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कहानी: हाफ गर्लफ्रेंड बिहार के एक छोटे से कस्बे सिमराव के रहने वाले माधव झा (अर्जुन कपूर) की कहानी है जो आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफन्स कॉलेज में अंग्रेजी का बोलबाला देखकर माधव ऐडमिशन की उम्मीद छोड देता है लेकिन बास्केटबॉल के स्पोर्ट्स कोटे में न सिर्फ उसका वहां ऐडमशिन हो जाता है बल्कि बास्केटबॉल की बदौलत ही उसकी वहां एक बेहद अमीर फैमिली से आने वाली और फरार्टेदार अंग्रेजी बोलने वाली रिया सोमानी (श्रद्धा कपूर) से भी दोस्ती हो जाती है। दोनों की कॉलेज लाइफ हंसते-खेलते आगे बढ़ती है। उन दोनों के बीच प्यार होता और फिर तकरार भी। अगर आपने चेतन भगत की किताब हाफ गर्लफ्रेंड पढ़ा है तो आप पहले से ही हाफ गर्लफ्रेंड की कहानी से रूबरू होंगे। रिव्यू: माधव अपनी जिंदगी में जब भी मुश्किल में पड़ता है तो वह अपनी मां की सिखाई सीख याद करता है कि 'हार मत मानो, हार को हराना सीखो।' फिर चाहे मामला फरार्टेदार अंग्रेजी बोलने वाली गर्लफ्रेंड पटाने का हो या फिर अपनी मां के स्कूल के लिए विदेशी मदद हासिल करने की खातिर विदेशी मेहमानों के सामने स्पीच देने का। माधव अपनी जिंदगी में कभी हार नहीं मानता। यह फिल्म एक ऐसे लड़के की कहानी है जो खुद को साबित करने के लिए इंग्लिश से जूझता रहता है, तो अपनी दोस्त से ज्यादा और गर्लफ्रेंड से कम हाफ गर्लफ्रेंड को पाने की खातिर भी। ठेठ बिहारी लड़के के रोल में खुद को साबित करने के लिए अर्जुन ने काफी मेहनत की है और अपने रोल को अच्छे से निभाया है लेकिन फिर भी लगता है कि कुछ कसर बाकी रह गई। एक बेहद अमीर फैमिली से ताल्लुक रखने वाली रिया सोमानी के रोल को श्रद्धा कपूर ने बखूबी निभाया है। हाई क्लास सोसायटी से आने वाली रिया को देहाती माधव में एक ऐसा साथी नजर आता है जिसके साथ वह अपनी टेंशन भरी फैमिली लाइफ से दूर सुकून के कुछ पल बिता सकती है। डायरेक्टर मोहित सूरी ने रिया के किरदार के माध्यम से आजकल की लड़कियों की सोच को पर्दे पर उतारा है जिन्होंने अपनी मां को शादी बचाने की खातिर सब कुछ सहन करते देखा है लेकिन वह खुद इसके लिए राजी नहीं हैं। फिल्म आपको दिखाती है कि महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में कोई क्लास पीछे नहीं है, फिर चाहे वह हाई क्लास हो, मिडिल क्लास हो या फिर लोअर क्लास। हर जगह औरतें बस अपनी शादी बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं। फिल्म में मोहित सूरी ने दर्शकों को बांधने के लिए कुछ चेंज भी किए हैं। फिल्म का पहला हाफ मजेदार है, वहीं सेकंड हाफ सीरियस हो जाता है। माधव के दोस्त शैलेश के रोल में विक्रांत मैसी की ऐक्टिंग आपको याद रह जाती है तो माधव की मां के छोटे मगर दमदार रोल में सीमा बिस्वास भी जंची हैं। विष्णु राव की सिनिमटॉग्रफी खूबसूरत है। खासकर इंडिया गेट के उपर से दिल्ली का सीन दिल्लीवालों को जरूर पसंद आएगा। वहीं, डीयू और न्यू यॉर्क के अलावा पटना के सीन भी दर्शकों को खूबसूरत लगेंगे। कॉमनमैन के राइटर माने जाने वाले चेतन भगत इस फिल्म से बतौर प्रड्यूसर जुडे हैं। चेतन की किताबें उन्हें चुनिंदा लोगों तक पहुंचाती हैं लेकिन उनकी किताबों पर बनीं फिल्में उन्हें आम लोगों तक पहुंचाती हैं। हिंदी वर्सेज इंग्लिश से परेशान कॉलेज स्टूडेंट्स खुद को फिल्म से रिलेट कर पाएंगे। यही वजह है कि मॉर्निंग शोज में लड़के-लड़कियों की खासी भीड़ सिनेमा पहुंची हुई थी। फिल्म का संगीत पहले से ही यंगस्टर्स में काफी पॉप्युलर है। खासकर, 'मैं फिर भी तुझको चाहूंगा' और 'तू थोडी देर और ठहर जा' को लोग सिनेमा से बाहर निकल कर भी गुनगुनाते हैं। | 1 |
कहानी: कालाकांडी में 3 कहानियां एक साथ चलती हैं। एक व्यक्ति जिसे पता चलता है कि वह बीमार है तो वह अपने सारे नियम-कायदे तोड़कर थोड़ा सा जीने का प्रयास करता है, एक महिला जो एक हिट-ऐंड-रन मामले में दोषी है और इससे बचना चाहती है और 2 गुंडे जिन्हें यह निर्णय लेना है कि वे एक-दूसरे पर विश्चवास करें या नहीं। रिव्यू: 'डेल्ही बेली' जैसी अलग तरह की कॉमिडी फिल्म लिखने के बाद अक्षत वर्मा ने कालाकांडी की कहानी को मुंबई पर केंद्रित किया है जो दर्शकों को काफी आकर्षित करती है। यह उन लोगों के चारों ओर घूमती है जिन्हें हमेशा हर अच्छा-बुरा काम करना चाहिए जिसमें वे शायद ही कुछ ठीक करते हैं। अगर आप कोएन ब्रदर्स के फैन हैं और उनके डार्क ह्यूमर को पसंद करते हैं तो यह नई बात है कि इस जॉनर का प्रयोग अब भारतीय फिल्ममेकर्स भी कर रहे हैं। फिल्म कालाकांडी में बेतुके से मनोरंजन में सैफ अली खान एक सफलता के तौर पर देखे जा सकते हैं। जब एक अच्छे खासे नौजवान (सैफ) को पता चलता है कि उन्हें कैंसर है तो उन्हें बड़ा अफसोस होता है कि उन्होंने इतने सीधे तरीके से अपनी जिंदगी क्यों बिताई। वह बची जिंदगी में सारे काम करना चाहते हैं जिसमें कई अजीब बातें शामिल हैं। केवल सैफ अली खान ही ऐसी द्विअर्थी लाइन ही मार सकते हैं कि 'हमको आपके सामान के बारे में क्युरिऑसिटी है' जो बुरा तो लगता ही नहीं है बल्कि मजाकिया लगता है। एक टूटे हुए आदमी के किरदार में सैफ का किरदार अच्छा लगा है जो हर बंधन से मुक्ति पा लेना चाहता है। आप फिल्म में इस किरदार के दर्द और काफी कुछ खो देने की बेबसी को समझ सकते हैं। फिल्म में सैफ और नैरी सिंह के बीच एक गर्मजोशी भरा बॉन्ड दिखता है जो भारतीय सिनेमा में समलैंगिग संबंधों को ऐतिहासिक कहा जा सकता है। यह दोनों किरदार फिल्म में गर्मजोशी से भरे और छिपे हुए नजर आते हैं जिससे पता चलता है कि हमारे यहां सैक्शुऐलिटी को इतना ओवर-रेटेड क्यों है और दिखता है कि मानव समाज में कितनी असमानता और यह सामाजिक नियमों का अतिक्रमण करता है। सैफ के कजिन के तौर पर अक्षय ओबेरॉय का किरदार खासा महत्वपूर्ण है। विजय राज ने अपनी भूमिका बेहतरी से निभाई है हालांकि ऐसे बोल्ड किरदार के चुनाव के लिए सैफ अली खान की तारीफ की जानी चाहिए लेकिन कालाकांडी दर्शकों को निराश करती है। शुरुआत में फिल्म काफी थ्रिलर लगती है लेकिन जल्द ही यह अपनी गति खो देती है। सैफ के अलावा जो दो कहानियां हैं वे पटरी से उतर जाती हैं जिसके कारण फिल्म में जो मनोरंजन, मजा और इमोशंस हो सकते थे, वे गायब हैं। लेकिन अगर आप बिना किसी सोच-समझ के धैर्य के साथ फिल्म देखना जारी रखते हैं तो यह फिल्म आपको ठीक लग सकती है। | 0 |
यह सही बात है कि 1948 में लंदन में हुए ओलिंपिक में स्वतंत्र भारत ने हॉकी में अपना पहला स्वर्ण पदक जीता था, लेकिन ये कल्पना है कि एक बंगाली बाबू तपन (अक्षय कुमार) ने यह सपना देखा था और टीम बनाने में अहम योगदान दिया था।
रीमा कागती द्वारा निर्देशित फिल्म 'गोल्ड' में आधी हकीकत और आधा फसाना को दर्शाया गया है। राजेश देवराज और रीमा ने मिलकर ऐसी कहानी लिखी है जिसमें खेल है, देश प्रेम है और अपने सपने को पूरा करने की जिद है। इस तरह की फिल्में इस समय खासी धूम मचा रही हैं और इन्हीं बातों का समावेश कर शायद एक हिट फिल्म रचने की कोशिश की गई है।
फिल्म शुरू होती है 1936 के बर्लिन ओलिंपिक से जब ब्रिटिश इंडिया हॉकी टीम फाइनल में थी और उसका मुकाबला जर्मनी की टीम से था। तानाशाह हिटलर की उपस्थिति में ब्रिटिश इंडिया टीम 8-1 से मैच जीत जाती है। तपन इस टीम से बतौर मैनेजर जुड़ा हुआ रहता है। उसके सहित भारतीय खिलाड़ियों को तब दु:ख होता है जब उनकी जीत के बाद यूनियन जैक ऊपर जाता है और ब्रिटेन का राष्ट्रीय गीत बजता है।
तब तपन सपना देखता है कि एक दिन तिरंगा ऊपर जाएगा और 'जन गण मन' सुनने को मिलेगा। उसका सपना 1948 में लंदन ओलिंपिक में पूरा होता है। इस 12 साल के उसके संघर्ष को फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह से वह हॉकी टीम बनाता है और तमाम मुश्किलों का सामना करता है।
फिल्म की कहानी बुनियाद थोड़ी कमजोर है। यह 1936 में जीते स्वर्ण पदक की महत्ता को कम करती है। ठीक है उस समय हमारा देश गुलाम था और टीम को ब्रिटिश इंडिया कहा गया था, लेकिन उसमें खेलने वाले अधिकतर खिलाड़ी भारतीय थे और उन्होंने टीम को गोल्ड मैडल दिलाया था। 1948 का स्वर्ण पदक इसलिए खास बन गया क्योंकि यह आजाद भारत का पहला गोल्ड मैडल था, लेकिन इससे 1936 की जीत की चमक फीकी नहीं पड़ जाती।
दूसरी कमी यह लगती है कि सपना देखने वाला जो कि फिल्म का लीड कैरेक्टर है, कोच या खिलाड़ी न होकर एक मैनेजरनुमा व्यक्ति है, जो शराब पीकर सपने देखा करता है। उसके योगदान को लेखकों ने बहुत गहराई नहीं दी गई है जिससे फिल्म का असर कम हो जाता है।
वह अपनी पत्नी मोनोबिना (मौनी रॉय) के गहने गिरवी रख खिलाड़ियों का खर्चा उठाता है और उन्हें इकट्ठा करता है, लेकिन खेल में कोई योगदान नहीं देता। उसके सपने को फिल्म में बार-बार जोर देकर बताया गया है कि यह बहुत बड़ा सपना था जो पूरा हुआ। यह 'कोशिश' कई बार फिल्म देखते समय अखरती है।
तपन के सामने जो मुश्किलें खड़ी की गई हैं वो भी बनावटी लगती है। जैसे फंड की कमी को लेकर तपन-वाडिया और मेहता के बीच का एक प्रसंग डाला गया है वो महज फिल्म की लंबाई को बढ़ाता है।
कहानी की इन मूल कमियों पर कम ध्यान इसलिए जाता है कि फिल्म में मनोरंजन का खासा ध्यान रखा गया है। प्रताप सिंह (अमित साध) और हिम्मत सिंह (सनी कौशल) के किरदार बड़े मजेदार हैं। जहां प्रताप में राजसी ठसक है वहीं हिम्मत में देसीपन है। दोनों की नोकझोक बढ़िया लगती है। हिम्मत की प्रेम कहानी भी फिल्म का मूड हल्का-फुल्का करती है।
ट्रेनिंग के दौरान बिखरी टीम में एकता लाने के लिए ईंट के ढेर को जमाने से जो बात समझाई गई है वो फिल्म का बेहतरीन सीन है।
फिल्म तब दम पकड़ती है जब लंदन ओलिंपिक के लिए खिलाड़ी चुन लिए जाते हैं और सम्राट ( कुणाल कपूर) खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देना शुरू करता है। इसके बाद सेमीफाइनल और फाइनल मैच का रोमांच फिल्म को ऊंचाइयों पर ले जाता है और आप फिल्म की कमियों को भूल जाते हैं। नंगे पैर खेल कर भारतीय खिलाड़ी जब फाइनल जीतते हैं, जीत के बाद जब तिरंगा ऊपर जाता है और 'जन गण मन' सुनने को मिलता है तो गर्व से सीना फूल जाता है।
हॉकी खेलने वाले सीन में खेल धीमा लगता है, लेकिन इस बात की छूट दी जा सकती है कि वे अभिनेता हैं, खिलाड़ी नहीं। हां, ये दृश्य रोमांच पैदा करने में जरूर सफल रहे हैं।
अक्षय कुमार की भूमिका थोड़ी अजीब है। उनके पास करने को ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन सबसे लंबा रोल उन्हें मिला। तपन के किरदार में उन्होंने मनोरंजन तो किया है, लेकिन तपन के सपने में वो जुनून नहीं दिखा और इसमें लेखकों का दोष ज्यादा है। मौनी रॉय को ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं मिला है, लेकिन वे उपस्थिति दर्ज कराती हैं। कुणाल कपूर, विनीत सिंह, अमित साध और सनी कौशल अपने अभिनय से फिल्म को दमदार बनाते हैं।
यह फिल्म उन खिलाड़ियों को आदरांजलि देने के लिए देखी जा सकती है जिन्होंने आजादी के तुरंत बाद गोरों के देश में जाकर गोरों को हराकर 'गोल्ड' जीता और 200 वर्ष की गुलामी का छोटा सा हिसाब वसूला था।
निर्माता : रितेश सिधवानी, फरहान अख्तर
निर्देशक : रीमा कागती
संगीत : सचिन-जिगर
कलाकार : अक्षय कुमार, मौनी रॉय, कुणाल कपूर, अमित साध, विनीत सिंह, सनी कौशल, निकिता
सेंसर सर्टिफिकोट : यूए * 2 घंटे 33 मिनट 42 सेकंड
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रिव्यू: बाल हनुमान पर यूं तो तमाम एनिमेटिड कार्टून फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन फिल्म की प्रड्यूसर-राइटर-डायरेक्टर रुचि नारायण ने एकदम अलग कहानी के साथ गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों के मनोरंजन के लिए बढ़िया कोशिश की है। अगर आप बच्चों को मनोरंजन के बहाने खेल-खेल में कुछ संदेश भी देना चाहते हैं, तो यह फिल्म दिखाने ले जा सकते हैं। यकीन मानिए सलमान खान, रवीना टंडन, कुणाल खेमू, विनय पाठक, मकरंद देशपांडे, चंकी पांडे और जावेद अख्तर जैसे बड़े कलाकारों की आवाज में फिल्म के किरदार आपका यानी कि बड़ों का भी भरपूर मनोरंजन करेंगे। बीते साल बच्चों के लिए कई अच्छी डब हॉलिवुड फिल्में रिलीज हुई थीं, लेकिन इस बार हनुमान दा दमदार अकेली ही मैदान में है। जैसा कि फिल्म में हनुमान कहते भी हैं कि जहां ना पहुंचे सुपरमैन, वहां पहुंचे हनुमान। यह तो आपने पढ़ा या सुना ही होगा कि बचपन में हनुमान ने सूर्य को फल समझ कर निगल लिया था, जिसके बाद इंद्र ने उन पर वज्र से प्रहार किया था। इस एनिमेशन फिल्म की कहानी उस घटना के बाद से ही शुरू होती है, जब हनुमान अपने बहादुरी के किस्सों को भूलकर अपनी मां के आंचल में बचपन बिता रहे थे। उनकी मां अंजनी हनुमान को घर में दब्बू बनाकर रखती हैं। हनुमान के पिता केसरी घर लौटते हैं, तो देखते हैं कि उनका बेटा इतना डरपोक बन चुका है कि छोटे-छोटे कीड़ों से भी डरता है। एक दिन एक चक्रवात हनुमान को अपने माता-पिता से जुदा कर देता है और उसके बाद हनुमान निकल पड़ते हैं, अपने दमदार बनने के सफर पर। फिल्म में हनुमान के एक डरपोक बच्चे से दमदार बनने तक के मजेदार और रोमांचक सफर को दिखाया गया है। इंद्र के रोल में कुणाल खेमू ने मजेदार डबिंग की है, तो जंगल आजतक के रिपोर्टर पोपट तोते के रोल में हनुमान के कारनामों की लाइव रिपोर्टिंग करने वाले विनय पाठक की आवाज का जवाब नहीं। वहीं केसरी को आवाज देने वाले सौरभ शुक्ला ने हरियाणवी अंदाज में कमाल कर दिया। हनुमान की मां अंजनी के रोल को रवीना टंडन ने आवाज दी है। वहीं लंका के टूरिस्ट गाइड को चंकी पांडे ने मनोरंजक अंदाज में आवाज दी है। फिल्म में हनुमान के जंगली जानवरों के मुकाबले में हिस्सा लेने और खेल-खेल में सीखकर जीतने के सींस मजेदार हैं, तो जंगल के सीन भी बिग स्क्रीन पर काफी अच्छे लगते हैं। अपने साथी हनुमान की मदद के लिए जंगल की सेना के पहुंचने का सीन भी काफी मजेदार लगता है। इसके अलावा स्क्रीन पर सोने की लंका के सीन भी अच्छे लगते हैं। हनुमान चालीसा समेत फिल्म के बाकी गाने भी फिल्म की थीम को सपोर्ट करता है। अपनी सुपरहिट फिल्म बजरंगी भाईजान में बजरंगी के भक्त का किरदार निभा चुके सलमान खान को रुचि ने हनुमान के किरदार को आवाज देने के लिए अप्रोच किया, तो उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से हां कर दी। हनुमान दा दमदार का ट्रेलर सलमान खान ने अप्रैल में हनुमान जयंती पर लॉन्च किया था। पहले यह फिल्म 19 मई को रिलीज होने वाली थी, लेकिन शायद फिल्म के निर्माता बच्चों की समर वेकेशन का इंतजार कर रहे थे। इसलिए उन्होंने फिल्म की रिलीज डेट चेंज करके 2 जून कर दी गई, जबकि सारे बच्चों की छुट्टियां पड़ जाती हैं। हनुमान के रोल में सलमान खान ने अपने फेमस डायलॉग मारे हैं। खासकर एक बार जो मैंने कमिटमेंट कर दी, तो मैं खुद की भी नहीं सुनता और मुझ पर एक अहसान करना कि मुझ पर कोई अहसान मत करना मजेदार लगते हैं। मजे की बात यह है कि यह इंग्लिश के शब्दों का यूज करने वाले मॉडर्न हनुमान की फिल्म है, जिससे बच्चे अपने आपको ज्यादा आसानी से कनेक्ट कर पाएंगे। | 1 |
बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्मों में प्रेमियों को मिलाने की कोशिश की जाती है, लेकिन 'सोनू के टीटू की स्वीटी' में सोनू अपने भाई से भी बढ़ कर दोस्त टीटू की स्वीटी के साथ जोड़ी तोड़ने की कोशिश में लगा रहता है। सोनू को टीटू के लिए स्वीटी सही लड़की नहीं लगती है जिसके साथ टीटू की शादी होने वाली है। रोमांस बनाम ब्रोमांस का मुकाबला देखने को मिलता है।
जब वह यह स्वीकार कर लेता है कि स्वीटी अच्छी लड़की है तब स्वीटी खुद सोनू को बता देती है कि वह चालू लड़की है। वह सोनू को चैलेंज देती है कि अब रिश्ता तोड़ कर दिखाए। क्या स्वीटी सच कह रही है? क्या सोनू यह कर पाएगा? इसके जवाब फिल्म में मिलते हैं।
कहानी में कुछ बात खटकती है। यदि स्वीटी 'बदमाश' है और सोनू को उस पर शक है तो वह क्यों आगे रह कर उसे बताती है कि वह 'बदमाश' है। जबकि आधी फिल्म में वह यह जताने की कोशिश करती है कि एक अच्छी लड़की है। स्वीटी यदि अच्छी लड़की नहीं है तो यह दर्शाने के लिए कुछ भी नहीं बताया गया है कि आखिर वह क्यों अच्छी लड़की नहीं है। वह टीटू से शादी कर क्या पाना चाहती है? इसलिए स्वीटी से इतनी नफरत नहीं होती जितनी की कहानी की डिमांड थी।
कमियों के बावजूद यदि फिल्म अच्छी लगती है तो इसका श्रेय स्क्रीनप्ले और निर्देशक लव रंजन को जाता है। कई मजेदार सीन रखे गए हैं जो यदि कहानी से ज्यादा ताल्लुक नहीं भी रखते हैं तो भी इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनसे मनोरंजन होता है।
सोनू, टीटू और स्वीटी के किरदारों के साथ-साथ आलोकनाथ, वीरेन्द्र सक्सेना सहित अन्य सीनियर सिटीजन्स के किरदारों पर भी मेहनत की गई है। ये किरदार समय-समय पर आकर फिल्म के गिरते ग्राफ को उठा लेते हैं। सोनू के साथ इनके सीन बढ़िया हैं। सोनू और स्वीटी के मुकाबले वाले दृश्य भी अच्छे लगते हैं।
निर्देशक के रूप में लव रंजन का काम अच्छा है। वे 'प्यार का पंचनामा' भाग एक और दो बना चुके हैं और उनकी युवा दर्शकों पर अच्छी पकड़ है। 'सोनू के टीटू की स्वीटी' में भी उन्होंने वही फ्लेवर बरकरार रखा है। उनके द्वारा रचा गया फैमिली ड्रामा सूरज बड़जात्या या करण जौहर की फिल्मों से बिलकुल अलग है और दादी, मां, पिता, चाचा के किरदार बड़े दिलचस्प हैं। हालांकि इन किरदारों का किससे क्या रिश्ता है, यह बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं होता।
फिल्म को यदि वे छोटा रखते तो बेहतर होता, खासकर सेकंड हाफ में कुछ प्रसंग गैरजरूरी लगते हैं, जैसे एम्सटर्डम जाने वाली बात। कहानी की कमियों को उन्होंने मनोरंजक प्रस्तुतिकरण के जरिये बखूबी छिपाया है।
लव रंजन ने अपने एक्टर्स से भी अच्छा काम लिया है। फिल्म के तीनों मुख्य कलाकार कार्तिक नारायण, नुसरत भरूचा और सनी सिंह का अभिनय बेहतरीन है। तीनों ने अपने किरदारों को बारीकी से पकड़ा और पूरी फिल्म में यह पकड़ बनाए रखी। आलोकनाथ, वीरेन्द्र सक्सेना और अन्य कलाकारों का अभिनय भी लाजवाब है। उनके रोल छोटे हैं, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
म्युजिक फिल्म का प्लस पाइंट है। 'बम डिगी डिगी' जैसे हिट गीत को फिल्म में जगह दी गई है। इसके साथ ही 'दिल चोरी', 'सुबह सुबह', 'तेरा यार हूं मैं' जैसे गीत भी सुनने लायक हैं।
कुल मिलाकर 'सोनू के टीटू की स्वीटी' कमियों के बावजूद मनोरंजन करती है।
बैनर : लव फिल्म्स, टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता : लव रंजन, अंकुर गर्ग, भूषण कुमार, कृष्ण कुमार
निर्देशक : लव रंजन
संगीत : हंस राज हंस, जैक नाइट, रोचक कोहली, यो यो हनी सिंह, अमाल मलिक, गुरु रंधावा, सौरभ-वैभव
कलाकार : कार्तिक नारायण, नुसरत भरूचा, सनी सिंह निज्जर, आलोकनाथ, वीरेन्द्र सक्सेना, सोनाली सहगल
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट 23 सेकंड
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शीर्षक गीत के अलावा नेहा पर फिल्माया गया एक गीत अच्छा है। नेहा पर फिल्माए गए गीत की कोरियोग्राफी में उम्दा है। संपादन बेहद ढीला है, लेकिन रिक्शे के मीटर डाउन करने वाले दृश्य में संपादक ने कल्पनाशीलता दिखाई है।
निर्माता :
रंजन प्रकाश - सुरेन्द्र भाटिया
निर्देशक :
एस. चंद्रकांत
संगीत :
सिद्धार्थ सुहास
कलाकार :
नेहा धूपिया, राजपाल यादव, अमृता अरोरा, आशीष चौधरी, अनुपम खेर, रति अग्निहोत्री
पति-पत्नी का रिश्ता खट्टा-मीठा रहता है और उनमें अकसर नोकझोंक होती रहती है। इस रिश्ते को आधार बनाकर हास्य फिल्म ‘रामा रामा क्या है ड्रामा’ बनाई गई है। यह विषय ऐसा है, जिसमें हास्य की भरपूर गुंजाइश है, लेकिन इस फिल्म में इसका लाभ नहीं लिया गया है।
फिल्म में कहानी नाममात्र की है। कहानी के अभाव में फिल्म का हास्य प्रभावशाली नहीं है। छोटे-छोटे चुटकुले गढ़े गए हैं जिनके सहारे फिल्म आगे बढ़ती है। जरूरी नहीं है कि हर दृश्य पर हँसी आए, लेकिन कुछ दृश्यों पर हँसा जा सकता है।
निर्देशक ने फिल्म को बेहतर बनाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन सशक्त पटकथा के अभाव में यह प्रयास बेकार गया है। कई दृश्यों में संवाद इतने कम हैं कि एक छोटे संवाद को खींचकर कलाकार को दृश्य लंबा करना पड़ता है।
कलाकार भी इतने दमदार नहीं हैं कि वे अपने अभिनय के बल पर इस कमजोरी को छिपा लें। राजपाल यादव चरित्र कलाकार के रूप में तो ठीक लगते हैं, लेकिन नायक बनकर फिल्म का भार ढोने की क्षमता उनमें नहीं है।
संतोष (राजपाल यादव) अपने पड़ोसी खुराना (अनुपम खेर) के कहने पर शांति (नेहा धूपिया) से शादी कर लेता है। शादी के बाद शांति को वह वैसा नहीं पाता जैसे कि उसने सपने देखे थे और इस वजह से उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है।
संतोष का बॉस प्रेम (आशीष चौधरी) भी अपनी पत्नी खुशी (अमृता अरोरा) से खुश नहीं है। इसके बावजूद वह अपनी पत्नी को बेहद चाहता है और दुनिया के सामने ऐसे पेश आता है जैसे वह बेहद खुश है। उधर संतोष को दूसरों की बीवी ज्यादा अच्छी लगती है। कुछ गलतफहमियाँ दूर होती हैं और सुखद अंत के साथ फिल्म समाप्त होती है।
संतोष और शांति की लड़ाई सतही लगती है क्योंकि बिना ठोस कारण के वे लड़ते रहते हैं। ऐसा लगता है कि दर्शकों को हँसाने के लिए उनके बीच लड़ाई करवाई जा रही है। संतोष को शांति के मुकाबले ज्यादा संवाद और फुटेज ज्यादा दिए गए हैं, जिससे उनके बीच का संतुलन बिगड़ गया है।
राजपाल यादव ने अपने अभिनय में कुछ नया करने की कोशिश नहीं की है। जैसा अभिनय वे हर फिल्म में करते हैं, उसी अंदाज में वे यहाँ भी हैं। आँखें बंद कर चेहरे को हथेली से ढँकने वाली अदा इस फिल्म में उन्होंने जरूरत से ज्यादा दोहराई है। वे संतोष की भूमिका के लायक भी नहीं हैं क्योंकि जो भूमिका उन्होंने निभाई है उसके लिए कम उम्र का अभिनेता चाहिए था।
नेहा धूपिया इस फिल्म की सबसे बड़ी स्टार हैं, लेकिन उन्हें काफी कम फुटेज दिया गया है। उनके ग्लैमर का भी कोई उपयोग नहीं किया गया। अभिनय अभी भी नेहा की कमजोरी है। यही हाल अमृता अरोरा और आशीष चौधरी का भी है। आश्चर्य तो तब होता है जब अनुपम खेर जैसा अभिनेता भी घटिया अभिनय करता है।
शीर्षक गीत के अलावा नेहा पर फिल्माया गया एक गीत अच्छा है। नेहा पर फिल्माए गए गीत की कोरियोग्राफी में उम्दा है। संपादन बेहद ढीला है, लेकिन रिक्शे के मीटर डाउन करने वाले दृश्य में संपादक ने कल्पनाशीलता दिखाई है।
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हैप्पी के भागने की कहानी का पहला भाग आपने साल 2016 में देखा था। फिल्म सफल रही और तय किया गया कि इसका अगला भाग और भी ज्यादा दिलचस्प बनाया जाए। वैसे अगर आपने फिल्म का पहला भाग नहीं देखा है, तब भी दूसरे भाग से आसानी से कनेक्ट हो जाएंगे। पिछली बार हैप्पी पाकिस्तान भाग गई थी और इस बार दो-दो हैप्पी हैं, जो चीन के अलग-अलग शहरों में भाग रही हैं। इस बार उन्हें ढूढ़ने से ज्यादा बचाने की जद्दोजहद भी है। फिल्म भले चीन पर बेस्ड हो, लेकिन वह आपको बहुत ही खूबसूरती से लगातार पटियाला, अमृतसर, दिल्ली, कश्मीर और पाकिस्तान से जोड़ कर रखती हैं। फिल्म के राइटर और निर्देशक मुदस्सर अजीज ने अपनी पूरी फिल्म में बेहतरीन डायलॉग-बाजी से भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच की तनातनी पर व्यंग्य किया है। फिल्म के बहुत से डायलॉग जहां आपको हंसाएंगे, वहीं सोचने पर भी मजबूर करेंगे। 'तनु वेड्स मनु' सीरीज़ और 'रांझणा' के निर्देशक आनंद एल. रॉय इस फिल्म के को-प्रड्यूसर हैं, लेकिन फिल्म में उनकी साफ झलक दिखाई देती है। कहानी: चीन के शांघाई एयरपोर्ट पर अमृतसर की दो बहनें एक साथ उतरती हैं। पहली हैप्पी (डायना पेंटी) अपने पति गुड्डू (अली फजल) के साथ एक म्यूजिक कॉन्सर्ट में आई है और दूसरी हैप्पी (सोनाक्षी सिन्हा) शांघाई की एक यूनिवर्सिटी में प्रफेसर का जॉब जॉइन करने आई है। एयरपोर्ट पर कुछ चीनी किडनैपर पहली हैप्पी (डायना पेंटी) को किडनैप करने आते हैं, लेकिन एक जैसे नाम होने की वजह से वह गलती से दूसरी हैप्पी (सोनाक्षी) को किडनैप कर लेते हैं। इस अपहरण में किडनैपर पटियाला से दमन बग्गा (जिम्मी शेरगिल) और पाकिस्तान से पुलिस ऑफिसर उस्मान अफरीदी (पियूष मिश्रा) को भी अगवा कर चीन लाते हैं। आगे कहानी क्या मोड़ लेती है, यब जानने के लिए आपको सिनेमा हॉल का रुख करना होगा। अभिनय: पूरी फिल्म दूसरी हैप्पी के ईर्द-गिर्द घूमती है, जिसे सोनाक्षी सिन्हा ने बखूबी निभाया है। लगातार आधी दर्जन से ज्यादा फ्लॉप फिल्मों के बाद, यह फिल्म सोनाक्षी के लिए बड़ी राहत का काम करेगी। सोनाक्षी का अभिनय उभरकर सामने आता है। हिंदी-पंजाबी में अपनी डायलॉग डिलीवरी से सोनाक्षी अमृतसर की हरप्रीत कौर को पर्दे पर जीवंत कर देती हैं। जिम्मी शेरगिल और पियूष मिश्रा के बीच की नोकझोंक और जिम्मी के तकिया-कलाम वाले छोटे-छोटे डायलॉग फील गुड का एहसास देते हैं। जस्सी गिल पहली बार बॉलिवुड फिल्म में नजर आ रहे हैं और वह अपने किरदार के साथ पूरा इंसाफ करते हैं। बाकी कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है। डायरेक्शन: मुदस्सर अजीज अपने लेखन के लिए मशहूर हैं और इस बार उनकी मेहनत फिल्म के डायलॉग में साफ नजर आती है। जिस तरह की फिल्म है, उस हिसाब से कोई भी सीन या डायलॉग ओवर नहीं लगता है और सिचुएशन के हिसाब से सब सटीक लगता है। उनके निर्देशन की पकड़ भी पहले से और भी ज्यादा मजबूत हुई है। फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा लंबा जरूर लगता है, लेकिन उबाऊ नहीं है। संगीत: फिल्म का कोई गाना बहुत ज्यादा चर्चित नहीं हुआ है, लेकिन फिल्म का संगीत कहानी और माहौल के साथ बिल्कुल फिट बैठता है।क्यों देखें: अच्छे डायलॉग, जिनमें व्यंग्य भी है, एक अच्छी सिचुएशनल कॉमिडी, सोनाक्षी का बदला अंदाज, जिम्मी शेरगिल और पियूष मिश्रा का अभिनय आपको निराश नहीं करेगा। | 0 |
फ़िल्म के एक सीन में जब पुलिस इंस्पेक्टर पूछता है कि चाचा ही बोले जा रहा है, लड़की का बाप गूंगा है क्या? तो चाचा जवाब देता है कि हर लड़की का बाप गूंगा होता है। हालांकि इस फ़िल्म में लड़की का बाप गूंगा कतई नहीं है। वहीं उसकी बेटी भी अपने साथ हुए अन्याय पर चुप रहने की बजाय बारात लौटा कर विलन को करारा जवाब देती है, जो सोचता है कि वह अपनी शादी वाले दिन मुंह किस मुंह से खोलेगी।संजय दत्त के जेल से लौटने बाद उनकी कमबैक फिल्म को लेकर फैन्स के बीच जबर्दस्त क्रेज था। कोई संजू बाबा की बायॉपिक फिल्म की बाट जोह रहा था, जिसका एक सीन उन्होंने जेल से निकलते ही शूट किया। वहीं कोई मुन्ना भाई सीरीज़ की अगली फिल्म की बात कर रहा था, लेकिन संजय दत्त ने इन सब फिल्मों को छोड़कर ओमंग कुमार की भूमि को चुना, तो इसके पीछे उनकी अपनी उम्र के मुताबिक रोल करने की चाहत थी। बाप-बेटी की कहानी पर बेस्ड इस फिल्म में लीड रोल कर रहे संजय असल जिंदगी में भी एक बेटी त्रिशला के पिता हैं। पिछले दिनों इस तरह की दो फिल्में मातृ और श्रीदेवी की 'मॉम' रिलीज हो चुकी हैं, जिनमें मां अपनी बेटी के साथ हुए अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ती है। इनमें से श्रीदेवी की मॉम को काफी अच्छा रिस्पॉन्स भी मिला। संजू की फिल्म की थीम भी कुछ ऐसी ही है, लेकिन यहां बेटी की लड़ाई बाप लड़ता है। हमारी सोसायटी में मां-बेटी के अलावा बाप-बेटी का रिश्ता भी बेहद खास होता है। निश्चित तौर पर संजू की फिल्म को इसका फायदा जरूर मिलेगा।फ़िल्म की कहानी अरुण सचदेव (संजय दत्त) की है, जो अपनी बिना मां की बेटी भूमि (अदिति राव हैदरी) के साथ आगरा में रहता है। अरुण अपनी बेटी को इतना चाहता है कि उसकी शादी पर हर बाराती को अपनी जूतों की दुकान से जूते पहनाता है, लेकिन जब अचानक बारात लौट जाती है, तो उसे पता लगता है कि धौली (शरद केलकर) ने अपने गुंडों के साथ मिलकर उसकी बेटी का रेप किया है। एक आम भारतीय की तरह अरुण और भूमि पुलिस और अदालत के चक्कर भी लगाते हैं, लेकिन वहां भी उन्हें इंसाफ नहीं मिलता। और तो और भूमि और अरुण सब कुछ भुला कर नई जिंदगी जीना चाहते हैं, तो दुनिया उन्हें जीने नहीं देती। आखिर बाप-बेटी अपने साथ हुए अन्याय का बदला कैसे लेते हैं? इसका पता आपको थिएटर में जाकर ही लगेगा।संजय दत्त ने फिल्म से जबर्दस्त वापसी की है। खासकर अपने बेटी के साथ बिताए पलों में बिंदास और विलन को सबक सिखाने के दौरान बेहद खतरनाक, दोनों ही अंदाज में वह पर्दे पर बेहतरीन लगे हैं। एक फ़िल्म जिसका क्लाइमैक्स सबको पता है, उसमें दर्शकों को आखिरी सीन तक सीट पर रोकना आसान नहीं होता। हालांकि फ़िल्म का क्लाइमैक्स खूबसूरती से शूट किया गया है।अदिति राव हैदरी ने फिल्म में संजय दत्त की बेटी का रोल बढ़िया तरीके से निभाया है। संजय दत्त जैसे मंजे हुए ऐक्टर के साथ अपने आपको साबित कर पाना आसान नहीं होता, लेकिन अदिति ने उन्हें पूरी टक्कर दी है। वहीं डायरेक्टर ओमंग कुमार ने अभी तक मैरी कॉम और सरबजीत जैसी बायॉपिक टाइप फिल्मों में अपना टैलंट दिखाया था। लेकिन अबकी एक बढ़िया ऐक्शन थ्रिलर डायरेक्ट करके उन्होंने दिखा दिया कि वह बायॉपिक जॉनर में टाइप्ड नहीं हुए हैं। शरद केलकर ने फिल्म में विलन का रोल दमदार तरीके से किया है। उनके हिस्से में अच्छे डायलॉग भी आए हैं, लेकिन जब संजू अपनी फुल फॉर्म में आते हैं, तो वह किसी भी विलन से ज्यादा बड़े विलन लगते हैं। वही शेखर सुमन ने दोस्त के रोल में संजू का अच्छा साथ दिया है। फ़िल्म के गाने कुछ खास नहीं हैं। खासकर सनी लियोनी के आइटम नंबर को जबर्दस्ती फ़िल्म का हिस्सा बनाने की कोशिश की गई है।अगर आप संजय दत्त के फैन हैं और बाप-बेटी के रिलेशन पर बनी एक इमोशनल कर देने वाली फिल्म देखना चाहते हैं, तो इस वीकेंड भूमि आपको निराश नहीं करेगी। | 1 |
कहानी: भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद अरंविद केजरीवाल अपने टीम मेंबर्स के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए एक नई पॉलिटिकल पार्टी का गठन करते हैं। यह पार्टी किस तरह अपने गठन के तुरंत बाद सत्ता में आ जाती है और दोबारा चुनाव होने पर पूर्ण बहुमत में वापसी करते हैं।रिव्यू: एक अच्छी डॉक्यूमेंट्री की यह खासियत होती है कि वह आपके सामने उन इवेंट्स को सामने रखती है जिन्हें आप भूल चुके हैं और यह इवेंट्स काल्पनिक नहीं होते। ऐन इन्सिग्निफिकंट मैन में बखूबी इसे बढ़चढ़ कर दिखाया गया है। अरविंद केजरीवाल ने इस फिल्म में अपनी ही भूमिका निभाई है। इस फिल्म को बनाने वाले खुशबू रंका और विनय शुक्ला ने इस फिल्म को शूट करने के लिए खुद को इस पूरे हंगामे के बीच रखा है कि किस तरह पॉलिटिकल पार्टी का गठन हुआ। डायरेक्टर्स ने हंगामे के बीच जाने के लिए खुद को दी गई छूट का भरपूर फायदा उठाया है। इस फिल्म की सबसे अच्छी खूबी यह है कि पूरे 96 मिनट में कहानी के साथ पूरी तरह ऑब्जेक्टिविटी बरती गई है। फिल्म में केजरीवाल के सबसे बुरे दौर को भी दिखाया गया है। इसके अलावा पार्टी के एक नेता की मौत और चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच हल्की-फुल्की बातचीत को भी दिखाया गया है। यहां तक कि फिल्म में वह क्षण भी दिखाया गया है जब पार्टी कार्यकर्ता केजरीवाल से यह सवाल पूछ रहे हैं कि उन्होंने आखिर किस आधार पर चुनाव में उम्मीदवारों का चयन किया है। इस पूरी डॉक्यूमेंट्री का सबसे मजबूत पक्ष अभिनव त्यागी और मनन भट्ट की बेहतरीन एडिटिंग है। इसके कारण फिल्म देखते हुए आपको ऐसा लगता है कि आप कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं बल्कि एक थ्रिलर फिल्म देख रहे हैं। इस कारण आप आखिरी पलों तक फिल्म देखने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यह एक ऐसी छोटी भारतीय फिल्म है जो इतनी महत्वपूर्ण है जिसे शायद आप इस वीकेंड पर देखना पसंद करें। | 1 |
बंद मुठ्ठी तो लाख की, खुल गई तो खाक की। यह कहावत पूनम पांडे के मामले में एकदम खरी है। ऊटपटांग बयान और कम कपड़ों के फोटो के जरिये उन्होंने सुर्खियां बटोर ली। इस वजह से उन्हें ‘नशा’ नामक फिल्म भी मिल गई। जब एक्टिंग की बारी आई तो पूनम चारों खाने चित्त नजर आईं।
चलिए, मान लेते हैं कि ‘नशा’ में पूनम की एक्टिंग देखने कोई नहीं जाएगा। दर्शक को इस बात का मतलब भी नहीं है कि पूनम खूबसूरत लगती हैं या नहीं? लेकिन बोल्ड सीन की आस लिए थिएटर गए दर्शकों के हाथ भी कुछ नहीं लगता। इससे तो बेहतर है कि इंटरनेट पर पूनम द्वारा अपलोड किए गए फोटो और वीडियो ही देख लिए जाए।
पूनम से यदि एक्टिंग नहीं हुई है या उन्हें सेक्सी तरीके से पेश नहीं किया जा सका है तो इसमें दोष फिल्म के निर्देशक अमित सक्सेना का भी है। अमित ने दस वर्ष पूर्व जिस्म नामक फिल्म बनाई थी, जिसे बॉक्स ऑफिस पर सफलता के साथ सराहना भी मिली थी। अमित को दूसरी फिल्म निर्देशित करने का अवसर दस वर्ष बाद क्यों मिला, ये ‘नशा’ देख समझा सकता है। अब तो शक होता है कि क्या ‘जिस्म’ भी अमित ने ही निर्देशित की थी?
‘नशा’ में न केवल वे कलाकारों से अभिनय ठीक से करवा सके बल्कि शॉट भी ठीक से नहीं ले सके। कहानी को स्क्रीन पर उतारने के मामले में वे पूरी तरह असफल रहे। हीरो दौड़ता रहता है और सोता रहता है, ये शॉट फिल्म में बीसियों बार देखने को मिलते हैं। उन्होंने शॉट्स को बेहद लंबा रखा है जिससे फिल्म बेहद उबाउ हो गई है। हो सकता है कि आप की आंख लग जाए और कुछ मिनट बाद खुले तो वही सीन चल रहा हो।
कहानी है साहिल की, जिसकी उम्र अठारह वर्ष के आसपास है। वह अपनी 25 वर्षीय टीचर अनिता जोसेफ से एकतरफा प्यार करने लगता है। अपनी गर्लफ्रेंड को भी भूला देता है। साहिल को जब पता चलता है कि अनिता का सैम्युअल नामक बॉयफ्रेंड भी है तो उसके तन-बदन में आग लग जाती है। साहिल के एकतरफा प्यार का क्या हश्र होता है, ये फिल्म का सार है।
कम उम्र के लड़का अपने से उम्र में बड़ी महिला के प्रति आकर्षित होने की बात नई नहीं है, क्योंकि इस बात को इरोटिक तरीके से पेश करने की गुंजाइश बहुत ज्यादा है। प्यार की त्रीवता के साथ कामुक दृश्यों के लिए स्थितियां बनती हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म पूरी तरह असफल है। न तो कहानी बांध कर रखती है और न ही फिल्म में ग्लैमर नजर आता है।
साहिल का प्यार दिखाने की कोशिश की गई है, लेकिन यह वासना नजर आती है। उसकी गर्लफ्रेंड टिया का किरदार तो बेहद ही लचर है, जो साहिल से माफी मांगती फिरती है। पूनम पांडे ने टीचर का किरदार निभाया और एक टीचर इतने खुले कपड़े पहन बेशर्मी से स्टुडेंट के बीच कभी नहीं जाता।
किसी तरह खींच कर कहानी को पेश किया गया है और फिल्म हर पहलू पर निराश करती है। संवाद से लेकर गीत तक स्तरहीन हैं। तीन-चार लोकेशन पर ही फिल्म पूरी कर दी गई है। ऐसा नहीं है कि कम बजट के कारण निर्देशक की यह मजबूरी थी, बल्कि कल्पनाशीलता का अभाव नजर आता है।
पूनम पांडे अभिनय के मामले में निराश करती हैं। अभिनय की कई बेसिक बातें उन्हें नहीं पता हैं। कई दृश्यों में उनका मेकअप भी खराब है। शिवम पाटिल के चेहरे पर कोई भाव नजर नहीं आते।
कुल मिलाकर ‘नशा’ ऐसी फिल्म है कि इसे देखो तो चढ़ा नशा भी उतर जाए।
बैनर : ईगल होम एंटरटेनमेंट
निर्माता :
सुरेन्द्र सुनेजा, आदित्य भाटिया
निर्देशक :
अमित सक्सेना
संगीत :
सिद्धार्थ हल्दीपुर, संगीत हल्दीपुर
कलाकार :
पूनम पांडे, शिवम पाटिल
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रेणुका व्यवहारेकहानी: 'मंटो' मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो की लाइफ पर बनी एक बायॉपिक है, जिसमें उनकी ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव से लेकर विवाद और खुशनुमा पलों को खूबसूरती से पिरोया गया है।रिव्यू: लेखकों की ज़िंदगी में एक अजीब सा अकेलापन होता है और उस अकेलेपन का साथी उन्हें काल्पनिक कहानियों और किरदारों में मिलता है, जो कहीं न कहीं सच्चाई से भी मेल खाते हैं। लोगों से घिरे होने के बावजूद वे अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं। या यूं कहें कि उन्हें अपनी असल और काल्पनिक ज़िंदगी के बीच तालमेल बिठाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। उर्दू के महान कवि और लेखक सआदत हसन मंटो को काल्पनिक दुनिया अपने आस-पास की असल दुनिया के मुकाबले कहीं ज़्यादा रियल लगी, बावजूद इसके उनकी कल्पना में समाज की कड़वी हकीकत ही रहती, खासकर वह कड़वी सच्चाई, जो उन्होंने खुद करीब से महसूस की। ऐक्ट्रेस और फिल्ममेकर नंदिता दास ने मंटो की ज़िंदगी में रियल और काल्पनिक समाज के बीच की इसी पृथकता को फिल्मी परदे पर बेहद दिलचस्प और दिल को छू जाने वाले अंदाज़ में उतारा है। मंटो की ज़िंदगी में सेंसर का अहम हिस्सा रहा। उनके लिखे लेखों पर सेंसरशिप से लेकर अश्लीलता तक के केस हुए। सेंसरशिप मंटो की ज़िंदगी में एक ऐसा हिस्सा था, जिसे उन्होंने आजीवन झेला और उस दौरान उनकी कैसी व्यथा, कैसी स्थिति रही होगी, इसे बेहद गहराई और खूबसूरती से नंदिता दास ने फिल्म में दिखाया है। उन्होंने भारत-पाक विभाजन से लेकर पुरुष प्रधान समाज वाली मानसिकता से लेकर धार्मिक असिहष्णुता, बॉम्बे के लिए प्यार जैसे कई वाकयों को दिलचस्प अंदाज़ में दर्शकों के लिए परोसा है। कार्तिक विजय की सिनेमटॉग्रफी और रीता घोष के प्रॉडक्शन डिज़ाइन से आजादी से पहले और उसके बाद का एक पर्फेक्ट सीन उभरकर सामने आता है। देखकर लगता है जैसे फिल्म उसी दौर में जाकर शूट की गई हो। और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के रत्न यानी नवाजुद्दीन सिद्दीकी को भला कैसे भूला जा सकता है। उन्होंने मंटो के किरदार में जान फूंक दी है। | 1 |
आइडिया अच्छा हो, लेकिन स्क्रिप्ट बुरी हो तो फिल्म बेमजा हो जाती है। बॉलीवुड में ढेर सारी ऐसी फिल्मों के उदाहरण हैं। ‘बजाते रहो’ इसका ताजा उदाहरण है। एक बेईमान और भ्रष्ट उद्योगपति से अपने पन्द्रह करोड़ रुपये वापस लेने के लिए तीन-चार लोग किस तरह तिकड़म लगाते हैं, ये ‘बजाते रहो’ में कॉमेडी और थ्रिल के साथ दिखाया गया है। कॉमेडी ऐसी है कि साफ नजर आता है कि दर्शकों को हंसाने की कोशिश की जा रही है और थ्रिल सिरे से नदारद है।
मोहन सभरवाल (रविकिशन) अपनी बैंक में एक स्कीम के जरिये लोगों से पैसा लेने का जिम्मा अपने ईमानदार ऑफिसर बावेजा और एक महिला कर्मचारी को सौंपता है। जब पैसा वापस देने की बात आती है तो वह इन दोनों कर्मचारियों को फंसा देता है। बावेजा सदमा नहीं झेल पाता है और मर जाता है। महिला कर्मचारी को जेल हो जाती है।
बावेजा की पत्नी (डॉली अहलूवालिया) और बेटा सुखी (तुषार कपूर) प्रण लेते हैं कि वे सभरवाल से पैसा निकालकर लोगों को चुकाएंगे। इस काम में उनकी मदद महिला कर्मचारी का पति मिंटू (विनय पाठक) और बल्लू (रणवीर शौरी) करते हैं।
इस कहानी को निर्देशक और लेखक ने कॉमेडी तड़के के साथ पेश की है। कॉमेडी के नाम पर एसएमएस पर चलने वाले घिसे-पिटे जोक्स का सहारा लिया गया है। यदि एसएमएस के जोक्स ही सुनना है तो भला इतनी महंगी टिकट खरीद कर दर्शक फिल्म देखने के लिए क्यों जाए।
जफर ए. खान और संजीव मेहता ने बिना मेहनत किए स्क्रिप्ट लिख दी है, जिसमें मनोरंजन का अभाव है। साथ ही दर्शकों को नासमझ मानते हुए उन्होंने लॉजिक को किनारे पर रख दिया गया है। सभरवाल को जिस तरह से ये बेवकूफ बनाते हैं, उसकी फैक्ट्री पर नकली छापा मारते हैं, उसके घर में घुसकर पन्द्रह करोड़ रुपये चुराते हैं वो अविश्वसनीय है।
मजा तो तब आता जब सभरवाल को भी चालाक बताया जाता और उससे दो कदम आगे रहते मिसेस बावेजा एंड कंपनी अपना माल वापस लाने में कामयाब रहती। तुषार कपूर और विशाखा सिंह की प्रेम कहानी को भी बिना जगह बनाए फिल्म में घुसा दिया गया है ताकि हीरो-हीरोइन गाना गा सके।
फिल्म का मूल प्लाट भी कमजोर है। कौन सी बैंक ऐसी है जो अपनी कर्मचारी की बेइमानी बता कर पल्ला झाड़ लेती है और कहती है कि कर्मचारी के परिवार से पैसा वसूला जाए।
निर्देशक के रूप में शशांक ए. शाह ड्रामे को मनोरंजक नहीं बना पाए। बेहतरीन कलाकारों की उन्होंने टीम तो खड़ी कर ली, लेकिन लेखन की कमजोरी के कारण कलाकार एक सीमा के बाद असहाय नजर आए।
विनय पाठक, रणवीर शौरी, डॉली अहलूवालिया जैसे कलाकारों का ठीक से उपयोग नहीं किया गया। तुषार कपूर अपना कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए। सबसे ज्यादा फुटेज मिला रवि किशन को और उन्होंने अपना किरदार ठीक से निभाया। गानों में ‘नागिन-नागिन’ गाना ही ठीक कहा जा सकता है।
कुल मिलाकर ‘बजाते रहो’ एक ऐसी फिल्म है जिसका मनोरंजन से 36 का आंकड़ा है।
बैनर :
इरोज इंटरनेशनल, मल्टी स्क्रीन मीडिया
निर्माता :
कृषिका लुल्ला
निर्देशक :
शशांत ए. शाह
संगीत :
जयदेव कुमार
कलाकार :
तुषार कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, विशाखा सिंह, रवि किशन, डॉली अहलूवालिया
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 47 मिनट
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संन्यास के बाद भी जब सौरव गांगुली ने आईपीएल में खेलना जारी रखा तब उनका स्वर्णिम दौर गुजर गया था और उन्हें नौसिखिए गेंदबाजों के आगे जूझते देख उनके प्रशंसकों भी ऐसा लगा कि उन्हें अब खेलना बंद कर देना चाहिए। कुछ ऐसा हाल सनी देओल का भी हो गया है। सुनहरा दौर बीत चुका है। 58 वर्ष की उम्र में लार्जर देन लाइफ किरदार के लिए वे फिट नज़र नहीं आते। घायल, घातक या गदर का सनी देओल पीछे छूट चुका है जो दहाड़ता था तो सिनेमाघर थर्रा उठता था। वे उस सनी देओल की अब परछाई मात्र हैं।
'घायल' (1990) फिल्म का सीक्वल 'घायल वंस अगेन' लेकर सनी हाजिर हुए हैं और इस फिल्म में 90 के दशक का हैंगओवर उन पर अभी भी है। उस दौर की फिल्मों में किसी लड़की से बलात्कार हो जाता था तो वह अपने आपको मुंह दिखाने लायक नहीं मानते हुए आत्महत्या कर लेती थी। अब फिल्मों में इस तरह के सीन नहीं आते क्योंकि बलात्कार में लड़की की कोई गलती नहीं होती, परंतु 'घायल वंस अगेन' में इस तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं। इस कारण 'घायल वंस अगेन' ऐसी फिल्म नजर आती है जिसकी एक्सपायरी डेट बहुत पहले खत्म हो चुकी है।
'घायल' के अंत में अजय मेहरा (सनी देओल) को सजा हो जाती है। 'घायल वंस अगेन' में दिखाया गया है कि अजय भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ इतना बड़ा नाम हो चुका है कि लोग उसके साथ सेल्फी लेते हैं। चार टीनएजर्स वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी करते हैं। कैमरे में एक मर्डर भी दर्ज हो जाता है। शक्तिशाली बिज़नेसमैन राज बंसल (नरेन्द्र झा) का बेटा यह मर्डर करता है। इन चार किशोरों से टेप छीनने की कोशिश शुरू हो जाती है। इन किशोरों और राज बंसल के बीच अजय मेहरा नामक दीवार खड़ी हो जाती है।
फिल्म की कहानी ठीक है, लेकिन स्क्रीनप्ले ने मामला गड़बड़ कर दिया है। सनी देओल और साथियों ने स्क्रीनप्ले और संवाद लिखे हैं। स्क्रीनप्ले 90 के दशक की फिल्मों की याद दिलाता है और इस पर 'घायल' की छाप नजर आती है। घायल में जो रोमांच, दमदार संवाद, सही उतार-चढ़ाव थे वो इसके सीक्वल में नदारद हैं।
फिल्म में बहुत सारी बातें कहने की कोशिश की गई है, लेकिन मामला जम नहीं पाता। साथ ही यह दर्शकों को भी कन्फ्यूज करता है। समय का ध्यान ही नहीं रखा गया है। घटना घंटों में है या दिनों में, पता ही नहीं चलता। बस भागम-भाग चलती रहती है।
साथ ही फिल्म विलेन को फोकस करती है। दर्शक सनी देओल को देखने आए हैं, लेकिन सनी को बहुत कम संवाद मिले हैं। फिल्म देखते समय कई तरह के प्रश्न भी उठते हैं जिनका जवाब नहीं मिलता। पीछा करने के कुछ दृश्य उबाने की हद तक लंबे है, जैसे शॉपिंग मॉल में इन बच्चों के पीछे बंसल के आदमी लगे रहते हैं।
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सनी देओल ने अभिनय के साथ-साथ लेखन और निर्देशन की जिम्मेदारी भी निभाई है। फिल्म को सनी ने लुक तो आधुनिक दिया है, लेकिन फिल्म को वे आउटडेटेट होने से नहीं बचा पाए। घायल से सीक्वल को जोड़ने की कोशिश में जरूर कामयाब रहे हैं, लेकिन फिल्म को वे मनोरंजन नहीं बना पाए। उन्होंने अपनी ही खूबियों का उपयोग नहीं किया।
फिल्म का काफी हिस्सा हॉलीवुड एक्शन को-ऑर्डिनेटर डान ब्रेडले ने फिल्माया है क्योंकि फिल्म में लंबे एक्शन सीक्वेंसेस हैं। ड्रामे में बोरियत होने के कारण ये एक्शन सीन भी रोमांचित नहीं करते।
सनी देओल एक्शन दृश्यों में फिट नजर नहीं आते। इमोशनल सीन में वे और बुरे लगे हैं। खलनायक के रूप में नरेन्द्र झा अप्रभावी रहे। वे सनी की टक्कर के विलेन नहीं लगते। अमरीश पुरी की तरह वे दहशत पैदा नहीं कर सके। सोहा अली खान का कैरेक्टर फिल्म में न भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ओम पुरी को फिल्म में इसलिए रखा गया ताकि पिछली फिल्म से कड़ी जोड़ी जा सके। मनोज जोशी थोड़ा मनोरंजन करते हैं।
'घायल वंस अगेन' से बेहतर है कि 'घायल' ही दोबारा देख ली जाए।
बैनर : विजयेता फिल्म्स
निर्माता-निर्देशक : सनी देओल
संगीत : शंकर-एहसान-लॉय
कलाकार : सनी देओल, सोहा अली खान, ओम पुरी, नरेन्द्र झा, शिवम पाटिल, आंचल मुंजाल, ऋषभ अरोरा, डायना खान, टिस्का चोपड़ा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट 44 सेकंड
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अपने बाद के सालों में इंग्लैंड की रानी और भारत की महारानी विक्टोरिया (जूडी डेंच) को एक भारतीय मुंशी अब्दुल करीम (अली फजल) की सोहबत में आराम और खुशी मिलने लगती है। आगे चलकर वही क्लर्क महारानी का उर्दू टीचर, धार्मिक सलाहकार और सबसे नजदीकी हमराज और विश्वासपात्र मित्र बन जाता है। श्राबनी बासु की किताब की अद्भुत लेकिन सच्ची कहानी पर आधारित यह फिल्म ढेर सारे भावों को लिए हुए है जो इस दोस्ती के बारे में बताती है जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। साथ ही इस दोस्ती की वजह से राजघराने में जो गुस्सा और सनक पैदा होती है उसे भी फिल्म में दिखाया गया है।रिव्यू: स्टीफन फ्रीअर्स अपनी इस फिल्म की शुरुआत में दर्शकों को रानी विक्टोरिया के उस नीरस रूटीन से अवगत कराते हैं जिसमें रानी अपनी स्वर्ण जयंती वर्ष (1887) के दौरान सामाजिक बाध्यता की वजह से लोगों से मिलती-जुलती हैं। इसी तरह के एक राजशाही जलसे के दौरान रानी की नजर अब्दुल पर पड़ती है। बड़ी-बड़ी आंखों वाला भारतीय लड़का जो रानी को तोहफे के रूप में औपचारिक सिक्का यानी मोहर प्रदान करता है। अब्दुल को पहले ही इस बात की चेतावनी दी गई थी कि उसे रानी विक्टोरिया की तरफ बिल्कुल नहीं देखना है। बावजूद इसके अब्दुल ने अपने अंदर मौजूद बचकानी हरकतों के हाथों मजबूर होकर रानी की तरफ देखने लगा और वहां मौजूद विशेषाधिकार प्राप्त गौरवान्वित लोगों की मौजूदगी के बीच जब रानी से उसकी नजरें मिलीं तो उसने एक हल्की सी मुस्कान दे दी। प्रोटोकॉल की परवाह न करते हुए भी अब्दुल ने जो हल्की सी छेड़छाड़ करने की कोशिश की थी उससे रानी इमोशनल हो गईं। बेशक एक हिंदू अटेंडेंट के रानी पर बढ़ते प्रभाव से राजघराने के परिवार के सदस्य और नौकर परेशान होने लगते हैं लेकिन बाद में पता चलता है कि वह हिंदू नहीं बल्कि मुस्लिम है। 82 साल की उम्र में जूडी डेंच दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर पाने में पूरी सफल नज़र आ रहीं। स्क्रीन पर केवल उनकी मौजूदगी ही आपका ध्यान नहीं खींचेगी बल्कि उनकी निगाहों से शरारत, उदासी, अकेलापन, तड़प जैसे कई भाव आपको स्पष्ट नज़र आएंगे। उन्होंने बड़ी सहजता से अपने इस किरदार में जान डाल दी है। आपका दिल इस उम्रदराज ऐक्ट्रेस के लिए तब पसीज जाएगा जब वह खुद को लेकर खयालों में खो जाती हैं, तेज हवाएं चल रही और अब्दुल से कहती हैं, 'जिसे भी मैंने प्यार किया वह नहीं रहा, लेकिन मैं आगे बढ़ती रही।' डेंच ही वह वजह हैं जो इस दिलचस्प कहानी को एक 'स्कैंडल' में तब्दील होने से रोकती हैं।इन अविश्वसनीय मौकों का फायदा उठाते हुए अली फज़ल खुद को लेजंड (डेंच) के सामने खड़ा कर पाने में सफल दिख रहे। स्टीफन फ्रीअर्स ने अली की ऐक्टिंग, नर्वस एनर्जी और जोश को अब्दुल के किरदार में बखूबी पिरोया है। हालांकि, उनका मुंशी वाला किरदार आपको काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देगा, जिसे लेकर एक रहस्य अंत तक बरकरार रह जाएगा। एक इंडियन इंग्लैंड की महारानी के लिए इतना समर्पित क्यों, जिसने उसके देश पर राज किया है? यहां तक कि वह खुशी-खुशी उनके पैर पर किस करता है। क्या वह वाकई भोला-भाला है या फिर मौकापरस्त? एक व्यक्ति के रूप में वह क्या चाहता था?फिल्म की कहानी अब्दुल को सिर्फ एक तमाशबीन बना देती है और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी है। फिल्म वहां पर डगमगाती दिखती है, जब वह अचानक अपना गियर चेंज करती है यानी जब फिल्म अचानक एक थकाऊ ट्रैजिडी से क्रॉस कल्चर कॉमिडी की तरफ मोड़ ले लेती है।अनियमित कहानी और इतिहास से जुड़ी गलतियों के बावजूद विक्टोरिया और अब्दुल एक दिलचस्प फिल्म है और इसे देखने के लिए जूडी डेंच एक बहुत बड़ी वजह हैं। | 0 |
वैसे तो एक क्रेज़ी वन-नाइट स्टैंड से शुरू हुआ रिश्ता अंत में रिलेशनशिप पर जाकर खत्म होता है। लेकिन धरम और शायरा काफी जल्दी एक-दूसरे से बोर हो जाते हैं और जिंदगी उन्हें किस मोड़ पर ले आती है, यही है फिल्म की कहानी। रिव्यू: आज से तकरीबन बीस साल पहले निर्माता-निर्देशक आदित्य चोपड़ा 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' जैसी सुपरहिट प्रेम कहानी लेकर आए थे, जिसमें जुनूनी प्रेम के साथ-साथ सशक्त पारिवारिक मूल्यों की बात भी थी। फिल्म में नायिका काजोल जब नायक शाहरुख खान से कहती है, 'मुझे भगाकर ले चलो' तो नायक उसकी इस दुस्साहसी पहल से इनकार कर देता है। उसका मानना है कि वह नायिका के पिता और परिवार का दिल जीतकर ही अपनी दुल्हनियां को ले जाएगा। मगर अब 21 साल बाद न केवल प्रेम की परिभाषा बदल गई है, बल्कि सामाजिक मूल्यों में भी परिवर्तन आ चुका है। आदित्य चोपड़ा की 'बेफिक्रे' में नायिका वाणी कपूर अपने बॉयफ्रेंड रणवीर सिंह को अपने घर ले जाती है और माता-पिता के सामने ऐलान कर देती है कि वह नायक रणवीर के संग लिव इन रिलेशनशिप में रहने जा रही है और इसके लिए वह उनकी आज्ञा नहीं ले रही बल्कि उन्हें सूचित कर रही है। आदित्य की 'बेफिक्रे' आज के उन युवाओं की कहानी है, जिनके लिए प्यार, चुंबन, संभोग, लिव इन, ब्रेकअप सब कुछ इंस्टंट फ़ूड की तरह है। और इस इंस्टंट कॉन्सेप्ट में अपने लिए सही साथी को चुनने का जबरदस्त कन्फ्यूजन भी है। पिछले कुछ अरसे से प्रेम कहानियों के मामले में बॉलिवुड प्यार, दोस्ती और कन्फ्यूजन जैसे मुद्दों पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। 'लव आजकल', 'तामाशा', 'शुद्ध देसी रोमांस', 'ऐ दिल है मुश्किल', 'डियर जिंदगी' जैसी तमाम फिल्मों में इन्हीं मुद्दों को उलटफेर के साथ परोसा गया है। इस बार आदित्य चोपड़ा ने आज के यूथ से अपने कनेक्शन को परखने के लिए 'बेफिक्रे' में दो ऐसे युवाओं को चुना जो प्रेम और विवाह जैसे कमिटमेंट से कोसों दूर हैं। धरम (रणवीर सिंह) और शायरा (वाणी कपूर) का हाल ही में ब्रेकअप हुआ है। कहानी एक गाने के साथ फ्लैशबैक में पहुंचती है। वन नाइट स्टैंड के तहत धरम और शायरा की मुलाकात होती है। दोनों इस बात पर एकमत हैं कि जिस्मानी रूप से एक होने का मतलब यह कतई नहीं कि दोनों में प्यार हों। दोनों ही अपनी तरह के बेफिक्रे हैं। एक-दूसरे को अजीबो-गरीब डेयर देते हुए दोनों करीब आते हैं और फिर अचानक लिव इन का फैसला करते हैं, मगर इस शर्त के साथ कि दोनों उनके बीच प्यार वाली फीलिंग नहीं लाने देंगे। धरम खुद को हवस का पुजारी बताता है और शायरा खुद को फ्रेंच लड़की के रूप में देखती है। एक साल के साथ रहने के दौरान दोनों को अहसास होता है कि वे एक-दूसरे के लिए नहीं बने हैं और तब दोनों आपसी सहमति से ब्रेकअप कर लेते हैं। ब्रेकअप के बाद दोनों अच्छे दोस्त बनने का फैसला करते हैं। एक-दूसरे के आड़े वक्त में काम आकर दोस्ती निभाते भी हैं और इसी सिलसिले में शायरा को एक बैंकर शादी के लिए प्रपोज करता है। धरम एक अच्छे दोस्त की मानिंद उसे अपना घर बसाने की सलाह देता है। यहां धरम भी अपने लिए एक फ्रेंच लड़की को चुनता है। दोनों की शादी तय होती है, मगर जैसे-जैसे शादी की तारीख पास आती है, दोनों के बीच शादी और प्यार को लेकर कन्फ्यूजन पैदा हो जाता है। 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे', 'मोहब्बतें', 'रब ने बना दी जोड़ी' के बाद 'बेफिक्रे' तक आते-आते आदित्य चोपड़ा प्यार-मोहब्बत के मामले में कुछ ज्यादा ही 'बेफिक्रे' नजर आए हैं। हालांकि, अपने बोल्डनेस को जस्टिफाई करने के लिए उन्हें पैरिस का माहौल दर्शाना पड़ा है। कहानी पुरानी है, जहां आदित्य नायिका को उन्मुक्त दर्शाने के बावजूद खांचे से बाहर नहीं निकाल पाए हैं। ब्रेकअप के बाद जहां नायक कई लड़कियों के साथ हमबिस्तर होता है, वहीं नायिका किसी से रिश्ता नहीं बनाती। उन्होंने आज के युवाओं के माइंडसेट की पड़ताल करने की कोशिश की है, मगर कहानी का ढीलापन उन्हें कमजोर कर देता है। इटरनल रोमांस के लिए जाने जानेवाले आदित्य यहां चूक जाते हैं। इंटरवल तक कहानी हॉलिवुड फिल्म का फील देती है, मगर उसके बाद वह यशराज की परंपरा का निर्वाह करती नजर आती है। पैरिस को नए ढंग से दर्शाने के लिए ओनोयामा की दाद देनी होगी। फिल्म के कई दृश्य कमाल के बन पड़े हैं, जो मनोरंजन के साथ-साथ जगह से बांधे रखते हैं। इंटरवल के बाद रणवीर-वाणी के बीच का डांस सीक्वेंस गजब का बन पड़ा है। रणवीर फिल्म में संजीवनी बूटी का काम करते हैं। कई दृश्यों में वे इतने सहज हैं कि महसूस ही नहीं होता कि वह अभिनय कर रहे हैं। उनकी शरारत, बचपना, दुविधा, पागलपन जैसे तमाम भावों को वह बिना किसी मशक्कत के निभा ले जाते हैं। फिल्म के एक दृश्य में रणबीर को न्यूड दर्शाया गया है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। वाणी ने अपने किरदार को सार्थक बंनाने की हरचंद कोशिश की है, मगर उनका लुक और चेहरे के हाव-भाव कहीं कमतर साबित होते हैं। हां नृत्य में वह पारंगत नजर आई हैं। विशाल-शेखर के संगीत में 'नशे में चढ़ गई' और 'उड़े दिल बेफिक्रे' फिल्म की रिलीज से पहले ही लोकप्रिय हो चुके हैं। इनका फिल्मांकन बहुत ही खूबसूरती से हुआ है। | 1 |
निर्माता :
रमेश एस. तौरानी
निर्देशक :
राजकुमार संतोषी
संगीत :
प्रीतम
कलाकार :
रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, उपेन पटेल, दर्शन जरीवाला, गोविंद नामदेव, स्मिता जयकर, जाकिर हुसैन, सलमान खान (
विशेष भूमिका)
* यू सर्टिफिकेट * 16 रील * दो घंटे 34 मिनट
’अंदाज अपना अपना’ जैसी कॉमेडी फिल्म बनाने के कई वर्षों बाद निर्देशक राजकुमार संतोषी ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ के जरिये फिर कॉमेडी की और लौटे हैं। एक फिर उन्होंने साबित किया है कि वे बेहतरीन कॉमेडी फिल्म बना सकते हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ में दर्शकों का हँसना पहली रील से शुरू होता है और वो सिलसिला फिल्म की अंतिम रील तक चलता है। फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शक मुस्कुराते हुए सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं।
वीं फेल, बेकार बैठे रहने वाला और जब दिल भर आए तो हकलाने वाला प्रेम (रणबीर कपूर) हैप्पी क्लब का प्रेसीडेंट है। इस क्लब में उसके जैसे कुछ और लड़के हैं, जो अपने पिताओं की डाँट से बचने के लिए टाइम पास करने इस क्लब में आते हैं। हैप्पी क्लब के सदस्य उन छोकरा-छोकरियों को मिलाने की कोशिश करते हैं, जो आपस में प्यार करते हैं। इसके लिए वे लड़की का अपहरण तक कर लेते हैं। प्रेम की मुलाकात जेनी (कैटरीना कैफ) से होती है, जो उसे अपहरणकर्ता समझ लेती है, लेकिन बाद में उसकी गलतफहमी दूर होती है। जेनी भी दिल भर आने पर हकलाती है।
प्रेम के दिल को जेनी भा जाती है। जेनी का वह वर्णन करता है ‘बाल सिल्की, गाल मिल्की, अरे ये तो वेनिला आइस्क्रीम है’। प्रेम उसे चाहने लगता है, लेकिन जेनी उसे अपना दोस्त मानती है। जेनी के दिल में तो राहुल (उपेन पटेल) बसा हुआ है। राहुल के माता-पिता अपने बेटे और जेनी की शादी के खिलाफ है। इस मामले में सच्चा प्रेमी बन प्रेम, जेनी और राहुल की मदद करता है। थोड़े नाटकीय दृश्य घटते हैं, कुछ हंगामा होता है और जेनी, प्रेम की हो जाती है।
फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है। सैकड़ों बार इस तरह की कहानी हम देख चुके हैं। लेकिन जो बात इस फिल्म को खास बनाती है वो है इसका प्रस्तुतिकरण। स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है कि हँसी का सिलसिला थमता ही नहीं है। एक दृश्य को देख हँसी थमती नहीं कि दूसरा आ टपकता है। कॉमेडी का स्तर पूरी फिल्म में एक जैसा बना रहता है। कॉमेडी के लिए दृश्य गढ़े नहीं गए हैं और ना ही इन्हें ठूँसा गया है, बल्कि कहानी इन हल्के-फुल्के दृश्यों के सहारे आगे-बढ़ती रहती है।
फिल्म में कई मजेदार दृश्य हैं। रणबीर का चर्च में प्रार्थना करना, रणबीर और उसके पिता के बीच की नोकझोंक, रणबीर का नौकरी पर जाना, सलमान खान वाला प्रसंग, पार्टी वाला दृश्य, क्लाइमैक्स सीन।
निर्देशक राजकुमार संतोषी ने रोमांस और कॉमेडी का संतुलन बनाए रखा है और हास्य को अश्लीलता से दूर रखा है। 80 के दशक में बनने वाली फिल्मों का टच इसमें दिखाई देता है। उन्होंने नया करने के बजाय ये ध्यान में रखकर फिल्म बनाई है कि दर्शकों को क्या पसंद है और उसी चीज को उन्होंने दोहराया है। साथ ही उन्होंने अपने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय कराया है। रणबीर का किरदार उन्होंने इस तरह पेश किया है कि दर्शक उससे जुड़ जाता है। फिल्म की कहानी में कुछ खामियाँ है, लेकिन हास्य के तले वो दब जाती हैं।
रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की कैमेस्ट्री गजब ढाती है। दोनों इस समय युवा वर्ग के चहेते हैं और आने वाले दिनों में ये सफल जोड़ी साबित हो सकती है। रणबीर ने प्रेम के किरदार को बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। कॉमेडी करते समय वे लाउड नहीं हुए और न ही उन्होंने तरह-तरह के चेहरे बनाकर दर्शकों को हँसाने की कोशिश की है। दर्शक अब उन्हें बेहद पसंद करने लगे हैं और उन्होंने सुपरस्टार्स की नींद उड़ानी शुरू कर दी है।
कैटरीना अब खूबसूरत गुडि़या ही नहीं रही है, अभिनय भी करने लगी हैं। रणबीर के पिता के रूप में दर्शन जरीवाला का अभिनय शानदार है। मेहमान कलाकार के रूप में सलमान खान दर्शकों को खुश कर देते हैं। उपेन पटेल अभिनय के नाम पर चेहरे बनाते हैं, लेकिन संतोषी ने उनकी कमजोरियों को खूबियों में बदल दिया है।
प्रीतम द्वारा संगीतबद्ध कुछ गाने अच्छे हैं तो कुछ बुरे। ‘तेरा होने लगा हूँ’, ‘तू जाने ना’ और ‘प्रेम की नैया’ अच्छे बन पड़े हैं।
कुल मिलाकर ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ बच्चे, बूढ़े और नौजवान सभी को पसंद आएगी।
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नैतिकता और कानून देश दर देश बदल जाते हैं। समलैंगिकता को लेकर पूरे विश्व में बहस छिड़ी हुई है। भारत में इसे आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध माना जाता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की कमेटी इस पर विचार कर रही है कि इसे अपराध की श्रेणी में रखना चाहिए या नहीं? स्वतंत्रता के हिमायती कहते हैं कि उन्हें अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, वहीं कई लोग इसे अपनी संस्कृति के खिलाफ मानते हैं।
इन्हीं बातों को फिल्म 'अलीगढ़' के माध्यम से निर्देशक हंसल मेहता ने उठाया है। वास्तविक घटनाओं को आधार बनाकर फिल्म बनाई गई है कि किस तरह से समलैंगिक व्यक्ति को समाज हिकारत से देखता है और उसे नौकरी से हटा दिया जाता है मानो वह अपराधी हो।
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में डॉ. श्रीनिवास रामचंद्र सिरस (मनोज बाजपेयी) मराठी पढ़ाते हैं। प्रोफेसर सिरस एकदम सामान्य हैं। अपनी एकांत जिंदगी में वे लता मंगेशकर के पुराने गाने सुनते हैं, दो पैग व्हिस्की के पीते हैं और अपनी शारीरिक जरूरत को पूरा करने के लिए अपनी चॉइस से खुश हैं। किसी का बुरा करने में उनका यकीन नहीं है।
आसपास के लोगों को उनसे जलन होती है तो वह कहते हैं 'बाहर का आदमी माना जाता हूं। शादीशुदा लोगों के बीच अकेला रहता हूं। उर्दू बोलने वाले शहर में मराठी सीखाता हूं।'
साजिश रची जाती है। एक टीवी चैनल उनका स्टिंग ऑपरेशन करता है जिसमें सिरस एक रिक्शा चालक के साथ आलिंगन करते नजर आते हैं। उनके इस कृत्य को यूनिवर्सिटी की छवि पर धब्बा माना जाता है। समलैंगिकता के आरोप में उन्हें रीडर और आधुनिक भारतीय भाषाओं के अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर दिया जाता है।
मीडिया इसे 'सेक्स स्कैंडल' मानते हुए चटखारे लेकर खबर को प्रकाशित करता है। हुदड़ंगी लोग प्रोफेसर सिरस का पुतला फूंकते है। दीपू नामक पत्रकार इसमें मानवीय कोण देखता है। उसे सिरस के समलैंगिक होने के बजाय इस बात से ऐतराज है कि कैसे कुछ लोग सिरस के बेडरूम में घुस कर उनके नितांत निजी क्षणों को कैमरे में कैद कर सावर्जनिक कर देते हैं। उनके खिलाफ क्यों कोई एक्शन नहीं लेता?
दीपू का लेख छपने के बाद कुछ लोग सिरस की मदद के लिए आगे आते हैं। वे यूनिवर्सिटी के फैसले को अदालत में चुनौती देते हैं कि समलैंगिक होने की वजह से बर्खास्त करना गलत है। फैसला प्रोफेसर सिरस के पक्ष में जाता है।
हालांकि अदालत में सिरस को कई चुभने वाले सवालों, जैसे, 64 वर्ष की उम्र में आप सेक्स कैसे कर लेते हैं? या पुरुष की भूमिका में कौन था?, का सामना करना पड़ता है, जिससे उन्हें लगता है कि अमेरिका में बस जाना चाहिए जहां इस तरह के लोगों को इज्जत हासिल है।
हिंदी फिल्मों में आमतौर पर 'गे' को बहुत हास्यास्पद तरीके से दिखाया जाता है। कानों में बाली पहने, एकदम चिकने, कलाइयों को मोड़ कर बात करने वाले और नजाकत सी चाल वालों को 'गे' दिखाया जाता है जिनकी हट्टे-कट्टे पुरुषों को देख लार टपकती रहती है। 'अलीगढ़' में जिस तरह से इस किरदार को पेश किया गया है, हिंदी सिनेमा के इतिहास में शायद ही पहले कभी देखने को मिला हो।
फिल्म इस पक्ष को जोरदार तरीके से रखती है कि 'समलैंगिकों' को देखने की दृष्टि में अब बदलाव की जरूरत है। साथ ही यह फिल्म मीडिया की भूमिका और नितांत क्षणों को कैमरे में कैद करने वाले तथाकथित पत्रकारों के खिलाफ भी आवाज उठाती है।
सिरस की जिंदगी को थोड़ा विस्तार के साथ दिखाया जाता तो बेहतर होता। आखिर क्यों वे महाराष्ट्र छोड़कर अलीगढ़ आए? विद्यार्थियों के साथ उनके रिश्ते कैसे थे? इससे फिल्म में और गहराई आ सकती थी।
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शाहिद और सिटीलाइट जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले निर्देशक हंसल मेहता एक बार फिर दमदार फिल्म लेकर हाजिर हुए हैं।
सिरस के किरदार पर निर्देशक ने खासी मेहनत की है। समलैंगिक होने पर समाज उन्हें हिकारत से देखता है और इससे सिरस अवसाद में चले जाते हैं। उनके अवसाद, दु:ख और एकाकीपन को निर्देशक ने लोकेशन और लाइट्स के इफेक्ट्स से बखूबी दिखाया है। किरदारों से ज्यादा सेट और बेजान चीजें बोलती हैं।
फिल्म में उन्होंने बैकग्राउंड म्युजिक और संवादों का बहुत ही कम उपयोग किया है। खामोशी और वातावरण के जरिये उन्होंने बखूबी माहौल तैयार किया है जो सिरस के अंदर चल रही हलचल को सामने लाता है।
फिल्म के आखिर में एक कमाल का सीन हंसल मेहता ने रचा है जिसमें श्मशान घाट में पत्रकार दीपू रोती हुई महिला से सवाल-जवाब करता है और उसी समय उसे प्रोफेसर सिरसा की मौत की खबर मिलती है।
मनोज बाजपेयी ने अपने अभिनय के उच्चतम स्तर को छूआ है। उनका अभिनय हिला कर रख देता है। उनकी आंखे और चेहरे के भाव संवाद से ज्यादा बोलते हैं। अपने अंदर की उदासी और अकेलेपन को वे अपनी बॉडी लैंग्वेज के जरिये बखूबी पेश करते हैं। नि:संदेह अभिनय के स्तर पर यह फिल्म उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है।
राजुकमार राव खुद बड़ा नाम बन गए हैं, लेकिन हंसल मेहता से रिश्तों के चलते उन्होंने सहायक भूमिका निभाई है। हालांकि उनके ऑफिस का माहौल नकली लगता है, लेकिन अलग सोच रखने वाले पत्रकार की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई है, जो मोटर चालू/बंद करने की छोटी बात भूल जाता है, लेकिन मुद्दे की बात बखूबी पकड़ता है। एक पेइंग गेस्ट की मुसीबतों को राजकुमार के किरदार के माध्यम से अच्छे से दिखाया गया है। छोटे रोल में आशीष विद्यार्थी भी प्रभावित करते हैं।
समलैंगिकता ऐसा मुद्दा है जिस पर बहस की जाए तो खत्म ही न हो। आप इसके पक्ष में हो या विपक्ष में, लेकिन 'अलीगढ़' इस मुद्दे को कुछ ऐसे सुलगते अंदाज में पेश करती है कि आप सोचने को मजबूर हो जाते हैं।
बैनर : कर्मा पिक्चर्स, इरोज़ इंटरनेशनल
निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, संदीप सिंह, हंसल मेहता
निर्देशक : हंसल मेहता
संगीत : करण कुलकर्णी
कलाकार : मनोज बाजपेयी, राजकुमार राव, आशीष विद्यार्थी
सेंसर सर्टिफिकेट : ए
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वेड विल्सन यानी कि डेडपूल (रेयान रेनॉल्डस) कई इंटरनैशनल गैंग्स का खात्मा कर देता है और उसके बाद अपनी गर्लफ्रेंड के साथ फैमिली शुरू करने की प्लानिंग करता है, लेकिन गुस्साए गुंडे उस पर हमला करते हैं, जिसमें उसकी गर्लफ्रेंड की मौत हो जाती है। जिंदगी से निराश डेडपूल उसके नए मायने तलाश रहा है। तभी उसकी जिंदगी में नए 14 साल के बच्चे की एंट्री होती है, जिस पर भविष्य से आए एक आदमी केबल (जोश ब्रोलिन) का अटैक होता है। डेडपूल अपनी गर्लफ्रेंड की प्रेरणा से उस बच्चे को बचाने और सही राह पर लाने के लिए एक्स फोर्स तैयार करता है। उसकी खातिर वह किसी भी खतरे का मुकाबला करने को तैयार है। हालांकि अपनी फोर्स के साथ डेडपूल अपने मकसद में कामयाब हो पाता है या नहीं यह देखने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। अभी तक हॉलिवुड फिल्मों को भारतीय दर्शक उनके बेहतरीन ऐक्शन की वजह से पसंद करते रहे हैं, लेकिन अब उनकी बॉलिवुड स्टार्स द्वारा मजाकिया अंदाज में की गई हिंदी डबिंग भी हिंदी फिल्मों के दर्शकों के लिए हॉलिवुड फिल्मों को देखने की एक वजह बन गई है। वहीं हॉलिवुड के निर्माता भी इंडियन मार्केट पर विशेष फोकस कर रहे हैं कि खासतौर पर हिंदी बॉलिवुड स्टार्स से डबिंग करा रहे हैं। 'डेडपूल 2' में डेडपूल के लिए हिंदी में डबिंग करने वाले रणवीर सिंह की मजेदार डबिंग आपको न सिर्फ पूरी फिल्म के दौरान हंसाती रहती है, बल्कि उसको पूरी तरह से भारतीय अंदाज में बदल देती है। फिल्म की डबिंग में आपको 'बाहुबली 2' से लेकर 'दंगल', 'सुल्तान' और 'गीता-बबीता' तक का जिक्र मिलेगा, तो उम्मीद है कि 'डेडपूल 2' आपको आपको अपनी फिल्म लगेगी। अगर आपने इंग्लिश में 'डेडपूल 2' देखी है और फिर उसको हिंदी में देख रहे हैं, तो यकीनन फिल्म आपको एकदम बदली हुई लगेगी। रणवीर सिंह ने अपने अंदाज के मुताबिक, मजेदार और कहीं-कहीं अश्लील अंदाज में डबिंग की है, जो दर्शकों को गुदगुदाती है, तो कहीं-कहीं वे झेंप भी जाते हैं। बहरहाल सुबह के शोज में मल्टीप्लेक्स से लेकर सिंगल स्क्रीन तक भारी मात्रा में पहुंचे दर्शक इस बात की गवाही दे रहे थे कि डेडपूल का भारतीय दर्शकों में खासा क्रेज है। फिल्म में उम्मीद के मुताबिक, जबर्दस्त ऐक्शन सीन हैं, जो आपको हिलाकर रख देंगे। अगर आप गर्मियों की छुट्टियों में कुछ मजेदार देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी बशर्ते कि आप फिल्म के कुछ भद्दे और अश्लील डायलॉग को झेलने का दम रखते हों। साथ ही फिल्म देखने जाते वक्त अपने साथ बच्चों को भी सोच-समझकर ही लेकर जाएं। | 0 |
Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर आपको राम गोपाल वर्मा की बॉक्स ऑफिस पर पिछली सुपरहिट फिल्म का नाम बताने के लिए कहा जाए तो यकीनन आपको थोड़ा वक्त जरूर लगेगा, पिछले कुछ समय से रामू बॉलिवुड में अपनी फिल्मों से ज्यादा अलग-अलग सोशल नेटवर्किंग साइट्स अपने अजीबोगरीब ट्वीट्स को लेकर सुर्खियों में रहे हैं। रामू की इस फिल्म की बात करें तो बेशक यह फिल्म बस ठीक-ठाक है। लोकेशन और लीड किरदार के सिलेक्शन में रामू ने बाजी मारी तो फिल्म के दूसरे अहम किरदार एसटीएफ ऑफिसर कानन के रोल में सचिन जोशी का सिलेक्शन यकीनन रामू की मजबूरी लगती है। दरअसल, सचिन की वाइफ रैना जोशी इस फिल्म की को-प्रड्यूसर हैं, ऐसे में सचिन को फिल्म में एक अहम किरदार देना कहीं न कहीं रामू की मजबूरी रही होगी। बेशक, रामू ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी धमाकेदार एंट्री के लिए उसी फिल्म को हिंदी में बनाने के लिए चुना, जिसने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाया था, साउथ में रामू ने किलिंग वीरप्पन बनाई और फिल्म हिट रही। इस बार रामू ने इस फिल्म को हिंदी में बनाकर अपनी वापसी की। कहानी : करीब तीस साल तक कर्नाटक और तमिलनाडु के जंगलों में अपना राज स्थापित कर चुके चंदन तस्कर वीरप्पन (संदीप भारद्वाज) जंगल के एक-एक कोने को इस तरह से जानता है कि पुलिस कभी उसके पास तक भी नहीं आ पाती। अगर कभी पुलिस की कोई टुकड़ी वीरप्पन के पास पहुंचने में कामयाब हो भी जाती तो वीरप्पन ने पुलिस के जवानों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। बारह-चौदह साल की उम्र में वीरप्पन फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के सिपाहियों को चाय पिलाता है। इसी उम्र में वीप्पन ने पहली बार बंदूक भी फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के इन्हीं सिपाहियों से सीखी। जंगल में डयूटी करने वाले यही सिपाही वीरप्पन से हाथियों का शिकार करवाते। वीरप्प्न हाथियों को मारता है और पुलिस वाले हाथी दांत से होने वाली मोटी कमाई में से सौ-दो सौ रुपये उसे भी दे देते है। कुछ दिनों बाद जब पुलिस वाले वीरप्पन को ऐसा करने से रोकते हैं तो वह उन्हें ही मारकर जंगल में भाग जाता है। कुछ दिनों बाद उसके कुछ दोस्त भी उसके गिरोह में शामिल हो जाते हैं। शुरुआत में पुलिस वीरप्पन को हल्के में लेती है, लेकिन जब उसका आंतक बढ़ने लगता है तो उसे पकड़ने के लिए तमिलनाडु और कर्नाटक की सरकारें स्पेशल टास्क का गठन करती है। टास्क फोर्स की टुकड़ी हर बार घने जंगलों में उसे पकड़ने निकलती है, लेकिन नाकाम होकर लौटती है। ऐसे में, टास्क फोर्स का अफसर कानन (सचिन जोशी) वीरप्पन को पकड़ने के लिए एक प्लान बनाता है। इस प्लान में कानन एसटीएफ के उस ऑफिसर की पत्नी को भी शामिल करता है, जिसे वीरप्पन ने बड़ी बेरहमी के साथ मार डाला था। कानन उसी ऑफिसर की पत्नी प्रिया (लीज़ा रे) को प्लान में शामिल करके वीरप्पन की पत्नी मुथुलक्ष्मी (उषा जाधव) तक पहुंचता है। देखें, 'वीरप्पन' का ट्रेलर ऐक्टिंग : संदीप भारद्वाज ने वीरप्पन के किरदार को अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है। स्क्रीन पर संदीप को देखकर नब्बे के दशक का वीरप्पन दर्शकों के जेहन में घूमने लगता है। संदीप की डायलॉग डिलीवरी उसके हाव-भाव और बोलने का स्टाइल जानदार है। वहीं फिल्म में एसटीएफ ऑफिसर कानन के किरदार में सचिन जोशी की ऐक्टिंग को देखकर लगता है जैसे डायरेक्टर उनसे जबरन ऐक्टिंग करवा रहे हैं। लीज़ा रे कहीं प्रभावित नहीं कर पाती हैं। वहीं वीरप्पन की पत्नी के किरदार में उषा जाधव को बेशक रामू ने कम फुटेज दी, लेकिन इसके बावजूद उषा ने अपने किरदार को अपनी दमदार ऐक्टिंग से पावरफुल बना दिया। निर्देशन : रामू की तारीफ करनी होगी कि वह वीरप्पन के खौफ को पर्दे पर उतारने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं। रामू ने नब्बे के दौर में मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे वीरप्पन की चालाकियों और उसके काम करने के तरीके के साथ-साथ उसके शातिरपना अंदाज़ को पर्दे पर ईमानदारी के साथ उतारा। वहीं, वीरप्पन के साथ साथ फिल्म में सचिन जोशी यानी एसटीएफ ऑफिसर कानन को उनके कद से कहीं ज्यादा फुटेज देकर फिल्म की रफ्तार को कम कर दिया। इस बार रामू ने स्क्रिप्ट पर ध्यान दिया, लेकिन वीरप्पन के साथ जुड़े कुछ खास प्रसंगों को उन्होंने न जाने क्यों टच तक नहीं किया, यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। संगीत : आइटम सॉन्ग का फिल्मांकन अच्छा है, लेकिन फिल्म में ऐसा दूसरा कोई गाना नहीं जो हॉल से बाहर आकर आपको याद रह पाए। क्यों देखें : अगर रामू के फैन हैं और एडल्ट तो इस फिल्म को देखा जा सकता है, वीरप्पन के किरदार में संदीप भारद्वाज इस फिल्म की यूएसपी है तो वहीं सचिन जोशी कमजोर कड़ी हैं। | 0 |
आम टीचर पढ़ाता है, अच्छा टीचर समझाता है और बहुत अच्छा टीचर करके दिखाता है, लेकिन कोई खास टीचर आपकी प्रेरणा बन जाता है, जिसे आप पूरी जिंदगी नहीं भूल पाते। ऐसी ही प्रेरणा देने वाले अपने टीचर मिस्टर खान से प्रेरित फिल्म 'हिचकी' की नैना माथुर (रानी मुखर्जी) की जिंदगी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। नैना टॉरेट सिंड्रोम से पीड़ित है, जिस वजह से उसे बार-बार हिचकी आती है। इसी वजह से उसे बचपन में 12 स्कूल बदलने पड़े। पिछले 5 सालों में 18 स्कूलों से रिजेक्ट होने के बाद भी वह टीचिंग में करियर बनाना चाहती है। कई बार नकारे जाने के बाद आखिरकार नैना को अपने ही स्कूल में शिक्षा के अधिकार के तहत दाखिल हुए गरीब बच्चों को पढ़ाने का चैलेंज मिलता है। शुरुआत में नैना को उन बच्चों को पढ़ाने में तमाम दिक्कतें आती हैं। बच्चे भी नैना की जमकर हूटिंग करते हैं। नैना उन बच्चों को सुधारने में कामयाब होती है या नहीं, यह तो आपको सिनेमा जाकर ही पता लगेगा, लेकिन इतना तय है कि इस तरह की फिल्में समाज में टॉरेट सिंड्रोम जैसी बीमारियों को लेकर जागरूकता लाने का काम करती हैं, जिन्हें आमतौर पर हम हंसी में उड़ा देते हैं। इस फिल्म में रानी का किरदार अमेरिकन मोटिवेशनल स्पीकर और टीचर ब्रैड कोहेन से प्रेरित है, जो कि टॉरेट सिंड्रोम के चलते तमाम परेशानियां झेलकर भी कामयाब टीचर बने। उन्होंने अपनी लाइफ पर एक किताब लिखी, जिस पर 2008 में फ्रंट ऑफ द क्लास नाम से अमेरिकन फिल्म भी आई। 'हिचकी' इसी फिल्म पर आधारित है। रानी की पिछली फिल्म 'मर्दानी' आदित्य चोपड़ा से शादी के बाद 2014 में आई थी। इस फिल्म में भी रानी की ऐक्टिंग को काफी पसंद किया गया था। अपनी बेटी अदिरा के जन्म के चलते 4 साल के लंबे गैप के बाद रानी ने सिल्वर स्क्रीन पर वापसी के लिए एक मजबूत कहानी पर बनी 'हिचकी' जैसी फिल्म चुनी है। रानी ने अपने किरदार के साथ पूरी तरह न्याय भी किया। उन्होंने टॉरेट सिंड्रोम से पीड़ित नैना माथुर के रोल को पूरी तरह जिया है। साथी कलाकारों के आवश्यक सहयोग के बावजूद फिल्म को रानी पूरी तरह अपने कंधों लेकर चलती हैं और यह पूरी तरह उनकी फिल्म है। ब्लैक जैसी दमदार फिल्म कर चुकी रानी ने दिखा दिया कि वह इमोशनल रोल को पूरे दमखम के साथ कर सकती हैं। वहीं फिल्म के डायरेक्टर सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा ने इस इमोशनल स्टोरी को खूबसूरती से पर्दे पर उतारा है। खासकर वह आपको शुरुआत से लेकर आखिर तक बांधे रखते हैं। इसके अलावा फिल्म का क्लाइमैक्स भी दमदार है।फिल्म के गाने कहानी से मैच करते हैं। अगर आप रानी के फैन हैं और कुछ लीक से हटकर देखना चाहते हैं, तो इस वीकेंड आपको यह फिल्म मिस नहीं करनी चाहिए। ...और हां, जिंदगी के असली सबक सिखाने के लिए अपने बच्चों को जरूर अपने साथ सिनेमा ले जाएं। | 0 |
बैनर :
एएलटी एंटरटेनमेंट, बालाजी टेलीफिल्म्स लिमिटेड
निर्माता :
एकता कपूर
निर्देशक :
सचिन यार्डी
संगीत :
सचिन-जिगर, शंकर-एहसान-लॉय
कलाकार :
तुषार कपूर, रितेश देशमुख, नेहा शर्मा, सारा जेन डायस, अनुपम खेर, चंकी पांडे, रोहित शेट्टी (मेहमान कलाकार)
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 16 मिनट 30 सेकंड
क्या सुपर कूल हैं हम बनाने वालों का कहना है कि उनकी फिल्म एडल्ट कॉमेडी है, लेकिन एडल्ट कॉमेडी का मतलब केवल डबल मीनिंग डायलॉग ही नहीं होता है। एक एडल्ट थीम वाली कहानी भी जरूरी है जिस पर ऐसा स्क्रीनप्ले लिखा जाए जो वयस्क मन को गुदगुदाए।
क्या सुपर कूल हैं' देख ऐसा लगता है कि इससे जुड़े लोगों को यही नहीं पता है कि एडल्ट कॉमेडी क्या होती है। एसएमएस में चलने वाले थके हुए जोक्स, द्विअर्थी संवाद और फूहड़ता को कॉमेडी के नाम पर पेश किया गया है। फिल्म देखते समय सचिन यार्डी नामक शख्स की सोच पर हैरत होती है। उन्होंने अपने मानसिक दिवालियेपन के ढेर सारे सबूत दिए हैं।
अनुपम खेर वाला ट्रेक तो इतना घटिया है कि उसे देख सी-ग्रेड फिल्म बनाने वाले भी गर्व महसूस कर सकते हैं। अनुपम खेर को थ्री जी नामक बाबा एक कुतिया देकर बोलता है तुम्हारी स्वर्गवासी मां लौट आई है। अनुपम उसे मां बोलते हुए बड़े प्यार से रखते हैं।
उस कुतिया से एक कुत्ता संबंध बना लेता है तो बाबा अनुपम से कहते हैं कि यह तुम्हारा बाप है। करोड़पति अनुपम उस कुत्ते को भी पाल लेता है और उनकी शादी कराते हैं। इसमें प्रसंग में जो संवाद बोले गए हैं वो स्तरहीन हैं।
अनुपम खेर इतने गरीब तो नहीं हुए हैं कि उन्हें पेट भरने के लिए ऐसे रोल करना पड़ रहे हैं। वे एक्टिंग सिखाते हैं और यह फिल्म उन्हें अपने स्टुडेंट्स को जरूर दिखाना चाहिए ये बताने के लिए कि एक्टिंग कभी भी ऐसे नहीं करना चाहिए।
सचिन यार्डी फिल्म के निर्देशक होने के साथ लेखक भी हैं और निर्देशक पर लेखक हावी है। पहले उन्होंने ऐसे शब्द चुनें जिनके आधार पर डबल मीनिंग डायलॉग लिखे जा सके। फिर डायलॉग लिखकर उन्होंने दृश्य बनाए और इनकी एसेम्बलिंग कर फिल्म तैयार की गई। कहानी का फिल्म में कोई मतलब ही नहीं है, सिर्फ बेहूदा हरकतों और घटिया संवादों के सहारे फिल्म पूरी की गई है।
तुतलाने वालों का, काले रंग वालों का तथा कई नामों का मजाक उड़ाया गया है, जैसे फखरू, फखरी, पेंटी, मेरी रोज़ मार्ले, लेले। इनका कई बार इस्तेमाल किया गया है जिससे ऐसा लगता है कि लेखक को कुछ नया नहीं सूझ रहा है।
निर्देशक के रूप में सचिन का काम सिर्फ अपनी लिखी कहानी को फिल्माना था। उनके डायरेक्शन में इमेजिनेशन नहीं है। न गानों के लिए अच्छी सिचुएशन बनाई गई है और न ही दृश्यों के बीच कोई लिंक है। इमोशन डालने की कोशिश फिजूल नजर आती है। इंटरवल के बाद जरूर कुछ ऐसे सीन हैं जिन्हें देख हंसा जा सकता है वरना ज्यादातर दृश्यों को देख ऐसा लगता है कि हंसाने की फिजूल कोशिश की जा रही है।
तुषार कपूर का अभिनय अच्छे से बुरे के बीच झूलता रहता है। रितेश देशमुख बुझे-बुझे से रहे। नेहा शर्मा ने ओवर एक्टिंग की। सारा जेन डियास आत्मविश्वास से भरपूर नजर आईं। चंकी पांडे और अनुपम खेर ने एक्टिंग के नाम पर जोकरनुमा हरकतें कीं। तकनीकी रूप से भी फिल्म कमजोर लगती है।
डबल मीनिंग डायलॉग या फूहड़ता आटे में नमक बराबर हो तो अच्छी लगती है, लेकिन जब पूरा ही नमक हो तो स्वाद बेमजा हो जाता है। यदि आप पूरी फिल्म में मारो, लेले, चाट, पेंटी, देदे.... जैसे ढेर सारे शब्द सुनना पसंद करते हैं तो
ही
यह फिल्म आपको मजा दे सकती है।
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बैनर :
सार्थक मूवीज, ज़ेड 3 पिक्चर्स प्रोडक्शन
कहानी-निर्देशक :
मिलिन्द गडकर
कलाकार :
सुदीप, अमृता खानविलकर, एहसास चान्ना, नीरू सिंह, ज़ाकिर हुसैन
* केवल वयस्कों के लिए * एक घंटा 52 मिनट
कम लागत की होने की वजह से ‘फूँक’ का नाम सफल फिल्मों की सूची में शामिल हो गया और इस फिल्म का सीक्वल ‘फूँक 2’ बनाने का कारण रामगोपाल वर्मा को मिल गया।
इस फिल्म का निर्माण ही इसीलिए किया गया है ताकि ‘फूँक’ की सफलता का फायदा उठाया जाए। कुछ डरावने सीन फिल्मा लिए गए और उन्हें एक अधूरी कहानी में पिरोकर ‘फूँक 2’ का नाम दे दिया गया।
नि:संदेह
कुछ दृश्य डरात
े हैं, लेकिन अच्छी कहानी का साथ इन्हें मिलता तो बात ही कुछ और होती। फिल्म का अंत इसका सबसे बड़ा माइनस पाइंट है। ऐसा लगता है कि अभी कहानी में कुछ बातें बाकी हैं, लेकिन ‘द एंड’ हो जाता है।
मधु की मौत के साथ ही ‘फूँक’ खत्म हुई थी, जिसने राजीव (सुदीप) की बेटी रक्षा (एहसास चान्ना) पर काला जादू कर दिया था। राजीव अब नई जगह पर रहने के लिए आ गया है। समुद्र किनारे और घने जंगल के बीच उसका घर है।
रक्षा को एक दिन जंगल में गुड़िया मिलती है, जिसे वह घर ले आती है। इसके बाद पूरे परिवार के साथ रहस्मय और डरावनी घटनाएँ घटने लगती हैं। राजीव की पत्नी आरती (अमृता खानविलकर) के शरीर में मधु का भूत आ जाता है और वह पूरे परिवार को मार डालने की धमकी देता है।
राजीव को तांत्रिक मंजा (जाकिर हुसैन) की याद आती है, जिसने पिछली बार उसकी बेटी को मधु के काले जादू से बचाया था। वह उसके पास पहुँचे इसके पहले ही मंजा मारा जाता है।
इधर मधु का भूत आरती के अंदर प्रवेश कर राजीव की बहन, नौकरानी, गॉर्ड की हत्या कर देता है और रक्षा को मारना चाहता है। फिल्म के अंत में रक्षा को राजीव बचा लेता है और आरती के अंदर से भूत निकल जाता है। लेकिन वह कहाँ गया? राजीव के सामने क्यों नहीं आया? रक्षा को मारने का उसने दोबारा प्रयास क्यों नहीं किया? ऐसे ढेर सारे सवाल दर्शक के मन में उठते हैं जिनका जवाब नहीं दिया गया। साथ ही फिल्म का अंत इस तरह से किया गया है कि शैतानी ताकत की विजय का आभास होता है, जबकि सभी उसे पराजित होता देखना चाहते थे।
‘फूँक’ का निर्देशन रामगोपाल वर्मा ने किया था, जबकि सीक्वल को निर्देशित किया इस फिल्म के लेखक मिलिंद गडकर ने। मिलिंद पर रामगोपाल वर्मा का प्रभाव साफ नजर आता है।
कुछ डरावने और चौंकाने वाले दृश्य उन्होंने अच्छे फिल्माए हैं, लेकिन सारे दृश्यों के बारे में ये बात नहीं कही जा सकती, खासतौर पर मध्यांतर के पूर्व वाला हिस्सा बोरिंग है। कहानी इतनी धीमी गति से आगे बढ़ती है कि नींद आने लगती है। कुछ दृश्यों में निर्देशक की कमजोरी झलकती है।
इंटरवल के बाद जब भूत की एंट्री होती है उसके बाद घटनाक्रम में तेजी आती है और कुछ रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य देखने को मिलते हैं। लेकिन मिलिंद ने फिल्म का अंत बेहद घटिया और अधूरे तरीके से किया है। एक राइटर के रूप में वे निराश करते हैं।
एक्टिंग डिपार्टमेंट की बात की जाए तो सुदीप, अमृता और बाल कलाकारों ने अच्छा काम किया है। नीरू और अमित निराश करते हैं। कैमरा मूवमेंट रामगोपाल वर्मा की फिल्मों जैसा है। बैक ग्राउंड म्यूजिक के जरिये जरूरत से ज्यादा डराने की कोशिश की गई है।
आमतौर पर सीक्वल को एक कदम आगे होना चाहिए, लेकिन ‘फूँक 2’ ‘फूँक’ से दो कदम पीछे है।
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डांस को लेकर भारत में जो दीवानगी इस समय है, पहले कभी नहीं देखी गई। टीवी पर प्रसारित होने वाले डांस रियलिटी शो ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। टीनएजर्स में इस दीवानगी को देखते हुए गली-गली में डांस सिखाने वाले स्कूल खुल गए और यह कमाई का बड़ा जरिया बन गया। डांस पसंद करने वालों का एक बड़ा दर्शक वर्ग तैयार हो गया जिसे ध्यान में रख कर कोरियोग्राफर रेमो डिसूजा ने 'एनी बडी केन डांस एबीसीडी' निर्देशित की थी। यह कमजोर फिल्म थी, लेकिन डांस के कारण यह फिल्म सफल सिद्ध हुई। यही वजह है कि इसके सीक्वल 'एबीसीडी2' में रेमो को बड़ा बजट मिला। लास वेगास में फिल्म का बड़ा हिस्सा शूट किया गया। वरुण धवन और श्रद्धा कपूर जैसे सितारे इसमें काम करने के लिए राजी हो गए।
एबीसीडी में रेमो ने अपने संघर्ष के अनुभव के आधार पर बनाई थी तो 'एबीसीडी 2' बनाने की प्रेरणा उन्हें नालासोपारा के एक डांस ग्रुप से मिली जो अपने ऊपर लगे 'चीटर्स' के दाग को धोकर लास वेगास का हिपहॉप प्रतियोगिता जीतना चाहते हैं। सुरेश (वरुण धवन) इस ग्रुप का लीडर है। विष्णु (प्रभुदेवा) कई मिन्नतों के बाद इस ग्रुप का गुरु बनता है। पहले वे बंगलौर में क्वालीफाई राउंड में हिस्सा लेते हैं। बाद में लास वेगास जाने के लिए 25 लाख रुपये का इंतजाम कर वहां पहुंचते हैं जहां कई देशों के दिग्गज डांसर्स से उनका मुकाबला होता है। कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब विष्णु रुपये लेकर गायब हो जाता है। इसके अलावा कई बाधाएं उनके रास्ते में आती हैं जिनका वे डटकर मुकाबला करते हैं।
रेमो डिसूजा ने कोरियोग्राफी, लेखन और निर्देशन की तिहरी जिम्मेदारी निभाई है। कहानी उनकी ही है और स्क्रीनप्ले उन्होंने तुषार हीरानंदानी के साथ मिलकर लिखा है। 'एबीसीडी 2' का सबसे कमजोर पक्ष इसका लेखन ही है। रेमो को लिखने का मोह छोड़ देना चाहिए क्योंकि वे नया नहीं सोच पा रहे हैं। 'एबीसीडी 2' में कहानी जैसी कोई बात है नहीं और यह लगभग 'एबीसीडी' की तरह है। इंटरवल तक तो उन्होंने किसी तरह खींच लिया, लेकिन बाद में यह फिल्म बिखर जाती है और फिर क्लाइमैक्स में ही संभलती है।
रेमो का लेखन एक पैकेज की तरह है कि तीन इमोशनल सीन, चार कॉमेडी सीन और डांस डालकर दर्शकों को खुश कर दो। विष्णु के पैसे लेकर गायब होना और उसकी पर्सनल लाइफ वाला ट्रेक निहायत ही कमजोर साबित हुआ है। ऐन मौके पर विनी (श्रद्धा कपूर) के पैर में चोट लगना और उसकी जगह लॉरेन को लाना भी केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाता है।
रेमो ने बार-बार डांसर्स के सामने मुसीबत खड़ी की और तुरंत ही उसका समाधान हाजिर किया। यह सारी बातें इतनी सतही हैं कि दर्शकों को छूती नहीं है। अच्छा तो यह होगा कि रेमो फिल्म किसी और से लिखवाए और खुद निर्देशन करें।
पिछली फिल्मों से तुलना की जाए तो निर्देशक के रूप में रेमो का विकास हुआ है। अब वे कलाकारों से अच्छा अभिनय लेने लगे हैं और फिल्म पर पकड़ भी बनाने लगे हैं। सीन को बेहतर तरीके से फिल्माने लगे हैं। अपने लेखन की कमजोरी को उन्होंने कुशल निर्देशन से बचाने की कोशिश भी की है। जहां फिल्म कमजोर पड़ी वहीं पर उन्होंने एक बेहतरीन डांस डालकर दर्शकों को खुश किया है। साथ ही उनका प्रस्तुतिकरण इस तरह का है कि बीच-बीच में मनोरंजन का डोज देकर दर्शकों को उन्होंने पूरी फिल्म से जोड़ कर रखा है। क्लाइमैक्स में उन्होंने 'वंदे मातरम' को जोड़ देशभक्ति वाला कार्ड कुशलता से खेला है।
रेमो मूलत: कोरियोग्राफर हैं और कोरियोग्राफी इस फिल्म का मजबूत पक्ष है। उन्होंने प्रभुदेवा, वरुण, धर्मेश, पुनीत, लॉरेन जैसे कलाकारों की एंट्री एक बेहतरीन डांस के साथ रख दर्शकों को खुश किया है। 'हैप्पी ऑवर' में प्रभुदेवा का डांस देखने लायक है। 'बेजुबान फिर से' और 'वंदे मातरम' की कोरियोग्राफी बेहतरीन है। भव्य सेट होने के कारण आंखों को गाने देखने में अच्छे लगते हैं।
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थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। कहा जा सकता है कि बॉलीवुड में 'एबीसीडी 2' के पहले इतने बेहतरीन थ्री-इफेक्ट्स कभी नहीं देखे गए। कई सीन थ्री-डी इफेक्ट्स के कारण प्रभावित करते हैं। इसके लिए तकनीशियन बधाई के पात्र हैं। यदि आप फिल्म देखना चाहें तो थ्री-डी में ही देखे, इससे मजा निश्चित रूप से बढ़ जाता है।
चूंकि फिल्म एक ग्रुप की कहानी है, इसलिए लीड रोल में होने के बावजूद वरुण धवन को ज्यादा फुटेज नहीं दिया गया है। वे ग्रुप का एक हिस्सा ही नजर आते हैं। एक्टिंग से ज्यादा वे डांस के द्वारा प्रभावित करते हैं। श्रद्धा कपूर को ज्यादा अवसर नहीं मिले हैं। यूं भी रेमो की फिल्मों में महिला किरदार के लिए कम ही जगह रहती है। डांस ग्रुप में वे एकमात्र महिला सदस्य रहती हैं। बाद में लॉरेन आकर जुड़ती हैं। लॉरेन के डांस तारीफ के काबिल हैं। प्रभुदेवा ने खुल कर अभिनय नहीं किया है। शायद भाषा की समस्या उनके सामने रहती है। धर्मेश, पुनीत, राघव को डांस और अभिनय का अवसर भी मिला है।
'एबीसीडी 2' में कुछ दिक्कते हैं, इसके बावजूद यह फिल्म अपनी टारगेट ऑडियंस को खुश करती है।
बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, वाल्ट डिजनी पिक्चर्स
निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर
निर्देशक : रेमो डिसूजा
संगीत : सचिन-जिगर
कलाकार : वरुण धवन, श्रद्धा कपूर, प्रभुदेवा, राघव जुयाल, पुनीत पाठक, धर्मेश येलांदे, लॉरेन, प्राची शाह
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 34 मिनट
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किसी भी फिल्म को देखते समय यदि घड़ी पर निगाह जाए तो यह लक्षण फिल्म के लिए अच्छा नहीं रहता। इंद्र कुमार द्वारा निर्देशित फिल्म 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' देखते समय तो लगता है कि घड़ी बंद ही हो गई है। मस्ती तो दूर फिल्म देखते समय सुस्ती छा जाती है और दो घंटे कैद से कम नहीं लगते।
यह इस सीरिज की तीसरी फिल्म है। पहली फिल्म 'मस्ती' सही मायनो में एडल्ट मूवी थी। दूसरा भाग बहुत ज्यादा वल्गर था और एडल्ट कॉमेडी के नाम पर कचरा दिखाया गया था। ग्रेट ग्रैंड मस्ती में कॉमेडी के साथ हॉरर जोड़ दिया गया है और यह दर्शकों के साथ ट्रेजेडी है।
फिल्म में वही तीन किरदार हैं, अमर (रितेश देशमुख), प्रेम (आफताब शिवदासानी) और मीत (विवेक ओबेरॉय)। सेक्स लाइफ से अंसतुष्ट हैं। अमर की बीवी हाथ नहीं लगाने देती। प्रेम की साली और मीत का साला कबाब में हड्डी है। परेशान होकर ये दूधवाडी गांव जाने का फैसला करते हैं जहां पर अमर की पुरानी हवेली है। उस भूतिया हवेली कहा जाता है और अमर उसे बेचना चाहता है।
हवेली में तीनों दोस्तों की मुलाकात शबरी (उर्वशी रौटेला) से होती जो बेहद खूबसूरत और सेक्सी है। शबरी को देख अमर, प्रेम और मीत की लार टपकने लगती है। तीनों के यह जान कर होश उड़ गए कि शबरी एक चुड़ैल है। तीनों में से किसी एक के साथ संबंध बना कर वह मुक्ति चाहती है। साथ ही वह जिसके साथ संबंध बनाएगी उसकी मृत्यु हो जाएगी। किस तरह से चुड़ैल के चंगुल से ये मनचले मुक्त होते हैं यह फिल्म का सार है।
कहानी पढ़कर आप जान ही गए होंगे कि कितनी बेतुकी और बेसिर-पैर कहानी है। लिखने वाले का नाम भी जान लीजिए- तुषार हीरनंदानी। दर्शकों को बेवकूफ समझ कर यह कहानी उन्होंने लिख डाली। दूसरा आश्चर्य यह है कि निर्देशक इंद्र कुमार इस पर फिल्म बनाने को तैयार हो गए और निर्माता पैसा लगाने को। द अनुपम खेर शो की बात याद आ गई- कुछ भी हो सकता है।
मधुर शर्मा और अभिषेक कौशिक ने ऐसा स्क्रीनप्ले लिखा है कि लॉजिक तो छोड़िए जरा सा भी दिमाग नहीं लगाया गया। घटिया चुटकलों से कहानी को आगे बढ़ाया गया है। इससे बेहतर चुटकुले तो व्हाट्स एप पर पढ़ने को मिल जाते हैं। हर किरदार बेवकूफ है और बेवकूफी करता रहता है। इसे ही हास्य समझ लिया गया है। थोड़े समय बाद ही यह कहानी हांफने लगती है और किसी तरह आगे बढ़ा कर करवा चौथ जैसी परंपरा का तड़का लगा कर इसे खत्म किया गया है।
दो कौड़ी की कहानी और स्क्रीनप्ले पर इंद्र कुमार ने बकवास फिल्म बना डाली है। अपने निर्देशन के जरिये वे फिल्म को मनोरंजक नहीं बना पाए। एक हवेली में ही उन्होंने फिल्म को पूरा कर डाला। ऐसा लगा मानो 'सुपर नानी' के पिटने का बदला वे दर्शकों से गिन-गिन कर ले रहे हों।
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सारे कलाकारों ने घटिया अभिनय किया है। विवेक ओबेरॉय मिसफिट लगे। उनका अभिनय देख लगा कि उन्हें खुद अपने रोल पर यकीन नहीं है। द्विअर्थी संवादों और हरकतों वाली फिल्मों में सदैव रितेश देशमुख की डिमांड रहती है। यहां भी उन्होंने जानी-पहचानी हरकतें अभिनय के नाम पर की है। आफताब शिवदासानी की गाड़ी इसी तरह की फिल्मों के जरिये चल रही है। एक्टिंग करना तो वे कब के भूल गए। उर्वशी रौटेला हॉट लगी हैं, लेकिन एक्टिंग से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं है। अन्य कलाकार चीखते-चिल्लाते नजर आए।
गीतों के नाम पर शोर है। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। निर्माता ने जहां-तहां से पैसे बचाए हैं।
फिल्म का एक पात्र बोलता रहता है कि ये क्या 'भूतियापा' है... फिल्म देखने के बाद दर्शकों के मुंह से भी इससे मिलता-जुलता शब्द निकलता है।
बैनर : मारूति इंटरनेशनल, एएलटी एंटरटेनमेंट, श्री अधिकारी ब्रदर्स
निर्माता : समीर नायर, अमन गिल, अशोक ठाकेरिया, आनंद पंडित, एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक : इन्द्र कुमार
संगीत : शरीब साबरी, तोषी साबरी
कलाकार : विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख, आफताब शिवदासानी, उर्वशी रौटेला, पूजा बैनर्जी
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 7 मिनट 18 सेकंड
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अपनी पिछली फिल्म्स 'देव डी' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से दर्शकों की एक खास क्लास के साथ मीडिया में अपनी अलग पहचान बना चुके डायरेक्टर श्लोक शर्मा की यह फिल्म करीब 3 साल पहले रिलीज होनी चाहिए थी। पिछले तीन साल से तैयार इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी ने भारत में इस फिल्म को रिलीज करने से पहले इसे कुछ नामी फिल्म फेस्टिवल्स में दिखाने का फैसला किया। जिसका कंपनी को फायदा भी मिला। इस फिल्म ने 'लॉस ऐंजिलिस फिल्म फेस्टिवल इंडिया कैटेगिरी' में अवॉर्ड हासिल करने के साथ कई और फेस्टिवल में अवॉर्ड जीते। न्यू यॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी को बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड मिला तो इस फिल्म से पहले 'मसान' और 'त्रिष्णा' में अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवा चुकी श्वेता त्रिपाठी को भी बेस्ट ऐक्ट्रेस का अवॉर्ड मिला। वहीं, अगर इंडियन बॉक्स ऑफिस पर हम हरामखोर के भविष्य की बात करें तो ऐसा नहीं लगता कि इतने अवॉर्ड मिलने के बावजूद फिल्म बॉक्स आफिस पर कोई करिश्मा कर पाएगी। दरअसल, लंबे इंतजार के बाद अब जाकर रिलीज हुई इस फिल्म का क्रेज ज्यादा नजर नहीं आ रहा है। वैसे भी यह फिल्म दीपिका पादुकोण की हॉलिवुड ऐक्शन फिल्म xx और आदित्य रॉय कपूर-श्रद्धा कपूर की रोमांटिक फिल्म 'ओके जानू' के साथ रिलीज हो रही है। ऐसे में 'हरामखोर' सीमित और अलग क्लास की फिल्म के शौकीनों के बीच ही सिमटकर रह जाएगी। कहानी: मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव के सरकारी स्कूल में श्याम टेकचंद (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) मैथ टीचर हैं, सुबह स्कूल में पढ़ाने के बाद शाम को वह अपने घर में भी स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स को टयूशन देते हैं। श्याम शुरू से ही कुछ रंगीले स्वभाव का रहा है, कुछ अर्सा पहले उसने अपनी ही एक स्टूडेंट सुनीता से शादी कर ली थी। अब श्याम की क्लास में संध्या शर्मा (श्वेता त्रिपाठी) नाम की एक करीब पंद्रह साल की स्टूडेंट भी पढ़ती है, संध्या खूबसूरत है, काफी अर्से से श्याम की उस पर खास नजर है। स्कूल के बाद शाम को संध्या के साथ दो लड़के कमल और मिंटू के अलावा कुछ और स्टूडेंट्स भी श्याम से पढ़ते हैं। कमल दिल ही दिल में संध्या को चाहता है और छोटी उम्र के बावजूद उससे शादी करने का ख्याली पुलाव पका रहा है। कमल का बेस्टफ्रेंड मिंटू इसमें उसकी मदद कर रहा है। दूसरी और श्याम भी संध्या के साथ संबध बनाना चाहता है। संध्या के पिता पुलिस इंस्पेक्टर हैं और ज्यादातर नशे में धुत रहते हैं। पिता के साथ रह रही संध्या इस सच को भी जानती है कि उसके पिता किसी और के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में है। श्याम अक्सर संध्या को ट्यूशन पढ़ाने के बाद उसके साथ घर तक छोडने चल देता है, ऐसे ही एक दिन इन दोनों के बीच नाजायज रिश्ता बन जाता है, वहीं कमल अब भी संध्या के साथ शादी करने का प्लान बनाने में लगा है, एक स्कूल टीचर और नाबालिग स्टूडेंट के बीच पनपती नाजायज रिश्तों की यह कहानी एक बेहद खतरनाक मोड़ पर जाकर खत्म होती है । ऐक्टिंग: फिल्म के दोनों लीड कलाकारों नवाजुद्दीन सिद्दीकी और श्वेता त्रिपाठी ने किरदारों को अपने जीवंत अभिनय से लाजवाब बना दिया है। गांव के एक छोटे से स्कूल के टीचर के किरदार में नवाजुद्दीन ने एक बार फिर साबित किया कि उनमें हर किरदार को बेहतरीन तरीके से निभाने की क्षमता है। वहीं श्वेता त्रिपाठी का भी जवाब नहीं । साथ ही तारीफ करनी होगी फिल्म में कमल और मिंटू का किरदार निभाने वाले दो बाल कलाकारों मास्टर इरफान खान और मोहम्मद समद की। दोनों जब भी स्क्रीन पर आते है, तभी दर्शक सुस्त रफ्तार से आगे खिसकती इस डार्क फिल्म में रिलैक्स महसूस करते है। निर्देशन: ऐसा लगता है रीयल लोकेशन पर शूट इस फिल्म की स्क्रिप्ट पर कंपलीट काम नहीं हुआ। फिल्म की एडिटिंग काफी बिखरी बिखरी है तो फिल्म का सब्जेकट कुछ ज्यादा ही बोल्ड होने की वजह से सेंसर बोर्ड ने फिल्म को कई डिस्क्लेमर के साथ पास किया है। जो फिल्म के बीच बीच में स्क्रीन पर दिखाई देकर दर्शकों को डिस्टर्ब करने का काम करते है। वहीं संध्या के पिता के किरदार पर ज्यादा काम नहीं किया गया, रात को शराब के नशे में धुत होकर घर वापस आने के कुछ सीन्स के अलावा पिता पुत्री के बीच चंद संवाद तक सिमटे इस किरदार पर अगर फुल होमवर्क किया जाता तो पिता -पुत्री के बीच का रिश्ता भी इस कहानी का अहम हिस्सा बन पाता। ऐसी फिल्मों की खास ऑडियंस होती है और इस सिमटी ऑडियंस को श्लोक शर्मा की इस फिल्म में कुछ अलग नजर आ जाएगा। संगीत: बैकग्राउंड में सिर्फ एक गाना है जिसका कहानी से कहीं दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं है। क्यों देखें: अगर आपको कुछ अलग और लीक से हटकर बनी फिल्म देखना पसंद है जो विदेशी फेस्टिवल में अवॉर्ड जीतकर आती है, तो इस फिल्म को देखने जरूर जाएं। | 1 |
कुदरत का नियम है कि आप जिस चीज से जितना दूर भागते हैं, वह आपके उतना ही नजदीक आती जाती है। विशाल भारद्वाज की राजस्थान के एक छोटे से गांव में बेस्ड फिल्म 'पटाखा' भी ऐसी ही दो बहनों चंपा उर्फ बड़की (राधिका मदान) और गेंदा उर्फ छुटकी (सान्या मल्होत्रा) की कहानी है, जो एक दूसरे से दूर होना चाहती हैं, लेकिन किस्मत उन्हें फिर साथ ले पटकती है। छुटकी और बड़की बचपन से ही आपस में बिना बात के खूब लड़ती हैं। गांव में ही रहने वाला डिपर (सुनील ग्रोवर) ना सिर्फ दोनों बहनों में लड़ाई लगवाने का कोई मौका नहीं गंवाता, बल्कि उनको लड़ते देख खूब मजे भी करता है। दोनों बहनों का बापू (विजय राज) अपनी दोनों बेटियों को बहुत चाहता है। इसी वजह से उसने दूसरी शादी भी नहीं की। लेकिन अपनी बेटियों के बीच रोजाना होने वाले युद्ध से वह भी आजिज आ जाता है। गांव का एक अमीर आदमी पटेल (सानंद वर्मा) बापू की दोनों लड़कियों पर लट्टू है। एक बार किसी मजबूरी में फंस कर बापू अपनी बड़की की शादी पटेल से करने के बदले उससे मोटी रकम ले लेता है। लेकिन बड़की शादी से पहले दिन अपने बॉयफ्रेंड जगन के साथ भाग जाती है। बेचारा बापू छुटकी की शादी पटेल से तय करता है, तो वह भी बड़ी बहन की तरह अपने बॉयफ्रेंड के साथ भाग जाती है। वह तो उन्हें ससुराल जाकर ही पता लगता है कि उनके पति सगे भाई हैं और उनकी किस्मत उन्हें फिर से एक साथ ले आई है। एक-दूसरे की कट्टर दुश्मन बहनें आगे की जिंदगी में क्या गुल खिलाती हैं? यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा।देसी अंदाज की फिल्मों के महारथी माने जाने वाले विशाल भारद्वाज अब तक कई उपन्यासों पर फिल्में बना चुके हैं। लेकिन इस बार विशाल ने फिल्म बनाने के लिए चरण सिंह पथिक की शॉर्ट स्टोरी दो बहनें को चुना है। विशाल को यह कहानी इतनी पसंद आई कि उन्होंने फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने से लेकर निर्देशन तक का जिम्मा खुद उठा लिया। लेकिन अफसोस कि विशाल इस कहानी से दर्शकों के लिए एक अदद मनोरंजक फिल्म नहीं बना पाए। यह देसी कहानी इतनी ज्यादा देसी हो जाती है कि शहरी दर्शकों का इससे इत्तेफाक रख पाना आसान नहीं होगा। कुछ सीन को छोड़ दें, तो फिल्म का फर्स्ट हाफ आपको काफी बोर करता है। आप इस उम्मीद में सेकंड हाफ की फिल्म को झेलते हैं कि शायद कुछ मनोरंजक देखने को मिले, लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान ने अपने रोल्स को ठीक-ठाक निभाया है। हालांकि विजय राज और सुनील ग्रोवर ने बढ़िया एक्टिंग की है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से वे भी दर्शकों को फिल्म से जोड़ नहीं पाते। फिल्म का संगीत भी औसत है। अगर आप देसी फिल्मों और विशाल भारद्वाज के फैन हैं, तो अपने रिस्क पर फिल्म देखने जाएं। देखिए, फिल्म के बारे में क्या कहते हैं दर्शक: | 0 |
Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड के किंग खान को सिल्वर स्क्रीन के साथ-साथ रीयल लाइफ में भी खुद को सुपरस्टार के तौर पर देखना और अपनी फिल्मी इमेज को रीयल लाइफ के साथ जोडना कुछ ज्यादा ही पसंद है, करीब 6 साल पहले किंग खान ने बतौर प्रड्यूसर अपनी कंपनी के बैनर तले बिल्लू टाइटिल से फिल्म बनाई, इस फिल्म में भी किंग खान ने सिल्वर स्क्रीन के सुपरस्टार साहिर खान का किरदार किया, जिसमें फैन एक छोटे से गांव मे अपने चहेते सुपरस्टार की एक झलक पाने के लिए घंटों धूप में तपते रहते हैं तो सहिर खान की फिल्म की शूटिंग देखने के लिए एक ऊंचे पेड की टहनी पर जोखिम लेकर बैठे रहते हैं। बेशक बिल्लू की कहानी एक सुपरस्टार और उसके बिछड़े गरीब दोस्त के इर्दगिर्द घूमती थी, वहीं फैन सुपरस्टार के एक ऐसे फैन की कहानी है जो अपने चहेते सुपरस्टार से मिलने और उसके साथ चंद मिनट बिताने की खातिर कुछ भी कर सकता है। इस फिल्म में किंग खान ने सुपरस्टार आर्यन खन्ना का किरदार निभाया है जो कामयाबी की बुलंदियों पर है। उसके लाखों फैन हैं लेकिन आर्यन अपने सबसे बड़े फैन के लिए चंद मिनट का वक्त भी नहीं निकालता। यश राज फिल्म्स कैंप के साथ इससे पहले बैंड बाजा बारात, लेडीज़ वर्सेज रिकी बहल के बाद शुद्ध देसी रोमांस जैसी औसत हिट फिल्म बना चुके डायरेक्टर मनीष शर्मा ने यकीनन इंडस्ट्री के सुप स्टार के साथ एक ऐसे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाया जो कहीं ना कहीं सिंगल स्क्रीन थिएटरों के साथ-साथ बी और सी सेंटरों के बॉक्स आफिस के लिए जोखिम भरा हो सकता है। अगर इंटरवल तक फैन आपको किंग खान पर एक बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म होने का भ्रम कराती है तो इंटरवल के बाद जब डायरेक्टर को कुछ नया और अलग दिखाना चाहिए था तब वहीं मनीष शर्मा कुछ ऐसे भटके कि आखिर तक ट्रैक पर नहीं लौट पाए। कहानी: दिल्ली की एक कॉलोनी में रहने वाला गौरव चानना (शाहरुख खान, डबल रोल ) बचपन से ही बॉलिवुड के सुपरस्टार सुपर आर्यन खन्ना (शाहरुख खान) का जबर्दस्त फैन है। रीयल लाइफ में गौरव खुद को सुपरस्टार जैसा ही मानता है। आर्यन के प्रति गौरव की दीवानगी का आलम यह है कि उसका सारा रूम किंग खान की फिल्मों के पोस्टरों वगैरह से भरा पड़ा है। दूसरी ओर, गौरव चानना की शक्ल कुछ हद तक सुपरस्टार शाहरुख खान से मिलती है। ऐसे में गौरव एक दिन शहर में होने वाले एक कॉम्पिटिशन में अपने चहेते सुपरस्टार शाहरुख जैसी ऐक्टिंग करके कॉम्पिटिशन का विनर बन जाता है। गौरव को विनर के तौर पर एक ट्रोफी के साथ मोटी रकम मिलती है। विनर की ट्रोफी हासिल करनके के बाद गौरव अब मुंबई जाकर आर्यन से मिलना चाहता है। दिल्ली में गौरव के पापा (योगेंद्र टिक्कू) का जमाजमाया साइबर कैफे का बिज़नस है, लेकिन गौरव अपने इस फैमिली बिज़नस को छोड़ किसी भी तरह से आर्यन तक पहुंचना चाहता है। अब जब गौरव के पास अपने चहेते सुपरस्टार से मिलने की वजह यानी विनर ट्रोफी भी है तो वह राजधानी एक्सप्रेस से मुंबई पहुंचकर उसी होटेल में उसी कमरा नंबर 205 में ठहरता है, जहां दिल्ली से आने के बाद शाहरुख खान पहली बार ठहरे थे। इसी बीच हालात ऐसे बनते हैं कि आर्यन इंडस्ट्री के एक साथी को थप्पड़ मारने के विवाद में फंस जाता है, वहीं गौरव लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने चहेते सुपरस्टार से नहीं मिल पा रहा है। मुंबई में कुछ वक्त गुजारने और आर्यन से मिलने में नाकाम रहने की वजह से गौरव को आर्यन से नफरत हो जाती है। यहीं से कहानी में नया टर्न आता है। जब गौरव चानना का मकसद यहीं है कि उसका सुपरस्टार आर्यन उससे माफी मांगे। ऐक्टिंग: एकबार फिर शाहरुख खान ने साबित किया क्यों उन्हें ग्लैमर इंडस्ट्री में किंग खान का मुकाम हासिल है। आर्यन खन्ना और गौरव चानना के किरदारों में शाहरुख खान ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है, खासकर गौरव के किरदार को कैमरे के सामने उन्होंने अपने जीवंत अभिनय के दम पर यादगार बना दिया है। इस किरदार के लिए जहां शाहरुख ने वजन घटाया तो मेकअप करने के लिए हर रोज घंटों मेकअप रूम में गुजारे। शाहरुख की डायलॉग डिलीवरी की तारीफ नहीं, कुछ सीन्स में शाहरुख अपनी सुपरहिट फिल्म डर में अपने किरदार की कॉपी करते भी नजर आए। गौरव चानना के पिता के रोल में योगेन्द्र टिक्कू प्रभावित करते हैं। गौरव की मां के रोल में दीपिका अमीन ने अच्छी ऐक्टिंग की है। फिल्म इन्हीं किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है। स्पोर्टिंग कॉस्ट कम फुटेज के बावजूद निराश नहीं करती। डायरेक्शन: मनीष शर्मा ने इंटरवल से पहले की फिल्म को कहीं कमजोर नहीं होने दिया लेकिन इंटरवल के बाद अचानक फिल्म आपके सब्र का इम्तहान लेने लगती है। आर्यन खन्ना को परेशान करने और उससे बदला लेने के लिए गौरव चानना जो रास्ता अपनाता है उस पर हंसी आती है। वहीं, फिल्म में कई ऐसे डायलॅाग भी हैं, जो किंग खान के फैंस की भावनाओं को आहत कर सकते है। लंदन की लोकेशंस में मनीष ने कैमरामैन से अच्छा काम लिया है लेकिन क्लाइमेक्स तक पहुंचते पहुंचते फैन का ट्रैक ही बदल जाता है और कई सारी काल्पनिक घटनाएं घटने लगती है। बेशक स्क्रिप्ट में नयापन है लेकिन प्रस्तुतीकरण और बेहद कमजोर क्लाइमेक्स और बेवजह के लंबे ऐक्शन सीन्स किंग खान के रीयल फैन को अपसेट कर सकते हैं। संगीत: आमतौर से किंग खान की फिल्मों में म्यूजिक कहानी का अहम पार्ट होता है लेकिन ना जाने क्यूं इस फिल्म में कोई गाना नहीं है। फिल्म की रिलीज़ से पहले प्रमोशनलस सॉन्ग जबरा शूट किया जो फिल्म में नहीं है। क्यों देखें: बस अगर आप शाहरुख खान के पक्के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार का यह बदला रूप भी देख आए। | 0 |
बिजली नहीं होने के बावजूद बिजली बिल की मोटी रकम से पीड़ित यूं तो आपको देश के किसी भी इलाके में मिल जाएंगे, लेकिन फिल्म 'बत्ती गुल मीटर चालू' की कहानी उत्तराखंड के इंडस्ट्रियल इलाके में बिजली कंपनियों की मनमानी पर आधारित है। फिल्म में हल्के-फुल्के अंदाज में आम लोगों से जुड़ी बिजली के मोटे बिल की बड़ी समस्या पर चोट की गई है। वहीं सरकारी 'विकास' और 'कल्याण' के दावों पर भी मजेदार व्यंग्य किया गया है।फिल्म की कहानी के मुताबिक, सुशील कुमार पंत उर्फ एस.के. (शाहिद कपूर), ललिता नौटियाल उर्फ नौटी (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (दिव्येंदु शर्मा) तीनों दोस्त हैं, जो उत्तराखंड के नई टिहरी में रहते हैं। एस.के. एक चालू किस्म का वकील है, जो किसी भी तरह से पैसा कमाने की जुगत में रहता है और लोगों को झूठे केस में फंसाने की धमकी देकर उगाही करता है। वहीं नौटी एक लोकल फैशन डिजाइनर है, जबकि त्रिपाठी ने इंडस्ट्रियल इलाके में एक प्रिंटिंग प्रेस लगाई है। आम हिंदी फिल्मों की तरह यहां भी दोनों दोस्त एक ही लड़की को चाहते हैं, लेकिन नौटी आखिरकार त्रिपाठी को पसंद कर लेती है, जिससे उनकी दोस्ती में दरार पड़ जाती है। नाराज एस.के. अपने दोस्तों से दूर हो जाता है। उधर त्रिपाठी की प्रिंटिंग प्रेस में बिजली बहुत कम टाइम आने के बावजूद पहले ही महीने उसका डेढ़ लाख का बिजली बिल आ जाता है। वह शिकायत करता है, तो उसकी कोई सुनवाई नहीं होती। उल्टे उसका बिल 54 लाख पर पहुंच जाता है। सिस्टम की नाकामी से हताश होकर त्रिपाठी एस.के. के पास जाता है, लेकिन उससे भी मदद नहीं मिल पाने पर वह टिहरी झील में कूद कर आत्महत्या कर लेता है। अपने दोस्त के दुनिया से चले जाने से परेशान एस.के. ने पहले भले ही त्रिपाठी की मदद करने से इनकार कर दिया था, लेकिन अब वह उसे इंसाफ दिलाने के लिए हाईकोर्ट जाता है, जहां उसका सामना बिजली कंपनी की वकील गुलनार (यामी गौतम) से होता है। क्या एस.के. अपने दोस्त को इंसाफ दिला पाता है? यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा। डायरेक्टर श्री नारायण सिंह ने 'टॉयलेट एक प्रेम कथा' में खुले में शौच का मुद्दा उठाने के बाद एक बार फिर बिजली कंपनियों की मनमानी की कहानी चुनी है। फिल्म उत्तराखंड के टिहरी में बेस्ड होने के चलते इसके किरदार कुमाऊंनी भाषा बोलते हैं, लेकिन इसके नाम पर बहुत ज्यादा 'बल' और 'ठहरा' शब्दों का इस्तेमाल हिंदी भाषी दर्शकों को हजम नहीं हो पाता। हालांकि फिल्म आम दर्शकों को पहाड़ की संस्कृति की झलक जरूर दिखाती है। फिल्म की करीब तीन घंटे की लंबाई बहुत ज्यादा है। इसे एडिटिंग टेबल पर आधा घंटे कम किया जा सकता था। शुरुआती एक घंटे में फिल्म आपको जबर्दस्त तरीके से बोर करती है। अगर आप उस दौरान खुद को सिनेमा में रोकने में सफल हो जाते हैं, तो फिर आगे की फिल्म आपको सिनेमा में थामने का दम रखती है। खासकर सेकंड हाफ में कोर्ट रूम ड्रामा मजेदार है। शाहिद कपूर ने फिल्म में अच्छी ऐक्टिंग की है। खासकर कोर्ट रूम के सीन्स में यामी गौतम के मुकाबले में वह काफी जमे हैं। वहीं श्रद्धा कपूर ने भी ठीक-ठाक ऐक्टिंग की है। उधर दिव्येन्दु शर्मा भी अपने रोल में जमे है। फिल्म का संगीत भी पसंद किया जा रहा है। अगर आप शाहिद कपूर के फैन हैं और बिजली के भारी-भरकम बिल से परेशान हैं, तो यह फिल्म देख सकते हैं। | 1 |
कुछ फॉर्मूला फिल्में क्या हिट हुईं इस तरह की फिल्मों की बाढ़ आ गईं। मसाला फिल्मों के बनाने का भी एक सलीका होता है, लेकिन इन दिनों निर्माता-निर्देशक तो ये मानने लगे हैं कि कुछ भी दर्शकों के सामने परोस दो वे स्वीकार कर लेंगे... गंदी बात...
इन दिनों हर हीरो को सलमान खान बनने का भूत सवार है। सलमान खान की दक्षिणनुमा हिंदी फिल्में इसलिए चलती हैं क्योंकि सलमान सुपरस्टार हैं। दर्शक उनकी अदाओं के दीवाने हैं। वे दर्जन भर गुंडों की धुलाई करते हैं तो विश्वसनीय लगता है, लेकिन ये काम शाहिद कपूर करते हैं तो बाल नोंचने के सिवाय कुछ नहीं किया जा सकता है। शाहिद पूरी फिल्म में अविश्वसनीय नजर आए हैं। ऐसा लगा कि जरूरत से ज्यादा बोझ उनके नाजुक कंधों पर लाद दिया गया है। भारी-भरकम सोनाक्षी के सामने वे फीके नजर आएं। ऊपर से फिल्म में उनके इतने फाइट सीन हैं कि जितने उन्होंने अपने कुल जमा करियर में भी नहीं किए होंगे। फटा पोस्टर निकला हीरो में भी उन्होंने यही सब करने की कोशिश की थी और मुंह की खाई थी। देखना है कि राजकुमार का क्या होता है। वैसे लगातार फ्लॉप फिल्म देने के बावजूद शाहिद कपूर अब तक खाली नहीं बैठे हैं। लगातार सोलो हीरो वाली फिल्में उनको मिल रही हैं। शायद फिल्म इंडस्ट्री हीरो की तंगी से गुजर रही है और इस पर सोच-विचार नहीं कर रही है... गंदी बात...
वांटेड और राउडी राठौर जैसी सफल फिल्म देने के बाद प्रभुदेवा से उम्दा मसाला फिल्मों की उम्मीद जागी थी, लेकिन लगता है कि प्रुभ माया के फेर में पड़ गए हैं और ऊटपटांग फिल्में बना रहे हैं। ‘रमैया वस्तावैया’ की बात ज्यादा पुरानी नहीं है और उन्होंने ‘र... राजकुमार’ नामक घटिया फिल्म बना कर रिलीज कर दी है। कहानी और स्क्रीनप्ले नदारद है और तमाम घटिया हरकतों से फिल्म को प्रभु ने खींचा है। प्रभु का प्रस्तुतिकरण बहुत ही बुरा है... गंदी बात...
कहानी है धरतीपुर नामक गांव की, जहां अफीम की स्मगलिंग करने वाले शिवराज और परमार का राज चलता है। दोनों की आपस में बिलकुल नहीं बनती। एक अपने बदन की मालिश करवाता रहता है तो दूसरा खुले में नहाता है और औरतें उसे साबुन मलती रहती हैं। राजकुमार की गांव में एंट्री होती है जिसे अंतरराष्ट्रीय स्मगलर ने भेजा है। राजकुमार का दिल चंदा पर आ जाता है जो परमार की भतीजी है। शिवराज भी चंदा पर फिदा हो जाता है। परमार और शिवराज हाथ मिला लेते हैं और दोनों से टकराता है राजकुमार। फिल्म के विलेन इतने मूर्ख हैं कि हर बार हीरो को अधमरा छोड़ देते हैं और वह बार-बार वापस आ जाता है। कब्र से भी निकल आता है। फिल्म में दिखाया गया है कि शिवराज हर काम पंडित से पूछ कर करता है। पंडित उसकी शादी का मुहूर्त दशहरे पर निकालता है। दशहरे के आसपास शादी का काम तो बंद रहता है, लेकिन फिल्म के लेखकों को यह बात पता ही नहीं है। ऐसे कई किस्से फिल्म में हैं जिनमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया है... गंदी बात...
फिल्म में हर चीज लाउड है। अभिनय के नाम पर हर कलाकार चीखा-चिल्लाया है। बैकग्राउंड म्युजिक ऐसा है कि कान पकने लगते हैं। ‘साइलेंट हो जा वरना वाइलेंट हो जाऊंगा’ जैसे संवाद हैं। गाने कभी भी टपक पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि फिल्म खत्म होने वाली है अचानक ‘कद्दू कटेगा’ जैसा गाना आ जाता है। क्लाइमेक्स इतना लंबा खींचा गया है कि नींद आने लगती है। वैसे ये बात फिल्म के लिए भी कही जा सकती है.... गंदी बात...
र... राजकुमार जैसी फिल्म बनाकर प्रभुदेवा ने धन की बरबादी तो की है और कई लोगों का समय भी खराब किया है... गंदी बात...
बैनर :
इरोज इंटरनेशन
ल,
नेक्स्ट जेन फिल्म्स प्रोडक्श
न
निर्माता :
सुनील ए. लुल्ल
ा,
विकी राजान
ी
निर्देशक :
प्रभुदेव
ा
संगीत :
प्रीतम चक्रवर्त
ी
कलाकार :
शाहिद कपू
र,
सोनाक्षी सिन्ह
ा,
सोनू सूद, आशीष विद्यार्थी, असरान
ी
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 26 मिनट 30 सेकण्ड
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बॉलीवुड में पॉलिटिकल थ्रिलर मूवी नहीं के बराबर बनी हैं क्योंकि सेंसर के परे हुल्लड़बाजों से भी निपटना पड़ता है जो इस तरह की फिल्मों को प्रदर्शित नहीं होने देते हैं। सरकार से ज्यादा उनकी चलती है। करोड़ों रुपये दांव पर लगाकर भला जोखिम कौन उठाएगा? मद्रास कैफे के निर्माताओं की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने इस तरह की फिल्म पर पैसे लगाना मंजूर किए और दर्शकों के लिए एक शानदार फिल्म पेश की।
मद्रास कैफे में इतिहास के पन्नों को पलटकर उस षड्यंत्र को पेश किया गया है जिसके कारण भारत के पूर्व प्रधानमंत्री की जान चली गई थी। 80 के दशक के मध्य में श्रीलंका में जातिवाद को लेकर हुए हिंसक संघर्ष के कारण कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। ऐसे में भारत की ओर से शांति बहाल करने के लिए सेना भेजी गई, जिससे एक गुट नाराज हो गया था।
मेजर विक्रम सिंह (जॉन अब्राहम) को रॉ के कवर्ट ऑपरेशन के तहत श्रीलंका भेजा जाता है। वहां उसे अपने सहयोगी बाला की मदद से विद्रोही एलटीएफ ग्रुप के मुखिया अन्ना भास्करन (अजय रत्नम) को शांति के लिए राजी करना है या उसके ग्रुप को तोड़ना है ताकि उसकी ताकत आधी रह जाए।
यह एक कठिन कार्य था, लेकिन विक्रम उस वक्त हैरान रह जाता है जब उसे पता चलता है कि यह ऑपरेशन इसलिए सफल नहीं हो रहा है क्योंकि अपने ही कुछ लोग दुश्मनों से मिले हुए हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर षड्यंत्र रचा जा रहा है।
फिल्म में न आइटम नंबर है, ना कॉमेडी और न ही रोमांस। निर्देशक शुजीत सरकार ने फिल्म को वास्तविकता के नजदीक रखते हुए उन सब बातों को भूला दिया है जो कमर्शियल फिल्म की सफलता के आवश्यक अंग माने जाते हैं। इसका ये मलतब नहीं है कि फिल्म देखते समय ऐसा महसूस हो कि हम आर्ट मूवी या डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं बल्कि यह एक थ्रिलर मूवी जैसा मजा देती है।
सोमनाथ डे और शुभेंदु भट्टाचार्य ने फिल्म की कहानी लिखी है। उनका काम बताता है कि उन्होंने काफी रिसर्च किया है। बहुत ही स्मार्ट तरीके से उन्होंने काल्पनिक किरदारों को वास्तविक घटना से जोड़ा है। दो घंटे 10 मिनट में श्रीलंका में अशांति क्यों हुई से पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या तक के सारे घटनाक्रमों को समेटा गया है और यह काम आसान नहीं था।
शुजीत सरकार द्वारा निर्देशित ‘मद्रास कैफे’ की शुरुआत थोड़ी गड़बड़ है। बढ़ी हुई दाढ़ी और शराब के नशे में चूर जॉन अब्राहम को सपने में श्रीलंका की हिंसा नजर आती है। वह चर्च में जाकर पादरी के सामने सारी बात कहता है और फिल्म फ्लेशबैक में जाती है। यह प्रसंग कुछ खास जमता नहीं है।
फिर शुरू होता है लंबा वॉइस ओवर जिसमें इतिहास सुनाया जाता है। स्टॉक शॉट दिखाए जाते हैं। ढेर सारे नाम और प्रसंगों के कारण थोड़ी परेशान होती है, लेकिन कहानी जब परत दर परत खुलती है तो फिल्म में पकड़ आ जाती है। करीब पैंतालीस मिनट बाद तो फिल्म सरपट दौड़ती हुई एक थ्रिलर का मजा देती है। फिल्म का क्लाइमैक्स सीट पर चिपक कर बैठने के लिए मजबूर करता है।
यहां पर किसी का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन इशारा किस ओर है ये स्पष्ट है। शुजीत सरकार ने किसी का पक्ष न लेते हुए अपनी बात कही है। इस फिल्म में एक्शन की बहुत ज्यादा गुंजाइश थी, लेकिन उन्होंने इस एक्शन को मानसिक तनाव के रूप में दिखाया है। शुजीत ने दिखाया कि उग्रवादियों को हमारे यहां से भी मदद मिली थी, जिसका भयानक परिणाम सामने आया।
जूही चतुर्वेदी द्वारा लिखे गए ज्यादातर संवाद अंग्रेजी में हैं। फिल्म के शुरुआत में तो बीच-बीच में हिंदी सुनाई देती है, ऐसा लगता है कि अंग्रेजी फिल्म देख रहे हों। इस वजह से अंग्रेजी ना जानने वाले दर्शकों को समझने में तकलीफ होती है। हालांकि हिंदी में सबटाइटल्स दिखाए गए हैं, लेकिन इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।
नरगिस फाखरी और जॉन अब्राहम का वार्तालाप बनावटी लगता है। नरगिस अंग्रेजी में बोलती हैं और जॉन हिंदी में। यदि नरगिस भी टूटी-फूटी हिंदी बोल लेती तो कोई फर्क नहीं पड़ता। निर्देशक ने देश की रक्षा के में लगे लोगों की पारिवारिक जिंदगी कितनी कठिन होती है, इसकी एक झलक भी दिखलाई है।
मद्रास कैफ में जॉन का अभिनय उनके करियर के बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। उनसे जितना बेहतर हो सकता था उन्होंने किया। नरगिस फाखरी का किरदार पत्रकार अनिता प्रताप से प्रेरित है और वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
सिद्धार्थ बसु फिल्म का सरप्राइज है और उन्होंने एक सरकारी ऑफिसर का किरदार बेहतरीन तरीके से जिया है। बाली के रूप में प्रकाश बेलावादी का अभिनय उल्लेखनीय है। जॉन की पत्नी के रूप में राशि खन्ना के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था।
कमलजीत नेगी की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। समुंदर, सूर्योदय, सूर्यास्त और जंगल को उन्होंने बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। फिल्म का संपादन चुस्त है।
नाच, गाने, फूहड कॉमेडी और स्टीरियो टाइप कहानी/किरदारों के बिना भी एक अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है, ये मद्रास कैफे साबित करती है।
निर्माता :
वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, जेए एंटरटेनमेंट, राइजिंग सन फिल्म्स
निर्देशक :
शुजीत सरकार
संगीत :
शांतनु मोइत्रा
कलाकार :
जॉन अब्राहम, नरगिस फाखरी, सिद्धार्थ बसु, अजय रत्नम, प्रकाश बेलावादी, राशि खन्ना
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट
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रजनीकांत की हर फिल्म रिलीज होने के पहले उनके फैंस पर रजनी का बुखार चढ़ जाता है। वे दीवानगी की सारी हद पार कर जाते हैं। आखिर रजनीकांत महानायक जो ठहरे। स्क्रीन पर उन्होंने भौतिक शास्त्र (फिजिक्स) के नियमों को उलट-पुलट कर रख दिया, लेकिन उनकी यही अदाएं तो दिल जीतती हैं।
किसी भी निर्देशक का सपना रहता है कि रजनीकांत को लेकर कमर्शियल फिल्म बनाई जाए। रजनीकांत के रूप में उसे ऐसा कलाकार मिलता है जिससे वह जो चाहे करवा सकता है क्योंकि वे अगर-मगर, किंतु-परंतु जैसे तर्कों से परे हैं। यदि रजनीकांत चलती ट्रेन को भी पकड़ कर रोक दें तो कोई प्रश्न नहीं करेगा।
लेखक और निर्देशक पी. रंजीत को यह सुनहरा अवसर मिला। अफसोस की बात है कि उन्होंने यह अवसर बरबाद कर दिया है। आश्चर्य होता है कि रजनीकांत को लेकर कोई इतनी खराब फिल्म भी बना सकता है। उड़ने के लिए उनके पास खुला आसमान था। महानायक, बड़ा बजट और रजनीकांत के अनगिनत फैंस, इसके बावजूद वे उड़ान भी नहीं भर सके।
पहली रील से ही फिल्म प्रभावित नहीं कर पाती। उम्मीद बंधी रहती है कि अब गाड़ी पटरी पर आएगी, अब सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और फिल्म खत्म हो जाती है।
रजनीकांत कबाली नामक गैंगस्टर बने हैं। जिनके कुछ उसूल है। वे देह व्यापार और ड्रग्स के खिलाफ हैं। मलेशिया में उनका साम्राज्य है। '43 गैंग्स' को कबाली की यह बातें पसंद नहीं आती। वे कबाली की गर्भवती पत्नी रूपा (राधिका आप्टे) को मार देते है और कबाली को 25 साल की जेल हो जाती है। कबाली 25 वर्ष बाद छूटता है और '43 गैंग्स' से अपना बदला लेता है। मनमोहन देसाई की फिल्मों की तरह उसे पता चलता है कि न केवल उसकी पत्नी जिंदा है बल्कि उसकी अपनी बेटी भी है।
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इस साधारण से रिवेंज ड्रामे को रंजीत ने लिखा है। उतार-चढ़ाव विहीन स्क्रीनप्ले में इतने बड़े-बड़े छेद हैं कि हाथी भी निकल जाए। मलेशिया की सड़कों पर खून-खराबा होता रहता है और पुलिस फिल्म की शुरुआत और अंत में ही नजर आती है। कबाली की पत्नी अपने पति से मिलने की कोशिश क्यों नहीं करती? इस तरह के कई प्रश्न दिमाग में उठते हैं।
चलिए, महानायक रजनीकांत की फिल्म है इसलिए तर्क-वितर्क की बातें जाने देते हैं, लेकिन रजनीकांत की फिल्म में जो स्टाइल, एक्शन, रोमांच होता है वो भी यहां से नदारद है। क्लाइमैक्स में ही रजनीकांत को हाथ खोलने का मौका मिला है। फिल्म में फैमिली ड्रामा को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया है और दर्शकों को भावुक करने की गैर जरूरी कोशिश की गई है।
निर्देशक के रूप में भी रंजीत असफल रहे हैं। वे कहानी को ठीक से परदे पर नहीं उतार पाए। रजनीकांत के स्टारडम का उपयोग नहीं कर पाए। बजाय अपने लेखन और निर्देशन के उन्होंने स्लो मोशन शॉट्स और बैकग्राउंड म्युजिक के जरिये रजनीकांत के किरदार को स्टाइलिश बनाने की कोशिश की है।
रजनीकांत की चमक से ही वे चौंधिया गए और यह बात भूल गए कि मनोरंजक फिल्म बनाने के लिए क्या जरूरी होता है। फिल्म पर उनकी पकड़ कही नहीं दिखाई देती। फिल्म की गति इतनी धीमी है कि सिनेमाहॉल से आप दस मिनट बाहर घूम भी आएं तो आपको कहानी जहां की तहां मिलेगी। चाहें तो आप झपकी भी निकाल सकते हैं। रंजीत का प्रस्तुतिकरण किसी बी ग्रेड फिल्म की तरह है। हां, एक काम उन्होंने अच्छा किया कि ज्यादातर समय उन्होंने रजनीकांत को उनकी उम्र के अनुरूप दिखाया।
रजनीकांत पर उम्र हावी हो गई है। वे कमजोर भी नजर आएं। हर दृश्य को उन्होंने स्टाइलिस्ट बनाने की कोशिश की है। वर्षों बाद अपनी पत्नी से मिलने वाले सीन में उनका अभिनय देखने लायक है। राधिका आप्टे का रोल ज्यादा लंबा नहीं है, बावजूद इसके वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। टोनी ली के रूप में विंस्टन चाओ अपनी खलनायकी दिखाते हैं। धंसिका ने फिल्म में कबाली की बेटी का किरदार निभाया है। उनकी फिल्म में एंट्री जोरदार है, लेकिन बाद में उनके रोल का ठीक से विस्तार नहीं किया गया है।
सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। संपादन बहुत ढीला है और कई जगह निर्देशक पर संपादक हावी लगता है। गाने याद रखने लायक नहीं हैं। बैकग्राउंड म्युजिक से कान और सिर में दर्द हो सकता है।
कबाली का तकिया कलाम है 'बहुत खूब', लेकिन मजाल है जो आपके मुंह से ये शब्द फिल्म देखते समय एक बार भी निकल जाएं। बहुत ही निराश करती है 'कबाली'।
निर्माता : कलईपुली एस. थानु
निर्देशक : पी. रंजीत
कलाकार : रजनीकांत, राधिका आप्टे, विंस्टन चाओ, धंसिका
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 30 मिनट 10 सेकंड * डब
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बात जब भव्य फिल्मों की आती है तो कहानी अतीत में जाती है या भविष्य में। निदेँशक एसएस राजमौली की फिल्म 'बाहुबली - द बिगिनिंग' अतीत में ले जाती है। किस दौर की कहानी है, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन तीर कमान से लड़ते योद्धा के जरिये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
लेखक वी. विजयेन्द्र प्रसाद ने एक नया किरदार बाहुबली गढ़ा है जिसमें सैकड़ों हाथियों जितनी शक्ति है। जिस विशालकाय सोने की मूर्ति को सैकड़ों मजदूर उठा नहीं सकते, वह अपनी दो भुजाओं के बल पर उठा लेता है। कहानी रामायण और महाभारत से प्रेरित है। रामायण में सीता का रावण अपहरण कर लेता है, यहां पर शिवा (प्रभास) की मां दुश्मनों के कैद में हैं। महाभारत में सिंहासन को लेकर भाइयों में जंग छिड़ी थी, यहां बाहुबली (प्रभास, डबल रोल) और उसके ताऊ के लड़के भल्लाला देवा (राणा दग्गुबाती) में महीषमति के राजा बनने को लेकर होड़ है।
रामायण और महाभारत के प्रसंगों को लेकर एक नई कहानी बनाई गई है जिसमें आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है और यह समस्या इस तरह की फिल्मों के साथ अक्सर होती है। भव्यता पर तो ध्यान दिया जाता है, लेकिन कहानी में नयापन नहीं होता।
फिल्म का पहला हिस्सा शिवा को महानायक दिखाने में खर्च किया गया है। उसकी ताकत और पराक्रम के दृश्य गढ़ कर दर्शकों में रोमांच पैदा किया गया है। इसमें शिवलिंग उखाड़ कर दूसरी जगह स्थापित करने वाला सीन कमाल का है। इस हिस्से में अवंतिका (तमन्ना भाटिया) और शिवा में रोमांस भी दिखाया गया है, लेकिन यह रोमांस अपील नहीं करता।
अवंतिका की अपनी कहानी है जो देवसेना (अनुष्का शेट्टी) को भल्लाला की कैद से आजाद कराना चाहती है। अवंतिका के लक्ष्य को शिवा अपना लक्ष्य बना लेता है और महीषमति पहुंच जाता है। वहां उसे बाहुबलि कह कर पुकारा जाता है और लोग उसके सामने झुकने लगते हैं, यह देख उसे आश्चर्य होता है। तब उसे अपने अतीत से जुड़े कुछ रहस्य पता चलते हैं। उसे मालूम होता है कि वह बाहुबलि का बेटा है।
बाहुबलि की मौत क्यों हुई इसके लिए 'बाहुबलि' के दूसरे भाग का इंतजार करना होगा जो अगले वर्ष रिलीज होगी। फिल्म का अंत ऐसे मोड़ पर किया गया है ताकि दूसरे भाग को लेकर उत्सुकता बनी रहे। बाहुबली के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें
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'बाहुबलि' में इंटरवल के बाद ज्यादा मजा आता है। एक लंबा युद्ध दिखाया गया है जिसमें स्पेशल इफेक्ट्स लाजवाब है। इसकी रणनीति को लेकर बढ़िया सीन बनाए गए हैं। इसे युद्ध में बाहुबलि और भल्लाला अपना पराक्रम दिखाते हैं और उनके प्रशंसकों को यह सीन बहुत ही पसंद आएंगे।
निर्देशक एसएस राजामौली ने ऐसे कई दृश्य रचे हैं जो लार्जर देन लाइफ फिल्म पसंद करने वालों को ताली बजाने पर मजबूर करेंगे। उन्होंने हर कैरेक्टर के लिए खास दृश्य बनाए हैं। राजामौली की तारीफ इसलिए भी बनती है कि एक ऐसी कहानी जिसमें ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं है, बावजूद इसके वे दर्शकों को बांध कर रखते हैं। चूंकि फिल्म का बजट बहुत ज्यादा है इसलिए कई बार वे सुरक्षित दांव चलते भी नजर आएं। जैसे कुछ गानों की जरूरत नहीं थी, लेकिन उन्हें जगह दी गई। सुदीप वाला सीन भी केवल स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए रखा गया।
बाहुबली की वीएफएक्स टीम भी बधाई की पात्र है। हॉलीवुड फिल्मों से पार तो नहीं निकले हैं, लेकिन नजदीक जरूर पहुंच गए हैं। इस टीम ने प्राकृतिक छटाएं, झरने और महीषपति शहर को बहुत ही भव्यता के साथ पेश किया गया है और कई तकनीकी गलतियों को भी छिपाया गया है।
यह फिल्म हिंदी में डब की गई है इसलिए संवादों का स्तर ऊंचा नहीं है। इसी तरह फिल्म के गाने में अपील नहीं करते। ऐसा लगता है मानो अनुवाद किए गाने सुन रहे हो। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी ऊंचे स्तर की है। सेट भव्य हैं। फाइट सीन उल्लेखनीय हैं।
प्रभाष और राणा अपने रोल के लिए एकदम फिट नजर आएं। उनका डील-डौल देख लगता है कि उनकी बाजुओं में फौलादी ताकत है। प्रभाष का स्क्रीन प्रजेन्स जोरदार है और वे हीरो की परिभाषा पर खरे उतरे। राणा का किरदार नकारात्मक है और दूसरे भाग में उन्हें शायद ज्यादा अवसर मिलेगा। यही हाल अनुष्का शेट्टी का है। उन्हें पहले भाग में ज्यादा अवसर नहीं मिला है, लेकिन दूसरे भाग में यह कमी पूरी हो जाएगी। तमन्ना भाटिया बेहद खूबसूरत नजर आईं और एक योद्धा के रूप में वे प्रभावित करती हैं। सत्यराज, नासेर, रामया कृष्णन अनुभवी कलाकार हैं और उन्होंने काम बखूबी किया है।
फिल्म कैसी है ये तो दूसरा भाग देखने पर ही तय होगा, लेकिन पहला भाग प्रभावित करता है और दूसरे भाग को देखने के लिए उत्सुकता पैदा करता है।
बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, एए फिल्म्स, आरको मीडिया वर्क्स प्रा.लि.
निर्देशक : एसएस राजामौली
संगीत : एमएम करीम
कलाकार : प्रभाष, राणा दग्गुबाती, अनुष्का शेट्टी, तमन्ना भाटिया, रामया कृष्णन, सत्यराज, नासेर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट
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'एनएच 10' एक थ्रिलर मूवी है, जिसमें चतुराई से भारत में महिलाओं की स्थिति, पुरुष प्रधान समाज की विसंगतियां, ऑनर किलिंग और भारत में कानून की स्थिति को दर्शाया गया है।
हाईवे पर अपनी गाड़ी से सफर करने पर मन में आशंकाएं पैदा होती हैं। इस सफर में कानून का असर कम और जंगल राज का दबदबा बढ़ता हुआ महसूस होता है। हर शख्स संदेह पैदा करता है। न्यू एज कपल मीरा (अनुष्का शर्मा) और अर्जुन (नील भूपलम) वीकेंड मनाने के लिए गुड़गांव से दूर निकलते हैं और एनएच 10 उनके लिए मुसीबत लेकर आता है।
रास्ते में वे ढाबे पर चाय पीने रूकते हैं। यहां एक लड़की और लड़के को कुछ लोग पीट रहे हैं। अर्जुन दखल देता है और जंगली किस्म के ये लोग मीरा-अर्जुन के पीछे पड़ जाते हैं। अर्जुन और मीरा के लिए आगामी कुछ घंटे नरक के समान होते हैं। जंगलों और गांवों में भटकते हुए उनका सामना एक ऐसे भारत से होता है जहां जंगल राज चल रहा है। फिल्म के एक संवाद से भारत के अंदरुनी इलाकों की भयावह स्थिति की झलक मिलती है जब एक किरदार कहता है 'गांव में पानी और बिजली तो पहुंचे नहीं है तो संविधान कैसे पहुंचेगा?'
एक और मीरा है, जो पढ़ी-लिखी और नौकरीपेशा महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। अपनी शर्तों पर जीवन जीती है और जिसे खुलेआम सिगरेट पीने में हिचक नहीं है। उसके लिए चमचमाते माल्स और मेट्रो सिटी ही भारत है।
जहां शहरों के शॉपिंग मॉल्स समाप्त होते हैं वही से भारत का दूसरा चेहरा सामने आता है। यहां महिलाओं की स्थिति भयावह है। वे अपने निर्णय नहीं ले सकती। दूसरी जाति में शादी करने पर अपने ही अपनों की हत्या कर देते हैं और इसे सम्मानजनक बात माना जाता है। लेडिस टॉयलेट की दीवारों पर महिलाओं के प्रति असम्मानजनक बातें लिखी जाती हैं जो पुरुषों की स्त्री के प्रति विकृत सोच को बयां करती है। >
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गुंडों से भागती हुई जब मीरा पुलिस के पास पहुंचती है तो मदद के बजाय पुलिस उसे गुंडों को सौंप देती है। पुलिस वालों को भी डर है कि गांव वाले उनका हुक्का-पानी बंद नहीं कर दे आखिर उन्हें भी तो अपनी संतानों की शादी करनी है। बड़े शहर में रहने वाली मीरा पहली बार इस तरह की स्थिति का सामना करती है। इन सारी बातों के बीच मीरा-अर्जुन के पीछे भागते गुंडों के जरिये थ्रिल पैदा किया गया है।
फिल्म की स्क्रिप्ट सुदीप शर्मा ने लिखी है और उन्होंने संक्षिप्त कहानी पर बेहद टाइट स्क्रिप्ट लिखी है। मीरा और अर्जुन के साथ जिस तरह की घटनाएं घटती हैं उससे दर्शक हिल जाता है। मीरा को उन्होंने हीरो की तरह पेश किया है। क्लाइमेक्स में फिल्म अनुष्का शर्मा की 'बदलापुर' बन जाती है, लेकिन यहां स्क्रिप्ट का फिल्मी हो जाना अच्छा लगता है। मीरा अपने दुश्मन को मारने के पहले सिगरेट के कश लगाती है और गुंडे की आंखों में भय देख उसे सुकुन मिलने वाला दृश्य बेहतरीन बन पड़ा है।
निर्देशक नवदीप सिंह ने कहानी को रियलिटी का टच दिया है जिससे फिल्म में जान आ गई। रियल लोकेशन्स फिल्म को तीखा बनाते हैं। हिंसात्मक दृश्यों से निर्देशक ने परहेज नहीं किया है। कुछ कमियां भी हैं। फिल्म में मारकाट, खूनखराबे और क्रूरता के दृश्य विचलित कर सकते हैं। अर्जुन का गुंडों के पीछे जाने की वजह को ठीक से पेश नहीं किया गया है। शायद यह मेल ईगो वाली प्रॉब्लम है। क्लाइमैक्स में गांव का सूनापन भी अखरता है। क्या पूरा गांव तमाशा देखने गया था?
दर्द सहती हुई, खून से सनी, हिम्मत नहीं हारने वाली मीरा का किरदार अनुष्का शर्मा ने बेहतरीन तरीके से जिया है। उनकी आंखों में बदला लेने की चमक साफ देखने को मिलती है। उन्होंने हर भाव को बखूबी पेश किया है।
मैरी कॉम में दर्शन कुमार ने आदर्श पति की भूमिका निभाई थी, लेकिन यहां पर वे क्रूर हरियाणवी युवक के रोल में है जिसे देख सिरहन पैदा होती है। नील भूपलम, दीप्ति नवल सहित तमाम कलाकारों ने अपना काम संजीदगी से किया है।
एनएच 10 पर सफर किया जा सकता है।
बैनर : फैंटम प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल, क्लीन स्लेट फिल्म्स
निर्माता : कृषिका लुल्ला, अनुष्का शर्मा, कर्नेश शर्मा, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाने, अनुराग कश्यप
निर्देशक : नवदीप सिंह
कलाकार : अनुष्का शर्मा, नील भूपलम, दर्शन कुमार
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटे 55 मिनट 9 सेकंड
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हाउसफुल बॉलीवुड की लोकप्रिय सीरिज है। इसके पिछले दोनों सफल भागों का निर्देशन साजिद खान ने किया था, जबकि तीसरे भाग की बागडोर साजिद-फरहाद को सौंपी गई है। इस सीरिज में ऐसा हास्य दर्शकों के आगे परोसा जाता है जिसमें दिमाग को सिनेमाघर के बाहर रखिए और फिल्म का मजा लीजिए।
फिल्म के पिछले दोनों भाग ठीक-ठाक थे और मनोरंजन करने में सफल रहे थे, लेकिन 'हाउसफुल 3' इस सीरिज की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई है। साजिद-फरहाद को भव्य बजट और बड़ी स्टार कास्ट मिली, लेकिन वे फिल्म को संभाल नहीं पाए और तीर निशाने पर नहीं लगा।
बटुक लाल (बोमन ईरानी) अपनी तीन बेटियों गंगा (जैकलीन फर्नांडिस), जमुना (लिसा हेडन) और सरस्वती (नरगिस फाखरी) के साथ लंदन में रहता है। वह नहीं चाहता कि उसकी जवान बेटियां शादी करें। गंगा का बॉयफ्रेंड सैंडी (अक्षय कुमार) है तो जमुना का टैडी (रितेश देशमुख) और सरस्वती का बंटी (अभिषेक बच्चन)।
बटुक पटेल को जब यह बात पता चलती है तो वह अपनी बेटियों को कहता है कि यदि गंगा ने शादी की तो उसके पति का पहला कदम घर में रखते ही वह (बटुक) मर जाएगा। यदि जमुना के पति ने बटुक को देखा और सरस्वती के पति ने पहली बार कुछ बोला तो बटुक की मृत्यु निश्चित है।
तीनों लड़कियां अपने बॉयफ्रेंड्स को यह बात बताती है। तीनों पैसे के लालची दिमाग लड़ाते हैं। एक अंधा बन जाता है तो दूसरा गूंगा, तीसरा कहता है कि उसके पैर चलने के काबिल ही नहीं है। वे बटुक के घर में ही उसके साथ रहने लगते हैं।
बटुक वर्षों पहले ऊर्जा नागरे (जैकी श्रॉफ) के साथ काम करता था। ऊर्जा मुंबई का डॉन था और 18 वर्ष की जेल काटने के बाद वह बटुक से मिलने लंदन आता है। कहानी में उसके आने से कुछ उतार-चढ़ाव आते हैं और हैप्पी एंडिंग के साथ फिल्म खत्म होती है।
हाउसफुल 3 की कहानी घटिया है। सारा ध्यान इसी बात पर लगाया गया है कि कैसे हर दृश्य में हास्य पैदा किया जाए। तीनों लड़के बटुक के घर में क्यों रहने लगते हैं, यह बात फिल्म में स्पष्ट ही नहीं है। ऐसी कई बातें हैं जो अतार्किक हैं।
स्क्रीनप्ले में जरा सी भी कसावट नहीं है। कॉमेडी सीन दोहराव के शिकार हैं। वन लाइनर्स पर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है और एक समय बाद ये अखरने लगते हैं। फिल्म की हीरोइनों की हिंदी बहुत कमजोर है और वे अंग्रेजी को अनुवाद कर हिंदी में बोलती है, जैसे- लेट्स गो फॉर हैंग आउट को वे बोलती हैं चलो बाहर लटकते हैं या लाइम लाइट को नींबू की रोशनी। एक-दो बार तो इन संवादों को सुन हंस सकते हैं, लेकिन बार-बार नहीं।
लेखक के रूप में साजिद-फरहाद कुछ नया नहीं सोच पा रहे हैं। आखिर कब तक वे थके-मांदे चुटकुलों से दर्शकों का मनोरंजन करेंगे? इससे बेहतरीन चुटकले तो व्हाट्स एप पर पढ़ने को मिल जाते हैं।
बतौर निर्देशक भी साजिद-फरहाद का काम औसत से नीचे है। उनके लिए निर्देशन का मतलब है लिखे हुए को फिल्मा देना। इस गंभीर काम को उन्होंने हल्के से लिया है और एक बड़ा मौका उन्हें मिला था जिसे उन्होंने गंवा दिया।
फिल्म की शुरुआत बेहद ठंडी है। अक्षय, अभिषेक और रितेश के परिचय वाले सीन निहायत ही कमजोर है और कॉमेडी के नाम पर ट्रेजेडी है। दूसरे हाफ में ही फिल्म थोड़ी ठीक है। फिल्म में बहुत से संवाद अंग्रेजी में रखकर गलती की गई है क्योंकि जिस दर्शक वर्ग के लिए 'हाउसफुल 3' बनाई गई है उसे अंग्रेजी समझ में ही नहीं आएगी।
हाउसफुल 3 में सबसे बड़े स्टार अक्षय कुमार हैं जो कि कॉमेडी माहिर हैं, लेकिन उनको अभिषेक और रितेश के बराबर दृश्य मिले हैं जबकि वे इससे ज्यादा के हकदार थे। अक्षय की पूरी क्षमताओं का उपयोग नहीं हो पाया है। उन्हें जो भी सीन मिले हैं उसमें उन्होंने अच्छा काम किया है और थोड़ा-बहुत दर्शकों को अपने दम पर हंसाया है।
इस तरह की कॉमेडी फिल्मों के रितेश देशमुख अनिवार्य अंग हैं और वे अब टाइप्ड हो गए हैं। अभिषेक बच्चन और एक्टिंग में छत्तीस का आंकड़ा है। उन्हें एक रैपर की भूमिका दी है जिसमें वे जरा भी नहीं जमे। बेवकूफ लड़कियों के किरदार में जैकलीन फर्नांडिस, लिसा हेडन और नरगिस फाखरी में होड़ इस बात की थी कि कौन बुरी एक्टिंग करता है। विजेता को चुनना बहुत ही मुश्किल है। बोमन ईरानी को सबसे ज्यादा फुटेज मिले हैं। अजीब सी विग पहने वे एक्टिंग और ओवर एक्टिंग के बीच की लाइन पर घूमते रहे।
फिल्म का संगीत बहुत बड़ा माइनस पाइंट है। प्यार की मां की, बहन की मां की, टांग उठा के को क्या गाने कहा जा सकता है।
हाउसफुल 3 'हाउसफुल' सीरिज की सबसे कमजोर फिल्म है। हंसने के लिए इससे बेहतर कई विकल्प मौजूद हैं।
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट
निर्माता : साजिद नाडियाडवाला, सुनील ए. लु्ल्ला
निर्देशक : साजिद--फरहाद
संगीत : तोशी-शरीब, सोहेल सेन, मीका सिंह, तनिष्क बागची, मिलिंद गाबा
कलाकार : अक्षय कुमार, जैकलीन फर्नांडिस, अभिषेक बच्चन, नरगिस फाखरी, रितेश देशमुख, लिसा हेडन, बोमन ईरानी, जैकी श्रॉफ, चंकी पांडे
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 14 मिनट 21 सेकंड
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संजू फ़िल्म के एक सीन में संजय दत्त की गर्लफ्रेंड रूबी का पिता कहता है कि नोट दो तरह के होते हैं, पहला खरा जिसे आप जितना भी खींच लो उसका कुछ नहीं बिगड़ता और दूसरा खोटा, जो कि जरा सा भी खींचने पर फट जाता है। संजय दत्त की असल जिंदगी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। दुनिया ने उनको खोटा बताया, लेकिन वह खुद को खरा मानते हैं। बेशक खुद को दुनिया की नज़रों में सही साबित करने के लिए ही उन्होंने अपनी लाइफ को बतौर फिल्म, दुनिया के सामने रखा है। हालांकि अब उनके पिता सुनील दत्त यह फिल्म देखने के लिए इस दुनिया में नहीं हैं।फिल्म की शुरुआत में संजय दत्त (रणबीर कपूर) एक फिल्मी राइटर से अपनी बॉयॉग्रफी लिखवाता है, लेकिन बात नहीं बन पाती है। इसी दौरान संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट से जेल की सजा हो जाती है। उस रात तनाव में संजय आत्महत्या की कोशिश करता है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि कोई उसके बच्चों को आतंकवादी का बच्चा कहे। तब उसकी वाइफ मान्यता दत्त (दीया मिर्ज़ा) उसकी मुलाकात एक बड़ी राइटर विनी (अनुष्का शर्मा) से कराती है। दरअसल संजय और मान्यता चाहते हैं कि उसकी लाइफ का सच सामने आए और दुनिया उसे आतंकवादी ना समझे। विनी को संजय अपनी कहानी सुनाता, इससे पहले संजय का पुराना दोस्त जुबिन (जिम सरभ) उससे संजय की बुराई करता है। तब संजय उसे जुबिन समेत अपने अजीज दोस्त कमलेश (विकी कौशल) की कहानी सुनाता है। वह उसे बताता है कि किस तरह उनके एक दोस्त जुबिन ने उसे ड्रग्स की दुनिया से रूबरू कराया और किस तरह दूसरे दोस्त कमलेश ने उसे उस अंधेरी दुनिया से बाहर निकाला। किस तरह उनके पिता सुनील दत्त (परेश रावल) ने हर परेशानी सह कर भी उसका साथ नहीं छोड़ा, लेकिन अफसोस कि वह आखिरी दम तक भी उन्हें शुक्रिया नहीं कह पाया। किस तरह उनकी मां नरगिस (मनीषा कोइराला) ने मरने के बाद भी उसका साथ नहीं छोड़ा और मुश्किल समय में प्रेरणा बन कर साथ रहीं। हालांकि, संजय दत्त की जिंदगी की कहानी विस्तार से जानने के लिए आपको सिनेमा का रुख करना होगा।फ्लाइट में बहनों के साथ जा रहे संजय दत्त ने जूते में छिपाया था 1 किलो हेरोइन फिल्म देखकर आप समझ जाएंगे कि जिस तरह रील लाइफ संजू ने विनी को अपनी असल जिंदगी की कहानी दुनिया को बताने की जिम्मेदारी दी, उसी तरह रियल लाइफ संजय दत्त ने मुश्किल समय में 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' जैसी फिल्म बना कर उनकी नैया पार लगाने वाले राजकुमार हिरानी को अपनी जिंदगी पर फिल्म बनाकर उनका सच दुनिया को बताने की जिम्मेदारी दी। राजू हिरानी और उनके सह लेखक अभिजात जोशी ने संजय दत्त की जिंदगी की कहानी को खूबसूरत कहानी लिखी और हिरानी ने उस पर बेहतरीन फिल्म बनाई है। वाकई हिरानी इस दौर के एक बेहतरीन स्टोरी टेलर हैं, जो किसी भी कहानी को दिलचस्प अंदाज़ में पेश कर सकते हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ आपको बांध कर रखता है, लेकिन सेकंड हाफ में संजय मीडिया के मत्थे अपना सारा दोष मढ़कर खुद को निर्दोष साबित करते नज़र आते हैं। संजू का रोल कर रहे रणबीर कपूर ने तो जैसे इस रोल को जी लिया। फिल्म देखते वक्त कई बार आप खुद गच्चा खा जाएंगे कि स्क्रीन पर संजय दत्त हैं या रणबीर। बेशक बतौर ऐक्टर संजू रणबीर के करियर की बेहतरीन फिल्मों में से एक होगी। वहीं परेश रावल ने भी बतौर सुनील दत्त जबरदस्त ऐक्टिंग की है। फ़िल्म में वह बाप-बेटे की इमोशनल रिलेशनशिप को खूबसूरत अंदाज़ में जीते हैं। नरगिस के रोल में मनीषा कोइराला भी बेहतरीन लगी हैं। संजय के अमेरिकी दोस्त कमलेश के रोल में नज़र आए विकी कौशल ने साबित कर दिया कि वह बॉलिवुड में लंबी पारी खेलने वाले हैं। संजू के ड्रगिस्ट दोस्त जुबिन के रोल में जिम सरभ कमाल लगे हैं। संजय की वाइफ मान्यता के रोल में दीया मिर्जा और राइटर विनी के रोल में अनुष्का शर्मा भी अच्छी लगी हैं। हालांकि उनके पास ज्यादा कुछ करने को नहीं था। फ़िल्म का संगीत भी खूबसूरती से पिरोया गया है। खासकर हर मैदान फतह गाना आपको इमोशनल कर देता है। अगर आप संजू बाबा या रणबीर कपूर के फैन हैं, तो इस वीकेंड यह फ़िल्म मिस मत कीजिए। | 1 |
बॉक्स आफिस पर बेशक मनीष मुंदरा की फिल्मों को अच्छा रिस्पॉन्स न मिला हो, लेकिन उनकी फिल्मों को हर बार दर्शकों की एक खास क्लास के साथ क्रिटिक्स की जरूर जमकर वाहवाही मिली है। अगर मनीष की पिछली राजकुमार रॉव स्टारर फिल्म 'न्यूटन' की बात करें तो इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर न सिर्फ अपनी लागत ही वसूली बल्कि फिल्म ने अच्छी-खासी कमाई भी की। वहीं मनीष के बैनर तले बनी 'आंखिन देखी' और 'मसान' ने भी दर्शकों की एक खास क्लास में अपनी पहचान जरूर छोड़ी। इस बार मनीष ने अपनी इस फिल्म में एक मर्डर मिस्ट्री को टोटली डिफरेंट ऐंगल से पेश किया है। एक ऐक्सिडेंट में अपने पिता को खो चुके एक बेटे को पुलिस की जांच पर भरोसा नहीं, उसे हर बार यही लगता है कि उसके पिता की मौत एक रोड ऐक्सिडेंट में नहीं हुई बल्कि उन्हें पूरी प्लानिंग के साथ मरवाया गया है। इसी प्लॉट पर घूमती करीब पौने दो घंटे की यह फिल्म दर्शकों की उसी क्लास की कसौटी पर ही खरा उतरने का दम रखती है जो सिनेमाहॉल में मुबइया मसाला, ऐक्शन और सिर्फ टाइमपास के मकसद से नहीं आते बल्कि ऐसी फिल्म की तलाश में थिअटर का रुख करते हैं जो अलग हो। फिल्म की स्पीड अंत तक इस कदर धीमी है कि कई बार हॉल में बैठे दर्शकों का सब्र लेने लगती है। वैसे निर्देशक अतानु का दावा है कि उनकी यह फिल्म एक सच्ची घटना पर बेस्ड है, लेकिन इस घटना के बारे में उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं बताया।स्टोरी प्लॉट : दिवाकर माथुर (मनोज वाजपेयी) का लेदर का कारोबार है, उसकी अपनी फैक्ट्री है, लेकिन जबर्दस्त आर्थिक तंगी के चलते वह इसे ठीक ढंग से चला नहीं पा रहा है। दिवाकर की पत्नी नंदिनी माथुर (स्मिता तांबे) को अपने हज्बंड से शिकायत है कि वह अपनी फैक्ट्री में कुछ इस कदर उलझे रहते हैं कि न तो अपने इकलौते बेटे ध्रुव माथुर (आदर्श गौरव) और न ही अपनी फैमिली के लिए वक्त निकाल पा रहे हैं। इसी बीच दिवाकर का दोस्त रॉबिन (कुमुद मिश्र) उसकी मदद करता है और फैक्ट्री को चलाने के लिए मोटी रकम देकर दिवाकर के साथ फैक्ट्री में पार्टनर बन जाता है। वहीं स्कूल में पढ़ रहे ध्रुव को अक्सर यही महसूस होता है कि पापा दिवाकर के पास उसके लिए वक्त नहीं है। ऐसे में ध्रुव कुछ ज्यादा ही गुस्सैल बन जाता है, स्कूल में एक स्टूडेंट के साथ मारपीट के बाद उसे जब सीनियर सेकंडरी स्कूल से निकाल दिया जाता है तो दिवाकर उसे एक बोर्डिंग स्कूल में भेज देता है। तभी एक दिन ध्रुव को खबर मिलती है कि दिवाकर की एक रोड ऐक्सिडेंट में मौत हो गई है। ध्रुव बोर्डिंग छोड़ अपने घर लौट आता है, लेकिन ध्रुव को हर बार यही लग रहा है कि उसके पिता की मौत एक ऐक्सिडेंट में नहीं हुई बल्कि उनका एक सोची समझी प्लानिंग के साथ मर्डर किया गया है।बेशक फिल्म एक मर्डर मिस्ट्री है लेकिन डायरेक्टर ने फिल्म को स्क्रिप्ट की डिमांड पर एक ही सिंगल ट्रैक पर पेश किया है। अतानु की कहानी और किरदारों पर तो अच्छी पकड़ है, लेकिन स्क्रिप्ट पर उन्होंने ज्यादा काम नहीं किया। यही वजह है कि फिल्म की गति बेहद धीमी है। अगर पौने दो घंटे की फिल्म में भी दर्शक कहानी और किरदारों के साथ बंध नहीं पाए तो यह कहीं न कहीं डायरेक्शन की खामी ही कहा जाएगा। अलीगढ़ जैसी कई फिल्मों में अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवा चुके मनोज बाजपेयी पूरी फिल्म में अपने किरदार में जीते नज़र आ रहे तो वहीं स्मिता तांबे की खामोशी के बीच उनका फेस एक्सप्रेशन जबर्दस्त है। ध्रुव के किरदार में आदर्श गौरव डायरेक्टर की राइट चॉइस रही तो कुमुद मिश्रा ने रॉबिन के किरदार को दमदार ढंग से निभाया है। फिल्म में बैकग्राउंड में गाने हैं, लेकिन यह गाने फिल्म की पहले से स्लो स्पीड को और स्लो ही करते हैं।क्यों देखें : अगर आपको लीक से हटकर बनी फिल्में पसंद हैं तो इसे एकबार देखा जा सकता है। एंटरटेनमेंट, ऐक्शन और कॉमिडी के शौकीनों के लिए इस फिल्म को देखने की कोई वजह नहीं है। | 0 |
म्यूजिक और डांस पर फिल्में बनाने का सिलसिला बॉलिवुड में नया नहीं है, 60-70 के दौर में वी. शांताराम जैसे नामी मेकर ने इन्हीं सब्जेक्ट पर 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली' सहित कई सुपरहिट फिल्में बनाई। पिछले कुछ अर्से में ग्लैमर नगरी के कोरियॉग्राफर गणेश आचार्य, रेमो डिसूजा ने भी बतौर डायरेक्टर अपनी फिल्मों को डांस और म्यूजिक के आसपास ही रखा। रणबीर कपूर स्टारर रॉक स्टार का सब्जेक्ट भी कुछ ऐसा ही रहा और यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित हुई। अब अगर हम रितेश देशमुख स्टारर बैंजो की बात करें तो इस फिल्म के डायरेक्टर रवि जाधव मराठी फिल्म इंडस्ट्री के बेहद कामयाब और ऐसे मेकर माने जाते हैं जो दर्शकों की नब्ज पकड़ने की कला अच्छी तरह से जानते हैं। काश, रवि कुछ ऐसा ही करिश्मा हिंदी फिल्म दर्शकों के साथ भी कर दिखा पाते, लेकिन उनके निर्देशन में बनी इस पहली हिंदी फिल्म को देखकर यही लगता है कि हिंदी में फिल्म शुरू करने के बावजूद जाधव अपनी इस फिल्म का ट्रीटमेंट मराठी फिल्मों की तर्ज पर ही करते रहे। चूंकि फिल्म मुंबई की लोकल स्लम कॉलोनी के बैकड्रॉप पर फिल्माई गई है तो जाधव को अपनी इस फिल्म को मराठी माहौल के इर्दगिर्द रखने की एक बड़ी वजह मिल गई, लेकिन मराठी माहौल के बीच रवि ने गणपति उत्सव के सीन को न जाने क्यों बार-बार अपनी कहानी का हिस्सा बनाया, यह समझ से परे है। यही वजह है कि इस फिल्म में म्यूजिक के साथ-साथ इमोशन को कुछ ज्यादा पेश किया गया, जो यकीनन जेन एक्स और मल्टिप्लेक्स कल्चर के इस दौर में बॉक्स ऑफिस पर कमजोर साबित हो सकता है। कहानी : मुंबई की एक स्लम बस्ती में रहने वाला नंद किशोर उर्फ तरात (रितेश देशमुख) अच्छा बैंजो प्लेयर है। इसी स्लम बस्ती के एक लोकल लीडर के लिए तरात हफ्ता वसूली का काम करता है। बस्ती में तरात की इमेज किसी मवाली से कम नहीं है, तरात ने अपने तीन दोस्तों के साथ मिलकर एक म्यूजिक ग्रुप बनाया हुआ है। तरात और उसके इस ग्रुप के तीनों साथी पेपर, ग्रीस और वाजा अपनी बस्ती के अलावा आसपास की बस्तियों में होनेवाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में परफॉर्म भी करते हैं। इस बार तरात के ग्रुप को गणपति के सालाना फंक्शन में खूब सराहा गया और सम्मानित भी किया गया, सो तरात ने अपने ग्रुप की फीस डबल कर दी। तरात और उसके दोस्तों की इस ग्रुप में परफॉर्म करने की वजह कुछ एक्स्ट्रा आमदनी का होना है, वर्ना पेपर हर रोज सुबह न्यूजपेपर्स बांटता है तो ग्रीस एक मोटर गैराज में काम करता है, वाजा अपने पिता के साथ शादी और खुशी के दूसरे कार्यक्रमों में वाद्ययंत्र बजाने का काम करता है। इन चारों की जिंदगी में उस वक्त टर्निंग पॉइंट आता है जब न्यू यार्क से क्रिस (नरगिस फाखरी) मुंबई आती है। क्रिस के यहां आने काम मकसद न्यू यॉर्क में होनेवाले एक म्यूजिक कॉन्टेस्ट के लिए मुंबई के एक अनजान बैंजो प्लेयर्स के साथ मिलकर दो गाने रेकॉर्ड करना है। दरअसल, क्रिस ने विदेश में तरात और उसके ग्रुप द्वारा बनाई एक म्यूजिक धुन सुनने के बाद अपने दो गाने इस ग्रुप के साथ बनाने का फैसला किया। क्रिस न्यू यॉर्क से मुंबई की उसी स्लम बस्ती में आती है जहां तरात और उसके साथी रहते है। यहीं पर पहली बार तरात और क्रिस मिलते हैं। तरात यहां क्रिस के लिए लोकल गाइड का काम करता है, लेकिन अपनी बैंजो प्लेयर वाली पहचान क्रिस से छुपाता है। ऐक्टिंग : मुंबई की लोकल स्लम बस्ती में एक लीडर के लिए हफ्तावसूली करने भाई टाइप मवाली और बैंजो आर्टिस्ट के किरदारों में रितेश देशमुख ने मेहनत की है। बैंजो बजाते हुए सीन्स में रितेश के एक्सप्रेशन्स बहुत खूब बन पड़े हैं, वहीं क्रिस के रोल में नरगिस फाखरी ने अपने किरदार को बस निभा भर दिया, अगर नरगिस के फिल्मी करियर की बात करें तो उनके साथ हर बार विदेशी युवती का टैग लग रहा है। बैंजो में नरगिस का क्रिस वाला किरदार भी इससे अछूता नहीं है। अन्य कलाकारों में धर्मेंद्र यावडे ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से अपनी मौजूदगी का एहसास कराया है। डायरेक्शन : इंटरवल से पहले तक रवि जाधव अपनी इस सिंपल सी कहानी का प्लॉट बनाने में कुछ ज्यादा ही उलझ गए। एक म्यूजिक मंडली पर फोकस करती इस कहानी में उन्होंने न जाने क्यों बॉलिवुड फिल्मों में नजर आने वाले दूसरे चालू मसालों को फिट किया, यही वजह है कि म्यूजिक पर बनी इस फिल्म में फाइट सीन, इमोशनल सीन के साथ-साथ कॉमिडी सीन भी फिट किए गए जो कहानी को ट्रैक से भटकाने का काम करते है। वहीं 'बैंजो' टाइटल पर बनी इस फिल्म में बैंजो को ही कम फुटेज मिल पाई। हां, इंटरवल के बाद कहानी रफ्तार पकड़ती है, जाधव की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ समाज में बैंजो आर्टिस्ट की स्थिति को पेश किया तो लीड जोड़ी रितेश-नरगिस के अलावा कहानी के बाकी तीन अहम किरदारों पेपर, ग्रीस और वाजा को भी अच्छी फुटेज दी। संगीत : विशाल शेखर का म्यूजिक कहानी और माहौल पर पूरी तरह से फिट है, चूंकि फिल्म बैंजो की पृष्ठभूमि पर है तो संगीतकार जोड़ी ने फिल्म के म्यूजिक में बैंजो को अलग प्राथमिकता दी और फिल्म के म्यूजिक को अलग ट्रैक से तैयार करने में अच्छी-खासी मेहनत की है। इंटरवल से पहले फिल्म में ज्यादा गानें हैं जो फिल्म की रफ्तार सुस्त करने काम करते है। क्यों देखें : अगर आपको म्यूजिक पर बनने वाली फिल्में पसंद हैं और रितेश के आप पक्के फैन हैं तो 'बैंजो' एकबार देखी जा सकती है, अगर आप कहानी में कुछ नया और अलग सोचकर जाएंगे तो अपसेट हो सकते हैं। | 1 |
एक्शन, आइटम नंबर, बड़े सेट और विदेश में शूटिंग जैसे चिर-परिचित फॉर्मूलों के बिना भी एक अच्छी तथा मनोरंजन फिल्म बनाई जा सकती है, ये बात डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने फिल्म 'ज़ेड प्लस' बना कर साबित की है। ज़ेड प्लस एक साधारण आदमी की कहानी है जो पुलिस, महंगाई और बीवी से डरता है तथा असाधारण परिस्थितियों में फंस जाता है। उस आम आदमी का नेता, अफसरशाही, पुलिस किस तरह इस्तेमाल करती है यह बात व्यंग्यात्मक तरीके से पेश की गई है।
राजस्थान के छोटे से शहर स्थित पीपल वाले पीर की दरगाह पर प्रधानमंत्री अपनी गठबंधन की सरकार बचाने के लिए 'चादर' चढ़ाने आते हैं। पीएम की इस यात्रा पर एक ग्रामीण कहता है कि लगता है तीर तो याद आते हैं पीर। पीएम जिस दिन दरगाह पर आते हैं उस दिन दरगाह का खादिम एक पंक्चर पकाने वाला शख्स असलम था। प्रधानमंत्री हिंदी नहीं जानते और असलम को शायद अंग्रेजी में एक-दो शब्द मालूम होंगे। गलतफहमी होती है और असलम को ज़ेड प्लस की सिक्यूरिटी मिल जाती है।
असलम के टूटे-फूटे घर के आगे दर्जन भर हट्टे-कट्टे जवान आधुनिक हथियार के साथ खड़े हो जाते हैं। असलम शौच के लिए जंगल जाता है तो जवान वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। कुछ दिन अच्छे लगने वाली यह सिक्यूरिटी असलम के लिए जी का जंजाल बन जाती है। वह अपनी माशूका से मिलने भी नहीं जा सकता है क्योंकि उसे अपनी पोल खुलने का डर है।
ज़ेड सिक्यूरिटी के कारण असलम मीडिया की निगाह में भी आ जाता है। मीडिया को बताया जाता है कि उसे पड़ोसी मुल्क से जान का खतरा है। पड़ोसी देश के आतंकवादी भी हरकत में आ जाते हैं कि यह ऐसा कौन-सा शख्स है जिसे भारत में सुरक्षा दी जा रही है। वे भी असलम की जान लेने के लिए उसके पीछे पड़ जाते हैं ताकि ज़ेड सिक्यूरिटी से घिरे आदमी की हत्या कर अपनी ताकत साबित कर सके। असलम की लोकप्रियता इतनी बढ़ जाती है कि राजनीतिक दल उसका फायदा उठाना चाहते हैं। तमाम दुष्चक्रों के बीच असलम का जीना मुश्किल हो जाता है।
फिल्म में राजनीतिक और प्रजातंत्र की विसंगतियों को बारीकी से पेश किया गया है। बातें गंभीर हैं, लेकिन हल्के-फुल्के तरीके से कही गई हैं। शुरुआती हिचकोले के बाद फिल्म धीरे-धीरे दर्शकों को अपनी गिरफ्त में लेती है और इसका असर देर तक रहता है।
फिल्म में दिखाया गया है कि नौकरशाही और नेता किस तरह से काम करते हैं। उनके लिए आम आदमी की अहमियत क्या है। किस तरह चुनाव जीतने के लिए लोकप्रिय चेहरे तलाश किए जाते हैं क्योंकि जनता भी इसी के आधार पर वोट देती है। नेता बनने के लिए मेकओवर किया जाता है। घर में गांधी और आंबेडकर की तस्वीरें लगाई जाती हैं।
जब असलम को चुनाव लड़ने का ऑफर दिया जाता है तो वह हिचकता है क्योंकि वह एक पंक्चर पकाने वाला आम आदमी है। उसे मुख्यमंत्री का पिठ्ठू समझाता है कि राजनीति करना और पंक्चर बनाना एक जैसे ही हैं। नेता जानता है कि कब बड़ी योजनाओं को पंक्चर करना है और कब इन पंक्चरों को ठीक करना है।
असलम को भी बात समझ में आती है। जब उसे पता चलता है कि उससे भी गंवार लोग संसद सदस्य हैं तो वह भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। फिल्म में कई गहरी बातें संवादों और दृश्यों के जरिये पेश की गई हैं जो दर्शक अपनी समझ के मुताबिक ग्रहण करते हैं।
फिल्म में कई हल्के-फुल्के दृश्य भी हैं जो दर्शकों को गुदगुदाते हैं। प्रधानमंत्री का दरगाह पर चादर चढ़ाने वाला सीन कमाल का बना है। जेड सिक्यूरिटी के कारण उत्पन्न हुई परेशानियां और फायदों को भी हास्य के रंग में पेश किया गया है।
फिल्म से एक ही शिकायत रहती है कि यह बहुत लंबी हो गई है, इसलिए बात का असर कम हो जाता है। आतंकवादियों वाला हिस्सा खींचा गया है। फिल्म कम से कम 20 मिनट छोटी की जा सकती थी।
निर्देशक के रूप में चंद्रप्रकाश द्विेवेदी ने सीधे-सीधे तरीके से फिल्म को पेश किया है और वे विषय के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाए। तकनीक पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं है, लेकिन मजबूत कंटेंट ने उनके निर्देशन की कमियों को कुछ हद तक छिपा लिया है। एक छोटे शहर की बारीकियों को उन्होंने अच्छी तरह पकड़ा और पेश किया है। अपने किरदारों को भी वे दर्शकों से जोड़ने में असफल रहे हैं।
असलम का रोल आदिल हुसैन ने निभाया है। फिल्म में उनका अभिनय बेहतरीन है लेकिन वे अपने किरदार में पूरी तरह घुस नहीं पाए। अनपढ़ या जाहिल लगने की बजाय वे पढ़े-लिखे शहरी व्यक्ति लगते हैं। कुलभूषण खरबंदा लंबे समय बाद दिखाई दिए और प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। मोना सिंह, मुकेश तिवारी, केके रैना, रवि झांकल, संजय मिश्रा बेहतरीन अदाकार हैं और इस फिल्म में उनका अभिनय इस बात को पुख्ता करता है।
ज़ेड प्लस उन लोगों को अवश्य देखनी चाहिए जिन्हें नए विषय और किरदार वाली फिल्मों की तलाश रहती है।
बैनर : मुकुंद पुरोहित प्रोडक्शन प्रा.लि., विस्डम ट्री प्रोडक्शन्स प्रा.लि.
निर्माता : मुकुंद पुरोहित, मंदिरा कश्यप
निर्देशक : चंद्रप्रकाश द्विवेदी
संगीत : सुखविंदर सिंह, नायब
कलाकार : आदिल हुसैन, मोना सिंह, मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, कुलभूषण खरबंदा, राहुल सिंह, केके रैना
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट
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फिल्म 'काला' में क्या है: तिरुनेलवेली का एक गैंगस्टर, जो कि बाद में धारावी का किंग बन जाता है और फिर वह ताकतवर नेताओं और भू माफिया से जमीन को सुरक्षित रखने की लड़ाई लड़ता है।काला रिव्यू: इस बार डायरेक्टर पा. रंजीत ने अपना मेसेज (भूमि आम आदमी का अधिकार है) दर्शकों तक पहुंचाने के लिए रजनीकांत के स्टारडम का इस्तेमाल किया है। कहानी सिंपल है, जिसमें तमिलनाडु से आया एक प्रवासी मुंबई की फेमस झुग्गी बस्ती धारावी में सेटल हो जाता है और फिर इसे बेहतर बनाने में लग जाता है, इसके साथ ही वह अब शहर को भी चलाने का काम कर रहा है। तभी एक दुष्ट नेता जो कि एक भू माफिया भी है, उसकी नज़र उसके जमीन पर पड़ जाती है, जिसके लिए उनके बीच जंग शुरू हो जाती है। क्या भू माफिया इसमें सफल हो जाता है? काला की कहानी शुरू होती एक एनिमेटेड स्टोरी कहने वाली डिवाइस से, ठीक वैसा ही जैसा 'बाहुबली' में नज़र आया था। यहां जमीन की अहमियत के साथ-साथ ताकत के भूखों द्वारा गरीबों का दमन दिखाया गया है। फिल्म की कहानी तेजी से मौजूदा समय में आ पहुंच आती है। दुष्ट औैर भ्रष्ट नेता व भू माफिया हैं, जो धारावी को तबाह कर उसे डिजिटल धारावी और मेन मुंबई के रूप में तब्दील करना चाहते हैं। सुपरस्टार रजनीकांत का 'काला' के नाम से एक कैजुअल सा लेकिन प्यारा सा इंट्रोडक्शन दिया गया है, जिसका पूरा नाम कारीकालन है। कहानी में रफ्तार तब पकड़ती है जब यह तय हो जाता है कि काला धारावी का किंग बन चुका है और कोई उससे टकराने का दम नहीं रखता। ज़रीना (हुमा कुरैशी) और काला के बीच लव ट्रैक ठीक उसी अंदाज़ में पेश किया जाता है जैसा कि कबाली-कुमुदावली में दिखाया गया था, लेकिन जल्द ही रजनीकांत को अपनी इस बेवकूफी का एहसास हो जाता है और फिर एक्स-लवर्स के साथ खूबसूरत डिनर सीन में नज़र आते हैं जहां काला अपनी प्राथमिकताओं के बारे में स्पष्टीकरण दे रहा होता है। यहां दोनों शानदार ऐक्टर का परफॉर्मेंस देखने लायक है। 'काला' रिलीज, फैन्स ने रजनीकांत के पोस्टर को दूध से नहलायाइंटरवल से पहले का हिस्सा टिपिकल मसाला स्टंट सीक्वेंस से भरा है, जिसमें कि मुंबई फ्लाईओवर (जहां कुछ वीएफएक्स तकनीक का इस्तेमाल किया गया है) के सीन हैं। यह सीन आपको पुराने रजनीकांत की याद दिला देगा, जो उनके फैन्स के लिए एक बड़े ट्रीट की तरह है। धमाल मचना तो तब शुरू होता है जब दुष्ट हरि दादा ( इस किरदार में खूब जमे हैं नाना पाटेकर यानी हरिनाथ देसाई) की सीन में एंट्री होती है। इंटरवल के बाद कहानी का बहुत कुछ अंदाज़ा आपको पहले ही लग जाता है, जिसमें हरी दादा बदला लेना चाहता है और वह काला से उसका प्यार छीन लेता है, लेकिन धीरे-धीरे रजनीकांत फिल्म में अपनी स्टाइल लेकर आते हैं। वह इस बारे में बात करते हैं कि जब तक विरोध न करें तो कैसे तब तक गरीबों को दबाया जाता है। वह अपने लोगों से अपने शरीर को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की सलाह देता है। वह अपने लोगों से हड़ताल पर जाकर मुंबई को ठप्प करने का आदेश देता है, क्योंकि झुग्गियों में रहने वाले ज्यादातर लोग शहर चला रहे, जिनमें टैक्सी ड्राइवर्स, म्युनिसिपैलिटी स्टाफ, हॉस्पिटल स्टाफ जैसे लोग शामिल हैं। ...और फिर मुंबई की रफ्तार अचानक खामोश हो जाती है। हरि दादा बदला लेना चाहता है।फिल्म में नाना पाटेकर और रजनीकांत का मुकाबला देखने लायक है। दोनों के बीच के सीन बस पैसा वसूल लगेंगे, इतना ही समझिए। रजनी को हिन्दी और मराठी में सुनकर उनके फैन्स जरूर खुश होंगे।यहां जिक्र करना जरूरी है कि काला की पत्नी सेल्वी के रूप में ईश्वरी राव और काला के बेटे की गर्लफ्रेंड के रूप में पुयल यानी अंजली पाटील ने इतनी खूबसूरती से अपने किरदार को निभाया है कि उनसे आपको प्यार हो जाएगा। थीम सॉन्ग पहले से ही फेमस हो चुका है, जिसमें रजनीकांत ने बतौर राइटर डायरेक्टर शानदार परफॉर्म दिया है। रजनीकांत की फिल्मों की बात करें तो इस फिल्म का क्लाइमैक्स बेहतरीन है। रजनीकांत के टेक्निकल क्रू (सिनेमटॉग्रफर मुरली, म्यूज़िक डायरेक्टर संतोष नारायण, एडिटर श्रीकर प्रसाद और आर्ट डायरेक्टर रामालिंगम) ने बेहतरीन काम किया है। | 0 |
Chandermohan.sharma@timesgroup.com यकीनन, डायरेक्टर विक्रम भट्ट का नाम स्क्रीन पर देखते ही हॉल में बैठे दर्शक यही सोचने लगते हैं कि इस बार ऐसा क्या स्क्रीन पर दिखाने वाले हैं जिसे देखते ही डर के मारे हाथ-पांव फूलने लगे। दरअसल, भट्ट कैंप के साथ-साथ विक्रम ने जब अपने बैनर तले भी फिल्में बनाने का सिलसिला शुरू किया तो हर बार उन्होंने अपनी प्रॉडक्शन कंपनी की फिल्मों को सेक्स या हॉरर के करीब ही रखा। विक्रम भट्ट के निर्देशन में बनी हॉरर, सेक्सी फिल्म राज बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित रही तो इस फिल्म के बाद जहां भट्ट ब्रदर्स ने सेक्सी हॉरर फिल्में बनने का ऐसा ट्रेंड शुरू हुआ जो आज भी बरकरार है, इस सीरीज की तीन फिल्में बना चुकी भट्ट कंपनी अब इस सीरीज की चौथी फिल्म Raaz Reboot लेकर हाजिर है। अगर इस सीरीज की हिट और बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाली फिल्मों की बात की जाए तो इस सीरीज की बिपाशा बसु स्टारर दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित रही। Raaz Reboot में एकबार फिर विक्रम ने कुछ नया करने की बजाए फिर वहीं भूतियां सब्जेक्ट चुना है, इस बार फिल्म को स्टार्ट टु फिनिश रोमानिया में शूट किया गया है, सो लोकेशन और स्पेशल इफेक्ट्स और तकनीक के मामले में फिल्म में नयापन नजर आता है। कहानी : पहली बार शायना खन्ना (कृति खरबंदा) और रेहान खन्ना (गौरव अरोड़ा) रोमानिया में मिलते हैं, यहीं पर इन दोनों का प्यार परवान चढ़ता है और फिर दोनों यहीं शादी भी कर लेते हैं। शादी के बाद दोनों मुंबई चले गए, रेहान को मुंबई में ही अच्छी नौकरी भी मिल जाती है, लेकिन शायना को लगता है कि अगर रेहान को कामयाबी के शिखर तक पहुंचना है तो उसे रोमानिया में जाकर बसना चाहिए। आखिरकार, रेहाना शायना की बात मान लेता है और दोनों एकबार फिर रोमानिया लौट आते हैं। रोमानिया में रेहान को कंपनी की ओर से एक बड़ा सा बंगला मिलता है, इस बंगले में आने के बाद शायना को हर पल यही लगता है कि बंगले में कोई और भी है। रोमानिया आने के बाद रेहान अब शायना से दूर- दूर रहने लगता है। शायना को लगता है कि रेहान उससे कोई राज छुपा रहा है। दूसरी ओर शायना को बंगले में हर रात किसी और के होने की आहट सुनाई देती है। शायना जब भी रेहान को बंगले में किसी और के होने की बात करती है तो रेहान को लगता है यह सब शायना का वहम है। कहानी में ट्विस्ट उस वक्त आता है जब इंटरवल से चंद मिनट पहले आदित्य (इमरान हाशमी) की एंट्री होती है। आदित्य रोमानिया में ही रहता है, शादी से पहले शायना और आदित्य दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे, लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि दोनों की राहें जुदा हो गईं। अब बरसों बाद एकबार फिर आदित्य शायना से मिलता है। ऐक्टिंग : शायना के किरदार में कृति खरबंदा ने अच्छी ऐक्टिंग की है। कम फुटेज के बावजूद इमरान हाशमी अपने रोल में जमे। वहीं रेहान खन्ना के रोल में गौरव अरोड़ा ने अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए अच्छा होमवर्क किया है। निर्देशन : Raaz Reboot की सबसे बड़ी खामी यही है कि करीब दो घंटे की इस हॉरर फिल्म में हॉरर सीन न के बराबर है। फिल्म के क्लाइमैक्स में विक्रम ने कुछ असरदार हॉरर सीन्स पेश किए, लेकिन यह सीन भी इतने हॉरर नहीं कि हॉरर फिल्मों के शौकीनों को डरा सके। इस फिल्म की स्क्रिप्ट विक्रम भट्ट ने लिखी है लेकिन स्क्रिप्ट में नयापन कतई नहीं है। लेकिन विक्रम ने रोमानिया की बेहतरीन लोकेशंस पर फिल्म के सीन्स शूट किए। इंटरवल से पहले की फिल्म काफी सुस्त है, न जाने क्यों विक्रम ने फिल्म में अंग्रेजी का कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल किया है, हॉरर फिल्में अक्सर सिंगल स्क्रीन और बी सी सेंटरों पर अच्छा बिज़नस करती है, लेकिन करीब तीस फीसदी से ज्यादा अंग्रेजी डायलॉग वाली यह फिल्म इन सेंटरों पर टिक नहीं पाएगी। फिल्म की खबरें फेसबुक पर पढ़ने के लिए लाइक करें NBT Movies ऐक्टिंग : शायना के किरदार में कृति खरबंदा ने अच्छी ऐक्टिंग की है, कम फुटेज के बावजूद इमरान हाशमी अपने रोल में जमे, वहीं रेहान खन्ना के रोल में गौरव अरोड़ा ने अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए अच्छा होमवर्क किया है। संगीत : इस फिल्म राज रीबूट के साथ म्यूजिक कंपनी टी सीरीज का नाम जुड़ा है सो फिल्म का संगीत इस फिल्म का प्लस पॉइंट है, फिल्म के कई गाने पहले से कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। क्यों देखें : अगर हॉरर फिल्मों के पक्के शौकीन हैं तो इस फिल्म को भी देखा जा सकता है, लेकिन कुछ नया या खास होने की आस लेकर न जाएं वर्ना अपसेट होंगे। इमरान हाशमी के फैन्स को अपने चहेते स्टार के चंद सीन्स ही इस पूरी फिल्म में नजर आएंगे। Read Raaz Reboot Movie Review here in english | 0 |
अगर हम यंग डायरेक्टर नीरज पांडे की पिछली चंद फिल्मों की बात करते हैं तो उनकी लगभग सभी फिल्मों को दर्शकों ने सराहा तो क्रिटिक्स ने भी उनकी फिल्मों की वाहवाही की। नीरज के निर्देशन में कम बजट में बनी 'वेडनस डे' एक ऐसी फिल्म थी जिसमें न तो इंडस्ट्री का कोई नामचीन स्टार था और न ही फिल्म का बजट करोड़ों में था। अनुपम और नसीर के इर्द-गिर्द घूमती इस फिल्म ने टिकट खिड़की पर जबर्दस्त बिज़नस किया तो क्रिटक्स से भी फिल्म को कमाल का रिस्पॉन्स मिला। वहीं नीरज की अगली फिल्में 'बेबी', 'स्पेशल 26' के बाद आई मेगा बजट एम एस धोनी की बायॉपिक फिल्म, जो उनकी हिट मूवी लिस्ट में शामिल रही। अगर हम नीरज की फिल्मों के सब्जेक्ट की बात करें तो उनकी फिल्में अक्सर लीक से हटकर बनती हैं और इनमें हर बार कुछ नया सब्जेक्ट सामने आता है। नीरज के निर्देशन में बनी 'अय्यारी' भी मेगा बजट फिल्म है जिसका बजट प्रमोशन सहित 65 करोड़ के करीब आंका जा रहा है। नीरज ने इस फिल्म में पहली बार मनोज बाजपेयी और सिद्धार्थ मल्होत्रा को एकसाथ पेश किया। रिलीज से पहले फिल्म की रिलीज डेट टली तो बाद में सेंसर कमिटी ने फिल्म के संवेदनशील सब्जेक्ट को देखते हुए इसे डिफेंस मिनिस्ट्री की एक कमिटी के पास भी भेजा। आइए जानते है नीरज की इस फिल्म में क्या है खास स्टोरी प्लॉट: कर्नल अभय सिंह (मनोज बाजपेयी) और यंग मेजर जय बख्शी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) दोनों आर्मी की एक स्पेशल यूनिट के लिए काम करते हैं। बेशक इन दोनों के बीच अच्छी और जबर्दस्त ट्यूनिंग है, लेकिन अक्सर किसी न किसी बात को लेकर इन दोनों के बीच अच्छी-खासी बहस होती रहती है। अब यह बात अलग है कि जय बख्शी शुरू से कर्नल अभय सिंह को अपना गुरू मानता है। अचानक कुछ ऐसी घटनाएं होने लगती है जिनके बाद जय बख्शी दिल्ली से कहीं दूर जाने की प्लानिंग में लग जाता है। जय की इन अजीबोगरीब घटनाओं और उसके व्यवहार को देखकर अभय खुद हैरान है कि जय क्या कर रहा है। इसी बीच एक दिन अचानक जय गायब हो जाता है और यहीं से कहानी डिफेंस डील से लेकर देश की सुरक्षा के मुद्दे और सेना के आला अफसरों और इंटेलिजेंस ब्यूरों के साथ राजनीति के गलियारों तक घूमती है। नीरज अक्सर अपनी फिल्म की कहानी में हिरोइन के लिए जगह निकाल ही लेते हैं। 'स्पेशल 26' में भी उन्होंने कहानी में हिरोइन का प्लॉट जैसे फिट किया कुछ ऐसा ही हाल इस फिल्म का भी है। डिफेंस की इस कहानी में सोनिया यानी रकुल प्रीत की प्रेम कहानी भी साथ-साथ चलती है। फिल्म का क्लाइमैक्स चौंका देने वाला है। A post shared by Sidharth Malhotra (@s1dofficial) on Feb 12, 2018 at 5:50am PST The critics can't stop raving about #Aiyaary. Book your tickets now. #AiyaaryOutNow Book tickets here:… https://t.co/EGdsQBbZon— Aiyaary (@aiyaary) 1518769492000 फिल्म की फटॉग्रफी का जवाब नहीं। दिल्ली से शुरू हुई 'अय्यारी' की कहानी कश्मीर की बेहद खूबसूरत घाटियों से गुजरती हुई लंदन की नयनाभिराम लोकेशन तक पहुंचती है। नीरज के निर्देशन में इस बार पिछली फिल्मों जैसी कसावट और कहानी में ऐसी रफ्तार नहीं जो अंत तक दर्शकों को बांध कर रख सके। हालांकि कैमरामैन ने पूरी फिल्म में ऐसी खूबसूरत फटॉग्रफी की है जो आपको नजरें स्क्रीन से लगाए रखने को विवश करती हैं। वहीं नीरज ने फिल्म के कुछ खास सीन को रियल लोकेशंस पर शूट किया, जो देखने लायक है। निर्देशक नीरज पांडे अपनी इस फिल्म को एक सच्ची घटना से जुड़ी फिल्म बताते हैं, लेकिन इस बारे में उन्होंने ज्यादा डीटेल कहीं नहीं दी। वहीं नीरज ने फिल्म के कई सीन को बेवजह इस कदर खींचा कि फिल्म की रफ्तार बेहद धीमी है और फिल्म के सब्जेक्ट के मुताबिक ठीक नहीं कहीं जा सकती। वहीं नीरज ने बेवजह फिल्म में गाने फिट किए जो दर्शकों को हॉल से बाहर जाने का मौका देते हैं। न जाने क्यों नीरज ने रकुल और सिद्धार्थ की लव स्टोरी को इस फिल्म का हिस्सा बनाया। अगर ऐसा न होता तो नीरज आसानी से फिल्म को सव दो घंटे में पूरा कर पाते और यह फिल्म के बिज़नस के लिए भी अच्छा रहता। अगर हम ऐक्टिंग की बात करें तो बेशक मनोज बाजपेयी अंत तक पूरी फिल्म में दर्शकों को अपने किरदार से बांधे रखने में कामयाब रहे हैं। मनोज की ऐक्टिंग फिल्म का सबसे मेजर प्लस पॉइंट है तो वहीं सिद्धार्थ मल्होत्रा के लिए भी यह फिल्म खास है। जय बख्शी के किरदार को सिद्धार्थ ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है। रकुल प्रीत के लिए करने के लिए यूं भी कुछ खास नहीं था तो वहीं अनुपम और नसीर दोनों अपने रोल में परफेक्ट रहे।बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट Day 1 Rs 3.25 crore Day 2 Rs 4.25 crore Day 5 Rs 1.20 crore Total Rs 14.45 crore approx | 0 |
chandermohan.sharma@timesgroup.com बतौर डायरेक्टर सोहेल खान की पिछली फिल्म 'जय हो' बेशक उनके भाई सलमान खान के नाम और उनके दम पर सौ करोड़ क्लब में एंट्री कराने में कामयाब रही, लेकिन सोहेल की इस फिल्म को न तो दर्शकों की और से और न ही क्रिटिक्स की ओर से ही अच्छा रिस्पांस मिला। इतना ही नहीं, जय हो को मिले कमजोर रिस्पांस के बाद खुद सलमान खान भी इस कदर अपसेट हुए कि उन्होंने अपने फैमिली बैनर के तले बनने वाली फिल्मों से खुद को कुछ अर्से के लिए अलग करने का फैसला किया। शायद यहीं वजह रही बतौर डायरेक्टर सोहेल ने लंबे अर्से बाद एकबार फिर जब डायरेक्शन करने का फैसला किया तो ऐसी फिल्म के साथ जिसका बजट ज्यादा ना हो, इतना ही नहीं सोहेल ने अपनी इस फिल्म के लिए भाई को अप्रोच तक नहीं किया। सोहेल ने नवाजुद्दीन सिद्दीकी को कास्ट करने के बाद जब उन्हें कहानी डिस्कस करने के लिए बुलाया तो उस वक्त सलमान भी वहीं मौजूद थे। सोहेल ने बडे भाई की मौजूदगी में नवाज को कहानी और उनका किरदार सुनाई तो सलमान ने कहा सोहेल अगर तुम मुझे पहले इस कहानी को सुनाते तो मैं इस फिल्म को करता। बॉक्स आफिस पर नवाज की फिल्मों को इन दिनों अच्छा रिस्पांस मिल रहा है, उनकी ऐक्टिंग की फैंस ही नहीं, बल्कि क्रिटिक्स भी जमकर तारीफें करने में लगे है। ऐसे में रिलीज हुई इस फिल्म का नवाज और उनके फैंस में पहले से जमकर क्रेज है। फिल्म में नवाज के लीड किरदार को देखकर खुद सलमान ने उनकी जमकर तारीफें कीं, तो वहीं सोहेल की इस फिल्म के साथ अपने बैनर का नाम भी जोडा। कहानी : मुंबई की एक स्लम बस्ती में अपनी मौसी (सीमा बिस्वास) के साथ रहने वाला अली (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) गली गली में घूमकर चड्ढी-बनियान बेचने का काम करता है। अली के मां-बाप नहीं हैं, और मौसी ने ही उसे पालपोस कर बड़ा किया। अली इसी बस्ती में रहने वाले मकसूद (अरबाज खान) के साथ हफ्ता वसूली का भी काम करता है। मकसूद लोकल डॉन डेंजर भाई (निकितन धीर) के गिरोह के साथ जुडा है, जो डेंजर भाई के लिए रईस लोगों से वसूली का धंधा करता है। एक दिन मकसूद के साथ अली गोल्फ कोर्स में सेठ सिंघानिया से वसूली के लिए जाता है। सिंघानिया सेठ बडी देर से गोल्फ खेलने में बिजी है। मकसूद और अली दोनो ग्राउंड के एक कोने में बैठकर उससे रकम लेने का इंतजार करते हैं। लंबे इंतजार के बाद जब अली सिघांनिया के पास जाकर जल्दी रकम देने लिए कहता है, तो सिंघानिया उसे गोल्फ खेलने के लिए चैलेंज करता है। ग्राउंड में गोल्फ की जिस गेंद को सिंघानिया बहुत देर से गड्ढे में नहीं डाल पा रहा था उसे अली पहली बार में ही गड्ढे में डाल देता है। यहीं अली की मुलाकात मेघा (एमी जैक्सन) से होती है जो गोल्फ चैंपियन विक्रम (जस अरोरा) की मैनेजर है। अली को मेघा से पहली नजर में प्यार हो जाता है। गोल्फ ग्राउंड में बरसों से काम करने वाला किशन लाल भी अली के पड़ोस में ही रहता है। किशन लाल जब अली को बेहतरीन गोल्फ खेलते देखता है तो उसे अली के अंदर छिपा एक बेहतरीन गोल्फर नजर आता है, और किशन लाल अली को गोल्फ सिखाने का फैसला करता है। ऐक्टिंग : अली के किरदार में एकबार फिर नवाजुद्दीन ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। मौसी के रोल में सीमा बिस्वास दर्शकों में प्रभाव छोडने में कामयाब है तो मकसूद के रोल में अरबाज खूब जमे है। डेंजर भाई के रोल में निकितन धीर छा गए। ऐसा लगता है एमी जैक्सन को महज हिरोइन की खानापूर्ति के लिए लिया गया। कहानी के क्लाइमैक्स में नजर आए जैकी श्रॉफ अपना असर छोडने में कामयाब रहे। निर्देशन : फिल्म की स्क्रिप्ट काफी सिंपल और सीधी-सादी है। सोहेल ने फिल्म की शुरूआत बेहद मजेदार अंदाज में की है। एक के बाद एक कई पंच आपको हंसाते है, लेकिन इस सिंपल शुरूआत के बाद सोहेल गोल्फ के मैदान में जाकर कुछ ऐसे उलझे कि इंटरवल के बाद की फिल्म बेवजह खींची हुई लगने लगती है। अली और अरबाज के बीच वन लाइनर पंच दिलचस्प है। संगीत : फिल्म के गाने महज 2 घंटे की इस फिल्म की रफतार को रोकने काम करते हैं। क्यों देखें : अगर नवाजुद्दीन सिद्दीकी के पक्के फैन हैं, तो आप फ्रीकी अली से मिल आएं। अपसेट नहीं होंगे। | 1 |
आज के समय में भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग जैसी थीमों पर फिल्में सबसे ज्यादा प्रासंगिक हैं। ऐक्शन थ्रिलर 'सत्यमेव जयते' एक ऐसे आदमी की कहानी है जो काफी गुस्से और हिंसा के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ता है। फिल्म की कहानी ठीकठाक है लेकिन इसका प्रदर्शन सत्यता से कहीं दूर है। इस मसाला फिल्म में कई तत्व 70 और 80 के दशक की फिल्मों से लिए गए लगते हैं। फिल्म में हाई बैकग्राउंड म्युजिक, जरूरत से ज्यादा ड्रामा और बेशुमार ऐक्शन इसे कहीं-कहीं थकाऊ बना देती है। फिल्म की शुरूआत में वीर (जॉन अब्राहम) एक पुलिस वाले को जिंदा जला देता है। यह बाकी की फिल्म के लिए एक जमीन तैयार करती है और अगले 2 घंटे से ज्यादा समय तक फिल्म एक ही ढर्रे पर चलती रहती है। वीर हर उस जगह पहुंच जाता है जहां कोई पुलिस वाला कोई अपराध कर रहा होता है। फिल्म के बीच में एक ट्विस्ट जरूर आता है लेकिन इसके बाद भी फिल्म का फोकस भ्रष्ट पुलिसवालों को आग के हवाले कर देने पर ही रहता है। पूरी फिल्म अच्छाई और बुराई की लड़ाई और देशभक्ति के कुछ पाठ पढ़ाते हुए आगे बढ़ती है। फिल्म के लिए भारी-भरकम डायलॉग्स लिखे गए हैं लेकिन वे फिल्म पर ही भारी पड़ रहे हैं। मनोज बाजपेई और जॉन अब्राहम के किरदार की लड़ाई को कहीं बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था लेकिन स्क्रिप्ट इसमें फेल हो गई। डायरेक्टर मिलाप जावेरी के नजरिए के मुकाबले कलाकारों का प्रदर्शन काफी बेहतर है। जॉन अब्राहम ने लीड के रूप में कमान संभाली है। टायर फाड़ते हुए और बुरे लोगों की पिटाई करते हुए उन्होंने एक ऐंग्री यंग मैन की भूमिका पूरी लगन और ऊर्जा के साथ निभाया है। मनोज बाजपेई अपने टॉप फॉर्म में हैं। एक दृढ़ और ईमानदार पुलिस वाले की उनकी ऐक्टिंग फिल्म को थोड़ा मजबूत बनाती है। न्यूकमर आयशा शर्मा कैमरे पर काफी कॉन्फिडेंट नजर आईं, हालांकि डायलॉग्स पर उन्हें थोड़ा और मेहनत करने की जरूरत है। 'सत्यमेव जयते' इंतकाम और अच्छाई के सालों पुराने आइडिया को बेचने की कोशिश कर रही है लेकिन इसका अतिनाटकीय प्रदर्शन के कारण इसे हजम करना मुश्किल होता है। जॉन अब्राहम के होने की वजह से आप इसमें अच्छे ऐक्शन की अपेक्षा कर सकते हैं लेकिन कभी-कभी यह काफी भयानक हो जाता है। सच यह है कि फिल्म की कहानी आज के समय में काफी प्रासंगिक है लेकिन फिल्म में इस कहानी को कहने का तरीका इसे कमजोर बनाता है। | 0 |
बॉलिवुड की हॉरर फिल्मों में अक्सर हीरो अपनी हीरोइन को भूत के चंगुल से बाहर निकालने में मदद करता है। इनके अलावा फिल्म में कोई तांत्रिक या पादरी या मौलवी भी होते हैं जो भूत पर काबू पाने में हीरो की मदद करते हैं। राज और 1920 सीरीज की भूतिया फिल्में देखने के बाद अगर आप किसी टिपिकल भूत की तलाश में दोबारा जैसी फिल्म देखने जाएंगे तो आपको निराशा ही हाथ लगेगी। यहां आपको डराने वाला कोई टिपिकल भूत नहीं है बल्कि जैसा कि फिल्म के नाम से ही साफ हो रहा है कि इसमें आपके भीतर के पापी की बात की गई है। दरअसल यह बॉलिवुड टाइप की हॉरर फिल्म नहीं बल्कि 2013 में आई एक अमेरिकन हॉरर फिल्म की ऑफिशल रीमेक है। इसे हॉरर के बजाय आप एक साइकॉलजिकल थ्रिलर भी कह सकते हैं, जहां फिल्म के करैक्टर खुद की अनजानी यादों से जूझते नजर आते हैं। कहानी: फिल्म की कहानी लंदन में रहने वाले एलेक्स मर्चेंट (आदिल हुसैन), उसकी वाइफ लीजा मर्चेंट (लीजा रे) और उनके दोनों बच्चों नताशा मर्चेंट (हुमा कुरैशी) और कबीर मर्चेंट (साकिब सलीम) की है। जब कबीर 11 साल का था तो घर पर हुए एक हादसे में उसके माता-पिता की मौत हो गई थी। उसके बाद कबीर को सुधारगृह में भेज दिया गया था जबकि नताशा ने बाहर रहकर उस सारे वाकये पर रिसर्च की। नताशा का मानना है कि उनके घर में मौजूद एक एंटीक आईना इस सारे फसाद की जड़ है जिसने उसके पापा के हाथों उसकी मां का कत्ल करा दिया जबकि सुधारगृह में रहकर लौटे उसके भाई कबीर का मानना है कि उसके पिता ने मां को गोली मारी और उसके बाद उसने अपने पिता को गोली मार दी। इस उलझन से पार पाने के लिए नताशा कबीर को एक बार फिर उस आईने के साथ अपने पुराने घर में लेकर आती है जहां उसने बाकायदा कैमरा रिकॉर्डिंग का इंतजाम किया हुआ है। इसके बाद दोनों अपने बचपन की यादों को याद करते हैं और अपनी-अपनी यादों के सहारे खुद को सही ठहराने कोशिश करते हैं। इस बीच उनके साथ कुछ अजीब घटनाएं होती हैं। हालांकि उस आइने के रहस्य को जानने के लिए आपको पूरी फिल्म देखनी होगी। रिव्यू: असल जिंदगी में भाई-बहन हुमा और साकिब ने फिल्म में भाई-बहन के किरदार को संजीदगी से निभाया है और अपने लिए एक नए जॉनर की तलाश भी की है। वहीं, उनके पिता का रोल करने वाले आदिल हुसैन हमेशा की तरह ऐक्टिंग के मामले में लाजवाब रहे हैं जबकि लीजा रे ने भी अपने किरदार को बखूबी निभाया है। इनके अलावा, नताशा और कबीर के बचपन का रोल करने वाले बाल कलाकारों ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है। फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा बोझिल है तो सेकंड हाफ में फिर भी कहानी की परतें खुलती हैं। हालांकि कहानी इतनी बार मौजूदा दौर से फ्लैश बैक में जाती है कि कई बार आप उससे रिलेट भी नहीं कर पाते। अगर आप स्क्रीन से नजरें हटाएंगे तो हो सकता है कि आप कुछ मिस भी कर दें। वहीं लंदन बेस्ड कहानी होने के चलते फिल्म में इंग्लिश के डायलॉग भी काफी हैं। बावजूद इसके कहा जा सकता है कि डायरेक्टर प्रवाल रमन ने नया एक्सपेरिमेंट किया है और बॉलिवुड में हॉरर फिल्मों के नाम पर महज भूत-प्रेत से कुछ हटकर दिखाने की कोशिश की है। | 0 |
फिल्म जग्गा जासूस की शुरुआत में बजने वाली लाइनें 'सामने वाली सीट पर पैर न रखना, फेसबुक- वॉट्सऐप ऑफ रखना। म्यूजिकल कहानी है, दिल से बनाई है, दिल से सुनानी है' आपको इशारा दे देती है कि अब तीन घंटे आपको सारा ध्यान पर्दे पर फोकस करना होगा। वरना आप कुछ मिस कर देंगे। इससे पहले 'बर्फी' जैसी सुपरहिट फिल्म बना चुके अनुराग ने इस बार भी अलग अंदाज में म्यूजिकल सिनेमा रचा है, जिसे बनाने में उन्होंने अपनी जिंदगी के कई साल लगा दिए। 2014 में शुरू हुई इस फिल्म की शूटिंग बीते साल पूरी हुई। उसके बाद कई बार रिलीज़ डेट टलने के बाद आखिरकार 'जग्गा जासूस' रिलीज़ हो ही गई। फिल्म एक अनाथ और हकले बच्चे जग्गा (रणबीर कपूर) की कहानी है, जिसे एक हॉस्पिटल की नर्स ने पाला था। बचपन से जासूसी का शौक रखने वाले जग्गा की जिंदगी हॉस्पिटल में आए एक मरीज बादल बागची उर्फ टूटी-फ्रूटी (शाश्वत चटर्जी) से मिलकर बदल जाती है। वह न सिर्फ उसे गाकर अपनी बात बोलना सिखाता है, बल्कि उसे हॉस्पिटल से उसे अपने घर भी ले जाता है। दोनों हंसी-खुशी अपनी जिंदगी बिता रहे थे, लेकिन एक दिन पुलिस ऑफिसर सिन्हा (सौरभ शुक्ला) उनके घर पर छापा मारता है। उसे देखकर बागची जग्गा को लेकर भाग जाता है और उसका ऐडमिशन मणिपुर के एक बोर्डिंग स्कूल में करा देता है। इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें दरअसल, कोलकाता के प्रफेसर बादल बागची का कनेक्शन 1995 में वेस्ट बंगाल के पुरुलिया में गिराए गए हथियारों से भी था, जिसकी वजह से वह दुनिया की नजरों से छिपता घूम रहा था, लेकिन वह जग्गा को हर साल अलग-अलग लोकेशन से उसके बर्थडे पर एक विडियो कसेट भेजना नहीं भूलता था, जिसमें वह उसे जिंदगी के फलसफे बताता था। अपनी स्कूलिंग के दौरान कई जासूसी केस सुलझाने वाले जग्गा की मुलाकात इसी दौरान खोजी पत्रकार श्रुतिसेन गुप्ता (कटरीना कैफ) से होती है, जो कि एक मामले की खोजबीन के सिलसिले में वहां आई थी। अपने बैड लक की वजह से तमाम मुसीबतों में फंसने वाली श्रुति में जग्गा को अपने खोए हुए बाप की झलक दिखती है, इसलिए वह मुसीबत में फंसी श्रुति की मदद करता है। अपने 18वें जन्मदिन पर जब जग्गा को अपने पापा की ओर से भेजी जाने वाली विडियो कसेट नहीं मिलती, तो वह बेचैन हो उठता है। इसी बीच उसे पता चलता है कि उसका बाप जिसे वह टूटी-फ्रूटी कहता है, वह असल में कोलकाता का प्रफेसर बादल बागची है। उसकी तलाश में वह कोलकाता पहुंच जाता है। वहां उसकी मुलाकात सिन्हा से होती है, जिससे उसे अपने खोए हुए पिता का सुराग मिलता है। इसके बाद खोजी दिमाग का जग्गा श्रुति की मदद अपने पिता को खोजने के मिशन पर निकल पड़ता है, जहां उसका मुकाबला हथियारों की स्मगलिंग करने वालों के बड़े गैंग से होता है, जिसे बागची दुनिया के सामने लाना चाहता था। जग्गा जासूस पूरी तरह रणबीर कपूर की फिल्म है, जिन्होंने 18 साल के बच्चे के रोल में कमाल की ऐक्टिंग की है। खासकर हकले के रोल में गाकर अपनी बात बताते वक्त वह अच्छे लगते हैं। वहीं जग्गा के बचपन का रोल करने वाला बच्चा भी बेहद क्यूट लगता है। हालांकि, फिल्म की शूटिंग के दौरान रणबीर और कैट का ब्रेकअप हो गया था, लेकिन फिल्म में दोनों की केमिस्ट्री बढ़िया है और उस पर ब्रेकअप का असर कतई नजर नहीं आता। बादल बागची के रोल में शाश्वत चटर्जी ने कमाल कर दिया। कटरीना कैफ ने अपने रोल को बखूबी निभाया है। वहीं सौरभ शुक्ला ने भी करप्ट पुलिस ऑफिसर के रोल में बढ़िया ऐक्टिंग की है। डायरेक्टर अनुराग बसु ने प्रीतम के खूबसूरत संगीत की मदद से जग्गा जासूस बनाई है, जो कि पौने तीन घंटे आपका एंटरटेनमेंट करती है और एक अलग दुनिया की सैर कराती है। अनुराग ने हथियार स्मगलिंग के सीरियस टॉपिक के बैकग्राउंड में मजेदार फिल्म बनाई है। यह एक अलग जॉनर की फिल्म है, जो कि बॉलिवुड की रूटीन मसाला फिल्मों से अलग है। रणबीर के संवाद म्यूजिकल अंदाज में हैं, लेकिन वे बोझिल नहीं लगते। वहीं गाने भी फिल्म का हिस्सा लगते हैं। खासकर 'दिल उल्लू का पट्ठा' है और गलती से मिस्टेक फैन्स के बीच पहले से ही पॉपुलर हो चुके हैं। केपटाउन, थाईलैंड, मोरक्को और दार्जिलिंग की खूबसूरत लोकेशन पर रवि वर्मन की कमाल की सिनेमटॉग्रफी स्क्रीन पर आपको रोमांचित कर देती है। फैमिली फिल्म जग्गा जासूस के फर्स्ट हाफ में कटरीना कॉमिकल अंदाज में जग्गा की कहानी से रूबरू कराती हैं। वहीं सेकंड हाफ भी मजेदार है। हालांकि दो-सवा दो घंटे की फिल्मों के दौर में अनुराग फिल्म को थोड़ा एडिट करके इसे ढाई घंटे तक जरूर समेट सकते थे। | 1 |
बैनर :
यूटीवी मोशन पिक्चर्स, एसएलबी फिल्म्स
निर्माता :
संजय लीला भंसाली, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक :
राघव डार
संगीत :
अजय गोगावले, अतुल गोगावले, शमीर टंडन, कविता सेठ, हितेश सोनिक
कलाकार :
प्रतीक बब्बर, कल्कि कोएचलिन, दिव्या दत्ता, मकरंद देशपांडे
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 1 घंटा 42 मिनट * 12 रील
‘माई फ्रेंड पिंटो’ किस उद्देश्य से बनाई गई है, यह शायद इससे जुड़े लोगों को भी पता नहीं होगा। कुछ फिल्में मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन ये तो बोरियत से भरी है। मनोरंजन और इसमें छत्तीस का आंकड़ा है।
कुछ फिल्में संदेश देने के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन इस फिल्म को देख यह संदेश मिलता है कि अपने दिल की बात सुनो, जुआ खेलते वक्त दिल जो बोले उस नंबर पर दांव लगाओ तो मालामाल हो जाओगे। फिल्म के नाम में दोस्त शब्द आया है, लेकिन दोस्ती-यारी जैसी कोई बात सामने नहीं आती है।
लगता है कि निर्देशक राघव डार पर राज कपूर का प्रभाव है। राज कपूर की फिल्मों में नायक बहुत भोला-भाला रहता है, शहर आता है, लोगों की भलाई करता है और लोग उसे ही ठग लेते हैं। ‘माई फ्रेंड पिंटों’ का नायक माइकल पिंटो भी ऐसा ही है। सीधा-सादा, दिल की बात सुनने वाला। कुत्तों से उसे भी प्यार है। उसका गेटअप भी कहीं-कहीं राज कपूर की याद दिलाता है। ऐसे किरदारों के जरिये जो राज कपूर जो फिल्में बनाते थे, वो बात ‘माई फ्रेंड पिंटो’ में कहीं नजर नहीं आती है।
मां की मौत के बाद माइकल पिंटो अपने बचपन के दोस्त समीर से मिलने मुंबई चला आता है। समीर को उसने कई खत लिखे जिसका उसने कोई जवाब नहीं दिया। पिंटो के साथ-साथ हमेशा कोई न कोई गड़बड़ी होती रहती है। वह टकराता रहता है और टूट-फूट होती रहती है।
समीर की बीवी पिंटो को बिलकुल नहीं चाहती। न्यू ईयर की पार्टी मनाने के लिए पति-पत्नी पिंटों को घर में बंद कर निकल पड़ते हैं। पिंटो किसी तरह बाहर निकलता है और सूखे पत्ते की तरह जहां हवा ले जाती है इधर-उधर घूमता रहता है। कई मजेदार लोगों से उसकी मुलाकात होती है, जिसमें जुआरी भी है और डॉन भी। सब उसके दोस्त बनते जाते हैं क्योंकि पिंटो की संगत उनकी जिंदगी बदल देती है।
इस तरह की फिल्में पहले भी बन चुकी है और पिंटो में नयापन नजर नहीं आता है। साथ ही फिल्म में मनोरंजन का अभाव है। जो सीन दर्शकों को हंसाने के लिए, उनका मनोरंजन करने के लिए गढ़े गए हैं, वो बेहद ऊबाऊ हैं। डॉन वाला ट्रेक तो बोरियत से भरा है।
कई ट्रेक निर्देशक ने एक साथ चलाए हैं, लेकिन किसी में भी दम नहीं है। कुछ गाने भी फिल्म में डाले गए हैं, जो सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। प्रतीक और कल्कि के रोमांटिक ट्रेक को ज्यादा फुटेज दिए जाने थे, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया।
प्रतीक बब्बर ने पिंटो के भोलेपन को अच्छे तरीके से अभिनीत किया है। कल्कि का रोल छोटा है, लेकिन वे अपना असर छोड़ती हैं। राज जुत्शी और मकरंद देशपांडे ने जमकर बोर किया है। दिव्या दत्ता का अभिनय बेहतर है।
कुल मिलाकर ‘माई फ्रेंड पिंटो’ से दोस्ती करने में कोई मतलब नहीं है।
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कुल मिलाकर ‘न्यूयॉर्क’ देखना बुरा सौदा नहीं है।
निर्माता :
आदित्य चोपड़ा
निर्देशक :
कबीर खान
कहानी :
आदित्य चोपड़ा
पटकथा-संवाद-गीत :
संदीप श्रीवास्तव
संगीत :
प्रीतम
कलाकार :
जॉन अब्राहम, कैटरीना कैफ, नील नितिन मुकेश, इरफान
यू/ए सर्टिफिकेट
/11 की घटना के बाद लोगों में अविश्वास बढ़ा है। अमेरिकन संघीय एजेंसी एफबीआई ने डिटेंड के तहत अमेरिका में बसे 1200 एशियाई लोगों को अमानवीय यातनाएँ दीं। 1000 को सबूतों के अभाव में कुछ वर्षों बाद छोड़ा गया। इनमें से अधिकांश की आज भी दिमागी हालत खराब है। इन संदर्भों को लेकर निर्देशक कबीर खान ने शक, अविश्वास और अत्याचार का हाईटेक ड्रामा फिल्म न्यूयॉर्क के जरिये प्रस्तुत किया है।
सैम (जॉन अब्राहम) एशियाई मूल का अमेरिकी नागरिक है। उसे अमेरिकन होने पर गर्व है। माया (कैटरीना कैफ) कॉलेज में उसके साथ पढ़ती है। उमर (नील नितिन मुकेश) दिल्ली से आगे की पढ़ाई करने के लिए न्यूयॉर्क जाता है। ये तीनों युवा कॉलेज लाइफ का पूरा मजा लेते हैं। अचानक 9/11 की घटना घटती है और उसके बाद तीनों की जिंदगी में बदलाव आ जाता है।
माया को उमर चाहने लगता है, लेकिन जब उसे पता चलता है कि माया, सैम को पसंद करती है तो वह उनकी जिंदगी से चला जाता है। सैम एफबीआई की चपेट में आ जाता है और उसे कई तरह की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। बाद में उसे रिहा किया जाता है।
कहानी वर्ष 2009 में आती है। एफबीआई एजेंट रोशन (इरफान खान) उमर को पकड़ लेता है। उसे शक है कि सैम आतंकवादियों से मिला हुआ है। वह उमर को सैम के घर भेजता है ताकि उसके खिलाफ सबूत जुटाए जा सकें। क्या सैम आतंकवादी है? क्या वह अपने दोस्ती की जासूसी करेगा? जैसे प्रश्नों का सामना उमर को करना पड़ता है।
आदित्य चोपड़ा ने कहानी में रोमांस और थ्रिल के जरिये अपनी बात कही है। आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता पूरी फिल्म में बनी रहती है। निर्देशक कबीर खान ने आदित्य की कहानी के जरिये बहुत ही उम्दा विषय उठाया है। इस विषय पर एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी, लेकिन कमर्शियल फॉर्मेट में प्रस्तुत करने की वजह से कहीं-कहीं विषय की गंभीरता कम हो गई है। ‘काबुल एक्सप्रेस’ को डॉक्यूमेंट्री कहा गया था, शायद इसीलिए कबीर ने फिल्म को मनोरंजक बनाने की कोशिश की है। बड़ा बजट भी इसका एक कारण हो सकता है।
इस फिल्म के जरिये उन्होंने बताया है कि आम मुसलमान अमेरिकी नागरिक के खिलाफ नहीं है। उसका गुस्सा एफबीआई या ऐसी सरकारी संस्थाओं के खिलाफ है, जिन्होंने जाँच की आड़ लेकर बेगुनाह लोगों को सताया है।
एफबीआई एजेंट रोशन जो कि मुसलमान है, के संवादों (ये अमेरिका में ही हो सकता है कि एक मुसलमान के बच्चे को बेसबॉल की टीम में शामिल किया जाए और उसे हीरो की तरह कंधों पर उठाया जाए/ अब मुसलमानों को आगे आकर अपनी खोई इज्जत को कायम करना होगा) के जरिये उन्होंने अमेरिका की तारीफ भी की है।
दूसरे हॉफ में फिल्म पर से कबीर का नियंत्रण छूट सा गया। कई गैरजरूरी दृश्यों ने फिल्म की लंबाई को बेवजह बढ़ाया। 37 वर्षीय जॉन को विद्यार्थी के रूप में देखना अटपटा लगता है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी को भी उसी अंदाज में दिखाया गया है, जैसा कि भारतीय कॉलेजों को फिल्मों में दिखाया जाता है। फिल्म में अंग्रेजी के कई संवाद हैं, लेकिन हिंदी उप-शीर्षक दिए गए हैं, ताकि अँग्रेजी नहीं जानने वालों को तकलीफ न हो।
अभिनय के लिहाज से जॉन अब्राहम की यह अब तक की बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है। सैम का किरदार उन्होंने उम्दा तरीके से निभाया है। दो फिल्म पुराने नील नितिन मुकेश भी जॉन से किसी मामले में कम नहीं रहे। कैटरीना से जब वे सात साल बाद मिलते हैं और कैटरीना उन्हें बताती है कि उन्होंने जॉन से शादी नहीं की है तब उनके चेहरे के भाव देखने लायक हैं।
कैटरीना कैफ ने साबित किया है कि वे अभिनय भी कर सकती हैंं, लेकिन पुरानी फिल्मों की तुलना में वे कम खूबसूरत लगीं। इरफान (खान सरनेम उन्होंने हटा लिया है) एक नैसर्गिक अभिनेता हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपने अभिनय का कमाल दिखाया है।
असीम मिश्रा की फोटोग्राफी ऊँचे दर्जे की है। जूलियस पैकिअम का बैकग्राउंड स्कोर उम्दा है। संगीतकार प्रीतम फॉर्म में नजर आए। है जुनून, मेरे संग और तूने जो कहा था लोकप्रिय हो चुके हैं।
कुल मिलाकर ‘न्यूयॉर्क’ देखना बुरा सौदा नहीं है।
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शादी का लड्डू ऐसा है जो खाए पछताए और जो न खाए वो भी पछताए। ज्यादातर लोग इसे खाकर ही पछताना पसंद करते हैं। कुछ लोगों का दो-तीन बार भी इस लड्डू खाने के बावजूद मन नहीं भरता। हालांकि अब ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ रही है जिन्हें शादी नामक संस्था पर विश्वास नहीं है।
शादी के बाद बच्चा आता है तो अक्सर पति-पत्नी के बीच के समीकरण उलट-पुलट जाते हैं। पति को लगता है कि उसकी बीवी पर बच्चे की मां हावी हो गई है। उनकी लाइफ में रोमांस नहीं बचा है। सेक्स लाइफ भी डिस्टर्ब हो जाती है क्योंकि पति-पत्नी के बीच बच्चा सोने लगता है। जवाबदारी बहुत बढ़ जाती है। लांग ड्राइव, होटल में डिनर, दोस्तों के साथ पार्टी, खेल का आनंद लेना अब सब कुछ 'बेबी' की मर्जी से तय होता है। इसी के इर्दगिर्द बुनी गई है 'शादी के साइड इफेक्ट्स' की कहानी।
सिड रॉय (फरहान अख्तर) और त्रिशा मलिक रॉय (विद्या बालन) की जिंदगी में सब कुछ सही चलता रहता है, जब तक कि वे दो से तीन नहीं होते। अपने रोमांस में तड़का लगाने के लिए वे अक्सर पब में जाते हैं, अनजानों की तरह मिलते हैं और फिर रोमांस करते-करते होटल के कमरे में चले जाते हैं। उनका रोमांस देख होटल का सिक्यूरिटी वाला सिड को बुलाकर कहता है कि हमारे होटल में इस तरह की हरकतें बर्दाश्त नहीं की जाएगी, लेकिन जब सिड उसे बताता है कि वह पति-पत्नी हैं तो सिक्यूरिटी वाला आश्चर्यचकित रह जाता है। सिड उसे सफल शादी-शुदा जिंदगी का राज बताता है कि जब पति गलती करे तो पत्नी को 'सॉरी' कहो और जब पत्नी की गलती हो तो भी पति ही 'सॉरी' बोले।
दीवार पर सिड और त्रिशा के लगे फोटो कम होते जाते हैं और उनकी जगह लेता है उनके बच्चे का फोटो। उसी तरह सिड और त्रिशा की जिंदगी में भी बच्चा आकर उनमें दूरियां पैदा करता है। अब दोनों के लिए एक-दूसरे के पास वक्त नहीं है। सारी बातें बेबी के इर्दगिर्द घूमती है और इससे सिड परेशान हो जाता है।
इंटरवल तक फिल्म बेहतरीन है। एक शादी-शुदा कपल के रिश्ते को आधार बनाकर बेहतरीन हास्य और रोमांस का ताना-बाना बुना गया है। इस दौरान कई ऐसे दृश्य आते हैं जब हंसी रोकना मुश्किल हो जाता है। शादी-शुदा लोगों को सिड और त्रिशा में अपना अक्स नजर आता है तो कुंआरों को कुछ सीखने को मिलेगा।
दूसरे हाफ में पहले हाफ जैसी कसावट नजर नहीं आती है। फिल्म खींची हुई लगती है क्योंकि कुछ गैर-जरूरी प्रसंगों को फिल्म में डाल दिया गया है। त्रिशा का जीजा (राम कपूर) सिड को सलाह देता है कि उसे झूठ बोलकर हर दस-पंद्रह दिनों में दो-तीन होटल में बिताने चाहिए, जहां वह मनमाफिक जिंदगी जी सके।
सिड ऐसा ही करता है, लेकिन जब पैसे कम पड़ने लगते हैं तो वह पेइंग गेस्ट बन कर रहने लगता है। पेइंग गेस्ट बन कर रहने वाला प्रसंग और वीर दास द्वारा निभाया गया किरदार स्क्रिप्ट में बेवजह ठूंसा गया है। स्क्रिप्ट कई बार कमजोर पड़ती है। ऐसा लगता है कि पति-पत्नी के बीच यदि कुछ ठीक नहीं है तो इसका जवाबदार पत्नी की ही है। वह अपने पति पर ध्यान नहीं दे रही हैं कसूरवार वही है। पति ये समझने की कोशिश नहीं करता कि अब उसकी पत्नी मां भी है। फिल्म के लेखक और निर्देशक साकेत चौधरी इस मुद्दे पर भटक गए हैं, हालांकि क्लाइमैक्स में उन्होंने पत्नी को भी होशियार दिखाकर न्याय करने की कोशिश की है।
सिड को एक स्ट्रगलर दिखाया गया है, त्रिशा बच्चे के बाद नौकरी छोड़ चुकी है, लेकिन जिस तरीके से वे जीते हैं, उसे देख प्रश्न उठता है कि उनके पास इतने पैसे कहां से आ रहे हैं? इला अरुण का आंटी वाला किरदार भी अपनी छाप छोड़ नहीं पाया। फिल्म के दूसरे हिस्से में यदि स्क्रिप्ट पर थोड़ी मेहनत की गई होती बेहतर होता। स्क्रिप्ट राइटर ने नए किरदारों को जोड़ा, लेकिन वे खास असर नहीं छोड़ पाएं।
साकेत चौधरी का निर्देशन अच्छा है। उन्होंने भावुकता से भरी प्रस्तुति के बजाय हास्य के साथ कहानी को प्रस्तुत किया है। इमोशन सही मात्रा में डाला गया है और अतिभावुकता से बचे हैं। अपने सारे कलाकारों से उन्होंने अच्छा काम लिया है और कॉमेडी दृश्यों को उन्होंने बेहतरीन तरीके से फिल्माया है।
फरहान अख्तर का नाम यदि फिल्म से जुड़ा है तो यह इस बात की गारंटी हो गई है कि फिल्म में कुछ हटकर देखने को मिलेगा। 'शादी के साइड इफेक्ट्स' में उनकी कॉमिक टाइमिंग देखने लायक है। सिड के किरदार में उन्हें भावना, कुंठा, रोमांस और हास्य जैसे भाव दिखाने को मिले और फरहान कही भी कमजोर साबित नहीं हुए।
फरहान की तुलना में विद्या का रोल थोड़ा कमजोर है, लेकिन विद्या अपनी बेहतरीन एक्टिंग से दबदबा साबित करती हैं। फरहान के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी है। दोनों का अभिनय ही फिल्म को देखने लायक बना देता है। राम कपूर, वीर दास, गौतमी कपूर, इला अरुण और पूरब कोहली ने भी अपने हिस्से का काम बखूबी किया है। रति अग्निहोत्री को सीन ज्यादा संवाद कम मिले।
प्रीतम का संगीत निराश करता है। अरशद सईद के संवाद उल्लेखनीय हैं और कई बार दृश्य पर संवाद भारी पड़ता है। खासतौर पर फरहान की बीच-बीच में जो कमेंट्री है वो बेहद गुदगुदाने वाली है। 'मेरी खामोशी भी अब झूठ बोलने लगी है' और 'चुप रहता हूं तो घुटन होती है और बोलता हूं तो झगड़ा होता है' जैसे गंभीर संवाद भी सुनने को मिलते हैं।
शादी के साइड इफेक्ट्स में बेहतरी की गुंजाइश थी, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि यह अच्छी फिल्म नहीं है। कुछ कमियों के बावजूद ये फिल्म मनोरंजन करने में कामयाब होती है।
बैनर :
प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशन्स, बालाजी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
रंगिता प्रीतीश नंदी, प्रीतीश नंदी, एकता कपूर
निर्देशक :
साकेत चौधरी
संगीत :
प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार :
फरहान अख्तर, विद्या बालन, राम कपूर, वीर दास, इला अरुण, पूरब कोहली, रति अग्निहोत्री
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट
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विवादों में रही फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा' हमारे समाज में महिलाओं की आजादी को जकड़ने वाली बेड़ियों पर किस हद तक वार करती है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहली बार फिल्म देखने के बाद सेंसर बोर्ड ने इसे सेंसर सर्टिफिकेट देने से ही इनकार कर दिया था। उसके बाद अपीलेट ट्राइब्यूनल से इस फिल्म को जैसे-तैसे कुछ कट्स और 'ए' सर्टिफिकेट के साथ रिलीज़ की मंजूरी मिली। डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने फिल्म में दिखाया है कि हमारे समाज में औरतों के दुखों की कहानी एक जैसी ही है, फिर चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाली हो, चाहे कुवांरी हो, शादीशुदा हो या फिर उम्रदराज। कोई जींस और अपनी पसंद के कपड़े पहनने की लड़ाई लड़ रही है, कोई उसे सेक्स की मशीन समझने वाले पति से अपने पैरों पर खड़ी होने की लड़ाई लड़ रही है, कोई अपनी मर्जी से सेक्स लाइफ जीने आजादी चाहती है, तो कोई उम्रदराज होने पर भी अपने सपनों के राजकुमार को तलाश रही है। दरअसल, वे सब अपनी फैंटसी को सच होते देखना चाहती हैं। फिल्म के एक सीन में एक लड़की कहती है, 'हमारी गलती यह है कि हम सपने बहुत देखते हैं।' दरअसल, यह फिल्म लड़कियों और महिलाओं को उन सपनों को हकीकत में तब्दील करने का हौसला देती है, फिर नतीजा चाहे जो हो। 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा' चार अलग-अलग उम्र की महिलाओं की कहानी है, जो अपनी जिंदगी को बिंदास अंदाज में अपने मुताबिक जीना चाहती हैं, लेकिन अलग-अलग रूप में मौजूद नैतिकता के ठेकेदार बार-बार उनकी राह में रोड़ा बनते हैं। अपने टाइटल के मुताबिक भोपाल बेस्ड इस फिल्म की शुरुआत एक सीन से होती है, जिसमें एक बुर्क़ा पहने एक लड़की रिहाना (प्लाबिता) एक मॉल से लिपस्टिक चुराती है और फिर वॉशरूम में जींस-टीशर्ट चेंज करके और लिपस्टिक लगाकर कॉलेज में अपने फ्रेंड्स के बीच जाती है। फिल्म में ऊषा परमार (रत्ना पाठक) एक 55 साल की एक विधवा औरत के रोल में हैं जो अपने भांजों के साथ रहती हैं। वह धार्मिक किताबों में छिपाकर फैंटसी नॉवल पढ़ती है और उसकी नायिका रोजी की तरह अपनी जिंदगी में भी किसी हीरो की तलाश कर रही है। इसी चाहत में वह सत्संग के बहाने एक हैंसम कोच से स्विमिंग सीखना शुरू कर देती हैं। तीसरी शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) एक सेल्सवुमन है जो अपने पति की चोरी से घर-घर जाकर सामान बेचती है। लेकिन एक दिन जब वह अपने पति को किसी दूसरी औरत के साथ घूमते देख लेती है तो उसे बड़ा झटका लगता है। जबकि चौथी लीला (अहाना कुमार) मेकअप आर्टिस्ट है जो अपने फटॉग्रफर बॉयफ्रेंड से शादी रचाना चाहती है लेकिन वह उसे भाव नहीं डालता और बस उसका इस्तेमाल करता है। इंटरवल तक यह चारों अपने सपनों को सजाती रहती हैं और इंटरवल के बाद उन्हें सच करने की कोशिश करती हैं। हालांकि वे अपने सपनों को सच कर पाने में कितना कामयाब हो पाती हैं यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने बेहद जोरदार अंदाज में महिलाओं की समस्याओं को पर्दे पर उतारा है और फिल्म में समाज की कड़वी सच्चाई से रूबरू कराया है, जहां औरत को महज एक भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता। वहीं नॉवल की हीरोइन रोजी की फैंटेसी को बेहद खूबसूरत अंदाज में चारों मुख्य किरदारों की कहानी में पिरोया गया है। बैकग्राउंड स्कोर में रोजी की कहानी पढ़ने वाली रत्ना पाठक ने अपनी जिंदगी जीने को अपने अंदाज में जीने की चाहत रखने वाली एक उम्रदराज औरत के रोल में एक बार फिर बेहतरीन ऐक्टिंग की है। आपको उस पर हंसी भी आती है, तो कभी तरस भी। वहीं अपने पति से आजादी की लड़ाई लड़ रहीं कोंकणा सेन शर्मा ने दिखा दिया कि क्यों उन्हें बॉलिवुड की बेहतरीन अदाकाराओं में से एक माना जाता है। अहाना कुमार ने मेकअप आर्टिस्ट लड़की के रोल में अच्छा काम किया है। खासकर कई हॉट सीन्स को उन्होंने बेहद सहजता से शूट किया है। साथ ही इतनी सीनियर ऐक्टर्स के बीच प्लाबिता ने भी अपने रोल को बखूबी जिया है। घर से बुर्क़ा पहनकर अपने सपनों को जीने की चाहत में निकलने वाली प्लाबिता से नई उम्र की लड़कियां अपने आपको बखूबी कनेक्ट कर पाएंगी। वैसे, अलंकृता ने हर उम्र की महिलाओं के लिए फिल्म के किरदारों से खुद को कनेक्ट करने की खूब गुजाइंश रखी है। | 1 |
स्टीरियो टाइप कैरेक्टर्स और घिस चुके फॉर्मूलों को लेकर सोहेल खान ने 'फ्रीकी अली' फिल्म बनाई है। निरुपा रॉय नुमा मां, गरीबों की बस्ती, अमीर-गरीब का भेद, हिंदू-मुसलमान का भाईचारा, गोरी चिट्टी हीरोइन, सड़कछाप हीरो को अब कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है।
अफसोस की बात तो यह है कि इन फॉर्मूलों को भी सोहेल ठीक से पेश नहीं कर पाए। कहानी में नई बात यह डाली कि बस्ती में रहने वाला अली (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) अमीरों का खेल समझे जाने वाले गोल्फ में चैम्पियन बन जाता है। आइडिया तो अच्छा था, लेकिन इस कहानी को कहने के लिए जिस तरह का माहौल, किरदार और घटनाएं बनाई गई है वो फिल्म को चालीस साल पीछे ले जाती है।
कहानी भी सोहेल खान ने ही लिखी है, लेकिन वे समझ ही नहीं पाए कि बात को किस तरह आगे बढ़ाया जाए। कहानी को थोड़ा आगे बढ़ाने के बाद वे दिशा भूल गए और किसी तरह उन्होंने फिल्म को खत्म किया। फिल्म को दिलचस्प बनाने के लिए उन्होंने कई ट्रैक डाले, लेकिन फिल्म को उबाऊ होने से नहीं बचा पाए।
यह एक अंडरडॉग की कहानी है, लेकिन कोई रोमांच इसमें नहीं है। दोस्त और मां वाले ट्रेक में इमोशन नहीं है। रोमांस को कहानी में बेवजह फिट करने की कोशिश की गई है। फिल्म में कॉमिक अंदाज में खलनायक भी है जो न डराता है और न ही हंसाता है। ये तमाम ट्रैक्स अधपके हैं इसलिए बेस्वाद लगते हैं।
क्लाइमैक्स को धमाकेदार बनाने के लिए जैकी श्रॉफ को लाया गया है, लेकिन उनके लिए न ढंग की लाइनें लिखी गई हैं और न ही अच्छे दृश्य। जैकी ने इतना घटिया काम शायद ही पहले कभी किया हो।
सोहेल खान फूहड़ कॉमेडी शो में जज की भूमिका चुके हैं। इन शो की तरह कॉमेडी फिल्म में भी रखी गई है। भला जब मुफ्त में दिखाई जा रही कॉमेडी लोग देखना पसंद नहीं करते तो पैसे खर्च कर कौन ऐसी बकवास कॉमेडी देखना पसंद करेगा।
फिल्म का दूसरा हाफ तो इतना बुरा है कि, घर जाने, सोने, पॉपकॉर्न खाने, जैसे विकल्पों पर आप विचार करने लगते हैं। यह हिस्सा गोल्फ को समर्पित है। भारत में बमुश्किल चंद प्रतिशत लोग यह खेल समझते हैं। दर्शकों को समझ ही नहीं आता कि विलेन जीत रहा है या हीरो, तो भला रोमांच कैसे आएगा। भला होता यदि इस खेल के कुछ नियम कायदे दर्शकों को बता दिए जाते।
सोहेल का निर्देशन रूटीन है। उन्होंने कहानी को ऐसा पेश किया है मानो स्कूल/कॉलेज का कोई नाटक देख रहे हों।
गली-गली चड्डी बेचने वाले से गोल्फर बनने वाले किरदार को नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने निभाया है। वे फिल्म को मजेदार बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन स्क्रिप्ट से उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। अरबाज खान ने बेमन से अपना काम किया है। एमी जैक्सन को तो ज्यादा अवसर ही नहीं मिले हैं। निकितिन धीर ने बोर किया है। जस अरोरा प्रभावित नहीं कर पाए।
फिल्म के गीत-संगीत में कोई दम नहीं है।
फ्रीकी अली में एक भी ऐसा कारण नहीं है जिसके लिए टिकट खरीदा जाए। यह बिलकुल फीकी फिल्म है।
बैनर : सलमान खान फिल्म्स
निर्माता : सलमान खान
निर्देशक : सोहेल खान
संगीत : साजिद अली-वाजिद अली
कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, एमी जैक्सन, अरबाज खान, निकितिन धीर, जस अरोरा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए
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बॉलीवुड में हर सप्ताह 'कचरा' फिल्में भी रिलीज होती हैं। फिल्म समीक्षक इन्हें समीक्षा करने के लायक नहीं मानते हैं और अधिकांश लोग इनके बारे में जानने के इच्छुक भी नहीं होते। इन घटिया फिल्मों को तब थोड़ी-बहुत चर्चा मिलती है जब किसी शुक्रवार कोई बड़ी या बेहतर कलाकार/निर्देशक की कोई फिल्म रिलीज नहीं होती है।
26 सितंबर वाला शुक्रवार कुछ ऐसा ही है। आधा दर्जन से ज्यादा फिल्में रिलीज हुई हैं और इनमें से ज्यादातर फिल्मों के नाम लोगों ने सुने भी नहीं होंगे। इनमें से एक है देसी कट्टे। इसे सी-ग्रेड फिल्म के चश्मे से भी देखे तो भी यह मजा नहीं देती। पूरी फिल्म बेहद उबाऊ है और इसे देखना किसी सजा से कम नहीं है।
देश भर में अवैध पिस्तौल कम दाम में उपलब्ध है, जिन्हें देसी कट्टा कहा जाता है। फिल्म की शुरुआत को देख लगता है कि इस देसी कट्टे के इर्दगिर्द यह फिल्म घूमेगी, लेकिन आरंभिक चंद रीलों के बाद यह फिल्म अपना रास्ता बदल लेती है। देसी कट्टे का रंग छोड़ इस पर दोस्ती, खेलकूद और बाहुबलियों के खूनी खेल का रंग चढ़ जाता है। यह सब कुछ इतने बचकाने और सतही तरीके से दिखाया गया है कि आप उस घड़ी को कोसने लगते हैं जब इस फिल्म को देखने का आपने निर्णय लिया था। निर्देशन कमजोर है या लेखन। अभिनय कमजोर है या संवाद। तय कर पाना मुश्किल है।
ज्ञानी (जय भानुशाली) और पाली (अखिल कपूर) बचपन के दोस्त हैं। अपराध की दुनिया में वे जज साहब (आशुतोष राणा) की तरह नाम कमाना चाहते हैं। देसी कट्टों का अवैध व्यापार करने वाले ये दोस्त निशानेबाजी में बेहद माहिर हैं। इन पर मेजर सूर्यकांत राठौर (सुनील शेट्टी) की नजर पड़ती है। मेजर किसी कारणवश पिस्टल चैम्पियनशिप जीतने का ख्वाब पूरा नहीं कर पाए। वे ज्ञानी और और पाली को प्रोशनल शूटर की कोचिंग देते हुए शूटिंग प्रतियोगिता के लिए तैयार करते हैं। इसी बीच जज साहब ज्ञानी और पाली को अपने पास बुलाते हैं।
पाली अपराध की दुनिया में नाम कमाने का इसे स्वर्णिम अवसर मानते हुए जज साहब के लिए काम करने लगता है जबकि ज्ञानी खेल की दुनिया में प्रसिद्धी पाना चाहता है। दोनों की राहें जुदा हो जाती हैं। क्या ये दोस्त फिर एक होते हैं? क्या ज्ञानी शूटिंग स्पर्धा में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीत पाता है? अपराध की दुनिया में पाली का क्या होता है? इनका जवाब फिल्म का सार है।
फिल्म की स्क्रिप्ट बेहद लचर है। इसमें ऐसे कई प्रसंग हैं जिनका कोई मतलब नहीं है। लेखक ने ट्वीस्ट देने की दृष्टि से इन्हें रखा है, लेकिन ये सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आए हैं। जैसे, ज्ञानी को उसके अतीत में अपराधी होने के कारण खेल प्रतियोगिता में भाग लेने से रोक दिया जाता है, लेकिन एक पुलिस ऑफिसर का अचानक हृदय परिवर्तन होता है और ज्ञानी प्रतियोगिता में भाग लेता है। यह बात पूरी तरह से अनावश्यक लगती है। ज्ञानी और पाली का शूटिंग खेल में हिस्सा लेने वाला पूरा ट्रेक निहायत ही घटिया है। इसे न अच्छा लिखा गया है और न ही फिल्माया गया है।
लेखन और निर्देशन इतना रूटीन है कि अगले शॉट में क्या होने वाला है या कौन सा संवाद बोला जाएगा, इसका पता आसानी से लगाया जा सकता है। यदि पत्नी समुंदर किनारे अपने पति को शरमा कर बता रही है कि वह मां बनने वाली है तो समझा सकता है कि अगले शॉट में इसको गोली लगेगी। शराब पीकर एक दोस्त ज्यादा ही बहक रहा है या इमोशनल हो रहा है तो अंदाजा लगाने में देर नहीं लगती कि अब दो दोस्त लड़ने वाले हैं।
फिल्म की कहानी ऐसी है कि हीरोइन की जगह नहीं बनती, फिर गानों के लिए उन्हें जगह दी गई है। फिल्म की एक हीरोइन एक बाहुबली से डरती है, लेकिन दूसरे अपराधी किस्म के लड़के को दिल देने में चंद सेकंड नहीं लगाती।
फिल्म का निर्देशन आनंद कुमार ने किया है। उन्होंने कुछ शॉट अच्छे फिल्माए हैं, लेकिन कही-कही कल्पनाशीलता नजर नहीं आती। अभी भी वे भागते हुए बच्चों को दौड़ते हुए जवान हीरो के रूप में परिवर्तित होते दिखा रहे हैं जो सत्तर के दशक का फॉर्मूला हुआ करता था। जब निर्देशक को समझ में नहीं आया कि फिल्म को कैसे आगे बढ़ाया जाए तो गाने डाल दिए गए।
जय भानुशाली ने भले ही दाढ़ी बढ़ाकर रफ-टफ लुक अपनाने की कोशिश की हो, लेकिन एक्शन रोल में उन्हें देखना हास्यास्पद लगता है। वे जब क्रोधित होते हैं तो उन्हें देख हंसी आती है। अखिल कपूर ने खूब कोशिश की है, लेकिन सार यही निकलता है कि उन्हें अभिनय सीखना होगा। सुनील शेट्टी ने अपने अभिनय से जम कर बोर किया है। उनको देख सुस्ती छाने लगती है। साशा आगा ने अभिनय के नाम पर चेहरे बनाए हैं जबकि टिया बाजपेयी औसत रही। आशुतोष राणा ही एकमात्र ऐसे अभिनेता रहे जिन्होंने दमखम दिखाया, हालांकि इस तरह के रोल वे न जाने कितनी बार कर चुके हैं।
फिल्म का एक किरदार बार-बार कहता है कि 'हमार खोपड़िया सटक गई'। शायद उसने यह विश्लेषण पहले ही कर लिया था कि 'देसी कट्टे' देखने के बाद दर्शक यही बोलते नजर आएंगे।
निर्माता-निर्देशक : आनंद कुमार
संगीत : कैलाश खेर
कलाकार : सुनील शेट्टी, जय भानुशाली, अखिल कपूर, साशा आगा, टिया बाजपेयी, आशुतोष राणा
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रौनक कोटेचाकहानी: अपनी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) के बढ़ावा देने पर मौजी (वरुण धवन) अपने परेशान करने वाले मालिक को छोड़कर अपना बिजनस शुरू करने का फैसला करता है, लेकिन बिना घरवालों की मदद और बेईमान रिश्तेदारों के बीच क्या मौजी अपना बिजनस जमा पाएगा और एक सफल बिजनसमैन बन पाएगा?रिव्यू: अपने रोजाना की परेशानियों के बीच एक औसत आदमी मौजी हमेशा कहता है 'सब ठीक है'। फिल्म में आपको एंटरटेनमेंट का पूरा मसाला मिलेगा। चाहे मौजी की निजी समस्याएं हों, उसकी नौकरी हो, मालिक की डांट हो, बीमार मां हों या मौजी पर हमेशा गुस्सा करने वाले उसके पिता। मौजी की पत्नी को घर के कामों के बीच कभी भी अपने पति से प्यार करने का टाइम नहीं मिलता। 'सुई धागा' एक आम आदमी की सामान्य जिंदगी की संघर्ष की कहानी है। फिल्म कई किरदारों के आसपास घूमती है। वरुण धवन ने पूरी ईमानदारी के साथ अपना किरदार निभाया है जबकि अनुष्का ने भी आसानी से अपने कैरक्टर को जी लिया है। साधारण साड़ी और कम मेकअप में अनुष्का हमेशा अपना किरदार जी जाती हैं। फिल्म में इन दोनों के किरदारों के बीच बिना रोमांस के भी प्यार दिखाई देता है। सपॉर्टिंग किरदारों में रघुवीर यादव आपको मौजी के पिता के रूप में जरूर इम्प्रेस करेंगे। मौजी की मां के रूप में आभा परमार को देखना भी सुखद है क्योंकि वह स्क्रीन पर हर समय अपने किरदार के साथ न्याय करती हैं। डायरेक्टर शरद कटारिया ने फिल्म को काफी रियल रखा है। फिल्म के फर्स्ट हाफ में सारे किरदार अपनी समस्याओं के साथ स्थापित हो जाते हैं। डायलॉग्स को ऐसे अंदाज में लिखा गया है जो रोजाना कि समस्या के बीच भी आपको गुदगुदाते हैं। फिल्म का संगीत और गाने कहानी से जुड़ते दिखाई देते हैं। फिल्म उपदेश देती हुई नहीं दिखती है और आपको अंत का अंदाजा भी नहीं लगता है। हालांकि फिल्म कभी-कभी इतनी सीरियस हो जाती है कि बोर करने लगती है। फिर भी अच्छी कहानी और अनुष्का-वरुण की बेहतरीन ऐक्टिंग के लिए आप इस फिल्म को देख सकते हैं। देखें, दर्शकों को कैसी लगी यह फिल्म: | 0 |
शादी के बाद अपनी पहली ही फिल्म में अनुष्का शर्मा सिल्वर स्क्रीन पर अपने फैन्स से एक ऐसे डरावने किरदार में नजर आएंगी जो उनके फैन्स को बस डराता रहेगा। ऐसा तो शायद अनुष्का के फैन्स ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। पिछले साल बतौर प्रडयूसर अनुष्का ने इस फिल्म को बनाने का ऐलान किया तो फिल्म के टाइटल को देख उनके फैन्स ने यही सोचा होगा कि अपनी पिछली फिल्म 'फिल्लौरी' में एक खूबसूरत और नेक भूतनी बन चुकीं अनुष्का इस बार परियों वाली सफेद ड्रेस में नजर आएंगी, लेकिन इस फिल्म मे ऐसा कुछ भी नहीं है। अलबत्ता, सवा दो घंटे की इस पूरी फिल्म को देखने के बाद हमारा सुझाव है कि कमजोर दिल वाले इस परी से दूरियां ही बनाकर रखें तभी अच्छा है। बता दें, यह कोई परियों की कहानी नहीं है, अलबत्ता अंत तक यह फिल्म ऐसी हॉरर मूवी है जो दर्शकों की हर क्लास को डराने में काफी हद तक कामयाब है। बेशक, सेंसर बोर्ड की प्रिव्यू कमिटी ने फिल्म को ए सर्टिफिकेट के साथ पास किया है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म में कई ऐसे खौफनाक सीन्स हैं जिन पर सेंसर को कैंची चलानी चाहिए थी। इस पूरी फिल्म में अनुष्का बेहद डरावने और ऐसे लुक में नजर आती है जो अपने फैन्स को डराती है, फिल्म के ज्यादातर सीन में चेहरे से लेकर हाथों और पांवों पर खून के निशान और खरोचों के साथ नजर आती अनुष्का फिल्म में जब भी नेल कटर से अपने हाथों और पांवों के नाखूनों से काटती हैं,उन सीन में ज्यादातर दर्शक समझ ही नहीं पाते कि आगे क्या होने वाला है। कोलकाता और बांग्ला देश के ढाका शहर के इर्दगिर्द घूमती फिल्म के ज्यादातर हिस्से को डायरेक्टर ने डॉर्क शेड में शूट किया है तो वहीं बॉलिवुड की भूतिया हॉरर फिल्मों से अपनी इस फिल्म को टोटली डिफरेंट बनाने की चाहत में डायरेक्टर प्रोसित रॉय ने कई सीन को अलग-अलग एंगल से शूट किया है। स्टोरी प्लॉट : अर्नब (परमब्रत चैटर्जी) और पियाली (रिताभरी चक्रवर्ती) की शादी फाइनल हो चुकी है, दोनों की फैमिली इस शादी के लिए रजामंद है। शादी से पहले दोनों एक-दूसरे से मिलते हैं, ताकि एक-दूसरे के बारे में कुछ जान पाए। कोलकाता के एक पार्क में इसी मुलाकात के साथ इस फिल्म की शुरुआत होती है। इस मुलाकात के बाद अर्नब अपनी फैमिली के साथ कार से घर लौट रहा है, इसी दौरान अर्नब की आंखों के सामने रोड पर एक अजीबोगरीब घटना होती है। इसी घटना के बाद अर्नब पहली बार जब रुखसाना खातून (अनुष्का शर्मा) से मिलता है तो उस वक्त उसकी हालत बेहद दयनीय होती है। रुखसाना के हाथों और पैरों पर चोट के निशान हैं, जरा सी लाइट और अगरबत्ती की खुशबू से भी बुरी तरह डरने वाली रुखसाना से अर्नब की हमदर्दी हो जाती है। अपनी मां की नाराजगी के बावजूद अब रुखसाना को अपनी कार से उसके घर छोड़ने जाता है, लेकिन रुखसाना एक घने जंगल में कार से उतरकर अपने घर जाना चाहती है। अर्नब उसे घर तक छोड़ने के लिए कहता है तो वह इनकार कर देती है। इतना ही नहीं उसे अर्नब जब कुछ पैसे रखने के लिए देता है तब भी रुखसाना इनकार कर देती है। घने जंगल के बीचोबीच एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रुखसाना रहती है, लेकिन जब रुखसाना की तलाश में लगा प्रफेसर हासिम अली (रजत कपूर) अपने आदमियों के साथ वहां भी पहुंच जाता है तो रुखसाना वहां से भाग जाती है। अगले ही दिन बेहद डरी हुई हालत में गंदे कपड़े पहने रुखसाना अर्नब के घर पहुंच जाती है। अर्नब के घर रुखसाना खुद को सुरक्षित महसूस करती है तो अर्नब भी उसका पूरा ध्यान रखता है, लेकिन रुखसाना को जगह-जगह तलाश करता हासिम अली अपने आदमियों के साथ अर्नब के ऑफिस पहुंचकर उसे रुखसार के बारे में ऐसा कुछ बताता है कि अर्नब के पैरों तले जमीन खिसक जाती है। परी' के लुक के लिए इस तरह हुआ अनुष्का का मेकअपयंग डायरेक्टर प्रोसित रॉय की यह पहली फिल्म है। अंत तक प्रोसित की फिल्म और सभी किरदारों पर अच्छी पकड़ है। बेशक शुरुआती 20 मिनट की फिल्म की स्पीड बेहद स्लो है, लेकिन स्क्रीन पर अनुष्का की मौजूदगी और हर सीन में उनका बेहतरीन दिल को छू लेने वाला अभिनय इस खामी को छुपा लेता है। फिल्म का कैमरा वर्क गजब का है तो वहीं फिल्म का बैकग्राउंड संगीत आपको ही सीन में हिलाकर रखने का दम रखता है। बेहतरीन वीएफएक्स फिल्म की एक और यूएसपी है। अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो बेशक अनुष्का के अब तक के फिल्मी करियर की यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। इस फिल्म में अनुष्का ने बेहद डरी सहमी सी गंदे कपड़ों में लिपटी लड़की रुखसाना के किरदार को अपने शानदार अभिनय से जीवंत कर दिखाया है। परमब्रत चैटर्जी ने किरदार के मुताबिक, ऐक्टिंग की है तो वहीं हासिम अली के किरदार में रजत कपूर की जितनी तारीफ की जाए कम रहेगी। वहीं, फिल्म के कई सीन बेहद डरावने हैं। ऐसे में हम अपने पाठकों को यह सलाह भी देंगे कि अगर इस फिल्म को देखने जा रहे हैं तो दिल को मजबूत करके जाएं, क्योंकि इंटरवल के बाद फिल्म में ऐसे कई सीन है जो कमजोर दिल वालों के लिए यकीनन नहीं है। अच्छा रहता सेंसर की प्रिव्यू कमिटी इन सीन की लंबाई को कम करती, लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट और कहानी की डिमांड के चलते ऐसा शायद नहीं किया गया। फिर भी, अगर आप हॉरर फिल्मों के दीवाने हैं तो बॉलिवुड हॉरर फिल्मों की पुरानी लीक से हटकर बनी यह फिल्म जरूर देखें। अनुष्का की दिल को छूती ऐक्टिंग उनके फैन्स को लंबे अर्से तक याद रहेगी, लेकिन देंखे अपने रिस्क पर ही। | 0 |
निर्माता :
फॉक्स स्टार स्टुडियो
निर्देशक :
गौतम मेनन
संगीत :
एआर रहमान
कलाकार :
प्रतीक, एमी जैक्सन
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 16 रील
सचिन कुलकर्णी (प्रतीक) मलयाली लड़की जेस्सी (एमी जैक्सन) को चाहता है। सचिन के मुताबिक जेस्सी से शादी में कुछ अड़चने हैं। जैसे लड़का हिंदू है तो लड़की ईसाई। उम्र में लड़की एक साल उससे बड़ी है। लड़की के माता-पिता रूढ़िवादी हैं। वे फिल्म नहीं देखते और न ही अमिताभ बच्चन को पहचानते जबकि लड़का फिल्मों में अपना करियर बनाना चाहता है। लड़की का भाई भी एक बड़ी रूकावट है।
इसी तरह की कुछ रूकावटें दर्शक और मनोरंजन के बीच है। जैसे कहानी ठीक से लिखी नहीं गई है। स्क्रीनप्ले की बात करना बेकार है। निर्देशन बेहद साधारण है। कलाकारों की एक्टिंग भी खास नहीं है। फिल्म इतनी लंबी और उबाऊ है कि नींद आने लगती है।
आश्चर्य की बात तो ये है कि इस फिल्म को गौतम मेनन ने निर्देशित किया है जो दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में एक बड़ा नाम है। गौतम की इस फिल्म से दर्शक कभी जुड़ नहीं पाता। साथ ही तकनीकी रूप से भी फिल्म बेहद कमजोर है। आधी से ज्यादा फिल्म में कैमरा एंगल और एडिटिंग बेहद घटिया है।
एक लव स्टोरी में जो इमोशंस और स्पार्क चाहिए वो पूरी फिल्म में मिसिंग है। अंतिम कुछ रीलों में फिल्म गति पकड़ती है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी रहती है। इस फिल्म को दो अंत के साथ रिलीज किया गया है।
सचिन और जेस्सी के कैरेक्टर्स को ठीक से नहीं लिखा गया है। वे पूरी तरह कन्फ्यूज नजर आते हैं क्योंकि कब क्या प्रतिक्रिया देंगे, कहा नहीं जा सकता। अच्छे से बात करते हुए वे अचानक चिल्लाने लगते हैं।
सचिन पहली नजर में ही जेस्सी को दिल दे बैठता है। प्यार के इजहार में भी जल्दबाजी कर देता है। जेस्सी उसे साफ बता देती है कि वह उसे नहीं चाहती, लेकिन धीरे-धीरे उस पर सचिन का जादू चलने लगता है।
जेस्सी को इतना हिम्मतवाली बताया गया है कि वह चर्च में दूसरे शख्स से शादी करने से इंकार कर देती है, लेकिन यह बात घरवालों को बताने की उसमें हिम्मत नहीं है कि वह सचिन से शादी करना चाहती है।
सचिन से संबंध तोड़ कर उसका यूके चले जाना भी समझ से परे है। वह सचिन से इतनी सी बात से नाराज हो जाती है कि सचिन ने उसे वहां मिलने नहीं आने दिया जहां वह शूटिंग कर रहा था। सचिन ने भी उसे क्यों नहीं आने दिया, इसका भी कोई जवाब नहीं मिलता। फिल्म और फिल्म इंडस्ट्री को लेकर किए गए सचिन के मजाक भी बेहद बुरे हैं।
पूरी फिल्म ऐसी लगती है जैसे किसी लेख का खराब अनुवाद किया गया हो। शायद गौतम मेनन ठीक से हिंदी समझते नहीं हैं और इसी कारण हिंदी रीमेक में गड़बड़ी नजर आती हैं। वे अपने कलाकारों के भावों को ठीक से पेश नहीं कर पाए, जबकि लव स्टोरी में एक्सप्रेशन का सही होना बेहद जरूरी होता है।
प्रतीक बब्बर पूरी तरह से डायरेक्टर्स एक्टर हैं। अच्छा निर्देशक मिलता है तो उनका काम निखर कर आता है। ‘एक था दीवाना’ में वे निराश करते हैं। उनके अभिनय में विविधता नजर नहीं आती।
एमी जैक्सन सुंदर हैं, लेकिन उम्र में वे प्रतीक से एक वर्ष नहीं बल्कि चार-पांच साल बड़ी दिखाई देती हैं और हैं भी। उनका अभिनय कहीं ठीक है तो कहीं बुरा। एमी का किरदार को ठीक से पेश नहीं किया गया है जिसका असर उनके अभिनय पर पड़ा है। प्रतीक के दोस्त बने मनु रिषी वाले सीन थोड़ा मनोरंजन करते हैं। शोले बनाने वाले रमेश सिप्पी भी चंद सीन में नजर आते हैं।
फिल्म के संगीत से जावेद अख्तर और एआर रहमान के नाम जुड़े हुए हैं। उनका काम अच्छा है, लेकिन उनकी ख्याति के अनुरूप नहीं है।
कुल मिलाकर ‘एक था दीवाना’ में दीवानगी नदारद है।
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चंद्रमोहन शर्मा फिल्म के नाम में कूल है, लेकिन कहानी के मामले में यह बहुत ही हॉट है। अडल्ट कॉमिडी इस फिल्म में ढेर सार डबल मीनिंग डायलॉग्स हैं। अगर सेंसर बोर्ड द्वारा गठित सेंसर बोर्ड की प्रिव्यू कमिटी की चलती तो एकता कपूर की यह फिल्म पर्दे तक पहुंच ही नहीं पाती। बॉलिवुड की खबरें अपने फेसबुक पर पाना हो तो लाइक करें Nbt Movies कमिटी ने इस फिल्म की कहानी को घटिया करार देकर इस फिल्म को सेंसर का सर्टिफिकेट जारी करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद एकता ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और उन्हें राहत मिली। हालांकि, फिल्म के कुछ सीन्स पर कट्स लगे तो कई डबल मीनिंग डायलॉग्स को म्यूट कर दिया गया। देखें, फिल्म का ट्रेलर इस सीरीज की पहली दोनों फिल्में हिट रही हैं और इस फिल्म का बजट 15 करोड़ बताया जा रहा है। फिल्म के लिए यह हफ्ता महत्वपूर्ण रहेगा, क्योंकि अगले हफ्ते सनी लियोनी की ‘मस्तीजादे’ रिलीज हो रही है। कहानी: रॉकी (आफताब शिवदासानी) और कन्हैया (तुषार कपूर) दोनों अच्छे दोस्त हैं। दोनों को बैंकॉक में रहने वाला उनका दोस्त मिकी (कृष्णा अभिषेक) वहां आने के लिए कहता है। मिकी की बात मानकर दोनों बैंकॉक पहुंचते हैं। वहां रॉकी और कन्हैया पॉर्न फिल्मों में काम करने लगते हैं। इस बीच कन्हैया को वहीं रहने वाली एक खूबसूरत लड़की शालू (मंदाना करीमी) से प्यार हो जाता है। अब कन्हैया किसी भी हालत में शालू से शादी करके उसे अपना बनाना चाहता है। इस सीधी सादी हॉट कहानी में उस वक्त टर्न आता है जब शालू के घरवाले कन्हैया की फैमिली वालों से मिलने की जिद पकड़ लेते हैं। बस इसके बाद कहानी में एक के बाद एक कई मजेदार हॉट टि्वस्ट आते हैं। ऐक्टिंग: कृष्णा अभिषेक स्मॉल स्क्रीन पर कॉमिडी में अपनी अलग जगह बना चुके हैं। बोल बच्चन के बाद कृष्णा को एक अच्छी फुटेज वाला किरदार मिला जिसे उन्होंने असरदार ढंग से निभाया। तुषार कपूर और आफताब शिवदासानी अपने किरदार में फिट नजर आए। शक्ति कपूर अपने रोल में खूब जमे। ऐसा लगता है कि उन्होंने कैमरे के सामने ऐक्टिंग करने की बजाय मस्ती ज्यादा की। फिल्म की फीमेल एक्ट्रेस ने ऐक्टिंग छोड़ कैमरे के सामने एक्सपोज किया है। डायरेक्शन: यंग डायरेक्टर उमेश घडगे ने मिलाप झावेरी के लिखे बेहद हॉट डबल मीनिंग संवादों और हॉट कहानी को बस पर्दे पर उतारने का काम किया है। ऐसा लगता है उमेश ने फिल्म के सभी किरदारों को कैमरे के सामने मस्ती करने और अपनी मर्जी से काम करने की छूट देने के अलावा और कुछ नहीं किया। संगीत: साजिद-वाजिद ने ऐसा संगीत दिया है, जो यंग जेनरेशन को पसंद आ सकता है। वैसे फिल्म में कई गाने ठूंस दिए गए हैं, जिनकी कहानी में कतई जरूरत नहीं थी। क्यों देखें: अगर आपको अडल्ट कॉमिडी फिल्में पसंद हैं, तो फिल्म देख सकते हैं। फिल्म की कहानी में कुछ नयापन नहीं है। आपको बस पर्दे पर एक के बाद एक हॉट सीन्स के अलावा जमकर डबल मीनिंग संवाद सुनने को मिलेंगे। | 0 |
स्टोरी- इस स्पोर्ट्स डॉक्युमेंट्री कम ड्रामा फिल्म में सचिन तेंडुलकर अपना ही किरदार निभा रहे हैं जिसमें सचिन की लाइफ के साथ ही विश्व क्रिकेट के इतिहास की सबसे बड़ी घटना को दिखाया गया है। रिव्यू- जब कोई शख्स क्रिकेट की अंतरात्मा और देश के लोगों की सामूहिक आवाज हो तो उस शख्स को फिल्म का मुख्य किरदार बनाकर उस पर फिल्म बनाना मुश्किल काम है। लिहाजा जेम्स अर्स्किन सचिन को मूर्ति के तौर पर सामने रखकर एक ऐसी कहानी कहते हैं जिसमें अस्वाभाविक और बनावटी भक्ति और श्रद्धा दिखती है। सचिन के बचपन के बारे में देखना और जानना मजेदार है। वैसे फुटेज जिसमें सचिन अपने पर्सनल स्पेस में अपनी पत्नी अंजली, बच्चे अर्जुन, सारा और बाकी परिवार के सदस्यों और दोस्तों के साथ दिख रहे हैं, यह उस तरह का पल है जब फैन्स जोर जोर से सचिन का नाम चिल्ला रहे हों। सचिन को इस फिल्म के सूत्रधार के रूप में देखना अतिरिक्त बोनस की तरह है जो दर्शकों को अपनी जीत के साथ ही चोट के सफर पर भी लेकर जाते हैं। तेंडुलकर के लिए पागल उनके फैन्स के लिए वह क्षण भी दिल थाम लेने वाला है जब क्रिकेट के इतिहास में सचिन की शुरुआत का दृश्य दिखाया जाता है। वह क्षण जब 1989 में हुए एक एग्जिबिशन मैच में सचिन ने पाकिस्तान के अब्दुल कादिर के 1 ओवर में 4 छक्के जड़े थे। इसके अलावा फिल्म में एक और कभी न मिटने वाली याद को भी ताजा किया गया है जब 1998 में चेन्नै टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सचिन ने शेन वॉर्न की इतनी धुनाई की थी कि वह पंचिंग बैग की तरह महसूस कर रहे थे। हालांकि सचिन की उपलब्धियां इतनी ज्यादा हैं कि उसे एक फिल्म में समेटना मुश्किल है। निंदा करने वाले यह बात भी कह सकते हैं कि ये सारे फुटेज तो यूट्यूब पर मौजूद है जिसे कभी भी देखा जा सकता है लेकिन वैसे लोग जिनके लिए सचिन एक इमोशन है उनके लिए इस तरह के सभी फुटेज को बड़े पर्दे पर एक साथ बिना सर्च बटन को दबाए देखना बेशकीमती है। रुकिए, इस फिल्म का झटका देने वाला पक्ष भी है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंडुलकर से जुड़े सभी विवादों को इस फिल्म में चमक-दमक के साथ दिखाया गया है। सचिन के डाई हार्ड फैन्स इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि हो सकता है उनके भगवान की भी कोई कमजोरी रही हो। लेकिन इस फिल्म में इस तरह का कोई चांस नहीं लिया गया। कुछ बेहद अहम मैचों में सचिन का खराब प्रदर्शन और अपने असभ्य सीनियर्स पर किसी तरह का कोई कमेंट न करना, इस तरह की कुछ घटनाएं हैं जिन्हें क्षण भर के लिए बस छूआ गया है। सचिन की इस कहानी में कमेंटेटर्स, क्रिटिक्स और उनके साथी खिलाड़ी धोनी, कोहली, गांगुली, सहवाग और हरभजन सभी मास्टर ब्लास्टर की स्तुति करते नजर आते हैं। शैक्षणिक दृष्टि से देखें तो यह फिल्म बेहद अहम है क्योंकि एक ऐसा देश जिसकी आत्मा में क्रिकेट बसता है वहां यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि विलक्षण प्रतिभा के धनी लोग भले ही पैदा होते हों लेकिन वह अपनी दृढ़ता, धैर्य और तैयारी से ही सचिन तेंडुलकर बनते हैं।इस खबर को ગુજરાતી में पढ़ें। | 1 |
1980 में महान फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी ही फिल्म 'बावर्ची' को थोड़ा उलट-पुलट कर 'खूबसूरत' बनाई थी। रेखा की यह श्रेष्ठ फिल्मों में से एक मानी जाती है। इसी का रीमेक निर्देशक शशांक घोष ने 'खूबसूरत' के नाम से ही बनाया है। शशांक ने ऋषिदा की कहानी का मूल तो यथावत रखा है, लेकिन अपने मुताबिक कुछ बदलाव कर दिए हैं। शशांक जानते हैं कि ऋषिकेश मुखर्जी जैसी फिल्म बनाना उनके बस की बात नहीं है इसलिए बदलाव कर ही बनाया जाए तो बेहतर है। यह सीधे तौर पर तुलना से बचने की पतली गली भी है।
अस्सी में बनी 'खूबसूरत' मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी थी, जिसे बदलते हुए 'एलीट क्लास' में ले जाया गया है। राजा-रजवाड़े से बेहतर 'क्लास' और क्या हो सकता है। वैसे भी उनमें परंपरा और शिष्टचार के नाम पर बहुत कुछ ऐसा होता है जो सामान्य परिवारों में नहीं होता।
डॉ. मृणालिनी चक्रवर्ती उर्फ मिली (सोनम कपूर) फिजियोथेरेपिस्ट है। आईपीएल में कोलकाता नाइट राइडर्स टीम के लिए वह काम करती है। उसे राजस्थान के संभलगढ़ की रॉयल फैमिली के शेखर राठौर (आमिर रजा) के इलाज के लिए बुलाया जाता है। शेखर के पांव के इलाज के लिए मिली को उनके घर में ही कई दिनों तक रूकना होता है।
शेखर की पत्नी रानी निर्मला (रत्ना पाठक शाह) अति शिष्ट और अनुशासन प्रिय है, लेकिन यह अच्छाई इतनी ज्यादा है कि घर के सदस्यों को कैद की तरह लगता है। शेखर और निर्मला का बेटा युवराज विक्रम (फवाद खान) भी मां का अंधभक्त है। मिली के इस रॉयल फैमिली में आते ही कायदे-कानून टूटने लगते हैं। वह बेहद लाउड है। जो मन में आता है बोल देती है। उसका मानना है कि सच को फिल्टर की जरूरत नहीं होती। बेवजह की रोक-टोक भी उसे पसंद नहीं है। धीरे-धीरे निर्मला को छोड़ परिवार के अन्य सदस्यों को मिली की हरकतें अच्छी लगने लगती हैं।
शशांक घोष ने इस 'खूबसूरत' में निर्मला के किरदार के प्रभाव को कम कर दिया है और मिली-विक्रम के रोमांस को ज्यादा फुटेज दिए है। साथ ही बैकड्रॉप बदलने से फिल्म का कलेवर अलग हो गया है। शुरुआत में मिली की शरारतें अच्छी लगती हैं, लेकिन जब इन्हें हद से ज्यादा खींचा जाता है तो फिल्म ठहरी हुई लगती है। कहानी आगे ही नहीं बढ़ती। मिली की हरकतें कहीं-कहीं कुछ ज्यादा ही हो गई। पहले ही दिन डाइनिंग टेबल पर आकर वह निर्मला की बेटी से पूछती है कि क्या उसका कोई बॉयफ्रेंड है? मिली के किरदार को बिंदास दिखाने के चक्कर में निर्देशक कुछ जगह ज्यादा ही बहक गए।
कहानी में कुछ कमजोर पहलू और भी हैं। जैसे मिली के अपहरण वाला किस्सा सिर्फ फिल्म की लंबाई को बढ़ाता है और इस प्रसंग का कहानी से कोई संबंध नजर नहीं आता। विक्रम की एक लड़की (अदिति राव हैदरी) से शादी भी तय हो जाती है और उस प्रसंग को भी हल्के से निपटाया गया है। साथ ही फिल्म के अंत में निर्मला का हृदय परिवर्तन अचानक हो जाना भी अखरता है।
यह फिल्म घटना प्रधान नहीं है। कहानी में कुछ अगर-मगर भी हैं, बावजूद इसके यह बांध कर रखती है। मिली और राठौर परिवार की अलग-अलग शख्सियत के कारण जो नए रंग निकल कर आते हैं वे अच्छे लगते हैं। मिली की वजह से किरदारों के व्यवहारों में परिवर्तन तथा मिली और विक्रम के बीच पनपते रोमांस को देखना अच्छा लगता है।
डिज्नी का प्रभाव शशांक के निर्देशन में नजर आता है। फिल्म के शुरुआत में ही डिज्नी ने दर्शकों को बता दिया कि किस तरह की फिल्म वे देखने जा रहे हैं। पूरी फिल्म में सॉफ्ट लाइट, सॉफ्ट कलर स्कीम का उपयोग कर हर फ्रेम को खूबसूरत बनाया गया है। फिल्म में कूलनेस और परफ्यूम की सुगंध को भी महसूस किया जा सकता है। हर कलाकार सजा-धजा और फैशनेबल है। फिल्म में गंदगी का कोई निशान नहीं है, यहां तक कि मिली का अस्त-व्यस्त कमरा भी बड़े ही व्यवस्थित तरीके से बिखरा हुआ लगता है।
फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। खासतौर पर किरदारों के मन में जो चल रहा है उसे वाइस ओवर के जरिये सुनाया गया है और इसके जरिये कई बार हंसने का अवसर मिलता है। मिली और उसकी मां के बीच जोरदार संवाद सुनने को मिलते हैं। मिली अपनी मां को उसके पहले नाम से बुलाती है और दोनों के बीच बेहतरीन बांडिंग देखने को मिलती है।
सोनम कपूर को दमदार रोल निभाने को मिला है, लेकिन उनका अभिनय एक जैसा नहीं रहता। कई सीन वे अच्छे कर जाती हैं तो कई दृश्यों में उनका अभिनय कमजोर लगता है। फिर भी बबली गर्ल के रूप में वे प्रभावित करती हैं। प्रिंस के रोल में फवाद खान ने अपने चयन को सही ठहराया है। एक प्रिंस की अकड़, स्टाइल को उन्होंने बारीकी से पकड़ा। रत्ना पाठक शाह के बेहतरीन अभिनय किया है, उनके रोल को और बढ़ाया जाना था। लाउड पंजाबी मां का किरदार किरण खेर कई बार निभा चुकी हैं और इस तरह के रोल निभाना उनके बाएं हाथ का खेल है।
खूबसूरत एक उम्दा पैकिंग की गई शकर चढ़ी लालीपॉप की तरह है, जिसका स्वाद सभी को पता है, बावजूद इसका मजा लेना अच्छा लगता है।
बैनर : वाल्ट डिज्नी पिक्चर्स, अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी
निर्माता : रिया कपूर, सिद्धार्थ रॉय कपूर, अनिल कपूर
निर्देशक : शशांक घोष
संगीत : स्नेहा खानवलकर
कलाकार : सोनम कपूर, फवाद खान, रत्ना पाठक, आमिर रजा, किरण खेर, अदिति राव हैदरी (मेहमान कलाकार)
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट
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'गोलमाल अगेन' की स्टोरी: पांच लड़कों का ग्रुप- गोपाल (अजय देवगन), माधव (अरशद वारसी), लकी (तुषार कपूर), लक्ष्मण (श्रेयष) और लक्ष्मण (कुणाल) अनाथ हैं, जो ऊटी के सेठ जमनादास अनाथालय से पले-बढ़े होते हैं। अनाथालय के गुरु की मौत के बाद वे सब वापस इस अनाथालय में पहुंचते हैं और वहां उन्हें पता चलता है कि वासु रेड्डी नाम का कोई बिल्डर (प्रकाश राज) और उसके साथी निखिल (नील) उस आश्रम और उसके साथ लगे कर्नल चौहान (सचिन केलकर) के प्लॉट को हथियाना चाहते हैं। हालांकि, उन्हें एहसास होता है कि उनकी गैर-मौजूदगी में कुछ फ्रेंडली भूत वहां रहने लगे हैं और अन्ना मैथ्यू (तब्बू), जो कि आत्माओं से बात कर सकती हैं, वह उन लड़कों को गाइड करने का काम करती हैं।'गोलमाल' एक ऐसी सनकी हुई कॉमिडी की फ्रैंचाइजी है जिसे पिछले 11 सालों से जिंदा रखा गया है। टीवी चैनल पर जब भी 'गोलमाल' सीरीज की फिल्मों का प्रसारण होता है तो लोग अपनी हंसी रोक नहीं पाते। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप फिल्म शुरुआत से देखते हैं या बीच से। अपनी पिछली फिल्मों की ही तरह 'गोलमाल अगेन' में भी आपको विशुद्ध कॉमिडी और मस्ती देखने को मिलेगी। फिल्म की हास्यकथा कई जगहों पर सचमुच आपको हंसाती है तो कई जगहों पर औसत है, लेकिन पूरी फिल्म के दौरान आप पेट पकड़कर हंसते रहेंगे क्योंकि फिल्म के हर अभिनेता को देखना अपने आपमें मजेदार अनुभव है। बात चाहे तुतलाने वाले लक्षमण (श्रेयस) की हो या फिर दबंग गोपाल की जो भूतों से हद से ज्यादा डरता है, फिल्म का हर किरदार इतना अनुभवी और दक्ष है कि आप उनकी हरकतों को देखकर अपनी हंसी रोक ही नहीं पाएंगे। वैसे तो फिल्म के डायलॉग बेहद मामूली और नीरस हैं लेकिन हास्य से भरपूर हैं।फिल्म में हॉरर के ऐंगल को भी जोड़ा गया है। साउथ की फिल्म कंचन से प्रेरणा लेते हुए इस फिल्म में भी एक ऐसे भूत को दिखाया गया है जो बदला लेना चाहता है। हालांकि इन डरावने पलों को भी बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में फिल्माया गया है। फिल्म में कई सीन ऐसे हैं जिन्हें आपने पहले कई बार देखा होगा बावजूद इसके आप उन सीन को देखकर ठहाका लगाए बिना रह नहीं पाएंगे। हालांकि फिल्म के दूसरे भाग में जब वास्तविक कहानी का खुलासा होता है तो तब फिल्म थोड़ी उबाऊ और नीरस हो जाती है।यहां कहना पड़ेगा कि रोहित शेट्टी आपको कभी बहुत बेचैन नहीं होने देते। यहां मस्ती-मजाक, लड़ाइयां, गाने, ठहाके, भूत सब का एक बफे है जिससे आपको ओवरडोज भी हो सकता है। कई बार, आप इन बेवकूफियों पर हंसने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे। परफॉर्मेंस की बात करें तो तांत्रिक के किरदार में तबू ने जान डाल दी है, कोई और करता तो यह किरदार बहुत फूहड़ भी हो सकता था। बाकी एक्स्ट्रा रोल जैसे वसूली भाई (मुकेश) और पप्पी (जॉनी लीवर) को भी अच्छा फुटेज मिला है। लेकिन श्रेयस तलपड़े ने कमाल कर दिया है। परिणीति (खुशी/दामिनी) का इस्तेमाल सिर्फ ध्यान भटकाने के लिए किया गया है, जो वह करती हैं। अजय, अरशद, तुषार और कुणाल ने भी अपना काम बखूबी किया है।अगर आप इसमें कुछ ठोस ढूंढ रहे हैं, तो यहां कोई लॉजिक नहीं मिलेगा बस मैजिक मिलेगा। लेकिन, अगर आप सिर्फ हंसना चाहते हैं, तो गोलमाल अगेन देखने जा सकते हैं।इसे गुजराती में पढ़ें... | 0 |
आज के दौर में प्यार, रोमांस, इश्क-विश्क भले ही डिजिटल हो गया है, मगर आज का युवा भी कहीं न कहीं पुराने दौर के रोमांस की ओर आकर्षित जरूर होता है। माय ब्रदर निखिल, आई एम, चौरंगा, शब जैसे गंभीर और सोचप्रेरक सिनेमा के लिए जाने जानेवाले निर्देशक ओनीर ने इस बार अपनी फिल्म को इसी डिजिटल यानी वॉट्सऐप रोमांस के इर्द-गिर्द बुना, मगर साथ ही वे प्यार के एसेंस को बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं। अपनी पिछली फिल्मों में मुद्दों की बात कहने वाले ओनीर इस बार डिजिटल रोमांस के बहाने प्यार की कई परतें खोलते हैं। कहानी: अल्फाज (जैन खान दुर्रानी ) एक बेहद मशहूर, मगर अपनी असल पहचान को छिपाकर रखने वाला रेडियो जॉकी है। वह बेहद ही नम्र, सीधा-सादा, उदास तबीयत और लोगों से दूर रहने वाला युवा है। उसकी शायरी और शानदार आवाज ने उसके शो के सुनने वालों को दीवाना बना रखा है। दूसरी और अपनी मां (मोना अंबेगांवकर) के साथ रहने वाली आर्ची (गीतांजलि थापा) एक मीम आर्टिस्ट है, जो ल्युकेमेनिया जैसे त्वचा रोग के कारण कई लड़कों द्वारा नकारी जा चुकी है। वह भी अल्फाज की आवाज, अंदाज और शायरी की मुरीद है। वह टिंडर जैसी डेटिंग साइट्स पर लगातार ब्लाइंड डेट्स में उलझी रहती है, मगर अंदरूनी तौर पर कहीं न कहीं ऐसे सच्चे प्यार की तलाश में है, जो उसे उसके वास्तविक रूप में स्वीकारे। आर्ची के साथ काम करने वाला अप्पू ( श्रेय राय तिवारी) उससे प्यार करने लगता है, मगर आर्ची उसे अपना सच्चा दोस्त मानती है। एक रॉन्ग नंबर के जरिए आर्ची अल्फाज के संपर्क में आती है और फिर सिलसिला वॉट्सऐप की मजेदार बातों से आगे बढ़कर कॉल तक पहुंचता है। आर्ची इस बात से अंजान है कि जिसे वह मिस्टर इत्तेफाक के नाम से जानती है, असल में वही अल्फाज है। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगते हैं, मगर अल्फाज का एक अतीत भी है, जिसकी घुटन और अपराधबोध से निकलकर ही वह आर्ची तक पहुंच सकता है। रिव्यू: निर्देशक के रूप में ओनीर ने मॉडर्न रोमांस को दर्शाने के लिए प्यार करने वाली मां, सच्चे दोस्त के रूप में दिल देने वाला आशिक, प्यार-मोहबत में रिजेक्शन का शिकार हुई नायिका जैसे आजमाए हुए नुस्खे डाले हैं, मगर कहानी को मुख्य पात्रों के जरिए वह फिल्म को आज के दौर की बना ले जाते हैं। फिल्म की लंबाई छोटी है, इसके बावजूद फर्स्ट हाफ स्लो है और कई दृश्य अस्पष्ट हैं। इंटरवल के बाद फिल्म न केवल रफ्तार पकड़ती है, बल्कि कहानी का विस्तार होता है और पहले भाग के अनकहे पहलू खुलने लगते हैं। फिल्म के कई दृश्य और संवाद 'टंग इन चीक' स्टाइल में दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। क्लाइमेक्स आप पहले ही भांप जाते हैं। अल्फाज के रूप में जैन खान दुर्रानी और आर्ची की भूमिका में गीतांजलि थापा अपने किरदारों में याद रह जाते हैं। जैन खान दुर्रानी की यह पहली फिल्म है, मगर अपने किरदार को उन्होंने अपनी प्रभावशाली आवाज और अभिनय अदायगी से दर्शनीय बनाया है, हालांकि कुछ जगहों पर डायलॉग डिलिवरी और हाव-भाव में कच्चापन झलकता है, मगर वह उनके किरदार को सूट करता है। नैशनल अवॉर्ड विनर रहीं गीतांजलि इस फिल्म में भी आर्ची की असुरक्षा, हीनता, सच्चे प्यार की लालसा और खुशी को बखूबी निभा ले गईं हैं। मोना अंबेगांवकर और श्रेय राय तिवारी अपने चरित्रों में अच्छे साबित हुए हैं। सपोर्टिंग कास्ट ठीक-ठाक है। फिल्म में जुबिन नौटियाल और पलक द्वारा रीक्रिएट किया गया गाना 'पहला नशा' ताजगीभरा है। रोमांटिक फिल्म होने के नाते फिल्म का संगीत पक्ष और सबल हो सकता था। क्यों देखें: प्यार- मोहब्बत और हल्की-फुल्की फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं। | 1 |
भारत में अदालतों का काम बेहद सुस्त रफ्तार से चलता है। करोड़ों केस पेंडिंग हैं। जो लोग शक्तिशाली हैं, अमीर हैं, वे इस व्यवस्था का दुरुपयोग करते हैं। कानून की पतली गलियां उनके काम आती हैं क्योंकि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार की दीमक लग गई है।
आम आदमी अदालत जाने से बचता है क्योंकि एक दिहाड़ी मजदूर यदि एक दिन के लिए भी अदालत जाएगा तो शाम को उसके पास भोजन के लिए पैसे नहीं होंगे। यही कारण है कि कुछ लोग समय और धन की बर्बादी से बचने के लिए अन्याय सहना पसंद करते हैं।
जॉली एलएलबी के जरिये लेखक और निर्देशक सुभाष कपूर ने इस दुनिया पर अपना कैमरा घुमाया है। दरअसल यह विषय इतना व्यापक है कि एक फिल्म में समेट पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन जॉलीएलएलबी में छोटे-छोटे दृश्यों के सहारे ये सब दिखाने की कोशिश की गई है।
अपनी बात कहने के लिए एक केस का सहारा लिया गया है। एक अमीरजादा शराब के नशे में फुटपाथ पर सोए मजदूरों को अपनी कार से कुचल डालता है। उसे बचाने के लिए एक स्टार वकील राजपाल (बोमन ईरानी) की सेवाएं ली जाती हैं जो अपनी ‘सेटिंग’ के जरिये साबित करता है कि वे मजदूर कार से नहीं बल्कि एक ट्रक से कुचले गए हैं और वह अमीरजादे को बचा लेता है।
उसका कहना है कि फुटपाथ सोने की जगह नहीं है और उस पर सोए तो मरने का जोखिम हमेशा रहेगा। इसका जवाब देता है एक अदना-सा वकील, जगदीश त्यागी उर्फ जॉली (अरशद वारसी) कि फुटपाथ कार चलाने के लिए भी नहीं हैं।
इस हाई प्रोफाइल केस को वह पीआईएल के जरिये फिर खुलवाता है क्योंकि उसे भी स्टार वकील बनना है।
इसके बाद यह मुकदमा पूरी फिल्म में कुछ टर्न और ट्विस्ट के सहारे चलता है।
जॉली एलएलबी की कहानी और स्क्रीनप्ले की बात की जाए तो उसमें स्मूथनेस नहीं है और आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इंटरवल के पहले कई बोरिंग सीन आते हैं, लेकिन इंटरवल के पहले एक शानदार ट्विस्ट फिल्म के प्रति उत्सुकता बढ़ा देता है। इंटरवल के बाद फिल्म पटरी पर आती है और कोर्टरूम ड्रामा उम्दा है।
स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां हैं और कुछ बातें भी स्पष्ट नहीं हैं। अलबर्ट पिंटो नामक गवाह को पूरी तरह भूला दिया गया जबकि जॉली इस केस में अलबर्ट का अच्छी तरह उपयोग कर अपने केस को मजबूत बना सकता था।
सुभाष कपूर ने लेखक और निर्देशक की दोहरी जिम्मेदारी ली है। उन्होंने कैरेक्टर लिखने में काफी मेहनत की है और बारिकियों का ध्यान रखा है, लेकिन उनके लिखे स्क्रीनप्ले में इतनी सफाई नहीं है। कई गैर जरूरी दृश्यों को हटाया जा सकता था। साथ ही जिस आसानी से जॉली सबूत जुटाता है वो ड्रामे को कमजोर करता है। फिल्म में गाने सिर्फ लंबाई बढ़ाने के काम आए हैं और व्यवधान उत्पन्न करते हैं। इसके बावजूद इन कमियों को इसलिए बर्दाश्त किया जा सकता है क्योंकि अपनी बात कहने के लिए सुभाष ने हास्य का सहारा लिया है और कुछ उम्दा दृश्य, संवाद लिखे हैं जो सोचने पर मजबूर करते हैं।
निर्देशक के रूप में सुभाष तकनीकी रूप से कोई खास कमाल नहीं दिखाते हैं और कहानी कहने के लिए उन्होंने सपाट तरीका ही चुना है। खास बात ये कि वे अपने विषय से भटके नहीं हैं और न्याय प्रणाली की तस्वीर को अच्छे से पेश करने में सफल रहे हैं।
फिल्म की कास्टिंग परफेक्ट है। बोमन ईरानी ने एक शातिर वकील का किरदार बेहतरीन तरीके से निभाया है। उनकी संवाद अदायगी, फेशियल एक्सप्रेशन और बॉडी लैंग्वेज जबरदस्त है। अरशद वारसी ने भी बोमन को जबरदस्त टक्कर दी है और ओवर एक्टिंग से अपने आपको बचाए रखा है। लेकिन बाजी मार ले जाते हैं सौरभ शुक्ला, जिन्होंने पेटू जज की भूमिका निभाई है। सौरभ ने कई यादगार भूमिकाएं निभाई हैं और उनमें अब यह भी शामिल हो गई है। अमृता राव का रोल दमदार नहीं है, इसके बावजूद वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
जॉली एलएलबी खामियों के बावजूद मनोरंजन करने और अपनी बात कहने में सफल है।
बैनर :
फॉक्स स्टार स्टुडियोज़
निर्देशक :
सुभाष कपूर
संगीत :
कृष्णा
कलाकार :
अरशद वारसी, अमृता राव, बोमन ईरानी, सौरभ शुक्ला
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 131 मिनट
बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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आज का युवा भले प्यार के लिए किसी भी हद तक चला जाए, मगर आम भारतीय मध्यमवर्गीय सोच यही कहती है कि प्यार-व्यार एक चोंचला है। असल प्यार वह होता है, जो शादी के बाद होता है। अब जरूरी नहीं कि शादी के बाद प्यार हो ही जाए। अगर ऐसा होता है, तो परिणाम यह होता कि कई विवाहित लोग बिना प्यार के शादी को जिम्मेदारी मानते हुए उसे निभा ले जाते। कई बार प्यार हो भी जाता है, मगर वे यह सोचकर व्यक्त नहीं करते कि यह भी कोई कहने की बात है? उसे तो पता होगा ही। वैसे प्यार का इजहार जरूरी होता है और क्यों जरूरी होता है, इसका खूबसूरत चित्रण हरीश व्यास की फिल्म अंग्रेजी में कहते हैं, में देखने को मिलता है। वाराणसी में रहने वाले यशवंत बत्रा (संजय मिश्रा) और किरण बत्रा (एकवली खन्ना) पिछले 25 साल से विवाहित हैं। उनकी जवान बेटी प्रीति (शिवानी रघुवंशी) पड़ोस के लड़के जुगनू (अंशुमान झा) से प्यार करती है। सरकारी नौकरी करने वाले यशवंत का मानना है कि मर्द का काम बाहर जाकर कमाना होता है और औरत का काम घर संभालना। वह अपनी बेटी प्रीति की शादी भी इसी सोच के तहत करना चाहता है। 25 सालों के लंबे वैवाहिक जीवन में उसने कभी अपनी पत्नी से प्यार के दो मीठे बोल नहीं बोले। प्रीति अपने पिता की परंपरावादी सोच के खिलाफ जुगनू से मंदिर में छुप कर शादी कर लेती है। इसी बीच यशवंत और किरण में दूरियां बढ़ती जाती है और एक दिन झगड़े में वह अपनी पत्नी से कह देता है कि जिस तरह प्रीति ने अपनी मनमर्जी की, किरण भी उसे छोड़कर जा सकती है। किरण पति के रूखे और उपेक्षित रवैये से दुखी होकर मायके चली जाती है। इसी बीच कहानी में दो नए किरदारों, फिरोज (पंकज त्रिपाठी) और सुमन (इप्शिता चक्रवर्ती ) की एंट्री होती है। दोनों ने धार्मिक बंधनों को तोड़कर शादी की, लेकिन अब सुमन जानलेवा बीमारी से जूझते हुए अस्पताल में भर्ती है। किरण के घर छोड़ जाने के बाद प्रीति और जुगनू यशवंत को अहसास दिलाते हैं कि ढाई दशकों में यशवंत ने किरण से कभी प्यार-मोहब्बत की बातें नहीं की। यशवंत को भी अपनी गलती का अहसास होता है। फिरोज और सुमन के निश्चल प्यार से भी वह सबक लेता है। अब वह खुद को बदलकर किरण से वापस बुलाना चाहता है। क्या उसने देर कर दी? किरण लौट कर आएगी? इन सवालों के जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। निर्देशक हरीश व्यास ने मध्यमवर्गीय परंपरा और मर्दवादी सोच को बहुत ही बारीकी से दर्शाया है, मगर मध्यांतर के बाद यशवंत के प्यार के इजहार की कोशिशों में कहानी फिल्मी हो जाती है। फिल्म में फिरोज और सुमन की प्रेम कहानी को और ज्यादा विस्तार दिया जाना चाहिए था। फिल्म बॉलिवुड की आम फिल्मों से भिन्न है, लेकिन कहानी फिर अपनी हद में बंधी हुई नजर आने लगती है और अपना आकर्षण खो देती है। संजय मिश्रा हमेशा की तरह अपने रोल के प्रति ईमानदार रहे हैं। उन्होंने यशवंत की भूमिका की हर परत को बखूबी जिया है। एकवली खन्ना अपनी भूमिका में गहराई तक उतरती हैं। पंकज त्रिपाठी की एंट्री फिल्म को राहत देती है। शिवानी रघुवंशी, अंशुमान झा, इप्शिता चक्रवर्ती और बृजेंद्र काला अपनी भूमिकाओं में फबे हैं। ओनीर-आदिल और रंजन शर्मा के संगीत में 'मेरी आंखें' और 'पिया मोसे रूठ गए' गाने मधुर और मखमली बन पड़े हैं। क्यों देखें- प्रेम कहानियों और अलग तरह के विषयों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं। | 0 |
After directing films like Kuch kuch hota hai, Kabhi khushi kabhi gham and Student of the year, director Karan Johar now brings to you a grown up modern day love story which is a bit complicated at times but potrays the different phases of relationship. Ranbir kapoor, Anushka Sharma and Aishwarya Rai Bachchan are in the lead role but there are some surprising elements too in the film. It is a beautiful looking film which does have some logic. Story Film is about Ayan(Ranbir Kapoor) and Alizeh's(Anushka Sharma) friendship. During the course of their friendship Ayan falls in love with Alizeh, but she doesn’t reciprocate the feeling becuase Alizeh is still reeling from her break-up with Ali (Fawad Khan). In a chance encounter Alizeh again slips back into Ali's arms, leaving Ayan distraught. Ayan then finds solace in a relationship with Saba (Aishwarya), who helps him get a new perspective on one-sided love. Sometimes it seems there is a genuine chemistry between the lead actors. The laughter and the sadness comes from real consequences. Anushka Sharma is remarkable and stands out in her role. Ranbir kapoor's portrayal of a one sided lover is heartbreaking.His chemistry works well with both the leading ladies. Watching Aishwarya Rai in a seduction role is a welcome change. | 0 |
बैनर :
रामगोपाल वर्मा प्रोडक्शन्स, उबेरॉय लाइन प्रोडक्शन्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स
निर्माता-निर्देशक :
रामगोपाल वर्मा
संगीत :
धरम संदीप, बप्पा लाहिरी, विक्रम नागी
कलाकार :
अमिताभ बच्चन, संजय दत्त, राणा दग्गुबती, अंजना सुखानी, मधु शालिन
ी, विजय राज,
नतालिया कौर
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 12 मिनट
रामगोपाल वर्मा को कुछ नया नहीं सूझता तो वे अपना पुराने माल की धूल साफ कर फिर परोस देते हैं। पुलिस, अंडरवर्ल्ड, एनकाउंटर को लेकर वे इतनी फिल्में बना चुके हैं कि इस बारे में उनकी सोच अब जवाब दे गई है। ‘डिपार्टमेंट’ में वे कुछ भी नया नहीं पेश कर पाए।
अब तो उनके एक्सपरिमेंट भी टाइप्ड हो गए हैं। हर फिल्म वे शॉट आड़े-तिरछे कोणों से शूट करते हैं और हर बार यह प्रयोग अच्छा लगे जरूरी नहीं है। दरअसल रामू को चीज बिगाड़ कर पेश करने की आदत है, लेकिन कितना बिगाड़ना है इस पर उनका नियंत्रण नहीं है, इस वजह से फिल्म पर से उनकी पकड़ छूट जाती है।
डिपार्टमेंट की कहानी में एकमात्र अनोखी बात ये है कि पुलिस विभाग के अंदर भी एक डिपार्टमेंट बनाया जाता है ताकि अंडरवर्ल्ड पर शिकंजा कसा जा सके। इस डिपार्टमेंट के अंदर काम करने वाले महादेव भोसले (संजय दत्त) और शिवनारायण (राणा दग्गुबाती) में शुरू में तो अच्छी पटती है, लेकिन दोनों के काम करने के तौर-तरीकों में काफी फर्क है, जिससे उनके बीच दूरियां बढ़ने लगती है।
वे गैंगस्टर्स को मारने के लिए दूसरी गैंग्स के लिए काम करने लगते हैं। इन दोनों के बीच आता है गैंगस्टर सर्जेराव गायकवाड़ (अमिताभ बच्चन) जो अब मंत्री है और इन दोनों पुलिस अफसरों का उपयोग कर वह अपना मतलब निकालता है।
स्क्रीनप्ले ठीक-ठाक है। हर किरदार को समझना और उसके अगले कदम के बारे में अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन बतौर निर्देशक रामू ने स्थिति स्पष्ट करने में बहुत ज्यादा वक्त ले लिया। साथ ही उन्होंने कहानी को स्क्रीन पर इस तरह उतारा है कि फिल्म बेहद लंबी और उबाऊ लगती है।
खासतौर पर इंटरवल के पहले वाला हिस्सा बहुत ही धीमा और दोहराव से भरा है। महादेव और शिव गैंगस्टर्स को मारते हैं, घर पर जाकर बीवी या गर्लफ्रेंड से बातें करते हैं और गैंगस्टर (विजय राज) अपने लोगों पर चिल्लाता रहता है, बस यही तीन प्रसंग बारी-बारी से परदे पर आते-जाते रहते हैं और कहानी बमुश्किल आगे खिसकती है।
इंटरवल के बाद कहानी में गति आती है और घटनाक्रम तेजी से घटते हैं, लेकिन बीच में कई बोरियत भरे पल आते हैं जिसके कारण फिल्म में रूचि खत्म हो जाती है और फिल्म खत्म होने का इंतजार शुरू हो जाता है।
फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जो सिर्फ लंबाई बढ़ाने के काम आते हैं, जैसे अमिताभ बच्चन का पहला दृश्य, जिसमें लालचंद और वालचंद नामक दो भाइयों के बीच वे समझौता कराते हैं। यह सीक्वेंस दर्शकों को हंसाने के लिए रखा गया है, लेकिन जमकर बोर करता है। गैंगस्टर डी.के. और नसीर को जरूरत से ज्यादा फुटेज दिए गए हैं।
बतौर रामू निर्देशक के रूप में बिलकुल प्रभावित नहीं करते। बजाय फिल्म को मनोरंजक बनाने के उनका सारा ध्यान कैमरा एंगल्स और एक्शन सीन्स पर रहा। एक्शन दृश्य तो फिर भी औसत हैं, लेकिन जर्की कैमरा मूवमेंट्स फिल्म देखने में व्यवधान पैदा करते हैं। फिल्म की एडिटिंग भी खराब है।
तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड है, जब भी डिपार्टमेंट शब्द आता है तो उसके बाद खास किस्म का बैकग्राउंड म्युजिक सुनने को मिलता है, ऐसा लगता है मानो बताया जा रहा हो कि आप डिपार्टमेंट नाम की फिल्म देख रहे हैं। फाइट सीन में दीवार कार्डबोर्ड की नजर आती है। एक-दो सीन सिंक साउंड में हैं तो बाकी फिल्म डब की गई है।
इस तरह की फिल्मों में गानों की जगह बमुश्किल बनती है और हैरानी की बात तो ये है कि रामू ने इस फिल्म में शादी का भी एक गीत डाल दिया है। नमक हलाल के गीत ‘थोड़ी सी जो पी ली है’ को बहुत ही बुरे तरीके से गाया और पेश किया गया है।
अमिताभ बच्चन के किरदार को मनोरंजक बनाने के लिए उन्हें कुछ उम्दा संवाद दिए हैं, जो उनके प्रशंसकों को अच्छे लगेंगे, जैसे- ‘भारत में लोग पांच सौ करोड़ रुपये का गुटखा खाकर थूक देते हैं’ या ‘जैसे गौतम बुद्ध को पेड़ के नीचे साक्षात्कार हुआ था वैसा मुझे धारावी के सिग्नल के नीचे हुआ’। बिग बी ने अपना काम ठीक से किया और वे कुछ राहत के पल देते हैं।
संजय दत्त कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ते और वे मोटे नजर आए। राणा दग्गुबती, मधु शालिनी और विजय राज का अभिनय ठीक कहा जा सकता है।
डिपार्टमेंट में एक संवाद है कि अंडरवर्ल्ड और फिल्म सिर्फ पब्लिसिटी से चलते हैं, शायद इसीलिए रामू
ने
फिल्म की बजाय पब्लिसिटी पर ज्यादा ध्यान दिया, लेकिन डिपार्टमेंट को पब्लिसिटी भी बचा नहीं पाएगी।
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कांची एक बेहद खराब फिल्म है और इसका पूरा दोष सुभाष घई को ही दिया जा सकता है क्योंकि उन्होंने लेखन, संपादन और निर्देशन जैसे महत्वपूर्ण काम किए हैं। दरअसल सुभाष घई एक ओवर रेटेड फिल्मकार हैं और अब तक उन्होंने ऐसी फिल्म नहीं बनाई है जो बरसों तक याद की जाए। ये बात ठीक है कि अस्सी और नब्बे के दशक में उन्होंने व्यावसायिक रूप से कई सफल फिल्म बनाईं, लेकिन ये बात भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने युवराज, किस्ना और यादें जैसी घटियां फिल्में भी बनाई हैं। अब इस सूची में कांची का नाम भी जोड़ लीजिए। सुभाष घई की सुई अभी भी बीस वर्ष पहले अटकी हुई है और कांची तो इतनी बुरी है कि पच्चीस वर्ष पहले भी रिलीज होती तो बुरी तरह पिटती।
पहले सीन से ही फिल्म कमजोर साबित हो जाती है। साइकिल रेस चल रही है और बैकड्रॉप में कौशम्पा गांव के लोग लोग 'कांची-कांची' का गाना गा रहे हैं। कांची एक सामान्य लड़की है और पता नहीं लोग उसे इतना महामंडित क्यों कर रहे हैं। जो देखो कांची की बात कर रहा है। बिंदा और कांची एक-दूसरे को चाहते हैं। कौशम्पा गांव पर कांकड़ा ब्रदर्स श्याम (मिथुन) और झूमर (ऋषि कपूर) नजर है। मुंबई में रहने वाले ये राजनेता और अमीर भाई इस गांव का औद्योगिकरण करना चाहते हैं। श्याम के बेटे सुशांत का दिल कांची पर आ जाता है, लेकिन कांची उसके प्रेम के प्रस्ताव को ठुकरा देती है। सुशांत को यह बात बुरी लगता है और वह कांची के प्रेमी बिंदा की हत्या कर देता है। किस तरह से कांची बदला लेती है यह फिल्म का सार है।
कहानी बेहद लचर है और इसमें बिलकुल भी नयापन नहीं है। ऊपर से इस कहानी में देशप्रेम और राजनेताओं के खिलाफ युवा आक्रोश का एंगल बेमतलब घुसा दिया गया है। कांची के पिता फौजी थे और बिंदा भी एक स्कूल चलाता है जिसमें बच्चों को वह लड़ने का प्रशिक्षण देता है। बिंदा देश प्रेम का भाषण देते रहता है और हाथ में तिरंगा लिए लोग उसे सुनते हैं। ये दृश्य बचकाने हैं क्योंकि इनकी कहानी में कोई जगह ही नहीं बनती। ऐसा लगता है कि ये सब जबरदस्ती थोपा जा रहा है।
हाथ में मोमबत्ती लिए सड़कों पर निकले युवा दिखाकर शायद सुभाष घई ने युवाओं को अपनी फिल्म से जोड़ने का प्रयास किया है। युवाओं को ध्यान में रख उन्होंने कांची और बिंदा के बीच किसिंग सीन रखे हैं, जो कहानी में फिट नहीं होते। कांची के मुंह से गालियां निकलवाई है जबकि फिल्म में उसका जो कैरेक्टर दिखाया गया है उस पर ये कही सूट नहीं होता। कई दृश्यों में बेवजह भीड़ रखी गई है, हो सकता है कि निर्देशक का ऐसा मानना है कि इससे फिल्म भव्य लगती हो।
स्क्रिप्ट में भी ढेर सारी खामियां हैं। कांची नदी में कूद जाती है और पता नहीं कैसे बचकर मुंबई पहुंच जाती है। वहां जाकर जिस तरीके से वह कांकड़ ब्रदर्स से अपना बदला लेती है वह हास्यास्पद है। ऐसा लगता है कि सिर्फ कांची होशियार है और कांकड़ा ब्रदर्स निरे मूर्ख। कांची की मदद उसका दोस्त करता है, जो कि पुलिस वाला है और ऐसा लगता है कि वह कांकड़ ब्रदर्स के बंगले पर ही चौकीदारी करता हो।
सुभाष घई निर्देशक के रूप में चुक गए हैं। अपने सुनहरे दिनों की वे परछाई मात्र रह गए हैं। उनका फिल्म मेकिंक का स्टाइल आउटडेटेट हो चुका है। कैमरा एंगल से लेकर तो बैकग्राउंड म्युजिक दर्शाता है कि घई पुराने दौर की जुगाली कर रहे हैं। फिल्म का संगीत और गानों का पिक्चराइजेशन 'ब्रेक' लेने के काम आते हैं। 'चोली के पीछे' की तर्ज पर 'कंबल के नीचे' गाना बनाकर घई ने दिखा दिया है कि वे चाह कर भी अपने अतीत से छुटकारा नहीं पा रहे हैं। इस गाने में घई ने अपनी ही पुरानी फिल्मों के हिट गीतों को दोहराया है और अपने द्वारा पेश की गई महिमा चौधरी से भी ठुमके लगवा दिए हैं। ये बात और है कि आज का युवा महिमा को पहचानता भी नहीं होगा।
निर्देशन बुरा हो तो एक्टर भी बुरे हो जाते हैं। ऋषि कपूर इस समय बेहद फॉर्म में हैं, लेकिन इस फिल्म में उन्होंने बेहद घटिया एक्टिंग की है। उनका लुक विजय माल्या से प्रभावित है। मिथुन चक्रवर्ती ने भी ओवर एक्टिंग कर ऋषि को जोरदार टक्कर दी है। मिष्टी नामक हीरोइन को इस फिल्म के जरिये पेश किया गया है। मिष्टी बेहद खूबसूरत हैं, लेकिन अभिनय के मामले में उन्हें बहुत कुछ सीखना है। कई दृश्यों में वे रानी मुखर्जी जैसी दिखाई देती हैं। कार्तिक आर्यन का बतौर हीरो रोल बेहद छोटा है। चंदन रॉय सान्याल भी ओवरएक्टिंग करते नजर आए। सुशांत के रूप में ऋषभ सिन्हा प्रभावित करते हैं।
मिष्ठी और लोकेशन्स की खूबसूरती के अलावा 'कांची' में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है।
बैनर :
मुक्ता आर्ट्स लि.
निर्माता-निर्देशक :
सुभाष घई
संगीत :
सलीम मर्चेण्ट, इस्माइल दरबार
कलाकार :
मिष्टी, कार्तिक आर्यन, ऋषि कपूर, मिथुन चक्रवर्ती, चंदन रॉय सान्याल, आदिल हुसैन, मीता वशिष्ठ
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 31 मिनट 27 सेकंड
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रौनक कोटेचाउम्मीदों, सपनों और रिश्तों के बीच बुनी गई है 'फन्ने खान' की कहानी। यह एक ऐसे पिता की कहानी है, जो अपनी बेटी को भारत का अगला सिंगिंग सेंसेशन बनाने और उसे एक बड़ा मंच देने के लिए किसी भी हद तक जाता है।रिव्यू: वह खुद मोहम्मद रफी तो नहीं बन पाता लेकिन अपनी बेटी को लता मंगेशकर बनाने के सपने जरूर देखता है। सुपरस्टार बनने का ख्वाब देखने वाला प्रशांत शर्मा (अनिल कपूर) जो कि अपने दोस्तों के बीच फन्ने खां के नाम से ज्यादा चर्चित है, अपने सपने को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत करता है। वह बॉलिवुड ऐक्टर शम्मी कपूर की पूजा तक करता नजर आता है और बस ऐसा लगता है कि जैसे वह सिर्फ सुपरस्टारडम के अपने सपने को पूरा करने के लिए ही जिंदा है। हालांकि, वह अपने इस ख्वाब को पूरा नहीं कर पाता और उसकी उम्मीदें अपनी नवजात बच्ची से बंध जाती हैं। यहां तक कि वह उसका नाम भी लता (पीहू सैंड) ही रखता है। लता बड़ी होती है और वह न केवल अच्छा गाती है बल्कि डांस भी अच्छा करती है। हालांकि, प्लस साइज़ होने की वजह से वह स्टेज पर लगातार बॉडी शेमिंग का शिकार भी होती है। प्रशांत अपनी बेटी को स्टार बनाने के लिए सबकुछ करता है और यहां तक कि अपने इस ख्वाब को पूरा करने के लिए जो उसपर जुनून सवार है उसके लिए अपनी ही बच्ची से फटकार भी सुनता है। उन्होंने मुंबई के एक मिडल क्लास व्यक्ति को लेकर बेहतरीन बैलंस बनाने की कोशिश की है जो कि अपने सपने और सच के बीच खूब मशक्कत करता है। उसकी वाइफ कविता (दिव्या दत्ता) भी उसके इस सपने को सच करने में हमेशा उसके साथ होती है। बतौर डेब्यू ऐक्टर पीहू ने अपने किरदार को काफी संवेदनशीलता के साथ जीया है, लेकिन जो चीज समझ से परे है वह है लगातार उसका उसके पापा से शिकायत। हॉट सिंगर बेबी सिंह के किरदार में ऐश्वर्या राय बच्चन काफी गॉरजस दिख रही हैं, लेकिन उनकी कहानी पर ज्यादा मेहनत नहीं ही की गई। टैलंटेड ऐक्टर राजकुमार राव प्रशांत का काफी अच्छा दोस्त है। राजकुमार राव के साथ उनकी केमिस्ट्री अस्वाभाविक नज़र आती है, जो कि कॉमिडी वाले सीन में छिप जाती है। फिल्म की कहानी की राह सेकंड हाफ में थोड़ी भटकती हुई दिखने लगती है। जैसे कि बेबी सिंह की कोई रियल बैकस्टोरी नहीं है और उनकी लाइफ में केवल उनका एक मैनेजर है जो बस यही चाहता है कि एक रिऐलिटी शो में स्टेज पर वह (बेबी) वॉरड्रोब मैलफंक्शन का शिकार हो जाए। फिल्म का सेकंड हाफ काफी लंबा और कठिन नज़र आता है। 'अच्छे दिन' को छोड़कर म्यूज़िकल फिल्म 'फन्ने खां' का साउंड ट्रैक उतना शानदार नहीं बन पड़ा है। कुल मिलाकर 'फन्ने खां' सितारों से भरी एक म्यूज़िकल ड्रामा फिल्म है, जिसमें सितारे अपनी आवाज का जादू बिखेरते दिखते हैं। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे कोई पैरंट्स अपने सपनों को अपने बच्चों के जरिए सच कर दिखाना चाहता है। इस फिल्म के शो स्टॉपर साफ तौर पर अनिल कपूर हैं, जिन्होंने अपने बेहतरीन अदाकारी का परिचय दिया है और जिसके लिए आपको 'फन्ने खां' एक बार जरूर देखनी चाहिए। | 1 |
डरना बुरी बात नहीं होती। कभी-कभी बहादुर बनने के लिए डरना जरूरी होता है। फिल्म 'स्काईस्क्रैपर' के एक सीन में ड्वेन जॉनसन अपने बेटे को यह शिक्षा देता है, तो खुद भी मुश्किल परिस्थितियों में इस पर अमल करते हैं। यह फिल्म स्वायर (ड्वेन जॉनसन) की कहानी है, जो कि एफबीआई एजेंट था। 10 साल पहले एक ऑपरेशन में लोगों की जान बचाने के दौरान वह अपनी टांग गवां देता है। अब वह ऊंची इमारतों की सिक्यॉरिटी को चेक करने वाली एक कंपनी चलाता है। उसकी पत्नी और दो जुड़वा बच्चे उसके साथ ही रहते हैं।स्वायर का एक दोस्त उसकी मुलाकात हांगकांग में दुनिया की सबसे ऊंची इमारत पर्ल के मालिक से कराता है, जो कि उससे अपनी बिल्डिंग की सेफ्टी चेक कराना चाहता है। वह स्वायर को अपनी बिल्डिंग के तमाम सिक्यॉरिटी एक्सेस से जुड़ा टैबलेट देता है। दरअसल, पर्ल का मालिक बिल्डिंग के रेसिडेंशल फ्लोर भी खोलना चाहता है। इस दौरान स्वायर की फैमिली भी एक फ्लोर पर ही रुकती है। अपनी फैमिली को जू भेज कर स्वायर अपने दोस्त के साथ बिल्डिंग की सिक्यॉरिटी चेक करने कंट्रोल रूम जाता है। इसी बीच उस पर हमला होता है और हमलावर उसका बैग छीन कर भाग जाता है। दरअसल वह हमलावर वह टैबलेट छीनना चाहता था। लेकिन वह स्वायर के जेब में ही था। तब स्वायर को पता लगता है कि वह बड़ी साजिश का शिकार हो गया है और उसको बिल्डिंग के मालिक से मिलवाने वाले उसके दोस्त ने उसका इस्तेमाल उसका टैबलेट लेने के लिए किया है। दरअसल वह एक गैंग से जुड़ा है, जो पर्ल के मालिक से बदला लेना चाहते हैं। इसी बीच गैंग के लोग स्वायर पर हमला करके उससे टैबलेट छीन लेते हैं। वहीं गैंग के बाकी लोग बिल्डिंग का सिक्यॉरिटी सिस्टम फेल करके वहां आग लगा देते हैं। स्वायर को पता चलता है कि उसकी पत्नी और बच्चे भी पर्ल में लौट चुके हैं, तो वह उन्हें बचाने के लिए अपनी जान पर खेल कर आग लगी हुई बिल्डिंग में घुस जाता है। स्वायर अपनी फैमिली को बचा पता है या नहीं? यह जानने के लिए आपको सिनेमा घर जाना होगा।यूं तो यह फिल्म महज एक बिल्डिंग की कहानी है, लेकिन डायरेक्टर ने अनोखी बिल्डिंग दिखाई है। फिल्म कहीं भी आपको बोर नहीं होने देती। दुनिया की सबसे ऊंची बिल्डिंग होने के साथ वह सिक्यॉरिटी के मामले में भी आगे है। स्वायर ने अपनी फैमिली को बचाने के लिए कई हैरतअंगेज सीन किए हैं। ड्वेन जॉनसन ने फिल्म में बेहतरीन ऐक्टिंग की है। वहीं उनके साथी कलाकारों ने भी अपने रोल्स को ठीकठाक निभाया है। फिल्म का फर्स्ट हाफ कसा हुआ है, तो सेकंड हाफ और भी रोमांचक है। फिल्म के कुछ सीन सिहरन पैदा करते हैं। अगर वीकेंड पर कुछ रोमांचक देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म देख सकते हैं। | 1 |
बैनर :
धर्मा प्रोडक्शन्स
निर्माता :
करण जौहर, हीरू जौहर
निर्देशक :
करण मल्होत्रा
संगीत :
अजय गोगावले, अतुल गोगावले
कलाकार :
रितिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा, संजय दत्त, ऋषि कपूर, ओम पुरी, चेतन पंडित, आरीष भिवंडीवाला, कनिका तिवारी कैटरीना कैफ (
मेहमान कलाकार)
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 20 रील * 2 घंटे 53 मिनट
अग्निपथ (1990) का रीमेक सही समय पर रिलीज हुआ है। इस समय दर्शकों की रूचि में बदलाव आया है। 80 और 90 के दशक में जिस तरह की फिल्में बनती थीं, वैसी फिल्में पसंद की जा रही हैं। सिंघम, दबंग, वांटेड, बॉडीगार्ड इसका सबूत हैं। इन्हें हम ठेठ देसी फिल्म कह सकते हैं। सीधे हीरो और विलेन की लड़ाई इनमें होती है। पहली रील में ही पता चल जाता है कि हीरो का टारगेट है बदला लेना। ये भी पता रहता है कि वह इसमें कामयाब होगा। दिलचस्पी सिर्फ इसमें होती है कि कैसे?
मुकुल एस. आनंद निर्देशित फिल्म अग्निपथ (1990) फ्लॉप रही थी। अमिताभ बच्चन ने आवाज बदलकर संवाद डब किए थे, जो दर्शकों की समझ में ही नहीं आए और इसे फिल्म के पिटने का मुख्य कारण माना गया। किसी फ्लॉप फिल्म का रीमेक बनना बिरला उदाहरण है।
दरअसल अमिताभ वाली अग्निपथ को बाद में टीवी पर देख दर्शकों ने काफी सराहा। करण जौहर को लगा कि उनके पिता यश जौहर की फिल्म के साथ दर्शकों ने ठीक इंसाफ नहीं किया, इसलिए उन्होंने एक बार और इस फिल्म को बनाया ताकि इसकी सफलता के जरिये वे साबित कर सकें कि उनके पिता द्वारा बनाई गई फिल्म उम्दा थी।
अग्निपथ (2012) एक बदले की कहानी है। इसमें थोड़े-बहुत बदलाव किए गए हैं, लेकिन फिल्म की मूल कहानी 1990 में रिलीज हुई फिल्म जैसी ही है। मांडवा में रहने वाला बालक विजय दीनानाथ चौहान (मास्टर आरीष भिवंडीवाला) की आंखों के सामने उसके सिद्धांतवादी पिता (चेतन पंडित) को कांचा चीना (संजय दत्त) बरगद के पेड़ से लटका कर मार डालता है क्योंकि कांचा के बुरे इरादों की राह में मास्टर रुकावट थे।
विजय अपनी मां (जरीना वहाब) के साथ मुंबई जा पहुंचता है, जहां उसकी मां एक बेटी को जन्म देती है। विजय का एक ही लक्ष्य रहता है कि किसी तरह अपने पिता की मौत का बदला लेना। वह गैंगस्टर रऊफ लाला (ऋषि कपूर) की शरण लेता है। अब विजय (रितिक रोशन) बड़ा हो चुका है। अपराध की दुनिया का बड़ा नाम है। रऊफ लाला के जरिये वह कांचा तक जा पहुंचता है और किस तरीके से बदला लेता है यह फिल्म का सार है।
फिल्म का स्क्रीनप्ले (इला बेदी और करण मल्होत्रा) बहुत ही ड्रामेटिक है। हर चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। बारिश, आग, त्योहार के बैकड्रॉप में कहानी को आगे बढ़ाया गया है। ये चीजें अच्छी इसलिए लगती हैं क्योंकि कहानी लार्जर देन लाइफ है और ड्रामे में दिलचस्पी बनी रहती है।
बाल विजय और उसके पिता वाले हिस्से को लंबा फुटेज दिया गया है और यह हिस्सा बेहद ड्रामेटिक है। यहां पर दोनों लेखकों ने विजय के कैरेक्टर को बेहतरीन तरीके से दर्शकों के दिलो-दिमाग में बैठा दिया है।
इंटरवल के पहले वाला हिस्सा बेहद मजबूत है। इंटरवल के बाद फिल्म की गति सुस्त होती है। कुछ गाने और दृश्य रुकावट पैदा करते हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है।
क्लाइमेक्स में फिर एक बार फिल्म गति पकड़ती है, हालांकि क्लाइमेक्स थोड़ा जल्दबाजी में निपटाया गया है।
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बैनर :
श्री अष्टविनायक सिनेविजन लिमिटेड, इरोज इंटरनेशनल
निर्माता :
ढिलीन मेहता
निर्देशक :
इम्तियाज अली
संगीतकार :
ए.आर.रहमान
कलाकार :
रणबीर कपूर, नरगिस फखरी, पियूश्र मिश्रा, अदिति राव हैदरी, श्रेया नारायणन शम्मी कपूर
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 39 मिनट * 18 रील
जनार्दन जाखड़ (रणबीर) थोड़ा ठस दिमाग है। उसके भेजे को यह बात समझ में नहीं आती कि वह जिम मॉरिसन जैसा स्टार क्यों नहीं बन पा रहा है। खटारा अंकल उसे बातों-बातों में बताते हैं कि जितने भी सफल संगीतकार हैं, गायक हैं, कलाकार हैं, उनकी जिंदगी में कोई ना कोई दर्द है, इसलिए उनके अंदर से इतनी बेहतरीन कला बाहर आती है।
जनार्दन परेशान हो जाता है कि उसके जीवन में तो कोई दु:ख नहीं है। मां-बाप अभी तक जिंदा है। वह गोद लिया हुआ बच्चा भी नहीं है। वह स्वस्थ है और उसे कोई गंभीर बीमारी नहीं है। गरीब इतना भी नहीं है कि रोटी खाने के लाले पड़े।
मोहब्बत में उसका दिल टूट जाए इसलिए कॉलेज की सबसे खूबसूरत लड़की हीर (नरगिस फखरी) को वह आई लव यू कह देता है। बदले में उसे हीर की कई बातें सुनना पड़ती है। उसे लगता है कि उसका दिल टूट गया है। अब वह रॉक स्टार बन जाएगा।
इस प्रसंग के बाद हीर और जनार्दन, जिसे अब हीर, जॉर्डन कहने लगी है अच्छे दोस्त बन जाते हैं। फिर शुरू होता है जॉर्डन के रॉक स्टार बनने का सफर जिसमें कई उतार-चढ़ाव आते हैं और जिस दर्द की उसे तलाश थी वो भी उसके जीवन में आता है।
दरअसल रॉकस्टार की कहानी उस लोकप्रिय बात को आधार बनाकर लिखी गई है जिसके मुताबिक यदि कलाकार के दिल को ठेस पहुंची हो। उसके जीवन में कोई दर्द हो तो उसकी कला निखर कर सामने आती है।
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स
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कुछ सवाल पैदा होते हैं? हीर की शादी कही और तय हो चुकी है। शादी के पहले वह मौज-मस्ती करना चाहती है (यह प्रसंग ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ की याद दिलाता है)।
घूमने-फिरने के दौरान उसे जॉर्डन से प्यार हो जाता है। इसके बावजूद वह दूसरे इंसान से शादी करने के लिए तैयार क्यों हो जाती है। उस पर घरवालों का कोई दबाव नहीं है। वह बोल्ड है क्योंकि ‘जंगली जवानी’ जैसी फिल्म थिएटर में जाकर देखती है। देशी शराब पीती है। फिर वह जॉर्डन से शादी करने में क्यों हिचकती है?
शादी के बाद वह प्रॉग रहने चली जाती है। उसके पीछे-पीछे जॉर्डन भी जा पहुंचता है। वहां दोनों के बीच रोमांस शुरू हो जाता है। आखिर हीर यह कदम क्यों उठाती है? क्या वह अपनी शादी से खुश नहीं है? हालांकि फिल्म देखते समय ये प्रश्न ज्यादा परेशान नहीं करते हैं, लेकिन इम्तियाज ये बातें स्पष्ट करते तो फिल्म की अपील बढ़ जाती।
निर्देशक के रूप में इम्तियाज अली प्रभावित करते हैं। रंगों का संयोजन, ओवरलेपिंग दृश्यों के जरिये कहानी को कहना और जॉर्डन के दर्द को जिस पॉवरफुल तरीके से परदे पर उन्होंने उभारा है वह प्रशंसनीय है। इम्तियाज ने कई दृश्यों को पेंटिंग की तरह प्रस्तुत किया है। इंटरवल के पहले फिल्म में हल्के-फुल्के प्रसंग है, लेकिन बाद में फिल्म थोड़ी लंबी और खींची हुई लगती है क्योंकि इम्तियाज कुछ दृश्यों को रखने का मोह नहीं छोड़ पाए।
रणबीर कपूर का अभिनय फिल्म की जान है। उनके किरदार के बारे में फिल्म में शम्मी कपूर एक संवाद बोलते हैं ‘यह बड़ा जानवर है। पिंजरे में इसे कैद करना मुश्किल है। यह अपनी दुनिया खुद बनाएगा।‘ और इस जानवर को रणबीर ने बड़ी खूबी से बाहर निकाला है। ठस जनार्दन से कुंठित, आक्रामक और दर्द से छटपटाते जॉर्डन को उन्होंने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। कहा जा सकता है कि अपनी पीढ़ी के कलाकारों में रणबीर सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली हैं।
नरगिस फखरी में आत्मविश्वास तो नजर आता है लेकिन उनका अभिनय एक जैसा नहीं है। कुछ दृश्यों में उनकी एक्टिंग अच्छी है तो कई ऐसे दृश्य भी हैं जहां उनकी अभिनय करने की कोशिश साफ नजर आती है। शम्मी कपूर, अदिति राव हैदरी, श्रेया नारायणन, पियूष मिश्रा मंजे हुए कलाकार हैं और बड़ी सरलता से उन्होंने अपना काम किया है।
ए.आर. रहमान भी इस फिल्म के स्टार हैं। अरसे बाद रहमान ने इतना सुरीला संगीत दिया है। साडा हक, कतिया करूं, हवा-हवा जैसे कई बेहतरीन गाने सुनने को मिलते हैं। इरशाद कामिल ने रहमान की धुनों के साथ न्याय करने वाले शब्द लिखे हैं। फिल्म की एडिटर आरती बजाज का उल्लेख भी जरूरी है जिन्होंने इस तरह से दृश्यों को जोड़ा है कि दर्शक को अलर्ट रहना पड़ता है।
कहानी के मामले में ‘रॉकस्टार’ थोड़ी कमजोर है, लेकिन रणबीर के अभिनय, रहमान के संगीत और इम्तियाज के निर्देशन की वजह से फिल्म देखी जा सकती है।
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com सनी लियोनी स्टारर 'वन नाइट स्टैंड' में भी उनकी पिछली मूवी की तरह ही हॉट और बोल्ड सीन्स पर ज्यादा फोकस किया गया है। फिल्म में कुछ नया नहीं है, वहीं स्टोरी की स्पीड भी काफी स्लो है। मूवी में कैमरा वर्क काफी क्लासी है, जिसकी वजह से कई सीन्स काफी शानदार दर्शाए गए हैं। सेंसर बोर्ड ने बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म पर भी काफी कैंची चलाई है। पूरी मूवी 97 मिनट की होने की वजह से ज्यादा कुछ इम्पैक्ट नहीं छोड़ पाई है। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी: सेलिना (सनी लियोनी) और उर्विल (तनुज वीरवानी) की मुलाकात एक पब में होती है। पहली ही मुलाकात में कुछ देर एक दूसरे से मुखातिब होने के बाद दोनों एक-दूसरे के बेहद करीब आ जाते हैं। इसके बाद वन नाइट स्टैंड के बाद दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। इस मुलाकात के बाद एक ओर जहां सेलिना उर्विल को पूरी तरह से भूलाकर अपनी लाइफ इंजॉय कर रही हैं, वहीं उर्विल अभी भी सेलिना के साथ बिताए लम्हों को चाहकर भी भुला नहीं पाता। इसी को लेकर उर्विल और उसकी पत्नी सिमरन (नायरा बैनर्जी) की जिदंगी भी प्रभावित हो रही है। सेलिना के बारे में और उसके साथ बिताए वक्त को सोच-सोचकर उर्विल अब शराब के नशे में धूत रहने लगता है। कहानी में टिवस्ट उस वक्त आता है जब उर्विल एकबार फिर सेलिना के साथ वन नाइट स्टैंड चाहता है। ऐक्टिंग : सनी ने सेलिना के किरदार में अच्छी ऐक्टिंग की है। ऐसा लगता है कि सनी अब जान चुकी हैं कि अगर बॉलिवुड में लंबी पारी खेलनी है तो यहां सिर्फ कैमरे के सामने सेक्सी अदाओं को दिखाकर काम नहीं चलेगा। तनुज ने अपने किरदार के मुताबिक अच्छा अभिनय किया है। अन्य कलाकारों में नायरा बनर्जी, खालिद सिद्दीकी भी निराश नहीं करते। निर्देशन : भवानी अय्यर की लिखी कहानी में नयापन और दम तो है, लेकिन डायरेक्टर जैसमीन इस कहानी को असरदार ढंग से स्क्रीन पर पेश करने में नाकाम रही हैं। डायरेक्टर ने स्क्रिप्ट की बजाय ज्यादा ध्यान सनी की खूबसूरती और उनकी अदाओं को कैमरे के सामने उतारने में लगा दिया। फिल्म में सनी पर फिल्माए हॉट, सेक्सी सीन्स की भरमार है, लेकिन स्क्रिप्ट में दम नहीं होने और कहानी के बाकी किरदारों पर ज्यादा फोकस नहीं करने की वजह से दर्शक कहानी के साथ कहीं बंध नहीं पाता। संगीत : रिलीज से पहले ही फिल्म का एक गाना 'दो पेग मार' हिट हो चुका है। क्यों देखें : अगर सनी के पक्के फैन हैं तो इस बार उनकी ऐक्टिंग स्किल्स को देखने जाएं। | 0 |
अगर हम डायरेक्टर अनीस बज़्मी की बात करें तो इंडस्ट्री और दर्शकों में उनकी इमेज बॉक्स ऑफिस पर लाइट कॉमिडी और मसाला फिल्में बनाने वाले मेकर की बनी हुई है। अनीस के नाम 'नो एंट्री', 'वेलकम', 'थैंक यू' और 'वेलकम बैक' जैसी कई फिल्में हैं, जो बॉक्सआफिस पर हिट रहीं। अब करीब दो साल के इंतजार के बाद अनीस की नई फिल्म रिलीज़ हुई है तो यकीनन उनके फैन्स और ट्रेड में भी अच्छा-खासा क्रेज होगा। वैसे, अनीस इस फिल्म में अर्जुन कपूर के ऑपोज़िट सोनाक्षी सिन्हा को लेना चाहते थे, लेकिन विदेश में शूटिंग के लंबे शेडयूल और एक-दूसरी फिल्म की शूटिंग में बिजी होने की वजह से सोनाक्षी इस फिल्म को नहीं कर पाई तो उन्होंने सुनील शेट्टी की बेटी अथिया शेट्टी को साइन किया। अनीस की इस फिल्म का माइनस या प्लस पॉइंट फिल्म के अहम किरदारों अनिल कपूर, अर्जुन कपूर, पवन मल्होत्रा, रत्ना पाठक की बीच की कॉमिडी है, लेकिन तीन सिख परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी में पंजाबी भाषा का बोलबाला है। यही वजह है कि अगर आप पंजाबी की एबीसी भी नहीं जानते तो फिल्म को पूरा इंजॉय नहीं कर पाएंगे। अनीस ने अपनी पिछली फिल्मों की तर्ज पर इस फिल्म में भी एकबार फिर उन्हीं पुरानी मसालों को आजमाया जो 80-90 के दशक से बॉक्स आफिस पर हॉट रहे हैं, लेकिन मल्टिप्लेक्स कल्चर और लीक से हटकर बनी फिल्मों को चाहने वाली दर्शकों की क्लास के लिए इस फिल्म में ऐसा कुछ नया नहीं है जो उनकी कसौटी पर सही उतर सके। वहीं लंदन और चंडीगढ़ बेस्ड चार पंजाबी फैमिली के इर्दगिर्द घूमती यह फिल्म इंटरवल से पहले और क्लाइमैक्स में आपके सब्र का इम्तिहान लेती है। खासकर फिल्म के क्लाइमैक्स को बेवजह कुछ ज्यादा ही लंबा खींचा गया लगता है। न जाने क्यूं हमारे फिल्म मेकर्स को पंजाबी फैमिली के बारे में बस यही लगता है कि यह लोग आपस में बात करते हुए भी जरूरत से ज्यादा लाउड रहते हैं, शायद यही वजह है कि अनीस की इस फिल्म के चार अहम किरदार अनिल कपूर, अर्जुन कपूर, पवन मल्होत्रा, रत्ना पाठक स्क्रीन पर ज्यादा वक्त चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं। स्टोरी प्लॉट : करण (अर्जुन कपूर), चरण (अर्जुन कपूर) की शादी के लिए इन दोनों की फैमिली वालों को खूबसूरत और पंजाबी लड़कियों की तलाश है। करण की मां (रत्ना पाठक) को मालूम नहीं उनका मॉर्डन बेटा करण पहले से ही स्वीटी (इलियाना) को अपना दिल दे चुका है। वहीं चंडीगढ़ में अपने पापा (पवन मल्होत्रा) और ममी के साथ रह रहे चरण (अर्जुन) का दिल उस वक्त बिंकल (अथिया शेट्टी) पर आ जाता है जब वह लंदन में अपने पापा और चाचा करतार सिंह बाजवा (अनिल कपूर) के साथ बिंकल को देखने उनके घर जाता है, लेकिन यहां हालात कुछ बिगड़ते हैं कि बिंकल और चरण की शादी की बात बनते-बनते ऐसी बिगड़ती है कि चरण के पिता एक महीने में अपने बेटे की शादी कराने का अल्टिमेटम देकर लंदन से चंडीगढ़ लौट आते हैं। अब खुद को हर मामले में जीनियस और हर मुश्किल को हल करने का आइडिया तलाशने में और खुद को परफेक्ट मानने वाला करतार सिंह इस मामले को सुलझाने के चक्कर में और ज्यादा उलझा देता है। अनीस बज़्मी ने एकबार फिर इस फिल्म का निर्देशन भी अपनी पिछली फिल्मों के स्टाइल में ही किया है। इंटरवल के बाद कहानी को बेवजह खींचा गया है, अनीस अगर बीस मिनट की फिल्म पर कैंची चलाते तो फिल्म की रफ्तार कहीं सुस्त नहीं होती, पूरी फिल्म कुछ पंजाबी परिवारों के आस-पास घूमती है, कई कॉमिडी पंच जानदार हैं, अनिल कपूर और अर्जुन कपूर के बीच की केमिस्ट्री अच्छी बन पड़ी है, लेकिन अनिल और अर्जुन के कंधों पर टिकी इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी भी कई सीन में इन दोनों की ओवर ऐक्टिंग है। अथिया शेट्टी और इलियाना को कुछ खास करने का मौका नहीं मिला, हां चरण के पापा के रोल में पवन मल्होत्रा की ऐक्टिंग का जवाब नहीं। फिल्म का संगीत रिलीज़ से पहले ही कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुका है, टाइटल सॉन्ग मुबारकां, एक शरारती, और हसन जहांगीर के गाए गाने हवा हवा का फिल्मांकन गजब का है। अगर आप टाइम पास बॉलिवुड मसाला टाइप कॉमिडी फिल्में पंसद करते हैं तो मुबारंका आपको अपसेट नहीं करेगी। इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें | 0 |
निर्माता :
रितेश सिधवानी, फरहान अख्तर
निर्देशक :
विवेक ललवानी
संगीत :
शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार :
फरहान अख्तर, दीपिका पादुकोण, राम कपूर, विवान, विपिन शर्मा, शैफाली शाह
यू/ए * 16 रील * दो घंटे 15 मिनट
कल्पना कीजिए कि यदि आपको आपका ही फोन आए तो क्या हो? आइडिया मजेदार है। इसी आइडिया को लेकर विजय ललवानी ने ‘कार्तिक कॉलिंग कार्तिक’ बनाई है।
कार्तिक नारायण (फरहान अख्तर) एक लूज़र है। ऑफिस में सबसे ज्यादा काम करने के बावजूद उसे बॉस की बातें सुननी पड़ती है। कोई उसका दोस्त नहीं है। साथ में काम करने वाली शोनाली मुखर्जी (दीपिका पादुकोण) को वो चाहता है। हजार से भी ज्यादा मेल उसने शोनाली के लिए टाइप किए हैं, लेकिन आत्मविश्वास नहीं है इसलिए सेव करके रखे हैं। पुरानी क्लासिकल हिन्दी फिल्म ‘छोटी सी बात’ यदि आपको याद है तो उसमें अमोल पालेकर ने जो किरदार निभाया था, कार्तिक भी उसी तरह का है।
कार्तिक के पास एक दिन घर पर उसके बॉस का फोन आता है। जोरदार डाँट खाने के बाद वह फोन फेंक कर तोड़ देता है। फिर नया इंस्ट्रुमेंट लाता है और उसके बाद रोजाना सुबह पाँच बजे कार्तिक के फोन आने शुरू हो जाते हैं। घबराकर कार्तिक टेलीफोन एक्सचेंज से पता लगवाता है, लेकिन वहाँ से उसे बताया जाता है कि उसे उसके द्वारा बताए गए वक्त पर कोई कॉल्स नहीं आ रहे हैं।
फोन वाला कार्तिक कुछ ऐसी बातें बताता हैं कि कार्तिक की जिंदगी बदल जाती है। उसमें गजब का आत्मविश्वास आ जाता है। जिस ऑफिस से उसे निकाला गया था उसी ऑफिस में उसे चार गुना सैलेरी पर रखा जाता है। जो शोनाली उसकी तरफ देखती भी नहीं थी, वो उसकी गर्लफ्रेंड बन जाती है।
फोन वाला कार्तिक चेतावनी देता है कि यह बात किसी को बताना नहीं है, इसके बावजूद कार्तिक अपनी गर्लफ्रेंड को यह बात बता देता है। गर्लफ्रेंड उसे डॉक्टर के पास ले जाती है। कार्तिक की इस हरकत से फोन वाला कार्तिक उसकी जिंदगी बरबाद कर देता है। जॉब और गर्लफ्रेंड दोनों उससे संबंध तोड़ लेते हैं। फोन वाला कार्तिक कौन है? वह ऐसा क्यों कर रहा है? यह सस्पेंस है।
जब यह राज खुलता है तो कुछ दर्शक इसे डाइजेस्ट कर सकते हैं लेकिन कुछ के लिए इसे एक्सेप्ट करना आसान नहीं होगा।
विजय ललवानी फिल्म के राइटर भी हैं और डायरेक्टर भी। बतौर डायरेक्टर उन्होंने कहानी को स्क्रीन पर अच्छे से पेश किया है। फिल्म बाँधकर रखती है और दर्शक का फिल्म में इंट्रेस्ट बना रहता है। फिल्म का लुक यूथफुल है और मेट्रो कल्चर को कैरेक्टर अच्छी तरह से पेश करते हैं।
फरहान और दीपिका के रोमांस को बेहतरीन तरीके से पेश किया गया है। दोनों की कैमेस्ट्री अच्छी लगती है। एक हॉट तो दूजा कूल। दोनों के कैरेक्टर को उम्दा तरीके से स्टेबलिश किया है। डॉयलॉग्स बेहतरीन हैं।
राइटर के रूप में विजय को थोड़ा हार्ड वर्क करना था, खासतौर पर सेकंड हाफ में लिखे गए कुछ दृश्य कमजोर हैं। इस हिस्से में फिल्म सीरियस हो गई है। दो गाने बेवजह ठूँसे गए हैं। सस्पेंस को लेकर दर्शकों में वो थ्रिल पैदा नहीं कर पाए। कार्तिक को कौन कॉल कर रहा है इस नतीजे पर भी फिल्म अचानक पहुँच जाती हैं। फिल्म को समेटने में जल्दबाजी की गई है।
फरहान अख्तर ने उम्दा अभिनय किया है। कार्तिक के किरदार को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है। उनका साथ दीपिका पादुकोण ने बेहतरीन तरीके से निभाया है। सेकंड हाफ में दीपिका को कम अवसर मिले हैं और उनकी कमी खलती है। राम कपूर और शैफाली ने भी अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। फिल्म का संगीत मधुर है और तीन गाने सुनने लायक हैं।
कार्तिक कॉलिंग कार्तिक के अंत से आप भले ही सहमत ना हो, लेकिन उम्दा प्रस्तुतिकरण और बेहतरीन अभिनय के कारण यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है।
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बैनर :
वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा, गुनीत मोंगा
निर्देशक :
अनुराग कश्यप
संगीत :
स्नेहा खानवलकर
कलाकार :
मनोज बाजपेयी, नवाजुद्दीन शेख, ऋचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, रीमा सेन, राजकुमार यादव
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 39 मिनट 30 सेकंड
गैंग्स ऑफ वासेपुर के दोनों भाग एक साथ ही देखे जाने चाहिए, वरना किरदारों को याद रखने में परेशानी हो सकती है। जिन लोगों को पहला भाग देखे हुए लंबा समय हो गया है उन्हें कठिनाई महसूस हो सकती है क्योंकि फिल्म का दूसरा भाग ठीक वही से शुरू होता है जहां पहला खत्म होता है। पहले भाग का रिकेप होता तो शायद बेहतर होता।
गैंग्ग ऑफ वासेपुर दो परिवारों की आपसी दुश्मनी की कहानी है, जिसमें अपना वर्चस्व साबित करने के लिए एक-दूसरे के परिवार के लोगों की हत्या की जाती है। ‘बदला’ बॉलीवुड का पुराना फॉर्मूला है और जब अनुराग कश्यप ने अपनी पहली कमर्शियल फिल्म (जैसा की वे कहते हैं) बनाई तो इसी फॉर्मूले को चुना।
अनुराग का बचपन उत्तर भारत के एक छोटे शहर में बीता है। बी और सी ग्रेड फिल्म देख कर वे बड़े हुए और उन्होंने अपनी उन यादों को फिल्म में उतारा है। वासेपुर की युवा पीढ़ी संजय दत्त और सलमान बनने के सपने देखती रहती है।
एक रूटीन रिवेंज ड्रामा इसलिए दिलचस्प लगता है क्योंकि छोटे शहर की आत्मा कहानी और किरदारों में नजर आती है, साथ ही धनबाद और वासेपुर के माहौल से भी बहुत कम दर्शक परिचित हैं। भले ही कहानी में काल्पनिक तत्व हों, लेकिन उनकी प्रेरणा वहां घटे वास्तविक घटनाक्रमों से ली गई है।
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ अनुराग कश्यप की महाभारत है, जिसमें ढेर सारे किरदार हैं और उन्हें बड़ी सफाई से आपस में गूंथा गया है। हर किरदार की अपनी कहानी है। एक पीढ़ी द्वारा की गई गलती को कई पीढ़ियां भुगतती रहती है।
पहले भाग की जान मनोज बाजपेयी थे तो दूसरे की नवाजुद्दीन। नवाजुद्दीन भी बेहतर अभिनेता हैं, लेकिन मनोज जैसा प्रभाव वे नहीं छोड़ पाए। दूसरा भाग पहले का दोहराव लगता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पर कहानी शिफ्ट होती है और वही खून-खराबा होता रहता है। सब का क्या हाल होने वाला है, ये पहले से ही दर्शक को मालूम रहता है, दिलचस्पी इसमें रहती है कि यह कैसे होगा। कुछ जगह फिल्म में ठहराव महसूस होता है क्योंकि गोलियों की बौछार कुछ ज्यादा ही हो गई है।
दूसरे भाग में कुछ अच्छे किरदार देखने को मिलते हैं। जैसे फैजल का छोटे भाई परपेंडिकुलर का किरदार बड़ा मजेदार है। काश उसे ज्यादा फुटेज मिलते। फैजल के रोमांस में एक अलग ही तरह का हास्य है। उसकी प्रेमिका उसे डांट लगाती रहती है कि उसे हाथ लगाने के पहले फैजल को इजाजत लेनी चाहिए। वो सीन बेहद उम्दा है जिसमें फैजल अपनी प्रेमिका से सेक्स करने की इजाजत मांगता है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर देखने का सबसे बड़ा कारण है निर्देशक अनुराग कश्यप। उनका प्रस्तुतिकरण लाजवाब है। बतौर निर्देशक उन्होंने छोटे से छोटे डिटेल का ध्यान रखा है। कुछ सेकंड्स के दृश्य बहुत कुछ कह जाते हैं। सुल्तान का पीछा कर उसकी हत्या करने वाला सीन तो उन्होंने लाजवाब फिल्माया है। ऐसे कई दृश्य हैं।
लाइट, शेड और लोकेशन का अनुराग ने बेहतरीन तरीके से उपयोग किया है। हर एक्टर से उन्होंने ऐसा काम निकलवाया है कि लगता ही नहीं कि वो एक्टिंग कर रहा है। सभी अपने किरदार में डूबे नजर आते हैं। बैकग्राउंड म्युजिक, म्युजिक, सिनेमाटोग्राफी, एडिटिंग टॉप क्लास है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर की कहानी भले ही रूटीन हो, लेकिन जबरदस्त अभिनय और निर्देशन इस फिल्म को देखने योग्य बनाते हैं।
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यह 'रेस' जिंदगी की रेस है, किसी की जान लेकर ही खत्म होगी। फिर चाहे वह दर्शकों की जान ही क्यों न हो! इतने सारे सितारों की फिल्म में आप कुछ मज़ेदार देखने की उम्मीद लगाते हैं, लेकिन अफसोस कि आपको निराशा ही हाथ लगती है। रेस फिल्म की पिछली दोनों हिट फ्रैंचाइजी के बाद इस बार रेस की स्टारकास्ट काफी बदल गई है। पिछली फिल्मों से सिर्फ अनिल कपूर ही ऐसे हैं, जो इस बार भी रेस में हैं, जबकि जैकलीन फर्नांडिस 'रेस 2' के बाद 'रेस 3' में भी हैं। वहीं डायरेक्टर अब्बास-मस्तान की बजाय 'रेस 3' को रेमो डिसूजा ने डायरेक्ट किया है। आपको बता दें कि इस 'रेस 3' का पिछली दोनों फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं है।फिल्म की कहानी शमशेर सिंह (अनिल कपूर ) से शुरू होती है, जो करीब 25 साल पहले भारत से एक साजिश का शिकार होकर अल शिफा आइसलैंड आ जाता है। वह अवैध हथियारों का डीलर है। उसके बड़े भाई रणछोड़ सिंह का बेटा सिकंदर (सलमान खान) उसका दायां हाथ है। बड़े भाई की एक एक्सिडेंट में मौत के बाद शमशेर ने अपनी भाभी से शादी कर ली थी, जिससे उसके दो जुड़वा बच्चे सूरज (साकिब सलीम) और संजना (डेजी शाह) हैं। फिल्म का एक और किरदार यश (बॉबी देओल) सिकंदर का बॉडीगार्ड है। वहीं जेसिका (जैकलीन फर्नांडिस) पहले सिकंदर की गर्लफ्रेंड थी, लेकिन फिर वह यश के साथ आ जाती है। सिकंदर अपनी फैमिली के लिए जान देता है, लेकिन उसके सौतेले भाई-बहन उससे नफरत करते हैं। वे यश को भी भड़का कर अपनी ओर मिला लेते हैं। शमशेर वापस अपने वतन भारत जाना चाहता है और किस्मत से उसे एक मौका मिल जाता है। उसके इस मिशन को पूरा करने सिकंदर के साथ सूरज, संजना, यश और जेसिका कंबोडिया जाते हैं, जहां सूरज, संजना और यश मिलकर सिकंदर को फंसा देते हैं, लेकिन वह जेसिका की मदद से बच निकलता है। उसके बाद खुलते हैं कई ऐसे राज़ जिन्हें जानने के लिए आपको सिनेमा देखना होगा।सलमान खान ने फिल्म में सैफ अली खान की जगह ली है। बेशक, वह काफी स्मार्ट लग रहे हैं और उन्होंने कई अच्छे ऐक्शन सीन भी किए हैं, लेकिन सैफ के चाहने वाले रेस में उन्हें जरूर मिस करेंगे। ईद पर सलमान खान के फैन्स को भाई के जबर्दस्त ऐक्शन की डोज चाहिए होती है। उनके लिए शुरुआत और आखिर में कुछ सीन हैं, लेकिन कहानी के लेवल पर फिल्म एकदम बकवास है। फिल्म आगे बढ़ने के साथ आप उम्मीद करते हो कि अब कुछ होगा, अब कुछ होगा, लेकिन तब तक दो घंटे बीत चुके होते हैं। खासकर फिल्म का फर्स्ट हाफ देखकर आप खुद को लुटा-पिटा महसूस करते हो। सेकंड हाफ में जरूर कुछ ट्विस्ट हैं, लेकिन ऐसे नहीं कि आपको रोमांचित करे। समझ नहीं आता कि दो घंटे की फिल्मों के दौर में रेमो डिसूजा ने पौने तीन घंटे की फिल्म बनाने का रिस्क क्यों लिया। बाकी कलाकारों की अगर बात करें, तो अनिल कपूर हमेशा की तरह लाजवाब हैं। वहीं जैकलीन और डेजी शाह ने ठीक-ठाक स्टंट सीन किए हैं। साकिब सलीम ने अपने रोल को निभा भर दिया है। लंबे समय बाद स्क्रीन पर वापसी करने वाले बॉबी देओल ने शर्ट उतार कर जरूर कुछ ऐक्शन सीन किए हैं, लेकिन उनका भाव हीन चेहरा ऐक्टिंग के मामले में उनका साथ नहीं देता। वहीं विलन का रोल करने वाले फ्रेडी दारूवाला ने पता नहीं यह फिल्म साइन ही क्यों की है। रेस फैमिली में खुद ही इतने विलन हैं कि उनके लिए कोई स्कोप ही नहीं है। वहीं फिल्म के कलाकारों को भोजपुरी में बात करते देख कर भी आपको हैरानी ही होगी। इलाहाबाद से आए शमशेर की तो फिर भी बात समझ में आती है, लेकिन पेईचिंग में पला-बढ़ा सिकंदर क्यों भोजपुरी में बात करता है, यह समझ नहीं आता।हालांकि फिल्म की सिनेमटॉग्रफी लाजवाब है। बैंकॉक और अबू धाबी की बेहतरीन लोकेशंस पर की गई फिल्म की शूटिंग बेशक आपको पसंद आएगी। वहीं 3डी में ऐक्शन और फाइट सीन भी अच्छे लगते हैं। लेकिन एक-दो को छोड़कर बाकी गाने फिल्म में जबरदस्ती ठूंसे हुए लगते हैं। खासकर सेल्फिश सॉन्ग तो समझ से परे है। हालांकि निर्माताओं ने आखिर में साफतौर पर सीक्वल की गुंजाइश छोड़ी है। ध्यान रहे कि यह फिल्म सिर्फ और सिर्फ सलमान के फैन्स के लिए है, जो दिल में आते हैं समझ में नहीं। बाकी दर्शक अपने रिस्क पर फिल्म देखने जाएं। | 0 |
मयंक दीक्षित जब ट्रेलर में दिखाए गए 'सपनों' यानी कुछ सीन्स पर सेंसर की कैंची चल जाती है, तो फिल्म देखने के लिए उठे उत्साह और उकसावे में थोड़ी कमी आ जाती है। मैं इसी कम हुए उत्साह के साथ फिल्म 'ऐंग्री इंडियन गॉडेसेज' देखने के लिए सिनेमाघर में दाखिल होता हूं। निर्देशक पान नलिन फिल्म में अश्लीलता और बोल्डनेस के बीच की पतली डोर टूटने नहीं देते, बल्कि सीन दर सीन उसका अहसास करवाते चलते हैं। फिल्म में पांच लड़कियों का झुंड है, जो मस्ती करता है, हंसता है, रोता है, गाता है, बजाता है। इसी बीच चुपके से ईसाइयत के घेरे में समलैंगिक शादी के मुद्दे का ताना-बाना बुन दिया जाता है, और आम दर्शकों में से ज्यादातर को इसकी भनक तक नहीं लगती। चूंकि पोप फ्रांसिस प्राइम टाइम में नहीं आते, भारत की 'मीडिया मंडी' में उनका दखल कम से कम ही रहता है, तो फिल्म गोवा में समलैंगिक जोड़े के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रखकर कहानी रचना शुरू कर देती है। अमृत मघेरा ने जोआना के किरदार में और इसी तरह राजश्री देशपांडे ने मेड के रोल में गजब फूंकी है, जिससे कहानी में तीन अन्य अभिनेत्रियों के अभिनय को रफ्तार मिलती है। थोड़ी स्लो, थोड़ी तेज स्पीड में गोवा के बीच पर फिल्म फिसलती भी है तो ऐसा लगता है कि ऐसा कहानी में जरूरी था या डिमांड थी। अपनी जिंदगी, अपने पति, अपने बॉयफ्रेंड, अपने सास-ससुर के घेरे से निकलकर पांच लड़कियां कॉलेज लाइफ के अरसों बाद गोवा में मिलती हैं। बीच, समंदर और आबोहवा में की गई ओवर मस्ती भारी पड़ जाती है और उनमें से एक लड़की के साथ गैंगरेप कर उसकी हत्या कर दी जाती है। इस बीच फिल्म में समलैंगिक मुद्दों पर क्रिस्टिऐनिटी के रुख को टटोला जाता है। होमोसेक्शुअलिटी पर बिशप सम्मेलनों से निकले विचार, सुझाव और सीखें याद आने लगती हैं। कभी फिल्म 377 पर तंज कसती है तो कभी दामिनी रेप केस पर दी गई 'सामाजिक' दलीलों के तमाचे जड़ती है। दर्शकों में बैठे प्रेमी/शादीशुदा जोड़ों ने कई बार फिल्म के अलग-अलग सीन देख नजरें नीचे की होंगी। कभी खुद के लिए, कभी पार्टनर के लिए। अभिनय की कसौटी पर अभिनेत्रियां खरी उतरी हैं तो मर्दों की सीमित एंट्री ने डायरेक्टर पान नलिन की बेहतर और अलग सोच को दर्शाया है। स्क्रीनप्ले रोचक है, सिनेमेटॉग्रफी की दाद इसलिए देनी होगी कि समंदर के किनारे एक आम जिंदगी पर्यटन और पर्यटकों जैसी न लगे, इसका खास ध्यान रखा गया है। फिल्म के बीच कोई पति, कोई सास-ससुर टाइप किरदार नहीं है, पर फिर भी निर्देशक और कहानी लिखने वाले ने उन्हें जमकर घसीटा है। घरेलू हिंसा से लेकर आत्मनिर्भरता और आत्मसंतुष्टि का पुट फिल्म को मजबूत करता है। एक सबसे जरूरी बात, कि फिल्म बोरिंग नहीं है, जिस बात का सबसे ज्यादा डर आम भारतीय दर्शक को रहता है। किसी न किसी चीज में दर्शक उलझे रहते हैं और फिल्म आखिर में रोमांस, हास्य, ह्यूमर, सीख और समलैंगिकता परोस कर खत्म हो लेती है और सेंसर के 12 सीन कट होने के बाद भी निराश होने की एक-दो से ज्यादा वजह नहीं छोड़ती। एक और जरूरी मुद्दे को फिल्म उठाती है। कहानी उस विचार और विचारधारा की नाक काटती है कि बीच पर पार्टी करने वाली लड़कियों के साथ होने वाले जुल्म लड़कियों की अपनी गलतियों से ही होते हैं। पुलिस पीड़ित को दोषी और दोषी को पीड़ित बताकर पल्ला झाड़ लेती है। फिर कहानियां दबती जाती हैं। हम सब जीते रहते हैं। पान नलिन जैसे संवेदनशील सोच रखने वाले निर्देशक इस पर फिल्म बनाते रहते हैं। मुझे नहीं पता बिशप सम्मेलनों में समलैंगिक शादी और चर्च में उनके 'दखल' का मसला कहां तक पहुंचा है, लेकिन 'ऐंग्री इंडियन गॉडेसेज' फिल्म वहां तक पहुंची है, जहां तक इसे बनाने वाले ने पहुंचाने की उम्मीद की होगी। मेरी तरफ से फिल्म को साढ़े तीन स्टार। | 0 |
Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर आपने डायरेक्टर मनीष झा के निर्देशन में मातृभूमि और अनवर जैसी लीक से हटकर बनी फिल्में देख रखी हैं तो इस फिल्म को देखकर आपको लगेगा जैसे इसका निर्देशन मनीष ने नहीं किया या फिर उन्होंने बस निर्देशन की खानापूर्ति की है। इस फिल्म के पहले सीन से आखिरी तक कहीं नहीं लगता कि मनीष इस फिल्म को डायरेक्ट कर रहे हैं। ऐसा लगता है मनीष की टीम के किसी दूसरे या तीसरे नंबर के असिस्टेंट ने फिल्म की कमान संभाल रखी हो। वहीं, 'मुन्नाभाई' सीरीज की फिल्मों के अलावा 'जॉली एलएलबी' में अपनी ऐक्टिंग से हर किसी को हैरान कर चुके बोमन ईरानी और अरशद वारसी ने ऐसी फिल्म को क्यों चुना जिसमें उनके करने के लिए कुछ था ही नहीं, समझ से परे नजर आता है। बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म की कहानी बेशक पटना शहर से जुड़ी हो, लेकिन मुंबई के किसी स्टूडियो में पटना का सेट लगाकर मनीष पूरी फिल्म में कहीं भी इस बात का एहसास नहीं करा पाए कि उनकी फिल्म एक बिहारी किडनैपर से जुड़ी है। कमजोर स्क्रिप्ट, सतही निर्देशन और ऐसी कहानी जो शायद ही किसी क्लास के पल्ले पड़ सके, यह फिल्म यकीनन मनीष झा के अब के करियर की सबसे कमजोर फिल्म कही जा सकती है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT MOVIES कहानी : पटना शहर में किडनैपर माइकल मिश्रा (अरशद वारसी) के नाम का डंका बजता है। सारा शहर उसे सल्यूट ठोकता है तो गली मुहल्ले में ड्यूटी करने वाला पुलिसवाला भी माइकल को सल्यूट करता है। माइकल किसी को भी किडनैप करके अपने बड़े से उस अड्डे पर लाकर रखता है जहां उसने सफेद ड्रेस में हाथ में मोमबत्ती थामे एक लड़की को सिर्फ इसलिए रखी हुई है जिससे पुलिसवाले और दूसरे लोग उसके अड्डे को भूतिया अड्डा समझकर वहां न आएं। माइकल मिश्रा ने एक दिन एक युवक को एक गहरे गड्डे से निकालकर उसकी जान बचाई और उसे हाफ पैंट (कायोज ईरानी) का नाम दिया। उसी दिन से हाफ पैंट माइकल मिश्रा का दायां हाथ बन गया और माइकल के गिरोह में शामिल हो गया। माइकल को सालों से एक आवाज की तलाश है। हेलो शब्द सुनने के मकसद से माइकल शहर की कई लड़कियों को जबरन रोकता और उनकी आवाज में हेलो सुनता है, लेकिन माइकल को वह आवाज नहीं मिली जिसकी उसे तलाश थी। अचानक एक दिन माइकल की मुलाकात वर्षा शुक्ला (अदिति राव हैदरी) से हुई। चंद मुलाकातों के बाद माइकल को लगने लगा वर्षा वही लड़की है, जिसकी उसे बरसों से तलाश थी। वर्षा से मिलने के बाद माइकल की जिंदगी का मकसद ही बदल गया। माइकल ने वर्षा के लिए खुद को बदलने का फैसला किया और थाने जाकर आत्मसर्मपण कर दिया। निर्देशन : खुद बिहार के रहने वाले मनीष झा बिहार के पटना शहर के इर्द-गिर्द केंद्रित इस फिल्म को सही ट्रैक पर नहीं रख पाए। दरअसल, फिल्म की स्क्रिप्ट में जरा भी दम नहीं था, वहीं फिल्म के ज्यादातर किरदारों को बिहारी लुक देने के चक्कर में मनीष खुद ऐसे उलझकर रह गए कि ज्यादातर किरदार कहीं भी गिरोह के गुंडे तो नहीं लगे, लेकिन अजीबोगरीब पोशाक पहने कमीडियन जरूर लगे। वहीं इंडस्ट्री के दो दिग्गज स्टार अरशद और बोमन से भी मनीष उनके टैलंट के मुताबिक काम नहीं ले पाए। अगर प्रॉजेक्ट शुरू करने से पहले मनीष कहानी पर कुछ ज्यादा मेहनत करते तो फिल्म कम से कम सिंगल क्लास सेंटर्स पर अच्छा बिज़नस जरूर कर पाती। ऐक्टिंग : अरशद वारसी और अदिति राव हैदरी दोनों ने खुद को ठेठ बिहारी लुक में दिखने और बिहारी स्टाइल में बोलने की अच्छी कोशिश की है, दोनों अपने रोल में कई जगह ओवर एक्टिंग के भी खूब शिकार हुए। वहीं, बोमन ईरानी के बेटे कायोज ईरानी ने हाफ पैंट के किरदार को सही ढंग से निभाया। बोमन ईरानी को फिल्म में बेहद कम फुटेज मिली। दरअसल, बोमन के किरदार को फिल्म में एक सूत्रधार के तौर पर पेश किया गया और उन्होंने इस किरदार को अच्छे ढंग से निभाया। संगीत : बिहार के बैकग्राउंड पर होने के बाद फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं है जो म्यूजिक लवर्स की कसौटी पर खरा उतर सके। हां, फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें : अगर दूसरा कोई विकल्प नहीं है और दो सवा दो घंटे का टाइम कैसे भी पास करना है तो इन माइकल साहब से मिल आएं। | 0 |
न जाने क्यों इस फिल्म के निर्माताओं ने क्या सोचकर अपनी इस फिल्म का ऐसा टाइटल चुना जो एक खास क्लास को सिर्फ टाइटल की वजह से ही इस फिल्म से दूर कर सकता है। वैसे हम सबकी पर्सनल लाइफ में यह शब्द अक्सर किसी न किसी मोड़ पर यूज होता ही रहता है। ऐसा नहीं इस फिल्म में डायरेक्टर ने जिस सब्जेक्ट को चुना उस पर बॉलिवुड में इससे पहले फिल्में न बनी हों। फैमिली क्लास और साफ-सुथरी फिल्मों की गारंटी माने जाने वाले राजश्री बैनर ने भी 70 के दशक में कुछ ऐसी ही कहानी पर जया भादुड़ी को लीड रोल में लेकर 'पिया का घर' बनाई तो अमोल पालेकर स्टारर 'घरोंदा' में भी महानगरों के तंग छोटे बदहाल फ्लैटों में गुजरती जॉइंट फैमिली की समस्याओं को पर्दे पर पेश करने की अच्छी कोशिश की। इस फिल्म में डायरेक्टर सुनील पर कहानी को सही ढंग से कैमरे के सामने उतारने से कहीं ज्यादा बोझ बॉक्स ऑफिस पर बिक रहे चालू मसालों के साथ इस कहानी को कुछ तोड़मरोड़ कर पेश करने का रहा। डायरेक्टर की यह मजबूरी स्क्रीन पर भी दिखती है। कहानी : मोहन मिश्रा (शुभम) ने बनारस की गलियां छोड़ते वक्त ग्लैमर नगरी मुंबई के बारे में जैसा सोचा था, मुंबई आकर उसने देखा यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं है। दिन-रात बेतहाशा भाग रहे इस शहर में रहने वाले लोगों को अपने सिवा कोई और दिखाई नहीं देता, शुभम भी अपने परिवार के साथ एक रूम में रह रहा है। अगर साफ शब्दों में कहा जाए तो फैमिली के सभी लोग इसी रूम को आपस में शेयर करके अपना गुजारा चला रहे हैं। शुभम की फैमिली के सभी लोग महानगर में रहने वाले दूसरे लोगों की तरह किसी तरह से गुजारा चला रहे हैं। हालात, उस वक्त खराब होते हैं जब शुभम की शादी शालिनी (स्वाति कपूर) से होती है। एक छोटे से कमरे को फैमिली के दूसरे लोगों के साथ अजस्ट करना शुभम की वाइफ को गवारा नहीं है। शालिनी शादी के बाद शुभम और अपने रिश्तों को लेकर भी खुश नहीं, उसे लगता है जैसे शुभम उसे छोड़कर ज्यादा वक्त दूसरों के बीच गुजारने लगा है। यहीं से शुभम और उसके बीच आपसी टकराव शुरू होता है, जिसके चलते एक दिन शालिनी घर छोड़कर चली जाती है। वाइफ के घर छोड़कर जाने के बाद शुभम की अपनी फैमिली के लोगों को भी लगने लगता है कहीं शुभम में ही कुछ गड़बड़ी तो नहीं जो वह अपनी खूबसूरत वाइफ से अक्सर दूर रहता है। ऐसे हालात में बेचारे शुभम को फैमिली और वाइफ दोनों के बीच खुद को मर्द साबित करने तक की नौबत आ जाती है। ऐक्टिंग : बिग स्क्रीन पर बेशक शुभम की अभी कुछ पहचान न हो, लेकिन अपने इस किरदार को पर्दे पर जीवंत बनाने के लिए शुभम ने अच्छी मेहनत की है। शालिनी के रोल में स्वाति कपूर अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहीं। स्मॉल स्क्रीन पर पहले से पहचान बना चुकीं स्वाति कपूर ने इस फिल्म में इतना तो साबित किया अगर मौका मिले तो बिग स्क्रीन पर भी वह दम दिखा सकती हैं। फिल्म में कई जानेमाने स्टार कैमियो रोल में नजर आते हैं। उनकी मौजूदगी हॉल में बैठे दर्शकों को एनर्जी पैदा करने का काम करती है। डायरेक्शन : सुनील ने इस सीधी-सादी कहानी को ग्लैमर और चालू मसालों का तड़का लगाकर पेश करने की कोशिश की है। अगर सुनील बॉक्स ऑफिस का मोह छोड़कर स्क्रिप्ट के साथ न्याय करते तो महानगरों में तेजी से पनपती एक समस्या की ओर दर्शकों का ध्यान गंभीरता से खींच सकते थे, लेकिन उन्होंने बॉक्स ऑफिस को ऐसी प्राथमिकता दी कि कहानी और किरदार कहीं गुम होकर रह गए। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल पर फिट है, फिल्म में एक रैप सहित कुल दस गाने हैं। गौहर खान, सनी लियोनी का आइटम नंबर भी है जो फ्रंट क्लास दर्शकों को तालियां बजाने का मौका देता है। क्यों देखें : महानगरों में तेजी से फैलती एक समस्या पर बनी फिल्म जो आपका मनोरंजन करने का दम तो रखती है, लेकिन कहानी में कुछ नयापन या अलग तलाश करने की कोशिश नहीं करें तो अच्छा है। | 0 |
लीक से हटकर कुछ अलग ऐसे टॉपिक पर बनी फिल्में आपको पंसद आती है तो यकीनन यह फिल्म आपके लिए है। इस शुक्रवार को दीपेश जैन के निर्देशन में बनी 'गली गुलियां' रिलीज़ हो रही है। चंद मेजर सेंटरों के जिन मल्टिप्लेक्सों में यह फिल्म रिलीज़ हो भी रही है तो यह इक्का-दुक्का स्क्रीन पर ही रिलीज होगी। जहां इस फिल्म को मेलबर्न फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड भी मिल चुका है तो भी मेकर्स को अपनी इस फिल्म के लिए स्क्रीन तलाशने में काफी जोर लगाने के बाद भी चंद स्क्रीन ही मिल पाए।स्टोरी प्लॉट : पुरानी दिल्ली की तंग गलियों के बीच एक छोटे से मकान में खुद्दूस (मनोज बाजपेयी) अकेले अपनी ही बसाई दुनिया में रहता है। खुद्दूस बिजली का अच्छा कारीगर है, लेकिन वह एक छोटे से कमरे में रहना पसंद करता है। इस अकेले में खुद्दूस का खास दोस्त और उसके पड़ोस में रहने वाला रणवीर शौरी ही उसका खास हमदर्द या साथी है जो उसके लिए लंच डिनर तक का इंतजाम करता है। खुद्दूस के पड़ोस में ही रहने वाला लियाकत (नीरज काबी) कसाई का काम करता है और अपनी खूबसूरत बीवी (सुहाना गोस्वामी) के साथ रहता है। लियाकत का बड़ा बेटा करीब 12 साल का है। लियाकत चाहता है कि उसका बेटा भी कसाई बने, इसीलिए वह उसे अपने साथ अपनी दुकान में बैठाता है। अक्सर लियाकत घर में उसे बुरी तरह से पीटता है, यह बात खुद्दूस को कतई पसंद नहीं। वैसे भी खुद्दूस ने अपनी गली के लगभग सभी मकानों में गुप्त कैमरे लगा रखे हैं जिनकी मदद से खुद्दूस अपने बंद कमरे में बैठकर यह देखता रहता है कि किस के घर में क्या हो रहा है और यह बात खुद्दूस के दोस्त को पंसद नहीं, लेकिन इसके बावजूद वह उसका हर मुश्किल में साथ देता है। खुद्दूस अब किसी तरह से लियाकत के घर तक पहुंचकर वहां भी अपना सीक्रेट कैमरा लगाना चाहता है, जिससे उसको पता चल सके कि वहां क्या हो रहा है। न चाहते हुए भी इस बार भी उसका साथ देता है। क्या खुद्दूस उस मासूम बच्चे को उस पर रोजाना हो रहे जुल्म से बचा पाता है, क्या वजह है कि खुद्दूस ने खुद को तंग गलियों के बीच बने एक छोटे से कमरे में कैद करके रखा हुआ है, अगर आप इन सवालों का जवाब चाहते हैं तो आपको 'गली गुलियां' देखनी होगी। ऐक्टिंग और डायरेक्शन: तारीफ करनी होगी दीपेश जैन की, जिन्होंने एक अलग टाइप की बेहतरीन कहानी को शानदार ढंग से पेश किया है। फिल्म की कहानी आम मुंबइया फिल्मों से बिल्कुल डिफरेंट है। अंत तक दर्शक कुछ न कुछ जानने को बेताब रहते हैं, फिल्म का क्लाइमैक्स गजब का है। दीपेश ने कहानी के मुताबिक ही फिलम की लोकेशन का चयन किया है। यकीनन दीपेश ने दिल्ली की तंग गलियों और वहां रहने वालों की लाइफ को बेहतरीन ढंग से पेश किया है। सिनेमटॉग्रफी गजब की है। स्क्रीनप्ले दमदार है जो पूरी फिल्म को एक ही ट्रैक पर रखता है। तारीफ करनी होगी कि मनोज बाजपेयी ने जिन्होंने इस बार भी अपने किरदार को अपनी लाजवाब ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है, एक बेरहम पिता और कसाई के रोल में नीरज काबी ने अपने किरदार में जान डाली है। चाइल्ड आर्टिस्ट ओम सिंह अपने रोल में परफेक्ट लगे, अन्य कलाकारों में सुहाना गोस्वामी और रणवीर शौरी ने अपने रोल को ठीकठाक निभाया है।क्यों देखें : पहली बात यह बॉलिवुड मसालों से भरी फिल्म नहीं है और यही वजह है कि फिल्म एक खास क्लास के लिए सटीक है। इनकी कसौटी पर फिल्म खरा उतरने का दम रखती है। अगर आप मनोज के फैन हैं तो इस फिल्म को एक बार जरूर देखें। | 0 |
बॉक्स ऑफिस के पैमाने पर हर साल अगर हम लीक से हटकर बन रही सीमित बजट में नई स्टार कॉस्ट या टिकट खिड़की पर भीड़ बटोरने की गांरटी ना समझे जाने वाले स्टार्स के साथ बनी फिल्मों की बात करें तो ताज्जुब होता है ऐसी ज्यादातर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर मुनाफा कमाना तो दूर रहा, अक्सर अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट तक भी नहीं निकाल पाती। हां, इन फिल्मों को देश-विदेश में होने वाले फिल्म फेस्टिवल्स और मीडिया में जमकर तारीफें मिलती हैं एक खास क्लास के दर्शक इन फिल्मों की तारीफें करने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं छोडते, सोशल साइट्स पर ऐसी फिल्मों पर जमकर लिखा जाता है, काश, इन फिल्मों पर कॉमेंट करने वाली क्लास लीक से हटकर बनी इन फिल्मों को देखने अगर थिएटर तक जाए तो यकीनन ऐसी फिल्में बनाने वाले मेकर्स की भी कुछ कमाई हो। इस हफ्ते रिलीज हुई यह फिल्म भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसे शायद चंद फिल्म क्रिटिक्स की और से फुल बट्टा फुल रेटिंग भी मिल जाए लेकिन इन टॉप रेटिंग के बावजूद क्या यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फिल्म दर्शकों की भीड़ बटोर पाएगी। बॉलिवुड मेकर्स के लिए बनारस, काशी की पृष्ठभूमि हमेशा से उनका चहेता सब्जेक्ट रहा है, बरसों पहले काशी के पंडितों को लेकर दिलीप कुमार स्टारर संघर्ष बनी तो अब बॉलिवुड की फिल्मों में कहीं ना कहीं आपको बनारस की लोकेशन नजर आ जाएगी। यह फिल्म एक ऐसी सच्चाई पर पूरी ईमानदारी के साथ बनाई ऐसी फिल्म है जो आज की भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच जब हर कोई सिर्फ अपने सपनों को साकार करने की दौड़ में लगा हुआ है, एक हमारी यंग जेनरेशन को एक बेहतरीन मेसेज देने की अच्छी पहल कही जा सकती है। कहानी: फिल्म एक मीडिल क्लास फैमिली के इर्दगिर्द घूमती है। राजीव (आदिल हुसैन) के पिता दया (ललित बहल) को अब लगने लगा है कि उनका अंत समय अब नजदीक आ रहा है, दूसरी ओर अब राजीव जहां अपनी बिजी लाइफ के चलते चाहकर भी पिता को ज्यादा वक्त नहीं दे पाता तो वहीं दया को लगने लगा है राजीव की वाइफ यानी उनकी बहू लता (गीतांजलि कुलकर्णी) का रवैया भी उनके प्रति पहले जैसा नहीं रहा, दया की उम्र अब ज्यादा हो चुकी है, बढ़ती उम्र के चलते अब वह अक्सर बीमार रहने लगे हैं। वहीं अब बेटे राजीव की फैमिली के बीच दया खुद को बहुत अकेला महसूस करने लगे हैं। ऐसी भी नहीं कि राजीव की पूरी फैमिली में दया साहब को कोई अपना नहीं लगता, राजीव की बेटी और अपनी पोती सुनीता (पालोमी घोष) को दया अपने नजदीक महसूस करते हैं। कुछ वक्त बाद दया को लगने लगता है कि अब उनके दिन करीब आ गये हैं। बेटे राजीव की फैमिली में खुद को अकेला महसूस कर रहे दया एक दिन अपने बेटे से कहते हैं उनकी आखिरी ख्वाहिश यही है कि अपनी आखिरी बची सांसे वह काशी के मुक्ति भवन में जाकर लें, अपने ऑफिस वर्क और डेली रूटीन में बेहद बिजी राजीव ना चाहते हुए भी अपने बूढे़ बीमार पिता की यह आखिरी इच्छा पूरी करने का फैसला करता है, बेशक उसके इस फैसले में उसकी वाइफ लता भी शामिल नहीं है। राजीव किसी तरह अपने ऑफिस से छुट्टी लेकर अपने पिता के साथ काशी पहुंचता है, यहां के एक मुक्ति भवन में उसे पंद्रह दिनों के लिए अपने पिता के साथ रहने की अनुमति मिलती है। यहां अपने पिता की सेवा में राजीव खुद को तैयार कर रहा है, दूसरी ओर, उसे मन ही मन काशी से वापस लौटने का इंतजार है। ऐक्टिंग: राजीव के रोल में आदिल हुसैन पूरी तरह से फिट है, राजीव के अंदर की टेंशन अपने बेहद बिजी रूटीन और ऑफिस की टेंशन के बीच अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने वाले एक पुत्र के किरदार को आदिल ने कैमरे के सामने जीवंत कर दिखाया है। राजीव के पिता दया के किरदार में ललित बहल ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है तो वहीं दया की पोती के किरदार में पालोमी घोष अपने सिमटें किरदार के बावजूद अपनी पहचान छोडने में कामयाब रही है। डायरेक्शन: तारीफ करनी होगी डायरेक्टर शुभाशीष भूटियानी की जिन्होंने ऐसे सब्जेक्ट पर एक साफ सुथरी और बॉक्स् ऑफिस से समझौता किए बिना एक दमदार फिल्म बनाई जो दर्शकों को एक मेसेज तो देती ही है साथ ही उन्हें कहीं ना कहीं बुर्जुगों के प्रति अपने जिम्मेदारी का एहसास भी कराने का दम रखती है। वहीं भूटियानी ने पूरी फिल्म को कहानी और स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक काशी की लोकेशन पर फिल्माया, फिल्मांकन गजब का है, फिल्म के कई सीन्स आपकी आंखें नम करते है तो वहीं फिल्म के सभी किरदारों का जीवंत अभिनया इस फिल्म की सबसे बडी यूसपी है, बेशक फिल्म की गति सुस्त है, सौ मिनट की फिल्म में भी अगर हॉल में बैठा दर्शक खुद को कहानी और किरदारों के साथ ना बांध पाए तो यकीनन इसकी जिम्मेदारी भी डायरेक्टर पर ही जाती है। क्यों देखें: अगर जिदंगी के सच को नजदीक से देखने का जुनून है तो फिल्म आपके लिए है। आदिल हुसैन की बेहतरीन ऐक्टिंग, काशी की लोकेशन के साथ फिल्म में जेन एक्स् के लिए एक सार्थक संदेश भी है। मुंबइंया मसालों और मौज मस्ती के लिए टाइम पास करने के लिए थिएटर जाने वालों के लिए इस मुक्ति भवन में कुछ खास नहीं। | 0 |
कॉरेलिया की शोरगुलवाली सड़कों पर फैली क्रूरता और अराजकता से मुक्त होने की चाह रखनेवाला हैन सोलो (एल्डन) एक महत्त्वाकांक्षी पायलट है। वह अपनी गर्लफ्रेंड क्यूरा (एमीलिया क्लार्क) के साथ उस जगह से छुटकारा पाने की योजना बनाता है, मगर उसे साथ ले जाने में नाकाम रहता है। इसी वजह से वह कॉरेलिया के बाहर अपना सफर सोलो यानी अकेले ही शुरू करता है। अब तीन साल बाद भी हालात कुछ ज्यादा बदले नहीं हैं और हैन एक बार फिर काबिल पायलट के रूप में नजर आता है। वह पैसे कमाकर कॉरेलिया जाने की फिराक में है, मगर इसी सिलसिले में उसकी भिंडत कई बदमाशों से होती है, जिसमें वह कुछ लोगों से दोस्ती का हाथ भी बढ़ाता है। इस सफर में वह अपने सबसे विश्वसनीय और प्यारे साथी च्युबाका से मिलता है और उसके बाद च्युबाका के साथ उसकी कभी न खत्म होनेवाली ऐसी बॉन्डिंग बनती है, जिसे हम कई स्टार वॉर्स की फिल्मों में देख चुके हैं। टोबियाज बैकेट (वुडी हैरेलसन), वैल (थैंडी न्यूटन) और रियो (जॉन फेवरू) के साथ, हैन एक एयर ट्रेन को लूटने की योजना बनाता है, जिसमें बेशकीमती हाइपर फ्यूल है। उनके इरादे नाकाम साबित होते हैं और इसी बीच ड्राइडेन वॉस (पॉल बैटनी) की एंट्री होती है। फिल्म में आगे चलकर हैन और क्यूरा का बड़े ही फिल्मी अंदाज में मिलन होता है। स्टार वॉर फिल्मों की फ्रेंचाइजी से अलग है यह कड़ी, जिसमें हैन सोलो अपराध की दुनिया से दो-चार होता है। निर्देशक रॉन हॉवर्ड ने फिल्म के सुर को सही तरीके से पकड़ा है। चेज सीक्वेंस और ऐक्शन दृश्यों में आपकी सांसे थम जाती हैं। अजब-गजब उड़ती गाड़ियां, चक्रवात की गति वाली एयर ट्रेन और हैरतअंगेज किरदार फिल्म को नयापन देते हैं। स्टार वॉर्स की पिछली फिल्म 6 महीने पहले प्रदर्शित हुई थी, जिसका नाम था ‘द लास्ट जेडी'। अब इस फिल्म की एक स्पिन ऑफ सीरीज शुरू हो चुकी है, जिसका पहला भाग था 'रोग वन' जो 2016 में रिलीज हुई थी। स्टार वॉर देखने वाली नई ऑडियंस के लिए इस फिल्म को समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, मगर फिल्म का पेस और उत्तेजना दर्शकों को बांधे रखता है। हां, अगर आप स्टार वॉर सीरीज के फैन्स नहीं रहे हैं, तो यह फिल्म आपको आकर्षित नहीं कर पाएगी। फिल्म के सभी किरदार खास हैं और उन्हें कलाकारों ने अपने विशिष्ट अंदाज से निभाया है। बेटनी और हैरलसन ने अपने-अपने किरदार में दम दिखाया है, जबकि सोलो उर्फ एल्डन के बारे में जो सबसे खास बात है वह ये कि इस फिल्म को आप क्लासिक स्टार वॉर्स के करीब पाएंगे। उन्होंने अपने रोल में जान डाल दी है। हैरिसन फोर्ड के साथ उनकी तुलना बेमानी है। उन्होंने सोलो के किरदार को अपने ढंग से निभाकर मनोरंजक बना दिया है। क्यूरा के रूप में एमीलिया क्लार्क खूबसूरत लगने के साथ-साथ दमदार भी लगी हैं। डोनाल्ड ग्लोवर के हिस्से में ज्यादा दृश्य नहीं आए हैं, मगर उन्होंने अपनी मौजूदगी बखूबी दर्ज कराई है। थैंडी न्यूटन और पॉल बेटनी ने अपने किरदारों के मुताबिक अभिनय किया है। जॉन पॉवेल का संगीत फिल्म का प्लस पॉइंट है और जॉन विलियम्स की पुरानी धुनों का इस्तेमाल इसे कर्णप्रिय बना देता है। क्यों देखें- स्टार वॉर सीरीज के चाहनेवालों के लिए यह फिल्म मस्ट वॉच है। | 1 |
कहानी- रोमांटिक कॉमिडी 'मेरी प्यारी बिंदु' हॉरर नॉवेल लिखने वाले राइटर अभिमन्यु रॉय (आयुष्मान खुराना) और बचपन से सिंगर बनने की चाहत रखने वाली बिंदु शंकरनारायणन (परिणीति चोपड़ा) की प्रेम कहानी है, जो कि अस्सी के दशक में शुरू होकर तमाम खट्टे-मीठे मोड़ लेती हुई मौजूदा दौर तक जारी रहती है। सीधे-सादे अभिमन्यु और अपनी धुन में मस्त रहने वाली चुलबुली बिंदु की प्रेम कहानी पर सवार होकर फिल्म की कहानी कोलकाता से शुरू होकर ऑस्ट्रेलिया, मुंबई, पेरिस और बेंगलुरु जाती है और आखिरकार कोलकाता लौट आती है। जहां फिल्म के दौरान बार-बार मिलते-बिछड़ते प्रेमियों का आखिरकार जुदा अंदाज में मिलन होता है। रिव्यू- अस्सी के दशक में दो छोटे बच्चों के बीच शुरू हुई यह खूबसूरत प्रेम कहानी नाइनटीज में उनके बीच प्यार, फिर इनकार और फिर इकरार के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहती है। असल जिंदगी में भी बिंदास नजर आने वाली परिणीति चोपड़ा ने फिल्म में अपने अंदाज के मुताबिक चुलबुली और मस्त लड़की के किरदार को शिद्दत से निभाया है, जो कि यंग जेनरेशन की तमाम लड़कियों की तरह अपनी लाइफ के टारगेट को लेकर कंफ्यूज नजर आती है। खुद को प्रपोज करने वाले लड़के के साथ शादी बनाकर उसके बच्चे पालना उसे समझ नहीं आता, क्योंकि वह बचपन से सिंगर बनना चाहती है। एक ऐक्सिडेंट में अपनी मां की मौत का सदमा नहीं भुला पा रही बिंदु अपने सिंगिंग एलबम के फ्लॉप हो जाने का झटका सह नहीं पाती और अपने प्रेमी और उसकी फैमिली का प्यार भरा शादी का प्रपोजल भी ठुकरा देती है। फिल्म में टोमेटो कैचप के साथ ब्रेड खाते हुए लैपटॉप के जमाने में टाइप राइटर पर तीन सालों से अपना लवस्टोरी नॉवेल लिखने के लिए जूझ रहे राइटर के रोल में आयुष्मान ने अच्छा काम किया है। खुद आयुष्मान इस रोल को अपने रीयल बचपन से रिलेट करते हैं। एक ऐसा आशिक जो बचपन से लेकर जवानी तक अपनी प्रेमिका की एक हां की खातिर पेड़ पर चढ़कर उसकी छत पर पहुंचने से गुरेज नहीं करता। बेशक आज के दौर में अभिमन्यु रॉय जैसे आशिक कम ही होते हैं, जो अपने पहले प्यार को भुला नहीं पाते। जैसा कि वह कहता भी है कि प्यार करना सब सिखाते हैं, लेकिन भूलना कोई नहीं। फिल्म के क्लाईमैक्स के दौरान अभिमन्यु बिंदु को अपनी लवस्टोरी नॉवेल की स्क्रिप्ट दिखाते हुए कहता है कि यह मेरा वर्जन है। हैपी एंडिंग वाली स्क्रिप्ट ज्यादा बिकती हैं। लेकिन फिल्म के स्क्रिप्ट राइटर का वर्जन शायद बिंदु वाला था। फर्स्ट टाइम डायरेक्टर आकाश रॉय ने सुप्रतिम सेनगुप्ता की स्क्रिप्ट पर बीते साल कोलकाता में मेरी प्यारी बिंदु की शूटिंग शुरू की, तो लगा था कि फिल्म में कोलकाता भी महत्वपूर्ण किरदार होगा, लेकिन फिल्म देखने के बाद ऐसा कुछ खास नजर नहीं आया। फिल्म के फर्स्ट हाफ में अभि और बिंदु की लवस्टोरी दर्शकों को ज्यादा रोमांचित नहीं करती। खासकर इंटरवल से पहले अभिमन्यु और बिंदु का साल दर साल का चिट्ठा बोझिल लगता है। सेकंड हाफ में जरूर कहानी थोड़ा ट्रैक पर आती है। फिल्म का संगीत सचिन-जिगर ने दिया है। फिल्म में एक गाना माना कि हम यार नहीं खुद परिणीति चोपड़ा ने भी गाया है। थिएटर से बाहर आने के बाद आपको इस गाने के अलावा शायद ही कोई और गाना याद रहेगा। | 0 |
सरकार राज एक फिल्म न होकर एक विचार है, जिसमें व्यवस्था और उसकी विरोधी ताकतें शिद्दत के साथ उभरती हैं।
निर्माता :
रामगोपाल वर्मा, प्रवीण निश्चल
निर्देशक :
रामगोपाल वर्मा
कलाकार :
अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन, तनीषा, गोविंद नामदेव, सयाजी शिंदे, दिलीप प्रभावलकर, उपेन्द्र लिमये, विक्टर बैनर्जी
*यू/ए * 8 रील
‘बैक टू बेसिक्स’। जब क्रिकेट खिलाड़ी से रन नहीं बन रहे हों तो वह इस वाक्य का अनुसरण करता है। निर्देशक रामगोपाल वर्मा भी अपनी पिछली कुछ फिल्मों में फॉर्म में नहीं दिखाई दिए क्योंकि असाधारण फिल्म बनाने के चक्कर में वे घटिया फिल्म बना गए। ‘सरकार राज’ के जरिये वे अपनी मजबूत बुनियाद की तरफ फिर लौटे हैं।
आपराधिक, अंडरवर्ल्ड और डरावनी फिल्म बनाने में उन्हें महारत हासिल है। अपनी इसी खूबी को उन्होंने पहचाना और ‘सरकार’ का अगला भाग ‘सरकार राज’ दर्शकों के सम्मुख बखूबी पेश किया।
‘सरकार राज’ महाराष्ट्र के चर्चित एवं विवादास्पद पॉवर प्रोजेक्ट एनरॉन और कथित रूप से ठाकरे परिवार की पृष्ठभूमि पर आधारित है। अपनी शर्तों पर जीने वाले और हमेशा अपने को सही समझने वाले सरकार अपने जोश के दिनों में इस बात का होश खो बैठते हैं कि एक न एक दिन उन्हें अपने तमाम कामों की कीमत इसी जिंदगी में चुकानी होगी। जब उनका अपना बेटा राजनीतिक साजिश का शिकार होकर मार दिया जाता है तब सिवा आँसू बहाने के उनके पास बचता क्या है?
पॉवर प्लांट स्थापित करने के पीछे ओछी राजनीति, साजिश और खूनी खेल रचे जाते हैं। राजनीति की शतरंज पर सबका इस्तेमाल मोहरे की तरह किया जाता है। यहाँ कोई वफादार नहीं होता और कोई गद्दार नहीं होता। वफादारी और गद्दारी के बीच एक पतली लक्ष्मण रेखा होती है जिसे कभी भी मिटाया जा सकता है।
‘सरकार राज’ में राजनीतिक चालों का घिनौना चेहरा और बैर-बदले की कहानी हत्यारों के माध्यम से चलती है। यहाँ तक कि सरकार अपने बेटे की मौत के बाद अपने रिश्तेदार चीकू को नागपुर से बुलवाकर अगली पीढ़ी तैयार करने की बात करते हैं।
इसे निर्देशक ने खूबसूरती के साथ अंत में दर्शाया है कि जब अनीता यानी ऐश्वर्या राय एक कप चाय लाने का ऑर्डर देती है। इसका मतलब साफ है कि सरकार के समांतर सरकार चलाने वालों के लिए व्यक्ति एक वस्तु से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।
‘सत्या’ और ‘कम्पनी’ के बाद रामू ने एक बार फिर फिल्म माध्यम पर अपनी पकड़ मजबूत की है। उन्होंने ‘सरकार राज’ फिल्म की पटकथा कम पात्रों के जरिये कसावट के साथ परदे पर पेश की है। फिल्म में नाच-गाने अथवा मनोरंजन की गुंजाइश न रखते हुए उन्होंने पात्रों के माध्यम से दर्शकों को सवा दो घंटे बाँधे रखा।
फिल्म के संवाद अँगूठी में नगीने की तरह जड़े हुए लगते हैं। संवाद अमिताभ बोल रहे हों या अभिषेक या फिर राव साहब, दर्शकों को जज्बात और साजिश के रंग साफ समझ में आते हैं।
रामगोपाल वर्मा ने किसी भी कलाकार को जरूरत से ज्यादा फुटेज नहीं दिया है। अमिताभ बच्चन, अभिषेक और ऐश्वर्या ने अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है। फिल्म के चरित्र कलाकारों दिलीप प्रभावलकर, गोविंद नामदेव, सयाजी शिंदे और रवि काले ने भी बेहतरीन अभिनय किया है।
फिल्म के लेखक प्रशांत पांडे का उल्लेख करना भी जरूरी है, क्योंकि उन्होंने रामगोपाल वर्मा का काम आसान किया है। रामगोपाल वर्मा की फिल्म तकनीकी रूप से हमेशा सशक्त रही है और यही बात इस फिल्म में भी नजर आती है।
अमित रॉय की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। लाइट और शेड का उन्होंने उम्दा प्रयोग किया है। आड़े-तिरछे कोणों से फिल्म को शूट कर उन्होंने पात्रों की बेचैनी को परदे पर उतारने की कोशिश की है। अमर मोहिले का बैकग्राउंड म्यूजिक शानदार है और फिल्म का अहम हिस्सा है, हालाँकि कहीं-कहीं वो लाउड हो गया है।
सरकार राज एक फिल्म न होकर एक विचार है, जिसमें व्यवस्था और उसकी विरोधी ताकतें शिद्दत के साथ उभरती हैं।
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com मराठी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी खास पहचान बनाने और बॉक्स ऑफिस पर कई सुपर हिट फिल्म देने के बाद निशिकांत कामत ने कम ही वक्त में बॉलिवुड में भी अपनी खास पहचान बना ली है, बॉलिवुड में कामत के निर्देशन में बनी पिछली फिल्मों मुंबई मेरी जान, फोर्स और दृश्यम ने बॉक्स आफिस पर औसत से अच्छा बिजनस किया। जॉन एक बार फिर कामत के निर्देशन में इस फिल्म में जबर्दस्त दिल दहला देने वाले बेहतरीन गजब ऐक्शन सीन्स करते नजर आएंगे, जॉन पर फिल्माए यहीं ऐक्शन सीन्स इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है। जॉन ने इन ऐक्शन सीन्स को असरदार करने के मकसद से विदेशी ट्रेनर से करीब एक महीने तक मार्शल आर्ट (सियाट) की खास ट्रेनिंग भी ली। कामत के निर्देशन में बनी यह फिल्म कोरियन फिल्म द मैन फ्रॉम नोवेयर से पूरी तरह से प्रेरित है, 2010 में रिलीज हुई इस कोरियन फिल्म ने बॉक्स आफिस पर वर्ल्डवाइड बेहतरीन बिजनेस किया। वैसे अगर जॉन की बात करें तो उन्हें शायद डार्क सब्जेक्ट और कोरियन फिल्म के रीमेक में काम करना कुछ ज्यादा ही पसंद है, करीब दस साल पहले भी जॉन ने संजय गुप्ता के निर्देशन में बनी फिल्म जिंदा में लीड किरदार निभाया, जिंदा भी कोरियन फिल्म ओल्ड बॉय की सीन टू सीन कॉपी थी, अब यह बात अलग है कि जहां ओल्ड बॉय ने दुनिया भर में जबर्दस्त कामयाबी हासिल करने के साथ साथ बॉक्स ऑफिस पर बेहतरीन बिजनस करने के साथ-साथ 28 अवॉर्ड भी अपने नाम किए, वहीं जिंदा बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई। जॉन स्टारर इस फिल्म को सेंसर ने अडल्ट सर्टिफिकेट के साथ पास किया है, इसकी वजह शायद फिल्म में जॉन पर फिल्माएं कुछ ऐसे ऐक्शन स्टंट सीन है जो कमजोर दिल वालों और बच्चों को विचलित कर सकते है। कहानी: इस फिल्म की कहानी कबीर उर्फ रॉकी हैंडसम (जॉन अब्राहम), रूशीदा (श्रुति हासन) और छोटी बच्ची नाओमी (दिया) के इर्द-गिर्द घूमती है। कबीर अपना अतीत भुलाकर अब गोवा में नई जिंदगी शांति और खामोशी के साथ गुजार रहा है। कबीर के पड़ोस में ही एक छोटी सी प्यारी लडकी नाओमी रहती है, नन्हीं नाओमी कबीर को रॉकी हैंडसम कहकर बुलाती है। अचानक एक दिन नाओमी का किडनैप हो जाता है, यहीं से कहानी में टर्निंग प्वाइंट आता है और कहानी में मानव तस्करों और अंगों की खरीद-फरोख्त के धंधे का खुलासा होता है। अब कबीर उर्फ रॉकी की जिंदगी का मकसद नाओमी को किडनैपर की गिरफ्त से छुड़ाना है, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है क्योंकि नाओमी को किडनैप करने वाले गिरोह तक पहुंचना आसान नहीं। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें Nbt Movies ऐक्टिंग : कबीर उर्फ रॉकी के किरदार में जॉन अब्राहम ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है, फिल्म में जॉन पर फिल्माएं एक्शन सीन्स की तुलना हॉलिवुड फिल्मों के एक्शन सीन्स के साथ की जा सकती है, जॉन ने अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए विदेशी ट्रेनर से करीब एक महीने की एक खास मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी ली, ऐक्शन के अलावा कुछ भावुक सीन में भी जॉन ने अच्छी ऐक्टिंग की है। नाओमी के रोल में बेबी दीया ने अपने किरदार को पॉवरफुल बनाने के लिए मेहनत की है। फिल्म में जॉन की वाइफ बनी श्रुति हासन को बेशक फिल्म में कम फुटेज मिली, लेकिन उनका रोल कहानी का अहम और टर्निंग पॉइंट है, इस बार डायरेक्टर निशिकांत कामत ने भी फिल्म में विलेन के किरदार को असरदार ढंग से निभाया है। देखें ट्रेलर- डायरेक्शन: ऐसा लगता है कामत ने इस फिल्म को साउथ कोरियन फिल्म की तर्ज पर बनाने की कोशिश की है, यही वजह है कि स्क्रिप्ट और किरदारों पर ज्यादा ध्यान देने की बजाएं कामत ने फिल्म के ऐक्शन स्टंट सीन्स को हॉलिवुड स्टाइल में पेश किया है, फिल्म के ऐक्शन सीन्स और कैमरा ऐंगल पर कामत ने अच्छा काम किया है, अगर कामत इस प्रॉजेक्ट को शुरू करने से पहले स्क्रिप्ट में मल्टिप्लेक्स कल्चर और जेन एक्स की पसंद को ध्यान में रखकर कुछ बदलाव करते तो सब्जेक्ट में ताजगी का पुट भी नजर आता, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के चलते फिल्म की कहानी अस्सी और नब्बे के दौर में बनी फिल्मों के क्लाइमेक्स की याद दिलाती है। संगीत: श्रेया घोषाल का गाया गाना रहनुना पहले से कई म्यूजिक चार्टस में टॉप फाइव में शामिल है, अंकित तिवारी की आवाज में अल्फाजों की तरह और बॉम्बे रॉकर्स का गाना रॉक द पार्टी भी म्यूजिक लवर्स की जुबां पर पहले से है। क्यों देखें: अगर जॉन के पक्के फैन है तो अपने चहेते स्टार को इस बार हॉलिवुड फिल्मों की तरह ऐक्शन सीन्स करते देख आपके पैसे वसूल हो जाएंगे, बेबी दीया की असरदार एक्टिंग, बेहतरीन कैमरावर्क के साथ साथ गोवा पूणे की नयनाभिराम लोकेशन आपको पसंद आएगी, फैमिली क्लास और टोटली मुंबइयां मसाला फिल्मों के शौकीनों को रॉकी हैंडसम से मिलना अपसेट कर सकता है। कलाकार: जॉन अब्राहम, श्रुति हासन, बेबी दीया, नतालिया कौर, निशिकांत कामत और शरद केलेकर, आइटम नंबर नूरा फतेरी, निर्माता : सुनील खेत्रपाल, जॉन अब्राहम, निर्देशक : निशिकांत कामत, गीत : सचिन पाठक, सागर संगीत : अंकित तिवारी, सनी बावरा, इंद्र बावरा, सेंसर सर्टिफिकेट : अडल्ट, अवधि : 125 मिनट | 0 |
इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए। फिल्म देखने के बाद आप अपने दिल में पवित्र भावनाओं को महसूस करेंगे।
यू*18रील
निर्माता-निर्देशक :
आमिर खान
गीत :
प्रसून जोशी
संगीत :
शंकर-अहसान लॉय
कलाकार :
आमिर खान, दर्शील सफारी, टिस्का चोपड़ा, विपिन शर्मा, सचेत इंजीनियर
बच्चें ओस की बूँदों की तरह एकदम शुद्ध और पवित्र होते हैं। उन्हें कल का नागरिक कहा जाता है, लेकिन दु:ख की बात है बच्चों को अनुशासन के नाम पर तमाम बंदिशों में रहना पड़ता है। आजकल उनका बचपन गुम हो गया है। बचपन से ही उन्हें आने वाली जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार किया जाता है। हर घर से टॉपर्स और रैंकर्स तैयार करने की कोशिश की जा रही है। कोई यह नहीं सोचता कि उनके मन में क्या है? वे क्या सोचते हैं? उनके क्या विचार है?
इन्हीं सवालों और बातों को आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में उठाया है। यह कोई बच्चों के लिए बनी फिल्म नहीं है और न ही वृत्तचित्रनुमा है। फिल्म में मनोरंजन के साथ गहरे संदेश छिपे हुए हैं। बिना कहें यह फिल्म बहुत कुछ कह जाती है। हर व्यक्ति इस फिल्म के जरिए खुद अपने आपको टटोलने लगता है कि कहीं वह किसी मासूम बच्चे का बचपन तो नहीं उजाड़ रहा है।
आठ वर्षीय ईशान अवस्थी (दर्शील सफारी) का मन पढ़ाई के बजाय कुत्तों, मछलियों और पेंटिंग करने में लगता है। उसके माता-पिता चाहते हैं कि वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता। ईशान घर पर माता-पिता की डाँट खाता है और स्कूल में शिक्षकों की। कोई भी यह जानने की कोशिश नहीं करता कि ईशान पढ़ाई पर ध्यान क्यों नहीं दे रहा है। इसके बजाय व
े
ईशान को बोर्डिंग स्कूल भेज देते हैं।
खिलखिलाता ईशान वहाँ जाकर मुरझा जाता है। वह हमेशा सहमा और उदास रहने लगता है। उस पर निगाह जाती है आर्ट टीचर रामशंकर निकुंभ (आमिर खान) की। निकुंभ उसकी उदासी का पता लगाते हैं और उन्हें पता चलता है कि ईशान बहुत प्रतिभाशाली है, लेकिन डिसलेक्सिया बीमारी से पीडि़त है। उसे अक्षरों को पढ़ने में तकलीफ होती है। अपने प्यार और दुलार से निकुंभ सर ईशान के अंदर छिपी प्रतिभा को सबके सामने लाते हैं।
कहानी बेहद सरल है, जिसे आमिर खान ने बेहद प्रभावशाली तरीके से परदे पर उतारा है। पटकथा की बुनावट एकदम चुस्त है। छोटे-छोटे भावनात्मक दृश्य रखे गए हैं जो सीधे दिल को छू जाते हैं।
ईशान का स्कूल से भागकर सड़कों पर घूमना। ताजी हवा में साँस लेना। बिल्डिंग को कलर होते देखना। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को आजादी से खेलते देख कर उदास होना। बरफ का लड्डू खाना। इन दृश्यों को देख कई लोगों को बचपन की याद ताजा हो जाएगी।
आमिर की यह फिल्म उन माता-पिता से सवाल पूछती है कि जो अपनी महत्वाकांक्षा बच्चों के नाजुक कंधों पर लादते हैं। आमिर एक संवाद बोलते हैं ‘बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षा लादना बालश्रम से भी बुरा है।‘
हर किसी को परीक्षा में पहला नंबर आना है। 95 प्रतिशत से कम नंबर लाना मानो गुनाह हो जाता है। ईशान का भाई टेनिस प्रतियोगिता के फाइनल में हार जाता है तो उसके पिता गुस्सा हो जाते हैं। अव्वल नंबर आना बुरा नहीं है, लेकिन उसके लिए मासूम बच्चों को प्रताडि़त कर उनका बचपन छिन लेना बुरा है।
सवाल तो उन माता-पिताओं से पूछना चाहिए कि क्या उन्होंने बच्चे अपने सपने पूरा करने के लिए पैदा किए हैं? क्या वे जिंदगी में जो बनना चाहते थे वो बन पाएँ? यदि नहीं बन पाएँ तो उन्हें भी कोई हक नहीं है कि वे अपनी कुंठा बच्चों पर निकाले।
क्या हम कभी ढाबों या चाय की दुकानों में काम कर रहे छोटे-छोटे बच्चों के बारे में सोचते हैं? क्या हमें यह खयाल आता है कि जो बच्चा हमें खाना परोस रहा है उसका पेट भरा हुआ है या नहीं?
अनुशासन और नियम का डंडा दिखलाकर बच्चों को डराने वाले शिक्षक अपनी जिंदगी में कितने अनुशासित हैं? वे कितने नियमों का पालन करते हैं? सभी बच्चों का दिमाग और सीखने की क्षमता एक-सी नहीं होती है। क्या सभी बच्चों को भेड़ की तरह एक ही डंडे से हांका जाना चाहिए?
बिना संवादों के जरिए ये बातें आमिर खान ने चंद मिनटों के दृश्यों से कहीं है। कहीं उपदेश या फालतू भाषण नहीं। फिल्म देखते समय हर दर्शक इस बात को महसूस करता है। हर माता-पिता और शिक्षकों को यह फिल्म देखना ही चाहिए। शायद वे बच्चों से ज्यादा प्यार करने लगेंगे। उन्हें समझने लगेंगे।
ईशान बने दर्शील सफारी इस फिल्म की जान है। विश्वास ही नहीं होता कि यह बच्चा अभिनय कर रहा है। मासूम से दिखने वाले इस बच्चे ने भय, क्रोध, उदासी और हास्य के हर भाव को अपने चेहरे से बोला है। शायद इसीलिए उसे संवाद कम दिए गए हैं।
आमिर खान मध्यांतर में आते हैं और छा जाते हैं। टिस्का चोपड़ा (ईशान की मम्मी) ने एक माँ की बैचेनी को उम्दा तरीके से पेश किया है। विपिन शर्मा (ईशान के पापा), सचेत इंजीनियर और सारे अध्यापकों का अभिनय भी अच्छा है।
बिना तैयारी के निर्देशन के मैदान में उतरे आमिर खान ने दिखा दिया है कि फिल्म माध्यम पर उनकी समझ और पकड़ अद्भुत है। इस फिल्म में न फालतू का एक्शन है, न फूहड़ कॉमेडी और न अंग प्रदर्शन। इन सारे तत्वों के बिना भी एक उम्दा फिल्म बनाई जा सकती है ये आमिर ने बता दिया है। एक बच्चे की जिंदगी पर फिल्म बनाकर उन्होंने साहस का परिचय दिया है। फिल्म थोड़ी लंबी जरूर है।
प्रसून जोशी द्वारा लिखे गीत बहुत कुछ कहते हैं और परदे पर उनको देखते समय उसका प्रभाव और बढ़ जाता है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत भी अच्छा है। फिल्म की फोटोग्राफी उल्लेखनीय है।
इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए। फिल्म देखने के बाद आप अपने दिल में पवित्र भावनाओं को महसूस करेंगे।
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सी ग्रेड फिल्मों के भी सीक्वल बनने लगे हैं। 'हेट स्टोरी' बोल्ड कंटेंट और कम लागत के कारण सफल रही थी तो फौरन इसका दूसरा भाग तैयार कर रिलीज कर दिया गया। इस तरह की फिल्मों में बोल्ड सीन दिखाने के बहाने ढूंढे जाते हैं, लेकिन सेंसर का मिजाज इन दिनों बेहद सख्त है लिहाजा जिस दर्शक वर्ग के लिए ये फिल्म बनाई गई है उसे निराशा हाथ लगती है।
महिला द्वारा अपने अपमान का बदला लेने की फिल्में 'जख्मी औरत' और 'खून भरी मांग' के जमाने से भी पहले से बनती आ रही है। 'हेट स्टोरी 2' की भी यही कहानी है। इस घिसी-पिटी कहानी को भी न ठीक से लिखा गया है और न ढंग की फिल्म बनाई गई है। लॉजिक की बात करना बेकार है। लगता है कि लेखक और निर्देशक ने बिना दिमाग के काम किया है या फिर दर्शकों को बेवकूफ समझ बैठे हैं।
युवा और आधुनिक लड़की सोनिका (सुरवीन चावला) एक ताकतवर और भ्रष्ट नेता मंदार (सुशांत सिंह) की रखैल है। मंदार को सोनिका बिलकुल नहीं चाहती है, लेकिन उससे डरती है। सोनिका का मंदार शारीरिक शोषण करता है और मानसिक रूप से परेशान करता है। सोनिका की एक दादी वृद्धाश्रम में है। उस दादी को जान से मारने की धमकी देते हुए सोनिका का मंदार शोषण करता है।
सोनिका को अक्षय (जय भानुशाली) से प्रेम हो जाता है। वह उसके साथ गोआ भाग जाती है। मंदार को जब पता चलता है तो वह भी अपने साथियों के साथ गोआ पहुंच जाता है और अक्षय की हत्या कर देता है। सोनिका को वह जिंदा गाड़ देता है। किस तरह से सोनिका बच निकलती है और मंदार एंड कंपनी से अपना बदला लेती है ये फिल्म का सार है।
हेट स्टोरी 2' का निर्देशन विशाल पंड्या ने किया है और माधुरी बैनर्जी ने लिखा है। फिल्म की शुरुआत में मंदार को सोनिका पर अत्याचार करते हुए दिखाया गया है। सोनिका यह सब क्यों सहती है, इस पर रहस्य का आवरण रखा है। लगता है कि कुछ ठोस वजह सामने आएगी, लेकिन दादी को मार डालने की धमकी वाला बौना कारण बताया जाता है, जो इतना अत्याचार सहने के लिए कोई बहुत बड़ी वजह नहीं है। सोनिका आधुनिक लड़की है, पढ़ी-लिखी है, शहर में घूमती है, वह पुलिस की या किसी और की मदद क्यों नहीं लेती, ये बात समझ से परे है।
सोनिका के अतीत के बारे में भी ज्यादा नहीं बताया गया है कि वह मंदार के चंगुल में कैसे फंसी? मंदार उसका शोषण क्यों करता है? केवल एक जगह सोनिका की दादी से एक संवाद बुलवा दिया गया है कि सोनिका के मां-बाप के मरने के बाद मंदार ने उसे पाला, लेकिन कहानी की मुख्य बात को इतना चलताऊ तरीके से निपटाना अखरता है।
बदला लेने वाली सोनिका एकदम बदली हुई नजर आती है। मंदार के सामने सहम कर कांपने वाली सोनिका अचानक साहसी महिला बन जाती है और मंदार के साथियों का मर्डर करती है। अचानक सोनिका में आई यह तब्दीली जंचती नहीं है। सोनिका एकदम से डाकू रामकली की तरह बन जाती है। बदले से उसकी आंखें अंगारों की तरह सुलगती हैं। वह सरेआम सड़क पर गुंडों को जला देती है। पुलिस कुछ नही करती।
वह मोबाइल से पुलिस और मंदार से बातें करती हैं, लेकिन कोई भी उसके पास नहीं पहुंच पाता। उसके पास पिस्तौल कहां से आ जाती है, इसका जवाब भी नहीं मिलता। दादी को पकड़ कर सोनिका को काबू में करने का आइडिया मंदार के दिमाग में बाद में आता है और दर्शकों के दिमाग में पहले। अक्षय का मरने के बाद सोनिका को नजर आने वाले सीन हास्यास्पद हैं। ढेर सारी गलतियां स्क्रिप्ट में हैं, जिनकी ओर ध्यान नहीं दिया गया। समझदार दर्शकों की रूचि आधी फिल्म देखने के बाद ही खत्म हो जाती है और मनोरंजन की तलाश में आए दर्शकों को भी निराशा हाथ लगती है।
विशाल पंड्या ने कहानी को बेहद लंबा खींचा है। गाने फिल्म की स्पीड में ब्रेकर का काम करते हैं। सनी लियोन के गाने को जिस तरह से बेकार किया गया है वो फिल्म मेकर की समझ को दिखाता है।
एक्टिंग डिपार्टमेंट भी निराश करता है। जय भानुशाली में हीरो मटेरियल नहीं है। वे बीमार से लगे हैं और अभिनय भी उनका बेदम है। सुरवीन चावला का सबसे मजबूत रोल है, लेकिन उनके अभिनय में वो बात नजर नहीं आई जो रोल की डिमांड थी। वे जय से बड़ी भी नजर आईं। फिल्म में सुशांत सिंह एकमात्र ऐसे एक्टर हैं जिन्होंने अपना काम ढंग से किया है।
आज तुमपे प्यार आया है' फिल्म की एकमात्र अच्छी बात है, लेकिन यह गाना भी उधार लिया गया है। बाकी सारे कारण इस फिल्म से 'हेट' करने लायक ही हैं।
बैनर :
टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता :
भूषण कुमार
निर्देशक :
विशाल पंड्या
संगीत :
मिथुन, रशीद खान, आर्को
कलाकार :
सुशांत सिंह, सुरवीन चावला, जय भानुशाली, सनी लियोन (आइटम नंबर)
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 9 मिनट 30 सेकंड
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तनुजा चंद्रा ग्लैमर इंडस्ट्री की चंद उन चर्चित नामी डायरेक्टर्स की लिस्ट में शामिल होती है, जो बॉक्स आफिस की परवाह किए बिना ऐसी फिल्में बनाते आए है जो टिकट खिडकी पर बेशक खास कामयाब ना रही हो लेकिन इन्होंने अपनी फिल्मों के लिए एक खास क्लास जरूर तैयार की है। कभी भट्ट कैंप के लिए तमन्ना, संघर्ष, दुश्मन जैसी बेहतरीन फिल्में बना चुकी तनुजा ने इस बार लंबे गैप के बाद जब इस फिल्म के निर्देशन की कमान संभाली तो तभी यह साफ हो गया है कि यह फिल्म भी तनुजा की पिछली फिल्मों की तरह बॉलीवुड मसाला फिल्मों की भीड़ से दूर हटकर होगी। अब जब यह फिल्म दर्शकों के सामने है तो इसे देखकर सत्तर के दशक में कमल हासन, रति अग्निहोत्री की 'एक दूजे के लिए', साथ ही अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट की फिल्म '2 स्टेटस' की याद जरूर आती है। दरअसल, तनुजा की इस फिल्म में भी एक नॉर्थ इंडियन और साउथ इंडियन की प्रेम कहानी है। अब यह बात अलग है कि तनुजा ने इस कहानी को बिल्कुल अलग अंदाज में पिछली दोनों फिल्मों से हटकर पेश किया है। कहानी की डिमांड पर तनुजा ने फिल्म की दिल्ली, अलवर, ऋषिकेश और गगंटोक तक की लोकेशन पर शूट किया, और तनूजा का अपनी इस सिपंल लव और अलग टाइप की कहानी को इन लोकेशन तक मेन किरदारों की जर्नी को पहुंचाना ही इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी बन गई है।कहानी: जया (पार्वती) दक्षिण भारतीय है और उसकी उम्र अब करीब पैंतीस साल की है। कुछ साल पहले उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। सिंगल जया अब कई साल के बाद अपनी जिदंगी को नए सिरे से शुरू करने के लिए लाइफ पार्टनर की तलाश में है। जया की पसंद दूसरों जैसी नहीं है, उसे अपने व्यवहार को समझने वाला ऐसा लाइफ पार्टनर चाहिए जो कुछ-कुछ उसके जैसा हो। जया ने अपना प्रोफाइल एक साइट पर डाली हुई है लेकिन उसे अपनी साइट से अक्सर कुछ ऐसे घटिया रिस्पॉन्स मिलते रहते है लेकिन जया को इनकी परवाह नहीं। इसी बीच जया को अपनी प्रोफाइल पर योगी (इरफान खान) का प्रोफाइल भी मिलती है। योगी की उम्र भी जया के आसपास है। योगी मनमौजी और अपनी बसाई दुनिया में फुल मस्ती के साथ जीने वाला इंसान है। योगी एक कवि है लेकिन उसकी पहचान नहीं बन पाई है। योगी की प्रोफाइल देखने के बाद जया उससे मिलने का फैसला करती है। योगी अतरंग और बहुमुखी है, अपने अंदर कुछ भी रखना उसे गवारा नहीं सो वह अपने दिल की हर बात जया को बेहिचक कह देता है। जया उस वक्त हैरान होती है जब योगी उसे अपनी पिछली प्रेमिकाओं के बारे में पूरी ईमानदार के साथ बताते हुए जया को उनसे अपने साथ मिलने जाने का न्यौता भी देता है। योगी के स्टाइल और उसकी सोच को देखकर जया हैरान है। योगी उसे जब अपनी प्रेमिकाओं से मिलने के लिए अपने साथ ऋषिकेश, अलवर और गंगटोक साथ चलकर मिलने और उनसे अपने खुद के बारे में जानने के लिए साथ चलने के लिए बार-बार कहता है तो जया भी उसके साथ इस खास टूर में साथ चलती है। योगी उस वक्त हैरान रह जाता है जब ऋषिकेश में उसकी पहली प्रेमिका का पति उसे अपना साला और उसके बच्चे उसे मामा जी कहकर बुलाते है। यहां से फ्लाइट, ट्रेन और टैक्सी से योगी और जया की इस जर्नी के आसपास पूरी फिल्म घूमती है।रिव्यू: इरफान और पार्वती दोनों ही अपने अपने किरदारों में 100 फीसदी फिट रहे हैं। पार्वती साउथ की जानी मानी ऐक्ट्रेस हैं, उन्होंने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। इरफान जब भी स्क्रीन पर आते है तो हॉल में बैठे दर्शकों को कुछ पल हंसने का मौका मिलता है। नेहा धूपिया, ईशा श्रवणी, नवनीत निशान और कैमियो रोल में ब्रिजेंद्र काला ने अपनी छाप छोड़ी है। तारीफ करनी होगी तनुजा की जिन्होंने फिल्म में गानों का कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया है। 'जाने दो' और 'खत्म कहानी' गानों का फिल्मांकन शानदार है तो फिल्म की लोकेशन की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। टैक्सी से लेकर हवाई जहाज और ट्रेन की लग्जरी क्लास से लेकर स्लीपर क्लास के सीन्स जानदार बन पड़े हैं तो ऋषिकेश की लोकेशन के बाद गगंटोक की लोकेशन दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने का काम करती है। क्यों देखें: इस फिल्म को देखने की दो वजह हैं। लंबे अर्से बाद तनुजा चंद्रा के स्टाइल की बनी फिल्म देखना। अब यह बात अलग है कि इस बार तनुजा पिछली फिल्मों जैसा जादू नहीं चला पाईं। साउथ की ऐक्ट्रेस पार्वती के साथ इरफान खान की गजब केमेस्ट्री भी देखने लायक है। हालांकि कहानी का बेहद धीमी रफ्तार से आगे खिसकना और लंबे सीन्स फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी हैं। इसके अलावा दर्शकों को पहले से क्लाइमैक्स का आभास हो जाना भी निर्देशन की खामी ही कहा जाएगा। | 0 |
कुल मिलाकर ‘बैड लक गोविंद’ पैसे और समय की बर्बादी है।
निर्माता :
हिमांशु एच. शाह, चिराग शाह, वरुण खन्ना, तरुण अरोरा
कहानी, संवाद, पटकथा और निर्देशन :
वरुण खन्ना
संगीत :
अबू मलिक
कलाकार :
वीजे गौरव कपूर, हृषिता भट्ट, व्रजेश हीरजी, जाकिर हुसैन, परमीत सेठी, ललित मोहन तिवारी, गोविंद नामदेव, अर्चना पूरनसिंह
‘बैड लक गोविंद’ में दिखाया गया है कि नायक गोविंद किस्मत का मारा है। वह भैंस के पास खड़ा होता है तो वह दूध देना बंद कर देती है। लेकिन फिल्म इतनी खराब है कि गोविंद से ज्यादा खराब किस्मत सिनेमाघर में उपस्थित गिने-चुने दर्शकों को अपनी लगती है कि क्यों वे ये फिल्म देखने के लिए आ गए।
हीरो गोविंद की परछाई जिस पर पड़ती है उसके साथ कुछ न कुछ बुरा होता है। वह हारकर दिल्ली से मुंबई जा पहुँचता है। मुंबई में उसकी एक व्यक्ति से पहचान हो जाती है जो उसे अपने घर ले आता है। यहाँ पर उसके साथ कुछ अपराधी भी रहते हैं, जिनकी कुछ लोगों से दुश्मनी है। जब उन्हें गोविंद के बैड लक के बारे में पता चलता है तो वे फायदा उठाने का सोचते हैं। वे उसे जब-तब दुश्मनों के घर भेजते रहते हैं, ताकि उनका नुकसान हो। इसी बीच गोविंद को प्यार हो जाता है और उसका बैडलक गुडलक में बदल जाता है।
फिल्म की कहानी इतनी घटिया है कि उन लोगों की अक्ल पर तरस आता है कि जो इस कहानी पर फिल्म बनाने के लिए तैयार हो गए। कहानी में न लॉजिक है और न मनोरंजन। स्क्रीनप्ले भी बेहद उबाऊ है। दृश्य इतने लंबे हैं कि संवाद लेखक को संवाद लिखना मुश्किल हो गया। फिल्म के एडिटर ने दृश्यों को जोड़-तोड़ कर खाली जगहों को भरा।
फिल्म के अधिकांश दृश्यों में बहुत ज्यादा अँधेरा है। मल्टीप्लैक्स में ही बमुश्किल फिल्म दिखाई देती है। ठाठिया सिनेमाघरों में तो केवल आवाज सुनाई देगी। वैसे भी इस फिल्म को छोटे शहर के टॉकीज वाले शायद ही लगाएँगे क्योंकि बड़े शहरों में ही इस फिल्म की पहले शो से ही हालत पतली है।
गोविंद के रूप में वीजे गौरव कपूर का अभिनय ठीक कहा जा सकता है। हृषिता भट्ट निराश करती हैं। गोविंद नामदेव, जाकिर हुसैन, परमीत सेठी और व्रजेश हीरजी ने अपने चरित्रों को असरदायक बनाने की पूरी कोशिश की है। एक-दो गाने भी हैं, जिनकी धुनें अबू मलिक ने बनाई हैं।
कुल मिलाकर ‘बैड लक गोविंद’ पैसे और समय की बर्बादी है।
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इसमें कोई दो राय नहीं कि सिनेमा एक बेहतरीन दौर से गुजर रहा है। एक दशक पहले तक यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि बिना किसी हिरोइन, नाच-गाने और फाइट सीक्वंस के 60 की उम्र पार कर चुके दो कलाकारों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाई जा सकती है। पिछले 10 वर्षों में दर्शक बदला और यह बदलाव सिनेमा पर भी प्रतिबिंबित हुआ।हाल ही में रिलीज हुईं हिचकी, अक्टूबर, बियॉन्ड द क्लाउड्स जैसी कई फिल्में हैं जिन्होंने प्रचलित फॉर्म्युला फिल्मों के बने-बनाए खांचे को तोड़कर कॉन्टेंट प्रधान फिल्मों का जलवा दिखाया। निर्देशक उमेश शुक्ला की '102 नॉट आउट' उसी शृंखला की फिल्म है। सौम्य जोशी के लिखे गुजराती लोकप्रिय नाटक पर आधारित यह फिल्म बुजुर्गों के एकाकीपन की त्रासदी को दर्शाती है। 75 साल का बाबूलाल वखारिया (ऋषि कपूर) घड़ी की सुइयों के हिसाब से चलने वाला सनकी बूढ़ा है। उसकी नीरस जिंदगी में डॉक्टर से मिलने के अलावा अगर कोई खुशी और उत्तेजना का कारण है तो वह है उसका एनआरआई बेटा और उसका परिवार। हालांकि, अपने बेटे और उसके परिवार से वह पिछले 17 वर्षों से नहीं मिला है। बेटा हर साल मिलने का वादा करके ऐन वक्त में उसे गच्चा दे जाता है। वहीं, दूसरी ओर बाबूलाल का 102 वर्षीय पिता दत्तात्रेय वखारिया (अमिताभ बच्चन) उसके विपरीत जिंदगी से भरपूर ऐसा वृद्ध है जिसे आप 102 साल का जवान भी कह सकते हैं। एक दिन अचानक दत्तात्रेय अपने झक्की बेटे बाबूलाल के सामने शर्तों का पिटारा रखते हुए कहता है कि अगर उसने ये शर्तें पूरी नहीं कीं तो वह उसे वृद्धाश्रम भेज देगा। असल में दत्तात्रेय, धमकी देकर और शर्तों को पूरा करवाकर बाबूलाल की जीवनशैली और सोच को बदलना चाहता है। अब 102 साल की उम्र में वह अपने 75 वर्षीय बेटे को क्यों बदलना चाहता है, इसके पीछे एक बहुत बड़ा राज है। इस राज का पता लगाने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। डायरेक्टर उमेश शुक्ला इससे पहले भी गुजराती नाटक पर आधारित 'ओह माय गॉड' बना चुके हैं। इस बार भी उन्होंने वही राह चुनी। फिल्म के जरिए उमेश ने विदेश में रहने वाले एनआरआई बच्चों के लिए तड़पते माता-पिता को बहुत ही स्ट्रॉन्ग मेसेज दिया है। हालांकि, फिल्म का फर्स्ट हाफ धीमा है और घटनाक्रम में पुनरावृत्ति का अहसास होता है। अन्य सहयोगी किरदारों की कमी खलती है लेकिन सेकंड हाफ में फिल्म गति पकड़ती है और क्लाइमेक्स आपको जज्बाती करने के साथ-साथ एक ऐसी जीत का अहसास करवाता है मानो उस भावनात्मक लड़ाई में अगर किरदार शिकार हो जाता तो आप बहुत कुछ हार जाते।अभिनय की बात करें तो एक बात साफ हो जाती है कि बिग बी को सदी का महानायक क्यों कहा जाता है। फिल्म में दत्तात्रेय की भूमिका में वह आपको लुभाते हैं, चौंकाते हैं, अचंभित करते हैं और आप उनकी भूमिका के प्रवाह में उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति के साथ डूबते-उतराते रहते हैं। उन्होंने किरदार की नब्ज को इस सही अंदाज में पकड़ा है कि आप उस किरदार को अपने साथ महसूस करने लगते हैं। वहीं, तकरीबन 27 साल बाद ऋषि कपूर भी बिग बी के साथ पर्दे पर नजर आए हैं और उनके 75 वर्षीय बेटे बाबूलाल को वह बेहद सहजता और संयम से जी गए। बाप-बेटे की यह जोड़ी आपको अपनी रिश्तेदारी या आस-पड़ोस के किसी दादा-चाचा से जोड़ देती है। दो बूढ़े पिता-पुत्र के बीच की चुटीली और मजेदार रस्साकशी आपको बांधे रखती है। अभिनय के मामले में तीसरे किरदार जिमित त्रिवेदी ने लाजवाब अभिनय किया है। उन्होंने कहीं भी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर जैसे दिग्गजों के साथ अभिनय कर रहे हैं। संगीतकार सलीम-सुलेमान संगीत पक्ष को सबल बना सकते थे। 'बच्चे की जान' और 'कुल्फी' अपना रंग नहीं जमा पाए। जॉर्ज जोसफ का बैकग्राउंड स्कोर ठीक-ठाक रहा। क्यों देखें: स्ट्रॉन्ग मेसेज वाली इस भावनात्मक फिल्म को पारिवारिक सिनेमा प्रेमी देख सकते हैं। | 0 |
बॉलिवुड में बरसों से प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाने का ट्रेंड रहा है। हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट, शीरी-फरहाद, सोहनी-महीवाल या फिर लैला-मजनू की प्रेम कहानी के साथ कई फिल्मों का नाम तो जुड़ा, लेकिन अगर टिकट खिड़की पर कलेक्शन की बात की जाए तो ज्यादातर फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर औसत ओपनिंग तक नहीं मिल पाई। अगर आप फिल्म के टाइटल को देखकर रोमियो-जूलियट जैसी कोई लव स्टोरी देखने की चाह लिए थिअटर जा रहे हैं तो ऐसा इस फिल्म में कुछ नजर नहीं आएगा। सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म के कई हॉट सीन पर कैंची चलाकर फिल्म को 'ए' सर्टिफिकेट दिया, लेकिन वहीं फिल्म के बेहद बोल्ड संवादों के साथ छेड़छाड़ नहीं की। फिल्म के कुछ संवाद ज्यादा ही बोल्ड हैं जो उस माहौल में फिट नहीं बैठते। कहानी : दबंग बाहुबली धर्मराज शुक्ला (प्रियांशु चटर्जी) की बहन जूली शुक्ला (पिया बाजपेयी) अपने भाइयों की चहेती है। जूली का बड़ा भाई धर्मराज शुक्ला अपनी बहन के लिए कुछ भी कर सकता है और यही हाल जूली के दूसरे भाइयों नकुल और भीम का भी है। तीनों भाई अपनी बहन को बस हमेशा हर हाल में खुश देखना चाहते हैं। जूली के तीनों भाइयों का शहर में दबदबा है। सभी भाइयों ने बचपन से जूली को राजकुमारी की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया है। अपने भाइयों की दबंगई का कुछ असर जूली में भी आ गया है, जूली भी कुछ ज्यादा ही बिंदास और मुंहफट है। दिल में आई बात फौरन बोल देती है। जूली किसी से नहीं डरती और अपने साथ रहने वालों को भी किसी से न डरने की सीख देती है। जूली के भाइयों ने अपनी बहन की शादी शहर के दबंग सत्ता तक पहुंच रखने वाले नेता, विधायक के बेटे राजन (चंदन रॉय सान्याल) के साथ तय कर दी है। जूली इस शादी के पक्ष में नहीं, लेकिन अपने भाइयों की खुशी की खातिर खुलकर शादी का विरोध भी नहीं कर पा रही। इस सिंपल कहानी में टिवस्ट उस वक्त आता है जब शादी से पहले राजन अपने घर में हो रही शादी से पहले के एक फंक्शन के दौरान वहां भाइयों के साथ पहुंची जूली से जबरन संबंध बनाता है। जूली राजन के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना चाहती है, लेकिन यहां उसके अपने भाई भी जब उसका साथ नहीं देते। ऐसे में मिर्जा (दर्शन कुमार) जूली का साथ देता है। मिर्जा दिल ही दिल जूली से प्यार करता है। दरअसल, बोल्ड, बिंदास जूली ने कभी राजन को जलाने के लिए मिर्जा के साथ वक्त बिताया और उसके साथ रिश्ते भी बनाए, लेकिन मिर्जा को जब पता चला जूली की शादी राजन के साथ होने वाली है तो उसने जूली से दूरियां बनाने का फैसला कर लिया। कुछ अर्से बाद जूली को भी मिर्जा से सच्चे प्यार का एहसास होता है। मिर्जा और जूली शुक्ला की यह अजीबोगरीब लव स्टोरी बंदूक की गोलियों, खूनखराबे के साए में इलाहाबाद से निकलकर नेपाल तक पहुंच जाती है। ऐक्टिंग : जूली शुक्ला के किरदार को पिया बाजपेयी ने अपनी ओर से बेहतरीन बनाने की अच्छी कोशिश की है। दूसरी ओर इस लव स्टोरी में दर्शन कुमार का भाव विहीन चेहरा माइनस पॉइंट बनकर रह गया है। बेशक दर्शन ऐक्शन सीन में दर्शन खूब जमे तो मिर्जा के किरदार में अनफिट नजर आए। हां, फिल्म में धर्मराज बने किरदार में प्रियांशु चटर्जी खूब जमे हैं। इस फिल्म से प्रियांशु के रूप में ग्लैमर इंडस्ट्री को अच्छा विलन जरूर मिल गया है। निर्देशन : यंग डायरेक्टर राजेश राम सिंह की बेशक स्क्रिप्ट पर पकड़ अच्छी रही, लेकिन न जाने क्यों उन्होंने कहानी को नॉर्थ बेल्ट की पंसद को ध्यान में रखकर आगे बढ़ाया है। कहानी और किरदारों पर उनकी राजेश ने जरूर पकड़ बनाए रखने के साथ-साथ यूपी और नेपाल की बेहतरीन लोकेशन पर फिल्म को शूट किया है। वहीं फिल्म की कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है। बरसों से बाहुबली दबंग भाइयों की चहेती बहन और उसके प्रेमी को लेकर फिल्में बनती रही हैं। इस फिल्म में भी एकबार फिर यही सब दिखाया गया है। वहीं फिल्म में धर्म के नाम पर दंगे के सीन फिल्म में जबरन डाले हुए लगते हैं। इनका फिल्म की कहानी से कहीं कनेक्शन नहीं है, फिर भी इन्हें फिल्म का हिस्सा बनाया गया। संगीत : फिल्म में कई गाने हैं, लेकिन ऐसा कोई गाना नहीं जो म्यूजिक लवर्स की कसौटी पर खरा उतर सके। क्यों देखें : दर्शन कुमार के ऐक्शन सीन, कभी रोमांटिक हीरो रहे प्रियांशु चटर्जी के अलग अवतार को देखने के लिए फिल्म देख सकते हैं। | 1 |
सुभाष नागरे या सरकार (अमिताभ बच्चन) महाराष्ट्र के एक बेहद पावरफुल पॉलिटिकल फैमिली का एक वृद्ध सदस्य, जिनके आधिपत्य का लोग आज भी लोहा मानते हैं। सरकार फिल्म के मुख्य आकर्षण हैं, क्योंकि उनकी विशाल ताकत दर्शकों को उनसे जोड़ती है। 'सरकार' फैंचाइज़ी की इस फिल्म में सरकार के साथ उनके पोते शिवाजी नागरे (अमित साध) नज़र आ रहे हैं, जो कि अपने दादा से जितना प्यार करता है, उतनी ही नफरत भी। क्या शिवाजी सुभाष को धोखा देता है? या फिर वह अपने दादा के ही षड्यंत्र का शिकार हो जाता है? रिव्यू: हम इस फ्रैंचाइज़ी के लीड किरदार और उससे जुड़ी चीजों से पिछले 12 साल से जुड़े हैं, जिससे इस फिल्म को देखते हुए आपको सब देखा हुआ सा लगेगा। साथ ही यह शुरुआत से लेकर अब तक सरकार की मौजूदगी का महत्व भी दर्शकों को बताता है। पिछली फिल्म में अपने दोनों बेटों विष्णु (के.के. मेनन) और शंकर (अभिषेक बच्चन) को खोने के बाद उनकी उम्र तो बढ़ी नज़र आ रही है, लेकिन स्वभाव में आज भी वह उतने ही सख्त दिख रहे। अब वह कई चीजों से खुद को अलग कर चुके हैं, क्योंकि उनका काम उनके दोनों सहयोगी गोकुल (रॉनित) और रमन (पराग) देखते हैं। उनकी पत्नी पुष्पा (सुप्रिया) बीमार रहा करती हैं और वह पूरी तरह उनकी देखभाल में लगे रहते हैं। कहानी सरकार के पोते शिवाजी उर्फ चीकू की एंट्री के साथ आगे बढ़ती है। उसे गोकुल में उन गद्दारों के बारे में पता लग जाता है, जो गुपचुप तरीके से डॉन बनने की तैयारी में है। यहां तक कि सत्ता के संघर्ष के लिए नागरे की चारदीवारी के बाहर भी गोविंद देशपांडे (मनोज बाजपेयी), सत्ता का भूखा और नेता बनने की इच्छा रखने वाले दुबई बेस्ड बिज़नसमैन माइकल (जैकी) और गांधी (बजरंगबली) जैसे लोग सरकार को बर्बाद करने के लिए अपना-अपना दांव लगाते हैं।इस रिव्यू को ગુજરાતી में पढ़ेंः अब सबसे अहम सवाल- क्या 'शिवा', 'सत्या', 'कंपनी' और 'सरकार' का पहला पार्ट बनाने वाले रामगोपाल वर्मा अपनी पुरानी फॉर्म में लौट आए हैं? इस फिल्म में आपको फिल्ममेकर रामगोपाल वर्मा की इन्टेंसिटी की कुछ झलक दिखती है। उनकी महाभारत रूपी कथा या राजमहल की राजनीति भी आप कह सकते हैं, वह बिना किसी रुकावट के पर्दे पर चलती है। हालांकि फिल्म की हर साजिश को लेकर आप बड़ी आसानी से अंदाज़ा लगा लेते हैं। फिल्म के कई डायलॉग काफी अर्थपूर्ण हैं, लेकिन यह फिल्म को बहुत ज्यादा असरदार नहीं बना पाते। इस फ्रैंचाइजी की बाकी फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी लाइट और शैडो का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है, जो फिल्म का ट्रेडमार्क है। साथ ही गोविंदा-गोविंदा वाला बैकग्राउंड स्कोर, इस फिल्म में शानदार है। बच्चन द्वारा गाई गई गणेश आरती आपको मंत्रमुग्ध करने वाला है। इसके अलावा अमिताभ की ऐक्टिंग और अंदाज़ भी आपको अभिभूत करने के लिए काफी हैं। उनके फैन्स के लिए इसे एक शानदार तोहफा कह सकते हैं। अमित मनोज, जैकी और रॉनित ने काफी शानदार अभिनय का परिचय दिया है तो वहीं अभिनेत्रियां यामी, सुप्रिया और रोहिनी का रोल बेहद छोटा है और वह कुछ समय के लिए ही पर्दे पर नज़र आती हैं। | 1 |
चंद्रमोहन शर्मा इस फिल्म के टाइटल को प्रॉडक्शन कंपनी ने एक खास क्लास और लीक से हटकर बनी फिल्मों को पंसद करने वाली क्लास को टारगेट करके ही रखा है। फिल्म का प्रेस शो खत्म होने के बाद इस फिल्म के पीआरओ से जब कई क्रिटिक्स ने फिल्म के टाइटल की वजह पूछी तो खुद पीआरओ साहब को ही इस बारे में कुछ पता नहीं था। आठ साल के अंतराल में ही एक शहर में टोटली एक ही स्टाइल में हुई किडनैपिंग की दो अलग-अलग घटनाओं को एक अलग और रोमांचक ढंग में पेश किया है। वैसे, अगर दो किडनैपिंग की घटनाओं की बात करें तो फिल्म का टाइटिल दो होना चाहिए, तीन नहीं। एक सीनियर क्रिटिक्स की माने तो चूंकि फिल्म की पूरी कहानी तीन लीड किरदारों अमिताभ बच्चन, नवाजुद्दीन सिद्दकी और विद्या बालन के इर्द-गिर्द घूमती है। इसी के चलते प्रॉडयूसर ने फिल्म का टाइटल कुछ अलग ढंग से तीन रखा, लेकिन फिल्म में तीन नहीं बल्कि चार अहम किरदार है, कहानी में बिग बी यानी जॉन के अलावा एक और दादाजी भी है और यह किरदार इस फिल्म का महत्वपूर्ण किरदार है। फिल्म का ट्रेलर- इससे पहले विद्या बालन के कंधों पर कहानी जैसी रोमांचक, थ्रिलर सुपर हिट फिल्म बना चुके डायरेक्टर सुजॉय घोष ने इस फिल्म के निर्देशन की कमान खुद संभालने के बजाए रिभु दास गुप्ता को दी, बेशक रिभु ने स्क्रिप्ट के साथ काफी हद तक न्याय किया, लेकिन बेवजह इंटरवल से पहले फिल्म के कई सीन्स को बेवजह लंबा खींचा तो क्लाइमेक्स में वैसा दम दिखाई नहीं दिया जो सुजॉय की कहानी में नजर आया था। कोलकाता के बैकग्राउंड पर बनी इस फिल्म की शूटिंग रिभु ने कोलकात्ता की पहचान बन चुकी ट्रॉम ट्रेन, हावडा ब्रिज आदि कई लोकेशन्स पर की तो वहीं कुछ सीन्स को देख ऐसा लगता है जैसे रिभु स्टार्ट टू फिनिश बिग बी के किरदार को कुछ ज्यादा ही प्रमुखता भी दी। कहानी : फिल्म की शुरूआत जॉन बिस्वास (अमिताभ बच्चन) से होती है जो हमेशा की तरह इस बार भी कोलकाता के एक पुलिस स्टेशन में अपनी पोती एंजेला को किडनैप करने वाले उन अज्ञात किडनैपर के बारे में पूछताछ करने पहुंचा हुआ है, जिन्होंने आठ साल पहले उसकी पोती एंजेला का किडनैप किया और इसी दौरान एंजेला की एक ऐक्सीडेंट में मौत हो गई। पुलिस भी मानती है कि आठ साल पहले एंजेला का किडनेप हुआ और उसकी मौत हुई। उस वक्त एंजेला के किडनैप की जांच इंस्पेक्टर मार्टिन (नवाजुद्दीन सिद्दकी) को सौंपी लेकिन मार्टिन लाख कोशिशों के बावजूद किडनैपर को पकड़ नहीं पाया, इस केस में असफल होने के बाद मार्टिन को एहसास हुआ कि उसकी वजह से एंजेला की जान चली गई, पुलिस अफसरों ने इस केस में नाकामयाब रहने पर मार्टिन को खूब खरी खोटी सुनाई और इसके बाद मार्टिन पुलिस की नौकरी छोड़ चर्च में प्रीस्ट फादर बन गया। दूसरी ओर, जॉन की बीवी नेंसी इस सदमे के बाद वील चेयर पर पहुंच चुकी हैं। बेशक, इन आठ सालों में बहुत कुछ बदल चुका है, लेकिन जॉन को अब भी आस है कि एक दिन वह एंजेला के किडनैपर को सजा दिलाने में जरूर कामयाब होगा। अस्सी की उम्र के करीब पहुंच चुके जॉन ने हिम्मत नहीं हारी है। मार्टिन के इस केस से हटने के बाद आगे की जांच की कमान सरिता सरकार (विद्या बालन) कौ सौंपी जाती है। सरिता चाहती है कि इस केस की जांच में मार्टिन उसका साथ दे, लंबी जांच पड़ताल के बाद मार्टिन और सरिता अपने अलग ढंग से इस केस की गुत्थी को सुलझाने में लग जाते हैं, इसी दौरान एक मासूम बच्चे का किडनैप उसके नाना (सब्यसांची मुखर्जी) के सामने हो जाता है जब वह अपने नाना के साथ फुटबॉल खेल रहा होता है। ऐक्टिंग: पूरी फिल्म चार अहम किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, अपनी पोती के किडनैपर को सजा दिलाने के लिए भटकते दादाजी का किरदार यकीनन बिग बी से अच्छी तरह से कोई दूसरा निभा नहीं पाता। इंस्पेक्टर मार्टिन के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दकी खूब जमे तो विद्या बालन अपने किरदार में सौ फीसदी फिट है, नाना जी के किरदार में सब्यसांची मुखर्जी को बेशक फुटेज कम मिली लेकिन तीन दिग्गज कलाकारों की मौजूदगी में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग का लोहा मनवाया। निर्देशन: रिभु दास गुप्ता ने स्क्रिप्ट के साथ काफी हद तक इंसाफ किया है, रिभु जहां कोलकाता के माहौल को फिल्म में उतारने में पूरी तरह से कामयाब रहे तो उन्होंने फिल्म के हर कलाकार से अच्छा काम लिया, ना जाने क्यूं इस तेज रफ्तार से आगे बढ़ती कहानी में गाने क्यों ठूंसे, बेशक, बैकग्राउंड में फिल्माए ये गाने फिल्म का हिस्सा बनाकर पेश किए गये लेकिन कहानी की रफ्तार को जरूर कम करते हैं, क्लाइमेक्स बेवजह खींचा गया। संगीत: फिल्म के गाने माहौल के मुताबिक है, बिग बी की आवाज में यह गाने कहानी का बेशक हिस्सा बनाकर पेश किये गए। क्यों देखें: बिग बी की बेहतरीन एक्टिंग, कोलकाता की बेहतरीन लोकेशन के साथ कुछ अलग और नया देखने वाले दर्शकों की कसौटी पर यह फिल्म खरा उतर सकती है। | 1 |
कहानी: यह कहानी है इंडियन नेशनल आर्मी के तीन ऑफिसर की, जिन पर देशद्रोह के लिए मुकदमा चल रहा है। इनके साहस के परिणाम का सामना करने में एक बीमार वकील इनकी मदद करता है। रिव्यूः इस समय हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जब राष्ट्रीय गौरव की भावना बहुत प्रबल हो रही है। अगर आपकी देशभक्ति आपके ऐटिट्यूड, आपके खाने, फिल्म थिऐटर में आपके शिष्टाचार और आपके ट्विटर फीड में नहीं दिखाई देती तो इससे आपके अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो जाता है। जब हम 'भारत' कहने से भी ज्यादा तेजी से निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं, तो हम अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं जिन्होंने अपने खून का बलिदान देकर युद्ध किया और जिनकी वजह से आज हम यहां हैं। 'राग देश' हमें इन्हीं देशभक्त हीरो की ओर वापस ले जाता है। इस फिल्म में मेजर जनरल शाहनवाज़ खान (कुणाल कपूर), लेफ्टिनेंट कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों (अमित साध) और कर्नल प्रेम सेहगल (मोहित मारवा) की कहानी बताई गई है। सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नैशनल आर्मी के ये तीन अधिकारी, दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों को भगाकर भारत में फिर से प्रवेश के लिए सैनिकों को इकट्ठा करते हैं। खान, ढिल्लों और सहगल को ब्रिटिश भारतीय सेना के खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया जाता है। वहीं, उनके वकील भुलाभाई देसाई (केनेथ देसाई) आरोपों को सुलझाने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ पेश करने की कोशिश करते हैं। लेखक-निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने आजादी से लड़ने के इस जंग की कहानी को बड़े ही शानदार तरीके से बयां किया है। भले ही यह फिल्म 1992 में आई 'अ फ्यू गुड मैन' जैसी लगती हो, लेकिन इस फिल्म के पीछे जिन चार लोगों की रिसर्च टीम और दो सदस्यों की राइटिंग टीम ने मेहनत की है वह साफ नज़र आ रही। कहानी को अलग अंदाज़ से कहा जाना था या नहीं इसपर बहस हो सकती है, लेकिन अधिकतर यह स्पष्ट संदेश देने में सफल होती है। कई बार यह फिल्म आपको उस वक्त के सामाजिक-राजनैतिक पहलुओं की जानकारी देगी। यहां तक कि धूलिया ने फिल्म में सत्यता को साबित करने के लिए काफी मेहनत की और रिसर्च कॉस्ट्यूम, सेट और एंप्लॉयी की भाषा (जापानी लोग जापानी भाषा में, ब्रिटिश इंग्लिश में बात कर रहे थे, जिसके लिए कोई डबिंग नहीं की गई) आदि के बल पर वह आजादी से पहले के माहौल को ठीक उसी तरह से रीक्रिएट कर पाने में सफल रहे। हालांकि, फिल्म में तारीख, नंबरों और फैक्ट्स की भरमार है और अचानक लीड ऐक्टर के कुछ रिश्तेदार भी बीच में कूद पड़ते हैं, जिनकी अपनी एक अलग कहानी है। कहें तो जानकारियों की इतनी भरमार है, जिनकी वैसी जरूरत नहीं थी। | 1 |
हॉलीवुड में एक्शन फिल्म बनाने वालों को कुछ नया नहीं सूझ रहा है। पिछले कुछ एक्शन फिल्मों की कहानी मिलती-जुलती है। एक खतरा पैदा होता है। दुश्मन से भिड़ना होता है। हीरो अपनी टीम बनाता है और लड़ाई करता है। 'xXx: रिटर्न ऑफ ज़ेंडर केज' की भी यही कहानी है।
'पैंडोरा बॉक्स' के जरिये सैटेलाइट्स को पृथ्वी पर कही भी गिराया जा सकता था। यह पैंडोरा बॉक्स उन लोगों के हाथ है जिनके इरादे खतरनाक है। उन लोगों से लड़ने के लिए एक काबिल शख्स की जरूरत है। ऐसे में जेंडर केज (विन डीजल) सामने आता है जिसे मृत मान लिया गया था। वह अपनी टीम बनाता है और पैंडोरा बॉक्स हासिल करता है।
कहानी ऐसी है कि आगे क्या होने वाला है ये कोई भी बता दे, लेकिन जो बात फिल्म को देखने लायक बनाती है वो ये कि यह किस तरह होगा। हैरतअंगेज स्टंट्स, जबरदस्त एक्शन, धड़कन बढ़ाने वाले चेज़ सीक्वेंसेस, ताकतवर विन डीज़ल, खूबसूरत दीपिका पादुकोण के जरिये जब बात को आगे बढ़ाया जाता है तो फिल्म में समय तो अच्छी तरह से कट ही जाता है।
हॉलीवुड मूवीज़ में हर किरदार की एंट्री मजेदार तरीके से दिखाने का चलन है और यहां भी वहीं बात देखने को मिलती है। हर किरदार की कुछ खासियत और आदतें हैं। विन डीज़ल की एंट्री भी जोरदार तरीके से होती है और स्क्रिप्ट उनकी इमेज के अनुरूप लिखी गई है ताकि उनके फैंस का पैसा वसूल हो सके। विन डीज़ल ने स्टाइलिश तरीके से अपने किरदार को निभाया है और एक्शन दृश्यों में धमाके पर धमाके करते रहे। पानी में बाइक चलाने वाले चेज़ सीक्वेंस तो शानदार है।
फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा धीमा है और एक्शन फिल्म की गरमाहट महसूस नहीं होती है। सेकंड हाफ में फिल्म ऐसी लय पकड़ती है कि आप सीट पर बैठे रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं। लंबा क्लाइमैक्स है और एक्शन प्रेमियों के लिए यहां पर भरपूर मसाला है।
विन डीज़ल को ताकतवर और बहादुर दिखाने के लिए सिनेमा के नाम पर भरपूर छूट ली गई है। सैकड़ों गोलियां उन पर दागी जाती है, लेकिन वे बच निकलते हैं, खरोंच भी नहीं आती। सैटेलाइट्स से हवाई जहाज की टक्कर करवा देते हैं और चंद सेकंड पहले हजारों फीट ऊपर से कूद जाते हैं, लेकिन ये दृश्य इतनी सफाई से शूट किए गए हैं कि विश्वसनीय लगते हैं।
फिल्म के लिए कलाकारों का चयन सटीक है। विन डीज़ल के इर्दगिर्द पूरी फिल्म घूमती है, फिर भी अन्य कलाकारों को अवसर मिलते हैं। दीपिका खूबसूरत लगी हैं। हालांकि उनका रोल लंबा नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण जरूर है। नीना डोबरेव ने एक्शन के बीच हंसने का अवसर दिया है।
निर्देशक डी.जे. करुसो ने बजाय कुछ नया करने के उन्हीं आजमाए फॉर्मूलों को अपनाया है जिन्हें देख दर्शक खुश होते हैं। उनकी टारगेट ऑडियंस वे लोग हैं जो एक्शन फिल्म देखना पसंद करते हैं और इसका भरपूर डोज़ उन्होंने दिया है।
कुल मिलाकर 'xXx: रिटर्न ऑफ ज़ेंडर केज' एक्शन और स्टंट्स के बल पर मनोरंजन करने में सफल है।
निर्माता : विन डीज़ल, जो रोथ, सामंथा विसेंट
निर्देशक : डी.जे. करुसो
संगीत : ब्रायन टेलर
कलाकार : विन डीज़ल, डॉनी येन, दीपिका पादुकोण, क्रिस वू, रूबी रोज़
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इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप editor.webdunia@webdunia.com
राजकुमार संतोषी की शुरुआती फिल्मों की थीम अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाना थी। ‘घायल’, ‘घातक’ और ‘दामिनी’ में उन्होंने यही बात उठाई थी और उन्हें सफलता भी मिली थी। इसके बाद संतोषी भटक गए और कई खराब फिल्में उन्होंने बनाईं। ‘हल्ला बोल’ के जरिये संतोषी एक बार फिर अपने पुराने ट्रैक पर लौटे हैं।
आज के जमाने में व्यक्ति को अपने पड़ोसी से कोई मतलब नहीं रहता। यदि कोई उसे मार रहा हो तो वह बचाने की कोशिश नहीं करता, लेकिन वह यह भूल जाता है कि अगली बारी उसकी हो सकती है। इसी को आधार बनाकर राजकुमार संतोषी ने ‘हल्ला बोल’ का निर्माण किया है।
अशफाक (अजय देवगन) एक छोटे शहर में रहने वाला युवक है। फिल्मों में काम करना उसका ख्वाब है और इसलिए वह सिद्धू (पंकज कपूर) के साथ नुक्कड़ नाटक करता है। सिद्धांतवादी और सच बोलने वाला अशफाक अभिनय की बारीकियाँ सीखने के बाद मुंबई पहुँच जाता है और फिल्मों में काम पाने की उसकी शुरुआत झूठ से होती है।
धीरे-धीरे वह सफलता की सीढि़याँ चढ़ता जाता है और अशफाक से समीर खान नामक सुपरस्टार बन जाता है। अपनी सुपरस्टार की इमेज को सच मानकर वह अपना वजूद खो देता है। सफलता का नशा उसके दिमाग में चढ़ जाता है। इस वजह से उसके गुरु सिद्धू, पत्नी स्नेहा (विद्या बालन) और माता-पिता उससे दूर हो जाते हैं।
एक दिन एक पार्टी में उसके सामने एक लड़की का खून हो जाता है। खूनी को पहचानने के बावजूद समीर इस मामले में चुप रहना ही बेहतर समझता है क्योंकि उसे डर रहता है कि वह पुलिस और अदालतों के चक्कर में उलझा तो उसकी सुपरस्टार की छवि खराब हो सकती है।
सुपरस्टार समीर और अशफाक में अंतर्द्वंद्व चलता है और जीत अशफाक की होती है। वह पुलिस के सामने जाकर उन दो हत्यारों की पहचान कर लेता है। वे दोनों हत्यारे बहुत बड़े नेता और उद्योगपति के बेटे रहते हैं। वह नेता और उद्योगपति समीर को धमकाते हैं, लेकिन वह नहीं डरता। अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए वह नेता अदालत में समीर को झूठा साबित कर देता है।
समीर को अहसास होता है कि परदे पर हीरोगीरी करने में और असल जिंदगी में कितना फर्क है। वह अपने गुरु सिद्धू की मदद से ‘हल्ला बोल’ नामक नाटक का सड़कों पर प्रदर्शन करता है और जनता तथा मीडिया की मदद से हत्यारों को सजा दिलवाता है।
राजकुमार संतोषी ने इस कहानी को बॉलीवुड के हीरो के माध्यम से कही है। उनके मन में आमिर खान का आंदोलन को समर्थन देना, मॉडल जेसिका लाल और सफदर हाशमी हत्याकाँड था। उन्होंने इन घटनाओं से प्रेरणा लेकर कहानी लिखी।
पहले हॉफ में उन्होंने बॉलीवुड के उन तमाम सुपरस्टार्स की पोल खोली जो पैसों की खातिर बेगानी शादियों में नाचते हैं। एक संवाद है ‘यदि पैसा मिले तो ये मय्यत में रोने भी चले जाएँ।‘
एक सुपरस्टार खुद अपनी इमेज में ही किस तरह कैद हो जाता है, इस कशमकश को उन्होंने बेहतरीन तरीके से दिखाया है। समीर खान का सड़क पर आकर न्याय माँगने के संघर्ष को उन्होंने कम फुटेज दिया, इस वजह से फिल्म का अंत कमजोर हो गया है। मध्यांतर के बाद फिल्म को संपादित कर कम से कम बीस मिनट छोटा किया जा सकता है।
फिल्म में कई दृश्य हैं जो दर्शकों को ताली पीटने पर मजबूर करते हैं। विद्या बालन का प्रेस के सामने आकर अजय का साथ देना। अजय का बेस्ट एक्टर अवॉर्ड जीतने के बाद भाषण देना।
अजय का मंत्री के घर जाकर उसका घर गंदा करना। अल्पसंख्यक होने के बावजूद समीर खान का मुस्लिम समुदाय से मदद लेने से इनकार करना। संवाद इस फिल्म का बेहद सशक्त पहलू हैं। निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अधिकांश दृश्यों की समाप्ति एक लाइन के उम्दा संवादों से की है।
एक निर्देशक के रूप में राज संतोषी ‘दामिनी’ या ‘घायल’ वाले फॉर्म में तो नहीं दिखे, लेकिन पिछली कई फिल्मों के मुकाबले उनकी यह फिल्म बेहतर है। खासकर फिल्म का मध्यांतर के बाद वाला भाग और सशक्त बनाया जा सकता था।
सुपरस्टार की इमेज में कैद समीर की बेचैनी और सफलता पाने के लिए कुछ भी करने वाले इनसान को अजय देवगन ने परदे पर बेहद अच्छी तरह से पेश किया है। अजय बेहद दुबले-पतले हो गए हैं और उनका चेहरा पिचक गया है। उन्हें अपने लुक पर ध्यान देना चाहिए।
विद्या बालन के लिए अभिनय का ज्यादा स्कोप नहीं था, लेकिन दो-तीन दृश्यों में उन्होंने अपनी चमक दिखाई। पंकज कपूर ने सिद्धू के रूप में गजब ढा दिया। पता नहीं यह उम्दा अभिनेता कम फिल्मों में क्यों दिखाई देता है। दर्शन जरीवाला, अंजन श्रीवास्तव के साथ अन्य कलाकारों से भी संतोषी ने अच्छा काम लिया है।
कुल मिलाकर ‘हल्ला बोल’ में वे तत्व हैं जो दर्शकों को अच्छे लगे। एक बार यह फिल्म देखी जा सकती है।
निर्माता :
अब्दुल सामी सिद्दकी
निर्देशन-कथा-पटकथा-संवाद :
राजकुमार संतोषी
संगीत :
सुखविंदर सिंह
कलाकार :
अजय देवगन, विद्या बालन, पंकज कपूर, दर्शन जरीवाला (विशेष भूमिका - करीना कपूर, सयाली भगत, तुषार कपूर, श्रीदेवी, बोनी कपूर, जैकी श्रॉफ)
इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप
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इन फुकरों से आप पहले भी मिल चुके हैं और आपने इन्हें पंसद भी किया। यही फुकरे अब एकबार फिर आपके सामने हैं, पहली फिल्म की तरह इस फिल्म में भी यह फुकरे किसी काम के नहीं हैं, लेकिन इनके सपने राजकुमारों जैसे हैं। बतौर प्रड्यूसर फरहान अख्तर सोलो हीरो फिल्म बनाना शायद पसंद नहीं करते, तभी तो उनकी पिछली फिल्में 'दिल चाहता है' और 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' कई किरदारों को लेकर बनाई थीं। ग्लैमर इंडस्ट्री में माना जाता है कि अगर आप करोड़ों के बजट में फिल्म बना रहे हैं तो किसी एक हीरो पर डिपेंड रहने की बजाए दो तीन किरदारों को लेकर फिल्म बनाना फायदे का सौदा है।स्टोरी प्लॉट : स्कूल स्टडी करने के बाद हनी ( पुलकित सम्राट ) और चूचा (वरुण शर्मा) की दोस्ती कम नहीं हुई। इनकी दोस्ती अभी भी पहले की तर्ज पर बरकरार है। वैसे, चूचा की मां को इनकी दोस्ती कतई पसंद नहीं हैं। चूचा पहले से दिल ही दिल में लेडी डॉन भोली पंजाबन ( रिचा चड्डा ) को दिल दे चुका है। अब यह बात अलग है भोली को उसकी शक्ल तक पसंद नहीं। चूचा का सपना है कि वह भी अपने दोस्त हनी की तरह खूबसूरत लड़कियों को पटाने में एक्सपर्ट बन जाए। इनकी मंडली के तीसरे मेम्बर लाली (मनजोत सिंह) को न चाहकर भी अपने पापाजी की हलवाई की दुकान पर काम करना होता है। फुकरा टीम का मेम्बर जफर (अली फजल) अपनी प्रेमिका के साथ शादी करके खुशहाल जिंदगी गुजारना चाहता है। इस टीम के साथ पंडित जी (पकंज त्रिपाठी) भी है जो हर मुश्किल से अक्सर इस टीम को बाहर निकालता है। पिछली फिल्म के क्लाइमैक्स में भोली पंजाबन को इसी फुकरा टीम की वजह से मोटा नुकसान होता है और इतना हीं नहीं भोली को जेल जाना पड़ता है। अब एक साल गुजर चुका है, भोली जेल से बाहर आती है। उसके गैंग के दो वफादार अफ्रीकन मेम्बर उसके साथ हैं। भोली जेल से बाहर आकर सबसे पहले इन फुकरों को सबक सिखाने का फैसला करती है। भोली के खास आदमी इन फुकरों को लेकर भोली के अड्डे पर आते हैं। भोली इन सभी को जमकर टॉर्चर करती है। चूचा के पास एक खास वरदान है, जिसके चलते चूचा सपने में जो भी देखता है वह बाद में सही साबित होता है। भोली पंजाबन का नुकसान चुकाने के मकसद से फुकरा टीम भोली से कुछ और रकम लेकर लॉटरी का नंबर निकालने का काम शुरू करते हैं, जिसमें चूचा पहले ही इन्हें सही नंबर बता देता है। शहर के लोग फुकरा टीम की लॉटरी में अपनी जमा-पूंजी लगाते हैं। पैसा लगाने वालों को डबल रकम मिलती है। चूचा की खास शक्ति के चलते फुकरा टीम का यह बिज़नस खूब चल निकलता है। पंडित जी अब इस बिज़नस में इनके साथ हैं। तभी दिल्ली और बॉर्डर के इलाके में लॉटरी के बिज़नस से जुड़े मिनिस्टर का धंधा फुकरा टीम के लॉटरी के बाद बंद होने की कगार पर पहुंच जाता है। ऐसे में मिनिस्टर एक ऐसी चाल चलता है जिससे फुकरा टीम को लॉटरी में करोड़ों का घाटा हो जाता है।'फुकरे' की कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है। ऐसी फिल्म को आप रिऐलिटी के तराजू के पैमाने पर रखकर नहीं देख सकते। वहीं अगर आपने पिछली फिल्म देखी है तो आपको बार-बार यही महसूस होगा कि पिछली फिल्म इससे कहीं ज्यादा अच्छी थी। दरअसल, इस बार डायरेक्टर लांबा ने बेशक किरदारों पर तो काफी मेहनत की, लेकिन स्टोरी और स्क्रीनप्ले पर ध्यान नहीं दिया। हनी (पुलकित), चूचा (वरुण) और पंडित जी (पकंज त्रिपाठी) की गजब की केमिस्ट्री है। इन तीनों ने अपने किरदारों को पावरफुल बनाने के लिए बहुत मेहनत की है। पंडित जी के किरदार में पंकज त्रिपाठी का जवाब नहीं। वहीं भोली पंजाबन का जो बिंदास बेबाक अंदाज पिछली फिल्म में नजर आया, वह इस बार नदारद है। वरुण शर्मा की ऐक्टिंग लाजवाब है, वह जब भी स्क्रीन पर आते हैं तभी हॉल में हंसी के ठहाके सुनाई देते हैं। पुलकित ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया, लेकिन पुलकित की ऐक्टिंग पर सलमान खान का असर इस फिल्म में भी नजर आता है। अली जफर और मनजोत सिंह के पास इस बार करने के लिए बहुत कम था। अगर क्लाइमैक्स की बात करें तो ऐसा लगता है जैसे डायरेक्टर ने ट्रैक से उतरती फिल्म को ट्रैक पर लौटाने के लिए को जल्दबाजी में निपटा दिया। डायरेक्टर मृगदीप सिंह लांबा के पास एक कमजोर कहानी थी, जिसे उन्होंने बॉक्स आफिस पर बिकाऊ मसालों का तड़का लगाकर पेश कर दिया। टाइटल सॉन्ग को छोड़ दें तो 'ओ मेरी महबूबा' गाने को फिल्म में वेस्टर्न अंदाज में अच्छे ढंग से फिट किया गया है। 'तू मेरा भाई नहीं है' गाना स्क्रीन पर देखने में अच्छा लगेगा इसके बावजूद फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं है जो हॉल से बाहर आने के बाद म्यूजिक लवर्स की जुंबा पर रहे।क्यों देखें : इस फुकरा टीम के साथ आपकी मुलाकात तभी मजेदार हो सकती है जब आप पिछली फिल्म को भुलाकर इनसे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं रखकर मिलेंगे तो आपको फिल्म पैसा वसूल लगेगी।कलाकार : रिचा चड्डा, पुलकित सम्राट, मनजोत सिंह, वरुण शर्मा, पकंज त्रिपाठी, अली फजल, विशाखा सिंह, प्रिया आनंदनिर्माता : रितेश सिधवानी, फरहान अख्तरनिर्देशन : मृगदीप सिंह लांबा | 1 |
जगदीश्वर मिश्रा उर्फ जॉली (अक्षय कुमार) कानपुर में प्रसिद्ध वकीलों के सहायक के तौर पर अपने काम की शुरुआत करता है। अपनी लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए वह एक प्रग्नेंट लेडी हिना सिद्दीकी (सैयानी गुप्ता) के साथ छल भी कर जाता है, जो कि एक विधवा है और न्याय की आस में है। उसके पास हिना के पति का मर्डर केस आता है, लेकिन जब हिना को पता चलता है कि वह एक धोखेबाज वकील है तो दुखी हिना खुद को ही खत्म कर लेती है। अब जॉली को इस बात का आत्मग्लानि होती है और उसके हाथ रह जाता है एक अनसुलझा केस। अब वह इस केस के लिए न्याय पाने में वाकई जुट जाता है। रिव्यू: फिल्म की शुरुआत में जॉली एक नौसिखिया है जो अपना काम चलाने के लिए छोटे-मोटे अपराध भी करता है क्योंकि उसे कानून की खामियों का पता है। घर पर वह अपनी पत्नी के आगे-पीछे डोलने वाला या यूं कहें कि जोरू का गुलाम पति है। जॉली की बीवी पुष्पा पांडे (हुमा कुरैशी) को व्हिस्की, महंगे ब्रैंड के कपड़े और अपने गोल-मोलू बेटे से बहुत प्यार है। लेकिन ये सारी बातें फिल्म का अलग हिस्सा हैं। फिल्म का मुख्य भाग कोर्ट रूम का परिसर और वहां होने वाला ड्रामा है और यह फिल्म भी साल 2013 में आई इस सीक्वल की पहली फिल्म 'जॉली एलएलबी' के आदर्शों पर चलती है। अब अक्षय कुमार की फिल्म है तो ऐक्शन तो होगा ही। लिहाजा कोर्टरूम के अंदर और बाहर फिल्म में अच्छे-खासे ऐक्शन सीन भी हैं। पुलिसवाले विलन बन जाते हैं और आतंकवादी अपना धर्म बदल लेते हैं। तो वहीं जॉली खुद भी कानपुर, लखनऊ और मनाली (जिसे कश्मीर दिखाने की कोशिश की गई है) की गलियों में गोलियां खाते और उनसे बचते हुए नजर आता है। ऐसा लगता है इंटरवल के बाद फिल्म कई जगहों पर रुक सी जाती है। फिल्म मेकर्स लखनऊ कोर्टरूम में जॉली और विपक्षी वकील प्रमोद माथुर (अनु कपूर), जज (सौरभ शुक्ला, हमेशा की तरह बेहतर) के बीच की कानूनी बहस में काफी अंदर तक उलझ जाते हैं। हालांकि, उनके बीच हो रही प्रभावशाली बहस आपको जानकारियों के साथ मनोरंजन भी कराएंगे, लेकिन कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जो वास्तविक नज़र नहीं आते। फिल्म में अक्षय के किरदार में अचानक बदलाव होता नज़र आता है। पहले तो उन्हें एक आम वकील की तरह पेश किया जाता है, जिसने भले कानूनी पोथियां न पढ़ी हो, लेकिन कोर्टरूम कॉरिडोर से टिप्स ले लेकर वह आज जॉली एलएलबी बन गया है। हुमा और अनु की ऐक्टिंग शानदार नज़र आ रही है। इन मंजे हुए कलाकारों की ऐक्टिंग ने इस फिल्म में जान डाल दी है। | 1 |
बदलापुर में नवाजुद्दीन सिद्दकी ने इतना उम्दा अभिनय किया है कि वे फिल्म को नुकसान पहुंचा गए। हीरो, स्क्रिप्ट, निर्देशक पर तो वे भारी पड़े ही हैं, साथ ही खलनायक होने के बावजूद वे दर्शकों की सहानुभूति हीरो के साथ नहीं होने देते। दर्शक नवाजुद्दीन की अदायगी का कायल हो जाता है और फिल्म के हीरो के गम को वह महसूस नहीं करता जिसके बीवी और बच्चे को खलनायक ने मौत के घाट उतार दिया है।
दृश्यों को चुराना क्या होता है वो नवाजुद्दीन के अभिनय से महसूस होता है। साधारण संवादों को भी उन्होंने इतना पैना बना दिया कि तालियां सुनने को मिलती हैं। काया उनकी ऐसी है कि जोर की हवा चले तो वे गिर पड़े, लेकिन उनके तेवर को देख डर लगता है। इन सबके बीच वे हंसाते भी हैं।
बात की जाए 'बदलापुर' की, तो यह बदले पर आधारित मूवी है। बदले पर बनी फिल्मों की संख्या हजारों में है, लेकिन यह फिल्म इस विषय को नए अंदाज में पेश करती है। उम्दा प्रस्तुतिकरण की वजह से यह डार्क मूवी दर्शक को बांध कर रखती है।
रघु (वरुण धवन) की पत्नी (यामी गौतम) और बेटा एक बैंक डकैती के दौरान मारे जाते हैं। रघु इस घटना से उबर नहीं पाता। इस डकैती में पुलिस लायक (नवाजुद्दीन सिद्दकी) को पकड़ लेती है और वह इस अपराध में अपने पार्टनर (विनय पाठक) का नाम पुलिस को नहीं बताता। लायक को 20 वर्ष की सजा होती है। बीमारी के कारण वह 15 वर्ष की सजा काट बाहर आ जाता है और रघु को बदला लेने का मौका मिलता है।
श्रीराम राघवन ने साधारण कहानी को अपने निर्देशकीय कौशल से देखने लायक बनाया है। उन्होंने एक हसीना थी और जॉनी गद्दार जैसी उम्दा फिल्में बनाई हैं, लेकिन अब तक बड़ी सफलता उनसे दूर है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वे प्रतिभाशाली निर्देशक हैं।
'बदलापुर' के किरदारों की यह खूबी है कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है इसे पढ़ना आसान नहीं है। राघवन ने दर्शकों के सामने सारे कार्ड्स खोल दिए और इन कार्ड्स को किरदार कैसे खेलते हैं इसके जरिये रोमांच पैदा किया है। दर्शक को फिल्म से जोड़ने में निर्देशक ने सफलता पाई है और दर्शकों के दिमाग को उन्होंने व्यस्त रखता है। फिल्म देखते समय कई सवाल खड़े होते हैं और ज्यादातर के जवाब मिलते हैं। >
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फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। खासतौर पर सेकंड हाफ में फिल्म थोड़ी बिखरती है और क्लाइमैक्स में फिल्म के विलेन के रूख में आया परिवर्तन हैरान करता है। दिव्या दत्ता का किरदार भी फिल्म में मिसफिट लगता है, लेकिन ये कमियां फिल्म देखने में बाधक नहीं बनती है।
वरुण धवन ने लवर बॉय का चोला उतार फेंकने का साहस दिखाया है। एक बच्चे के पिता और फोर्टी प्लस का किरदार निभाने में उन्होंने हिचक नहीं दिखाई है। कुछ दृश्यों में उनका अभिनय कमजोर भी रहा है, लेकिन उनके प्रयास में गंभीरता नजर आती है।
यामी गौतम के लिए ज्यादा करने को नहीं था। हुमा कुरैशी का अभिनय अच्छा है। दिव्या दत्ता असर नहीं छोड़ पाती।
पुलिस ऑफिसर के रूप में कुमुद मिश्रा प्रभावित करते हैं और उनका रोल फिल्म की अंतिम रीलों में कहानी में नया एंगल बनाता है। राधिका आप्टे का अभिनय जबरदस्त है। एक सीन में रघु उसे कपड़े उतारने को कहता है और इस सीन में उनके चेहरे के भाव देखने लायक है।
सचिन जिगर का संगीत बेहतरीन है। निर्देशक की तारीफ करना होगी कि उन्होंने गानों को फिल्म में बाधा नहीं बनने दिया।
'बदलापुर' की कहानी जरूर साधारण है, लेकिन बेहतरीन अभिनय और उम्दा निर्देशन फिल्म को देखने लायक बनाता है।
बैनर : मैडॉक फिल्म्स, इरोज इंटरनेशनल
निर्माता : दिनेश विजान, सुनील ए. लुल्ला
निर्देशक : श्रीराम राघवन
संगीत : सचिन-जिगर
कलाकार : वरुण धवन, यामी गौतम, हुमा कुरैशी, नवाजुद्दीन सिद्दकी, दिव्या दत्ता, राधिका आप्टे
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 15 मिनट
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बैनर :
पेन इंडिया प्रा.लि., लोटस पिक्चर्स
निर्माता :
मोहम्मद असलम
निर्देशक :
अजय चंडोक
संगीत :
साजिद-वाजिद
कलाकार :
संजय दत्त, अमीषा पटेल, सुरेश मेनन, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, गुलशन ग्रोवर
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए
हास्य फिल्में बनाना आसान काम नहीं है, लेकिन अजय चंडोक जैसे निर्देशकों को इस बात पर यकीन नहीं है और वे कॉमेडी के नाम पर ट्रेजेडी बना देते हैं। ‘चतुर सिंह टू स्टार’ जैसी फिल्म देखते समय शायद ही किसी के चेहरे पर मुस्कान भी आए। निर्देशन, स्क्रिप्ट, एक्टिंग सभी घटिया स्तर की है। पता नहीं संजय दत्त ने ये फिल्म कैसे साइन कर ली। वर्षों से अटकी यह फिल्म रिलीज ही नहीं होती तो बेहतर होता।
चतुर सिंह (संजय दत्त) एक मूर्ख पुलिस ऑफिसर है। कृषि मंत्री वाय.वाय. सिंह (गुलशन ग्रोवर) अस्पताल में भर्ती है और उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी चतुर सिंह और पप्पू (सुरेश मेनन) पर है। सोनिया (अमीषा पटेल) जो कि वाय.वाय. सिंह की सेक्रेटरी है के जीजा का अपहरण हो जाता है। अपहरणकर्ता उस पर दबाव डालते हैं कि वह मंत्री को अस्पताल की बालकनी में लाए ताकि वे उसे मार सके। ऐसा ही होता है। इसके बाद कहानी दक्षिण अफ्रीका में शिफ्ट हो जाती है और तमाम बेवकूफी भरी हरकतें होती हैं।
जितनी घटिया कहानी है उतनी ही घटिया रूमी जाफरी की स्क्रिप्ट। पता नहीं किन दर्शकों को ध्यान में रखकर उन्होंने यह काम किया है। लॉजिक नाम की कोई चीज ही नहीं है। दिमाग घर पर रख कर आओ तो भी खीज पैदा होती है।
कॉमेडी के नाम पर ऐसे दृश्य हैं कि हंसने के बजाय रोना आता है। तमाम मूर्खतापूर्ण हरकतें स्क्रीन पर लगातार होती रहती हैं। चतुर सिंह कभी जासूस बन जाता है तो कभी पुलिस ऑफिसर। वह अपने आपको जासूस क्यों कहता है, इसका कोई जवाब नहीं मिलता। ऐसे कई प्रश्न हैं जिनके जवाब नहीं मिलते।
किसी तरह यह फिल्म पूरी की गई है क्योंकि दृश्यों को बिना कन्टीन्यूटी के जोड़ा गया है। पता नहीं अजय चंडोक जैसे लोगों को कैसे फिल्म निर्देशित करने को मिल जाती है। लगता ही नहीं कि इस फिल्म का कोई निर्देशक भी है।
कॉमेडी करना संजय दत्त के बस की बात नहीं है। ये फिल्म उनके घटिया कामों में से एक है। जोकरनुमा हरकतें वे पूरी फिल्म में करते रहें। अमीषा पटेल निराश करती हैं। कहने को तो फिल्म में शक्ति कपूर, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, रति अग्निहोत्री, गुलशन ग्रोवर, संजय मिश्रा जैसे कलाकार हैं, लेकिन सबने किसी तरह काम निपटा दिया है। साजिद-वाजिद ने बेसुरी धुनें बनाई हैं।
चतुर सिंह ‘टू स्टार’ सिर्फ ‘आधे स्टार’ के लायक है।
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बैनर :
रिलायंस एंटरटेनमेंट
निर्देशक :
रोहित शेट्टी
संगीत :
अजय-अतुल
कलाकार :
अजय देवगन, काजल अग्रवाल, प्रकाश राज, सोनाली कुलकर्णी, सचिन खेड़ेकर, अशोक सराफ
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 25 मिनट
पिछले कुछ वर्षों में ग्रे-शेड और रियल लाइफ जैसे हीरो ने बॉलीवुड पर अपना कब्जा जमा लिया और व्हाइट तथा ब्लेक कलर वाले किरदार हाशिये पर आ गए। दर्शकों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिन्हें ऐसे हीरो पसंद है जो चुटकियों में बीस गुंडों को धूल चटा दे, लड़कियों को छेड़ने वाले को सबक सिखाए, बड़ों की इज्जत करे, रोमांस करने में शरमाए।
ऐसे हीरो को पसंद करने वाले टीवी पर साउथ की हिंदी में डब की गई फिल्मों को देख अपना मनोरंजन करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीवी पर दिखाई जाने वाली इन फिल्मों की टीआरपी में काफी इजाफा हुआ है।
इस वाकिये और गजनी, दबंग, वांटेड और वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई की सफलता ने फिल्मकारों का ध्यान उन दर्शकों की पसंद की ओर खींचा है जो अस्सी के दौर के हीरो को अभी भी पसंद करते हैं, लिहाजा इस तरह की कई फिल्मों का निर्माण बॉलीवुड में चल रहा है। दक्षिण में अभी भी इन फिल्मों का चलन है इसलिए उन फिल्मों के रीमेक बॉलीवुड स्टार्स के साथ बनाए जा रहे हैं।
‘सिंघम’ तमिल में इसी नाम से बनी सुपरहिट फिल्म का हिंदी रिमेक है। शुरुआत के चंद मिनटों बाद ही पता चल जाता है कि इस फिल्म का अंत कैसा होगा, लेकिन बीच का जो सफर है वो फिल्म को मनोरंजन के ऊँचे स्तर पर ले जाता है। तालियों और सीटियों के बीच गुंडों की पिटाई देखना अच्छा लगता है।
बाजीराव सिंघम (अजय देवगन) शिवगढ़ का रहने वाला है और वहीं पर पुलिस इंसपेक्टर है। गांव वालों का वह लाड़ला है क्योंकि हर किसी को वह न्याय दिलाता है। उसका रास्ता जयकांत शिक्रे (प्रकाश राज) से टकराता है, जिसका गोआ में दबदबा है।
जयकांत राजनीति में इसीलिए आया है ताकि पॉवर के सहारे वह मनमानी कर सके। जब शिवगढ़ में उसकी नहीं चलती है तो वह सिंघम का ट्रांसफर गोआ में उसे सबक सिखाने के लिए करवा देता है।
गोआ जाकर सिंघम को समझ में आता है कि जयकांत कितना शक्तिशाली है। नेता, अफसर और पुलिस के बड़े अधिकारी या तो उसके लिए काम करते हैं या फिर डरते हैं। कानून की हद में रहकर अन्य पुलिस वालों के साथ सिंघम किस तरह जयकांत का साम्राज्य ध्वस्त करता है, यह फिल्म में ड्रामेटिक, इमोशन और एक्शन के सहारे दिखाया गया है।
युनूस सजवाल की लिखी स्क्रिप्ट में वे सारे मसाले मौजूद हैं जो आम दर्शकों को लुभाते हैं। हर मसाला सही मात्रा में है, जिससे फिल्म देखने में आनंद आता है। बाजीराव सिंघम में बुराई ढूंढे नहीं मिलती तो जयकांत में अच्छाई। इन दोनों की टकराहट को स्क्रीन पर शानदार तरीके से पेश किया गया है।
फिल्म इतनी तेज गति से चलती है कि दर्शकों को सोचने का अवसर नहीं मिलता है। लगभग हर सीन अपना असर छोड़ता है, जिसमें से जयकांत का भाषण देते वक्त सामने खड़े सिंघम को देख हकलाना, सिंघम और जयकांत की पहली भिड़त, पुलिस वालों की पार्टी में जाकर सिंघम का उन्हें झकझोरना, जयकांत को कैसे मारा जाए इसकी योजना जयकांत के सामने बनाना, हवलदार बने अशोक सराफ का ये बताना कि कितने कम पैसों में पुलिस वाले दिन-रात ड्यूटी निभाते हैं, सिनेमाघर के सामने काव्या को छेड़ने वालों की पिटाई करने वाले सीन उल्लेखनीय हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स भी दमदार है।
एक्शन सीन में मद्रासी टच है और देखने में रोमांच पैदा होता है। ‘जिसमें है दम वो है फक्त बाजीराव सिंघम’ तथा ‘कुत्तों का कितना ही बड़ा झुंड हो, उनके लिए एक शेर काफी है’, जैसे संवाद बीच-बीच में आकर फिल्म का टेम्पो बनाए रखते हैं। कई संवाद मराठी में भी हैं ताकि लोकल फ्लेवर बना रहे, लेकिन ये संवाद किसी भी तरह से फिल्म समझने में बाधा उत्पन्न नहीं करते हैं।
निर्देशक रोहित शेट्टी ने नाटकीयता को फिल्म में हावी होने दिया है और इससे फिल्म की एंटरटेनमेंट वैल्यू बढ़ी है। एक्शन, रोमांस और इमोशन दृश्यों का क्रम सटीक बैठा है और इसके लिए फिल्म के एडिटर स्टीवन एच. बर्नाड भी तारीफ के योग्य हैं।
एक सीधी-सादी और कई बार देखी गई कहानी को रोहित ने अपने प्रस्तुतिकरण से देखने लायक बनाया है। फिल्म मुख्यत: दो किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, इसके बावजूद बोरियत नहीं फटकती है।
बाजीराव सिंघम के सिद्धांत, ईमानदारी, गुस्से को अजय देवगन ने अपने अभिनय से धार प्रदान की है। उनके द्वारा बनाई गई बॉडी किरदार का प्लस पाइंट लगती है। वे जब गुर्राते हैं तो लगता है कि सचमुच में एक सिंह दहाड़ रहा है।
हीरो जब ज्यादा दमदार लगता है जब विलेन टक्कर का हो। प्रकाश राज एक बेहतरीन अभिनेता है और ‘सिंघम’ इस बात का एक और सबूत है। उन्होंने अपने किरदार को कॉमिक टच दिया है और कई दृश्यों को अपने दम पर उठाया है।
काजल अग्रवाल के हिस्से कम काम था, लेकिन वे आत्मविश्वास से भरपूर हैं और अच्छी एक्टिंग करना जानती हैं। इनके अलावा मराठी फिल्म इंडस्ट्री के कई नामी कलाकार भी फिल्म में हैं।
संगीत फिल्म का माइनस पाइंट है। एकाध गाने को छोड़ दिया जाए तो बाकी सिर्फ खानापूर्ति के लिए रखे गए हैं। यदि दो-तीन हिट गाने होते तो फिल्म का व्यवसाय और बढ़ सकता था।
‘सिंघम’ ऐसी फिल्म है जिसे देखने के बाद लगता है कि पैसे वसूल हो गए।
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कहानी: जैसा कि हम जानते हैं कि अमरेंद्र बाहुबली (प्रभास) और भल्लाल देव (राणा दग्गुबाती) चचेरे भाई हैं, लेकिन दोनों का लालन-पोषण एक ही मां शिवगामी देवी (रमैया कृष्णन) ने किया है। रानी शिवगामी देवी महिष्मति का शासन भी संभालती हैं। शिवकामी भले ही भल्लाल देव की सगी मां है, लेकिन चाहती है कि महिष्मति का राजा अमरेंद्र बाहुबली ही बने जो मां-पिता की मौत के बाद अनाथ हो चुका है। शिवगामी देवी को लगता है कि बाहुबली में अच्छे शासक बनने के सारे गुण हैं। रानी को लगता है कि बाहुबली दयालु है, जबकि उनका अपना बेटा भल्लाल देव निर्दयी है। इसी के बाद कहानी में मोड़ आता है। भल्लाल अपने पिता के साथ मिलकर बाहुबली को उखाड़ फेंकने की साजिश करता है। दोनों इस साजिश में कटप्पा (सत्यराज) और शिवगामी को मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के मुख्य सिनेमाघरों में 'बाहुबली 2' के शुरुआती शो रद्द रिव्यू: यह फिल्म भले ही बाहुबली 1 का सीक्वल है लेकिन इसकी कहानी पहले हिस्से के प्रीक्वल जैसी ही ज्यादा है। आगे की काफी कहानी पहले हिस्से में बताई जा चुकी है। इस फिल्म में महेंद्र बाहुबली को अपने पिता के बारे में पता चलता है, जो महिष्मति के राजा बनने वाले थे। इसके बाद कहानी अमरेंद्र बाहुबली और देवसेना (अनुष्का शेट्टी) की प्रेम कथा के इर्द-गिर्द घूमती है। देवसेना ही महेंद्र बाहुबली की मां है, जो पहली फिल्म में हमेशा बेड़ियों में बंधी दिखी हैं। कहानी साधारण है जिसमें अंत में बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। फिल्म में साजिश के कुछ बचकाने प्लॉट हैं और क्लाइमैक्स थोड़ा लंबा है। इसकी ड्यूरेशन को करीब 10 मिनट तक कम किया जा सकता था। 'बाहुबली 2' पब्लिक रिव्यू: ऐक्टिंग, स्क्रीनप्ले से लेकर विजुअल इफेक्ट्स को बताया शानदार The day is finally here, get ready to enter the world of #Baahubali2! @BaahubaliMovie @ssrajamouli @Shobu_ @karanjohar @apoorvamehta18 pic.twitter.com/JenpNHezbT — Dharma Productions (@DharmaMovies) April 28, 2017 लेकिन इस फिल्म में दिमाग मत लगाइए। सिर्फ इसका आनंद लीजिए। फिल्म के दृश्य इतने खूबसूरत हैं कि आप देखते रह जाएं। पार्ट-2 द कन्क्लूज़न पहले पार्ट की लेगसी को अपने कंधों पर कैरी करती है और हीरोइजम का दर्जा काफी बढ़ा देती है। बाहुबली को ताकत और हिम्मत के सिम्बल के रूप में गढ़ा गया है इसलिए आप उस कैरक्टर को उसी तरह से देखना चाहते हैं। प्रभास ने पिता और पुत्र दोनों की भूमिकाओं को बहुत अच्छे से निभाया है। खास बात यह, कि यह पार्ट उस सवाल का जवाब आखिरकार दे देगा जो सबको सालभर से परेशान किए हुए है। यानी 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?' Long queues at ticket counters in Hyderabad as #Bahubali2 released today pic.twitter.com/8iJ5zlnGDu — ANI (@ANI_news) April 28, 2017 'बाहुबली 2' का टिकट पाने के लिए लगी 3 किलोमीटर लंबी लाइन भारतीय सिनेमा प्रेमियों को राजामौली को उनके विज़न और लक्ष्य के लिए उन्हें जरूर सल्यूट करना चाहिए। एक बार फिर से उन्होंने 'बेन-हर' और 'टेन कमांडेंट्स' की याद को ताजा कर दिया है। जी हां, फिल्म में CGI और VF के इस्तेमाल से क्रिएट किए गए सीन आपको अपनी सीट से बांधकर रखने की ताकत रखते हैं और बाहुबली भी आपको इमोशनल उतार-चढ़ाव में कैद कर पाने में सफल होता है। देवसेना और अमरेंद्र के बीच रोमांस के सीन काफी भव्यता के साथ फिल्माए गए हैं। बाकी किरदारों का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक है। हॉलिवुड ऐक्शन डायरेक्टर पीटर हिन की मेहनत फिल्म में प्रभास के ऐक्शन में नज़र आ रही है और यही इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। | 1 |
हिंदी फिल्मों में शत-प्रतिशत सफलता का रिकॉर्ड रखने वाले निर्देशक प्रभुदेवा की ताजा फिल्म 'एक्शन जैक्सन' उनकी सबसे कमजोर फिल्म है। ऐसा लगता है कि बिना किसी तैयारी के उन्होंने यह फिल्म महज पैसों के लिए बनाई है। निर्माता से पैसा लिया और अगले दिन से शूटिंग शुरू। जो मन में आया बना डाला।
प्रभुदेवा ने राउडी राठौर और वांटेड के रूप में दो बेहतरीन मसाला फिल्म बनाई हैं, लेकिन 'एक्शन जैक्सन' मसाला फिल्मों की परिभाषा पर भी खरी नहीं उतरती। सी-ग्रेड मूवी की तरह है 'एक्शन जैक्सन' जिससे प्रभुदेवा, अजय देवगन, सोनाक्षी सिन्हा जैसे ए-ग्रेड के स्टार और निर्देशक जुड़े हुए हैं।
फिल्म में बेहूदा बातों से मनोरंजन करने की कोशिश की गई है। मसलन, अपने आपको बदकिस्मत मानने वाली लड़की को लगता है कि वह फलां लड़के को नग्न देख लेती है तो उसकी किस्मत बदलने लगती है, लिहाजा वह उस लड़के को नग्न देखने के लिए ही उसके आसपास घूमती रहती है। अब बताइए, इस तरह तरह की बातों से भला कैसे मनोरंजन हो सकता है। तरस आता है फिल्म के लेखक और निर्देशक की बुद्धि पर।
कहानी है विशी (अजय देवगन) नामक एक छोटे-मोटे बदमाश की। अचानक उसके पीछे पुलिस और एक इंटरनेशनल डॉन जेवियर (आनंद राज) पड़ जाते हैं। उसे समझ में नहीं आता है कि आखिर हो क्या रहा है। माजरा समझ में आने के बाद इस स्थिति से निपटने के लिए वह जेवियर से मिलने बैंकॉक जाता है।
इस बचकानी सी कहानी पर निर्माताओं ने करोड़ों रुपये लगा दिए क्योंकि उन्हें प्रभुदेवा के प्रस्तुतिकरण पर विश्वास था। प्रभुदेवा की फिल्मों की कहानी बेहद साधारण होती है, लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण इतना मनोरंजक होता है कि दर्शक खुश हो जाते हैं। 'एक्शन जैक्सन' में प्रभुदेवा का प्रस्तुतिकरण बेहद लचर है। उन्होंने सारा काम वीएफएक्स और एडीटर के जिम्मे छोड़ दिया है, जिन्होंने फिल्म की वाट लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
फिल्म में इतने कट लगाए गए हैं कि आंखों में दर्द होने लगता है। फिल्म में रंगों को इतना चटक किया गया है कि आंखें चौंधियाने लगती है।
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फिल्म की स्क्रिप्ट एकदम लचर है। शुरुआत के पन्द्रह-बीस मिनट में ही समझ में आ जाता है कि आगामी कुछ घंटे परेशानी में गुजरेंगे। विशी के पीछे पुलिस और डॉन क्यों लगे हैं इस बात पर रहस्य का पर्दा इतने लंबे समय तक डाला है कि इंटरवल हो जाता है। तब तक बकवास दृश्यों के सहारे फिल्म को खींचा गया है। कॉमेडी ट्रेक न हंसाता है और न ही रोमांटिक ट्रेक दिल को छूता है। हीरो-हीरोइन का जब मूड होता है तो वे नाचने के लिए विदेश चले जाते हैं।
फिल्म में हर बात को जबरन थोपा गया है चाहे वो डांस हो, एक्शन सीन हो या संवाद। कही से भी कुछ भी टपक पड़ता है। बैकग्राउंड म्युजिक इतना तेज है कि सर दर्द की शिकायत हो सकती है।
अजय देवगन आउट ऑफ फॉर्म नजर आए। डांस करते समय असहजता उनके चेहरे पर नजर आती है और उनके इस फिल्म के चयन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। सोनाक्षी सिन्हा तो आधी फिल्म से ऐसे गायब हो जाती हैं कि दर्शक भूल जाते हैं कि वे इस फिल्म में हैं। करने के लिए उनके पास इस फिल्म में कुछ भी नहीं था। यामी गौतम निराश करती हैं। मनस्वी ममगई ने निगेटिव किरदार सेक्स अपील के साथ पेश किया है। आनंदराज खलनायक के रूप में डराने में नाकामयाब रहे। कुणाल राय कपूर ने जरूर थोड़ा-बहुत हंसने का अवसर दिया है। फिल्म का तकनीकी पक्ष भी बेहद लचर है। फिल्म के एक-दो गाने ठीक है बाकी दर्शकों को ब्रेक देने का काम करते हैं।
एक भी ऐसा कारण नहीं है जिसके लिए 'एक्शन जैक्सन' का टिकट खरीदा जाए।
बैनर : बाबा फिल्म्स, इरोज इंटरनेशनल
निर्माता : गोर्धन तनवानी, सुनील ए. लुल्ला
निर्देशक : प्रभुदेवा
संगीत : हिमेश रेशमिया
कलाकार : अजय देवगन, सोनाक्षी सिन्हा, यामी गौतम, कुणाल रॉय कपूर, मनस्वी ममगई, आनंद राज, शाहिद कपूर (अतिथि कलाकार)
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 24 मिनट 39 सेकण्ड
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