎हाँ, लेकिन वह मेरी कठपुतली है। ‎फिर भी, प्यार लोगों को बहका सकता है। ‎वह संरक्षक से बहुत प्यार करती है। ‎तुम बाकि लोगों से मिले? ‎वे कैसे हैं? क्या करना चाहते हैं? ‎मैं नहीं जानता। ‎शायद वे मेरी संपत्ति का मजा ले रहे हैं। ‎वे चुपचाप नहीं बैठेंगे। ‎वे जरुर कोई साजिश बना रहे होंगे। ‎हम उनसे कब मिलेंगे? ‎रुया, क्या हम इन सब के बारे में ‎बाद में बात कर सकते हैं? ‎बाद में। ‎जाओ अब तैयार हो जाओ। ‎मेरे पास तुम्हारे लिए सरप्राइज है। ‎पुलिस सब जगह तुम्हें ढूँढ रही है। ‎और हम खुद उनके पास जा रहे हैं। ‎यकीन नहीं होता! ‎चिंता मत करो। ‎बात सुनो। कृपया रुक जाइए। ‎मुझे आपकी तलाशी लेनी होगी। ‎हेलो। ‎तुम पीछे मुडोगे? ‎हम यहाँ मेटिन से मिलने आए हैं। ‎वह मेरा दोस्त है। ‎ठीक है, तुम जा सकते हो। शुक्रिया। ‎हम जल्द ही लौटेंगे, चान। ‎तुम्हें थोड़ी देर इन्तजार करना होगा। ‎शुक्रिया। ‎मैंने कहा था, हमें नहीं आना चाहिए था। ‎उन्हें पता चल गया तो? ‎चलो, जल्दी काम निपटाते हैं। ‎ए रुको! ‎ओह! ‎ज़ेनेप? ‎कैसे हो तुम? ‎तुम कहाँ गायब हो गई थी? ‎बहुत दिनों बाद मिल रही हो! ‎तुम स्कूल में भी नहीं दिखी। ‎हाँ, मैं काम में व्यस्त थी। ‎मुझे तुम्हारी बहुत याद आई। ‎मुझे भी तुम्हारी याद आई। ‎मेटिन, यह मेरे दोस्त हैं। ‎हम चोरी हुए चीजों के बारे में ‎जानकारी लेने आए हैं। ‎क्या तुम कुछ जानते हो? ‎चीजे नहीं, सिर्फ एक कीड़ा चोरी हुआ है। ‎एक कीड़ा? ‎हाँ। ‎लगता है, उनके पास पूरी जानकारी थी। ‎क्या तुम देखना चाहोगे? ‎जरुर देखना चाहेंगे। ‎मेरे साथ चलो। ‎यह शिस्टोसेरका ग्रेगोरिया जाती के ‎कीड़ों का पूर्वज है। ‎टिड्डे के परिवार की एक ‎खास प्रजाति है, ‎जो जमीन के निचे रहती थी। ‎ऐसा कहते हैं, वे इतनी जोर से और ‎तेजी से कूदते थे ‎कि उनके घोसलों से भूकंप आ सकते थे। ‎सेकड़ो सालों पहले वे विलुप्त हो गए। ‎यह रहा वह। ‎तुम जो देख रही हो, यह चोरी हुए ‎टिड्डे से अलग है। ‎चुराया हुआ टुकड़ा एक एम्बर के ‎अन्दर सुरक्षित था, ‎और वह शायद दुनिया का सबसे अच्छा ‎संरक्षित नमूना है। ‎लेकिन उसकी चोरी क्यों की होगी? ‎शायद इसलिए, क्यूँकि वह दुनिया के सब से ‎हानिकारक कीड़ों में से एक है। ‎...लैला। ‎...इनकी वजह से अकाल पड़ते थे। ‎तो क्या चोर यही चाहते हैं? ‎वे लोगों को भूका मारना चाहते है? ‎यह अकाल कब तक चलता है? ‎बात जब इस कीड़े की हो, ‎तो हालात बदल जाते हैं। ‎कीड़े सिर्फ फसल खाते हैं, ‎लेकिन यह कीड़ा बहुत खतरनाक है। ‎लैला... ‎लाशें, पेड़, पौधे, जानवर... ‎यह सब को खा जाते हैं। ‎यह वही आदमी है ना? ‎यह जब
एक इलाके में फैलते हैं, ‎तो वहाँ के सारे जीवों को खा जाते हैं। ‎उन्होंने हकान को पहचान लिया, ‎वे उसे पकड़ने आ रहे हैं। ‎हकान, हमें अब चलना चाहिए। ‎क्या वे पुरे शहर को तबाह कर सकते हैं? ‎अगर सच कहूँ तो ‎अतीत में कई बार ऐसा हुआ है। ‎उम्मीद करता हूँ, वे वापिस नहीं लौटेंगे। ‎हकान! ‎यह क्या हो रहा है? ‎शिट। ‎शुक्रिया। ‎लैला कहाँ है? ‎हमें जाना होगा। ‎लैला ‎भागो! ‎लैला ‎भागो! ‎लैला! ‎वे आ रहे हैं। भागो! ‎और तुम्हारा क्या? ‎तुम जाओ। मैं उन्हें रोकती हूँ। ‎मैं तुमसे प्यार करता हूँ, ख्याल रखना। ‎हम अड्डे पर मिलते हैं। ‎वे कहाँ है? किस तरफ भागे? ‎वे इस तरफ गए। ‎पुलिस! हिलना मत! ‎अपनी जगह पर रुक जाओ! ‎यह मेटिन कौन है? ‎तुम यह क्या कह रहे हो? ‎वह मेरा दोस्त है। ‎अच्छा, दोस्त है। तुम्हें मिस कर रहा था। ‎शांत रहो, वे हमें सुन सकते हैं। ‎वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? ‎वह मेरा दोस्त है। ‎पता है। ‎तुम वहाँ देखो। ‎क्या वे चले गए होंगे? ‎वे चले गए। ‎बाहर निकलो। ‎जल्दी करो। ‎हम लैला को यहाँ नहीं छोड़ सकते। ‎बकवास मत करो! ‎पुलिस तुम्हारे पीछे है, उसके नहीं। चलो। ‎लैला... ‎तुम्हारा स्वागत है। ‎मैंने किसी चीज को नहीं छुआ। ‎सब कुछ अपनी जगह पर है। ‎इस घर से हमारी बहुत यादे ‎जुडी हैं, है ना? ‎जैसे मेरा क़त्ल हुआ था? ‎रुया? ‎बुरी यादों को भूल जाते हैं। ‎काश तुमने ऐसा सोचा होता। ‎और मुझे यहाँ लाने की वजह, ‎इसे जलाकर ख़ाक करना चाहिए था। ‎मुझे माफ़ करो। मैंने... ‎रुया, मुझे माफ़ कर दो। ‎मुझे माफ़ करो, मैं यह सब... ‎मेरा यह इरादा नहीं था, मुझे माफ़ करो। ‎तुम्हारी नाक... ‎तुम्हारी नाक से खून बह रहा है, रुया। ‎तुम ठीक हो ना? ‎मुझे इस घर से नफरत है। ‎हम इंसान नहीं हैं। ‎तुम्हारा खून नहीं बह सकता। ‎अगर यह घर वजह नहीं, तो फिर क्या है? ‎मुझे नहीं पता। ‎मुझे नहीं पता। ‎मुझे सिर्फ इतना पता है कि ‎हमारा मिशन पूरा करने के लिए ‎हमें संरक्षक को मारना होगा। ‎शायद पहले यह मुमकिन हो, ‎लेकिन आज की दुनिया में ‎अकाल लाना लगभग नामुमकिन है। ‎और मुझे नहीं लगता शैतान ऐसी ‎कोई योजना बना रहे होंगे। ‎हकान, तुम मेरी बात सुन रहे हो? ‎लैला फोन नहीं उठा रही है। ‎चिंता मत करो। ‎अगर वह मुश्किल में होती तो ‎उसका फोन शुरू नहीं होता। ‎मैं यहाँ इंतजार नहीं कर सकता। ‎ए! रुको, तुम कहाँ जा रहे हो? ‎हकान, तुम क्या कर रहे हो? ‎तुम गिरफ्तार होना चाहते हो? ‎पूरा पुलिस दल तुम्हारे पीछे है। ‎और वैसे भी, लैला पहली बार ‎गायब नहीं हुई है। ‎उसने कल रात भी तुम्हारा फोन ‎नहीं उठाया था। ‎जब अलार्म शुरू हुआ, ‎तब लैला वहाँ नहीं थी। ‎फिर वह अचानक आ गई। ‎मुझे उसका बर्ताव थोडा अजीब लगा। ‎तुम्हें ऐसे नहीं लगा? ‎तुम हमेशा उस पर शक क्यों करती हो? ‎तुम हमेशा उसका बचाव करते हो। ‎मैंने उसे कॉल किया। तो क्या हुआ? ‎हकान, बात वो नहीं है। ‎मुझे उस पर यकीन नहीं है, समझे? ‎हमेशा उसका आसपास होना ‎मुझे पसंद नहीं। ‎जानती हो मुझे क्या लगता है? ‎तुम लैला से जलती हो। ‎तुम्हारे लिए इतना कुछ करने के बाद ‎तुम मेरे बारे में ऐसा सोचते हो? ‎भाड़ में जाओ तुम! ‎ज़ेनेप, रुको। तुम कहाँ जा रही हो? ‎तुम्हें मेरी कोई जरुरत नहीं, ‎इसलिए मैं अपने रास्ते जा रही हूँ। ‎ज़ेनेप, तुम कहाँ जा रही हो? ‎एक मिनट रुक जाओ। ‎कोई बात नहीं। ‎उसने जोर से थप्पड़ मारी थी। ‎जरुर लगी होगी। ‎हेलो। ‎फिर कभी मेरे साथ ऐसा मत करना। ‎तुम पूरी जिंदगी भर मुझे ‎काबू नहीं कर सकते। ‎मैंने तुम्हें काबू नहीं करूँगा, लैला। ‎तुम्हें इन सबकी आदत पड़ जायेगी। ‎तुम खुद से भाग नहीं सकती। ‎लेकिन तुम सही हो। ‎इस सच को मानना बहुत मुश्किल है, ‎शुरुआत में। ‎काश मैं मर चुकी होती। ‎इस तरह मुझे ज्यादा तकलीफ हो रही है। ‎तुम और तुम्हारी योजना गई भाड़ में! ‎लड़ने से कोई फायदा नहीं। ‎तुम मेरी हो। ‎शाबाश। ‎अब सब ठीक है। ‎हम एक दुसरे के साथ है, है ना? ‎और अब, मुझे सब कुछ बता दो। ‎मुझे क्यों पूछ रहे हो? ‎तुम पहले ही चाल चल चुके हो, ‎मुझे इतना ही पता है। ‎हमने चाल चली? ‎यह तुम्हें पता नहीं था? ‎मतलब, अब मुलाक़ात का वक्त आ गया है। ‎ठीक
है, हम जा रहे हैं। ‎और तुम भी मेरे साथ आ रही हो। ‎शैतानों ने पहले कभी ऐसा ‎हमला नहीं किया था। ‎जैसे ज़ेनेप ने कहा था। ‎लोगों को भूका मारना ‎यह उनका तरिका नहीं है। ‎क्या किसी के पास दूसरी योजना है? ‎क्या हमारे पास कोई सबूत नहीं है? ‎हमने एक वैज्ञानिक ढूँढ लिया है, ‎जिसने इन कीटों पर संशोधन किया है। ‎शायद वह हमें शैतानों की योजना के ‎बारे में जानकारी दे सकता है। ‎यह आदमी कहाँ मिलेगा? ‎मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगा। ‎ठीक है, तो चलो। ‎मैं आ सकती हूँ? ‎यहाँ रुको, और अड्डे पर नजर रखना। ‎ठीक है। ‎मिलते हैं। ‎पुलिस से बचकर रहना, हकान। ‎तुम एक भगोड़े हो! ‎ध्यान रखूँगा। ‎ज़ेनेप! इतने दिनों से तुम कहाँ थी? ‎क्या हुआ? कोई मुश्किल है? ‎कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन एक मौका है। ‎लंदन का वह हिस्ट्री डिपार्टमेंट ‎जिसके बारे में तुम बात करती थी, ‎वे एक प्रोजेक्ट शुरू करने वाले हैं। ‎उन्होंने हमें सिफारिश करने के लिए ‎कहा है। ‎और मुझे तुम्हारा ख्याल आया। ‎क्या बात है? तुम खुश नहीं हो? ‎नहीं। बदकिस्मती से, मैं नहीं जा सकती। ‎जल्दबाजी में फैसला लेने की जरुरत नहीं। ‎नहीं, मेरा फैसला हो चूका है। ‎मुझे यहाँ रहना होगा। ‎यहाँ लोगों को मेरी जरुरत है। ‎पता नहीं, वे मेरी मदद के ‎लायक हैं भी या नहीं। ‎ठीक है। जैसी तुम्हारी मर्जी। ‎रुको। तुम यह भूल गई। ‎रख लो। ‎शायद तुम्हारा फैसला बदल जाए। ‎क्या तुमने विझीएर को देखा है? ‎वह कई दिनों से गायब है। ‎जल्द ही पता चल जायेगा। ‎हमें और कितने दिन इंतजार करना होगा? ‎मुझे नहीं पता। फैजल के आने के बाद ‎हमें पता चल जाएगा। ‎लो वह आ गया। ‎देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ। ‎हमारी नई साथी को तैयार करना था। ‎लैला,अब तुम हम में से एक हो। ‎आओ, शरमाओ मत। यहाँ आओ। ‎मैं तुम्हें सबसे मिलवाता हूँ। ‎यह है लैला। ‎यह क्या बकवास है? ‎पहले कभी कोई इंसान हमारा साथी नहीं बना। ‎मैंने लैला को पुनर्जीवित किया है। ‎उसकी रगों में मेरा खून है। ‎चिंता मत करो। ‎क्या सिर्फ खून होना काफी है? ‎हम जो कहेंगे लैला वही करेगी। ‎इंसानों के प्रति तुम्हारा लगाव ‎देखते हुए लगता है, ‎तुमपर यकीन करना सही नहीं होगा। ‎आधी इंसान, आधी अमर शैतान। ‎मुझे ऐसे लोग पसंद है। ‎मेरा तुमसे कोई लेना देना नहीं है। ‎इसने सही कहा, मेरे दोस्तों। ‎मैंने तुम्हें नींद से जगाया है। ‎है ना? ‎मैंने तुम्हें नई जिंदगी दी है। ‎और तुमने क्या किया? ‎तुम लोगों ने क्या किया? ‎मेरे पीछे साजिश रची? ‎तुमने कोई गुप्त योजना बनाई है? ‎अब मेरी बात कान खोलकर सुन लो। ‎लैला को कोई हाथ नहीं लगाएगा। ‎कोई भी नहीं! तुम सुन रहे हो? ‎ठीक है, फैजल। अब बस करो। ‎मुझे माफ़ करो। ‎ऐसा मत करो। ‎मुझे माफ़ करो। ‎मुझे माफ़ करो। रुया। ‎लेकिन मैंने अपनी बात कह दी है। ‎बकवास। ‎तुम कहीं नहीं जाओगी। ‎अब काम की बात करते हैं। ‎हमले की जो योजना तुम लोगों ने ‎मेरे पीठ पीछे बनाई है... ‎उस पर अमल नहीं होगा। ‎समझ गए? ‎लैला संरक्षक को हमारे पास लेकर आएगी। ‎है ना, लैला? ‎तुम जरुर लाओगी? ‎और इस तरह, ‎हम उसे रास्ते से हटा देंगे। ‎समझे? ‎अब हम हमारे मिशन की जरूरतों ‎के बारे में बात करेंगे। ‎तुम बकवास कर रहे हो। ‎हमारा मकसद इस शहर को और पूरी ‎इंसानियत को तबाह करना है। ‎संरक्षक को हमसे दूर रखो। ‎इतना काफी होगा। ‎तुम हमेशा बेसब्री से काम लेते हो। ‎हमेशा बेसब्री से। ‎तुम धीरज से काम लेना नहीं जानता। ‎और इसलिए संरक्षक ने तुम्हें ‎मार डाला था। ‎इस बार धीरज से काम लो। ‎मैं ऐसा क्यों करूंगा? ‎ताकि तुम रुया के साथ ‎मजे कर सको? ‎क्या कहा? ‎बस। बस, बहुत हुआ। ‎तुम्हारे इस आपसी झगडे की वजह से ‎हम कमजोर बन रहे हैं। ‎यह बात उसे समझाओ, ‎मुझे नहीं। ‎हमारी गैरमौजूदगी में यह ‎मकसद से भटक गया है। ‎यह कभी भी इंसानों से दोस्ती कर सकता है। ‎अच्छा हुआ इसने हमें जिंदा कर दिया। ‎और एक बात, हमारी योजना तुम्हारे साथ या ‎तुम्हारे बिना भी सफल होगी। ‎मुझे हकान को ढूँढना होगा। ‎मेरे साथ चलो। ‎लैला, तुमने मेरे फोन क्यों ‎नहीं उठाए? ‎हमें बात करनी होगी। ‎मैं किसी से मिलने ज़ेनेप के विद्यापीठ में ‎जा रहा हूँ। ‎तो वहीँ मिलते हैं, ठीक है?
‎मैं आई रही हूँ। ‎ठीक है। ‎सुनो, क्या तुम बता सकते हो ‎एंटोमोलॉजी विभाग कहाँ है? ‎पहली मंजिल पर है। ‎शुक्रिया। ‎फैजल? ‎तुम अभी तक गए नहीं? ‎मैं तुमसे बात करना ‎चाहता था। ‎लेकिन तुम्हारे पास हमारे लिए वक्त नहीं है, ‎तुम दौलत के मजे लुट रही हो। ‎लगता है, इस नर्क को छोड़ने का ‎तुम्हारा कोई इरादा नहीं है। ‎फैजल ने कहा था तुम भी ‎शानदार तरीके से जी रहे हो। ‎मुझे पैसे या ऐशो आराम की कोई जरुरत नहीं। ‎मेरी जिंदगी का एक मकसद है। ‎और मैं उसे तुरंत पूरा करना चाहता हूँ, ‎ताकि मैं घर जा सकू। ‎हम सब यही चाहते है। ‎क्या फैजल भी यही चाहता है? ‎क्या इसलिए उसने लैला के लिए ‎हम में से एक को मार डाला? ‎अगर हमने कुछ नहीं किया ‎तो यह सिलसिला युही जारी रहेगा। ‎हमें उस लड़की को हटाना होगा। ‎और इस काम में मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। ‎मुझे फैजल पर यकीन है। ‎और तुम्हें भी उस पर यकीन करना चाहिए। ‎देखो, हम अभी जिन्दा हुए है। ‎हमें साथ मिलकर काम करना होगा। ‎हमारे बिच अजनबी होने के बावजूद? ‎यह जाहिर है, तुम और ‎फैजल एक दुसरे से प्यार करते हो। ‎लेकिन मुझे लगता है, तुमने ‎गलत पक्ष चुना है। ‎मेर्गन? ‎शायद तुम भूल गए हो मैं कौन हूँ। ‎मैं पक्ष नहीं चुनती। ‎आरोपी इसी इमारत में हैं। ‎अगले मंगलवार की मिलते हैं। ‎शुक्रिया, सर। ‎एर्सान इमाझ? ‎बोलिए। ‎हम म्युझियम में हुई डकैती की ‎जांच कर रहे है। ‎मैंने सुना है, अपने उस चोरी हुए टिड्डे की ‎प्रजाति पर संशोधन किया था। ‎शायद आप हमारी मदद कर सकते हैं। ‎हाँ, मैंने उस प्रजाति के बारे में ‎आर्टिकल लिखा था। ‎तुम पुलिस हो? ‎हाँ। ‎हाँ। ‎क्या आप जानते हैं, यह चोरी ‎क्यों की गई? ‎नहीं, मुझे नहीं पता। ‎मेरा मतलब, कोई ऐसा कीड़ा क्यों ‎चुराना चाहेगा? ‎शायद वे अकाल फैलाना चाहते हो? ‎उम्मीद करता हूँ, यही वजह होगी। ‎काली मौत के बारे में कभी सूना है? ‎मैं बताता हूँ। ‎तो... ‎यह यूरोप है। ‎इस सबकी शुरुआत जहाज से हुई, ‎जो इजिप्त से इटली जा रहा था। ‎उस जहाज पर सवार टिड्डे अपने साथ ‎एक खतरनाक वायरस लेकर आए। ‎पहले इटली, ‎फिर पुरे भूमध्यसागरीय क्षेत्र में ‎यह बीमारी फ़ैल गई। ‎बस कुछ ही महीनों में पुरे ‎यूरोप में महामारी फ़ैल गई। ‎इस वायरस से बाधित लोगों के शरीर पर ‎जख्म होने लगते थे। ‎इससे दर्दनाक और खुनी मौत होती थी। ‎इस वायरस की वजह से यूरोप की ‎एक तिहाई आबादी मर गई। ‎इतिहासकार लिखते है, उन दिनों में ‎सूरज भी काला नजर आता था। ‎इसलिए इसे काली मौत कहते है। ‎और यह सब उस किट की वजह से हुआ था। ‎खुशकिस्मती से इस किट के विलुप्त ‎होने के बाद वायरस गायब हो गया। ‎अगर वह लौट आया तो? ‎यह नामुमकिन है। ‎मान लीजिए ऐसा हुआ तो। ‎आज, दुनिया की आबादी ज्यादा है। ‎बीमारी तेजी से फैलती है। ‎कुछ ही दिनों में इस्तांबुल रहने ‎लायक नहीं रहेगा। इतना तय है। ‎और यह वायरस बहुत संक्रामक है, ‎यह देखते हुए, ‎यह इंसानी सभ्यता का ‎अंत हो सकता है। ‎पुलिस... ‎हिलना मत! ‎यहाँ आओ! ‎रुको! ‎भागना मत! ‎वहीँ रुको वरना गोली मार दूंगा! ‎जल्दी करो! ‎वह निचे गया है! ‎यहाँ आओ! पकड़ो इसे! ‎निचे बैठो! ‎हाथ ऊपर करो! सर पर रखो। ‎घुटनों पर बैठो! ‎सुनो! आप गलती कर रहे हैं। ‎मैं मासूम हूँ। मैंने कुछ नहीं किया। ‎सर हमें हमलावर मिल गया है। ‎संवाद अनुवादक: रितिका शर्मा
दिखायी पड़ेगा कि उसकी तौल इस समय, उसके पहले की तौल के साथ बत्ती के तौल को जोड़ने से जो योगफल होता है, ठीक उतनी हो गयी है । वह बत्ती ही सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर उस पेंसिल में प्रविष्ट हो गयी है। अतएव आजकल हमारी ज्ञानोन्नति की अवस्था में यदि कोई कहे कि किसी वस्तु का संपूर्ण अभाव हो जाता है, तो वह स्वतः उपहास योग्य हो जाएगा। केवल अशिक्षित व्यक्ति ही इस प्रकार की बात कहेंगे, और आश्चर्य का विषय है उन प्राचीन दार्शनिकगण का उपदेश आधुनिक ज्ञान से मिलता है। प्राचीन काल के दार्शनिकगण मन को भित्तिस्वरूप मानकर अपने अनुसंधान में अग्रसर हुए थे, उन्होंने इस ब्रह्मांड के मानसिक भाग का विश्लेषण किया था और उसके द्वारा अनेक सिद्धांतों को प्राप्त किया था । तथा आधुनिक विज्ञान उसके भौतिक भाग का विश्लेषण करके ठीक उन्हीं सिद्धांतों में उपनीत हुआ। दोनों प्रकार के विश्लेषण एक ही सत्य में उपनीत हुए हैं। आपको अवश्य स्मरण होगा कि इस जगत् में प्रकृति के प्रथम विकास को सांख्यवादीगण महत् कहते हैं। हम उसे समष्टि बुद्धि कह सकते हैं, इसका ठीक शब्दार्थ है - सर्वश्रेष्ठ तत्त्व । प्रकृति का प्रथम विकास यही बुद्धि है । इसे अहंज्ञान नहीं कहा जा सकता, कहने पर भूल होगी । अहंज्ञान इस बुद्धितत्त्व का अंशविशेष मात्र है, परंतु बुद्धितत्त्व सार्वजनीन तत्त्व है। अहंज्ञान, अव्यक्त ज्ञान और ज्ञानातीत अवस्था ये सब ही उसके अंतर्गत हैं। उदाहरणस्वरूप, प्रकृति में कितने ही परिवर्तन आप लोगों की आँखों के समक्ष ही घट रहे हैं, आप लोग वह सब देख रहे हैं और समझ रहे हैं; किंतु और कितने ही परिवर्तन हैं, वे सब इतने सूक्ष्म हैं कि किसी भी मानवीय बोधशक्ति द्वारा बोधगम्य नहीं हैं। ये दोनों प्रकार के परिवर्तन एक ही कारण द्वारा हो रहे हैं, वह एक ही महत् इन दोनों प्रकार के परिवर्तन को साधित कर रहा है । और कुछ परिवर्तन हैं जो हमारे मन और विचार-शक्ति से अतीत हैं। ये सब परिवर्तन इस महत् में विद्यमान हैं। व्यष्टि को लेकर जब हम सब आलोचना करने को प्रवृत्त होंगे तब यह बात आप और अधिक अच्छी तरह समझेंगे। इसी महत् से समष्टि अहंतत्त्व की उत्पत्ति हुई है और ये दोनों ही भौतिक हैं। भूत और मन में परिणामगत भेद के अतिरिक्त और किसी प्रकार का भेद नहीं है - एक ही वस्तु की सूक्ष्म और स्थूल अवस्था, एक दूसरी में परिणत हो रही है। इसके साथ आधुनिक शरीरविज्ञानशास्त्र के सिद्धांत का ऐक्य है। और मस्तिष्क से पृथक एक मन है, यह, और इस प्रकार के सब असंभव विषयों में विश्वास करने पर जिस प्रकार विज्ञानशास्त्र के साथ विरोध और द्वंद्व उपस्थित होता है, उससे प्रथमोक्त विश्वास के कारण इस प्रकार के विरोध से रक्षा हो जाती है। महत् नामक यह पदार्थ अहंतत्त्व नामक जड़ पदार्थ की सूक्ष्म अवस्थाविशेष में परिणत होता है, उसमें से एक प्रकार का परिणाम इंद्रिय है। इंद्रिय दो प्रकार की हैं, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय । किंतु इंद्रिय के नाम से दिखायी पड़ने वाले आँख, कान, आदि का बोध नहीं होता, इंद्रिय इन सबकी अपेक्षा सूक्ष्मतर है - जिसे आप मस्तिष्क-केंद्र अथवा स्नायु-केंद्र कहते हैं। यह अहंतत्त्व परिणाम को प्राप्त होता है और इसी अहंतत्त्वरूप उपादान से ये केंद्र तथा स स्नायु उत्पन्न होते हैं। अहंतत्त्वरूप इस एक ही उपादान से और एक प्रकार के सूक्ष्म पदार्थ की उत्पत्ति होती है - वह तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भौतिक परमाणु है। जो आपकी नाक के संस्पर्श में आकर आपके घ्राण को गंध लेने में समर्थ करता है, वही तन्मात्रा का एक दृष्टांत है। आप इन सूक्ष्म तन्मात्राओं को प्रत्यक्ष नहीं कर पाते, ये तन्मात्राएँ हैं, आप केवल इस बात से परिचित मात्र हो सकते हैं। अहंतत्त्व से इन तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है और इन तन्मात्राओं अथवा सूक्ष्म भूत से स्थूल भूत की अर्थात् वायु, जल, पृथ्वी और अन्यान्य जो कुछ हम देख पाते हैं अथवा अनुभव करते हैं उनकी उत्पत्ति होती है। हम इस विषय की छाप आपके मन में दृढ़ रूप से लगा देने का यत्न करें। यह धारणा करना बड़ा कठिन है, क्योंकि पाश्चात्य देश में मन और भूत के संबंध में अद्भुत धारणाएँ हैं। इन सब संस्कारों को मस्तिष्क से दूर करना अत्यंत कठिन है। बाल्यकाल में पाश्चात्य दर्शन की शिक्षा प्राप्त करने के कारण हमें भी इस तत्त्वों को समझने में घोर कष्ट सहन करना पड़ा था । ये सब ही जगत् के अंतर्गत हैं। सोचकर देखिये, प्रथम अवस्था में एक सर्वव्यापी, अखंड अविभक्त जड़राशि रहती है। जैसे दूध परिणाम को प्राप्त होकर दही बनता है, उसी प्रकार वह महत् नामक अन्य एक पदार्थ में परिणत होती है - यह महत् एक अवस्था में बुद्धितत्त्व के रूप में अवस्थान करता है, अन्य अवस्था में वह अहंतत्त्व के रूप में परिणत होता है । यह वही एक ही वस्तु है, केवल अपेक्षाकृत स्थूलतर आकार में पर
िणत होकर उसने अहंतत्त्व नाम धारण किया है । इसी प्रकार समग्र ब्रह्मांड मानो स्तर-स्तर से विरचित है। प्रथमतः अव्यक्त प्रकृति, यह सर्वव्यापी बुद्धितत्त्व में अथवा महत् में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अहंतत्त्व अथवा अहंकार में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इंद्रियग्राह्य भूत में परिणत होता है । यही भूत-++समष्टि इंद्रिय अथवा केंद्रसमूह में और समष्टि सूक्ष्म परमाणु-समूह में परिणत होती है। फिर इन सबके मिलने पर इस स्थूल जगत्-प्रपंच की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्मांड में जो है, वह व्यष्टि अथवा क्षुद्र ब्रह्मांड में भी अवश्य रहेगा। व्यष्टिस्वरूप एक मनुष्य की बात लीजिये । प्रथमतः उसके भीतर वही साम्यावस्थापन्न प्रकृति का अंश विद्यमान है। वही जड़स्वरूपा प्रकृति उसके भीतर महत् रूप में परिणत हुई है, उसी महत् अर्थात् सर्वव्यापी बुद्धितत्त्व का क्षुद्र अंश उसके भीतर विद्यमान है । और उसी सर्वव्यापी बुद्धितत्त्व का क्षुद्र अंश उसके भीतर अहंतत्त्व में अथवा अहंकार में परिणत हुआ है - वह उसी सर्वव्यापी अहंतत्त्व का ही क्षुद्र अंश मात्र है । यह अहंकार फिर इंद्रिय और तन्मात्रा में परिणत हुआ है । तन्मात्राओं ने फिर परस्पर मिलकर उस क्षुद्र ब्रह्मांड - देह - की रचना की है । यह विषय हम सुस्पष्ट रूप से आपको समझाना चाहते हैं, क्योंकि वेदांत समझने के लिए यह प्रथम सोपानस्वरूप है; और यह जानना आपके लिए अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यही समग्र जगत् के विभिन्न प्रकार के दर्शनशास्त्र की भित्तिस्वरूप है। जगत् में ऐसा कोई दर्शनशास्त्र नहीं है जो इस सांख्यदर्शन के प्रतिष्ठाता कपिल के प्रति ऋणी न हो पाइथागोरस ने भारत में आकर इस दर्शन का अध्ययन किया था और ग्रीकवासियों के निकट वे इसके अनेक तत्त्व ले गये थे। तत्पश्चात् वह सिकंदरिया के दार्शनिक संप्रदाय की भित्तिस्वरूप में प्रतिष्ठित हुआ तथा और भी परवर्तीकाल में वह नॉस्टिक- दर्शन की भित्ति बना । इस प्रकार वह दो भागों में विभक्त हुआ। उसका एक भाग यूरोप और सिकंदरिया में गया और दूसरा भाग भारत में ही रहा तथा सब प्रकार के हिंदू-दर्शन का भित्तिस्वरूप बन गया, क्योंकि व्यास का वेदांत-दर्शन इसकी ही परिणतिस्वरूप है। यह कपिल दर्शन ही जगत् में युक्तिविचार द्वारा जगत्तत्त्व की व्याख्या का सर्वप्रथम यत्न है। उसके प्रति उचित सम्मान प्रदर्शन करना जगत् के सब दार्शनिकगण के लिए उचित है । हम आपके मन में यह बात विशेष रूप से स्थित कर देना चाहते हैं कि कपिल दर्शनशास्त्र के जनक हैं। अतः हम उनके उपदेश सुनने को बाध्य हैं और वे जो-जो कह गये हैं, उस सबके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है। यहाँ तक कि वेद में भी इस अद्भुत व्यक्ति का - इस सर्वप्राचीन दार्शनिक का उल्लेख देखने को मिलता है। उनके अनुभूतिसमूह कितने अपूर्व हैं! यदि योगीगण की अतींद्रिय प्रत्यक्ष शक्ति का कोई प्रमाण आवश्यक हो तो कहना होगा कि इस प्रकार के ही व्यक्ति उसके प्रमाण हैं। उन सबने किस प्रकार इन सब तत्त्वों को उपलब्ध किया? उनके पास अणुवीक्षण अथवा दूरवीक्षण यंत्र तो था नहीं । उनकी अनुभवशक्ति कितनी सूक्ष्म थी, उनके विश्लेषण कैसे निर्दोष और कितने अद्भुत थे! अस्तु - अब पूर्वप्रसंग को फिर से आरंभ किया जाए। हम क्षुद्र ब्रह्मांड मनुष्य के तत्त्व की आलोचना कर रहे थे। हमने देखा है, बृहत ब्रह्मांड जिन नियमों से निर्मित है, क्षुद्र ब्रह्मांड की रचना भी उसी प्रकार हुई है। पहले अविभक्त अथवा संपूर्ण साम्यावस्थापन्न प्रकृति थी । तत्पश्चात् उसमें विषमता प्राप्त होने पर कार्य आरंभ हुआ और इस कार्य के फलस्वरूप जो प्रथम परिणाम हुआ, वह महत् अथार्त बुद्धि है। अब आप देख रहे हैं, मनुष्य में जो यह बुद्धि विद्यमान है वह सर्वव्यापी बुद्धितत्त्व अथवा महत् का क्षुद्र अंश- स्वरूप है । उससे अहंज्ञान का आविर्भाव हुआ, उससे अनुभवात्मक और गत्यात्मक स्नायुसकल एवं सूक्ष्म परमाणु अथवा तन्मात्रा की उत्पत्ति हुई । इस तन्मात्रा से ही स्थूल देह विरचित होती है। हम यहाँ कहना चाहते हैं, शोपेनहावर के दर्शन और वेदांत में एक प्रभेद है । शापेनहावर कहते हैं, वासना अथवा इच्छा इन सबका कारण है। हमारे इस प्रकार व्यक्तभावापन्न होने का कारण प्राण-धारण की इच्छा है, किंतु अद्वैतवादीगण इसे अस्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, महत् तत्त्व ही इसका कारण है । ऐसी एक भी इच्छा नहीं हो सकती, जो प्रतिक्रियास्वरूप न हो । इच्छा से अतीत अनेक वस्तुएँ विद्यमान हैं। वह अहं द्वारा गठित एक वस्तु है। अहं उसकी अपेक्षा भी उच्चतर वस्तु है अर्थात् महत् तत्त्व से उत्पन्न है और वह फिर अव्यक्त प्रकृति का विकारस्वरूप है। मनुष्य में यह जो महत् अथवा बुद्धितत्त्व विद्यमान है उसका स्वरूप उत्तम रूप से समझना विशेष
आवश्यक है। यह महत् तत्त्व जिसे हम अहं कहते हैं उसमें परिणत होता है और यह महत् तत्त्व ही उन सब परिवर्तनों का कारण है जिनके फलस्वरूप यह शरीर निर्मित हुआ है । महत् तत्त्व के भीतर ज्ञान की निम्न भूमि, साधारण ज्ञान की अवस्था और ज्ञान से अतीत अवस्था सब ही विद्यमान हैं। ये तीन अवस्थाएँ क्या हैं? ज्ञान की निम्न भूमि हम पशुओं में देखते हैं और उसे सहजात ज्ञान कहते हैं । यह प्रायः अभ्रांत है, तथापि उसके द्वारा ज्ञातव्य विषय बहुत ही कम हैं। सहजात ज्ञान में प्रायः कभी भूल नहीं होती । एक पशु इस सहजात ज्ञान के प्रभाव से कौन सी घास खाने योग्य है, कौन सी घास विषाक्त है, यह सुविधापूर्वक समझ लेता है, किंतु यह सहजात ज्ञान केवल दो-एक विषयों में सीमाबद्ध है, वह यंत्र के समान काम करता रहता है, उसके पश्चात् हमारा साधारण ज्ञान आता है - यह सहजात ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर अवस्था है। हमारा साधारण ज्ञान भ्रांतिमय है, यह पग-पग पर भ्रम में जा पड़ता है, किंतु इसकी गति इस प्रकार मृदु होने पर भी उसका प्रसार बहुत दूर तक है । इसे आप युक्ति अथवा विचारशक्ति कहते हैं। अवश्य सहजात ज्ञान की अपेक्षा उसका प्रसार अधिक दूर तक है, किंतु सहजात ज्ञान की अपेक्षा युक्तिविचार में अधिक भ्रम की आशंका है। इसकी अपेक्षा मन की और एक उच्चतर अवस्था विद्यमान है, ज्ञानातीत अवस्था - इस अवस्था में केवल योगीगण का ही अर्थात् जिन्होंने यत्न करके इस अवस्था को प्राप्त किया है, उनका ही अधिकार है। वह सहजात ज्ञान के समान भ्रांति से विहीन है और युक्तिविचार से भी उसका अधिक प्रसार है । वह सर्वोच्च अवस्था है। हमारे लिए यह स्मरण रखना विशेष आवश्यक है कि जिस प्रकार मनुष्य के भीतर महत् ही ज्ञान की निम्नभूमि, साधारण ज्ञानभूमि और ज्ञानातीत भूमि है, अर्थात् ज्ञान जिन तीन अवस्थाओं में स्थित रहता है, यह महत् उन सब प्रकारों से प्रकाशित हो रहा है, उसी प्रकार इस बृहत् ब्रह्मांड में भी यही सर्वव्यापी बुद्धितत्त्व अथवा महत् सहजात ज्ञान, युक्तिविचार से उत्पन्न ज्ञान और विचार से अतीत ज्ञान, इन तीन प्रकारों से स्थित है। यहाँ एक सूक्ष्म प्रश्न उपस्थित होता है और यह प्रश्न सदा पूछा जाता है। यदि पूर्ण ईश्वर ने इस जगत्-ब्रह्मांड की सृष्टि की है, तो यहाँ अपूर्णता क्यों है? हम जितना देखते हैं, उतने को ही ब्रह्मांड अथवा जगत् कहते हैं- और वह हमारे साधारण ज्ञान अथवा युक्तिविचार से उत्पन्न ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उसके बाहर हम कुछ भी देख नहीं पाते। यह प्रश्न ही एक असंभव प्रश्न है। यदि हम एक बृहत् वस्तुराशि से क्षुद्र अंशविशेष ग्रहण करें और उसकी ओर दृष्टिपात करें तो स्वभावतः असंपूर्ण प्रतीत होगा। यह जगत् असंपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि हमने ही उसे असंपूर्ण किया है। किस प्रकार हमने यह किया? पहले विचार करके देखा जाए, युक्तिविचार किसे कहते है, ज्ञान किसे कहते है। ज्ञान का अर्थ है सदृश वस्तु के साथ मिलान । आप लोगों ने मार्ग में जाकर एक मनुष्य को देखा, देखकर जाना, वह मनुष्य है। आपने अनेक मनुष्य देखे हैं, प्रत्येक ने आप लोगों के मन में एक-एक संस्कार उत्पन्न किया है। एक नये मनुष्य को देखते ही आप लोगों ने उसे अपने संस्कार के भंडार में ले जाकर देखा - वहाँ मनुष्य की अनेक छवियाँ विद्यमान हैं। तब इस नयी छवि को शेष छवियों के साथ उनके लिए निर्दिष्ट कोष में रखा - तब आप तृप्त हुए। कोई नया संस्कार आने पर यदि आप लोगों के मन में उसके सदृश सब संस्कार पहले से ही वर्तमान रहें, तभी आप तृप्त होते हैं और इस मिलन अथवा सहयोग को ही ज्ञान कहते हैं । अतएव ज्ञान का अर्थ, पहले से ही हमारी जो अनुभूति-समष्टि विद्यमान है, उसके साथ और एक सजातीय अनुभूति को एक ही कोष में प्रतिष्ठित कर देना है। तथा पहले से ही आपका एक ज्ञानभंडार न रहने पर कोई नया ज्ञान ही आपको नहीं हो सकता, यही उसका सर्वोत्तम प्रबल प्रमाण है। यदि आपका पूर्व ज्ञान कुछ न रहे अथवा अनेक यूरोपीय दार्शनिकों का जैसा मत है, मन यदि 'अनुत्कीर्ण फलक' स्वरूप हो, तो उसके पक्ष में किसी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना असंभव है; क्योंकि ज्ञान का अर्थ, पहले से ही जो सब संस्कार विद्यमान हैं, उनके साथ तुलना करके नूतन का ग्रहण मात्र ही है। ज्ञान का भंडार पहले से ही वर्तमान रहना चाहिए, जिसके साथ आप नये संस्कार को मिलायेंगे। मान लीजिए, एक शिशु ने जन्म ग्रहण किया, जिसमें यह ज्ञान-भंडार नहीं है; ऐसी स्थिति में उसके पक्ष में किसी प्रकार का ज्ञान लाभ करना बिलकुल असंभव है । अतएव स्वीकार करना ही होगा कि उस शिशु में अवश्य ही इस प्रकार का एक ज्ञानभंडार था और इसी प्रकार अनंत काल से ज्ञान लाभ हो रहा है । इस सिद्धांत की अवहेलना करने का कोई अवलंब नहीं है । यह गणित के समान एक ध्रुव सिद्धांत है । यह बहुत कुछ स्पेंसर तथा अन्यान्
य यूरोपीय दार्शनिकों के सिद्धांत के सदृश है। उन्होंने केवल इतना ही देखा है कि अतीत ज्ञान का भंडार न रहने पर किसी प्रकार का ज्ञानलाभ असंभव है, अतएव शिशु पूर्व-ज्ञान लेकर जन्म ग्रहण करता है। उन्होंने यही समझा है कि कारण कार्य में अंतर्निहित रहता है, वह सूक्ष्म आकार में परिणत हो बाद में विकास प्राप्त करता है। परंतु ये दार्शनिकगण कहते हैं कि शिशु जो संस्कार लेकर जन्म ग्रहण करता है, वह उसके निज की अतीत अवस्था के ज्ञान से प्राप्त नहीं है, वह उसके पूर्व पुरुषों का संचित संस्कार है; वंशानुक्रमिक संचार द्वारा वह उस शिशु के भीतर आया है। अत्यंत शीघ्र ही ये समझेंगे कि यह मतवाद प्रमाणयुक्त नहीं है और इसी बीच में अनेक ने इस वंशानुक्रमिक संचार के मत के विरुद्ध तीव्र आक्रमण आरंभ किया है । यह मत असत्य नहीं है, किंतु असंपूर्ण है । वह केवल मनुष्य के जड़ भाग की व्याख्या मात्र करता है। यदि आप कहें - इस मतानुसार पारिपाश्विक अवस्था के प्रभाव की किस प्रकार व्याख्या की जा सकती है? तो इसके उत्तर में वे कहते हैं, अनेक कारणों से मिलकर एक कार्य होता है, पारिपाश्विक अवस्था उनमें से एक है। दूसरी ओर हिंदू दार्शनिकगण कहते हैं, हम स्वतः ही अपनी पारिपाश्विक अवस्था के गठनकर्त्ता हैं क्योंकि हम अतीत अवस्था में जैसे थे, वर्तमान में भी वही होंगे। हम इसे दूसरे प्रकार से व्यक्त करना चाहें तो कहेंगे, हम अतीत काल में जैसे थे वैसे ही यहाँ भी उसी अवस्था को प्राप्त होते हैं। । अब हमने समझा, ज्ञान शब्द से क्या बोध होता है । ज्ञान और कुछ नहीं है, पुरातन संस्कारों के साथ एक नये संस्कार को गूँथना - एक ही कोष में संचित करके रखना है - नये संस्कार को पहचान लेना है । पहचान लेने अथवा प्रत्यभिज्ञा का अर्थ क्या है ? हममें पहले से ही जो सदृश संस्कारसमूह विद्यमान हैं, उनके साथ उसके मिलन का आविष्कार ही वह है । ज्ञान का अर्थ इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है । यही यदि ठीक है तो अवश्य स्वीकार करना होगा कि इसी ज्ञानलाभ की प्रणाली से जितने अदृश्य विषय हैं, सबको देखना होगा । यही बात है न ? मान लीजिये, आपको पत्थर के एक खंड को जानना है तो उसके साथ सादृश्य अथवा सानुरूपता के लिए, उससे मिलाने के लिए आपको उसके सदृश पत्थर के सब खंडों को देखना होगा । किंतु जगत् के संबंध में हम ऐसा नहीं कर पाते क्योंकि अपने साधारण ज्ञान द्वारा हम उसका एक प्रकार का अनुभव मात्र प्राप्त करते हैं - उसकी अन्य दिशा की ओर हम कुछ भी देख नहीं पाते, जिससे उसके सदृश वस्तु के साथ उसे मिला सकें। इसीलिए जगत् हमारे निकट अबोध्य होता है क्योंकि ज्ञान और विचार सर्वदा ही सदृश वस्तु के साथ मिलन-साधन में नियुक्त हैं। ब्रह्मांड का यह अंश जो हमारे ज्ञान से अविछिन्न है, हमें एक विस्मयकर नूतन पदार्थ प्रतीत होता है; उससे मिल सके, ऐसी कोई उसके सदृश वस्तु हम नहीं पाते। इसीलिए उस विषय में इतना विवाद है - हम सोचते हैं, जगत् अत्यंत भयानक और बुरा है; कभी-कभी हम उसे अच्छा भी समझते अवश्य हैं, किंतु साधारणतः उसे असंपूर्ण सोचते हैं। जगत् को जाना जाएगा, जब हम उसके समान ऐसी सदृश वस्तु का आविष्कार कर सकेंगे जो उससे मिल सके। हम तभी उस सबको जान सकेंगे, जब हम इस जगत् के - अपने इस क्षुद्र अहंज्ञान के - बाहर जायेंगे, केवल तभी जगत् हमें ज्ञात होगा। जितने दिनों तक हम यह नहीं कर लेते उतने दिनों तक हमारे सब निष्फल यत्नों द्वारा कदापि उसकी व्याख्या नहीं होगी क्योंकि ज्ञान का अर्थ है सदृश विषय का आविष्कार और हमारी यह साधारण ज्ञानभूमि हमें केवल जगत् का आंशिक भाव मात्र प्रदान करती है। यह समष्टि महत् अथवा हम अपने साधारण प्रतिदिन के व्यवहार की भाषा में जिन्हें ईश्वर कहते हैं, उनकी धारणा के संबंध में भी यही बात है। हमारी ईश्वर संबंधी जो धारणा है, वह उसके प्रति एक विशेष प्रकार का ज्ञान मात्र - उसकी आंशिक धारणा मात्र है - उसके अन्यान्य सब भाव हमारी मानवीय असंपूर्णता द्वारा आवृत हैं। "सर्वव्यापी हम इतने बृहत् हैं कि यह जगत् तक हमारा अंश मात्र है । " इसी कारण हम ईश्वर को असंपूर्ण देखते हैं और हम उनका भाव कभी समझ नहीं पाते, क्योंकि वह असंभव है। उनको समझने का एकमात्र उपाय, युक्तिविचार के अतीत प्रदेश में जाना है, अहंज्ञान के बाहर जाना । 'जब श्रुत और श्रवण, चिंतित और चिंता, इन सबके बाहर जाओगे, केवल तभी सत्य लाभ करोगे ।" "शास्त्र की सीमा के बाहर चले जाओ क्योंकि वे जगत्कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति तक ही सीमित है तथा वहीं तक शिक्षा देते हैं।" इसके बाहर जाने पर ही हम सामंजस्य और मिलन देख पाते हैं। उसके पहले नहीं। यहाँ तक यह स्पष्ट ज्ञात हो गया है कि यह बृहत् और क्षुद्र ब्रह्मांड एक ही नियम से निर्मित है और इस क्षुद्र ब्रह्मांड के एक ही सामान्य अंश को ही हम जानते हैं। हम ज्ञान की निम्न भूमि
भी नहीं जानते, ज्ञान से अतीत भूमि को भी नहीं जानते। हम केवल साधारण ज्ञानभूमि को ही जानते हैं। यदि कोई व्यक्ति कहे, मैं पापी हूँ तो वह निर्बोध मात्र है क्योंकि वह अपने को नहीं जानता । वह अपने संबंध में नितांत अज्ञ है । वह केवल अपने एक अंश को जानता है क्योंकि ज्ञान उसकी मानस भूमि के केवल एक अंश में व्याप्त है। समग्र ब्रह्मांड के संबंध में भी यही बात है । युक्तिविचार द्वारा उसके एक अंश मात्र को जानना ही संभव है किंतु जगत्-प्रपंच कहने पर ज्ञान की निम्न भूमि, साधारण ज्ञान भूमि, ज्ञानातीत भूमि, व्यष्टि महत्, समष्टि महत् तथा उनके पश्चात् के सब विकार - इन सबका ही बोध हो जाता है और ये सब साधारण ज्ञान के अतीत हैं । कौन प्रकृति को परिणाम प्राप्त कराता है? हमने यहाँ तक देखा है कि प्राकृतिक सभी वस्तुएँ, यहाँ तक कि प्रकृति स्वयं भी जड़ और अचेतन है। ये नियम के अधीन होकर काम कर रहे हैं - सभी वस्तुएँ विभिन्न द्रव्यों की मिश्रणस्वरूप हैं और अचेतन हैं। मन, महतत्त्व, निश्चयात्मिका वृत्ति - ये सब ही अचेतन हैं। किंतु वे सभी ऐसे एक पुरुष के चित्त अथवा चैतन्य के प्रतिबिंब से प्रतिबिंबित हो रहे हैं, जो इन सबके अतीत हैं और सांख्य मतानुयायियों ने इसे ही पुरुष नाम की संज्ञा दी है। ये पुरुष जगत् में प्रकृति में - ये जो सब परिणाम हो रहे हैं, उनका साक्षीस्वरूप कारण है - अर्थात् इस पुरुष को ही यदि सार्वजनीन अर्थ में ग्रहण किया जाए तो वह ही ब्रह्मांड का ईश्वर है। यह कहा जाता है कि ईश्वर की इच्छा से ब्रह्मांड की सृष्टि हुई है । साधारण दैनिक वाक्य के व्यवहार के हिसाब से यह अत्यंत सुंदर वाक्य हो सकता है किंतु इसकी अपेक्षा उसका और अधिक मूल्य नहीं है । इच्छा किस तरह सृष्टि का कारण हो सकती है? इच्छा प्रकृति का तीसरा अथवा चौथा विकार है। अनेक वस्तुएँ इसके पहले ही बनी हैं। उनकी सृष्टि किसने की? इच्छा एक यौगिक पदार्थ मात्र है और जो कुछ यौगिक है वह सबकुछ प्रकृति से ही उत्पन्न है। इच्छा स्वयं कदापि प्रकृति की सृष्टि नहीं कर सकती । वह एक अमिश्र वस्तु नहीं है। अतएव ईश्वर की इच्छा से इस ब्रह्मांड की सृष्टि हुई है, यह कहना युक्तिविरुद्ध है। मनुष्य के भीतर इच्छा हमारे अहंज्ञान के अल्प अंशमात्र में व्याप्त है। कुछ व्यक्ति कहते हैं, वह हमारे मस्तिष्क का संचालन करती है। यदि यही वह करती होती तो आप इच्छा करते ही मस्तिष्क का कार्य बंद कर सकते थे, किंतु यह तो आप कर नहीं पाते। अतएव इच्छा मस्तिष्क को संचालित नहीं कर रही है । हृदय को गतिशील कौन कर रहा है? इच्छा कदापि यह नहीं कर रही है क्योंकि यदि ऐसा ही होता तो इच्छा करते ही हृदय की गति रोक सकते थे । इच्छा आपकी देह को भी परिचालित नहीं कर रही है, ब्रह्मांड को भी गतिशील नहीं कर रही है। दूसरी कोई वस्तु उन सबकी नियामक है - इच्छा जिसका एक विकास मात्र है । इस देह को ऐसी एक शक्ति परिचालित कर रही है, इच्छा जिसका विकास मात्र है। समग्र जगत् इच्छा द्वारा परिचालित नहीं हो रहा है, इसीलिए इच्छा को कारण बताने पर इसकी ठीक व्याख्या नहीं होती। मान लीजिये, हमने मान लिया कि इच्छा ही हमारी देह को चला रही है, अब इच्छा के अनुसार हम इस देह को परिचालित नहीं कर पा रहे है, इसलिए हमने खिन्नता प्रकाशित करना आरंभ किया । यह तो हमारा ही दोष है क्योंकि इच्छा ही हमारी देह की परिचालनकर्त्री है, यह मान लेने का हमें कोई अधिकार नहीं था । इसी प्रकार - यदि हम मान लें कि इच्छा ही जगत् का परिचालन कर रही है और उसके पश्चात् देखें, प्रकृत अथवा वास्तविक घटना के साथ यह बात मिल नहीं रही है तो यह हमारा ही दोष है । यह पुरुष इच्छा नहीं है, अथवा बुद्धि नहीं है क्योंकि बुद्धि एक यौगिक पदार्थ मात्र है। किसी प्रकार के जड़ पदार्थ के न रहने पर किसी प्रकार की बुद्धि भी नहीं रह सकती । मनुष्य ने इस जड़ मस्तिष्क का आकार धारण किया है। जहाँ भी बुद्धि है, वहीं किसी-न-किसी आकार में जड़ पदार्थ अवश्य ही रहेगा। अतएव जब बुद्धि यौगिक पदार्थ हुआ, तब पुरुष क्या है? वह महतत्त्व भी नहीं है, निश्चयात्मिका वृत्ति भी नहीं है, किंतु इन दोनों का ही कारण है। उसका सान्निध्य ही उन सबको क्रियाशील बनाता है और परस्पर मिलन कराता है। पुरुष की उन सब वस्तुओं के साथ तुलना की जा सकती है, जिनका केवल सान्निध्य ही रासायनिक कार्य को तुरंत गतिशील बनाता है, जैसे सोना गलाना हो तो उसमें पोटेशियम साइनाइड मिलाना होता है। पोटेशियम साइनाइड अलग रह जाता है, उस पर कोई रासायनिक कार्य नहीं होता, किंतु सोना गलाने का काम सफल करने के लिए उसके सान्निध्य का प्रयोजन है। पुरुष के संबंध में भी यही बात है । वह प्रकृति के साथ मिश्रित नहीं होता, वह बुद्धि या महत् अथवा उसका किसी प्रकार का विकार नहीं है, वह शुद्ध पूर्ण आत्मा है। " मेरे साक्षीस्वरूप विद्
यमान रहने के कारण प्रकृति यह सब चेतन और अचेतन का सृजन कर रही है।' तो फिर प्रकृति में यह चेतनत्व कहाँ से आया ? पुरुष ही इस चेतनत्व की भित्ति है और यह चेतनत्व ही पुरुष का स्वरूप है। वह ऐसा एक तत्त्व है जो वाक्य से व्यक्त नहीं किया जा सकता, बुद्धि द्वारा समझा नहीं जा सकता किंतु जिसे हम ज्ञान कहते हैं उसका उपादानस्वरूप है । यह पुरुष हमारा यह साधारण ज्ञान नहीं है क्योंकि ज्ञान एक यौगिक पदार्थ है परंतु इस ज्ञान के भीतर जो कुछ उज्ज्वल और उत्तम है वह उस पुरुष का ही है। पुरुष में चैतन्य है, किंतु पुरुष को बुद्धिमान अथवा ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता, किंतु वह ऐसी वस्तु है जिसके रहने पर ही ज्ञान संभव होता है। पुरुष में जो चित्त है वह प्रकृति से मिलकर हमारे निकट बुद्धि अथवा ज्ञान के नाम से परिचित होता है। जगत् में जो कुछ सुख, आनंद एवं शांति है, सब पुरुष की है; परंतु वह सब मिश्र है क्योंकि उसमें पुरुष और प्रकृति का मिश्रण है। 'जहाँ किसी प्रकार का सुख है, जहाँ किसी प्रकार का आनंद है वहाँ उस अमृतस्वरूप पुरुष का एक कण विद्यमान है, यह समझ लेना होगा । " यह पुरुष ही समग्र जगत् के महा आकर्षणस्वरूप है; वह यद्यपि उसके द्वारा अस्पष्ट और उसके साथ असंस्पृष्ट है, तथापि वह समग्र जगत् को आकर्षित कर रहा है। मनुष्य को जो कांचन के अन्वेषण में दौड़ते देखा जाता है, उसका कारण मनुष्य के न जानने पर भी यह है कि वास्तव में उस कांचन में पुरुष का एक स्फुलिंग विद्यमान है। जब मनुष्य संतान की प्रार्थना करता है, अथवा स्त्रियाँ जब स्वामी की आकांक्षा करती हैं तब कौन सी शक्ति उन्हें आकर्षित करती है? उस संतान और उस स्वामी के भीतर जो उस पुरुष का अंश है, वही उनकी आकर्षणशक्ति है। यह पुरुष सबके ही पीछे विद्यमान है, केवल उसमें जड़ का आवरण पड़ा है। और कुछ भी किसी को आकर्षित नहीं कर सकता। इस अचेतनात्मक जगत् में पुरुष ही एकमात्र चेतन है। यह ही सांख्य के पुरुष हैं। अतएव इससे निश्चित रूप से समझा जाता है कि यह पुरुष असीम अवश्य ही सर्वव्यापी है क्योंकि जो सर्वव्यापी नहीं है, वह अवश्य ही ससीम है। सब सीमाबद्ध भाव ही किसी कारण के कार्यस्वरूप हैं और जो कार्यस्वरूप है उसका अवश्य आदि-अंत रहेगा। यदि पुरुष सीमाबद्ध हो तब वह अवश्य ही विनाश को प्राप्त होगा, वह तो फिर चरम तत्त्व नहीं हुआ, वह मुक्तस्वरूप नहीं हुआ, वह किसी कारण का कार्यस्वरूप - उत्पन्न पदार्थ हुआ । अतएव यदि वह सीमाबद्ध न हो, तो वह सर्वव्यापी है। कपिल के मत के अनुसार पुरुष की संख्या एक नहीं है, बहु है। अनंतसंख्यक पुरुष विद्यमान हैं; आप भी एक पुरुष हैं, मैं भी एक पुरुष हूँ, प्रत्येक ही एक पुरुष है - वे माना अनंतसंख्यक वृत्तस्वरूप हैं। तिस पर उनमें से प्रत्येक भी अनंत है । पुरुष जनमते भी नहीं, मरते भी नहीं । वे मन भी नहीं हैं, भूत भी नहीं हैं। और हम जो कुछ जानते हैं, सब ही उनके प्रतिबिंबस्वरूप हैं। हम निश्चित रूप से जानते हैं कि यदि वे सर्वव्यापी हों, तो उनका जन्म एवं मृत्यु कदापि हो नहीं सकती । प्रकृति उन पर अपनी छाया - जन्म और मृत्यु की छाया - प्रक्षेप कर रही है, किंतु वे स्वभावतः नित्य हैं। बहुरूप में प्रकाशित एक सत्ता हमने देखा है, वैराग्य अथवा त्याग ही इन समस्त विभिन्न योगों की मूल भित्ति है। कर्मी कर्मफल त्याग करते हैं। भक्त उन सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी प्रेमस्वरूप के लिए समग्र क्षुद्र प्रेम का त्याग करते हैं; योगी जो कुछ अनुभव करते हैं, उनकी जो कुछ अभिज्ञता है- समुदय का परित्याग करते हैं, क्योंकि उनके योगशास्त्र की शिक्षा यही है कि समुदय-प्रकृति यद्यपि आत्मा के भोग और उसकी अभिज्ञता के लिए है, तथापि वह अंत में उन्हें समझा देती है कि वे प्रकृति में अवस्थित नहीं है, किंतु प्रकृति से नित्य स्वतंत्र है। ज्ञानी सबकुछ त्याग करते हैं, क्योंकि ज्ञानशास्त्र का सिद्धांत यह है कि भूत, भविष्यत, वर्तमान किसी काल में भी प्रकृति का अस्तित्व नहीं है। हमने यह भी देखा है कि इन सब उच्चतर विषयों में 'इससे क्या लाभ है' यह प्रश्न किया ही नहीं जा सकता । लाभ-अलाभ के प्रश्न की जिज्ञासा ही यहाँ अस्वाभाविक है, और यदि यह प्रश्न जिज्ञासित ही हो, फिर भी हम इस प्रश्न का उत्तम रूप से विश्लेषण करके क्या पाते हैं? लाभ का अर्थ क्या है - सुख । जो वस्तु लोगों की सांसारिक अवस्था की उन्नति साधित नहीं करती, जिससे उनके सुख की वृ+द्धि नहीं होती, उसकी अपेक्षा जिससे उन्हें अधिक सुख प्राप्त होता है, उसमें ही उनका अधिक लाभ है - अधिक हित है । समग्र विज्ञान इसी एक लक्ष्य - साधन में अर्थात् मनुष्य जाति को सुखी करने के लिए यत्न कर रहा है तथा जिससे अधिक परिमाण में सुख उत्पन्न होता है, मनुष्य उसे ही ग्रहण करके, जिसमें अल्प सुख है उसे त्याग देता है। हमने देखा है, सुख या तो देह में अ
थवा मन में अथवा आत्मा में अवस्थित है। पशुओं का एवं पशुप्राय अनुन्नत मनुष्यागण का समस्त सुख देह में है । भूख में आर्त एक कुत्ता अथवा बाघ जिस प्रकार तृप्ति के साथ आहार करता है, कोई मनुष्य उस प्रकार नहीं कर सकता । अतः कुत्ते अथवा बाघ के सुख का आदर्श संपूर्ण रूप से देहगत है । मनुष्य में हम कुछ उच्च स्तर का सुख देखते हैं - मनुष्य ज्ञान की आलोचना से सुखी होता है। सर्वोच्च स्तर का सुख ज्ञानीगण का है । वे आत्मानंद में विभोर रहते हैं। आत्मा ही उनके सुख का एकमात्र उपकरण है। अतएव ज्ञानी के पक्ष में यह आत्मज्ञान परम लाभ अथवा हित है; क्योंकि इससे ही वे परम सुख प्राप्त करते हैं। जड़ विषयसमूह अथवा इंद्रियचरितार्थता उनके लिए सर्वोच्च लाभ का विषय हो नहीं सकता, क्योंकि वे ज्ञान में जिस प्रकार सुख प्राप्त करते हैं, विषयसमूह अथवा इंद्रियभोग से उस प्रकार नहीं पाते। वास्तव में ज्ञान ही उनका एकमात्र लक्ष्य है । हम जितने प्रकार के सुख के विषयों से परिचित हैं, उनमें से आत्मज्ञान ही सर्वोच्च सुख है । जो अज्ञान में कार्य किया करते हैं, वे मानो "देवगण के भारवाही पशुओं के सदृश हैं।" यहाँ देव शब्द का अर्थ ज्ञानी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त है। जो सब व्यक्ति यंत्रवत् कार्य अथवा परिश्रम करते हैं; वे वास्तव में जीवन का उपभोग नहीं करते; ज्ञानी व्यक्ति ही जीवन का उपभोग करते हैं। एक धनी व्यक्ति ने, मान लीजिये, एक लाख रुपये व्यय करके एक चित्र मोल लिया, किंतु जो शिल्प समझ सकता है, वही उसका उपभोग करेगा । क्रेता यदि शिल्पज्ञानशून्य हो तो उसके लिए वह निरर्थक है, वह केवल उसका अधिकारी मात्र है। समग्र जगत् में ज्ञानी व्यक्ति ही जगत् का सुख भोग करते हैं। अज्ञानी व्यक्ति कभी सुख भोग नहीं कर सकता, उसे अज्ञान अवस्था में भी दूसरे के लिए परिश्रम करना होता है। यहाँ तक हमने अद्वैतवादियों के सिद्धांतसमूह को देख लिया, हमने देखा - उनके मत के अनुसार आत्मा एक ही है, दो आत्माएँ हो नहीं सकतीं। हमने देखा - समग्र जगत् में एक सत्ता मात्र विद्यमान है तथा वही एक सत्ता इंद्रियगण के भीतर से दिखायी पड़ने पर जड़ जगत् के समान प्रतीत होती है। जब केवल मन के भीतर से वह दिखायी पड़ती है, तब उसे चिंता और भावजगत् कहते हैं तथा जब उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है, तब वह एक अनंत पुरुष के रूप में प्रतीत होती है । इस विषय को आप विशेष रूप से स्मरण रखियेगा - यह कहना ठीक नहीं है कि मनुष्य के भीतर एक आत्मा है, यद्यपि समझाने के लिए पहले हमें इस प्रकार मान लेना पड़ा था। वास्तव में केवल एक सत्ता विद्यमान है एवं वह सत्ता आत्मा है और वह जब इंद्रियों के भीतर से अनुभूत होती है तब उसे देह कहते हैं; जब वह चिंतन या भाव के भीतर से अनुभूत होती है तब उसे मन कहते हैं तथा जब वह स्व-स्वरूप में उपलब्ध होती है तब वही आत्मा के रूप में - उसी एक अद्वितीय सत्ता के रूप में प्रतीत होती है। अतएव यह ठीक नहीं है कि एक स्थान में देह, मन और आत्मा - ये तीनों वस्तुएँ विद्यमान हैं - यद्यपि समझाते समय इस प्रकार की व्याख्या करके समझाना अत्यंत सहज हुआ था - किंतु सब ही वही आत्मा है तथा वह एक पुरुष ही विभिन्न दृष्टि के अनुसार कभी देह, कभी मन अथवा कभी आत्मा के रूप में अभिहित होता है। एकमात्र पुरुष ही विद्यमान है, अज्ञानीगण उसे ही जगत् कहते हैं। जब वह व्यक्ति ज्ञान में अपेक्षाकृत उन्नत होता है, तब वह उस पुरुष को ही भावजगत् कहने लगता है। तथा जब पूर्ण ज्ञान के उदय से सब भ्रम नष्ट हो जाता है, तब मनुष्य देख पाता है, यह सभी कुछ आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । चरम सिद्धांत यह है कि 'हम वही एक सत्ता हैं'। जगत् में दो-तीन सत्ताएँ नहीं हैं, सब ही एक है । वह एक सत्ता ही माया के प्रभाव से बहु रूप में दिखायी पड़ रही है, जिस प्रकार अज्ञानवश रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है । वह रस्सी ही साँप के समान दिखायी पड़ती है। यहाँ रस्सी अलग और साँप अलग- दो पृथक वस्तुएँ नहीं हैं। कोई यहाँ दो वस्तुएँ नहीं देखता । द्वैतवाद, अद्वैतवाद अत्यंत सुंदर दार्शनिक पारिभाषिक शब्द हो सकते हैं, किंतु संपूर्ण अनुभूति के समय में ही सत्य और मिथ्या कभी नहीं देख पाते । हम सब जन्म से ही अद्वैतवादी हैं, इस बात से भागते का उपाय नहीं है। हम सब समय एक को ही देखते हैं। जब हम रस्सी देखते हैं तब साँप बिलकुल नहीं देखते, और जब साँप देखते हैं, तब रस्सी बिलकुल नहीं देखते - वह उस समय लुप्त हो जाती है। जब आप लोगों का भ्रम-दर्शन होता है, तब यथार्थ (मनुष्य-तत्त्व) नहीं देखते। मान लीजिये, दूर से मार्ग में आपके एक बंधु आ रहे हैं। आप उसे अत्यंत उत्तम रूप से परिचित हैं, किंतु आपके सम्मुख - कुहरा होने के कारण आप उन्हें अन्य व्यक्ति समझ रहे हैं। जब आप अपने बंधु को अन्य व्यक्ति समझ रहे हैं, तब आप अपने बंधु को
देख नहीं रहे हैं, वे अंतर्हित हो गये हैं। आप केवल एक व्यक्ति को देख रहे हैं। मान लीजिये, आपके बंधु को 'क' कहकर अभिहित किया गया । तब आप जब 'क' को 'ख' के समान देख रहे हैं, तब आप 'क' को बिलकुल ही नहीं देख पा रहे हैं। इस प्रकार आपको सब स्थानों में एक उपलब्धि होती है। जब आप अपने को देह रूप में दर्शन करते हैं तब आप देह मात्र हैं और कुछ नहीं हैं तथा जगत् के अधिकांश मनुष्यों को इसी प्रकार उपलब्धि होती है। वे आत्मा, मन आदि बातें मुँह से कह सकते हैं किंतु देखते हैं यह स्थूल भौतिक आकृति ही स्पर्श, दर्शन, आस्वाद इत्यादि । कोई-कोई व्यक्ति अपनी ज्ञानभूमि की विशेष प्रकार की अवस्था में अपने को चिंतन अथवा भाव रूप में अनुभव किया करते हैं। सर हंफ्री डेवी के संबंध में जो कथा प्रचलित है वह आप अवश्य जानते हैं। वे अपनी कक्षा में 'हास्यजनक-वाष्प' (लॉफिंग गैस) लेकर परीक्षा कर रहे थे। अकस्मात् एक नल टूट जाने के कारण भाप बाहर निकल आयी और निःश्वास द्वारा उन्होंने उसे ग्रहण किया । कुछ क्षण तक वे पत्थर की मूर्ति के समान निश्चल रूप से खड़े रहे। अंत में उन्होंने कक्षा के विद्यार्थियों से कहा, जब हम उस अवस्था में थे, हम वास्तव में अनुभव कर रहे थे कि समस्त जगत् चिंतन अथवा भाव से गठित है। उस भाप की शक्ति से कुछ क्षण के लिए अपना देहज्ञान विस्मृत हो गया था और जिसे वे पहले शरीर के रूप में देख रहे थे, उसे ही इस समय चिंतन अथवा भावसमूह के रूप में देख सके । जब अनुभूति और भी उच्चतर अवस्था में जाती है, जब इस क्षुद्र अज्ञान को सदैव के लिए पार किया जाता है तब सबके पश्चात् जो सत्य वस्तु विद्यमान है, वह प्रकाशित होने लगती है। उसे तब हम अखंड सच्चिदानंद के रूप में - उस एक आत्मा के रूप में - अनंत पुरुष के रूप में दर्शन करते हैं । ज्ञानी व्यक्ति समाधि-काल में अनिर्वचनीय, नित्यबोध, केवलानंद, निरूपम, अपार, नित्यमुक्त, निष्क्रिय, असीम, गगनसम, निष्कल, निर्विकल्प पूर्णब्रह्म मात्र का हृदय में साक्षात् दर्शन करते हैं । अद्वैतमतावलंबी इस समस्त विभिन्न प्रकार के स्वर्ग-नरक की तथा हम सभी धर्मों में जो नानाविध भाव देख पाते हैं, इन सबकी, किस प्रकार व्याख्या करते हैं? जब मनुष्य की मृत्यु होती है, कहा जाता है कि वह स्वर्ग में अथवा नरक में जाता है, यहाँ-वहाँ नाना स्थानों में जाता है अथवा स्वर्ग में या अन्य किसी लोक में देहधारण करके जन्म ग्रहण करता है। अद्वैतवादी कहते हैं, यह सब भ्रम है । वास्तव में कोई उत्पन्न नहीं होता, मरता भी नहीं। स्वर्ग भी नहीं है, नरक भी नहीं अथवा इहलोक भी नहीं । इन तीनों का ही किसी काल में अस्तित्व नहीं है। एक बालक को अनेक भूतों की कहानियाँ सुनाकर संध्या के समय उसे बाहर जाने को कहिये । एक खंभा है। बालक क्या देखता है? वह देखता है - एक भूत हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ने को आ रहा है! मान लीजिये, एक प्रेमिक मार्ग के एक कोने से अपनी प्रेमिका के दर्शन करने के लिए आ रहा है - वह उस खंभे को अपनी प्रणयिनी समझ लेता है। एक पहरेदार उसे चोर समझेगा तथा चोर उसे पहरेदार ठहरायेगा । वह एक ही खंभा विभिन्न रूपों में दिखायी पड़ रहा है। खंभा वस्तु ही सत्य है तथा वह जो विभिन्न भाव में उसका दर्शन है वह केवल नाना प्रकार के मन का विकार मात्र है। एकमात्र पुरुष - यह आत्मा ही विद्यमान है । वह कहीं जाती भी नहीं है, आती भी नहीं । अज्ञानी मनुष्य स्वर्ग अथवा उस प्रकार के स्थान में जाने की वासना करता है, समस्त जीवन उसने लगातार केवल उसका ही चिंतन किया है। जब उसका इस पृथ्वी का स्वप्न चला जाता है, तब वह इस जगत् को ही स्वर्ग रूप में देख पाता है - देखता है कि यहाँ देववृंद विराजते हैं, इत्यादि इत्यादि । यदि कोई व्यक्ति समस्त जीवन अपने पूर्व - पितृपुरुषगण को देखना चाहे, वह आदम से आरंभ करके सबको ही देख पाता है, क्योंकि वह स्वयं ही उन सबकी सृष्टि किया करता है। यदि कोई और अधिक अज्ञानी हो तो धर्मांध लोग चिरकाल उसे नरक का भय दिखाया करें तो वह मृत्यु के पश्चात् इस जगत् को ही नरक के रूप में देखता है और यह भी देखता है कि वहाँ लोग अनेक प्रकार के दंड भोग रहे हैं। मृत्यु अथवा जन्म का और कुछ अर्थ नहीं है, केवल दृष्टि का परिवर्तन है । आप भी कहीं जाते नहीं अथवा जिसके ऊपर अपना दृष्टिक्षेप करते हैं वह भी कहीं नहीं जाता। आप तो नित्य अपरिणामी हैं। आपका फिर आना-जाना कैसा? यह असंभव है । आप तो सर्वव्यापी हैं । आकाश गतिशील नहीं है किंतु उसके ऊपर से मेघ इस दिशा से उस दिशा में गतिशील हुआ है। रेलगाड़ी में चढ़कर यात्रा करते समय जैसे पृथ्वी गतिशील प्रतीत होती है, यह भी ठीक उसी प्रकार है । वास्तव में पृथ्वी तो डिग नहीं रही है, रेल ही चल रही है। इसी प्रकार आप जहाँ थे, वहीं हैं, केवल ये सब विभिन्न स्वप्न हैं, मेघसमूह के समान इस-उस दिशा में जा रहे
हैं। एक स्वप्न के पश्चात् और एक स्वप्न आ रहा है - उनमें परस्पर कोई संबंध नहीं है। इस जगत् में नियम अथवा संबंध नामक कुछ भी नहीं है। किंतु हम सोच रहे हैं परस्पर यथेष्ट संबंध है। आप सबने ही संभवतः 'विस्मयलोक में एलिस' (एलिस इन वंडरलैंड) नामक ग्रंथ पढ़ा है। हमने वह पुस्तक पढ़कर बहुत आनंद प्राप्त किया था - हमारे मस्तिष्क में निरंतर बालकों के लिए उस प्रकार की पुस्तक लिखने की इच्छा थी। हमें उसमें से सबसे अधिक यह अच्छा लगा था कि आप जिसे सबसे अधिक असंगत समझते हैं, वही उसमें है - किसी के साथ किसी का कोई संबंध नहीं है । एक भाव आकर मानो दूसरे एक के गले में कूद पड़ रहा है - उनमें परस्पर कोई संबंध नहीं है। जब आप लोग शिशु थे, आप सोचते थे, उनमें परस्पर अद्भुत विद्यमान है। उस व्यक्ति ने अपनी शैशवावस्था की चिंताओं को ही लेकर शैशव अवस्था में जो जो उसे संपूर्ण संबंधयुक्त प्रतीत होता था - शिशुओं के लिए उस पुस्तक की रचना की है। और अनेक व्यक्ति बालकों के लिए जिन सब पुस्तकों की रचना करते हैं, उनमें बड़े होने पर जो सब चिंताएँ आयी हैं तथा भाव जागृत हुए हैं, उन्हें ही वे बालकों को कंठगत कराने का यत्न करते हैं - किंतु ये पुस्तकें बालकों के लिए कुछ भी उपयोगी नहीं होती - वह सब व्यर्थ एवं निरर्थक लेखन मात्र है। जो हो, हम सब भी वयः प्राप्त शिशु मात्र हैं। हमारा जगत् भी उसी प्रकार की असंबद्ध वस्तु मात्र है - वह सब एलिस का विस्मयलोक है - किसी के साथ किसी प्रकार का संबंध नहीं है। हम जब अनेक बार अनेक घटनाओं को एक निर्दिष्ट क्रम के अनुसार घटित देखते हैं तो हम उन्हें ही कार्य-कारण के नाम से अभिहित करते हैं और कहते हैं कि वे फिर भी घटित होंगी। जब ये स्वप्न चले जाएँगे और इनके स्थान में दूसरे स्वप्न आयेंगे तब वे भी इनके ही समान संबंधयुक्त प्रतीत होंगे। स्वप्न-दर्शन के समय हम जो कुछ देखते हैं, सब ही परस्पर संबंधयुक्त प्रतीत होंगे। स्वप्न की अवस्था में वे कभी असंबद्ध अथवा असंगत नहीं लगते - केवल जब हम जाग उठते हैं तभी संबंध का अभाव देख पाते हैं। इसी प्रकार जब हम इस जगत्रूपी स्वप्न-दर्शन से जाग उठकर इस स्वप्न की सत्य के साथ तुलना करके देखेंगे तब वह सभी कुछ असंबद्ध और निरर्थक प्रतीत होगा - कितनी ही असंबद्ध वस्तुएँ मानो हमारे सामने से चली गयीं - वे कहाँ से आयीं, कहाँ जा रही हैं, हम कुछ भी नहीं जानते, किंतु हम यह जानते हैं कि उनका अंत होगा । और इसे ही माया कहते हैं। ये सब परिणाशील वस्तुएँ - दल-के-दल गतिशील मेघजालों के समान हैं, और वह अपरिणामी सूर्य आप स्वयं हैं। जब आप उस अपरिणामी सत्ता को बाहर से देखते हैं तब उसे आप ईश्वर कहते हैं और भीतर से देखने पर उसे आप निज की आत्मा अथवा स्वरूप के समान देखते हैं। दोनों ही एक हैं - आपसे पृथक ईश्वर नहीं है, आप से यथार्थतः जो आप हैं - उससे श्रेष्ठतर ईश्वर नहीं है - सब ईश्वर अथवा देवता ही आपकी तुलना में क्षुद्रतर हैं; ईश्वर, स्वर्गस्थ पिता आदि की समस्त धारणा आपका ही प्रतिबिंब मात्र है । ईश्वर स्वयं ही आपका प्रतिबिंब या प्रतिमास्वरूप है। 'ईश्वर ने अपने प्रतिबिंब के रूप में मानव की सृष्टि की ' - यह बात भूल है। मनुष्य निज के प्रतिबिंब के अनुसार ईश्वर की सृष्टि करता है - यह बात ही सत्य है। समस्त जगत् में ही हम अपने प्रतिबिंब के अनुसार ईश्वर अथवा देवतागण की सृष्टि करते हैं। हम देवता की सृष्टि करते हैं, उनके पदतल पर उतरकर उनकी उपासना करते हैं और ज्योंही यह स्वप्न हमारे निकट आता है, तब हम उन्हें प्रेम करने लगते हैं। सार यह है कि एक सत्ता मात्र ही है कि वह एक सत्ता ही विभिन्न मध्यवर्ती वस्तुओं के बीच से होकर दिखायी पड़ने के कारण उसी को पृथ्वी अथवा स्वर्ग, नरक अथवा ईश्वर, भूतप्रेत, मानव, दैत्य अथवा जगत् या वह सब कहते हैं जो हमे बोध होता है। किंतु इन सब विभिन्न परिणामी वस्तुओं में जिनका कभी परिणाम नहीं होता, जो इस चंचल मर्त्यजगत् के एकमात्र जीवनस्वरूप हैं, जो एक पुरुष बहु व्यक्तियों की काम्य वस्तु का विधान कर रहे हैं, उन्हें जो सब धीर व्यक्ति अपनी आत्मा में अवस्थित जानकर उनका दर्शन करते हैं, उन्हें ही नित्य शांतिलाभ होता है अन्य किसी को भी नहीं । उसी एक सत्ता का साक्षात्कार करना होगा । किस प्रकार उनकी अपरोक्ष अर्थात् प्रत्यक्ष अनुभूति होगी - किस प्रकार उनका साक्षात्कार लाभ होगा, यही इस समय जिज्ञासा की बात है । किस प्रकार यह स्वप्न भंग होगा कि हम क्षुद्र नर-नारी हैं - हमको यह चाहिए, हमें वह करना होगा, यह जो स्वप्न - इससे किस प्रकार हम जागेंगे? हम ही सब जगत् के वे अनंत पुरुष हैं तथा हमने जड़भावापन्न होकर क्षुद्र नर-नारीरूप धारण किया है - हम एक व्यक्ति की मधुर बात से गल जाते हैं तथा दूसरे एक व्यक्ति की कड़वी बात से गरम हो उठते हैं। भला-बुरा, सुख-दुःख हम
सबको नचा रहा है! कितनी भयानक निर्भरता है - कितना भयानक दासत्व है! हम - जो सुख-दुःख के अतीत हैं, समस्त जगत् ही जिनका प्रतिबिंबस्वरूप है, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, जिनके महाप्राण के क्षुद्र निर्झर मात्र हैं - हम कैसे भयानक दासभावापन्न हो गये हैं। हमारी देह में आपके एक चिमटी काटने पर हमें दुःख होने लगता है। कोई यदि एक मीठी बात करता है त्योंही हमें आनंद होने लगता है। हमारी कैसी दुर्दशा है देखिये - हम सब वस्तुओं के दास हैं! यह दासत्व हटाना किस प्रकार होगा? इस आत्मा के संबंध में पहले सुनना होगा, तत्पश्चात् उसे लेकर मनन अर्थात् विचार करना होगा, तत्पश्चात् उसका निदिध्यासन अर्थात् ध्यान करना होगा। अद्वैतज्ञानी की यही साधनाप्रणाली है। सत्य के संबंध में पहले सुनना होगा, फिर उसके विषय का चिंतन करना होगा, उसके पश्चात् क्रमशः उसे मन ही मन दृढ़ भाव से कहना होगा; सर्वदा ही सोचिये - 'हम ब्रह्म हैं' - अन्य सब चिंताओं को दुर्बलताजनक मानकर दूर करना होगा । जिस किसी चिंता से आपको अपने नर-नारी होने का ज्ञान होता है, उसे दूर कर दीजिये । देह जाये, मन जाये, देवतागण भी जायें, भूतप्रेत आदि भी जायें, उस एक सत्ता के अतिरिक्त सब जायें । "जहाँ एक व्यक्ति अन्य को देखता नहीं, एक व्यक्ति अन्य नहीं, एक व्यक्ति अन्य कुछ सुनता नहीं, एक व्यक्ति अन्य कुछ जानता नहीं, वही भूमा अर्थात् महान अथवा अनंत है; तथा जहाँ एक व्यक्ति अन्य को देखता है, एक व्यक्ति अन्य कुछ सुनता है, एक व्यक्ति अन्य कुछ जानता है, वह क्षुद्र अथवा ससीम है । " वही सर्वोत्तम वस्तु है, जहाँ विषयी और विषय एक हो जाते हैं। जब हमीं श्रोता और हमीं वक्ता हैं, जब हमीं आचार्य और हमीं शिष्य हैं, जब हमीं स्रष्टा और हमीं सृष्ट हैं, केवल तभी भय जाता है क्योंकि हमें भयभीत करने वाला और कोई अथवा कुछ नहीं है। हमारे अतिरिक्त जब और कुछ भी नहीं है, तब हमें भय दिखायेगा कौन? दिन प्रतिदिन यही तत्त्व सुनना होगा। अन्य सब चिंताएँ दूर कर दीजिये और सब दूर तोड़कर फेंक दीजिये, निरंतर उसकी आवृत्ति कीजिये। जब तक वह हृदय में न पहुँचे, जब तक प्रत्येक स्नायु, प्रत्येक मांसपेशी, यहाँ तक कि प्रत्येक शोणित-बिंदु तक इस भाव से पूर्ण न हो जाए कि हम ही वे हैं, तब तक कान के भीतर से यह तत्त्व क्रमशः भीतर प्रवेश करना होगा। यहाँ तक कि मृत्यु के सामने होकर भी कहिये - हम ही वे हैं । भारत में एक संन्यासी थे - वे 'शिवोहं, शिवोहं' की आवृत्ति करते थे । एक दिन एक बाघ आकर उनके ऊपर कूद पड़ा और उन्हें खींच ले जाकर उन्हें मार डाला । जब तक वे जीवित रहे, तब तक 'शिवोऽहं, शिवोऽहं' ध्वनि सुनी गयी थी । मृत्यु के द्वार में, घोरतर विषद् में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल में, उच्चतम पर्वत शिखर में, गंभीरतर अरण्य में चाहे जहाँ क्यों न पड़ जाइये, सर्वदा अपने से कहते रहिये - हम ही वे हैं, हम ही वे हैं । दिन-रात बोलते रहिये, हम ही वे हैं। यह श्रेष्ठतम तेज का परिचय है, यही धर्म है। दुर्बल व्यक्ति कभी आत्मा का लाभ नहीं कर सकता। कभी मत कहियेगा, 'हे प्रभो! हम अति अधम पापी हैं।' कौन आपकी सहायता करेगा? आप जगत् के साहाय्यकर्त्ता हैं - आपकी इस बात में फिर कौन सहायता कर सकता है? आपकी सहायता करने में कौन मानव, कौन देवता अथवा कौन दैत्य सक्षम है? आपके ऊपर और किसकी शक्ति काम करेगी? आप ही जगत् के ईश्वर हैं - आप फिर कहाँ सहायता ढूंढियेगा? आपने जो कुछ सहायता पायी है, अपने निज के अतिरिक्त और किसी से नहीं पायी । आपने प्रार्थना करके जिसका उत्तर पाया है, अज्ञानवश आपने सोचा है, अन्य किसी पुरुष ने उसका उत्तर दिया है, किंतु अनजान में आपने स्वयं ही उस प्रार्थना का उत्तर दिया है। आपसे ही सहायता आयी थी, तथा आपने आग्रह के साथ कल्पना कर ली थी कि अन्य कोई आपको सहायता भेज रहा है। आपके बाहर आपका साहाय्यकर्त्ता और कोई नहीं है - आप ही जगत् के स्रष्टा हैं। रेशम के कीड़े के समान आप ही अपने चारों ओर जाल का निर्माण कर रहे है। कौन आपका उद्धार करेगा? आप यह जाल काट फेंककर सुंदर तितली के रूप में - मुक्त आत्मा रूप में बाहर निकल आइये । तब ही, केवल तब ही आप सत्य दर्शन करेंगे। सर्वदा अपने मन से कहते रहिये, हम ही वे हैं। ये वाक्य आपके मन के अपवित्रतारूप कूड़े-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही आपके भीतर पहले से ही जो महाशक्ति अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जायेगी; उससे ही आपके हृदय में जो अनंत शक्ति सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी । सर्वदा ही सत्य - केवलमात्र सत्य . सुनकर ही इस महाशक्ति का उद्बोधन करना होगा । जिस स्थान में दुर्बलता की चिंता विद्यमान है, उस स्थान की ओर दृष्टिपात तक मत कीजिये। साधना आरंभ करने के पहले मन में जितने प्रकार के संदेह आ सकते हैं, सब भंजन कर लीजिये। युक्ति, तर्क, विचार जहाँ तक कर सहिये, कीजिये । इसके
पश्चात् जब आपने मन में स्थिर सिद्धांत किया कि यही, एवं केवलमात्र यही सत्य है, और कुछ नहीं है, तब फिर तर्क न कीजियेगा, तब मुँह एकदम बंद कीजिये । तब फिर तर्क-युक्ति न सुनिये, स्वतः भी तर्क न कीजिये । फिर तर्क-युक्ति का प्रयोजन क्या? आपने तो विचार करके तृप्तिलाभ किया है, अब सत्य का साक्षात्कार करना होगा । फिर वृथा तर्क में अधिक अमूल्य समय नष्ट करने से फल क्या है? अब उस सत्य का ध्यान करना होगा एवं जो दुर्बल बनाये, उसे ही परित्याग करना होगा। भक्त मूर्तिप्रतिमा आदि एवं ईश्वर का ध्यान करते हैं। यही स्वाभाविक साधनाप्रणाली है, किंतु इससे अत्यंत मंद गति से अग्रसर होना होता है। योगीगण अपनी देह के अभ्यंतर के विभिन्न केंद्रों अथवा चक्रों पर ध्यान करते हैं और मन के भीतर के शक्तिसमूह की परिचालना करते हैं। ज्ञानी कहता है, मन का भी अस्तित्व नहीं है, देह का भी अस्तित्व नहीं है। इस देह और मन के चिंतन को दूर कर देना होगा, अतएव उनका (अर्थात् देह एवं मन का) चिंतन करना अज्ञानोचित कार्य है। वह मानो एक रोग को लाकर दूसरे एक रोग को आरोग्य करने के समान है। अतएव उसका (अर्थात् ज्ञानी का) ध्यान ही सबकी अपेक्षा कठिन है - नेति, नेति; वह सभी वस्तुओं के अस्तित्व का नाश करता है तथा जो शेष रहता है वही आत्मा है । यही सबकी अपेक्षा अधिक विश्लेषणात्मक (विलोम) साधन है। ज्ञानी केवल विश्लेषण के बल से जगत् को आत्मा से विच्छिन्न करना चाहते हैं। 'हम ज्ञानी हैं' यह बात कहना अत्यंत सहज है, परंतु यथार्थ ज्ञानी होना बड़ा ही कठिन है । वे कहते हैं - 'पथ अत्यंत दीर्घ है, यह मानो तलवार के तीक्ष्ण धार के ऊपर से चलना है; किंतु निराश मत होओ। उठो, जागो, तब तक उस चरम लक्ष्य में पहुँचते नहीं, तब तक मत रुकना । ' अतएव ज्ञानी का ध्यान किस प्रकार हुआ? ज्ञानी देह-मन-विषयक सब प्रकार चिंतन को पार करना चाहते हैं। 'हम देह हैं' इस धारणा को वे दूर कर देना चाहते हैं । दृष्टांतस्वरूप देखिये, ज्योंही हम कहते हैं, हम अमुक स्वामी हैं उसी क्षण देह का भाव आ जाता है । तब क्या करना होगा ? मन पर बलपूर्वक आघात करके कहना होगा - 'हम देह नहीं हैं, हम आत्मा हैं।' रोग आये अथवा अत्यंत भयावह आकार में मृत्यु ही आकर क्यों न उपस्थित हो, कौन चिंता करता है? हम देह नहीं हैं। देह को सुंदर रखने का यत्न क्यों है? यह माया, यह भ्रांति हमारे संभोग के लिए है? देह जाये, हम देह नहीं हैं। यही ज्ञानी की साधनाप्रणाली है । भक्त कहते हैं, "प्रभु ने हमें इस जीवनसमुद्र को सहज ही लाँघने के लिए यह देह दी है, अतएव जितने दिन तक यात्रा समाप्त नहीं होती, उतने दिन तक इसकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी होगी।" योगी कहते हैं, "हमें देह का यत्न अवश्य ही करना होगा जिससे हम साधनापथ पर आगे बढ़कर अंत में मुक्तिलाभ कर सकें।" ज्ञानी सोचते हैं, "हम अधिक विलंब नहीं कर सकते । हम इसी मुहूर्त चरम लक्ष्य पर पहुँचेंगे।" वे कहते हैं, हम नित्यमुक्त हैं, किसी भी काल में हम बद्ध नहीं थे; हम अनंत काल से इस जगत् के ईश्वर हैं। हमें तब पूर्ण कौन करेगा। हम नित्य पूर्णस्वरूप हैं।' जब कोई मानव स्वयं पूर्णता को प्राप्त होता है, तब वह दूसरे में भी पूर्णता देखने लगता है। लोग जब दूसरे में अपूर्णता देखते हैं तब यह समझना होगा कि अपने निज के मन की छाप दूसरे पर पड़ने के कारण ही वे इस प्रकार देखते हैं। उनके निज के भीतर यदि अपूर्णता न रहे तो वे किस प्रकार अपूर्णता देखेंगे? अतएव ज्ञानी पूर्णता- अपूर्णता कुछ भी ग्राह्य नहीं करते। उनके पक्ष में उनमें से किसी का भी अस्तित्व नहीं है। ज्योंही वे मुक्त होते हैं, फिर भलाबुरा नहीं देखते। भला-बुरा कौन देखता है? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा होता है। दूसरे की देह कौन देखता है? जो अपने को देह समझता है । जिस मुहूर्त आप देहभावरहित होंगे, उसी मूहूर्त फिर आप जगत् नहीं देख पायेंगे। वह चिरकाल के लिए अंतर्हित हो जायेगा । ज्ञानी केवल विचारजनित सिद्धांत के बल से इस जड़-बंधन से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही 'नेति नेति' मार्ग है। बंधन - मुक्ति की रेलवे लाइन पर एक भीमकाय इंजन तेजी से जा रहा था। एक छोटा सा कीड़ा लाइन पर रेंग रहा था। इंजन आ रहा है यह देखकर धीरे से लाइन से उतरकर उसने अपने प्राण बचाये । यद्यपि वह क्षुद्र कीट इतना नगण्य है कि इंजन से दबकर किसी भी क्षण उसकी मृत्यु हो सकती है - तथापि वह एक जीवित पदार्थ है और इंजन इतना बृहत्, इतना प्रकांड होने पर भी केवल एक यंत्र है, एक जड़ इंजन ही है। आप कहेंगे, एक में जीवन है और दूसरा केवल जड़ पदार्थ है - उसकी चाहे जितनी शक्ति हो, उसकी गति और वेग जितना प्रबल हो, वह मृत जड़ यंत्र के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और वह क्षुद्र कीट जो लाइन के ऊपर चल रहा था, इंजन के स्पर्शमात्र से जिसकी मृत्यु निश्चित थी, वह उस भीमकाय इंजन
की तुलना में श्रेष्ठ और महिमासंपन्न है । वह उस अनंतस्वरूप का ही एक क्षुद्र अंश है, इसी कारण वह उस शक्तिशाली इंजन से श्रेष्ठ है। उसका यह श्रेष्ठत्व क्यों हुआ? जीवित, प्राणसंपन्न वस्तु से मृत जड़ पदार्थ की भिन्नता हम कैसे समझते हैं? यंत्र - निर्माता ने उसे जिस प्रकार परिचालित करने की इच्छा से निर्माण किया था, वह यंत्र केवल उतना ही कार्य करता है, उसके सब कार्य जीवित प्राणी की भाँति नहीं हैं। तो फिर जीवित और मृत का भेद किस प्रकार किया जाए? जीवित प्राणी के भीतर स्वाधीनता है, ज्ञान है और मृत जड़ पदार्थ में स्वाधीनता नहीं है; कारण, उसको ज्ञान नहीं है, वह कुछ जड़ नियमों की सीमा से बद्ध है । यह जो स्वाधीनता है - जिसके रहने पर ही केवल यंत्र से हमारा विशेषत्व है - उस स्वाधीनता को पूर्ण भाव से पाने के लिए ही हम सब चेष्टाएँ कर रहे हैं। हमारी जितने प्रकार की चेष्टाएँ हैं - उन सबका यही उद्देश्य है कि कैसे हम अधिकाधिक स्वाधीन हों। क्योंकि पूर्ण स्वाधीनता पाने पर ही हम पूर्णत्व पा सकते हैं। हम जानें या न जानें, स्वाधीनता पाने की चेष्टा ही सब प्रकार की उपासना-प्रणालियों की भित्ति है । संसार में जितने प्रकार की उपासना-प्रणालियाँ प्रचलित हैं उन सबका यदि विश्लेषण करें तो हमें मालूम होगा कि नितांत असभ्य जातियाँ भूत-पेतादि की उपासना करती हैं। पूर्व पुरुषों की आत्माओं की उपासना, सर्प-पूजा, जातीय देवविशेष की उपासना - इन सबको लोग क्यों करते हैं? कारण यह है कि लोग समझते हैं कि उक्त देवादि पुरुषगण किसी अज्ञातरूप से हमारी स्वाधीनता में बाधा डालते हैं। इसी कारण इन सब पुरुषों को वे संतुष्ट करने की चेष्टा करते हैं जिससे वे उनका किसी प्रकार अनिष्ट न कर सकें, अर्थात् जिससे वे अधिकतर स्वाधीनता लाभ कर सकें। इन सब श्रेष्ठ पुरुषों की पूजा कर उनको संतुष्ट करके वरस्वरूप उनसे नाना प्रकार की काम्य वस्तुओं की वे आकांक्षा करते हैं। जिन सबको अपने प्रयत्न से लाभ करना मनुष्य को उचित है, वे उन्हें देवता के अनुग्रह से पाना चाहते हैं। जो कुछ भी हो, मतलब यह है कि इन सब उपासना-प्रणालियों की आलोचना से यही उपलब्धि होती है कि समग्र संसार कुछ चमत्कार की आशा कर रहा है । यह आशा कभी भी हमें नहीं छोड़ती और हम चाहे जितनी चेष्टा क्यों न करें, हम सब केवल अद्भुत और आश्चर्यजनक की ओर ही दौड़ रहे हैं। जीवन के अर्थ और उसके रहस्य के अविराम अनुसंधान को छोड़ हमारे मन का और क्या अर्थ होता है? हम कहेंगे कि अशिक्षित लोग ही इन बातों के पीछे दौड़ रहे हैं परंतु वे भी क्यों ऐसा करते हैं, इस प्रश्न से तो सहज ही हम छुटकारा नहीं पा सकते। बाइबिल में देखा जाता है कि यहूदी लोग ईसा मसीह के निकट निदर्शनस्वरूप एक अलौकिक घटना देखने की आकांक्षा व्यक्त करते थे। केवल यहूदी ही क्यों, समग्र जगत् ही हजारों वर्षों से लेकर इस प्रकार अलौकिक घटना देखने की प्रत्याशा करता आ रहा है और देखिये, समग्र जगत् में सब के भीतर ही एक असंतोष का भाव दिखायी पड़ता है। हमने एक आदर्श को पकड़ा, जीवन का एक लक्ष्य स्थिर किया - परंतु उसकी ओर अग्रसर होकर आधे रास्ते में पहुँचते ही एक नया आदर्श पकड़ लिया । एक निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर जाने के लिए हमने कठोर चेष्टाएँ कीं, परंतु उसके बाद समझ गये कि उससे हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। समय-समय पर हममें ऐसे असंतोष का भाव आता रहता है, किंतु यदि असंतोष ही बना रहे तो हमारी इन मानसिक चेष्टाओं का क्या लाभ? इस सार्वजनीन असंतोष का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि स्वाधीनता - लाभ ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है - जब तक वह इस स्वाधीनता का लाभ नहीं करता, तब तक किसी तरह भी उसका असंतोष दूर नहीं हो सकता । मनुष्य सर्वदा ही स्वाधीनता का अनुसंधान कर रहा है, मनुष्य का समग्र जीवन ही केवल इस स्वाधीनता-लाभ की चेष्टा है। बच्चा जन्म ग्रहण करते ही नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है । वह जन्मते ही रोने लगता है। इसका अर्थ और कुछ भी नहीं है - वह जन्मते ही देखता है कि वह विविध अवस्थाचक्र में बद्ध है - इसलिए मानो वह रोकर उक्त अवस्था का प्रतिवाद करते हुए, अपने अंतर्निहित मुक्ति की आकांक्षा को अभिव्यक्त करता है। मनुष्य की इस स्वाधीनता और मुक्ति की आकांक्षा से ही उसकी यह धारणा उत्पन्न होती है कि ऐसा एक पुरुष अवश्य है जो संपूर्णतः मुक्तस्वभाव है । इसलिए देखा जाता है कि ईश्वर की धारणा मानव के मन का स्वाभाविक गुण है। वेदांत में मानव-मन की सर्वोच्च ईश्वर-धारणा सच्चिदानंद नाम से निर्दिष्ट की गयी है। वह चिद्धन और स्वभावतः आनंदघनस्वरूप है। हम बहुत दिनों से ही उस सच्चिदानंद-स्वरूप की आंतरिक वाणी को दबा रखने की चेष्टा करते आये हैं। हम नियम का अनुसरण करने की चेष्टा करके अपने स्वाभाविक मनुष्य - प्रकृति की स्फूर्ति में बाधा देने का प्रयास कर रहे हैं, कि
ंतु हमारा आभ्यंतरिक मानव-स्वभाव-सुलभ सहज संस्कार, प्रकृति की नियमावली के विरुद्ध हमको विद्रोह करने के लिए प्रवृत्त कर रहा है । हम इसका अर्थ चाहे न समझें, परंतु अज्ञात रूप से हमारे मानुषिक भाव के साथ आध्यात्मिक भाव का, निम्नस्तर के मन के साथ उच्चतर मन का, संग्राम चल रहा है और इस प्रतिद्वंद्विता के संघर्ष से अपना एक पृथक अस्तित्व बचा रखने की जिसको हम अपनापन या व्यक्तित्व कहते हैं, उसको बचा रखने की - एक विशेष चेष्टा देखी जाती है। यहाँ तक कि नरक के अस्तित्व की जो कल्पना की जाती है, उसमें भी यह अद्भुत बात पायी जाती है कि हम जन्म से ही प्रकृति का विरुद्धाचरण करते रहते हैं। हमको जन्मते ही किन्हीं नियमों में बाँधने की चेष्टा की जाती है • हम उसको विशेष करके कहने लगते हैं, किसी प्रकार के नियम से हम नहीं चलेंगे । जब हम पैदा होते हैं, जीवनप्रवाह के प्रथम आविर्भाव में ही हमारे जीवन की प्रथम घटना प्रकृति का विरुद्धाचरण है। जितने दिन हम प्रकृति की नियमावली को मानकर चलते हैं, उतने दिन हम यंत्र की तरह हैं - उतने दिन जगत्प्रवाह अपनी गति से चलता रहता है - उसकी श्रृंखला हम तोड़ नहीं सकते । नियम का पालन ही मनुष्य की प्रकृति हो जाती है। परंतु जब हमारे भीतर प्रकृति का यह बंधन तोड़कर मुक्त होने की चेष्टा उत्पन्न होती है, तभी उच्च स्तर के जीवन का प्रथम उन्मेष हुआ, ऐसा समझना होगा। 'मुक्ति' - 'स्वाधीनता' - आत्मा के अंतस्तल से सर्वदा ही यह संगीत ध्वनि उठ रही है, किंतु हाय! अनंत नित्य-चक्र में वह घूम रही है प्रकृति की सैकड़ों शृंखलाओं में वह बद्ध रही है। यह नाग-पूजा या भूत-पेत की उपासना या दानव-पूजा तथा विभिन्न धर्म-मत और साधना चमत्कार-लाभ के लिए क्यों किये जाते हैं? किसी वस्तु में जीवन-शक्ति है, उसके भीतर एक यथार्थ सत्ता है, यह बात हम क्यों कहते हैं? अवश्य इन सब अनुसंधानों के भीतर, जीवन-शक्ति को समझने की यथार्थ सत्ता की व्याख्या करने की चेष्टा के भीतर कोई अर्थ होना चाहिए । वह कभी निरर्थक या व्यर्थ नहीं हो सकती । वह मानव की मुक्तिलाभ की अनवरत चेष्टा ही है। हम जिस विद्या को विज्ञानशास्त्र कहते हैं वह हजारों वर्षों से स्वाधीनता-लाभ की चेष्टा करती आ रही है; और सब लोग सदैव इस स्वाधीनता की ही आकांक्षा कर रहे हैं। परंतु प्रकृति के भीतर तो स्वाधीनता या मुक्ति नहीं है। उसके भीतर नियम केवल नियम हैं। तथापि मुक्ति की यह चेष्टा चल रही है। विशाल सूर्यमंडल से लेकर क्षुद्र परमाणु तक सभी प्रकृति के नियमाधीन हैं - यहाँ तक कि मनुष्य की भी स्वाधीनता नहीं है। परंतु हम इस बात पर विश्वास नहीं कर सकते, हम अनादि काल से ही प्राकृतिक नियमावली की आलोचना करते आ रहे हैं, परंतु मनुष्य भी नियम के अधीन है - इस बात पर हम विश्वास नहीं कर सकते, विश्वास करना नहीं चाहते कारण, हमारी आत्मा के अंतराल से निरंतर 'मुक्ति! मुक्ति! स्वाधीनता! स्वाधीनता!' यही अनंत चीत्कार उठ रही है। मनुष्य ने जब नित्यमुक्त पुरुषस्वरूप ईश्वर की धारणा लाभ की है तब वह अनंतकाल तक के लिए बंधन के भीतर रहकर शांति नहीं पा सकता। मनुष्य को उच्च से उच्चतर पथ पर अग्रसर होना होगा और यह चेष्टा यदि अपने लिए न होती तो इसे वह बड़ा कष्टदायक समझता। मनुष्य अपनी ओर देखकर कहता है, "मैं जन्म के साथ ही प्रकृति का क्रीतदास हूँ - बद्ध हूँ, तब भी एक ऐसे पुरुष हैं जो प्रकृति के नियम में बद्ध नहीं है - जो नित्यमुक्त और प्रकृति के भी प्रभु हैं। " इसलिए, बंधन की धारणा, जिस प्रकार हमारे मन का अभेद्य अंशस्वरूप है, ईश्वर की धारणा भी उसी प्रकार प्रकृतिगत और हमारे मन का अभेद्य अंशस्वरूप है। दोनों ही इस स्वाधीनता के भाव से उत्पन्न हुई हैं। और तो क्या, स्वाधीनता का भाव न रहने पर उद्भिज के भीतर भी जीवनी शक्ति नहीं रह सकती । उद्भिज अथवा कीट के भीतर वह जीवनी-शक्ति विकसित होकर 'व्यक्तित्व' के स्तर तक ऊपर उठने की चेष्टा कर रही है । अज्ञात भाव से मुक्ति की चेष्टा उनके भीतर कार्य कर रही है। उद्भिज जीवन धारण कर रहा है, उसका उद्देश्य है अपने विशेषत्व, अपने विशेष रूप, अपने निजत्व की रक्षा करना उस मुक्ति की अविराम चेष्टा ही उसकी उस चेष्टा का प्रेरक है प्रकृति नहीं। प्रकृति ही हमारी उन्नति के प्रत्येक सोपान को नियमित कर रही है, इस प्रकार की धारणा करने से स्वाधीनता या मुक्ति के भाव को बिलकुल उड़ा देना पड़ता है; परंतु जिस प्रकार नियम में बद्ध जड़-जगत् की धारणा चल रही है, उसी प्रकार मुक्ति की धारणा भी चल रही है । इन दो धारणाओं का लगातार संग्राम चल रहा है । हम अनेक मत-मतांतर तथा विभिन्न संप्रदायों के विवाद की बात सुन रहे हैं, परंतु विभिन्न मत या विभिन्न संप्रदायों का होना अन्याय या अस्वाभाविक नहीं है - वे अवश्य रहेंगे । श्रृंखला जितनी दीर्घ हो रही है, स्वभावतः उतना ही द
्वंद्व बढ़ रहा है; परंतु यदि हम समझ लें कि हम उसी एक प्रकार के लक्ष्य की ओर पहुँचने की चेष्टा कर रहे हैं तो विवाद का प्रयोजन फिर नहीं रहेगा। मुक्ति या स्वाधीनता के इस मूर्त-विग्रहस्वरूप प्रकृति के प्रभु को हम ईश्वर कहा करते हैं। आप उनको अस्वीकार नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि आप इस स्वाधीनता के भाव को कभी भगा नहीं सकते, इस भाव के बिना एक मुहूर्त भी जीवन धारणा नहीं किया जा सकता । यदि आप अपने को स्वाधीन कहकर विश्वास नहीं करते तो आप क्या कभी यहाँ आ सकते थे? संभव है कि प्राणितत्त्वविद् आकर इस मुक्त होने की निरंतर चेष्टा पर एक व्याख्यान दे सकते हैं और देंगे भी । यह सब मैं मानता हूँ, किंतु फिर भी स्वाधीनता का भाव तो हमारे भीतर से नहीं जाता। जैसे हम प्रकृति के अधीन हैं, प्रकृति के बंधन को किसी प्रकार काट नहीं सकते, ये भाव सदा हमारे भीतर वर्तमान हैं, वैसे ही स्वाधीनता का भाव भी हमारे भीतर सदा वर्तमान है । बंधन और मुक्ति, प्रकाश और छाया, अच्छा और बुरा सर्वत्र ही ये दो बातें हैं । समझना होगा कि जहाँ भी किसी प्रकार का बंधन है उसके पीछे मुक्ति भी गुप्त भाव से विद्यमान है। यदि एक सत्य हो तो दूसरा भी अवश्य सत्य होगा। सर्वत्र ही मुक्ति की धारणा अवश्य रहेगी । हम अशिक्षित व्यक्तियों में जिस प्रकार बंधन की धारणा देखते हैं, उसको हम मुक्ति की धारणा कहकर अभी न समझें, तथापि वह धारणा उनके भीतर मौजूद है। अशिक्षित और जंगली मनुष्य के मन में पाप और अपवित्रता के बंधन की धारणा बहुत कम है। कारण, उसकी प्रकृति पशुस्वभाव से अधिक उन्नत नहीं है । वह भौतिक प्रकृति के बंधन से, भौतिक सुख-संतोष के अभाव से अपने को मुक्त करने की चेष्टा करता रहता है; किंतु इस निम्नतर धारणा से धीरे-धीरे उसके मन में मानसिक और नैतिक बंधन की धारणा और आध्यात्मिक स्वाधीनता की आकांक्षा जाग उठती है। यहाँ हम देखते हैं कि वही ईश्वरीय भाव अज्ञानावरण के भीतर से क्षीण रूप में प्रकाशित हो रहा है । पहले-पहल वह आवरण बड़ा घना रहता है और मालूम होता है कि वह ब्रह्मज्योति एक तरह से उससे आच्छादित है, परंतु वास्तव में वही मुक्ति और पूर्णतारूप उज्ज्वल अग्नि सदा शुद्ध और आच्छादित भाव से ही वर्तमान रहती है। मनुष्य उसी में व्यक्ति-धर्म का आरोप कर उसे ब्रह्मांड का नियंता एकमात्र मुक्त पुरुष कहकर उसकी धारणा करता है । वह तब भी नहीं जानता कि समग्र ब्रह्मांड एक अखंड वस्तु है - प्रभेद है केवल परिमाण में और धारणा में - विचार में। । समग्र प्रकृति ही ईश्वर की उपासना-स्वरूप है। जहाँ भी किसी प्रकार का जीवन है, वहीं मुक्ति का अनुसंधान है और वह मुक्ति ही ईश्वरस्वरूप है । इस मुक्ति के लाभ करने पर निश्चय ही समग्र प्रकृति पर आधिपत्य प्राप्त होता है और ज्ञान के बिना मुक्ति पाना असंभव है। हम जितने अधिकतर ज्ञानसंपन्न होते हैं, उतना ही हम प्रकृति पर आधिपत्य पा सकते हैं। और प्रकृति जितनी ही हमारे वशीभूत होती जाती है, उतना ही हम अधिकतर शक्तिसंपन्न, अधिकतर ओजस्वी होते जाते हैं और यदि ऐसे कोई पुरुष हों जो संपूर्ण मुक्त और प्रकृति के प्रभु हैं, तो उनको अवश्य ही प्रकृति का पूर्ण ज्ञान रहेगा। सर्वव्यापी और सर्वज्ञ होंगे । मुक्त और स्वाधीनता के साथ-साथ ये गुण अवश्य रहेंगे और जो व्यक्ति उनको प्राप्त कर लेंगे, केवल वे ही प्रकृति के पार जाने में समर्थ होंगे। वेदांत में ईश्वरविषयक जो सब तत्त्व पढ़ने में आते हैं उनके मूल में पूर्ण मुक्ति एवं स्वाधीनता से उत्पन्न परमानंद तथा नित्य शांतिरूप धर्म की उच्चतम धारणा विद्यमान है। संपूर्ण मुक्तभाव से अवस्थान - कुछ भी उसको बद्ध नहीं कर सकता, वहाँ प्रकृति भी नहीं है, किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है जो उसमें किसी प्रकार का परिणाम उत्पन्न कर सके । यह मुक्त भाव आपके भीतर है, मेरे भीतर है और यही एकमात्र यथार्थ स्वाधीनता है। ईश्वर सदा ही अपने महिमामय अपरिणमी स्वरूप पर प्रतिष्ठित है । आप और हम उनके साथ एक होने ही चेष्टा कर रहे हैं, किंतु इधर बंधन की कारणीभूत प्रकृति, नित्य जीवन की छोटी-छोटी बातें, धन, नाम, यश, मानव-पेम इत्यादि प्राकृतिक विषयों पर निर्भर हैं। परंतु यह जो समग्र प्रकृति प्रकाश पा रही है उसका प्रकाश किस पर निर्भर है? ईश्वर के प्रकाश से ही प्रकृति प्रकाश पाती है; सूर्य, चन्द्र, तारों के प्रकाश से नहीं। जहाँ कुछ भी वस्तु प्रकाशित है, चाहे वह सूर्य के प्रकाश से हो अथवा हमारी अंतरात्मा के प्रकाश से, वह उनका ही प्रकाश है। वे प्रकाशस्वरूप हैं। उन्हीं के प्रकाश से समुदय संसार प्रकाश पा रहा है। हमने देखा है कि ये ईश्वर स्वतः सिद्ध हैं, निर्गुण, सर्वज्ञ, प्रकृति के ज्ञाता और प्रभु, सबके ईश्वर हैं। सब उपासनाओं के मूल में वे विद्यमान हैं, हम चाहे समझें या न समझें, उन्हीं की उपासना हो र
ही है। केवल यही नहीं, मैं जरा और भी आगे बढ़कर कहना चाहता हूँ, और इस बात को सुनकर शायद सभी आश्चर्यचकित होंगे किंतु इसमें सन्देह नहीं कि जिसको अशुभ कहा जाता है वह भी उन्हीं की उपासना है । वह भी मुक्ति का ही एक कोना है। केवल वही नहीं - आप शायद मेरी यह बात सुनकर डर जायेंगे, किंतु मैं कहता हूँ - जब आप कोई बुरा कार्य कर रहे हैं, तो उस मुक्ति की अदम्य आकांक्षा ही प्रेरक शक्ति-रूप में उसके पीछे विद्यमान है। संभव है कि वह गलत रास्ते पर जा रही है परंतु वह विद्यमान है अवश्य - यह कहना पड़ेगा । और फिर उस मुक्ति की - स्वाधीनता की प्रेरणा न रहने से किसी प्रकार का जीवन या किसी प्रकार की पेरणा नहीं रह सकती। समग्र ब्रह्मांड में मुक्ति - स्वाधीनता - का स्पंदन हो रहा है । इस ब्रह्मांड के अंतरतम प्रदेश में यदि एकत्व न रहता तो हम बहुत्व का ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर सकते थे। उपनिषद् में ईश्वर की धारणा इसी प्रकार की है। समयसमय पर यह धारणा और भी उच्चतर में उठी है - उसने हमारे सामने एक ऐसे आदर्श की स्थापना की है - जिससे पहले-पहल तो हमें स्तंभित हो जाना पड़ता है - वह आदर्श यह है कि स्वरूपतः हम ईश्वर से अभिन्न हैं। वे ही तितली के विचित्र वर्ण हैं और वे ही गुलाब की कली के प्रस्फुटन के रूप में आविर्भूत हए हैं; और वे ही तितली तथा गुलाब के पौधे में शक्तिरूप में विद्यमान हैं। जिन्होंने हमें जीवन दिया है, वे ही हमारे अंतर में शक्तिरूप से विराज रहे हैं। उनके तेज से जीवन का आविर्भाव और उन्हीं की शक्ति से कठोरतम मृत्यु होती है। उनकी छाया ही मृत्यु है और उनकी छाया ही अमृतत्त्व है । एक और उच्चतर धारणा की बात कहता हूँ । भयानक जो कुछ भी है, उससे हम सभी बहेलिये द्वारा खदेड़े हुए खरगोश की भाँति भाग रहे हैं, उसी की भाँति मुँह को छिपाकर अपने को निरापद सोचते हैं। ऐसे ही यह समग्र संसार, जो कुछ भी भयानक देखता है, उसके पास से भागने की चेष्टा कर रहा है। एक बार मैं काशी में किसी जगह जा रहा था, उस जगह एक तरफ भारी जलाशय और दूसरी तरफ ऊँची दीवाल थी । उस स्थान पर बहुत से बंदर थे । काशी के बंदर बड़े दुष्ट होते हैं। अब उनके मस्तिष्क में यह विचार पैदा हुआ कि वे मुझे उस रास्ते पर से न जाने दें । वे विकट चीत्कार करने लगे और झट आकर मेरे पैरों से जकड़ने लगे। उनको निकट देखकर मैं भागने लगा किंतु मैं जितना ज्यादा जोर से दौड़ने लगा, वे उतनी ही अधिक तेजी से आकर मुझे काटने लगे। अंत में उनके हाथ से छुटकारा पाना असंभव प्रतीत हुआ - ठीक ऐसे ही समय एक अपरिचित मनुष्य ने आकर मुझे आवाज दी, " बंदरों का सामना करो", मैं भी जैसे ही उलटकर उनके सामने खड़ा हुआ, वैसे ही वे पीछे हटकर भाग गये । समस्त जीवन में हमको शिक्षा लेनी होगी - जो कुछ भी भयानक है उसका सामना करना पड़ेगा, साहसपूर्वक उसके सामने खड़ा होना पड़ेगा। जैसे बंदरों के सामने से न भागकर उनका सामना करने पर वे भाग गये थे, उसी प्रकार हमारे जीवन में जो कुछ कष्टप्रद बातें हैं, उनका सामना करने पर ही वे भाग जाती हैं। यदि हमको मुक्ति या स्वाधीनता का अर्जन करना हो तो प्रकृति को जीतने पर ही हम उसे पायेंगे, प्रकृति से भागकर नहीं । कायर पुरुष कभी जय नहीं पा सकता । हमको भय, कष्ट और अज्ञान के साथ संग्राम करना होगा, तभी वे हमारे सामने से भाग जाएँगे। मृत्यु क्या है? भय किसका है? उन सबके भीतर क्या भगवान का रूप दिखायी नहीं देता? दुःख, कष्ट और भय से दूर भागकर देखिये - वे आपका पीछा करेंगे। उनके सामने खड़े होइये, वे भाग जाएँगे । सारा संसार सुख और आराम का उपासक है; जो कष्टप्रद है, उसकी उपासना करने का साहस बहुत कम लोग करते हैं । जो मुक्ति चाहता है उसे इन दोनों का ही अतिक्रमण करना पड़ेगा। मनुष्य इस दुःखदायी द्वार के भीतर से गये बिना मुक्त नहीं हो सका। हम सभी को इसका सामना करना पड़ेगा । हम ईश्वर की उपासना करने की चेष्टा करते हैं किंतु हमारी देह बीच में आती है, प्रकृति उनके और हमारे बीच में पड़कर हमारी दृष्टि को अंधी कर देती है। कठोर वज्र के भीतर, लज्जा, मलिनता, दुःख-दुर्विपाक, पाप-ताप के भीतर भी हमें उनसे प्रेम करने की शिक्षा लेनी होगी। समग्र संसार धर्ममय ईश्वर का प्रचार चिरकाल से करता आ रहा है। मैं ऐसे ईश्वर का प्रचार करना चाहता हूँ जो एकाधार से धर्म और अधर्म दोनों में ही है; यदि साहस हो तो इस ईश्वर को ग्रहण करो - यही मुक्ति का एकमात्र उपाय है - इसके द्वारा ही आप उस एकस्वरूप चरम सत्य में पहुँच सकेंगे। तभी यह धारणा नष्ट होगी कि एक व्यक्ति दूसरे से बड़ा है । जितना ही हम इस मुक्ति तत्त्व के पास जाते हैं, उतना ही हम ईश्वर के आश्रय में आते हैं, उतना ही हमारा दुःख-कष्ट दूर होता है। तब हम नरक के द्वार को स्वर्ग द्वार से पृथक नहीं समझेंगे, तब हम मनुष्य-मनुष्य में भेदबुद्धि कर यह नहीं क
हेंगे कि मैं जगत् के किसी : प्राणी से श्रेष्ठ हूँ। जब तक हमारी ऐसी अवस्था नहीं होती कि हम संसार में उस प्रभु के सिवाय और किसी को न देखें, तब तक हम दुःख कष्ट से घिरे ही रहेंगे, तब तक हम सब में भेद देखेंगे। कारण, हम उस भगवान में - उसी आत्मा में अभिन्न हैं, और जब तक हम ईश्वर को सर्वत्र नहीं देखेंगे, तब तक हम समग्र संसार के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकेंगे। एक ही वृक्ष पर सुंदर पंखवाले अभिन्न सखा दो पक्षी हैं - उनमें से एक वृक्ष के ऊपरवाले भाग पर और दूसरा नीचेवाले भाग पर बैठा है । नीचे का सुंदर पक्षी वृक्ष के मीठे और कड़वे फलों को खाता है - एक बार मीठे फल को और उसके बाद ही कड़वे फल को खाता है । जिस मूहूर्त में उसने कड़वे फल को खाया, उसको कष्ट हुआ । कुछ क्षण के बाद ही एक और फल खाया और जब वह भी कड़वा लगा, तब उसने ऊपर की ओर देखा। ऊपर उसको दूसरा पक्षी दिखयी दिया, वह मीठे या कड़वे किसी भी फल को नहीं खाता । वह अपनी महिमा में मग्न हो स्थिर और धीर भाव से बैठा है। किंतु वह उसे देखकर भी फिर भूल से फल खाने लगा - अंत में उसने एक ऐसा फल खाया जो बड़ा ही कड़वा था, तब वह फल खाने से विरक्त हो फिर उस ऊपरवाले महिमामय पक्षी को देखने लगा। धीरे-धीरे वह उस ऊपरवाले पक्षी की ओर अग्रसर होने लगा। जब वह उसके एकदम निकट पहुँचा, तब उस ऊपरवाले पक्षी की अंगज्योति उसके ऊपर पड़ी और धीरे-धीरे उस ज्योति ने उसको वेष्टित कर लिया। अब तो उसने देखा कि वह उस ऊपरवाले में ही परिणत हो गया है । तब से वह शांत, महिमामय और मुक्त हो गया - उसे ज्ञात हुआ कि वास्तव में वृक्ष पर दो पक्षी कभी थे ही नहीं - केवल एक ही पक्षी था । नीचे वाला पक्षी ऊपरवाले पक्षी की केवल छाया थी । इसी प्रकार वास्तव में हम ईश्वर से अभिन्न हैं; परंतु जिस प्रकार एक सूर्य लाखों ओस बिंदुओं पर प्रतिबिंबित होकर छोटे-छोटे लाखों सूर्यों सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार ईश्वर भी बहु जीवात्मरूप से प्रतिभासित होते हैं। यदि हम अपने प्रकृत ब्रह्मस्वरूप के साथ अभिन्न होना चाहें तो प्रतिबिंब को दूर करना आवश्यक है। विश्व-प्रपंच कदापि हमारे कार्यों की सीमा नहीं हो सकता । कृपण अर्थ-संचय करता रहता है, चोर चोरी करता है, पापी पापाचरण करता है, और आप दर्शनशास्त्र की शिक्षा लेते हैं। इन सब का एक ही उद्देश्य है । मुक्ति-लाभ को छोड़ हमारे जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं है । जाने या अनजाने हम सब पूर्णता पाने की चेष्टा कर रहे हैं और प्रत्येक व्यक्ति उसे एक-न- एक दिन अवश्य ही पायेगा। जो व्यक्ति पापों में मग्न है, जिस व्यक्ति ने नरक के पथ का अनुसरण कर लिया है, वह भी इस पूर्णता का लाभ करेगा परंतु उसको कुछ विलंब होगा । हम उसका उद्धार नहीं कर सकते। जब उस पथ पर चलते-चलते वह कुछ कठिन चोटें खाएगा, तब वे ही उसे भगवान की ओर प्रेरित करेगी । अंत में वह धर्म, पवित्रता, निःस्वार्थपरता और आध्यात्मिकता का पथ ढूँढ़ लेगा और दूसरे लोग जिसका अनजान में अनुसरण कर रहे हैं, उसी धर्म का हम ज्ञानपूर्वक अनुसरण कर रहे हैं। सेंट पॉल ने एक स्थान पर इस भाव को खूब स्पष्ट रूप से कहा है, "तुम जिस ईश्वर की अज्ञान में उपासना कर रहे हो, उन्हीं की मैं तुम्हारे निकट घोषणा कर रहा हूँ।" समग्र जगत् को यह शिक्षा ग्रहण करनी होगी। सब दर्शनशास्त्रों और प्रकृति के संबंध में इन सब मतवादों को लेकर क्या होगा, यदि वे जीवन के इस लक्ष्य पर पहुँचने में सहायता न कर सकें? आइये, हम विभिन्न वस्तुओं में भेद-ज्ञान को दूर कर सर्वत्र अभेद का दर्शन करें मनुष्य अपने को सब वस्तुओं में देखना सीखें। हम अब ईश्वर संबंधी संकीर्ण, साधारण, विशिष्ट धर्मगत और संप्रदायसमूह के उपासक न रहकर, संसार में सभी के भीतर उनका दर्शन करना आरंभ करें । आप लोग यदि ब्रह्मज्ञ हों तो आप अपने हृदय में जिन ईश्वर का दर्शन कर रहे हैं उन्हें सर्वत्र ही देखने में आप समर्थ होंगे। पहले तो सब संकीर्ण धारणाओं का त्याग कीजिये, प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का दर्शन कीजिये - देखिये, वे सब हाथों से काम कर रहे हैं, सब पैरों से चल रहे हैं, सब मुखों से भोजन कर रहे हैं, प्रत्येक व्यक्ति में वास कर रहे हैं - वे स्वतः प्रमाण हैं - हमारे निज की अपेक्षा वे हमारे अधिक निकटवर्ती हैं । यही जानना धर्म है - यही विश्वास है; प्रभु हमको यह विश्वास दें । हम जब समस्त संसार में इस अखंड का अनुभव करेंगे तब हम अमर हो जाएँगे। भौतिक दृष्टि से देखने पर हम अमर हैं, सारे संसार के साथ एक हैं। जितने दिन तक एक व्यक्ति भी इस संसार में श्वास ले रहा है तब तक मैं उसके भीतर जीवित हूँ, मैं यह संकीर्ण क्षुद्र व्यष्टि जीव नहीं हूँ, मैं समष्टिस्वरूप हूँ । अतीत काल में जितने प्राणी हो गये हैं, मैं उन सभी का जीवनस्वरूप था, मैं ही बुद्ध, ईसा और मुहम्मद का आत्मस्वरूप हूँ। मैं सब आचार्यगणों का आ
त्म-स्वरूप हूँ, मैं ही चौर्यवृत्तिकारी सकल चोरस्वरूप हूँ और जितने हत्याकारी फाँसी पर लटके हैं, उनका भी स्वरूप - मैं सर्वमय हूँ । अतएव उठो - यही परापूजा है। तुम स्वयं समग्र जगत् के साथ अभिन्न हो; यही यथार्थ विनय है - घुटने टेककर "मैं पापी हूँ, मैं पापी हूँ" कहकर केवल चिल्लाने का नाम विनय नहीं है । जब इस भेद का आवरण छिन्न-विच्छिन्न हो जाता है, तभी सर्वोच्च उन्नति समझनी होगी । समस्त जगत् का अखंडत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है। मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम' के लिए यह सत्य नहीं है। मैं समष्टिस्वरूप हूँ - इस धारण के ऊपर खड़े होइये - इस पुरुषोत्तम की उच्चतम अनुष्ठान-प्रणालियों की सहायता से उपासना कीजिये। कारण, ईश्वर जड़ वस्तु नहीं है, वे चैतन्यस्वरूप हैं, आत्मस्वरूप हैं, और आत्मरूप से तथा सत्य-रूप से उनकी यथार्थ उपासना करनी होगी। पहले साधक उपासना की निम्नतम प्रणाली का अवलंबन कर, उपासना करते-करते जड़ विषय की चिंता से उच्च सोपान पर आरोहण करके आध्यात्मिक उपासना के राज्य में उपनीत होता है, तभी अंत में आत्मा के माध्यम से और आत्मा के उस अखंड, अनंत समष्टिस्वरूप भगवान की यथार्थ उपासना संभव होती है। जो कुछ शांत है, वह जड़ ही है । चैतन्य ही केवल अनंत-स्वरूप है, ईश्वर चैतन्यस्वरूप है। इसीलिए वे अनंत हैं; मानव चैतन्यस्वरूप हैं - मानव भी अनंत हैं और अनंत ही केवल अनंत की उपासना में समर्थ हैं। हम उसी अनंत की उपासना करेंगे, यही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है। इन सब भावों का अनुभव करना बहुत बड़ी बात है और कठिन है। मैं मत-मतांतर की बात कह रहा हूँ, दार्शनिक विचार कर रहा हूँ, कितनी बकबक कर रहा हूँ; इतने में कुछ मेरे प्रतिकूल घटना घटी - मैं अज्ञान से क्रुद्ध हो उठा, तब भूल गया कि इस विश्व ब्रह्मांड में इस क्षुद्र ससीम मुझे छोड़ और भी कुछ है। मैं तब कहना भूल गया, "मैं चैतन्यस्वरूप हूँ - इस अकिंचित्कार बात से मेरा प्रयोजन है - मैं चैतन्यस्वरूप हूँ," मैं तब भूल जाता हूँ कि यह सब मेरी ही लीला है, मैं ईश्वर को भूल जाता हूँ और मुक्ति की बात भी भूल जाता हूँ। 'क्षुरस्य धारा निशिता दुरस्त्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदंति । ' ऋषियों ने बार-बार कहा है - मुक्ति का पथ उस्तरे की भाँति तीक्ष्ण, दीर्घ और कठिन है- इसे अतिक्रमण करना कठिन है। किंतु पथ कठिन हो, सैकड़ों दुर्बलताएँ आयें, सैकड़ों बार उद्यम विफल हो, परंतु वे आपको अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर होने में हतोत्साह न करें। उपनिषदों की घोषणा है - "उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत" उठो जागो, जब तक उस लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक रुको मत । यद्यपि वह पथ उस्तरे की धार की तरह तीक्ष्ण है - यद्यपि वह पथ दीर्घ है, दूरवर्ती और कठिन है, किंतु हम उस पथ का अवश्य ही अतिक्रमण करेंगे। मनुष्य साधना के बल से एक दिन देव और असुर दोनों का ही प्रभु हो सकता है। हमारे दुःख के लिए स्वयं हमारे सिवा और कोई उत्तरदायी नहीं है। आप क्या समझते हैं कि मनुष्य यदि अमृत के लिए चेष्टा करे, तो वह उसके बदले में विष लाभ करेगा? नहीं, अमृत है - उसकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्नशील प्रत्येक मनुष्य के लिए वह है। प्रभु ने स्वयं कहा है - "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ 'सभी धर्मों का परित्याग कर एक मेरी शरण में आ । मैं तुझे समस्त पापों के पार लगा दूँगा। भय न कर ।' हम जगत् के सब शास्त्रों को एक स्वर से इसी वाणी की घोषणा करते हुए सुन रहे हैं। यह वाणी ही हमसे कह रही है "जैसी स्वर्ग में, तद्रूप ही मृत्युलोक में भी तेरी इच्छा पूर्ण हो; कारण, सर्वत्र तेरा ही राजत्व है, तेरी ही शक्ति और तेरी ही महिमा है।" कठिन, बड़ी कठिन बात है। अभी कहा - "हे प्रभु, मैंने अभी तेरी शरण ली - प्रेममय! तेरे चरणों पर सर्वस्य समर्पण किया - तुम्हारी वेदी पर, जो कुछ भी सत् है, जो कुछ भी पुण्य है, सभी कुछ स्थापन किया। मेरा पाप-ताप, भला-बुरा कार्य कुछ तेरे ही चरणों पर मैं समर्पण करता हूँ - तू सब ग्रहण कर - मैं अब तुझे कभी नहीं भूलूँगा।" अभी कहा - "तेरी इच्छा पूर्ण हो"; पर दूसरे मुहूर्त मे ही जब एक परीक्षा में पड़ गया, तब हमारा वह ज्ञान लोप हो गया, मैं क्रोध में अंधा हो गया । सब धर्मों का एक ही लक्ष्य है, परंतु विभिन्न आचार्य विभिन्न भाषाओं का व्यवहार करते रहते हैं। सबकी चेष्टा इस झूठे 'अहम्' या कच्चे 'अहम्' का विनाश करना है । तब फिर सत्य के 'अहम्', पक्के 'अहम्'-स्वरूप, एकमात्र वे प्रभु ही रहेंगे। हिब्रू शास्त्र कहता है - "तुम्हारा प्रभु ईर्ष्यापरायण ईश्वर है - तुम दूसरे किसी ईश्वर की उपासना नहीं करने पाओगे।" हमारे हृदय में एकमात्र ईश्वर ही राज्य करें। हमको कहना होगा, "नाहम, नाहम, तुहूँ तुहूँ।" तब उस
प्रभु को छोड़ हमें सर्वस्व त्यागना होगा; केवल वे ही राज्य करेंगे। माना हमने खूब कठोर साधना की - परंतु दूसरे मुहूर्त में हमारा पैर फिसल गया - और तब हमने माँ के निकट हाथ बढ़ाने की चेष्टा की - समझ गये कि निज चेष्टा द्वारा अकंपित भाव से खड़ा होना असंभव है। हमारा अनंत जीवंत जीवन मानो वह अध्यायसमन्वित ग्रंथ है, जिसका एक अध्याय यह है कि - "तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । " किंतु यदि हम उस जीवन ग्रंथ के सब अध्यायों का मर्म ग्रहण न करें, तो समुदय जीवन का अनुभव नहीं कर सकते । "तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । " प्रतिमुहूर्त ही विश्वासघाती मन इन सब भावों के विरुद्ध खड़ा हो रहा है, परंतु हमें यदि इस कच्चे 'अहम्' को जीतना ही हो तो बार-बार उस बात की आवृत्ति करनी होगी । हम एक विश्वासघाती की सेवा करें और परित्राण पा जायें - यह कभी हो नहीं सकता। सबका परित्राण है, केवल विश्वासघाती का परित्राण नहीं है - और हमारे ऊपर तो विश्वासघाती की छाप लगी है। हम अपनी आत्मा के विरुद्ध विश्वासघाती हैं - हम जब अपने यथार्थ 'अहम्' की वाणी का अनुसरण करने को असम्मत होते हैं, तब हम उस जगन्माता की महिमा के विरुद्ध विश्वासघात करते हैं। अतएव चाहे जो कुछ भी हो, हमें अपनी देह और मन को उस परम इच्छामय की इच्छा में मिला देना पड़ेगा। किसी हिंदू दार्शनिक ने ठीक कहा है कि यदि मनुष्य - " तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो ।" बस और क्या प्रयोजन है? इसे दो बार कहने की आवश्यकता ही क्या है? जो अच्छा है, वह तो अच्छा है ही, एक बार जब कह दिया "तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।" तब तो यह बात लौटायी नहीं जा सकती । "स्वर्ग की भाँति मृत्युलोक में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । कारण, तुम्हारा ही समुदय राजत्व है, तुम्हारी ही सब शक्ति है, तुम्हारी ही सब महिमा है - चिरकाल तक।" सार्वभौमिक धर्म का ज्ञान हमारी इंद्रियाँ चाहे किसी वस्तु को क्यों न ग्रहण करें, हमारा मन चाहे किसी विषय की कल्पना क्यों न करे, सभी जगह हम दो शक्तियों की क्रिया - प्रतिक्रिया देखते हैं। ये एक-दूसरे के विरुद्ध काम करती हैं और हमारे चारों ओर बाह्य जगत् में दिखायी देने वाली तथा अंतर्जगत् में उपलब्ध होने वाली समस्त जटिल घटनाओं की निरंतर क्रीड़ा की कारण हैं। ये ही दो विपरीत शक्तियाँ बाह्य जगत् में आकर्षण - विकर्षण अथवा केंद्राभिमुख-केंद्रविमुख शक्तियों के रूप से और अंतर्जगत् में राग-द्वेष या शुभाशुभ के रूप में प्रकाशित होती हैं। हम कितनी ही चीजों को अपने सामने से हटा देते हैं और कितनी ही को अपने सामने खींच लाते हैं, किसी की ओर आकृष्ट होते हैं और किसी से दूर रहना चाहते हैं। हमारे जीवन में ऐसा अनेक बार होता है कि हमारा मन किसी की ओर हमें बलात् आकृष्ट करता है पर इस आकर्षण का कारण हमें ज्ञात नहीं होता और किसी समय किसी आदमी को देखने ही बिना किसी कारण मन भागने की इच्छा करता है । इस बात का अनुभव सभी को है। और इस क्षेत्र का कार्यक्षेत्र जितना ऊँचा होगा, इन दो विपरीत शक्तियों का प्रभाव उतनी ही तीव्र और परिस्फुट होगा । धर्म ही मनुष्य के चिंतन और जीवन का सबसे उच्च स्तर है और हम देखते हैं कि धर्मजगत् में इन दो शक्तियों की क्रिया सबसे अधिक परिस्फुट हुई है। मानव जाति को जिस तीव्रतम प्रेम का ज्ञान है, वह धर्म से ही उत्पन्न हुआ है। और वह घोरतम विद्वेष का भाव जिसे मानव जाति ने कभी अनुभव किया है, उसका भी जन्मस्थान धर्म ही है । संसार ने कभी भी जो महत्तम शांति की वाणी सुनी है, वह धर्म-राज्य के लोगों के मुख से ही निकली हुई है और जगत् में कभी भी जो तीव्रतम निंदा और अभिशाप सुना है, वह भी धर्म - राज्य के मनुष्यों के मुख से उच्चारित हुआ है। किसी धर्म का उद्देश्य जितना उच्चतर है, उसकी कार्यप्रणाली जितनी सूक्ष्म है, उसकी क्रियाशीलता भी उतनी ही अद्भुत होती है। धर्म-प्रेरणा से मनुष्यों ने संसार में जितनी खून की नदियाँ बहायी हैं, मनुष्य के हृदय की और किसी प्रेरणा ने वैसा नहीं किया । और धर्म प्रेरणा से मनुष्यों ने जितने चिकित्सालय, धर्मशाला, अन्न क्षेत्र आदि बनाये, उतने और किसी प्रेरणा से नहीं । मनुष्य - हृदय की और कोई वृत्ति उसे सारी मानव जाति की ही नहीं, निकृष्टतम प्राणियों तक की सेवा करने को प्रवृत्त नहीं करती । धर्म-पेरणा से दमनुष्य जितना कोमल हो जाता है, उतना और किसी प्रवृत्ति से नहीं। अतीत में ऐसी ही हुआ है और बहुत संभव है कि भविष्य में भी ऐसा ही हो । तथापि विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के संघर्ष से निकले हुए इस द्वंद्व - कोलाहल, विवाद, अविश्वास और ईर्ष्या - द्वेष से समयसमय पर इस प्रकार की वज्र-गंभीर वाणी निकली है जिसने इस सारे कोलाहल को दबाकर संसार में शांति और मेल की तीव्र घोषणा कर दी थी । उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक उसके वज्र - गंभीर आह्वान को सुनने के लिए मानव जाति बाध्य हुई है
। क्या संसार में किसी समय इस शांति समन्वय का राज्य स्थापित होगा? धर्मराज्य के इस प्रबल संघर्ष के बीच क्या कभी अविच्छिन्न सामंजस्य का होना संभव है? वर्तमान शताब्दी के अंत में इस समन्वय की समस्या को लेकर संसार में एक विवाद चल पड़ा है। इस समस्या का समाधान करने के लिए समाज में कई प्रकार की योजनाएँ सोची जा रही हैं और उन्हें कार्य रूप में परिणत करने के लिए नाना प्रकार की चेष्टाएँ हो रही हैं। हम सभी लोग जानते हैं कि यह कितना कठिन है। लोग पाते हैं कि जीवन संग्राम की भीषणता को, मानव में जो प्रबल स्नायविक उत्तेजना है उसको शांत करना लगभग असंभव है। जीवन का जो स्थूल एवं बाह्मांश मात्र है, उस बाह्य जगत् में साम्य और शांति स्थापित करना यदि इतना कठिन है तो मनुष्य के अंतर्जगत् में शांति और साम्य स्थापित करना उससे हजार गुना कठिन है । आप लोगों को थोड़ी देर के लिए शब्दजाल से बाहर आना होगा । हम सभी लोग बाल्यकाल से ही प्रेम, शांति, मैत्री, साम्य, सार्वजनीन भ्रातृभाव इत्यादि अनेक बातें सुनते आ रहे हैं। किंतु इन सभी बातों में से हमारे निकट कितनी ही निरर्थक हो जाती हैं। हम लोग उन्हें तोते की तरह रट लेते हैं और यह मानो हम लोगों का स्वभाव हो गया है । हम ऐसा किये बिना रह नहीं सकते । जिन सब महापुरुषों ने पहले अपने हृदय में इन महान् तत्त्वों की उपलब्धि की थी, उन्हीं ने इन शब्दों की रचना की है। उस समय बहुत से लोग इसका अर्थ समझते थे। आगे चलकर मूर्ख लोगों ने इन सब बातों को लेकर उनसे खिलवाड़ आरंभ कर दिया और अंत में धर्म को केवल बातों की मारपेंच कर दिया - लोग इस बात को भूल गये कि धर्म जीवन में परिणत करने की वस्तु है। धर्म अब 'पैतृक धर्म', 'जातीय धर्म', 'देशीय धर्म' इत्यादि के रूप में परिणत हो गया है। अंत में किसी धर्म में विश्वास करना देशाभिमान का एक अंग हो जाता है और देशाभिमान सदा एकदेशीय होता है। विभिन्न धर्मों में सामंजस्यविधान करना बहुत ही कठिन काम है, फिर भी हम इस धर्मसमन्वय-समस्या की आलोचना करेंगे। हम देखते हैं कि प्रत्येक धर्म के तीन भाग होते हैं। मैं अवश्य ही प्रसिद्ध और प्रचलित बात करता हूँ। पहला है, दार्शनिक भाग - इसमें उस धर्म का सारा विषय अर्थात् मूलतत्त्व, उद्देश्य और उनकी प्राप्ति के उपाय निहित होते हैं। दूसरा है, पौराणिक भाग यह स्थूल उदाहरणों द्वारा दार्शनिक भाग को स्पष्ट करता है। इसमें मनुष्यों एवं अलौकिक पुरुषों के जीवन के उपाख्यान आदि होते हैं। इसमें सूक्ष्म दार्शनिक तत्त्व, मनुष्यों या अतिप्राकृतिक पुरुषों के थोड़े-बहुत काल्पनिक जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाये जाते हैं। तीसरा है, आनुष्ठानिक भाग - यह धर्म का स्थूल भाग है। इसमें पूजा-पद्धति, आचार, अनुष्ठान, विविध शारीरिक अंग - विन्यास, पुष्प, धूप, धूनि इत्यादि नाना प्रकार की इंद्रिग्राह्य वस्तुएँ हैं । इन सबको मिलाकर आनुष्ठानिक धर्म का संगठन होता है। आप देख सकते हैं कि सारे विख्यात धर्मों के ये तीन विभाग होते हैं। कोई धर्म दार्शनिक भाग पर अधिक जोर देता है, कोई अन्य दूसरे भागों पर । पहले दार्शनिक भाग की बातें लेनी चाहिए; प्रश्न उठता है कोई सार्वजनीन दर्शन है या नहीं? अभी तक तो नहीं है । प्रत्येक धर्मवाले अपने मतों की व्याख्या करके उसी को एकमात्र सत्य कहकर उसमें विश्वास करने के लिए आग्रह करते हैं। वे सिर्फ इतना ही करके शांत नहीं होते, वरन् समझते हैं कि जो उनके मत में विश्वास नहीं करते, वे किसी भयानक स्थान में अवश्य जायेंगे। कोई-कोई तो दूसरों को अपने मत में लाने के लिए तलवार तक काम में लाते हैं। वे ऐसा दुष्टता से करते हों, सो नहीं । मानव-मस्तिष्कप्रसूत धार्मिक कट्टरता नामक व्याधि-विशेष की प्रेरणा से वे ऐसा करते हैं। ये धर्मांध सर्वथा कपटहीन होते हैं, मनुष्यों में सबसे अधिक कपटहीन होते हैं किंतु संसार के दूसरे पागलों की भाँति उन्हें उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं होता । यह धर्मांधता एक भयानक बीमारी है। मनुष्यों में जितनी दुष्ट बुद्धि है, वह सभी धार्मिक कट्टरता द्वारा जगायी गयी है। उसके द्वारा क्रोध उत्पन्न होता है, स्नायु समूह अतिशय चंचल होता है और मनुष्य शेर की तरह हो जाता है । विभिन्न धर्मों के पुराणों में क्या कोई सादृश्य या ऐक्य है? क्या ऐसा कोई सार्वभौमिक पौराणिक तत्त्व है जिसे सभी धर्मवाले ग्रहण कर सकें? निश्चय ही नहीं है। सभी धर्मों का अपना-अपना पुराण- साहित्य है किंतु सभी कहते हैं "केवल हमारी पुराणोक्त कथाएँ कपोलकल्पित उपकथा मात्र नहीं हैं।" इस बात को मैं उदाहरण द्वारा समझाने की चेष्टा करता हूँ। मेरा उद्देश्य - मेरी कहीं बातों को उदाहरण द्वारा समझाना मात्र है - किसी धर्म की समालोचना करना नहीं । ईसाई विश्वास करते हैं कि ईश्वर पंडुक (कपोत जाति का एक पक्षी; फाख्ता) का रूप धारण कर पृथ्वी में अवतीर्ण
हुए थे। उनके निकट यह ऐतिहासिक सत्य है - पौराणिक कहानी नहीं। हिंदू लोग गाय को भगवती के आविर्भाव के रूप में मानते हैं । ईसाई कहता है कि इस प्रकार के विश्वास का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है - यह केवल पौराणिक कहानी और अंधविश्वास मात्र है। यहूदी समझते हैं, यदि एक संदूक के दो पल्लों में दो देवदूतों की मूर्तियाँ स्थापित की जाएँ तो उस प्रतीक को मंदिर के सबसे भीतरी, बहुत छिपे हुए और अत्यंत पवित्र स्थान में स्थापित किया जा सकता है - वह जिहोवा की दृष्टि से परम पवित्र होगा; किंतु यदि किसी सुंदर स्त्री या पुरुष की मूर्ति हो तो वे कहते हैं, "यह एक वीभत्स प्रतिमा मात्र है - इसे तोड़ डालो।" यही है हमारा पौराणिक सामंजस्य! यदि कोई खड़ा होकर कहे, "हमारे अवतारों ने इन आश्चर्यजनक कामों को किया " तो दूसरे लोग कहेंगे, "यह केवल अंधविश्वास मात्र है । " किंतु उसी समय वे लोग कहेंगे कि हमारे अवतारों ने उसकी अपेक्षा और भी अधिक आश्चर्यजनक व्यापार किये थे और वे उन्हें ऐतिहासिक सत्य समझने का दावा करते हैं। मैंने जहाँ तक देखा है, इस पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं जो इन सब मनुष्यों के मस्तिष्क में रहने वाले इतिहास और पुराण के सूक्ष्म पार्थक्य को पकड़ सके । इस प्रकार की कहानियाँ - वे चाहे किसी भी धर्म की क्यों न हो सर्वथा पौराणिक होने पर भी कभी-कभी उनमें भी कुछ ऐतिहासिक सत्य हो सकता है। इसके बाद आनुष्ठानिक भाग आता है। संप्रदायविशेष की विशेष प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति होती है और उस संप्रदाय के अनुयायी उसी को धर्म-संगत समझकर विश्वास करते हैं तथा दूसरे संप्रदायों की अनुष्ठान-पद्धति को घोर अंधविश्वास समझते हैं। यदि एक संप्रदाय किसी विशेष प्रकार की प्रतिमा की उपासना करता है, तो दूसरे संप्रदायवाले कह बैठते हैं, "आह, यह कितना वीभत्स है! " एक साधारण प्रतीक की ही बात लीजिये, लिंगोपासना में व्यवहृत मूर्ति निश्चय ही पुरुष - चि है, किंतु क्रमशः उसका यह पक्ष लोग भूल गये हैं और उसका इस समय ईश्वर के स्रष्टा-भाव के प्रतीक के रूप में ग्रहण होता है । जिन जातियों ने उसे मूर्ति के रूप में ग्रहण किया है, वे कभी भी उसे पुरुष-चि नहीं समझते। वह भी दूसरी मूर्तियों की तरह एक मूर्ति है - बस इतना ही। किंतु दूसरी जाति या संप्रदाय का एक मनुष्य उसे पुरुष - चि के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझ सकता । इसीलिए वह उसकी निंदा आरंभ करता है। किंतु यह भी संभव है कि स्वयं वह कुछ ऐसा करता है, जो लिंगोपासकों की दृष्टि में वीभत्स है। लिंगोपासना और सैक्रेमेंट नामक ईसाई धर्म के अनुष्ठान - विशेष की बात कही जा सकती है । ईसाइयों के लिए लिंगोपासना में व्यवहृत मूर्ति अति कुत्सित है और हिंदुओं के लिए ईसाइयों का सैक्रेमेंट वीभत्स है। हिंदू कहते हैं कि किसी मनुष्य की सद्गुणावली पाने के अभिप्राय से उसकी हत्या करके उसके मांस को खाना और खून को पीना पैशाचिक नृशंसता है। कोई-कोई जंगली जातियाँ भी ऐसा ही करती हैं। यदि कोई आदमी बहुत साहसी होता है तो वे लोग उसकी हत्या करके उसके हृदय को खाते हैं। कारण, वे समझते हैं उसके द्वारा उन्हें उस व्यक्ति का साहस और वीरत्व आदि गुण प्राप्त होगा। सर जॉन लूबक की तरह के भक्त ईसाई भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जंगली जातियों के इस रिवाज के आधार पर ही ईसाइयों के इस अनुष्ठान की रचना हुई है। दूसरे ईसाई अवश्य ही इस अनुष्ठान के उद्भव के संबंध में इस मत को स्वीकार नहीं करते और उसके द्वारा इस प्रकार के भाव का आभास मिलता है, यह भी उनकी समझ में नहीं आता । वह एक पवित्र वस्तु की मूर्ति है, इतना ही वे जानना चाहते हैं। इसलिए आनुष्ठानिक भाग में भी इसी प्रकार कोई साधारण मूर्ति नहीं है जिसे सब धर्म वाले स्वीकार और ग्रहण कर सकें। ऐसा होने से धर्म के संबंध में सबका सार्वभौमिकत्व कहाँ है? सार्वभौमिक धर्म किस प्रकार संभव है ? चाहैं, किंतु वह पहले से ही विद्यमान है। अब देखा जाए वह क्या है। हम सभी लोग सार्वजनीन भ्रातृभाव की, विश्वबंधुत्व की बात सुनते हैं और विभिन्न संप्रदाय के लोगों में उनके प्रचार के लिए कितना उत्साह है, यह भी देखते हैं। मुझे एक पुराना किस्सा याद आता है। भारतवर्ष में शराबखोरी बहुत ही नीच समझी जाती है। दो भाई थे, उन दोनों ने रात्रि के समय छिपकर शराब पीने का इरादा किया। बगल के कमरे में उनके चाचा सोये थे जो बहुत निष्ठावान व्यक्ति थे, इसलिए शराब पीने के पहले वे लोग सलाह करने लगे, 'हम लोगों को खूब चुपचाप पीना होगा, नहीं तो चाचा जाग जाएँगे।' वे लोग शराब पीने के पहले बार-बार "चुप, चुप, जाग जाएगा" की आवाज करके एक-दूसरे को चुप कराने लगे। इस गड़बड़ में चाचा की नींद खुल गयी । उन्होंने कमरे में घुसकर कुछ देख लिया । हम लोग भी ठीक इन मतवालों की तरह सार्वजनीन भ्रातृभाव का शोर करते हैं। "हम सभी लोग समान हैं, इसलिए हम लोग एक
दल का संगठन करें । " किंतु ध्यान रहे, ज्योंही आप लोगों ने किसी दल का संगठन किया, त्योंही आप समता के विरुद्ध हो गये और उसी समय समता नामक कोई चीज आपके पास नहीं रह जाएगी । मुसलमान सार्वजनीन भ्रातृभाव का शोर मचाते हैं। किंतु वास्तविकता में वे भ्रातृभाव से कितने दूर हैं! जो मुसलमान नहीं हैं, वे भ्रातृसंघ में शामिल नहीं किये जाएँगे। उनके गले काटे जाने ही की अधिक संभावना है । ईसाई भी सार्वजनीन भ्रातृभाव की बातें करते हैं किंतु जो ईसाई नहीं हैं, उसके लिए अनंत नरक का द्वार खुला है। इस प्रकार हम लोग सार्वजनीन भ्रातृभाव और समता के अनुसंधान में सारी पृथ्वी पर घूमते-फिरते हैं। जिस समय आप लोग कहीं पर इस भाव की बातें सुनें, उसी समय मेरा अनुरोध है, आप थोड़ा धैर्य रखें और सतर्क हो जाएँ, कारण इन सब बातों के भीतर प्रायः घोर स्वार्थपरता छिपी रहती है। कहावत प्रसिद्ध है, 'जो गरजता है, सो बरसता नहीं।' इसी प्रकार जो लोग यथार्थ कर्मी हैं और अपने हृदय में विश्वबंधुत्व का अनुभव करते हैं, वे लंबी-चौड़ी बातें नहीं करते, न उस निमित्त संप्रदायों की रचना करते हैं; किंतु उनके क्रिया-कलाप, गतिविधि और सारे जीवन के ऊपर ध्यान देने से यह स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि उनके हृदय सचमुच ही मानव-जाति के प्रति बंधुता से परिपूर्ण हैं, वे सबसे प्रेम करते हैं और सबके दुःखों से दुःखी होते हैं; वे केवल बातें न बनाकर काम कर दिखाते हैं - आदर्श के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। सारी दुनिया में लंबी-चौड़ी बातों की मात्रा इतनी अधिक है कि सारी पृथ्वी उसके नीचे दब जाएगी । हम चाहते हैं कि बातें बनाना कम होकर यथार्थ काम कुछ अधिक हो । अभी तक हम लोगों ने देखा है कि धर्म के संबंध में कोई सार्वभौमिक भाव खोज निकालना जरा टेढ़ी खीर है, तथापि हम जानते हैं कि ऐसा भाव वर्तमान है। हम सभी लोग मनुष्य तो अवश्य हैं, किंतु क्या सभी समान हैं? निश्चय ही नहीं। कौन कहता है हम सब समान हैं? केवल पागल । क्या हम बल, बुद्धि, शरीर में समान हैं? एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा बलवान, एक मनुष्य की बुद्धि दूसरे की अपेक्षा अधिक तीक्ष्ण है। यदि हम सब लोग समान ही होते तो यह असमानता कैसी? किसने यह असमानता उपस्थित की? हम लोगों ने स्वयं ही। हम लोगों में क्षमता, विद्या, बुद्धि और शारीरिक बल का तारतम्य होने के कारण निश्चय ही पार्थक्य है। फिर भी हम लोग जानते हैं कि समता का यह सिद्धांत हम लोगों के हृदय को स्पर्श करता है । हम सब लोग मनुष्य अवश्य हैं किंतु हम लोगों में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियाँ हैं; कोई काले हैं और कोई गोरे - किंतु सभी मनुष्य हैं, सभी एक मनुष्यजाति के अंतर्गत हैं। हम लोगों का चेहरा भी कई प्रकार का है। दो मनुष्यों का मुँह ठीक एक तरह का नहीं देख पाते तथापि हम सब लोग मनुष्य हैं। मनुष्यत्वरूपी एक सामान्य तत्त्व कहाँ है? मैंने जिस किसी काले या गोरे स्त्री या पुरुष को देखा, उन सबके मुँह पर मनुष्यत्वरूपी एक समान अमूर्त भाव है जो सबमें वर्तमान है। जिस समय मैं उसे पकड़ने की चेष्टा करता हूँ, उसे इंद्रियगोचर करना चाहता हूँ, उसे बाहर प्रत्यक्ष करना चाहता हूँ, उसे उस समय देख भी नहीं सकता; किंतु यदि किसी वस्तु के अस्तित्व के संबंध में हमें निश्चित ज्ञान है तो वह हममें मनुष्यत्वरूपी जो साधारण भाव है, उसी का है। पहले मनुष्यत्व का साधारण ज्ञान होता है, इसके बाद ही मैं आप लोगों को स्त्री और पुरुष के रूप में जान पाता हूँ । सार्वजनीन धर्म के संबंध में भी यही बात है, वह ईश्वर रूप से पृथ्वी के सभी विभिन्न धर्मों में विद्यमान है। यह अनंतकाल से वर्तमान है और अनंतकाल तक रहेगा। भगवान् ने कहा है - "मयि सर्वमिदं प्रोतं, सूत्रे मणिगणा इव।" अर्थात् मैं इस जगत् में मणियों के भीतर सूत्र की भाँति वर्तमान हूँ। प्रत्येक मणि को एक विशेष धर्म, मत या संप्रदाय कहा जा सकता है। पृथक्-पृथक् मणियाँ एक-एक धर्म हैं और प्रभु ही सूत्ररूप से उन सबमें वर्तमान हैं । तिस पर भी अधिकांश लोग इस संबंध में सर्वथा अज्ञ हैं । बहुत्व के बीच में एकत्व का होना सृष्टि का नियम है। हम सब लोग मनुष्य होते हुए भी परस्पर पृथक् हैं। मनुष्यजाति के अंश के रूप में हम और आप एक हैं किंतु जब हम व्यक्तिविशेष होते हैं, तब हम आपसे पृथक् होते हैं। पुरुष होने से आप स्त्री से भिन्न हैं, किंतु मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं। मनुष्य होने से आप जीव-जंतु से पृथक् हैं, किंतु प्राणी होने के नाते स्त्री-पुरुष, जीव-जंतु और उद्भिज, सभी समान हैं; एवं सत्ता के नाते आपका विराट् विश्व के साथ एकत्व है । भगवान् ही वह विराट् सत्ता हैं - इस विचित्रित जगत्प्रपंच का चरम एकत्व; वे ही इस विचित्रित जगत्प्रपंच के रूप में प्रकट हुए हैं। उस ईश्वर में हम सभी लोग एक हैं किंतु व्यक्त प्रपंच में यह भेद अवश्य
चिरकाल तक विद्यमान रहेगा । हमारे प्रत्येक बाहरी कार्य में और चेष्टा में यह सदा ही विद्यमान रहेगा। इसलिए सार्वजनीन धर्म का यदि यह अर्थ हो कि किसी विशेष मत में संसार के सभी लोग विश्वास करें तो यह सर्वथा असंभव है। यह कभी नहीं हो सकता । ऐसा समय कभी नहीं आयग जब सब लोगों का मुँह एक रंग का हो जाए। और यदि हम आशा करें कि समस्त संसार एक ही पौराणिक तत्त्व में विश्वास करेगा, तो यह भी असंभव है, यह कभी नहीं हो सकता। उसी प्रकार समस्त संसार में कभी भी एक प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति प्रचलित हो नहीं सकती। ऐसा किसी समय हो नहीं सकता, अगर कभी हो जाए तो सृष्टि लुप्त जो जाएगी । कारण, विचित्रितता ही जीवन की मूल भित्ति है। हम लोगों का आकार किसने बनाया? वैषम्य ने । संपूर्ण साम्य-भाव होने से ही हमारा विनाश अवश्यंभावी है। समान परिणाम और संपूर्ण रूप से विसरण होना ही उत्ताप का धर्म है। मान लीजिये इस घर का सारा उत्ताप उस तरह विसरित हो जाए, तो ऐसा होने पर कार्यतः वहाँ उत्ताप नामक कोई चीज बाकी नहीं रहेगी । इस संसार की गति किस कारण संभव होती है? समता- च्युति इसका कारण है। जिस समय इस संसार का ध्वंस होगा, उसी समय चरम साम्य आ सकेगा, अन्यथा ऐसा होना असंभव है। केवल इतना ही नहीं, ऐसा होना विपज्जनक भी है। हम सभी लोग एक प्रकार का विचार करेंगे, ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। ऐसा होने से विचार करने की कोई चीज न रह जाएगी। अजायबघर में रखी हुई मिस्र देश की ममियों की तरह हम सभी लोग एक प्रकार के हो जाएँगे और एक-दूसरे को देखते रहेंगे। हमारे मन में कोई भाव ही न उठेगा। यही भिन्नता, यही वैषम्य, हममें परस्पर यही असाम्य - भाव हमारी उन्नति का प्राण - हमारे समस्त चिंतन का स्रष्टा है। यह वैचित्र्य सदा ही रहेगा । सार्वभौमिक धर्म का अर्थ फिर मैं क्या समझता हूँ? कोई सार्वभौमिक दार्शनिक तत्त्व, कोई सार्वभौमिक पौराणिक तत्त्व या कोई सार्वभौमिक अनुष्ठान-पद्धति, जिसको मानकर सबको चलना पड़ेगा - मेरा अभिप्राय नहीं है। कारण, मैं जानता हूँ कि तरह-तरह के चक्र-समवायों से गठित, बड़ा ही जटिल और आश्चर्यजनक यह जो विश्वरूपी दुर्बेध और विशाल यंत्र है, वह सदा ही चलता रहेगा। फिर हम लोग क्या कर सकते हैं? हम इस यंत्र को अच्छी तरह से चला सकते हैं, इसमें घर्षण कम कर सकते हैं - इसके चक्कों में तेल डाल सकते हैं। वह कैसे ? वैषम्य की नैसर्गिक अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए। जैसे हम सबने स्वाभाविक रूप से एकत्व को स्वीकार किया है, उसी प्रकार हमको वैषम्य भी स्वीकार करना पड़ेगा । हमको यह शिक्षा लेनी होगी कि एक ही सत्य का प्रकाश लाखों प्रकार से होता है और प्रत्येक भाव ही अपनी निर्दिष्ट सीमा के अंदर प्रकृत सत्य है - हमको यह सीखना होगा कि किसी भी विषय को सैकड़ों प्रकार की विभिन्न दृष्टि से देखने पर वह एक ही वस्तु रहती है। उदाहरणार्थ सूर्य को लीजिये, कोई मनुष्य भूतल पर से सूर्योदय देख रहा है; उसको पहले एक गोलाकार वस्तु दिखायी पड़ेगी। अब मान लीजिये, उसने एक कैमरा लेकर सूर्य की ओर यात्रा की और जब तक सूर्य के निकट न पहुँचा, तब तक बार-बार सूर्य की प्रतिच्छवि लेने लगा। एक स्थान से लिया हुआ सूर्य का चित्र दूसरे स्थानों से लिए हुए सूर्य के चित्र से भिन्न है - वह जब लौट आएगा, तब उसे मालूम होगा कि मानो वे सब भिन्न-भिन्न सूर्यों के चित्र हैं। परंतु हम जानते हैं कि वह अपने गन्तव्य पथ के भिन्न-भिन्न स्थानों से एक ही सूर्य के अनेक चित्र लेकर लौटा है । ईश्वर के संबंध में भी ठीक ऐसा ही होता है। उच्च अथवा निकृष्ट दर्शन से ही हो, सूक्ष्म अथवा स्थूल पौराणिक कथाओं के अनुसार ही हो या सुसंस्कृत क्रियाकांड अथवा भूतोपासना द्वारा ही हो - प्रत्येक संप्रदाय, प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक धर्म और प्रत्येक जाति, जान या अनजान में अग्रसर होने की चेष्टा करते हुए, ईश्वर की ओर बढ़ रही है । मनुष्य चाहे जितने प्रकार के सत्य की उपलब्धि करे, उसका प्रत्येक सत्य भगवान् के दर्शन के सिवा और कुछ नहीं है। मान लीजिये हम जल जलपात्र लेकर जलाशय से जल भरने आयें - कोई कटोरी लाया, कोई घड़ा लाया, कोई बाल्टी लाया, इत्यादि। अब जब हमने जल भर लिया, तो क्या देखते हैं कि प्रत्येक पात्र के जल ने स्वभावतः अपने-अपने पात्र का आकार धारण किया है। परंतु प्रत्येक पात्र में वही एक जल है - जो सबके पास है। धर्म के संबंध में भी ऐसा ही कहा जा सकता है हमारे मन भी ठीक पूर्वोक्त पात्रों के समान हैं। हम सब ईश्वर प्राप्ति ईश्वर चेष्टा कर रहे हैं। पात्रों में जो जल भरा हुआ है, ईश्वर उसी जल के समान हैं - प्रत्येक पात्र में भगवद्दर्शन उस पात्र के आकार के अनुसार हैं, फिर भी वे सर्वत्र एक ही हैं - वे घट-घट में विराजमान हैं। सार्वभौमिक भाव का भी हम यही एकमात्र परिचय पा सकते हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से यहाँ तक त
ो सब ठीक है, परंतु धर्म के समन्वय विधान को कार्यरूप में परिणत करने का भी क्या कोई उपाय है? हम देखते हैं - 'सब धर्ममत सत्य हैं । ' यह बात बहुत पुराने समय ही मनुष्य स्वीकार करते आये हैं। भारतवर्ष, अलेक्जेंड्रिया, यूरोप, चीन, जापान, तिब्बत यहाँ तक कि अमेरिका आदि स्थानों में भी सर्ववादीसम्मत धर्ममत गठन करके सब धर्मों को एक ही प्रेम-सूत्र में ग्रथित करने की सैकड़ों चेष्टाएँ हो चुकी - परंतु सब व्यर्थ हुई क्योंकि उन्होंने किसी व्यावहारिक प्रणाली का अवलंबन नहीं किया । संसार के सभी धर्म सत्य हैं, यह तो अनेकों ने स्वीकार किया है - परंतु उन सबको एकत्र करने का उन्होंने कोई ऐसा उपाय नहीं दिखाया जिससे वे इस समन्वय के भीतर रहते हुए भी अपनी विशिष्टता को बचा रखें। वही उपाय यथार्थ में कार्यकारी हो सकता है, जो किसी धर्मावलंबी व्यक्ति की विशिष्टता को नष्ट न करते हुए उसकों औरों के साथ सम्मिलित होने का पथ बता दे । परंतु अब तक जिन जिन उपायों से धर्म-जगत् में एकता- विधान की चेष्टा की गयी है, उनमें 'सभी धर्म सत्य हैं ', यह सिद्धांत मान लेने पर भी ज्ञात होगा कि यथार्थ में उसको कुछ निर्दिष्ट मतविशेषों में आबद्ध रखने की चेष्टा की गयी है और परिणास्वरूप कितने ही परस्पर झगड़नेवाले ईर्ष्यापरायण नये-नये दलों की सृष्टि हो गयी है । मेरी भी एक छोटी से कार्यप्रणाली है। मैं नहीं जानता कि वह कार्यकारी होगी या नहीं परंतु मैं उसको विचारार्थ आपके सामने रखता हूँ। मेरी कार्यप्रणाली क्या है ? सर्वप्रथम मैं मनुष्यजाति से यह मान लेने का अनुरोध करता हूँ कि कुछ नष्ट न करो। विनाशक-सुधारक लोग संसार का कुछ भी उपकार नहीं कर सकते । किसी वस्तु को भी तोड़कर धूल में मत मिलाओ, वरन् उसका गठन करो । यदि हो सके तो सहायता करो, नहीं तो चुपचाप हाथ उठाकर खड़े हो जाओ और देखो, मामला कहाँ तक जाता है। यदि सहायता न कर सको तो अनिष्ट मत करो। जब तक मनुष्य कपटहीन रहे, तब तक उसके विश्वास के विरुद्ध एक भी शब्द न कहो । दूसरी बात यह है कि जो जहाँ पर है, उसको वहीं से ऊपर उठाने की चेष्टा करो । यदि यह सत्य है कि ईश्वर सब धर्मों के केंद्रस्वरूप हैं और हममें से प्रत्येक एक-एक व्यासार्ध से उनकी ओर अग्रसर हो रहा है तो हम सब निश्चय ही उस केंद्र में पहुँचेंगे और सब व्यासार्थों के मिलनस्थान में हमारे सब वैषम्य दूर हो जायेंगे। परंतु जब तक हम वहाँ नहीं पहुँचते, तब तक वैषम्य कदापि दूर नहीं हो सकता । सब व्यासार्ध एक ही केंद्र में सम्मिलित होते हैं। कोई अपने स्वाभावानुसार एक व्यासार्ध से अग्रसर होता है और कोई किसी दूसरे व्यासार्ध से । इसी तरह हम सब अपने व्यासार्ध द्वारा आगे बढ़ें, तब अवश्य ही हम एक ही केंद्र में पहुँचेंगे। कहावत भी ऐसी है कि "सब रास्ते रोम में पहुँचते हैं।" प्रत्येक अपनीअपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ रहा है और पुष्ट हो रहा है - प्रत्येक व्यक्ति उचित समय पर चरम सत्य की उपलब्धि करेगा; कारण, अंत में देखा जाता है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शिक्षक है। तुम क्या कर सकते हो और मैं भी क्या कर सकता हूँ? क्या तुम यह समझते हो कि तुम एक शिशु को भी कुछ सिखा सकते हो? नहीं, तुम नहीं सिखा सकते, शिशु स्वयं ही शिक्षा लाभ करता है - तुम्हारा कर्तव्य है सुयोग देना और बाधा दूर करना। एक वृक्ष बढ़ रहा है । क्या तुम उस वृक्ष को बढ़ा सकते हो? तुम्हारा कर्तव्य है वृक्ष के चारों ओर घेरा बना देना, जिससे चौपाये उस वृक्ष को कहीं न चर डालें, बस वहीं तुम्हारे कर्तव्य का अंत हो गया - वृक्ष स्वयं ही बढ़ता है। मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का रूप भी ठीक ऐसा ही है । न कोई तुम्हें शिक्षा दे सकता है और न कोई तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। तुमको स्वयं ही शिक्षा लेनी होगी- तुम्हारी उन्नति तुम्हारे ही भीतर से होगी। बाहरी शिक्षा देनेवाले क्या कर सकते हैं? वे ज्ञानलाभ की बाधाओं को थोड़ा दूर कर सकते हैं, बस! वहीं उनका कर्तव्य समाप्त हो जाता है। इसीलिए यदि हो सके तो सहायता करो; नहीं तो विनाश मत करो । तुम इस धारणा का त्याग करो कि तुम किसी को आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न कर सकते हो । यह असंभव है। यह स्वीकार करो कि तुम्हारी आत्मा को छोड़ तुम्हारा और कोई शिक्षक नहीं है । फिर देखो क्या फल मिलता है। समाज में हम भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों को देखते हैं, संसार में सहस्रों प्रकार के मन और संस्कार के लोग वर्तमान हैं - उन सबका संपूर्ण सामान्यकरण असंभव है परंतु हमारे प्रयोजन के लिए उनको चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम, कर्मठ व्यक्ति, जो कर्मेच्छुक हैं। उसके स्नायुयों और मांसपेशियों में विपुल शक्ति है। उसका उद्देश्य है काम करना, अस्पताल तैयार करना, सत्कार्य करना, रास्ता बनाना, कार्यप्रणाली स्थिर करके संघबद्ध होना। द्वितीय है, भावुक जो उदात्त और सुंदर क
ो सर्वान्तःकरण से प्रेम करता है । वह प्रकृति के मनोरम दृश्यों का उपभोग करने के लिए सौंदर्य का चिंतन करता है; और प्रेममय भगवान् की पूजा करने के लिए प्रेम करता है। वह विश्व के तमाम महापुरुषों और भगवान् के अवतारों पर विश्वास करते हुए सबकी सर्वान्तःकरण से पूजा करता है, सबसे प्रेम करता है। ईसा मसीह और बुद्ध यथार्थ में थे या नहीं, इसके प्रमाणों की वह परवाह ही नहीं करता । ईसा मसीह का दिया हुआ 'शैलोपदेश' कब प्रचारित हुआ था ? अथवा श्रीकृष्ण ने कौन सी तारीख को जन्मग्रहण किया था? इसकी उसे चिंता नहीं। उसके निकट तो उनका व्यक्तित्व, उनकी मनोहर मूर्तियाँ ही रुचि का विषय है, यही उसका आदर्श है, एक प्रेमी भावप्रवण मानव का यही स्वभाव है। तृतीय, योगमार्गी व्यक्ति जो अपना आत्मविश्लेषण करना और मनुष्य के मन की क्रियाओं को जानना चाहता है। मन में कौन-कौन शक्ति काम कर रही हैं और उन शक्तियों को पहचानने का या उनको परिचालित करने का अथवा उनको वशीभूत करने का क्या उपाय है? यही सब जानने को वह उत्सुक रहता है । चतुर्थ, दार्शनिक जो प्रत्येक विषय का भावग्रहण करना चाहता है, प्रत्येक विषय की परीक्षा करना चाहता है - और अपनी बुद्धि द्वारा, मानवीय दर्शन द्वारा जहाँ तक जाना संभव है, उसके भी परे जाने की इच्छा रखता है। अब बात यह है कि यदि किसी धर्म को सर्वापेक्षा अधिक लोगों के लिए उपयोगी होना हो तो उसमें इतनी क्षमता होनी आवश्यक है कि वह इन सब भिन्न-भिन्न लोगों के लिए उपयुक्त सामग्री जुटाये और जिस धर्म में इस क्षमता का अभाव है उस धर्म के अंतर्गत जो जो संप्रदाय हैं, वे सब एकदेशीय ही रह जाते हैं। मान लीजिये, आप किसी भक्त-संप्रदाय के पास गये। वे गाते हैं, रोते हैं और भक्ति का प्रचार करते हैं परंतु यदि आपने उनसे कहा, "मित्र, आप जो कहते हैं, वह ठीक है परंतु मैं इससे भी कुछ अधिक प्रखर तत्त्व की आशा रखता हूँ। कुछ युक्ति, कुछ दर्शनात्मक आलोचना और विचारपूर्वक इन विषयों को थोड़ा क्रमबद्ध ढंग से तथा अधिक तर्कबुद्धिसंगत ढंग से समझना चाहता हूँ," तो वे फौरन आपको बाहर निकाल देंगे; और केवल इतना ही नहीं कि आपको चले जाने को ही कहें, वरन् हो सका तो एकदम आपको भवसागर के पार ही भेज देंगे ! अब इससे यह फल निकलता है कि वह संप्रदाय केवल भावनाप्रधान लोगों की सहायता कर सकता है। दूसरों की तो वे सहायता कर ही नहीं सकते, बल्कि वे उनको विनष्ट करने की चेष्टा करते हैं। सहायता की बात तो दूर रही, वे दूसरों की ईमानदारी पर भी विश्वास नहीं रखते और यही सबसे भयानक बात है। अगली श्रेणी ज्ञानियों की है। वे भारत और प्राच्य के ज्ञान की बड़ाई करते हैं और खूब लंबे-चौड़े पारिभाषिक शब्दों का व्यवहार करते हैं। परंतु मेरे जैसा कोई साधारण आदमी उनके पास जाकर कहे कि "आप मुझे कुछ आध्यात्मिक उपदेश दे सकते हैं?" तो वे जरा मुस्कराकर यही कहेंगे, "अजी, तुम बुद्धि में अभी हमसे बहुत नीचे हो, तुम आध्यात्मिकता को क्या समझोगे!" वे बड़े ऊँचे दर्जे के दार्शनिक हैं! वे तुमको केवल बाहर निकल जाने का आदेश दे सकते हैं, बस! एक और दल है - योगप्रिय । वे जीवन की विभिन्न भूमिकाओं, मन के विभिन्न स्तरों, मानसिक शक्ति की क्षमता इत्यादि कई बातें तुमसे कहेंगे और यदि तुम साधारण आदमी की तरह उनसे कहो कि 'मुझको कुछ अच्छी बातें बतलाइये, जो मैं कार्यरूप में परिणत कर सकूं, मैं उतना कल्पनाप्रिय नहीं हूँ, क्या आप कुछ ऐसा मुझे दे सकते हैं जो मेरे लिए उपयोगी हो? - तो वे हंसकर कहेंगे, "सुनते हो, क्या कह रहा है यह निर्बोध ? कुछ भी समझ नहीं है - अहमक का जीवन ही व्यर्थ है।" संसार में सर्वत्र यही हाल है। मैं इन सब भिन्न भिन्न संप्रदायों के चुने-चुने धर्मध्वजियों को एकत्र कर एक कमरे में बंद कर उनके सुंदर विद्रूपव्यंजक हास्य का फोटोग्राफ लेना चाहता हूँ । यही धर्म की वर्तमान अवस्था है, और यही सबका वर्तमान मनोभाव हैं। मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ, जो सब प्रकार की मानसिक अवस्थावाले लोगों के लिए उपयोगी हो, इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहेंगे। यदि कॉलेज से वैज्ञानिक पदार्थविद् अध्यापकगण आयें तो वे युक्ति विचार पसंद करेंगे। उनको जहाँ तक संभव हो, युक्तिविचार करने दो, अंत में वे एक ऐसी स्थिति पर पहुँचेंगे जहाँ से युक्तिविचार की धारा अविच्छिन्न रखकर वे और आगे बढ़ ही नहीं सकते, - यह वे समझ लेंगे, वे कह उठेंगे, "ईश्वर, मुक्ति इत्यादि धारणाएँ अंधविश्वास हैं - उन सबको छोड़ दो । " मैं कहता हूँ, "हे दार्शनिकवर, तुम्हारी यह पंचभौतिक देह तो उससे भी बड़ा अंधविश्वास है, इसका परित्याग करो। आहार करने के लिए घर में या अध्यापन के लिए दर्शन-क्लास में अब तुम मत जाओ। शरीर छोड़ दो और यदि ऐसा न हो सके तो चुपचाप बैठकर जोर-जोर से रोओ।" क्योंकि धर्म को जगत् के एकत्व और एक ही सत्
य के अस्तित्व की सम्यक् उपलब्धि करने का उपाय अवश्य बताना पड़ेगा । इसी तरह यदि कोई योगप्रिय व्यक्ति आये तो हम आदर के साथ उसकी अभ्यर्थना करके वैज्ञानिक भाव से मनस्तत्त्व-विश्लेषण कर देने और उसकी आँखों के सामने उसका प्रयोग दिखाने को प्रस्तुत रहेंगे। यदि भक्त लोग आयें तो हम उनके साथ एकत्र बैठकर भगवान् के लिए हँसेंगे और रोयेंगे, प्रेम का प्याला पीकर उत्मत्त हो जाएँगे। यदि एक पुरुषार्थी कर्मी आये तो उसके साथ यथासाध्य काम करेंगे । भक्ति, योग, ज्ञान और कर्म के इस प्रकार का समन्वय सार्वभौमिक धर्म का अत्यंत निकटतम आदर्श होगा । भगवान की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्णमात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यही होगा। जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं, मैं उनको 'एकदेशीय' कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही 'एकदेशीय' लोगों से भरा हुआ है, जो केवल अपना ही रास्ता जानते हैं। इसके सिवाय अन्य जो कुछ है, वह सब उनके निकट विपत्तिकर और भयंकर है । इस तरह चारों ओर समभाव से विकास लाभ करना ही मेरे कहे हुए धर्म का आदर्श है। और भारतवर्ष में हम जिसको योग कहते हैं, उसी के द्वारा इस आदर्श धर्म को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मी के लिए यह मनुष्य के साथ मनुष्य-जाति का योग है, योगी के लिए निम्न तथा उच्च अहं का योग, भक्त के लिए अपने साथ प्रेममय भगवान का योग और ज्ञानी के लिए बहुत्व के बीच एकत्वानुभूतिरूप योग है । 'योग' शब्द से यही अर्थ निकलता है। जो कर्म के माध्यम से इस योग का साधन करते हैं, उन्हें कर्मयोगी कहते हैं। जो भगवद्-दर्शन प्रेम द्वारा योग का साधन करते हैं, उन्हें भक्तियोगी कहते हैं। जो पातंजल आदि योगमार्ग द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें राजयोगी कहते हैं और जो ज्ञान- विचार द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें ज्ञानयोगी कहते हैं । अतएव यह योगी शब्द इन सभी को समाविष्ट करता है। हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान के मूलभूत कारण जड़ और शक्ति की बात लीजिये । जड़ क्या है? - जिस पर शक्ति कार्य करती है। और शक्ति क्या है? - जो जड़ पर कार्य करती है। आप लोग अवश्य समझ गये होंगे कि जटिलता क्या है। न्यायशास्त्रविद् इसको अन्योन्याश्रय दोष कहते हैं - पहले का भाव दूसरे पर निर्भर हो रहा है - और दूसरे का भाव पहले पर निर्भर हो रहा है। इसीलिए आपकी युक्ति के पथ में एक बड़ी भारी बाधा दिखायी पड़ रही है जिसको लाँघकर बुद्धि अग्रसर हो नहीं सकती, तथापि इसके परे जो अनंत राज्य विद्यमान है, वहाँ पहुँचने के लिए बुद्धि सदा व्यस्त रहती है। कहने का तात्पर्य है कि पंचेंद्रियगम्य और मन का विषयीभूत यह जगत् - हमारी चेतन-भूमि पर प्रक्षिप्त यह विश्व मानो उस अनंत सत्ता का एक कण मात्र है; और चेतनरूप जाल से घिरे हुए, इस विश्व-जगत् के क्षुद्र से घेरे के भीतर ही हमारी विचार-शक्ति काम करती है, उसके परे नहीं जा सकती। इस कारण इसके परे जाने के लिए और किसी साधन का प्रयोजन है। अतींद्रियबोध वह साधन है। अतएव सहज ज्ञान, विचार-शक्ति और अतींद्रियबोध ये तीनों ही ज्ञानलाभ के साधन हैं। पशुओं में सहज ज्ञान, मनुष्यों में विचार - शक्ति और देव मानव में अतींद्रियबोध दिखायी पड़ता है। परंतु सब मनुष्यों में ही इन तीन साधनों का बीज थोड़ा-बहुत प्रस्फुटित दिखायी पड़ता है। इन सब मानसिक शक्तियों का विकास होने के लिए उनके बीजों का भी मन में विद्यमान रहना आवश्यक है और यह भी स्मरण रखना कर्तव्य है कि एक शक्ति दूसरी शक्ति की विकसित अवस्था ही है, इसलिए वे परस्परविरोधी नहीं हैं। विचार - शक्ति ही प्रस्फुटित होकर अतींद्रियबोध में परिणम हो जाती है, इसीलिए अतींद्रियबोध विचार-शक्ति का परिपंथी नहीं है, परंतु उसका पूरक है । जो-जो विषय विचार - शक्ति द्वारा समझ में नहीं आते उन सबको अतींद्रियबोध द्वारा समझाना पड़ता है और वह विचार - शक्ति का विरोधी नहीं है । वृद्ध बालक का विरोधी नहीं है परंतु उसी की पूर्ण परिणति है। अतएव आपको सर्वदा स्मरण रखना होगा कि निम्न श्रेणी की शक्ति को उच्च श्रेणी की शक्ति कहकर जो भूल की जाती है, उससे भयानक विपद की संभावना है। अनेक बार सहज ज्ञान को अतींद्रियबोध कह दिया जाता है और साथ ही भविष्यवक्ता बनने का झूठा दावा भी किया जाता है। एक निर्बोध या अर्धोन्मत्त आदमी समझता है कि उसके दिमाग में जो पागलपन है, वह अतींद्रिय ज्ञान है और वह चाहता है कि लोग उसका अनुसरण करें। संसार में अति परस्पर विरोधी युक्तिहीन जो अनाप-शनाप प्रचारित हुआ है, वह केवल पागलों के विकृत मस्तिष्कों के सहज-वृत्तिक अनर्गल प्रलाप के अंतः पेरणा अर्थात् अतींद्रियबोध की अभिव्यक्ति का ढोंग रचने का प्रयास मात्र है। संसार में ऐसे लोग बहुत देखे जाते हैं
जिन्होंने मानो किसी-न-किसी प्रकार का काम करने के लिए ही जन्म ग्रहण किया है। उनका मन केवल चिंतन- राज्य में ही एकाग्र होकर नहीं रह सकता - वे केवल कार्य को समझते हैं, जो आँखों से देखा जा सकता है और हाथों से किया जा सकता है । इस प्रकार के लोगों के लिए एक जीवन-विज्ञान की आवश्यकता है। हममें से प्रत्येक ही किसी-न-किसी प्रकार का काम कर रहा है, परंतु हम लोगों में अधिकतर लोग अपनी अधिकांश शक्ति का अपक्षय कर रहे हैं। कारण यह है कि हमें कर्म का रहस्य ज्ञात नहीं है। कर्मयोग इस रहस्य को समझा देता है और यह शिक्षा देता है कि कहाँ, किस भाव से कार्य करना होगा एवं उपस्थित कर्म में किस भाव से हमारी समस्त शक्ति का प्रयोग करने से सर्वापेक्षा अधिक फल-लाभ होगा। हाँ, कर्म के विरुद्ध यह कहकर जो प्रबल आपत्ति उठायी जाती है कि वह दुःखजनक है, इसका भी विचार करना होगा । सब दुःख और कष्ट आसक्ति से आते हैं। मैं काम करना चाहता हूँ, मैं किसी मनुष्य का उपकार करना चाहता हूँ, अब प्रायः यही देखा जाता है कि मैंने जिसकी सहायता की है, वह व्यक्ति सारे उपकारों को भूलकर मुझसे शत्रुता करेगा - फल यह होगा कि मुझे कष्ट मिलता है। ऐसी घटनाओं के फल से ही मनुष्य कर्म से विरत हो जाता है और इन दुःखों और कष्टों का भय ही मनुष्य के कर्म और उद्यम को अधिक नष्ट कर देता है। किसकी सहायता की जा रही है अथवा किस कारण से सहायता की जा रही है, इत्यादि विषयों पर ध्यान न रखते हुए अनासक्त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए - कर्मयोग यही शिक्षा देता है। कर्मयोगी कर्म करते हैं। कारण, यह उनका स्वभाव है, वे अपने दिल में इसका अनुभव करते हैं कि ऐसा करना ही उनके लिए कल्याणजनक है - इसको छोड़ उनका और कोई उद्देश्य नहीं रहता। वे संसार में सर्वदा दाता का आसन ग्रहण करते हैं, कभी किसी वस्तु की प्रत्याशा नहीं रखते। वे जानबूझकर दान करते जाते हैं परंतु प्रतिदान- स्वरूप वे कुछ नहीं चाहते। इसी कारण वे दुःखों के हाथ से रक्षा पाते हैं। जब दुःख हमको ग्रसित करता है, तब यही समझना होगा कि यह केवल 'आसक्ति' की प्रतिक्रिया है। भावुक और प्रेमी लोगों के लिए भक्तियोग है। भक्त चाहते हैं, भगवान से प्रेम करना । वे धर्म के अंगस्वरूप क्रियाकलापों की सहायता लेते हैं और पुष्प, गंध, सुरम्य मंदिर, मूर्ति इत्यादि नाना प्रकार के द्रव्यों से संबंध रखते हैं। आप लोग क्या यह कहना चाहते हैं कि वे भूल करते हैं? मैं आपसे एक सच्ची बात कहना चाहता हूँ । वह आप लोगों को - विशेषकर इस देश में - स्मरण रखना उचित है। जो सब धर्मसंप्रदाय अनुष्ठान और पौराणिक तत्त्वसंपद् से समृद्ध हैं, विश्व के श्रेष्ठ आध्यात्मिक शक्ति संपन्न महापुरुषों ने उन्हीं संप्रदायों में जन्म ग्रहण किया है । और जो सब संप्रदाय, किसी प्रतीक या अनुष्ठानविशेष की सहायता बिना ही भगवान की उपासना की चेष्टा करते हैं, जो धर्म की सारी सुंदरता, महानता तथा और सबकुछ निर्मम भाव से पददलित करते हैं, अत्यंत सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर भी उनका धर्म केवल कट्टरता है, शुष्क है । जगत् का इतिहास इसका ज्वलंत साक्षी है। इसलिए इन सब अनुष्ठानों तथा पुराणों आदि को गाली मत दीजिये। जो लोग इन्हें लेकर रहना चाहते हैं, उन्हें रहने दीजिये। आप व्यर्थ ही व्यंग्यात्मक हँसी हँसकर यह मत कहिये कि "वे मूर्ख हैं, उन्हें उसी को लेकर रहने दो । " यह बात कदापि नहीं है; मैंने जीवन में जिन सब आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न श्रेष्ठ महापुरुषों के दर्शन किये हैं वे सब इन्हीं अनुष्ठानादि नियमों के माध्यम से अग्रसर हुए हैं। मैं अपने को उनके पैरों तले बैठने के योग्य भी नहीं समझता और उस पर भला मैं उनकी समालोचना करूँ? ये सब भाव मानव-मन में किस तरह कार्य करते हैं और उनमें से कौन सा हमारे लिए ग्राह्य है तथा कौन सा त्याज्य है, इसे मैं कैसे समझँ? हम उचित-अनुचित न समझते हुए भी संसार की सारी वस्तुओं की समालोचना करते रहते हैं। लोगों की जितनी इच्छा हो, उन्हें इन सब सुंदर उद्दीपनपूर्ण पुराणादि को ग्रहण करने दीजिये। कारण, आपको सर्वदा स्मरण रखना उचित है कि भावुक लोग सत्य की कुछ नीरस परिभाषामात्र को लेकर रहना बिल्कुल पसंद नहीं करते। भगवान उनके निकट 'धरने- छूने की' वस्तु है, मूर्त वस्तु है, वही एकमात्र सत्य वस्तु है । उसे वे अनुभव करते हैं, उससे वे बात सुनते हैं, उसे वे देखते हैं, उससे वे प्रेम करते हैं। वे अपने भगवान को ही लेकर रहें। आपका युक्तिवाद भक्त के निकट उसी प्रकार निर्बोध है जैसे कोई व्यक्ति एक सुंदर मूर्ति को देखते ही उसे चूर्ण कर यह देखना चाहता है कि वह किस पदार्थ से निर्मित है। भक्तियोग उनको निःस्वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता है। कोई गूढ़ अभिसंधि न रहे । लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा कोई भी इच्छा न रहे। केवल भगवान से अथवा जो मंगलमय है, उसी
से केवल प्रेम के लिए प्रेम करना प्रेम ही प्रेम का श्रेष्ठ प्रतिदान है और भगवान ही प्रेमस्वरूप हैं - यही भक्तियोग की शिक्षा है। भगवान सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शास्ता और पिता-माता हैं, यह कहकर उनके प्रति हृदय की सारी भक्ति और श्रद्धा अर्पण की ही शिक्षा भक्तियोग देता है । भाषा उनका जो सर्वश्रेष्ठ प्रकाश कर सकती है अथवा मनुष्य उनके संबंध में जो सर्वोच्च धारणा कर सकता है, वह यह है कि वे प्रेममय हैं! "जहाँ कहीं भी किसी प्रकार का प्रेम है, वही वे हैं, वहीं प्रभु विद्यमान हैं।" पति जब स्त्री का चुंबन करता है, उस चुंबन में भी वे विद्यमान हैं। माता जब शिशु को चुंबन करती है, तो उसमें भी वे वर्तमान हैं। मित्रों के करमर्दन में भी प्रभु विद्यमान हैं। जब कोई महापुरुष मानव-जाति के प्रेम के वशीभूत हो उनका कल्याण करने की इच्छा करते हैं, तब प्रभु ही अपने मानवप्रेम-भंडार से मुक्त हस्त होकर प्रेम वितरण करते हैं। जहाँ हृदय का विकास है, वहीं उनका प्रकाश है। भक्तियोग से इन्हीं सब बातों की शिक्षा मिलती है । अब मैं ज्ञानयोगी की बात की आलोचना करूँगा - वे दार्शनिक और चिंताशील हैं, जो इस दृश्य जगत् के परे जाना चाहते हैं - वे संसार की तुच्छ वस्तुओं को लेकर संतुष्ट नहीं रह सकते । प्रतिदिन के आहारादि नित्य-कर्म के परे चले जाना चाहते हैं - हजारों पुस्तकें पढ़ने पर भी उनकी शांति नहीं होती, यहाँ तक कि समग्र भौतिक विज्ञान भी उनको परितृप्त नहीं कर सकता । कारण, वे बहुत प्रयत्न करने पर इस क्षुद्र पृथ्वी का ही ज्ञानगोचर कर सकते हैं। बाह्य ऐसा क्या है, जो उनका संतोष कर सके? कोटि-कोटि सौरजगत् भी उनको संतुष्ट नहीं कर सकते; उनकी दृष्टि में वे -'सत्'-संधु में केवल एक बिंदु हैं। उनकी आत्मा इन सबके पार - सब अस्तित्वों का जो सार है, उसी में डूब जाना चाहती है - सत्यस्वरूप को प्रत्यक्ष करना चाहती है। वे इसकी उपलब्धि करना चाहते हैं, उसके साथ तादात्म्य लाभ करना चाहते हैं, उस विराट् सत्ता के साथ एक हो जाना चाहते हैं । वे ही ज्ञानी हैं। भगवान, जगत् के पिता, माता, सृष्टिकर्ता, रक्षाकर्ता, पथदर्शक इत्यादि वाक्यों द्वारा भगवान की महिमा प्रकाश करने में वे असमर्थ हैं। वे सोचते हैं, भगवान उनके प्राणों के प्राण, आत्मा की आत्मा हैं; भगवान उनकी ही आत्मा हैं; भगवान को छोड़कर और कोई भी वस्तु नहीं है। उनका समुदय नश्वर - अंश विचारों के प्रबल आघात से चूर्णविचूर्ण होकर उड़ जाता है। अंत में जो सचमुच ही विद्यमान रहता है वही स्वयं भगवान है। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है - यह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाएगा, यह धर्म है। सांख्यीय ब्रह्मांड तत्त्व हमारे सम्मुख दो शब्द हैं - क्षुद्र ब्रह्मांड और बृहत् ब्रह्मांड, अंतः और बहिः हम अनुभूति द्वारा ही इन दोनों से सत्य का लाभ करते हैं; आभ्यंतर अनुभूति और बाह्य अनुभूति । आभ्यंतर अनुभूति द्वारा संगृहीत सत्यसमूह - मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित हैं और बाह्य अनुभूति से भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो संपूर्ण सत्य है, उसका इन दोनों लोकों की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्मांड बृहत् ब्रह्मांड के सत्यसमूह की साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्मांड भी क्षुद्र ब्रह्मांड के सत्य को स्वीकार करेगा। भौतिक सत्य की अविकल छवि अंतर्जगत् में रहनी चाहिए और अंतर्जगत् के सत्य का प्रमाण भी बहिर्जगत् में मिलना चाहिए। तथापि हम कार्य रूप में देखते हैं, इन सब सत्यों का अधिकांश ही सर्वदा परस्पर विरोधी है। जगत् के इतिहास के एक युग में दिखायी पड़ता है - ज्योंही "अंतर्वादी" की प्रधानता हुई; त्योंही उन्होंने "बहिर्वादी" के साथ विवाद आरंभ किया। वर्तमान काल में "बहिर्वादी " अर्थात् जड़ वैज्ञानिकों ने प्रधानता प्राप्त की है और उन्होंने मनस्तत्त्ववित् और दार्शनिकगण के अनेक सिद्धांतों को उड़ा दिया है। अपने क्षुद्र ज्ञान से हमने जो कुछ समझा है उसके अनुसार हम देखते हैं कि मनोविज्ञान के प्रकृत सार भाग के साथ आधुनिक जड़ विज्ञान के सार भाग का संपूर्ण सामंजस्य है । सब व्यक्तियों को सब विषयों में बड़ा बनने की शक्ति प्रकृति ने नहीं दी है; इसी प्रकार उसने सब जातियों का गठन इस रूप में नहीं किया है कि वे सब प्रकार की विद्या का अनुसंधान करने में समान शक्तिसंपन्न हों। आधुनिक यूरोपीय जातियाँ बाह्य भौतिक तत्त्व के अनुसंधान में सुदक्ष हैं; किंतु प्राचीन यूरोपीयगण मनुष्य के आभयंतर भाग के अनुसंधान में उतने पटु नहीं थे। दूसरी ओर प्राच्यगण भी बाह्य भौतिक जगत् के अनुसंधान में उतने दक्ष नहीं थे, किंतु अंतस्तत्त्व की गवेषणा में उन
्होंने विशेष दक्षता का परिचय दिया है। इसीलिए हम देखते हैं, प्राच्य जाति के भौतिक जगत् के तत्त्वसंबंधीय मत के साथ पाश्चात्य वैज्ञानिकों का मत नहीं मिलता और पाश्चात्य मनोविज्ञान प्राच्य जाति के तत्त्व संबंधीय उपदेशों से नहीं मिलता। पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने प्राच्य भूतविज्ञानवादियों की समालोचना की है। तिस पर भी दोनों ही सत्य की भित्ति पर प्रतिष्ठित हैं और हम जैसा पहले ही निर्धारित कर चुके हैं, चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता, आभयंतर सत्यसमूह के साथ बाह्य सत्य का समन्वय है। आधुनिक ज्योतिर्विद् और वैज्ञानिकों का ब्रह्मांड की सृष्टि के संबंध में क्या मत है, यह हम जानते हैं और यह भी जानते हैं कि उस मत ने प्राचीन दल के धर्मवादियों की किस प्रकार भयानक क्षति की है; ज्यों-ज्यों एक-एक नयानया वैज्ञानिक आविष्कार होता है, त्यों-त्यों ही मानो उनके घर में एक-एक करके बम गिरता जाता है और इसीलिए उन्होंने सब युग में इन समस्त वैज्ञानिक अनुसंधानों को बंद कर देने का यत्न किया है। प्रथमतः हम यह आलोचना करेंगे कि ब्रह्मांड तत्त्व और उसके आनुषंगिक विषय के संबंध में मनस्तत्त्व और विज्ञान की दृष्टि से प्राच्य जाति की धारणा क्या थी; तब दिखायी पड़ेगा कि आधुनिक विज्ञान की सभी आधुनिकतम आविष्क्रियाओं के साथ उनका कितना आश्चर्यप्रद सामंजस्य है और यदि कहीं कुछ असंपूर्ण रह जाता है तो वह आधुनिक विज्ञान की ही दिशा में। अंग्रेजी में हम सब नेचर शब्द का व्यवहार करते हैं। प्राचीन हिंदू दार्शनिकगण उसके लिए दो विभिन्न संज्ञाओं का प्रयोग करते थे; प्रथम 'प्रकृति' - अंग्रेजी के नेचर शब्द के साथ प्रायः समानार्थक है; और दूसरा उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक नाम है - 'अव्यक्त' - जो व्यक्त अथवा प्रकाशित अथवा भेदात्मक नहीं है, उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, उससे अणु-परमाणु सब आये हैं; उससे ही भूत, शक्ति, मन, बुद्धि सब आये हैं। यह अत्यंत विस्मयकारक है कि भारतीय दार्शनिकगण अनेक युग पहले ही कह गये हैं कि मन सूक्ष्म जड़ मात्र है; क्योंकि हमारे आधुनिक जड़वादियों ने - देह जिस प्रकार प्रकति से उत्पन्न है, मन भी उसी प्रकार है - इसके अतिरिक्त और अधिक क्या दिखाने का यत्न किया है ? चिंतन के संबंध में भी यही बात है और क्रमशः हम देखेंगे, बुद्धि भी उसी एक ही अव्यक्त नामधेय प्रकृति से उत्पन्न हुई है । प्राचीन आचार्यगण ने इस अव्यक्त का लक्षण बताया है 'तीन शक्तियों की साम्यावस्था । " उनमें से एक का नाम सत्व, दूसरी का रज और तीसरी का तम है। तम निम्नतम शक्ति है - आकर्षणस्वरूप; रजः उसकी अपेक्षा किंचित उच्चतर है विकर्षणस्वरूप; तथा सर्वोच्च शक्ति है वह इन दोनों की संयमस्वरूप है - वही सत्व है। अतएव ज्योंही ये आकर्षण और विकर्षण दोनों शक्तियाँ सत्व द्वारा पूर्णतः संयत होती हैं अथवा संपूर्ण साम्यावस्था में रहती हैं, तब सृष्टि अथवा विकार का अस्तित्व नहीं रहता, किंतु ज्योंही यह साम्यावस्था नष्ट होती है, ज्योंही उनका सामंजस्य नष्ट होता है और उनमें से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्योंही परिवर्तन तथा गति का आरंभ होता है और इन सब का परिणाम चलता रहता है । इसी प्रकार का व्यापार चक्रगति से चल रहा है। अर्थात् एक समय आता है, जब साम्यावस्था भंग होती है, तब ये विभिन्न शक्तिसमूह विभिन्न रूप से सम्मिलित होने लगते हैं और तभी यह ब्रह्मांड बहिर्गत होता है । और समय आता है, जब सब वस्तुओं का ही उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने का उपक्रम चलता है और ऐसा भी समय आता है जब जो कुछ व्यक्तभावापन्न है, उस सब का संपूर्ण अभाव हो जाता है। फिर कुछ समय के पश्चात् यह अवस्था नष्ट हो जाती है तथा शक्तियों के बाहर की ओर प्रसारित होने का उपक्रम आरंभ होता है तथा ब्रह्मांड धीरे-धीरे तरंगाकार में बहिर्गत होता है। जगत् की सब गति तरंग के आकार में ही होती है - एक बार उत्थान फिर पतन। प्राचीन दार्शनिकगण में से किसी-किसी का मत यह है कि समग्र ब्रह्मांड ही एकदम कुछ दिनों के लिए लयप्राप्त होता है; और अन्य किसी का मत है कि ब्रह्मांड के अंशविशेष में ही यह प्रलय का व्यापार संघटित होता है। अर्थात् मान लीजिए, हमारा यह सौरजगत् लयप्राप्त होकर अव्यक्त अवस्था में चला गया, किंतु उसी समय अन्यान्य सहस्र-सहस्र जगत् में उसके ठीक विपरीत कांड चल रहा है। हम दूसरे मत के - अर्थात् प्रलय एक साथ सब जगत् में संघटित नहीं होता, विभिन्न जगत् में विभिन्न व्यापार चलता रहता है - इस मत के ही अधिक पक्षपाती हैं। जो भी हो, मूल बात दोनों में एक है, अर्थात् जो कुछ हम देख रहे हैं, यह समग्र प्रकृति ही क्रम-क्रम से उत्थान - पतन के नियम से अग्रसर हो रही है। इसी संपूर्ण साम्यावस्था में गमन को कल्पांत कहते हैं। समग्र कल्प की - इस
क्रमविकास और क्रमसंकोच की तुलना भारत के ईश्वरादीगण ने ईश्वर के निः श्वास-प्रश्वास से की है। मानो ईश्वर के प्रश्वास त्याग करने से उनसे यह जगत् बहिर्गत होता है और वह उनमें ही फिर लौट जाता है । जब प्रलय होता है, तब जगत् की अवस्था क्या होती है? यह उस समय भी वर्तमान रहता है परंतु सूक्ष्म रूप में अथवा कारणावस्था में रहता है। देश-काल-निमित्त वहाँ भी वर्तमान है, तथापि वे केवल अव्यक्त भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस अव्यक्तावस्था में प्रत्यावर्तन को क्रमसंकोच अथवा प्रलय कहते हैं। प्रलय और सृष्टि अथवा क्रमसंकोच और क्रमअभिव्यक्ति अनंत काल से चल रहे हैं । अतएव हम जब आदि अथवा आरंभ की बात करते हैं तब हम एक कल्पआरंभ की बात करते हैं तब हम एक कल्प-आरंभ की ओर लक्ष्य रखते हैं। ब्रह्मांड के संपूर्ण बाह्य भाग को आजकल हम जिसे स्थूल जड़ कहते हैं- प्राचीन हिंदूगण भूत कहते थे, उनके मतानुसार उनमें से एक ही, शेष सबका कारण है; क्योंकि अन्यान्य सब भूत इसी भूत से उत्पन्न हुए हैं। इस भूत को आकाश की संज्ञा प्राप्त है। आजकल 'ईश्वर' शब्द से जो व्यक्त होता है वह बहुत कुछ उसके सदृश है, यद्यपि पूर्णतः एक नहीं है। आकाश ही आदिभूत है - उसी से सब स्थूल वस्तुएँ उत्पन्न हुई हैं, तथा उसके साथ प्राण नाम की और एक वस्तु रहती है - हम क्रमशः देखेंगे वह क्या है। जितने दिन सृष्टि रहती है उतने दिन ये प्राण और आकाश रहते हैं। उन्होंने नाना रूप में मिलकर इन सब स्थूल प्रपंचों का गठन किया है, अंत में कल्पांत में ये लयप्राप्त होकर आकाश और प्राण के अव्यक्त रूप में प्रत्यावर्तन करते हैं। जगत् में प्राचीनतम शास्त्र श्रग्वेद में सृष्टिवर्णनात्मक अपूर्व कवित्वमय श्लोक है; यथा - नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं....किंमावरीवः..... तम आसीत्तमसा गूढ़मग्रेऽप्रकेतम्... । अर्थात् जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम द्वारा तम घिरा था, तब क्या था? और इसका उत्तर दिया गया है - "आनीदवातम्" इत्यादि । ये (वे ही अनादि अनंत पुरुष ) गतिशून्य अथवा निश्चेष्ट भाव में थे। प्राण और आकाश तब उसी अनंत पुरुष में सुप्त भाव में थे, किंतु किसी प्रकार का व्यक्त प्रपंच नहीं था। इस अवस्था को अव्यक्त कहते है - उसका ठीक शब्दार्थ स्पंदनरहित अथवा अप्रकाशित है। क्रमविकास के लिए एक नूतन कल के आरंभ में यह अव्यक्त स्पंदित होता रहता है और आकाश के ऊपर प्राण के क्रमागत घात के पश्चात् घात देते-देते क्रमशः वह स्थूल होता रहता है और क्रमशः आकर्षण - विकर्षण दोनों शक्तियों के बल से परमाणु गठित होते हैं। ये फिर अधिक स्थूल होकर द्वयणुकादि का रूप धारण करते हैं और सबसे अंत में प्राकृतिक प्रत्येक पदार्थ जिसके द्वारा निर्मित हैं उन्हीं सब विभिन्न स्थूल भूतों का रूप धारण करते हैं अर्थात् परिणत होते हैं। हम साधारणतः देखते हैं, लोग इन सब बातों का अत्यंत अद्भुत अंग्रेजी में अनुवाद किया करते हैं। अनुवादकगण अनुवाद के लिए प्राचीन दार्शनिकगण और उनके टीकाकारगण की सहायता ग्रहण नहीं करते और उनमें इतनी विद्या भी नहीं है कि वे स्वतः यह सब समझ सकें । वे भूतसमूह का वायु, अग्नि इत्यादि के रूप में अनुवाद करते हैं। यदि वे भाष्यकारगण के भाष्यों की आलोचना करते तो देख पाते कि उन्होंने इन सबकी ओर लक्ष्य नहीं किया है। प्राण के बार-बार आघात द्वारा आकाश से वायु अथवा आकाश की स्पंदनहीन अवस्था उपस्थित होती है और उसके द्वारा ही फिर वाष्पीय भूत की उत्पत्ति होती है और स्पंदन के क्रमशः दुत से द्रुततर होते रहने पर उत्ताप अथवा तेज की उत्पत्ति होती है। क्रमशः उत्ताप कम होकर शीतल होता रहता है तब यह वाष्पीय पदार्थ तरल भाव धारण करता है, उसे अप् कहते है। अंत में वह कठिन आकार प्राप्त करता है, उसका नाम पृथ्वी है । सब से पहले आकाश की स्पंदनशील अवस्था होती है, उसके पश्चात् उत्ताप उत्पन्न होता है, उसके पश्चात् वह तरल हो जाता है, तथा जब और अधिक घनीभूत होता है, तब वह कठिन जड़पदार्थ का आकार धारण करता है। ठीक इसके विपरीत क्रम में सब अव्यक्तावस्था को प्राप्त होते हैं। सब कठिन वस्तुएँ तरल आकार में परिणत होती हैं, तरलावस्था लुप्त होकर केवल उत्तापराशि के रूप में परिणत होती है, वह फिर धीरे-धीरे वाष्पीय भाव धारण करती है, फिर परमाणुसमूह विश्लिष्ट होना आरंभ करते हैं और सबसे अंत में सब शक्तियों की सामंजस्य अवस्था उपस्थित होती है । तब स्पंदन बंद होता है - इसी प्रकार कल्पांत होता है। हमें आधुनिक ज्योतिष से ज्ञात होता है कि हमारी इस पृथ्वी और सूर्य का यही अवस्था-परिवर्तन चल रहा है, अंत में यह कठिन आकर की पृथ्वी गलकर तरल आकार और अंत में वाष्प का आकार धारण करेगी । प्राण स्वयं आकाश की सहायता के अभाव में कोई काम नहीं कर पाता । उसके संबंध में हम केवल इतना जानते हैं कि यह गति अथवा स्पंदन है । हम जो कुछ गति देख प
ाते हैं, वह इस प्राण का ही विकारस्वरूप है और जड़ अथवा भूत पदार्थ के नाम से जो कुछ हम जानते हैं, जो कुछ आकृतिमान अथवा बाधात्मक है, वह इसी आकाश का विकार है। यह प्राण स्वयं नहीं रह सकता अथवा किसी मध्यवर्ती के बिना काम नहीं कर सकता और वह किसी अवस्था में - वह केवल प्राण रूप में ही वर्तमान रहे या गुरुत्वाकर्षण अथवा केंद्रातिगा-शक्तिरूप प्राकृतिक अन्यान्य शक्ति में ही परिणत हो जाए - वह कभी आकाश से पृथक नहीं रह सकता। आपने कभी भूत के बिना शक्ति, अथवा शक्ति के बिना भूत नहीं देखा है। हम जिन सबको भूत अथवा शक्ति कहते हैं, वे केवल इन दोनों के स्थूल प्रकाश मात्र हैं और इनकी अति सूक्ष्मावस्था को ही प्राचीन दार्शनिकगण ने प्राण और आकाश की संज्ञा दी है। प्राण को आप जीवनीशक्ति कह सकते हैं, किंतु उसको केवल मनुष्य के जीवन में सीमाबद्ध करने से अथवा आत्मा के साथ अभिन्न समझने से भी काम नहीं चलेगा । अतएव सृष्टि प्राण और आकाश के संयोग से उत्पन्न है तथा उसका आदि भी नहीं है, अंत भी नहीं है; उसका आदि-अंत कुछ भी नहीं रह सकता, क्योंकि अनंत काल से वह चल रही है। इसके पश्चात् और एक अत्यंत दुरूह और जटिल प्रश्न उत्पन्न होता है। अनेक यूरोपीय दार्शनिकगण ने कहा है, 'हम' हैं, इसीलिए यह जगत् है, और यदि न रहें तो यह जगत् भी नहीं रहेगा। कभी-कभी यह बात इस प्रकार प्रकाशित की जाती है - यथा यदि जगत् के सब व्यक्ति मर जाएँ, मनुष्यजाति फिर यदि न रहें, अनुभूति और बुद्धिशक्ति से संपन्न कोई प्राणी यदि जीवित न रहे तो यह जगत्प्रपंच भी अधिक जीवित नहीं रहेगा। यह बात असंभव के समान प्रतीत हो सकती है, किंतु क्रमशः हम स्पष्ट देखेंगे कि इसे प्रमाणित किया जा सकता है। किंतु ये यूरोपीय दार्शनिकगण यह तत्त्व जानते हुए भी मनोविज्ञान के अनुसार उसकी व्याख्या नहीं कर पाते । प्रथमतः इन प्राचीन मनोवैज्ञानिकों की और एक सिद्धांत लेकर आलोचना करेंगे - वह भी कुछ अद्भुत प्रकार की है वह यह है कि स्थूल भूत सूक्ष्म भूत से उत्पन्न है। जो भी स्थूल है, वह कुछ सूक्ष्म वस्तुओं का समावायस्वरूप है। अतएव स्थूल भूतसमूह भी कुछ सूक्ष्म वस्तुओं से गठित है - इन्हें संस्कृत भाषा में तन्मात्रा कहते हैं। हम एक फूल सूँघ रहे हैं, उसकी गंध प्राप्त करना चाहने पर कुछ अवयव हमारी नाक के संस्पर्श में आ रहा है। फूल विद्यमान है - वह 'कुछ' हमारी ओर चला आ रहा है, हम देख नहीं पा रहे हैं; किंतु यदि कुछ हमारी नाक के संस्पर्श में न आता हो तो हम गंध किस प्रकार प्राप्त कर रहे हैं? उस फूल से जो कुछ निकलकर हमारी नाक के संस्पर्श में आ रहा है, वही तन्मात्रा है, उस फूल का ही अत्यंत सूक्ष्म परमाणु; वह इतना सूक्ष्म है कि यदि हम सारे दिन सब मिलकर उसकी गंध सूँघें, फिर भी उस फूल के परिमाण का कोई हासबोध नहीं होगा । ताप, आलोक एवं अन्यान्य सब वस्तुओं के संबंध में भी यही एक ही बात है। ये तन्मात्राएँ फिर परमाणु रूप में पुनः विभक्त हो सकती है, इस परमाणु के परिमाण के बारे में विभिन्न दार्शनिकगण का विभिन्न मत है; किंतु हम जानते हैं, वे सब मतवाद मात्र हैं, इसलिए हमने विचार के स्थल में उन सबका परित्याग कर दिया । हमारे लिए इतना ही जानना यथेष्ट है कि जो कुछ स्थूल है, वह सब अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ द्वारा निर्मित हैं। पहले हम प्राप्त करते हैं स्थूल भूत - हम उसे बाहर अनुभव करते हैं, उसके पश्चात् स्थूल भूत - इस सूक्ष्म भूत द्वारा ही स्थूल भूत गठित है, उसके ही साथ हमारी इंद्रियों का अर्थात् नाक, कान, आँख आदि के स्नायुओं का संयोग होता है। जो ईथर-तरंग हमारी आँखों को स्पर्श करती हैं उसे हम देख नहीं पाते, तथापि हम जानते हैं कि आलोक देख पाने के पहले आँखों के स्नायुओं के साथ उसका संयोग आवश्यक है । श्रवण के संबंध में भी ऐसा ही है। हमारे कान के संस्पर्श में जो तन्मात्राएँ आती हैं, उन्हें हम देख नहीं पाते, किंतु हम जानते हैं, वे हैं अवश्य । इन तन्मात्राओं का फिर कारण क्या है? हमारे मनस्तत्त्वविद्गण ने इसका एक अद्भुत और विस्मयजनक उत्तर दिया है। वे कहते है, तन्मात्राओं का कारण 'अहंकार' या 'अहंतत्त्व' अथवा 'अहंज्ञान' है। यही इन सब सूक्ष्म भूतसमूह और इंद्रियगण का कारण है। इंद्रियाँ कौन हैं? यह आँख विद्यमान है, किंतु आँख देखती नहीं है। यदि आँख देखती होती तो मनुष्य की जब मृत्यु होती है तब आँख तो अविकृत रहती है तो फिर वह उस समय भी देख पाती। किसी स्थान पर कुछ परिवर्तन हुआ है। कोई 'कुछ' मनुष्य के भीतर से चला गया है और वही कुछ जो प्रकृत रूप में देखता है, आँख जिसका यंत्रस्वरूप मात्र है, वही यथार्थ इंद्रिय है। इसी प्रकार यह नाक भी एक यंत्रमात्र है, उसके साथ संबंधयुक्त एक इंद्रिय है। आधुनिक शरीरविज्ञानशास्त्र से आपको ज्ञात हो जाएगा, वह क्या है। वह मस्तिष्क के भीतर का एक स्नायु-केंद्र मात्र ह
ै। आँख, कान आदि केवल बाहर के यंत्र हैं। अतएव यह स्नायुकेंद्र अथवा इंद्रियगण ही अनुभूति के यथार्थ स्थान हैं। नाक के लिए एक, आँख के लिए एक, इसी प्रकार प्रत्येक के लिए एक पृथक-पृथक स्नायु-केंद्र अथवा इंद्रिय होने का प्रयोजन क्या है? एक से की कार्य क्यों नहीं होता? यह आगे स्पष्ट रूप से समझाया जा रहा है । हम बात कर रहे हैं, आप हमारी बात सुन रहे हैं; आप लोग यह देख नहीं पा रहे हैं कि आपके चारों ओर क्या हो रहा है, क्योंकि मन केवल श्रवणेन्द्रिय में ही संयुक्त हुआ है, उसने चक्षुन्द्रिय से आपको पृथक कर दिया है। यदि केवल एक ही स्नायु-केंद्र होता अर्थात् एक ही इंद्रिय होती तो मन को एक समय में ही देखना, सुनना और सूँघना होता और उसके पक्ष में एक ही समय में ये तीनों काम करना असंभव होता । अतएव प्रत्येक के लिए पृथक पृथक स्नायु-केंद्र आवश्यक हैं । आधुनिक शरीरविज्ञानशास्त्र भी इस संबंध में अपनी साक्षी देते हैं। अवश्य हमारे पक्ष में एक ही समय में देखना और सुनना संभव है, किंतु उसका कारण है - मन दोनों केंद्रों में आंशिक भाव से संयुक्त होता है। तब यंत्र कौन से हुए? हम देखते हैं, वे सब बाहर की वस्तुएँ हैं । और स्थूल भूत से निर्मित हैं - ये ही हमारी आँख, कान, नाक आदि हैं। और ये स्नायु केंद्र समूह किससे बने हैं? वे सूक्ष्मतर भूत से निर्मित हैं और अनुभूति के केंद्रस्वरूप होने के कारण, वे भीतर की वस्तुएँ हैं। जिस प्रकार प्राण को विभिन्न स्थूल शक्तियों से परिणत करने के लिए यह देह स्थूल भूत से गठित हुई है, उसी प्रकार इस शरीर के पश्चात् जो स्नायु-केंद्र समूह विद्यमान हैं, वे भी प्राण को सूक्ष्म अनुभूति की शक्ति में परिणत करने के लिए सूक्ष्मतर उपादान से निर्मित हैं। इन सब इंद्रियों और अंतःकरण की समष्टि को एकत्र रूप में लिंग - शरीर - अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं । प्रकृत पक्ष में, इस सूक्ष्म शरीर का एक आकार है, क्योंकि भौतिक जो कुछ है, उसका एक आकार अवश्य ही रहेगा। इंद्रियगण के पश्चात् मन अर्थात् वृत्ति से युक्त चित्त है, उसे चित्त की स्पंदनशील अथवा अस्थिर अवस्था कहा जा सकता है। यदि एक स्थिर जलाशय में एक पत्थर फेंका जाए तो पहले उसमें स्पंदन अथवा कंपन उपस्थित होगा, उसके पश्चात् उससे बाधा अथवा प्रतिक्रिया उपस्थित होगी। एक क्षण के लिए उसका पानी स्पंदित होगा, फिर वह उस पत्थर पर प्रतिक्रिया करेगा। इसी प्रकार चित्त पर ज्योंही किसी बाह्य विषय का आघात आता है, त्योंही वह कुछ स्पंदित होता है । चित्त की इसी अवस्था को मन कहते हैं। उसके पश्चात् उससे प्रतिक्रिया होती है, उसका नाम बु+द्धि है। इस बु+द्धि के पश्चात् और एक वस्तु है, वह मन की सब क्रियाओं के साथ हे विद्यमान रहती है, उसे अहंकार कहते हैं- इस अहंकार का अर्थ है अहंज्ञान, जिससे सर्वदा 'मैं हूँ' यह ज्ञान होता है। उसके पश्चात् महत् अथवा बु+द्धितत्त्व - वह प्राकृतिक सब वस्तुओं से श्रेष्ठ है। इसके पश्चात् हैं पुरुष - ये ही मनुष्य के यथार्थ स्वरूप हैं, शुद्ध, पूर्ण, ये ही एकमात्र द्रष्टा हैं और इनके लिए ही यह सब परिणाम है। पुरुष यह सब परिणाम की परंपरा देख रहे हैं । स्वतः कभी अशुद्ध नहीं हैं, किंतु अध्यास अथवा प्रतिबिंब द्वारा वे वैसे दिखायी पड़ते हैं जैसे स्फटिक के एक खंड के ऊपर एक लाल फूल रखने पर स्फटिक लाल दिखायी पड़ेगा, फिर नीला फूल रखने पर नीला दिखायी पड़ेगा। किंतु वास्तव में स्फटिक का कोई वर्ण नहीं है। पुरुष अथवा आत्मा अनेक हैं, प्रत्येक शुद्ध और पूर्ण है। और ये स्थूल, सूक्ष्म नाना प्रकार के विभक्त भूत उन पर प्रतिबिंबित होकर उन्हें नाना वर्ण का दिखाते हैं। प्रकृति क्यों यह सब करती है ? प्रकृति का यह सब परिणाम पुरुष अथवा आत्मा के भोग और अपवर्ग के लिए है - जिससे मनुष्य अपना मुक्त स्वभाव जान सके। मनुष्य के समक्ष यह जगत्प्रपंच सुबृहत् ग्रंथ विस्तारित है, जिससे मनुष्य इस ग्रंथ का पाठ करके परिणाम में सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान पुरुष के रूप में जगत् के बाहर आ सके । हमें यहाँ अवश्य ही कहना होगा कि आप लोग जिस प्रकार सगुण अथवा व्यक्तिभावापन्न ईश्वर के प्रति विश्वास करते हैं, हमारे अनेक मनस्तत्त्वविदगण उस प्रकार उनके प्रति विश्वास नहीं करते । सब मनस्तत्त्वविदगण के पिता-स्वरूप कपिल सृष्टिकर्ता ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकार करते हैं। उनकी धारणा है कि सगुण ईश्वर को स्वीकार करने का कोई प्रयोजन नहीं है, जो कुछ सुंदर है, प्रकृति ही वह सब करने में समर्थ है। उन्होंने तथाकथित 'कौशलवाद' का खंडन किया है। और इस मतवाद के समान लड़कपन का मत जगत् में और कोई भी प्रचारित नहीं हुआ तो भी वे एक विशेष प्रकार के ईश्वर को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं हम सभी मुक्त होने के लिए यत्न कर रहे हैं और इस प्रकार का यत्न करते-करते जब मानवात्मा मुक्त हो जाती है तब वह मानो
कुछ दिन के लिए प्रकृति में लीन होकर रह सकती है। आगामी कल्प के प्रारंभ में वही एक सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान पुरुष के रूप में आविर्भूत होकर उस कल्प का शासनकर्ता हो सकती है । इस अर्थ से उसे ईश्वर कहा जा सकता है। इसी प्रकार आप, हम और अत्यंत साधारण व्यक्ति तक विभिन्न कल्प में ईश्वर हो सकते हैं। कपिल कहते हैं, इस प्रकार के 'जन्य - ईश्वर' हो सकते हैं, किंतु नित्य ईश्वर अर्थात् नित्य, सर्वशक्तिमान, जगत् के शासनकर्ता कदापि नहीं हो सकते । इस प्रकार ईश्वर स्वीकार करने पर एक आपत्ति उपस्थित होती है - ईश्वर को या तो बद्ध अथवा मुक्त दोनों में से एक स्वीकार करना होगा। यदि ईश्वर मुक्त हों तो वे सृष्टि नहीं करेंगे, क्योंकि उनके सृष्टि करने का कोई प्रयोजन नहीं है । और यदि वे बद्ध हों तो भी उनका सृष्टि- कर्तृत्व असंभव होगा। क्योंकि बद्ध होने के कारण उनकी शक्ति का अभाव है, इसलिए उनमें सृष्टि- कर्तृत्व की क्षमता नहीं रहेगी । इसलिए दोनों पक्ष से ही सिद्ध हुआ, नित्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ ईश्वर रह नहीं सकते। इसी कारण कपिल कहते हैं, हमारे शास्त्र में - वेद में - जहाँ कहीं भी ईश्वर शब्द का प्रयोग है, उसमें, जो सब आत्माएँ पूर्णता और मुक्ति को प्राप्त हुई हैं, उन सबको व्यक्त किया गया है। सांख्यदर्शन सब आत्माओं के एकत्व के प्रति विश्वासी नहीं है। वेदांत के मतानुसार सब जीवात्माएँ ब्रह्मनामधेय एक विश्वात्मा में अभिन्न हैं, किंतु सांख्यदर्शन के प्रतिष्ठाता कपिल द्वैतवादी थे। अवश्य उन्होंने जगत् का विश्लेषण जहाँ तक किया है, वह अत्यंत अद्भुत है। वे हिंदू परिणामवादियों के जनकस्वरूप हैं और परवर्ती सब दार्शनिक शास्त्र उनकी ही चिंतनप्रणाली के परिणाम मात्र हैं। सांख्यदर्शन के मतानुसार सब आत्माएँ ही अपनी स्वाधीनता अथवा मुक्ति एवं सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता रूप स्वाभाविक अधिकार पुनः प्राप्त करेंगी । यहाँ प्रश्न उपस्थित हो सकता है - तब फिर यह बंधन कहाँ से आया ? सांख्य कहता है, यह अनादि है। किंतु उससे यह आपत्ति उपस्थित होती है कि यदि यह बंधन अनादि हो तो वह अनंत भी होगा, और तो फिर हम कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकेंगे। कपिल इसके उत्तर में कहते हैं, यहाँ इस 'अनादि' से नित्य अनादि नहीं समझना होगा । प्रकृति अनादि और अनंत है, परंतु आत्मा व पुरुष जिस अर्थ में अनादि अनंत हैं, उस अर्थ में नहीं, क्योंकि प्रकृति में व्यक्तित्त्व नहीं है। जिस प्रकार हमारे सम्मुख एक नदी बह रही है। प्रत्येक क्षण उसमें नयी-नयी जलराशि आ रही है और इस जलराशि का नाम ही नदी है - किंतु नदी कोई एक वस्तु नहीं हुई । इसी प्रकार प्रकृति के अंतर्गत जो कुछ है, उसका सर्वदा परिवर्तन हो रहा है, किंतु आत्मा का कभी परिवर्तन नहीं होता। अतएव प्रकृति जब सदा ही परिणाम प्राप्त कर रही है, तब आत्मा के पक्ष में प्रकृति के बंधन से मुक्त होना संभव है। सांख्यवादियों का एक मत अनन्यसाधारण है । उनके मतानुसार एक मनुष्य अथवा कोई भी एक प्राणी जिस नियम से गठित है, समग्र विश्वब्रह्मांड भी ठीक उसी नियम से विरचित है। इसलिए हमारा जैसे एक मन है, उसी प्रकार एक विश्व-मन भी है। जब इस बृहद्ब्रह्मांड का क्रमविकास होता है, तब पहले महत् अथवा बुद्धितत्त्व, फिर अहंकार, फिर तन्मात्रा, इंद्रिय और अंत में स्थूल भूत की उत्पत्ति होती है। कपिल का मत है कि समग्र ब्रह्मांड ही एक शरीरस्वरूप है। जो कुछ हम देखते हैं, वे सब स्थूल शरीर हैं, उन सबके पश्चात् सूक्ष्म शरीरसमूह और उनके पश्चात् समष्टि अहंतत्त्व, उसके भी पश्चात् समष्टि बुद्धि है। किंतु यह सब ही प्रकृति के अंतर्गत है, सबकी प्रकृति का विकास है, इनमें से कुछ भी उसके बाहर नहीं है। हममें से सभी उसी विश्वचैतन्य के अंशस्वरूप हैं। समष्टि बुद्धितत्त्व विद्यमान है, उसमें से जो हमारे प्रयोजन का है, हम ग्रहण कर रहे हैं; इसी प्रकार जगत् के भीतर समष्टि मनस्तत्त्व विद्यमान है, उससे भी हम चिरकाल से प्रयोजन के अनुसार ले रहे हैं। किंतु देह का बीज माता-पिता से प्राप्त होना चाहिए। इससे वंश की आनुक्रमिकत और पुनर्जन्मवाद दोनों ही तत्त्व स्वीकृत हो जाते हैं। आत्मा को देह का निर्माण करने के लिए उपादान देना होता है, किंतु वह उपादान वंश के आनुक्रमिक संचार द्वारा माता-पिता से प्राप्त किया जाता है । अब हम इस सिद्धांत की आलोचना तक आ पहुँचे हैं कि सांख्य मत के अनुसार सृष्टि अथवा क्रमविकास और प्रलय अथवा क्रमसंकोच - ये तीनों ही स्वीकृत हुए हैं। सभी उसी अव्यक्त प्रकृति के क्रमविकास से उत्पन्न हैं, और ये सब क्रमसंकुचित होकर व्यक्त आकार धारण करते हैं। सांख्य मत के अनुसार ऐसी किसी जड़ अथवा भौतिक वस्तु का अस्तित्व संभव नहीं है, ज्ञान का कोई अंशविशेष जिसका उपदान न हो । ज्ञान ही वह उपादान है जिससे यह सब प्रपंच निर्मित हुआ है । मान लीजिये,
हमारे सम्मुख एक मेज है । इस मेज का स्वरूप क्या है, हम यह नहीं जानते; यह केवल हमारे ऊपर एक प्रकार का संस्कार मात्र उत्पन्न कर रहा है । वह पहले आँखों के सामने आता है, उसके पश्चात् दर्शनेन्द्रिय में गमन करता है, उसके पश्चात् मन के निकट आता है । तब मन पुनः उस पर प्रतिक्रिया करता है, इस प्रतिक्रिया को ही हम मेज की संज्ञा देते हैं। यह घटना ठीक सरोवर में पत्थर का एक टुकड़ा फेंकने के सदृश है। वह सरोवर पत्थर की ओर एक तरंग निक्षेप करता है, और उस तरंग से ही हमारा परिचय होता है। मन के तरंगसमूह - जो बाहर की ओर आते रहते हैं, उन्हें ही हम जानते हैं। इस प्रकार यह जो दीवाल खड़ी है उसकी आकृति हमारे मन में है; बाहर यथार्थ में क्या है, यह कोई नहीं जानता। जब हम उसे जानने का यत्न करते हैं, तब हम उसे जो उपादान प्रदान करते हैं, उसे तदनुरूप बनना पड़ता है। हमने अपने निज के मन द्वारा अपनी आँखों की उपादानभूत वस्तु दी है, और बाहर जो है, वह केवल उद्दीपक अथवा उत्तेजक कारण मात्र है। वही उत्तेजक कारण आने पर हम अपने मन को उसकी दिशा में प्रक्षेप करते हैं और हमारी द्रष्टव्य वस्तु का आकार धारण कर लेता है। अब प्रश्न यह है कि हम सभी एक वस्तु किस प्रकार देखते हैं? इसका कारण यह है कि हम सबके भीतर इसी विश्व-मन का एक-एक अंश है। जिनके मन हैं वे ही वस्तु देखेंगे, जिनके नहीं हैं, वे सब यह नहीं देखेंगे। इससे यही प्रमाणित हुआ, जितने दिनों से जगत् है, उतने दिनों से मन का अभाव - उस एक विश्व-मन का अभाव - कभी नहीं हुआ। प्रत्येक मानव, प्रत्येक प्राणी उस विश्व-मन से ही निर्मित हो रहा है, क्योंकि वह सदा ही वर्तमान है और उन सबके निर्माण के लिए उपादान प्रदान कर रहा है ।
जिस समय प्रिया प्रियतम पारस्परिक परिरम्भण-जन्य रस में निमग्न होते हैं, उसी काल में तीव्रातितीव्र वियोग-जन्य ताप का भी अनुभव करते हैं । सारस-पत्नी लक्ष्मणा केवल सम्प्रयोग-जन्य रस का ही अनुभव करती है और चक्रवाकी विप्रयोग-जन्य तीव्र ताप के अनन्तर सहृदय-हृदय-वेद्य सम्प्रयोग-जम्य अनुपम रस का आस्वादन करती है, परन्तु वह भी विप्रयोग-काल में सम्प्रयोग-जन्य रसास्वादन से वश्चित रहती है। किन्तु नित्य-निकुञ्ज में श्री निकुञ्जेश्वरी को अपने प्रियतम परमप्रेमास्पद श्री व्रजराजकिशोर के साथ सारस पत्नी लक्ष्मणा की अपेक्षा शतकोटि-गुणित दिव्य सम्प्रयोग-जन्य रस की अनुभूति होती है, और साथ ही चक्रवाकी की अपेक्षा शतकोटि-गुणित अधिक विप्रयोग-जन्य तीव्र ताप के अनुभव अनंतर पुनः दिव्य रस की भी अनुभूति होती है । ऐसे ही विषय में भावुकों ने कहा है"मिलेइ रहें मानों कबहुँ मिले ना ।" जैसे भावुकों के भावना-राज्यवाले शून्य निकुञ्ज में ही प्रियतम संकेतित समय में पधारते हैं, किसी अन्य के सान्निध्य में नहीं, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी भगवान् से व्यतिरिक्त जो सब दृश्यपदार्थ हैं उनके संसर्ग से शून्य निर्वृत्तिक और निर्मल अन्तःकरण में ही 'तत्पदार्थ' का प्राकट्य होता है । जैसे सर्व-व्यापारों से रहित होकर पूर्ण प्रतीक्षा ही प्रियतम के सङ्गम का असाधारण हेतु है, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी पूर्ण प्रतीक्षा अर्थात् कायिकी, मानसी आदि सर्व चेष्टाओं के निरोध होने पर ही 'त्वं पदार्थ' को 'तत्पदार्थ' का सङ्गम प्राप्त होता है। सर्व दृश्य-संसर्गशून्य निर्वृत्तिक निर्मल अन्तःकरणरूप निकुञ्ज में पूर्ण प्रतीक्षा-परायण व्रजाङ्गना-भावापन्न 'त्वं पदार्थ' श्रीकृष्णस्वरूप 'तत्पदार्थ' के साथ यथेष्ट तादात्म्य सम्बन्ध प्राप्त करता है । यही संक्षेप में ब्रजधामतत्त्व तथा उसका रहस्य है । "यच्छक्तयो वदतां वादिनां वै, कुर्वन्ति चैषां विवादसंवादभुवो भवन्ति । मुहुरात्ममोहं, तस्मै नमोऽनन्तगुणाय भूम्ने ॥" यह बात विदितवेदितव्य महानुभावों से तिरोहित नहीं है कि अनन्तकोटिब्रह्माण्डगत विविधवैचित्र्योपेत भोग्यभोक्तृकर्तृकरणादिनिर्माणपटीयसी, अचिन्त्याsनिर्वाच्य कार्य्यानुमेयस्वानुरूप रूपा, श्रुतिसमधिगम्य-याथातथ्यभावा, अवान्तराऽनन्तशक्तिकेन्द्रभूता महाशक्ति जिन प्रत्यस्तमिताऽशेषविशेषमनोवचनातीत प्रज्ञानानन्दघन स्वमहिमप्रतिष्ठ भगवान् के आश्रित होकर उन्हींकी महिमा से सत्ता स्फूर्ति प्राप्त करके सावधानी से जगन्नाटयनियन्त्री होती हुई भी प्रभु की भ्रुकुटिविलासानुविधायिनी होती है, उन सकल अकल्याणगुणगणप्रत्यनीक-निखिल-कल्याण-गुण-गण-निलय, अचिन्त्यानन्तसौन्दर्यमाधुर्यसुधासिन्धु नटनागर में समस्त परस्पर विरुद्ध धर्मों का सामञ्जस्य होते हुए भी स्वमति प्रभव तर्क एवं स्वाभिगत-शास्त्र तदर्थ विवेचनादि द्वारा नाना प्रकार (का) विकल्प कुछ काल से ही नहीं वरन् अनादिकाल से करते हुए परीक्षक दार्शनिक - वृन्द श्रवणया दृष्टिगोचर होते आगे हैं । उन दार्शनिकों का, पारस्परिक अनेक प्रभेद होते हुए भी, भारतीय भाषा में वैदिक तथा अवैदिक शब्द से निर्देश किया जाता है । वेद-तन्मूलशास्त्रानपेक्षव्यक्तिविशेष निर्मित शास्त्र एवं स्वमतिप्रभव तर्कादि द्वारा तत्त्वों को निर्धारण करनेवाले अवैदिक कहलाते हैं । तद्विपरीत भ्रमप्रमाद-विप्रलिप्सा- करणापाटवादि पुरुष स्वभाव सुलभदोपरांरागरहित अपौरुषेय वेद सन्मूलशास्त्र तथा तत्संस्कार संस्कृत प्रज्ञातन्त्र तत्त्वनिर्धारण एवं तत्प्राप्त्यर्थ प्रयत्न करनेवाले वेदिक कहलाते हैं। यद्यपि "भूतं भव्यञ्च यत् किश्चित् सर्वं वेदात् प्रसिद्धचति" इस अभियुक्तांक्ति से तथा सूत्ररूप से अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमयाद्यात्मवाद, शून्यवाद इत्यादि वेदों में पाये जाते हैं तथापि न तो वे वाद सर्वथा सिद्धान्तरूप से वेदों में माने ही गये हैं और न तत्तद्वादाभिमानी अपने वादों के वैदिकत्व में आग्रह करते या गौरव ही मानते हैं । अतः उनके वैदिकत्वाऽवैदिकत्व में कोई विवाद नहीं । वैदिक सिद्धान्तियों का भी जब कि अंशभेद में प्राधान्याशावान्य-भाव से वैमत्य ही नहीं प्रत्युत बाह्यों से भी अधिक पारस्परिक संघर्प है, तब एक शृङ्खलासम्बन्धशून्य परस्पर स्वतन्त्र विचारपद्धति को समाश्रयण करनेवालों में गतभेद्र तथा संघर्ष होना स्वाभाविक ही है । परन्तु इतना होने पर भी क्या सभी सिद्धान्त सर्वांश में नितान्त भ्रममूलक तथा अनिष्टप्रद हैं, अथवा सर्वांश में सभी प्रमामूलक एवं पुरुषार्थप्रद हैं, यह बात कोई भी बतलाने का साहस नहीं करता । यह सत्य है कि स्वसिद्धान्तातिरिक्त सभी प्रायः भ्रममूलक एवं परमपुरुषार्थ से च्युति के हेतु हैं । ऐसे स्वगोष्ठा सिद्धसिद्धान्ताभिमानी आज भी कम नहीं हैं। एकवस्तु-विषयक प्रमाज्ञान एक ही होता है, नानाज्ञान अयथार्थं होते हैं । एक-वस्तु. वि
षयक अनेक प्रतिपत्तियां अवश्य ही प्राणियों को भ्रम में छोड़ती हैं । चार्वाकों का कहना है कि जब तक जीये सुख-पूर्वक जीये । देह के भस्म हो जाने पर कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता। इनके मत में नोति और काम शास्त्र के अनुसार अर्थ और काम ये दो ही पुरुषार्थ हैं । अन्य कोई पारलौकिक धर्म या मोक्ष नाम का कोई पुरुषार्थ नहीं है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार ही भूत हैं । ये ही जब देह के आकार में परिणत होते हैं, तब उनसे चैतन्य शक्ति उसी तरह उत्पन्न हो जाती है, जैसे अन्न-कण आदि से मादक शक्ति उत्पन्न होती है, किंवा हरिद्रा और चूना से एक तीसरा लाल रङ्ग पैदा हो जाता है । अतएव, देह के नाश से उस चैतन्य का नाश हो जाता है । इसलिये चैतन्यविशिष्ट देह ही आत्मा है । प्रत्यक्ष प्रमाण से अतिरिक्त अनुमान, आगम आदि प्रमाणों की इस मत में मान्यता नहीं है । इसीलिये देह से भिन्न आत्मा होने में कोई भी प्रमाण नहीं है । कामिनी-परिरम्भणजन्य सुख ही स्वर्ग है, कण्टकादि व्यथा-जन्य दुःख ही नरक है । लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है, देह का नाश हो मुक्ति है । 'मैं स्थूल हूँ, कृश हूँ' इस अनुभव से स्पष्ट है कि देह ही आत्मा है । 'मेरा देह है' यह अनुभव 'राहोः शिरः' के समान औपचारिक है। इसपर बौद्धों का कहना है कि बिना अनुमान प्रमाण को स्वीकार किये काम नहीं चल सकता । पशु की भी प्रवृत्ति-निवृत्ति बिना अनुमान की नहीं होती। हाथ में हरी घास लिये पुरुष को देखकर पशु को उस ओर प्रवृत्ति और दण्डोद्यतकर पुरुष को देखकर उस ओर से निवृत्ति होती है। यह सब इष्ट- अनिष्ट का हेतु समझे बिना नहीं हो सकता। इसके सिवा अनुमान प्रमाण नहीं है । यह वचनप्रयोग भी वहीं सार्थक है, जहाँ अनुमान प्रमाण है, ऐसा अज्ञान सन्देह या भ्रम हो, कारण, इन्हींकी निवृत्ति के लिये वाक्यप्रयोग की आवश्यकता होती है। परन्तु दूसरे के अज्ञान, सन्देह, भ्रम आदि का निश्चय दूसरे को प्रत्यक्ष नहीं, अतः आकृति आदि से उनका अनुमान या वचन प्रमाण से निर्णय करना होगा । यह सब बिना किये यदि जिस किसी के प्रति अनुमान प्रमाण नहीं है, ऐसा कहने लग जायँ तो एक तरह का उन्माद ही समझा जायगा । अनुमान से स्पष्ट ही विदित होता है कि अचेतन देह से भिन्न आत्मा है । इन बौद्धों में चार भेद हैं - माध्यमिक, योगाचार, गोत्रान्तिक और वैभाषिक । उनका कहना है कि जां सन् है वह क्षणिक है, जैसे दीपशिखा या वादलों का समूह । सर्वसिद्धान्त - समन्वय अर्थक्रियाकारिता ही पदार्थों का सत्त्व है, वह सबमें है । अतः क्षणिकत्व भी सबमें है । उनके मत में बुद्ध ही देव हैं और समस्त विश्व क्षणभंगुर है। वैभाषिक के मत में बाह्य शब्दादि अर्थ और आन्तर ज्ञान दोनों ही प्रत्यक्ष ग्राह्य हैं । परन्तु सौत्रान्तिक आन्तर अर्थात् ज्ञान को ही प्रत्यक्ष और बाह्य अर्थ को अनुमेय मानता है। उसका कहना है कि एकाकार ज्ञान में शब्द-ज्ञान, स्पर्श - ज्ञान, रूप-ज्ञान इस तरह जो अनेक विलक्षणताओं की प्रतीति होती है, वह बिना बाह्य अर्थ के नहीं बन सकती । अतः ज्ञान की विलक्षणता के उपपादक रूप से बाह्य अर्थों का अस्तित्व अनुमानगम्य है । योगाचार सविकल्प - बुद्धि को ही तत्त्व मानता है । वह वाह्य अर्थ का अस्तित्व नहीं स्त्रोकार करता । माध्यमिक सर्वशून्य हो मानता है। कहा जाता है कि बुद्धदेव का परम तात्पर्यं सर्वशून्यता में हो था । विज्ञानवादी प्रवृतिविज्ञान (नोलादिज्ञान ) को मिटाकर आलयविज्ञानधारा 'अहं अहं' इत्याकारक को ही मुक्ति मानता है। इस पर जैनों का कहना है कि बिना किसी स्थायी आत्मा को स्वीकार किये ऐहलौकिकपारलौकिक फल साधनों का सम्पादन व्यर्थ है । यदि आत्मा दाणिक ही है तो कर्मकाल में आत्मा अन्य और भोगकाल में अन्य ही हुआ । परन्तु यह कथमपि सङ्गत नहीं, क्योंकि जो कर्ता है, वही फलभोक्ता भी होता है । अबाधित प्रत्यभिज्ञा से भी एक स्थायो आत्मा की सिद्धि होती है । "जो मैंने चक्षु से घट देखा था, वहीं मैं हाथ से स्पर्श कर रहा हूँ । मैं, जिसने स्वप्न में हस्ती देखा था, वही मैं जाग रहा हूँ ।" अतः स्पष्ट है कि स्वप्न, जागर आदि में एक ही आत्मा है । जो यह कहा जाता है कि क्षणिक विज्ञान सन्तान में ही पूर्व विज्ञानकर्ता होगा, उत्तरविज्ञान -भोक्ता हागा, ऐसी परिस्थिति में भी दूसरे के कर्म का दूसरा भोक्ता नहीं होगा। क्योंकि इसमें कार्य्यं कारण भाव हो नियामक होगा। अर्थात् एक विज्ञानवारा में तो काव्यं कारण भाव है, परन्तु दूसरी विज्ञानधारा के साथ दूसरी विज्ञानवाग़ का कार्यकारण भाव नहीं है । जैसे मधुर रस से भावित कर्पित भूमि में बोये हुए आग्र बीजों को मधुरिगा अंकुर, काण्ड, स्कन्ध, शाखा, पल्लवादि द्वारा फल में भी पहुँचती है, जैसे लाक्षारस से सींचे हुए कार्पास-बाजा की रक्तता अंकुरादि परम्परा से कपास में पहुँचती है, वैसे ही जिस विज्ञान-सन्तान में कर्ग और कर्मवासना
आहित होती है उसी में फल भी होता है । यह भी ठोक नहीं है । कारण, दोनों ही दृष्टान्तों में बीजो का निरन्वय नाश नहीं होता है, किन्तु बीज के हो सूक्ष्म अवयव भिन्न-भिन्न भावना से भावित होकर फलादि रूप में पूर्ण विकसित होते हैं। परन्तु दक्षणिकवादी के मत से तो विज्ञान का निरन्वय नाश होता है। इसके सिवा जैसे पिपीलिकाओं से भिन्न होकर उनकी पक्ति नाम की कोई वस्तु नहीं है, ठीक वैसे ही सर्वत्र सन्तानी से भिन्न हाकर सन्तान कोई वस्तु नहीं है । ज्ञान-ज्ञेय दोनों भिन्न काल में हो तो भी ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं बनेगा और यदि सव्येतर विषाण के समान समकाल में हो तो भी ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं बनेगा अतः स्थायित्व स्वीकार करना ही चाहिये । अतः 'अकृताभ्यागमकृतविप्रणाश' आदि दोषवारणार्थ स्थायी आत्मा का मानना अनिवार्य है । इनके मत में अनादि एक परमेश्वर कोई नहीं है किन्तु तप आदि से आवरण के प्रक्षीण हो जाने पर जिस आत्मा को अशेष विज्ञान हो गया वही सर्वज्ञ है। वह क्रमेण अनेक होते हैं । उन सर्वज्ञों से निर्मित आगम ही शास्त्र हैं, देह्- परिमाणपरिमित आत्मा है । बन्ध दशा में जीव जल में लोष्टबद्ध तुम्बिका के समान डूबता उतराता है। मोक्ष दशा में उसकी लघु तूल के समान सतत ऊर्ध्वं गति होती है । नैयायिकों का कहना है कि आत्मा देहादि से मिन्न व्यापक एवं ज्ञानादि गुणों युक्त और नाना है । विश्वकर्ता एक परमेश्वर को स्त्रोकार किये बिना जगन्निर्माण, कर्मफल-व्यवस्था आदि कुछ भी न बनेगी। प्रत्यक्ष अनुमान और एक सर्वज्ञ पर मेश्वर - निर्मित वेद एवं तदविरुद्ध आर्ष आगम एवं उपमान प्रमाण हैं । तत्त्वज्ञान द्वारा सर्वदुःखोच्छेद ही मुक्ति है । सांख्यवादी कहता है कि आत्मा व्यापक, असङ्ग, अनन्त चेतनरूप है । वह ज्ञानादि गुण एवं कर्तृत्वादि दोषों से रहित है। प्रकृति ही पुरुष के भोग अपवर्ग सम्पादन के लिये महदादि प्रपञ्चाकार में परिणत होती है । प्रकृतिप्राकृत तत्त्वों और उनके धर्मों के साथ विवेक न होने से ही आत्मा में कर्तृत्वादि धर्म का भान होता है। वस्तुतः वे नित्यशुद्धबुद्धमुक्त असङ्ग हैं । अतः सांख्य - विवेक से स्वरूपावस्थान ही मोक्ष है। योगियों का आत्मा और प्रकृति आदि सांख्या के समान ही है । अष्टाङ्ग योग द्वारा चित्त-वृत्ति-निरोध सत्त्वपुरुषान्यता ख्यातिपूर्वक द्रष्टा का स्वरूपावस्थान ही उनका मोक्ष है । प्रकृति का नियमन एवं योगादि पुरुषों को अभीष्टसिद्धि का मूल एक परमेश्वर भी उनके मत में मान्य है । वह क्लेश कर्म-विपाक एवं आशय से अपरामृष्ट है। पूर्व मीमांसकों का कहना है कि जैसे खद्योत (जुगनू ) प्रकाशअप्रकाश उभयरूप होता है वैसे ही आत्मा चेतन अचेतन उभयात्मक है। वेद-विहित कर्मों के द्वारा वह शुभ सुखज्ञान रूप से परिणामी होता है । वेदप्रतिषिद्ध कर्मों द्वारा दुःखादिज्ञानाकार से परिणत होता है। उनके मत में वेद अनादि, अपीरुपेय अतएव स्वतःप्रमाण हैं । अर्थापत्ति अनुपलब्धि प्रमाण द्वारा सी पदार्थों का निर्णय किया जाता है । उत्तर-मीमांसकों में तो बहुत मतभेद है, क्योंकि प्रायः भारतीयों का अधिक तत्त्वान्वेषी समाज उसमें आदर रखता है । इसीसे शाक्तागम, शैवागम, वैष्णवागमादि पथानुयायियों की दृष्टि में अपने आगमों का प्राधान्य होते हुए भी बादरायण महर्षि प्रणीत वैदिक- तात्पय्यं निर्णायक चतुलंदाणी उत्तरमीमांसा से अनुमत स्वसिद्धान्त होने से गौरव मानना उनके लिये अनिवार्य हो गया ! इसीलिये अनेक महानुभावों ने उसे अपनाया और उसपर स्वाभिमत भाष्य टीका-टिप्पणियाँ कीं। एक ही शास्त्र में नहीं, एक ही सूत्र में, सहस्रों भावपूर्ण गम्भीर व्याख्यान हों ! क्या उस शास्त्र-सूत्र-निर्माता या तदाधारभूत वेद भगवान् की महत्ता साधारण बुद्धि के बाह्य का विषय नहीं है ? अस्तु, उत्तरमीमांसा-भाष्यकारों का अतिसंक्षिप्त प्रधान विषय दिखलाते हैं - द्वैतवादी प्रकृति, पुरुष तथा परमेश्वर इत्यादि श्रुति-सूत्र- प्रतिपाद्य विषय मानते हैं। अद्वैतप्रतिपादक श्रुति-सूत्र प्रथम तो हैं ही नहीं, यदि हैं तो भी वे गौणार्थक हैं । अर्थात् उनका स्वार्थ में कुछ तात्पर्य्य नहीं है । ध्यान में रखना चाहिये कि पूर्वमीमांसक से लेकर उत्तरोत्तर सभी सिद्धान्तिय का "प्रमाणं परमं श्रुतिः" ऐसा उद्घोष है । विशिष्टाद्वैतवादियों का कहना है कि अद्वैत नहीं है, यह कहना केवल धृष्टता है । जब कि अद्वैतवादिनी श्रुति विद्यमान हैं, तब उनका तात्पर्य अद्वैत में नहीं है यह भी कैसे कहा जा सकता है ? अतः चित् अचित् उभयविशेषण-विशिष्ट परमतत्त्व अद्वितीय है और वही जगत् का निमित्त तथा उपादान दोनों ही कारण है, केवल निमित्त ही नहीं । "नीलमुत्पलम्" तथा शरीर-शरीरी के समान विशेषण- विशेष्य का पारस्परिक भेद होते हुए भी अभेद या अद्वैत सूपपन्न है । इस पक्ष में भेदवादिनो तथा अभेदवादिनी दोनों ही प्रकार की श्रुतियों
का सामञ्जस्य हो जायगा । इस सिद्धान्त के अनन्तर द्वैताद्वैतवादी कहते हैं कि विशिष्टाद्वैत भो ठीक नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में विशेषण- विशेष्य का वस्तुतः भेद ही मानते हो तब अद्वैत कैसे हो सकता है ? विशिष्टाद्वैत केवल प्रयोग चातुर्य्य है । अतः इस पक्ष में भी अद्वैतवादिनी श्रुति निरालम्बन ही रह जाती हैं। इस वास्ते चिदचिद्भिन्नाऽभिन्न परमतत्त्व जगत् का उपादान तथा निमित्त कारण है और वहीं श्रुति सूत्र के तात्पर्य का विषय है । जैसे "सुबर्णं कुण्डलं" ऐसे प्रयोग तथा विचार से भी सुवर्ण स्वरूप ही कुण्डल है । इस वास्ते सुवर्ण कुण्डल का अभेद, एवं सुवर्ण जानने पर भी "किमिदम्" ऐसी कुण्डलविषयिणी जिज्ञासा होती है, इसीलिये दोनों का भेद भी है । पयोव्रती दधि नहीं भक्षण करता, दविव्रतो पय से बचता है; गोरसव्रतो दोनों ही का भक्षण करता है । इस तरह व्यवहारपार्थक्य से भेद होता है । 'तदधीनस्थितिप्रवृत्तिमत्वेन' अर्थात् सुवर्णादि कारण के अधीन ही कार्य की स्थिति एवं प्रवृत्ति होती है । अतः अभेद भी है । ठीक ऐसे ही चित् भोक्तृवर्ग, अचित् भोग्यवर्ग परमतत्त्व के अधीन ही स्थिति प्रवृत्तिवाले हैं । अतः परमतत्त्व से अभिन्न हैं; व्यवहार में विरुद्ध धर्म देखने में आता है अतः भिन्न भी है। इस वास्ते चिदचिद्भिनाऽभिन्न परमतत्त्व ही में शास्त्र का अभिप्राय है । शुद्धाद्वेतवा दो इतने पर भी सन्तुष्ट नहीं होते ! उनका कहना है कि परमतत्त्व से पृथक् चित् अचित् किसी तरह से हैं, तभी आप 'तदधीनस्थिति प्रवृत्तिमत्वेन' इस उपाधि से अभेद मानते हैं । वस्तुतः विशिष्टाऽद्वैतवादियों के समान आपके यहाँ भी अद्वैतवादिनी श्रुति सम्यक् स्वार्थपर्यवसायिनी नहीं होती। परमात्मा से व्यतिरिक्त तत्त्व मानने से तत्त्व में परिच्छेद होने से "निरतिशय पूर्णता" भी बाधित होगी। इस वास्ते विशिष्टत्व- भिन्नत्वादि-शून्य शुद्धसच्चिदानन्द परमात्मा ही श्रुति - सर्वस्व है । इस पक्ष में भेदवादिनी तथा अभेदवादिनी दोनों प्रकार की श्रुतियाँ अबाधित रहेंगी । भेदाभेद का परस्पर विरोध होने से एकत्र सामञ्जस्य होना भी असम्भव है । इस पक्ष में "एकोऽहं बहु स्याम्" इत्यादि श्रुतिशतसिद्ध एकतत्त्व ही का बहुभवन अघटिक-घटना-पटीयान् आत्मयोग को महिमा से सम्यक् सूपपन्न हो जायगा । परमेश्वर समस्त विरुद्ध धर्मों का आश्रय है । अतः अणोरणीयस्त्व, महतोमहीयस्त्व, सर्वधारकत्व, सर्वसंसर्गराहित्य, स्वाभिन्न सुख-दुःख मोहात्मक प्रपञ्च निर्मातृत्व, अवि कृतपरिणामित्व भी होने में कोई आपत्ति नहीं । विचित्रस्वरूपाभिन्नआत्मवंभव हो सर्वसमाधान में पर्याप्त है; सदंशाश्रित मायाशक्ति, चिदंशाश्रित संविच्छक्ति, आनन्दाश्रित आह्लादिनी शक्ति के सम्बन्ध से सदादि अंशों का ही प्रकृति प्राकृत तथा पक्षत्रयाऽनुमोदित अणुपरिमाणचित्कणस्वरूप भोवतृवर्ग एवं ज्ञान आनन्द के प्राधान्याऽप्राधान्य से अन्तर्यामी श्रीकृष्ण आदि रूप में अविकृत परिणाम निर्दुष्ट होने से सर्वव्यवहार भी समञ्जस है । इस पक्ष में कारणांश को लेकर अद्वैतवादिनी, सप्रपञ्च को लेकर द्वैतवादिनी श्रुतियाँ भी ठीक लग जायँगी । इसी तरह शैवों तथा पाशुपतों ने भी उत्तरमीमांसा पर भाष्य किया है । द्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि अंशों में वेष्णव भाष्यकारों और शैव भाष्यकारों में भेद नहीं है । प्रत्युत सबका यह दावा है कि यह वाद मुख्य रूप से हमारे हो हैं, दूसरों ने इन्हें चुराया है । वैष्णवमतानुयायियों का कहना है कि शैव भाग्यकार ने वैष्णव विशिष्टाद्वैत को चुराकर अपना रूप-रङ्ग देकर व्यक्त किया है । शैव मतानुयायियों का कहना है कि वैष्णव विशिष्टाद्वैतियों ने ही शैवविशिष्टाद्वैतियों के मत को चुराया है। वैष्णव "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा " इस सूत्र के ब्रह्म पद का विष्णु अर्थ करते हैं, शैव शिव अर्थ करते हैं। वैष्णवों में भी परस्पर विवाद है । कोई ब्रह्म शब्द में श्रीमन्नारायण, कोई रामवन्द्र, कोई श्रीकृष्ण, कुछ लोग श्रीकृष्ण के भो द्वारकास्थ, मथुरास्थ, व्रजस्थ, वृन्दावनस्थ, निकुञ्जस्थ स्वरूपों में मतभेद उठाते हैं । शाक्ताद्वैतवादी अनन्त, अखण्ड, प्रकाशात्मक शिव और उसकी स्वभावभूता, उससे अत्यन्त अभिन्न विभाशक्ति को शक्ति कहते हैं । वही शक्ति बाह्योन्मुख होकर प्रपञ्चव्यञ्जिका होती है । अन्तर्मुख होकर जल शिवस्वरूपा ही होती है । इसके बाद अद्वैतवादियों का कहना है कि आपका भी कहना ठीक है, परन्तु पूर्वोक्त सिद्धान्तियों का भी कहना निर्मूल नहीं । "वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्या", "सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति" इत्यादि श्रुतियों से वेदों का परम तात्पर्य एकमेवाडद्वितीयम्" इत्यादि श्रुतिसहस्रसिद्ध सजातीय-विजातोय-स्वगतभेद-शून्य, पूर्णप्रज्ञानानन्दघन परमात्मा में ही है । अवान्तर तात्पर्थ्य पारमार्थिक सत्ता से कुछ न्यून सत्तावाले अर्थात् अपरि च्छिन्न पूर्ण परमतत्त्व की परमार्थ
सत्यता से न्यून सत्तावाले अघटित घटना-पटीयसी अचिन्त्यानिर्वाच्य भगवदीय शक्ति एवं तदीयविकासविविधवैचित्र्योपेत, विश्वजनीनाऽनुभवनिवेदित विश्वव्यवहारोपयुक्त सर्वंतन्त्र सिद्धान्तसिद्ध पदार्थों में भी है । अघटितघटनापटीयान् आत्मवैभव हम भी मानते हैं पर उसे अनिर्वाच्य स्वभाव और मानना चाहिये ? क्योंकि यदि उसे परमात्मतत्त्व से व्यतिरिक्त परमार्थ सत्य मानें तो अद्वैतप्रतिपादक श्रुतियाँ विरुद्ध होती हैं । असत् खपुष्पादिवत् मानें तो प्रपञ्च निर्माणपटीयस्त्व नहीं बनता । परमार्थसत् परन्तु परमतत्त्व से अत्यन्त अभिन्न मानें तो तद्वत् ही अविकारी कूटस्थ होने से उसमें सुख-दुःख-मोहात्मक प्रपञ्च की हेतुता नहीं बनती। भेदाऽभेद सत्त्वासत्त्व विकृतत्वाविकृतत्व समान सत्ता से एक जगह हो नहीं सकते । अन्यथा विरोधमात्र हो दत्ताञ्जलि हो जायगा । यदि श्रुतिप्रामाण्यातु ऐसा मानें सो भी नहीं; क्योंकि शास्त्र अज्ञात-ज्ञापक होते हैं; न कि अकृतकर्तृ । अर्थात् जो वस्तु जैसी है, शास्त्र उसके स्वरूप को वैसा ही बतलाते हैं । वस्तु-स्वभाव को अन्यथा नहीं करते । इस वास्ते जैसे पट अन्वय-व्यतिरेकादि युक्ति तथा वाचारम्भणादि श्रुतियों के विचार से तन्तु व्यतिरिक्त नहीं होता, किन्तु आतानवितानात्मक तन्तु हो पट है तथापि अङ्गप्रावरण, शोतापनयनादि कार्य्यं तन्तुओं से नहीं होता किन्तु पट हो से होता है । अतः विलक्षण अर्थ-क्रिया-निर्वाहक होने से सर्वथा अभिन्न भी नहीं कह सकते । ठीक वैसे ही "अघटित घटनापटीयान्" आत्मयोग भी परमतत्त्वापेक्षया न्यून-सत्ताक अनिर्वाच्य मानना चाहिये । ऐसा मानने में विषम सत्ता होने से द्वैताद्वैत का विरोध भी नहीं होगा । क्योंकि समान सत्तावाले भावाभावों का ही परस्पर विरोध होता है; न कि विषम सत्तावालों का भी । व्यावहारिक सत्ता के रूप्याभाववान् शुचितत्त्व में प्रातिभासिक सत्ता से रूप्यभाव होने में कोई आपत्ति नहीं । तद्वत् परमार्थ सत्ता से अद्वैत तदपेक्षया न्यून अर्थात् व्यावहारिक सत्ता से द्वैत होने में कोई विरोध नहीं । इस पक्ष में व्यावहारिक अर्थात् व्यवहारकाल में आकाशादिवत् अबाध्य क्रियादिनिर्वाहक सत्यतासम्पन्न द्वैत को लेकर समस्त लौकिक - वैदिक व्यवहार तथा अद्वैतवादिनी श्रुतियों का अवान्तर तात्पर्य के विषयभूत द्वत में सामन्जस्य भी पूर्वोक्त सिद्धान्तियों के अनुसार सम्पन्न होगा; तथा त्रिकालाबाध्य व्यवहारातीत परमार्थ सत्य स्वप्रका शात्मक परमतत्त्व के अभिप्राय से अद्वैतवादिनी श्रुति ही नहीं, अपितु समस्त श्रुतियाँ भी अपने महातात्पर्य के विषयभूत अनन्तानन्दात्मक तत्त्व में पर्यवसित हो जायँगी । इन सिद्धान्तों के सिवा स्वाभाविक भेदाभेद, सोपाधिक भेदाभेद, चिदचिदविभक्ताद्वैत आदि अनेक सिद्धान्त हैं । परन्तु प्रायः उक्त मतों से मिलते-जुलते या गतार्थं हो जाते हैं। इनमें वैसे तो प्रायः परस्पर सभी अन्योन्य का खण्डन तथा स्वमतमण्डन करते हैं, परन्तु कुछ तो सिद्धान्तमात्र में विवाद करते हुए भी स्वाभिमत तत्त्व प्राप्त्यर्थं ही प्रयत्न करते हैं; इस वास्ते उनके यहाँ अधिक संघर्ष नहीं प्रवेश करने पाता । परन्तु कुछ लोगों की तो सिद्धान्त या स्वाभिमत तत्त्व प्राप्त्यर्थं प्रयत्न करने से तत्परता छूटकर परमत खण्डन या परकीय इष्टदेव तथा आचार्यों के दोष प्रकट करने में ही प्रवृत्ति होती है । जेसे 'शैव' या 'वैष्णव' लोगों की कट्टरता प्रसिद्ध है; सुना जाता है कि शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची आदि परमपुण्य स्थलों में प्रथम ऐसी दशा थी कि एक दूसरों के देवता के उत्सव या रथयात्रा आदि काल में 'अभद्र' अर्थात् शोक के चिह्न एवं अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया करते थे। विष्णुभक्त शिव की निन्दा और शिवभक्त विष्णु को निन्दा करते थे । भस्म, रुद्राक्ष, ऊर्ध्वपुण्ड्र, तप्तमुद्रा, कण्ठी आदि विषयों पर ही अतिगहंणीय कलह करते थे । प्रज्ञा का तत्त्व पक्षपात होना स्वभाव है । जरा ध्यान देकर विचारिये कि क्या उक्त समस्त सिद्धान्त सोपानारोहक्रम से किसी सिद्धान्तभूत परमार्थ सत्य परमतत्त्व में पर्यवसित होते हैं; अथवा परस्पर विरुद्ध होने से सुन्दोपसुन्दन्याय से निर्मूल हो जाते हैं ? द्वितीय पक्ष तो ठीक नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि भला थोड़ी देर के लिये बाह्यों को छोड़ भी दें, तो भी तत्तद्वादाभिमानियों से अभिमत तत्तद्देवताओं के अवतारभूत तत्तदाचार्य मात्सर्यादि दोपशून्य "प्रमाणं परमं श्रुतिः" का उद्घोष करते हुए "सर्वभूतानुकम्पया" प्रवृत्त होकर अतात्त्विक निष्प्रयोजन सिद्धान्त स्थापन क्यों करेंगे ? इस वास्ते प्रथम पक्ष ही में कुछ सार प्रतीत होता है। अब प्रश्न यह होता है कि फिर उक्त सिद्धान्तों में कौन सा सिद्धान्त ऐसा है कि जिसमें साक्षात् या परम्परया सभी सिद्धान्तों का सामञ्जस्य हो ? क्योंकि द्वत-अद्वैत अत्यन्त विरोधी सिद्धान्तों का परस्पर सामञ्ज
स्य होना मानों तेज-तिमिर या दहन-तुहिन का ऐक्य सम्पादन है। इस विषय में समन्वय साम्राज्य पथानुसारी शास्त्र-तात्पर्य - परिशोलन संस्कृतप्रेक्षावानों का कहना है कि "वेदकसमधिगम्य" तत्त्व में आस्था रखनेवाले सिद्धान्तों का सामन्जस्य तो सिद्ध ही है । विशेष विचार से तो अदृष्ट कुछ न मानकर एकमात्र दृष्ट पदार्थ को माननेवाले बाह्य चार्वाक का भी दृष्ट को परमार्थसत्तया कुछ न मानकर केतल अदृश्य, अव्यक्त,
उपनिषदों में परम सत्व ब्रह्म पूर्ण माना गया है और कहते है कि आत्मा परमात्मा का ही अंश है। यदि परमात्मा पूर्ण स्वरूप है तो पूर्ण का अंश आत्मा भी पूर्ण ही मानी जा सकती है। और अगर आत्मा पूर्ण है तो ...पूर्ण को तृप्ति क्या अतृप्ति क्या...... ? पच्चीसवीं मंजिल की ऊँचाई से समुद्र का नज़ारा काफी साफ और खूबसूरत हुआ करता है। जहाँ तक नजर जाती वहाँ तक फैला हुआ सीमारहित जल प्रपंच ... ऊपर खुले साफ आकाश में ढलता लाल सूरज.... दूर क्षितिज में दोनों का मिलन...आकाश और समुद्र जैसे एक दूसरे से मिल गए हो ... समर्पण और पूर्णता का आभास। तभी शायद सीमाएं अवरोध लगने लगती है ... दृश्य जगत में भी और विचारों में भी ...एक दायरा सा या बंदिश सी। और ...दायरे ..दायरे तो घुटन पैदा करते हैं ....। इसीलिए कहते है कि सागर के पास मन... विचार. सब शांत हो जाते है...सब उथल -पुथल समाप्त हो जाती है.. मन समाधिस्थ हो जाता है। ... शांत... निस्पृह...! 'दीदी... कॉफी.'। प्रतिमा की तंद्रा टूटी। भाप नथुनों को लगते ही अजीब सी ताजगी आ गई। कांता बाई ने गरम कॉफी का प्याला थमाया .. अपने लिए स्टूल खींच लिया। 'क्या सोच रही हो दीदी... पता है आपको बिल्डिंग नम्बर दो की बात। बहुत अन्याय है दीदी। घोर कलजुग'। 'क्यों क्या हुआ'? 'तुम्हें तो कुछ खबर नहीं रहती दीदी। तुम कहीं आती-जाती तो हो नहीं न इसलिए। है तो बात एक साल पुरानी, पर लगता है कि कल की ही घटना हो। पार्क के सामने की बिल्डिंग के बीसवें माले पर तीसरे घर में 'वो' अवन्ती रानी है न , उसकी कहानी। मेरी ननद है न बिमला, वहीं उनके घर काम करती थी। बहुत भली थी अवन्ती रानी ... बहुत भली ... उसका पति महेश्वर बीमा कम्पनी का एजेंट था और एक ही बेटा...सिरजन ....हाँ शायद सिरजन नाम था ...पता है दीदी क्या हुआ '। और फिर शुरु हो गया कांता का अनथक वृतांत। न तो उसकी कहानी थकती थी और न कांता बाई। जब से इस घर में आई थी, पूरा घर संभाले हुई थी। बातूनी पर ईमानदार। उसके द्वारा दी गई मोहल्ले की जानकारी लगभग प्रामाणिक ही होती थी। हाँ कभी कभी अपनी ओर से थोड़ा तड़का अवश्य लगा लेती थी कांता बाई रोचकता के लिए। 'मोक्ष धाम' कई गगनचुम्बी इमारतों की गेटेड़कम्यूनिटी ...शहर का सबसे नामी आलीशान समुदाय ... हर इमारत में कम से कम पच्चीस मंजिले थी। काफी भीड़ -भाड़ की जगह थी। और यही कारण था कि कहानियों की कमी नहीं थी कांता बाई के पास। भरपूर मनोरंजन का पिटारा थी वो क्योंकि उसका पूरा परिवार ही यहीं इन्हीं इमारतों में किसी न किसी के घर पर काम में लगा हुआ था। तो हर बिल्डिंग की खोज खबर उसके पास होना जायज था। प्रतिमा ने सर कुर्सी पर टिका लिया और आंखें बंद कर ली। कांता की कहानी निर्बाध चलती रही। 'क्या दीदी आप तो सो गईं और देखो मेरी कहानी पूरी भी हो गई। आपने कुछ सुना भी कि मैं योंही बोलती रही दीदी'? 'सब सुना। जा. तू लाइट जला दे। अंधेरा होने को आया है'। कांता बाई उठी, बालकनी की बत्ती जलाई और स्टूल को एक ओर सरका कर नीचे जमीन पर ही टांगे फैलाकर आराम से पसर गई। बत्ती के जलते ही पूरी बालकनी रोशनी ने नहा गई। 'देखो तो दीदी, सामने की सड़क कितनी सूनी लग रही है। दिन ढ़लते ही यह सड़क कैसी सूनी हो जाती है...। लोग घूमने पार्क में जाते है. यहाँ नहीं आते। पता नहीं क्यों'। कांता क्षण भर को रुकी ... , 'दीदी...सुनो...मेरा मन तो ड़रता है इस सड़क को देखकर...कितनी सूनी है ...आप भी न ...देर रात यहाँ नहीं जाया करो'। सचमुच वीरान लग रही थी वह सड़क। यह सड़क इसी समुदाय का ही हिस्सा थी ... उसके पिछवाड़े की परिसीमा .. ठीक इस के पार समुद्र का बैकवॉटरस था .. नहरनुमा जल प्रवाह जहाँ सवेरे तो कई सफेद दूधिया सारस पानी पर अपना भोजन ढूँढते दिख जाते थे .. काफी सुंदर होता था सुबह का नजारा ....हाँ शाम को यह जगह सूनी हो जाती थी। इस समुदाय और समुद्र के बीच मुश्किल से दो किलोमीटर का फासला था।बीच में कोई अवरोध भी नहीं था इसीलिए चौबीसों घंटे तेज समुद्री हवासांय-सांय करती बहती रहती थी। इतनी तेज जैसे अपने साथ सब कुछ उड़ा ले जाएगी। सुबह लोग इस सड़क पर टहलने आते थे अपने कुत्तों के साथ पर अंधेरा पड़ते यह जगह सुनसान हो जाती थी.. एक दम वीरान और डरावनी। कोई इक्का-दुक्का आदमी ही दिखता था इस तरफ क्योंकि कम्यूनिटी में तो कई पार्क थे ... कुछ महिलाओं के लिए...कुछ विशेष खेलने के लिए ... कुछ बच्चों के लिए खास ..कुछ जगह तो बड़े -बूढ़ों ने अपने लिए जैसे आरक्षित ही कर ली थी। शाम होते ही अड्डा जम जाता था। हाँ ! पर इस सड़क पर चहल-पहल बिल्कुल नहीं होती थी इसीलिए प्रतिमा को यह सड़क विशेष भाती थी। अकेले घूमना ही उसकी आदत बन गया था।। एकांत शांत वातावरण में वह रात को निकलती और देर समय तक चलती रहती थी। सड़क के एक छोर पर गोरखा तैनात रहता था। एक घंटा चलती तो काफी
थक जाती थी और थकने के बाद नींद भी अच्छी आ जाती थी। 'क्यों? क्या खराबी है इस सड़क में'? प्रतिमा कान्ता बाई की अनावश्यक दखलंदाजी से चिड़ गई। आजकल वह उसे हर बात में उसे टोक देती थी। 'न दीदी। देर रात अकेले सुनसान जगहों पर घूमा नहीं करते। आज तो बिल्कुल मत जाना। आज पूनम है ...पता नहीं कब कोई छाया पीछे पड़ जाए'। 'कान्ता बाई ... तुम भी कैसी बातें करती हो? कोई छाया वाया नहीं होती। डर तो जिंदों से लगता है, छाया से क्या ड़रना? और पूनम का चांद ! आज तो मैं अवश्य जाऊँगी। मुझे नहीं विश्वास तुम्हारी इन बेसिरपैर की बातों का। मत टोका करो मुझे। मत ड़राया करो'। प्रतिमा आजकल बहुत जल्दी गुस्सा जाती थी। स्वभाव बहुत चिड़चिड़ा हो गया था। बड़ी जिद्दी हो गई थी। वही करती थी जिसके लिए उसे टोका जाए। 'अब जाओ भी यहाँ से। ...और सुनो रात को अपने लिए कुछ बना लेना। मुझे भूख नहीं। अभी दोपहर का ही भारी लग रहा है। मुझे कुछ नहीं खाना है'। इस वक्त कांता बाई का उपदेश सुनना उसे बहुत बुरा लगा था। 'ठीक है दीदी। अभी ऐसा ही लगेगा ... फिर भूख लगेगी रात को ... हल्का सा बना देती हूँ ... मन करें तो खा लेना। कान्ता बाई उठी और बर्तन लेकर रसोई में चली गई। राजेश अग्रवाल एक बड़ी गार्मेंट्स कम्पनी का मालिक था। राजेश से विवाह करके प्रतिमा खुश थी। विवाह से पहले वह साहित्य की प्रवक्ता थी। उसे अपनी नौकरी से बेहद लगाव था। साहित्य ...उस का मनपसंद विषय। विवाह के दो साल हुए थे। वह अभी बच्चा नहीं चाहती थी लेकिन राजेश के परिवार को पोता चाहिए था और राजेश ने भी उस पर अप्रत्यक्षरूप से दबाव डालना शुरु कर दिया था। उसकी खुशी के लिए प्रतिमा को झुकना पड़ा। अवि गर्भ में आ गया था। महीने बीतते गए और प्रसव के बाद प्रतिमा को अपनी नौकरी छोड़नी ही पड़ी। इस का उसे बहुत दुख था लेकिन अवि की प्यारी सी नन्ही सी मुस्कुराहटों ने उस दर्द को भुला दिया। वह सब भूलकर केवल माँ बन गई। उस समय राजेश का व्यवसाय संघर्ष के दौर से गुजर रहा था तो अवि की सारी जिम्मेवारी भी प्रतिमा पर ही आ गई थी। उसका सारा ध्यान अब अवि में सिमट कर रह गया था। अब वह ही उसकी पूरी दुनिया बन चुका था। फिर धीरे-धीरे अवि बड़ा होने लगा।राजेश को समय लगा अपना व्यवसाय जमाने में...। फिर जब जडें जमनी शुरु हुई तो शाखाएं भी बढ़ने लगी ... समृद्धि आने लगी ..। राजेश की इच्छा थी कि अवि को विदेश भेजकर पढ़ाया जाए। लेकिन प्रतिमा अपने बेटे से दूर नहीं रह सकती थी। घर में इस विषय को लेकर काफी झगड़ा हुआ था। 'वैसे यहाँ क्या कमी है राजेश? फिर मैं अवि के बिना कैसे रह पाऊँगी'। प्रतिमा दिन-रात उससे मिन्नतें करती... मनाने का प्रयत्न करती रही लेकिन ... लेकिन उसकी एक न चली बाप बेटे के सामने। अवि भी मचल रहा था विदेश में पढ़ने के लिए सो उसे फिर झुकना पड़ा। वह मन मसोस कर रह गई। और एक दिन ...एक दिन अवि विदेश चला गया। प्रतिमा बहुत रोई थी। अवि के बिना जीना मुश्किल हो गया था। समय लगा था उसे सामान्य होने में ...उसने बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला था। वह फिर से काम करना चाहती थी लेकिन अब तो राजेश का व्यवसाय काफ़ी फैल गया था और वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी नौकरी करें। जब भी उससे वह अपने दोबारा काम करने की बात कहती वह झट से मना कर देता और उलटे उसे ही समझाने लगता ,'प्रतिमा क्या कमी है तुम्हें बताओ... ? बंगला नौकर गाड़ियाँ...फिर तुम नौकरी करोगी? लेकिन क्यों ? घर बैठो और आराम करो"। 'नहीं राजेश मैं घर में बोर हो जाती हूँ। प्लीज मुझे मत रोको। अब कौन है यहाँ? अवि वहाँ चला गया है और तुम...तुम तो हमेशा कभी इस छोर तो कभी उस छोर ...घूमते रहते हो। मेरा भी सोचो न'। प्रतिमा कहती रही लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हुआ। आखिर प्रतिमा हार गई। एक ओर अवि का बिछोह और दूसरी ओर अकेलापन। उसने अपना मन मार लिया। सब से अपने आपको अलग कर लिया। अब वह घंटों कमरे में बंद रहने लगी। साहित्य से नाता टूट गया था। अब तो वह न पढ़ना चाहती थी और न काम करना। सजना संवरना भी लगभग छूट ही गया था। अब उसने शिकायत करना भी छोड़ दिया। वह मानसिक रूप से बीमार हो रही थी।अपने चारों ओर उसने एक दायरा बना लिया था जिसमें वह कैद हो गई थी। उन दायरों में वह किसी को प्रवेश नहीं करने देती थी और स्वयं भी नहीं निकलना चाहती थी। पागलपन हदें पार कर रहा था।। उसे मतिभ्रम होने लगा था। सच सहने की ताकत नहीं रही थी। वह कल्पना में जीने लगी थी। जब कभी पागलपन के दौरे पड़ते तब वह दीवारों से बातें करने लगती। राजेश बहुत चिंतित रहने लगा था। उसने उपचार करवाने का प्रयत्न भी किया था लेकिन प्रतिमा इस विषय में बात करते ही उत्तेजित हो जाती थी चिल्ला चिल्लाकर घर सर पर उठा लेती थी। उसकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी। राजेश अपने आप को प्रतिमा का दोषी मानने लगा था इसी लिए उसने इस कम्य
ूनिटी में अपार्टमेन्ट खरीदा था यह सोचकर कि प्रतिमा यहाँ रहेगी तो लोगों से मिलेगी ... नए मित्र बनाएगी ... घूमेगी फिरेगी तो सामान्य हो जाएगी। लेकिन वह हुआ नहीं था जो सोचा था। प्रतिमा तो और भी कट गई थी। बस इस पिछवाड़े की सड़क पर अकेले घूमना ही उसे पसंद था ... 'वो' भी शाम ढले या रात को जब कोई नहीं होता था तब ...सबसे अलग... सबसे दूर ... एकांत... निर्जन यह सड़क उसके जीवन की ही तरह ..सूनी ..सांय-सांय करती हुई ..उसकी प्रिय जगह बन गई थी। राजेश अब उस पर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं लगाना चाहता था क्योंकि परिणाम वह भुगत रहा था।उसे भली-भांति अंदाजा था कि जिस तरह प्रतिमा अपने आप को प्रताड़ित कर रही है ,इसका परिणाम घातक हो सकता है। वह अपने को अनकिए अपराध की सजा दे रही थी। रात के आठ बज चुके थे। चांद निकल आया था। प्रतिमा गुमसुम सी बैठी बड़ी देर तक चांद को निहारती रही। समय हो रहा था ...टहलने जाना था। कपड़े बदलने वह अलमारी की ओर गई। फिर कुछ सोचकर रुक गई। लगा... क्या खराबी है इन कपड़ों में जो पहने हुए हैं ... ठीक ही तो हैं।अनमने ढंग से वह मुड़ी। उलझे बाल गूंथे .चोटी बनाई और चप्पल पहन कर निकल पड़ी। ठंडी हवा के झोंका ने चेहरे को छुआ और सुकून दे गया। देखा ...दूर कोई इक्का दुक्का आदमी उसी की तरह टहल रहा था। वह अभी कुछ ही दूर चली थी कि पाया सड़क तो पूरी तरह सुनसान हो चुकी थी। खंबों से रोशनी झाग की तरह सड़क पर फैली हुई थी। गोरखा कुर्सी पर पाँव ऊपर किए सिकुड़ा हुआ सा ऊँघ रहा था। वह हर रोज की तरह पत्थर की बेंच पर बैठ गई। उसने देखा... दूर अंधेरे में कोई आकृति चल रही है। उसे आश्चर्य हुआ। इतनी रात गए कौन हो सकता है'? 'वो' आकृति धीरे-धीरे चल रही थी। उसका दिल धड़कने लगा। तसल्ली करने का मन हुआ। वह उठी और उसी ओर को चलने लगी। धीरे-धीरे। कुछ ही पलों में दोनों आमने-सामने आ गईं थी। 'वो' एक सुंदर महिला थी ...नजरें मिली... हल्की सी औपचारिक मुस्कान के साथ। फिर ...दोनों एक दूसरे को पार कर गईं। प्रतिमा की जान में जान आयी। वैसे वह इन बातों में विश्वास तो नहीं करती थी लेकिन कांता बाई ने डर का बीज बो दिया था। वह अब थोड़ी आश्वस्त हो गई थी सो सहज होकर चलने लगी। वापस आते वक्त देखा 'वो' एक बेंच पर बैठी हुईं थीं। चालीस तक की उम्र रही होगी ... सफेद सादी सी सूती सलवार कमीज ... चेहरा गोल आंखें कुछ सूजी हुई चौड़ा माथा ... उस ने इस बार एक ही नजर में पूरा मुआयना कर लिया। वह भी उसके सामने वाली बेंच पर बैठ गई। अचानक नया चेहरा देख मन में उत्सुकता जग गई थी। 'आपको पहले तो कभी नहीं देखा? प्रतिमा उसके चेहरे की चमक को ही देख रही थी। बड़ा प्यारा लग रहा था। कोमल .. सौम्य। हवा के कारण उसके बाल उड़ कर गालों को छू रहे थे। 'हाँ। बिल्डिंग नंबर दो के सामने का पार्क है न ... वहीं जाती हूँ टहलने को। आजकल वहाँ बहुत शोर होने लगा है। आए दिन कोई न कोई कार्यक्रम का शोर ... तो अब वहाँ नहीं जाती। इसीलिए देखा ... यहाँ तो काफ़ी शांति है और कोई नहीं रहता ...तो अच्छा लगा ... सो यहाँ चली आई। वैसे मैंने भी आपको कभी नहीं देखा वहाँ उस पार्क में। इतनी रात गए ... आप अभी भी घूम रही है'? उसकी आवाज बहुत मीठी थी ... होंठों पर मुस्कान ...बड़ी प्यारी सी .. अपनापन ओढ़े हुए। 'हाँ! आज देर हो गई। वैसे घर जल्दी जाकर करना भी क्या है? कौन है घर में जो मेरा इंतजार कर रहा है ? आज शनिवार थोड़े ही न है जो अवि का फोन आयेगा ? और राजेश भी तो नहीं है यहाँ ..फिर मैं किसके लिए जाऊँ'? प्रतिमा ने बड़े ही रूखे लहजे में कहा लेकिन फिर तुरंत चुप हो गई। लगा जैसे कुछ गलत कह दिया हो। उसे अजनबी के सामने ऐसा नहीं कहना चाहिए था। क्या जरूरत थी ऐसे बोलने की। वह तो उसे जानती तक नहीं। फिर इतना व्यक्तिगत होने की क्या आवश्यकता थी? वह झेंप सी गई और मुंह दूसरी ओर फेर लिया। दोनों के बीच खामोशी पसर गई। कुछ क्षण पश्चात 'वो' उठी और चुपचाप चलने लगी। 'वो' अभी भी बेंच पर बैठी हुई थी और उस को हड़बड़ी में जाते देख रही थी। प्रतिमा को पहले उसे बिना बताए इस तरह चले आना अच्छा नहीं लगा ... अपने शुष्क व्यवहार पर उसे क्रोध भी आया लेकिन... लेकिन फिर सोचा...'क्या जान पहचान है हमारी? अभी तो मिले थे फिर क्या औपचारिकता को निभाना ? क्या जरूरत है? पता नहीं कल आए भी या नहीं'। वह मन ही मन कुछ अस्थिर सी हो रही थी ...फिर भी न जाने क्योंरुकी... मुड़कर देखा ... हल्के से हाथ हिलाया और अपनी बिल्डिंग की ओर निकल गई। अगली सुबह बालकनी से सड़क का नजारा कुछ और ही लग रहा था। रात का सन्नाटा अब नहीं था। लोग टहल रहे थे .. बच्चे खेल रहे थे , काफी चहल-पहल थी। निर्जन और डरावनी तो वह रात को होती थी। कांता बाई कॉफी लेकर उपस्थित हो गई थी एक नई कहानी के साथ। 'दीदी सुना बिल्डिंग नम्बर चार की बात ... पता है कल
क्या हुआ'... कांता का बिल्डिंगोपाख्यान शुरु हो गया। आज प्रतिमा को उसकी बातों में कोई मजा नहीं आ रहा था। वह तो कुछ और ही सोच रही थी। आज वह 'उसी' को याद कर रही थी. मन वहीं उसकी ओर खिंचा चला जा रहा था। न भूल पा रही थी वह चेहरा। कितना प्यारा था ..हंसमुख और खुशमिजाज। शायद ईश्वर की विशेष कृपा रही होगी उसपर। तभी तो इतना नूर बरस रहा था उस चेहरे पर। वह अपने विचारों में खोई रही .उसकी हर बात यत्न पूर्वक याद करती रही। .पता ही नहीं चला कब कान्ता ने कहानी खत्म की और कब रसोई में चली गई।। रसोई से बर्तनों की खनखनाने की आवाजें आ रही थी और हर दिन की ही तरह आज भी प्रतिमा वहीं बैठी इंतजार करने लगी ... दिन ढलने का ..शाम होने का ...और शाम से रात होने का .....। रात के आठ बज चुके थे। बहुत दिनों के बाद उसने अपने लिए हल्का गुलाबी रंग का सूट निकाला ...बालों पर क्लिप लगाकर जूड़ा बनाया , चेहरे को आईने में संवारा...एक दो बार देखकर तसल्ली की और फिर कैनवस पहन कर निकल पड़ी। सड़क सुनसान तो थी लेकिन खंबों की रोशनी से सरोबार। उस ने सड़क पर आकर देखा, आज 'वो' वहीं उसी बेंच पर बैठी हुई थी। मन में एक हिलोर सी उठी ..शायद कल के व्यवहार का अपराध बोध था।। वह सीधी उसके पास चल पड़ी। 'हेलो... कितनी देर हुई आपको आकर? टहल चुकी क्या? प्रतिमा धीमे से बोली और ठीक सामने वाली बेंच पर बैठ गई। 'नहीं अभी आई हूँ। आपका ही इंतजार कर रही थी। कल तो आप अचानक चली गईं थीं? उसने मुस्कुराकर जवाब दिया। 'हाँ। कल मन खराब हो गया था उन आवारा कुत्तों के कारण। मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है उनका रोना। बहुत गुस्सा आता है। आज नहीं दिखाई दे रहे है "वो"। खैर छोड़िए ... हाँ कल...कल आपका नाम भी नहीं पूछा था...। मैं प्रतिमा अग्रवाल हूँ, अग्रवाल टेक्सटाइल का नाम तो सुना होगा ... राजेश अग्रवाल मेरे पति है। एक बेटा है अविनाश ... विदेश में रहता है.... सामने वाली बिल्डिंग देख रही है न , मैं वहीं रहती हूँ .. पच्चीसवां फ्लोर ...मैं साहित्य पढ़ाती थी कॉलेज में... अवि के पैदा होने के बाद मैंने छोड़ दिया ... ये नहीं चाहते न इसलिए ... और आप'? प्रतिमा एक ही सांस में बोल गई। 'उसके' चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगी। 'मैं अवन्ती द्विवेदी। बिल्डिंग नम्बर दो में। यहाँ कोचिंग सेंटर में गणित की अध्यापिका थी। मैंने भी छोड़ दिया है अब पढ़ाना ...आपकी तरह ...लेकिन वजह कुछ और थी ...एक बेटा है. सृजन द्विवेदी .. बारह साल का... बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता है। जब से मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है न तभी से बोर्डिंग स्कूल भेज दिया है'। 'और आपके पति'? प्रतिमा की आंखें उसके मनोभावों को पढ़ रही थी। 'वैसे क्या हुआ था आपको'? 'गंभीर कुछ नहीं। ब्रेन में छोटा सा टयूमर हो गया था। जिसके कारण कुछ दिन अस्वस्थ थी लेकिन अब सब शांत हो गया है। मेरे पति बीमा कम्पनी में एजेंट है। महेश्वर द्विवेदी। पार्क के सामने बिल्डिंग नंबर दो की बीसवीं मंजिल पर तीसरा अपार्टमेंट...मेरे जीवन का मोल'। 'वो' कुछ कहते कहते रुक गई। प्रतिमा को उसका वाक्य अजीब सा लगा। 'आपके जीवन का मोल ? यानी ? कुछ समझ नहीं आया'। 'अरे कुछ नहीं। ये बीमा कम्पनी में काम करते है न तो बीमारी का बीमा लिया था जिससे पैसा मिला और घर खरीदा। इनकी यहाँ घर लेने की बड़ी मंशा थी। मेरी पूंजी समझिए, जब मिली तब सब आसान हो गया था'।उसने बड़ी सफाई से बात गोल कर दी। कुछ क्षण चुप रही और फिर उसने अचानक कहा, 'महेश्वर ...मेरे पति महेश्वर ... संहारक शक्ति'! 'संहारक शक्ति? मैं समझी नहीं। संहारक शक्ति? यानी'? 'अरे प्रतिमा जी ... त्रिदेव होते हैं न हमारे पुराणों में ...ब्रह्मा ...विष्णु...महेश्वर ... ब्रह्मा सर्जक शक्ति... विष्णु पालक शक्ति तो महेश्वर...बोलिए और क्या होगा ...संहारक शक्ति ...'। उसने शरारत भरी मुस्कान से कहा। दोनों कुछ क्षण एक दूसरे को देखती रही .. फिर ठहाका मार कर जोर से हंस पड़ी। उनकी हंसी सुनसान सड़क में दूर तक गूँज उठी। वातावरण हल्का हो गया था। 'कितना समय हो गया है अवन्ती जी इस तरह खुलकर हंसते हुए। आज आपने हंसा दिया। सच। मैं सच कह रही हूँ। संहारक शक्ति'। प्रतिमा अब भी हंस रही थी। 'हाँ प्रतिमा जी! अच्छा लग रहा है आपको इस तरह हंसते देखकर ...दिल हल्का हो जाता है'। दोनों धीरे-धीरे खुल रही थी और अब सब सामान्य लग रहा था। प्रतिमा भी अब सहज हो गई थी और सभी शक सुबह सभी दूर हो चुके थे। 'आप ने फिर से नौकरी नहीं ढूँढी? अवन्ती ने जान बूझकर उसे कुरेदा। 'हाँ। करना तो बहुत चाहती थी अवन्ती जी, पर इन्होंने करने नहीं दिया फिर अब तो मन भी उचट गया है। पता है मेरे छात्र मुझे बहुत चाहते थे। कहते थे, मैडम आप पढ़ाती हैं तो पूरा दिमाग में छप जाता है। और मैं भी कितनी तल्लीनता से उन्हें पढ़ाती थी। फिर अवि पैदा हुआ और नौकरी छूट गई तो बहुत बुरा लगा
'। प्रतिमा बिना रुके बोले जा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद किसी से बात करना अच्छा लग रहा था उसे। 'पर प्यारा सा बेटा भी तो मिला था न आपको ... बताइए कैसे करती आप नौकरी? कौन ध्यान रखता उसका आप से बढ़ कर? अवन्ती की बातें मरहम का काम कर रही थी। उसकी आवाज में बहुत आत्मीयता थी जो प्रतिमा पर प्रभाव कर रही थी। 'हाँ। हाँ। अवि! बचपन में कितना गोल -मटोल था जानती है आप? दो कदम चलता और फिर धड़ाम से गिर जाता था। ममी ममी कहकर लिपट जाता और रोने लगता था। किसी के पास भी नहीं जाता था ..अपने पिता के पास भी नहीं ...केवल मैं ही चाहिए थी उसे ...केवल मैं।। पता है बाद में जिम जाकर वजन कम किया था उसने'। प्रतिमा पेट पकड़कर हंसने लगी थी। लेकिन अगले ही पल अकारण बुझ सी गई। 'लेकिन अवन्ती जी, अब मेरे जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है। बेकार जी रही हूँ ... किसी को मेरी आवश्यकता नहीं है और जब किसी को आपकी जरूरत नहीं होती तो जीना दूभर हो जाता है। ऐसे जीवन को खत्म हो जाना चाहिए ... हाँ खत्म'। प्रतिमा की आवाज रुंध गई। आंखें नम हो आईं। अवन्ती कुछ क्षण चुपचाप उसे देखती रही। फिर पलटकर उसने ने एक बिल्डिंग की ओर इशारा करते हुए कहा , 'देखिए न वहाँ। कितनी रंग बिरंगी लाइटें लगा रखी है उस आदमी ने अपनी बालकनी में। पूरा बरामदा कभी लाल कभी नारंगी कभी पीला। कैसा लग रहा है आपको रंगो का खेल' ? 'घटिया। वाहियात। रंग आँखों में चुभ रहे है। बिल्कुल बकवास। यह भी कोई पसंद है? बिल्कुल बेकार'। प्रतिमा का मुंह बिगड़ गया। 'अरे! क्या हुआ ? आप तो बिगड़ गई। यही बात मुस्कुराकर भी कही जा सकती है प्रतिमा जी ... इतना गुस्सा क्यों'? 'इसमें मुस्कुराने की क्या बात है? मुझे ऐसी बदलती फितरत वाले लोग पसंद नहीं। जो रंगो में स्थिरता नहीं देखना चाहते वे दिमाग में भी अस्थिर ही होंगे। मुझे ऐसे लोग बिल्कुल पसंद नहीं'। प्रतिमा का हर वाक्य अपने को सही साबित करने के यत्न में ही निकल रहा था। 'ओफ्फो आप नाराज हो गईं. आप सही है प्रतिमा जी ...बिल्कुल सच कहा आपने। मुस्कुराइए प्रतिमा जी मुस्कुराइए। और फिर वह आपका घर नहीं है। है न'। 'क्या आप मानती है कि मैं ठीक बोल रही हूँ.. मैं सही हूँ न ?...हर कोई समझता है कि मैं ही गलत हूँ'। ? प्रतिमा ने उसके चेहरे पर नजरे टिका दींउत्तर की प्रतीक्षा में। 'हाँ! बिल्कुल सही। आप सही है'। 'क्या आप बिन बात हमेशा यूँ ही मुस्कुराती रहती है? 'हाँ बिल्कुल। खुश रहना मेरी आदत है और फिर परेशान यहाँ कौन नहीं'? अवन्ती उठकर चलने लगी। प्रतिमा भी उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी। 'मुझे लगता है कोई मुझे समझता ही नहीं। मैं आपकी तरह बिन बात मुस्करा भी नहीं सकती। जब मन उदास हो तो मुस्कुराहट कैसे आ सकती है'? 'सच मानिए प्रतिमा जी मुस्कुराना ही तो जीवन है। वरना लोग तो सुख सुविधाओं के रहते भी रोनी सूरत बनाए जीते रहते है। जीवन रुकता नहीं है। हम रोएं या मुस्कुराएं, रात होती है, दिन होता है। समय नहीं रुकता। तो फिर क्यों न मुसकुरा कर ही इसे बिताएं। और फिर मुस्कुराने की वजह क्या आवश्यक है? उन नाचती हुई रोशनियों को देखिए बस ... हंसी आ जाएगी। इतना विश्लेषण ही क्यों। इतना मत सोचा करिए। दिमाग पर बोझ मत लीजिए। बस सहज हो जाइए। सब आसान बन जाएगा न जाने फिर यह क्षण हो न हो? जीवन रहे या न रहे किसे मालूम'? उसका चेहरा अभी भी खिल रहा था। "आप को समझना कठिन है। आप आशावादी है या निराशावादी? कभी कहती हैं .. मुस्कुराइए और कभी जीवन समाप्त होने की बात करती है'। उसे उसकी बातों में रस आ रहा था। वह उसे सुनना चाह रही थी। लग रहा था कि वो बोलती रहे और प्रतिमा सुनती रहे। 'हाँ प्रतिमा जी ... पता है कहते है कि जीवन हमारे कर्मों का फल है, कर्म भोगने के लिए ही हम यहाँ जन्म लेते है और मेरे हिसाब से जो जिंदा है वह भाग्यवान है। आप जो कह रही है वह एकदम सच है ...लेकिन बस एक जगह आपसे चूक हो गई ... जानतीं हैं ...हर जीवन का प्रयोजन होता है और जब प्रयोजन समाप्त हो जाता है तो जीवन खत्म हो जाता है लेकिन जब तक जीवन है जीना चाहिए। हम किसी को दोष ही क्यों दे अपने कर्मों के लिए? हम हमेशा अपनी खुशी के लिए दूसरों पर क्यों आश्रित बने रहते है। जो चीज बाहर ढूंढ रहे है, वह तो अंदर ही तो है और सोचिए जीवन खत्म करने का अधिकार हमें किसने दिया? यह ईश्वर का क्षेत्र है। आप तो अध्यापिका है ... किसी दूसरे के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश तो अपराध होता है ... आप तो इसे अच्छी तरह जानती है...है न' ? 'यानी'? प्रतिमा उसके बहाव में बहती जा रही थी। दिल को सुकून मिल रहा था। तनाव धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। 'यानी जीवन भाग्यशालियों को ही मिलता है। देखिए न इस छोटे से पौधे को'। अवन्ती एक जगह पर चलते चलते रुक गई।... सड़क पर बिखरी रेत में पत्थर पर उगी एक छोटी सी कोंपल को देखकर उसने कहा, 'कितनी
प्रतिकूलता में भी यह जी आया है देखिए ... पता नहीं कल रहे या उखड़ जाए लेकिन जब तक है, हरहरा रहा है। झूम रहा है। है न। तो जब यह नन्ही सी जान मुस्कुराकर जी सकती है तो हम क्यों नहीं मुस्कुराते हुए जीए ? बताइए न। जीना एक कला है और मुस्कुराते जीना वरदान'। 'हाँ! आप ठीक कहती है। मैं ने हार मान ली। वैसे आप की बातें बहुत मीठी है ... दिल को सहलाने वाली ..। मुझे आपसे हारना स्वीकार है'। प्रतिमा ने हथियार डाल दिए। 'मैं तो थक गई। आज चार चक्कर पूरे हो गए पता ही नहीं चला। आप नहीं थकी'? 'तो वादा कीजिए हमारे अगली बार मिलने तक ही सही, उलटे सीधे सवालों से आप खुद को परेशान न करेगी और इसी तरह मुस्कुराने का अभ्यास करती रहेंगी ...धीरे-धीरे यह आपकी आदत बन जाएगी और सभी प्रश्नों का हल मिल जाएगा। वैसे जिंदगी इतनी भी मुश्किल नहीं है प्रतिमा जी, बस जीकर देखिए। आप भाग्यशाली हैं'। प्रतिमा चुप सी उसे देखे जा रही थी। मन शांत हो गया था। विचार रुक गए थे। उसने स्वीकृति में हल्के से सिर हिलाया। 'नौ बज गए। मेरे पति तो शहर से बाहर है और घर भी सामने है। इसीलिए देर भी हो तो कुछ नहीं। जल्दी नींद नहीं आती इसीलिए घूम लेती हूँ। अभी निकल जाऊँगी। लेकिन आप के घर में कोई कुछ नहीं कहता ? आप देर रात घूम रही है? 'नहीं। मेरे पति भी अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते है और कभी तो बहुत रात भी हो जाती है। बेटा भी यहाँ नहीं है सो कुछ फर्क नहीं पड़ता'। 'फिर भी। क्या आपको डर नहीं लगता'? प्रतिमा ने सुनसान सड़क को देख कर कहा। 'किससे? यहाँ तो कोई नहीं है तो डर कैसा ? 'भूत-प्रेतों से। 'हाँ...हाँ ... आप मानती हो? विश्वास करती हैं? नहीं ...बिल्कुल नहीं। इसीलिए इतनी रात गए भी यहाँ हूँ'। प्रतिमा ने जोर देकर कहा। उसकी आवाज स्थिर थी। 'तो फ़िर कल क्यों चली गई थी'? 'बताया था न कुत्तों की रोने की आवाज... बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। मन बेचैन हो जाता है। बस'। कुछ क्षण दोनों चुप हो गई थी। निःशब्द। खामोशी। दोनों विचारमग्न। प्रतिमा धीरे से उठी। 'आप और ठहरेंगी'? 'हाँ कुछ देर... बस फिर निकलती हूँ। शुभ रात्रि'। 'जल्दी निकल जाइएगा। और देर नहीं। देर रात सुनसान जगहों पर घूमना ठीक नहीं ...मैं मानती तो नहीं...लेकिन फिर भी ...क्या पता कोई छाया आ जाए। शुभ रात्रि'। प्रतिमा कुछ पल उसके होंठों पर थिरकती प्यारी सी मुस्कान देखती रही। फिर हल्के से हाथ हिलाया और चल दी। अगले कुछ दिनों में आती जाती बारिश की झड़ी लग गई थी। आज कई दिनों बाद धूप निखर कर आई थी। प्रतिमा घर पर ही थी। बहुत दिनों बाद वह अपनी कैद से बाहर निकली थी। सुबह से उसने अपने आप को व्यस्त कर लिया था। अलमारी के सभी कपड़ों को ठीक किया गया था। सभी पुस्तकें करीने से सजाईं गई। अवि की सब चीजें धूल झाड़ कर अलमारी में संभाल कर रखीं गईं। राजेश के कोट भी निकाल कर धूप खाने रख दिए। और फिर कब से छूटा हुआ अपना एमब्रोइड्री का काम पूरा करने बैठ गई। कांता बाई बीच बीच में रसोई से झांक झांक कर उसे इस तरह से काम करते देख रही थी। हमेशा चुपचाप गुमसुम उदास सी बैठने वाली मालकिन आज अकारण चहक रही थी। धीरे- धीरे उसके व्यवहार में बहुत कुछ बदल रहा था। वह सामान्य हो रही थी। अब किसी बात पर उसे गुस्सा नहीं आता था। और कभी आदत वश गुस्सा आता ...तो अवन्ती की बात याद आ जाती और न चाहते हुए भी होंठों पर मुस्कुराहट तैर आती। मन अकारण प्रफुल्लित रहने लगा था। उसने ही तो मंत्र दिया था मुस्कुराने का ..आसान बनने का .. सहज बनने का ... और यह मुस्कुराना आदत बन जाने का भरोसा भी दिया था। शायद यही मंत्र काम कर गया था। अवन्ती ने तो एक दो दिनों में ही जादू कर दिया था प्रतिमा पर। प्रतिमा उसके प्रभाव में तैरती जा रही थी। हमेशा सोचती ... 'एक दो मुलाकातों में ही कभी रिश्ते कितने गहरे बन जाते है! सच ! रिश्ता समय की दीर्घता की मांग कभी नहीं करता। कभी कभी उम्र भर साथ रहकर भी हम अजनबी बने रहते है और कभी कुछ पलों में ही मन के तार जुड़ जाते है। अवन्ती भी उसके जीवन में छा गई थी। उसका मुसकुराता चेहरा कितना भला लगता था, ऊर्जा और शक्ति देता हुआ। प्रतिमा अपने आपको भी वैसा बनाने की कोशिश कर रही थी।। उसकी ऊब खीज उदासी अवसाद घुटन सब धीर-धीरे कम हो रहे थे।कभी कभी तो वह कमरे का दरवाजा बंद कर लेती और घंटों आईने के सामने खड़े होकर सोच में डूबी अपना मुसकुराता हुआ चेहरा देखती रहती। मन ही मन विचार चलते 'कितनी पागल थी मैं...न जाने क्यों मैं ने तो जीना ही छोड़ दिया था। बदला तो अब भी कुछ नहीं ...बस...मन बदल लिया तो सब कुछ बदल गया'। अपना मुसकुराता चेहरा कितना सुंदर लगने लगा था। न जाने क्या खिंचाव था अवन्ती में ... प्रतिमा खिंचती जा रही थी। अबकी बार वह उसके सामने अपना बदला रूप लेकर जाना चाहती थी। अगले कुछ दिन व्यस्तता में गुजरे। आज दस दिन हो गए थे।
अवन्ती नहीं दिखीं थी। प्रतिमा रोज जाती , केवल उससे मिलने के लिए ..उसकी बातें सुनने के लिए ...उसकी प्यारी सी मुस्कान देखने के लिए। लेकिन अवन्ती नहीं आई। प्रतिमा घूम लेती .. चक्कर पूरे हो जाते और कदम उसी पौधे के रुक जाते ... उसे कुछ पल देखती रहती ..पास बैठती..सहलाती और खुश होती। वह हरा भरा बड़ा हो रहा था। उखड़ा नहीं था ... जड़े मजबूत हो रही थी.. अब तो एक कली भी आ गई थी। प्रतिमा को उसका जीवन अब अनमोल लगने लगा था। अगले दिन प्रतिमा ने निश्चय किया कर लिया कि वह जाकर उससे मिल आयेगी। दस दिन हो गए। मन में विचार हलचल मचाने लगे थे। .'क्या हुआ होगा? शायद कहीं घूमने गए होंगे। इतनी आत्मीयता दिखा रही थी तो आकर बता तो सकती थी ... घर का पता दिया था न ... हाँ फोन नंबर न लिया था और न दिया था। ... रोज मिलते जो थे ... फिर जरूरत ही नहीं लगी। लेकिन फिर मन न माना ... 'क्या सोचेगी? बिन बुलाए मेहमान की तरह धमक जाऊँ तो क्या अच्छा लगेगा। कुछ दिन और इंतजार कर लेते है। फिर चलूंगी'। प्रतिमा ने आज फिर मन को रोक लिया। पूरे एक सप्ताह बाद राजेश घर आये थे। प्रतिमा काफी खुश थी। राजेश भी बदली हुई प्रतिमा को देख रहा था। न गुस्सा , खीज। हमेशा रूठी और उदास सी दिखने वाली प्रतिमा बड़ी शांत और बड़े प्यार से पेश आ रही थी। राजेश को बहुत अच्छा लग रहा था। वह कुछ चकित तो हुआ था ... कारण भी जानने की कोशिश की थी लेकिन प्रतिमा सफाई से टाल गई थी। उसने कांता बाई से भी जानने की कोशिश की कि प्रतिमा कैसे अचानक बदल गई पर वह भी निरुत्तर थी। जो भी कुछ हुआ था ,अच्छा ही हुआ था। वह तो खुद भी यही चाहता था कि प्रतिमा अपने आप को संभाले। मन लगाए और खुश रहे। अब तक प्रतिमा ने राजेश को अवन्ती के बारे में कुछ नहीं बताया था। वह चाहती थी कि एक दिन उसे घर पर बुलाएगी और सबको बड़ा सरप्राइज़ देगी। आज पंद्रह दिन हो गए थे। हर दिन प्रतिमा जाने का प्रोग्राम बनाती और फिर ठहर जाती। हिम्मत नहीं हो रही थी। अंत में हार कर मन ने निर्णय लिया.. 'चलो चलकर देखा जाए ..हुआ क्या है'?। ठान लिया कि अब वह और कुछ नहीं सोचेगी... मिल ही आएगी। उसका मन घबरा रहा था ... क्या पता तबीयत ही ठीक न हो। और भला उसका घर जाकर मिलना अवन्ती को क्यों खराब लगेगा बल्कि वह तो खुश होगी उसे देखकर। मिल कर आ जाऊँगी। क्या पता तबीयत अचानक बिगड़ गई हो। और उस तक खबर पहुँचे तो भी कैसे ? उसके घरवाले तो उसे जानते ही नहीं है अभी। अगर ऐसा ही हुआ हो तो कुछ दिन बाद जब भी मिलेगी तो अवश्य शिकायत करेगी....'कि प्रतिमा जी मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, मैं नहीं आई , पर आप तो एक बार आ सकती थी? एक बार भी मिलने नहीं आई'? फिर मैं क्या मुंह दिखाऊँगी? कितना बुरा लगेगा ? इसी उधेड़बुन में प्रतिमा कब उनकी बिल्डिंग तक पहुँच गई पता ही नहीं चला। शाम के पांच बज रहे थे। धूप अभी भी थी। पार्क के सामने ही बिल्डिंग थी. बिल्डिंग नंबर दो। लिफ्ट में घुसकर उसने बीस नंबर का बटन दबाया। दरवाजा खुलते ही लंबी कोरीडोर में उसकी नजरे तीन नंबर अपार्टमेंट के दरवाजे को ढूँढने लगी। घर के बाहर दीवाल पर नेमप्लेट लगी हुई थी ,'अवन्ती निवास'। उसके होंठों पर मुस्कान तैर गई। उसने उंगलियों से नेमप्लेट को छुआ। सोचा दरवाजा खोलते ही कितना आश्चर्य होगा अवन्ती जी को। मैं भी.. लेकिन ..मुंह बनाऊँगी गुस्से से। उन्हें नापसंद है न मेरा गुस्सा तो उन्हें पता तो चले कि मैं कितनी बेचैन थी उनसे मिलने को'। प्रतिमा ने अपने आप को सहज किया और बेल दबाई। आज दरवाजा खुलने की देरी भी असहनीय लग रही थी। दरवाजा खुला लेकिन एक अजनबी चेहरा सामने आया। 'जी किससे मिलना है आपको? प्रतिमा सकपका गई , फिर से नेमप्लेट पढ़ा कि कही गलत पते पर तो नहीं आ गई। 'देखिए यह अवन्ती जी का घर ही है न...? 'आइए. आइए। आप बिल्कुल सही जगह पर आईं है। वैसे मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा'। उसने प्रतिमा को सोफे पर बैठने का इशारा किया। प्रतिमा को तसल्ली हुई कि सब कुछ ठीक ही है और अवन्ती शायद अंदर होंगी ...अभी उसकी आवाज सुन दौड़ी चली आएंगी।। 'दरअसल मैं कई दिनों से आना चाह रही थी लेकिन...'। 'आपने अच्छा किया', उसने बीच में ही टोक कर कहा', 'आप आती तो घर पर ताला मिलता। पन्द्रह दिन हम घर पर नहीं थे ...काशी गए हुए थे। मेरा मायका है वहाँ और अवन्ती दीदी की बरसी भी थी न इसी लिए'। प्रतिमा को जोर का धक्का लगा। कानों पर विश्वास नहीं आया। नहीं नहीं ...क्या कहा इसने .... क्या सुना ? यह औरत क्या बोल रही है...पागल तो नहीं हो गई है यह ? होश में तो है? या नाम सुनने में मुझसे गलती तो नहीं हुई ? लेकिन इतने में उसकी निगाहें सामने दीवार पर टंगी अवन्ती की बड़ी सी तस्वीर पर जा टिकी जिस पर ताजा फूलों की माला चढ़ी हुई थी। प्रतिमा हड़बड़ाकर सोफे से उठ गई। उसे आंखों पर विश्वास नहीं आया। वह कुछ समझ पान
े की स्थिति में नहीं थी। सब कुछ नाटक लग रहा था। यह कैसे हो सकता था ? उसे लगा जैसे वह कोई बुरा सपना देख रही है। अभी आंख खुल जाएगी और सब सामान्य हो जाएगा। पांव कांप रहे थे। दिल की धड़कन तेज हो गई थी। बदन पसीने से तर-बतर हो रहा था। तभी कानों पर आवाज पड़ी.. 'पिछले साल जब दीदी की मृत्यु हुई थी न , तब ये विधिपूर्वक संस्कार नहीं कर पाए थे। और फिर घर भी नया खरीदा था। पंडित ने साफ कह दिया था कि नये घर में केवल शुभ कार्य ही करना चाहिए। फिर क्या करते। फिर एक महीने के अंदर तो मैं भी आ गई थी। मेरे आने के बाद जानती है लोगों ने बाते बनाना भी शुरु कर दिया था कि महेश्वर जी दुल्हन ले आए पर बड़ी का क्रिया-कर्म भी नहीं किया। अब लोगों का मुंह भी बंद करना था तो इस साल हम काशी गए। अनुष्ठान किया, ब्राह्मणों को भोज दिया तब जाकर इन्हें शांति मिली। और देखिए न कहते है कि मरे का संस्कार ठीक तरह से न करें तो आत्मा तृप्त नहीं होती। सब निपटाकर हम दो दिन पहले ही वापस आए है। आप बैठिए न ... वहां ही खड़ी है.... आइए न ... मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ। वैसे क्या नाम बताया आपने ?मैं राशि द्विवेदी हूँ ... महेश्वर जी की दूसरी पत्नी'। प्रतिमा की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। उसका मानसिक सन्तुलन बुरी तरह बिगड़ चुका था। जो दिख रहा था उसका अस्तित्व संदेहात्मक था और जो सुनाई दे रहा था मन उस पर विश्वास नहीं कर रहा था। बुद्धि और शरीर दोनों साथ नहीं दे रहे थे। 'प्रातिमा...प्रतिमा अग्रवाल... मैं... मैं चाय नहीं पीऊंगी। मुझे घर जाना है ... घर ...'।प्रतिमा कांपते कदमों से दरवाजे की ओर मुड़ी। 'अरे प्रतिमा जी रुकिए ...क्या हुआ? आप इतनी परेशान क्यों हो गई ? आपकी तबीयत तो ठीक है? क्या हुआ ? ...चलिए.. कोई बात नहीं ...कुछ देर आराम कर ले तो अच्छा होगा'। 'नहीं मैं चली जाऊँगी'। प्रतिमा की आवाज लड़खड़ा रही थी। .यह मिठाई तो लेकर जाइए। दीदी का प्रसाद है शायद आप के लिए ही एक डिब्बा रह गया था। दीदी तृप्त हो जाएगी'। राशि जल्दी से उठी टेबुल पर रखा मिठाई का डिब्बा प्रतिमा की हथेली पर धर दिया। प्रतिमा चेतना शून्य बाहर की ओर चल दी। अंदर लावा फट रहा था। सर घूम रहा था। कदम ठीक नहीं पड़ रहे थे। इसी घबराहट में दरवाजे पर वह महेश्वर जी से टकरा गई जो तभी अंदर आ रहे थे। गिरते-गिरते बची। उसने अपने आप को संभाला और तेजी से लिफ्ट की ओर चली। लिफ्ट बंद थी। वह बटन दबाना भी भूल गई थी। वहीं बुत सी खड़ी रह गई। तभी महेश्वर जी की आवाज सुनाई दी,' कौन थी 'वो' ? 'प्रतिमा नाम बताया था कह रही थी दीदी की दोस्त है...'। लिफ्ट का दरवाजा खुला। कोई उतरा था , प्रतिमा तेजी से अंदर चली गई। पसीने से हाथ में डिब्बे का ऊपरी कागज भीग चुका था। सांस इतनी तेज चल रही थी कि दिल हलक से निकल कर बाहर आ जाए। लिफ्ट रुकी और वह बाहर तो आ गई लेकिन अब वह अपने घर का रास्ता भी भूल गई थी। समझ नहीं आ रहा था कि उसकी बिल्डिंग किस ओर है। दिमाग पूरी तरह से सुन्न हो चुका था। हड़बड़ाहट में वह उलटी दिशा में पार्क की ओर ही चलने लगी। 'दीदी ...यहाँ कहाँ जा रही हो? और यहाँ क्या करने आई थी ? किससे मिलने?' अचानक किसी की जानी पहचान आवाज सुन प्रतिमा मुड़ी। कांता बाई थी... अपनी ननद के साथ खड़ी हुई। 'कांता... कांता ... प्लीज. मुझे घर ले चल...प्लीज.. मुझे घर जाना है'। प्रतिमा दहाड़ मार कर रो पड़ी। 'हाँ दीदी हाँ। चुप हो जाओ दीदी चुप हो जाओ। ले जाऊँगी। पर दीदी तुम यहाँ आई कैसे और क्यों"। कांता प्रतिमा की हालत देख कर डर गई थी। 'वो...वो... बीस मंजिल... अवन्ती जी ... महेश्वर जी ...बीमा एजेंट'। प्रतिमा कुछ ठीक से बोल भी न पा रही थी। 'क्या... क्या कह रही हो दीदी'? कांता का मुंह खुला का खुला रह गया। 'उस दिन मैंने तुम्हें सब बताया तो था और तुमने सुना भी था तो फिर कैसे तुम उससे मिलने चली आई'? कांता की ननद ठुड्डी पर हाथ रखकर प्रतिमा को ऐसे देख रही थी जैसे उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। 'उस पापी से, उस से तुम्हारा क्या काम? दुष्ट कहीं का ...पत्नी को खा गया... उससे मिलने तुम क्यों आई भौजी? मैं तो उसी के घर काम करती थी ... सिर में फोड़ा हुआ .. डॉक्टर बोला ...आपरेशन करने को ... लेकिन यह दुष्ट बीमा लिया था न पत्नी पर ...रोज इंतजार करता था कब मरे तो पैसा मिले और घर खरीदे... दवा दारू भी बंद कर दी नीच ने ... बड़ी तड़प तड़प कर जान निकली बेचारी की ...बड़ी भली थी ...मेरी कितनी मदद करती थी ... किसी को दुखी न देख सकती थी ...बड़ी देवी आत्मा थी ...क्रिया कर्म भी नहीं किया दुष्ट ने ...एक महीने के अंदर शादी कर ली ..दुल्हन ले आया ... कमीना ...अब बड़ा धार्मिक बनता है ... मुझे भी बुलाकर मिठाई दी ... मैंने तो उसके मुंह पर फेंक दी ... सजा देगा ... भगवान जरूर सजा देगा ... देखना ... यह भी तड़पेगा
उसी की तरह ... देखना हाँ ...आप भी मत खाना भौजी ...मिठाई फेंक दे भौजी '। कांता की ननद सिसकती हुई वह बार-बार आंखें पोंछ रही थी। प्रतिमा के कानों में सीटीयाँ बजने लगी। चक्कर आ रहे थे। धरती घूम रही थी। अब और कुछ सुनने की हिम्मत ही नहीं रही। कई सवाल पागल किए जा रहे थे ... 'वो कौन थी.... कौन थी वो? अगर वो अवन्ती नहीं थी तो क्या यह सब मेरी कल्पना था ...? ऐसा कैसे हो सकता है। नहीं ..नहीं ...। वो अवन्ती ही थी'। वह पागलों की तरह इधर -उधर देखने लगी। हाथ का डिब्बा कब का नीचे गिर चुका था और गली के कुत्ते दुम हिलाते हुए मिठाई खा रहे थे। वह बुत बनी देख रही थी। अचानक कानों में जोर -जोर के ठहाके सुनाई देने लगे ...'महेश्वर ...संहारक शक्ति...पापी...कातिल ...खूनी ...। चली जाओ प्रतिमा ...चली जाओ ...फिर यहाँ कभी मत आना'। प्रतिमा बुरी तरह से हांफने लगी ...सांस उखड़ रही थी ... उसने दोनों हथेलियों से अपने कान बंद कर लिए ... बस वह वहाँ से निकल जाना चाहती थी ... चली जाना चाहती थी अपने राजेश के पास .... लेकिन मन था जो चीख-चीख कर कह रहा था , 'अगर अवन्ती थी ही नहीं तो 'वो' कौन सी शक्ति थी था जिसने तुम्हें पुनः जीवित कर दिया ... कल्पना...मतिभ्रम ... ? और अगर 'वो' अवन्ती की आत्मा ही थी तो क्या अब वह तृप्त हो गई है ? हाँ ? ...तो कैसे ? उस पापी महेश्वर के अनुष्ठान से या मेरे पुनर्जन्म से .....'?
"चाक डोले, चकबन्ना डोले, हमारे गांव के बाहर जो वाम्हनपार का सिवान है, वहीं एक दुबला-पतला पुराना पीपल हुआ करता था। पता नहीं अब वह पेड़ है या नहीं। बचपन में जब हम गाय-भैंसें चराने सिवान की ओर जाते थे तब उसी पेड़ के नीचे चिकई, कबड्डी या कभी-कभार ओल्हापाती खेला करते थे। गांव में लोग ऐसा मानते थे कि हमारे सिवान का यह पीपल ही खैरा पीपल है। मां ने ही शायद कभी बताया था कि प्रलय के दिनों में जब सारी धरती डूब गयी थी, तब डरे हुए देवताओं और सप्तर्षिगण ने इसी पीपल पर शरण ली थी। हमारे गांव को तीन ओर से घेरने वाला गोधनी नाला उसकी जड़ों को छूकर ही आगे बहता था। हमें विश्वास था कि पूरे दुनिया के लोग इस पीपल को आदर और श्रद्धा के साथ, इसकी अनन्त अखंडता, इसकी पवित्र पुरातनता को प्रणाम करते हैं। कुछ अलौकिक किस्म के कौतूहल और रहस्य के रोमांच से अभिभूत हम उस खैरा पीपल को निहारा करते थे। बाद में, मिडिल की पढ़ाई के लिए मैंने कस्बे के स्कूल में दाखिला लिया। सातवीं में हमारे साथ पढ़ने वाला मनोहर, जो किसी दूसरे गांव का था, उसने अपने गांव के पोखर के बारे में बताया कि श्रवण कुमार अपने अन्धे मां-बाप को पीने के लिए उसी पोखर से पानी ले रहे थे, तथा दशरथ ने उन्हें शब्दवेधी वाण से मार डाला था। जब मैंने अपने गांव का महत्व बताने के लिए उसे खैरा पीपल और प्रलय की बात बतायी तो, मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि वह खैरा पीपल के बारे में कुछ नहीं जानता। जबकि मां ने बताया था कि सारी दुनिया के लोग खैरा पीपल को जानते हैं। असहमति! लेकिन, इस अर्थतन्त्र में, शेयर बाजार की गन्दगी बटोर कर जिन्होंने अपने ड्राइंग रूम को सजा रखा है, जिनकी दिनचर्या बीवी के साथ शुरू होकर टी.वी. के साथ बीत जाती है, भद्र नागरिकता का लबादा ओढ़े जिन्होंने जीवन का व्याकरण कुलीनता के 'फ्रेम' में मढ़ लिया है, उन संवेदनहीन घोघा बसन्तों का तो जिक्र भी मैं नहीं करना चाहता। उनकी नियति है कि वे लोग जार्ज पंचम से लेकर जार्ज बुश के लिए तोरण पताकाएं और बन्दनवार सजाएं, अमरबेल की इन हरी-भरी लताओं ने हर आती-जाती बयार का गीत गाया है। इनके पास भाषा का छद्म है। भीतर गन्दगी और गजालत है। ऊपर ओढ़े हुए कुलीन संस्कार हैं। इन्हीं की प्रतिक्रिया में 'काशी का अस्सी' रचा गया है। अपनी पहली पंक्ति से लेकर आखिरी पंक्ति तक यह उपन्यास इसी मध्यवर्गीय भद्रलोक की ऐसी-तैसी करता हुआ भाषा के कुलीन छद्म को तहस-नहस करता है। जो लोग बेटे का 'बर्थ डे' और गृह प्रवेश का संयुक्त उत्सव करते हैं, जिनके जीवन में हनुमान चालीसा से ज्यादा साहित्य की गुंजाइश नहीं है, होली की गुझिया भर है जिनका सामाजिक सरोकार, उन सारे भद्रजनों को कोट के बटन में गुलाब टांके नेहरू के दरबार में श्रद्धांजलि देकर हम चलते हैं 'काशी का अस्सी'। नब्बे के दशक में जहां भारतीय समाज का समुद्र मंथन चल रहा है। मन्दराचल को लपेटे वासुकि के एक छोर पर देवतागण हैं और दूसरी ओर राक्षस। कमंडल और मंडल। क्या खूब है! जिनके पुरखों ने आदमी को जातियों में बांटा था आज उन्हीं के वंशज दूसरों को जातिवादी बता रहे हैं। बहरहाल...'काशी का अस्सी' में अस्सी चौराहा एक जिन्दादिल चरित्र की तरह हर जगह मौजूद है। कभी तो देश-दुनिया, कभी नगर और कभी मुहल्ले में घटने वाली घटनाएं इस अस्सी के हाथ, पैर, मुंह, नाक-नक्श हैं जिसके बीच से इसकी आकृति उभरती और फैलती रहती है, यह अस्सी 'टिपिकल' नहीं, 'टाइप' है। जैसी बेफिक्र, मौजू और मस्त अस्सी की शाम, वैसी ही काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। नामवर सिंह के अलावा इस त्रिलोक में ऐसा कोई नहीं है जो इस भाषा के प्रहार से, मुहावरों की नुकीली धार से, बचकर निकल सके। जैसे कोई नटखट शरारती बच्चा अपने क्लास-टीचर के सामने बिल्कुल आज्ञाकारी भाव से सिर्फ कान को सजग रखे रहता है, वैसे ही बड़े भइया के सामने काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। तितली के पंख की तरह विमोहित, विहूल और स्निग्ध। छुट्टी का घंटा बचते ही रास्ते में सबसे पहले मिल गए-'दन्त कथाओं में त्रिलोचन' और फिर 'काशी का अस्सी' तक आते-आते अपने समूचे उछाह, जोश और तरन्नुम के साथ भाषा ने अपने सतरंगी पंखों को खोल दिया। जब 'हंस' में इस उपन्यास की पहली किस्त छपी तो लोगों ने आरोप लगाया कि इसमें अश्लीलता है। गो कि, यह आरोप हिन्दी की कई महत्वपूर्ण रचनाओं पर पहले भी लग चुका था। काशीनाथ सिंह ने सफाई दी-अस्सी की यही भाषा है।-मैंने पहले ही कह दिया है कि इस उपन्यास का मुख्य और एकमात्र चरित्र अस्सी ही है।-'टिपिकल' अस्सी नहीं। 'टाइप' अस्सी। कुछ लोग नमक या हल्दी को ही दाल मान लेते हैं वही लोग अपने को इस उपन्यास का नायक मान बैठे हैं। अस्सी की यह जबान गया सिंह, तन्नी गुरू या रामजी राय के ही भरोसे नहीं है। शिवजी! शंकर बाबा की जबान का नमूना-"बे धरमनाथ! कहां है बे! गधे
, सुअर, उल्लू के पट्ठे! निकल बे कोठरी से...चूतिए, मैंने बहुत बर्दाश्त किया रे। जहां मुझे रखा है, वह मन्दिर है कि माचिस?" -"पांडे़ कौन कुमति तोहें लागी' में यह जबान गालियों के 'माइक टायसन' रामजी राय की नहीं है। इसीलिए मैंने नामवर सिंह को छोड़कर पूरे त्रिलोक की बात कही थी। "हैूहें सिला सब चन्द्रमुखी। परसे पद मंजुल कंज तिहारे।। कीन्ही भली रघुनायक जू। ये रामजी राय से भी ऊंचे सुरों में 'हनुमान चालीसा' का पाठ करने लगते। सचमुच इस उपन्यास ने अस्सी की भाषा को भी बदल दिया। भाषा का भाजपाई छद्म त्राहि-त्राहि कर उठा। प्रवीण तोगड़िया की संस्कृतिनिष्ठ तुकबन्दियों का जवाब देते हुए सोमनाथ चटर्जी या सोनिया गांधी के तर्क बाल भी बांका नहीं कर पाते। जबकि लालू यादव के ठेठ गंवई मुहावरे उनकी सही जगह, किसी कबाड़ी के कबाड़ में फेंक आते हैं। दुनिया का सबसे पुराना और जीवित शहर बनारस है। जो लोग बनारस को जानते हैं वे लोग अस्सी को भी जानते हैं, तुलसीघाट, रीवां कोठी, मुमुक्ष भवन, मारवाड़ी सेवा संघ, लोलार्क कुण्ड आदि-आदि के साथ बर्फी की दुकान वाले सीताराम जादो, केदार और पप्पू की चाय की दुकानें अस्सी के आजू-बाजू को घेरे हुए हैं। 'सुख' कहानी के भोला बाबू डूबते सूरज के जिस सौन्दर्य पर अभिभूत हो गए थे, वह अस्सी की ही सांझ में है। जिन लोगों ने बनारस को चैक की तंग गलियों से गुजरते हुए पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर खड़े होकर देखा, बरबस ही उनके मुख से फूट पड़ा-सुबहे-बनारस! और जिन्होंने चना-चबेना, गंगाजल, भांग और धतूरे में छनी पप्पू की चाय से जिन्दगी गुजारते हुए वहां सड़क पर लगने वाली संसद में शिरकत की है, वह उसकी सांझ के दीवाने होकर रह गए। सुभाष राय, कामता यादव और श्रीकान्त पांडेय की तरह वे लोग देश-विदेश जाने कहां-कहां गए और कहीं जी नहीं लगा तो आखिर में अस्सी लौट आये। वहीं दम तोड़ा। गया सिंह, रामजी राय, तन्नी गुरू आदि-आदि के लिए तो अस्सी ब्याहता है। जनम-जनम के इस बन्धन में ऊब, उमस और एकरसता चाहे जितनी हो, दूसरा ठिकाना ही इनके लिए कहां है? मुहल्ले में, नगर में, देश-विदेश में कहीं कोई बड़ी घटना घटती है, उसे लेकर अस्सी पर हर सांझ बहसें होती हैं। यहां की संसद में ओसामा बिन लादेन और बुश के बराबर-बराबर वोट हैं। ज्योतिष, सेक्स, साहित्य और राजनीति की बहसों से गन्धाता अस्सी। आग चाहे कहीं लगे अस्सी के आकाश पर उसका धुआं फैल जाता। धूल और धुएं के गुबार में अलसाया अस्सी। शादी चाहे जिसकी हो, उसके साथ पहला हनीमून अस्सी ही मनाता है। यही है-'काशी का अस्सी'। शब्द चित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज की कई मिलीजुली शैली में लिखा गया हिन्दी का नया और अनोखा उपन्यास। "टूटे सींगों वाले सांड़ों का, यह अजीब सा टक्कर था। उधर दुधारु गाय खड़ी थी, राजनारायण इसी बनारसी शैली के राजनेता थे। लालू यादव चाहे जहां पैदा हुए हों, उनका जनेऊ अस्सी पर हुआ है। उनका गंवई अन्दाज, ह्यूमर, विट और सब पर छा जाने की कला यह बनारसी शैली की खूबी है, जैसे संगीत में घराना चलता है उसी तरह राजनीति का भी घराना है। यह बात दीगर है कि अस्सी पर लालू के समर्थक सबसे कम पाये जाते हैं। आज जहां पप्पू की चाय की दुकान है, हो सकता है दो-चार या दस साल के भीतर वहां कोई मल्टी स्टोरी, शॉपिंग काम्प्लेक्स बन जाय। सम्भव है, मारवाड़ी सेवा संघ किसी पांच सितारा होटल में तब्दील हो जाय। लेकिन तब भी अस्सी कहीं न कहीं मौजूद रहेगा। नाम और जगह बदलकर। यही अस्सी का महत्व है। क्योंकि आपाधापी की जिन्दगी में कुछ न कुछ ऐसे लोग बचे रहेंगे जिन्हें अपने लड़के को इंजीनियर बनाने के लिए रात-दिन हाय-हाय करते हुए अपने सुख-चैन, इत्मीनान और हंसी-ठिठोली को किसी साहूकार के यहां गिरवी रखना मुनासिब न लगे। वह लोग जरूर इस तरह भी सोच सकते हैं कि नालायक बेटा बाप का कमाया धन खाता है और डी.एम., एस.पी. जिले भर की विकास परियोजनाओं-अंधे, अपाहिजों के कल्याण का फण्ड, कोढ़ियों के इलाज का पैसा, मलेरिया उन्मूलन, साक्षरता प्रसार, बाढ़, अकाल, भूकम्प, महामारी इन सबके नाम पर करोड़ों-अरबों की रकम डकार जाते हैं। अब बताओ, लायक किसे कहोगे? 'देख तमाशा लकड़ी का' शीर्षक से 'काशी का अस्सी' उपन्यास की पहली किस्त जब 'हंस' में छपी तो उसमें हरिद्वार पांडेय (भाषण कला के बैजू बावरा) छाये हुए थे। आज पांडे जी का नामो-निशान भी अस्सी पर नहीं है। गया सिंह, रामजी राय, दीनबन्धु तिवारी वगैरह-वगैरह दूसरे-तीसरे परिच्छेदों से जुड़ते चले गए। यह लोग भी कल रहें, न रहें, अस्सी पर राई-रत्ती फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसलिए कि अस्सी देश के किसी भी शहर में, किसी नुक्कड़ के कोने-अंतड़े में, अपनी जगह खुद-ब-खुद बना लेता है। अस्सी किसी एक की वजह से नहीं है। रामजी राय, गया सिंह, तन्नी गुरू सबको अस्सी ने रचा है। चूंकि यह उपन्यास परम्परागत उप
न्यासों से भिन्न जीवित और वास्तविक व्यक्ति चित्रों के ताने-बाने, हास-परिहास से ही बुना गया है, इसलिए हमें यह भी जानना चाहिए कि अस्सी वाले गया सिंह लहरतारा वाले कबीर की तरह नहीं हैं, जो घर फूंक तमाशा देखें। इनकी जड़ें बाबा कीनाराम के मठ, एक डिग्री कॉलेज में रीडर और सुदूर पहाड़ी इलाके के महाविद्यालय में बतौर प्रबन्धक, गहरे पैठी हुई हैं। अस्सी के जनतन्त्र में उनकी निरन्तर शिरकत एक बड़े जुगाड़ तन्त्र की देन है। कहां साबरमती का आश्रम और कहां हरियाणा का भोड़सी। खल्वाट खोपड़ी, बकौल काशीनाथ सिंह, जिसमें सिर्फ भूसा और गोबर भरा हुआ है। जुगाड़ तन्त्र में चौबीस घंटे 'होलटाइमर' है। घर वह लोग फूंकें जिन्हें नौकरी की उम्मीद में डिग्रियां खरीदनी हैं। गया सिंह सिर्फ तमाशा देखेंगे। इस उत्तर आधुनिक युग में धडल्ले से शिक्षा का व्यापार चल रहा है। हर शहर में कोई न कोई शिक्षा माफिया मिल जायेगा। अपनी-अपनी हैसियत और औकात! कोई माफिया और कोई छुटभैया! यह है ऊपर से दिखने वाली मस्ती, फक्कड़पन और भांग की गोलियों का आन्तरिक रहस्य। जुगाड़ तन्त्र। अगर यही लोकतंत्र है तो लोकतंत्र का बहुरुपिया कैसा होगा? इस तरह तो अजीत सिंह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत कहे जाएंगे। ऐसे ही तर्कों से धरमनाथ शास्त्री ने अपनी पड़ाइन को बहलाया-फुसलाया और अंग्रेजिन को 'पेइंग गेस्ट' बनाकर शंकर बाबा को देश निकाला दिया था। अपने बेटों के हर गुनाह मानवीय लगते हैं। यही किया है काशीनाथ सिंह ने अपने गदरहों के लिए। अस्सी के प्रति अन्धी मोहासक्ति इन्हें इस हद तक जकड़ लेती है कि हू-ब-हू अपने पात्रों की तरह सोचने भी लगते हैं। यह घोर प्रतिक्रिया है। ड्राइंग रूम की बन्द दीवारों के भीतर निरन्तर जोड़-घटाना लगाने वाले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के दोगलेपन और उनके भाषाई छद्म से। या सम्भव है, घर के तनावों से आकुल-व्याकुल मन को यह सुकून देता हो! छायावादी कवियों के क्षितिज जैसा ही कुछ-कुछ प्रतीत होता है यह अस्सी। लेकिन इन ढेर सारी इधर-उधर की फुटकल बातों के बावजूद, चाहे कोई रहे, न रहे, अस्सी रहेगा। बावजूद गया सिंह के अस्सी बचा रहेगा। भारत के हर शहर में कहीं किसी चाय की दुकान के आसपास जहां चार-छह लोगों के बैठने-बतियाने की जगह बची रहेगी, वहीं खानाबदोश जातियों की तरह अपना डेरा-डंडा डालकर अस्सी बस जायेगा। जो जीवन की ऊंचाइयां पाने के लिए प्रवासी हो गये हैं, उनके जेहन में लड़कपन की तरह अस्सी याद आयेगा। जो असफल रह गये, एक-एक कर जीवन के सारे मुकदमे हार चुके, लोगों को सुकून देने के लिए अस्सी बचा रहेगा। डी.एम., एस.पी. या कोतवाल, अस्सी को उपद्रव की तरह देखेंगे। तानाशाह के हुक्म से बार-बार तबाह किया जायेगा अस्सी। 'इंक्रोचमेन्ट' के नाम पर हल्लागाड़ी आयेगी और अस्सी को उजाड़कर शहर का व्याकरण दुरुस्त करेगी। फिर दूसरी सांझ किसी न किसी जगह अपनी मस्ती, अपनी बे-परवाही, अपनी हंसी की छटा बिखेरता, जिन्दगी के गीत गाता अस्सी दिख जायेगा। दीवाली और होली की तरह व्यापक है काशी का यह अस्सी। मां कहती थी-प्रलय के दिनों में जब सब कुछ डूब गया था तब भी खैरा पीपल बचा रह गया था। वही खैरा पीपल जहां हम लोग ओल्हापाती खेला करते थे। आज गांवों में अलाव नहीं जलते। पता नहीं खैरा पीपल अब है या नहीं। पच्चीस-तीस साल होने को हैं। मैं इतनी देर के लिए गांव कभी नहीं गया कि जाकर खैरा पीपल का हालचाल ले सकूं। लेकिन गांव के बाहर दूर-दूर तक फैले ऊसर के टीले, जहां से 'रेह' ले जाकर हम अपने कपड़े फींचते थे, अब नहीं रह गये हैं। नागफनी के जंगल, महुवे के बाग और इन सबके बीच दूर-दूर तक फैले चरागाह, जहां हम गाय-भैंसें चराया करते थे, उनके नामो-निशान भी गांवों में नहीं रह गये हैं, अब उनकी यादें भी असम्भव हो गयी हैं। हरित क्रान्ति ने गांवों की शक्ल-सूरत बदल दी। व्यवसाय का पुश्तैनी और परम्परागत ढांचा बदल दिया। अर्थशास्त्र जानने वाले कहते हैं कि गांव की तरक्की हो गयी है। समाजशास्त्र के विद्वान कहते हैं कि रिश्तों में दरार आ गयी है। गांव के लोग कहते हैं कि अब वह बात नहीं रही। बहुत उदास-उदास लगता है। यहां रहने का मन नहीं होता। लब्बो-लुबाब यह कि इतनी उदास, मनहूस और कर्ज में डूबी तरक्की। बैंकों की मदद से हमारे गांव में तीन लोगों ने ट्रैक्टर खरीदे और तीनों के आधे खेत बिक गये। टैªक्टर औने-पौने दाम मंें बेंचने पड़े। पता नहीं कर्ज चुकता हुआ कि नहीं? पंचायती राज में लोकतंत्र को गांवों तक ले जाने का कार्यक्रम बना। फिर तो, अपहरण, हत्याएं और मुकदमेबाजी। सारे के सारे गांव थानों और कचहरियों में जाकर कानून की धाराएं रटने लगे। गांधीजी का अन्तिम आदमी, जो आजादी की लड़ाई का नैतिक तर्क और सम्बल था। आज उसके हाथों में एक तिरंगा है और वह भाग रहा है। ग्रामीण विकास बैंकों के दलदल में उसके पैर धंस ग
ये हैं। सांस धौंकनी की तरह चल रही है। भारी-भरकम सिर पेट की अंतड़ियों में फंसकर फड़फड़ा रहा है। वकील, जज, अर्थशास्त्र के विद्वान प्रोफेसर, नेता, पुलिस अधिकारी सब उसे चारों तरफ से घेर रखे हैं। सबके हाथों में एक-एक फंदा है। सब उसे ही पुचकार रहे हैं-आजादी की आधी शताब्दी का महोत्सव जारी है। अपराध के अंधेरे में चारों ओर संशय और अविश्वास की फुसफुसाहटें फैल रही हैं। अपनी ही सांसों का बोझ ढोते गांवों की तरक्की की यही दास्तान है। कितना भयावह और डरावना है अंधेरे का यह एकाकी सफर। यह सब इसलिए कि आज इन गांवों के आसपास पंडित धरमनाथ शास्त्री के सपने की तरह कोई न कोई कस्बा समृद्ध हो रहा है। इन कस्बों में भी किसी न किसी दुकान पर एक अस्सी बस गया है। यहां भी लोग गप्पें हांकते हैं। गया सिंह, रामजी राय या तन्नी गुरू की ही तरह यहां भी लोगों के कोई सरोकार नहीं हैं। समय काटने के लिए अड्डे हैं ये। पूर्वांचल के ये कस्बे अन्तर्राष्ट्रीय आपराधिक तन्त्र की नर्सरी हैं। मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी हों या फिल्म इंडस्ट्री के गुलशन कुमार इन सबके खून के धब्बे इन गुमनाम कस्बों में बिखरे पड़े हैं। हवाला, दाउद, इब्राहिम, सउदी अरब, छोटा राजन, दुबई यहां की बातचीत के विषय हैं। यह भी अस्सी का ही दूसरा चेहरा है। गया सिंह, रामजी राय और तन्नी गुरू आदि-आदि से गुजारिश है कि अपने आपको इस उपन्यास का नायक न समझें। जो स्थान अस्सी का है उसे अस्सी के हिस्से रहने दें। जहां हर कोई नायक बनने लगता है उस देश की शक्ल विदूषकों जैसी दिखती है। इतिहास के अलग-अलग कालखण्ड हैं, और जिन्दगी के अलग-अलग मंसूबे। कभी गांव में चौपालों और अलाव के इर्द-गिर्द बैठकर भी लोग बतकही किया करते थे। अब वह सब नहीं रहा। उस समय भी वहां एक प्रजाति पायी जाती थी, जिसके बारे में लोग कहा करते-"गंजेड़ी यार किसके? दम लगाये खिसके।" सुना है अब वह प्रजाति अस्सी पर बस गयी है। शहर में आकर थोड़ा-बहुत सभी बदल जाते हैं। गंजेड़ी और भंगेड़ी में अन्तर ही कितना होता है। कभी गोदोलिया के 'दी रेस्टोरेन्ट' और पास में ही किसी माखन दा की दुकान हुआ करती थी। लोग वहीं घंटों बहसें किया करते थे। साहित्य और राजनीति की गम्भीर बहसें। इस परिवेश ने बनारस में चन्द्रबली सिंह और नामवर सिंह जैसी शख्सियत को पैदा किया। और आज रामजी राय या गया सिंह अन्त्याक्षरी। छिछले चुटकुले। जब सरोकार खत्म हो जाते हैं तो यही बचा रहता है। मस्ती और फक्कड़पन की शक्ल में बहुरुपिये मसखरे पैदा होते हैं। दूसरों का मजाक उड़ाने से ज्यादा क्रूर और अमानवीय कुछ नहीं होता। 'काशी का अस्सी' में जो सामाजिक पतनशीलता और व्यक्तित्व के विघटन के चिह्न मात्र हैं वही अपने आपको नायक होने का मुगालता पाल बैठे हैं। इनकी तुकबन्दियां, इनके तर्क, इनकी भाषा किसी चीज पर इन्हें खुद का भरोसा नहीं और चाहते हैं दुनिया इन्हें ही मसीहा मान ले। अगर गया सिंह एक जीवित चरित्र नहीं होते और उनका वजूद सिर्फ 'काशी का अस्सी' उपन्यास में ही होता तो इतनी पड़ताल की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन संस्मरण से रिपोर्ताज और फिर उपन्यास तक का सफर पूरा करने वाली इस कृति की समीक्षा में इस गैर-साहित्यिक पद्धति का सहारा लेना पड़ रहा है। काशीनाथ सिंह की दिक्कत यह है कि वे रहजनों से ही ठिकाने तक पहुंचने का रास्ता बूझ रहे हैं। इस उपन्यास में काशीनाथ सिंह उस भावुक भक्त की तरह हैं जो जीवन के तनावों से ऊबकर भगवान को खोजते-खोजते किसी मन्दिर या मठ के पाखंडी पुजारी के आप्त वचनों से गद्गद होकर उसे ही जीवन का सन्देश मान लें। यह अजीब इत्तिफाक है कि डॉ. गया सिंह सिर्फ एक डिग्री कॉलेज में लेक्चरर और एक महाविद्यालय, जहां उनका छोटा भाई प्रिंसिपल है, के प्रबन्धक ही नहीं हैं, उनके जुगाड़ तन्त्र की आभा से कीनाराम मठ की भव्य दीवालें भी जगमगा रही हैं। किसी सिद्धान्त का सबसे बड़ा तर्क होता-जीवन जीने का वैसा ही मिलता जुलता ढंग वर्ना एक फ्राड पैदा होने की गुंजाइश बनी रहती है। मध्यवर्गीय तनावों को लेकर काशीनाथ सिंह ने एक से एक बेहतरीन कहानियां लिखी हैं। 'आखिरी रात', 'कविता की नयी तारीख', 'अपना रास्ता लो बाबा' आदि-आदि। काशीनाथ सिंह का जीवन, जिसे उन्होंने भोगा और जिया है और जिसे करीब से देखने का अवसर किसी न किसी तरह मुझे भी मिला है-इन कहानियों में ज्यादा वास्तविक होकर झांकता रहता है-बनिस्बत अस्सी पर लिखे इस संस्मरणात्मक उपन्यास के। 'सुख' कहानी के भोला बाबू एक सांझ डूबते हुए सूरज के वृत्त की आभा देखकर इस कदर अभिभूत और चमत्कृत होते हैं कि हास्यास्पद लगने लगते हैं। जोड़-घटाने में रत्ती-रत्ती टूट और बिखर चुकी जिन्दगी को प्रकृति का एक अति परिचित मामूली दृश्य अलौकिक आभा से सम्मोहित कर लेता है। स्थितियों और पात्रों के मामूली हेर-फेर के साथ हर अच्छी कहानी किसी आत्मकथा क
ा अंश प्रतीत होती है। "मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि मोया-मोह के जंजाल में फंसा मैं-अस्सी का प्रवासी-इस दर्शन के काबिल नहीं।" असमर्थता है। लेकिन आकांक्षा बनी हुई है। काशीनाथ सिंह और भोला बाबू के दुःख और तनाव एक जैसे हैं। भोला बाबू के लिए एक सांझ का सौन्दर्य अलौकिक प्रतीत होता है और काशीनाथ सिंह को पप्पू की चाय की दुकान। भोला बाबू नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। काशीनाथ सिंह रिटायर होने के करीब हैं। अपनी जिन्दगी में सामर्थ्य भर नक्सलवादी आन्दोलन से भी जुड़े रहे। एक सपना था-शायद भारतीय समाज की मुक्ति और इस तरह अपनी भी मुक्ति का यह रास्ता हो सकता है। यह भी हो सकता है कि लेखकीय अनुभव में खतरों से खेलने के रोमांच की जरूरत महसूस हुई हो। इसी दौरान उन्होंने 'सुधीर घोषाल' कहानी भी लिखी। 'अपना मोर्चा' उपन्यास का 'ज्वान' उन दिनों के काशीनाथ सिंह और धूमिल का मिलाजुला रूप है। लेकिन युग तेजी से बदलता जाता है। कीर्ति व्यवसायियों के हमले से एक-एक कर सबकी कलई खुलती जाती है। 'लाल किले के बाज' और 'वे तीन घर' कहानियां प्रकाशित होती हैं। आस्थाएं एक-एक कर भहरा रही हैं। काशीनाथ सिंह चुपचाप सबको देख रहे हैं, कमी विचारधारा में नहीं, उसकी व्याख्या करने वाले संगठनों में है-वह सोचते हैं। 'ग्लास्नोस्त', 'पेरेस्त्रोइका'! गोर्बाचेव का नोबेल प्राइज पर बिक जाना। बुद्धिजीवियों, कलाकारों की आस्था और विश्वास पर बीसवीं सदी का सबसे बड़ा हमला-समाजवादी सोवियत संघ का पतन। गले की हड्डी क्यूबा और वियतनाम के अपमान का धब्बा अपनी समूची बर्बर विरासत के साथ इराक पर टूट पड़ता है। खुली खिड़कियों से औपनिवेशिक बाजारवाद का प्रदूषण भीतर तक भरने लगता है। विचारधारा के क्षेत्र में उत्तर आधुनिक विमर्श का वर्चस्व। उधर शब्द अर्थ की गुलामी से मुक्त होते हैं और इधर लेखक संगठन विचारधारा के नाम पर कुछ संगठन कर्ताओं के ज्ञान दम्भ और ठगी से। जो यथार्थ हमारे आसपास वर्षों से हमें दिन-रात घेरे हुए थे, जिन्हें हम चोर निगाहों से निरन्तर देख और महसूस कर रहे थे। लेकिन प्रतिक्रियावादी होने के डर से लिख नहीं पा रहे थे, बाद के नये लेखकों ने उन्हें शिद्दत के साथ जद्दोजहद से अपनाया। हिन्दी कथा साहित्य का नया परिदृश्य जीवन की विविध छटाओं से भर गया। गुजरे जमाने के इसराइल, विजेन्द्र अनिल और सुरेश कांटक ने लिखना बन्द कर दिया। दूधनाथ सिंह ने धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे, नमोअन्धकारम और निष्कासन जैसी महत्वपूर्ण कहानियां या उपन्यास लिखे। काशीनाथ सिंह ने 'अस्सी को एक चरित्र की तरह 'ट्रीट' किया और 'रागदरबारी' की तरह पठनीय, रोचकता से भरपूर अपना महत्वपूर्ण उपन्यास 'काशी का अस्सी' लिखा। -कहिए किस पार्टी में हैं आजकल? -वे हंसे मेरी मूर्खता पर। नजरिया बदल जाता है। तीस-पैंतीस साल पहले इसी तरह के किसी रामजी राय पर काशीनाथ सिंह ने 'आदमी का आदमी' और ऐसी ही बहसों पर 'चाय घर में मृत्यु' कहानी लिखी थी। आजादी के बाद नेहरू युग के सम्मोहन में नयी कविता और नयी कहानी के भीतर रोमानी तत्व उभर रहे थे। नामवर सिंह ने कहीं लिखा है, शायद मुक्तिबोध के सन्दर्भ में लिखा है कि उस युग का महत्वपूर्ण और सार्थक लेखन नेहरू युग के जादू से मुक्त होकर लिखा गया। सम्मोहन का खतरा अस्सी से भी है। लेकिन यह सम्मोहन ही तो इस उपन्यास की जान है। अगर यह नहीं होता तो न ही इस उपन्यास में भाषा का ऐसा उछाह होता और न ही अस्सी की इस मस्ती और फक्कड़पन का ऐसा मोहक संगीत होता, जो मिठाई लाल के कंठ से फूटकर देर तक और दूर तक हमारी आत्मा में बजता रहता है। आज विश्वग्राम की अवधारणा है। हम चौराहे पर खडे़ हैं। भौचक्क और पथराये से हम। हमारे भीतर मुक्तिबोध का एक सवाल बार-बार गूंज रहा है-"कहां जायें? दिल्ली या उज्जैन।" एक सौदागरों की नगरी है और दूसरी कालिदास की। हम तय नहीं कर पाते और थक-हारकर टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं। सूचनाएं! अतिसूचनाएं! और अतिशय सूचनाएं!! सूचनाओं का अम्बार लगा है। हम भौचक और भकुवाये हुए हैं। "कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।" 'काशी का अस्सी' इसी आशय का आख्यान है। कभी भविष्य में इतिहासकारों, विशेषकर 'सबाल्टन' इतिहासकारों को अगर बीसवीं सदी के आखिरी दशक का अध्ययन करना पड़ा तो 'काशी का अस्सी' सबसे भरोसे का उपन्यास लगेगा। क्योंकि डायरी के पन्नों की तरह यहां सब कुछ ज्यों का त्यों क्रमवार दर्ज है। नेहरू युग की सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं में आई पतनशीलता को आधार बनाकर जिस तरह 'रागदरबारी' लिखा गया था कुछ वैसे ही कथा विन्यास के लिए, वैसे ही रोचकता और पठनीयता से सन्तुलन साधकर लिखा गया यह उपन्यास अपने युग का प्रामाणिक दस्तावेज और आख्यान है। आज काशीनाथ सिंह के पास हिन्दी की समृद्ध और लोकरंजक भाषा है। जो न सिर्फ भाषा के परम्परागत और शास्त्रीय ढांचे को तोड़कर विकसित हुई है, बल्कि समाज
में जो भी कुलीन प्रभामंडल का छद्म फैला हुआ है उस पर वज्रपात करके पली-बढ़ी है। भाषा का ऐसा स्फुरण और ऐसी गतिमयता कि उसके संस्पर्श से, हजारी प्रसाद द्विवेदी या त्रिलोचन को छोड़ भी दंे तो कमला प्रसाद पांडेय जैसा व्याकरण निबद्ध भाषा और कठोर अनुशासन से निर्मित जीवन चरित भी कसमसाकर शुष्क सिद्धान्तों की मर्यादा रेखा लांघने को बेताब बन्द दरवाजों की सांखल खटखटाने लगता है।
ये किताब मैं मेरी मां स्वर्गीय श्रीमती अनिमा भट्टाचार्या को समर्पित करती हुं। राजू दसवीं में पढ़ता था और सबका बहुत ही दुलारा था।राजू को किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। उसके घर में दो काम करने वाले थे एक था दिनेश काका दूसरी कृष्णा वाई। कृष्णा वाई की एक बेटी थी आनंदी जैसा नाम वैसा काम। बहुत ही खूबसूरत, खुश मिजाज वाली लड़की थी आनंदी। राजू आनंदी को अपनी छोटी बहन जैसा मानता था। राजू में ये खास बात थी कि काम करने वाले को कभी नौकरानी नहीं मानता था। कृष्णा वाई आनंदी को काम पर लाती थी क्योंकि राजू का बंगला काफी बड़ा था। आनंदी को पढ़ने लिखने का बड़ा शौक था पर ग़रीब होने की वजह से वह अपनी पढ़ाई पूरी ना कर सकी । आनंदी सातवीं कक्षा तक पढ़ी थी और हर विषय में अव्वल दर्जे का नम्बर आया था। रोज सुबह सबसे पहले कृष्णा वाई राजू के घर जाती थी। राजू के घर पहुंच कर ही कृष्णा अपने काम में लग जाती थी और आनंदी भी अपनी मां के साथ काम करती थी कृष्णा वाई ने कहा राजू बाबा आपका जूस देती हुं। राजू ने कहा हां हां ठीक है। राजू ने कहा अरे आनंदी आज पहाड़ा सुनायेगी ना। आनंदी ने हंस कर कहा हां दादा । तभी कृष्णा वाई ने कहा आज नहीं बहुत काम है और बड़ी दीदी आने वाली है। राजू बोला अरे दीदी को आने में देर है। तभी राजू के सर आ गए और वो पढ़ने अपने कमरे में चला गया। तभी घर की मालकिन सैर से आ गई और फिर बोली कृष्णा जल्दी जल्दी नाश्ता बना दे और फिर सामान भी लाना है। कृष्णा वाई ने कहा हां अनु मैम। अनु ने कहा अरे आनंदी राजू के कपड़े इस्त्री किया क्या? आनंदी ने कहा हां मैम। अनु ने कहा जा फिर सर को नाश्ता दे आ । और हां वहां जाकर बैठ मत जाना। आनंदी धीरे बोली नहीं मैम, आज दीदी आ रही है तो बहुत सारा काम है । फिर आनंदी ने जाकर सर को नाश्ता दिया। राजू बोला अरे आनंदी आज नहीं पढ़ना -सर से! आनंदी ने कहा नहीं दादा ,मैम बुला रही है। फिर आनंदी बेमन से चली गई। राजू समझ गया था कि मां ने मना किया होगा। सर बोले राजू आनंदी को मौका मिल सकता है मैं कुछ करता हूं। राजू ने कहा जी सर। फिर कृष्णा और आनंदी धीरे धीरे घर का सारा काम करते रहे। दोपहर हो गई। अनु ने कहा अब हाथ जल्दी चलाओ तुम लोग। कृष्णा मेनू देखकर सब बनाया ना। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम। कृष्णा ने कहा आनंदी आज तू किरन मैम के घर चली जा। आनंदी ने कहा ठीक है मां। अनु ने कहा आनंदी तूने रीतू का रूम ठीक किया। आनंदी ने कहा हां मैम। कृष्णा वाई ने कहा मैम मैं सामान लेकर आती हुं। अनु ने कहा हां जल्दी जा। आज दिनेश भी आधा छुट्टी लेकर गया। फिर आनंदी और कृष्णा दोनों निकल गए। आनंदी बाहर निकल कर बोली मां आज कितना कुछ बना था पर हमें नहीं मिला। कृष्णा वाई बोली हां मैं जानती हूं तुम्हें भुख लगी है। कृष्णा ने जल्दी से दस रुपए आनंदी को दिए और कहा समोसा खा लेना ।ये बोल कर कृष्णा सामान लेने गई। आनंदी भी किरन मैम के घर काम करने गई। एक घंटे बाद आनंदी राजू के घर पहुंच गई। कुछ देर बाद कृष्णा वाई भी सामान लेकर घर आ गई और उसने अनु को सारा हिसाब दे दिया। अनु ने कहा अरे दस रुपए तो कम है। कृष्णा बोली हां मैम मेरे पगार से काट लें ना। अनु बोली आज कल ज़बान चले रहे हैं तेरे। अनु के पति अमर बोले अनु अब जाने दो। फिर कृष्णा वाई रसोईघर में आ गई। तभी आनंदी बोली मां किरन मैम ने कहा कि तू मत आया कर तेरी मां को बोल आकर मिले। कृष्णा वाई ने कहा जरूर तूने कुछ गलती किया होगा। आनंदी ने कहा नहीं मां मैने तो सारा काम अच्छे से किया था। अनु रसोई में आकर बोली कृष्णा पुरी और आलू पालक ले जा और एकदम पांच बजे तक आ जाना। कृष्णा वाई बोली हां जी मैम। और फिर आनंदी और कृष्णा वाई कुछ पुरी व आलू पालक अपने टिफिन बॉक्स में भर लियाऔर अपने घर चले गए । कृष्णा वाई को राजू के घर से दो वक़्त का खाना मिल जाता था । कृष्णा का सबसे पुराना काम भी था । राजू के घर करीब सात साल से कम कर रही थी । फिर कृष्णा और आनंदी अपने घर में आ गए। आनंदी बोली मां मैम का स्वभाव कितना अजीब है ? कृष्णा बोली जाने दो आनंदी वो उम्र में बड़ी है तुमसे ।वो कुछ भी बोल सकती है।चलो अब खाना खा कर सो जाते हैं। कृष्णा ने पुरी और आलू पालक की सब्जी परोसा और दोनों खाकर सो गए। आनंदी थोड़ी देर बाद उठकर अपनी किताब कापी लेकर गणित के सवाल निकलने लगी उसका सबसे प्रिय विषय गणित है। फिर कब पांच बज गया पता नहीं चला। फिर जल्दी जल्दी दोनों घर से निकल गए और सीधे राजू के घर पहुंच गए। अनु तेजी से बोली अभी मैं फोन करने वाली थी।सुन पहले चाय बना और शाम के नाश्ते में चुरा मटर बना दे। कृष्णा बोली हां अभी करती हुं। अनु ने कहा आनंदी जाकर पौधों को पानी दे दे। आज माली नहीं आया। आनंदी ने कहा ठीक है मैम। तभी राजू बोला अरे आनंदी वह सवाल हल कर लिया। आनंदी ने कहा हां दादा। राजू ने कहा शा