chunks
stringlengths
63
4k
मृत्यु को नही चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप अमृत है । हममे से कोई अधेरे को नहीं चाहता, क्योकि हमारा स्वरूप प्रकाश है । हममे से कोई भय को नहीं चाहता, क्योकि हमारा स्वरूप अभय है। हममे से कोई दीन-हीन होना नहीं चाहता, क्योकि हमारा स्वरूप प्रभु है। अगर इस बात को समझें कि जो जो हम नहीं चाहते है, वह हमारे स्वरूप की ओर सकेत है, वह हमारे स्वरूप की ओर इशारा है । जो जो हम नहीं चाहते, उससे भिन्न हमारा स्वरूप होगा। यह चिन्तन जिसमे हो पाये, जिसका अन्तस्तल इस आन्दोलन से ग्रसित हो जाय, यह पीडा और व्यथा जिसे पकड़ ले, यह सोच-विचार जिसे पकड ले -- यह जीवन के एक-एक सत्य को पकड़ कर खीचना शुरू हो जाय कि मैं दुख क्या नहीं चाहता। मैं आनन्द का खोज रहा हूं, लेकिन मैंने आनन्द को खोया कही नहीं है । अगर यह चिन्तन शुरू हो जाय, तो व्यक्ति के जीवन में इस सारे चिन्तन के परिणाम से एक अद्भुत त्याग शुरू हो जायेगा। उसकी जो वृत्ति बिना पूछे जो बाहर खोजती थी, पूछने की वजह से छिटक जायेगी, बाहर खोजने मे रूकावट आ जायेगी और अतस्तल की तरफ भीतर की तरफ झुकाब प्रारम्भ हो
बगुले के पंख-सी झक सफेद साड़ी, सफेद मलमल का आधी बाँहोंवाला झूला, गले में सोने की भारी-भरकम कटावदार हँसली, नाक में चिरायते के आकार की कील, कानों के बड़े-बड़े खाली छेदों को ढँकने के लिए सफेद आँचल के छोर को बार-बार सिर और कानों के चारों ओर लपेटी नानी की हँसी में भीगे हुए शब्द शिवाले की घंटिकाओं की गूँज बनकर आज भी मुझ तक पहुँचते रहते हैं-तहार नानाजी रामनौमी के अखाड़ा में बाजी जीत के आईल रहलन दुलहिन, सात गाँव के लोग उनका के अपना पीठ पर चढ़ाके सगरे जुलूस निकलले रहे, ओही खुशी में दू-दू तोला कनपासा गढ़वा के ले अइलन-मेरे नाना श्वसुरजी सात गाँव पहलवानों को हराकर विजयी घोषित हुए थे। जीत की मदमाती खुशी का खुमार लिए घर लौटने लगे तो याद आया था-मलकिनी ने दही अच्छत का टीका लगाते हुए हनुमानजी को गोहराया था-ये जीतकर आएँगे तो हम मंगलवार का निर्जला उपवास रखेंगे... हे महावीर स्वामी, इन्हें जस दो ! उनकी झुकी हुई ठुड्डी को धीरे-से छूकर नानाजी हो-हो करते हँस पड़े थे-जीत गया तो तुम्हारे लिए क्या लाऊँगा मलकिनी... अपनी अबोध मानसिकता के अनुरूप किशोरी कमला नानी ने चट फरमाइश की थी... बड़का भइया आरा के बसन्तू सोनार के यहाँ से दीदीजी के लिए जैसा कनपासा गढ़वाकर लाये हैं ने ठीक वैसा ही... ! साँझ ढले नानाजी की धमकदार हँसी और गाँव-जवार के हम-उम्र युवकों की किलकारियाँ सुनकर सोलह वर्षीया कमला नानी की धुकधुकी बढ़ गई थी। माथे का लाल लहालीट चुनरी के आँचल ले झटपट माथा ढाँपती वे अपनी कोठरी में जा घुसी थीं-सिंगार की पिटारी से छोटी-सी ऐनक निकालकर उन्होंने कोठरी की मद्धिम रोशनी में अपना सिंगार-पिटार पूरा किया था-माथे की टिकुली ठीक कर माँग में सिंदूर भरती हुई वे पीछे पलट रही थीं तभी नानाजी दबे पाँव भीतर आ गए थे। उनकी बलिष्ठ भुजाओं में जीत की खुशी का बेपनाह जोर था। आँखें मेरी ओर उठाओ कमला, जरा इधर देखो तो सही... ! - बाहर तुम्हारे संघतियाँ बैठे हुए हैं बबुआ, दुलहिन से कहो - सबके लिए दूध औटाकर खीर बनाए, हम तब तक महावीरजी के मंदिर से हो आते हैं। मैं ब्याह कर आई थी तो नानी ने बड़े मनोयोग से तुरंत कार्यक्रम बनाया था - तुम्हें अपने गाँव ले जाना है दुलहिन... ! हमारे यहाँ कहावत है - सास का नैहर घूम आओ, तो सात तीरथों का पुण्य होता है। मेरे गाँव जाने की बात सुनकर ये तनिक झुँझला उठे थे - इतनी गर्मी में गाँव की धूल-धक्कड़ भरी सड़क नापने की कौन-सी जरूरत है भला। ऐसा ही जरूरी होगा तो दो-चार महीने बाद सोचा जाएगा। नानी की बड़ी-बड़ी आँखों पर झुकी घनी बरौनियों में अतीत की आर्द्र स्मृतियाँ उलझकर रह गई थीं-गाँव में अपना पुरखा पुरनिया के आत्मा बा दुलहिन, आपन ठाकुरबाड़ी बाड़ ! देवता-पितर के गोहरावे खातिर हमारा जाइके होई... तू ना चलबू त... रहे द... मैंने नानी की इच्छा को पूरा सम्मान दिया था-आप मान जाइए न, नानी हमारे भले के लिए ही कर रही हैं न... ! उनकी आत्मा को सन्तोष मिलेगा। एक दिन की ही बात है... ! तेतरिया के सिवान तक पहुँचते-पहुँचते नानी सारी हिदायतें पूरी कर चुकी थीं-पूरा घूँघट डालकर उतरना दुलहिन, गाँव में फुलवासी काकी है, सुमित्रा फुआ और रासमनी आजी है - उनके पैर छूकर असीस लेना। गाँव के खाली पड़े हवेलीनुमा घर की दालान का भारी-भरकम ताला खोलकर नानी अंदर जातीं, इसके पहले टोले भर की औरतों का मजमा उनके चारों तरफ घिर आया था - कमला आजी आ गई... ! साथ में उनकी नई नातिन पतोहू भी है। गाँव की वयोवृद्धा रासमनी आजी ने नानी को अँकवार में बाँध लिया था-गाँव के मोह-माया बिसार देलू दिदिया !-नहीं, गाँव की मोह-माया बिसार चुके होते, तो आज यहाँ... नानी ने धीरे-से सिर हिला दिया था। सुखिया बनिहारिन ने दालान के लंबे-चौड़े फर्श को चटपट झाड़ू से बुहार दिया था। फुलवासी काकी के घर से पुरानी जाजिम आ गई थी। नानी अपनी झुकी हुई कमर पर हाथ धरकर उठ खड़ी हुई थीं - सब लोगों को जाजिम पर बैठने का इशारा करती वे मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपने साथ अंदर लिवा ले गई थीं। एक-के-बाद एक छाह कोठारियाँ पार कर चुकने के बाद उन्होंने आखिरी दरवाजा खोला था - चर्र-चर्र की आवाज के साथ दरवाजे के खुलते ही रोशनी की एक तेज लहर अँधेरी कोठरी में समा गई थी - मैं नानी के पीछे-पीछे आगे बढ़ती हुई सहसा ठिठक गई थी-बेहद लंबा -चौड़ा वह आँगन स्थान-स्थान पर दीमकों की ऊँची ढूहों से अँटा पड़ा था - छह-सात हाथ से भी अधिक ऊॅंचे सूखे झाड़-झंखाड़ का चारों तरफ अम्बार लगा हुआ था - आँगन के उस पार दो कोठरियाँ दिखाई पड़ रही थीं-छप्पर एकदम उजड़ा हुआ, सामने और दोनों बगल की दीवारों में जगह-जगह गहरी दरारें। दरवाजे के मजबूत पल्लों पर जहाँ-तहाँ दीमक की खूब मीटी तहें ! नानी ओसारे पर स्तब्ध खड़ी थीं। यही आँगन था - सुबह पौ फटने के पहले गोबर माटी से इसे चकाचक लीपकर वे पिछवाड़े के कुएँ प
र नहाने चली जाया करती थीं-नानाजी की आँखें खुलें या बूढ़े श्वसुरजी सिवान से टहलकर वापस लौटें, इसके पहले नानी आधे से ज़्यादा काम निपटा चुकी होतीं। आँगन में लगे तुलसी के बिरवे में जल डालकर ठाकुर घर में जल्दी-जल्दी रामचरितमानस का पाठ कर चुकने के बाद नानी सीधी रसोईघर में चली जातीं ! नाना को बड़ी जल्दी भूख लगती थी। सबेरे-सबेरे अखाड़े से लौटकर सात-आठ मोटी-मोटी रोटियों का कलेवा कर चुकने के बाद धौरी गैया के औटाये हुए दूध का एक बड़ा कटोरा खाली कर जाते और तब कंधे पर कुदाल थामे खेती की टोह लेने के लिए निकलते। बेशुमार झुर्रियों के भरे नानी के चेहरे पर गुजरे हुए वक़्त की कचोट रिसती जा रही थी। थरथराती हथेली से मेरे कंधे को थामकर वे वापस मुड़ गई थीं-लुटे हुए मंदिर की बद्धहस्त प्रतिमा-सी नानी की दृष्टि अपने खोये हुए अतीत की विकल तलाश कर रही थी-पचास वर्ष पहले जो सुख-सौभाग्य अकस्मात् खंडित हो गया था, उसकी स्मृति उनकी बड़ी-बड़ी काली आँखों में आँसुओं की घनीभूत धरोहर बनकर बस गई थी। - आप थक गई हैं नानीजी, थोड़ी देर आराम कर लिजिए न ! साँझ का धुँधलका दालान के सामने की अमराई पर धीरे-धीरे उतर रहा था। दिया-बाती और रात के खाने की व्यवस्था पूरी कर चुकने के बाद बूढ़ी सोनबासी आजी को छोड़कर टोले भर की औरतें एक-एक करके अपने घर जा चुकी थीं। नानी ने कहा था-सोनबासी आजी से कवनो परदा नइखे दुलहिन... ! ई हमार सुख-दुख के पुरान साथिन बाड़ी। आजी ने आँगन की तरफ खुलनेवाला किवाड़ बंद करवा दिया था-अब तुम आ गई हो कमला बहिन तो घर कैसा गुलजार लग रहा है। कल सबेरे करमू कहार को बुलवाकर सारे आँगन की सफाई करवा लेना ! बाहर अँधेरा काजल की तरह गाढ़ा हो गया था और भीतर लालटेन की मद्धिम रोशनी में नानी की बहुत पीछे छूटी हुई यादें धीरे-धीरे करवटें बदल रही थीं-नींद नहीं आ रही है नानी? नानाजी की ह्ष्ट-पुष्ट देह को सोच का घुन लग गया था-बाबूजी के रहते अपने खेत-बघार की चौहद्दी नापने की जरूरत नहीं हुई थी। गाय-बैल के दाना-पानी का इंतजाम कहाँ से होता है, आरा से कब बैलगाड़ी भेजकर बीज-खाद और दूसरी चीजें मँगानी होती हैं, बनिहारों की साल-भर की खुराकी का कितना-क्या खर्च देना होता है-इस जंजाल से नाना जी सर्वथा मुक्त थे - गाँव में अपने बैरी बहुत हैं बबुआ ! तुम्हारे चचेरे भाई रामबिलास भी ऊपर-ऊपर के ही मिठबोले हैं। उनकी नीयत की खोट हमें अच्छी तरह मालूम है, इसीलिए तो हमने अपनी जिनगी में ही एक-एक इंच जमीन का हिस्सा बराबर कर दिया है। - रामबिलास को भगवान ने कोई बाल-गोपाल भी तो नहीं दिया न फिर भी इनकी धन जोड़ने की माया का कोई अंत नहीं है - इनसे दूर-दूर रहना ही उचित होगा बबुआ ! नानी ने एक बार बताया था उनकी चचेरी जिठानी के शरीर पर सोने के ठोस गहने मढ़े हुए थे। उनका वश चलता तो वे पैरों की पाजेब भी सोने की ही बनवा डालतीं। उन्होंने रामबिलास भाईजी के सामने दबी जबान में अपनी यह इच्छा जाहिर भी की थी-आँगन में बैठी बड़ी अम्मा ने जोरदार डाँट लगाई थी - भगवान से डराए के चाहीं दुलहिन, जवन सोना के राम-लछुमन के मुकुट बा, उहे सोना तहरा गोड़ में परी, धन के गुमान में अइसन अनरथ ना सोचे के चाहीं... ! नानीजी की बड़ी सास अपनी बहू से कहीं ज़्यादा ममता उनके लिए रखती थीं। उनकी जिठानी को इस बात का और भी ज़्यादा रंज था। नानी के नन्हें बेटे को अपनी गोद में लेकर दुलारती-पुचकारती उसकी हर जिद को पूरा करने के लिए आतुर रहनेवाली बड़ी अम्मा से जिठानीजी की बात-बेबात तकरार होती रहती थी। इसीलिए तो... उनके आँखें मूँदने के बाद लंबे-चौड़े आँगन में दस फीट ऊॅंची दीवार खिंचवा दी थी-दालान के भी दो हिस्से करवा दिए गए थे। नानी के श्वसुरजी ने परिस्थिति को थाहते हुए घर के अलावा बाग-बगीचे और खेत-बघार का दो टूक फैसला कर दिया था-मेरे बाद बबुआ को किसी झमेले में नहीं पड़ना पड़े। उसका बनवाया हुआ शिवाला रामबिलास भाई की जमीन में पड़ता था। नानी शिवरात्रि की पूजा करने गई थीं तो जिठानी ने चुभते हुए बोल सुनाए थे। नानी चुपचाप घर चली आई थीं। नानी से सारी बातें सुनकर उनके बाबूजी ने दूसरे दिन ही राजमिस्त्री को बुलवाकर आँगन के बीचोबीच दो कोठरियाँ उठवा दी थीं - घर में ही देवालय रहेगा। मेरी लछिमी बहू को कहीं जाने की जरूरत नहीं होगी। उन्होंने हिदायत दी थी-निरबंसिया की आह जल्दी लगती है। बच्चे को सजा-सँवारकर उधर भेजने का कोई काम नहीं है। जिस दिन नाना के बाबूजी गुजरे थे, उनकी चचेरी भौजाई सोलह-सिंगार करके बरमपुर का मेला देखने गई थी। नानाजी ने सिर हिला दिया था। मुखियाजी, सरपंच और ग्राम-सेवकजी आकर समझा गए थे-सबके माँ-बाप साथ छोड़ जाते हैं बबुआ, हर सन्तान को यह शोक सहना ही है। तुम धीजर धरो ! पिछला सब कुछ भूलकर आगे का ध्यान करो। नाना ने साफ इंकार कर दिया था-बाबूजी को गुजरे साल भर भी नहीं
बीता है, उनकी असीस लिए बर्गर हम अखाड़े में कभी नहीं उतरे... ! नानाजी की अन्यमनस्कता देखकर उनके चचेरे बड़े भाई रामबिलास ने उकसाया था-क्या सोच रहे हो बबुआ, यह सरवा हमारी अम्मा के दूध को ललकार रहा है - जरासंध की तरह इसकी टँगरी चीरकर ही इससे बदला... ! कालीचरन का अकेला अट्टहास अखाड़े के मैदान में गूँज रहा था। नानाजी स्तब्ध थे। रामबिलास भाई ने उन्हें दुबारा कुरेदा था-सुन रहे हो बबुआ यह कालीचरन क्या-क्या बके जा रहा है - हमारी देह में खून नहीं, पानी बह रहा है, हमारी ताकत पर काई जम गई है। तब तक कालीचरन गैंडे की तरह झूमता नानाजी के करीब आ चुका था - काहे रघुबंस बाबूजी, जोर करना छोड़ दिया है, क्यों? लगता है हमें बिना लड़े यहाँ से वापस जाना होगा। सारा दोष रामकृपाल महाराज का है - अरे महाराज, जब आप जानते थे कि आपके गाँव का अखाड़ा मरद-मानुस से खाली हो गया है, तब हमें किस कूव्वत पर यहाँ बुलाया था। चुरामनपुर वालों की बात मान गए होते तो अब तक वहाँ से किला फतह कर चुके होते। भरपुर इनाम-बख्शीश भी मिली रहती। बिना जोर दिखाए वापस जाने में भी कोई मजा है भला? तैश में अपनी भारी-भरकम जाँघ पर ताल ठोंकता, मूँछें ऐंठ-ऐंठकर दुष्ट हँसी हँसता हुआ कालीचरन नानाजी पर हिकारत भरी दृष्टि डालकर वापस लौट रहा था - उसी वक्त उन्हें न जाने क्या सूझी थी, कालीचरन की दाहिनी टाँग को उन्होंने बैठे-बैठै ही एक जोरदार झटका दे डाला था-अचानक हुए वार को सँभालने में असमर्थ कालीचरन मुँह के बल गिर पड़ा था। अखाड़े के चारों तरफ इकट्ठे लोगों ने जोरदार तालियाँ पीटकर नाना का उत्साह बढ़ाया था। एक उचटती हुई नजर मजमे पर डालकर नानाजी अखाड़े के बीचोबीच जा खड़े हुए थे-उनकी दहाड़ सुनकर गाँव का बच्चा-बच्चा स्तब्ध रह गया था - हिम्मत हो, तो आ जाओ कालीचरन, किसने अपनी माँ का दूध पिया है, इस बात का फैसला आज हो ही जाए ! अखाड़े में घंटे भर कालीचरन के साथ नानाजी का जोर चलता रहा था। उसकी काली-कलूटी खुली देह पर लपेट-लपेटकर अपने दाँव फेंकते नानाजी उस दिन बहुत ही फब रहे थे - पहला जोर बराबरी पर छूटा था। और दिन होता तो उनके गुरूजी वात्सल्य-विह्वल होकर बगलगीरों से कहते सुने जाते-मेरु पर्वत-सी इस कंचन काया का जोड़ गाँव भर में नहीं है भाई ! लेकिन उस दिन वे बिलकुल चुप थे। छह महीने पहले से नानाजी का नियमित अभ्यास छूट चुका था। उनके शरीर में शिथिलता के लक्षण उभरने लगे थे। अखाड़े के एक किनारे खड़े हाँफते रघुवंश नाना की थकान को भाँपकर उन्होंने इशारा भी किया था - पीछे हट जाओ बबुआ, यह आदमी नहीं नरपशु है, पहलवानी के गुण-अवगुण की परवाह इसे नहीं है। मदमाते हाथी की तरह यह बावला हो चुका है। रामकृपाल महाराज नानाजी को चेतावनी देते, इसके पहले कालीचरन उन पर अपनी पूरी ताकत लगाकर झपट पड़ा था-उसके एकतरफा आक्रमण को बचाने की कोशिश में जुटे हुए नानाजी पूरी तरह पस्त पड़ते जा रहे थे - गुरूजी ने चीखकर बरजा था - कालीचरन, जोर खत्म हुआ। अगल हट जाओ ! कैसा दुःसह शोक झेलना पड़ा होगा नानीजी को? अनुमान की आँखें उस दृश्य को झेल पाने में असमर्थ हो रही थीं। तिरिया जनम के अपराध ओही दिन पहिले-पहिल हमरा आत्मा के कचोटले रहे दुलहिन ! जिनगी के नाव बीच मँझदार में छोड़ के ऊ हाथ खींच लेलन आ हम अकेले दू-दू गो बच्चन के बोझ ढोने खातिर पीछे रह गइलीं ! गाँव भर के लोगों की धारणा थी कि कालीचरण ने रामबिलास से मोटी रकम लेकर जानते - बूझते रघुबंस नाना को खत्म करवा दिया था। यंत्रणा का चरमदबाव जब कभी उन्हें आत्मघाती की बौखलाहट सौंप जाता, तब नाना की पुष्ट भुजाएँ उन्हें पीछे ढकेल देतीं-अभी नहीं। और नानी अपने एकमात्र बेटे छत्रछाया बनकर, जीवित रहने की बूँद-बूँद सामर्थ्य बटोरती रहीं - सब साथ छूट गइल रहे दुलहिन, लेकिन अबोध बच्वन के मुँह देख के हम फेर से जिए के आस सहेज लीं। गाँववालों के अथक प्रयास से कालीचरण पर रघुबंस नाना को जान-बुझकर मारने का आरोप सही साबित हुआ था और उसने थाने में पहली ही मार खाकर सारी बातें उगल दी थीं - रामबिलास बाबू ने दो हजार दिए थे। कहा था - काम पूरा हो जाने पर पाँच हजार और देंगे..। कचहरी में पैसों का पूरा जोर रामबिलास बेदाग बरी हो गए थे। अमावस के अन्हरिया रात रहे दुलहिन... । बाबूजी के दालान में सेंध पड़ल ... ! नानी ने मुँह पर जाब चढ़ाए चोरों की संख्या का अँधेरे में ही अनुमान कर लिया था - वे छह सात या उससे भी अधिक रहे होंगे - दालान में रखे हुए वजनी संदूक का ताला तोड़कर वे चोर - बत्ती से कुछ टटोल रहे थे। नानी दबे पाँव घर के बाहर निकल आई थीं। उनके चिल्लाने की आवाज सबसे पहले करमू बनिहार के कानों में पड़ी थीं।वह झटपट बाहर आ गया था - का भइल मलकिनी? उसे दिखकर उनका बल बढ़ा था - पीछे-पीछे आने का संकेत देती हुई वे दालान की ओर झपट पड़ी थीं। आहट पाते ही चोरों ने उनके
मुँह पर रोशनी फेंकी थी और जब तक वे सँभलते की चेष्टा करते, तब तक नानी रणचंडी बनी उन पर टूट पड़ी थीं - सेंध से निकलकर भागता हुआ आखिरी चोर उनकी गिरफ्त में था-करम बनिहार ने उसकी मुश्कें कस दी थीं - गाँवभर के लोग जमा हो गए थे। थाना, कचहरी और मार का नाम सुनते ही वह बिलबिला उठा था, उसने नानी के चचेरे जेठ की ओर देखकर बुरी तरह रोना-चीखना शुरूकर दिया था - अब बचाते क्यों नहीं मालिक, पहिले तो कहा था, तुम्हारी हिफाजत का जिम्मा हमारा... अब आँख क्यों चुरा रहे हैं, सरकार...? रामबिलास बौखला उठे थे - क्या बक रहा है हरामजादा? उन्होंने गाँववालों की ओर मुखातिब होकर सफाई दी थी-देखा, हमें फँसाना चाह रहा है! ठहर साले, तेरी जीभ काट लेनी है, तुझे अपाहिज बनाकर छोड़ना है। गाँववालों की मार के डर से उसने सब कुछ कबूल कर लिया था। चुरामपुर के जदु टोले के छह जन थे। गहने की पिटारी को बाकी साथियों ने पहले ही पार कर दिया था। तलाश करने पर गहनों का सुराग भी मिल गया था - आधे से ज़्यादा सोने के गहने बक्सर के भीखन सुनार ने गला दिय थे। नानी ने पूरे संदूक की चीजों को उल्ट-पलटकर देखा था - खेल बघार के बँटवारे के जरूरी कागज भी संदूक से गायब थे। उन कागजों का अंत तक कोई पता नहीं चल सका था। नानी की आँखे दालान की मोटी धरन पर टिकी हुई थीं - जिनगी में जबन लड़ाई हम लड़ने बानीं, ओकर कवनों आर-पार दुलहिन...। अखिलेश मामा गाँव के सिवानवाले स्कूल में पढ़ते थे। वे जब तक घर वापस नहीं आते, तब तक नानी का मन अशांत रहता... रामबिलास, उनके चचेरे जेठ की क्रूरता ने पतिकार का कोई भी अवसर नहीं छोड़ने की जैसे सौगंध ले रखी थी। तेईस वर्ष की युवा विधवा पर जितने भी अपवाद लगाए जा सकते थे - लगाए गए। करमू बनिहार और उसकी औरत को बहला-फुसलाकर तैयार किया गया - अखिलेश मामा के दूध में कुछ मिला दे या स्कूल मिला दे या स्कूल से लौटते वक़्त बंसवारी के एकांत में उन्हें ...! कई बार उसनकी खड़ी फसल कटवा ली गई थी, जिस रोज उनकी खलिहान में आग लगाने की कोशिश करता उनके चचेरे जेठ का मुँहलगा बनिहार मौके पर पकड़ लिया गया था। उस रोज नानी ने उन्हें पहली बार आमने-सामने चुनौति दी थी - अबला समझ के हमरा के पछाड़े के कोशिश मत करीं भाईजी, मौका पड़ी त s हम हल के मूठ पकड़ के आपन बव्वन के आहार जुटा सकेंली... ! लेकिन राउर मन के डाह रउवा के ले डूबी-हमार खलिहान जला के रउआ बाँच जाइब ना होई ! निपढ़, निरक्षर नानी ने आरा के इजलास में जाकर सैकड़ों लोगों के बीच बड़ी दबंग गवाही दी थी - भाईजी ने हमारा घर उजाड़ने में कोई कोरकसर बाकी नहीं छोड़ी! अखिलेश के बाबूजी की हतियाके पीछे इनका हाथ... । ये चाहते हैं कि हमारे दोनों बच्चे मर-बिला जाएँ और ये हमारे हिस्से की सारी जायदाद हड़पने का मौका पा सकें ! नानी ने न्यायाधीस के जमीर को ललकारा था... हम पढ़ल-लिखल नइखीं जज साहेब, तबो आपन बच्वन के पालन-पोसन के औकात जुटवले बानीं। लेकिन ई अत्याचारी रावण बनिके हमरा पीछे पड़ल बा! रउआ राज में न्याय होखे त दूध-के दूध पानी-के-पानी करीं... ! नानी के बयान ने केस को नया मोड़ दे दिया गया - जेलखाने में सजा की मियाद भुगत रहे कालीचरण को पुलिस के कड़े पहरे में इजलास लाया गया था। रामकृपाल महाराज, करमू बनिहार, सोनवासी आजी और गाँव के दूसरे लोगों की गवाह हुई थी। दो महीने बाद फैसला सुनाया गया था - रामबिलास शातिर अपराधी है। उसकी हर गतिविधी से षड्यंत्र की गंध मिलती है ओर यदि उसे छोड़ दिया गया तो वह आगे मुसमात कमला देवी के लिए नई विपद खड़ी कर सकता है। सभी गवाहों को गौर से देखने के बाद नानी के जेठ को पाँच वर्षों की बामशक्कत कैद की सजा सुनाई गई थी। उस दिन नानी की आत्मा को पहली बार गहरे तनाव से मुक्ति मिली थी - ठाकुरबाड़ी में गइलोत तहार नाना के बोली कान में गूँजे दुलहिन... नाना की आत्मा परिशांत थी - तुमने बहुत बड़ा काम किया है मलकिनी ! हमें अन्याय से परास्त किया गया था। कालीचरण ने मौका देखकर मेरी अंतड़ियों में कोहनी की चोट दी थी - लेकिन हम आश्वस्त है - अखिलेश बबुआ तुम्हारी देख-रेख में खूब हिम्मती बनेंगे, हमें भरोसा है। बेटी का कन्यादान करके नानी ने एक बोझ से मुक्ति पाई थी - उन्हीं दिनों अखिलेश मामा को आरा के सरकारी स्कूल में मास्टरी मिल गई थी लेकिन उन्होंने अपनी दिनचर्या भी सोच ली थी - सुबह जाएँगे और रात के पहले गाँव लौट आएँगे। नानी को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं था - रात-बिरात गाँव के सुनसान पड़े रास्ते पर अकेले घर लौटना... नानी ने तय किया था, वे बेटे के साथ आरा में ही मकान लेकर रहेंगी। गाँववालों घर की आधी कोठरियों में ताला बंद रहेगा। करमू और उसके बाल-बच्चे खेत-बघार और घर की अगोरिया करते रहेंगे। दूसरी सुबह जंगल की शक्ल ले चुके आँगन की पोर-पोर सफाई करवाती हुई नानी तनिक उत्कंठित थीं - पहली बार गाँ
व छोड़कर आरा गई थीं, तब लौटने में महीने भर की देर हो गई थी दिन-रात खेत अगोरने के फेर में करमू बनिहार घर-आँगन की सफाई करना लगभग भूल ही गया था। नानी ने उस घर की दुर्दशा देखकर उसे तनिक डपट दिया था। करम बनिहार का तर्क भी अपनी जगह पर बिलकुल ठीक था - रामबिलास भाई के घर को अगोरने के लिए, उनकी खेती-बारी देखने के लिए, उनकी ससुराल के दो लड़के जिठानीजी के साथ रहने लगे थे। उन उन दोनों की ऊधम के मारे टोला परेशान था-नानी की जिठानी दिन-रात उन्हें उकसाती रहतीं और वे करमू बनिहार की अनुपस्थिति में, आँगन की दीवार फाँदकर इधर चले आते और आँगन में पड़ा सारा सामान तितर-बितर कर डालते। इतना ही नहीं, उन दोनों ने एक बार ठाकुरघर का ताला तोड़कर पूजा के सारे बर्तन भी चुरा लिए थे। नानी ने लगातार महीने भर लगकर सारी गृहस्थी फिर से सहेजी थी। आँगन-घर चम-चम चमकने लगा था। मुखियाजी अखिलेश मामा के लिए एक रिश्ता लेकर आए थे। अगुआ से लड़की और उसके खानदान के विषय में सुनकर नानी उमग उठी थीं-उन्होंने चटपट बात दे दी थी-तहरा सास के विदाई के बाद घर-दुआर काटे दउरत रहे दुलहिन, अखिलेश बबुआ काम पर निकल जासु आ, हम अकेले पड़ल छत के कंडी गिनत रहब ! अखिलेश मामा के ब्याहवाले दिन की याद करती नानी के पोपले मुँह पर उछाल की नई लहर दौड़ गई थी-रेशमी कुरता, पियर धोती, मलमल के चटक गुलाबी चादर, गोड़ में लाल टहकार आलता ! तिलक के दिन बबुआ हरदी रंगल पीढ़ा पर बइठले त कलेजा जुड़ा गइल रहे दुलहिन ! अखिलेश मामाजी ने हूबहू नानाजी की आकृति पाई थी - पतले होंठ, खूब तीखी नाक और दप-दप करता ऊँचा ललाट-बेटे के माथे पर दही-अच्छत का टीका लगाते हुए नानी की देह अवश हो चली थी। सोलह साल पहले लुटा हुआ सौभाग्य उनके कलेजे को अचानक दहकाने लगा था - आज अगर वे होते हो... उनके साथ गँठजोड़ करके वे अपने कुल-देवताओं को गोहरातीं-पीली गोटेकार साड़ी पर भर माँग सिंदूर डालकर वे बेटे का परिछावन करने निकलतीं! नाना के दिए हुए कनपासे उन्होंने संदूक में सहेजकर रख दिए थे - अपने हाथों से उन्होंने वे कनपासे नानी को पहनाए थे - इन्हें कभी मत उतारना मलकिनी... ! नानी ने गुमान से उनकी चौड़ी चकली छाती पर अपना मुँह सटाते हुए कहा था - आप इतना सब कुछ मत बोलिए, हमें अपने भाग पर आप ही डर लगने लगता है। एक दिन सुबह-सुबह में सिंदूर डालना भूल गई थी - नानी ने मुझे तुरत टोक दिया था- तिरिया के सिंगार चुटकी भर सिंदूर होला दुलहिन । ओकरे बिना सब सूना बाS। जा सिंदूरानी के ले आवS। ईश्वरीय विधान ने सिंदूर का अधिकार छीनकर नानी को जन्म भर का परिताप दे डाला था, लेकिन उस परिताप की पहली कचोट उन्हें अखिलेश मामा के ब्याह पर मिली थी - बारात जाने के पहले वे जान-बूझकर ठाकूर घर का दरवाजा भिड़काकर अंदर बैठ रही थीं - बेटे की जिनगी की सबसे शुभ घड़ी है, उनकी अशुभ छाया उस पर हरगिज नहीं पड़े। सोनबासी आजी समझ गई थीं। माँ-माँ की गुहार मचाते अखिलेश मामाको उन्होंने इशारे से बता दिया था - दूल्हे का जोड़ा - जामा पहने हुए वे उल्टे पाँव वापस लौट आए थे - अम्मा, तुम रो रही हो-क्यों अम्मा, तुम्हें हमारी कसम है। अगर तुमने सच-सच नहीं बताया तो हम घर से बाहर कदम नहीं रखेगे... नानी ने जल्दी से अपनी आँखे पोंछ ली थीं - बहुत दुःख मिला है बबुआ अब सुख के दिन लौटेंगे न, तो भगवान को मना रहे थे कि किसी की बुरी दीठ नहीं लगे ! मामीजी बयाह कर आईं तो नानी ने संदूक खोलकर नाना के दिए हुए कनपासे उनकी हथेली पर रख दिय थे-तहार ससुरजी के निशानी दुलहिन... ! मामी को आए साल भर भी नहीं बीता था - नानी के पास खबर आई थी - कुमुदिनी अस्पताल में भरती है, तुरत आ जाएँ... ! घर-गृहस्थी का सारा भार मामी पर डालकर नानी अकेली ही दानापुर गई थीं। हमरा गोदी मा बचिया के देह छूटल दुलहिन-जवना कोख से जनम देले रहलीं-ओही कोख में उनकर माटी सहेज के रात भर अस्पताल में बइठल रहलीं ! चार गो चिरई-चुरमुन छोड़ के हमार बचिया आँख मूँद ले लीं। दामाद की पीड़ा को अपनी पीडा़ मानकर उन्होंने बेटे के सामने प्रस्ताव रखा था - छोटे-छोटे बच्चे माँ के बिना बिलख रहे हैं। बबुआ, मेरा वहाँ रहना जरूरी है। घर दुलहिन देख लेंगी, हम भी बीच-बीच में गाँव आते रहेंगे। मामाजी ने राय दी थी-क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बच्चों को यहीं गाँव में ले आया जाए... । तुम्हारा वहाँ रहना... गाँववाले क्या कहेंगे अम्मा? नानी के तर्क से वे परास्त हो गए थे - तुम्हारे रामबिलास काका जेहल की कैद से छूट गए हैं। उनकी नीयत की खोट पहले से चौगुनी हो गई है बबुआ, बेटी के अबोध बच्चों को यहाँ रखना खतरे से खाली नहीं है - यह गेहुँ अन साँप कब फन काढ़कर किधर से हमें डँसेगा-इसकी खबरदारी रखना होगी। तुम और दुलहिन भी खूब होशियारी से रहना। आपन आत्मा के गवाही मान के हम फैसला कइलीं दुलहिन... ! गाँव-जवार की उचित-अनुचित
बातों को अनसुनी करके नानी अपने विवेक की राह पर आगे बढ़ निकली थीं। मैं उन्हें बीच में टोके बिना नहीं रह सकी थी-भगवान ने आपको इतना सुख दिया नानीजी - फिर भी आप सुबह-शाम उसी भगवान की गोहराती रहती हैं- आपके मन में कभी कोइ शिकायत नहीं उपजती? कोई खीझ नहीं, किसी तरह का आक्रोश नहीं... नानी ने हँसकर सारेदुख सहार लिए थे- भगवान के घर में हमारे सभी कर्मों का लेख रहता है दुलहिन, वह उचित समय पर उचित सजा देने का पूरा हकदार है, उसकी अदालत के खिलाफ हमें उठाने की कोई मोहलत नहीं... । मैं इस बात से सहमत नहीं थी - नानाजी के चचेरे भाई रामबिलास से बढ़कर पापी कौन होगा, उनकी मूँछों का डंक क्यों नहीं झड़ा नानीजी, जेल से छूटकर भी वे उसी तरह शेर-बबर बने घूमते रहे और आप घड़ी-घड़ी आशंकाओं की सलीब पर चढ़ी अपने परिवार की खै़रियत मनाती भीतर-ही-भीतर टूटती-बिखरती रहीं-ऐसा क्यों हुआ? मामी ने उसी रात वे कनपासे उतारकर रख दिए थे। नानी के पूछने पर वे आत बदल बैठी थीं - बहुत भारी हैं, कान दुखने लगता है। उनकी गैरहाजिरी में जिठानी जी की आमदरफ्त की बात उन्हें सोनवासी आजी ने बताई थी- नई-नई बहुरिया है, रामबिलास की बहू इसे जरूर कोई पट्टी पढ़ा रही है बहिन... तुम जरा होशियार कर देना... । नानी की बात को अनुसूची करते हुए मामी उनकी जिठानी जी के साथ बदस्तूर मिलती रही थीं। अखिलेश मामाजी की चेतावनी का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ा था - वे दुश्मन होंगी आपकी अम्मा की, हमारे साथ तो खूब मीठी बातें करती हैं और हमारा भी तो मन बहलना चाहिए न... । मामी और नानी में जबर्दस्त कहा - सुनी हुई थी - नानी आहत मन लेकर दानापुर वापस लौट गई थीं। उन्हीं दिनों मामाजी डिप्टी कलक्टरी की परिक्षा पास करके नया ओहदा पा गए थे। उकनी पहली नियुक्ति छपरा में हुई थी - उन्होंने दबी जबान में नानी से कहा था - अम्मा, वहाँ बड़ा बँगला मिला है, नौकर-चाकर भी हैं, तुम्हारे लिए गाय पोस लेंगे, तुम बच्चों को लेकर हमारे साथ चलो...। नानी राजी नहीं हुई थीं - तहार ससुर के दोष नइखे दुलहिन, ऊ कभी रोक ना लगवले। नानी कबूलती थीं कि छोटे-छोटे नाती-नातिनियों को ममता ने उन्हें जकड़ लिया था। वे मामा के पास कभी दस-पंद्रह दिनों से अधिक नहीं ठहर पाई थीं...। भगवान के खिलाफ नहीं, लेकिन मामी के खिलाफ नानी ने आवाज जरूर उठाई थी। गहरी शिकायत का स्वर उनकी खोखली छाती में रह-रहकर उमड़ता रहता था-जिस दोमुँहे साँप से हम सबको खबरदार करते रहे, उसे हमारी ही पुतोहू ने दूध से भरा कटोरा पिलाया। रामबिलास की पत्नी मामी के पास किसी-न-किसी बहाने आती रहती थीं-अपने दोनों भतीजोंको उन्होंने मामी के हवाले कर दिया था - बिना माँ-बाप के बच्चे हैं कनिया, अखिलेश बबुआ से कहकर इनकी चाकरीका कहीं कोई जोगाड़ लगवा दो... । मामा की लंबी-चौड़ी बैठक में बिवाइयों से भरे गंदे पैरों को सोफे की गद्दी पर आराम से फैलाये वे दिन भर अपनी चंडाल-चौकड़ी जमाए रहते - मामा के ऑफिस चले जाने के बाद मुहल्ले के सड़क छाप युवकों का वहाँ जमाव होता, ताश की बाजी जमती और मामी भीतर से उनके चाय-नाश्ते का बन्दोबस्त करती रहतीं। मामाजी का आपत्ति भी होती, तो मामी उन्हें निरूत्तर कर देतीं- आप चार-चार पाँच-पाँच दिन टूट पर रहते हैं। इतने बड़े घर में हमसे अकेले नहीं रहा जाता।ये बच्चे रहते हैं तो इनसे हँस-बोलकर जी लगा रहता है। और फिर आपकी दुश्मनी तो बड़े काकाजी से थी, अब तो वे भी नहीं रहे। अपनी चचिया सास के लिए मामी की अधिक सहानुभूति थी। मामा कभी-कभार दानापुर आते तो जिद करते-बच्चों को लेकर इस बार साथ चलों न, अम्मा। तुम वहाँ रहोगी तो फालतू लोगों की भीड़ छँटेगी। हमें चैन की साँस लेने का मौका मिलेगा। नानी ने तीखे शब्दों में बेटे की बातों का विरोध किया था - कचनार बेंत की टहनी को जितना झुका सको, झुका लो लेकिन सूखी हुई बेंत को मोड़ने की कोशिश अपने-आप में बड़ी नादानी होगी बबुआ, दुलहिन अपने आप सारा मलिकाँव ले बैठी हैं, तुमने पहले ही उसे पूरी छूट दे दी। अब हमारा दबाव उन पर नागवार गुजरेगा, भवगान की यही मर्जी थी... । नानी ने दो-टूक जवाब दे दिया था - बेटी का घर अगोर रहे हैं, अपने समाज में यह अपमानवाली बात तो है ही बबुआ, लेकिन तुम्हारे घर जाकर दिन-दिन भर अनादर की रौरव यंत्रणा भुगतने से तो अच्छा है कि जिनगी के बचे-खुचे हिस्से को इन्हीं बाल-बचचों के बीच खरच दिया जाए। ये बड़े हो जाएँगे तो देख जाएगा- गाँव का घर तो कहीं नहीं गया है न। मेरे विवाह के दो वर्ष पहले वह घटना घटी थी - मामी की हठीली मानसिकता से अखिलेश मामाजी भतीर-ही भीतर बहुत सन्त्रस्त रहने लगी थे। उनके घर अयाचित अतिथियों का दिन-दिन भर मजमा जुआ रहता और वे कुछ नहीं कह पाते... । कभी क्षीण विरोध करते भी तो मामी खटवास ले लेतीं, उनका मौन तिरस्कार मामा के लिए और भी घातक होता... । दिन-रात
की कुढ़न का असर उनके अस्वास्थ्य से उपजा हुआ चिड़चिड़ापन उनकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग बन गया था। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता, जब वे घर में गर्जन-तर्जन नहीं करते - मामी उनसे बहस करतीं तो वे दीवारों पर अपना सिर पटकने लगते... अपनी दोनों मुट्ठियों से अपने ही सिर के बाल बेतहाशा नोचते लगते... । क्रोध के भयंकर तनाव की अवस्था में एक दिन उन पर हृदय-रोग का भयंकर आक्रमण हुआ था। एक सप्ताह से अस्पताल में भर्ती थे, तब नानी को सूचना मिली थी। मेरे छोटे देवर के साथ वे तुरंत छपरा पहुँची थी - हमरा के देखते बबुआ रोवे लगते। मामा ने नन्हें शिशु की तरह बिलखते हुए नानी के आँचल में मुँह छिपा लिया था - हमें छोड़कर मत जाओ अम्मा, ये लोग मुझे जिंदा मार देंगे। कोई भी मेरी खोज-खबर नहीं लेता - सब घर में मौज कर रहे हैं। रात-भर मामा अकेले छटपटाते रहते थे। वहाँ एक गिलास पानी देनेवाला भी कोई नहीं था। मामी ने साफ मना कर दिया था- हमसे अस्पताल की गंध सही नहीं जाती। दिन भर बैठ जाएँगे, लेकिन रात में वहाँ नहीं रहना है। बाप रे, डिटौल और दवाइयों की महक तो वहाँ दम घुटता है। मामा के चेहरे की खोई हुई कांति फिर लौटने लगी थी - वे जब तब नानी का खूब दुलार करते - इस बार अच्छा हो जाने दो अम्मा, तुम्हें तीरथ पर ले चलूँगा, हम दोनों माँ-बेटे चारों धाम घूमकर आएँगे... । तुम्हें द्वारिकाजी जाने का शौक भी तो है न... । नानी की जिद से मामा को पटने के बड़े डॉक्टरों को दिखाया गया था। उन्होंने पूरे आरामकी सलाह दी थी - नानी ने ही प्रस्ताव रखा था - तुम्हारी बदली पटना नहीं हो सकती क्या बबुआ, यहाँ रहोगे, तो हमें भी सहूलियत होगी... । मामा की अर्जीपर विचार करतेहुए सचिवालय में उनकी बदली का आदेश भी आ गया था। उस दिन मामाजी अपने नए पद का भार लेनेवाली थे। छपरा से पटना आने की तैयारी हो रही थी। ऐन वक्त पर मामी की मति पलट गई थी - उन्होंने जिद ठान ली थी - हम पटना नहीं जाएँगे..। आप माँ-बेटे वहाँ रहें, हम बड़ी अम्मा के भतीजों के साथ अपने नैरह चले जाएँगे... । मामा ने पलटकर उन पर हाथ चला दिया था - जहाँ जाने का मन है, चली जाओ, अम्मा के खिलाफ एक शब्द भी निकाला तो आज तुम्हारी खैरियत नहीं है। नब्बे वर्षीया नानी के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों की बेशुमार लकीरों में उनकी उम्र भर की पीड़ादायी इतिहास उभर आया था - एकमात्र पुत्र की मृत्यु के वज्राघात को उन्होंने अदभूत धैर्य के साथ सहा। बेटे के माथेपर चंदन का अवलेप लगाकर उसे अंतिम विदा देती हुई नानी ने नियति को ललकारा था - दो, और कितने दुख देने हैं, मेरी झोली खुली है। मामी ने विलाप करते हुए उन्हें जी भरकर कोसा था - हमारा सुख आपसे नहीं देखा गया न, आप तो चाहती ही थीं, कि आपकी ही तरह मेरी भी गति हो। नानी निर्वाक् अपनी बहू के वचन-दंश झेलती रही थीं-पुत्रवधू के वैधत्व को विस्फारित नेत्रों से देखती हुई वे स्तब्ध हो गई थीं - ईश्वर ने पिछले जन्म के कर्मों का भोग दिया है। जीवन-युद्ध में कभी हार नहीं माननेवाले योद्धा की तरह नानी अपनी मानसिकता में अटूट आस्था सँजोए हुए सब कुछ झेलती रही थीं। मुझे कोहबर घर की ओर ले जाती वे उतनी ही मगन थीं - साल बीतने दो दुलहिन, गोदी में बाल-गोपाल होना चाहिए, नहीं तो हम तुम्हें वापस नैहर भिजवा देंगे, अपने नाती का दूसरा ब्याह रचाएँगे...। मेरी मुँह-दिखाई के समय उन्होंने पड़ोंस की सुनयता चाची से कहा था - हमार बेटी रूप बदल के आ गइली बचिया, ओइसने रंग-रूप, ओइसने सुभाव...। नानी के खुले विचारों को देखकर मैं आश्वस्त थी - किसी तरह की कोई बाध्यता नहीं....। पहले दिन ही उन्होंने सिखाया था - लाज तिरिया जात के नजर में होला, दुलहिन, मुँह पर आँचर रहे आ बहकत रहे, अइसन ढोंग कवनों काम के ना। नानी के गाँव से दूसरे दिन विदा हुई थी, तो मन में उनका दिया हुआ संकल्प था और आँखों में उनके स्वाभिमान की परछाई उमड़ती चली आ रही थी - स्त्री-जाति की घोर अवहेलना के जिस युग में उनहोंने अपनी अपूर्व साहसिकता का परिचय दिया था, सैकड़ों अपवाद झेलने के बाद भी मिठी हंसी हँसती हुई जो अपनी नियति को ललकारती रही थीं - उनका सान्निध्य मुझे गौरव की दीप्ति दे गया था - आप जैसा असाधारण जीवट सबमें नही हो सकता, नानीजी। उनकी प्रबल इच्छाशक्ति के सामने मैं विनत थी। नानी ने हँसकर मेरे माथे पर अपनी दाहिनी हथेली रख दी थी - बोलS कवन असीम चाहीं? मैं कुछ नही कह पाई थी। उन्होंने ही अपनी ओर से वाक्य जोड़ा था - असीम देत बानी-हमार उमिर ले के जियS हमार भाग ले के ना। गाँव से लौटकर नानी ने मेरे श्वसुरजी के सामने एकाध-बार इच्छा व्यक्त की थी - अब आप फिर से घरबारी हुए, बच्चे भी औकातवाले हो गए - हमें छुट्टी दीजिए... । गाँव घर उजाड़ हो गया है, वहाँ भी तो देखना-सहेजना होगा न... । मेरे आँसुओं ने नानी के क्षीण तर्क को परास्त कर दिया था -
गाँव में अब क्या रह गया है नानीजी, आप हमें छोड़कर मत जाइए... । मेरे आते ही आप ऐसा क्यों सोचने लगीं, जरूर मुझसे कोई बड़ी भूल...। नानी ने अपनी हथेली से मेरा मुँह बंद कर दिया था - ना दुलहिन, हमरा कबनो तकलीफ नइखे। ठीक बा, जे तू लोग चहबू उहे होई। नानी की कठोर दिनचर्या अब धीरे-धीरे शिथिल होती जा रही है - इन दिनों वे अक्सर नानाजी के पुराने किस्से-कहानियों में डूबती-उतराती रहती हैं - पहलवानी देह रहे दुलिहन, तीन-तीन आदमी के पीठ आ कान्हा पर बइठा के सगरे गाँव के फेरा लगा आवत रहलन - अब ओइसन मरद-मानुष कहाँ बाS। मैं नानी से कहा करती-आपकी तरह बुलंदी से सौ वर्ष जीनेवाली औरतें भी नहीं दिखाई पड़ती नानीजी, इस उम्र में भी आप इतने सारे काम कैसे सँभाल लेती हैं? नानी अपनी झुकी हुई गर्दन की अस्त-व्यस्त हँसुली को दुरुस्त करती कहतीं - हमारे जमाने में दुध-घी का सुतार था दुलहिन - काछा खूँटकर (मर्दों की तरह धोती बाँधकर) ढेंकी कूटते, चक्की पीसते और डटकर खाते थे - बाजरा ज्वार कुछ भी हो, अन्न पेट में जाना चाहिए... तुम लोगों की तरह चुन-चानकर नहीं खाते थे न... । नए जमाने की मरियल लड़कियों को नानी ने मुर्गियों की उपाधि दे रखी थी - ये खाती थोड़े ही हैं - दुलहिन, खाली चुगती है - माँ-बाप का अनाज बचाती हैं। कभी-कभी वे बड़ी गम्भीरता से कहा करती थीं - तुम्हारे नानाजी अखाड़ेबाज थे न दुलहिन - हमारी जिनगी के लिए घर में ही एक अखाड़ा खोल गए - लो, करम भागों से जुझती रहो। नानी का शरीर क्रमशः क्षीण होता जा रह है। अब पहलेवाली पाचन-शक्ति भी नहीं रही। दूध-रोटी या दूध-भात के दो-चार कौर मुश्किल से पचा लें, तो बहुत है। कंधे तक झूकते बालों का बोझ भी उनसे बर्दाश्त नहीं होता-अब यह जहालत कटवा दो न दुलहिन, ये केश रहें, न रहें, सब बेकार है। नानी के झक सफेद बाल लड़कों की तरह छोटे-छोटे कटवा दिए गए है - उनके छोटे से चेहरे पर ये कटे हुए बाल बहुत अच्छे लगते हैं - मैं अक्सर परिहास करती हूँ - आपको अंगरेजिनों वाला लंबा चोगा पहना दिया जाए तो आप बिलकुल मेम साहब लगेंगी। नानी शांत हँसी हँस देती हैं - पहना दो, जो जी चाहे, करो...। नानी का दुर्बल शरीर क्रमशः अक्षमता की ओर बढ़ता जा रहा है। आधी रात में बाहर जाना हो, तो अपने-आप कमरे से ही आवाज लगाती हैं - तनि सहारा द दुलहिन अब तहरे लोग के आसरा बा। बात-बात में अपनी आसन्न मृत्यु की चर्चा करती हुई वे खुलकर हँस पड़ती हैं - अब बिसाती आपन दोकान सहेजले चाहता दुलहिन-आइल गवनवा के सारी... नानी के थरथराते गले में निर्गुण के बोल काँप-काँप जाते हैं। इन दिनों रामचरितमानस के एक ही प्रसंगपर उनकी रुचि केंद्रित हो गई है - जन्म-मरण, सुख-दुःख, हानि-लाभ और प्रियजनों का मिलन वियोग - ये सारे प्रसंग काल के अधीन हैं। अज्ञानी सुख में हर्षित होते, दुःख में रोते हैं। अब सारे भोग अंतिम अवसान की प्रतिक्षा में हैं - आखिरी समय नजदीक आवत बाS दुलहिन। मैं उन्हें मना करती हूँ - ऐसी बात मत कहिए नानी, अभी आपको जीना है, हमारे लिए...। बात बदलने के लिए मैं उन्हें पुराने किस्से-कहानियों की ओर मोड़ना चाहती हूँ। लेकिन उस ओर भी उनका कोई उछाह नहीं रह गया है - हमार जिनगी के किस्सा-कहानी में कवनो रस नइखे दुलहिन, ऊसर जमीन के कोख में जवन बीज डलबे सुखा जाई। नानी का संपूर्ण जीवन पीड़ा की अंतरहीन त्रासदी बनकर रह गया, यह मानने से मुझे इनकार नहीं था, लेकिन जब कभी वे बंजर धरती से अपनी तुलना करतीं, तब मुझे बहुत बुरा लगता-चारों तरफ आपकी तपस्या के फूल खिले हुए हैं नानी, आपकी असीस से ही यह परिवार फल-फूल रहा है-आप नहीं होतीं तो.. नानी की दोनों पुतलियों में परितृप्ति की अनोखी चमक भर जाती है। सब ईश्वरीय विधान था... । हमने उनके आगे आपको समर्पित कर दिया, बस... । नाना के दाहिने पाँव के अँगूठे में एक बार चोट लग गई थी - वह घाव उस वक्त सूख गया था - इन दिनों उस अॅगूठे के चारों तरफ कालापन-सा छा जा रहा है। जब-जब अँगूठे में हल्की टीस की शिकायत भी वे करती रहती हैं। डॉक्टर या अस्पताल की नौबत नहीं आई, अब आखिरी समय में..। डॉक्टरों के नाम से उन्हें चिढ़ जैसा हो गई है। उनका विश्वास है कि भगवान जो चाहेगा होकर रहेगा, डॉक्टरों की दवा किसी की आयु नहीं बढ़ा सकती-यदि ऐसा संभव होता तो उनकी इकलौती बेटी, उनका एकमात्र बेटा - दोनों ही असमय उनसे क्यों छिन जाते...? नानी की निस्पृह जीवन-शैली पर अक्सर मेरी खीझ उमड़ पड़ती है - जितने ऊँचे विचार आपके हैं - वहाँ तक पहुँचने में हम लोगों को कई जन्म लेने पड़ेंगे, फिर भी हमें आपके ईश्वरीय विधान पर सख्त एतराज है - जो जितना अधिक सहनशील हो उसी के माथे पर सारे दुखों की पिटारी रख दी जाए - आपके भगवान का कानून भी कितना विचित्र है नानीजी? नानी अपनी टीस भूलकर हँसती रहती हैं - तुम रोती क्यों हो दुलहिन... अब इस दे
ह में बचा ही क्या है... खोखली काया, जितनी जल्दी छूटे उतना ही अच्छा होगा न, तुम्हारे ऊपर कितना भार बढ़ता जा रहा है। नानी को चेतना कभी उबर रही है, तो कभी महाशून्य के गर्भ में समा जा रही है- अद्भुत आत्मबल की गवाही देने वाली उनकी आँखों की स्वाभाविक चमक बुझती जा रही है। उनकी पुतलियों पर मृत्यु का आसन्न अवसाद गहरा अवलेप चढ़ा रहा है - कुछ विशेष खाने की इच्छा है नानी...? उनका सारा शरीर निषेध की मुद्रा में उद्वेलित होता है - अब कोई लालसा नहीं - देह की हर शिव में मुक्ति की ऐंठन दौड़ रही है - तृषा - विकल गौरेया की तरह उनके होंठ बार-बार खुलते हैं - तुलसी - गंगाजल दs दुलहिन... । जीवन भर के अभाव शायद मृत्यु के अंतिम क्षणों में अपना विकल्प पाने के लिए नया रूप धर-धरकर सामने आने लगते हैं। अपने चिर-संचित अभावों की पूर्ति की परिकल्पना में नानी रह-रहकर विभोर हो जाती हैं - लाल टहकार साड़ी, दूनो कान में अंजोरिया के फूल अइसन कनपासा। तनि ऐनक ले आवsत दुलहिन...? - आप कुछ कह रही हैं नानी? कोई उत्तर नहीं... । अंतिम तंद्रा में डूबी हुई नानी की चेतना अपूर्ण लालसाओं के नए छोर का स्पर्श करने के लिए आतुर है - कोई सोहर गा रहा है क्या? आज रामनौसी है? कौशल्या की कोख में राम का अवतार हुआ है...? यदि ईश्वर नाम की कोई शक्ति इस दुनिया में है - तो मैं अपना उलाहना उस तक पहुँचाना चाहती हूँ। जीवन भर धर्म में अखण्ड आस्था रखनेवाली, पूजा-पाठ के सारे नियम निबाहने वाली नानी के लिए दो क्षणों के सुख का भी सृजन ईश्वर ने क्यों नहीं किया? मैं उससे अनुनय करना चाहती हूँ - नानी को उनके कष्टों से यथाशीघ्र मुक्ति मिले भगवान... । यंत्रणा का चरम अनुभव करनेवाली नानी की आस्था में दरार के कोई लक्षण नहीं है- थोड़ी देर के लिए उनकी वाक् -शक्ति लौट आई है, वे अत्यंत क्षीण स्वर में कुछ कह रही हैं -हमरा बाद अइसन पीड़ा केहू के मत मिले भगवान...। उनके चेहरे पर करूण हँसी है - अब साथ छूटत बा दुलहिन... उनके से अस्फुट राग फूट रहा है - आइल गवनवा की सारी...। अपने प्राणों का दुस्सह भार आँखों की पुतलियों में समेटकर वे मुझे अपलक देख रही हैं... । सौ वर्ष पुरानी काया अपने अंतिम प्रयाण की तैयारी में है-नानी की बड़ी-बड़ी आँखों में महाशून्य छाता जा रहा है। सामाने उनकी निष्प्राण काया है, और कमरे में अकेली मैं हूँ। नानी की चेतना मीठी हँसी-हँसती हुई निर्गुण के महाराग का आलाप लेती मुझसे विदा ले रही है। आई गवनवा की सारी... । मेरी पथराई हुई संज्ञा अनायास एक गहरी प्रार्थना बनकर नानी के पैरों से लिफ्ट जाना चाहती है - आपको शांति मिले नानी, अपार शांति मिले।
वह उठे और यूँ ही टहलने लगे। दीवार पर एक पुरानी तस्वीर मुस्करा रही थी। हेमंत और सुमन खास सज सँवर कर फोटो खिंचाने के लिए तैयार हुए थे। उन्हें याद आया उस दिन उनका मन फोटो खिंचाने का बिल्कुल नहीं था। बस हेमंत और सुमन की जिद पर बेमन से तैयार हुए थे। 'मुस्कराइए भाई साहब।' स्टूडियो से आमंत्रण पर बुलाए पेशेवर फोटोग्राफर ने पेशेवराना अंदाज में कहा था। उन्होंने भृकुटि टेढ़ी करके हेमंत की ओर देखा था और हेमंत ने बिना बोले उन्हें आँखों से डाँट दिया था। वह कैमरे की ओर देख कर मुस्कराए थे। क्लिक। वह मुस्कराने लगे। गुड़िया चाय लेकर आ गई। 'आप अकेले में क्यों मुस्करा रहे थे?' वह उनकी ओर कौतूहल से देखने लगी। 'मैं तुम्हारे पापा से बात कर रहा था।' वह भी उनकी निगाहों का अनुसरण कर तस्वीर की ओर देखने लगी। चाय पीते हुए वह सोफे पर बैठ गए। गुड़िया कागज और कलम लेकर इंतजार कर रही थी कि वह जल्दी अपनी चाय खत्म करें। 'हालाँकि अब जब सब कुछ बहुत पीछे छूट चुका है तो उन्हें याद करना कोई अर्थ नहीं रखता बेटी।' उन्होंने बचने का एक कमजोर सा प्रयास किया। 'उसके लिए भी नहीं दादू जिसने उस दौर में अपना बेटा खोया... या अपना पिता।' गुड़िया ने गहरी आवाज में पूछा। वह खामोश हो गए। 'तो क्या हम आज फिल्म देखने नहीं चलेंगे?' वह अतीत की काली अतल गहराइयों में जाने से बच रहे थे। अब वहाँ क्या रखा है। 'नहीं आप आज लिखवाइए वरना मेरी छुटि्टयाँ खत्म हो जाएँगीं।' वह ठुनकी। कितना बचपना है इसके अंदर अभी तक? कभी-कभी बिल्कुल हेमंत की तरह लगती है। भूमिका लिखने से पहले वह थोड़ी देर ठिठके से साचते रहे। शब्द और विचार अनवरत गति से उनके दिमाग में घूम रहे थे। वे उन्हें कलम से संयोजित नहीं कर पा रहे थे। कहाँ तो दिमाग हमेशा खाली रहता है और कहाँ आज विचारों का इतना दबाव...। उन्होंने लिखना शुरू किया। इसे लिखने की कोई खास वजह नहीं थी। न तो इसे लिखने का भरपूर साहस था न पर्याप्त कारण। वैसे कोई भी कारण ऐसी घटनाओं को कलमबद्ध करने जैसा आत्मघाती कदम उठाने के लिए पर्याप्त नहीं होता, इस मत में मैं निश्चित हूँ। मैं कहानी लिख रहा हूँ या इतिहास, यह भी मैं विश्वास से नहीं कह सकता। पर कहते हैं कि ऐसी घटनाएँ सवार होकर खुद को लिखवा ही लेती हैं। इसमें कितना झूठ है और कितना सच, यह मैं नहीं कह सकता। हाँ एक महान उद्धरण 'इतिहास में तिथियों को छोड़कर बाकी सब झूठ होता है और कहानी में तिथियों को छोड़कर बाकी सब सच' का सहारा लेकर शायद इस जीवित दस्तावेज को वर्गीकृत किया जा सके। अर्थात इतिहास भी एक कालजयी कहानी है और कहानी एक कालजयी इतिहास। यदि मैं वजह की बात करूँ तो कोई ठोस वजह न होने के बावजूद यह भूमिका मैं लिख रहा हूँ क्योंकि मैं आत्महत्या करने की मानसिक अवस्था में पहुँच जाने के बावजूद आत्महत्या करने से अधिक जीवित रहने की ठोस वजह खोज चुका हूँ। मैं जानता हूँ कि यह परियोजना समाप्त होने पर मैं पहले से ज्यादा यंत्रणादायक अवस्था में हूँगा पर सबसे बड़ी और ठोस वजह है मेरी पौत्री प्रांजलि विश्नोई, जिसे मैं प्यार से गुड़िया कहता हूँ। यह अनोखी परियोजना उसके विश्वविद्यालय की 'संवेदनात्मक लेखन' प्रतियोगिता के लिए तैयार की जा रही है जिसकी भूमिका मुझसे लिखवाने के लिए मैं इसे ढेर सारा आशीर्वाद और प्यार देता हूँ। गुड़िया ने पढ़ा और न जाने क्या सोचकर गुमसुम सी हो गई। वह लाइनों के बीच भी पढ़ने की कोशिश कर रही थी और इस कोशिश ने उसे मायूस कर दिया था क्योंकि लाइनों के बीच थीं तो सिर्फ डॉ. देवेंद्र कुमार की आँखें। 'क्या सोचने लगी बेटा...?' बदले में गुड़िया डबडबाई आँखों से उनके गले लग गई। थोड़ा देर बाद आँखें पोंछ कर संयत हुई। उन्होंने कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाया और आँखें बंद कर लीं। कमरे में चलता पंखा अचानक धुएँ के बादल फेंकने लगा था। सारी चीजें उसमें ढकती जा रही थीं। हर जिंदा और निर्जीव शै धीरे-धीरे धुएँ के उस गुबार में समा गई। जब धुआँ छटा तो कमरे की दीवारों का रंग बदल चुका था। समय का पहिया पचीस वर्ष पीछे घूम चुका था। कमरे में न डॉक्टर साहब थे न गुड़िया। चौबीस वर्षीय हेमंत पिकनिक पर जाने के लिए तैयार हो रहा था। वे मार्च-अप्रैल के दिन थे और हवा में दिलकश ठंडक रहती। पेड़ों से झरते पत्ते कभी बहुत खुश कर जाते और कभी उन्हें देखकर विरक्ति सी होने लगती। विश्वविद्यालय की सड़कें पत्तों से पटी होतीं और थोड़ी भी हवा चलने पर पत्ते बड़े रूमानी ढंग से सबके बदन को सहलाते यहाँ-वहाँ उड़ते। 'वह आएगी या नहीं?' हेमंत ने स्कूटर स्टार्ट करते हुए पूछा। 'ये मैं जानूँगा या तुम ?' रजत ने सवाल पर सवाल दागा। हेमंत दिल्ली विश्वविद्यालय में वाणिज्य का छात्र था और सिर्फ छात्रसंघ का मंत्री होने के कारण ही प्रसिद्ध नहीं था। उसकी लोकप्रियता के पीछे उसके ओजस्वी भाषणों और विचारोत्तेजक
लेखों का सबसे बड़ा योगदान था। ज्योति ग्रुप की सबसे चुलबुली लड़की थी और हेमंत सबसे गंभीर। दोनों में अक्सर झगड़े भी होते रहते थे जिसे वे मतभेद कहते। पर आश्चर्य कि इन दोनों विपरीत स्वभाववालों के बीच (ग्रुप के अनुसार) आजकल 'कुछ-कुछ' चल रहा था। इस कुछ को ग्रुप प्रामाणित करना चाहता था और मौका तलाश रहा था। ग्रुप यानी इन दोनों के अलावा रजत, सलमा और फराज। रजत थोड़ा संकोची, धार्मिक स्वभाव का लड़का था जिसकी जेब में हमेशा हनुमान चालीसा का छोटा गुटका रहता। मधुर बोलता और हर बात में ईश्वर की दुहाई दिया करता। सलमा सुंदर सी लड़की थी जिसके दाँत औसत से थोड़े ज्यादा बड़े थे। नटखट से नटखट बात पर वह सिर्फ मुस्करा कर रह जाती। यदि हँसती भी तो इधर-उधर देखकर झट मुँह बंद कर लेती मानो उससे कोई गलती हो गई हो। फराज तगड़े शरीरवाला नौजवान था जो हर बात को सीधा ताकत और शरीर से जोड़ दिया करता था। पंजे में हरा देने पर दरियागंज की कचौड़ियाँ खिलानेवाली पार्टी उससे अब तक कोई नहीं ले पाया था। वह पिकनिक अप्रैल के अंतिम दिनों में हुई थी जब हवा में घुलती ठंडक थोड़ी कम होने लगी थी। सब अपने हिस्से का काम कर रहा थे और खाने की तैयारी कर रहे थे। हेमंत टहलता हुआ दूर निकल गया और झरने के पास जाकर बैठ गया। ज्योति हेमंत के पीछे-पीछे झरने तक पहुँच गई। दोस्त काफी दूर दिख रहे थे। उसने हेमंत से कुछ कहा। हेमंत के पास पहुँचने से पहले शब्दों की मात्राएँ झरने में गिर गईं। वह हेमंत के थोडा़ और पास खिसक आई। इस पर हेमंत ने कहा कि उसे डर है कि बारिश होगी। इस पर हेमंत ने कहा कि वह चाहता है कि काश पिकनिक में सिर्फ वे दोनों होते। इस पर हेमंत ने कहा कि वह उसे पसंद करता है। इस पर हेमंत ने कहा कि वह उसे प्यार करता है। उस दिन हेमंत और ज्योति दोनों एक दूसरे में खोए रहे और अनजाने में पिकनिक का बहिष्कार कर पिकनिक के आकर्षण का स्रोत बने रहे। फिर 'प्रेम' या जिसे ज्योति 'करीबी दोस्ती' कहती थी, सतह पर आकर सबको दिखने लगा। दोनों घंटों एक दूसरे में खोए रहते। पिकनिकों में एक अनूठा रस रहता। हेमंत ज्योति की आँखों में देखता रहता। रजत चुपचाप सलमा को देखता रहता और कल्पना करता कि उसके दाँत थोड़े छोटे रहते तो वह ज्यादा सुंदर लगती या अभी लगती है। फराज पेड़ों की डालियाँ तोड़ने जैसा ताकतवर और मूर्खतापूर्ण काम करके ताकत का प्रदर्शन करता। सलमा जब नमाज के वक्त आँखें बंद करती तो रजत पाता कि यह उसका बहुत पास से देखा हुआ चेहरा है। बचपन से बहुत पहले से...। जब उन दिनों हेमंत आगामी चुनाव की तैयारियों में व्यस्त था, माहौल में असंतुष्टि का स्वर तेज होता जा रहा था। महँगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी थी, बेरोजगारी से युवाओं के दिलों में विद्रोह की आग थी और भ्रष्टाचार ने पूरे देश की नींद उड़ा दी थी। देश की अर्थव्यवस्था चरमरा उठी थी और आजादी के बाद के लिए देखे गए स्वप्नों के भग्नावशेष ही बच रहे थे। पूरा उत्तरी और पिश्चमी भारत एक राजनीतिक विप्लव की स्थिति में पहुँच गया था। देश चलानेवालों के पुतले रोज जलाए जा रहे थे। हेमंत की सभाओं और सेमिनारों की संख्या बढ़ती जा रही थी और साथ ही बढ़ता जा रहा था उसका जोश, कुव्यवस्था को दूर करने के संकल्प को पूरा करने का। और बढ़ता जा रहा था ज्योति के प्रति प्रेम, उसकी व्यस्तताओं के अनुपात में, दोनों के मिलने के बढ़ते जाते अंतराल के अनुपात में और अपने-अपने एकांत में घुलती यादों के अनुपात में। रजत ने कुछ श्रृंगार रस की कविताएँ लिखी थीं जिनमें किसी बड़ी आँखोंवाली खातून का जिक्र था जिसके सारे लक्षण और हुलिया सलमा से मिलता जुलता था। फराज ने ज्योति को वे कविताएँ सुनाई थीं बड़ी आँखों को बड़े दाँतों से स्थानापन्न करके। दोनों खूब हँसे थे और रजत कुछ नाराज सा हो गया था। उन्हीं दिनों ज्योति तीन-चार दिनों तक विश्वविद्यालय नहीं आई। सारी व्यस्तताओं और सभाओं के बीच से समय निकालकर वह उस दिन उसके घर पहुँच गया। गली के मोड़ पर जैसे ही पहुँचा, ज्योति अपने घर से बाहर निकली। वह मुस्करा कर वहीं रुक गया। अचानक उसके सामने पहुँचकर उसे चौंका देना चाहता था। मगर वह तेज कदमों से चलकर सड़क के किनारेवाली दुकान में घुस गई। वह ठिठक गया। दुकानदार सुंदर युवा था जिसके बारे में ज्योति ने बताया था कि वह उसके बचपन का सहपाठी है । ज्योति ने दुकान में घुसते ही इधर-उधर देखते हुए जल्दी से दुकानदार को अपने दुपट्टे से निकाल कर कुछ दिया। दुकानदार ने कुछ पल उससे बातें कीं और उसके हाथ में कुछ नोट थमा दिए। वह कुछ समझ नहीं सका कि दोनों क्या कर रहे हैं। उसने ज्योति के अपने घर के अंदर घुस जाने का इंतजार किया और फिर थके कदमों और ढेरों सवालों के साथ वापस लौट गया। अगले दिन ज्योति विश्वविद्यालय में मौजूद थी। वह कुछ थकी-थकी सी और बीमार लग रही थी। न जाने क्यों उसे
देख कर उस दिन हेमंत के दिल में एक हूक सी उठी थी कि वह उसे जल्दी ही खो बैठेगा। ज्योति ने ग्रुप के बहुत इसरार पर बताया कि उसकी माँ की तबियत तीन चार दिनों से काफी खराब है और वह शायद अगले चार पाँच दिन और कॉलेज न आ सके। हेमंत ने उसे कुछ पैसे देने चाहे। वह जानता था कि उसकी आर्थिक स्थिति खराब है पर जब उसने पैसे लेने से मना कर दिया तो वह अंदर तक दहल गया। एक पड़ोसी दुकानदार से वह पैसे ले सकती है पर उससे नहीं...? पहली बार उसे उस पर हल्का सा शक भी हुआ। आखिर क्या बात है? शक ने जड़ तब पकड़ा जब उसके पूछने पर ज्योति ने कहा कि वह कल दिन भर घर से बाहर नहीं निकली। जब वह वहाँ से बाहर निकला तो लगा उसके शरीर की सारी ताकत सूरज की रोशनियों ने सोख ली है। वह सड़क पर निस्पंद खड़ा है और गाड़ियाँ उसके ऊपर से आ जा रही हैं। अगली दोपहर उसी समय वह वहाँ मौजूद था। कुछ इंतजार के बाद ज्योति घर से दुपट्टे के नीचे कुछ दबाए निकली। उसने तेज कदमों से सड़क पार की और अचानक उसके सामने जा खड़ा हुआ। वह अचानक उसे सामने देख कर सहम गई। दो कदम पीछे यूँ हटी जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो। बदले में दो कदम पीछे वह यूँ हटी मानो अचानक दौड़ना शुरू कर देगी और किसी ऐसी जगह चली जाएगी जहाँ कोई उसे पहचान नहीं पाएगा। बदले में वह उसके आगे बढ़ते कदमों के अनुपात में यूँ पीछे गई जैसे मानों अब दो कदम पीछे जाने पर वह अंतर्ध्यान हो जाएगी और सभी उसे फटी आँखों से ढूँढ़ते रह जाएँगे। उसके एक कदम बढ़ने की तुलना में वह झपट कर दो कदम आगे बढ़ा और उसके हाथ दुपट्टे के बाहर खींच लिए। चीख... एक मर्मांतक चीख जो इतनी धीमी थी कि आस-पास से गुजर रहे लोगों को बिना सुनाई दिए उसके कानों को छेदते हुए दिल तक पहुँच रही थी। धूप अचानक कम हो गई थी और अचानक ट्रैफिक जाम खुल जाने से गाड़ियाँ सन्न-सन्न करके गुजरने लगी थीं। एक सरकारी हेलीकॉप्टर डैनों की फड़फड़ाहट सुनाता काफी नजदीक से गुजरा था। दो कुत्ते एक स्कूटर के पीछे भौंकते हुए भागे थे। जमीन पर ढेरों लिफाफे बिखरे पड़े थे। अखबार के पन्नों से बनाए कई आकार व प्रकार के लिफाफे... जिनसे झाँक रही थी ज्योति की गरीबी, चारपाई पर पड़ी उसकी बीमार माँ, स्कूल में फीस के लिए सजा पातीं उसकी दो छोटी बहनें, थिगलियाँ लगी रेंगती जिंदगी, सारी विषमताओं के बावजूद जिंदगी से हार न मानने का उसकी जिद और उसका स्वाभिमान। हेमंत की आँखों में आँसू थे, मन में पछतावा और होंठों पर प्रेम। सड़क बिल्कुल खाली थी। न जाने सारी गाड़ियाँ कहाँ गायब हो गई थीं। कहीं कोई हलचल नहीं थी। वे दोनों जहाँ खड़े थे वहाँ से दूर-दूर तक सिर्फ धुँधलका ही धुँधलका छा गया था और सारी चीजे उसमें ढक गई थीं। वे दोनों पता नहीं कब से एक दूसरे को गले लगाए थे और शायद रो भी रहे थे। ऊँचाई पर जाने पर धीरे-धीरे वे छोटे होते दिख रहे थे। बादलों के बीच से तो वे बिल्कुल एक बिंदी की तरह दिखते थे। जनता व्यवस्था का सड़ना देख रही थी। आजादी के बाद के लिए देखे गए स्वप्न एक क्रूर और वीभत्स मजाक बनते नजर आ रहे थे। बेरोजगारों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ रही थी, उसी अनुपात में अपराध भी अपने पाँव पसार रहा था। अपेक्षाकृत साफ-सुथरी गुलामी से आजिज आ चुकी जनता का बदबूदार और भ्रष्ट आजादी में साँस लेने में दम घुटा जा रहा था। पूरे देश में असंतोष की एक लहर दौड़ रही थी जिसका पहला वलय दिल्ली से उठता था। आखिरकार वह कयामत एक रात को आ ही गई। इस रात के समंदर में ढेर सारे वलय थे जिसमें पहला कंकड़ संगम की धरती से मारा गया था। किसी के घर कोई नहीं सोया। पल-पल की खबर रखने के प्रयास में लोग रात का खाना भूल गए थे। सभी सहमे हुए थे। औरतें खाने की थाली लगाकर पतियों का इंतजार कर रहीं थीं पर उनके चेहरे पर छाया तनाव देखकर कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं। रेडियो सुनने में शोर मचा रहे कुछ बच्चों को बापों की इतनी कड़ी डाँट सुननी पड़ी थी कि वे सन्न होकर फिर से चादर में छिप गए थे। लोग रात भर गिरफ्तार किए जाते रहे थे। शासन विरोधी या कहें लोकतंत्र समर्थक कई नेताओं से लेकर छोटे कार्यकर्ता तक। जेलें ठसाठस भरी जा रही थीं। अगली सुबह का सूरज डरा सहमा संगीनों के साए में निकला था। लोग एक अंजाने डर में लिपटे हुए थे। एक दूसरे की ओर सभी अविश्वास की नजरों से देख रहे थे। सभी आनेवाले वक्त की भयावहता के बारे में सोच कर हलकान हुए जा रहे थे। वाकई... आनेवाले वक्त की भयावहता के आगे शुरुआती नृशंसताएँ कुछ भी नहीं थीं। अगले कुछ समय में देश ने वीभत्सता का नग्न तांडव देखा। ऊपर से क्या आदेश आ रहे थे और नीचे उनकी शक्ल कैसी हो जा रही थी, यह कोई मुद्दा नहीं था। निरपराध लोग सड़कों पर, थानों में और घरों में घुस कर पीटे जा रहे थे, छोटे-छोटे आरोपों पर। किसी विशेष दल से संबंध रखने पर, मुँह से कोई शासन विरोधी बात निकल जाने
पर या कभी कभी यूँ ही। हेमंत और उसके साथी मौके को भाँप कर भूमिगत हो गए थे। पुलिस उन पर छात्रों को गुमराह करने का आरोप लगा कर उनकी तलाश में फिर रही थी, खासतौर पर हेमंत की। यह फराज का घर था जो उनकी शरणस्थली बना हुआ था। हाथ से ही कुछ प्रपत्र तैयार किए जा रहे थे जिन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में वितरित करना था। सभी कार्बन लगा कर लिखने में व्यस्त थे। कई प्रेस वाले उनके मित्र थे लेकिन अभी संपर्क नहीं हो पाया था और कोशिश करना खतरें से खाली नहीं था। 'कभी सोचा नहीं था ऐसा दिन भी देखना पड़ सकता है।' रजत ने लिखते हुए ही सिर उठाकर कहा। बदले में फराज उसकी ओर देख कर मुस्कराया। सलमा पूर्ववत लिखती रही और हेमंत ज्योति के थोड़ा और करीब खिसक आया। 'सब ठीक हो जाएगा यार, चिंता मत करो।' फराज ने कुर्ते की बाँह यूँ चढ़ाई मानो इसी से सब ठीक होगा। 'कैसे होगा...? मुझे तो घर की चिंता हो रही है।' सलमा ने परेशानी भरे स्वर में कहा तो रजत का मन चाहा कि वह उसके बगल में जाकर बैठ जाए और कहे कि उसे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है और वह अभी उसके हिस्से की चिंता करने के लिए जिंदा है। लगभग पुचकारते स्वर में उसने कहा, 'अरे चिंता क्या करना। हम काम कर ही रहे हैं... ऊपरवाला सब ठीक कर देगा।' उसने जानबूझ कर भगवान और खुदा दोनों को समेट लिया। 'कुछ नहीं करेगा भगवान... सब हमें करना है... हमें। बच्चों जैसी बातें करके खुद को बहलाओ मत।' हेमंत के तैश में आकर बोलने से वातावरण काफी असामान्य हो गया, गंभीर और डरावना हो गया। ठीक उसी समय चीकू आ गया। चीकू बाहर चाय की दुकान पर काम करनेवाला लड़का था जो तहखाने और बाहरी दुनिया के बीच का पुल था। उसने फराज से धीमे से कुछ कहा और फराज जोर-जोर से हँसने लगा। तनाव भरे माहौल को ठीक करने का यह उसका पुराना तरीका था जिसमें वह अक्सर ओवरएक्टिंग करने लगता था। 'क्या हुआ? पागलों की तरह हँसते ही रहोगे या हमें भी कुछ बताओगे?' हेमंत अब तक गुस्से में था। बदले में फराज ने घटना कह सुनाई। राजेंद्र कुमार अभिनीत फिल्म गँवार पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि इसके पोस्टर पर नायक को हल लिए जाते दिखाया गया था। सभी एक दूसरे की ओर आश्चर्य से देखने लगे। कमरे में अचानक खामोशी छा गई। चीकू भी इनके चेहरों को ध्यान से देख रहा था कि इन्हें अचानक क्या हो गया। सबके चेहरों पर मुस्कराहट की एक लकीर सी खिंच रही थी। अचानक रजत जोरों से हँसने लगा। सभी हँसने लगे। सलमा ने भी पूरे आवेग में हँसना शुरू किया और फिर थोड़ा मुँह खोलकर हँसने लगी। फराज हँसते हँसते कुर्सी से नीचे गिर गया था और अब भी हँस रहा था। ज्योति भी मुस्करा रही थी। 'ठीक है, इसमें इतना हँसने वाली भी क्या बात है...? क्या हो गया ?' हेमंत ने चेहरा गंभीर करके पूछा, हालाँकि हल्की मुस्कराहट उसके चेहरे पर भी थी। 'हुआ यही बड़े भाई कि विनाशकाले विपरीत बुद्धि।' फराज हँसता हुआ बोला। 'अच्छा चलो ठीक है। काम करो।' हेमंत ने कड़े स्वर में कहा और फिर से लिखने में व्यस्त हो गया। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, फराज ने वह कागज, जिस पर वह कुछ देर से पता नहीं क्या लिख रहा था, चीकू को थमा दिया। हेमंत अभी चीकू को पकड़ने दौड़ता तब तक चीकू यह जा वह जा। हेमंत थोड़े बनावटी गुस्से के साथ फराज की ओर मुड़ा तभी ज्योति ने उसकी कलाई पकड़ ली और उसकी हथेलियों को अपनी आँखों से लगा लिया। हेमंत ने उसे बाँहों में भर लिया। कुछ मिठाइयों और मालाओं के साथ गंधर्व विवाह की औपचारिकता निभाई गई और दो आत्माएँ सदा के लिए एक हो गईं। हेमंत प्रपत्र तैयार करने में उनके साथ बैठना चाहता था पर उसे ज्योति के साथ कमरे में धकेलकर कमरा बाहर से बंद कर दिया गया। कमरा रजत ने बंद किया और एक शेर के साथ शादी की बधाई दी। 'निहायत ही बेमौका शेर है यह बेवकूफ।' और हेमंत ने दरवाजा बंद कर लिया। उसकी नींद सुबह सलमा की खटखटाहट से खुली। वह हड़बड़ा कर उठा। कपड़े पहने और ज्योति को भी जगा दिया। प्रपत्र तैयार हो चुके थे। सभी कॉलेजों में इन्हें इस तरह बाँटना था कि पुलिस को इसकी हल्की सी भी भनक न पड़े। पुलिस ऐसे विद्यार्थियों को कुत्ते की तरह सूँघती फिर रही थी। वे लोग क्रांति की एक मशाल से दूसरी मशाल जलाते रहे और सक्रिय कार्यकर्ताओं की एक फौज खड़ी होती गई। जब सभी एक रात तहखाने में इकठ्ठा हुए तो पता चला कि पुलिस ने हेमंत का पीछा किया है और वह बड़ी मुश्किल से उनसे पीछा छुड़ा पाया है। वे अभी थोड़ी देर बैठे थे कि चीकू आ गया। वह बहुत गुमसुम और उदास था। बहुत कुरेदने पर उसने पूरी बात बताई और रोने लगा। हेमंत की तलाश में उसके घर पहुँचे पुलिसवालों ने उसके पिता डॉ. देवेंद्र कुमार से जबरदस्ती मारपीट की और उनको बेइज्जत किया। वह कहते रहे कि उन्हें हेमंत के बारे में नहीं मालूम और पुलिसवाले उन्हें उठाकर पासव
ाले शिविर में ले गए। जब पुलिसवाले उनसे कुछ नहीं पता कर पाए तो बड़ी नृशंसता से उनकी नसबंदी कर दी गई और शिविर के बाहर फेंक दिया गया। कुछ पड़ोसी उन्हें उठाकर घर ले गए हैं। उन्हें बराबर रक्तस्राव हो रहा है और वह हेमंत का नाम पुकार रहे हैं। हेमंत ने तुरंत ज्योति को साथ लिया और फराज की मोटरसाइकिल से घर की ओर चल पड़ा। खतरा भाँपते हुए भी यह समय उन्हें रोकने का नहीं था। रास्ते भर हेमंत इस कुशासन को ध्वस्त करने की तरकीबें सोचता रहा और उसके जबड़े भिंचते रहे। डॉक्टर साहब का रक्तस्राव पड़ोस के डॉक्टर ने रोक दिया था। वह खतरे के बाहर थे। घर से कुछ दूरी पर मोटरसाइकिल रोक कर जब वह चुपके से घर पहुँचा तो आस-पास मँडरा रहे एकाध पड़ोसियों ने उसे तुरंत अंदर ले लिया। डॉ. साहब उसे सही सलामत देखकर संतोष से भर उठे। ज्योति को बहू के रूप में देखकर उसे आशीर्वाद दिया और अचानक हुए विवाह के विषय में पूछा। हेमंत भोर होने तक वहीं रुका रहा और मुँहअँधेरे ज्योति को पिताजी की देखभाल के लिए छोड़ तहखाने की ओर चल पड़ा। लेकिन, यह तो सिर्फ शुरुआत थी। तहखाने से कुछ पहले रास्ते पर चीकू उसका इंतजार कर रहा था। उसने जो बताया उसे सुनकर वह सिर से पाँव तक काँप उठा। सुबह होने में कुछ समय बाकी था। वह सन्न सा कुछ समय के लिए वहीं खड़ा रहा। अब वह बिल्कुल अकेला था। उसके तहखाने से जाते ही पुलिस ने वहाँ रेड मारी थी। रजत, सलमा और फराज को ढेर सारे कागजों के साथ पकड़ लिया गया। उन्हें बंदूकों की बट से पीटा गया। तीनों को पकड़ कर उत्तम नगर थाने ले जाया गया है। हेमंत सीधा अपने उस दोस्त की तरफ भागा जो भूमिगत अखबार निकाल रहा था। सलमा की तलाशी के लिए कोई महिला पुलिस नहीं थी। थाने में ले जाकर सलमा को अलग और रजत व फराज को एक सेल में बंद कर दिया गया। थानाध्यक्ष के आते ही सभी सिपाही व हवलदार खड़े हो गए। 'थानाध्यक्ष साहब खुद चेकिंग करेंगे तुम सबकी।' एक हवलदार ने दोनों सेलों की तरफ मुँह उठा कर कहा। रजत व फराज अंदर तक काँप गए। उनकी रूह फना हो गई जब थानाध्यक्ष ने वहीं वर्दी उतारनी शुरू कर दी। रजत सलाखें पकड़ कर चिल्ला चिल्ला कर थानाध्यक्ष को ईश्वर का वास्ता दे रहा था। फराज सलाखों से इस तरह भिड़ा हुआ था मानो तोड़ देगा। थानाध्यक्ष ने आराम से वर्दी उतार कर मेज पर रखी और जाँघिए बनियान में सलमा के सेल की तरफ बढ़ा। अब रजत थानाध्यक्ष को गालियाँ देने लगा था। कभी गंदी गंदी गालियाँ देता तो कभी अचानक विनती करने लगता। कभी सलाखों पर सिर पटकने लगता तो कभी सिपाहियों से सेल खोलने को कहता। फराज पूरी ताकत से सलाखों से जूझ रहा था। 'इससे निपट लूँ फिर इन सूअरों को देखता हूँ।' कह कर वह मुस्कराता हुआ सलमा के सेल में घुस गया। रजत सिर पटकता चिल्लाता रहा और बगलवाली सेल से सलमा के चीखने की आवाज आती रही। सलमा की चीखों के साथ रजत का चिल्लाना, गालियाँ देना और सलाखों से सिर टकराना बढ़ता रहा। रजत को बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया गया। अंदर ही बर्फ की सिल्ली मँगा ली गई थी और उसके कपड़े उतार कर उसे उस पर लिटा दिया गया। संगीनों से काटकर नमक भरने जैसी कई प्रक्रियाएँ सुबह तक चलती रही थीं पर रजत ने न हेमंत का पता बताया न किसी भूमिगत अखबार का, अलबत्ता वह गालियाँ खूब देता रहा था। शाम को दिल्ली से छपनेवाले एक अखबार ने, जिसने अपनी जबान सियासत के कदमों में गिरवी रख दी थी, एक खबर छापी जिसमें दो डाकुओं के मुठभेड़ में मारे जाने की खबर थी। एक डाकू मजबूत शरीरवाला था जिसके बाँहों की हडि्डयाँ टूट गई थीं और दूसरे के माथे में गोली मारी गई थी। शहर के अराजक माहौल का फायदा उठाने आए इन डाकुओं से मुठभेड़ में दो सिपाही भी घायल हुए थे जिन्हें कुछ मुआवजे की भी घोषणा थी। यह खबर उससे पहले ही हेमंत तक पहुँच चुकी थी। उसने सारा विवरण लिखकर अपने एक मित्र के भूमिगत प्रेस में पहुँचवाया। अपनी आँखों से बहते खून को उसने स्याही बना लिया था। वह स्वयं को अकेला अनुभव तो कर रहा था पर अंदर की आग में कोई कमी न आने देता। कई दिनों तक वह घने जंगलों में छिपा रहा। रात में आबादी की तरफ आता, कभी थोड़ा वक्त घर में बिताता और फिर कई जगहों पर युवाओं के साथ भूमिगत मंत्रणा करता। उन्हें लोकनायक के विचारों से अवगत कराता। उनमें जोश भरता जा रहा था। वे अन्याय को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अपने आप को तैयार कर रहे थे। क्रांति की ज्योति मशालों सें आँखों में जलने लगी थी। हेमंत ने आनेवाली एक तारीख को एक विशाल सभा का आयोजन पास के जंगल में किया था जिसमें करीब सौ-सवा सौ कार्यकर्ताओं के जुटने की उम्मीद थी। यहाँ सरकार की नींद हराम करने के लिए किसी बड़े कदम पर चर्चा होनी थी। मगर उससे पहले ही पह हादसा हो गया। हेमंत रात के साढ़े बारह बजे अपने घर की खिड़की से बिना जरा भी आवाज किए कूदा और धीरे-धीरे मुख्य सड़क
की ओर आ गया। वहाँ से थोड़ी दूर सड़क-सड़क जाकर फिर उसे कच्चे रास्ते की ओर मुड़ जाना था जो जंगल की ओर जाता था। जंगल में चार साथी उसका इंतजार कर रहे थे। उसने कच्ची सड़क पर एक इंसानी साया देखा। उसे खुद को छिपा कर चलना था पर साए में उसे पता नहीं क्या अपनापन दिखा कि वह उसके सामने पहुच गया। अचानक उसके हृदय के दो स्पंदनों के बीच का ठहराव थोड़ा लंबा हो गया और सीने में शूल सा चुभा। समने सलमा थी। फटे कपड़ों में अर्धनग्न, अर्धविक्षिप्त और पूर्ण बरबाद। बाल बिखरे और जगह जगह नोचने खसोटने के निशान। कुछ बुदबुदाती हुई वह सड़क पर चली जा रही थी। हेमंत ने उसके कंधे पर हाथ रखा। हाथ का स्पर्श होते ही वह बिजली की फुर्ती से जमीन पर बैठ गई। उसने आँखें बंद कर ली थीं और टाँगें सिकोड़ कर दोनों हाथ चेहरे के आगे बचाव की मुद्रा में कर लिए थे। वह कातर स्वर में चिल्ला रही थी, 'मत मारो... मत मारो।' उसके बड़े-बड़े दाँत चिल्लाने से पूरे आकार में दिख रहे थे और वह उन्हें छिपाने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी। हेमंत को लाग काश, वह अपना मुँह बंद कर लेती। उसे देखना बहुत कठिन था। वह थोड़ा आगे बढ़ा। 'सलमा, मैं हूँ...।' उसने उसके हाथों को पकड़ने की कोशिश की। उसने आँखें खोलकर उसे एक नजर देखा और डर कर पीछे सरक गई। हेमंत को आगे बढ़ता देख वह मुठ्ठी बाँध कर पूरी ताकत से चिल्लाने लगी, 'मत मारो... मत मारो... इंदिरा गांधी की जय... संजय गांधी की जय... इंदिरा गांधी की जय... संजय गांधी की जय...।' हेमंत के होंठ कँपकँपाने लगे और आँखें से आँसू निकलने लगे। गश्ती पुलिस की गाड़ी को देखकर हेमंत जब तक भागना शुरू करता, गाड़ी काफी पास आ चुकी थी। कच्चे रास्ते पर भागते ही उसे दोस्तों की सुरक्षा का खयाल आया और वह वापस शहर की ओर भागने लगा। एक और पुलिस की गाड़ी दूसरी सड़क से पीछे लग गई। गाड़ी और उसके बीच की दूरी धीरे-धीरे कम होती गई। जब होश आया तो वह किसी थाने में था। 'कहिए क्रांति के मसीहा, कैसे मिजाज हैं ?' सामने बैठा दारोगा शक्ल से ही दरिंदा नजर आ रहा था। उसने उठने की कोशिश की तो उसकी टाँगों पर लाठी का भरपूर प्रहार हुआ और वह धड़ाम से गिर पड़ा। लाठी सँभालकर हवलदार यथास्थान यूँ खड़ा हो गया जैसे चाबी भरा हुआ खिलौना हो। सामने उसके मित्रों द्वारा निकाले जा रहे कुछ अखबार पड़े थे जिनमें सिर्फ वही छपा था जो वाकई हो रहा था। 'मुझे नहीं मालूम...।' उसने नजरें घुमाते हुए कहा। 'अभी मालूम पड़ जाएगा।' दारोगा ने कुछ सिपाहियों को इशारा किया। उसके दोनों हाथों को एक में और दोनों पैरों को एक में बाँधकर लाठी में बाँध दिया गया जैसे मुर्गे को भूनने के लिए बाँधा जाता है। लाठी को दो कुर्सियों की पीठ पर टिका दिया गया। दो कुर्सियों के बीच वह मुर्गे की तरह झूल रहा था। 'बताओ...।' पीठ पर नीचे से लाठियाँ मारी जा रही थीं। 'मुझे नहीं पता...।' वह चीखा। आनन-फानन में नीचे लोबान में आग जला दी गई। उसमें मिर्चें झोंके जाने लगे। वह चीत्कार करने लगा। उसकी आँखें जलने लगीं और उनसे पानी बहने लगा। पूरा शरीर लाठियों की मार से टूट रहा था। कुछ न बुलवा पाने की स्थिति में उसे नीचे उतारा गया। 'साहब, इसके पिताजी इससे मिलने आए हैं।' एक सिपाही ने आकर सूचना दी। यंत्रणा फिर शुरू हुई। हेमंत आधी बेहोशी में था। उसकी दोनो टाँगें फैला कर उस पर लाठी रख दी गई। 'बताओ...।' वही पुराना जिदभरा सवाल। 'मुझे नहीं मालूम...।' वही पुराना जीवटभरा जवाब। उसके मुँह से दिशाओं को कँपा देनेवाली चीख निकली। लाठी पर दो तरफ से दो सिपाही चढ़ गए थे और उसके पैरों की हडि्डयाँ कड़ा∙∙∙क की आवाज के साथ टूट गई थीं। वह फिर भी कुछ नहीं बोला। दारोगा ने एक नाई को बुलवा रखा था। वह उसके हाथों की उँगलियों के नाखून एक-एक करके उखाड़ता जा रहा था और दारोगा अपना सवाल दोहरा रहा था। 'उसका सवाल ही पैदा नहीं होता बच्चे... आलाकमान का हुक्म है कि विरोधियों को जड़ से मिटा दिया जाए।' दारोगा वीभत्स हँसी हँसा था। जब डॉ. देवेंद्र कुमार को हेमंत की लाश सौंपी गई तो इसे उन्होंने अपनी खुशकिस्मती माना। कितनी ही लाशें रोज गायब कर दी जा रही थीं। उन्होंने अपने बेटे को शहीद माना और एक आँसू नहीं रोए न ही ज्योति को रोने दिया। ज्योति गर्भवती थी। डॉ साहब के ऊपर बहुत सी जिम्मेदारियाँ थीं जिन्हें उन्हें पूरा करना था। उन्होंने हेमंत की चिता सजाते समय एक बार भी उसके उखड़े नाखूनों और जले शरीर पर नहीं सोचा। वह चिता को आग देते समय ये सोच रहे थे कि अपने बेटे की तस्वीर पर कभी हार नहीं चढ़ाएँगे। चिता की आग से निकले धुएँ ने वहाँ खड़े हर इनसान को पूरी तरह ढक लिया था। डॉ. साहब उस धुएँ मे सबसे देर तक खड़े रहे थे। जब धुआँ छँटा तो कमरे की दीवारों का रंग बदल चुका था। वह सोफे पर निराश, थके और टूटे बैठे थे। गुड़िया उनके कंधे पर सिर रखे थी। उ
नके कंधे भीग चुके थे। वह शून्य में देख रहे थे। जब गुड़िया का ध्यान आया तो उन्होंने उसका सिर सहलाया। वह उनके गले लग गई। उसकी रुलाई रोकने के लिए उन्होंने बात बदलने की कोशिश की। उसने कागज उन्हें थमा दिए। उन्होंने अंतिम पृष्ठ पर वही शेर दोहरा दिया। उन्होंने गाड़ी हाइवे की तरफ मोड़ दी। रात के दस बज रहे थे। गुड़िया उनके कंधे पर सिर रखे थी। उन्होंने उसे अपनी बाँहों में भींच लिया जिसका अर्थ था अब डरने की क्या जरूरत? वह हाइवे पर काफी दूर तक निकल आए थे। सामने तीन आकृतियाँ सड़क पर दिखीं। उन्हें गाड़ी रोक देनी पड़ी। 'गाड़ी कनारे ले ले पाई।' एक आकृति ने कहा। उन्होंने रोशनी में देखा, तीनों पुलिसवाले थे। वे पिए हुए थे और किसी की वर्दी पर नेमप्लेट नहीं थी। 'क्या बात है...?' उन्होंने बाकी दोनों के अफसर लगते तीसरे से पूछा। वह बाहर आए। गुड़िया को अंदर ही रहने दिया। अफसर लगातार सवालों का आदी नहीं था। वह अपने रौद्र रूप में आ गया। वह सहम गए। सड़क पर दूर तक अँधेरा था। कोई गाड़ी आती तो कुछ सेकेंड्स के लिए सड़क गुलजार हो जाती और फिर सारी रोशनी अचानक सूँ... करके गायब हो जाती। उनकी कनपटियाँ जलने लगीं। 'देखिए सर...।' वह अपने बेटे की उम्र के अफसर के सामने गिड़गिड़ाए। 'क्यूँ पाई संतराम? आजकल बुढ्ढों नूँ जादा ज्वानी छिटक रयी सै के?' उसने गुड़िया को घूरते हुए अपने एक मातहत से पूछा। 'रै ताऊ, जब मैंने तेरी बात समझनी ही ना तो सुणने का के फाइदा?' वह इतने ऊँचे सुर में बोला कि वह सहम गए। उसने गुड़िया का हाथ पकड़कर बाहर खींच लिया। वह बिल्ली के जाल में फँस चुके कबूतर की तरह काँप रही थी। डॉ. साहब आगे बढ़े और गुड़िया का हाथ उससे छुड़ा लिया। वह उनके पीछे चिपक कर खड़ी हो गई। 'देखिए, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का रिटायर्ड लेक्चरर हूँ। मै। आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी पोती को छोड़ दीजिए... मैं... आप जो कहेंगे, करने के लिए तैयार हूँ।' वह रो पड़े थे। उनका हाथ अपनी जेब में रखे बटुए पर था। वह हाथ जोड़कर अपनी बेबसी पर रह रहकर आँखें मूँद ले रहे थे। पीछे भयभीत गुड़िया थर-थर काँप रही थी। उन्होंने पूरा बटुआ हवलदार को दे दिया। उन्होंने झट अँगूठी उतारकर दे दी। बदले में उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिए। अफसर गुड़िया को लालची नजरों से घूर रहा था। उन्होंने गाड़ी घर की तरफ मोड़ दी। घर पहुँच कर वह निढाल से सोफे पर गिर पड़े। वह गुड़िया से नजरें नहीं मिला पा रहे थे। गुड़िया सिर झुकाए दूसरे कमरे में चली गई। जब कुछ खटपट की आवाज सुनकर बाहर आई तो देखा कि दादू उसके कपड़े जल्दी-जल्दी उसके बैग में भर रहे हैं। उसने बिना कुछ बोले उनके हाथ से बैग ले लिया और अपने कपड़े समेटने लगी। सामने मेज पर वह परियोजना रखी थी जिसे मेज पर सबसे ऊपर रखना था। डॉ. साहब सोफे पर छितराए बैठे थे। उनकी नजर परियोजना के अंत में लिखे उस शेर पर थी जो पूरा अर्थ न दे पाने के बावजूद अब भी मौजूँ था।
भगवान् की माया से मोहित, कामना - वासना से पागल बद्ध जीव, श्रीविग्रह का चिन्मय स्वरूप दर्शन करने में असमर्थ होते हैं। यहाँ तक कि यदि भगवान् साक्षात् उनके सामने उपस्थित हो जाएँ तो भी वह उनको भगवान् रूप से पहचान नहीं सकेंगे। शुद्ध - भक्ति नेत्रों के द्वारा ही भगवान् की अनुभूति हो सकती है। भगवान् के दर्शनों के लिए जो योग्यता चाहिए, उसको अर्जित किए बिना भगवत् - दर्शन नहीं होता है। कई बातें सत्य होने से भी वह सभी को, सभी समय नहीं कही जा सकतीं। इसलिए विद्वान् व्यक्ति, ग्रहण करने का अधिकारी देखकर ही उसके अधिकार के अनुसार, उसे उपदेश देते हैं। अच्छे व्यक्ति को अच्छा बनाने की ज्यादा ज़रूरत नहीं होती । हाँ, यदि खराब व्यक्ति को अच्छा बनाया जा सके, तभी तो प्रचार का सही फल समझा जाएगा। जो भगवान के लिए अन्य वस्तुओं की आसक्ति को नहीं छोड़ सकते, भगवान के इलावा अन्यान्य दुनियावी वस्तुओं को जो जकड़ कर रखना चाहते हैं, वे कभी भी भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकते । दुनियादारी का बहुत सा ज्ञान व योग्यता रहने पर भी, आत्मा व परमात्मा को समझने की विशेष योग्यता जब तक अर्जित नहीं तब तक आत्मा व परमात्मा की अनुभूति नहीं होती। सद्गुरु के श्रीचरणों में रहकर व उनके पद चिन्हों पर चलकर ही, शरणागत व्यक्ति के हृदय में ही तत्व - वस्तु का आविर्भाव होता है। प्राकृत मन व बुद्धि की सहायता से गीता का वास्तविक अर्थ समझना सम्भव नहीं है । शरणागत के हृदय में श्रीभगवान व श्रीभगवान की दिव्य - वाणी स्वयं प्रकटित होती है । जिस प्रकार, वृक्ष की जड़ में पानी देने से वृक्ष की टहनी, फूल पत्ता व तना इत्यादि सब तृप्त हो जाते हैं; जिस प्रकार पेट में खाना देने से पूरा शरीर व सब इन्द्रियाँ तृप्त हो जाती हैं, उसी प्रकार सब कारणों के कारण, सभी प्राणियों के साथ सम्बन्धयुक्त, अद्वयज्ञानतत्व, सर्वव्यापक, अच्युत, श्रीहरि की सेवा के द्वारा सभी प्राणियों की सेवा या तृप्ति हो जाती है। भगवान् की आराधना करने के लिये भगवद् - तत्व को समझने की ज़रूरत है। श्रीकृष्ण - भक्ति अनुशीलन का सर्वोत्तम साधन श्रीनाम - संकीर्तन है। जब तक भोग का विचार प्रबल रहेगा एवम् श्रीभगवान् की ओर चित्तवृत्ति परिवर्तित नहीं होगी, तब तक व्यक्तिगत, परिवारगत, व समाजगत स्थाई शान्ति प्राप्त करना सम्भव नहीं है । श्रीभगवान् के साथ जिनकी प्रीति है, उनकी श्रीभगवान् से सम्बन्धित जितनी भी वस्तुएँ हैं या भगवान से सम्बन्धित जितने भी व्यक्ति हैं, उन सबके साथ प्रीति होना स्वाभाविक है। सर्व-साधारण व्यक्ति के लिए भगवद् - भक्ति - अनुशीलन हेतु, श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने श्रीकृष्ण - नाम संकीर्तन को ही श्रेष्ठ और सुगम साधन निर्दिष्ट किया है । शुद्ध - प्रेममय भक्त के द्वारा प्रकटित भगवान के श्रीविग्रह और भगवान के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है, यह दोनों ही प्रकृति के अतीत, वैकुण्ठ वस्तु व दिव्य हैं। काम - क्रोध व लोभादि शत्रुओं को हम अपनी शक्ति के द्वारा परास्त नहीं कर सकते । श्रीकृष्ण जी के श्रीचरणों में आत्म समर्पण करने से, वे ही उन सभी रिपुओं की ताड़ना से हमारी रक्षा करेंगे । भगवान श्रीकृष्ण, शरणागत के रक्षक व पालक हैं । समस्त धर्म, समस्त अपेक्षित कर्तव्य परित्याग करके श्रीकृष्ण में एकान्त भाव से शरणागत होने से श्रीकृष्ण अपेक्षित कर्तव्यों को न करने या न कर पाने के कारण - इससे होने वाले दोषों से हमारी हरेक प्रकार से रक्षा करेंगे। श्रीकृष्ण का नित्यदास है ये जीव और इसका स्वरूपगत धर्म एवं कर्तव्य है - श्रीकृष्ण की सेवा करना । श्रीकृष्ण - सेवा द्वारा ही पितृ - मातृ ऋण परिशोध होता है एवं सभी के प्रति, सभी प्रकार के कर्तव्य ठीक प्रकार से सम्पादित होते हैं। यदि कोई हिंसामूलक कार्य करता है तो उसके प्रतिकार के लिए प्रतिहिंसामूलक कार्य करना हरि भक्त के लिए उचित नहीं है । ये सब प्रतिकूल व्यवहार सहन कर पाने से ही हरिभजन होगा, नहीं तो जिस उद्देश्य से संसार छोड़कर मठ में आना हुआ है, वह व्यर्थ हो जाएगा। अनर्थ - युक्त साधकों को चाहिए कि वे दूसरों को उपदेश देने का हठ छोड़ दें तथा गुरु - वैष्णवों की कृपा प्रार्थना करते हुए, विष्णु व वैष्णवों की प्रसन्नता के लिए हरि - कीर्तन के लिए प्रयास करें। जिस प्रकार रोशनी को लाए बगैर अन्धकार को अन्धकार नहीं समझा जाता है, इसी प्रकार 'सत्' के अनुभव किये बिना 'असत्' को असत् भी नहीं समझा जा सकता । भगवान् का कोई कारण नहीं है। वे अकारण हैं। उनके प्रति समर्पित एकान्त - भक्त को ही उनकी कृपा से, उनके दर्शन व उनकी अनुभूति सम्भव है। कृष्णेतर - वाँच्छा ही हमारे दोषों का मूल कारण है। बड़ा कहलाने की आकांक्षा रहने से व दूसरों से सम्मान प्राप्ति की इच्छा रहने से, दूसरों से मान सम्मान, सेवा - पूजा न मिलने पर सदा ही क्षुब्धता और अशान्ति भोग करनी
होगी। अपने प्रियतम और परम - सेव्य श्रीभगवान् का सम्बन्ध जीव मात्र में दर्शन करके मानद हो जाने पर, निर्विघ्नता से श्रीहरि - भजन का सुयोग होता है एवं हृदय में स्वाभाविक दीनता आदि गुण आ जाते हैं। यही नहीं, इन गुणों के आ जाने से वास्तविक शरणागति प्राप्त करने की समर्थता आती है। श्रीभगवान् में और अनन्य - भक्त में गलती की कल्पना करने से पहले, अपने चित्त को उत्तम रूप से भक्तिभाव से परीक्षा करके देखो तो पता लगेगा कि दोष कहाँ पर है । भोग - प्रवृत्ति अन्य - संग कराती है, जबकि त्याग - प्रवृत्ति श्रीभगवद् - मिलन की हमराही बन जाती है । निरन्तर श्रीकृष्ण नाम के अनुकूल अनुशीलन के द्वारा अर्थात् श्रीकृष्ण नाम के श्रवण, कीर्तन व स्मरण आदि के द्वारा श्रद्धालु व्यक्ति, धीरे-धीरे श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। भगवद् - भक्त अथवा भगवान के सेवक की पदवी प्राप्त करने की इच्छा, श्रेष्ठ श्रेष्ठ देवता भी रखते हैं। थोड़े से भाग्य से कोई भी भगवद् - भक्त नहीं कहला सकता । पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी पदवी, भगवद् - भक्त की पदवी के बराबर नहीं हो सकती। भगवद् - भक्त की अमर्यादा करने वाला, तत्वहीन व्यक्ति मूढ़ है, और कुछ नहीं। अपने सौभाग्य को अपने पैरों तले कुचलने वाला ही, भगवद् - सेवक को तुच्छ समझता है । भगवान के भक्त की दासता करना ही श्रीभगवद् - प्राप्ति का मुख्य उपाय है। श्रीकृष्ण - प्रेम से श्रेष्ठ किसी और लोभनीय वस्तु की कल्पना ही नहीं की जा सकती। भोगों का फल, तीन प्रकार के क्लेश प्राप्त करना होता है और मुक्ति का फल, मात्र अपने दुःखों से छुटकारा है; जबकि भक्ति आनन्द की हिलोरें लेने वाला अथाह समुद्र है। कृष्ण - प्रेम ही जीव का प्रयोजन है। भगवान् सर्वशक्तिमान हैं - ऐसे दृढ़ विश्वास वाला व्यक्ति ही साधु है। श्रद्धालु व्यक्तियों को पहले साधुसंग मिलता है। तत्पश्चात् सद्गुरु के चरणों का आश्रय कर भजन शुरू करते समय साधक में चार प्रकार के अनर्थ होते हैं - स्वरूप - भ्रान्ति, असद् - तृष्णा, हृदय - दौर्बल्य तथा अपराध। यत्न के साथ साधन - भक्ति का अनुशीलन करने से धीरे-धीरे अनर्थ चले जाते हैं। साधन - भक्ति के प्रति उदासीन हो जाने से हमें शीघ्रता से मंगल की प्राप्ति नहीं होती। सर्वकारण - कारण, स्वतः सिद्ध भगवान् को उनकी कृपा के बिना कोई नहीं जान सकता। चूँकि भगवान् और भगवान् द्वारा कहे गए वाक्यों में भेद नहीं होता, इसलिये अशरणागत व्यक्ति भगवान् के उपदेशों का तात्पर्य समझने में असमर्थ रहता है। स्वतः सिद्ध वस्तु के दर्शन की पद्धति, उनकी कृपा आलोक के अतिरिक्त अन्य उपाय से सम्भव नहीं हो सकती । सम्बन्ध - ज्ञान के उदय हुये बिना कभी भी भगवान् में प्रीति नहीं हो सकती। सम्बन्ध - ज्ञान के द्वारा ही प्रीति होती है। अभिमान ही कर्म का प्रवर्तक है। प्राकृत अस्मिता कि मैं संसार का हूँ, ये भावना या वृत्ति परित्यज्य है किन्तु अप्राकृत अस्मिता कि मैं भगवान् का दास हूँ, इस प्रकार की वृत्ति परित्यज्य नहीं है । भगवान् में स्वार्थबोध अर्थात् भगवान् ही मेरी परम आवश्यकता हैं, ऐसा ज्ञान होने पर मैं अपने को एवं अपना कह कर जो कुछ है, वह सब भगवान् को अर्पित कर पाऊंगा। इस प्रकार की अवस्था में ही भगवान् में प्रीति और प्रेम होना सम्भव है । सद्गुरु या शुद्ध - भक्त की कृपा से भगवान से मेरा क्या सम्बन्ध है, इस दिव्य ज्ञान का उदय होता है । सम्बन्ध - ज्ञान से पहले भगवान् की आराधना सम्भव नहीं होती। पारमार्थिक जीवन की प्रथम सीढ़ी - सम्बन्ध - ज्ञान ही है। विष्णु प्रसाद ( अर्थात् शास्त्र - विधान के अनुसार विष्णु को निवेदित द्रव्य) को ग्रहण कर के समस्त पापों से मुक्त हुआ जा सकता है। भगवत् - प्रेमी कभी भी किसी भी अवस्था में किसी के प्रति हिंसा नहीं कर सकता। Means are justified by the ends - उद्देश्य के द्वारा ही साधन की शुद्धता व अशुद्धता पता चलती है। भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी की प्रसन्नता में ही तमाम समस्याओं का समाधान है। संग ही मनुष्यों को सुपथ अथवा कुपथ की ओर प्रेरित करता है । संग से ही मनुष्यों की वृत्ति उदित व विकसित होती है। साधु-संग को छोड़कर रुचि - परिवर्तन करने का व व्यक्ति का अच्छा स्वभाव बनाने का कोई और सहज एवं सुनिश्चित रास्ता नहीं है। श्रीकृष्ण ही जिनके साध्य और साधन हैं, ऐसे भक्त ही श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के सेवक हैं। इस मठ के सेवक विश्व के सब जीवों का स्वार्थ श्रीकृष्ण के चरणों में ही समझते हैं। इसलिए कोई कपटता करे तो कहा नहीं जा सकता अन्यथा वे अन्य - अन्य मनुष्यों को श्रीकृष्णेतर विषयों से सम्बन्धित उपदेश कैसे प्रदान कर सकते हैं? श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, श्रीचैतन्य देव द्वारा आचरित और प्रचारित पथ में तथा श्रीमद्भागवत और पाँचरात्रिक - मार्ग में मनुष्य मात्र का वास्तविक कल्
याण सुनिश्चित समझता है इसलिये न तो वह स्वयं किसी अलग अर्थात् समय नष्ट करने वाले रास्ते पर चलता है व न ही किसी व्यक्ति को उस पर चलने का उपदेश देता है। संक्षेप में अनन्य कृष्ण - भक्ति ही इस मठ का प्राण है। श्रीभगवद - प्रेम की प्राप्ति के लिये जो मठ का आश्रय लेते हैं वे त्याग या भोग की कसरत में अपने मूल्यवान समय और शक्ति का अपव्यय नहीं करते। वे तो श्रीभगवद्- प्रीति के अनुकूल और प्रतिकूल को समझकर शास्त्र और महाजनों के द्वारा बताये गये रास्ते के अनुसार ही विषयों को ग्रहण करते हैं व त्याग करते हैं। वास्तविकता भी यही है कि युक्त - वैराग्य ही भक्ति का सहायक है। उपाय है। शुद्ध - भक्त का संग ही भक्ति का हेतु एवं पोषक है। निष्कपट सेवा ही साधुसंग तथा श्रेष्ठसंग की प्राप्ति का अचूक सज्जनों का अथवा सेवा करने के इच्छुक एवं श्रीकृष्ण का अन्वेषण करने वाले साधकों का कभी अमंगल नहीं होता। भक्त - वत्सल भगवान श्रीहरि अपना भजन करने वाले साधकों को विभिन्न प्रकार से सत्मार्ग का प्रदर्शन करते हुये, उन्हें अपने चरणकमलों के मधु को पान करने का सुनिश्चित सुयोग प्रदान करते रहते हैं। गुरु का अर्थ होता है - अज्ञान नाशकारी । चूँकि अखण्ड ज्ञान तत्व - भगवान् के आविर्भाव से अज्ञान दूरीभूत हो जाता है, इसलिये मूल गुरु - श्रीभगवान् हैं। जिन्होंने हमें साक्षात् रूप से आकर्षित कर भगवान् की सेवा में नियोजित किया है, जो भगवान् की ही दूसरी मूर्ति हैं - वे मेरे श्रीगुरुपादपद्म हैं - विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ और श्रीगौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता, नित्यलीला प्रविष्ट प्रभुपाद श्रीमद्भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर। तृतीय गुरुपादपद्म हैं- वैष्णवगण । गुरुदेव जैसे शिष्य को हमेशा सेव्य की सेवा में नियोजित रखते हैं, उसी प्रकार वैष्णव लोग भी मुझे मेरे परमाराध्य की सेवा में नियुक्त रखते हैं। इसके अतिरिक्त शिष्य लोग भी एक प्रकार के गुरु हैं । वे शिष्य रूप में रहते हुये भी वास्तविक रूप में गुरु का काम ही करते हैं; क्योंकि शिष्यों के रहते गुरु गलत कार्य नहीं कर सकता। ये भी एक तरह का शासन है व गुरु का कार्य है। यदि श्रीकृष्ण में प्रीति नहीं हुई, मेरे प्रभु की सेवा नहीं हुई, तब ऐसे त्याग की एक कौड़ी कीमत भी नहीं है, बल्कि यह एक फल्गु त्याग है। इस प्रकार के बहिर्मुख त्यागी, ब्रह्मचारी की अपेक्षा भगवत् सेवा परायण व्यक्ति हमारा प्रिय है और ऐसे त्यागी व ब्रह्मचारियों से कई गुणा श्रेष्ठ है। अधोक्षज वस्तु भगवान श्रीहरि की अप्राकृत इन्द्रियाँ हैं। उन्हीं इन्द्रियों के द्वारा वे अप्राकृत लीलायें करते हैं। उनकी सब लीलायें नित्य हैं। उस लीला विलास के ईंधन के रूप में प्रकाशित होना ही प्रत्येक जीव का आत्मधर्म है। श्रीकृष्ण नित्य हैं, उनकी शक्ति भी नित्य है तथा उनकी शक्ति के अंश जीव भी नित्य हैं, इसलिए दोनों का सम्बन्ध भी नित्य है। चूँकि शक्ति, शक्तिमान के अधीन होती है इसलिये जीव कृष्ण का नित्यदास है । श्रीकृष्ण की प्रीति ही जीव का प्रयोजन है तथा श्रीकृष्ण - प्रेम प्राप्ति का अभिधेय (साधन ) केवल भक्ति है। गुरु जी की सेवा साक्षात् भगवान् की सेवा है। कारण, अपने गुरुदेव जी में भगवान् के प्रति प्रीति को छोड़कर और कुछ भी मैंने नहीं देखा। वे ये जानते ही नहीं कि श्रीकृष्ण की सेवा को छोड़कर और भी कोई स्वार्थ होता है। वैष्णव - संग व वैष्णव- सेवा को छोड़कर जीव के मंगल का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है । वैष्णव - सेवा के फल से एवं शास्त्रादि श्रवण के फल से जीवों को भगवान् की महिमा का अनुभव होता है और जीव भगवान् की उपासना करने के लिए उतावले होते हैं । स्थूल रूप से समस्त इन्द्रियों को दमन कर सकने से ही भक्त बन जाएँगे, इसकी भी तो कोई गारन्टी नहीं है। यदि ऐसा होता तब तो जगत् में जितने हिजड़े हैं, वे सब हरिभक्त होते। उपवास करने से अर्थात् व्रत में भूखा रहने से ही क्या खाने की प्रवृत्ति समाप्त हो जायेगी? इसी प्रकार विषयों को ग्रहण न करने पर भी उन्हें ग्रहण करने की प्रवृत्ति दूर नहीं होगी। इसका सही तरीका यह है कि श्रेष्ठ - रस का आस्वादन होने से निकृष्ट रस के प्रति मोह अपने आप हट जाता है। भगवत्-प्रेम रस का आस्वादन होने से श्रीकृष्ण व उनके भक्तों की सेवा छोड़कर दुनियावी भोगों के प्रति मोह नहीं रहता । इसे ही युक्त वैराग्य कहते हैं। मेरी जो पूजा कर सकता है, स्तव, स्तुति कर सकता है अर्थात् मेरी तारीफ करता है या अपने दुनियावी स्वार्थों के लिये मेरी खुशामद करता है, उसका संग मेरे लिये हितकर नहीं है। जो शासन करता है, नियन्त्रण करता है, मेरी गलतियाँ दिखाता है; उसका संग ही मेरे लिये हितकर है। सांसारिक शिक्षा या अशिक्षा पर हरिभक्ति निर्भर नहीं करती; यदि ऐसा होता तो सभी विद्वान् हरिभक्त होते । जिसने श्रीकृष्ण - भजन को ही एक मात्
र जीवन का उद्देश्य समझ लिया है, उसे सांसारिक शिक्षा प्राप्ति के लिये समय व्यय करने की कोई आवश्यकता नहीं है । भाषा के द्वारा श्रीकृष्ण - भक्ति का प्रचार नहीं होता; हाँ, भाषा का अच्छा ज्ञान होने से तुम्हारी विद्वता या पांडित्य का प्रचार हो सकता है । जिसके हृदय में भगवत् - प्रीति है, उसके द्वारा ही भगवत् - प्रीति का प्रचार होगा। भक्ति का वैशिष्ट्य ही ये होता है कि इसमें इन्द्रिय - तृप्ति के लिए गुरु, वैष्णव या भगवान् को भोग करने की चेष्टा नहीं होती (अर्थात् गुरु, वैष्णव या भगवान् से किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति की चेष्टा नहीं होती।) इसमें प्राकृत और कर्ममार्गीय जाति का या उससे सम्बन्धित विचार का कोई स्थान नहीं होता। भगवान् जिसकी सेवा जिस प्रकार से ग्रहण करना चाहते हैं, वे उसी भाव से उक्त सेवा को करके अपने सेव्य को प्रसन्न करने की चेष्टा करते रहते हैं। साधु-भक्तों के संग से ही जीवों के हृदय में भगवद् - भक्ति प्रकाशित होती है। जीव के रोग या कष्ट का मूल कारण उसकी स्वरूप - विस्मृति अद्वयज्ञान तत्व-श्रीभगवान से विमुखता ही अज्ञान की प्राप्ति और स्वरूप - विस्मृति का कारण है। जीव चित् - कण है, यह पूर्ण या असीम 'चित् - तत्व' की शक्ति का अंश है, इसलिये जीव की इच्छा और सुख-समृद्धि पूर्ण - चित् - तत्व श्रीभगवान् के ऊपर ही निर्भर करती है । विश्ववासियों में एकता व सुखशान्ति एकमात्र श्रीभगवान को केन्द्र करके ही सम्भव होगी, क्योंकि सभी जीवों का स्वार्थ और सुख भगवान् में ही केन्द्रित है। 'सर्वशक्तिमान'; जिनमें समस्त ऐश्वर्य, बल, यश, सौन्दर्य, ज्ञान और वैराग्यता की पूर्णता है, उन्हें ही भगवान कहते हैं। जो शक्ति श्रीकृष्ण को सर्वोत्तम रूप से आह्वाद प्रदान करती हैं अर्थात् आनन्द प्रदान करती हैं, वे ही आह्लादिनी का सार - महाभाव - स्वरूपिणी, श्रीमती वृषभानुनन्दिनी श्रीराधिका जी हैं । ईश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति देखता है कि सारे जीव ही भगवान् के हैं। इसलिये वह स्वाभाविक रूप से ईश्वर की शक्ति के अंश किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता । ईश्वर के सम्बन्ध से, ईश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति की सब जीवों में प्रीति होती है। परमेश्वर से सम्बन्ध- रहित प्रीति का ही दूसरा नाम "काम " है- ये ही हिंसा, द्वेष व अशान्ति का मूल कारण है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी ने नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को ही सर्वोत्तम आराध्य रूप से निर्देश किया है । जीव की हर प्रकार की इच्छा एकमात्र नन्दनन्दन श्रीकृष्ण जी की आराधना से ही पूरी हो सकती है । भगवद् - तत्व को समझने के लिये हमें जिस ज्ञान व अधिकार की आवश्यकता है, वह ज्ञान व अधिकार न आने तक सांसारिक बहुत सी योग्यता रहने पर भी हम उसकी ( उस भगवद् - तत्व की) उपलब्धि नहीं कर पायेंगे। घमण्ड से भगवान् को नहीं जाना जा सकता, कारण, वे unchallengable truth हैं। उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है । अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि भगवद् - तत्व की उपलब्धि करनी है तो प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा - वृत्ति लेकर तत्वदर्शी ज्ञानी गुरु के पास जाना होगा। भगवान असमोर्ध्व तत्व हैं अर्थात् भगवान के न तो कोई बराबर होता है और न ही उनसे श्रेष्ठ, इसलिये उन्हें अपनी किसी योग्यता के आधार पर नहीं जाना जा सकता। होती है। वैष्णवता का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। वैष्णवता नित्य भगवान् की इच्छा ही भगवान् को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है और भगवान् की इच्छा का अनुसरण करने का ही दूसरा नाम भगवान से प्रीति व भगवान की भक्ति है। भगवद् - भक्त हमेशा भगवान् का सुख चाहते हैं। यदि कोई व्यक्ति भगवान् के सुख की इच्छा करता है तो उसकी इस भावना व क्रिया के कारण भगवान उसके गुलाम हो जाते हैं। भगवान् हमेशा अपने भक्तों का सुख चाहते हैं। इसलिये भक्त को प्रेम करने से भगवान् उसके वशीभूत हो जाते हैं और यही कारण है कि भक्त को प्रेम करने वाले भगवान् की कृपा अति सहजता से प्राप्त कर सकते हैं। आचार्यों के सारे आचरण ही जगत के जीवों को शिक्षा देने के लिये होते हैं। जिन्हें भगवान् की आवश्यकता है, उन्हें अवश्य ही भक्तों का संग करना होगा। पिछले जन्मों की व अब तक जो जीवन बीता, उस बीते जीवन की सुकृतियाँ नहीं होने से जीव की सत्संग में रुचि नहीं होती। पाप से पुण्य और असत्कर्म से सत्कर्म श्रेष्ठ है परन्तु भगवद् - भक्ति या वैष्णवता, पाप और पुण्य तथा सत् एवं असत् कर्मों से अतीत अप्राकृत आत्मवृत्ति है। गुण और संख्या कभी भी एक साथ नहीं मिलते। गुणों की अधिकता में संख्या एवं संख्या के अधिक होने पर गुणों का कम होना अवश्यम्भावी है। सर्वोत्तम आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पर पहुँचे व्यक्ति संख्या में कम
भी हों तो भी उन्हीं के द्वारा जगत् के लोगों का कल्याण होता है किन्तु गुणहीन, चरित्रहीन व्यक्ति संख्या में अधिक होने पर भी उनसे किसी का कल्याण नहीं होता। भगवान् का एक नाम "कृष्ण" है। कारण, वे सब को आकर्षित करके आनंद प्रदान करते हैं एवं स्वयं आनन्दित होते हैं। श्रीकृष्ण हर विषय में सर्वोत्तम हैं, अखिल रसामृत मूर्ति हैं, वे सच्चिदानंद विग्रह हैं, अनादि हैं व सबके आदि हैं। वे समस्त कारणों के भी कारण हैं। अतः वे एक मात्र विशुद्ध - प्रेम द्वारा ही आराधनीय हैं। श्रीकृष्ण को भूलना ही जीवों के दुःखों का मूल कारण है। श्रीकृष्ण को याद करने का सबसे सहज और निश्चित उपाय उनका नाम संकीर्तन है । जाति, धर्म, पुरुष या स्त्री के भेदभाव के बिना व वृद्ध युवक व बालक, गरीब - अमीर, विद्वान - अनपढ़ आदि अवस्थाओं के भेदभाव के बिना सभी भगवान् का नाम संकीर्तन करने के अधिकारी हैं। ध्यान, यज्ञ और श्रीमूर्ति की पूजा करने में असमर्थ कलिहत जीवों के उद्धार का एकमात्र उपाय साक्षात् श्रीभगवान् के नाम का संकीर्तन करना ही है । आराधना का उद्देश्य है - चित्त का भगवान् में आवेश और भगवान में तन्मयता को प्राप्त करना । एकमात्र भगवान् की उपासना से ही जीवों को सब प्रकार के मंगल की एवं शान्ति की प्राप्ति हो सकती है। अपनी स्थूल और सूक्ष्म इन्द्रियों के तर्पण करने की प्रचेष्टा को ही काम कहते हैं तथा कामना के पूरी होने में बाधा पड़ने से ही क्रोध होता है। इन्हीं काम व क्रोध से सब प्रकार के अनर्थ होते हैं। भगवान् का भक्त कभी भी किसी दूसरे जीव का बुरा नहीं मूर्ख व्यक्ति अज्ञानतावश दूसरे जीवों के प्रति हिंसा करके सुख का अनुभव करता है। परन्तु किसी के प्रति हिंसा करने से हमें भी हिंसा का सामना करना पड़ेगा, जिससे कोई फायदा नहीं होने वाला। भगवत् - प्रेम के अनुशीलन से जगत् में स्थायी शान्ति संस्थापित हो सकती है, यही श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षा है। एक मात्र अनावृत स्वरूप, नित्य प्रकाशवान, अद्वय ज्ञान स्वरूप - श्रीहरि की आराधना करने में तल्लीन व्यक्ति ही साधु है । व्यक्ति त्यागी बनने से ही साधु नहीं होता है; क्योंकि साधु तो न गृहस्थी है, न ही त्यागी। यदि सवस्तु भगवान में प्रीति नहीं है तो गृहस्थी, त्यागी - किसी को भी साधु नहीं कहा जा सकता। ये बात बिल्कुल ठीक है कि साधु किसी भी आश्रम में रह सकता है । इन्द्रिय- दमन और वैराग्य के द्वारा कुछ समय के लिए चित्त शुद्धि होने पर भी पूर्ण रूप से चित्त की मलिनता नहीं जाती। भगवान के महिमा गुण के श्रवण व कीर्तन के बिना चित्त की मलिनता पूर्ण रूप से दूर नहीं हो सकती। चित्त की शुद्धि का केवल यही सर्वोत्तम तरीका है। वैराग्य शब्द का एक अर्थ है - विगत 'राग' अर्थात् संसार के विषय भोगों व सम्बन्धों से अनासक्ति और दूसरा अर्थ है - परम - पुरुष भगवान में विशिष्ट 'राग' । वास्तव में परम पुरुष भगवान में जिस मात्रा में अनुराग बढ़ता है, उसी मात्रा में संसार के प्रति आसक्ति स्वाभाविक ही कम हो जाती है। श्रीभगवान् में प्रीति हुए बिना संसार के प्रति जो अनासक्ति है वह कष्ट की कल्पना मात्र है, स्वाभाविक वैराग्य नहीं है । भक्ति, आत्मा की नित्य वृत्ति है। साध्य - वस्तु की प्राप्ति के लिए भक्ति केवल अनित्य साधन नहीं है। भक्ति ही साध्य है और भक्ति ही साधन है। जो भगवान् से प्रेम करते हैं, वे सब जीवों से प्रेम करते हैं । जीव भगवान् नहीं है, जीव भगवान् का है; जीव तत् नहीं है वह तो तदीय है। भोग और मोक्ष की कामना को पदाघात न कर पाने तक अर्थात्, भोग व मोक्ष की कामना को पूरी तरह से न छोड़ पाने तक भक्ति का आभास भी उदित नहीं होता। कामना - वासना की अग्नि में और अधिक ईंधन देते रहने से इस आग को बुझाया नहीं जा सकता, बल्कि वह तो और भी बढ़ती जाती है। इसलिये भोग्य वस्तुओं को जुटाने से स्वेच्छाचारिता को दमन नहीं किया जा सकता। देश के नेता धर्म और नीति की शिक्षा के विषय में जब तक सचेत नहीं होंगे, तब तक वे देश का वास्तविक कल्याण नहीं कर सकते। जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गए हैं। जिस कारण हम देह - गेह अर्थात् शरीर और घर या उससे सम्बन्धित मायिक वस्तुओं को ही अपना धन और अपना सर्वस्व समझ बैठे हैं। इसलिये हम अपने वास्तविक सर्वस्व - अखिलरसामृत मूर्ति - श्रीकृष्ण की प्राप्ति से वंचित हो गए हैं। जब तक हमारा अहंकार नहीं बदलेगा, तब तक श्रीकृष्ण का वास्तविक अनुशीलन सम्भव नहीं है । तदीय भाव में अर्थात् मैं उनका (भगवान का ) हूँ- इस भाव में प्रतिष्ठित हुये बिना भक्ति नहीं होती। वेदान्त के सूत्र 'तत्वमसि' का अर्थ यह नहीं है कि तुम वही पूर्ण ब्रह्म हो । बल्कि उसका सही अर्थ है- 'तस्य त्वम् असि' अर्थात् तुम भगवान् के हो । सांसारिक अभिमान से जो भी साधन किया जाता है, वह अध
्यात्म - मार्ग में आगे नहीं ले जा सकता। जब तक इस मायिक barrier को transcend ( अतिक्रमण) नहीं किया जायेगा, तब तक परमात्मा का अनुशीलन नहीं हो सकता । सम्बन्ध - ज्ञान के साथ श्रीकृष्ण और उनके प्रिय जनों की सेवा ही हरिभजन है । आत्म - ज्ञान में स्थित हुये बिना वैकुण्ठ - भजन अर्थात् वैकुण्ठ वस्तु भगवान की दिव्य महिमा का गान नहीं होता। हमारे सनातन धर्म के शास्त्रों ने तथा हमारे पूर्वाचार्यों ने कर्म, ज्ञान, योग, व्रत, तपस्या आदि को छोड़कर केवल हरिनाम करने के लिए ही उपदेश दिया है। श्रीनाम संकीर्तन ही हजारों प्रकार के भक्ति अंगों में सर्वश्रेष्ठ है। श्रीहरिनाम का भजन ही श्रीचैतन्य देव जी की शिक्षा का सार है। श्रीभगवान को बुलाना ही श्रीनाम - भजन है । यदि हम दूसरे सभी प्रकार के साधनों का मोह छोड़ दें और श्रीनाम और नामी को अभिन्न समझ कर एकान्त भाव से श्रीनाम - भजन कर पायें तो तीव्रता से फल देने वाला इससे श्रेष्ठ और कोई भी साधन नहीं है। जो लोग सत्य परमेश्वर के साथ अपने स्वार्थ को मिला लेते हैं, परमेश्वर की माया द्वारा उनका अनिष्ट भला किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? ज्ञानहीन मनुष्य, नाशवान प्राकृत - वस्तुओं में मग्न रहने के कारण सर्वदा ही भय से ग्रस्त रहते हैं। किन्तु शुद्ध - भक्त और विवेकी मनुष्य ये समझते हैं कि समस्त वस्तुओं के नियन्ता श्रीकृष्ण हैं। इसलिये श्रीकृष्ण के शरणागत - भक्तों को किसी प्रकार का भी भय नहीं होता। जीवों में जितनी श्रीकृष्ण से दूर रहने की प्रवृत्ति होती है, उतनी ही माया उनमें प्रवेश कर उनको अज्ञान से उत्पन्न दुःख, भय और शोक आदि को प्रदान करती है । श्रीकृष्ण की इच्छा में अपनी इच्छा को पूर्णतः समर्पित करना ही शुद्ध - भक्ति है और उसके लिये ही हम चेष्टा करते हैं। आप श्रीकृष्ण के होंगे तो श्रीकृष्ण आपके हो जायेंगे। मायाबद्ध जीव और शुद्ध - भक्त के विचार कभी भी एक नहीं हो सकते। उनमें भेद होना अवश्यम्भावी है । उत्साह न होने से कोई भी व्यक्ति किसी भी मार्ग पर उन्नति नहीं कर सकता। इसलिये आप उत्साह के साथ जितना अधिक से अधिक सम्भव हो सके, श्रीभगवान् को पुकारें । संख्यापूर्वक, अपराध त्याग कर माला पर महामंत्र का जप करें। अपने आप को श्रीकृष्ण की सम्पत्ति मान लेने पर अपनी इन्द्रियों को तर्पण करने का उत्साह नहीं जागेगा। श्रीकृष्ण सेवा के निमित्त नियुक्त होने से ही साधना में आनन्द और उत्साह होगा । भक्ति - पथ में भगवान् को समर्पण कर देने की ही बात है और इसके लिए अपनी सुख-सुविधा और प्रवृत्तियों की बलि देनी ही होगी। तुच्छ व्यक्तियों के दुःख, भय, शोक आदि को दूर करने के लिए शरीर - मन - वाक्य की बलि देने से तनिक भी लाभ नहीं है । अनन्त, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानंद श्रीकृष्ण को ही इन सबका उपहार देने का विधान है। आप निश्चिन्त होकर भगवान को पुकारें, वे अवश्य ही आपके सभी अनर्थों को दूर कर देंगे। अपना मंगल चाहने वाले व्यक्ति वैष्णवों की आविर्भाव और तिरोभाव तिथि में उनकी महिमा का श्रवण - कीर्तन व स्मरण करते हैं। भजनीय भगवान् नित्य हैं, भजन करने वाला भक्त नित्य है और दोनों में सम्बन्ध कराने वाली भक्ति भी नित्य है । कर्मों के फल को भोगने का जो कानून है, वह भगवान् या भगवान् के पार्षदों पर लागू नहीं होता। तुम्हारे गुरु जी की सेवा सारी की सारी तुम्हारी ही है। यदि कोई दूसरा कुछ कर दे तो उसके लिए तुम कृतज्ञ रहना । श्रीकृष्ण के संसार की majordomo (बड़े परिवार की सर्वप्रधान गृहिणी) हैं - श्रीमती राधारानी। वह जानती हैं कि श्रीकृष्ण की समस्त सेवाएं उनकी ही करणीय हैं, दूसरा कोई कैसे भी सेवा कर दे, वह कृतार्थ हो जाती हैं, उसकी रहती हैं। नित्य बोधमयी, आनन्दमयी सत्ता ही 'आत्मा' नाम से कही जाती है। मैं आत्मा हूँ और जो मेरा कारण है - वह श्रेष्ठ आत्मा या परमात्मा है। भगवान् व्यक्ति हैं, किन्तु असीम व्यक्ति हैं। भक्तों के प्रेमास्पद मध्यमाकार वाले होने पर भी बड़े से बड़े और छोटे से छोटे हैं, वे अचिन्त्य शक्ति वाले हैं - यही भगवान् की भगवत्ता है। प्राकृत विशेषता रहित होने के कारण वे निर्विशेष हैं किन्तु अप्राकृत विशेषतायें होने के कारण वे सविशेष हैं। लीलावतार, युगावतार, मन्वन्तरावतार, पुरुषावतार, गुणावतार, शक्तयावेशावतार - इन छः प्रकार के मुख्य अवतारों के अतिरिक्त भगवान् जगत् के जीवों को अपनी सेवा प्रदान करने के लिए कृपा पूर्वक अर्चाविग्रह' के रूप में भी प्रकट होते हैं। भगवान के श्रीविग्रह को भगवान का अर्चा - अवतार कहते हैं। इस प्रकार भगवान के अर्चावतार को जो पत्थर समझता है, वह नरक में जाता है। भक्त लोग निर्गुण व अप्राकृत होते हैं। वे अपने दिव्य प्रेम - नेत्रों से भगवान् का वास्तविक स्वरूप दर्शन करते हैं। भगवान् के आविर्भाव का मुख्य कारण तो भक्त हैं। जैसे पति के विरह से का
तर सद्पत्नी का दुःख, पति के अतिरिक्त अन्य किसी प्रतिनिधि के द्वारा, किसी द्रव्य या किसी भी उपाय से दूर नहीं हो सकता, उसी प्रकार भगवान् के अवतीर्ण न होने तक भक्त का विरह-दुःख दूर नहीं होता। इसलिये साधुओं के परित्राण अर्थात् उन्हें दर्शन देकर उनके विरह दुःख को दूर करने के लिये ही भगवान् जगत् में आते हैं। भगवान् के अदर्शन से जब प्रेमिक- भक्त विहल हो उठते हैं, तब भक्त-दुःखहारी भगवान, उनके हृदय में आविर्भूत हो जाते हैं। भगवान् के स्वरूप का दर्शन कर भक्त को परम सुख होता है । पुनः, भगवान् के अदृश्य हो जाने पर भक्त, विरह में रोते हैं एवं अपने प्रेमास्पद के दर्शनों की उत्कंठा से अदृश्य भगवान् के स्वरूप को बाहर प्रकट करते हैं। भक्त द्वारा भगवान के बाहरी प्रकटित इसी रूप को 'प्रतिमा' कहते हैं। चूँकि ये प्रतिमा या श्रीमूर्ति अवरोह मार्ग से प्रकट हुई, इसीलिये यह 'श्रीविग्रह' है । शरणागत व्यक्ति के हृदय में ही भगवान् अपना स्वरूप प्रकाशित करते हैं। परमात्मा बहुत तर्क, दिमाग या विद्वता द्वारा प्राप्त नहीं होते। जो शरणागत होते हैं, उनके सामने ही परमात्मा स्वयं को प्रकाशित कर देते हैं। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के आश्रित प्रत्येक वैष्णव को गले में तुलसी जी की माला और मस्तक आदि अंगों पर तिलक धारण करना अत्यन्त आवश्यक है । जो भगवान् को नहीं चाहते, सांसार की और - और वस्तुएँ चाहते हैं, वे भगवान् को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? शुद्ध - भक्त एकमात्र भगवान् को ही चाहते हैं, अन्य वस्तुओं के लिए आकांक्षा उनके मन में नहीं होती, इसलिये वे ही भगवान् को प्राप्त करते हैं। जो भगवान को चाहेगा, उसे ही तो भगवान मिलेंगे। जो चाहता ही नहीं, उसके पास भगवान क्यों जायेंगे। जहाँ पर भगवान् के नित्य चिन्मय स्वरूप को स्वीकार किया जाता है, वहीं भगवान् की कृपा से कर्मी को कर्म का, ज्ञानी को ज्ञान का एवं योगी को योग की साधना का फल प्राप्त होता है और जहाँ भगवान् के स्वरूप का अस्तित्व नित्य नहीं माना जाता, वहाँ पर किसी को भी किसी भी साधना के फल की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि फल दाता भगवान हैं। अच्छी साधना के अच्छे फल के लिये उनके नित्य स्वरूप को मानना ज़रूरी है। श्रीमन् महाप्रभु जी का कहना है कि श्रीकृष्ण की तटस्था शक्ति से उत्पन्न जीव, श्रीकृष्ण को छोड़कर स्वतन्त्र रूप से कभी भी नित्य सुख प्राप्त नहीं कर सकता। कृष्ण - प्रेम ही जीव की प्राप्त करने योग्य चरम वस्तु है। श्रीकृष्ण में प्रीति ही जीव का वास्तविक स्वार्थ है एवं वही श्रीकृष्ण प्रीति ही निस्वार्थपरता एवं परार्थपरता है। श्रीमहाप्रभु जी के अनुसार कलियुग में कृष्ण- प्रीति प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है - श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन। श्रीकृष्ण के नाम संकीर्तन में स्थान या समय आदि का विचार नहीं है। किसी भी जाति - वर्ण के स्त्री-पुरुष, बालक - युवा व वृद्ध - सभी जीव सभी समय श्रीकृष्ण नाम कर सकते हैं। भगवान् असीम व सर्वशक्तिमान हैं। भक्त की इच्छा को पूरी करने के लिये वे किसी भी स्थान पर मत्स्य - कूर्म- वराहादि किसी भी रूप में अपनी सारी शक्तियों के साथ अर्थात् सर्वशक्तिमान रूप से प्रकट हो सकते हैं। अर्चावतार, प्रेमिक - भक्तों को साक्षात् दर्शन देते हैं। वे उन्हें अपनी साक्षात् सेवा देकर उन्हें कृतार्थ करते हैं किन्तु कामुक व्यक्ति अपने कामनेत्रों से भगवान का दर्शन करना चाहते हैं, जो कि असम्भव है। जो भगवान् के अप्राकृत विग्रह को भी दुनियावी बुत या पुतला ही देखते हैं, निर्गुण भगवत् - स्वरूप उनके लिये अप्रकाशित रहता है। श्रीकृष्ण अखिल रसामृत मूर्ति हैं। भगवान् के अनन्त स्वरूपों में श्रीकृष्ण सर्वोत्तम स्वरूप हैं अर्थात् अवतारी हैं। श्रीकृष्ण सब अवतारों के कारण हैं। वैष्णव निश्चय ही परम दयालु हैं। संकीर्तन का अर्थ है- सम्यक् कीर्तन, सुष्ठु कीर्तन अथवा निरपराध कीर्तन। इसके अलावा भगवान् के नाम, गुण, लीला, परिकर, धाम इन सब का कीर्तन भी संकीर्तन कहलाता है। बहुत से श्रद्धालु व्यक्तियों द्वारा मिलकर उच्च स्वर में होने वाले हरिनाम - कीर्तन को भी संकीर्तन कहते हैं। हरिनाम जप से कीर्तन श्रेष्ठ है। होठों को हिलाये बिना हरिनाम जप करने से जप करने वाले का मंगल होता है। किन्तु कीर्तन से अपना व दूसरे का या यूँ कहें कि दोनों का मंगल होता है। उच्चकीर्तन द्वारा वृक्ष इत्यादि व पशु-पक्षी आदि जंगम प्राणियों का भी मंगल होता है। इसके इलावा जप से तो चित्त विक्षिप्त भी हो सकता है परन्तु उच्च - संकीर्तन में विक्षेप की आशंका नहीं रहती। पूर्ण - कारण परमात्मा अथवा भगवान् के प्रति जीवात्मा का अनुराग ही भगवद् - प्रेम कहलाता है। भगवान् नित्य हैं, जीव भी नित्य हैं तथा उनका परस्पर स्वामी और सेवक का सम्बन्ध भी नित्य ही है। भगवान् की भक्ति ही जीव का प्रयोजन है। इसे ही सनातन
- धर्म, वैष्णव- धर्म या आत्म - धर्म कहते हैं। सनातन धर्म व्यापक है, विभु है, विराट है, विशाल है। जबकि ब्राह्मण व क्षत्रिय अदि वर्ण तथा गृहस्थ व संन्यास आदि आश्रम - धर्म, इस आत्म - धर्म तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र हैं। श्रीकृष्ण - शक्ति के अंश - जीव द्वारा श्रीकृष्ण को भूल जाना ही अपराध है। इसी अपराध के कारण स्वरूप - भ्रान्ति और विपरीत बुद्धि होती है। साधु, शास्त्र एवं गुरुदेव की कृपा से जब जीव कृष्ण - उन्मुख होता है, तभी वह समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है और परम - शान्ति को प्राप्त कर लेता है। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की अनुरागमयी भक्ति ही जीवन में परम शान्ति प्रदान कर सकती है। श्रीकृष्ण - भक्ति को छोड़कर विश्व - समस्या का स्थायी समाधान सम्भव नहीं है। अशान्ति का कारण काम अर्थात् काम वासना है। श्रीकृष्ण के सुख की चेष्टा के द्वारा हम परमानन्द प्राप्त कर सकते हैं। जिस प्रकार प्रकाश के प्रकट होने से अन्धकार भाग जाता है, उसी प्रकार आनन्द के प्रकट होने से निरानन्द अर्थात् दुःख भी भाग जाता श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने की चेष्टा को ही प्रेम कहते हैं। पूर्ण प्रभु की प्रीति ही सबके लिए सुख एवं मंगलदायक है । काम Self centered activity व प्रेम God centered activity है। काम द्वारा अपने से निकृष्ट, जड़ - वस्तु या दुःख का ही संग होता है जबकि प्रेम द्वारा अपने से श्रेष्ठ वैकुण्ठ-वस्तु अर्थात् भक्त व भगवान् का संग होता है । श्रीकृष्ण के सुख को छोड़कर अन्य कार्यों में लिप्त होना ही आध्यात्मिक व्यभिचार और अनाधिकार चेष्टा है। सभी जीवों का स्वार्थ और परमार्थ श्रीकृष्ण - भजन ही है । शुद्ध - भक्तों की सेवा, शुद्ध - भक्तों का संग और उनकी कृपा के प्रभाव से धीरे - धीरे साधक अनन्य श्रीकृष्ण - भक्ति में रुचि प्राप्त करने लगता है तथा श्रीकृष्ण - भक्ति में रुचि प्राप्त करके ये निष्कपट साधक तमाम गुणमयी एवं लौकिक बाधाओं को पार करके भगवान की प्रेम - भक्ति में प्रतिष्ठित हो सकता है। शुद्ध - भक्त की कृपा के इलावा शुद्ध - भक्ति प्राप्ति का अन्य कोई भी रास्ता जगत में नहीं है। इसलिए भक्त और भगवान् दोनों की सेवा ही साधक का मुख्य कर्तव्य है। दोनों ही हमारे नित्य - आराध्य हैं । साधु - भक्त वैकुण्ठ वस्तु हैं। वैकुण्ठ - वस्तु ही बद्ध - जीव को कृपापूर्वक वैकुण्ठ स्थिति में ले जा सकती है। श्रीविष्णु, वैष्णव एवं विष्णु का धाम - तीनों ही वैकुण्ठ हैं अर्थात् कुण्ठा रहित हैं जिनमें माया का कोई प्रभाव नहीं होता । श्रीविष्णु - वैष्णव की सेवा-वृत्ति को वैकुण्ठ - वृत्ति कहते हैं। सिद्धान्त यह है कि वैकुण्ठ ही वैकुण्ठ को दे सकता है। करोड़ों सत्कर्मों की अपेक्षा श्रीकृष्ण - भक्त का संग और श्रीकृष्ण के भक्तों की सेवा ही वास्तविक मंगल प्रदानकारी है। परमेश्वर स्वतः सिद्ध तत्ववस्तु हैं । अतः स्वतः सिद्ध होने के कारण उनमें शरणागति के बिना या उनकी कृपा बिना कोई भी उनको जानने व अनुभव करने में समर्थ नहीं होता है। जीव अपनी चेष्टा से भगवान् को नहीं जान सकता व नहीं समझ सकता है। हाँ, भगवान् यदि कृपा करके जनायें तो जान सकता व समझ सकता है। अशरणागत व्यक्ति जितनी प्रकार की भी चेष्टा क्यों न कर ले, वह परमेश्वर के अस्तित्व की उपलब्धि करने में समर्थ नहीं होता । भगवान् के धाम से आने वाले उनके भक्त भी अपने निर्गुण स्वरूप से ही इस जगत में आते हैं और वापस चले जाते हैं। 'भज' धातु से भक्ति शब्द उत्पन्न हुआ है । 'भज' धातु का अर्थ है-सेवा। सेवा का अर्थ है सेव्य का प्रीतिविधान अर्थात् सेव्य को प्रसन्न करना । सेव्य की इच्छा के अनुसार चलने से ही सेव्य की प्रीति होती है, वह प्रसन्न होता है। इसीलिए भगवत् - प्राप्ति का एकमात्र उपाय है - शुद्धा - प्रीति या शुद्धा - भक्ति । भक्ति ही भगवान् के निकट ले जाती है, भक्ति ही भगवान् को दिखाती है। परम पुरुष भक्ति के वश हैं। इसलिये भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलना ही हरेक व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत - शान्ति का, पारिवारिक शान्ति का व विश्व शान्ति का एकमात्र पथ है। काम व क्रोध में आसक्त मनुष्य राजसिक और तामसिक नीति का सहारा लेकर रजोगुण और तमोगुण के विषयों को ग्रहण करके परस्पर हिंसा - द्वेषादि से पराजित होते हैं एवं निरन्तर अशान्ति की आग में जलते रहते हैं। श्रीभगवत्-प्रेम ही मनुष्यों की सुख शान्ति का एकमात्र उपाय है तथा ये ही आपस में लड़ रहे देशों में एकता लाने व आपसी शान्ति स्थापना कराने में समर्थ है। शिष्य का करणीय धर्म है- गुरुपूजा। जाति और वर्ण के भेद की भावना से रहित होकर सभी जीवों के प्रति यथायोग्य दया करनी चाहिए। वैष्णवों को मर्यादा देने वाले भक्तों को ही शुद्ध - वैष्णव कहा जाता है। जो उन्नत भक्त हैं, वे श्रीहरि के वैभव - स्वरूप
- वैष्णवों में भगवान् का साक्षात् अधिष्ठान मानकर वैष्णव- पूजा में आसक्त रहते हैं। हमारे शरण्य हैं -श्रीगुरुदेव । वे श्रीभगवान् के आश्रय - जातीय विष्णु - तत्व होने के कारण हमारे सेव्य भी हैं और भगवान के सेवक भी। गुरुदेव इन दो रूपों से प्रकट रहकर हमारी सेवा ग्रहण करते हैं व हमें उपदेश देकर कृतार्थ करते रहते हैं। यदि हम कोई बुरा उद्देश्य लेकर सदगुरु के पास न जायें तो ये निश्चित है कि उनकी करुणामयी इच्छा के कारण ही उनके विशुद्ध, चिन्मय स्वरूप के दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो जायेंगे । हमारे अधिकार के तारतम्यानुसार वे हमें भगवान श्रीकृष्ण जी के विभिन्न रसों की सेवा का सुयोग प्रदान करते हैं। केवल मात्र श्रीविष्णु के शरणागत एकान्त भक्त को ही श्रीविष्णु के वास्तविक स्वरूप की उपलब्धि हो सकती है। ये सभी अनुभूतियाँ केवल भगवान् की कृपा के द्वारा ही हो सकती हैं। श्रीविष्णु की सेवा करने की अपेक्षा वैष्णव - सेवा करने वालों की महिमा अधिक है। अनन्य श्रीभगवद्भक्त ही श्रीभगवान् की कृपा की प्रकाशमूर्ति हैं। अनन्य - भक्त की बाहरी कोई भी वर्ण व आश्रम आदि के द्वारा पहचान नहीं है। वे किसी भी वर्ण या आश्रम में हो सकते हैं तथा उसी वर्ण या आश्रम में रहते हुए भी वे गुणातीत व शुद्धस्वरूप हैं। एकान्त, शुद्ध, प्रेमिक - भक्त की कृपा ही जगत् में श्रीभगवत् कृपा है व उनकी सेवा ही जगत् में साक्षात् भगवत् -सेवा है। स्वतःसिद्ध, आनन्दमय - भगवद्तत्व का आविर्भाव, शरणागत के हृदय में ही होता है । शरणागति में गीता की शिक्षा की परिसमाप्ति है। शरणागत होने के बाद शरण्य श्रीभगवान् की प्रीति के अनुसार अनुशीलन - प्रचेष्टा को भक्ति कहते हैं। शरणागति के चरम आदर्श के रूप में श्रीमद्भागवत के गोपियों के चरित्र को देखा जाता है क्योंकि श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये उनका अकरणीय कुछ भी नहीं है । श्रीभगवद् - भजन की महिमा जानने के लिये शुद्ध - भक्त का संग और शुद्ध - भक्त के मुख से भक्तिशास्त्र सुनना कर्तव्य है। नित्यप्रति शास्त्र - श्रवण द्वारा चित्त मार्जित होता है। किसी के द्वारा साक्षात् रूप से कोई भी दोष या त्रुटि दिखाने पर कई बार हमारे अभिमान में आघात लगता है और हमारा चित्त क्षुब्ध हो जाता है, किन्तु शास्त्र किसी पर व्यक्तिगत रूप से आक्रमण नहीं करता। इसलिए अभिमानी व्यक्ति उसे सुनकर स्वयं की कमियों का अनुभव करने का सुयोग प्राप्त करता है। इस अनुभूति के बाद अभिमानी व्यक्ति उनको परित्याग करने में यत्नवान होता है। दूसरे - दूसरे मतलबों को छोड़कर श्रीभगवत् - प्रीति के उद्देश्य से श्रीभगवान की कथा श्रवण - कीर्तन के समान शीघ्र मंगल प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन और कुछ भी नहीं हो सकता। अपराध - युक्त होकर कीर्तन करने पर नाम का वास्तविक फल नहीं देखा जाता। जिस प्रकार भगवान् सर्वशक्तिमान हैं, भगवन्नाम भी उसी प्रकार सर्वशक्तियुक्त हैं। भगवान् के 'वाच्य' और 'वाचक' ये दो स्वरूप होने पर भी इन दोनों में भगवान् के 'वाचक' स्वरूप की अर्थात् हरिनाम की महिमा ही अधिक है । दुर्भाग्यवश ही सर्वसन्तापहारी, सर्वशुभप्रद, सर्वाभीष्टप्रद श्रीनाम की महिमा में हम विश्वास नहीं जमा पाते । अन्दर और बाहर दोनों से भगवान् का अनुशीलन करना चाहिए, अंततः बाहर से न होने पर भी अन्दर से जो भगवद् - चिन्तन करते हैं, वे साधु हैं। क्योंकि केवल बाहर से दिखावा करने पर भी अन्दर से जो खाली हैं, वह कदापि साधु नहीं हैं। जो निरन्तर हरिकीर्तन करते हैं, वे ही वास्तविक मौनी हैं और वे ही साधु हैं। कारण, उनको दूसरी चिन्ता का अवसर ही नहीं है। 'नाम' साक्षात् भगवान् हैं। ये हरिनाम हमारी भोग की वस्तु नहीं हैं। अपनी भोग की वस्तुओं को लाकर देने के लिये, अपनी खुशामद करवाने के लिये या अपनी सेवा करवाने के लिए जब हम भगवान् को बुलाते हैं तब भगवान् नहीं आते, उस समय भगवान् की माया आकर हमसे अपनी खुशामद करवाती है। इसलिये कर्तृत्वाभिमान से हरिनाम नहीं होता है। अपने सांसारिक जीवन के लिए परमार्थ को नष्ट नहीं करना केवल मात्र निष्काम व शुद्ध - भक्ति के द्वारा ही भगवान् या भगवत - प्रेम प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण व लीलायें दुनियावी भोगोन्मुख इन्द्रियों की ग्रहण योग्य वस्तु नहीं हैं, ये तो सेवोन्मुख चिन्मय इन्द्रियों के द्वारा देखी व समझी जा सकती हैं। प्रेमिक - भक्त अपने शुद्ध अन्तःकरण में दर्शन करने वाले अपने आराध्यदेव को बाहर में प्रकाशित करते हैं। प्रेमिक- भक्तों द्वारा अपने आराध्यदेव के निरन्तर दर्शन, उनकी सेवा और उनके विरह - दुःख को हटाने के लिये भगवान, भक्त के लिये अर्चावतार रूप से अवतीर्ण होते हैं तथा साथ ही साथ आनुषंगिक भाव से अन्यान्य जीवों का भी कल्याण करते हैं। श्रीगुरु - वैष्णव व भगवान अपने सेवकों के धैर्य, उनकी सहनशीलता व उनकी निष्ठा की परीक्ष
ा भी करते हैं । परमेश्वर को न मानने से परमेश्वर को कोई नुकसान नहीं होगा, हम ही उनकी कृपा से वन्चित रह जायेंगे। परमेश्वर से ही जीव निकले हैं, परमेश्वर में ही स्थित हैं व परमेश्वर के द्वारा ही रक्षित हैं व पालित हैं। यही नहीं, परमेश्वर की सत्ता से ही जीवों की सत्ता है। अतः परमेश्वर की भक्ति करना ही जीवों का कर्तव्य है, धर्म है, स्वार्थ है व परमार्थ है। परमेश्वर के विमुख रहकर जीव, स्वतन्त्र भाव से अपना कल्याण नहीं कर सकता और न ही सुखी हो सकता है। परमेश्वर जब स्वयं अपनी इच्छा से गुरु, पुरोहित व भास्कर आदि को अवलम्बन करके भक्तों को सुख देने के लिए जिस भी श्रीमूर्ति के रूप में प्रकटित होते हैं, उसे कहते हैं - श्रीविग्रह । इसे भगवान् का कृपामय अर्चावतार कहा जाता है। भक्तों के दिव्य दर्शन में वे श्रीविग्रह साक्षात् भगवान् होते हैं। मूर्ख लोग अपनी दुनियावी बुद्धि व इन जड़ीय आँखों से श्रीविग्रह की तत्वानुभूति नहीं कर पाते व उन्हें साधारण मूर्ति के रूप में दर्शन करते हैं। वैष्णव कभी भी अपने को वैष्णव नहीं समझता, इसलिए वह किसी दूसरे वैष्णव से सेवा लेने में संकोच करता है, किन्तु वैष्णव - सेवा को छोड़कर जीव की गति नहीं है, यही कारण है कि करुणामय श्रीहरि की इच्छा से जीवों का उद्धार करने के लिए बहुत उच्च कोटि के वैष्णवों में भी बिमारी देखी जाती है। व्याधिग्रस्त अवस्था में वैष्णव कुछ करने में असमर्थ होता है, ऐसे में भाग्यवान जीव को उनकी सेवा का सुअवसर मिलता है। वैकुण्ठ वस्तु में नाम तथा नामी का आपसी भेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ अज्ञान और माया का प्रवेश नहीं है। यही कारण है कि श्रीचैतन्यदेव एवं उनकी वाणी में कोई भेद नहीं है । श्रेय पथ के पथिक ही श्रीचैतन्यदेव जी को व उनकी वाणी को अपने प्राणों से भी अधिक चाहते हैं व इन्हें ही अपनी वांछित वस्तु समझते हैं। इन्द्रियजन्य भोगों के फल भले ही वर्तमान में इन्द्रिय सुखकर लगते हों लेकिन परिणाम में ये दुःख, भय व शोक को देने का कारण बनते हैं। 'श्री चैतन्य वाणी' तो प्रेम - वाणी है। ये प्रेम ही व्यक्तिगत रूप से व सामूहिक रूप से आपसी मित्रता व एकता करने में समर्थ है। इसके इलावा दुनियावी अर्थनीति, समाजनीति, राष्ट्रनीति व कोई भी प्राकृत धर्म-नीति विश्व वासियों में, देश में, किसी भी जाति में व परिवार में शान्ति की स्थापना करने में, कभी भी समर्थ नहीं हो सकती - ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है । मन्दबुद्धि एवं दुर्भाग्यशाली जीवों की वैष्णव - सेवा में रुचि नहीं होती। वह अज्ञानतावश वैष्णव को कर्मफल में बँधे जीव की तरह समझ कर उन पर अश्रद्धा करते हैं । भक्त के आनुगत्य में जो भगवान् की प्रीति के लिए रहता है, वही श्रेष्ठ भक्त है। इसलिए ऐसे भक्त का आनुगत्य करना ही भक्ति प्राप्ति का रास्ता है। भक्त की कृपा जिन पर होती है, भगवान् की कृपा भी उन पर होती है। तुम लोग सब निष्ठा के साथ हरि भजन करना। जैसी भी अवस्था में रहो, हरिभजन कभी नहीं छोड़ना । यही मेरी तुम लोगों के पास प्रार्थना, अनुरोध, वान्छा और उपदेश है । हरेक अवस्था में तथा हरेक स्थान पर तुम लोग हरि भजन श्रेष्ठ वैष्णव को हर समय सम्मान देना। इस में किसी प्रकार का संकोच न करना। इस से तुम्हारा मंगल होगा। भक्त का आनुगत्य ही वैष्णवता है । नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने परमतम् तत्व या सर्वोत्तम् - आराध्य कहा है । कांन्चनपाड़ा धाम परमपूज्य श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी का जन्म स्थान ( (कांन्चनपाड़ा, जिला फरीदपुर, बंगला देश )
Maa Ganga Ki Kahani: मां गंगा की कथा वाल्मीकि रामायण के बाल कांड में उपलब्ध है। इस कथा के अनुसार, ऋषि विश्वामित्र ने तपस्या करते हुए अपनी साधना शक्ति को वृद्धि देने वाली देवी मां गंगा को प्रार्थना की। उन्होंने देवी गंगा से अपने आश्रम में विराजमान होने की विनती की और उन्हें अपने तपस्या का उपयोग करने का आदेश दिया। Maa Ganga Ki Kahani: ऋषि विश्वामित्र ने इस प्रकार कथा सुनाना आरम्भ किया, "पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। उसकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया। " विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, "हे भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं? " इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, "महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था । किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। जब उनके इस विचार की सूचना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ। देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करते हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी। "वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति था। जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की। उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया। राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, "गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये। " राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, " राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी क
ी सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की । तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा का दायित्व कपिल पर है । इसलिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो। पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। उन्होंने देखा कपिल आँखें बन्द किये बैठे हैं। उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया। "जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी! मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये। यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं । अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी। थोड़ा रुककर ऋषि विश्वामित्र ने कहा, "महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे। अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और उनका स्वर्गवास हो गया। इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये। पर उन्हें भी मनवांछित फल नहीं मिला। भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उन
के वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये। "भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। गंगा के इस वेगपूर्ण अवतरण से उनका अहंकार शिव जी से छुपा न रहा। महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं। इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी। श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ (हिंदी अनुवाद सहित) महैश्वर्यं लीला जनित जगतः खण्डपरशोः । (हे माँ! ) महेश्वर शिव की लीला जनित इस सम्पूर्ण वसुधा की आप ही समृद्धि और सौभाग्य हो, वेदो का सर्वस्व सारतत्व भी आप ही हो। मूर्तिमान दिव्यता की सौंदर्य-सुधायुक्त आपका जल, हमारे सारे अमंगल का शमनकारी हो। द्रुतं दूरीकुर्वन् सकृदपि गतो दृष्टिसरणिम् । आपकी दृष्टि मात्र से ही ह्रदय की दुर्वासनाएं और दरिद्रों के दैन्य शीघ्र दूर हो जाते हैं। राग और अविद्या के गुल्म आपके गुरुसम अपार प्रवाह की दीक्षा से समूल नष्ट हो जाएँ और हमें अतुलनीय श्रेय की प्राप्ति हों। कटाक्ष व्याक्षेप क्षण जनितसंक्षोभनिवहाः। गणेशजननी की बालार्क कटाक्षदृष्टि से शिव जटाओं में बद्ध गंगा की संक्षोभित उत्ताल तरंगें, कठिन अघयुक्त-भुवनभय भंगकारी हों! मया सर्वेऽवज्ञा सरणिमथ नीताः सुरगणाः । आपके अवलंबन के आश्रय से सहसा अति गर्वित हो मैंने सभी अन्य देवों की अवज्ञा करली, ऐसे में यदि आप मुझसे उदासीन हो गयी तो मैं निराधार किसके आगे अपना रोना रोऊँ? हरत्यन्तस्तन्द्रां तिमिरमिव चण्डांशु सरणिः। सूर्य रश्मियों की उपस्थिति मात्र से ही जैसे तम का नाश हो जाता है, आपके स्मरण मात्र से ही पुण्यहीनों की भी कुंठाओं का शमन हो जाता है। दिव्यात्माओं द्वारा भी अभिलाषित आपका पावन जल मेरे भी त्रिविध पाप संताप को दूर कर दे। विलोलद्वानीरं तव जननि तीरं श्रितवताम् । बड़े बड़े साम्राज्यों का तृणवत त्याग करके, आपके तीर का आश्रय ले कर तृण विलोलित आपके जल के आतृप्त अमृतपान के आनंद की तुलना में तो निर्वाणपद भी हेय है. गतो यावन् मातः मिलति तव तोयैर्मृगमदः। राजमहिषियों द्वारा प्रातःकाल आप में स्नान से कस्तूरीलेपित वक्षों से आपके जल में मृगमद अर्पित हो जाने के पुण्य से वे मृग अनायास ही सहस्रशत विमानों से परिवृत हो दिव्यरूप प्राप्त कर नंदनवन में स्वच्छंद प्रवेश और विचरण करते हैं। प
्रगीतं यत्पापं झटिति भवतापं च हरति । स्मरण करते ही जो तुरंत मन में प्रशांति रच देता है, गान करने से जो अविलम्ब भवताप हर लेता है, श्रवण मात्र से "गंगा" यह नाम मेरे मन के कमलवन में और मुख में प्राणांत तक विलास करता रहे। न काका नाकाधीश्वर नगर साकाङ्क्ष मनसः । और तो और, आपकी सन्निधि में कौवे भी इतने संतोष से भरे रमते हैं कि उनको अब स्वर्ग की भी चाहना नहीं. आपके तीर का निवास जन्म मरण के शोक का तो हरण करता ही है, इसका नैकट्य भी निष्ठावानों का श्रमहारी हो। न यस्मिञ्जीवानां प्रसरति मनोवागवसरः । आप नित्य निराकार तमोहारी विशुद्ध दिव्य तत्त्व हो, जीवों के मन वाणी के विषयों से परे, अगोचर हो। सारे भेदों को पार करके साक्षात वेद भी आपका निरूपण नहीं कर सकते। न लभ्यं घोराभिः सुविमल तपोराजिभिरपि। बहुविधियों से दान, ध्यान बलिदान और घोर ताप से भी जो अचिन्त्य विष्णु पद अप्राप्य रहता है, वो भी आप सहजता से प्रदान कर देती हो तो भला आप किससे तुलनीय हैं? शिवायास्ते मूर्तेः क इह महिमानं निगदतु । कोई मनुष्य आपको देख भर ले तो भवभय से निर्भय हो जाता है,ऐसी आपकी महिमा की कौन प्रशस्ति कर सकता है? इसी कारण, अमर्ष से अम्लान हुई पार्वतीजी की भी अनदेखी करते हुए सदाशिव आपको सदा अपने मस्तक पर धारण किये रहते हैं। अवाच्यानि व्रात्यैः सपुलकमपास्यानि पिशुनैः । निन्दितों द्वारा भी निंदनीय पापियों को भी आप तार देती हो, जो पतितों द्वारा भी घृणित और नीचों द्वारा भी त्याज्य हैं, ऐसों को भी आप निरंतर आश्रय देते हुए भी श्रमित न होकर इस विश्व में सदैव एकमात्र विजयमान रहती हो। जटाजूटग्रन्थौ यदसि विनिबद्धा पुरभिदा । माँ! शोकग्रस्तों को तारने के लिए आपके स्वयं को अपने दिव्यलोक से पत्तन करती हुई को निर्लोभी शिव ने अपनी जटाजूट ग्रंथियों में आबद्ध करके मानो स्वयं में लोभ का दोष आरोपित कर आपकी महिमा को निरुपित किया। ग्रहग्रस्तानस्ताखिलदुरितनिस्तारसरणीन् । मूर्खों, अन्धों, पंगुओं, मूक बधिर और ग्रहादि दोषों से ग्रस्त, जिनका पाप से निस्तारण का कोई मार्ग न हो, देवताओं द्वारा परित्यक्त उन नर्कगामियों की, हे माँ, आप ही परम उद्धारक औषधि हो। अपारस्ते मातर्जयति महिमा कोऽपि जगति । माँ! आपके स्वच्छ शीतल जल की इस जगत में अपार महिमा अवर्णनीय है। निष्कलंक कीर्ति से स्वर्ग प्राप्त किये सगरपुत्र आज भी पुलकित रोमावलीयुक्त हो आज भी आपकी महिमा का गान करते हैं। समुद्धर्तुं सन्ति त्रिभुवनतले तीर्थनिवहाः । छोटे मोटे पापों से शीघ्र क्षुब्ध मन वालों के परित्राण के लिए तो हे माँ! इस विश्व में अनेक पवित्र तीर्थ व सरिताएँ हैं, परन्तु जघन्य पापों और पापियों के उद्धार के लिए तो एक मात्र आप ही हैं। प्रधानं तीर्थानाममलपरिधानं त्रिजगतः। सर्व धर्मों की निधान, नव प्रसन्नता की विधान,त्रिभुवन में पवित्रवारि तीर्थों में प्रधान और कुविचारों का तिरोधान कर बुद्धि को समग्र समाधान प्रदान करने वाली माँ, आप ऐश्वर्यों का भंडार हो। आपका वपु हमारे सब तापों का शमन करे। महीपानां नाना तरुणतर खेदस्य नियतम् । मदोन्मत्त शासकों के सामने चाटुकारिता करते करते मुझमे नाना भांति के विकार आ गए हैं और जड़ बुद्धि हो मैं स्वयं का ही हितनाशक हो गया,क्योंकि क्षण भर का भी आपकी करुणा से वियोग मेरी ही भूल है। स्खलत्पां-सुव्रातच्छुरण विसरत्कौंकुम रुचि । वायु की लीला से दोलित पंकजों की पतित केसर से केसरिया और सुर ललनाओं के वक्षो से क्षरित अगरु से प्रगाढ़ हुआ आपका जल मेरे जन्म-मृत्यु जाल का निवारक हो। निवासः कन्दर्प प्रतिभट जटाजूट भवने । रमारमण विष्णु के पदकंजों के अमल श्रीनखों से निसरित, मदनारी महादेव के जटाजूट-भवन निवासिनी माँ, आप दुखियों और पतितों के उद्धार में निरत हैं। तो फिर इस जगत की जाग्रति और उन्नति कैसे न होगी! पुराणां संहर्तुः सुरधुनि कपर्दोऽधिरुरुहे । हे देवसरिता! और कौन नदी नगेन्द्र से निकल कर त्रिपुरारी की अलकों पे चढ़ी है? या जिसने रमापति के चरण कमलों का प्रक्षालन किया है? और हो भी तो क्या कोई कवि उसकी आपसे लेश मात्र भी तुलना कर सकता है? सुखं शेषे शेतां हरिः अविरतं नृत्यतु हरः । जगत में जब आप जाग्रत हो कामनापूर्ण कर ही रही हैं, तो भले ब्रह्मा निरवधि समाधिस्थ हो जाएँ,विष्णु सुख से शेष शयन करें या शिव अविरत लास्य करें, तप दान बलि यज्ञादि युक्त प्रायश्चित्त परिष्कार की भी कोई आवश्यकता नहीं है। पतन् विश्वोद्भर्त्री गदविदलितः सिद्धभिषजम् । मुझ पथभ्रष्ट अनाथ पर आप स्नेहाद्र हो कर पुन्यगति प्रदायिनी हों। आप पतित को विश्व में अभ्यूदयी बनाने वाली, रुग्ण को सिद्धौषधिदायी,तृष्णातुर ह्रदय के लिए सुधासिंधु रूपा हैं, हे माँ,मैं बाल रूप से आपके पास आया हूँ, आप जैसा उचित समझें, वैसा करें। गता दूता दूरं क्वचिदपि परेतान्
मृगयितुम् । हे शुभे! जिस दिन से आपकी कथा धरती पर पहुंची है, यमपुरी का कोलाहल शांत हो गया है,दूतों को उन्हें प्राप्य मृतकों की खोज में दूर दूर जाना पड़ता है। दिव्यों के नगर की गलियाँ यानों की घर्घराहट से व्याप्त हो गई हैं। ज्वरज्वाला जाल ज्वलित वपुषां नः प्रति दिनम् । हे दिव्यसरित! उल्लसित मारुत द्वारा आपकी लहरों से विसरित जल कण, काम और क्रोध की प्रबल ज्वालाओं से प्रतिदिन दग्ध हमारे तन के अवर्णनीय ताप को दूर करे। तरङ्गैर्यस्यान्तर्लुठति परितस्तिन्दुकमिव । माँ! आपका जल, जिसने पूरे ब्रह्माण्ड को तिन्दुक फल की भांति प्लावित कर दिया था,परन्तु शिव की खोली हुई जटाओं के जाल में आबद्ध हो के रह गया, हमारे लिए तापहारी हो! करं कर्णे कुर्वन्त्यपि किल कपालिप्रभृतयः। मुझ जैसे पतित को, जिसे तारने में शिव जैसे देव ने भी कानों पर हाथ रख कर और अनेक तीर्थों ने लज्जित हो कर अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी,अपनी अनुकम्पा से तार कर, हे दयार्द्र हृदया माँ! आपने तो जैसे सभी तारकों के पापहारिता के दर्प का दलन कर दिया। विमुक्तानामेकं किल सदनमेनः परिषदाम् । मैं तो दुश्चिंताओं से भरे चांडालों से भी त्यक्त पापों का भण्डार हूँ, फिर भी आप मेरे उद्धार तत्पर हैं. आपकी स्तुति करने में मुझ जैसा नर पशु कैसे समर्थ होगा? मदुद्धारादाराद्भवति जगतो विस्मयभरः । अनादि काल से हे माँ, आप सोचती रही हैं कि क्या कोई ऐसा पतित भी मिलेगा जिसके उद्धार से सम्पूर्ण विश्व विस्मित हो जाय। अंततः आपकी इस इच्छापूर्ती हेतु प्रथम व्यक्ति के रूप में आपको मैं प्राप्त हो ही गया! कुतर्केष्वभ्यासः सततपरपैशून्यमननम् । कुतर्की की भांति हर समय मिथ्या प्रलापों में दूसरों की निंदा करते हुए मैंने श्वान वत जीवन जिया है। मेरे इन गुणों को जान कर, आपके सिवा कौन है जो क्षण मात्र के लिए भी मेरी और देखे? न याभ्यामालीढा परमरमणीया तव तनुः । चाहे कितनी ही आभा से व्याप्त विशाल क्यों न हो, वो नेत्र ही क्या जिन्होंने आपके परम रमणीय स्वरुप को ना देखा! धिक् उन मनुष्यों के कानों को जिनमें आपकी लीला लहरी की कलकल न पड़ी! पतन्ति द्राक्पापा जननि नरकान्तः परवशाः । ये तो आप से हीन जनपदों की रीत है कि पुण्यवान सुरपुर जाते और पापी परवश हो शीघ्र नारकीय हो जाते हैं। आपकी लीलास्थली में ऐसा नहीं है क्योंकि यहाँ किसी में भी कोई कलुष बचता ही नहीं! पिबन्तो मैरेयं पुनरपि हरन्तश्च कनकम् । ब्रह्महत्या, गुरुतिय गमन, सुरापान, और तो और स्वर्ण चोरी जैसे जघन्य पाप करने वाले भी यदि आपकी सन्निधि में देहत्याग करते हैं तो वे भी दान बलि आदि सत्कर्म कर स्वर्गादि प्राप्त करने वालों से भी ऊँचे सुर सम्मानित दिव्य पद प्राप्त कर लेते हैं। क्षणादेव प्राणानपि विरह शस्त्रक्षत भृताम् । अहो, पुष्प सौरभयुक्त दुर्लभ पवन भी वियोगपीड़ा और शस्त्राघात पीड़ितों के प्राण क्षण में हर लेती है, वह भी आपकी अठखेलियाँ करती लहरों का स्पर्श पा तत्क्षण त्रिभुवन पावनी हो जाती है। कियन्तः सन्त्येके नियतमिह लोकार्थ घटकाः परे पूतात्मानः कति च परलोकप्रणयिनः । माँ, कितने हैं जो सामान्य जन का कल्याण करने को तत्पर हैं? कितनी पुण्यात्माएं परलोकाभिलाषा में हैं। ये तो आपकी करुणा है जिस पर शाश्वत त्रिभुवनतारण का भार जान कर ये जगन्नाथ निश्चिन्तता से सुख से सो रहा है। परित्राणस्नेहः श्लथयितुमशक्यः खलु यथा। जैसे आप पतित, अधम और पाखंडियों के उद्धार का बिरद नहीं छोड़ सकती, ऐसे ही मैं भी दुष्कर्म और अधमता का त्याग नहीं कर सकता। अरे माँ,कोई कैसे अपने स्वाभाव का परित्याग कर सकता है? तटाभोगप्रेङ्खल्लहरिभुजसन्तानविधुतिः । सांध्य तांडव करते भगवान शिव की झूलती जटाओं में से निराबद्ध हो कर, डमरू की टंकारवत क्रीडा करता और हरकंठ को आबद्ध करता हुआ गंगाजल, मानो स्वयं भी ताण्डव रत हो, मेरे ताप का शमन करे। यदि त्वं मामम्ब त्यजसि समयेऽस्मिन् सुविषमे । माँ, मैंने तो अपनी कुशल की सारी चिंताओं का भार सदैव आप पर ही छोड़ा हुआ है। यदि ऐसे विषम समय में आप मेरा त्याग करोगी तो त्रिभुवन में आपकी अहैतुकि करुणा का विश्वास और आधार ही उठ जायेगा। मुरारेः प्रेङ्खन्त्यो मृदुलतर सीमन्त सरणौ। भगवान अर्धनारीश्वर की जटाओं से निसृत आपकी लहरों का जल लगने पर किंचित झुंझलाहट दृष्टि से देखते हुए माँ पारवती ने अपने कोमल करों से हटाया, ऐसी आपकी धन्य लहरें विजयशाली हों। उपाधिस्तत्रायं स्फुरति यदभीष्टं वितरसि । अभीष्ट की पूर्ति हो जाने के कारण असंख्य लोग आपका आश्रय लेते हैं। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, हे माँ, मैं तो स्वभावतः ही आपका अमित अनुरागी हूँ। तमो हन्तुं धत्ते तरुणतरमार्तण्डतुलनाम् । लोग आपके जल की मृत्तिका का अपने ललाट पर तिलक लगाते हैं जो तमोहारि बालार्क की भांति शोभा पाता है, क्योंकि विधि द्वारा
लिखित दुर्भाग्य-तम का इससे तुरंत नाश हो जाता है। ऐसी सद्य मृत्तिका मुझे शुचिता प्रदान करे। हसन्तः सोल्लासं विकच कुसुम व्रातमिषतः । देवसरित के तट पर अवस्थित डोलते पुष्पद्रुमों से लदे वृक्ष मानो उन हत्भागियों पर हँसते हैं तो इससे विमुख हो अपनी ही विषम दुनिया में आसक्त रहते हैं। नित्य मलीन मधुमक्खियों को भी अपनी सुवास से सतत पवित्र करते पुष्पों वाले ये वृक्ष हमारे सखा हों। वितानव्यासक्ता यमनियमारक्ताः कतिपये । कोई देवताओं को भजते तो कोई कठिन सेवा में लगते, कोई बलि देते, कुछ यम नियम में रत रहते या कठोर तपसाधन और ध्यान करते हैं। पर हे त्रिपथगामिनी, मैं तो आराम से मात्र आपका नाम स्मरण मात्र ही करता हुआ इस जगत्जाल को तृणजालवत अनुभव करता हूँ। सतां श्रेयः कर्तुं कति न कृतिनः सन्ति विबुधाः । जन्म से ही सतत सत्कर्मियों के लिए श्रेयस्कर तो कई विद्वान और सुकृती होंगे। परन्तु सुकर्म ना करने वाले और अवलम्बनहीनों के उद्धार के लिए मुझे तो आपके अतिरिक्त और कोई नहीं दिखता है। विमूढैः संरन्तुं क्वचिदपि न विश्रान्तिमगमम् । अरे माँ, तेरा पय-जल पान करके भी मैं तुरंत विमूढ़ों के साहचर्य में चला गया, और कहीं भी विश्रांति न पाई। अब तो हे सदय हृदया माँ, मुझे सदा के लिए मृदु शीतल पवन युक्ता अपनी पावन गोद में चिर विश्राम देदे, काफी देर बाद मेरे जीवन में आपकी प्रेम के प्रति जागृति आयी है। किरीटे बालेन्दुं नियमय पुनः पन्नग गणैः । हे दिव्य सरिता! अपनी दृढ रमणिक कटि कसकर बालचंद्र के मुकुट को सर्पों के द्वारा सुस्थिर कर लो। ये किसी साधारण अधम जन का प्रकरण नहीं है। इस जगन्नाथ के समुद्धार का समय आ गया है। करैः कुम्भाम्भोजे वराभय निरासौ विदधतीम् । आप शिशिरचन्द्र की धवलता लिए हैं और वक्रचन्द्र शोभित किरीट आपको शोभित कर रहा है। हाथों में अभयमुद्रा युक्त हाथों में कुम्भ्सम कुमुद हैं, सुधासार रूप वसन और अलंकार धारण किये हुए आप शुभ्र मकर पर आरूढ़ हैं। ऐसे आपके रूप का जो ध्यान धरता है, उसका कभी परिभव नहीं, अभ्युदय ही शोता है। भवज्वलन भर्जिताननिशमूर्जयन्ती नरान् । शांतनु अन्गिनी गंगा! तीन ताप के भवजाल से निरंतर विदग्धित जीवों को अपने स्मितमुस्कान युक्त मुख, कांतिपूरित वदनामृत और विवेक चन्द्रिका प्रसाद से शीतलता प्रदान करने वाली आप, मेरे भी पाप ताप का शमन कर शांति प्रदान करें। स्रस्तं सान्द्रसुधा रसैर्विदलितं गारुत्मतैर्ग्रावभिः । स्वर्गलोक कल्लोलिनी गंगे! आपकी लहरों के स्पर्श से तो कलि बह ही गया! अब मेरी इस त्रस्त आत्मा का भी उद्धार करो। भाव भुजंग से ग्रसित इसका न मन्त्र, न औषधि, न सुरसमूह, न गरिष्ठ सुधा और न ही गरुत्मान मणि उपचार है। सर्वस्वं हारयित्वा स्वमथपुरभिदिद्राक्पणी कर्तुकामे । चौसर की द्यूत क्रीडा में दांव पर अपने प्रमथगण,नंदी, ईंदु, गलहार नाग, गजचर्म सहित सब कुछ हारने के बाद जब शिव स्वयं को दांव पर लगाने को तत्पर हुए, तब अकूत जलभंडार युक्त स्वर्णकलश लिए तांडव नर्तक की भांति आपके जिस नर्तन को मृदुल हास्य के साथ पार्वतीजी ने देखा, वो हमारा पवित्र प्रोक्षण करे। विभूषितानङ्ग रिपूत्तमाङ्गा, सद्यः कृतानेकजनार्तिभङ्गा । अनंग-रिपु शिव के उत्तम भाल को विभूषित करने वाली गंगा असंख्य जनों के कष्टों का क्षण में शमन करती है। मनोहर उत्तंग तरंगों से हे माँ, मेरे अंगों को अमल करदो.
अध्यात्म जीवन बिन्दु मनुष्य का अध्यात्म-जीवन है। जब तक मनुष्य भौतिकवाद मे भटकता रहता है, तब तक उसे सुख, शान्ति और सन्तोष प्राप्त नही हो सकता । भारतीय संस्कृति का लक्ष्य भोग नही, त्याग है, सघर्ष नही, शान्ति है, विषमता नही, समता है, विषाद नही, आनन्द है। जीवन की आधारशिला भोग को मान लेने पर जीवन का विकास नही, विनाश हो जाता है। जीवन के सरक्षण, सम्वर्द्धन और विकास के लिए आध्यात्मिकता का होना नितान्त आवश्यक है । कुछ लोग कहते हैं, कि यह युग विज्ञान का युग है । यह युग प्रयोग, आविष्कार, सघर्प और विरूपता का युग है । फिर इसमे अध्यात्मवाद कैसे पनप सकता है ? मेरे विचार मे कोई भी युग अपने आप मे अच्छा या बुरा नही होता, जन-चेतना की भावना ही उसे अच्छा एव बुरा बनाती है । विज्ञान, यदि वस्तुत विज्ञान है, तो वह विश्व के लिए मंगलमय वरदान ही होना चाहिए, प्रलयंकारी अभिगाप नही । विज्ञान मानव की चेतना का यदि विकास करता है, तो उसे बुरा नहीं कहा जा सकता । विज्ञान के साथ यदि धर्म और दर्शन का समन्वय कर दिया जाए, तो फिर विज्ञान की अशुभता की आशका नही रहेगी । परन्तु यदि विज्ञान मानवीय चेतना से अधिक महत्त्व भौतिक पदार्थ को दे देता है, अथवा मानवता से अधिक श्रेष्ठता सत्ता प्रेम को प्रदान करता है, तो निश्चय ही मानव जाति के लिए वह एक अभिशाप सिद्ध होगा । स्पष्ट है कि इस काल का मानव, मानवता के धरातल से अत्यधिक दूर होता जा रहा है । विज्ञान की नव-नवीन उपलब्धियो से वह इतना अधिक प्रभावित एव चमत्कृत हो चुका है कि अपने धर्म, दर्शन एवं संस्कृति को भूलता जा रहा है । विज्ञान एक शक्ति है, किन्तु उस शक्ति का प्रयोग और उपयोग कैसे किया जाए, इस तथ्य का निर्देश धर्म और दर्शन ही कर 'सकता है। वैज्ञानिक ज्ञान अपने आप मे ठीक है, किन्तु जब उसे ही पूर्ण सत्य मान लेते है, तब वह अनन्त आपत्तियों का कारण बन जाता है। आज के विज्ञान ने विश्व के विविध बाह्य रूपो को जाँचा है, परखा है, उनके अनेक गुप्त रहस्यो को यात्रिक साधनो के माध्यम से प्रकट किया है, किन्तु वह विश्व के आन्तरिक मूल सत्य को समझने मे असमर्थ रहा है । वह विश्व के भौतिक तथ्यो का विश्लेषण कर लेता है, उनके पारस्परिक सम्वन्धो को भी समझ लेता है, किन्तु वह विश्व चेतना की समुचित व्याख्या नहीं कर पाता । इस दृष्टि से वह ज्ञान होते हुए भी सम्यक् ज्ञान नही है । भारतीय संस्कृति मे सम्यक् ज्ञान उसे ही कहा जाता है, जो पर को जानने के साथ-साथ अपने को भी जानता हो, जो पर को समझने के साथ-साथ अपने आप को भी समझता हो । जिसने अपने आपको समझ लिया, उसने सबको समझ लिया, और जिसने अपने आपको नही समझा, उसने किसी को भी नही समझा । विज्ञान पर को समझता है, स्व को नही । स्व का अर्थ है -चैतन्य तत्त्व और पर का अर्थ है - जड तत्त्व । मैं आपसे अभी विज्ञान की बात कह रहा था । विज्ञान का अर्थ है - एक विशिष्ट प्रकार का ज्ञान । आज की भाषा मे विज्ञान का अर्थ भौतिक जगत का विशिष्ट ज्ञान लिया जाता है । परन्तु भौतिक ज्ञान कभी अपने आप मे परिपूर्ण नही हो पाता । भौतिक विज्ञान अपने आप मे अपूर्ण है, उसकी अपूर्णता धर्म और दर्शन की अपेक्षा रखती है । वह दर्शन के वरद हस्त के बिना पूर्णता प्राप्त नही कर सकता । धर्म और दर्शन से वियुक्त विज्ञान की उन्नति ने अमानवीय एव पाशविक प्रवृत्तियो की ही उन्नति की है - घृणा, प्रतिशोध, प्रतिस्पर्धा एव शक्ति सम्पन्न बनने की अभिलाषा को ही प्रोत्साहित किया है । भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के अनुसार जीवन के वास्तविक रहस्य को अध्यात्मवाद के द्वारा ही समझा जा सकता है । अध्यात्मवाद ही जीवन का वास्तविक मूल्याकन करता है । जीवन क्या है ? जगत् क्या है ? तथा उन दोनो मे परस्पर क्या सम्बन्ध है ? जीवन जैसा है, वैसा ही है, या उसके उत्कर्ष की अन्य कोई विशिष्ट सभावना है ? वन्धन क्या है और मुक्ति क्या है ? उक्त प्रश्नो का समाधान अध्यात्म-विज्ञान ही दे सकता है, भौतिक विज्ञान नही । जीवन, जड का धर्म नही, चेतन का धर्म है । अध्यात्मवाद कहता है कि जीवन जीने के लिए है, किन्तु पवित्रता से जीने के लिए है । यह पवित्रता उस आत्मा का धर्म है, जो आत्मा बुद्ध एव प्रबुद्ध है, जिसे अपने शुभ एव अशुभ का, सुन्दर एव असुन्दर का तथा वाछनीय एव अवाछनीय का सम्यक् परिज्ञान है । जो अपने भले-बुरे, भूत-भविष्य और वर्तमान पर चिन्तन कर सकता है, वस्तुतः वही प्रवुद्ध चेतन है, वही जागृत आत्मा है और वही विकासोन्मुख जीव है । आज की इस भौतिक सभ्यता को जब मानव जीवन की तुला पर तोला जाता है, अथवा उन मूल्यो का निरीक्षण एव परीक्षण किया जाता है, जिन्हे आज के समाज ने अपनाया है, तब मुझे एक घोर निराशा होती है । मैं समझता हूँ विज्ञान के द्वारा निर्धारित ये मूल्य उच्चतम मानवीय सत्यो के प्रतीक नही है । ये जीवन के संरक्षण में
सहयोगी होने के विपरीत उसको ध्वस की ओर ले जा रहे हैं । परन्तु क्या वर्तमान वैज्ञानिक सभ्यता पूर्णत त्याज्य है ? मैं समझता हूँ, इसमे सभी कुछ त्याज्य नही हो सकता । इसमे बहुत कुछ शुभ है, वरण करने के योग्य भी है । परन्तु दुख है कि अध्यात्म से अनुप्राणित उन शुभाशो की ओर लक्ष्य नही दिया जा रहा है। मानव जीवन के आध्यात्मिक सत्य आज के भोगवादी अविवेक के घने कुहासे मे छुप गए हैं । वे अपना अर्थ और दायित्व खो बैठे है। जिस भाँति कीचड मे लिपटे हीरे की ज्योति दीखती नही है, वह मात्र मिट्टी का नगण्य ढेला ही प्रतीत होता है, उसी भाँति मानवजीवन के वास्तविक तथ्य एव सत्य, मूलत मानव चेतना की उपज होने पर भी पूर्वग्रह, अन्ध विश्वास और अविवेक से लिप्त हो जाने के कारण मानवता के क्षितिज से अति दूर चले गए हैं । मैं आपसे उस अध्यात्म-जीवन की चर्चा कर रहा था - जिसने भारत की पवित्र धरती पर जन्म पाया, भारत की पवित्र धरती पर ही जिसका पालन-पोषण हुआ और अपने यौवन काल में पहुँचकर ग्रीक के दार्शनिको ने अध्यात्मवाद की प्रेरणा यही से प्राप्त की थी । मध्यकाल के योरोपीय दार्शनिक भी इस अध्यात्मवाद से प्रभावित हुए हैं। यह सब कुछ होने पर भी ऐसा प्रतीत होता है, कि आज का सर्वग्रासी विज्ञान हमारे अध्यात्मवाद को खोखला करने पर तुला हुआ है। मेरे विचार मे यह विज्ञान का अपना दोप नही, आज के भटके हुए मानव की भोगवादी प्रवृत्ति का ही यह दोष है । मैं तो यह मानकर चलता हूँ, कि विश्व-सभ्यता, पूर्व और पश्चिम की जीवन प्रणाली तथा आज का विज्ञान सत्याशो एव तथ्याशो से रिक्त नही है । पश्चिम के वैज्ञानिक मानस ने देश और काल के व्यवधानो को मिटा कर समस्त विश्व के देशो को एक दूसरे के निकट लाकर रख दिया है। जीवन के बाह्य रूप को सँवार दिया है। इसके विपरीत पूर्व ने आत्मिक उन्नति अथवा आन्तरिक समृद्धि द्वारा चेतना के धर्म की मूलगत आवश्यकता को समझाया है । यदि गम्भीरता के साथ विचार किया जाए, तो दोनो ही - आज का विज्ञान और आज का अध्यात्मवाद - सकीर्णता के दलदल मे फँस गए है । आज की वैज्ञानिक बुद्धि सशयात्मक और ध्वसात्मक प्रवृत्ति को जन्म दे रही है तथा आज का अध्यात्मवाद अध आस्था और अविवेक की चादर में लिपटा हुआ है । विज्ञान यदि प्रकृति पर शासन करने को सब कुछ मानने लगा है, तो धर्म एव दर्शन ने रूढिवाद, परम्परावाद, और अन्ध विश्वास को ही अपना लक्ष्य बिन्दु वना लिया है । पूर्वी संस्कृति सृजनता से पराड मुख होकर प्राणहीन होती जा रही है तथा पश्चिमी संस्कृति सृजनता के आवेग मे ध्वगोन्मुखी वन रही है । आज का मानव अनास्था, अनाचार और अशान्ति से पीडित है । वह यह चाहता है कि मुझे सुख, शान्ति और सन्तोष की उपलब्धि हो । परन्तु मैं समझता हूँ यह तब तक सम्भव नही है, जब तक कि आज का मनुष्य अपने दृष्टिकोण को बदल न डाले । आज के मानव का विश्वास जीवन के शाश्वत मूल्यो से उखड गया है। आज के मनुष्य के जीवन मे विश्वास, विचार और आचार तीनो गडवडा गए है । आज का मानव दूसरे मानव पर विश्वास नहीं करता । आज का मानव अपने पडोसी और अपने घर के मानव पर भी विश्वास खो बैठा है। कौन किसको किस समय निगल जाएगा, मालूम नही पडता । न किसी को किसी पर विश्वास है, न किसी का किसी से सहज-स्नेह है और न आज किसी मे विमल त्याग एव वैराग्य को प्राणवती भावना ही दृष्टिगोचर होती है । यह मानव की आध्यात्मिक निर्धनता की स्थिति है । आत्मोद्धार के स्रोत से वियुक्त, सत्य के ज्ञान से अनभिज्ञ, आज का मानव धीरे-धीरे विकास से विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है, उत्यान से पतन की ओर वढ रहा है। मेरे विचार मे आज के वैज्ञानिक युग की वह समृद्धि व्यर्थ है, जो मनुष्य की आध्यात्मिक क्षुधा को तृप्त नही कर सकती । वे आविष्कार त्याज्य हैं, जो मनुष्य को मनुष्य नही बना रहने देते । भोगवादी दृष्टिकोण ने मनुष्य जीवन मे निरागा, अतृप्ति और कुठा को जन्म दे डाला है। दूसरे शब्दों में निराशा, अतृप्ति और कुठा ने आज की जन-चेतना को जकड लिया है । शक्ति, अधिकार तथा स्वत्व की लालसा दिनो - दिन प्रचण्ड एक वीभत्स रूप धारण करती जा रही है । इस दृष्टि से मैं यह सोचता हूँ कि मनुष्य को पतन के इस गहन गर्त से निकालने के लिए, आज प्रगतिशील एव सृजनात्मक अध्यात्मवाद की नितान्त आवश्यकता है। आज का मानव परस्पर के प्रतिशोध और विद्वेष के दावानल मे झुलस रहा है । आज के मानव को वही धर्म एव दर्शन सुख और सन्तोष दे सकता है, जो आत्म-वोध, आत्म-सत्य एव आत्म-ज्ञान की उपज है । वही अध्यात्मवाद आज की इस धरती पर पनप सकता है, जो विश्व की समग्र आत्माओं को समान भाव से देखने की क्षमता रखता है। अध्यात्मवाद कही बाहर से आने वाला नहीं है, वह तो हमारी आत्मा का धर्म है, हमारी चेतना का धर्म है एव हमारी संस्कृति का प्राणभूत तत्त्व है । आज के मनुष्य को यह समझ लेना चाहिए कि उसे
जो कुछ भी पाना है, वह कही वाहर नहीं है, वह स्वय उसके अन्दर मे स्थित है । आवश्यकता है केवल अपनी अव्यात्म-शक्ति पर विश्वास करने की, विचार करने की और उसे जीवन की धरती पर उतारने की । जहाँ तक मैंने अध्ययन और मनन किया है, मे यह कह सकता हूँ, कि प्रत्येक पथ और सम्प्रदाय का अपना कोई विश्वास होता है, अपना कोई विचार होता है और अपना कोई आचार होता है । आचार बनता है - विचार से और विचार वनता है --विश्वास से । विश्वास, विचार (ज्ञान) और आचार कही बाहर से नहीं आते । वे आत्मा के अपने आत्मभूत निज गुण है। आत्मा के इन निज गुणो का शोधन, प्रकाशन और विकास ही वस्तुत हमारी अध्यात्म-सावना है । अध्यात्म साधना का इतना ही अर्थ है, कि वह मनुष्य की प्रसुप्त शक्ति को प्रबुद्ध कर देती है। विश्व में जब साधक अनेक हैं, तो साधना की विविधता भी किसी प्रकार का दोष नही हो सकती । साधना की विविधता होने पर भी उन सबका उद्देश्य एव सलक्ष्य एक ही होता है । अध्यात्म साधना का लक्ष्य क्या है ? आत्मा का पूर्ण विकास करना । और आत्मा का पूर्ण विकास क्या है ? आत्मा के स्वरूप भूत गुणो का पूर्ण विकास करना । जब गुणो का पूर्ण विकास हो जाता है, तब गुणी का विकास स्वत ही हो जाता है । संस्कृत भाषा मे गुण और सूत्र पर्यायवाची भी है। सूत्र मे जैसा रग होगा, वस्त्र मे भी वैसा ही रग आएगा । जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा के विशिष्ट गुण क्या हैं ? सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । इन तीन गुणो के अतिरिक्त आत्मा का सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्म-तत्त्व और कुछ नही है । जो श्रद्धा है वही आत्मा है, जो ज्ञान है वही आत्मा है और जो चारित्र है वह भी आत्मा है । साधक अपनी साधना के बल पर जो कुछ प्राप्त करता है, वह उससे भिन्न नही होता । हम अपनी साधना के द्वारा अपने आपको ही प्राप्त करते हैं । स्वस्वरूप की उपलब्धि ही सबसे बडी साधना है, सबसे बडी सिद्धि है । जिस व्यक्ति ने स्वस्वरूप को प्राप्त कर लिया, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । स्वस्वरूप की उपलब्धि अपने ही बल से, अपने ही पराक्रम से और अपनी ही शक्ति से प्राप्त की जा सकती है। फिर भी तीर्थ कर की वाणी, गणघर की वाणी और गुरु का उपदेश अपने स्वस्वरूप की उपलब्धि मे सहायक सिद्ध हो सकते है। ये हमारी अध्यात्म साधना के अवलम्बन हैं । जब तक साधक अपने पैरो पर खडा होने की शक्ति प्राप्त नही कर लेता है, तब तक उसे अवलम्वन की आवश्यकता रहती है । श्रुत, शास्त्र, आगम और सूत्र यह सब हमारी साधना के अवलम्बन हैं, पथ-निर्देशक है, गन्तव्य पथ के भव्य सकेत है और सही दिशा सूचक प्रकाश स्तम्भ हैं । अध्यात्म परिभाषा के अनुसार देव और गुरु तथा उनकी वाणी एव उपदेश निमित्त मात्र है । उपादान तो रवय हमारी आत्मा ही है, किन्तु उपादान के अपने विकास मे सहकारी निमित्त का अवलम्वन लेना, कोई बुरी बात नही है । किन्तु जब साधक सबल हो जाता है, अपने पथ पर आगे बढ़ने की उसकी क्षमता का विकास हो जाता है तथा जव उसमे अपने गन्तव्य पथ से विचलित न होने की योग्यता प्राप्त हो जाती है, तब उसे किसी भी बाह्य निमित्त की आवश्यकता नही रहती । वाह्य निमित्त त्यागा नही जाता, वह यथावसर स्वतः ही परित्यक्त हो जाता है । वीतरागवाणी की उद्देश्य रेखा इतनी ही है कि वह प्रसप्त से प्रबुद्ध होती हुई आत्मा को यथोचित योगदान दे सके, किन्तु उसमें किसी भी प्रकार का बलात् परिवर्तन करने की क्षमता नही है । बाह्य निमित्त केवल वातावरण बनाता है, किन्तु उस वातावरण के अनुकूल या प्रतिकूल रूप में ढलना मूलत. उपादान की ही अपनी योग्यता है । इसी आधार पर जिन शासन में यह कहा गया है किव्यवहार नय से वीतराग हमारे देव हैं, निर्ग्रन्थ हमारे गुरु है और चीतराग द्वारा भाषित तत्त्व हमारा धर्म है । परन्तु निश्चय नय से यह कहा गया है कि - मैं स्वय देव हूँ, मैं स्वयं गुरु हूँ और मैं स्वय ही धर्म हूँ । अव्यात्म शास्त्र की भाषा मे आत्मा ही स्वय देव, गुरु और धर्म होता है। जब तक निश्चय दृष्टि को ग्रहण करके जीवन के घरातल पर नही उतारा जाएगा, तब तक आत्मा का उद्धार नही हो सकेगा । निश्चय दृष्टि ही साधना की मूल दृष्टि है, व्यवहार दृष्टि तो केवल उसकी प्रयोग-भूमि है । विना निश्चय दृष्टि प्राप्त किए न तत्त्वज्ञान को समझा जा सकता है, न धर्म को समझा जा सकता है और न आत्मा को ही समझा जा सकता है । साथ मे यह भी याद रखिए कि व्यवहार दृष्टि को भी भूल नही जाना है। दोनो मे समन्वय एवं संतुलन रखना आवश्यक है । मैंने आपसे अभी कहा था कि साधना के क्षेत्र मे बाह्य अवलम्बन की आवश्यकता है । वह बाह्य अवलम्बन क्या है ? देव, गुरु और इन दोनो की वाणी एव उपदेश । जैन तत्त्वज्ञान का मूल आधार वीतराग-वाणी ही है, जिसे आगम और सूत्र भी कहा जाता है । आगम एव सूत्र पतग की डोर के समान है । पतग उडाने वाले के हाथ मे पतग का सूत्र
अर्थात् पतंग की डोर रहती है, जिसके सहारे पर पतग ऊपर दूर आकाश में उडती रहती है । यदि पतग की डोर आपके हाथ मे है तो आप जब चाहे तभी उसे डोर के सहारे से आगे वढा सकते हैं, पीछे हटा सकते हैं, इधर-उधर भी कर सकते है । यह सव कुछ डोर की महिमा है कि आप अपनी पतग को ऊचे आकाश मे भी चढा सकते हैं और नीचे धरती पर भी उतार सकते हैं । आपके हाथ मे से यदि वह सूत्र अर्थात् डोर छूट जाए, तो फिर पतंग की क्या स्थिति होगी ? वह अनन्त गगन मे निराधार एव विना लक्ष्य के उडती ही जाएगी और अन्त मे कही पर भी गिरकर नष्ट हो जाएगी, फट जाएगी । यही स्थिति हमारे जीवन की भी है। साधक तत्त्व चिन्तन के पतग को सूत्र एव शास्त्र की डोर के सहारे बहुत ऊँचे उडाता है । वह चिन्तन का पतग कभी स्वर्ग में, कभी नरक मे, कभी ससार मे और कभी मोक्ष मे उडान भरता रहता है । कभी वह चिन्तन-पतग मानव जीवन के अनन्त अतीत मे उडता है, तो कभी अनन्त अनागत मे भी उडता रहता है । परन्तु उसकी यह लम्बी उडान किस आधार पर होती है ? सूत्र एव सिद्धान्त की डोर के आधार पर ही । यदि सिद्धान्त की डोर न हो, तो तत्त्व चिन्तन की पतग कभी भी पथभ्रष्ट एव पतित होकर नष्ट हो सकती है। मेरे विचार मे तीर्थ कर एव गणधर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ही, हमारे तत्त्व - चिन्तन एव तत्त्वज्ञान के पतंग की डोर हैं । यदि उस डोर को हम अपने हाथो मे पकडे रहे, तो फिर पतग भले ही कितनी भी ऊची और कितनी भी दूरी पर उडे, जरा भी चिन्ता करने की आवश्यकता नही है । बल्कि वह जितनी भी दूर उडे, उतना ही अच्छा है । कच्चे खिलाडी की अथवा बच्चो की पतग दूर तक नही पहुँच पाती । परन्तु जो पक्के खिलाडी हैं, उनकी पतग जितनी दूर उडे, उतना ही अच्छा है, उतना ही कमाल है । पतग को उड़ने के लिए विस्तृत एवं व्यापक अनन्त आकाश चाहिए, उसे बन्द कमरे मे नही उडाया जा सकता । इसी प्रकार तत्त्वज्ञान की पतंग भी कठमुल्लापन के छोटे-मोटे सहुचित एवं सकीर्ण वैचारिक घेरे मे नही उड़ सकती । उसके लिए व्यापक दृष्टि से किए जाने वाले श्रवण, मनन एव अनुभवन का उन्मुक्त गगन चाहिए । तभी साधक को उसकी अध्यात्म साधना मे सफलता मिल सकती है । साधक की साधना एक सत्य की साधना है । सत्य के मूल स्वरूप को पकडना ही साधक जीवन का मुख्य उद्देश्य है । सत्य अनन्त होता है, सत्य अखण्ड होता है । परन्तु पथ की सकुचित दृष्टि सत्य को भी सान्त और खण्डित बना डालती है । सम्प्रदाय की भावना सत्य को नया और पुराना कहती है, यद्यपि सत्य अपने आप मे न कभी नया होता है और न कभी पुराना होता है । सत्य तो सत्य है, क्या नया, क्या पुराना । परन्तु विभिन्न पथ और सम्प्रदायो को लेकर प्राचीनकाल मे और आज भी नए और पुराने का काफी सघर्प चलता रहता है । कोई भी सम्प्रदाय एव पथ अपने आपको नया कहलाना पसंद नही करता । प्रत्येक का यही प्रयत्न होता है कि वह अपने आपको प्राचीन सिद्ध कर सके । हमारा विगत इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भूतकाल में इस प्रकार के अनेकानेक प्रयत्न किए गए हैं और आज भी इस प्रकार के प्रयास दृष्टिगोचर होते है । परन्तु मैं यह नही समझ पाया कि नया कहलाने में क्या पाप है ? और पुराना बनने मे क्या पुण्य है ? अपने पथ और अपने सम्प्रदाय को पुराना कहने का व्यामोह मनुष्य के मन मे प्राचीन काल से ही रहा है और आज भी है। मैंने सुना है और देखा है कि पथ और सम्प्रदाय के अखाडो में अकसर इस बात की चर्चा होती रहती है कि कौन सा पथ एव सम्प्रदाय नया है, एव कौन सा पुराना ? यदि पथ का आधार सत्य है, तो वह न कभी नया होता है, और न कभी पुराना । विचार कीजिए, यदि सत्य कभी पुराना हो सकता है, तो वह कभी बूढा भी होगा और तब एक दिन उसकी मौत भी जरूर होगी । सत्य को हम नया भी नही कह सकते, क्योकि नए के पीछे जन्म खडा है । जो नया है उसका एक दिन जन्म भी अवश्य हुआ होगा । इस प्रकार नए के पीछे जन्म खडा है और पुराने के पीछे मौत खडी है, किन्तु यथार्थ मे सत्य का न कभी जन्म होता है और न कभी सत्य का मरण ही होता है । अत सत्य न कभी नया होता है और न कभी पुराना ही । वह दोनो से परे है । उसकी अपनी एक ही स्थिति है और वह है अजर, अमर, अनन्त तथा सनातन । अतः किसी भी पथ एव सम्प्रदाय को नया और पुराना करार देकर झगडा एव विवाद करना कुँजडो के बाजार की वह लडाई है, जिसका कोई आधार नही, जिसका कुछ भी उपयोग नही । आत्मा के शुद्ध स्वरूप को समझे विना साधक की साधना सफल नही हो सकती । यही कारण है कि भारत के प्रत्येक पथ और सम्प्रदाय के धर्म ग्रन्थो मे मोक्ष और उनके स्वरूप के सम्बन्ध में चर्चा की जाती है। भारतीय संस्कृति मे और विशेष रूप से अध्यात्मवादी दर्शन मे मानव-जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना ही माना गया है । मुक्ति के साधनो मे और साधना के प्रकार में विचारभेद हो सकता है, किन्तु लक्ष्य भेद नही । भव-वन्धनो से विमुक्त
होने के लिए तत्वज्ञान की नितान्त आवश्यकता रहती है। क्योकि जब तक कर्म का आव रण है, तब तक साधक-जीवन मे पूर्ण प्रकाश प्रकट नहीं हो पाता । अत अन्दर के प्रसुप्त ज्ञान एवं विवेक को जगाने की आवश्यकता है । जैन-दर्शन मे मोक्ष जीवन की पवित्रता का अन्तिम परिपाक, रस और लक्ष्य है । विवेक और वैराग्य की साधना करते हुए कदम-कदम पर साधक के बन्धन टुटते रहते है और मोक्ष की प्राप्ति होती रहती है । मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग आत्मा के बन्धन हैं । इनमे भी मिथ्यात्व और कषाय - ये दो ही बडे विकट और भयकर बन्धन हैं । किन्तु जैसे ही मिथ्वात्व टूटा कि साधक का हर कदम मोक्ष की राह पर पडने लगता है । फिर जैसे जैसे कषाय क्षीण होता जाता है, वैसे-वैसे मोक्ष की मात्रा मे प्रगति होती जाती है । ज्योही बन्धन की अन्तिम कडी टूटी कि पूर्ण मोक्ष हुआ । विचारणीय प्रश्न यह है, कि बन्धन की सबसे पहली कडी कहाँ टूटती है ? और उसकी अन्तिम कडी कहाँ टूटती है ? जैन दर्शन मे जीवन - विकास की चौदह भूमिकाएँ मानी गई हैं, जिन्हे शास्त्रीय परिभाषा मे गुण स्थान कहा जाता है । चतुर्थ गुण- स्थान से बन्धन टूटने लगता है और चतुर्दश गुण-स्थान के अन्तिम क्षण मे अन्तिम बन्धन भी टूट जाता है । इस प्रकार समस्त बन्धनो के टूटने का, मोक्ष के क्रमिक अशो का सम्पूर्ण योग-फल पूर्ण मोक्ष है । केवल अतिम वन्धन का टूट जाना ही मोक्ष नही है । क्रम से टूटतेटूटते जब अन्तिम बन्धन भी टूट जाता है, तभी पूर्ण मोक्ष होता है । इसी दृष्टि को लेकर जैनाचार्यों ने जिनत्व की दशा का प्रारम्भ अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से माना है। गणित की दृष्टि से विचार करने पर भी यही बात प्रमाणित होती है । गणित-शास्त्र के अनुसार एक के बिना दो, तीन, चार आदि की संख्या का अस्तित्व नही रहता । एक का अस्तित्व अन्य सव सख्याओ से पहले है । गणित करने पर जो अन्तिम योगफल आता है, उसमे उस अनेक एक का ही अपना अस्तित्व होता है । वस्तुत एक से भिन्न दो आदि की संख्या काल्पनिक है। उदाहरण के लिए एक और एक के योगफल की कल्पना से दो मान लिया गया । एक की संख्या तो वास्तविक सख्या है, परन्तु दो की संख्या एक की संख्या के आधार पर खडी है । एक के बिना दो का कोई स्थान नही है । अत. वास्तविक और मूलभूत वस्तुनिष्ठ संख्या एक है । जोड तो केवल भाषा की चीज है । पूर्ण मोक्षरूप अन्तिम योगफल की अपेक्षा पहले की विकारमुक्तिरूप मोक्ष-स्थितियो की एकेक संख्या ही वास्तविक है । यह मान लेना और समझ लेना कि चौदहवे गुणस्थान की समाप्ति के बाद मोक्ष होता है, एक गलत बात है । चौथे गुण-स्थान से ही जो अलग-अलग बन्धनो के टूटने और मोक्ष प्राप्ति की जो आशिक प्रक्रिया होती है, वास्तव मे असली मोक्ष तो वही है । चौदहवे गुण-स्थान के अनन्तर का मोक्ष तो, उन्ही सवका केवल एक योगफल है । आज के भारतीय चिन्तन मे एक कमी है, जिसका प्रभाव जैन-दर्शन पर भी पडा है । वह कमी क्या है ? स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति को मरण के बाद में मानना । इसका अर्थ यह है कि सुख और पवित्रता जीवन की वस्तु नही रही, मरने के बाद ही वह मिलती है । यह साधक जीवन की सबसे बडी भूल है । जीवन-शुद्धि एक नकद धर्म है, वह उधार की वस्तु नही है । अध्यात्म शास्त्र का कथन है, कि इन्सान की जिन्दगी के हर श्वास मे स्वर्ग और मोक्ष का आनन्द लिया जासकता है । अहता और ममता के बन्धनो से परे रहना ही वस्नुत जीवन का परम आनन्द एव परम सुख है । जीते जी जीवन मे मुक्त रहना, यही अध्यात्मवादी दर्शन की विशेषता है, यही अध्यात्म जीवन की साधना है । क्योकि हमारी साधना जीवन की साधना है, मरण की साधना नही । मरणोत्तरकाल में ही यदि मोक्ष मिलता है, तो कौन वडी बात है ? जीवित दशा मे ही मुक्त होना, यही कला अव्यात्मवादी दर्शन सिखाता है । जो जीवन्मुक्त होता है, वही वस्तुत विदेह-मुक्त भी हो सकता है। शरीर के छूट जाने पर ही मुक्ति होती है, यह कहना बिलकुल गलत है । यदि शरीर से छूटने मात्र को ही मुक्ति कहा जाए, तब तो एक पशु को भी मुक्ति मिल सकती है । अत देह का परित्याग ही मोक्ष नही है । देह की आसक्ति और वासना के वन्धन को छोडना ही मुक्ति है । यदि समाज मे रहते हैं, तो समाज से अलग हो जाना मुक्ति नही है । उसमे रहते हुए भी निर्लिप्त रहना ही सच्ची मुक्ति है । कमल कीचड मे रहता है, वही वढता और विकास पाता है, परन्तु उस पर कीचड का और जल का कुछ भी प्रभाव नही पडता । उसमे रहकर भी वह । उससे सर्वथा मुक्त रहता है । यदि साधक की भी यही स्थिति हो, तो फिर किसी प्रकार की चिन्ता की आवश्यकता नहीं । कमल बनकर रहने की कला यदि आ गई, तो फिर किसी भी प्रकार का भय नही रहता । फिर समाज, राष्ट्र और जगत् साधक का कुछ विगाड नही सकते । ससार मे तुगं रहो, इसमे कोई बुराई की बात नही है । ससार तुम्हारे मन मे न रहने पाए, इस बात क
ा ध्यान रखो। फिर भले ही कही भी रहो । यदि कोई कमल से कहे कि तेरा जन्म तो कीचड मे हुआ है, और तू अब भी उसी मे खडा रहता है, तो कमल उत्तर मे यही कहेगा, कि जन्म मेरे हाथ मे नही था । यह तो सव मे भाग्य एवं प्रारब्ध का खेल है। परन्तु आप मेरे गन्दे पैरो की ओर क्यो देखते है ? जरा मेरे मुख की मुस्कान को देखो । मेरे आनन की छवि को देखो । यही मेरी अपनी विशेषता है । यह पवित्रता और अमलता ही मेरा अपना सहज स्वभाव, गुण और धर्म है । कमल मानव को अनासक्ति का बोध-पाठ सिखाता है । की भी वही दशा होती है, जो जल स्थित कमल की होती है । साधक का जन्म किस देश, किस कुल और किस जाति में होता है, यह नही देखा जाता । देखा जाता है, साधक का विचार और आंचार । प्रारब्धवंश वह दुख, सुख और शरीर आदि के बन्धनो के कीचड मे खडा रहता है। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी साधक अपने आपको वासना एव भोग के बन्धनो से अलग रखता है। भोगो से अनासंक्ति ही उसके जीवन की विशेषता एव पवित्रता होती है । तीर्थ कर एव गणधर आदि अन्य महापुरुष भी इस जगत मे रहते हैं, किन्तु जल मे कमल की भाँति सदा निर्लिप्त होकर । साधक के जीवन का आदर्श है, कि वह शरीर मे रहकर भी शरीर मे नही रहता है । इसका अभिप्राय यही है, कि इस शरीर की सत्ता रहने पर भी उसके प्रति अहता और ममता की मन मे जो सत्ता रहती है, वह नही रहने पाती । देह हो और देह की आसक्ति न हो, देह हो और देह की ममता न हो तथा देह हो और देह की अहता न हो, यह एक बहुत बडी बात है। जब तक साधक के जीवन में इस प्रकार की उदात्त एव निर्मल भावना नही आती है, तब तक वह भव- बन्धनो से कैसे छूट सकता है ? अध्यात्म-साधक के अध्यात्म जीवन की सबसे उच्च दशा वही है, जहाँ 'पहुँचकर देह रहते हुए भी देह का ममत्व भाव छूट जाता है । जैनदर्शन का कथन है कि - इन्द्रिय और शरीर से सघर्ष मत करो । - सघर्ष करो मन से । और मन से भी क्या, मन के विकारो से । मन की वासना से और मन की कामना से युद्ध करो । यही अन्धकार से प्रकाश में जाने का मार्ग है, असत्य से सत्य में जाने का पथ है और यही मृत्यु से अमरता की ओर जाने की दिशा है । साधक के जीवन मे से एक-एक बन्धन हेतु का अभाव होते-होते, अन्त मे पूर्ण विमुक्ति की उपलब्धि होती है । चतुर्थ गुण स्थान मे मिथ्यात्व छूट जाता है, पचम एव षष्ठ गुणस्थान मे अविरत छूट जाता है, सप्तम गुणस्थान मे प्रमाद छूट जाता है, दशम गुण स्थान के अन्तिम क्षण मे कषाय छूट जाता है, और तेरहवे गुणस्थान के समाप्ति काल पर चौदहवे गुण स्थान मे योग भी छूट जाता है । अन्तमुहूर्त काल तक अयोग-स्थिति मे शैलेश के समान अचल, अडोल एव अकम्प रहकर विदेह-मुक्त हो जाता है । इस प्रकार साधक अपनी साधना के बल पर सिद्धि की उपलब्धि होने पर, सिद्ध बन जाता है । वह शुद्ध बुद्ध चन जाता है । वह नित्य, निरजन, निर्विकार और शाश्वत बन जाता है । सर्व प्रकार के बन्धन से विमुक्त हो जाता है । ससार की प्रत्येक आत्मा, चाहे वह कही भी और किसी भी अवस्था मे क्यो न रह रही हो, उसके अन्तस्तल मे एक ही अभिलाषा और इच्छा रहती है, कि सुख कहाँ है और वह किस प्रकार मुझे मिल सकेगा ? मैं कब और किस प्रकार अपने मानसिक और शारीरिक दुख एव क्लेशो से विमुक्त वन सकूँगा ? अनन्तकाल से आत्मा इसी अभिलाषा और इच्छा की पूर्ति के प्रयत्न मे निरन्तर ससार यात्रा करती आ रही है । भारतीय दर्शन ससार के समक्ष एक बहुत ही महत्वपूर्ण वात रखता है, कि यह जड जगत, जिसे प्रकृति और अजीव कहा जाता है, जिससे ससारी जीव को खाने एव पीने आदि भाग्य वस्तुओं की प्राप्ति होती है, अपने आप में एक विराट विश्व है । इस अनन्त ससार मे जड का भी अपना एक अस्तित्व है, उसकी भी अपनी एक सत्ता है, उसकी स्थिति अनन्त काल से रही है और अनन्त काल तक रहेगी । अजीव कभी भी अस्तित्व हीन नही हो सकेगा, क्योकि उसकी सत्ता भी उसी प्रकार शाश्वत है, जिस प्रकार जीव की, आत्मा की । जड जगत् का एक प्रदेश या परमाणु भी कभी नष्ट नही होगा, क्योकि जिसका भाव है उसका कभी अभाव नही हो सकता । जड- प्रकृति अपनी सत्ता को लिए हुए निरन्तर अपना काम कर रही है । जड-प्रकृति की सत्ता होने पर भी उसमे ज्ञान एव चेतना नही है । ज्ञान एव चेतना शून्य होने के कारण, पुद्गल को अपनी सत्ता एव स्थिति का बोध नही हो पाता । जब उसे स्वयं अपनी सत्ता एव स्थिति का ही वोध नही है, तब उसे अपने से भिन्न दूतरे की स्थिति और सत्ता का बोध कैसे हो सकता है ? जड प्रकृति सत्ताशील एव क्रियाशील होकर भी ज्ञान-शून्य एव चेतना विकल होने के कारण, अपने स्वरूप - को जान नही सकती । इसका अर्थ यह है कि वह द्रष्टा नही बन सकती, केवल दृश्य ही रहती है । उपभोक्ता नही बन सकती, केवल उपभोग्य ही रहती है । द्रष्टा और उपभोक्ता वही वन सकता है, जिसमे ज्ञान एव चेतना का प्रकाश हो । जिसमे ज्ञान एव चेतना का त्रिकालावाध
ित दिव्य प्रकाश होता है, उसे दर्शन-शास्त्र मे जीव, चेतन एव आत्मा कहा जाता है। प्रकृति जड है, अत उसमे अशमात्र भी चेतना का अस्तित्व नही है । प्रकृति-जगत के बाद एक दूसरा जगत है, जिसे चैतन्य-जगत कहा जाता है । इस चैतन्य जगत मे सूक्ष्म-से- सूक्ष्म और स्थूल-से- स्थूल प्राणी विद्यमान हैं । गन्दी नाली के कीडे से लेकर सुरलोक के इन्द्र, जिसके भौतिक सुख का कोई आर-पार नही है, सभी चैतन्य जगत् मे समाविष्ट है । मैंने अभी आपसे कहा था कि जब के पास सत्ता तो है, पर चेतना नही है । इसके विपरीत चैतन्य जगत मे सत्ता के अतिरिक्त चेतना भी है । उसका अस्तित्व आज से नही, अनन्त अतीत से रहा है और अनन्त अनागत तक रहेगा । वह केवल कल्पना- लोक एव स्वप्नलोक की वस्तु नही है । वह अखण्ड सत् होने के साथ-साथ चेतन भी है। भारतीय तत्वचिन्तन का यह एक मूल केन्द्र है। भारत के विचारक और चिन्तको ने जीवन के इसी मूल केन्द्र को जानने का और समझने का प्रयत्न किया है । क्योकि इसी मूलकेन्द्र को पकडने से मानवीय जीवन आलोकमय वनता है तथा परम जीवन का भव्य द्वार खुल जाता है। यदि इस चैतन्य देव के स्वरूप को नही समझा, नही जाना, तो समस्त तपस्या और समग्र साधना निष्फल एव निष्प्राण हो जायगी । पवित्र जीवन का भव्य द्वार कभी खुल न सकेगा । अत अखण्ड चैतन्य सत्य का बोध होना आवश्यक है । चेतन जगत के पास सत्ता एव वोध दोनो ही है, जिससे उसे स्वय अपना भी ज्ञान होता है और दूसरो का भी । जीव अपनी ज्ञान-शक्ति के द्वारा अपने स्वयं के उत्थान और पतन को भी समझ सकता है तथा दूसरे जीवों के विकास और ह्रास को भी वह देख सकता
और शराब! यह मुझे जलता अंदर यह मुझे जलता इतना अंदर मैं क्या पी सकते हैं ...? क्या मैं इस जलती हुई बुझाने के लिए पीना चाहिए? तुम क्या चाहते हो? हाँ? बस क्या हो रहा है? कुंआ क्यूं कर? मेरी हर आदेश पर सवाल मत करो! आप जानते हैं कि वह भी महिलाओं पर नहीं दिखता नहीं है? आप दो साल के लिए एक औरत के बिना रह सकते हैं? ठीक है! आगे बढ़ जाओ ठीक है! यम चंद्रमा कहां है? क्या हो रहा है? यम चंद्रमा के साथ क्या हो रहा है? क्या आप जानते हैं क्या बैठक में क्या हुआ? तुम्हें पता नहीं कैसे बदसूरत एक आदमी की ईर्ष्या हो सकती है? छोटी लड़कियों के कारोबार का अपनी जगह पर क्या कर रहे हो? तो आप उन्हें प्रेमिकाएं रूप में रईसों को शाही शहर में बाद में भेज सकते हैं? नहीं, वे चीनी सीख रहे हैं चीनी? वाक्यांश क्या मतलब है? आप चीनी में गिनती होगी? एक दो तीन चार पांच मैंने सुना है आप अध्ययन करने के लिए देर से रह रहे हैं? यह क्या है? तुम क्या चाहते हो? ये है आप पहले से ही एक व्यवसाय काफी मजबूत मैडम जामी धमकी देने का निर्माण किया है? आप संपर्क में कप्तान जंग के साथ यह सब समय रखा है? मैं मैं क्या आप जानते हैं कि कैसे मैं पिछले कुछ वर्षों से बच गया है? तथ्य यह है कि मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता कृपया मैं पिछले कुछ वर्षों में कैसे बच गया? मैं एक वेश्यालय में बेच दिया गया था मैं अपने रास्ते पर फैसला किया है अपना शेष जीवन के लिए? मैं एक व्यापारी हूँ और शिप बिल्डर्स हम Mujinju के लिए भेजा करने के लिए क्या हुआ? कप्तान यह क्या है? कौन आप के लिए काम कर रहे हैं? मानता हूँ! कौन आप के लिए काम कर रहे हैं? कौन? का यह आप अब चीजें देख रहे हैं बाहर निकलो? मैं ऐसा नहीं कर सकता है क्या? यदि आप नहीं जानते अपने माता पिता के समुद्री डाकुओं द्वारा मारे गए थे, करते हो? आप अच्छी तरह से किया गया है, मेरे प्रभु? आप Chunghae में आपके प्रवास का आनंद ले रहे हैं? बिना भी उनसे मुलाकात की थी? क्या उसके बारे में आपकी क्या राय है? क्या आपको लगता है मैं उस पर विश्वास कर सकते हैं? तुम उन्हें कहाँ पर हमला करेगा? भूमि पर उन पर हमला? आपका क्या अर्थ है? क्या आप यह कर सकते हैं? घुटने! आप एक मरने की इच्छा है? क्या आप जानते हैं कि यह कौन है? कैसे आप उस पर चमक हिम्मत कैसे हुई? आप इस के लिए ऊपर कौन डाल दिया? आप अपने गुरु का बदला लेने की कोशिश कर रहे थे? यह कौन है? यह क्या है? यदि तुम स्वस्थ होते? आप Mujinju करने के लिए क्या लाता है? फिर भी वह अपने संदेश के साथ भेजा गया है? महानिरीक्षक को इस बारे में क्या कहा? आप मेरे आदेश के तहत आएगा? उसे जवाब! आप उसे क्यों नहीं छोड़ेंगे हो जब तुम उसे मार सकता है? आप वास्तव में उसे अपने मातहत से एक हो जाएंगे? तुम मुझे देख रहे थे? यह क्या है? मैडम जामी आप के साथ मिलना चाहता है। चले जाओ। कैसे एक मरे हुए आदमी शाही शहर को लौट सकता है? आप इस तरह के एक बेहोश दिल के साथ कुछ भी कैसे पूरा हो सकता है? आप इस महत्वपूर्ण अवसर बर्बाद करने के लिए क्या मतलब है? वह Shilla में है? हाँ। आप जंगह्वा की किसी भी खबर में सुना है? मैं मिशन के लिए तैयारी अच्छी चल रही है? बजाय चीन की ओर लौटने का, है ना? पिता! क्या? आप एक भूत या कुछ देखा है? आप क्या कह रहे हैं हाँ, मैं एक भूत देखा है? तो कैसे एक मरे हुए आदमी वापस आ सकता ज़िंदा है? आप एक बहाना मेरे Chunghae के लिए जाने के लिए कर सकते हैं? आप एक मरने की इच्छा है? इसलिए हमें चुपचाप रहते हैं, ठीक है, मेरे बच्चे हैं तो कृपया? आप कैसे यह कह सकते है? आप एक पिता अब कर रहे हैं! तो क्या आप मेरी मदद के लिए है क्यों, तुम! वह तुम्हारे साथ क्या चाहता था? किम वू जिंग? आप पूर्व रीजेंट मतलब है? समुद्री डाकुओं को दबाने के लिए अपनी योजनाओं पर प्रगति क्या है? कैसे वह घर लौट आए हैं करने के लिए लग रहा है? हम क्यों कि सराय में समान रूप से निवेश नहीं करते हैं? मैडम जामी आप को विफल करने की कोशिश नहीं की है? और क्या कारण है कि वह हमारी मदद के लिए आ गया है? आप कहते हैं कि मास्टर सुल Pyong गए? क्योंकि यह Mujinju के करीब है? मैं आपको कहां से पहले आप से कर रहे हैं नहीं देखा है? आप Chunghae करने के लिए क्या लाता है? कप्तान जंग कहां है? क्यूं कर? क्या हुआ? वह मैडम जामी के साथ क्यों मिल रहा था? यह क्या है? क्यों आप ठंड में बाहर इंतजार कर रहे हैं? मेरे प्रभु, बाहर देखो! जंगह्वा! वहाँ कौन है! क्या वहां कोई है? जाग जाओ जाग जाओ! वह कैसी है? उठो! उठो! अनुत्तीर्ण होना? यह जंगह्वा की वजह से है? आप जब आप उसे देखा था दिल का एक परिवर्तन किया है? आप एक मरने की इच्छा है ...? आप नहीं जानते कि जो चाकू से घायल हो गया था, है न? क्यों आप केवल हमें अब यह कह रहे हैं? मैडम जामी और मंत्री अ
पनी हत्या की साजिश रची है चाहिए। इस बंद करो मुझे और अधिक शराब लाओ तुम बहुत हो चुका और शराब! प्रमुख चीफ मुख्यमंत्री जंग हाँ मैं मूर्ख मुझे नहीं लग रही है, करते हो? नहीं यह मुझे जलता अंदर ... यह मुझे जलता इतना अंदर ... कोई बात नहीं मैं कितना पीते हैं, मैं कोई राहत नहीं मिल सकता मैं क्या पी सकते हैं ...? क्या मैं इस जलती हुई बुझाने के लिए पीना चाहिए? तुम क्या चाहते हो? हाँ? मास्टर सिर प्रमुख की तलाश में है आपको माफी दी गई आपको माफी दी गई! हाँ मास्टर करने के लिए इस शब्द का एक साँस नहीं हाँ बस क्या हो रहा है? कुंआ... वह पूरी तरह से नशे में है लोगों से कुछ अच्छी लग लड़कियों लेने हम Dangsan द्वीप से लाया क्यूं कर? मेरी हर आदेश पर सवाल मत करो! मैं उन्हें भेजने के लिए मुख्यमंत्री यम चंद्रमा सिर करने के लिए जा रहा हूँ आप जानते हैं कि वह भी महिलाओं पर नहीं दिखता नहीं है? आप केवल तुम बस इसे से बाहर रहने को हरा देंगे यह आपके व्यवसाय से कोई भी अगर मैं को हरा पाना देखें, तो आप कोई मैच मेरे लिए कोई भी आदमी महिलाओं के लिए कह सकते हैं कि नहीं कर रहे हैं उन्होंने कहा कि केवल उन्हें लेडी जंगह्वा की वजह से दूर रहता है लेकिन यह साल हो गया है के बाद से वह गायब हो गया आप दो साल के लिए एक औरत के बिना रह सकते हैं? मैं नहीं कर सकता न तो मैं कर सकता हूँ यम चंद्रमा महिलाओं को भी अपडेट करना चाहिए आप अपने बॉस के लिए इन बातों का ध्यान रखना चाहिए आप एक है जो लेडी जंगह्वा की तरह लग रहा है पा सकते हैं देखें और जो सिर्फ उसकी तरह लग रहा है लाना हाँ आप किसी को अपने प्रकार है कि लाने के हैं, तो आप मुझ से सुन लेंगे ठीक है! आगे बढ़ जाओ ठीक है! जल्दी कीजिये वह कुछ भी नहीं के लिए अच्छा है यम चंद्रमा कहां है? उन्होंने कहा कि पड़ोसी द्वीप में गश्त के लिए बाहर चला गया है मैंने सुना है कि वह शराब के साथ अपने दिन बर्बाद कर रही है क्या हो रहा है? यम चंद्रमा के साथ क्या हो रहा है? वह बेचैन हो गया है, क्योंकि वह मैडम जामी के साथ बैठक से वापस आया क्या आप जानते हैं क्या बैठक में क्या हुआ? तुम जा सकते हो यम चंद्रमा जंगह्वा के लिए एक नरम जगह है वह हमले कभी नहीं चाहते जंगह्वा के व्यापारी जहाज तुम्हें पता नहीं कैसे बदसूरत एक आदमी की ईर्ष्या हो सकती है? अगर मैं यम चंद्रमा उपयोग करें, मैं जंगह्वा से छुटकारा मिल सकता और जंग Bogo बिना मेरे हाथ गंदे हो रही इंतजार करो और देखो lt'll एक दिलचस्प लड़ाई हो किसी ने जंगह्वा के लिए उसे समर्थन किया जाना चाहिए इतने कम समय में खुद को स्थापित करने के लिए है हाँ, मैडम यह कौन है पता लगाओ शाही शहर के लिए हमारे डिलीवरी की तारीख देरी हो गई है हम माल एक महीने बाद लोड हूँ जी श्रीमान ऐसा लगता है कि अपने जहाज ज्यादा यात्रा के लिए बहुत पुराना है शिंजी पानी, एक तरफ बहुत कठिन समुद्री डाकू हमले कर रहे हैं आप इस तरह से एक जहाज के साथ शिंजी पानी के माध्यम से यह नहीं कर सकते हम हाल ही में Mujinju में खुद को स्थापित किया है हम अभी तक किसी भी शिप बिल्डर्स किराया के बारे में चिंता मत करो कि कप्तान जंग कई कुशल शिपबिल्डर्स है मैं अपने जहाज की मरम्मत करने के लिए कुछ भेज देंगे धन्यवाद मैं Mujinju में पीछे एक लेफ्टिनेंट छोड़ देंगे उसे शब्द भेजें आप किसी भी सहायता की जरूरत है छोटी लड़कियों के कारोबार का अपनी जगह पर क्या कर रहे हो? वे अनाथ जो अकाल करने के लिए अपने माता पिता को खो रहे हैं हमारे मास्टर उनमें से ख्याल रखता है तो आप उन्हें प्रेमिकाएं रूप में रईसों को शाही शहर में बाद में भेज सकते हैं? नहीं, वे चीनी सीख रहे हैं चीनी? हमारे मास्टर व्यापारियों के रूप में उन्हें लाने के लिए करना चाहता है क्रम में चीन के साथ व्यापार करने के लिए, एक चीनी सीखना चाहिए मैं तुम्हें करने के लिए मदद की होगी अगर आप चीन के साथ व्यापार करने का इरादा स्थिति परमिट है, मैं अपने गुरु के साथ मिलने के लिए करना चाहते हैं मैं संदेश रिले करेंगे वाक्यांश क्या मतलब है? यह मेरे अपने से पहले दूसरों की भलाई डाल करने के लिए इसका मतलब है Kookही हाँ आप चीनी में गिनती होगी? एक दो तीन चार पांच... बहुत अच्छा मैंने सुना है आप अध्ययन करने के लिए देर से रह रहे हैं? हाँ, मैं जल्द ही चीनी जानने के लिए और चीन की यात्रा करना चाहते हैं मेरी औरत हाँ, उस दिन के लिए सभी हो जाएगा चलो चलें हाँ मोहतरमाँ यह क्या है? चीन से एक व्यापारी आप के साथ मिलने के लिए चाहता है यह हमारा मालिक है मैं मूचुंग, शेडोंग से एक व्यापारी हूं तुम क्या चाहते हो? मेरा मानना ​​है कि आप चीन से माल हासिल करने कठिनाइयों है के बाद से आप चीन के साथ कोई व्यापार अधिकार है हम अपने सप्लायर हो जाएगा आप तस्करी का सुझाव दे रहे हैं? ये
सही है हम में संलग्न नहीं है अवैध गतिविधियों छोड़ दो ये है... यह हमारे सिर प्रमुख से एक पत्र है मेरा मानना ​​है कि आप मैडम जामी के समूह के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं आप उसे हराने के लिए चाहते हैं, आप हमारे सिर प्रमुख के साथ पूरा करना चाहिए मैं Dukjin हार्बर करने के लिए अब जाना होगा , मेरी महिला हाँ तैयार हो जाओ हमारे प्रधान मुख्य आप उम्मीद कर रहा है यहाँ रहो मेरी औरत चिंता मत करो प्रमुख चीफ, वह यहाँ है कृपया अंदर जाने बहुत लंबा समय गुजर गया मैं व्यापार करने के लिए एक प्रस्ताव बनाया क्योंकि मुझे डर था कि आप अगर तुम्हें पता था कि यह मैं था नहीं आ जाएगा अपने कल्याण के लिए मेरे दिल पर भारी तौला गया मुझे खुशी है कि तुम बरामद किया है तुम भी बहुत बदल गया है आप पहले से ही एक व्यवसाय काफी मजबूत मैडम जामी धमकी देने का निर्माण किया है? मैंने सुना है आप तस्करी का सुझाव दिया मैं चीनी माल की स्थिर आपूर्ति को सुरक्षित करता है, तो मैं अपने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया होता, लेकिन मैं इसे स्वीकार नहीं करेंगे मैं व्यापार से अपने तरीके से कर लेंगे तो भी यह मेरे लिए अब लगता है मैंने सुना है कि कप्तान जंग Shilla करने के लिए वापस आ गया, और आप उसे अपने व्यापारी जहाज मार्गरक्षण के साथ सौंपा गया है आप संपर्क में कप्तान जंग के साथ यह सब समय रखा है? मैं... मैं सभी मेरे पुराने रिश्तों को खारिज कर दिया है मैंने किया है मैं अलविदा कर आया क्या मैं... क्या आप जानते हैं कि कैसे मैं पिछले कुछ वर्षों से बच गया है? तथ्य यह है कि मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता ... मुझे लगता है कि अपराध से प्रताड़ित किया गया मैं तुम्हें जाने नहीं कर सकते, अब जब कि मैं तुम्हें पता जीवित हो कृपया... मुझे आप किसी भी अब चोट मत देना तुम मुझे भूल जाना चाहिए पता है मैं पिछले कुछ वर्षों में कैसे बच गया? मैं डाकुओं द्वारा Yusan हार्बर पर कब्जा कर लिया था, और एक दास के रूप में चांग आन के लिए ले जाया गया मैं एक वेश्यालय में बेच दिया गया था ... निराशा में, मैं अपने आप को मारने की कोशिश की लेकिन मैं एक Shilla आदमी की कृपा से बच गया था मैं अपने रास्ते पर फैसला किया है ... और मैं आप की सेवा नहीं कर सकते आपका पथ कप्तान जंग की छाया बन गया है अपना शेष जीवन के लिए? मैं एक व्यापारी हूँ और ... मैं केवल लोगों के रूप में मुझे का हिस्सा है कि एक ही मूल्यों के साथ कारोबार कर रहा हूँ मैं जा रहा हूँ मोहतरमाँ वे व्यापारी जहाज अनुरक्षण के लिए हैं मैं सबसे कुशल अधिकारियों का चयन किया हम जो समुद्र में अच्छी तरह से किराया नहीं कर सका बाहर रखा शिप बिल्डर्स हम Mujinju के लिए भेजा करने के लिए क्या हुआ? वे जहाज की मरम्मत किया जाना चाहिए हम यह भी एक नया चेज़र जहाज का निर्माण किया है यह Chunghae हार्बर पर प्रक्षेपण के लिए तैयार किया जा रहा है मैं अपने आप को जहाज का निरीक्षण करेंगे Palgeum के पानी में गश्त करने के लिए तैयार हो जाओ जी श्रीमान कप्तान यह क्या है? हम एक जासूस पकड़ा उस पर, हम एक विस्तृत Chunghae नौसैनिक अड्डों और अपने आधार दिखा नक्शा मिला कौन आप के लिए काम कर रहे हैं? मानता हूँ! कौन आप के लिए काम कर रहे हैं? यहाँ तक कि यातना उसके मुंह खोलने में नाकाम रही है वह एक समुद्री डाकू होना चाहिए यदि आप बात करते हैं हम अपने जीवन को छोड़ देंगे मैं तुम पर भरोसा कैसे करूँ? मैं वैसे भी बस मुझे अब मार मर जाऊँगा वे नौसैनिक अड्डों के स्थान जानने की कोशिश कर रहे हैं, समुद्री डाकुओं Chunghae पर हमला करने की योजना बना जा सकता है वे जानते हैं कि हम Mujinju से एक व्यापारी जहाज मार्गरक्षण किया जाएगा हम अपनी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता है, तो हमारे बल बांटा गया है Chunghae समुद्री डाकुओं ने हमला किया जाता है, हमारे सभी प्रयासों को बेकार में किया गया होगा हम एक योजना के साथ आना होगा Chunghae अपने लक्ष्य उनका लक्ष्य व्यापारी जहाज नहीं है योजना के अनुसार हम व्यापारी जहाज अनुरक्षण करेंगे मैं राज्यपाल के साथ Chunghae की रक्षा पर चर्चा करेंगे शेष अधिकारियों के साथ बंदरगाह के आसपास सुरक्षा कड़ी जी श्रीमान उत्तीर्ण करना उत्तीर्ण करना आप द्वारा किस बारे में सोचा जा रहा है? मैं जानता हूँ कि मैं उसे पहले देखा है कौन? यह उसके लेडी जंगह्वा है मैं Chunghae हार्बर पर लेडी जंगह्वा देखा का यह आप अब चीजें देख रहे हैं बाहर निकलो? मैं इस बारे में निश्चिन्त हूं लेडी जंगह्वा Chunghae में थे, वह निश्चित रूप से, हम पता होगा Chunghae में हैं और अगर वह किया था वह अब तक देखने के लिए कप्तान जंग आए हैं हम देख रहे हैं इस बकवास को भूल जाओ वैसे, इस मिशन के लिए आप के पीछे रहना चाहिए लेफ्टिनेंट मैं देखने के लिए आप फिर से चोट लगी बर्दाश्त नहीं कर सकता मै
ं समुद्री डाकू आप लेडी ChaeRYUNG के साथ रहने के बाहर मिटा देंगे मैं ऐसा नहीं कर सकता है क्या? महिलाओं के लक्ष्यों को भी है हकदार हैं मैं समुद्री डाकुओं का सफाया करने के Chunghae के लिए आया था, और मैं अपने कर्तव्य करूँगा अगर तुम नहीं आप बेहतर मुझे सुनना चाहते हैं, हम के माध्यम से कर रहे हैं यही कारण है कि मुझे रोक नहीं होगा बहुत जिद्दी यदि आप नहीं जानते अपने माता पिता के समुद्री डाकुओं द्वारा मारे गए थे, करते हो? हाँ मैं जानता हूँ कि तुम मुझे के बारे में चिंतित हैं लेकिन अगर मैं अपने हाथों से उनकी मौत का बदला लेने के लिए नहीं है, मैं आसानी से आराम कभी नहीं होगा मुझे पता है कि तुम कैसा महसूस, लेकिन मैं चिंतित तुम खतरे में हो जाएगा आप मिशन के दौरान सभी समय पर मेरी तरफ से रहना चाहिए ठीक है? ठीक है आप यहां पर क्या कर रहे हैं? लेडी जंगह्वा यहाँ है आप अच्छी तरह से किया गया है, मेरे प्रभु? मैंने सुना है आप बारबार सैर किया है आप Chunghae में आपके प्रवास का आनंद ले रहे हैं? अब मैं समझ क्यों तुम मुझे करने के लिए सिफारिश की Chunghae मैं बस यहाँ आ चुके हैं, लेकिन मैं पहले से ही शाही शहर में सब कुछ भूल गए हैं मैंने सुना है आप अपने जहाज के अनुरक्षण के साथ जंग Bogo सौंपा है क्या तुम उसे अभी तक नहीं मिले है? नहीं, मेरे पास नहीं है आप उसे इस तरह के एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपा बिना भी उनसे मुलाकात की थी? मैं एक लंबे समय के लिए कप्तान जंग में जाना जाता है बहुत अच्छी तरह से मैं यंग्ज़हौ में मैडम जामी के प्रमुख के रूप में काम किया है मैं सुल Pyong समूह से कप्तान जंग जानते क्या उसके बारे में आपकी क्या राय है? क्या आपको लगता है मैं उस पर विश्वास कर सकते हैं? लेकिन आप पहले से ही उस पर विश्वास करने के लिए शुरू कर दिया है तुम मुझे एक किताब की तरह पढ़ रहे हैं व्यापारी जहाज Dukjin हार्बर छोड़ देंगे, और Palgeum और Sadang पानी के माध्यम से पारित तुम उन्हें कहाँ पर हमला करेगा? मैं समुद्र में भूमि पर उन पर हमला कर देंगे, नहीं भूमि पर उन पर हमला? आपका क्या अर्थ है? जंग Bogo अच्छी तरह से एक नौसैनिक हमले के लिए तैयार हो जाएगा सबसे पहले, हम जहाज है, जबकि यह गुजर रहा है हमला करेंगे Sadang पानी के माध्यम से, और उन्हें लुभाने के तट पर तो फिर हम उन दोनों को जमीन और समुद्र से घात करेंगे यह उन्हें दबाने के लिए सबसे अच्छी रणनीति है, और उनके सामान तुरन्त अधिकार लेकिन भूमि लड़ाइयों में जंग Bogo की पुरुषों की ताकत भी था वू निंग जून में सिद्ध जैसा कि आप जानते हैं, हमारे आदमियों को जमीन पर असहाय हैं जंग Bogo भी कुशल नाविक और एक नौसेना है हम एक नौसैनिक युद्ध में उन पर नुकसान तुम मार सकते, लेकिन हम उन्हें मिटा नहीं सकते यह हमारी जंग Bogo से छुटकारा पाने का मौका है और सुल Pyong समूह को दबाने क्या आप यह कर सकते हैं? मैं व्यक्तिगत रूप से चुन सकते हैं और इस मिशन के लिए पुरुषों को प्रशिक्षित करेंगे कृपया मुझ पर विश्वास है उन्होंने Yumcha समुद्री डाकू गिरोह के नेता है इस सिर मुख्य यम चंद्रमा है मैं मैन chool हूँ तुम्हें पता होना चाहिए कि मैं यहाँ क्यों हूँ तुम मुझे करने के लिए अपने कौशल को साबित करते हैं, यदि आप हमारे हमले के अगुआ में हो जाएगा और युद्ध की लूट आप के लिए जाना जाएगा आप आप और आप उन्हें मुख्यालय के पास ले जाओ बाकी बेकार हैं यहां तक ​​कि कुछ चुने हुए लोगों को कोई मैच होगा भूमि की लड़ाई में जंग Bogo के पुरुषों के लिए घुटने! आप एक मरने की इच्छा है? क्या आप जानते हैं कि यह कौन है? कैसे आप उस पर चमक हिम्मत कैसे हुई? आप इस के लिए ऊपर कौन डाल दिया? प्रमुख चीफ क्या आप जानते हैं कि यह कौन है? हाँ उन्होंने HyoBaek की सेवा करने से पहले आप द्वीप पर विजय प्राप्त की आप अपने गुरु का बदला लेने की कोशिश कर रहे थे? मुझे मार डालो मैं उसे मार देंगे पीछे खड़े हो जाओ सिर चीफ मैडम, मुख्य Kwon अपने प्रस्ताव को स्वीकार करेंगे आप एक बुद्धिमान निर्णय लिया है मैंने सुना है आप जंगह्वा के साथ बहुत निकटता से काम किया क्या वह सही है? हाँ तब आपको पता होना चाहिए कि कैसे वह अपने समूह बनाया वह एक महान व्यवसायी है, और सभी प्रमुखों उसे हर वचन का पालन ग्रेट व्यावसायिक कौशल अकेले की वजह से नहीं हो सकता था उसे व्यापार इस तेजी से विस्तार करने के लिए किसी ने उसे वापस देख रहा होगा यह कौन है? मुझे बताओ यह पूर्व रीजेंट ... प्रभु किम वू जिंग है कैसे जंगह्वा उसे पता है? हम नहीं जानते कि कैसे लेकिन जब वह हाल ही में Mujinju के लिए आया था, रीजेंट लेडी जंगह्वा के साथ एक यात्रा की थी कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कैसे सोचा, मैं समझ नहीं सका क्यों किम वू जिंग Chunghae करने के लिए जा रहा था अब मुझे समझ में जंग
ह्वा के पिता Chunghae राज्यपाल के रूप में एक बार सेवा वह उसे गहरा विश्वास करना चाहिए अगर वह उसे सलाह लेते हैं और Chunghae में जाना चाहते हैं रीजेंट आप की ओर बहुत अनुकूल नहीं था रीजेंट उसकी प्रायोजित कर रहा है, तो वह आप के लिए एक बड़ा खतरा हो जाएगा कप्तान, यह मुझे है, ताएbong आओ यह क्या है? सेना के मंत्री यहाँ है मेरे प्रभु, क्या आश्चर्य यह है यदि तुम स्वस्थ होते? हाँ, और मुझे यह सब आप को देने के लिए आप Mujinju करने के लिए क्या लाता है? मैं एक शाही आदेश देने के लिए आए हैं महामहिम शाही शहर में लौटने के लिए पूर्व रीजेंट का आदेश दिया है लेकिन वह अपने पद से सेवानिवृत्त हो गया है महामहिम किम वू जिंग पर पूरा भरोसा है मेरा मानना ​​है कि किम वू जिंग के साथ अपने रिश्ते सौहार्दपूर्ण की तुलना में कम है फिर भी वह अपने संदेश के साथ भेजा गया है? महानिरीक्षक को इस बारे में क्या कहा? उन्होंने कहा कि किम वू जिंग शाही शहर को वापस लाने के लिए संकोच था, लेकिन वह महामहिम अवज्ञा नहीं कर सकता महामहिम उसे फिर से रीजेंट के रूप में नियुक्त करने का इरादा रखता है मैं शाही आदेश देने के लिए नहीं Mujinju के लिए आया था, लेकिन किम वू जिंग से छुटकारा पाने के लिए किम वू जिंग रीजेंट हो जाता है, जंगह्वा आप के लिए एक बड़ा खतरा होगा आप इसे करने के लिए एक बंद रखा जाना चाहिए एक संदेश भेजें यी मास्टर उसे नीचा दिखाना आप मेरे आदेश के तहत आएगा? उसे जवाब! उसे फिर से टाई हाँ, साहब उन्होंने कहा कि आप के खिलाफ एक गहरी शिकायत रखती है आप उसे क्यों नहीं छोड़ेंगे हो जब तुम उसे मार सकता है? अगर वह स्वेच्छा से अपने आदेश के तहत आया है, मैं उसे अब तक मारे गए हैं हम देख रहे हैं आप वास्तव में उसे अपने मातहत से एक हो जाएंगे? वह मार्शल आर्ट में कुशल मैं उसे अपने आदमी कर सकता है तो है, वह मेरे लिए एक महान परिसंपत्ति हो जाएगा प्रमुख चीफ यह क्या है? मास्टर आप के लिए देख रहा है तुम मुझे देख रहे थे? मैं Mujinju में जाने के लिए आप की जरूरत है यह क्या है? मैडम जामी आप के साथ मिलना चाहता है। चले जाओ। चूंकि आप साल पहले यंग्ज़हौ में मेरी जान बचाई, मैं आपकी मदद के इस समय के लिए आया हूँ मैं किम वूजिंग का ख्याल रखना होगा क्या आपके पास कोई योजना है? इसे मेरे ऊपर छोड़ दो महामहिम आदेश दिया है कि वह शाही शहर में लौटने जितनी जल्दी हो सके कैसे एक मरे हुए आदमी शाही शहर को लौट सकता है? आपने सुना या कुछ भी नहीं देखा है मुझे आपके ऊपर विश्वास है कुछ भी गलत हो जाता है, तो हम नुकसान से बच नहीं होगा आप इस तरह के एक बेहोश दिल के साथ कुछ भी कैसे पूरा हो सकता है? यह अच्छी तरह से चला जाता है, आप महानिरीक्षक का विश्वास जीत लेंगे आप इस महत्वपूर्ण अवसर बर्बाद करने के लिए क्या मतलब है? मुझे माफ कर दो मैं यम चंद्रमा इस बात का ख्याल रखना करने की योजना वह Shilla में है? हाँ। तुम्हें पता होना चाहिए के रूप में, जंग Bogo Chunghae में एक आधार की स्थापना की है समुद्री डाकुओं को दबाने के लिए तैयारी में यह Chunghae में लाने के लिए आसान नहीं होगा जब किनारे और बंदरगाह है चाहिए पर सुरक्षा कड़ी कर दी गई आप केवल मदद करने के लिए यम चंद्रमा Chunghae में शामिल होने की जरूरत है जी महोदया मुझे तुमसे कुछ कहना है आप जंगह्वा की किसी भी खबर में सुना है? क्या तुम? नहीं जंगह्वा Mujinju में है वह एक व्यापारी समूह के प्रमुख बन गया है और बाजार के अपने हिस्से पर हमला है यह नहीं हो सकता। जंगह्वा ऐसा नहीं कर सकता है आप के लिए उसकी खुद वह ऐसा क्यों कर रहा है पूछो कारण है कि मैं किम वू जिंग से छुटकारा पाना होगा है क्योंकि वह एक समर्थन जंगह्वा है मैं... मैं कभी माफ नहीं करेगा जंगह्वा चूंकि मैं जानता हूँ कि आप जंगह्वा के लिए भावनाओं था, मैं चिंतित था कि आप मेरे प्रस्ताव को अस्वीकार हम देख रहे हैं यहां तक ​​कि अगर यह अपने प्रस्ताव के लिए नहीं थे, मैं अपने हाथों किसी दिन के साथ जंग Bogo मारना चाहिए यहां तक ​​कि अगर जंग Bogo अपने व्यापारी जहाज मार्गरक्षण किया गया था, मैं जहाज पर हमला किया था मिशन के लिए तैयारी अच्छी चल रही है? हम हम आपको चिंता करने की जरूरत नहीं कर सकते हैं सब कर रहे हैं वहाँ कुछ और आप मेरे लिए क्या करना चाहिए इससे पहले कि आप जंग Bogo से छुटकारा पाने के तुम्हें पता होना चाहिए कि कैसे जंग Bogo Shilla में रहने में कामयाब बजाय चीन की ओर लौटने का, है ना? मैंने सुना है कि पूर्व रीजेंट, किम वू जिंग उसे मदद महामहिम उसे शाही शहर को वापस लाने का इरादा और उसे रीजेंट के रूप में reappoint किम वू जिंग रीजेंट हो जाता है, जंग Bogo एक और भी अधिक शक्तिशाली सहयोगी लाभ होगा किम वू जिंग के लिए तुम्हारे और मेरे दोनों मुसीबत का एक स्रोत है आप किम वू जिं
ग से छुटकारा मिलना चाहिए पिता! क्या? आप एक भूत या कुछ देखा है? आप क्या कह रहे हैं हाँ, मैं एक भूत देखा है? आप यकीन है कि यह यम चंद्रमा था? हाँ, मुझे यकीन है कि यह यम चाँद था योन मुझसे कहा, यम चंद्रमा एक पहाड़ से उसकी मौत के लिए कूद गया तो कैसे एक मरे हुए आदमी वापस आ सकता ज़िंदा है? आप एक भूत देखा होगा मैडम जामी दिन पहले Joongदाल के साथ मुलाकात की, और अब वह यम मून के साथ मुलाकात की वे फिर से अच्छा नहीं होना चाहिए तुम कुछ भी नहीं देखा था आप नहीं देखा था Joongदाल या यम मून ठीक है? लेकिन मैंने उन्हें देखा था मुझे लगता है कि मैं Chunghae के लिए जाना है क्यूं कर? मैं कप्तान जंग में बताने के लिए है आप एक बहाना मेरे Chunghae के लिए जाने के लिए कर सकते हैं? आप एक मरने की इच्छा है? जल्द ही जोंग, हमें एक शांत जीवन व्यतीत करते हैं तो कृपया मैं कुछ और के लिए नहीं करना चाहती मैं सिर्फ अपने परिवार के गर्म और तंग आ जाना चाहते इसलिए हमें चुपचाप रहते हैं, ठीक है, मेरे बच्चे हैं तो कृपया? मैं भी परवाह नहीं है अगर तुम मेरी मदद नहीं करते मैं Chunghae में जाना होगा मैडम जामी का पता लगाना चाहिए वह सिर्फ मुझे मार सकते हैं आप कैसे यह कह सकते है? आप एक पिता अब कर रहे हैं! तो क्या आप मेरी मदद के लिए है क्यों, तुम! वह तुम्हारे साथ क्या चाहता था? उसने मुझे किम वू जिंग की हत्या करने को कहा किम वू जिंग? आप पूर्व रीजेंट मतलब है? राजा रीजेंट के रूप में उसे reappoint करना चाहता है राजा कोई वारिस है, किम वू जिंग एक शाही वंशज है जो अगले राजा बन सकता है जब राजा मर जाता है उन्होंने साथ सिंहासन के लिए लड़ रहा है महानिरीक्षक, जो मैडम जामी समर्थन कर रहा है किम वू जिंग शाही शहर छोड़ राजनीतिक लड़ाई से बचने के लिए मास्टर, हम उसके प्रस्ताव अस्वीकार करना होगा हम सब कुछ खो सकता है हम के लिए इतनी मेहनत से काम किया अगर हम राजनीतिक संघर्ष में शामिल हो हम अपने भव्य योजना के लिए मैडम जामी के साथ हाथ मिलाया है, लेकिन हम इस तरह की बातें करते नहीं की जरूरत है आप इसे करते जरूरत नहीं है अगर आप नहीं करना चाहते हैं मैं यह करूँगा सिर चीफ जंग Bogo अधिक सत्ता हासिल करेंगे, तो किम वू जिंग रीजेंट हो जाता है हम उससे छुटकारा पाना होगा मैं आप अपने बदला लेने के लिए एक मौका दे दूँगा उसे एक तलवार दें सिर चीफ मैं एक तलवार अपना बदला लेने के पकड़ नहीं होगा आप मेरे आदेश करने के लिए प्रस्तुत करने के लिए नहीं करना चाहते हैं, आप इस जगह को छोड़ कर सकते हैं आपने अच्छी तरह से किया है मैं समझ नहीं सका तुम क्यों Chunghae में एक आधार की स्थापना की थी, लेकिन अब है कि मैं यहाँ हूँ, मैं समझता हूँ यह जगह एक आदर्श गढ़ है यह जापान और चीन कनेक्ट करने के लिए सही जगह है समुद्री डाकुओं को दबाने के लिए अपनी योजनाओं पर प्रगति क्या है? Jinwol क्षेत्र में समुद्री डाकू एकीकृत हो एक दर्जन से अधिक छोटे समुद्री डाकू गिरोह, और प्रमुख शक्ति बनने मैं पहली बार दबाने के लिए की योजना उनके आदेश के तहत छोटे समुद्री डाकू गिरोह, और फिर Jinwol समुद्री डाकुओं पर हमला कैसे वह घर लौट आए हैं करने के लिए लग रहा है? मैं कह सकता हूँ कि यह आपके लिए एक विजयी घर वापसी होना चाहिए मैं अभी तक नहीं Chunghae के लिए कुछ भी किया है मैं बार जब आप अपने जहाज पर दूर stowed याद है, मुझसे पूछ आप चीन के लिए लेने के लिए आप एक साहसिक और ढीठ बच्चे थे, लेकिन आप अपनी आँखों में भावना थी चीन आप के लिए अवसर की भूमि तो अवश्य किया गया है, लेकिन आप Chungae में अपने सपनों का एहसास होगा उन समुद्री डाकू, जो अपने रास्ते में खड़े हो जाओ बाहर साफ कर लें, और हमारी नींव यहाँ के रूप में जल्द ही संभव के रूप में स्थापित हां मास्टर मैं बंदरगाह के पास एक सराय का निर्माण करने की योजना एक सराय? हाँ Chunghae जल्द ही पोर्टऑफद कॉल हो जाएगा जापान और चीन से व्यापारी जहाजों के लिए वे आराम और यहाँ उनकी आपूर्ति मिल जाएगा हम एक बड़े सराय के निर्माण से उसके लिए तैयार करना होगा हम क्यों कि सराय में समान रूप से निवेश नहीं करते हैं? ठीक मैडम जामी आप को विफल करने की कोशिश नहीं की है? मैडम जामी और Mujinju राज्यपाल की चाल एक महान खतरा लेकिन हम इसे दूर किया है भगवान किम वू जिंग, पूर्व रीजेंट की सहायता से अगर वह रीजेंट था, फिर वह सबसे शक्तिशाली आदमी राजा के बगल में है हाँ और क्या कारण है कि वह हमारी मदद के लिए आ गया है? उन्होंने कहा कि बदले में कुछ भी नहीं करना चाहता था उन्होंने Chunghae में अब रह रहा है तुम उसके साथ पूरा करना चाहिए अगर मौका परमिट आप कहते हैं कि मास्टर सुल Pyong गए? हाँ, मैंने सुना है वह यंग्ज़हौ में सबसे बड़ा व्यापारी है क्या आप उसे जानते हो? हाँ वह बस आ गया और वह कप्
तान जंग के साथ बैठक कर रहा है ऐसा लगता है कि कप्तान जंग Chunghae में अपने आधार का गठन किया है सिर्फ दबा समुद्री डाकुओं के अलावा अन्य कारणों के लिए वे Chunghae में उनके समूह का आधार स्थापित करेगा वे अपने आधार के लिए Dukjin हार्बर नहीं चुनना चाहिए, क्योंकि यह Mujinju के करीब है? Chunghae सभी शर्तों को संतुष्ट जापान और चीन से व्यापारी जहाजों यह उनकी पोर्टऑफद कॉल करने के लिए कप्तान जंग Chunghae में अपने आधार स्थापित करता है, यह Dukjin हार्बर से भी अधिक समृद्ध बन जाऊँगा यही कारण है कि मैं यहाँ एक सराय का निर्माण करने की योजना बना रहा हूँ है अगर आप किसी भी भाग्य के मछली पकड़ने के लिए है? कोई मछली मुझे लिप्त होगा मैं बंदरगाह में एक चीनी व्यापारी जहाज देखा यंग्ज़हौ व्यापारी समूह के मास्टर सुल Pyong यहाँ है सुल Pyong? हाँ वह चीन में सबसे सफल Shilla व्यापारी है तो फिर मैं उसके साथ पूरा करना होगा एक बैठक की व्यवस्था। हाँ मेरे प्रभू वहाँ रुकें मैं आपको कहां से पहले आप से कर रहे हैं नहीं देखा है? एक! जल्द ही जोंग आप Chunghae करने के लिए क्या लाता है? कप्तान जंग कहां है? क्यूं कर? क्या हुआ? मैं उसे कुछ महत्वपूर्ण बताने के लिए है यम चंद्रमा वास्तव में जिंदा है? मैं इस बारे में निश्चिन्त हूं मैंने देखा उसे अपनी आँखों से मैडम जामी के साथ बैठक वह मैडम जामी के साथ क्यों मिल रहा था? मुझे नहीं पता होगा एक महत्वपूर्ण मंत्री Mujinju में रह रही है अब यम चंद्रमा सही आने के बाद वह मंत्री से मुलाकात की Mujinju राज्यपाल के साथ वे कुछ करने के लिए होना चाहिए मैं रीजेंट के साथ पूरा करना होगा कप्तान यह क्या है? हार्बर गश्ती अधिकारियों अज्ञात लोगों द्वारा मारे गए थे अगर आप एक अच्छा सैर किया है? हाँ क्यों आप ठंड में बाहर इंतजार कर रहे हैं? चलो अंदर चलें मेरे प्रभु, बाहर देखो! जंगह्वा! वहाँ कौन है! क्या वहां कोई है? जाग जाओ जाग जाओ! वह कैसी है? उठो! उठो! अनुत्तीर्ण होना? यह जंगह्वा की वजह से है? आप जब आप उसे देखा था दिल का एक परिवर्तन किया है? आप एक मरने की इच्छा है ...? नहीं आप नहीं जानते कि जो चाकू से घायल हो गया था, है न? क्यों आप केवल हमें अब यह कह रहे हैं? यह गहराई से मुझे विचलित कर देता है ... पता चला है कि वहाँ मेरे लिए कोई जगह कभी नहीं होगा समुद्र तुम और मैं के अंतर्गत आता है मैडम जामी और मंत्री अपनी हत्या की साजिश रची है चाहिए।
स्थान : कंचनसिंह का कमरा। समय : दोपहर, खस की टट्टी लगी हुई है, कंचनसिंह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैं, पंखा चल रहा है। कंचन : (आप-ही-आप) भाई साहब में तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेश-मात्र भी संदेह नहीं है कि वह कोई अत्यंत रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे पर से झांकते देखा था।, भाई साहब आड़ में छिप गए थे।अगर कुछ रहस्य की बात न होती तो वह कदापि न छिपते, बल्कि मुझसे पूछते, कहां जा रहे हो, मेरा माथा उसी वक्त ठनका था। जब मैंने उन्हें नित्यप्रति बिना किसी कोचवान के अपने हाथों टमटम हांकते सैर करने जाते देखा । उनकी इस भांति घूमने की आदत न थी। आजकल न कभी क्लब जाते हैं न और किसी से मिलते?जुलते हैं। पत्रों से भी रूचि नहीं जान पड़ती। सप्ताह में एक-न -एक लेख अवश्य लिख लेते थे, पर इधर महीनों से एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखी, यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो बड़े वेग से बहने लगता है अथवा रूकी वायु चलती है तो बहुत प्रचण्ड हो जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरूष जब विचलित होता है, यह अविचार की चरम सीमा तक चला जाता है। न किसी की सुनता है, न किसी के रोके रूकता है, न परिणाम सोचता है। उसके विवेक और बुद्वि पर पर्दा-सा पड़ जाता है। कदाचित् भाई साहब को मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहां देख लिया। इसीलिए वह मुझसे माल खरीदने के लिए पंजाब जाने को कहते हैं। मुझे कुछ दिनों के लिए हटा देना चाहते हैं। यही बात है, नहीं तो वह माल-वाल की इतनी चिंता कभी न किया करते थे।मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभी को कहीं खबर मिल गई तो वह प्राण ही दे देंगी। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे विद्वान, गंभीर पुरूष भी इस मायाजाल में फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आंखों न देखा होता तो भाई साहब के संबंध में कभी इस दुष्कल्पना का विश्वास न आता। ज्ञानी का प्रवेश। ज्ञानी : बाबूजी, आज सोए नहीं ? कंचन : नहीं, कुछ हिसाब-किताब देख रहा था।भाई साहब ने लगान न मुआफ कर दिया होता तो अबकी मैं ठाकुरद्वारे में जरूर हाथ लगा देता। असामियों से कुछ रूपये वसूल होते, लेकिन उन पर दावा ही न करने दिया । ज्ञानी : वह तो मुझसे कहते थे दो-चार महीनों के लिए पहाड़ों की सैर करने जाऊँगा। डारुक्टर ने कहा है, यहां रहोगे तो तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगी। आजकल कुछ दुर्बल भी तो हो गये हैं। बाबूजी एक बात पूछूं, बताओगे। तुम्हें भी इनके स्वभाव में कुछ अंतर दिखायी देता है ? मुझे तो बहुत अंतर मालूम होता है। वह कभी इतने नम्र और सरल नहीं थे।अब वह एक-एक बात सावधान होकर कहते हैं कि कहीं मुझे बुरा न लगे। उनके सामने जाती हूँ तो मुझे देखते ही मानो नींद से चौंक पड़ते हैं और इस भांति हंसकर स्वागत करते हैं जैसे कोई मेहमान आया हो, मेरा मुंह जोहा करते हैं कि कोई बात कहे और उसे पूरी कर दूं। जैसे घर के लोग बीमार का मन रखने का यत्न करते हैं या जैसे किसी शोक-पीड़ित मनुष्य के साथ लोगों का व्यवहार सदय हो जाता है, उसी प्रकार आजकल पके हुए गोड़े की तरह मुझे ठेस से बचाया जाता है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं आता। खेद तो मुझे यह है कि इन सारी बातों में दिखावट और बनावट की बू आती है। सच्चा क्रोध उतना ह्दयभेदी नहीं होता जितना कृत्रिम प्रेम। खिदमतगार आता है। ज्ञानी चली जाती है। कंचन : क्या काम है ? खिदमतगार : यह सरकारी लिगागा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है। कंचन : (रसीद की बही पर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो। (खिदमतगार चला जाता है।) अच्छा, गांव वालों ने मिलकर हलधर को छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ। मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं मेरे रूपये वसूल हो गए। यह कार्रवाई न की जाती तो कभी रूपये न वसूल होते। इसी से लोग कहते हैं कि नीचों को जब तक खूब न दबाओ उनकी गांठ नहीं खुलती। औरों पर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता तो बात-की-बात में सब रूपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारे में हाथ तो लगा ही देता। भाई साहब को समझाना तो मेरा काम नहीं, उनके सामने रोब, शर्म और संकोच से मेरी जबान ही न खुलेगी। उसी के पास चलूं, उसके रंग-ढ़ंग देखूं, कौन है, क्या चाहती है, क्यों यह जाल फैलाया है ? अगर धन के लोभ से यह माया रची है तो जो कुछ उसकी इच्छा हो देकर यहां से हटा दूं। भाई साहब को और समस्त परिवार को सर्वनाश से बचा लूं। (फिर खिदमतगार आता है।) क्या बार-बार आते हो ? क्या काम है? मेरे पास पेशगी देने के लिए रूपये नहीं हैं। खिदमतगार : हुजूर, रूपये नहीं मांगता। बड़े सरकार ने आपको याद किया है। कंचन : (मन में) मेरा तो दिल धक-धक कर रहा है, न जाने क्यों बुलाते हैं ! कहीं पूछ न बैठें, तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हो, उठकर ठाकुर सबलसिंह के कमरे में जाते हैं। सबल : तुमको एक विशेष कारण से तकलीफ दी है। इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत अच्छी नहीं रहती, रात को नींद कम आती है और भोजन
से भी अरूचि हो गई है। कंचन : आपका भोजन आधा भी नहीं रहा। सबल : हां, वह भी जबरदस्ती खाता हूँ। इसलिए मेरा विचार हो रहा है कि तीन-चार महीनों के लिए मंसूरी चला जाऊँ। कंचन : जलवायु के बदलने से कुछ लाभ तो अवश्य होगा। सबल : तुम्हें रूपयों का प्रबंध करने में ज्यादा असुविधा तो न होगी ? कंचन : उसपर तो केवल पांच हजार रूपये होंगे।चार हजार दो सौ पचास रूपये मूलचंद ने दिये हैं, पांच सौ रूपये श्रीराम ने, और ढाई सौ रूपये हलधर ने। सबल : (चौंककर) क्या हलधर ने भी रूपये दे दिए ? कंचन : हां, गांव वालों ने मदद की होगी। सबल : तब तो वह छूटकर अपने घर पहुंच गया होगा? कंचन : जी हां। सबल : (कुछ देर तक सोचकर) मेरे सफर की तैयारी में कै दिन लगेंगे? कंचन : क्या जाना बहुत जरूरी है ? क्यों न यहीं कुछ दिनों के लिए देहात चले जाइए। लिखने-पढ़ने का काम भी बंद कर दीजिए। सबल : डारुक्टरों की सलाह पहाड़ों पर जाने की है। मैं कल किसी वक्त यहां से मंसूरी चला जाना चाहता हूँ। कंचन : जैसी इच्छा। सबल : मेरे साथ किसी नौकर-चाकर के जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी भाभी चलने के लिए आग्रह करेंगी। उन्हें समझा देना कि तुम्हारे चलने से खर्च बहुत बढ़ जाएगी। नौकर, महरी, मिसराइन, सभी को जाना पड़ेगा और इस वक्त इतनी गुंजाइश नहीं । कंचन : अकेले तो आपको बहुत तकलीफ होगी। सबल : (खीझकर) क्या संसार में अकेले कोई यात्रा नहीं करता ? अमरीका के करोड़पति तक एक हैंडबैग लेकर भारत की यात्रा पर चल खड़े होते हैं, मेरी कौन गिनती है। मैं उन रईसों में नहीं हूँ जिनके घर में चाहे भोजन का ठिकाना न हो, जायदाद बिकी जाती हो, पर जूता नौकर ही पहनाएगा, शौच के लिए लोटा लेकर नौकर ही जाएगा। यह रियासत नहीं हिमाकत है। कंचनसिंह चले जाते हैं। सबल : (मन में) वही हुआ जिसकी आशंका थी। आज ही राजेश्वरी से चलने को कहूँ और कल प्रातः काल यहां से चल दूं। हलधर कहीं आ पड़ा और उसे संदेह हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी। ज्ञानी आसानी से न मानेगी । उसे देखकर दया आती है। किंतु आज ह्रदय को कड़ा करके उसे भी रोकना पड़ेगा। अंचल का प्रवेश। अचल : दादाजी, आप पहाड़ों पर जा रहे हैं, मैं भी साथ चलूंगा। सबल : बेटा, मैं अकेले जा रहा हूँ, तुम्हें तकलीफ होगी। अचल : इसीलिए तो मैं और चलना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि खूब तकलीफ हो, सब काम अपने हाथों करना पड़े, मोटा खाना मिले और कभी मिले, कभी न मिले। तकलीफ उठाने से आदमी की हिम्मत मजबूत हो जाती है, वह निर्भय हो जाता है। जरा-जरा-सी बातों से घबराता नहीं, मुझे जरूर ले चलिए। सबल : मैं वहां एक जगह थोड़े ही रहूँगा। कभी यहां, कभी वहां। अचल : यह तो और भी अच्छा है। तरह-तरह की चीजें, नये-नये दृश्य देखने में आएंगी। और मुल्कों में तो लड़कों को सरकार की तरफ से सैर करने का मौका दिया जाता है। किताबों में भी लिखा है कि बिना देशाटन किए अनुभव नहीं होता, और भूगोल जानने का तो इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है । नक्शों और माडलों के देखने से क्या होता है ! मैं इस मौके को न जाने दूंगा। सबल : बेटा, तुम कभी-कभी व्यर्थ में जिद करने लगते हो, मैंने कह दिया कि मैं इस वक्त अकेले ही जाना चाहता हूँ, यहां तक कि किसी नौकर को भी साथ नहीं ले जाता। अगले वर्ष मैं तुम्हें इतनी सैरें करा दूंगा कि तुम ऊब जाओगी। (अचल उदास होकर चला जाता है।) अब सफर की तैयारी करूं। मुख्तसर ही सामान ले जाना मुनासिब होगी। रूपये हों तो जंगल में भी मंगल हो सकता है। आज शाम को राजेश्वरी से भी चलने की तैयारी करने को कह दूंगा, प्रातः काल हम दोनों यहां से चले जाएं। प्रेम-पाश में फंसकर देखा, नीति का, आत्मा का, धर्म का कितना बलिदान करना पड़ता है, और किस-किस वन की पत्तियां तोड़नी पड़ती हैं । स्थान : राजेश्वरी का सजा हुआ कमरा। समय : दोपहर। लौंडी : बाईजी, कोई नीचे पुकार रहा है। राजेश्वरी : (नींद से चौंककर) क्या कहा - ', आग जली है ? लौंडी : नौज, कोई आदमी नीचे पुकार रहा है। राजेश्वरी : पूछा नहीं कौन है, क्या कहता है, किस मतलब से आया है ? संदेशा लेकर दौड़ चली, कैसे मजे का सपना देख रही थी। लौंडी : ठाकुर साहब ने तो कह दिया है कि कोई कितना ही पुकारे, कोई हो, किवाड़ न खोलना, न कुछ जवाब देना। इसीलिए मैंने कुछ पूछताछ नहीं की। राजेश्वरी : मैं कहती हूँ जाकर पूछो, कौन है ? महरी जाती है और एक क्षण में लौट आती है। लौंडी : अरे बाईजी, बड़ा गजब हो गया। यह तो ठाकुर साहब के छोटे भाई बाबू कंचनसिंह हैं। अब क्या होगा? राजेश्वरी : होगा क्या, जाकर बुला ला। लौंडी : ठाकुर साहब सुनेंगे तो मेरे सिर का बाल भी न छोड़ेंगे। राजेश्वरी : तो ठाकुर साहब को सुनाने कौन जाएगा ! अब यह तो नहीं हो सकता कि उनके भाई द्वार पर आएं और मैं उनकी बात तक न पूछूं। वह अपने मन में क्या कहेंगे ! जाकर बुला ला और दीवानखाने में बिठला। मैं आती हूँ।
लौंडी : किसी ने पूछा तो मैं कह दूंगी, अपने बाल न नुचवाऊँगी। राजेश्वरी : तेरा सिर देखने से तो यही मालूम होता है कि एक नहीं कई बार बाल नुच चुके हैं। मेरी खातिर से एक बार और नुचवा लेना । यह लो, इससे बालों के बढ़ाने की दवा ले लेना। लौंडी चली जाती है। राजेश्वरी : (मन में) इनके आने का क्या प्रयोजन है ? कहीं उन्होंने जाकर इन्हें कुछ कहा-सुना तो नहीं ? आप ही मालूम हो जाएगी। अब मेरा दांव आया है। ईश्वर मेरे सहायक हैं । मैं किसी भांति आप ही इनसे मिलना चाहती थी। वह स्वयं आ गए। (आईने में सूरत देखकर) इस वक्त किसी बनाव चुनाव की जरूरत नहीं, यह अलसाई मतवाली आंखें सोलहों सिंगार के बराबर हैं। क्या जानें किस स्वभाव का आदमी है। अभी तक विवाह नहीं किया है, पूजा-पाठ, पोथी-पत्रे में रात-दिन लिप्त रहता है। इस पर मंत्र चलना कठिन है। कठिन हो सकता है, पर असाध्य नहीं है। मैं तो कहती हूँ, कठिन भी नहीं है। आदमी कुछ खोकर तब सीखता है। जिसने खोया ही नहीं वह क्या सीखेगी। मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। भगवान् ने यह रूप दिया था। तो ऐसे पुरूष का संग क्यों दिया जो बिल्कुल दूसरों की मुट्ठी में था। ! यह उसी का फल है कि जिनके सज्जनों की मुझे पूजा करनी चाहिए थी, आज मैं उनके खून की प्यासी हो रही हूँ। क्यों न खून की प्यासी होऊँ ? देवता ही क्यों न हो, जब अपना सर्वनाश कर दे तो उसकी पूजा क्यों करूं ! यह दयावान हैं, धर्मात्मा हैं, गरीबों का हित करते हैं पर मेरा जीवन तो उन्होंने नष्ट कर दिया । दीन-दुनिया कहीं का न रखा। मेरे पीछे एक बेचारे भोले-भाले, सीधे-सादे आदमी के प्राणों के घातक हो गए। कितने सुख से जीवन कटता था।अपने घर में रानी बनी हुई थी। मोटा खाती थी, मोटा पहनती थी, पर गांव-भर में मरजाद तो थी। नहीं तो यहां इस तरह मुंह में कालिख लगाए चोरों की तरह पड़ी हूँ जैसे कोई कैदी कालकोठरी में बंद हो, आ गए कंचनसिंह, चलूं। (दीवानखाने में आकर) देवरजी को प्रणाम करती हूँ। कंचन : (चकित होकर मन में) मैं न जानता था कि यह ऐसी सुंदरी रमणी है। रम्भा के चित्र से कितनी मिलती-जुलती है ! तभी तो भाई साहब लोट-पोट हो गए। वाणी कितनी मधुर है। (प्रकट) मैं बिना आज्ञा ही चला आया, इसके लिए क्षमा मांगता हूँ। सुना है भाई साहब का कड़ा हुक्म है कि यहां कोई न आने पाए। राजेश्वरी : आपका घर है, आपके लिए क्या रोक-टोक ! मेरे लिए तो जैसे आपके भाई साहब, वैसे आपब मेरे धन्य भाग कि आप जैसे भक्त पुरूष के दर्शन हुए । कंचन : (असमंजस में पड़कर मन में) मैंने काम जितना सहज समझा था। उससे कहीं कठिन निकला। सौंदर्य कदाचित् बुद्वि-शक्तियों को हर लेता है। जितनी बातें सोचकर चला था। वह सब भूल गई, जैसे कोई नया पत्ता अखाड़े में उतरते ही अपने सारे दांव-पेंच भूल जाए। कैसै बात छेड़ू ? (प्रकट) आपको यह तो मालूम ही होगा कि भाई साहब आपके साथ कहीं बाहर जाना चाहते हैं ? राजेश्वरी : (मुस्कराकर) जी हां, यह निश्चय हो चुका है। कंचन : अब किसी तरह नहीं रूक सकता ? कंचन : ईश्वर न करें, ईश्वर न करें, पर मेरा आशय यह था। कि आप भाई साहब को रोकें तो अच्छा हो, वह एक बार घर से जाकर फिर मुश्किल से लौटेंगी। भाभी जी को जब से यह बात मालूम हुई है वह बार-बार भाई साहब के साथ चलने पर जिद कर रही हैं। अगर भैया छिपकर चले गए तो भाभी के प्राणों ही पर बन जाएगी। राजेश्वरी : इसका तो मुझे भी भय है, क्योंकि मैंने सुना है, ज्ञानी देवी उनके बिना एक छन भी नहीं रह सकती। पर मैं भी तो आपके भैया ही के हुक्म की चेरी हूँ, जो कुछ वह कहेंगे उसे मानना पड़ेगा। मैं अपना देश, कुल, घर-बार छोड़कर केवल उनके प्रेम के सहारे यहां आई हूँ। मेरा यहां कौन है ? उस प्रेम का सुख उठाने से मैं अपने को कैसे रोकूं ? यह तो ऐसा ही होगा कि कोई भोजन बनाकर भूखों तड़पा करे, घर छाकर धूप में जलता रहै। मैं ज्ञानीदेवी से डाह नहीं करती, इतनी ओछी नहीं हूँ कि उनसे बराबरी करूं । लेकिन मैंने जो यह लोक-लाज, कुल-मरजाद तजा है वह किसलिए ! कंचन : इसका मेरे पास क्या जवाब है ? राजेश्वरी : जवाब क्यों नहीं है, पर आप देना नहीं चाहते। कंचन : दोनों एक ही बात है, भय केवल आपके नाराज होने का है। राजेश्वरी : इससे आप निश्चिंत रहिए। जो प्रेम की आंच सह सकता है, उसके लिए और सभी बातें सहज हो जाती हैं। कंचन : मैं इसके सिवा और कुछ न कहूँगा कि आप यहां से न जाएं। राजेश्वरी : (कंचन की ओर तिरछी चितवनों से ताकते हुए) यह आपकी इच्छा है ? कंचन : हां, यह मेरी प्रार्थना है। (मन में) दिल नहीं मानता, कहीं मुंह से कोई बात निकल न पड़े। राजेश्वरी : चाहे वह रूठ ही जाएं ? कंचन : नहीं-नहीं, अपने कौशल से उन्हें राजी कर लो। राजेश्वरी : (मुस्कराकर) मुझमें यह गुण नहीं है। कंचन : रमणियों में यह गुण बिल्ली के नखों की भांति छिपा रहता है। जब चाहें उसे काम में ला सकती हैं। रा
जेश्वरी : उनसे आपके आने की चरचा तो करनी ही होगी। कंचन : नहीं, हरगिज नहीं मैं तुम्हें ईश्वर की कसम दिलाता हूँ। भूलकर भी उनसे यह जिक्र न करना, नहीं तो मैं जहर खा लूंगा, फिर तुम्हें मुंह न दिखाऊँगा। राजेश्वरी : (हंसकर) ऐसी धमकियों का तो प्रेम-बर्ताव में कुछ अर्थ नहीं होता, लेकिन मैं आपको उन आदमियों में नहीं समझती। मैं आपसे कहना नहीं चाहती थी, पर बात पड़ने पर कहना ही पड़ा कि मैं आपके सरल स्वभाव और आपकी निष्कपट बातों पर मोहित हो गई हूँ। आपके लिए मैं सब कष्ट सहने को तैयार हूँ। पर आपसे यही बिनती है कि मुझ पर कृपादृष्टि बनाए रखिएगा और कभी-कभी दर्शन देते रहिएगी। राजेश्वरी गाती है। क्या सो रहा मुसाफिर बीती है रैन सारी। अब जाग के चलन की कर ले सभी तैयारी। तुझको है दूर जाना, नहीं पास कुछ खजाना, आगे नहीं ठिकाना होवे बड़ी खुआरी। (टेक) पूंजी सभी गमाई, कुछ ना करी कमाई, क्या लेके घर को जाई करजा किया है भारी। क्या सो रहा। कंचन चला जाता है। स्थान : सबलसिंह का घर। सबलसिंह बगीचे में हौज के किनारे मसहरी के अंदर लेटे हुए हैं। समय : ग्यारह बजे रात। सबल : (आप-ही-आप) आज मुझे उसके बर्ताव में कुछ रूखाई-सी मालूम होती थी। मेरा बहम नहीं है, मैंने बहुत विचार से देखा । मैं घंटे भर तक बैठा चलने के लिए जोर देता रहा, पर उसने एक बार नहीं करके फिर हां न की। मेरी तरफ एक बार भी उन प्रेम की चितवनों से नहीं देखा जो मुझे मस्त कर देती हैं। कुछ गुमसुम-सी बैठी रही। कितना कहा कि तुम्हारे न चलने से घोर अनर्थ होगी। यात्रा की सब तैयारियां कर चुका हूँ, लोग मन में क्या कहेंगे कि पहाड़ों की सैर का इतना चाव था, और इतनी जल्द ठण्डा हो गया? लेकिन मेरी सारी अनुनय-विनय एक तरफ और उसकी नहीं एक तरफ। इसका कारण क्या है? किसी ने बहका तो नहीं दिया । हां, एक बात याद आई। उसके इस कथन का क्या आशय हो सकता है कि हम चाहे जहां जाएं, टोहियों से बच न सकेंगे। क्या यहां टोहिये आ गए ? इसमें कंचन की कुछ कारस्तानी मालूम होती है। टोहियेपन की आदत उन्हीं में है। उनका उस दिन उचक्कों की भांति इधर-उधर, उपर-नीचे ताकते जाना निरर्थक नहीं था।इन्होंने कल मुझे रोकने की कितनी चेष्टा की थी। ज्ञानी की निगाह भी कुछ बदली हुई देखता हूँ। यह सारी आग कंचन की लगाई हुई है । तो क्या कंचन वहां गया था। ? राजेश्वरी के सम्मुख जाने की इसे क्योंकर हिम्मत हुई किसी महफिल में तो आज तक गया नहीं बचपन ही से औरतों को देखकर झेंपता है। वहां कैसे गया ? जाने क्योंकर पाया। मैंने तो राजेश्वरी से सख्त ताकीद कर दी थी कि कोई भी यहां न आने पाए। उसने मेरी ताकीद की कुछ परवाह न की। दोनों नौकरानियां भी मिल गई।यहां तक कि राजेश्वरी ने इनके जाने की कुछ चर्चा ही नहीं की। मुझसे बात छिपाई, पेट में रखा। ईश्वर, मुझे यह किन पापों का दण्ड मिल रहा है ? अगर कंचन मेरे रास्ते में पड़ते हैं तो पड़ें, परिणाम बुरा होगी। अत्यंत भीषण। मैं जितना ही नर्म हूँ उतना ही कठोर भी हो सकता हूँ। मैं आज से ताक में हूँ। अगर निश्चय हो गया कि इसमें कंचन का कुछ हाथ है तो मैं उसके खून का प्यासा हो जाऊँगा। मैंने कभी उसे कड़ी निगाह से नहीं देखा । पर उसकी इतनी जुर्रत ! अभी यह खून बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ है, उस जोश का कुछ हिस्सा बाकी है, जो कटे हुए सिरों और तड़पती हुई लाशों का दृश्य देखकर मतवाला हो जाता था।इन बाहों में अभी दम है, यह अब भी तलवार और भाले का वार कर सकती हैं। मैं अबोध बालक नहीं हूँ कि मुझे बुरे रास्ते से बचाया जाए, मेरी रक्षा की जाए। मैं अपना मुखतार हूँ जो चाहूँ करूं। किसी को चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो, मेरी भलाई और हित?कामना का ढोंग रचने की जरूरत नहीं अगर बात यहीं तक है तो गनीमत है, लेकिन इसके आगे बढ़ गई है तो फिर इस कुल की खैरियत नहीं इसका सर्वनाश हो जाएगा और मेरे ही हाथों। कंचन को एक बार सचेत कर देना चाहिए । ज्ञानी आती है। ज्ञानी : क्या अभी तक सोए नहीं ? बारह तो बज गए होंगे। सबल : नींद को बुला रहा हूं, पर उसका स्वभाव तुम्हारे जैसा है। आप-ही-आप आती है, पर बुलाने से मान करने लगती है। तुम्हें नींद क्यों नहीं आई ? ज्ञानी : चिंता का नींद से बिगाड़ है। सबल : किस बात की चिंता है ? ज्ञानी : एक बात है कि कहूँ। चारों तरफ चिंताएं ही चिंताएं हैं। इस वक्त तुम्हारी यात्रा की चिंता है। तबीयत अच्छी नहीं, अकेले जाने को कहते हो, परदेश वाली बात है, न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। इससे तो यही अच्छा था। कि यहीं इलाज करवाते। सबल : (मन-ही-मन) क्यों न इसे खुश कर दूं जब जरा-सी बात फेर देने से काम निकल सकता है। (प्रकट) इस जरा-सी बात के लिए इतनी चिंता करने की क्या जरूरत ? ज्ञानी : तुम्हारे लिए जरा-सी हो, पर मुझे तो असूझ मालूम होता है। सबल : अच्छा तो लो, न जाऊँगी। ज्ञानी : मेरी कसम ? सबल : सत्य कहता हूँ। जब
इससे तुम्हें इतना कष्ट हो रहा है तो न जाऊँगी। ज्ञानी : मैं इस अनुग्रह को कभी न भूलूंगी। आपने मुझे उबार लिया, नहीं तो न जाने मेरी क्या दशा होती। अब मुझे कुछ दंड भी दीजिए। मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है और उसका कठिन दंड चाहती हूँ। सबल : मुझे तुमसे इसकी शंका ही नहीं हो सकती। ज्ञानी : पर यह अपराध इतना बड़ा है कि आप उसे क्षमा नहीं कर सकते। सबल : (कौतूहल से) क्या बात है, सुनूं ? ज्ञानी : मैं कल आपके मना करने पर भी स्वामी चेतनदास के दर्शनों को चली गई थी। सबल : अकेले ? ज्ञानी : गुलाबी साथ थी। सबल : (मन में) क्या करे बेचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरह इससे मिलना ही छोड़ दिया । बैठे-बैठे जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्व की वस्तु है। जब नौकर-चाकर जब चाहते हैं उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकता, तो इस पर क्यों गर्म पड़ू।ब मैं खुली आंखों धर्म और नीति को भंग कर रहा हूँ, ईश्वरीय आज्ञा से मुंह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा-सी बात के लिए सख्ती करूं। (प्रकट) यह कोई अपराध नहीं, और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भंग ही न की जायब अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ। ज्ञानी : स्वामी, आपके बर्ताव में आजकल क्यों इतना अंतर हो गया है? आपने क्यों मुझे बंधनों से मुक्त कर दिया है, मुझ पर पहले की भांति शासन क्यों नहीं करते ? नाराज क्यों नहीं होते, कटु शब्द क्यों नहीं कहते, पहले की भांति रूठते क्यों नहीं, डांटते क्यों नहीं ? आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध मन में भांति-भांति की शंका उठने लगती है कि यह प्रेम-बंधन का ढीलापन न हो, सबल : नहीं प्रिये, यह बात नहीं है। देश-देशांतर के पत्र-पत्रिकाओं को देखता हूँ तो वहां की स्त्रियों की स्वाधीनता के सामने यहां का कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियां कौन्सिलों में जा सकती हैं, वकालत कर सकती हैं, यहां तक कि भारत में भी स्त्रियों को अन्याय के बंधन से मुक्त किया जा रहा है, तो क्या मैं ही सबसे गया-बीता हूँ कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊँ। ज्ञानी : मुझे तो उस राजनैतिक स्वाधीनता के सामने प्रेम-बंधन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती। सबल : (मन में) भगवन्, इस अपार प्रेम का मैंने कितना घोर अपमान किया है ? इस सरल ह्रदया के साथ मैंने कितनी अनीति की है? आंखों में आंसू क्यों भरे आते हैं ? मुझ जैसा कुटिल मनुष्य इस देवी के योग्य नहीं था।(प्रकट) प्रिये, तुम मेरी ओर से लेश-मात्र भी शंका न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूँगा। इस समय गाना सुनने का जी चाहता है । वही अपना प्यारा गीत गाकर मुझे सुना दो। ज्ञानी सरोद लाकर सबलसिंह को दे देती है। गाने लगती है। अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई। माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई, संतन संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई। अब तो.. स्थान : गंगा तट। बरगद के घने वृक्ष के नीचे तीन-चार आदमी लाठियां और तलवारें लिए बैठे हैं। समय : दस बजे रात। दूसरा : तुम उतावले क्यों हो जाते हो, जितनी ही देर में लौटेगी उतना ही सन्नाटा होगा, अभी इक्के-दुक्के रास्ता चल रहा है। तीसरा : इसके बदन पर कोई पांच हजार के गहने तो होंगे ? पहला : यह शिकार आज हाथ आ जाए तो कुछ दिनों चैन से बैठना नसीब हो, रोज-रोज रात-रात भर घात में बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। यह सब कुछ करके भी शरीर को आराम न मिला तो बात ही क्या रही। दूसरा : भाग्य में आराम वदा होता तो यह कुकरम न करने पड़ते। कहीं सेठों की तरह गद्दी-मसनद लगाए बैठे होते । हमें चाहे कोई खजाना ही मिल जाए पर आराम नहीं मिल सकता। तीसरा : कुकरम क्या हमीं करते हैं, यही कुकरम तो संसार कर रहा है। सेठजी रोजगार के नाम से डाका मारते हैं, अमले घूस के नाम से डाका मारते हैं, वकील मेहनताना के नाम से डाका मारता है। पर उन डकैतों के महल खड़े हैं, हवागाड़ियों पर सैर करते गिरते हैं, पेचवान लगाए मखमली गद्दियों पर पड़े रहते हैं। सब उनका आदर करते हैं, सरकार उन्हें बड़ी-बड़ी पदवियां देती है। हमीं लोगों पर विधाता की निगाह क्यों इतनी कड़ी रहती है? चौथा डाकू : काम करने का ढ़ग है। वह लोग पढ़े-लिखे हैं इसलिए हमसे चतुर हैं। कुकरम भी करते हैं और मौज भी उड़ाते हैं। वही पत्थर मंदिर में पुजता है और वही नालियों में लगाया जाता है। पहला : चुप, कोई आ रहा है। हलधर का प्रवेश। (गाता है) सात सखी पनघट पर आई कर सोलह सिंगार, अपना दुः ख रोने लगीं, जो कुछ बदा लिलार। पहली सखी बोली, सुनो चार बहनो मेरा पिया सराबी है, कंगन की कौड़ी पास न रखता, दिल का बड़ा नवाबी है। जो कुछ पाता सभी उड़ाता, घर की अजब खराबी है। लोटा-थाली गिरवी रख दी, फिरता लिये रिकाबी है। बात-बात पर आंख बदलता, इतना बड़ा मिजाजी है। एक हाथ में दोना कुल्हड़, दूजे बोतल गुलाबी है। पहला डाकू
: कौन है ? खड़ा रह। हलधर : तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूँ। कहो क्या कहते हो ? दूसरा डाकू : (साथियों से) जवान तो बड़ा गठीला और जीवट का है। (हलधर से) किधर चले ? घर कहां है ? हलधर : यह सब आल्हा पूछकर क्या करोगे ? अपना मतलब कहो। तीसरा डाकू : हम पुलिस के आदमी हैं, बिना तलाशी लिए किसी को जाने नहीं देते। हलधर : (चौकन्ना होकर) यहां क्या धरा है जो तलाशी को धमकाते हो, धन के नाते यही लाठी है और इसे मैं बिना दस-पांच सिर गोड़े दे नहीं सकता। चौथा डाकू : तुम समझ गए हम लोग कौन हैं, या नहीं ? हलधर : ऐसा क्या निरा बुद्वू ही समझ लिया है ? चौथा डाकू : तो गांठ में जो कुछ हो दे दो, नाहक रार क्यों मचाते हो ? हलधर : तुम भी निरे गंवार हो, चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते हो, पहला डाकू : यारो, संभलकर, पालकी आ रही है। चौथा डाकू : बस टूट पड़ो जिसमें कहार भाग खड़े हों। ज्ञानी की पालकी आती है। चारों डाकू तलवारें लिए कहारों पर जा पड़ते हैं। कहार पालकी पटककर भाग खड़े होते हैं। गुलाबी बरगद की आड़ों में छिप जाती है। एक डाकू : ठकुराइन, जान की खैर चाहती हो तो सब गहने चुपके से उतार के रख दो। अगर गुल मचाया या चिल्लाई तो हमें जबरदस्ती तुम्हारा मुंह बंद करना पड़ेगा और हम तुम्हारे उसपर हाथ नहीं उठाना चाहते। दूसरा डाकू : सोचती क्या हो, यहां ठाकुर सबलसिंह नहीं बैठे हैं जो बंदूक लिए आते हों। चटपट उतारो। तीसरा : (पालकी का परदा उठाकर) यह यों न मानेगी, ठकुराइन है न, हाथ पकड़कर बांध दो, उतार लो सब गहने। हलधर लपककर उस डाकू पर लाठी चलाता है और वह हाय मारकर बेहोश हो जाता है। तीनों बाकी डाकू उस पर टूट पड़ते हैं। लाठियां चलने लगती हैं। हलधर : वह मारा, एक और गिरा। पहला डाकू : भाई, तुम जीते हम हारे, शिकार क्यों भगाए देते हो ? माल में आधा तुम्हारा । हलधर : तुम हत्यारे हो, अबला स्त्रियों पर हाथ उठाते हो, मैं अब तुम्हें जीता न छोडूंगा। डाकू : यार, दस हजार से कम का माल नहीं है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। थानेदार को सौ-दो सौ रूपये देकर टरका देंगे।बाकी सारा अपना है। हलधर : (लाठी तानकर) जाते हो या हड्डी तोड़ के रख दूं ? दोनों डाकू भाग जाते हैं। हलधर कहारों को बुलाता है जो एक मंदिर में छिपे बैठे हैं। पालकी उठती है। ज्ञानी : भैया, आज तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है इसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे, लेकिन मेरी इतनी विनती है कि मेरे घर तक चलो।तुम देवता हो, तुम्हारी पूजा करूंगी। हलधर : रानी जी, यह तुम्हारी भूल है। मैं न देवता हूँ न दैत्य। मैं भी घातक हूँ। पर मैं अबला औरतों का घातक नहीं, हत्यारों ही का घातक हूँ। जो धन के बल से गरीबों को लूटते हैं, उनकी इज्जत बिगाड़ते हैं, उनके घर को भूतों का डेरा बना देते हैं। जाओ, अब से गरीबों पर दया रखना। नालिस, कुड़की, जेहल, यह सब मत होने देना। नदी की ओर चला जाता है। गाता है। दूजी सखी बोली सुनो सखियो, मेरा पिया जुआरी है। रात-रात भर गड़ पर रहता, बिगड़ी दसा हमारी है। घर और बार दांव पर हारा, अब चोरी की बारी है। गहने-कपड़े को क्या रोऊँ, पेट की रोटी भारी है। कौड़ी ओढ़ना कौड़ी बिछौना, कौड़ी सौत हमारी है। ज्ञानी : (गुलाबी से) आज भगवान ने बचा लिया नहीं तो गहने भी जाते और जान की भी कुशल न थी। गुलाबी : यह जरूर कोई देवता है, नहीं तो दूसरों के पीछे कौन अपनी जान जोखिम में डालता ? स्थान : मधुबन। समय : नौ बजे रात, बादल घिरा हुआ है, एक वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछाले पर बैठे हुए हैं। फत्तू, मंगई, हरदास आदि धूनी से जरा हट कर बैठे हैं। चेतनदास : संसार कपटमय है। किसी प्राणी का विश्वास नहीं जो बड़े ज्ञानी, बड़े त्यागी, धर्मात्मा प्राणी हैंः उनकी चित्तवृत्ति को ध्यान से देखो तो स्वार्थ से भरा पाओगी। तुम्हारा जमींदार धर्मात्मा समझा जाता है, सभी उसके यश कीर्ति की प्रशंसा करते हैं। पर मैं कहता हूँ कि ऐसा अत्याचारी, कपटी, धूर्त, भ्रष्टाचरण मनुष्य संसार में न होगी। मंगई : बाबा, आप महात्मा हैं, आपकी जबान कौन पकड़े, पर हमारे ठाकुर सचमुच देवता हैं। उनके राज में हमको जितना सुख है उतना कभी नहीं था। हरदास : जेठी की लगान माफकर दी थी। अब असामियों को भूसे-चारे के लिए बिना ब्याज के रूपये दे रहे हैं। फत्तू : उनमें और चाहे कोई बुराई हो पर असामियों पर हमेशा परवरस की निगाह रखते हैं। चेतनदास : यही तो उसकी चतुराई है कि अपना स्वार्थ भी सिद्व कर लेता है और अपकीर्ति भी नहीं होने देता। रूपये से, मीठे वचन से, नम्रता से लोगों को वशीभूत कर लेता है। हरदास : कभी किसी पर निगाह नहीं डाली। चेतनदास : भली प्रकार सोचो, अभी हाल ही में कोई स्त्री यहां से निकल गई है ? फत्तू : (उत्सुक होकर) हां महाराज, अभी थोड़े ही दिन हुए। चेतनदास : उसके पति का भी पता नहीं है? फत्तू : हां महाराज, वह भी गायब है। चेतनदास : स्त्री
परम सुंदरी है ? फत्तू : हां महाराज, रानी मालूम होती है। चेतनदास : उसे सबलसिंह ने घर डाल लिया है। फत्तू : घर डाल लिया है ? मंगई : झूठ है। हरदास : विश्वास नहीं आता। फत्तू : और हलधर कहां है ? सलोनी गाती हुई आती है। मुझे जोगिनी बना के कहां गए रे जोगिया। फत्तू : सलोनी काकी, इधर आओ ! राजेश्वरी तो सबलसिंह के घर बैठ गई। सलोनी : चल झूठे, बेचारी को बदनाम करता है। मंगई : ठाकुर साहब में यह लत है ही नहीं । सलोनी : मर्दों की मैं नहीं चलाती, न इनके सुभाव का कुछ पता मिलता है, पर कोई भरी गंगा में राजेश्वरी को कलंक लगाए तो भी मुझे विश्वास न आएगी। वह ऐसी औरत नहीं । फत्तू : विश्वास तो मुझे भी नहीं आता, पर यह बाबा जी कह रहे हैं। सलोनी : आपने आंखों देखा है ? चेतनदास : नित्य ही देखता हूँ। हां, कोई दूसरा देखना चाहे तो कठिनाई होगी। उसके लिए किराए पर एक मकान लिया गया है, तीन लौंडिया सेवा टहल के लिए हैं, ठाकुर प्रातः काल जाता है और घड़ीभर में वहां से लौट आता है। संध्या समय फिर जाता है और नौ-दस बजे तक रहता है। मैं इसका प्रमाण देता हूँ। मैंने सबलसिंह को समझाया, पर वह इस समय किसी की नहीं सुनता। मैं अपनी आंखों यह अत्याचार नहीं देख सकता। मैं संन्यासी हूँ। मेरा धर्म है कि ऐसे अत्याचारियों का, ऐसे पाखंडियों का संहार करूं। मैं पृथ्वी को ऐसे रंगे हुए सियारों से मुक्त कर देना चाहता हूँ। उसके पास धन का बल है तो हुआ करे। मेरे पास न्याय और धर्म का बल है। इसी बल से मैं उसको परास्त करूंगा। मुझे आशा थी कि तुम लोगों से इस पापी को दंड देने में मुझे यथेष्ट सहायता मिलेगी। मैं समझता था। कि देहातों में आत्माभिमान का अभी अंत नहीं हुआ है, वहां के प्राणी इतने पतित नहीं हुए हैं कि अपने उसपर इतना घोर, पैशाचिक अनर्थ देखकर भी उन्हें उत्तेजना न हो, उनका रक्त न खौलने लगे। पर अब ज्ञात हो रहा है कि सबल ने तुम लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। उसके दयाभाव ने तुम्हारे आत्मसम्मान को कुचल डाला है। दया का आघात अत्याचार के आघात से कम प्राणघातक नहीं होता। अत्याचार के आघात से क्रोध उत्पन्न होता है, जी चाहता है मर जायें या मार डालें। पर दया की चोट सिर को नीचा कर देती है, इससे मनुष्य की आत्मा और भी निर्बल हो जाती है, उसके अभिमान का अंत हो जाता है। वह नीच, कुटिल, खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूँ, तुममें कुछ लज्जा का भाव है या नहीं? एक किसान : महाराज, अगर आपका ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते हैं ? ऐसे दयावान पुरूष की बुराई हमसे न होगी। औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे ? मंगई : बस, तुमने मेरे मन की बात कही। हरदास : वह सदा से हमारी परवरिस करते आए हैं। हम आज उनसे बागी कैसे हो जाएं ? दूसरा किसान : बागी हो भी जाएं तो रहें कहां ? हम तो उनकी मुट्ठी में हैं। जब चाहें हमें पीस डालें। पुस्तैनी अदावत हो जाएगी। मंगई : अपनी लाज तो ढांकते नहीं बनती, दूसरों की लाज कोई क्या ढांकेगा ? हरदास : स्वामीजी, आप सन्नासी हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारों से बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे। सलोनी : जा, चुल्लू-भर पानी में डूब मर कायर कहीं का। हलधर तेरे सगे चाचा का बेटा है। जब तू उसका नहीं तो और किसका होगा? मुंह में कालिख नहीं लगा लेता, उसपर से बातें बनाता है। तुझे तो चूड़ियां पहनकर घर में बैठना चाहिए था।मर्द वह होते हैं जो अपनी आन पर जान दे देते हैं। तू हिजड़ा है। अब जो मुंह खोला तो लूका लगा दूंगी। मंगई : सुनते हो फत्तू काका, इनकी बातें, जमींदार से बैर बढ़ाना इनकी समझ में दिल्लगी है। हम पुलिस वालों से चाहे न डरें, अमलों से चाहे न डरें, महाजन से चाहे बिगाड़ कर लें, पटवारी से चाहे कहा -सुनी हो जाए, पर जमींदार से मुंह लगना अपने लिए गढ़ा खोदना है। महाजन एक नहीं हजारों हैं, अमले आते-जाते रहते हैं, बहुत करेंगे सता लेंगे, लेकिन जमींदार से तो हमारा जनम-मरन का व्योहार है। उसके हाथ में तो हमारी रोटियां हैं। उससे ऐंठकर कहां जाएंगे ? न काकी, तुम चाहे गालियां दो, चाहे ताने मारो, पर सबलसिंह से हम लड़ाई नहीं ठान सकते। चेतनदास : (मन में) मनोनीत आशा न पूरी हुई हलधर के कुटुम्बियों में ऐसा कोई न निकला जो आवेग में आकर अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाता। सब-के-सब कायर निकले। कोई वीर आत्मा निकल आती जो मेरे रास्ते से इस बाधा को हटा देती, फिर ज्ञानी अपनी हो जाती। यह दोनों उस काम के तो नहीं हैं, पर हिम्मती मालूम होते हैं। बुढ़िया दीन बनी हुई है, पर है पोढ़ी, नहीं तो इतने घमंड से बातें न करती। मियां गांठ का पूरा तो नहीं, पर दिल का दिलेर जान पड़ता है। उत्तेजना में पड़कर अपना सर्वस्व खो सकता है। अगर दोनों से कुछ धन मिल जाए तो सबइंस्पेक्टर को मिलाकर, कुछ मायाजाल से, कुछ लोभ से काबू में कर लूं। कोई मुकदमा खड़ा हो जाय
ेब कुछ न होगा भांडा तो फूलट जाएगी। ज्ञानी उन्हें अबकी भांति देवता तो न समझती रहेगी। (प्रकट) इस पापी को दंड देने का मैंने प्रण कर लिया है। ऐसे कायर व्यक्ति भी होते हैं, यह मुझे ज्ञात न था। हरीच्छा ! अब कोई दूसरी ही युक्ति काम में लानी चाहिए । सलोनी : महाराज, मैं दीन-दुखिया हूँ, कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात है, पर मैं आपकी मदद के लिए हर तरह हाजिर हूँ। मेरी जान भी काम आए तो दे सकती हूँ। फत्तू : स्वामीजी, मुझसे भी जो हो सकेगा करने को तैयार हूँ। हाथों में तो अब मकदूर नहीं रहा, पर और सब तरह हाजिर हूँ। चेतनदास : मुझे इस पापी का संहार करने के लिए किसी की मदद की आवश्यकता न होती। मैं अपने योग और तप के बल से एक क्षण में उसे रसातल को भेज सकता हूँ, पर शास्त्रों में ऐसे कामों के लिए योगबल का व्यवहार करना वर्जित है। इसी से विवश हूँ। तुम धन से मेरी कुछ सहायता कर सकते हो ? सलोनी : (फत्तू की ओर सशंक दृष्टि से ताकते हुए) महाराज, थोड़े-से रूपये धाम करने को रख छोड़े थे।वह आपके भेंट कर दूंगी। यह भी तो पुण्य ही का काम है। फत्तू : काकी, तेरे पास कुछ रूपये उसपर हों तो मुझे उधर दे दे। सलोनी : चल, बातें बनाता है। मेरे पास रूपये कहां से आएंगे ? कौन घर के आदमी कमाई कर रहे हैं। चालीस साल बीत गए बाहर से एक पैसा भी घर में नहीं आया। फत्तू : अच्छा, नहीं देती है मत दे। अपने तीनों सीसम के पेड़ बेच दूंगा। चेतनदास : अच्छा, तो मैं जाता हूँ विश्राम करने। कल दिन-भर में तुम लोग प्रबंध करके जो कुछ हो सके इस कार्य के निमित्त दे देना। कल संध्या को मैं अपने आश्रम पर चला जाऊँगा। स्थान : शहर वाला किराये का मकान। समय : आधी रात। कंचनसिंह और राजेश्वरी बातें कर रहे हैं। राजेश्वरी : देवरजी, मैंने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया । पर जिस प्रेम की आशा थी वह नहीं मयस्सर हुआ। मैंने अपना सर्वस्व दिया है तो उसके लिए सर्वस्व चाहती भी हूँ। मैंने समझा था।, एक के बदले आधी पर संतोष कर लूंगी। पर अब देखती हूँ तो जान पड़ता है कि मुझसे भूल हो गयी। दूसरी बड़ी भूल यह हुई कि मैंने ज्ञानी देवी की ओर ध्यान नहीं दिया था।उन्हें कितना दुः ख, कितना शोक, कितनी जलन होगी, इसका मैंने जरा भी विचार नहीं किया था। आपसे एक बात पूछूं, नाराज तो न होंगे? कंचन : तुम्हारी बात से मैं नाराज हूँगा ! राजेश्वरी : आपने अब तक विवाह क्यों नहीं किया ? कंचन : इसके कई कारण हैं। मैंने धर्मग्रंथों में पढ़ा था। कि गृहस्थ जीवन मनुष्य की मोक्ष-प्राप्ति में बाधक होता है। मैंने अपना तन, मन, धन सब धर्म पर अर्पण कर दिया था।दान और व्रत को ही मैंने जीवन का उद्देश्य समझ लिया था।उसका मुख्य कारण यह था। कि मुझे प्रेम का कुछ अनुभव न था।मैंने उसका सरस स्वाद न पाया था।उसे केवल माया की एक कुटलीला समझा करता था।, पर अब ज्ञात हो रहा है कि प्रेम में कितना पवित्र आनंद और कितना स्वर्गीय सुख भरा हुआ है। इस सुख के सामने अब मुझे धर्म, मोक्ष और व्रत कुछ भी नहीं जंचते। उसका सुख भी चिंतामय है, इसका दुः ख भी रसमय। राजेश्वरी : (वक्र नेत्रों से ताककर) यह सुख कहां प्राप्त हुआ ? कंचन : यह न बताऊँगा। राजेश्वरी : (मुस्कराकर) बताइए चाहे न बताइए, मैं समझ गई। जिस वस्तु को पाकर आप इतने मुग्ध हो गए हैं वह असल में प्रेम नहीं है। प्रेम की केवल झलक है। जिस दिन आपको प्रेम-रत्न मिलेगा उस दिन आपको इस आनंद का सच्चा अनुभव होगा। कंचन : मैं यह रत्न पाने योग्य नहीं हूँ। वह आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं है। राजेश्वरी : है और मिलेगा। भाग्य से इतने निराश न हूजिए। आप जिस दिन, जिस घड़ी, जिस पल इच्छा करेंगे वह रत्न आपको मिल जाएगा। वह आपकी इच्छा की बाट जोह रहा है। कंचन : (आंखों में आंसू भरकर) राजेश्वरी, मैं घोर धर्म-संकट में हूँ। न जाने मेरा क्या अंत होगा। मुझे इस प्रेम पर अपने प्राण बलिदान करने पड़ेंगे। राजेश्वरी : (मन में) भगवान, मैं कैसी अभागिनी हूँ। ऐसे निश्छल सरल पुरूष की हत्या मेरे हाथों हो रही है। पर करूं क्या, अपने अपमान का बदला तो लेना ही होगी। (प्रकट) प्राणेश्वर, आप इतने निराश क्यों होते हैं। मैं आपकी हूँ और आपकी रहूँगी। संसार की आंखों में मैं चाहे जो कुछ हूँ, दूसरों के साथ मेरा बाहरी व्यवहार चाहे जैसा हो, पर मेरा ह्रदय आपका है। मेरे प्राण आप पर न्योछावर हैं। (आंचल से कंचन के आंसू पोंछकर) अब प्रसन्न हो जाइए। यह प्रेमरत्न आपकी भेंट है। कंचन : राजेश्वरी, उस प्रेम को भोगना मेरे भाग्य में नहीं है। मुझ जैसा भाग्यहीन पुरूष और कौन होगा जो ऐसे दुर्लभ रत्न की ओर हाथ नहीं बढ़ा सकता। मेरी दशा उस पुरूष की-सी है जो क्षुधा से व्याकुल होकर उन पदार्थों की ओर लपके जो किसी देवता की अर्चना के लिए रखे हुए हों। मैं वही अमानुषी कर्म कर रहा हूँ। मैं पहले यह जानता कि प्रेम-रत्न कहां मिलेगा तो तुम अप्
सरा भी होतीं तो आकाश से उतार लाता। दूसरों की आंख पड़ने के पहले तुम मेरी हो जातीं, फिर कोई तुम्हारी ओर आंख उठाकर भी न देख सकता। पर तुम मुझे उस वक्त मिलीं जब तुम्हारी ओर प्रेम की दृष्टि से देखना भी मेरे लिए अधर्म हो गया। राजेश्वरी, मैं महापापी, अधर्मी जीव हूँ। मुझे यहां इस एकांत में बैठने का, तुमसे ऐसी बातें करने का अधिकार नहीं है। पर प्रेमाघात ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मेरा विवेक लुप्त हो गया है। मेरे इतने दिन का ब्रडाचर्य और धर्मनिष्ठा का अपहरण हो गया है। इसका परिणाम कितना भयंकर होगा, ईश्वर ही जानेब अब यहां मेरा बैठना उचित नहीं है। मुझे जाने दो। (उठ खड़ा होता है।) राजेश्वरी : (हाथ पकड़कर) न जाने पाइएगा। जब इस धर्म का पचड़ा छेड़ा है तो उसका निपटारा किए जाइए। मैं तो समझती थी जैसे जगन्नाथ पुरी में पहुंचकर छुआछूत का विचार नहीं रहता, उसी भांति प्रेम की दीक्षा पाने के बाद धर्म-अधर्म का विचार नहीं रहता। प्रेम आदमी को पागल कर देता है। पागल आदमी के काम और बात का, विचार और व्यवहार का कोई ठिकाना नहीं । कंचन : इस विचार से चित्त को संतोष नहीं होता। मुझे अब जाने दो। अब और परीक्षा में मत डालो। राजेश्वरी : अच्छा बतलाते जाइए कब आइएगा? कंचन : कुछ नहीं जानता क्या होगी। (रोते हुए) मेरे अपराध क्षमा करना। जीने से उतरता है। द्वार पर सबलसिंह आते दिखाई देते हैं। कंचन एक अंधेरे बरामदे में छिप जाता है। सबल : (उसपर जाकर) अरे ! अभी तक तुम सोयी नहीं ? राजेश्वरी : जिनके आंखों में प्रेम बसता है वहां नींद कहाँ? सबल : यह उन्निद्रा प्रेम में नहीं होती। कपट-प्रेम में होती है। राजेश्वरी : (सशंक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ। आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की। सबल : (क्रोध से) अभी यहां कौन बैठा हुआ था ? राजेश्वरी : आपकी याद। सबल : मुझे भ्रम था। कि याद संदेह नहीं हुआ करती है। आज यह नयी बात मालूम हुई । मैं तुमसे विनय करता हूँ, बतला दो, अभी कौन यहां से उठकर गया है ? राजेश्वरी : आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं ? सबल : शायद मुझे भ्रम हुआ हो। राजेश्वरी : ठाकुर कंचनसिंह थे। सबल : तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था। ? राजेश्वरी : (मन में) मालूम होता है मेरा मनोरथ उससे जल्द पूरा होगा जितनी मुझे आशा थी। (प्रकट) यह प्रश्न आप व्यर्थ करते हैं। इतनी रात गए जब कोई पुरूष किसी अन्य स्त्री के पास जाता है तो उसका एक ही आशय हो सकता है। सबल : उसे तुमने आने क्यों दिया ? राजेश्वरी : उन्होंने आकर द्वार खटखटाया, कहारिन जाकर खोल आई। मैंने तो उन्हें यहां आने पर देखा । सबल : कहारिन उससे मिली हुई है ? राजेश्वरी : यह उससे पूछिए। सबल : जब तुमने उसे बैठे देखा तो दुत्कार क्यों न दिया ? राजेश्वरी : प्राणेश्वर, आप मुझसे ऐसे सवाल पूछकर दिल न जलाएं। यह कहां की रीति है कि जब कोई आदमी अपने पास आए तो उसको दुत्कार दिया जाए, वह भी जब आपका भाई हो, मैं इतनी निष्ठुर नहीं हो सकती। उनसे मिलने में तो भय जब होता कि जब मेरा अपना चित्त चंचल होता, मुझे अपने उसपर विश्वास न होता। प्रेम के गहरे रंग में सराबोर होकर अब मुझ पर किसी दूसरे रंग के चढ़ने की सम्भावना नहीं है। हां, आप बाबू कंचनसिंह को किसी बहाने से समझा दीजिये कि अब से यहां न आएं। वह ऐसी प्रेम और अनुराग की बातें करने लगते हैं कि उसके ध्यान से ही लज्जा आने लगती है। विवश होकर बैठती हूँ, सुनती हूँ। सबल : (उन्मत्त होकर) पाखंडी कहीं का, धर्मात्मा बनता है, विरक्त बनता है, और कर्म ऐसे नीच ! तू मेरा भाई सही, पर तेरा वध करने में कोई पाप नहीं है। हां, इस राक्षस की हत्या मेरे ही हाथों होगी। ओह ! कितनी नीच प्रकृति है, मेरा सगा भाई और यह व्यवहार ! असह्य है, अक्षम्य है। ऐसे पापी के लिए नरक ही सबसे उत्तम स्थान है। आज ही इसी रात को तेरी जीवनलीला समाप्त हो जाएगी। तेरा दीपक बुझ जाएगा। हां धूर्त, क्या कामलोलुपता के लिए यही एक ठिकाना था। ! तुझे मेरे ही घर में आग लगानी थी। मैं तुझे पुत्रवत् प्यार करता था।तुझे(क्रोध से होंठ चबाकर) तेरी लाश को इन्हीं आंखों से तड़पते हुए देखूंगी। नीचे चला जाता है। राजेश्वरी : (आप-ही-आप) ऐसा जान पड़ता है, भगवान् स्वयं यह सारी लीला कर रहे हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब कुछ होता हुआ मालूम होता है। कैसा विचित्र रहस्य है। मैं बैलों को मारा जाना नहीं देख सकती थी, चींटियों को पैरों तले पड़ते देखकर मैं पांव हटा लिया करती थी, पर अभाग्य मुझसे यह हत्याकांड करा रहा है। मेरे ही निर्दय हाथों के इशारे से यह कठपुतलियां नाच रही हैं! करूण स्वरों में गाती है। ऊधो, कर्मन की गति न्यारी। गाते-गाते प्रस्थान। स्थान : दीवानखाना। समय : तीन बजे रात। घटा छायी हुई है। सबलसिंह तलवार हाथ में लिये द्वार पर खड़े हैं। सबल : (मन में) अब सो गया होगा। मगर नहीं, आज उसकी आं
खों में नींद कहां ! पड़ा-पड़ा प्रेमाग्नि में जल रहा होगा, करवटें बदल रहा होगा। उस पर यह हाथ न उठ सकेंगे। मुझमें इतनी निर्दयता नहीं है। मैं जानता हूँ वह मुझ पर प्रतिघात न करेगा। मेरी तलवार को सहर्ष अपनी गर्दन पर ले लेगी। हां ! यही तो उसका प्रतिघात होगा। ईश्वर करे, वह मेरी ललकार पर सामने खड़ा हो जाए। तब यह तलवार वज्र की भांति उसकी गर्दन पर र्गिरे। अरक्षित, निश्शस्त्र पुरूष पर मुझसे आघात न होगा। जब वह करूण दीन नेत्रों से मेरी ओर ताकेगाः तो मेरी हिम्मत छूट जाएगी। धीरे-धीरे कंचनसिंह के कमरे की ओर बढ़ता है। हा ! मानव-जीवन कितना रहस्यमय है। हम दोनों ने एक ही मां के उदर से जन्म लिया, एक ही स्तन का दूध पिया, सदा एक साथ खेले, पर आज मैं उसकी हत्या करने को तैयार हूँ। कैसी विडम्बना है ! ईश्वर करे उसे नींद आ गई हो, सोते को मारना धर्म-विरूद्व हो, पर कठिन नहीं है। दीनता दया को जागृत कर देती है(चौंककर) अरे ! यह कौन तलवार लिये बढ़ा चला आता है । कहीं छिपकर देखूं, इसकी क्या नीयत है। लम्बा आदमी है, शरीर कैसा गठा हुआ है। किवाड़ के दरारों से निकलते हुए प्रकाश में आ जाये तो देखूं कौन है ? वह आ गया। यह तो हलधर मालूम होता है, बिल्कुल वही है, लेकिन हलधर के दाढ़ी नहीं थी। सम्भव है दाढ़ी निकल आयी हो, पर है हलधर, हां वही है, इसमें कोई संदेह नहीं है। राजेश्वरी की टोह किसी तरह मिल गयी। अपमान का बदला लेना चाहता है। कितना भयंकर स्वरूप हो गया है। आंखें चमक रही हैं। अवश्य हममें से किसी का खून करना चाहता है। मेरी ही जान का गाहक होगी। कमरे में झांक रहा है। चाहूँ तो अभी पिस्तौल से इसका काम तमाम कर दूं। पर नहीं खूब सूझी। क्यों न इससे वह काम लूं जो मैं नहीं कर सकता। इस वक्त कौशल से काम लेना ही उचित है। (तलवार छिपाकर) कौन है, हलधर ? हलधर तलवार खींचकर चौकन्ना हो जाता है। सबल : हलधर, क्या चाहते हो ? हलधर : (सबल के सामने आकर) संभल जाइएगा, मैं चोट करता हूँ। सबल : क्यों मेरे खून के प्यासे हो रहे हो ? हलधर : अपने दिल से पूछिए। सबल : तुम्हारा अपराधी मैं नहीं हूँ, कोई दूसरा ही है। हलधर : क्षत्री होकर आप प्राणों के भय से झूठ बोलते नहीं लजाते ? सबल : मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ। हलधर : सरासर झूठ है। मेरा सर्वनाश आपके हाथों हुआ है। आपने मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी । मेरे घर में आग लगा दी और अब आप झूठ बोलकर अपने प्राण बचाना चाहते हैं। मुझे सब खबरें मिल चुकी हैं। बाबा चेतनदास ने सारा कच्चा चित्ता मुझसे कह सुनाया है। अब बिना आपका खून पिए इस तलवार की प्यास न बुझेगी। सबल : हलधर, मैं क्षत्रिय हूँ और प्राणों को नहीं डरता। तुम मेरे साथ कमरे तक आओ। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूँ कि मैं कोई छल-कपट न करूंगा। वहां मैं तुमसे सब वृत्तांत सच-सच कह दूंगा। तब तुम्हारे मन में जो आए, वह करना। हलधर चौकन्नी दृष्टि से ताकता हुआ सबल के साथ उसके दीवानखाने में जाता है। सबल : तख्त पर बैठ जाओ और सुनो। यह सारी आग कंचनसिंह की लगाई हुई है। उसने कुटनी द्वारा राजेश्वरी को घर से निकलवा लिया है। उसके गोरूंदों ने राजेश्वरी का उससे बखान किया होगा वह उस पर मोहित हो गया और तुम्हें जेल पहुंचाकर अपनी इच्छा पूरी की जबसे मुझे यह समाचार मिला है, मैं उसका शत्रु हो गया हूँ। तुम जानते हो, मुझे अत्याचार से कितनी घृणा है। अत्याचारी पुरूष चाहे वह मेरा पुत्र ही क्यों न हो, मेरी दृष्टि में हिंसक जंतु के समान है और उसका वध करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। इसीलिए मैं यह तलवार लेकर कंचनसिंह का वध करने जा रहा था।इतने में तुम दिखायी पड़े। मुझे अब मालूम हुआ कि जिसे मैं बड़ा धर्मात्मा, ईश्वरभक्त, सदाचारी, त्यागी समझता था। वह वास्तव में एक परले दर्जे का व्याभिचारी, विषयी मनुष्य है। इसीलिए उसने अब तक विवाह नहीं किया। उसने कर्मचारियों को घूस देकर तुम्हें चुपके-चुपके गिरफ्तारी करा लिया और अब राजेश्वरी के साथ विहार करता है। अभी आधी रात को वहां से लौटकर आया है। मैंने तुमसे सारा वृत्तांत कह सुनाया, अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो। हलधर लपककर कंचनसिंह के कमरे की ओर चलता है। सबल : ठहरो-ठहरो, यों नहीं सम्भव है तुम्हारी आहट पाकर जाग उठे। नौकर-सिपाही उसका चिल्लाना सुनकर जाग पड़ें। प्रातः काल वह गंगा नहाने जाता है। उस वक्त अंधेरा रहता है। वहीं तुम उसे गंगा की भेंट कर सकते हो, घात लगाए रहो, अवसर आते ही एक हाथ में काम तमाम कर दो और लाश को वहीं बहा दो। तुम्हारा मनोरथ पूरा होने का इससे सुगम उपाय नहीं है। हलधर : (कुछ सोचकर) मुझे धोखा तो नहीं देना चाहते ? इस बहाने से मुझे टाल दो और फिर सचेत हो जाओ और मुझे पकड़वा देने का इंतजाम करो। सबल : मैंने ईश्वर की कसम खायी है, अगर अब भी तुम्हें विश्वास न आए तो जो चाहे करो। हलधर : अच्छी बात है, जैसा आप कहते हैं वैसा ही
होगा। अगर इस समय धोखा देकर बच भी गए तो फिर क्या कभी दाव ही न आएगा ? मेरे हाथों से बचकर अब नहीं जा सकते। मैं चाहूँ तो एक क्षण में तुम्हारे कुल का नाश कर दूं, पर मैं हत्यारा नहीं हूँ। मुझे धन की लालसा नहीं है। मैं तो केवल अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। आपको भी सचेत किए देता हूँ। मैं अभी और टोह लगाऊँगा। अगर पता चला कि आपने मेरा घर उजाड़ा है तो मैं आपको भी जीता न छोडूंगा। मेरा तो जो होना था। हो चुका, पर मैं अपने उजाड़ने वालों को कुकर्म का सुख न भोगने दूंगा। चला जाता है। सबल : (मन में) मैं कितना नीच हो गया हूँ। झूठ, दगा गरे। किसी पाप से भी मुझे हिचक नहीं होती। पर जो कुछ भी हो, हलधर बड़े मौके से आ गया अब बिना लाठी टूटे ही सांप मरा जाता है। स्थान : नदी का किनारा। समय : चार बजे भोर, कंचन पूजा की सामग्री लिए आता है और एक तख्त पर बैठ जाता है, फिटन घाट के उसपर ही रूक जाती है। कंचन : (मन में) यह जीवन का अंत है ! यह बड़े-बड़े इरादों और मनसूबों का परिणाम है। इसीलिए जन्म लिया था।यही मोक्षपद है। यह निर्वाण है। माया-बंधनों से मुक्त रहकर आत्मा को उच्चतम पद पर ले जाना चाहता था।यह वही महान पद है। यही मेरी सुकीर्तिरूपी धर्मशाला है, यही मेरा आदर्श कृष्ण मंदिर है ! इतने दिनों के नियम और संयम, सत्संग और भक्ति, दान और व्रत ने अंत में मुझे वहां पहुंचाया जहां कदाचित् भ्रष्टाचार और कुविचार, पाप और कुकर्म ने भी न पहुंचाया होता। मैंने जीवन यात्रा का कठिनतम मार्ग लिया, पर हिंसक जीव-जंतुओं से बचने का, अथाह नदियों को पार करने का, दुर्गम घाटियों से उतरने का कोई साधन अपने साथ न लिया। मैं स्त्रियों से रहता था।, इन्हें जीवन का कांटा समझता था।, इनके बनाव-श्रृंगार को देखकर मुझे घृणा होती थी। पर आज वह स्त्री जो मेरे भाई की प्रेमिका है, जो मेरी माता के तुल्य है, प्रेम में इतनी शक्ति है, मैं यह न जानता था। ! हाय, यह आग अब बुझती नहीं दिखायी देती। यह ज्वाला मुझे भस्म करके ही शांत होगी। यही उत्तम है। अब इस जीवन का अंत होना ही अच्छा है। इस आत्मपतन के बाद अब जीना धिक्कार है। जीने से यह ताप और ज्वाला दिन-दिन प्रचंड होगी। घुल-घुलकर, कुढ़-कुढ़कर मरने से, घर में बैर का बीज बोने से, जो अपने पूज्य हैं उनसे वैमनस्य करने से यह कहीं अच्छा है कि इन विपत्तियों के मूल ही का नाश कर दूं। मैंने सब तरह परीक्षा करके देख लिया। राजेश्वरी को किसी तरह नहीं भूल सकता, किसी तरह ध्यान से नहीं उतार सकता। चेतनदास का प्रवेश। कंचन : स्वामी जी को दंडवत् करता हूँ। चेतनदास : बाबा, सदा सुखी रहो, इधर कई दिनों से तुमको नहीं देखा । मुख मलिन है, अस्वस्थ तो नहीं थे ? कंचन : नहीं महाराज, आपके आशीर्वाद से कुशल से हूँ। पर कुछ ऐसे झंझटों में पड़ा रहा कि आपके दर्शन न कर सका । बड़ा सौभाग्य था कि आज प्रातः काल आपके दर्शन हो गए। आप तीर्थयात्रा पर कब जाने का विचार कर रहे हैं ? चेतनदास : बाबा, अब तक तो चला गया होता, पर भगतों से पिंड नहीं छूटता। विशेषतः मुझे तुम्हारे कल्याण के लिए तुमसे कुछ कहना था। और बिना कहे मैं न जा सकता था।यहां इसी उद्देश्य से आया हूँ। तुम्हारे उसपर एक घोर संकट आने वाला है । तुम्हारा भाई सबलसिंह तुम्हें वध कराने की चेष्टा कर रहा है। घातक शीघ्र ही तुम्हारे उसपर आघात करेगी। सचेत हो जाओ। कंचन : महाराज, मुझे अपने भाई से ऐसी आशंका नहीं है। चेतनदास : यह तुम्हारा भ्रम है। प्रेम र्ईर्ष्या में मनुष्य अस्थिरचित्त, उन्मत्त हो जाता है। कंचन : यदि ऐसा ही हो तो मैं क्या कर सकता हूँ ? मेरी आत्मा तो स्वयं अपने पाप के बोझ से दबी हुई है। कंचन : (मन में) मन, अब क्या कहते हो ? क्षत्रिय धर्म का पालन करके भाई से लड़ोगे, उसके प्राणों पर आघात करोगे या क्षत्रिय धर्म को भंग करके आत्महत्या करोगे ? जी तो मरने को नहीं चाहता। अभी तक भक्ति और धर्म के जंजाल में पड़ा रहा, जीवन का कुछ सुख नहीं देखा । अब जब उसकी आशा हुई तो यह कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई हो क्षत्रियधर्म के विरूद्व, पर भाई से मैं किसी भांति विग्रह नहीं कर सकता। उन्होंने सदैव मुझसे पुत्रवत् प्रेम किया है। याद नहीं आता कि कोई अमृदु शब्द उनके मुंह से सुना हो । वह योग्य हैं, विद्वान् हैं, कुशल हैं। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। अवसर न मिलने की बात नहीं है। भैया का शत्रु मैं हो ही नहीं सकता। क्षत्रियों के ऐसे धर्म सिद्वांत न होते तो जरा-जरा-सी बात पर खून की नदियां क्योंकर बहतीं और भारत क्यों हाथ से जाता ? नहीं, कदापि नहीं, मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। साधुगण झूठ नहीं बोलते, पर यह महात्माजी उन पर भी मिथ्या दोषारोपण कर गए। मुझे विश्वास नहीं आता कि वह मुझ पर इतने निर्दय हो जायेंगी। उनके दया और शील का पारावार नहीं वह मेरी प्राणहत्या का संकेत नहीं दे सकते। एक नहीं, हजार राज
ेश्वरियां हों, पर भैया मेरे शत्रु नहीं हो सकते। यह सब मिथ्या है। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। हाय, अभी एक क्षण में यह घटना सारे नगर में फैल जाएगी । लोग समझेंगे, पांव फिसल गया होगा। राजेश्वरी क्या समझेगी ? उसे मुझसे प्रेम है, अवश्य शोक करेगी, रोयेगी और अब से कहीं ज्यादा प्रेम करने लगेगी। और भैया ? हाय, यही तो मुसीबत है। अब मैं उन्हें मुंह नहीं दिखा सकता। मैं उनका अपराधी हूं। मैंने धर्म-हत्या की है। अगर वह मुझे जीता चुनवा दें तो भी मुझे आह भरने का अधिकार नहीं है। मेरे लिए अब यही एक मार्ग रह गया है। मेरे बलिदान से ही अब शांति होगी । पर भैया पर मेरे हाथ न उठेंगी। पानी गहरा है। भगवान्, मैंने पाप किये हैं, तुम्हें मुंह दिखाने योग्य नहीं हूँ। अपनी अपार दया की छांह में मुझे भी शरण देना। राजेश्वरी, अब तुझे कैसे देखूंगा? पीलपाये पर खड़ा होकर अथाह जल में कूद पड़ता है। हलधर का तलवार और पिस्तौल लिये आना। हलधर : बड़े मौके से आया। मैंने समझा था। देर हो गयी। पाखंडी कुकर्मी कहीं का। रोज गंगा नहाने आता है, पूजा करता है, तिलक लगाता है, और कर्म इतने नीच। ऐसे मौके से मिले हो कि एक ही बार में काम तमाम कर दूंगा। और परायी स्त्रियों पर निगाह डालो ! (पीलपाये की आड़ में छिपकर सुनता है) पापी भगवान् से दया की याचना कर रहा है। यह नहीं जानता है कि एक क्षण में नर्क के द्वार पर खड़ा होगा। राजेश्वरी, अब तुम्हें कैसे देखूंगा ? अभी प्रेत हुए जाते हो फिर उसे जी भरकर देखना। (पिस्तौल का निशाना लगाता है।) अरे ! यह तो आप-ही-आप पानी में कूद पड़ा, क्या प्राण देना चाहता है ? (पिस्तौल किनारे की ओर फेंककर पानी में कूद पड़ता है और कंचनसिंह को गोद में लिए एक क्षण में बाहर आता है। मन में) अभी पानी पेट में बहुत कम गया है। इसे कैसे होश में लाऊँ ? है तो यह अपना बैरी, पर जब आप ही मरने पर उतारू है तो मैं इस पर क्या हाथ उठाऊँ। मुझे तो इस पर दया आती है। कंचनसिंह को लेटाकर उसकी पीठ में घुटने लगाकर उसकी बांहों को हिलाता है। चेतनदास का प्रवेश। चेतनदास : (आश्चर्य से) यह क्या दुर्घटना हो गयी ? क्या तूने इनको पानी में डूबा दिया ? हलधर : नहीं महाराज, यह तो आप नदी में कूद पड़े । मैं तो बाहर निकाल लाया हूँ ? चेतनदास : लेकिन तू इन्हें वध करने का इरादा करके आया था।मूर्ख, मैंने तुझे पहले ही जता दिया था। कि तेरा शत्रु सबलसिंह है, कंचनसिंह नहीं पर तूने मेरी बात का विश्वास न किया। उस धूर्त सबल के बहकाने में आ गया। अब फिर कहता हूँ कि तेरा शत्रु वही है, उसी ने तेरा सर्वनाश किया है, वही राजेश्वरी के साथ विलास करता है। हलधर : मैंने इन्हें राजेश्वरी का नाम लेते अपने कानों से सुना है। चेतनदास : हो सकता है कि राजेश्वरी जैसी सुंदरी को देखकर इसका चित्त भी चंचल हो गया हो, सबलसिंह ने संदेहवश इसके प्राण हरण की चेष्टा की हो, बस यही बात है। हलधर : स्वामी जी क्षमा कीजिएगा, मैं सबलसिंह की बात में आ गया। अब मुझे मालूम हो गया कि वही मेरा बैरी है। र्इश्वर ने चाहा तो वह भी बहुत दिन तक अपने पाप का सुख न भोगने पायेंगा। चेतनदास : (मन में) अब कहां जाता है ? आज पुलिस वाले भी घर की तलाशी हुई। अगर उनसे बच गया तो यह तो तलवार निकाले बैठा ही है। ईश्वर की इच्छा हुई तो अब शीघ्र ही मनोरथ पूरे होंगे। ज्ञानी मेरी होगी और मैं इस विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। कोई व्यवसाय, कोई विद्या, मुझे इतनी जल्द इतना सम्पत्तिशाली न बना सकती थी। कंचन : (होश में आकर) नहीं, तुम्हारा शत्रु मैं हूँ। जो कुछ किया है, मैंने किया है । भैया निर्दोष हैं, तुम्हारा अपराधी मैं हूँ। मेरे जीवन का अंत हो, यही मेरे पापों का दंड है। मैं तो स्वयं अपने को इस पाप-जाल से मुक्त करना चाहता था।तुमने क्यों मुझे बचा लिया ? (आश्चर्य से) अरे, यह तो तुम हो, हलधर ? हलधर : (मन में) कैसा बेछल-कपट का आदमी है। (प्रकट) आप आराम से लेटे रहें, अभी उठिए न। कंचन : नहीं, अब नहीं लेटा जाता । (मन में) समझ में आ गया, राजेश्वरी इसी की स्त्री है। इसीलिए भैया ने वह सारी माया रची थी। (प्रकट) मुझे उठाकर बैठा दो। वचन दो कि भैया का कोई अहित न करोगे। हलधर : ठाकुर, मैं यह वचन नहीं दे सकता। कंचन : किसी निर्दोष की जान लोगे ? तुम्हारा घातक मैं हूँ। मैंने तुम्हें चुपके से जेल भिजवाया और राजेश्वरी को कुटनियों द्वारा यहां बुलाया। तीन डाकू लाठियां लिये आते हैं। एक : क्यों गुरू, पड़ा हाथ भरपूर ? दूसरा : यह तो खासा टैयां सा बैठा हुआ है। लाओ मैं एक हाथ दिखाऊँ। हलधर : खबरदार, हाथ न उठाना। दूसरा : क्या कुछ हत्थे चढ़ गया क्या ? हलधर : हां, असर्फियों की थैली है। मुंह धो रखना । तीसरा : यह बहुत कड़ा ब्याज लेता है। सब रूपये इसकी तोंद में से निकाल लो। हलधर : जबान संभालकर बात करो। पहला : अच्छा, इसे ले चलो, दो-चार
दिन बर्तन मंजवायेंगे। आराम करते-करते मोटा हो गया है। दूसरा : तुमने इसे क्यों छोड़ दिया ? हलधर : इसने वचन दिया कि अब सूद न लूंगा। पहला : क्यों बच्चा, गुरू को सीधा समझकर झांसा दे दिया । हलधर : बक-बक मत करो। इन्हें नाव पर बैठाकर डेरे पर लेते चलो।यह बेचारे सूद-ब्याज जो कुछ लेते हैं अपने भाई के हुकुम से लेते हैं। आज उसी की खबर लेने का विचार है। सब कंचन को सहारा देकर नाव पर बैठा देते हैं और गाते हुए नाव चलाते हैं। नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए ! मानुष तन है दुर्लभ जग में इसका फल पाना चहिए! दुर्जन संग नरक का मारग उससे दूर जाना चहिए! सत संगत में सदा बैठ के हरि के गुण गाना चहिए! धरम कमाई करके अपने हाथों की खाना चहिए! परनारी को अपनी माता के समान जाना चहिए! झूठ-कपट की बात सदा कहने में शरमाना चहिए! कथा। पुरान संत संगत में मन को बहलाना चहिए! नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए! स्थान : गुलाबी का मकान। समय : संध्या, चिराग जल चुके हैं, गुलाबी संदूक से रूपये निकाल रही है। गुलाबी : भाग जाग जाएंगे। स्वामीजी के प्रताप से यह सब रूपये दूने हो जाएंगे। पूरे तीन सौ रूपये हैं। लौटूंगी तो हाथ में छः सौ रूपये की थैली होगी। इतने रूपये तो बरसों में भी न बटोर पाती। साधु-महात्माओं में बड़ी शक्ति होती है। स्वामीजी ने यह मंत्र दिया है। भृगु के गले में बांध दूं। फिर देखूं, यह चुड़ैल उसे कैसे अपने बस में किये रहती है। उन्होंने तो कहा है कि वह उसकी बात भी न पूछेगी। यही तो मैं चाहती हूँ । उसका मानमर्दन हो जाये, घमंड टूट जाये। (भृगु को बुलाती है।) क्यों बेटा, आजकल तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है ? दुबले होते जाते हो? भृगु : क्या करूं ? सारे दिन बही खोले बैठे-बैठे थक जाता हूँ। ठाकुर कंचनसिंह एक बीड़ा पान को भी नहीं पूछते। न कहीं घूमने जाता हूँ, न कोई उत्तम वस्तु भोजन को मिलती है। जो लोग लिखने-पढ़ने का काम करते हैं उन्हें दूध, मक्खन, मेवा-मिसरी इच्छानुकूल मिलनी चाहिए । रोटी, दाल, चावल तो मजदूरों का भोजन है। सांझ-सबेरे वायु-सेवन करना चाहिए । कभी-कभी थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिए । पर यहां इनमें से कोई भी सुख नहीं यही होगा कि सूखते-सूखते एक दिन जान से चला जाऊँगी। गुलाबी : ऐ नौज बेटा, कैसी बात मुंह से निकालते हो ? मेरे जान में तो कुछ फेर-फार है। इस चुड़ैल ने तुम्हें कुछ कर-करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरब की न है। वहां की सब लड़कियां टोनिहारी होती हैं। भृगु : कौन जाने यही बात हो, कंचनसिंह के कमरे में अकेले बैठता हूँ तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा हो, रात को आने लगता हूँ तो फाटक पर मौलसरी के पेड़ के नीचे किसी को खड़ा देखता हूँ। कलेजा थर-थर कांपने लगता है। किसी तरह चित्त को ढाढ़स देता हुआ चला आता हूँ। लोग कहते हैं, पहले वहां किसी की कबर थी। गुलाबी : मैं स्वामीजी के पास से यह जंतर लायी हूँ। इसे गले में बांध लो, शंका मिट जाएगी। और कल से अपने लिए पाव-भर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीर से कहा है। उसके लड़के को पढ़ा दिया करो, वह तुम्हें दूध दे देगा। भृगु : जंतर लाओ मैं बांध लूं, पर खूबा के लड़के को मैं न पढ़ा सकूंगा। लिखने-पढ़ने का काम करते-करते सारे दिन यों ही थक जाता हूँ। मैं जब तक कंचनसिंह के यहां रहूँगा, मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे कोई दुकान खुलवा दो। गुलाबी : बेटा, दुकान के लिए तो पूंजी चाहिए । इस घड़ी तो यह तावीज बांध लो।फिर मैं और कोई जतन करूंगी। देखो, देवीजी ने खाना बना लिया ? आज मालकिन ने रात को वहीं रहने को कहा है। भृगु जाता है और चम्पा से पूछकर आता है गुलाबी चौके में जाती है। गुलाबी : पीढ़ा तक नहीं रखा, लोटे का पानी तक नहीं रखा । अब मैं पानी लेकर आऊँ और अपने हाथ से आसन डालूं तब खाना खाऊँ । क्यों इतने घमंड के मारे मरी जाती हो, महारानी ? थोड़ा इतराओ, इतना आकाश पर दिया न जलाओ। चम्पा थाली लाकर गुलाबी के सामने रख देती है। वह एक कौर उठाती है और क्रोध से थाली चम्पा के सिर पर पटक देती है। भृगु : क्या है, अम्मां ? गुलाबी : है क्या, यह डाकून मुझे विष देने पर तुली हुई है। यह खाना है कि जहर है ? मार नमक भर दिया । भगवान् न जाने कब इसकी मिट्टी इस घर से उठाएंगी। मर गए इसके बाप-चचा। अब कोई झांकता तक नहीं जब तक ब्याह न हुआ था।, द्वार की मिट्टी खोदे डालते थे।इतने दिन इस अभागिनी को रसोई बनाते हो गए, कभी ऐसा न हुआ कि मैंने पेट भर भोजन किया हो, यह मेरे पीछे पड़ी हुई है? भृगु : अम्मां, देखो सिर लोहूलुहान हो गया । जरा नमक ज्यादा ही हो गया तो क्या उसकी जान ले लोगी। जलती हुई दाल डाल दी। सारे बदन में छाले पड़ गए। ऐसा भी कोई क्रोध करता है। गुलाबी : (मुंह चिढ़ाकर) हां-हां, देख, मरहम-पट्टी कर। दौड़ डाक्टर को बुला ला, नहीं कहीं मर न जाए। अभी लौंडा है, त्रिया-चरित्र देखा कर ।
मैंने उधर पीठ फेरी, इधर ठहाके की हंसी उड़ने लगेगी। तेरे सिर चढ़ाने से तो इसका मिजाज इतना बढ़ गया है। यह तो नहीं पूछता कि दाल में क्यों इतना नमक झोंक दिया, उल्टे और घाव पर मरहम रखने चला है। (झमककर चली जाती है।) चम्पा : मुझे मेरे घर पहुंचा दो। भृगु : सारा सिर लोहूलुहान हो गया । इसके पास रूपये हैं, उसी का इसे घमंड है। किसी तरह रूपये निकल जाते तो यह गाय हो जाती। चम्पा : तब तक तो यह मेरा कचूमर ही निकाल लेंगी। भृगु : सबर का फल मीठा होता है। चम्पा : इस घर में अब मेरा निबाह न होगी। इस बुढ़िया को देखकर आंखों में खून उतर आता है। भृगु : अबकी एक गहरी रकम हाथ लगने वाली है। एक ठाकुर ने कानों की बाली हमारे यहां गिरों रखी थी। वादे के दिन टल गयेब ठाकुर का कहीं पता नहीं । पूरब गया था। न जाने मर गया या क्या ! मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार-पांच रूपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूं । ठाकुर लौटेगा तो देखा जाएगी। पचास रूपये से कम का माल नहीं है। चम्पा : सच ! भृगु : हां अभी तौले आता हूँ। पूरे दो तोले है। चम्पा : तो कब ला दोगे ? भृगु : कल लो। वह तो अपने हाथ का खेल है। आज दाल में नमक क्यों ज्यादा हुआ ? चम्पा : सुबह कहने लगीं, खाने में नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थाली में उसपर से डाल दिया कि खाओ खूब जी भर के । वह एक-न -एक खुचड़ निकालती हैं तो मैं तो उन्हें जलाया करती हूँ। भृगु : अच्छा, अब मुझे भी भूख लगी है, चलो। चम्पा : (आप-ही-आप) सिर में जरा-सी चोट लगी तो क्या, कानों की बालियां तो मिल गयीं ? इन दामों तो चाहे कोई मेरे सिर पर दिन-भर थालियां पटका करे।
अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूधा की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बालक के नन्हे-से मुख में न समाकर नीचे बह जाती हैं। प्रभात की स्वर्ण-किरणों में नहाकर माता का स्नेह-सुंदर गात निखर गया है और बालक भी अंचल से मुँह निकाल-निकालकर माता के स्नेह-प्लावित मुख की ओर देखता है, हुमुकता है और मुस्कराता है; पर माता बार-बार उसे अंचल से ढँक लेती है कि कहीं उसे नजर न लग जाए। सहसा तोप के छूटने की कर्ण-कटु धवनि सुनाई दी। माता का हृदय काँप उठा, बालक गोद में चिमट गया। फिर वही भयंकर धवनि! माँ दहल उठी, बालक चिमट गया। फिर तो लगातार तोपें छूटने लगीं। माता के मुख पर आशंका के बादल छा गए। आज रियासत के नए पोलिटिकल एजेंट यहाँ आ रहे हैं। उन्हीं के अभिवादन में सलामियाँ उतारी जा रही हैं। मिस्टर क्लार्क और सोफिया को यहाँ आए एक महीन गुजर गया। जागीरदारों की मुलाकातों, दावतों, नजरानों से इतना अवकाश ही न मिला कि आपस में कुछ बातचीत हो। सोफिया बार-बार विनयसिंह का जिक्र करना चाहती; पर न तो उसे मौका ही मिलता और न यही सूझता कि कैसे वह जिक्र छेडर्ऌँ। आखिर जब पूरा महीना खत्म हो गया, तो एक दिन उसने क्लार्क से कहा-इन दावतों का ताँता तो लगा ही रहेगा,और बरसात बीती जा रही है। अब यहाँ जी नहीं लगता, जरा पहाड़ी प्रांतों की सैर करनी चाहिए। पहाड़ियों में खूब बहार होगी। क्लार्क भी सहमत हो गए। एक सप्ताह से दोनों रियासतों की सैर कर रहे हैं। रियासत के दीवान सरदार नीलकंठ राव भी साथ हैं। जहाँ ये लोग पहुँचते हैं, बड़ी धाूमधााम से उनका स्वागत होता है, सलामियाँ उतारी जाती हैं, मान-पत्रा मिलते हैं, मुख्य-मुख्य स्थानों की सैर कराई जाती है। पाठशालाओं, चिकित्सालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का निरीक्षण किया जाता है। सोफिया को जेलखानों के निरीक्षण का बहुत शौक है। वह बड़े धयान से कैदियों को, उनके भोजनालयों को, जेल के नियमों को देखती है और कैदखानों के सुधाार के लिए कर्मचारियों से विशेष आग्रह करती है। आज तक कभी इन अभागों की ओर किसी एजेंट ने धयान न दिया था। उनकी दशा शोचनीय थी, मनुष्यों से ऐसा व्यवहार किया जाता था, जिसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है। पर सोफिया के अविरल प्रयत्न से उनकी दशा सुधारने लगी है। आज जसवंतनगर के मेजबानों को सेवा-सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और सारा कस्बा, अर्थात् वहाँ के राजकर्मचारी, पगड़ियाँ बाँधो इधार-उधार दौड़ते फिरते हैं। किसी के होश-हवास ठिकाने नहीं हैं, जैसे नींद में किसी ने भेड़ियों का स्वप्न देखा हो। बाजार कर्मचारियों ने सुसज्जित कराए हैं, जेल के कैदियों और शहर के चौकीदारों ने कुलियों और मजदूरों का काम किया है, बस्ती का कोई प्राणी बिना अपना परिचय दिए हुए सड़कों पर नहीं आने पाता। नगर के किसी मनुष्य ने इस स्वागत में भाग नहीं लिया है और रियासत ने उनकी उदासीनता का यह उत्तार दिया है। सड़कों के दोनों तरफ सशस्त्रा सिपाहियों की सफें खड़ी कर दी गई हैं कि प्रजा की अशांति का कोई चिद्द भी न नजर आने पाए। सभाएँ करने की मनाही कर दी गई है। संधया हो गई थी। जुलूस निकला। पैदल और सवार आगे-आगे थे। फौजी बाजे बज रहे थे। सड़कों पर रोशनी हो रही थी, पर मकानों में,छतों पर अंधाकार छाया हुआ था। फूलों की वर्षा हो रही थी, पर छतों से नहीं, सिपाहियों के हाथों से। सोफी सब कुछ समझती थी, पर क्लार्क की ऑंखों पर परदा-सा पड़ा हुआ था। असीम ऐश्वर्य ने उनकी बुध्दि को भ्रांत कर दिया है। कर्मचारी सब कुछ कर सकते हैं, पर भक्ति पर उनका वश नहीं होता। नगर में कहीं आनंदोत्साह का चिद्द नहीं है, सियापा-सा छाया हुआ है, न पग-पग पर जय-धवनि है, न कोई रमणी आरती उतारने आती है, न कहीं गाना-बजाना है। मानो किसी पुत्रा-शोकमग्न माता के सामने विहार हो रहा हो। कस्बे का गश्त करके सोफी, क्लार्क, सरदार नीलकंठ और दो-एक उच्च कर्मचारी तो राजभवन में आकर बैठे, और लोग बिदा हो गए। मेज पर चाय लाई गई। मि. क्लार्क ने बोतल से शराब उड़ेली, तो सरदार साहब, जिन्हें इसकी दुर्गंधा से घृणा थी, खिसककर सोफिया के पास आ बैठे और बोले-जसवंतनगर आपको कैसा पसंद आया? सोफिया-बहुत ही रमणीक स्थान है। पहाड़ियों का दृश्य अत्यंत मनोहर है। शायद कश्मीर के सिवा ऐसी प्राकृतिक शोभा और कहीं न होगी। नगर की सफाई से चित्ता प्रसन्न हो गया। मेरा तो जी चाहता है, यहाँ कुछ दिनों रहूँ। नीलकंठ डरे। एक-दो दिन तो पुलिस और सेना के बल से नगर को शांत रखा जा सकता है, पर महीने-दो महीने किसी तरह नहीं। असम्भव है। कहीं ये लोग यहाँ जम गए, तो नगर की यथार्थ स्थिति अवश्य ही प्रकट हो जाएगी। न जाने उसका क्या परिणाम हो। बोले-यहाँ की बाह्य छटा के धाोखे में न आइए।
जलवायु बहुत खराब है। आगे आपको इससे कहीं सुंदर स्थान मिलेंगे। सोफिया-कुछ भी हो, मैं यहाँ दो हफ्ते अवश्य ठहरूँगी। क्यों विलियम, तुम्हें यहाँ से जाने की कोई जल्दी तो नहीं है? क्लार्क-तुम यहाँ रहो, तो मैं दफन होने को तैयार हूँ। सोफिया-लीजिए सरदार साहब, विलियम को कोई आपत्तिा नहीं है। सोफिया को सरदार साहब को दिक करने में मजा आ रहा था। नीलकंठ-फिर भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि जसवंतनगर बहुत अच्छी जगह नहीं है। जलवायु की विषमता के अतिरिक्त यहाँ की प्रजा में अशांति के बीज अंकुरित हो गए हैं। सोफिया-तब तो हमारा यहाँ रहना और भी आवश्यक है। मैंने किसी रिसायत में यह शिकायत नहीं सुनी। गवर्नमेंट ने रियासतों को आंतरिक स्वाधाीनता प्रदान कर दी है। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि रियासतों में अराजकता के कीटाणुओं को सेये जाने दिया जाए। इसका उत्तारदायित्व अधिाकारियों पर है, और गवर्नमेंट को अधिाकार है कि वह इस असावधाानी का संतोषजनक उत्तार माँगे। सरदार साहब के हाथ-पाँव फूल गए। सोफिया से उन्होंने यह बात निश्शंक होकर कही थी। उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर-भेंट ने अपना काम कर दिखाया। कुछ बेतकल्लुफ-से हो गए थे। यह फटकार पड़ी, तो ऑंखें चौंधिाया गईं। कातर स्वर में बोले-मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, कि यद्यपि रियासत पर इस स्थिति का उत्तारदायित्व है; पर हमने यथासाधय इसके रोकने की चेष्टा की और अब भी कर रहे हैं। यह बीज उस दिशा से आया, जिधार से उसके आने की सम्भावना न थी; या यों कहिए कि विष-बिंदु सुनहरे पात्राों में लाए गए। बनारस के रईस कुँवर भरतसिंह के स्वयंसेवकों ने कुछ ऐसे कौशल से काम लिया कि हमें खबर तक न हुई। डाकुओं से धान की रक्षा की जा सकती है, पर साधाुओं से नहीं। सेवकों ने सेवा की आड़ में यहाँ की मूर्ख प्रजा पर ऐसे मंत्रा फूँके कि उन मंत्राों के उतारने में रियासत को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। विशेषतः कुँवर साहब का पुत्रा अत्यंत कुटिल प्रकृति का युवक है। उसने इस प्रांत में अपने विद्रोहात्मक विचारों का यहाँ तक प्रचार किया कि इसे विद्रोहियों का अखाड़ा बना दिया। उसकी बातों में कुछ ऐसा जादू होता था कि प्रजा प्यासों की भाँति उसकी ओर दौड़ती थी। उसके साधाु भेष, उसके सरल, निःस्पृह जीवन, उसकी मृदुल सहृदयता और सबसे अधिाक उसके देवोपम स्वरूप ने छोटे-बड़े सभी पर वशीकरण-सा कर दिया था। रियासत को बड़ी चिंता हुई। हम लोगों की नींद हराम हो गई। प्रतिक्षण विद्रोह की आग भड़क उठने की आशंका होती थी। यहाँ तक कि हमें सदर से सैनिक सहायता भेजनी पड़ी। विनयसिंह तो किसी तरह गिरफ्तार हो गया; पर उसके अन्य सहयोगी अभी तक इलाके में छिपे हुए प्रजा को उत्तोजित कर रहे हैं। कई बार यहाँ सरकारी खजाना लुट चुका है। कई बार विनय को जेल से निकाल ले जाने का दुष्प्रयत्न किया जा चुका है, और कर्मचारियों को नित्य प्राणों की शंका बनी रहती है। मुझे विवश होकर आपसे यह वृत्ताांत कहना पड़ा। मैं आपको यहाँ ठहरने की कदापि राय न दूँगा। अब आप स्वयं समझ सकती हैं कि हम लोगों ने जो कुछ किया, उसके सिवा और क्या कर सकते थे। सोफिया ने बड़ी चिंता के भाव से कहा-दशा उससे कहीं भयंकर है, जितना मैं समझती थी। इस अवस्था में विलियम का यहाँ से जानार् कत्ताव्य के विरुध्द होगा। वह यहाँ गवर्नमेंट के प्रतिनिधिा होकर आए हैं, केवल सैर-सपाटे करने के लिए नहीं। क्यों विलियम, तुम्हें यहाँ रहने में कोई आपत्तिा तो नहीं है? यहाँ की रिपोर्ट भी तो करनी पड़ेगी। क्लार्क ने एक चुस्की लेकर कहा-तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं नरक में भी स्वर्ग का सुख ले सकता हूँ। रहा रिपोर्ट लिखना, वह तुम्हारा काम है। नीलकंठ-मेरी आपसे सविनय प्रार्थना है कि रियासत को सँभालने के लिए कुछ और समय दीजिए। अभी रिपोर्ट करना हमारे लिए घातक होगा। इधार तो यह अभिनय हो रहा था, सोफिया प्रभुत्व के सिंहासन पर विराजमान थी, ऐश्वर्य चँवर हिलाता था, अष्टसिध्दि हाथ बाँधो खड़ी थी। उधार विनय अपनी ऍंधोरी कालकोठरी में म्लान और क्षुब्धा बैठा हुआ नारी जाति की निष्ठुरता और असहृदयता पर रो रहा था। अन्य कैदी अपने-अपने कमरे साफ कर रहे थे, उन्हें कल नए कम्बल और नए कुरते दिए गए थे, जो रियासत में एक नई घटना थी। जेल कर्मचारी कैदियों को पढ़ा रहे थे-मेम साहब पूछें, तुम्हें क्या शिकायत है, तो सब लोग एक स्वर से कहना, हुजूर के प्रताप से हम बहुत सुखी हैं और हुजूर के जान-माल की खैर मनाते हैं। पूछें, क्या चाहते हो, तो कहना, हुजूर की दिनोंदिन उन्नति हो, इसके सिवा हम कुछ नहीं चाहते। खबरदार, जो किसी ने सिर ऊपर उठाया और कोई बात मुँह से निकाली, खाल उधोड़ ली जाएगी। कैदी फूले न समाते थे। आज मेम साहब की आमद की खुशी में मिठाइयाँ मिलेंगी। एक दिन की छुट्टी होगी। भगवान उन्हें सदा सुखी रखें कि हम अभा
गों पर इतनी दया करती हैं। -कतु विनय के कमरे में अभी तक सफाई नहीं हुई। नया कम्बल पड़ा हुआ है, छुआ तक नहीं गया। कुरता ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ रखा है, वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है। उसके शरीर के एक-एक रोम से, मस्तिष्क के एक-एक अणु से, हृदय की एक-एक गति से यही आवाज आ रही है-सोफिया! उसके सामने क्योंकर जाऊँगा। उसने सोचना शुरू किया-सोफिया यहाँ क्यों आ रही है? क्या मेरा अपमान करना चाहती है? सोफी, जो दया और प्रेम की सजीव मूर्ति थी, क्या वह मुझे क्लार्क के सामने बुलाकर पैराेंं से कुचलना चाहती है? इतनी निर्दयता, और मुझ जैसे अभागे पर, जो आप ही अपने दिनों को रो रहा है! नहीं, वह इतनी वज्र-हृदया नहीं है, उसका हृदय इतना कठोर नहीं हो सकता। यह सब मि. क्लार्क की शरारत है, वह मुझे सोफी के सामने लज्जित करना चाहते हैं; पर मैं उन्हें यह अवसर न दूँगा, मैं उनके सामने जाऊँगा ही नहीं, मुझे बलात् ले जाए; जिसका जी चाहे। क्यों बहाना करूँ कि मैं बीमार हूँ। साफ कह दूँगा, मैं वहाँ नहीं जाता। अगर जेल का यह नियम है, तो हुआ करे, मुझे ऐसे नियम की परवाह नहीं, जो बिलकुल निरर्थक है। सुनता हँ, दोनों यहाँ एक सप्ताह तक रहना चाहते हैं, क्या प्रजा को पीस ही डालेंगे? अब भी तो मुश्किल से आधो आदमी बच रहे होंगे, सैकड़ों निकाल दिए गए, सैकड़ों जेल में ठूँस दिए गए, क्या इस कस्बे को बिलकुल मिट्टी में मिला देना चाहते हैं? सहसा जेल का दारोगा आकर कर्कश स्वर मेंं बोला-तुमने कमरे की सफाई नहीं की! अरे, तुमने तो अभी कुरता भी नहीं बदला, कम्बल तक नहीं बिछाया! तुम्हें हुक्म मिला या नहीं? विनय-हुक्म तो मिला, मैंने उसका पालन करना आवश्यक नहीं समझा। दारोगा ने और गरम होकर कहा-इसका यही नतीजा होगा कि तुम्हारे साथ भी और कैदियों का-सा सलूक किया जाए। हम तुम्हारे साथ अब तक शराफत का बर्ताव करते आए हैं, इसलिए कि तुम एक प्रतिष्ठित रईस के लड़के हो और यहाँ विदेश में आ पड़े हो। पर मैं शरारत नहीं बर्दाश्त कर सकता। विनय-यह बतलाइए कि मुझे पोलिटिकल एजेंट के सामने तो न जाना पड़ेगा? दारोगा-और यह कम्बल और कुरता किसलिए दिया गया है; कभी और भी किसी ने यहाँ नया कम्बल पाया है? तुम लोगों के तो भाग्य खुल गए। विनय-अगर आप मुझ पर इतनी रियायत करें कि मुझे साहब के सामने जाने पर मजबूर न करें, तो मैं आपका हुक्म मानने को तैयार हूँ। दारोगा-कैसे बेसिर-पैर की बातें करते हो जी, मेरा कोई अख्तियार है? तुम्हें जाना पड़ेगा। विनय ने बड़ी नम्रता से कहा-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलँगा। किसी दूसरे अवसर पर दारोगाजी शायद जामे से बाहर हो जाते, पर आज कैदियों को खुश रखना जरूरी था। बोले-मगर भाई, यह रिआयत करनी मेरी शक्ति से बाहर है। मुझ पर न जाने क्या आफत आ जाए। सरदार साहब मुझे कच्चा ही खा जाएँगे, मेम साहब को जेलों को देखने की धाुन है। बड़े साहब तो कर्मचारियों के दुश्मन हैं, मेम साहब उनसे भी बढ़-चढ़कर हैं। सच पूछो तो जो कुछ हैं, वह मेम साहब ही हैं। साहब तो उनके इशारों के गुलाम हैं। कहीं वह बिगड़ गईं, तो तुम्हारी मियाद तो दूनी हो ही जाएगी, हम भी पिस जाएँगे। विनय-मालूम होता है, मेम साहब का बड़ा दबाव है। दारोगा-दबाव! अजी, यह कहो कि मेम साहब ही पोलिटिकल एजेंट हैं। साहब तो केवल हस्ताक्षर करने-भर को हैं। नजर-भेंट सब मेम साहब के ही हाथों में जाती है। विनय-आप मेरे साथ इतनी रियाअत कीजिए कि मुझे उनके सामने जाने के लिए मजबूर न कीजिए। इतने कैदियों में एक आदमी की कमी जान ही न पड़ेगी। हाँ, अगर वह मुझे नाम लेकर बुलाएँगी, तो मैं चला जाऊँगा। दारोगा-सरदार साहब मुझे जीता निगल जाएँगे। विनय-मगर करना आपको यही पड़ेगा। मैं अपनी खुशी से कदापि न जाऊँगा। दारोगा-मैं बुरा आदमी हूँ, मुझे दिक मत करो। मैंने इसी जेल में बड़े-बड़ों की गरदनें ढीली कर दी हैं। विनय-अपने को कोसने का आपको अधिाकार है; पर आज जानते हैं, मैं जब्र के सामने सिर झुकानेवाला नहीं हूँ। दारोगा-भाई, तुम विचित्रा प्राणी हो, उसके हुक्म से सारा शहर खाली कराया जा रहा है, और फिर भी अपनी जिद किए जाते हो। लेकिन तुम्हें अपनी जान भारी है, मुझे अपनी जान भारी नहीं है। विनय-क्या शहर खाली कराया जा रहा है? यह क्यों? दारोगा-मेम साहब का हुक्म है, और क्या, जसवंतनगर पर उनका कोप है। जब से उन्होंने यहाँ की वारदातें सुनी हैं, मिजाज बिगड़ गया है। उनका वश चले तो इसे खुदवाकर फेंक दें। हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। भय है कि कहीं उपद्रव न हो जाए, सदर से मदद माँगी गई है। दारोगा ने स्थिति को इतना बढ़ाकर बयान किया, इससे उनका उद्देश्य विनयसिंह पर प्रभाव डालना था और उनका उद्देश्य पूरा हो गया। विनयसिंह को चिंता हुई कि कहीं मेरी अवज्ञा से क्रुध्द होकर अधिाकारियों ने मुझ पर और भी अत्याचार करने शुरू किए
और जनता को यह खबर मिली, तो वह बिगड़ खड़ी होगी और उस दशा में मैं उन हत्याओं के पाप का भागी ठहरूँगा। कौन जाने, मेरे पीछे मेरे सहयोगियों ने लोगों को और भी उभार रखा हो, उनमें उद्दंड प्रकृति के युवकों की कमी नहीं है। नहीं, हालत नाजुक है। मुझे इस वक्त धौर्य से काम लेना चाहिए। दारोगा से पूछा-मेम साहब यहाँ किस वक्त आएँगी? दारोगा-उनके आने का कोई ठीक समय थोड़े ही है। धाोखा देकर किसी ऐसे वक्त आ पहुँचेंगी, जब हम लोग गाफिल पड़े होंगे। इसी से तो कहता हूँ कि कमरे की सफाई कर डालो; कपड़े बदल लो; कौन जाने, आज ही आ जाएँ। विनय-अच्छी बात है; आप जो कुछ कहते हैं, सब कर लूँगा। अब आप निश्ंचित हो जाएँ। दारोगा-सलामी के वक्त आने से इनकार तो न करोगे? विनय-जी नहीं; आप मुझे सबसे पहले ऑंगन में मौजूद पाएँगे। दारोगा-मेरी शिकायत तो न करोगे? विनय-शिकायत करना मेरी आदत नहीं, इसे आप खूब जानते हैं। दारोगा चला गया। ऍंधोरा हो चला था। विनय ने अपने कमरे में झाड़ू लगाई, कपड़े बदले, कम्बल बिछा दिया। वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे किसी की दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हो; वह अपनी निरपेक्षता से हुक्काम के संदेहों को दूर कर देना चाहते थे। भोजन का समय आ गया, पर मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण न किया। अंत मेंं निराश होकर दारोगा ने जेल के द्वार बंद कराए और कैदियों को विश्राम करने का हुक्म दिया। विनय लेटे, तो सोचने लगे-सोफी का यह रूपांतर क्योंकर हो गया? वही लज्जा और विनय की मूर्ति, वही सेवा और त्याग की प्रतिमा आज निरंकुशता की देवी बनी हुई है! उसका हृदय कितना कोमल था, कितना दयाशील, उसके मनोभाव कितने उच्च और पवित्रा थे, उसका स्वभाव कितना सरल था, उसकी एक-एक दृष्टि हृदय पर कालिदास की एक-एक उपमा की-सी चोट करती थी, उसके मुँह से जो शब्द निकलता था, वह दीपक की ज्योति की भाँति चित्ता को आलोकित कर देता था। ऐसा मालूम होता था, केवल पुष्प-सुगंधा से उसकी सृष्टि हुई है, कितना निष्कपट, कितना गम्भीर, कितना मधाुर सौंदर्य था! वह सोफी अब इतनी निर्दय हो गई है! चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, मानो कोई तूफान आनेवाला है। आज जेल के ऑंगन में दारोगा के जानवर न बँधो थे, न बरामदों में घास के ढेर थे। आज किसी कैदी को जेल-कर्मचारियों के जूठे बरतन नहीं माँजने पड़े, किसी ने सिपाहियों की चम्पी नहीं की। जेल के डॉक्टर की बुढ़िया महरी आज कैदियों को गालियाँ नहीं दे रही थी और दफ्तर में कैदियों से मिलनेवाले संबंधिायाेंं के नजरानों का बाँट-बखरा न होता था। कमराेंं में दीपक थे, दरवाजे खुले रखे गए थे। विनय के मन में प्रश्न उठा, क्यों न भाग चलूँ? मेरे समझाने से कदाचित् लोग शांत हो जाएँ। सदर सेना आ रही है, ज़रा-सी बात पर विप्लव हो सकता है। यदि मैं शांतिस्थापना करने में सफल हुआ, तो वह मेरे इस अपराधा का प्रायश्चित्ता होगा। उन्होंने दबी हुई नजरों से जेल की ऊँची दीवारों को देखा, कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ी। किसी ने देख लिया तो? लोग यही समझेंगे कि मैं जनता को भड़काने के इरादे से भागने की चेष्टा कर रहा था। इस हैस-बैस में रात कट गई। अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि मोटर की आवाज ने आगंतुकाें की सूचना दी। दारोगा,डॉक्टर, वार्डर, चौकीदार हड़बड़ाकर निकल पड़े। पहली घंटी बजी, कैदी मैदान में निकल आए, उन्हें कतारों में खड़े होने का हुक्म दिया गया,और उसी क्षण सोफिया, मिस्टर क्लार्क और सरदार नीलकंठ जेल में दाखिल हुए। सोफिया ने आते ही कैदियों पर निगाह डाली। उस दृष्टि में प्रतीक्षा न थी, उत्सुकता न थी, भय था, विकलता थी, अशांति थी। जिस आकांक्षा ने उसे बरसों रुलाया था, जो उसे यहाँ तक खींच लाई थी, जिसके लिए उसने अपने प्राणप्रिय सिध्दांतों का बलिदान किया था, उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थी, जैसे कोई परदेशी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव में आकर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कानों में न पड़ जाए। सहसा उसने विनय को सिर झुकाए खड़े देखा। हृदय में प्रेम का एक प्रचंड आवेग हुआ,नेत्राों में ऍंधोरा छा गया। घर वही था, पर उजड़ा हुआ, घास-पात से ढंका हुआ, पहचानना मुश्किल था। वह प्रसन्न मुख कहाँ था, जिस पर कवित्व की सरलता बलि होती थी। वह पुरुषार्थ का-सा विशाल वृक्ष कहाँ था। सोफी के मन में अनिवार्य इच्छा हुई कि विनय के पैरों पर गिर पड़ूँ, उसे अश्रु-जल से धाोऊँ, उसे गले से लगाऊँ। अकस्मात् विनयसिंह मूख्रच्छत होकर गिर पड़े, एक आर्तधवनि थी, जो एक क्षण तक प्रवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई। सोफी तुरंत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरफ शोर मच गया। जेल का डॉक्टर दौड़ा। दारोगा पागलों की भाँति उछल-कूद मचाने लगा-अब नौकरों की खैरियत नहीं। मेम साहब पूछेंगी, इसकी हालत इतनी नाजुक थी, तो इसे चिकित्सालय में क्यों नहीं रखा; बड़ी मुसीबत में
फँसा। इस भले आदमी को भी इसी वक्त बेहोश होना था। कुछ नहीं, इसने दम साधाा है, बना हुआ है,मुझे तबाह करने पर तुला हुआ है। बच्चा, जाने दो मेम साहब को, तो देखना, तुम्हारी ऐसी खबर लेता हूँ कि सारी बेहोशी निकल जाए, फिर कभी बेहोश होने का नाम ही न लो। यह आखिर इसे हो क्या गया, किसी कैदी को आज तक यों मूख्रच्छत होते नहीं देखा। हाँ, किस्सों में लोगों को बात-बात में बेहोश हो जाते पढ़ा है। मिर्गी का रोग होगा और क्या। दारोगा तो अपनी जान की खैर मना रहा था, उधार सरदार साहब मिस्टर क्लार्क से कह रहे थे-यह वही युवक है, जिसने रियासत में ऊधाम मचा रखा है। सोफी ने डॉक्टर से घुड़ककर कहा, हट जाओ, और विनय को उठवाकर दफ्तर में लाई। आज वहाँ बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए थे। चाँदी की कुर्सियाँ थीं, मेज पर जरी का मेजपोश था, उस पर सुंदर गुलदस्ते थे। मेज पर जलपान की सामग्रियां चुनी हुई थीं। तजवीज थी कि निरीक्षण के बाद साहब यहाँ नाश्ता करेंगे। सोफी ने विनय को कालीन के फर्श पर लिटा दिया और सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का इशारा किया। उसकी करुणा और दया प्रसिध्द थी, किसी को आश्चर्य न हुआ। जब कमरे में कोई न रहा, तो सोफी ने खिड़कियों पर परदे डाल दिए और विनय का सिर अपनी जाँघ पर रखकर अपनी रूमाल उस पर झलने लगी। ऑंसू की गरम-गरम बूँदें उसकी ऑंखों से निकल-निकलकर विनय के मुख पर गिरने लगीं। उन जल-बिंदुआेंं में कितनी प्राणप्रद शक्ति थी! उनमें उसकी समस्त मानसिक और आत्मिक शक्ति भरी हुई थी। एक-एक जल-बिंदु उसके जीवन का एक-एक बिंदु था। विनयसिंह की ऑंखें खुल गईं। स्वर्ग का एक पुष्प अक्षय, अपार,सौरभ में नहाया हुआ, हवा के मृदुल झोकों से हिलता, सामने विराज रहा था। सौंदर्य की सबसे मनोहर, सबसे मधाुर छवि वह है, जब वह सजल शोक से आर्द्र होता है, वही उसका आधयात्मिक स्वरूप होता है। विनय चौंककर उठे नहीं; यही तो प्रेम-योगियों की सिध्दि है, यही तो उनका स्वर्ग है, यही तो स्वर्ग-साम्राज्य है, यही तो उनकी अभिलाषाओं का अंत है, इस स्वर्गीय आनंद में तृप्ति कहाँ! विनय के मन में करुण भावना जागृत हुई-काश, इसी भाँति प्रेम-शय्या पर लेटे हुए सदैव के लिए ये ऑंखें बंद हो जातीं! सारी आकांक्षाओं का लय हो जाता। मरने के लिए इससे अच्छा और कौन-सा अवसर होगा! एकाएक उन्हें याद आ गया, सोफी को स्पर्श करना भी मेरे लिए वर्जित है। उन्होंने तुरंत अपना सिर उसकी जाँघ पर से खींच लिया और अवरुध्द कंठ से बोले-मिसेज क्लार्क, आपने मुझ पर बड़ी दया की, इसके लिए आपका अनुगृहीत हूँ। सोफिया ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा-अनुग्रह गालियों के रूप में नहीं प्रकट किया जाता। विनय ने विस्मित होकर कहा-ऐसा घोर अपराधा मुझसे कभी नहीं हुआ। सोफिया-ख्वाहमखाह किसी शख्स के साथ मेरा सम्बंधा जोड़ना गाली नहीं तो क्या है? विनय-मिस्टर क्लार्क? सोफिया-क्लार्क को मैं तुम्हारी जूतियों का तस्मा खोलने के योग्य भी नहीं समझती। विनय-लेकिन अम्माँजी ने...। सोफिया-तुम्हारी अम्माँजी ने झूठ लिखा और तुमने उस पर विश्वास करके मुझ पर घोर अन्याय किया। कोयल आम न पाकर भी निम्बौड़ियों पर नहीं गिरती। इतने में क्लार्क ने आकर पूछा-इस कैदी की क्या हालत है? डॉक्टर आ रहा है, वह इसकी दवा करेगा। चलो, देर हो रही है। सोफिया ने रुखाई से कहा-तुम जाओ, मुझे फुरसत नहीं। क्लार्क-कितनी देर तक तुम्हारी राह देखूँ। सोफिया-यह मैं नहीं कह सकती। मेरे विचार में एक मनुष्य की सेवा करना सैर करने से कहीं अधिाक आवश्यक है। क्लार्क-खैर, मैं थोड़ी देर और ठहरूँगा। यह कहकर वह बाहर चले गए, तब सोफी ने विनय के माथे से पसीना पोंछते हुए कहा-विनय, मैं डूब रही हूँ, मुझे बचा लो। मैंने रानीजी की शंकाओं को निवृत्ता करने के लिए यह स्वाँग रचा था। विनय ने अविश्वाससूचक भाव से कहा-तुम यहाँ क्लार्क के साथ क्यों आईं और उनके साथ कैसे रहती हो? सोफिया का मुख-मंडल लज्जा से आरक्त हो गया। बोली-विनय, यह मत पूछो, मगर मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ, मैंने जो कुछ किया, तुम्हारे लिए किया। तुम्हें इस कैद से निकालने के लिए मुझे इसके लिए सिवा और कोई उपाय न सूझा। मैंने क्लार्क को प्रमाद में डाल रखा है। तुम्हारे ही लिए मैंने यह कपट-वेष धाारण किया है। अगर तुम इस वक्त कहो, सोफी, तू मेरे साथ जेल में रह, तो मैं यहाँ आकर तुम्हारे साथ रहूँगी। अगर तुम मेरा हाथ पकड़कर कहो, तू मेरे साथ चल तो आज ही तुम्हारे साथ चलूँगी। मैंने तुम्हारा दामन पकड़ लिया है और अब उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकती; चाहे तुम ठुकरा ही क्यों न दो। मैंने आत्मसम्मान तक तुम्हें समर्पित कर दिया है। विनय, यह ईश्वरीय विधाान है, यह उसकी ही प्रेरणा है; नहीं तो इतना अपमान और उपहास सहकर तुम मुझे जिंदा न पाते। विनय ने सोफी के दिल की थाह लेने के लिए कहा-अगर यह ईश्वरीय विधाान है, तो उसने हमारे और
तुम्हारे बीच में यह दीवार क्यों खड़ी कर दी है? सोफिया-यह दीवार ईश्वर ने नहीं खड़ी की, आदमियों ने खड़ी की है। विनय-कितनी मजबूत है! सोफिया-हाँ, मगर दुर्भेद्य नहीं। विनय-तुम इसे तोड़ सकोगी? सोफिया-इसी क्षण, तुम्हारी ऑंखों के एक इशारे पर। कोई समय था, जब मैं उस दीवार को ईश्वरकृत समझती थी और उसका सम्मान करती थी, पर अब उसका यथार्थ स्वरूप देख चुकी। प्रेम इन बाधााओं की परवा नहीं करता, यह दैहिक सम्बंधा नहीं, आत्मिक सम्बंधा है। विनय ने सोफी का हाथ अपने हाथ में लिया, और उसकी ओर प्रेम-विह्नल नेत्राों से देखकर बोले-तो आज से तुम मेरी हो, और मैं तुम्हारा हूँ। सोफी का मस्तक विनय के हृदय-स्थल पर झुक गया, नेत्राों से जल-वर्षा होने लगी, जैसे काले बादल धारती पर झुककर एक क्षण में उसे तृप्त कर देते हैं। उसके मुख से एक शब्द भी न निकला, मौन रह गई। शोक की सीमा कंठावरोधा है, पर शुष्क और दाह-युक्त; आनंद की सीमा भी कंठावरोधा है, पर आर्द्र और शीतल। सोफी को अब अपने एक-एक अंग में, नाड़ियों की एक-एक गति में, आंतरिक शक्ति का अनुभव हो रहा था। नौका ने कर्णधाार का सहारा पा लिया था। अब उसका लक्ष्य निश्चित था। वह अब हवा के झोकों या लहरों के प्रवाह के साथ डावाँडोल न होगी, वरन् सुव्यवस्थित रूप से अपने पथ पर चलेगी। विनय भी दोनों पर खोले हुए आनंद के आकाश में उड़ रहे थे। वहाँ की वायु में सुगंधा थी, प्रकाश में प्राण, किसी ऐसी वस्तु का अस्तित्व न था, जो देखने में अप्रिय, सुनने में कटु, छूने में कठोर और स्वाद में कड़घई हो। वहाँ के फूलों में काँटे न थे, सूर्य में इतनी उष्णता न थी,जमीन पर व्याधिायाँ न थीं, दरिद्रता न थी, चिंता न थी, कलह न था, एक व्यापक शांति का साम्राज्य था। सोफिया इस साम्राज्य की रानी थी और वह स्वयं उसके प्रेम-सरोवर में विहार कर रहे थे। इस सुख-स्वप्न के सामने यह त्याग और तप का जीवन कितना नीरस, कितना निराशाजनक था, यह ऍंधोरी कोठरी कितनी भयंकर! सहसा क्लार्क ने फिर आकर कहा-डार्लिंग, अब विलम्ब न करो, बहुत देर हो रही है, सरदार साहब आग्रह कर रहे हैं। डॉक्टर इस रोगी की खबर लेगा। सोफी उठ खड़ी हुई और विनय की ओर से मुँह फेरकर करुण-कम्पित स्वर में बोली-घबराना नहीं, मैं कल फिर आऊँगी। विनय को ऐसा जान पड़ा, मानो नाड़ियों में रक्त सूखा जा रहा है। वह मर्माहत पक्षी की भाँति पड़े रहे। सोफी द्वार तक आई, फिर रूमाल लेने के बहाने लौटकर विनय के कान में बोली-मैं कल फिर आऊँगी और तब हम दोनाेंं यहाँ से चले जाएँगे। मैं तुम्हारी तरफ से सरदार नीलकंठ से कह दूँगी कि वह क्षमा माँगते हैं। सोफी के चले जाने के बाद भी ये आतुर, उत्सुक, प्रेम में डूबे हुए शब्द किसी मधाुर संगीत के अंतिम स्वरों की भाँति विनय के कानों में गूँजते रहे। किंतु वह शीघ्र ही इहलोक में आने के लिए विवश हुआ। जेल के डॉक्टर ने आकर उसे दफ्तर ही में एक पलंग पर लिटा दिया और पुष्टिकारक औषधिायाँ सेवन कराईं। पलंग पर नर्म बिछौना था, तकिए लगे थे, पंखा झला जा रहा था। दारोगा एक-एक क्षण में कुशल पूछने के लिए आता था, और डॉक्टर तो वहाँ से हटने का नाम ही न लेता था। यहाँ तक कि विनय ने इन शुश्रूषाओं से तंग आकर डॉक्टर से कहा-मैं बिलकुल अच्छा हूँ, आप सब जाएँ, शाम को आइएगा। डॉक्टर साहब डरते-डरते बोले-आपको जरा नींद आ जाए, तो मैं चला जाऊँ। विनय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बिदा होते ही मुझे नींद आ जाएगी। डॉक्टर अपने अपराधाों की क्षमा माँगते हुए चले गए। इसी बहाने से विनय ने दारोगा को भी खिसकाया, जो आज शील और दया के पुतले बने हुए थे। उन्होंने समझा था, मेम साहब के चले जाने के बाद इसकी खूब खबर लूँगा; पर वह अभिलाषा पूरी न हो सकी। सरदार साहब ने चलते समय जता दिया था कि इनके सेवा-सत्कार में कोई कसर न रखना, नहीं तो मेम साहब जहन्नुम में भेज देंगी। शांत विचार के लिए एकाग्रता उतनी ही आवश्यक है, जितनी धयान के लिए वायु की गति तराजू के पलड़ों को बराबर नहीं होने देती। विनय को अब विचार हुआ-अम्माँजी को यह हाल मालूम हुआ, तो वह अपने मन में क्या कहेंगी। मुझसे उनकी कितनी मनोकामनाएँ सम्बध्द हैं। सोफी के प्रेम-पाश से बचने के लिए उन्होंने मुझे निर्वासित किया, इसीलिए उन्होेंने सोफी को कलंकित किया। उनका हृदय टूट जाएगा। दुःख तो पिताजी को भी होगा; पर वे मुझे क्षमा कर देंगे, उन्हें मानवीय दुर्बलताओं से सहानुभूति है। अम्माँजी में बुध्दि-ही-बुध्दि है; पिताजी में हृदय और बुध्दि दोनों हैं। लेकिन मैं इसे दुर्बलता क्यों कहूँ? मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूँ, जो संसार में किसी ने न किया हो। संसार में ऐसे कितने प्राणी हैं, जिन्होंने अपने को जाति पर होम कर दिया हो? स्वार्थ के साथ जाति का धयान रखनेवाले महानुभावों ही ने अब तक जो कुछ किया है, किया है। जाति पर मर मिटनेवाले तो उँगलियों प
र गिने जा सकते हैं। फिर जाति के अधिाकारियों में न्याय और विवेक नहीं,प्रजा में उत्साह और चेष्टा नहीं, उसके लिए मर मिटना व्यर्थ है। अंधो के आगे रोकर अपना दीदा खोने के सिवा और क्या हाथ आता है? शनैः-शनैः भावनाओं ने जीवन की सुख-सामग्रियाँ जमा करनी शुरू कीं-चलकर देहात में रहूँगा। वहीं एक छोटा-सा मकान बनवाऊँगा, साफ,खुला हुआ, हवादार, ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति से निवास करेंगे। आडम्बर बढ़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगा, क्यारियाँ बनाऊँगा, कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूँगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधाकर कहूँगा-सरकार, कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा-रानीजी, कुछ निगाह हो जाए। कभी-कभी सोफी भी पौधाों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर-भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल गात पसीने से और सुंदर वस्त्रा पानी से भीग जाएगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलँगा। कभी-कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगी, डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनंद कहाँ, वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता है, उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डाँड़ा चलाऊँगा, सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग न होंगे। कभी-कभी प्रभु सेवक भी आएँगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगे, जहाँ मंगल बाँहें फैलाए हमारा इंतजार कर रहा है। सोफी और क्लार्क की आज संधया समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजेेंं सज गईं और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किए, तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा-उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियम, तुमने देखा, उसका मुख कितना पीला पड़ गया था? क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुध्द उत्तार दिया-मर्ूच्छा में बहुधाा मुख पीला हो जाता है। सोफी-वही तो मैं भी कह रही थी कि उसकी दशा अच्छी नहीं, नहीं तो मर्ूच्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराधा की काफी सजा पा चुका है, उसे मुक्त कर देना उचित होगा। नीलकंठ-मेम साहब, उसकी सूरत पर न जाइए। आपको ज्ञात नहीं, यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जाएगा। बड़ा ही जिद्दी है, रियासत से बाहर जाने पर राजी ही नहीं होता। क्लार्क-ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है। सोफी ने उत्तोजित होकर कहा-मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय-शून्य हो! क्लार्क-मुझे तुम्हारा जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं। सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की दृष्टि से देखा। यह गर्व, यह आत्मगौरव कहाँ से आया? तिरस्कार भाव से बोली-एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। क्लार्क-साम्राज्य-रक्षा के सामने एक व्यक्ति के जीवन की कोई हस्ती नहीं। जिस दया से, जिस सहृदयता से किसी दीन प्राणी का पेट भरता हो, उसके शारीरिक कष्टों का निवारण होता हो, किसी दुःखी जीव को सांत्वना मिलती हो, उसका मैं कायल हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं उस सम्पत्तिा से वंचित नहीं हूँ; लेकिन जो सहानुभूति साम्राज्य की जड़ खोखली कर दे, विद्रोहियों को सर उठाने का अवसर दे, प्रजा में अराजकता का प्रचार करे, उसे मैं अदूरदर्शिता ही नहीं, पागलपन समझता हूँ। सोफी के मुख-मंडल पर एक अमानुषीय तेजस्विता की आभा दिखाई दी, पर उसने जब्त किया। कदाचित् इतने धौर्य से उसने कभी काम नहीं लिया था। धार्म-परायणता का सहिष्णुता से वैर है। पर इस समय उसके मुँह से निकला हुआ एक अनर्गल शब्द भी उसके समस्त जीवन का सर्वनाश कर सकता है। नर्म होकर बोली-हाँ, इस विचार-दृष्टि से बेशक वैयक्तिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रहता। मेरी निगाह इस पहलू पर न गई थी। मगर फिर भी इतना कह सकती हूँ कि अगर वह मुक्त कर दिया जाए, तो फिर इस रियासत में कदम न रखेगा, और मैं यह निश्चय रूप से कह सकती हूँ कि वह अपनी बात का धानी है। नीलकंठ-क्या आपसे उसने वादा किया है? सोफी-हाँ, वादा ही समझिए, मैं उसकी जमानत कर सकती हूँ। नीलकंठ-इतना तो मैं भी कह सकता हूँ कि वह अपने वचन से फिर नहीं सकता। क्लार्क-जब तक उसका लिखित प्रार्थना-पत्रा मेरे सामने न आए, मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता। नीलकंठ-हाँ, यह तो परमावश्यक ही है। सोफी-प्रार्थना-पत्रा का विषय क्या होगा? क्लार्क-सबसे पहले वह अपना अपराधा स्वीकार करे और अपनी राजभक्ति का विश्वास दिलाने के बाद हलफ लेकर कहे कि इस रियासत में फिर कदम न रखूँगा। उसके साथ जमानत भी होनी चाहिए। तो नकद रुपये हों, या प्रतिष्ठित आदमियों की जमानत। तुम्हारी
जमानत का मेरी दृष्टि में कितना ही महत्तव हो, जाब्ते में उसका कुछ मूल्य नहीं। दावत के बाद सोफी राजभवन में आई, तो सोचने लगी-यह समस्या क्योंकर हल हो? यों तो मैं विनय की मिन्नत-समाजत करूँ, तो वह रियासत से चले जाने पर राजी हो जाएँगे; लेकिन कदाचित् वह लिखित प्रतिज्ञा न करेंगे। अगर किसी भाँति मैंने रो-धाोकर उन्हें इस बात पर राजी कर लिया, तो यहाँ कौन प्रतिष्ठित आदमी उनकी जमानत करेगा? हाँ, उनके घर से नकद रुपये आ सकते हैं! पर रानी साहब कभी इसे मंजूर न करेंगी। विनय को कितने ही कष्ट सहने पड़ें, उन्हें इस पर दया न आएगी। मजा तो जब है कि लिखित प्रार्थना-पत्रा और जमानत की कोई शर्त ही न रहे। वह अवैधा रूप से मुक्त कर दिए जाएँ। इसके सिवा कोई उपाय नहीं। राजभवन विद्युत-प्रकाश से ज्योतिर्मय हो रहा था। भवन के बाहर चारों तरफ सावन की काली घटा थी और अथाह अंधाकार। उस तिमिर-सागर में प्रकाशमय राजभवन ऐसा मालूम होता था, मानो नीले गगन पर चाँद निकला हो। सोफी अपने सजे हुए कमरे में आईने के सामने बैठी हुई उन सिध्दियों को जगा रही है, जिनकी शक्ति अपार है-आज उसने मुद्दत के बाद बालों में फूल गूँथे हैं, फीरोजी रेशम की साड़ी पहनी है और कलाइयों में कंगन धाारण किए हैं। आज पहली बार उसने उन लालित्य-प्रसारिणी कलाओं का प्रयोग किया है, जिनमें स्त्रिायाँ निपुण होती हैं। यह मंत्रा उन्हीं को आता है कि क्योंकर केशों की एक तड़प, अंचल की एक लहर चित्ता को चंचल कर देती है। आज उसने मिस्टर क्लार्क के साम्राज्यवाद को विजय करने का निश्चय किया है, वह आज अपनी सौंदर्य-शक्ति की परीक्षा करेगी। रिमझिम बूँदें गिर रही थीं, मानो मौलसिरी के फूल झड़ रहे हों। बूँदों में एक मधाुर स्वर था। राजभवन, पर्वत-शिखर के ऊपर, ऐसा मालूम होता था, मानो देवताओं ने आनंदोत्सव की महफिल सजाई है। सोफिया प्यानो पर बैठ गई और एक दिल को मसोसनेवाला राग गाने लगी। जैसे ऊषा की स्वर्ण-छटा प्रस्फुटित होते ही प्रकृति के प्रत्येक अंग को सजग कर देती है, उसी भाँति सोफी की पहली ही तान ने हृदय में एक चुटकी-सी ली। मिस्टर क्लार्क आकर एक कोच पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगे, मानो किसी दूसरे ही संसार में पहुँच गए हैं। उन्हें कभी कोई नौका उमड़े हुए सागर में झकोले खाती नजर आती, जिस पर छोटी-छोटी सुंदर चिड़ियाँ मँडराती थीं। कभी किसी अनंत वन में एक भिक्षुक, झोली कंधो पर रखे, लाठी टेकता हुआ नजर आता। संगीत से कल्पना चित्रामय हो जाती है। जब तक सोफी गाती रही, मिस्टर क्लार्क बैठे सिर धाुनते रहे। जब वह चुप हो गई, तो उसके पास गए और उसकी कुर्सी की बाँहों पर हाथ रखकर, उसके मुँह के पास मुँह ले जाकर बोले-इन उँगलियों को हृदय में रख लूँगा। सोफी-हृदय कहाँ है? क्लार्क ने छाती पर हाथ रखकर कहा-यहाँ तड़प रहा है। सोफी-शायद हो, मुझे तो विश्वास नहीं आता। मेरा तो खयाल है, ईश्वर ने तुम्हें हृदय दिया ही नहीं। क्लार्क-सम्भव है, ऐसा ही हो। पर ईश्वर ने जो कसर रखी थी, वह तुम्हारे मधाुर स्वर ने पूरी कर दी। शायद उसमें सृष्टि करने की शक्ति है। सोफी-अगर मुझमें यह विभूति होती, तो आज मुझे एक अपरिचित व्यक्ति के सामने लज्जित न होना पड़ता। क्लार्क ने अधाीर होकर कहा-क्या मैंने तुम्हें लज्जित किया? मैंने! सोफी-जी हाँ, आपने। मुझे आज तुम्हारी निर्दयता से जितना दुःख हुआ, उतना शायद और कभी न हुआ था। मुझे बाल्यावस्था से यह शिक्षा दी गई है कि प्रत्येक जीव पर दया करनी चाहिए, मुझे बताया गया है कि यही मनुष्य का सबसे बड़ा धार्म है। धाार्मिक ग्रंथों में भी दया और सहानुभूति ही मनुष्य का विशेष गुण बतलाई गई है। पर आज विदित हुआ कि निर्दयता का महत्तव दया से कहीं अधिाक है। सबसे बड़ा दुःख मुझे इस बात का है कि अनजान आदमी के सामने मेरा अपमान हुआ। क्लार्क-खुदा जानता है सोफी, मैं तुम्हारा कितना आदर करता हूँ। हाँ, इसका खेद मुझे अवश्य है कि मैं तुम्हारी उपेक्षा करने के लिए बाधय हुआ। इसका कारण तुम जानती ही हो। हमारा साम्राज्य तभी तक अजेय रह सकता है, जब तक प्रजा पर हमारा आतंक छाया रहे, जब तक वह हमें अपना हितचिंतक, अपना रक्षक, अपना आश्रय समझती रहे, जब तक हमारे न्याय पर उसका अटल विश्वास हो। जिस दिन प्रजा के दिल से हमारे प्रति विश्वास उठ जाएगा, उसी दिन हमारे साम्राज्य का अंत हो जाएगा। अगर साम्राज्य को रखना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है,तो व्यक्तिगत भावों और विचारों को यहाँ कोई महत्तव नहीं। साम्राज्य के लिए हम बड़े-से-बड़े नुकसान उठा सकते हैं, बड़ी-से-बड़ी तपस्याएँ कर सकते हैं। हमें अपना राज्य प्राणों से भी प्रिय है, और जिस व्यक्ति से हमें क्षति की लेश-मात्रा भी शंका हो, उसे हम कुचल डालना चाहते हैं,उसका नाश कर देना चाहते हैं, उसके साथ किसी भाँति की रिआयत, सहानुभूति यहाँ तक कि न्याय का व्यवहार भी नहीं कर सकते। सो
फी-अगर तुम्हारा खयाल है कि मुझे साम्राज्य से इतना प्रेम नहीं, जितना तुम्हें है, और मैं उसके लिए इतने बलिदान नहीं सह सकती,जितने तुम कर सकते हो, तो तुमने मुझे बिलकुल नहीं समझा। मुझे दावा है, इस विषय में मैं किसी से जौ-भर भी पीछे नहीं। लेकिन यह बात मेरे अनुमान में भी नहीं आती कि दो प्रेमियों में कभी इतना मतभेद हो सकता है कि सहृदयता और सहिष्णुता के लिए गुंजाइश न रहे,और विशेषतः उस दशा में जबकि दीवार के कानों के अतिरिक्त और कोई कान भी सुन रहा हो। दीवान देश-भक्ति के भावों से शून्य है; उसकी गहराई और उसके विस्तार से जरा भी परिचित नहीं। उसने तो यही समझा होगा कि जब इन दोनों में मेरे सम्मुख इतनी तकरार हो सकती है,तो घर पर न जाने क्या दशा होगी। शायद आज से उसके दिल से मेरा सम्मान उठ गया। उसने औरों से भी यह वृत्ताांत कहा होगा। मेरी तो नाक-सी कट गई। समझते हो, मैं गा रही हूँ। यह गाना नहीं, रोना है। जब दाम्पत्य के द्वार पर यह दशा हो रही है, जहाँ फूलों से, हर्षनादों से, प्रेमालिंगनों से, मृदुल हास्य से मेरा अभिवादन होना चाहिए था, तो मैं अंदर कदम रखने का क्योंकर साहस कर सकती हूँ? तुमने मेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। शायद तुम मुझे ैमदजपउमदजंस समझ रहे होगे; पर अपने चरित्रा को मिटा देना मेरे वश की बात नहीं। मैं अपने को धान्यवाद देती हूँ कि मैंने विवाह के विषय में इतनी दूर-दृष्टि से काम लिया। यह कहते-कहते सोफी की ऑंखों से टप-टप ऑंसू गिरने लगे। शोकाभिनय में भी बहुधाा यथार्थ शोक की वेदना होने लगती है। मिस्टर क्लार्क खेद और असमर्थता का राग अलापने लगे; पर न उपयुक्त शब्द ही मिलते थे, न विचार। अश्रु-प्रवाह तर्क और शब्द-योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा-सोफी, मुझे क्षमा करो, वास्तव में मैं न समझता था कि इस ज़रा-सी बात से तुम्हें इतनी मानसिक पीड़ा होगी। सोफी-इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। तुम मेरे गुलाम नहीं हो कि मेरे इशारों पर नाचो। मुझमें वे गुण नहीं, जो पुरुषों का हृदय खींच लेते हैं, न वह रूप है, न वह छवि है, न वह उद्दीपन-कला। नखरे करना नहीं जानती, कोप-भवन में बैठना नहीं जानती। दुःख केवल इस बात का है कि उस आदमी ने तो मेरे एक इशारे पर मेरी बात मान ली और तुम इतना अनुनय-विनय करने पर भी इनकार करते जाते हो। वह भी सिध्दांतवादी मनुष्य है; अधिाकारियों की यंत्राणाएँ सहीं, अपमान सहा, कारागार की ऍंधोरी कोठरी में कैद होना स्वीकार किया, पर अपने वचन पर सुदृढ़ रहा। इससे कोई मतलब नहीं कि उसकी टेक जा थी या बेजा, वह उसे जा समझता था। वह जिस बात को न्याय समझता था,उससे भय या लोभ या दंड उसे विचलित नहीं कर सके। लेकिन जब मैंने नरमी के साथ उसे समझाया कि तुम्हारी दशा चिंताजनक है, तो उसके मुख से ये करुण शब्द निकले-'मेम साहब, जान की तो परवा नहीं, अपने मित्राों और सहयोगियाेंं की दृष्टि में पतित होकर जिंदा रहना श्रेय की बात नहीं; लेकिन आपकी बात नहीं टालना चाहता। आपके शब्दों में कठोरता नहीं, सहृदयता है, और मैं अभी तक भाव-विहीन नहीं हुआ हूँ। मगर तुम्हारे ऊपर मेरा कोई मंत्रा न चला। शायद तुम उससे बड़े सिध्दांतवादी हो, हालांकि अभी इसकी परीक्षा नहीं हुई। खैर, मैं तुम्हारे सिध्दांतों से सौतियाडाह नहीं करना चाहती। मेरी सवारी का प्रबंधा कर दो, मैं कल ही चली जाऊँगी और फिर अपनी नादानियों से तुम्हारे मार्ग का कटंक बनने न आऊँगी। मिस्टर क्लार्क ने घोर आत्मवेदना के साथ कहा-डार्लिंग, तुम नहीं जानतीं, यह कितना भयंकर आदमी है। हम क्रांति से, षडयंत्राों से,संग्राम से इतना नहीं डरते, जितना इस भाँति के धौर्य और धाुन से। मैं भी मनुष्य हूँ सोफी, यद्यपि इस समय मेरे मुँह से यह दावा समयोचित नहीं पर कम-से-कम उस पवित्रा आत्मा के नाम पर, जिसका मैं अत्यंत दीनभक्त हूँ, मुझे यह कहने का अधिाकार है-मैं उस युवक का हृदय से सम्मान करता हूँ। उसके दृढ़ संकल्प की, उसके साहस की, उसकी सत्यवादिता की दिल से प्रशंसा करता हँ। जानता हूँ, वह एक ऐश्वर्यशाली पिता का पुत्रा है और राजकुमारों की भाँति आनंद-भोग में मग्न रह सकता है; पर उसके ये ही सद्गुण हैं, जिन्होंने उसे इतना अजेय बना रखा है। एक सेना का मुकाबला करना इतना कठिन नहीं, जितना ऐसे गिने-गिनाए व्रतधाारियों का, जिन्हें संसार में कोई भय नहीं है। मेरा जाति-धार्म मेरे हाथ बाँधो हुए है। सोफी को ज्ञात हो गया कि मेरी धमकी सर्वथा निष्फल नहीं हुई। विवशता का शब्द जबान पर, खेद का भाव मन में आया, और अनुमति की पहली मंजिल पूरी हुई। उसे यह भी ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे हाव-भाव का इतना असर नहीं हो सकता, जितना बलपूर्ण आग्रह था। सिध्दांतवादी मनुष्य हाव-भाव का प्रतिकार करने के लिए अपना दिल मजबूत कर सकता है, वह अपने अंतःकरण के सामने अपनी दुर्बलता स्वीकार नहीं क
र सकता, लेकिन दुराग्रह के मुकाबले में वह निष्क्रिय हो जाता है। तब उसकी एक नहीं चलती। सोफी ने कटाक्ष करते हुए कहा-अगर तुम्हारा जातीयर् कत्ताव्य तुम्हें प्यारा है, तो मुझे भी आत्मसम्मान प्यारा है। स्वदेश की अभी तक किसी ने व्याख्या नहीं की; पर नारियों की मान-रक्षा उसका प्रधाान अंग है और होनी चाहिए, इससे तुम इनकार नहीं कर सकते। यह कहकर वह स्वामिनी-भाव से मेज के पास गई और एक डाकेट का पत्रा निकाला, जिस पर एजेंट आज्ञा-पत्रा लिखा करता था। क्लार्क-क्या करती हो सोफी? खुदा के लिए जिद मत करो। सोफी-जेल के दारोगा के नाम हुक्म लिखूँगी। यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई। क्लार्क-यह अनर्थ न करो सोफी, गजब हो जाएगा। सोफी-मैं गजब से क्या, प्रलय से भी नहीं डरती। सोफी ने एक-एक शब्द का उच्चारण करते हुए आज्ञा-पत्र टाइप किया। उसने एक जगह जान-बूझकर एक अनुपयुक्त शब्द टाइप कर दिया, जिसे एक सरकारी पत्र में न आना चाहिए। क्लार्क ने टोका-यह शब्द मत रखो। सोफी-क्यों, धन्यवाद न दूँ? क्लार्क-आज्ञा-पत्रा में धन्यवाद का क्या जिक्र? कोई निजी थोड़े ही है। सोफी-हाँ, ठीक है, यह शब्द निकाले देती हूँ। नीचे क्या लिखूँ। क्लार्क-नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं। केवल मेरा हस्ताक्षर होगा। सोफी ने सम्पूर्ण आज्ञा-पत्रा पढ़कर सुनाया। क्लार्क-प्रिये, यह तुम बुरा कर रही हो। सोफी-कोई परवा नहीं, मैं बुरा ही करना चाहती हूँ। हस्ताक्षर भी टाइप कर दूँ? नहीं, (मुहर निकालकर) यह मुहर किए देती हूँ। क्लार्क-जो चाहो करो। जब तुम्हें अपनी जिद के आगे कुछ बुरा-भला नहीं सूझता, तो क्या कहूँ? सोफी-कहीं और तो इसकी नकल न होगी? क्लार्क-मैं कुछ नहीं जानता। यह कहकर मि. क्लार्क अपने शयन-गृह की ओर जाने लगे। सोफी ने कहा-आज इतनी जल्दी नींद आ गई? क्लार्क-हाँ, थक गया हूँ। अब सोऊँगा। तुम्हारे इस पत्रा से रियासत में तहलका पड़ जाएगा। सोफी-अगर तुम्हें इतना भय है, तो मैं इस पत्रा को फाड़े डालती हूँ। इतना नहीं गुदगुदाना चाहती कि हँसी के बदले रोना आ जाए। बैठते हो, या देखो, यह लिफाफा फाड़ती हूँ। क्लार्क कुर्सी पर उदासीन भाव से बैठ गए और बोले-लो बैठ गया, क्या कहती हो? सोफी-कहती कुछ नहीं हूँ, धान्यवाद का गीत सुनते जाओ। क्लार्क-धान्यवाद की जरूरत नहीं। सोफी ने फिर गाना शुरू किया और क्लार्क चुपचाप बैठे सुनते रहे। उनके मुख पर करुण प्रेमाकांक्षा झलक रही थी। यह परख और परीक्षा कब तक? इस क्रीड़ा का कोई अंत भी है? इस आकांक्षा ने उन्हें साम्राज्य की चिंता से मुक्त कर दिया-आह! काश, अब भी मालूम हो जाता कि तू इतनी बड़ी भेंट पाकर प्रसन्न हो गई! सोफी ने उनकी प्रेमाग्नि को खूब उद्दीप्त किया और तब सहसा प्यानो बंद कर दिया और बिना कुछ बोले हुए अपने शयनागार में चली गई। क्लार्क वहीं बैठे रहे, जैसे कोई थका हुआ मुसाफिर अकेला किसी वृक्ष के नीचे बैठा हो। सोफी ने सारी रात भावी जीवन के चित्रा खींचने में काटी, पर इच्छानुसार रंग न दे सकी। पहले रंग भरकर उसे जरा दूर से देखती, तो विदित होता, धूप की जगह छाँह है, छाँह की जगह धाूप, लाल रंग का आधिाक्य है, बाग में अस्वाभाविक रमणीयता, पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा हरियाली, नदियों में अलौकिक शांति। फिर ब्रुश लेकर इन त्रुटियों को सुधारने लगती, तो सारा दृश्य जरूरत से ज्यादा नीरस,उदास और मलिन हो जाता। उसकी धाार्मिकता अब अपने जीवन में ईश्वरीय व्यवस्था का रूप देखती थी। अब ईश्वर ही उसका कर्णधाार था,वह अपने कर्माकर्म के गुणदोष से मुक्त थी। प्रातःकाल वह उठी, तो मि. क्लार्क सो रहे थे। मूसलाधाार वर्षा हो रही थी। उसने शोफर को बुलाकर मोटर तैयार करने का हुक्म दिया और एक क्षण में जेल की तरफ चली, जैसे कोई बालक पाठशाला से घर की तरफ दौड़े। उसके जेल पहुँचते ही हलचल-सी पड़ गई। चौकीदार ऑंखें मलते हुए दौड़-दौड़कर वर्दियाँ पहनने लगे। दारोगाजी ने उतावली में उलटी अचकन पहनी और बेतहाशा दौड़े। डॉक्टर साहब नंगे पाँव भागे, याद न आया कि रात को जूते कहाँ रखे थे और इस समय तलाश करने की फुरसत न थी। विनयसिंह बहुत रात गए सोए थे और अभी तक मीठी नींद के मजे ले रहे थे। कमरे में जल-कणों से भीगी हुई वायु आ रही थी। नरम गलीचा बिछा हुआ था। अभी तक रात का लैम्प न बुझा था, मानो विनय की व्यग्रता की साक्षी दे रहा था। सोफी का रूमाल अभी तक विनय के सिरहाने पड़ा हुआ था और उसमें से मनोहर सुगंधा उड़ रही थी। दारोगा ने जाकर सोफी को सलाम किया और वह उन्हें लिए विनय के कमरे में आई। देखा, तो नींद में है। रात की मीठी नींद से मुख पुष्प के समान विकसित हो गया है। ओठों पर हलकी-सी मुस्कराहट है; मानो फूल पर किरणें चमक रही हों। सोफी को विनय आज तक कभी इतना सुंदर न मालूम हुआ था। सोफी ने डॉक्टर से पूछा-रात को इसकी कैसी दशा थी? डॉक्टर-हुजूर, कई बार मर्ूच्छा आई; पर मैं एक क्षण के लिए भी यह
ाँ से न टला। जब इन्हें नींद आ गई, तो मैं भोजन करने चला गया। अब तो इनकी दशा बहुत अच्छी मालूम होती है। सोफी-हाँ, मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है। आज वह पीलापन नहीं है। मैं अब इससे यह पूछना चाहती हूँ कि इसे किसी दूसरे जेल में क्यों न भिजवा दूँ। यहाँ की जलवायु इसके लिए अनुकूल नहीं है। पर आप लोगों के सामने यह अपने मन की बातें न कहेगा। आप लोग जरा बाहर चले जाएँ, तो मैं इसे जगाकर पूछ लूँ, और इसका ताप भी देख लूँ। (मुस्कराकर) डॉक्टर साहब, मैं भी इस विद्या से परिचित हूँ। नीम हकीम हूँ, पर खतरे-जान नहीं। जब कमरे में एकांत हो गया, तो सोफी ने विनय का सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया और धाीरे-धाीरे उसका माथा सहलाने लगी। विनय की ऑंखें खुल गईं। इस तरह झपटकर उठा, जैसे नींद में किसी नदी से फिसल पड़ा हो। स्वप्न का इतना तत्काल फल शायद ही किसी को मिला हो। सोफी ने मुस्कराकर कहा-तुम अभी तक सो रहे हो; मेरी ऑंखों की तरफ देखो, रात-भर नहीं झपकीं। विनय-संसार का सबसे उज्ज्वल रत्न पाकर भी मीठी नींद न लूँ, तो मुझसा भाग्यहीन और कौन होगा? सोफी-मैं तो उससे भी उज्ज्वल रत्न पाकर और भी चिंताओं में फँस गई। अब यह भय है कि कहीं वह हाथ से न निकल जाए। नींद का सुख अभाव में है, जब कोई चिंता नहीं होती। अच्छा, अब तैयार हो जाओ। विनय-किस बात के लिए? सोफी-भूल गए? इस अंधाकार से प्रकाश में आने के लिए, इस काल-कोठरी से बिदा होने के लिए। मैं मोटर लाई हूँ; तुम्हारी मुक्ति का आज्ञा-पत्रा मेरी जेब में है। कोई अपमानसूचक शर्त नहीं है। केवल उदयपुर राज्य में बिना आज्ञा के न आने की प्रतिज्ञा ली गई है। आओ,चलें। मैं तुम्हें रेल के स्टेशन तक पहुँचाकर लौट जाऊँगी। तुम दिल्ली पहुँचकर मेरा इंतजार करना। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे दिल्ली में आ मिलूँगी, और फिर विधााता भी हमें अलग न कर सकेगा। विनयसिंह की दशा उस बालक की-सी थी, जो मिठाइयों के खोंचे को देखता है, पर इस भय से कि अम्माँ मारेंगी, मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता। मिठाइयों के स्वाद याद करके उसकी राल टपकने लगती है। रसगुल्ले कितने रसीले हैं, मालूम होता है, दाँत किसी रसक्ुं+ड में फिसल पडे। अमिर्तियाँ कितनी कुरकुरी हैं, उनमें भी रस भरा होगा। गुलाबजामुन कितनी सोंधाी होती है कि खाता ही चला जाए। मिठाइयों से पेट नहीं भर सकता। अम्माँ पैसे न देंगी। होंगे ही नहीं, किससे माँगेगी ज्यादा हठ करूँगा, तो रोने लगेंगी। सजल नेत्रा होकर बोला-सोफी, मैं भाग्यहीन आदमी हूँ, मुझे इसी दशा में रहने दो। मेरे साथ अपने जीवन का सर्वनाश न करो। मुझे विधाता ने दुःख भोगने ही के लिए बनाया है। मैं इस योग्य नहीं कि तुम...। सोफी ने बात काटकर कहा-विनय, मैं विपत्तिा ही की भूखी हूँ। अगर तुम सुख-सम्पन्न होते, अगर तुम्हारा जीवन विलासमय होता, अगर तुम वासनाओं के दास होते, तो कदाचित् मैं तुम्हारी तरफ से मुँह फेर लेती। तुम्हारे सत्साहस और त्याग ही ने मुझे तुम्हारी तरफ खींचा है। विनय-अम्माँजी को तुम जानती हो, वह मुझे कभी क्षमा न करेंगी। सोफी-तुम्हारे प्रेम का आश्रय पाकर मैं उनके क्रोधा को शांत कर लूँगी। जब वह देखेंगी कि मैं तुम्हारे पैरों की जंजीर नहीं, तुम्हारे पीछे उड़नेवाली रज हूँ, तो उनका हृदय पिघल जाएगा। विनय ने सोफी को स्नेहपूर्ण नेत्र से देखकर कहा-तुम उनके स्वभाव से परिचित नहीं हो। वह हिंदू-धार्म पर जान देती हैं। सोफी-मैं भी हिंदू-धार्म पर जान देती हूँ। जो आत्मिक शांति मुझे और कहीं न मिली, वह गोपियों की प्रेम-कथा में मिल गई। वह प्रेम का अवतार, जिसने गोपियों को प्रेम-रस पान कराया, जिसने कुब्जा का डोंगा पार लगाया, जिसने प्रेम के रहस्य दिखाने के लिए ही संसार को अपने चरणों से पवित्रा किया, उसी की चेरी बनकर जाऊँगी, तो वह कौन सच्चा हिंदू है, जो मेरी उपेक्षा करेगा? विनय ने मुस्कराकर कहा-उस छलिया ने तुम पर भी जादू डाल दिया? मेरे विचार में तो कृष्ण की प्रेम-कथा सर्वथा भक्त-कल्पना है। सोफी-हो सकती है। प्रभु मसीहा को भी तो कल्पित कहा जाता है। शेक्सपियर भी तो कल्पना-मात्रा है। कौन कह सकता है कि कालिदास की सृष्टि पंचभूतों से हुई है? लेकिन इन पुरुषों के कल्पित होते हुए भी हम उनकी पवित्रा कीर्ति के भक्त हैं, और वास्तविक पुरुषों की कीर्ति से अधिाक। शायद इसीलिए कि उनकी रचना स्थूल परमाणु से नहीं, सूक्ष्म कल्पना से हुई हो। ये व्यक्तियों के नाम हों न हों, पर आदर्शों के नाम अवश्य हैं। इनमें से प्रत्येक पुरुष मानवीय जीवन का एक-एक आदर्श है। विनय-सोफी, मैं तुमसे तर्क में पार न पा सकूँगा। पर मेरा मन कह रहा है कि मैं तुम्हारी सरल हृदयता से अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। मैं तुमसे हृदय की बात कहता हूँ सोफी, तुम मेरा यथार्थ रूप नहीं देख रही हो। कहीं उस पर निगाह पड़ जाए, तो तुम मेरी तरफ ताकना भी पसंद न करोगी। तुम मेरे पैरों
की जंजीर चाहे न बन सको, पर मेरी दबी हुई आग को जगानेवाली हवा अवश्य बन जाओगी। माताजी ने बहुत सोच-समझकर मुझे यह व्रत दिया है। मुझे भय होता है कि एक बार मैं इस बंधान से मुक्त हुआ, तो वासना मुझे इतने वेग से बहा ले जाएगी कि फिर शायद मेरे अस्तित्व का पता ही न चले। सोफी, मुझे इस कठिनतम परीक्षा में न डालो। मैं यथार्थ में बहुत दुर्बल चरित्रा, विषयसेवी प्राणी हूँ। तुम्हारी नैतिक विशालता मुझे भयभीत कर रही है। हाँ, मुझ पर इतनी दया अवश्य करो कि आज यहाँ से किसी दूसरी जगह प्रस्थान कर दो। सोफी-क्या मुझसे इतनी दूर भागना चाहते हो? विनय-नहीं-नहीं, इसका और ही कारण है। न जाने क्योंकर यह विज्ञप्ति निकल गई है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाए। कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। मैं तो समझता हूँ, सरदार साहब ने तुम्हारी रक्षा के लिए यह व्यवस्था की है, पर लोग तुम्हीं को बदनाम कर रहे हैं। सोफी और क्लार्क का परस्पर तर्क-वितर्क सुनकर सरदार नीलकंठ ने तत्काल यह हुक्म जारी कर दिया था। उन्हें निश्चय था कि मेम साहब के सामने साहब की एक न चलेगी और विनय को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए पहले ही से शांति-रक्षा का उपाय करना आवश्यक था। सोफी ने विस्मित होकर पूछा-क्या ऐसा हुक्म दिया गया है? विनय-हाँ, मुझे खबर मिली है। कोई चपरासी कहता था। सोफी-मुझे जरा भी खबर नहीं। मैं अभी जाकर पता लगाती हूँ और इस हुक्म को मंसूख करा देती हूँ। ऐसी ज्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती। यह सब तो हो जाएगा, पर तुम्हें अभी मेरे साथ चलना पड़ेगा। विनय-नहीं सोफी, मुझे क्षमा करो। दूर का सुनहरा दृश्य समीप आकर बालू का मैदान हो जाता है। तुम मेरे लिए आदर्श हो। तुम्हारे प्रेम का आनंद मैं कल्पना ही द्वारा ले सकता हूँ। डरता हूँ कि तुम्हारी दृष्टि में गिर न जाऊँ। अपने को कहाँ तक गुप्त रखूँगा? तुम्हें पाकर मेरा जीवन नीरस हो जाएगा, मेरे लिए उद्योग और उपासना की कोई वस्तु न रह जाएगी। सोफी, मेरे मुँह से न जाने क्या-क्या अनर्गल बातें निकल रही हैं। मुझे स्वयं संदेह हो रहा है कि मैं अपने होश में हूँ या नहीं। भिक्षुक राजसिंहासन पर बैठकर अस्थिर चित्ता हो जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। मेरी तुमसे यही अंतिम प्रार्थना है कि मुझे भूल जाओ। सोफी-मेरी स्मरण-शक्ति इतनी शिथिल नहीं है। विनय-कम-से-कम मुझे यहाँ से जाने के लिए विवश न करो; क्योंकि मैंने निश्चय कर लिया है, मैं यहाँ से न जाऊँगा। कस्बे की दशा देखते हुए मुझे विश्वास नहीं है कि मैं जनता को काबू में रख सकूँगा। सोफी ने गम्भीर भाव से कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं तुम्हें जितना सरल हृदय समझती थी, तुम उससे कहीं बढ़कर कूटनीतिज्ञ हो। मैं तुम्हारा आशय समझती हूँ, और इसलिए कहती हूँ, जैसी तुम्हारी इच्छा। पर शायद तुम्हें मालूम नहीं कि युवती का हृदय बालक के समान होता है। उसे जिस बात के लिए मना करो, उसी तरफ लपकेगा। अगर तुम आत्मप्रशंसा करते, अपने कृत्यों की अप्रत्यक्ष रूप से डींग मारते,तो शायद मुझे तुमसे अरुचि हो जाती। अपनी त्राुटियों और दोषों का प्रदर्शन करके तुमने मुझे और भी वशीभूत कर लिया। तुम मुझसे डरते हो, इसलिए तुम्हारे सम्मुख न आऊँगी, पर रहूँगी तुम्हारे ही साथ। जहाँ-जहाँ तुम जाओगे, मैं परछाईं की भाँति तुम्हारे साथ रहूँगी। प्रेम एक भावनागत विषय है, भावना से ही उसका पोषण होता है, भावना ही से वह जीवित रहता है और भावना से ही लुप्त हो जाता है। वह भौतिक वस्तु नहीं है। तुम मेरे हो, यह विश्वास मेरे प्रेम को सजीव और सतृष्ण रखने के लिए काफी है। जिस दिन इस विश्वास की जड़ हिल जाएगी,उसी दिन इस जीवन का अंत हो जाएगा। अगर तुमने यही निश्चय किया है कि इस कारागार में रहकर तुम अपने जीवन के उद्देश्य को अधिाक सफलता के साथ पूरा कर सकते हो, तो इस फैसले के आगे सिर झुकाती हूँ। इस विराग ने मेरी दृष्टि में तुम्हारे आदर को कई गुना बढ़ा दिया है। अब जाती हूँ। कल शाम को फिर आऊँगी। मैंने इस आज्ञा-पत्रा के लिए जितना त्रिाया-चरित्रा खेला है, वह तुमसे बता दूँ, तो तुम आश्चर्य करोगे। तुम्हारी एक 'नहीं' ने मेरे सारे प्रयास पर पानी फेर दिया। क्लार्क कहेगा, मैं कहता था, वह राजी न होगा, कदाचित् व्यंग्य करे; पर कोई चिंता नहीं, कोई बहाना कर दूँगी। यह कहते-कहते सोफी के सतृष्ण अधार विनयसिंह की तरफ झुके, पर वह कोई पैर फिसलनेवाले मनुष्य की भाँति गिरते-गिरते सँभल गई। धीरे से विनयसिंह का हाथ दबाया और द्वार की ओर चली; पर बाहर जाकर फिर लौट आई और अत्यंत दीन भाव से बोली-विनय, तुमसे एक बात पूछती हूँ। मुझे आशा है, तुम साफ-साफ बतला दोगे। मैं क्लार्क के साथ यहाँ आई, उससे कौशल किया, उसे झूठी आशाएँ दिलाईं और अब उसे मुगालते में डाले हुए हूँ। तुम इसे अनुचित तो नहीं समझते, तुम्हारी दृष्टि में मैं कलंकिनी
तो नहीं हूँ? विनय के पास इसका एक ही सम्भावित उत्तार था। सोफी का आचरण उसे आपत्तिाजनक प्रतीत होता था। उसे देखते ही उसने इस बात को आश्चर्य के रूप में प्रकट भी किया था। पर इस समय वह इस भाव को प्रकट न कर सका। यह कितना बड़ा अन्याय होता, कितनी घोर निर्दयता! वह जानता था कि सोफी ने जो कुछ किया है, वह एक धाार्मिक तत्तव के अधाीन होकर। वह इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझ रही है। अगर ऐसा न होता, तो शायद अब तक वह हताश हो गई होती। ऐसी दशा में कठोर सत्य वज्रपात के समान होता। श्रध्दापूर्ण तत्परता से बोले-सोफी, तुम यह प्रश्न करके अपने ऊपर और उससे अधिाक मेरे ऊपर अन्याय कर रही हो। मेरे लिए तुमने अब तक त्याग-ही-त्याग किए हैं, सम्मान, समृध्दि, सिध्दांत एक की भी परवा नहीं की। संसार में मुझसे बढ़कर कृतघ्न और कौन प्राणी होगा, जो मैं इस अनुराग का निरादर करूँ। यह कहते-कहते वह रुक गया। सोफी बोली-कुछ और कहना चाहते हो, रुक क्यों गए? यही न कि तुम्हें मेरा क्लार्क के साथ रहना अच्छा नहीं लगता। जिस दिन मुझे निराशा हो जाएगी कि मैं मिथ्याचरण से तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकती, उसी दिन मैं क्लार्क को पैरों से ठुकरा दूँगी। इसके बाद तुम मुझे प्रेम-योगिनी के रूप में देखोगे, जिसके जीवन का एकमात्रा उद्देश्य होगा तुम्हारे ऊपर समर्पित हो जाना।
तनिमा ने सभी के लिए कुछ न कुछ ख़रीदा था, मगर बेटे के लिए कुछ भी नहीं। बड़ी असमंजस में थी कि बेटे के लिए क्या चीज खरीदें ! फिर, बेटे की उम्र जो ठहरी सत्रह-अठारह साल। पेंट व शर्ट के कपडे या अच्छे ब्रांड वाले जूते या कलाई-घडी? इस नाजुक उम्र के मोड़ पर, बच्चों की पसंद, माँ-बाप की पसंद से काफी भिन्न होती है। माँ-बाप की अपनी पसंद से खरीदी हुई चीजों को देखकर, वे अपनी नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं।यही कारण था कि वह अपने बेटे के लिए अपनी पसंदीदा कोई भी चीज नहीं खरीद पाती थी। एक लम्बी यात्रा पूरी कर लेने के बाद वह अपने शहर की तरफ जा रही थी। अचानक उसकी नजर पड़ी, एक लड़के पर, जो उसके बेटे के हम- उम्र था, पानी से भरे हुए पोलिथीन में रंग-बिरंगी मछलियों को लेकर जा रहा था कहीं। उसे रोक कर वह पूछने लगी, "कहाँ से लाये हो इनको?बहुत ही सुन्दर दिखाई दे रही हैं!" प्रफुल्लित होकर, पीछे की तरफ घुमकर अपने हाथ से इशारा करते हुए बताया था, "वहीं जो सामने 'सी-वर्ल्ड' से लिखी हुई तख्ती देख रही हो न, वहीं से।" घर लौटने के बाद, सूटकेस खोलकर दिखाने लगी थी वह उन सब चीजों को एक-एक कर, जो खरीद कर लायी थी वह उनके लिए। बेटे की जब बारी आई, तब बेटे ने पूछा था, "माँ, मेरे लिए?" अलग से झोले में से तनिमा ने एक पैकेट निकाला था। "वाऊ!" ख़ुशी से झूम उठा था वह। कहाँ से लाये हो? तनिमा के हाथ से वह पैकेट छीनकर मछलियों को नज़दीक से देखने लगा था। फिर कहने लगा, "माँ, हम एक 'एक्वेरियम' खरीदेंगे।" "एक्वेरियम या और कुछ?" 'सोने से गढ़मण महँगी।' जानते हो एक मामूली से मामूली एक्वेरियम का दाम दो-ढाई हज़ार से कम नहीं है। फिर इसके रख-रखाव के कई झमेले अलग से! इतनी मुश्किलें मोल लेने से क्या फ़ायदा? मैं खरीदी इसे अपने शौक से कि तुमको पसंद आयेगी, अ़ब तुम इसके लिए बात को और खींच रहे हो जो एक्वेरियम खरीदने की बात करते हो?" "तब आप क्यों लायी हो?" गुस्सा से बोला था वह, "मछली क्या कोई गुब्बारे जैसी चीज है, जो एक-आध घंटा खेलने के बाद फुस्स हो जायेगी।" अपने वैलेट में से एक छोटा सा पैकेट निकाली थी तनिमा, इस पैकेट में लाल-नीले रंग का मछ्लियों का दाना था। "लो, यह तुम्हारी मछ्लियों का भोजन।" मछ्लियों को एक बड़े से जार में रखा गया था। पानी में तैरती हुई मछलियाँ बहुत ही खुबसूरत दिखाई दे रही थी। कुछ काले-पीले रंग की चितकबरी मछलियाँ, तो कुछ थी सुनहरे रंग की चमकीली मछलियाँ और कुछ थी गहरे-लाल रंग की मनमोहक मछलियाँ। सभी मछलियाँ अलग-अलग नाम से जानी जाती थी। अतिशीघ्र बेटे को इन मछलियों से प्यार हो गया। अगर पानी जरा-सा भी मैला हो जाता था, मछलियों का सुन्दर चमकीला रंग साफ़ दिखाई नहीं देता था। तुंरत ही वह जार के अन्दर से पानी को बदल देता था। मछलियों के घर आये हुए तीन-चार दिन हुए थे, कि बेटे को बाहर हॉस्टल में पढाई करने के लिए जाना पडा था। जाते-जाते कई बार यह कहते हुए गया था, "मेरी इन मछलियों का ख्याल रखना, यह मेरी सबसे बड़ी अमानत है" ऐसे भी तनिमा को अपने घर के काम-काज की कोई कमी नहीं थी, उस पर यह एक अतिरिक्त कार्य जुड़ गया था। बेटे के प्रस्थान करने के साथ ही साथ जिन्दगी में उठा-पटक का सिलसिला शुरू हो गया था। अब जिन्दगी में शान्ति नहीं थी। हर-क्षण बुरी चिंताओं और आशंकाओं से भयभीत रहती थी तनिमा और उसका बेटा। तनिमा को तो ऐसे लग रहा था, मानो उसके दिल में किसी ने 'टाइम-बम' फिट कर दिया हो वह किसी भी क्षण फट सकता था, और उसके बसे-बसाये घर संसार को बुरी तरह से तहस-नहस कर सकता था। केवल तनिमा का ही नहीं, बल्कि महेश का भी बुरा हाल था। दिन भर अपनी-अपनी नौकरी में व्यस्त रहने के बाद, घर लौटकर टेलीफोन की प्रतीक्षा में बैठे रहते थे। जैसे ही टेलीफोन की घंटी बजती थी, दोनों एक ही साथ समानांतर रखे हुए रिसीवरों को उठा लेते थे एक अजनबी डर और आशंका से कि कहीं बेटे का फ़ोन तो नहीं! कई महीनों से सिर्फ चिंताये ही चिंताये सता रही थी। जैसे ही फोन का रिसीवर उठाते, वैसे ही दूसरी तरफ से बेटे का रुदन भरा स्वर सुनाई देता था। इस संसार के उन कँटीले रास्तों का अच्छा-खासा अनुभव हो गया था तनिमा व महेश को, कितनी मुश्किलों का सामना करते हुए पार किया जाता है यह रास्ता! बेटा जब बारहवीं कक्षा का छात्र था, तब उसके पते पर एक पत्र आया था। बेटे के साथ-साथ वे लोग आश्चर्य-चकित हो गए थे। सपनों की दुनिया का सौदा करने वाली उन संस्थानों को कैसे पता चल गया था, उनके बेटे के पते के बारे में? एक छोटे से शहर की उच्च-माध्यमिक विद्यालय की बारहवीं कक्षा का वह छात्र, जिसकी दुनिया फैली हुई थी केवल उसके अपने छोटे से शहर से लेकर ग्रीष्मावकाश में छुट्टी बिताने अपने मामा के घर तक, बस! पक्षियों के बढ़ते बच्चों की तरह समय के साथ बेटे के कँधे भी चौडे हो रहे थे, बाँहों की मांसपेशियाँ सु
दृढ़ हो रही थी। कभी-कभी अपना शर्ट खोल कर दिखाता था वह माँ को, "ये देखो, मेरी ताकत ! मेरी मजबूत मांसपेशियाँ !" बेटा अब किशोर होकर दुनिया के योग्य बन गया है, उसको उडान भरने के लिए यह क्षितिज भी कम पड़ेगा, सोच रही थी तनिमा। अब घर में बाँध-कर रखना मुश्किल था उसको।। इस बात को वह खुद भी जान चुका था, बल्कि वह तो खुद भी सपने देखने लगा था शहरों की चमचमाती दुनिया के बारे में। बारहवीं की परीक्षा ख़त्म होते ही, तनिमा और महेश ने बेटे को सपनों के सौदागरों से आये हुए उस आमंत्रण की याद दिलाई। इधर परीक्षा-जनित थकावट, उधर शिक्षकों द्वारा दी जाने वाली समय-समय पर भविष्य के प्रति जागरूकता की हिदायतें, और उससे बढ़कर स्वप्न-बाज़ार की भीड़-भाड़ में शामिल होने की आशा संजोये, कुल मिलाकर एक अद्भुत से रंग में रंग हुआ था बेटे का मन। अभी तक वह घर में सीडी लगा के दस फिल्में भी नहीं देख पाया था, न ही पुरानी क्रिकेट टीम को मैदान में एकजुट कर पाया था। तभी से तनिमा ने बेटे के लिए गद्दे तैयार करने का जुगाड़ कर लिया था। नयी बेड-शीट, नया प्लास्टिक बाल्टी-मग, नया तौलिया तथा नये-चप्पले आदि खरीद कर अपनी गाडी में लाद भी दिए थे उन्होंने। राजधानी भुवनेश्वर में सभी चीजें आसानी से मिल जाती है,यही सोच-कर उन्होंने भुवनेश्वर को स्वप्न-बाज़ार के लिए एक सही-जगह मान लिया था। दो-महीने का क्रेस-कोर्स इसके बाद थी प्रवेश-परीक्षा। भुवनेश्वर की चौडी-चौडी सडकों, लंबे-लंबे रास्तों के दोनों किनारों, सड़कों के बीचो-बीच खाली जगहों, विस्तृत चौराहों, बड़े-बड़े भवनों की प्राचीरों पर चिपके हुए पोस्टरों, अख़बारों के पन्नोंमें स्वप्न-बाज़ार की दुकानों के विज्ञापन नज़र आते थे। बस, फर्क इतना ही था कोई पुरानी दुकान थी तो कोई नयी दूकान। सभी का एक ही दावा था कि उनकी दूकानों से बिकने वाले सपने भोर की नींद के साथ-ही-साथ चूर नहीं होते। इन मामलों में तो वे इतने सिद्धहस्त थे कि कहना ही क्या! तनिमा और महेश ने पाँच हज़ार की कीमत वाले स्वप्नों को आरक्षित करवा लिया था अपने बेटे के लिए। बेटे का मन था कि वह डाक्टरी पढ़े। सपनो के सौदागर कह रहे थे, "मेडिकल कॉलेज में सीट मिलना थोडा मुश्किल है। बहुत कठिन परिश्रम की जरुरत पड़ती है। परीक्षार्थियों में प्रतिस्पर्धा भी बहुत है। आप तो जानते ही हैं ओडिशा में मेडिकल की सीटें काफी कम है। फिरभी किसी न किसीको तो दाखिला मिल ही जाता है। फिर हम किसलिए हैं? हम हैं न।" उनकी बात सुनकर महेश कहने लगा, "हम तो अपने ज़माने में किसी कोचिंग-वोचिंग को जानते भी नहीं थे। मेरे बड़े भाई तो 'प्री-प्रोफेशनल' पास करते ही मेडिकल लाइन में चले गए थे।" उनकी यह बात सुनकर स्वप्नों के सौदागर मुस्कुराते हुए चुप हो गए थे। आखिरकार बेटे को एक स्वप्न-विक्रेता की हॉस्टल में अकेला छोड़कर जाते समय, तनिमा का खूब रोने का मन कर रहा था। बोलने लगी थी, "कैसी हालत में रखते हैं बच्चों को? देखो! एक बड़े हॉल को प्लाई की पतली दीवार बनाकर छोटे-छोटे कमरों में बाँट दिया है।उसको कोई घर कहेगा? एक लड़के के लिए केवल पांच फुट गुना छः फुट वाली जगह । हवा आने जाने का भी रास्ता नहीं है। अभी से तो गरम से भाप निकल रही है अन्दर से, तो गर्मी के दिनों में क्या हालत होगी? कैसे रह पायेगा कोई? फिर खाना-पीना सामने झोपडी वाले ढाबे से। देखने से ही, बड़ा अस्वास्थ्यकर लग रहा है।" "मात्र दो-तीन महीने की तो बात है" कहकर बात को बदल दिया था महेश ने। वे लोग लौट आये थे अपने नौकरी-पेशे वाले शहर को, भुवनेश्वर से चार-सौ किलो मीटर दूर। जैसे ही घर में पाँव पड़ा ही था, कि बेटे का फ़ोन आया था। बहुत धीरे-धीरे उदास मन से बोला था बेटा, "माँ, यहाँ कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। घर की याद बहुत सताती है" "नया-नया ऐसा लगता है बेटे, धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। तुम तो केवल खूब मन लगाकर पढाई करना।" समझा रही थी तनिमा, " अगर कहीं अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल जाये तो सभी चिंता-फ़िक्र खत्म हो जायेगी जिन्दगी भर के लिए। तब तक के लिए तो थोडा बहुत कष्ट सहना पडेगा बेटा।" बेटे ने हामी भरते हुए फ़ोन काट दिया था। अगले दिन सुबह-सुबह फिर टेलीफोन की घंटी सुनकर नींद टूट गयी थी उनकी। इतनी सुबह बेटे की आवाज सुनकर घबरा गयी थी तनिमा, "क्या हुआ, सब कुशल-मंगल तो है न? इतनी सुबह-सुबह कैसे फ़ोन किया?" बेटा उस तरफ से बोला था, "माँ, मुझे कक्षा में जाने की इच्छा नहीं हो रही है। टेस्ट परीक्षा में मेरे अच्छे मार्क्स नहीं आये हैं।" और कुछ पूछने से पहले ही उसने फ़ोन काट दिया था, मानो नाराज होकर उसने मुहँ फेर लिया हो। शाम को फिर एक बार फ़ोन आया था बेटे का, "मुझसे कुछ भी नहीं होगा, माँ! मेरे तो आज भी टेस्ट में अच्छे मार्क्स नहीं आये हैं। भगवान जाने, कहाँ-कहाँ से सवाल पूछते हैं ये लोग, समझ में भी नहीं आता।
इन लोगों ने जो-जो ख्वाब दिखाए थे, वे सब निरे-झूठे हैं। उन्होंने आप के सामने ही कहा था जो भी पढाई की बातें समझ में नहीं आएगी, डरने की कोई जरुरत नहीं है। सुबह से शाम तक हमारे एक्सपर्ट टीचर बैठे रहते हैं, कभी भी बच्चे आकर अपनी समस्या को पूछ कर समझ सकते हैं। लेकिन मैं तो केवल एक सवाल को पूछ-पूछकर थक गया, कोई भी तो समझाता नहीं है। कोई सुनता भी नहीं है, जबकि कार्यालय में खाली बैठे गप्पे हांकते रहते हैं।" "तुमको इतनी जल्दी किसी पर भी टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा, कितने अंक तुम्हे मिले हैं, यह कोई बड़ी चीज नहीं है। आज अगर पेपर ख़राब हुआ है, तो कल वही पेपर अच्छा हो जायेगा। कुछ दिन रहकर तो देख। फिर जो कुछ तुम बोलोगे, मैं सही-सही मान लूंगी।" असंतुष्ट लहजे से बोली थे तनिमा अपने बेटे को। केवल एक हफ्ता भी नहीं हुआ होगा, बेटे का बार-बार फ़ोन आने से वे लोग बुरी तरह से झुँझला गए थे।सुबह एक बार तो, दोपहर को फिर एक बार। रात को एक-दो बार, कभी-कभी तो तीन-चार बार फ़ोन कर लेता था वह। लेकिन, इस बार उसने फ़ोन पर पढाई के बारे में कोई शिकायत नहीं की थी। कहने लगता था, "सुबह-सुबह मन बहुत उदास रहता है, पता नहीं क्यों, भुवनेश्वर के लोग बड़े ही अपरिचित और निष्ठुर हृदय के लगते हैं! शाम के समय मैं वाणी-विहार चौक चला जाता हूँ। हमारे शहर की तरफ जाने वाली सभी बसें यहाँ पर रूकती हैं, माँ। तुम जानती हो, हमारे शहर के लिए यहाँ से प्रति दिन छः बसें चलती हैं। जब भी अपने यहाँ की कोई बस वाणी-विहार चौक पर रूकती है, तो मन होता है कि तुंरत मैं भी उस बस में बैठ कर तुम्हारे पास आ जाऊँ। मैं जानता हूँ कि, तुम्हे गुस्सा आ रहा होगा, यह भी जानता हूँ कि तुम्हारा मन दुखी हो रहा होगा कि मैं पढाई की तरफ ध्यान क्यों नहीं दे रहा हूँ।" क्या उत्तर देती तनिमा इस बात का? बेटे के इस दुःख के सामने हृदय से आने वाले सारे उद् गार भस्मीभूत हो गए थे। तनिमा को तो ऐसा लग रहा था, मानो उसके सुरक्षित-स्वप्नों ने अभी से ही पिघलना शुरू कर दिया हो। समझाती थी, "भुवनेश्वर में तुम अकेले नहीं हो, बेटा। सभी जगह, चारो कोनों में हमारे रिश्तेदार भरे पड़े हैं। तुम्हे किसी भी प्रकार की कोई भी दिक्कत होने से उन्हें खबर दे देना। बस, दौड़कर चले आयेंगे तुम्हे मिलने के लिए। और तो और हमारा खुद का भी घर है वहाँ।" "घर? बेटा हंस दिया था, फिर कहने लगा था, " सिर्फ दीवार और छत रहने से घर क्या घर बन जाता है माँ? वहां तुम हो? पापा हैं? हमारे घर के सामान हैं?" दूसरे दिन बेटी ने नींद से उठकर पहले देखा था उस जार को। उसमें एक मछली मरी पड़ी थी। एक "मछली मर गयी?" घर का सारा काम काज छोड़कर भागे-भागे आई थी तनिमा, और जार में, हाथ डाल कर निकाली थी उस मरी हुई मछली को। काले-पीले रंग वाली उस मछली के सिर पर सिन्दूरी-लाल रंग, कितनी खुबसूरत दिख रही थी वह ! मर गयी? बड़े चंचल नटखट स्वभाव की थी वह मछली। जब वह तैरती थी ऐसा प्रतीत होता था, मानो तरह-तरह के रंगों को बिखेरती जा रही हो। एक लाल रंग की मछली हर समय उसके पीछे क्यों दौड़ती रहती थी, सोचकर तनिमा मन ही मन दुखी हो जाती थी। दो-तीन दिन से वह उस मछली को देख रही थी, उस मछली ने तैरना छोड़ दिया था। जार के शीशे की दीवार पर हर समय अपने सिर से टक्कर मार रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह उस शीशे की दीवार को तोड़ कर, बाहर आने के लिए आतुर हो। मछली की इस व्यग्र-बेचैनी ने तनिमा को भीतर से झकझोर-सा दिया था।उसे तो ऐसा लगने लगा था, मानो वह काँच की दीवार पर नहीं, बल्कि उसके हृदय की दीवार पर अपना सिर फोड़ रही हो। वह बार-बार चेष्टा कर रही थी कि मछली दीवार पर सिर फोड़ना छोड़ दे। मगर वह असफल रही। अंत में वह मछली मर गयी। तनिमा का हृदय शोक के आँसूओं से भीग गया। उसी दिन, भरी दुपहरी को जब एसटीडी का फुल चार्ज लगता था, बेटे का फ़ोन आया था, "माँ। मैं घर लौट आऊँगा, पापा को लेने भेजो।" "क्यों लौट आओगे? ऐसा क्या हो गया अचानक?" "मैं अपने घर में पढाई करके प्रवेश-परीक्षा दूंगा। यहाँ की पढाई मुझे बिल्कुल ही अच्छी नहीं लग रही है।" बेटे की इन बातों को सुनकर चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देने लगाथा तनिमा को।महेश के हाथ में रिसीवर देकर, वह बैठ गयी थी सोफे पर। कितनी दृढ़ता थी बेटे की इन बातों में! बिना कुछ तर्क-वितर्क किये महेश राजी हो गए थे और कहने लगे थे, "ठीक है, मैं आ रहा हूँ, तुम अपना सारा सामान बांध कर तैयार रखना।" सिर्फ सात दिनों के बाद ही बेटा लौट आया था स्वप्न-बाज़ार से। पांच-हज़ार रुपये के बदले में खरीद कर लाया था, स्वप्न विक्रेताओं के स्टांप लगा हुआ बैग और कुछ अभ्यास प्रश्न-पत्र, इतना ही। बेटे के आने के बाद घर में फिर से पहले जैसी चल-पहल लौट आई थी, पर तनिमा को हर-चीज पर चिडचिडाहट लग रही थी। बात-बात में वह वह बेटे
पर गुस्सा करने लगी थी। लेकिन महेश पूरी तरह शांत था, कहता था, "लौट कर आ गया तो आ गया, इसमें ऐसा क्या हो गया? उसमें इतना दुःखी होने की क्या बात है?" तनिमा धीरे-धीरे बेटे के पाँच-हज़ार वाले घाटे को भूलने लगी थी। जार के अन्दर मछलियाँ तैर रही थी। सिर्फ तैर ही नहीं रही थी, बल्कि एक दूसरे के पीछे-पीछे भाग खेल भी रही थी। इसी बीच, कुछ और मछलियाँ खरीद कर ले आया था बेटा, पास वाले शहर से।मरी हुई मछली, अब और तनिमा के हृदय के अंदर टक्कर नहीं मार रही थी। बेटे को लेकर अपने सपने बुनना छोड़ दिया था तनिमा ने। आकस्मिकतायें ही जीवन का गुरुत्वाकर्षण-बल है, जिससे जीवन बँधा हुआ है। तनिमा को उस दिन इस बात का अहसास हुआ, जिस दिन उसके बेटे ने प्रवेश-परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कर एक तकनीकी महाविद्यालय में दाखिला पा लिया था। हालांकि, मेडिकल की पढाई का सुयोग खो देने की वजह से बेटे के मन में कुछ दुःख जरुर था, पर अच्छी ब्रांच मिल जाने से दुःख के वह बादल भी शनैः-शनैः छँट गए थे। एक बार पुनः बेटे का घर छोड़ने की प्रस्तुति शुरू हो गयी थी। मन के अंदर व्याप्त था एक भय। बेटा बाहर में टिक पायेगा तो? आशा और आशंका लिए, महेश ने बेटे को छोड़ दिया था हॉस्टल में। अभी वाला हॉस्टल पहले वाले की तुलना में लाख गुना अच्छा था। गद्दी वाले बिस्तर, टेबल, कुर्सी,टीवी, टेलिफोन, एक्वागार्ड, इंटरनेट आदि सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थी इस हॉस्टल में। डर था तो बस रैगिंग का। घर छोड़ते वक्त तनिमा ने कहा था, "और ज्यादा तुमको घर में नहीं रख पायेंगे बेटा, जैसे भी करके वहां रहने की कोशिश करना।" बेटा बहुत खुश था, उसे अपनी एक मंजिल मिल गयी थी। कहने लगा था, "आप ऐसा क्यों कह रही हो? आप क्या अभी भी यही सोच रही हो कि मैं भुवनेश्वर में नहीं रह पाया तो क्या यहाँ भी नहीं रह पाऊँगा? यहाँ से भी घर लौट आऊँगा?" महेश बेटे को एक नये शहर के नये हॉस्टल में रख कर कहने लगा था, "हॉस्टल तो बहुत अच्छा है, पर वहां पढाई का बिल्कुल भी माहौल नहीं है। जब भी देखो, जहाँ भी देखो, चिल्ला-चिल्ली, हो-हल्ला, नहीं तो क्रिकेट खेलने में लगे रहते हैं बच्चे।" "इसका रूम-मेट कैसा है? कितने बच्चे रहते हैं रूम में?" महेश ने कहा था," एक रूम में तीन बच्चे रहते हैं। ज्यादा भीड़ हो जायेगी, सोच कर इसको कोई भी अपने साथ रखना नहीं चाहते थे। हॉस्टल वार्डन के कहने से उन रूम वालों ने इसे रख दिया है।" "बाद में मुश्किल नहीं होगी तो?" "मुश्किल कैसी?" "रैगिंग न हो, इसको मद्दे नजर रखते हुए नए लड़कों को एक नया ब्लाक दे दिया गया है। इस प्रकार से उनका पुराने सीनियर लड़कों से कोई संपर्क ही नहीं रहेगा। वैसे तो कॉलेज प्रबंधन भी रैगिंग न हो, इस बात को लेकर काफी जागरूक है।" यह सब बातें सुनकर आश्वस्त हुई थी तनिमा और भगवान का शुक्रिया अदा करने लगी थी। आकाश में काले-काले बादलों की घनघोर-घटा की तरह थी वह मछली, उन घटाओं के बीचोंबीच से चमकते हुए तारे की तरह था उसका शरीर। जार के तले में सोयी थी, जैसे एक नीरव तपस्वी सो रहा हो। दूसरी मछलियाँ तैरने में मग्न थीं। कभी पानी में गोल-गोल चक्कर लगाकर खेल रही थी, तो कभी रॉकेट की तरह नीचे से उपर की ओर तैर कर खेल रही थी। मगर काले कलूटे शरीर में चाँदी की पोशाक पहनी हुई वह मछली पता नहीं क्यों किस वैराग्य के कारण एकदम चुपचाप बैठी हुई थी। तनिमा आते-जाते उसी मछली को बार-बार देख रही थी। कभी-कभी तो जार के अन्दर, एक लकडी घुसाकर उस शांत पड़ी मछली को थोडा-बहुत हिला देती थी। वह मछली थोडी-सी हिलती थी, थोडी-सी आगे जाकर दूसरी जगह पर बैठ जाती थी। क्या कारण हो सकता है, इतनी उदास हो गयी वह मछली? आते समय क्या वह छोड़ आयी है अपने प्रेमी को? या क्या वह बिछुड़ गयी है अपने आत्मीय-जनों से? मछलियों को खरीदते समय, वह एक्वेरियम वाला लड़का कह रहा था, "मैडम, सभी वैराइटी का जोड़ा साथ-साथ ले जाइये।" "ऊहूं, जोड़े का क्या करना है?" "जोड़ी रखना अच्छा है न?" मुस्कराई थी तनिमा, उस लड़के का जवाब सुनकर, "मछली क्या आदमी है?" समुन्दर से लायी हुई वह जरीदार मछली शायद अकेली थी। इसलिए वह समुन्दर के बारे में जरुर सोच रही होगी। उस मछली की उदासीनता व अकेलापन तनिमा को चिंताग्रस्त कर देता था। हृदय के अन्दर एक अनोखे हाहाकार को अनुभव कर रही थी वह। मानो कोसों-कोसों दूर तक फैले हुए रेगिस्तान में वह अकेली हो। बेटा नये परिवेश में था। इसलिए तनिमा रोज फ़ोन कर उसकी खबर ले लेती थी। उस दिन अकस्मात् बेटे का फ़ोन आया, "माँ, आज एक झमेला हो गया है।" "झमेला, कैसा झमेला?" "हम अपने रूम में हैंगर लगा रहे थे, कि पास के रूम के लड़कों ने आकर हैंगर उखाड़कर फेंक दिये। " "ऐसा क्यों किया?" तनिमा ने पूछा। "हम कील ठोककर हैंगर लगा रहे थे तो उन लोगों की पढाई में बाधा पहुंची। बस। करना क्या था! आकर हमारे
हैंगर उखाड़ दिये तथा मेरे रूम के एक लड़के को मारा पीटा भी उन लोगों ने।" "मार-पीट क्यों कर रहे थे?" "उन लड़कों ने हमारे वेंटिलेटर के पास टेप-रिकॉर्डर लगाकर तेज आवाज़ में गाना चालू कर दिए थे। जोर-जोर से अपने रूम में नाच-गाना कर रहे थे।" "वार्डन-साहब को क्यों नहीं बतलाया?" तनिमा के इन उपदेशों का प्रभाव बेटे के लिए बुरा साबित हुआ। बेटे को डरपोक, शर्मीला लड़का सोचकर सब उसे चिढाने लगते थे। जबकि कभी मार खाने वाले अपने रूम के उस लड़के को उन बदमाश लड़कों ने अपना दोस्त बना दिए थे। बेटा एकदम अकेले इन सब लड़कों के साथ मानसिक लड़ाई करते करते बुरी तरह से थक गया था। तनिमा को याद आ गया था बेटा का बचपन, जब वह नर्सरी में पढता था, उससे बड़े कुछ चंचल लड़कों ने उसके शर्ट के अन्दर तितली घुसा दी थी। बेटा रो-रोकर थक गया था। वह पागल की तरह दुःखी दिखाई दे रहा था। तब तो तनिमा ने प्रिंसिपल के पास जाकर इस बात की शिकायत की थी। लेकिन अब बेटे की इस उम्र में किसके पास जायेगी वह? एकदिन और दुःखी स्वर से बेटे ने फ़ोन किया था, "मैं कैसे यहाँ चार साल पढूँगा माँ?" "क्यों, क्या हुआ?" "ये लड़के तो जातिवाद व प्रान्तीयवाद से ग्रसित हैं। बी।जे।बी। कॉलेज से आया हुआ लड़का यहाँ सभी का नेता है। वह जैसा बोलता है सब लोग उसीका अनुसरण करते हैं। वह जहाँ जाने के लिए कहेगा, सभी लोग वहाँ जायेंगे। एक ही साथ खायेंगे डाइनिंग हॉल में, तो एक ही साथ बाज़ार घूमने जायेंगे।" "इसमें क्या दिक्कत है? इससे तो उल्टा भाईचारा ही बढ़ता है।" "ओह! आपको तो कुछ भी समझ में नहीं आता है। ये लड़के बहुत ही अभद्र हैं।बंगाली लड़कों को देख कर ओडिया में अश्लील-अश्लील गालियाँ देते हैं।लड़कियों के हॉस्टल की तरफ दर्पण दिखाकर सूरज की किरणें डालते हैं। लड़कियों के बारे में फिजूल की बातें करते हैं।" "मुझे यह सब चीजें अच्छी नहीं लगती हैं। वे लोग जहाँ भी जाएँ, मेरा मन नहीं होने से भी मैं क्यों इनके पीछे-पीछे जाऊँगा?" "इतने सारे लड़के क्या इतने बड़े समूह में रह सकेंगे कभी? देखना बहुत ही जल्द यह समूह चार-पांच भागों में बँट जायेगा।" "कुछ नहीं होगा," चिढ कर बोला था बेटा। बेटे के स्वभाव को वह बचपन से जानती थी। वह अपना सिर कलम कर लेना मंजूर कर लेगा मगर किसीके सामने अपना सिर झुकाना पसंद नहीं करेगा। इसलिए वे सब परिस्थितियाँ, उसके स्वाभिमान को रह-रहकर ठेस पहुंचा रही थी। फिर भी वह समझाने का प्रयास करती थी, " जब सब लड़के उसकी बात को मान लेते हैं, तो तुम क्यों नहीं?" "आप कैसी बात कर रही हो? कैसे मान लूँगा मैं? ये लोग जो भी बात बोलते हैं, मैं सुनता हूँ।मगर जब मैं कुछ बोलता हूँ, तो यह लोग ऐसा नाटक करते हैं, जैसे मैंने कुछ बोला ही नहीं और उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। कभी-कभी तो मेरी बात सुनकर ठहाका मार कर हँसते हैं, मानो मैं उनके सामने एक जोकर खडा हूँ।" "बंगाली तथा दूसरे राज्य के लड़के क्या उनके साथ रहते हैं?" पूछा था तनिमा ने। "ऐसे तो वे अलग घूमते हैं। कभी-कभी मैं भी उनके साथ घूमने जाता हूँ।और हम स्टेशन के पास वाली चाय की दूकान से नींबू वाली चाय भी पीते हैं।" "तुमने चाय पीना शुरू कर दी?" "हाँ, हाँ, कभी-कभार दोस्तों के साथ पी लेता हूँ।" "तब तो सब ठीक ही है। और परेशानी किस चीज की?" "उन बदमाश लड़कों के डर से ये बंगाली लड़के भी मुझे साथ ले जाना नहीं चाहते हैं।" "तब तुम अकेले ही घूमा करो।" "क्यों ऐसे बोलती हो?" बेटे ने गुस्से से फ़ोन काट दिया था। विगत दो दिनों से तनिमा ने मछलियों के जार का पानी नहीं बदला था। जार का पानी मैला होकर धुंधला-सा दिखने लगा था। पानी बदलते समय उसने देखा, कि काले शरीर पर रजत-कणों के छिडकाव हुआ हो जैसे रंग वाली वह मछली, जो उदास और अकेली रहती थी, मर गयी है। न जाने कैसे उसके मुहं से अचानक निकली वह बात, "देख रहे हो, एक मछली मर गयी है।" घर-परिवार में मन नहीं लग रहा था महेश और तनिमा का। जब इकट्ठे बैठते थे तो केवल बेटे की ही बातें करते रहते थे। जहाँ कहीं होने से भी, मन हमेशा अटका रहता था टेलीफोन के पास। दिन में तीन-चार बार बेटा उनको, तो वे भी बेटे को फ़ोन कर लिया करते थे। फ़ोन के माध्यम से वे कभी अपने मन की व्यथा, तो कभी आश्वासन,सांत्वना, आश्रय, तो कभी अपनेपन की बातें करते थे। जिस दिन जार के अन्दर वह जरीदार चमकीली मछली मरी, उस दिन बेटे क कोई फ़ोन नहीं आया था। इधर वह उस मछली के मर जाने से उदास अनुभव कर रही थी, तो उधर बेटे का फ़ोन नहीं आने से अपने को असहाय महसूस करने लगी थी। आखिरकार उसने खुद ही अपनी तरफ से बेटे को फ़ोन लगाया ।फ़ोन पर उसके किसी दोस्त ने बताया कि वह हॉस्टल के रूम में नहीं था। तनिमा ने उस दिन कम से कम दस बार फ़ोन लगाया होगा, पर बेटे से कोई बात नहीं हो पायी थी। बेटे ने कहीं किसी से झमेला न मोल लिया हो, या किसी भ
ी तरह की समस्याओं से न घिर गया हो। पर किस को पूछेगी यह बात? उन लोगों से, जिन्होंने कभी बेटे की तरफ प्यार भरा दोस्ती का हाथ भी कभी नहीं बढाया? जब रात को आठ बजने जा रहे थे, तभी अपने बेटे के साथ बात कर पायी थी, "कहाँ गया था, बेटा? दिन-भर तुझको खोजते खोजते थक चुकी हूँ।" उस तरफ से बेटा ने कहा, " तुम फ़ोन रखो, बाहर जाकर फ़ोन करता हूँ।" इधर घर में बेटी रूठ कर बैठी थी। उसकी मेट्रिक की परीक्षा में मात्र पंद्रह दिन बाकी थे। वह यूरोपीय सामंतवाद पर जानना चाहती थी।, मगर तनिमा उसे अपनी व्यग्रता के कारण उसे पढा नहीं पा रही थी। खुद को दोषी अनुभव कर रही थी वह। बेटी को बोली थी। "तुम पढाई करो, मेरी प्यारी बच्ची!। मैं भैया के साथ बात कर लेने के बाद तुमको वह पूरा का पूरा अध्याय पढ़ा दूँगी।" "तुम्हारा ध्यान तो हर समय भाई की तरफ ही रहता है, मेरी तरफ कभी भी नहीं।" "क्या बात करती हो? भाई का दुःख क्या हमारा दुःख नहीं है?" फिर और एकबार टेलीफोन की घंटी बजने लगी। तुंरत रिसीवर उठा लिया था तनिमा ने। उधर से फिर बेटे की आवाज़ आयी, "माँ ! मैं थक चुका हूँ, आत्म-हत्या करना चाहता हूँ।" "क्यों, बेटा?"वह अनुभव कर पा रही थी, वहां बेटा फूट-फूट कर रो रहा होगा, यहाँ तनिमा का दिल दुःख से भीग रहा था। "आज दिन-भर मैं साइकिल पर घूम रहा था।हॉस्टल में एक पल भी रुकने का मन नहीं कर रहा था। घर तो नहीं आ पाऊँगा, क्योंकि आप सब दुःखी हो जायेंगे। और किसके पास जाऊँगा मैं इस अनजान शहर में? कौन मेरी जान-पहचान का है यहाँ?" "हॉस्टल मैं तुम्हे क्या कष्ट हो रहा है?" तनिमा ने अपने बेटे से पूछा था, "तुम पहले बाहर कोई किराये का रूम लेकर रहना चाहते थे न? कोई कह रहा था की तुम्हारे कई दोस्त बाहर किराये के मकान में रहकर पढाई करते हैं।तुम भी बाहर रूम लेना चाहोगे क्या? उन लोगों से पूछो जो बाहर किराये के मकान में रहते है, क्या तुम्हे अपने साथ रखेंगे?" बेटे को जैसे एक नया रास्ता मिल गया। कहने लगा, "हाँ, उन लोगों से मेरी बातचीत हुई थी। वे राजी भी हैं। पर आप लोग दुःखी हो जाओगे, क्योंकि हॉस्टल की साल-भर की फीस कॉलेज वाले पहले से ही एडवांस ले चुके हैं।" "उस बात को छोडो, कम से कम तुम शांति से रह पाओगे, वही हमारे लिए बहुत है।" दूसरे ही दिन बेटा हॉस्टल छोड़कर चला गया था बाहर रहने के लिए। तनिमा ने न तो बेटा का हॉस्टल देखा था न ही उसका हॉस्टल से बाहर का वह मकान। वह तो केवल इतना ही चाहती थी कि बेटा जहाँ भी रहे सुख-शांति से रहे। बाहर का वह मकान शहर के अंतिम छोर पर नेशनल हाई-वे के पास था।किसी व्यक्ति ने अपने फार्म-हाऊस के लिए बहुत ही बड़ी जगह घेर ली थी। उसमें एक छोटा-मोटा बगीचा भी बनाया था। इस सुनसान जगह में रहने को चला गया था बेटा, पता नहीं किस ख़ुशी से? बाहर रहने चले जाने के एकदिन बाद फिर उसका फ़ोन आया था, "माँ ! मैं अच्छा हूँ, मेरे लिए चिंता मत करना।आप मेरी मछलियों का ध्यान जरुर रखना। आपकी लापरवाही वजह से अब तक मेरी तीन मछलियाँ मर चुकी है।बीच-बीच में पानी जरुर बदलते रहना।" बेटे की इन बातों को सुन कर तनिमा बाज़ार से खरीद कर लायी थी एक बड़ा-सा जार। मछलियों का यह था अपना नया-नया घर। मछलियाँ अपनी पूँछ हिला-हिलाकर रंगोली बनाती थीं अपने नए घर में। अंजलि-भर रंगीन सपनों जैसी थी मानो उनकी गति। तनिमा इस बार ध्यान से निहार रही थी, रंगीन मछलियों के बीच एक सफ़ेद मछली की हरकतों को। एक विधवा के नीरस जीवन जैसा वह मान ली थी अपने जीवन को। इस मछली को जब बेटे ने खरीदा था, तब भी तनिमा को वह बिल्कुल पसंद नहीं आया था। कोई सपना कभी सफ़ेद होता है क्या? सपने तो सदैव रंगीन होते हैं। फिर भी वह मछली दाना खा रही थी, तैर रही थी, उस प्रकार मानो किसी तालाब के किनारे कोई एक विधवा युवती नहा रही हो, कई नयी नवेली गाँव-वधुओं के बीच में। चूँकि वह सुन्दर नहीं दिखाई दे रही थी, इसलिए तनिमा उस मछली को कभी-कभार उस जार से निकाल के एक दूसरे जार में रख देती थी। अकेली रहकर शायद दुःखी हो जायेगी, यही सोचकर फिर उसे पहले वाले जार में उन सब मछलियों के झुँड में छोड़ देती थी। इंजीनियरिंग कॉलेज में बेटा बिल्कुल ही एक नया ब्रांच लेकर पढ़ रहा था। लोग कहते थे भविष्य में इस कोर्स को पढने वाले लड़कों की भारी माँग होगी। नौकरी लगने में कोई दिक्कत नहीं होगी। सपने रंगीन मछलियों की तरह तैर रहे थे तनिमा के दिलमें, अपनी अपनी पूंछें हिलाकर। भले ही थोड़े-बहुत आश्वस्त हो चुकी थी तनिमा अभी तक अपने बेटे के भविष्य को लेकर। पर क्या इस उम्र में कोई कभी शान्ति से रह पाया है? बेटा जिस सुनसान जगह पर रहता है, सोचकर तनिमा का मन बहुत बेचैन हो जाता था।बीच-बीच में वहां फ़ोन करके वह अपने बेटे की सुध-बुध ले लेती थी, और कभी-कभी बेटा भी फ़ोन कर लेता था अपने कॉलेज से, "सुबह-सुबह मन क्यों बड़ा ही
उदास हो जाता है? माँ ! रात को भी बहुत डर लगता है। मगर चलेगा। " टेबल पोंछते समय नौकरानी ने देखा कि वह सफ़ेद मछली मरी पड़ी थी। तनिमा उस मछली को प्यार नहीं करती थी, इसलिए वह मछली मर गयी क्या? मछली की मृत्यु से उसका मन बहुत दुःखी हो गया था। देखो ! जार के अन्दर से वह सफ़ेद रंग कहाँ खो गया है? ऐसा लगता है जैसे कोई आततायी मानो छुप कर बीच-बीच में रंगों को चुरा लेता हो। मछलियाँ रोज एक-एककर मर जाती हो, ऐसी बात नहीं थी। आठ-दस दिन के अंतराल में एक-एककर मछलियों की अचानक मृत्यु हो जाना एक पहलू बन गया था क्या क्या कारण हो सकते थे? तनिमा को तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बेटी बोली थी, "लगता है आज भी भईया के पास से कोई बुरी खबर जरूर आएगी।" जब-जब कोई मछली मरती थी, तब-तब बेटे के के वहां से कोई न कोई दुःख भरी खबर अवश्य आती थी। यह बात शत-प्रतिशत सत्य थी। बड़ा ही डर लग रहा था उसको, क्या हुआ होगा कौन जाने? फ़ोन करके यह बताना उसके लिए संभव भी नहीं था। तनिमा का मन बहुत ही उदास हो गया था। वह ठीक से अपना खाना भी नहीं खा पाई थी। हे भगवान्! मेरे बेटे का साथ कोई दुःखद घटना न घटे। दिन ढल कर रात हो गयी थी,। मन धीरे-धीरे शांत होने लगा था। रात दस बजे अचानक फ़ोन आया। इस बार बेटे ने फ़ोन नहीं किया था, बल्कि बेटे के एक अध्यापक ने फ़ोन किया था, कहने लगे थे, "आप के बेटे का एक्सीडेंट हो गया है आज शाम को चार बजे।" जोर-जोर से काँपने लगी थी तनिमा, टेलीफोन रिसीवर महेश को पकडा कर वह वहीँ पर बैठ गयी थी अपने सिर पर हाथ रख कर। बेटे की दायें हाथ की अनामिका ऊँगली कट गयी थी। बेटे को पास के हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। उसी रात महेश निकल गया था बेटे के पास। उसके हाथ की चोट लगी अंगुली का ऑपरेशन हुआ था और दो-चार दिन के बाद महेश अपने बेटे को लेकर घर लौट आया था। कभी भी अंध-विश्वासी नहीं थी तनिमा। लेकिन आज वह यह सोचने को मजबूर थी, जरूर न जरूर, मछलियों के मृत्यु के साथ-साथ बेटे के बुरे दिनों का कुछ न कुछ सम्बन्ध होगा।उसने अपने मन में ही मछली और बेटे का भविष्य को जोड़ कर ताना-बाना बुन ली थी। बेटा ढाई महीने तक घर में रहा। चोट लगी अँगुली अब ठीक हो कर पहले जैसी दिखने लगी थी। ड़ॉक्टरों ने अपनी कुशलता का परिचय दिया था। बेटा ने बायें हाथ से खाने का भी अभ्यास कर लिया था। मगर इस समय तक बेटे का प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा सिर पर आ चुकी थी। बेटा कॉलेज जाकर बायें हाथ से परीक्षा का फॉर्म भी भर कर चला आया था। बस परीक्षा के लिए चंद दिन ही बाकी थे। इसी दौरान वह मन लगाकर पढाई भी नही कर पाया था एक्सीडेंट के कारण, इसलिए खूब निराश भी था। कहने लगा था, "मुझे लग रहा है की इस बार मैं पास नहीं हो पाऊँगा। मेरे तो एक नहीं कई पेपर बेक रह जायेंगे।" इन दिनों में तनिमा और उसका बेटा आपस में और अधिक घुल-मिल गए थे। बातों-बातों में तनिमा बेटे को उसकी सुविधा-असुविधा के बारे में पूछती रहती थी। बेटे के जाने के बाद सारी रात सो नहीं पायी थी वह।उसे लग रहा था जैसे कुछ न कुछ घट कर ही रहेगा। तनिमा का हृदय कांप उठा था। जितना भी उनके साथ घट रहा है, क्या कम था ! शहर के बाहर उस अकेले घर के बारे में सोचने से तनिमा की चिंताएँ और अधिक बढ़ जाती थी। यहाँ रहते हुए बेटे ने एक बार कहा था, "जब वहाँ खाना बनाने वाला कुक नहीं आता है, तो हम लोग अपने हाथों से खाना बनाते हैं। मुझे तो खाना बनाना नहीं आता है, इसलिए हमारे उस 'मेस' का सबसे सीनियर लड़का मुझे डाँटता और गाली देता है। कभी तो सीखा नहीं, कैसे बनाऊं? एक दिन जब चाय बनाने गया था, मैंने अपने हाथ जला लिए थे। इसलिए अधिकतर दिन मुझे बाज़ार से सब्जी और आटा-चावल जैसी चीजें लाने के लिए ही भेजा जाता है।" दुर्घटना-ग्रस्त निर्बल हाथों से किस प्रकार वह भारी सामान का थैला उठाकर लाता होगा, यह सोचकर तनिमा अस्थिर-सी हो जाती थी। आधी रात में ही उसकी नींद टूट गयी थी। ज्यों ही उसकी नींद खुली, त्योंही वह महेश को जगाने का सोच रही थी, लेकिन उससे पहले वह आदतन मछलियों के जार के पास आ गयी।और देखने लगी कि जार में मछलियाँ सब कुशल है तो। छोटे से डिब्बे से मछलियों का दाना निकाल कर जार में डालने के बाद फिर वह अपने बिस्तर पर सोने के लिए चली गयी थी। यह बात सही है, सुबह से उसे पिछले रात जैसा भारी भारी नहीं लग रहा था। बेटा अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुँच कर फ़ोन किया था, यह कहकर कि वह कुशल-क्षेम से पहुँच गया है। सुबह चाय पीने के समय तनिमा बोली थी, "देख रहे हो, विगत सात-आठ महीनों से इस टेलीफोन ने किस प्रकार हमारी जिन्दगी पर आधिपत्य जमा लिया है? टेलीफोन के बिना तो एक पल भी जिन्दगी कट नहीं सकती। कभी भी हमने ऐसी कल्पना भी नहीं की थी, कि हमारे इतने ख़राब दिन भी आयेंगे।" "उम्र बढ़ने के साथ साथ चिंताएं यूँ ही बढ़ जाती हैं।" अखबार पढ़
ते-पढ़ते महेश ने कहा था। दोपहर को टेलीफोन की एक लम्बी घंटी सुनकर दौड़ आई थी तनिमा। शहर के बाहर वाली मकान में रहने के बाद कभी भी असमय पर बेटे ने फ़ोन नहीं किया था। क्योंकि फ़ोन करने के लिए उसे दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। बेटा या तो चुंगी नाका के पास जाकर फ़ोन करता था या फिर अपने महाविद्यालय के अन्दर एस।टी।डी बूथ से। बेटा कहने लगा था, "माँ, मैं बहुत बड़ी मुश्किल में हूँ अभी। पापा को तुंरत भेज सकती हो?" तनिमा बुरी तरह से डर गयी थी। पहले से ही तय हुआ था कि बेटे के जाते समय साथ में महेश भी जायेगा, क्योंकि बेटा का दाहिना हाथ दुर्घटनाग्रस्त होकर कमजोर हो गया था, इसलिए अपने साजो-सामान को उठा कर प्लैटफॉर्म तक जाना उसके लिए कठिन होगा। पर कुछ भी तकलीफ नहीं होगी, कहकर बेटा अकेले ही चला गया था।सुबह पहुँच कर उसने फ़ोन भी किया था, यह कहते हुए कि वह आराम से पहुँच गया है। और उसे किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई थी। "क्या हुआ है? पहले बताओ तो, पापा को जरूर भेजूंगी, मगर समस्या क्या है, जानने से तो?" "जब मैं अपने पुराने वाले घर पहुँचा तो देखा कि वहां ताला लगा हुआ था। जब केयर टेकर को इस बारे में पूछा तो उसने बताया कि मेरे साथियों ने इस घर को छोड़कर एक दूसरा घर किराये पर ले लिया है। वह घर बाज़ार की तरफ पड़ता है। बड़ी मशक्कत के बाद मुझे उस घर का पता चला। लेकिन जैसे ही मैं वहां उनके पास पहुँचा, तो उन लोगों ने मेरा सारा पैसा ले लिया।" "दो महीने का बकाया भाडा, बिजली का बिल आदि।" "इसको तो देना ही था।" "कौन मना कर रहा है देने के लिए? मगर मेरा खाट बिछाने के लिए जगह रखनी चाहिए थी उनको, फिर क्यों नहीं रखी? अपनी-अपनी खटिया तो बिछा चुके हैं, मगर मेरे लिए बिल्कुल जगह नहीं रखी है। मेरा बक्सें और कपडों को एक कोने में पटक दिए हैं।" "कैसी अजीब बात है? इन लोगों ने रहने वाले सदस्यों के हिसाब से घर नहीं लिया क्या? क्या वह घर बहुत ही छोटा है?" "नहीं, नहीं, घर छोटा नहीं है। इन लोगों ने दो अन्य लड़कों को ला कर रखा है उस घर में।" "तू तो उनका पुराना दोस्त था न? तेरे लिए जगह रखना उचित नहीं था क्या? तेरे साथ इतनी बड़ी दुर्घटना हुई, मानवीय दृष्टिकोण से भी तो तुझे अपने साथ रखना चाहिए था।क्या बोल रहे हैं वे लोग?" "बोल रहे हैं तू तो दो-ढाई महीने अपने घर रह गया था।हमारे लिए उस घर का किराया देना व मेस चलाना बहुत मुश्किल हो गया था। अतः दो अन्य दोस्तों को हम बुला लाये। यहाँ रखनेके लिए। उन्होंने तो दो महीने के किराये का एडवांस पैसा दे दिया है।" "यह तो ठीक है,परन्तु तेरे लिए उन्होंने जगह क्यों नहीं रखी? इस बारे में उनसे क्यों नहीं पूछा?" "मुझे जो- जो पूछना था मैं पूछ चूका हूँ। मुझे तो ऐसा लग रहा है यह पढाई मेरे भाग्य में नहीं है। हमारे शहर में बी।एस।सी पढना ही मेरे लिए बेहतर है।" "तू हमेशा इतना जल्दी क्यों टूट जाता है? अच्छा, मैं पापा को तुम्हारे पास भेज रही हूँ। वह कल सुबह पहुंचकर तुम्हारे रहने का कोई प्रबंध करके आयेंगे। " तनिमा सोच रही थी, क्या सचमुच उसका बेटा पढाई कर पायेगा? तुंरत ही ऑफिस फ़ोन करके सारी बातें बता दी थी महेश को। मगर महेश दृढ़-संकल्प के साथ बोला था, "ठीक है मैं जा रहा हूँ, कुछ स्थायी व्यवस्था करके ही आऊँगा। " उसी रात को ट्रेन पकड़ कर चला गयाथा महेश बेटे के पास। तनिमा का मन तरह-तरह की आशंकाओं से डूबा जा रहा था। तुंरत ही वह मछलियों के जार के पास आगयी थी, यह सोचते हुए, जार में सब कुछ ठीक-ठाक है तो? और जार में सिर्फ तीन मछलियाँ ही जिंदा बची थी। वे भी बिना युग्म-वाली । एक लाल मछली, तो दूसरी लाल-नीला सम्मिश्रित रंग वाली मछली, तो तीसरी क्रोकोडाइल मछली। जार के अन्दर तीन-चार दाना डाली थी तनिमा, ताकि मछलियाँ जिंदा रहे। रात को ठीक से नींद भी नहीं हुई थी तनिमा की। बहुत देर रात बीते आँखों में नींद उतरी थी, यहाँ तक कि शायद भोर होने वाली होगी। नींद से उठते ही वह उस जार के पास गयी थी, देखा था कि उस जार में वे तीनों मछलियाँ गोल-गोल चक्कर काट कर तैर रही थीं। चूँकि महेश बेटे के पास गया हुआ था,इसलिए बेटे के बारे में इतनी चिंता नहीं थी। मगर सुबह होने पर भी महेश का फ़ोन नहीं आया था। वे ठीक से पहुंचे भी या नहीं, तनिमा नहीं जान पायी थी। पहले तो ऐसा कभी भी नहीं हुआ था। जबभी बाहर कहीं जाते थे, तो अपनी कुशलता का समाचार पहुँचते ही दे देते थे। पहला पहर ढल चुका था। अब सूरज सिर ऊपर था। तब भी बाप-बेटे दोनों में से, किसीने फ़ोन नहीं किया था। उस दिन तो खाना बनाने का भी मन नहीं कर रहा था तनिमा का। माँ बेटी दोनों ब्रेड खाकर ही रह गयी थीं। न किसी अखबार में, न ही किसी पत्र-पत्रिका में और न ही टीवी देखने में उनका मन नहीं लग रहा था। तनिमा बेटी को एक ही सवाल पूछ-पूछकर बोर कर रही थी। थक-हारकर वह बिस्तर
पर लेटे-लेटे इधर-उधर सोच-विचार में पड़ गयी थी। तभी किसी का फ़ोन आया, घर की निस्तब्धता को चीर कर। फ़ोन था महेश का।कुछ रूखे स्वर में बोली थी तनिमा, "सुबह से अभी तक एक बार भी फ़ोन नहीं किया? मेरी तो जान ही निकल जा रही थी।" "अभी तक बेटे के रहने की कुछ व्यवस्था नहीं हो पायी है। सोच रहा था कुछ व्यवस्था होने के बाद ही फ़ोन करूंगा।" "उसके पुराने दोस्तों के पास गए थे?" "हाँ, गया था। यहाँ पर सचमुच जगह नहीं है।" "तुम क्यों नहीं बोले, कि बाहर के दूसरे लड़कों को अपने साथ रख लिये हैं,फिर उसको क्यों नहीं रखा?" "उनके साथ झगडा-झंझट करूँगा क्या? या कोई नयी व्यवस्था करूँगा?" चिढ गया था महेश, "बेटा फिरसे पहले वाले हॉस्टल में जाना चाहता था। मैं उसको वहां भी लेकर गया था। वहां भी उसको रखने के लिए कोई राजी नहीं हुए थे। वार्डन से भी अनुरोध किया था। उसने बेटे को बुलाकर हॉस्टल में लौट आने का कारण भी पूछा था। कहने लगा था, कि तू क्या सोच रहा है, इन तीन महीनों में यहाँ सब कुछ बदल गया होगा? तू बाहर घर लेकर रहता था पढाई करने के लिए, तो अब वहीँ रह कर पढाई कर।" थोडी देर रुक कर फिर महेश बोलने लगा था, "मैं बेटे को लेकर प्रिंसिपल के पास भी गया था। लेकिन प्रिंसिपल के पास पुराने हॉस्टल के सभी लड़के पहुँच गए थे। वहां उन लड़कों ने मुझसे कहा था, अंकल, देखिये इसके हॉस्टल छोड़कर चले जाने के बाद, एक दूसरे लड़के ने भी उसका अनुसरण करते हुए हॉस्टल छोड़ दिया था। उनकी वजह से हमारा हॉस्टल बदनाम हो गया है। अब यह फिरसे क्यों लौटना चाहता है? जो लड़के इसको फुसलाकर ले गए थे, इसके एक्सीडेंट के बाद तो उनको इसे अपने साथ रखना नहीं चाहिए था?" तनिमा के धीरज का बाँध टूट रहा था। वह अधीर हो कर बोलने लगी थी, "बोलो न, आखिर में हुआ क्या?" महेश कहने लगा था, "प्रिंसिपल साहेब ने कहा कि हॉस्टल में जगह खाली है तो रख दीजिये बेटे को।" "तुम बेटे के साथ बात करना चाहती हो क्या?" बेटे को क्या सांत्वना देती तनिमा। उसका शरीर पूरी तरह से काँप रहा था। उसके बेटे को कितनी तकलीफ हो रही होगी । इधर परीक्षाएँ भी सिर पर हैं, उधर इस मानसिक हालत में कैसे पढाई कर पायेगा वह। आज तक महेश के ऊपर तनिमा का पूरा भरोसा था। मगर अब ऐसा लग रहा था मानो उसके भरोसे व आशाओं का वह बाँध टूटता ही जा रहा हो। तनिमा बेटे को पूछने लगी थी, "बेटा खाना खाये?" "हाँ," उदास स्वर से बोला था बेटा। "अभी तक मेरे रहने की कोई व्यवस्था नहीं हो पायी है, माँ। यही सोचकर घर से निकला था कि जितना भी कष्ट सहना पडेगा, सह लूंगा। मगर यहाँ आकर देखा, मेरे रहने के लिए तो थोडी-सी मिट्टी भी नसीब नहीं है। एक साल होने वाला है, मुझे कहीं भी पाँव पसारने के लिए एक जगह नहीं मिल पाई है।" तनिमा ने कल्पना कर ली थी कि बेटा दीवार का सहारा लिए हुए खडा है,एक पाँव जमीन पर रखा है तो दूसरा पाँव घुटनों से पीछे मोड़कर दीवार से सटाकर खडा हुआ है और उसको घेर कर खड़े हैं बहुत सारे लड़के। उसको अपने प्रश्न-बाणों से घायल कर रहे हैं बार-बार। और वह खडा है एक कुख्यात अपराधी की तरह सिर झुकाकर। अपने दूसरे मोडे हुए पावँ को ज़मीन पर जैसे रखने का साहस भी नहीं जुटा पा रहा था वह।रिसीवर रख कर चुपचाप बैठ गयी थी तनिमा। "क्या हुआ माँ?" बेटी ने पूछा था,"भईया सकुशल हैं तो? जानती हो, जार में केवल दो मछलियाँ ही हैं।" "नहीं,नहीं, तीन मछलियाँ थीं।" तनिमा बोली थी। "नहीं, मैं तो दो मछलियों को देख कर आ रही हूँ।" "मैंने सुबह देखा था तो जार में तीन मछलियाँ थीं।एक कहाँ चली गयी?" तुंरत ही जार के पास चली आयी तनिमा। कह रही थी, "सचमुच लाल-नीले रंग की मछली कहीं पर भी दिखाई नहीं दे रही है, कब मर गयी? तुमने छुपा कर फेंक तो नहीं दिया?" बेटी चिढ गयी थी, "आप क्या बोल रही हो? नौकरानी ने तो कहीं नहीं ले लिया होगा?" "क्या बात कर रही हो? इतने दिनों से काम कर रही है वह, अभी तक तो कोई भी चीज नहीं ली,आज ले ली? कैसे हो सकता है? फिर वह मछली उसके किस काम आयेगी?" इससे पहले तो मछलियाँ मर जाया करती थीं,खोया नहीं करती थीं।शायद हो सकता है,सुबह-सुबह, मछली के जार को देखने में उसे कोई भ्रम हुआ हो। मन चिंताओं के बढ़ते बोझ से फिर भारी हो गया था। बेटा और मछली, मछली और बेटा।जैसे कि तनिमा की दुनिया में इसके अलावा कुछ और घटित ही नहीं होता हो। बेटी चिल्लाई थी, "माँ ! देखो,देखो, वह मछली टेबल के नीचे गिरी पड़ी है।" तनिमा ने सावधानी से देखा था उस मछली को। आस-पास कुछ चीटियाँ भी लग गयी थी। जार के अन्दर वह मछली जिस रंगीन सपने की तरह दिख रही थी, उसकी लाश वैसी नहीं दिख रही थी। मछली को पलटकर, तिरछी कर देखने से वह पूरी तरह से निस्तेज नजर आ रही थी। तनिमा को याद हो आयी, उस दिन की स्मृति जिस दिन वह मछली जार में से कूद कर टेबल के ऊपर गिरी थी, मगर वह मछली अब इतनी दू
र कैसे चली गयी?ऐसा क्या कष्ट हो रहा था? जो उसने जार में से कूद कर जमीन पर आत्महत्या कर ली । उसी समय तनिमा को अपने बेटे की याद हो आयी, "माँ, क्यों मेरे पाँव के नीचे थोडी-सी जमीन भी नसीब नहीं होती?" तनिमा घर के अन्दर से एक पोलिथीन की थैली लायी, उसमें भरा हुआ था कुछ स्वच्छ पानी। जार के अन्दर बची हुई दो मछलियों को निकाल कर रखी थी उसमें, और बेटी से कहने लगी, "तुम ट्यूशन जा रही हो, उसको ले जा, आस-पास के किसी नदी-नाले में छोड़ देना, बेटी।" बेटी विस्मित हो कर देख रही थी। कुछ भी विरोध नहीं किया था उसने। तनिमा मन ही मन कह रही थी- "तुम्हारे लिए मेरे पास कोई समुन्दर नहीं है। हे मेरे सपनो! तुमको मैं आज अब अपने से विदा कर रही हूँ, जाओ, जहाँ भी तुम्हारा मन लगे, वहीँ जाकर तैरने लगो, इधर-उधर।"
कहानी की चटोर पाठक के रूप में अपनी पहली पहचान बनाती हूँ तो हमेशा की तरह धप्प से एक सवाल टपक उठता है - 'क्यों? कहानियों की ही पाठक क्यों? साहित्य की अन्य विधाओं की क्यों नहीं? मसलन कविता?' लेकिन संपादकीय आग्रह के कारण हर बार की तरह इस बार मैं सवाल को परे ठेल कर मुँह ढाँपकर सोने की स्थिति में नहीं हूँ। लगता है, अलिफ-लैला और तोता-मैना के किस्सों से होते हुए मुझे अरेबियन नाइट्स, ईसप की कहानियों, पंचतंत्र और जातक कथाओं के साथ-साथ सिंदबाद जहाजी और बहादुर बलराज के साथ अपनी वीरता का परिचय देते हुए सारे समंदरों और पहाड़ों को लाँघ कर किसी गुफा में आराम फरमाते सटीक जवाब को ढूँढ़ कर लाना ही होगा। शायद भारत या ग्रीक कथाओं के देवी-देवता अपनी चमत्कारी मुद्राओं के साथ मेरी मदद को बैकुंठ से नीचे उतर ही आएँ। मैं कोलंबस की तरह फेंटा कस कर तैयार हूँ। जहाजियों, रसद और अन्य जरूरी सामानों के साथ मेरे हाथ में यात्रा का अनुमानित रूट-मैप है और हौसलों में 'इंडिया' को खोज निकालने का दमकता विश्वास। भीषण समुद्र से क्या डरना! वह तो अपने अकेलेपन को तोड़ने के लिए रचा गया खोखला शोर है, या उग्र लहरों के हाथ भेजा गया निमंत्रण-पत्र। फिर मेरी स्मृतियों में एक बच्चे के साथ समुद्र की रौरव लहरों और खौफनाक शार्क मछलियों से दो-दो हाथ कर सकुशल तट पर लौटता बूढ़ा मछेरा भी तो है। मैं दूने वेग से अपने विश्वास को दोहराने लगी हूँ कि जब तक प्राणों में हौसला है, और हौसले में लकदक आत्मविश्वास - असंभव कुछ भी नहीं। अरे! मैं चिहुँक उठती हूँ। जवाब तो यहीं मौजूद है, मेरे आसपास! टप से टपके 'गर्म' जामुन की तरह नहीं, किसी तिलिस्म की ओर खुलती सीढ़ियों की तरह! नीम अँधेरे में सोई इन गुप्त सीढ़ियों पर मुझे एक-एक कर पैर जमाते हुए नीचे तक उतरना होगा। पहली ही सीढ़ी पर जवाब की एक कड़ी मिलती है - कौतूहल! 'न जाने नक्षत्रों में कौन, निमंत्रण देता मुझको मौन' - कोई मेरे कान में फुसफुसा गया है, और दिग्-दिगंत तक फैली उत्सुकता के घटाटोप में घिर कर मैं विस्मय करती रह जाती हूँ कि क्या मैं जर्मन पुराकथा के बाँसुरीवादक की धुन पर सुध-बुध खोकर चूहे की तरह नाचती-कूदती चलती इतनी अदना शख्सियत हूँ कि मेरे इनसानी वजूद को कुचल कर कोई भी उस पर सवारी गाँठ ले? नहीं, कौतूहल कहानी का प्रस्थान बिंदु है, आत्मघाती डुबकी नहीं कि साँस पर काबू खोकर लौटने की दिशा, गति और ऊर्जा ही नष्ट कर दे। मैं नहीं जानती, कहानी पढ़ना कब मेरे लिए कौतूहल में पगा मनोरंजक कार्य न रह कर जीवन से जूझने की चुनौती बन जाता है और मैं 'स्वयं एक सुरक्षित दूरी के साथ निष्क्रियता के तमाम तामझाम के बीच कोलंबस या राजा भगीरथ को अपने-अपने प्रयाणों में लिप्त नहीं देखती रहती; स्वयं कोलंबस और भगीरथ बन कर उनकी अनिश्चितताओं और दुश्चिंताओं को, संघर्ष के रोमांच और सफलता के उछाह को जीने लगती हूँ। यही वह स्थल है जहाँ मैं पाठक-रचयिता और आलोचक तीनों भूमिकाओं को एक साथ जीकर कहानी भी बन जाती हूँ और कहानी के समानांतर अपने चारों ओर वेग से बहते जीवन को सर्जक-आलोचक की नई नजर से देखने भी लगती हूँ। तिलिस्मी लोक की यात्रा से लौट कर अपने अनुभव दर्ज कराने के लिए शायद अब तक कोई नहीं आया है। आता तो जरूर बताता कि बस, तिलिस्मी लोक का द्वार ही तिलिस्मी है, भ्रम और प्रवंचनाओं से रचा हुआ। उसे खोल कर खौलती सीढ़ी पर पैर रखने का हौसला आ जाए तो वह खुद ब खुद अपने भीतर पसरे अकूत ऐश्वर्य को दिखाने के लिए मतवाला हुआ जाता है। ठीक मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' की तरह। मेरे साथ भी तो यही किया उसने। हथेली में बीज-वाक्य ही धर दिया कि मेरे तईं वही कहानी श्रेष्ठ है जो मेरे भीतर तीन अलग-अलग स्तरों पर जीते पाठक-आलोचक-रचयिता को एक साथ गूँध कर मुझे कहानी की एक स्वतः संपूर्ण इकाई भी बना दती है, और साथ ही उस कहानी के समानांतर धड़कते जीवन की पुनर्पड़ताल की संवेदना भी देती है। सैलानीपन पाठक की अनिवार्य शर्त है और अच्छी कहानी उसके इसी गुण की सवारी गाँठते हुए उसे भीतर-बाहर की अजनबी दुनिया की सैर को लिए चलती है। पल की एक नोक में ही बहुआयामी सृष्टि के इतने रहस्य छिपे हैं कि बहुविज्ञ पाठक भी उन्हें नहीं जान पाता। तिस पर दृष्टि और कोण बदलते ही एक ही स्थिति में छिपी अनेक संभावनाओं के उत्खनन की संभाव्यता! अच्छी कहानी पाठक को 'अस्सी दिन में दुनिया की सैर' कराके पुनः अपने कुएँ में मेंढक की तरह टर्राने की नित्यक्रमिकता में विघटित नहीं होने देती, बल्कि सैर को पाठक के बौद्धिक-मानसिक अहसास का बिंदु बना कर वहीं से उसे विचार की आगामी यात्रा पर अकेले चल निकलने की अकुलाहट देती है। वह भावनाओं को उद्बुद्ध नहीं करती, संचरित भावनाओं को ऊर्ध्व दिशा देकर भला-बुरा तय करने की कसौटियों को निर्मित करने का विवेक देती है। कहान
ी यथार्थ का उत्खनन मात्र नहीं, यथार्थ का उत्खनन करने की प्रक्रिया में यथार्थ के साथ अपने संबंध को पहचानने की दृष्टि अन्वेषित-परिमार्जित करती चलती है। इसलिए मेरे तईं लेखक की भूमिका कमंद सरीखी है, या एक मँजे हुए माँझी जैसी जो पाठक को किसी वीराने टापू पर ले तो आए, लेकिन फिर उसकी उँगली छोड़ कर उसे उस अनजान प्रदेश के चप्पे-चप्पे को एक्स्प्लोर करने और उसके साथ एक रागात्मक संबंध विकसित करने की संवेदना पैदा करे। यह रागात्मकता द्वेष के विपरीतार्थक शब्द की गुण-महिमा के साथ जुड़ कर नहीं आती, स्थितियों के निःसंग विवेकपूर्ण मूल्यांकन के रूप में उभरनी चाहिए। जाहिर है बाह्य स्थितियों का आकलन तब तक संभव नहीं जब तक मन के आईने में अपने ही विवेक की सूरत का रेशा-रेशा उधेड़ कर जाँच-पड़ताल न कर ली जाए। एक छोटा सा वाक्य ही तो कहती है 'आकाशदीप' कहानी की चंपा बुद्धगुप्त से कि "मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु! तुम्हें प्यार करती हूँ।" क्या यह एक वाक्य सिर्फ एक स्त्री के द्वंद्व की नाटकीय अभिव्यक्ति का अभियोजन भर है? यह पंक्ति स्वीकारोक्ति इसलिए बन पाई कि पाँच बरस से प्रेम और घृणा की लहरों पर सवार ऊहापोह के एक-एक रग-रेशे को अपनी-अपनी ताकत और दुर्बलता के साथ चंपा साफ-साफ देख सकी है। इस स्पष्ट दृष्टि में भूत की छाया से आविष्ट वर्तमान का सच तो है ही, उससे कहीं ज्यादा सघन और स्पष्ट है भविष्य में बुने जाने वाले संबंधों का स्वरूप, और दो संयुक्त जिंदगियों के कारण वजूद में आने वाली जाने कितनी और जिंदगियों के सवाल। निर्णय पर पहुँचना क्षण या स्थितियों के तात्कालिक दबाव का स्फोट नहीं होता; चिंतन-मनन की सुदीर्घ परंपरा का परिणाम होता है जिसकी अनुगूँज जिंदगी से लेकर समय तक दूर तक सुनी जा सकती है। अच्छी कहानी में सैलानी की लुभावनी अदाओं से कहीं आगे जाकर वक्त को आप्लावित कर देने की ताकत छिपी होती है। कहानी अपने से आँख मिलाने की ईमानदार कोशिश है - लेखन के स्तर पर भी, और आलोचना के स्तर पर भी। अपनी हर छलाँग में यह मुक्ति की महागाथा रचती है। मुक्ति अपनी वैचारिक जड़ताओं से भी, और अमूर्त मनोग्रंथियों से भी; मुक्ति समय से भी और भौतिक लिप्साओं से भी। स्व की संकुचित कंदराओं से मुक्त कर अच्छी कहानी पाठक को अपने 'मैं' का विलोपीकरण करने का हुनर भी देती है और अपने 'मैं' में समूचे चर-अचर जगत के 'मैं' को सुनने की सूक्ष्म संवेदना भी। यही वह बिंदु है जहाँ मुक्ति में उपभोग की आत्मकेद्रिंत रतिग्रस्तता नहीं, सृजन का उल्लास आ जुड़ता है। कहानी बेशक यथार्थ जगत के बरक्स रचा गया एक समानांतर यथार्थ लोक है, लेकिन इसकी गति और दिशा यथार्थ जगत से उलटी है। भौतिक जगत मनुष्य के 'मैं' का प्रसार करते हुए उसके समूचे वजूद को अहं के एक छोटे से बिंदु में कैद कर देता है, लेकिन कहानी का समानांतर यथार्थ लोक उसे 'मैं' की जानलेवा ग्रंथियों, कुंठाओं, नकारात्मकताओं और खोखली टकराहटों से मुक्त कर अन्य जगत की हलचलों, आर्त्तनादों, संकटों और चुनौतियों को सुनने का धीरज, संयम, अवकाश और संवेदना देता है। यह निरे सैलानीपन का पुरस्कार नहीं, ऑब्जर्वेशन को संवाद तक ले आने की अकुलाहट का परिणाम है। कहानी की सार्थकता संवाद का मजबूत पुल बनाने में है। कई बार इस पुल से गुजर कर यथार्थ जगत की यथार्थ ठोस वास्तविकताएँ या संवेगों से रची गईं अमूर्त संकल्पनाएँ कहानी के समानांतर यथार्थ जगत में प्रविष्ट होते ही रंग और चोला बदल लेती हैं। लगता है, व्यवस्था को तार-तार कर वे ऊलजलूल अस्तव्यस्तताओं में विघटित हो गई हैं। घड़ी की सुइयाँ घड़ी की कैद से निकल कर मनमाने ढंग से दसों दिशाओं और सातों लोकों में चलने लगी हैं। सूर्य जैसा स्थावर ऊर्जा-स्रोत सदियों से आसमान में टँगे-टँगे इतना थक गया है कि चाँदनी से नहाई चाँद की शीतल गोद में झपकी लेने को दुबक गया है। शैतान मछलियाँ तालाब से निकल कर रेत के ढूहों में ऊँटों के खुरों के निशान ढूँढ़ने दौड़ पड़ी हैं। हजारों सालों से लेप और पट्टियों के बीच पिरामिडों में सोए फरोह (मिस्र के राजा) अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए बाजार नामक अमूर्त शत्रु की धरपकड़ में कैरेबियन देशों की ओर निकल पड़े हैं। न, कहानी मरीचिकाओं की सृष्टि नहीं करती, मरीचिका बन कर विवेक को नियंत्रित करती मानवीय दुर्बलताओं को पहचानने की दृष्टि देती है। वह एलिस की तरह पाठक को फैंटेसी के वंडरलैंड में ले तो जाती है, लेकिन निरा दर्शक बना कर मिट्टी के निस्पंद लोंदे में विघटित होने के लिए नहीं छोड़ती। जो कहानी पाठक के भीतर किसी वैचारिक-भावनात्मक झंझावात की सृष्टि किए बिना मनोहारी आत्ममुग्धता का प्रसार करे, वह उपभोग की क्षणजीवी वस्तु हो सकती है, काल को जय करके अपनी अस्मिता को निरंतर बनाए रखने वाली कोई साहित्यिक कृत
ि नहीं। दरअसल यथार्थ जगत के गुरुत्वाकर्षण को तोड़ कर पागलपन, चमत्कार या असंभाव्यता को मूल्य बना कर रची जाने वाली कहानियों में अपने समय की विभीषिकाओं को अधिक सघनता से उजागर करने की क्षमता होती है, लेकिन तभी जब लेखक सृजन को अपना पैरामीटर बनाए, अभिव्यक्ति को नहीं। बात दूर की कौड़ी लग सकती है, क्योंकि एक मोटा प्रतिवाद तो यहीं मौजूद है कि साहित्य सृजनात्मक अभिव्यक्ति का दूसरा नाम ही तो है। लेकिन मेरी मान्यता है कि युगीन सत्य की अभिव्यक्ति करने के प्रयास में बहुधा लेखक उसकी भावनात्मक पुनर्प्रस्तुति भर करता है, यथार्थ को बिडंबना और विभीषिका बनाने वाले घटकों की शिनाख्त करके उनके प्रति एक स्पष्ट खदबदाता आक्रोश पाठक के भीतर नहीं भर पाता, जैसे मुक्तिबोध 'क्लॉड ईथरली' कहानी में और मंटो 'टोबा टेकसिंह' कहानी में कर पाए हैं। या फिर 'नदी के तहखाने में' कहानी में भालचंद्र जोशी। विकास चौड़ी चमकती सड़कों, फ्लाईओवरों, मॉल-मल्टीप्लैक्सों, बाँधों-गगनचुंबी इमारतों, स्मार्ट सिटी या बुलेट ट्रेन को दौड़ा देने की इन्फ्रास्ट्रकचरल जुगत नहीं है, जहाँ पत्थर-सीमेंट-लोहा ही साधन और साध्य बन जाता है। विकास मनुष्य और समय के भीतर और बाहर के सामंजस्यपूर्ण और पारस्परिक चतुर्दिक उन्नयन का नाम है जो हाशिए के आखिरी छोर पर जीते मनुष्य की चिंताओं और सपनों को केंद्र में लाए बिना संभव नहीं। वह विकास जो मनुष्यहंता बन कर विध्वंस को ही ध्येय बना दे, किस सृजन की ओर इंगित कर सकता है? नदी के तहखाने में जाकर अपनी कुछ बरस पुरानी स्मृतियों के अवशेषों को ढूँढ़ना विकास और गौरव की बात नहीं, क्योंकि वर्तमान का पुरातात्विक अन्वेषण 'वर्तमान' नहीं करता, भविष्य के गर्भ में पलती अगली कई सदियाँ करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे आज हम हजारों वर्ष पीछे की यात्रा कर मुअनजोदड़ो सभ्यता के अनुसंधान के बहाने अपनी 'उर्वर' संस्कृति के सबूत जुटाने की कोशिश करते हैं। अच्छी कहानी लोभ और लिप्साओं के पागलखाने में कैद 'आत्मबोध' को मुक्त कराने की जद्दोजहद है। बेशक कहानीकार से दार्शनिक होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन संवेदनपरक चिंतन जब मनुष्य की मनोभूमि में उतर कर इहलोक के भौतिक अस्तित्व और पारलौकिक जगत के सत्य के साथ समन्वय बैठाने, और एक-दूसरे के संदर्भ में मनुष्य की महत्ता को परिभाषित करने की कोशिश करता है, तब उसकी दृष्टि में दार्शनिक चिंतन की गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ आप ही आप उपस्थित होकर भौतिकताओं और तात्कालिकताओं का कुहासा छाँटने लगती हैं। दार्शनिक चिंतन जीवन के गूढ़ जटिल रहस्यों को सुलझाने का उपक्रम है जिसके बिना ग्लैमरस उपलब्धियों से दमकते युग में वस्तु, उत्पाद और पशु तो बना जा सकता है, मुकम्मल इनसान नहीं। जाहिर है दार्शनिक निष्पत्तियों से गुँथी कहानी सरल तो होगी नहीं। दरअसल कहानी को लेकर सरल या 'जटिल' सरीखे विशेषणों का प्रयोग मुझे बेमानी लगता है। कहानी संश्लिष्ट होगी, या सतही। वह जीवन का अक्स होगी या फिर जीवन की उलझी गड्डमड्ड डोरों को गहराइयों में जाकर सुलझाने की एक कोशिश; वह शोध/ऑब्जर्वेशन पर आधारित रिपोर्ताज होगी या दशरथ माँझी की तरह पहाड़ को काट देने का सिरफिरा जनून। सतही कहानी वक्त के खाली-बोझिल लम्हों को भर कर दिमाग को सुलाने का काम बखूबी करती है, जैसे भोजन भूख से बिलबिलाते पेट को भरने के उपरांत नींद का आह्वान करने लगता है। सृजन की दुर्निवार आकांक्षाओं से बुनी संश्लिष्ट कहानी कथागत पात्रों को पहले चरित्र रूप में बुनती है, फिर चरित्र को मनोवृत्ति का रूप देकर उसे अशरीरी भी करती है और एक ठोस देश-काल में प्रतिष्ठित भी। जैसे जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ 'गुंडा', 'मधुआ' और 'छोटा जादूगर' और रेणु की कहानियों 'तीसरी कसम' और 'ठेस' के हिरामन और सिरचन। कई बार स्थिति ही पूरा का पूरा युग-चरित्र बन जाती है और गुमनाम चेहराविहीन मामूली से पात्र के जरिए वर्चस्ववादी ताकतों की अमानुषिकता का विखंडन करने लगती है, जैसे मंटो की कहानी 'खोल दो'। किरण सिंह की कहानी 'द्रौपदी पीक' एक स्मरणीय संश्लिष्ट कहानी का उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में मेरे जेहन में बार-बार उभर रही है। यह कहानी भीतर सोई तमाम निष्क्रियता को झाड़-पोंछ कर मुझे पाठक से दर्शक में तब्दील कर रही है। मैं साक्षी भाव से वेश्यापुत्री घुँघरू और नागा बाबा पुरुषोत्तम की आत्मदमनकारी पीड़ा से बाहर झाँक-झाँक पड़ते उनके जीवन के छोटे-छोटे रहस्यों को एक लड़ी में पिरोने लगती हूँ कि मेरे भीतर का आलोचक द्रष्टा बन कर स्त्रियों और उनकी अवैध संतानों (?) की बलि लेकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करते धर्म-तंत्र और समाज व्यवस्था की साजिशों की पड़ताल करने लगता है। मैं देखती हूँ, घुँघरू (और पुरुषोत्तम) की तरह आत्मपीड़न और आत्मघृणा को अपना मूल्य बना कर जीती शख्सियतें जैनेंद्रकुमार के जमाने से चल
ी आ रही हैं और पाठक से सहानुभूति (जो निष्क्रियता की प्राथमिक अवस्था है जहाँ बराबरी के धरातल पर संवाद नहीं, श्रेष्ठ-हीन होने की स्थितियों से उपजा दंभ-दया होते हैं) लेकर कहीं बिला भी जाती हैं। जैनेंद्रकुमार 'जाह्नवी' कहानी में जाह्नवी की विडंबनाओं को ताजा कर मुझे आंदोलित करने की चेष्टा करते हैं, लेकिन उदासीन भाव से न्यूनतम सहानुभूति उनकी झोली में डाल कर मैं कहानी को भुला देती हूँ। जाह्नवी की अकर्मण्यता के ठीक विपरीत है पलायन की कोशिश में छुपी घुँघरू और पुरुषोत्तम की कर्मठता। यह कर्मठता जैसे ही मेरे उत्साह को संघर्ष की ऊर्जा से स्पंदित करने लगती है, मैं अपना कंफर्ट जोन छोड़ खुशी-खुशी उनके साथ एवरेस्ट पर चढ़ना स्वीकार कर लेती हूँ। आरोहण के दौरान दोनों चरित्रों के संग बतियाते हुए पाती हूँ कि कहानी पर्वतारोहण के रोमांच या एवरेस्ट विजय की उल्लास-गाथा नहीं, अपनी-अपनी ग्रंथियों और जटिल जीवन-परिस्थितियों से जूझते हुए सामाजिक प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान को अपने बूते पाने की दुर्दम्य साध है। विराट को एकस्प्लोर करने के उपक्रम में कहानी व्यस्वस्था के बौनेपन और टुच्चेपन को उधेड़ती चलती है जो धर्म और सत्ता-व्यवस्था का गठबंधन कर हाशिए पर पड़ी अस्मिताओं - स्त्रियाँ, वेश्याएँ, अवैध संतानें - का उत्पीड़न कर उन्हें समर्थ वर्ग के उपयोग और उपभोग में आने वाली वस्तु बना देती है। घृणा उनका स्थायी भाव है - उपयोग करते समय भी, और उपयोग के बाद घूरे पर फेंकते समय भी। ताज्जुब यह कि घृणा और अवमानना को अपना दाय मान कर अपने वजूद के प्रति घृणा और आत्मदया से भर उठी हाशिए की ये अस्मिताएँ स्वयं नहीं जानतीं कि वे अनायास धर्म और सत्ता के उत्पीड़नकारी स्वरूप को ही मजबूत कर रही हैं। पृथ्वी की तंगदिल भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर विराट के सान्निध्य में अपने को खोजना दरअसल चीजों और अवधारणाओं को तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर उनके नैसर्गिक रूप में देखना है जहाँ उसी का प्रतिपक्ष मुखर होकर स्थिति का संपूर्ण भाष्य बन जाता है। घुँघरू और पुरुषोत्तम सभ्य समाज के लिए घृणा के पात्र हो सकते हैं, लेकिन अपने भीतर दमन का अनंत इतिहास छुपाए ये अपने लिए न्याय माँगते हैं। कहानी की ताकत जितनी प्रखरता से व्यवस्था के चेहरे को बेनकाब करना है, उतनी ही हार्दिकता के साथ क्षत-विक्षत खंडित अस्मिताओं के भीतर के मानवीय ऐश्वर्य और सौंदर्य को सर्जित करना भी है। कहानी शब्दों का खोखला शोर भर नहीं है, न ही लेखक के नेतृत्व में की जाने वाली फौजी ड्रिल जो पाठक को भी अनुशासित फौजी बना कर मनवांछित प्रतिक्रियाएँ पाने का आयोजन रचे। कहानी की आंतरिक संघटना के रूप में शिल्प पर काफी बात की जाती है, लेकिन शिल्प पक्ष की सुघड़ता के कारण मुझे कभी कोई कहानी आकृष्ट नहीं करती। बल्कि ऐसा कोई सम्मोहन कभी हुआ भी है तो इस तथ्य की याद दिलाने के लिए कि कंटेंट के स्तर पर कहानी में एक बड़ी चूक कहीं घटित हो रही है। शिल्प कहानी की आंतरिक लय है जो कंटेंट और चरित्र के पैरों चल कर आता है, और अंगद की तरह अपना पैर जमा कर आत्मविस्मृत सा स्वयं कहानी में डूबता-उतराता चलता है। इसलिए अपने विविध घटकों के साथ एक ही लय में एकाकार वही कहानी मुझे बाँधती है जो हर एक नए उद्घाटन के साथ मेरे भीतर बेचैनी पैदा करे, संशयों को गहराए, मर्मांतक आघात दे, या रुक कर पीप-मवाद-लहू से सने जख्मों पर मरहम लगाए और मनुष्य की बुनियादी अच्छाई के प्रति मेरे नष्ट होते विश्वास को फिर से सींच दे; लेकिन इस सारी प्रक्रिया में मुझे न डिक्टेट करे, न मंत्रमुग्ध। वह मेरे भीतर पाठक की शक्ल में बैठे सर्जक को जगाए, उत्साह और संघर्ष की आंच से दीप्त कर उसे कर्मठ बनाए, और नया पाठ सृजित करने के लिए सृजन की अनंत यात्रा पर ले जाए। इसलिए कहानी मेरे लिए रोटी की तरह एक बार खा (पढ़) कर समाप्त हो जाने वाली भोज्य-सामग्री नहीं है। अच्छी कहानी में अखंड समय की निधियाँ और स्मृतियाँ आबद्ध रहती हैं। कहानी परंपरागत रूढ़ियों के साथ अपने को प्रकट भी करती है और उनका प्रतिरोध रचते हुए नए क्षितिजों का संधान भी करती है। लेखक द्वारा सीमाबद्धता का अतिक्रमण कर छुपी हुई संभावनाओं का उत्खनन दरअसल कहानी की उर्वर जमीन में व्यंजनाओं के बीज बिखेर देना है जिन्हें पाठ के दौरान पाठक/आलोचक को न केवल पकड़ना है, बल्कि रच कर दो भिन्न कालखंडों में बँटे समय पर संवेदना और पहुँच का सेतु भी बना देना है। विधा के तौर पर आलोचना कहानी से भिन्न है, किंतु प्रकृतिगत स्तर पर अभिन्न। दोनों ही अपनी मूलभूत प्रकृति में जीवन का आलोचनात्मक सृजन हैं। दोनों की रचना-प्रक्रिया भी एक सी! वही, जीवन का अध्ययन, विश्लेषण और फिर अपने समूचे व्यक्तित्व को अंतर्दृष्टि में घुला-मिला कर विश्लेषणगत निष्कर्षों और वैयक्तिक प्राथतिकताओं के अनुरूप जीवन का एक नय
ा परिवर्द्धित संस्करण रच देने की व्यग्रता। इसलिए अच्छी कहानी या अच्छी आलोचना अपने रचयिता के व्यक्तित्व से अछूती नहीं रह सकती। मैं मानती हूँ कि कहानी में रचनाकार के सृजन की इंटेंसिटी जितनी अधिक होगी, पाठक के भीतर अपनी जड़ताओं और सीमाओं का अतिक्रमण करने की बेताबी उतने ही तीव्रतर होगी। कहानी, सृजन-प्रक्रिया के प्रथम चरण से लेकर लिखे जाने तक कुम्हार के चाक की तरह लगातार रचनाकार के मानस में तनाव की सृष्टि करते हुए चक्कर काटती रहती है। लिखे जाने के बाद रचनाकार भले ही तनावमुक्त होकर श्रम-शिथिल अवस्था में सुस्ता ले, कहानी भारतीय लोककथा के उस अभिशप्त नायक की तरह है जो अपने सिर पर घूमते चक्र को स्वयं ढोते रहने को नियतिबद्ध है। इसलिए कहानी रची जाकर भी समाप्त नहीं होती, समय और परिस्थितियों की संकुल लहरियों को लाँघ कर हर दौर में अपने मूल्य, प्रभाव और प्रासंगिकता की जाँच में लगी रहती है। बार-बार रचे जाने की उत्कंठा में कहानी न केवल अपने अर्थ का विस्तार करती है, बल्कि दो युगों को जोड़ने वाले समय की पीठ पर सवार होकर वह हर देश-काल में जी रहे मनुष्य की एक-सी प्रकृति और एक-सी आकांक्षाओं के सनातन सत्य को भी उभारने लगती है। यहाँ आकर मेरी स्मृति में कितनी ही कहानियाँ बेचैनी से बाहर आने को उछलकूद मचाने लगी हैं। जयशंकर प्रसाद की 'पुरस्कार' कहानी की मधूलिका अपने बंदी प्रेमी अरुण की बगल में आ खड़ी हुई है। आँखों में गर्व का भाव है कि राजा को यथासमय देशद्रोही अरुण के विद्रोह की सूचना देकर उसने अपना नागरिक कर्तव्य निभाया है, लेकिन प्रेम की टीस अपनी जगह है। इसलिए अपनी देशभक्ति का पुरस्कार माँग रही है - "...तो मुझे भी प्राणदंड मिले।" मैं चाह कर भी कहानी को कक्षा में पढ़ाए जाने वाले इस अर्थ में ग्रहण नहीं कर पा रही हूँ। कहानी पढ़ते-पढ़ते बराबर देख रही हूँ प्रसाद के परिवेश और सृजन-प्रक्रिया के समानांतर अपना परिवेश और सृजन-प्रक्रिया। इतिहास के किसी कल्पित कालखंड में जाकर प्रसाद इनसान की बुनियादी जरूरतों और आत्मसम्मान को छीन कर राज्यानुकंपा पर मोहताज बना देने वाले राज्य-दर्प को देख रहे हैं, और गुलाम देश के नागरिक के रूप में छल-बल, राज-दंड से वंचित कर दिए गए अपने युग की असहायता को उसमें पिरो रहे हैं। मधूलिका प्रेयसी नहीं, कृषक-कन्या के रूप में मेरे सामने आ खड़ी हुई है जो बरस दर बरस खेत में सोने की लहलहाती फसल देख भीतर तक संतोष और आह्लाद से भीग जाती है। मधूलिका को धकिया कर मीडिया और समाज से अदृश्य कर दिया गया मेरे अपने समय का अदना सा किसान मेरे सामने आ खड़ा होता है, मानो कह रहा हो, विकास का ढिंढोरा पीट कर किसी की जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि जमीन महज धरती का टुकड़ा नहीं, कई-कई पीढ़ियों का पेट, हाथ की लकीर और माथे का मान भी है। तब इस कहानी के साथ माधवराव सप्रे की कहानी 'टोकरी भर मिट्टी' और कोई सौ बरस बाद रची गई सत्यनारायण पटेल की कहानी 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' को जोड़ कर मैं अपने वक्त की कृषि-समस्याओं को समझने लगती हूँ। अच्छी कहानी आलोचना के एक पाठ द्वारा सुनिश्चित कर दिए गए रूप के साथ कभी स्थिर नहीं रहती। उसकी सार्थकता अपने को सफलतापूर्वक पढ़वा ले जाने में नहीं, पाठक के भीतर रचनाकार की ताब भर कर जीवन की शिनाख्त और सृजन करने की प्रेरणा बनने में है। अजीब अंतर्विरोध है कि कहानी में तनाव का घनीभूत क्षण ही मुक्ति की संभावनाओं को रचता है, और जिस स्थल पर पाठक को मुक्त करता है, वहीं उसके आक्रोश को तीव्रतर का उसे मनुष्य-बोध और नागरिक बोध से संपन्न भी करता है। जैसे परिवार में अवांछित हो जाने की प्रतीति 'वापसी' (उषा प्रियंवदा) कहानी के गजाधर बाबू के भीतर मोहभंग और अजनबियत की पीड़ा देकर आत्मसार्थकता की अन्य दिशाओं के संधान की बृहद् प्रेरणा देती है, लेकिन रिटायरमेंट के बाद पुनः चीनी मिल में नौकरी के लिए जाते गजाधर बाबू को देख पाठक ठगा सा महसूस करता है। क्या यह स्वयं उसकी अपनी नियति है? संस्कृति के तमाम आवरणों के बावजूद क्या मनुष्य अभी भी आदिम है, भूख और स्वार्थ से लिपटा? युगीन दबाव सतह पर दीखती विकृतियों को बनाते हैं या मनुष्य की बनैली वृत्तियाँ ही संगठित होकर विकृतियों को मूल्य का दर्जा देने लगती हैं? कहानी का लक्ष्य चैन और सुकून देकर पाठक को सुलाना नहीं, जगाना है। यह जगाना उसके स्नायु तंत्र को उत्तेजित करना नहीं है, बल्कि भावनाओं का परिष्कार करके उदात्तीकरण की उस अवस्था को ले जाना है जहाँ वर्ग, वर्ण, धर्म, लिंग, जाति, भाषा आदि सब भेद तिरोहित हो जाते हैं। परिष्कार की इस प्रक्रिया में भावनाएँ अपना अनगढ़ स्थूल सतही रूप छोड़ पहले संवेदना की परिपक्वता में ढलती हैं, फिर विवेक से अनुशासित हो स्थितियों पर निःसंग चिंतन-मनन का अवकाश पाती है। कहानी बेशक एक आत्मपरक
जगत की सृष्टि करके पाठक के निजी संवेगों के सहारे उसके भीतर उतरती है, लेकिन अर्थ-ग्रहण और अर्थ-विश्लेषण की प्रक्रिया में वह निर्वैयक्तिक हो जाने का संस्कार देती है। ठीक वही निर्वैयक्तिकता जो रचते हुए रचनाकार के निजत्व और ममत्व का क्षय कर उसे सृष्टि के साथ जुड़ने की संवेदना देती है। यह तय है कि सृजन के दौरान जब-जब रचनाकार निर्वैयक्तिकता को साधने में असमर्थ रहता है, तब-तब पाठक के भीतर वस्तुपरक तटस्थ विश्लेषण का बोध पैदा नहीं हो पाता। कहानी का प्रभाव दरअसल और कुछ नहीं, लेखक की अपनी अंतर्दृष्टि है जो पाठक की संवेदना के साथ संवाद कर दोनों के बीच संबंध के तंतु निर्मित करती है। इसलिए कहानी के लिए समाज का दर्पण होना जरूरी नहीं, रचयिता की मानस-पुत्री होना जरूरी है। स्त्री विमर्श के सरोकारों का देह विमर्श की स्थूलता में और दलित विमर्श की मानवीय पुकार का प्रतिशोध की टंकार में रिड्यूस हो जाना कहीं न कहीं लेखन के दौरान लेखक का वर्ग/वर्ण/धर्म/लिंग बने रहना है।
राजवीर ने विनय की हां सुनते ही तुरंत कहा । राजवीर - ये झूठ बोल रहा है । ( विनय से ) तुम झूठ क्यों बोल रहे हो विनय । मेरी तो तुमसे बात ही नहीं हुई है कल । विनय - नहीं राजवीर । मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं । कल तुमने ही मेरे पास अपने आदमी को भेजा था । और उसके थ्रू तुमने मुझे बताया , कि मुझे मॉल जाकर कल क्या करना है । तुम्हारे कहने पर मैं कल जान बूझकर रेहान से टकराया था । उसके बाद तुम्हारे ही कहने पर मैं इन लोगों के पीछे रेस्टोरेंट गया था और रेहान के जस्ट बैक साइड पर पीठ किए हुए बैठा था , ताकि मैं ये जानकर तुम्हें बता सकूं , कि ये लोग आज कहां घूमने जा रहे हैं । जब मैंने राजवीर को ये सब करने के लिए मना किया , तो राजवीर ने मुझे धमकी दी , कि ये मेरे घर वालों को किसी हादसे का बहाना बनाकर कर मरवा देगा । राजवीर ने सुना तो हैरानी से विनय को देखने लगा । पर उसने कुछ नहीं कहां, क्योंकि सच में सारे सबूत उसके खिलाफ थे । वह मन ही मन सोचने लगा कि विनय की मदद से उसे कौन फंसा रहा है । तभी राहुल ने कहा । राहुल - और तुम्हें रेस्टोरेंट से निकलते हुए रेहान ने देख लिया था । है न रेहान ....???? आदित्य - अब बताओ राजवीर , अगर तुमने कायरा का किडनैप नहीं करवाया, तो फिर किसने करवाया ??? क्योंकि विनय के मुताबिक तुम्हें ही ये पता था , कि हम आज कहां घूमने जा रहे हैं । राजवीर ने कुछ नहीं कहा , बस वह विनय को घूरते हुए वहां खड़ा रहा । जबकि विनय अपनी गर्दन नीचे किए , उसकी नज़रों से बचने की कोशिश कर रहा था । तभी आरव ने कहा । आरव ( मिस्टर तिवारी से ) - अंकल , इसने सिर्फ आज ही कायरा को चोट पहुंचाने की कोशिश नहीं की हैं, बल्कि यह पहले भी कायरा पर अटैक करवा चुका है । मिस्टर शर्मा - होश में तो हो तुम आरव ....!!!! कुछ भी बोले जा रहे हो .....???? आरव - पापा .....!!!! अगर आपको मेरी बातों पर यकीन नहीं है , तो पूछ लीजिए कायरा से । ( कायरा की तरफ मुड़ कर ) बताओ कायरा , राजवीर ने उस रात तुम पर अटैक करवाया था कि नहीं..???? कायरा ( राजवीर को गुस्से से देखते हुए ) - जी...., करवाया था । आरव - इतना ही नहीं , इसने कायरा के साथ इस ऑफिस में कायरा के ही केबिन में घुसकर, बत्तमीजी करने की भी कोशिश की है । ( अपने मोबाइल में एक वीडियो चलाकर ) ये रहा उसका सबूत ......। आरव के मोबाइल में उस दिन का वीडियो था , जब राजवीर ने कायरा के केबिन में उसके साथ बत्तमीजी की थी । सभी वो वीडियो देखने के बाद राजवीर को गुस्से से देख रहे थे और वो बस शांत खड़ा था, पर अंदर ही अंदर वह गुस्से से जल रहा था । कायरा ने जब वो रेकॉर्डिंग आरव के मोबाइल में देखी , तो उसे अजीब लगा । वो समझ नहीं पा रही थी, कि ये सारी रिकॉर्डिंग्स आरव ला कहां से रहा था । रेहान ने जब वो वीडियो देखा , तो उसका खून खौल गया । वह गुस्से से राजवीर की ओर बढ़ने लगा , पर आरव ने उसे रोक दिया और कहा । आरव - रुक जाओ रेहान । रेहान - इसने मेरी बहन के साथ एक बार फिर बत्तमीजी की है , इस लिए अब मैं इसे अपने हाथो से सजा देने के लिए खुद को नहीं रोक सकता आरव....। आरव - रेहान ....!!! तुम चिंता मत करो , हमें इसे हाथ लगाने की भी जरूरत नहीं होगी और ये अपने आप ही घायल हो जाएगा । ये मेरा तुमसे वादा है । आरव की बात सुनकर , रेहान ने अपने कदम वापस ले लिए । तभी अरनव ने आरव से कहा । अरनव - जब तुम्हें इतना कुछ पता था राजवीर के बारे में , तो तुमने हमें पहले क्यों नहीं बताया ...???? और तुमने ये सारी रिकॉर्डिंग्स इतनी क्लीयरली कब और कहां शूट की हैं ??? आरव - ये सब मैंने खुद शूट नहीं किया है भैया , बल्कि मैंने सिर्फ कैमरा फिट किया था । और रेकॉर्डिंग उन्हीं कैमरों की हैं । ( राजवीर से ) तुम्हें याद है राजवीर , जिस दिन तुमने कायरा के केबिन में जाकर उससे बत्तमीजी की थी , उसी दिन मैंने तुमसे कहा था , कि दूसरों के काम में दखल अंदाजी करना बंद कर दो तुम । ( राजवीर आरव की बात सुनकर सोच में पड़ गया , तो आरव ने उसका चेहरा देख कर कहा ) और याद करो राजवीर , कि तुमने जिस दिन ये हरकत की थी , उसके एक दिन पहले तुम ऑफिस नहीं आए थे । इनफेक्ट एक दिन क्या , तुम उस समय दो तीन दिन ऑफिस से गायब थे । लेकिन मुझे तुम्हारा ऑफिस न आना , कहीं न कहीं खटक रहा था । मैंने उसी दिन आदित्य से बात कर एक प्लान बनाया और पूरे ऑफिस में हिडेन कैमरे लगवाए । आदित्य - और वो हिडेन कैमरे तुम्हारे केबिन और कायरा के केबिन , के साथ ही आरव के केबिन में भी फिट है । इतना ही नहीं , ऑफिस के हर एरिया , इनफेक्ट लिफ्ट में भी कैमरे लगे हुए हैं । और उसके साथ ही , ऑफिस के पार्किंग एरिया में भी यही कैमरे फिट हैं। जो खुद , मैंने और राहुल ने रात भर यहीं रह कर उसी दिन फिट करवाए थे , जिस दिन की बात आरव कर रहा है । आरव - इतना ही नहीं, हमने फैक्ट्
री में भी ये हिडेन कैमरे फिट करवाए थे , क्योंकि हमें शक तो था ही कि तुम कुछ न कुछ जरूर करोगे , पर यकीन तब हो गया जब तुम चंदन और उसके आदमी से मिले । जिस दिन तुम चंदन से मिले , हमने उसी दिन फैक्ट्री में भी कैमरे फिट करवा दिए । अब बात आती है तुम्हारी वॉइस की , जो कि सेकंड वीडियो जिसे आदित्य ने सभी को प्रोजेक्टर पर दिखाया था, उस पर हम सभी को सुनाई दी थी । तो ये तो हम सभी जानते हैं , कि ऐसे कैमरों में सिर्फ चलचित्र ही दिखाई देते हैं , वॉइस सुनाई नहीं देती है । तो तुम्हें बता दूं राजवीर , जिस रात कैमरे फिट हुए थे , उसी रात तुम्हारे केबिन की टेबल पर रखे कंप्यूटर के नीचे , राहुल ने एक छोटी सी साउंड स्पीकर चिप फिट की थी , जिससे तुम्हारी सारी वॉइस, जब तुम अपने केबिन में होते थे तब की , सब मुझे अपने मोबाइल में सुनाई दे रही थी । इन सारे जगहों में लगे हिडेन कैमरे मेरे फोन से कनेक्ट थे , जिससे ऑफिस में कौन क्या कर रहा था और स्पेशली तुम क्या कर रहे थे , वो सब हमें मालूम चल रहा था । ऑफिस में सीसी टीवी कैमरे के साथ - साथ , हिडेन कैमरे भी लगे हुए हैं , ( राहुल नील आदित्य और रेहान कि तरफ इशारा कर ) ये बात सिर्फ हम पांचों दोस्तों को पता थी । लेकिन तुम, तुम्हारी इस वीडियो रिकॉर्डिंग में क्या - क्या कर रहे थे , उसके बारे में सिर्फ मुझे जानकारी थी , क्योंकि सारे कैमरे और वो साउंड स्पीकर चिप तो सिर्फ मेरे फोन से ही कनेक्ट थे । इनफेक्ट , कुछ घंटों पहले , ऑफिस आने से लगभग दस मिनट पहले तक ये बात , इन चारों को भी पता नहीं थी , पर जब मैंने तुम्हें अपने साथ अपनी कार में बैठाया और ज......., मेरा मतलब है नील से ऑफिस चलने के लिए कहा , उसके तुरंत बाद मैंने तुम्हारी नील और कायरा की नज़रों से छुप कर ये तीनों वीडियो इन सभी के नंबर पर सेंड कर दिए । सिर्फ ये लास्ट वीडियो , जो अभी - अभी मैंने सभी को दिखाया है , ये वीडियो मैंने अपने पास रखा और क्योंकि अगर मैं ये वीडियो इन चारों को भेज देता , तो तुम्हारे साथ तो बहुत बुरा होता । क्योंकि ये चारों ऑफिस में तुम्हें देखते ही, बुरी तरह से पीटना शुरू कर देते , जो कि मैं नहीं चाहता था । और तो और अगर ये वीडियो सारे डायरेक्टर मेम्बर्स के सामने प्ले कर दिया जाता , तो तुम्हारे साथ - साथ कायरा की भी इज्जत पर आंच आती । जो कि मैं बिल्कुल नहीं चाहता था । इसी लिए मैंने ये वीडियो सभी के जाने के बाद , आप सभी को दिखाया । और रही बात चंदन की , तो उसे मैंने जब हिडेन कैमरे के माध्यम से , अपने मोबाइल स्क्रीन में तुमसे बात करते हुए देखा , तो मैं उसे पहचान गया । उसी रात मैं चंदन के घर गया , तब वह अपने घर के बाहर बने चबूतरे पर , शराब के नशे में धुत्त पड़ा था । मैंने नशे का फायदा उठाकर , सारा सच उसके मुंह से उगलवा लिया और फिर उसे उसके घर के अंदर भेजा और उसका शराब का नशा उतरते ही , मैंने उसकी पत्नी से मुझे इनफॉर्म करने के लिए कहा । सुबह जब मैं सोकर उठा , तभी ही चंदन की पत्नी का फोन आया । मैं तुरंत सुबह - सुबह ही , चंदन के घर की ओर निकल गया । वहां मैंने उसे राजवीर का साथ देने के कारण , उसे नौकरी से निकालने की धमकी दी । बदले में उसने मुझसे माफ़ी मांगी । तो मैंने उसे माफ करने के बदले में , सारा सच यहां सबके सामने बताने के लिए कहा । वह मान गया और इसी वजह से उसने तुम्हारे कारनामें यहां सबके सामने बता दिए । ( मिस्टर शर्मा की तरफ मुड़ कर ) पापा आप कह रहे थे ना , कि मैंने ऑफिस से पैसे लेकर कहां खर्च किए , तब मैंने आपको ऑफिस और फैक्ट्री के रेनोवेट होने की बात बताई थी । बट सॉरी पापा , मैंने आपसे झूठ कहा था। मैंने ऑफिस और फैक्ट्री का रेनोवेशन नहीं , बल्कि उन पैसों से ये कैमरे लगवाए हैं । जिनकी वजह से आज राजवीर की असलियत हम सभी के सामने है । मिस्टर तिवारी ( राजवीर के पास आकर ) - क्यों किया तुमने ऐसा ????? राजवीर ने उनकी बात पर कुछ नहीं कहा और अपनी नजरें नीची कर लीं । तो आरव ने मिस्टर शर्मा से कहा । आरव - पापा ...!!! मैंने तब राजवीर की पुलिस में कंप्लेन करने से सभी को मना किया , क्योंकि तब बात सिर्फ बिजनेस की थी । पर अब बात एक लड़की की इज्जत की हैं, और उसकी सेफ्टी की भी... । ( राजवीर से ) क्योंकि मैंने , तुम्हे राजवीर एक बार नहीं बल्कि कई बार वॉर्न किया है । हमेशा तुम्हें कायरा से दूर रहने के लिए कहा है । पर तुमने आज हद पार कर दी , कायरा की किडनेपिंग करने के कोशिश करके ......। वो तो शुक्र है भगवान का , जो सही समय पर मुझे क्लू मिल गए , वरना शायद आज हम कायरा को या तो खो दे......, ( थोड़ी देर रुक कर ) या फिर अभी हम उसे ढूंढ रहे होते । इस लिए पापा मैंने राजवीर की पुलिस कंप्लेन करने के बारे में सोचा है , वो भी एक लड़की के साथ छेड़खानी और बदसलूकी करने के जुर्म में..
. । और दूसरी कायरा की किडनेपिंग की सुपारी देने के जुर्म में । अरनव - मैं तेरी बात से सहमत हूं । हमें राजवीर को जेल भेज देना चाहिए , ताकि कायरा को दोबारा इसकी वजह से ऐसी कोई मुसीबत न झेलनी पड़े । आदित्य, नील, रेहान और राहुल ( एक साथ ) - हम भी आरव की बात से सहमत हैं । सभी की बात सुनकर , मिस्टर शर्मा ने मिस्टर तिवारी की तरफ देखा । पर मिस्टर तिवारी ने , मिस्टर शर्मा से कुछ नहीं कहा और न ही उन्हें कोई रिएक्शन दिया । क्या कहते और क्या करते वे । उनके बेटे ने ऐसी हरकत ही की थी , कि उसके लिए उसे जेल भेजना जरूरी हो गया था । और बात जब लड़की के साथ बदसलूकी की हो , तब तो एक बाप को भी अपने दिल पर पत्थर रखकर अपने बेटे को उसके किए की सजा देनी पड़ती है । वरना उसका बेटा , कल के दिन और लड़कियों के साथ भी ऐसे बिहेव कर सकता है । इस लिए मिस्टर तिवारी ने कुछ नहीं कहां, पर आज उनकी आंखों में गुस्सा और साथ में अपने बेटे के कारनामों की वजह से शर्मिंदगी लगातार बनी हुई थी । मिस्टर शर्मा को जब मिस्टर तिवारी का कोई रिएक्शन नहीं मिला , तो मिस्टर शर्मा ने कायरा की तरफ देखा , जो बस राजवीर को गुस्से से देख रही थी । मिस्टर शर्मा ने सभी से कहा । मिस्टर शर्मा - मैं तुम सभी की बातों से सहमत हूं । पर हम ये कदम नहीं उठा सकते । अरनव ( हैरानी से मिस्टर शर्मा को देखते हुए कहता है ) - पर क्यों पापा ....???? राजवीर ने गलत किया है । एक लड़की के साथ बत्तमीजी करने के अलावा आज उसने एक मासूम लड़की के किडनैप करने की कोशिश भी की है । जो कि अपराध है पापा । और अगर आज आरव समय पर कायरा को बचाने नहीं पहुंचता , तो हम सोच भी नहीं सकते थे , कि आज कायरा के साथ क्या हो जाता । हो सकता था , कि हम जिसकी कल्पना भी न कर पा रहे हों , उस दौर से भी आज कायरा को गुजरना पड़ जाता । इसके बाद भी आप आरव को राजवीर के खिलाफ कंप्लेन करने से रोक रहे हैं ...??? मिस्टर शर्मा ( अरनव से ) - क्योंकि तुम भूल रहे हो अरनव ,राजवीर की बहन तुम्हारी पत्नी है , और उसकी हालत से हम सभी अनजान नहीं है । थोड़ा सा भी स्ट्रेस उसके और तुम्हारे बच्चे के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है । और तुमसे ये बात भी नहीं छुपी है अरनव, कि तुम्हारी पत्नी अपने भाई से कितना प्यार करती है । अब तुम ही बताओ , इस हालत में अगर वो अपने भाई को जेल में देखेगी , तो क्या उसकी स्थिति स्टेबल रहेगी ???? क्या उसे अपने भाई को जेल में देखकर अच्छा लगेगा ...???? ( अरनव मिस्टर शर्मा के तर्क से चुप हो गया । क्योंकि बात तो उन्होंने सही कही थी । मिस्टर शर्मा को जब उसकी तरफ से कोई रिप्लाई नहीं मिला , तो वे कायरा के पास आए और उन्होंने उसके सामने हाथ जोड़ कर कहा ) हमें माफ कर दो बिटिया । हम चाह कर भी तुम्हारे साथ बदसलूकी करने वाले को सजा नहीं दिला पा रहे हैं । क्योंकि हमें हमारी बहू और उसके होने वाले बच्चे की जिंदगी, खुद की जान से भी ज्यादा प्यारी है । हमें माफ कर दो बेटा , हम तुम्हारे साथ गलत कर रहे हैं , पर हम मजबूर हैं , ऐसा करने के लिए । कायरा ने उनकी बात पर नजरें उठाकर मिस्टर शर्मा को देखा और उनके आपस में जोड़े हुए हाथों को अलग कर उनसे कहा । कायरा - आपको मुझसे माफ़ी मांगने की कोई जरूरत नहीं है सर । आप अपनी जगह सही हैं । घर के सदस्यों से ज्यादा इन्सान के लिए कोई मायने नहीं रखता , ये मुझसे बेहतर भला और कौन समझ सकता है । इस लिए आप अपने हाथ मुझसे माफी मांगने के किए नहीं , बल्कि मुझे आशीर्वाद देने के लिए उठाइए । आपके द्वारा आशीर्वाद मिलने से , मुझे ज्यादा खुशी होगी । न कि आपके माफी मांगने से .....। आरव ने जब कायरा की बात सुनी , तो वह उसे एक टक देखने लगा । आज उसे कायरा का एक और नया रूप देखने मिला था । जबकि मिस्टर शर्मा ने सुना, तो प्यार से कायरा के सर पर हाथ रख दिया और फिर आरव की तरफ मुड़ कर उससे कहा । मिस्टर शर्मा - राजवीर को जेल भेजना , हमारे लिए खुशी बिटिया की जान को खतरे में डालने के बराबर है । इसके अलावा अगर तुम कुछ और चाहते हो , तो बोलो । राजवीर उसे जरूर करेगा । आरव ( मिस्टर शर्मा की बात पर , बिना राजवीर की ओर देखे बोला ) - ओके पापा .....। अगर आप राजवीर के लिए यही चाहते हैं , तो यही सही । राजवीर को कायरा के सामने, कान पकड़ कर, उसके पैरों में गिरकर, उससे माफी मांगनी होगी । अगर राजवीर ने ऐसा कर दिया , तो मैं राजवीर की सारी गलतियों पर मिट्टी डाल दूंगा और उसे यहां से जाने दूंगा । राजवीर ( अभी भी अकड़कर ) - मैं किसी से भी माफी नहीं मांगूंगा । मिस्टर तिवारी ( गुस्से से ) - राजवीर.....!!!! तुमने जो कायरा के साथ किया है , उसके लिए तुम्हें सिर्फ कायरा से माफी मांगने के लिए अगर कहा जा रहा है , तो ये बहुत बड़ी बात है । अगर मैं इस वक्त आरव की जगह पर होता , तो तुम्हें अपने हाथों
से यहीं पर जिंदा जमीन में दफना देता । इस लिए तुम्हारे लिए इस वक्त सही यही होगा , कि तुम चुप - चाप कायरा से माफी मांगो । राजवीर - सॉरी डैड......। मैंने आपके अलावा आज तक किसी से माफी नहीं मांगी है । इस लिए मैं आज भी किसी से माफी नहीं मांगूंगा । मिस्टर तिवारी ( तेज़ आवाज़ में राजवीर की तरफ बढ़ कर उसपर चिल्लाते हुए कहते हैं ) - राजवीर......!!!! ये कैसी जिद है तुम्हारी ???? गलती की है तुमने , तो माफी भी तो तुम्हें मांगनी ही होगी ना ......। आरव ( मिस्टर तिवारी से ) - काम डाउन अंकल.....। मैं समझाता हूं राजवीर को । ( इतना कहकर आरव राजवीर के पास आता है और उसके कानों में धीरे से उससे कहता है ) सोच लो राजवीर.....!!!!! अभी मैंने सिर्फ कायरा के साथ तुम्हारी की गई सिर्फ कुछ ही हरकतों के बारे में, अंकल को बताया है । अगर उन्हें , तुम्हारे कायरा को अपने साथ ऑडिटोरियम के रूम में ले जाकर , तुमने जो उसके साथ करने की जो कोशिश की थी , उसके बारे में पता चल गया तो ....??? फिर उसके बाद , तुमने कॉलेज फंक्शन के दिन जो कुछ भी कायरा के तुम्हारे प्रपोजल को नकार देने के बाद किया था , अगर वो सब मैंने अंकल को बता दिया तो । और उसके भी बाद , मैंने तुम्हारी हरकतों के लिए फंक्शन वाले दिन तुम्हें जानवरों को तरह जो मारा था और फिर तुमने मुझसे कायरा के बारे में जो कुछ भी कहा था , अगर वो सारी बातें यहां सभी को पता चल गई, तब तो तुम्हें जेल जाने से मेरे पापा भी नहीं रोक पायेंगे । और तो और, मेरी प्यारी भाभी और तुम्हारी इकलौती बहन भी तुम्हें जेल में देखकर बिल्कुल भी परेशान नहीं होगी । राजवीर - ऐसा कुछ नहीं होगा , क्योंकि इसके बारे में बाकी सबको बताएगा कौन...?? आरव ( हल्की सी शातिर मुस्कान के साथ ) - जब मैं तुम्हारे आज के पूरे प्लान को चौपट कर सकता हूं , वो भी सिर्फ हिडेन कैमरे के थ्रू , तब तो फिर मैं ऑडिटोरियम के उस दिन के रूम का सीसीटीवी फुटेज और ऊपर के फिफ्थ फ्लोर के हॉल का सीसीटीवी फुटेज को भी हासिल कर ही सकता हूं । और हो सकता है, कि इस वक्त वो दोनो फुटेज भी मेरे मोबाइल में सेव हों.....। राजवीर ( हैरानी से उसे देखता है और फिर कहता है ) - तुम ऐसा नहीं करोगे .....। आरव - मैं क्या - क्या कर सकता हूं, ये तो तुमने आज देख ही लिया है राजवीर.....। अब अगर अपनी पिछली ज़िन्दगी की सारी पोल - पट्टी अपने पिता , मेरे पिता और अपने जीजा जी के सामने खुलने से रोकना चाहते हो , तो सीधी तरह से कायरा से माफी मांग लो , ठीक उसी तरह जिस तरह मैंने तुमसे, कायरा से माफी मांगने के लिए कहा है । और अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी , तो आगे तुम्हारे साथ जो कुछ भी होगा। उसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ तुम ही होगे .....। राजवीर ने उसकी बात सुनकर गुस्से से अपनी मुट्ठी बंद कर ली । तब ही रेहान ने मिस्टर शर्मा से कहा । रेहान ( गुस्से से राजवीर की तरफ देखते हुए कहता है ) - अंकल......, अगर इस राजवीर ने आज मेरी बहन कायरा से माफी नहीं मांगी ना , तो भले ही मैं इसे जेल न भेजूं , पर मैं इसे आज खुद के पैर पर खड़े होने लायक नहीं छोडूंगा ....। राजवीर ( मिस्टर शर्मा के कुछ कहने से पहले ही बोला ) - तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है रेहान.... । ( कायरा के सामने आकर , अपने हाथ जोड़ कर , उसके बाद अपने कान पकड़ कर और कान पकड़े - पकड़े ही कायरा के पैरों में गिरकर राजवीर ने उससे कहा ) सॉरी कायरा....., मैंने जितनी भी आज तक तुम्हारे साथ बत्तमीजियां और गलत व्यवहार किए हैं , उसके लिए मैं तुमसे माफी मांगता हूं.....। इतना कह कर राजवीर सीधा खड़ा हो गया । और इससे पहले कायरा या कोई और उससे कुछ कहता , वह कायरा को एक नज़र नफ़रत भरी निगाहों से देख कर , सीधे कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर निकल गया । सभी उसकी इस हरकत पर , हैरान थे और गुस्से से उसे जाते हुए देख रहे थे । जबकि आरव उसे जाते देखकर फीका मुस्कुरा रहा था, क्योंकि वो जानता था, कि कायरा से माफी मंगवाकर उसने आज राजवीर के ईमान पर , उसके घमंड पर वार किया है। इस लिए उसके इस तरह कायरा से माफी मांगने के बाद , बिना किसी से कुछ कहे हॉल से बाहर चले जाना से , आरव को किसी भी तरह की हैरानी नहीं हुई थी । इधर राजवीर के जाने के बाद , मिस्टर तिवारी कायरा के सामने आए और उन्होंने कायरा के सामने अपने हाथ आपस में जोड़ कर कायरा से कहा । मिस्टर तिवारी - मेरे बेटे ने तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया , उसके लिए मैं शर्मिंदा हूं । मैं उसे तुम्हें माफ करने के लिए तो नहीं कहूंगा , पर हां दोबारा उसकी तरफ से ऐसा कुछ भी नहीं होगा , इसकी जिम्मेदारी जरूर मैं आज तुम्हारे सामने लेता हूं .....। कायरा ( मिस्टर तिवारी के हाथ नीचे करके , उनसे बोली ) - आपको अपने बेटे के किए गए गुनाहों के लिए, मेरे सामने शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है स
र । और हां ......, आप अपने बेटे की जिम्मेदारी ले या न लें , लेकिन दोबारा मेरे साथ कुछ भी ग़लत करने का मौका, मैं अब राजवीर को कभी नहीं दूंगी...। मिस्टर तिवारी ने उसकी बात पर कुछ नहीं कहा और वे नजरें झुका कर वहां से चले गए । किसी और से कुछ कहने की हिम्मत तो उनमें अब बची ही नहीं थी । क्योंकि राजवीर ने आज उन्हें , उनकी भतीजी के ससुराल वालों के सामने कुछ भी कहने लायक छोड़ा ही नहीं था । उनके जाने के बाद मिस्टर शर्मा ने कहा । मिस्टर शर्मा ( सभी से ) - आरव और अरनव से कुछ अकेले में बात करनी है । इस लिए तुम सब हॉल से बाहर जाओ । जैसे ही सभी ने मिस्टर शर्मा की बात सुनी , सब एक - एक करके हॉल से बाहर निकल गए । हॉल से बाहर निकलते ही कायरा अपने केबिन में आयी और वह अपने केबिन में हिडेन कैमरा ढूढने लगी । उसे आरव पर बहुत ज्यादा गुस्सा आ रहा था , क्योंकि आरव ने उसके केबिन में कैमरा लगे होने की बात , उससे छुपाई थी । और आरव का उससे ये बात छुपाना , कायरा को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था । इधर विनय हॉल से निकलने के बाद , बिना किसी से कुछ कहे सीधे लिफ्ट से नीचे आया और वह सीधा ऑफिस से बाहर निकल गया , क्योंकि अब उसका ऑफिस में कोई काम नहीं था । ऑफिस से बाहर निकलते ही उसने मिशा को कॉल किया और फिर मिशा के कॉल रिसीव करते ही उसने मिशा से कहा । विनय - मैंने सबके सामने वहीं कहा , जो तुमने मुझे कहने के लिए कहा था । मैंने किसी को ये भनक नहीं लगने दी , कि उन चारों पर नज़र रखने के लिए मुझे राजवीर ने नहीं बल्कि तुमने कहा था । और सभी ने मेरी बात मान भी ली । तुमने ठीक ही कहा था , कि मुझे लेने वो लोग जरूर आएंगे । कुछ घंटों पहले, तुम्हारे मुझे कॉल पर ये सारी बात समझाने के बाद , तुम्हारे कॉल कट करते ही , आदित्य और नील मुझे लेने आ गए थे । और वो लोग मुझे , सीधा आरव के ऑफिस लेकर आ गए । मिशा ( फोन की दूसरी तरफ से ) - मैं जानती थी विनय, की कायरा के मिलते ही वो लोग तुम्हें लेने जरूर आएंगे। कायरा भले ही आज मेरे हाथो से बच कर निकल गई हो , पर मैंने आज उसे किडनैप करने का ऐसा प्लान बनाया था , कि इस पूरी जिंदगी में किसी को पता नहीं चलेगा , कि असल में कायरा का किडनैप किसने करवाया था । और वो कायरा और उसके वो दोस्त ....., सबके सब हमेशा राजवीर को इस घटना के लिए दोष देंगे । विनय - लेकिन मिशा......, तुम्हारी वजह से आज मेरे हाथ से अपने दोस्त का साथ छूट गया । राजवीर इसके लिए मुझे कभी माफ नहीं करेगा और वो इस झूठ के लिए मुझे सज़ा भी जरूर देगा । मिशा उसकी बात पर बस हंस दी । तो विनय ने उससे आगे कहा । विनय - देखो मिशा....., तुमने मुझसे जो कुछ भी करने के किए कहा था मैंने कर दिया है । अब तुमने मेरे घर वालों को , जहां कहीं भी गन प्वाइंट पर रखा हो , अपने आदमियों से कह कर उन्हें गन प्वाइंट से हटा दो । क्योंकि मैंने सिर्फ अपने घर वालों की हिफाजत के कारण ही , आज अपने दोस्त को सबके सामने गलत साबित किया है , अगर मेरे घर वालों को कुछ भी हुआ , तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा । मिशा ( फीका मुस्कुराते हुए ) - रिलेक्स विनय .....। मैंने तुम्हें सिर्फ इस लिए ये कहा था, कि तुम्हारे सारे घर वालों के आसपास मेरे आदमी फैले हुए है और वे सभी मेरे आदमियों की गन प्वाइंट पर है..... , ताकि तुम अपने घर वालों की चिंता करके , मेरा ये काम कर दो , जो तुम अभी अंदर करके आए हो । पर सच कहूं विनय , मैंने तो तुम्हारे घर वालों को गन प्वाइंट पर रखा ही नहीं । इनफेक्ट ......., मुझे तो पता तक नहीं है कि तुम्हारे घर वाले असल में हैं कहां.....। विनय ( परेशान होकर , अपने सिर पर हाथ रखकर कहता है ) - इसका मतलब मिशा तुमने मुझसे झूठ कहा और मेरी अपने घर वालों के प्रति चिंता करने का , तुमने फायदा उठाया । ये तुमने ठीक नहीं किया है मिशा ......। मिशा ( अपने हाथों में लगी नेलपेंट को फूंक मारते हुए ) - मैंने बिल्कुल ठीक किया है विनय । आखिर अपने काम के लिए किसी का फायदा उठाना कोई बुरी बात तो नहीं है । पर मेरी एक बात तुम कान खोलकर सुन लो विनय , अगर तुमने इस बारे में किसी से कुछ भी कहा , तो जो चीज़ आज मैंने तुम्हारे घर वालों के साथ नहीं की है , अगली बार वो जरूर कर दूंगी । उसके बाद तुम देख लेना , कि तुम्हें अपने घर वालों की लाशों को ठिकाने लगाना है , या फिर आदर सत्कार के साथ उन सभी का अंतिम संस्कार करना है ....। इतना कह कर मिशा ने कॉल कट कर दिया और अपने दूसरे हाथ में भी नेलपेंट लगाने लगी । जबकि इस तरफ से विनय मिशा , मिशा चिल्लाता रहा और जब उसे आभास हुआ कि काल कट हो चुकी है , तो उसने एक बार फिर अपने सिर पर हाथ रख कर खुद से कहा । विनय - शीट....., शीट ....., शीट......। ये आज मिशा की वजह से क्या कर दिया मैंने .....। राजवीर अब मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा......
। वो ये सब कह ही रहा था , कि तभी उसे अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस हुआ और उसने तुरंत पीछे पलट कर देखा , तो उसके सामने आदित्य और रेहान गुस्से से उसे घूरते हुए खड़े थे। विनय ने उन्हें देखकर सकपकाते हुए कहा । विनय - तुम दोनो मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो...???? रेहान ( बिना उसकी बात का जवाब दिए , उससे कहता है ) - कायरा का किडनैप किसने करवाया है ...???? क्या इसके पीछे मिशा का हाथ है ...???? विनय - मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता ....। आदित्य ( रेहान का सवाल रिपीट करके कहता है ) - क्या आज की किडनेपिंग के पीछे , मिशा का हाथ है....????? विनय - मैं इस बारे में न कुछ नहीं जानता .....। इतना कह कर विनय घबरा कर, सड़क की तरफ भागने लगा । पर इससे पहले कि वो सड़क तक पहुंच पाता , उसके पहले ही रेहान उसके सामने आकर खड़ा हो गया । विनय उसे देख कर घबरा गया और उसने रेहान से गिड़गिड़ाते हुए कहा । विनय - देखो...., तुम दोनो मुझे जाने दो । मैं इस मैटर के बारे में कुछ नहीं जानता । प्लीज मुझे जाने दो .....। आदित्य ( पीछे से उसकी गर्दन पकड़ कर कहता है ) - तू अभी मिशा से , कायरा की किडनेपिंग के बारे में बात कर रहा था और अब कह रहा है कि तू कुछ नहीं जानता । रेहान - आदि......, इससे यहां कुछ भी पूछना , सेफ नहीं है । इसे अंदर लेकर चल , वहीं इससे पूछते है , कि सच क्या है । रेहान की बात सुनते ही आदित्य ने विनय को एक तरफ से पकड़ा और दूसरी तरफ से उसे रेहान ने पकड़ा और दोनों उसे लेकर , ऑफिस बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर में बने स्टोर रूम में लेकर आए और आदित्य ने स्टोर रूम मे पहुंचते ही, अंदर की तरफ से डोर लॉक कर दिया । डोर लॉक होते ही रेहान ने विनय को वहां पर रखी फाइलों पर पटका, जिससे विनय फर्श पर गिर गया। उसके गिरते ही रेहान ने जोर से एक लात उसके पीठ पर मारते हुए , उससे कहा । रेहान - तू हमें कुछ नहीं बताएगा । सारा कर्म कांड करने के बाद , तू सबके सामने झूठ बोलकर आया है और उसके बाद तूने मिशा से बात भी की और यहां का सरा ब्योरा भी उसे बताया । उसके बाद भी तू हमसे कह रहा है, कि तुझे कुछ नहीं पता । सच क्या है विनय , ये तू हमें अभी के अभी बता दे । वरना आज तेरा मैं बहुत बुरा हाल करूंगा । विनय ( कराहते हुए ) - मैं तुम लोगों को कुछ नहीं बता सकता रेहान । वरना मिशा मेरे परिवार वालों को मौत के घाट उतार देगी ....। आदित्य ( उसे कॉलर से पकड़ कर खड़े करने के बाद , उसके पेट में घूंसा मारते हुए कहता है ) - तू हमसे झूठ बोल रहा है विनय......। मिशा तो तेरे परिवार वालों को जानती तक नहीं है । तू हमें जान बूझकर अपनी बातों में उलझाने कि अगर कोशिश कर रहा है ना , तो तेरे लिए ये तेरी हरकत तुझे बहुत मंहगी पड़ेगी । बहुत बड़ा खामियाजा चुकाना होगा तुझे , हमें बेवकूफ बनाने के बदले में .....। आदित्य के मारने से विनय के मुंह से खून निकलने लगा था । उसने अपने होठों के नीचे से खून पोंछा और दोनों से एक बार फिर गिड़गिड़ाते हुए बोला । विनय - मेरी बात का यकीन करो तुम दोनों । मिशा मेरे परिवार को जानती भी है और उसने मुझे धमकी भी दी है , कि अगर मैंने ये सच किसी को भी बताया , तो वो मेरे पूरे परिवार को मरवा देगी । विनय की बात सुनकर रेहान और आदित्य सोच में पड़ गए । उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था , कि मिशा ऐसा कुछ भी कर सकती है । उन्होंने एक नजर एक दूसरे को देखा , फिर आदित्य ने वहीं पर रखी लड़की की एक चेयर वहां पड़े कपड़े से साफ की और उसमें विनय को बैठाया । और फिर रेहान विनय बोला । रेहान - देखो विनय ....!!!! तुम्हारे परिवार को कुछ नहीं होगा , इसकी गारंटी हम लेते हैं । बस तुम हमें सच - सच बताओ । कि आज कायरा के साथ जो कुछ भी हुआ , क्या उसके पीछे मिशा का हाथ है । रेहान की बात सुनकर , विनय को थोड़ी सी हिम्मत मिली । फिर उसने मॉल में मिशा से बात करने से लेकर , अभी कुछ देर पहले जो भी बात उसकी मिशा से हुई, वो सब उन दोनों को बता दिया । मिशा की सच्चाई जानकर रेहान और आदित्य दोनों को शॉक लगा । आदित्य ने रेहान कि तरफ देखते हुए कहा । आदित्य - मिशा इस हद तक गिर सकती है , कि वो आरव को पाने के कोई कायरा का किडनैप करवाएगी , ये तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था रेहान । रेहान - तू सही कह रहा है आदि .....। कायरा के लिए मिशा की नफ़रत , आज उससे ये सब करवा रही है । मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा , कि मैं इस बात पर कैसे रिएक्ट करूं....। क्या हम ये बात आरव और बाकी सारे दोस्तों को भी बता दे । ताकि हम सब मिलकर मिशा को सबक सिखा सकें.....। आदित्य - नहीं रेहान.....। तू आरव को जानता है , वो अपने किसी भी दोस्त से मिला हुआ धोखा बर्दास्त नहीं कर सकता । और अगर उसे ये बात पता चली , कि कायरा का किडनैप मिशा ने करवाया है , तो आरव मिशा को किसी भी हाल में नहीं छोड़ेगा
। वो उसकी जान ले लेगा रेहान .....। जो कि आरव और उसके कैरियर के लिए हार्म फुल है । रेहान - तू ठीक कह रहा है आदि । आरव को कायरा के आगे कुछ नहीं दिखता । तूने देखा था न , फंक्शन वाले दिन आरव ने राजवीर की मार - मार कर क्या हालत कर दी थी । पर हम आरव की लाइफ के साथ इतना बड़ा रिस्क नहीं ले सकते । और अभी हमारे पास, मिशा के खिलाफ कोई सबूत भी नहीं है । विनय की बात कोई मानेगा नहीं , क्योंकि इसने खुद राजवीर को हम सबके सामने गलत ठहराया है और अगर ये दोबारा राजवीर के पक्ष में कुछ बोलेगा , तो कोई भी इसकी बात पर ट्रस्ट नहीं करेगा । आदित्य - इस लिए जब तक हमारे पास मिशा के खिलाफ कोई सॉलिड प्रूफ नहीं आ जाता , तब तक हमें आरव और कायरा के अलावा बाकी सब से भी ये बात छुपा कर रखनी होगी । रेहान ने उसकी बात पर हामी भरी । और फिर आदित्य फर्स्ट एड बॉक्स ले आया और दोनों ने विनय की ड्रेसिंग की और उसे सड़क तक छोड़ कर ,टैक्सी में बैठाकर उसे उसके घर के लिए रवाना किया । विनय को अब अपने परिवार की और चिंता होने लगी, कि कहीं मिशा को ये पता चला कि विनय ने आदित्य और रेहान को सब कुछ बता दिया है , तो मिशा गुस्से में आकर कहीं , सच मे उसके परिवार को हार्म न कर दे । पर टैक्सी में बैठाते समय रेहान और आदित्य ने उसे उसके परिवार की सुरक्षा का ध्यान रखने का वादा किया था । इस लिए विनय उनके वादे को याद कर थोड़ा सा ठीक महसूस कर रहा था........।
अगोचर तथा अशक्त रहती है या वंध्य आलोचक या शुष्क यंत्रवित् । इनका पर्याप्त सामंजस्य तथा ठीक समन्वय हमारे मनोविज्ञान और हमारे व्यवहारकी एक महान् समस्या है । समन्वय करनेवाली शक्ति परे, अंतर्ज्ञानमें निहित है। परंतु एक अंतर्ज्ञान तो वह है जो बुद्धिकी सेवा करता है और एक वह जो हृदय तथा प्राणकी सेवा करता है । यदि हम इनमें से किसी एकका ही अनन्य भावसे अनुसरण करें तो हम पहलेकी अपेक्षा अधिक दूर नहीं पहुँचेंगे; केवल इतना ही होगा कि जो चीजें अन्य अल्पदृष्टि शक्तियोंका लक्ष्य हैं वे हमारे लिये पृथक्-पृथक्, किंतु अधिक अंतरंग रूपमें, वास्तविक हो जायेंगी । किंतु यह तथ्य कि यह हमारी सत्ताके सभी भागोंकी समान रूपसे सहायता कर सकता है, क्योंकि शरीरके भी अपने अंतर्ज्ञान होते हैं, -बतलाता है कि अंतर्ज्ञान एकांगी नहीं, बल्कि सर्वांगीण सत्यान्वेषी है। हमें अपनी संपूर्ण सत्ताके अंतर्ज्ञानके सामने अपनी जिज्ञासा रखनी है, न कि केवल सत्ताके प्रत्येक भागके सामने पृथक्-पृथक्, न ही इनकी उपलब्धियोंके कुल जोड़के सामने, बल्कि इन सब निम्नतर यंत्रोंसे परे, यहाँतक कि इनके प्रथम आध्यात्मिक प्रतिरूपोंसे भी परे । इसके लिये हमें अंतर्ज्ञानके निज गृहमें आरोहण करना होगा जो अनंत तथा असीम सत्यका निज गृह है, 'ऋतस्य स्वे दमे', जहाँ सत्तामात्र अपनी एकता उपलब्ध कर लेती है। यही आशय था प्राचीन वेदका जब कि उसने घोषणा की थी, "सत्यसे ढका हुआ एक ध्रुव सत्य है ( सनातन सत्य जो इस दूसरे सत्यसे छुपा हुआ है जिसकी हमें यहाँ ये निम्नतर स्फुरणाएँ होती हैं ) ; वहाँ प्रकाशकी दशशत किरणें एक साथ स्थित हैं; वह है एक ।" 'ऋतेन ऋतम् अपिहितं. दश शता सह तस्युः, तद् एकम् " आध्यात्मिक अंतर्ज्ञान सदा सत्यको ही पकड़ता है; यह आध्यात्मिक उपलब्धिका ज्योति दूत है या इसे उद्भासित करनेवाला प्रकाश; यह उसे प्रत्यक्ष देखता है जिसे हमारी सत्ताकी अन्य शक्तियाँ खोजनेका प्रयास कर रही हैं; यह बुद्धिके अमूर्त प्रतिरूपों तथा हृदय और प्राणके दृश्य प्रतिरूपोंके ध्रुव सत्यपर पहुँचता है, ऐसे सत्यपर जो स्वयं न तो दूरतः अमूर्त्त है न ही बाह्यतः मूर्त्त, बल्कि इनसे भिन्न कोई ऐसी चीज है जिसके लिये ये केवल हमारे प्रति इसकी मानसिक अभिव्यक्तिके दो पक्षमात्र हैं । जब हमारी अखंड सत्ताके अंग आपसमें पहले की तरह विवाद नहीं करते, बल्कि ऊपरसे प्रकाश पाते हैं तब इसका अंतर्ज्ञान जो कुछ देखता है वह यही है कि हमारी संपूर्ण सत्ताका लक्ष्य एक ही सद्वस्तु है । निर्गुण एक सत्य है, सगुण भी एक सत्य है । वे एक ही सत्य हैं जो हमारी मानसिक क्रियाकी दो दिशाओंसे देखा गया है । उनमें से कोई भी अकेला सद्वस्तुका पूर्ण विवरण नहीं देता । तो भी प्रत्येकसे हम उसके पास पहुँच सकते हैं। । एक दिशासे देखनेपर ऐसा लगेगा कि कोई निर्वैयक्तिक विचार कार्यमें तत्पर है और उसने अपने कामकी सुविधा के लिये विचारककी कल्पनाको जन्म दिया है, कोई निर्वैयक्तिक शक्ति कार्यरत है और वह कर्ताकी कल्पनाको जन्म देती है, कोई निर्वैयक्तिक सत्ता क्रिया में प्रवृत्त है, और वह एक ऐसी वैयक्तिक सत्ताकी कल्पनाको प्रयोगमें लाती है जो चेतन व्यक्तित्व तथा वैयक्तिक आनंदको धारण करती है। दूसरी दिशासे देखनेपर, यह विचारक ही है जो अपने-आपको विचारमें प्रकट करता है, जिसके बिना विचारका अस्तित्व संभव ही न होता और विचारसंबंधी हमारी सामान्य कल्पना केवल विचारकके स्वभावकी शक्तिको संकेतित करती है; ईश्वर अपनेको संकल्प, बल तथा सामर्थ्यके द्वारा व्यक्त करता है, सत् अपनी सत्ता, चेतना तथा आनंदके सर्वांगीण तथा आंशिक, प्रत्यक्ष, विलोम तथा प्रतिलोम -- सभी रूपोंके द्वारा अपनेको विस्तारित करता है, इन चीजोंके विषययें हमारा सामान्य अमूर्त विचार उसकी सत्ताकी प्रकृतिको त्रिविध शक्तिका बौद्धिक प्रतिरूपमात्र है । समस्त निर्वैयक्तिकता क्रमशः कल्पनाका रूप धरती दिखायी देती है और सत्ता अपने क्षण-क्षणमें तथा कण-कणमें एक और फिर भी असंख्यरूप व्यक्तित्व, अनंत देवाधिदेव, आत्म-चेतन तथा आत्म-प्रकाशक पुरुषके जीवन, चैतन्य, बल, आनंदके सिवा कुछ नहीं प्रतीत होती । दोनों दृष्टियाँ ठीक हैं, इसके सिवा कि कल्पनाके विचारको, जो हमारी अपनी बौद्धिक प्रक्रियाओंसे उधार लिया गया है, बाहर निकालना और प्रत्येकको उसका उपयुक्त बल देना आवश्यक है । । पूर्णयोगके जिज्ञासुको इस प्रकाश में देखना होगा कि वह दोनों दिशाओंमें उसी एक और अभिन्न सद्वस्तुपर पहुँच सकता है, बारी-बारीसे या एक साथ, मानों वह दो संबद्ध पहियोंपर सवारी कर रहा हो जो पहिये समानांतर पटरियोंपर घूम रहे हैं, पर वे समानांतर पटरियाँ बौद्धिक तर्कको नीचा दिखाकर तथा एकताके अपने भीतरी सत्यके अनुसार अनंततामें पहुँचकर अवश्य मिल जाती हैं । भागवत व्यक्तित्वको हमें इसी दृष्टिकोणसे देखना है । जब हम व्यक्तित्वकी चर्चा क
रते हैं तो पहले-पहल इससे हमारा मतलब किसी सीमित, वाह्य, भेदकारक वस्तुसे होता है, और वैयक्तिक ईश्वरके विषयमें हमारा विचार भी उसी अपूर्ण स्वरूपको धारण करता है। प्रारंभ में हमारा व्यक्तित्व हमारे लिये एक पृथक् प्राणी, सीमित मन, शरीर तथा स्वभाव. होता है जिसे हम यूं समझते हैं कि यह हमारा निज स्वरूप है, यह एक निश्चित परिमाणवाला होता है; चाहे असलमें यह सदा बदल रहा है, तो भी इसमें स्थिरताका पर्याप्त अंश होता है जिससे हम निश्चित परिमाणताके इस विचारका एक प्रकारका क्रियात्मक समर्थन कर सकते हैं। ईश्वरके विषयमें हम कल्पना करते हैं कि वह एक ऐसा ही व्यक्ति है, हाँ उसके शरीर नहीं है, वह अन्य सबसे भिन्न एक पृथक् व्यक्ति है जिसका मन और स्वभाव कुछ विशेष गुणोंसे मर्यादित है । पहले-पहल हमारे असंस्कृत विचारोंमें यह देवता अत्यंत अस्थिर, चंचल और तरंगी होता है, हमारे मानवीय स्वभावका एक बड़ा संस्करण । परंतु बादमें हम व्यक्तित्वके दिव्य स्वरूपको सर्वथा निश्चित मर्यादाकी वस्तु समझते हैं और इसमें हम केवल उन्हीं गुणोंको आरोपित करते हैं जिन्हें हम दिव्य एवं आदर्श मानते हैं, जब कि और सभीको हम बहिष्कृत कर देते हैं । यह मर्यादा हमें बाध्य करती है कि हम शेष सब गुणोंकी व्याख्या करनेके लिये उन्हें शैतानपर आरोपित कर दें, या जिसे हम बुरा मानते हैं उस सबको पैदा करनेकी ' मौलिक सामर्थ्य मनुष्यमें स्वीकार करें, या फिर, जब हम देखें कि इससे पूरी तरह काम नहीं चलेगा तो एक ऐसी शक्ति खड़ी कर दें जिसे हम प्रकृति कहते हैं और उसपर उस समस्त निम्न गुण तथा कार्य-कलापको आरोपित कर दें जिसके लिये हम भगवान्को उत्तरदायी नहीं बनाना चाहते । इससे ऊँचे शिखरपर ईश्वरमें मन और स्वभावका आरोप कम मानवीय हो जाता है और हम उसे अनंत आत्मा, किंतु अभी भी एक पृथक् व्यक्ति मानते हैं, एक ऐसी आत्मा जिसमें उसके विशेष धर्म-रूप कुछ निश्चित दिव्य गुण हैं । भागवत व्यक्तित्व या सगुण- ईश्वरसंबंधी विचार इसी प्रकार कल्पित किये जाते हैं और ये नाना धर्मोमें इतने विभिन्न प्रकारके होते हैं । यह सब प्रथम दृष्टिमें आदिम मानवगुणारोपवाद प्रतीत हो सकता है जिसके अंतमें ईश्वर - विषयक एक वौद्धिक विचार जन्म लेता है । जगत् जैसा हमें दीखता है, उसकी यथार्थताओंसे वह विचार अतीव भिन्न है । इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि दार्शनिक तथा संदेहशील मनको इस सबका बौद्धिक तौरपर उन्मूलन करनेमें कुछ भी कठिनाई न हुई हो, चाहे वह उन्मूलन सगुण ईश्वरके निषेध और निर्गुण शक्ति या संभूतिकी स्थापनाकी दिशामें हो या निर्गुण सत्की या सत्ताके अनिर्वचनीय निषेधकी दिशामें, जब कि शेष सबको मायाके प्रतीक या कालचेतनाके नामरूपात्मक सत्यमात्र समझा जाता है। परंतु ये एकेश्वरवादके व्यक्तित्वारोपणमान हैं । अनेकेश्वरवादी धर्म विश्व - जीवनके प्रति अपने प्रत्युत्तरमें शायद इससे कम ऊँचे, पर अधिक विशाल तथा अधिक संवेदनशील रहे हैं। उन्होंने अनुभव किया है कि संसारकी सभी वस्तुओंका मूल उद्गम दिव्य है; अतएव उन्होंने अनेक दिव्य व्यक्तित्वों ( देवताओं ) की सत्ताकी कल्पना की जिनके पीछे उन्होंने अनिर्देश्य भगवान्का धुँधला आभास पाया । सगुण देवोंके साथ इस भगवान्के संबंधोंकी उन्हें कोई सुस्पष्ट धारणा नहीं थी । अपने अधिक प्रकट आकारोंमें ये देवता असंस्कृत तौरपर मानवीय थे; पर जहाँ आध्यात्मिक वस्तुओंका आंतरिक अर्थ अधिक स्पष्ट हुआ, नाना देवोंने एकमेव भगवान्के व्यक्तित्वोंका रूप धारण कर लिया, - प्राचीन वेदका घोषित दृष्टिकोण यही है । यह भगवान् एक परम पुरुष हो सकता है जो अपनेको अनेक दिव्य व्यक्तित्वोंमें प्रकट करता है या यह एक निर्गुण सत्ता हो सकता है जो मानव मनको इन रूपोंमें दृष्टिगोचर होती है; अथवा इन दोनों विचारोंमें समन्वयका कोई बौद्धिक प्रयत्न किये बिना इन्हें एक साथ माना जा सकता है, क्योंकि आध्यात्मिक अनुभवको दोनों ही सत्य जान पड़ते थे । यदि हम बुद्धिके विवेकद्वारा दिव्य-व्यक्तित्वसंबंधी इन विचारोंकी परीक्षा करें तो अपनी रुचिके अनुसार हम इन्हें यह रूप देनेमें प्रवृत्त होंगे कि ये कल्पनाके आविष्कार या मनोवैज्ञानिक प्रतीक हैं, कम-से-कम ये किसी ऐसी चीजके प्रति हमारे संवेदनशील व्यक्तित्वका प्रत्युत्तर हैं जो व्यक्ति रूप विलकुल नहीं है, बल्कि शुद्ध निर्गुण है। हम कह सकते हैं कि वह (तत्) वास्तवमें हमारी मानवता तथा हमारे व्यक्तित्वके ठीक विपरीत है और इसलिये उसके साथ सब प्रकारके संबंध जोड़नेके लिये हमें इन मानवी कल्पनाओं तथा इन वैयक्तिक प्रतीकोंकी स्थापनाके लिये बाध्य होना पड़ता है जिससे कि वह हमारे अधिक समीपवर्ती हो जाय । परंतु हमें आध्यात्मिक आध्यात्मिक अनुभवके द्वारा निर्णय करना होगा, और समग्र आध्यात्मिक अनुभवमें हम पायेंगे कि ये चीजें कल्पनाएँ और प्रतीक नहीं, बल्कि अपने सारमें दिव्य सत्ताके सत्य हैं
, चाहे हमारे द्वारा रचित उनके प्रतिरूप कैसे भी अपूर्ण क्यों न हों। यहांतक कि अपने व्यक्तित्वके विषय में हमारा प्रथम विचार भी नितांत अशुद्ध नहीं, बल्कि अनेक मानसिक भूलोंसे घिरा हुआ अधकचरा तथा उथला विचार है । महत्तर आत्मज्ञानसे हमें पता चलता है कि, प्रारंभमें हम जैसे प्रतीत होते हैं उसके विपरीत, हम मूलतः रूप, वलों, गुणों, धर्मोकी एक ऐसी विशेष रचना नहीं हैं जिसमें एक चेतन अहं है जो अपनेको इनसे एकाकार कर लेता है । यह तो हमारी सक्रिय चेतनाके तलपर हमारी आंशिक सत्ताका अस्थायी तथ्यमात्र है, पर है यह एक तथ्य हो । अंदर हम देखते हैं कि एक अनंत सत्ता है जिसमें सब गुण, अनंत गुण, बीजरूपसे निहित हैं । वे गुण असंख्य संभव रूपोंमें मिलाये जा सकते हैं, प्रत्येक मिश्रण हमारी सत्ताका एक प्राकट्य होता है। यह सर्वविध व्यक्तित्व परम पुरुषकी, अर्थात् अपनी अभिव्यक्तिसे सचेतन पुरुषकी आत्म-अभिव्यक्ति है । परंतु हम यह भी देखते हैं कि यह पुरुष अनंत गुणोंसे गठित भी नहीं प्रतीत होता, वरन् उसकी इस अवस्थाका सत्य स्वरूप गहन है । इस अवस्था में वह अनंत गुणसे पीछे हटकर अनिर्देश्य चेतन सत्ताका रूप धारण करता प्रतीत होता है । यहांतक लगता है कि वह चेतनाको भी पीछे हटा लेता है और तब केवल कालातीत शुद्ध सत्ता ही शेष रह जाती है। फिर, एक विशेष शिखरपर ऐसा दीखता है कि हमारी सत्ताकी यह शुद्ध आत्मा भी अपनी वास्तविकताका निषेध कर रही है, या यह एक ऐसे अनात्म अनाधार * अज्ञेयका प्रस्तारमात है जिसे हम अनाम 'कुछ' या शून्य कल्पित कर सकते हैं । जब हम एकमात्र इसीपर दृष्टि गड़ाकर वह सब कुछ भूल जाते हैं जो इसने अपने अंदर पीछेकी ओर हटा लिया है तभी हम शुद्ध निर्गुणता या रिक्त शून्यको सर्वोच्च सत्य कहते हैं । परंतु अधिक सर्वांगीण दृष्टि हमें बताती है कि जिसने अपनेको इस प्रकार ऊपर अव्यक्त कूटस्थमें हटा लिया है वह है परम पुरुष तथा व्यक्तित्व और वह सब जो इसने व्यक्त किया था । यदि हम अपने हृदय तथा तार्किक मनको सर्वोच्चकी ओर उठा ले जायँ तो हमें पता लगेगा कि इसे हम चरम पुरुष तथा चरम निर्गुण सत्ता दोनोंके द्वारा प्राप्त कर सकते हैं । परंतु यह सव आत्मज्ञान विश्वमय भगवान्के सजातीय सत्यका हमारे भीतर प्रतिरूपमात्र है। वहाँ भी हम दिव्य व्यक्तित्वके अनेक रूपोंमें उसका साक्षात् करते हैं; गुणकी रचनाओंमें जो उसे उसकी प्रकृतिमें हमारे सामने नाना प्रकारसे प्रकट करती हैं; अनंत गुणमें; दिव्य व्यक्तिमें जो अपनेको अनंत गुणद्वारा प्रकट करता है; चरम निर्वैयक्तिकता, चरम सत्ता या चरम अ-सत्तामें जो सदैव इस दिव्य व्यक्ति, इस चिन्मय पुरुषकी अव्यक्त केवलता है। यह पुरुष हमारे द्वारा तथा विश्वके द्वारा अपने आपको प्रकट करता है । इस वैश्व स्तरपर भी हम निरंतर इन दोनों पक्षोंमें भगवान्के पास पहुँच रहे हैं। हम यों विचार एवं अनुभव कर सकते तथा कह सकते अनात्म्यम् अनिलयनम् तैत्तिरीय उपनिषद् कि ईश्वर सत्य, न्याय, पवित्रता, बल, प्रेम, आनंद, सौंदर्य हैं; हम उसे विश्व-शक्ति या विश्व-चेतनाके रूपमें भी देख सकते हैं। परंतु यह तो केवल अनुभवका अमूर्त्त ढंग है । जैसे हम स्वयं कुछ एक गुण या शक्तियाँ या मनोवैज्ञानिक राशिमात्र नहीं हैं, बल्कि एक पुरुष या व्यक्ति हैं जो अपनी प्रकृतिको इस प्रकार प्रकट करता है, वैसे भगवान् भी एक व्यक्ति, चिन्मय पुरुष है जो अपनी प्रकृतिको हमारे सामने इस प्रकार प्रकट करता है। इस प्रकृतिके भिन्न-भिन्न रूपोंद्वारा, सत्यस्वरूप ईश्वर प्रेम एवं दयामय ईश्वर, शांति एवं पवित्रताका आगार ईश्वर - - इन सब रूपोंद्वारा हम उसकी उपासना कर सकते हैं। परंतु प्रत्यक्ष है कि दिव्य प्रकृतिमें और भी हैं चीजें हैं जो हमने व्यक्तित्वके उस रूपके बाहर रख छोड़ी हैं जिसमें हम इस प्रकार उसकी पूजा कर रहे हैं । रहे हैं । अविचल आध्यात्मिक दृष्टि और अनुभूतिके साहससे संपन्न मनुष्य अधिक कठोर या भीषण रूपोंमें भी उसका साक्षात्कार कर सकता है। इनमें से कोई भी संपूर्ण देवत्व नहीं है; तो भी उसके व्यक्तित्वके ये रूप उसके वास्तविक सत्य हैं जिनमें वह हमसे मिलता तथा व्यवहार करता प्रतीत होता है, मानो शेष सव उसने अपने पीछे कहीं रख छोड़े हों । वह पृथक्-पृथक् हर एक रूप है और एक साथ सब कुछ है । वह विष्णु, कृष्ण, काली है; वह अपने आपको ईसाके व्यक्तित्व या बुद्धके व्यक्तित्वके मानवी रूप में हमारे सामने प्रकाशित करता है । जब हम अपनी प्राथमिक, एकांगी रूपसे केंद्रित दृष्टिके परे देखते हैं तो हम विष्णुके पीछे शिवका संपूर्ण व्यक्तित्व तथा शिवके पीछे विष्णुका संपूर्ण व्यक्तित्व देखते हैं । वह अनंतगुण है तथा अनंत दिव्य व्यक्तित्व है जो अपनेको इसके द्वारा प्रकट करता है । और फिर, ऐसा प्रतीत होता कि वह शुद्ध आध्यात्मिक निर्गुणतामें या निर्गुण आत्माके विचारमातसे भी परे लौट जाता है