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एंग्री बर्ड्स एक अत्यंत ही लोकप्रिय गेम है जिसके 6 साल के बच्चे से लेकर तो 80 साल के बूढ़े भी दीवाने हैं। इस खेल में अलग-अलग गुणों वाले वाले बर्ड्स के जरिये ग्रीन पिगीज़ को मारा जाता है। इस खेल में कई लेवल्स होते हैं और इन लेवल्स को जब तक आप पार नहीं कर लेते तब तक चैन से बैठना मुश्किल है। खेलने में यह सरल और मजेदार है। इस खेल में रेड, ब्लैक, येलो बर्ड्स काफी पसंद की जाती हैं और इनके इर्दगिर्द कहानी रच कर 'द एंग्री बर्ड्स मूवी' बनाई गई है। कम्प्यूटर एनिमेटेड इस फिल्म में एक्शन, एडवेंचर और कॉमेडी है। बर्ड आयलैंड में रहने वाला रेड बर्ड अक्सर नाराज रहता है। उसके साथी उसे आंखों के ऊपर मूंछ वाला कह कर चिढ़ाते हैं। रेड के गुस्से से परेशान होकर उसे एंगर मैनेजमेंट सीखने के लिए भेजा जाता है, जहां उसी की तरह चक (येलो बर्ड), बॉम्ब (ब्लैक बर्ड) और बिग रेड बर्ड भी अपने गुस्से को काबू में रखना सीख रहे हैं। इनमें अच्छी दोस्ती हो जाती है। उसी दौरान आयलैंड पर ग्रीन पिगीज़ आते हैं जिनके खतरनाक इरादे रेड और उसके साथी भांप जाते हैं, लेकिन बर्ड आयलैंड वाले उनका कहा नहीं मानते और पिगीज़ की लुभावनी बातों में फंस जाते हैं। बर्ड्स के सारे अंडे पिगीज़ ले भागते हैं। रेड और उसके साथी किस तरह से ये अंडे वापस लाते हैं ये फिल्म का सार है। द एंग्री बर्ड्स मूवी की शुरुआत बेहतरीन है। जिन्होंने ये गेम खेला है उन्हें इन बर्ड्स का बातें करना और एक्शन अच्छा लगता है। रेड बर्ड तो आपका दिल जीत लेता है। इनके कारनामे रोमांचित करते हैं। ग्रीन पिग्स के आने के बाद उम्मीद बंधती है कि कहानी में उतार-चढ़ाव देखने को मिलेगा, लेकिन थोड़ी निराशा होती है क्योंकि कहानी सीधी और सपाट है। ग्रीन पिग्स से अंडे वापस लाने वाली बात रोमांचक नहीं है और क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना आसान है। क्लाइमैक्स थोड़ा बेहतर हो सकता था यदि इसमें बर्ड्स के कुछ और कारनामे देखने मिलते। इसके बावजूद फिल्म आपको दिलचस्प किरदारों के कारण ज्यादातर समय बांध कर रखती है। फिल्म का एनिमेशन आंखों को सुकून देता है। रंग-बिरंगी बर्ड्स को एक साथ देखना मनोहारी है। रेड, येलो और ब्लैक बर्ड्स भरपूर मनोरंजन करते हैं। माइटी ईगल वाले सीन आपको गुदगुदाते हैं। निर्देशक क्ले केटिस और फेरगल रिली ने इस बात का ध्यान रखा है कि यह केवल बच्चों का ही नहीं बल्कि वयस्कों का भी मनोरंजन करे। 'द एंग्री बर्ड्स मूवी' उन लोगों को ज्यादा पसंद आएगी जिन्होंने ये गेम खूब खेला है। निर्देशक : क्ले केटिस, फेरगल रिली थ्रीडी 1 घंटा 37 मिनट
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जब बात दिल और दिमाग के बीच फंसी हो, तो हमेशा दिल की सुनो। फिल्म 'बागी 2' का नायक कैप्टन रणवीर प्रताप सिंह उर्फ रॉनी (टाइगर श्रॉफ) भी कुछ ऐसा ही करता है। रॉनी और नेहा (दिशा पाटनी) कॉलेज में साथ पढ़ते हैं और एक-दूसरे को प्यार करते हैं, लेकिन नेहा के पिता रॉनी को पसंद नहीं करते। रॉनी और नेहा भाग कर शादी करने जाते हैं, लेकिन फिर कुछ ऐसा होता है कि नेहा और रॉनी अलग हो जाते हैं और नेहा की किसी और से शादी हो जाती है। वहीं रॉनी आर्मी में कमांडो बन जाता है। 4 साल बाद नेहा रॉनी से अपनी किडनैप हुई बेटी के बारे में मदद मांगती है। रॉनी को नेहा के देवर सनी (प्रतीक बब्बर) पर शक है, लेकिन नेहा का पति शेखर (दर्शन कुमार) रॉनी को बताता है कि उनकी कोई बेटी थी ही नहीं। इस तरह चीज़ें काफी उलझ जाती हैं। आखिर रॉनी इस मिस्ट्री को सुलझाने में कामयाब हो पाता है या नहीं? यह तो आपको सिनेमा जाकर ही पता लग पाएगा। अपने फिल्मी करियर की दूसरी फिल्म 'बागी' से 100 करोड़ क्लब में एंट्री करके टाइगर श्रॉफ ने दिखा दिया था कि वह लंबी रेस के घोड़े हैं। फिल्म के निर्माताओं ने उसी वक्त 'बागी' का सीक्वल अनाउंस कर दिया था। वहीं अब 'बागी 2' की रिलीज़ से पहले 'बागी 3' अनाउंस हो गई है। 'बागी 2' तेलुगु फिल्म 'क्षणम' की रीमेक है। टाइगर श्रॉफ के ऐक्शन का दर्शकों में कितना क्रेज है, इसकी गवाही सुबह-सुबह का हाउसफुल शो दे रहा था। देशभर में 3.5 हजार स्क्रीन पर रिलीज हुई 'बागी 2' टाइगर श्रॉफ की सबसे बड़ी रिलीज़ है। रियल लाइफ कपल टाइगर और दिशा की जोड़ी ऑनस्क्रीन काफी जमी है। खासकर उनकी पर्सनल केमिस्ट्री बेहतर होने की वजह से स्क्रीन पर यह कपल खूब जमा है। हालांकि दिशा और बेहतर कर सकती थीं। वहीं खुद टाइगर ने अपने फैन्स को हैरान कर देने वाले ढेरों ऐक्शन सीन किए हैं, जो कि सिनेमाघरों में फैन्स को सीटियां बजाने के लिए मजबूर देंगे। वह वन मैन आर्मी के रोल के अंदाज़ में फबते हैं। अपने एक टॉर्चर सीन में टाइगर पूरी तरह बिना कपड़ों के नजर आए हैं। उन्होंने फिल्म के लिए खासतौर पर हॉन्गकॉन्ग में मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग ली है। फिल्म का फर्स्ट हाफ आपको बांध कर रखता है, लेकिन सेकंड हाफ में डायरेक्टर अहमद खान फिल्म को संभाल नहीं पाए और आखिरी आधे घंटे में टाइगर के बेहतरीन ऐक्शन सीन्स के बावजूद कहानी के लेवल पर फिल्म पटरी से उतर जाती है।प्रतीक बब्बर ने विलन के रोल से बड़े पर्दे पर वापसी की है। यह बात और है कि इस कहानी का असली रावण कोई और निकलता है। डी आई जी के रोल में मनोज वाजपेयी हमेशा की तरह जमे हैं। वहीं एसीपी के रोल में रणदीप हुड्डा ने भी बढ़िया ऐक्टिंग की है। दीपक डोबरियाल ने भी अपने उस्मान लंगड़ा के रोल को बखूबी निभाया है। फिल्म की शूटिंग मनाली, थाईलैंड, गोवा और लद्दाख की खूबसूरत लोकेशन पर हुई है। फिल्म का संगीत ठीकठाक है, लेकिन जैकलिन फर्नांडिस पर फिल्माए गए माधुरी दीक्षित के गाने एक, दो, तीन...की पहले ही काफी फजीहत हो चुकी है। हालांकि, अगर आप हैरतअंगेज ऐक्शन सीन वाली फिल्मों के शौकीन हैं, तो टाइगर श्रॉफ आपको कतई निराश नहीं करेंगे। दर्शकों को कैसी लगी फिल्म:
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निर्माता : प्रसार विज़न प्रा.लि. निर्देशक : अश्विनी चौधरी संगीत : सलीम-सुलेमान कलाकार : आर. माधवन, बिपाशा बसु, ओमी वैद्य, मिलिंद सोमण, दी‍पान्निता शर्मा, मृणालिनी शर्मा, हेलन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट * 14 रील बैंड बाजा बारात में जोड़ियों की शादी करवाने वाले थे। जोड़ी ब्रेकर्स में जोड़ियां तोड़ने वाले हैं। वहां शादी करवाते-करवाते प्रेम हो जाता है तो यहां यह काम जोड़ियां तोड़ते हुए होता है। लेकिन बैंड बाजा बारात का निर्देशन, अभिनय, संवाद, हीरो-हीरोइन की कैमिस्ट्री बेहतरीन थी। जोड़ी ब्रेकर्स मे यह सब मिसिंग है। जोड़ी ब्रेकर्स की कहानी दो ट्रेक पर चलती है। एक जिसमें सिड और सोनाली अपना काम करते हैं और दूसरा ट्रेक उनकी खुद की लव स्टोरी का है। एक ट्रेक में कॉमेडी रखी गई है तो दूसरे में रोमांस। लेकिन स्क्रीनप्ले कुछ ऐसा लिखा गया है कि दर्शक न तो हंस पाता है और न ही फिल्म के हीरो-हीरोइन का रोमांस उसके दिल को छूता है। सिड (माधवन) और सोनाली (बिपाशा बसु) मिलकर उन लोगों के लिए काम करते हैं जो अपनी पति या पत्नी से तलाक चाहता है। इसके लिए वे तमाम तरह की हरकत करते हैं। एक केस में सोनाली को बताए बिना सिड धोखे से एक जोड़ी (मार्क और मैगी) को तोड़ देता है कि ताकि वह ( सिड) अपनी तलाकशुदा पत्नी से कार और बंगला वापस पा सके। सोनाली को जब इस मामले की असलियत मालूम होती है तो वह सिड से अलग हो जाती है। सिड को भी पश्चाताप होता है और वह अपनी गलती सुधारने के लिए उस जोड़ी को फिर एक करना चाहता है। इस काम में सोनाली उसकी मदद करती है। किस तरह से वे मार्क और मैगी को एक करते हैं ये लंबे और उबाऊ ड्रामे के जरिये दिखाया गया है। जोड़ी ब्रेकर्स की सबसे बड़ी कमजोरी है इसका स्क्रीनप्ले। गलतियां तो इसमें हैं ही साथ ही मनोरंजन की कमी भी है। पहले बात की जाए सिड और सोनाली के व्यवसाय वाले ट्रेक की। निर्देशक और लेखक ये तय नहीं कर पाए कि इसे हल्के-फुल्के तरीके से फिल्माया जाए या गंभीरता रखी जाए जाए। यह दुविधा साफ नजर आती है। जोड़ी तोड़ने के नाम पर कुछ फूहड़ किस्म की हरकतें हैं। ओमी वैद्य का बाबा बनकर भाषण देने वाला सीन तो बड़ा ही बेहूदा है और ‘थ्री इडियट्स’ के उस सीन की कमजोर कॉपी है जिसमें उनके स्पीच वाले पेपर्स बदल दिए गए थे। यहां भी पेपर्स बदल जाते हैं और शराब बनाने वाली कंपनियों के नामो ं को जोड़कर वे भाषण देते हैं। मार्क और मैगी की जोड़ी तोड़ने के लिए सिड-सोनाली ग्रीस जा पहुंचते हैं। होटल में मार्क-मैगी के कमरे तक पहुंचने वाले दृश्य से लेकर उनका पीछा करने वाले दृश्यों तक को लेखक ने अपनी सहूलियत के मुताबिक लिखा है। बड़ी ही आसानी से मार्क-मैगी के कमरे में सिड-सोनाली दाखिल हो जाते हैं। उनके फोटो उतारते हैं। फिल्म ग्रीस से गोवा शिफ्ट होती है क्योंकि अब मार्क और मैगी को फिर मिलाना है। ये पार्ट बहुत ही धीमा है। दोनों को मिलाने की कोशिश में कई नाटक रचे जाते हैं, जिसमें मार्क की नानी को भी शामिल किया जाता है। चर्च ले जाया जाता है। दोनों को साथ रुकवाया जाता है। खाने में दवाई मिलाकर तबियत तक बिगाड़ दी जाती है, लेकिन एक भी ऐसा सीन नहीं लिखा गया जिससे लगे कि दोनों फिर से एक-दूसरे की तरफ आकर्षित हो रहे हों। अंत में सिड ही उनके सामने कबूल करता है कि वह ही दोनों के ब्रेकअप का जिम्मेदार है। अगर सिड स े ही गलती मनवाना थी तो फिर इतनी ड्रामेबाजी क्यों की गई? दूसरा ट्रेक सोनाली और सिड के रोमांस का है जो कि पूरी तरह से बैंड बाजा बारात में रणवीर-अनुष्का के रोमांटिक ट्रेक से मेल खाता है, लेकिन वैसा स्पार्क यहां महसूस नहीं होता। सोनाली का अचानक सिड के प्रति आकर्षित हो जाना चौंकाता है। साथ ही दोनों के बीच फिल्माए गए सीन बेहद लंबे हैं। अश्विनी चौधरी का निर्देशन अच्छा है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के कारण वे असहाय नजर आए। फिल्म का संगीत प्लस पाइंट है। कुंआरा, दरमियां, मुझे तेरी जरूरत है जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं। ‘बिपाशा’ का फिल्मांकन उम्दा है। यदि आप कमर्शियल फिल्म के हीरो हैं तो आपका फिट रहना जरूरी है, लेकिन माधवन मोटे नजर आएं। ओवरसाइट शर्ट्स और जैकेट्स उन्होंने पहने, शर्ट आउट रखा, लेकिन अपने मोटापे को नहीं छिपा पाए। उनका अभिनय बेहतर है। दीपान्निता शर्मा और मृणालिनी शर्मा प्रभावित करते हैं, जबकि बिपाशा बसु, हेलन और मिलिंद सोमण का अभिनय औसत दर्जे का है। ओमी वैद्य अब तक ‘थ्री इडियट्स’ के हैंगओवर में चल रहे हैं। कुल मिलाकर जोड़ी ब्रेकर्स मनोरंजन करने में असफल है।
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स्त्रियों के हित में भले ही भारत में कितनी बात की गई हो, लेकिन लोगों की सोच में थोड़ा-सा ही फर्क पड़ा होगा। अभी भी बेटे को हथियार और बेटी को सिर पर लटकती तलवार माना जाता है। बेटी होते ही उसके माता-पिता दहेज की रकम जोड़ना शुरू कर देते हैं क्योंकि समाज की कुरीतियां ही ऐसी हैं। इस वजह से लड़कियों को लड़कों की तुलना में कमतर आंका जाता है। पुरुष शासित समाज में कई स्त्रियां योग्य होने के बावजूद न चाहते हुए रसोई संभालती है और उनसे आगे बढ़ने के अवसर गृहस्थी के नाम पर ‍छीन लिए जाते हैं। इन सब बातों को निर्देशक-लेखक शशांक खेतान ने 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' में समेटा है। यह विषय काफी पुराना है और कई फिल्मकार इस पर अपनी फिल्म बना चुके हैं। विषय पुराना होने के बावजूद शशांक का लेखन और निर्देशन फिल्म को देखने लायक बनाता है। युवाओं की पसंद के अनुरूप उन्होंने कॉमेडी, डांस, गाने के जरिये उन्होंने अपनी बात को पेश किया है। 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' से प्रेरित होकर बनाई थी, लेकिन दूसरी फिल्म में वे अपनी पिछली फिल्म से आगे निकल गए। फिल्म की कहानी झांसी में रहने वाला बद्रीनाथ बंसल (वरुण धवन) की है जो अमीर बाप का बेटा है। उसे इस बात का थोड़ा-सा घमंड भी है। बद्री के पिता रूढि़वादी हैं। अपनी बड़ी बहू को वे काम करने की इजाजत नहीं देते हैं। कोटा में रहने वाली वैदेही त्रिवेदी (आलिया भट्ट) पर बद्री का दिल आ जाता है। वैदेही की बड़ी बहन भी अविवाहित है और उसके पिता को दिन-रात बेटियों के विवाह की चिंता सताती रहती है। बद्री को वैदेही पसंद नहीं करती, लेकिन जब बद्री उसकी बड़ी बहन के लिए लड़का ढूंढ देता है तो वह शादी के लिए तैयार हो जाती है। यहां तक फिल्म में मनोरंजन की धारा बहती रहती है। कई ऐसे सीन हैं जो दर्शकों को हंसाते हैं। इंटरवल ऐसे मोड़ पर होता है कि दर्शक आगे की कहानी जानने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म में इमोशन हावी हो जाता है और उठाए गए मुद्दों के प्रति फिल्म गंभीर हो जाती है। क्लाइमैक्स थोड़ा ड्रामेटिक जरूर है, लेकिन अच्छा लगता है। बद्रीनाथ की दुल्हनिया को बहुत अच्छे से लिखा गया है। चिर-परिचित फिल्म होने के बावजूद ताजगी महसूस होती है। फिल्म में कई उम्दा सीन हैं, जैसे बद्री और उसके दोस्त की लड़ाई और फिर समुंदर में बद्री का दोस्त को मनाना, बद्री और वैदेही के बीच बस वाला दृश्य, माता की चौकी में बद्री का वैदेही की बहन के लिए लड़का ढूंढना, वैदेही का बद्री को कहना कि वह अपने पिता के सामने क्या मुंह खोलने की हिम्मत कर सकता है। शशांक ने फिल्म में दिए गए संदेशों को थोपा नहीं है। मनोरंजन की आड़ में उन्होंने अपनी बात इतने चुपके से कही है कि महसूस की जा सकती है। फिल्म में एक छोटा सा सीन है जिसमें आलिया अपने पिता को लड़के के पिता के सामने झुकता हुआ महसूस करती है और उनके चेहरे के भाव इस सीन को धार देते हैं। हालांकि कुछ सीन अखरते भी हैं जैसे वैदेही का बद्री द्वारा लगातार पीछा करना। इस तरह के दृश्य इस बात को बल देते हैं कि लड़कियों को पटाना है तो लगाता उनका पीछा करो, हालांकि स्क्रिप्ट में इसे जस्टिफाई किया गया है, लेकिन फिर भी इस तरह के दृश्यों से बचा जा सकता था। फिल्म में एक सीन में वैदेही को पकड़ कर बद्री कार की डिक्की में बंद कर देता है और यह भी फिल्म में जंचता नहीं है। सेकंड हाफ में फिल्म कही-कही थोड़ा कमजोर पड़ती है, खासतौर पर सिंगापुर वाला प्रसंग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है, लेकिन अच्छी बात यह है कि इसके बावजूद फिल्म में दर्शकों की रूचि बनी रहती है। शशांक निर्देशक के रूप में प्रभावित करते हैं। उन्होंने अपने सारे कलाकारों से अच्छा काम लिया है। गीतों का सही इस्तेमाल किया है। उनका प्रस्तुतिकरण हल्का-फुल्का है और फिल्म में मैसेज होने के बावजूद मनोरंजन का पूरा ध्यान रखा है। झांसी, कोटा और सिंगापुर में उन्होंने फिल्म को फिल्माया है और हर जगह का अच्छा उपयोग किया है। फिल्म के संवाद भी इस काम में उनकी खासी मदद करते हैं। वरुण धवन और आलिया की केमिस्ट्री शानदार रही है। फिल्म वरुण को भरपूर असवर देती है जिसका उन्होंने पूरी तरह उपयोग किया है। वे हरफनमौला कलाकार हैं और कॉमेडी, इमोशन और रोमांटिक दृश्यों में अपनी छाप छोड़ते हैं। डांस उनकी खासियत है और इसका भी निर्देशन ने खासा उपयोग किया है। वरुण की ऊर्जा से फिल्म भागती हुई महसूस होती है। आलिया भट्ट का किरदार ठहराव लिए हुए है। उन्हें कुछ कठिन दृश्य भी दिए गए हैं और वे बखूबी उन्हें निभा ले गई हैं। बद्रीनाथ के दोस्त के रूप में साहिल वद ने भी शानदार अभिनय किया है। फिल्म की कास्टिंग अच्छे से की गई है और हर किरदार में कलाकार फिट लगता है। > > फिल्म के विषय को देखते हुए सवाल उठाया जा सकता है कि क्या ये अच्छा नहीं होता कि फिल्म का नाम शशांक 'वैदेही का दूल्हा' रखते? पर बॉलीवुड भी नायक प्रधान है। होली के त्योहार पर प्रदर्शित हुई 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' मनोरंजन के कई रंग समेटे हुई है और साथ में संदेश भी है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, हीरू जौहर, अपूर्वा मेहता निर्देशक : शशांक खेतान संगीत : तनिष्क बागची, अमाल मलिक, बप्पी लाहिरी कलाकार : वरुण धवन, आलिया भट्ट, साहिल वेद, गौहर खान, श्वेता बसु सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट 25 सेकंड
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बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो, वाइड फ्रेम पिक्चर्स, विशाल भारद्वाज पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : विशाल भारद्वाज, कुमार मंगत पाठक निर्देशक व संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : इमरान खान, अनुष्का शर्मा, पंकज कपूर, शबाना आजमी, आर्य बब्बर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटा 30 मिनट 35 सेकंड विशाल भारद्वाज उन फिल्मकारों में से हैं जो अपनी फिल्मों के ड्रामे और कल्पनाशीलता के लिए जाने जाते हैं। उनकी कल्पना थोड़ा पागलपन लिए होती है, इसलिए कई बार दर्शकों को यह पसंद नहीं आती है क्योंकि उनके किरदार ऊटपटांग हरकतें किया करते हैं। मटरू की बिजली का मंडोला में भी मटरू और मंडोला की ऐसी ही हरकतें हैं। मसलन शराब के नशे में उनकी बाइक कुएं से टकरा जाती है और दोनों नशे में रस्सी के सहारे कुआं हटाने की कोशिश करते हैं। नशे में दोनों हवाई जहाज उड़ाते हैं। मंडोला को लैंडिंग नहीं आती लिहाजा पैराशूट के सहारे कूदकर दोनों जान बचाते हैं। मंडोला की तमाम हरकतें पागलपन से भरी हैं। हरफूल मंडोला शराब पीते ही हैरी मंडोला हो जाता है। अंग्रेजी में बात करने लगता है। दिमाग पर दिल हावी हो जाता है। गांव में किसानों को जमीन देने की सोचने लगता है। नशा उतरते ही वह सूट-बूट धारी बिज़नेस मैन बन जाता है और किसानों से जमीन छिन कर उस पर इंडस्ट्री, मॉल बनाने की सोचता है। इसी तरह के व्यंग्यात्मक दृश्यों के सहारे कहानी को आगे बढ़ाया गया है। राजनेता, किसान, पॉवर, पुलिस, सरकारी अधिकारियों के इर्दगिर्द कहानी घूमती है। ये शक्तिशाली लोग, गरीब किसानों की जमीन छीनना चाहते हैं। गांव का सबसे पैसे वाला व्यक्ति मंडोला, जिसके नाम पर गांव का नाम है, नेताओं से हाथ मिला लेता है। पैसों की भूख मिटाने के लिए वह अपनी बेटी बिजली की शादी भी एक नेता के बेटे से तय कर देता है ताकि उसे लाभ हो। इनके बीच बनते-बिगड़ते रिश्ते किस तरह से मटरू, बिजली और मंडोला की जिंदगी में परिवर्तन लाते हैं, ये कहानी का सार है। विशाल भारद्वाज और अभिषेक चौबे ने मिलकर स्क्रिप्ट लिखी है और कही ना कही उन पर ‘जाने भी दो यारों’ का असर है। भ्रष्टाचार पर उन्होंने व्यंग्यात्मक चोट करने की कोशिश की है, लेकिन इस तंज में तीखापन नहीं है। दरअसल इंटरवल के बाद फिल्म अपना फोकस खो बैठती है और लव स्टोरी हावी हो जाती है। कई बातें स्पष्ट नहीं हैं। मटरू के प्रति अचानक बिजली का आकर्षित हो जाना या क्लाइमेक्स में अचानक मंडोला के हृदय परिवर्तन के लिए कोई ठोस कारण का न होना अखरता है। इमरान का माओ बनकर किसानों के लिए लड़ने वाला ट्रेक भी अधूरे मन से लिखा गया है। लेखन की कमियों का असर निर्देशक के मजेदार प्रस्तुतिकरण के कारण कम हो जाता है। फिल्म में ऐसे कई सीन हैं, जिनका मजा लिया जा सकता है और इसका श्रेय विशाल को जाता है। उन्होंने हर सीन को बेहतर बनाने की कोशिश की है, संगीत का सहारा भी लिया है और फिल्म का मूड हल्का-फुल्का रखा है। शबाना को पंकज जो सपना सुनाते हैं वो सीन बेहतरीन बन पड़ा है। गुलाबी भैंस वाले सीन भी मजेदार हैं, लेकिन लगातार दोहराव होने के कारण ये दृश्य अपना असर खो देते हैं। यदि कहानी पर थोड़ा और काम किया जाता तो निश्चित रूप से फिल्म कहीं अधिक चुटीली और तीखी बनती। बॉलीवुड में पंकज कपूर एकमात्र ऐसे अभिनेता हैं जिन्हें मन मुताबिक काम न मिले तो वे घर बैठना पसंद करते हैं। यही वजह है कि वे बेहद कम नजर आते हैं। मंडोला के किरदार में उन्होंने जान फूंक दी है। एक्टिंग के साथ-साथ उन्होंने गाने गाए, डांस किया और स्विमिंग पुल में छलांग तक लगाई। उनके और शबाना आजमी के बीच जो दृश्य हैं उनमें एक्टिंग का स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है। इमरान खान ने गेटअप और हरियाणवी लहजे में बोलकर कुछ अलग करने की कोशिश की है, लेकिन ये बदलाव वे अपनी एक्टिंग में नहीं कर पाए। अनुष्का शर्मा नै‍सर्गिक अभिनेत्री हैं और उनका चुलबुलापन किरदार को नए आयाम देता है। एक भ्रष्ट नेता के रूप में शबाना बेहद खतरनाक लगती हैं। आर्य बब्बर ने उनके बेटे के रूप में दर्शकों को हंसाया है। कार्तिक विजय त्यागराजन की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है, लेकिन उन्होंने लाइट का कम उपयोग किया है। शायद यह विशाल भारद्वाज का दबाव होगा क्योंकि वे परदे पर अंधेरा रखना पसंद करते हैं। ‘ओए बॉय चार्ली’ सुनने और देखने में बेहतरीन है। ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती है, बावजूद इसके देखी जा सकती है। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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बैनर : रिलायंस बिग पिक्चर्स निर्देशक : श्याम बेनेगल संगीत : शांतनु मोइत्रा कलाकार : बोमन ईरानी, मिनिषा लांबा, समीर दत्तानी, रवि किशन, इला अरुण, रजित कपूर, यशपाल शर्मा, रवि झांकल सेंसर सर्टिफिकेट :यू/ए * 16 रील * 2 घंटे 20 मिनट श्याम बेनेगल का कहना है कि वे युवाओं को गाँव से जोड़ना चाहते हैं क्योंकि भारतीयों का एक बहुत बड़ा हिस्सा गाँवों में बसता है जो शाइनिंग इंडिया से बहुत दूर है। इसलिए उन्होंने ‘वेल डन अब्बा’ में चिकटपल्ली नामक गाँव को दिखाया है। ग्रामीण जीवन और उनकी समस्याओं को यह फिल्म बारीकी से दिखाती है। इस फिल्म के जरिये उन्होंने उन सरकारी योजनाओं पर प्रहार किया है जो गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के लिए बनाई जाती है। मुफ्त का घर, मुफ्त का कुआँ, मुफ्त की शिक्षा, चिकित्सा जैसी योजनाएँ सरकार से गरीब तक पहुँचने में कई लोगों के हाथ से गुजरती है और लाख रुपए सैकड़े में बदल जाते हैं। अरमान अली (बोमन ईरानी) मुंबई में ड्रायवर है। छुट्टी लेकर वह अपनी बेटी मुस्कान (मिनिषा लांबा) के लिए लड़का ढूँढने चिकटपल्ली जाता है। मुस्कान अपने चाचा-चाची के साथ रहती है जो मस्जिद से जूते भी चुराते हैं और बावड़ियों से पानी भी क्योंकि गाँव में पानी का संकट है। अरमान को पता चलता है कि कपिल धारा योजना के अंतर्गत सरकार गरीबों को बावड़ी के लिए मुफ्‍त में धन दे रही है। वह अपनी जमीन पर बावड़ी बनवाना चाहता है ताकि थोड़ी-बहुत फसल पैदा कर सके। गरीबी रेखा के नीचे होने का वह झूठा प्रमाण-पत्र बनवाता है और बावड़ी के लिए आवेदन करता है। उसका सामना भ्रष्ट अफसर, बाबू, मंत्री और इंजीनियर से होता है जो उसे मिलने वाले अनुदान में से अपना हिस्सा माँगते हैं। आखिर में अरमान के हाथों में चंद हजार रुपए आते हैं जिससे बावड़ी नहीं बनाई जा सकती। उदास अरमान को उसकी 12 वीं कक्षा में पढ़ रही बेटी मुस्कान अनोखा रास्ता बताती है। वे बावड़ी की चोरी की रिपोर्ट दर्ज करवाते हैं। उ नका साथ वे लोग भी देते हैं जिनके साथ भी बावड़ी के नाम पर हेराफेरी की गई। मामला विधानसभा तक पहुँच जाता है और सरकार बचाने के लिए रातो-रात बावड़ी बना दी जाती है। इस कहानी को ‘नरसैय्या की बावड़ी’ (जीलानी बानो), ‘फुलवा का पुल’ (संजीव) और ‘स्टिल वॉटर्स’ को आधार बनाकर तैयार किया गया है। इस तरह की कहानी पर कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में भी फिल्म बनी है और कुछ दिनों पहले ‘लापतागंज’ टीवी धारावाहिक के एक एपिसोड में भी ऐसी कहानी देखने को मिली थी। लेकिन श्याम बेनेगल का हाथ लगने से यह कहानी ‘वेल डन अब्बा’ में और निखर जाती है। बेनेगल ने सरकारी सिस्टम और इससे जुड़े भ्रष्ट लोगों को व्यंग्यात्मक और मनोरंजक तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है कि किस तरह इन योजनाओं को मखौल बना दिया गया है और गर ीबों का हक अफसर/मंत्री/पुलिस छ ीन रहे हैं। कई ऐसे दृश्य हैं जो चेहरे पर मुस्कान लाते हैं साथ ही सोचने पर मजबूर करते हैं। ये सारी बातें बिना लाउड हुए दिखाई गई हैं। मुख्‍य कहानी के साथ-साथ मुस्कान और आरिफ का रोमांस और शेखों द्वारा गरीब लड़कियों को खरीदने वाला प्रसंग भी उल्लेखनीय है। फिल्म की धीमी गति और लंबे क्लायमेक्स से कुछ लोगों को शिकायत हो सकती है, लेकिन इसे अनदेखा भी किया जा सकता है। गाँव की जिंदगी में एक ठहराव होता है और इसे फिल्म के किरदारों के जरिये महसूस किया जा सकता है। फिल्म में कई ऐसे कैरेक्टर हैं जो फिल्म खत्म होने के बाद भी याद रहते हैं। चाहे वो भला आदमी अरमान हो, उसकी तेज तर्रार बेटी मुस्कान हो या इंजीनियर झा हो जिसके दिमाग में हमेशा सेक्स छाया रहता है। अरमान अली के रूप में बोमन ईरानी की एक्टिंग बेहतरीन है, लेकिन अरमान के जुड़वाँ भाई के रूप में उन्होंने थोड़ी ओवर एक्टिंग की है। मिनिषा लांबा का यह अब तक सबसे उम्दा अभिनय कहा जा सकता है। रवि किशन, रजत कपूर, इला अरुण, समीर दत्ता, राजेन्द्र गुप्ता ने भी अपना काम अच्छे से किया है। सोनाली कुलकर्णी को ज्यादा अवसर ‍नहीं मिल पाए। ‘वेल डन अब्बा’ एक वेल मेड फिल्म है और इसे देखा जा सकता है।
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सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर प्रहार करती अनेक फिल्में बॉलीवुड में बनी हैं और इस लिस्ट में 'मदारी' का नाम भी जुड़ गया है। भ्रष्टाचार के कारण एक पुल ढह गया जिसमें कई लोगों के साथ एक सात वर्षीय बालक भी मारा गया। इस बालक के पिता निर्मल कुमार (इरफान खान) की तो मानो जिंदगी ही खत्म हो गई। गृहमंत्री के आठ वर्षीय बेटे का अपहरण वह इसलिए कर लेता है ताकि उसे अहसास हो कि बेटे पर जब कोई मुसीबत आती है तो कैसा महसूस होता है। साथ ही वह इंजीनियर, डिजाइनर, ठेकेदार, नेताओं की पोल खोलना चाहता है। फिल्म को शैलजा केजरीवाल और रितेश शाह ने लिखा है और निशिकांत कामत ने निर्देशित किया है। हिंदी में निशिकांत फोर्स, दृश्यम, मुंबई मेरी जान और रॉकी हैंडसम जैसी फिल्में बना चुके हैं। 'मदारी' के लेखकों ने भ्रष्टाचार विषय तो तय कर लिया, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इस विषय के इर्दगिर्द कहानी की बुनावट की है वो प्रभावित नहीं करती। फिल्म की शुरुआत में ही गृह मंत्री के बेटे का निर्मल अपहरण कर लेता है। इंटरवल और उसके बाद भी वह उस लड़के को लेकर अलग-अलग शहरों में घूमता रहता है। यहां चोर-पुलिस के खेल पर फोकस किया गया है, लेकिन यह रोमांचविहीन है। कभी भी लगता ही नहीं कि ऑफिसर नचिकेत वर्मा (जिम्मी शेरगिल) निर्मल को पकड़ने के लिए कुछ ठोस योजना बना रहा है। दूसरी ओर निर्मल बहुत ही आसानी के साथ बालक को लेकर घूमता रहता है। आठ साल का बालक बहुत ही स्मार्ट दिखाया गया है, वह स्टॉकहोम सिंड्रोम की बातें करता है, लेकिन कभी भी भागने की कोशिश नहीं करता। फिल्म के सत्तर प्रतिशत हिस्से में बस यही दिखाया गया है कि निर्मल अपहृत बालक के साथ यहां से वहां भटक रहा है। वह ऐसा क्यों कर रहा है, ये बताने की जहमत निर्देशक ने नहीं उठाई। सिर्फ उसका बेटा खोया है, इतना ही बताया गया है। राज पर से परदा उठने का इंतजार करते-करते दर्शक उब जाता है। फिल्म उसके धैर्य की परीक्षा लेने लगती है। अंतिम बीस मिनटों में ही फिल्म में तेजी से घटनाक्रम घटते हैं और यहां तक पहुंचने का जो सफर है वो काफी कष्टप्रद है। निर्देशक के रूप में निशिकांत कामत निराश करते हैं। उनका कहानी को कहने का तरीका कन्फ्यूजन को बढ़ाता है। क्लाइमैक्स में निशिकांत ने कुछ ज्यादा ही छूट ले ली है। अचानक एक आम आदमी हीरो की तरह कारनामे करता है। 'सरकार भ्रष्ट नहीं है, भ्रष्टाचार के लिए सरकार है' जैसे कुछ संवाद यहां सुनने को मिलते हैं। हालांकि इन बातों में कुछ नयापन नहीं है और कई बार इस तरह की भ्रष्टाचार विरोधी बातें हम देख/सुन चुके हैं। दुर्घटनाओं में कई लोग लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण मारे जाते हैं। चूंकि इन आम लोगों के पास लड़ने के लिए न पैसा होता है न पॉवर इसलिए ये जिम्मेदार लोग बच निकलते हैं। फिल्म के जरिये ये बात उठाने की कोशिश की गई है, लेकिन ये दर्शकों के मन पर स्क्रिप्ट की कमियों के चलते असर नहीं छोड़ती। फिल्म के क्लाइमैक्स में ये सारी बातें की गई हैं तब तक दर्शक फिल्म में रूचि खो बैठते हैं। अविनाश अरुण की सिनेमाटोग्राफी दोयम दर्जे की है। कैमरे को उन्होंने खूब हिलाया है जिससे आंखों में दर्द होने लगता है। आरिफ शेख का सम्पादन भी स्तर से नीचे है। स्टॉक इमेजेस की क्वालिटी बेहद खराब है। एक हद तक अपने अभिनय के बल पर इरफान खान फिल्म को थामे रहते हैं, लेकिन वे अकेले भी कब तक भार उठाते। स्क्रिप्ट की कोई मदद उन्हें नहीं मिली। उनकी एक्टिंग का नमूना अस्पताल के एक शॉट में देखने लायक है जब उनका बेटा मर जाता है और वे रोते हैं। अन्य कलाकारों में जिम्मी शेरगिल और बाल कलाकार विशेष बंसल प्रभावित करते हैं। कुल मिलाकर 'मदारी' का यह खेल न मनोरंजक है और न ही यह भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दे को ठीक से उठा पाई। बैनर : परमहंस क्रिएशन, डोरे फिल्म्स, सप्तर्षि सिनेविज़न निर्माता : शैलेष आर सिंह, सुतापा सिकदर, शैलजा केजरीवाल निर्देशक : निशिकांत कामत संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : इरफान खान, जिम्मी शेरगिल, तुषार दलवी, विशेष बंसल * दो घंटे 13 मिनट 42 सेकंड
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'लव ऐंड रिलेशनशिप्स आर कॉम्प्लिकेटेड' यानी प्यार और रिलेशनशिप जटिल होते हैं, ये स्टेटस आपने दसियों बार कहीं न कहीं पढ़ा होगा। अनुराग कश्यप निर्देशित और आनंद एल. राय निर्मित 'मनमर्जियां' में इसी स्टेट्स को बहुत खूबसूरती और मच्योरिटी के साथ डील किया गया है। फिल्म की कहानी भले प्रेम त्रिकोण जैसे पुराने आइडिया के इर्द-गिर्द घूमती हो, मगर इन फिल्मकारों की स्टोरी टेलिंग का अंदाज नया और अनोखा है, जो हो सकता है कि परंपरागत सोच वाले दर्शकों के गले न उतरे, मगर फिर आपको समझना होगा कि अनुराग कश्यप जैसे बागी फिल्मकार ने परंपरा का निर्वाह कब किया है? कहानी एक सरल नोट पर शुरू होती है, जहां रूमी (तापसी पन्नू) और विकी (विकी कौशल) एक-दूसरे के प्यार में गले तक इस कदर डूबे हैं कि जब भी मौका मिलता है, वे एक-दूसरे में समा जाने को आतुर रहते हैं। उनका प्यार देह की सीमाओं को पार कर चुका है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है, जब एक दिन तापसी के बेडरूम में दोनों को घरवाले रंगे हाथों पकड़ लेते हैं। अब हालात ऐसे बन जाते हैं कि रूमी के घरवाले उस पर शादी का दबाव बनाते हैं। खिलंदड़ी और बेबाक रूमी मस्तमौला और गैरजिम्मेदार विकी के सामने फरमान जारी कर देती है कि वह अगले दिन अपने घरवालों को लेकर शादी की बात करने आए, मगर विकी इस स्थिति के लिए मच्योर नहीं हुआ है। वह रूमी को गच्चा दे जाता है और नहीं आता। रूमी और विकी में इस बात को लेकर खूब लड़ाई होती है, मगर इस बीच विदेश से शादी के लिए आए हुए रॉबी (अभिषेक बच्चन) को जब रूमी का रिश्ता दिखाया जाता है, तो वह उसकी फोटो देखते ही उसके प्यार में पड़ जाता है। विकी से नाराज रूमी रॉबी के साथ शादी करने की हामी भर भी लेती है, मगर फिर विकी उसे अपने प्यार शिदद्त का वास्ता देकर मना लेता है और उसे घर से भागने के लिए मना लेता है। कमिटमेंट फोबिक विकी अभी उतना परिपक्व नहीं हुआ कि शादी जैसी जिम्मेदारी को निभा सके, इसलिए वह बार-बार जिम्मेदारी की बात आने पर मुंह मोड़ लेता है। अंततः रूमी रॉबी के नाम की मेहंदी लगा लेती है और अगले दिन उसकी शादी है, मगर अब विकी किसी भी हाल में रूमी को किसी और का नहीं होने देना चाहता। वे दोनों फिर भागने का प्लान बनाते हैं, मगर एक बार फिर विकी अपने वादे से पलट जाता है। रूमी और रॉबी की शादी हो जाती है, मगर कहानी खतम नहीं होती। इन किरदारों का अंजाम क्या होता है, इसे जानने के लिए आपको सिनेमा हॉल जाना होगा। आनंद एल. राय निर्मित और अनुराग कश्यप निर्देशित मनमर्जियां आज के दौर के प्यार की उस व्याख्या को चित्रित करती है, जिससे कमोबेश आज का युवा गुजरता है। किरदारों के बोल्डनेस के मामले में आनंद एक कदम आगे बढ़े हैं, तो अनुराग उन्हें ट्रीट करते हुए नर्मी से पेश आए हैं। अनुराग ने किरदारों को सीक्वेंस और दृश्यों के साथ इस खूबी से गूंथा है कि आप उन्हें जज करने के बजाय उनके साथ बहते चले जाते हैं। अमृतसर की रहनेवाली रूमी और विकी का दैहिक प्यार आपको चौंकाता जरूर है, मगर कहीं न कहीं आप उनकी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं। निर्देशक के रूप में अनुराग इस फिल्म में एक अलग अंदाज में दिखे हैं। उन्हें कनिका ढिल्लन जैसी लेखिका का भी खूब साथ मिला है। फिल्म के कई दृश्य ऐसे हैं, जो बेहद ही मजेदार बन पड़े हैं। वे आपको मल्टिपल इमोशंस का अहसास कराते हैं। आपको आखिर तक पता नहीं चल पाता कि रूमी किस तरफ जाएगी? क्लाइमैक्स बहुत ही प्यारा है। अभिनय के मामले में 'मनमर्जियां' हर तरह से बीस साबित होती है। तापसी पन्नू आज के दौर की संवरी हुए अभिनेत्री हैं, मगर इस फिल्म को उनके करियर की उत्कृष्ट फिल्म कहना गलत न होगा। उन्होंने एक अनकन्वेंशनल किरदार को इतने कन्विंसिंगली जिया है कि आप उसके प्यार में पड़ जाते हैं। अभिषेक बच्चन की संयमित परफॉर्मेंस कहानी को खास बनाती है। शराब पीकर बार में नाचनेवाला दृश्य और क्लाइमैक्स में अभिषेक और तापसी का संवाद फिल्म का हाई पॉइंट साबित होता है।विकी कौशल ने विकी के अपने किरदार को बखूबी जिया है, जिसे प्यार तो समझ में आता है, मगर जिंदगी और जिम्मेदारी नहीं। उनका फंकी लुक उनके किरदार को बल देता है। फिल्म की सहयोगी कास्ट भी मजबूत है। संगीत के मामले में सभी गाने सोलफुल हैं। अमित त्रिवेदी के संगीत में 'हल्ला', 'ग्रे वाला शेड', 'डराया' जैसे सभी गाने अच्छे बन पड़े हैं। क्यों देखें: नए दौर की अनकन्वेंशनल रोमांटिक फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।
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2015 में जुरासिक वर्ल्ड से इस सीरिज को रीबूट किया गया और अब इसका सीक्वल 'जुरासिक वर्ल्ड: फॉलन किंगडम' रिलीज हुआ है, जिसे हिंदी में डब कर 'जुरासिक वर्ल्ड: दहशत में सल्तनत' नाम से रिलीज किया गया है। डायनासोर्स की सल्तनत दहशत में इसलिए है क्योंकि इस्ला नुबलर आइलैंड जहां पर डायनासोर्स को रखा गया है वहां पर एक ज्वालामुखी फट पड़ा है। डायनासोर्स को बचाने से सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है इससे डायनासोर्स के विनाश का खतरा है। यह प्रजाति विलुप्त हो सकती है। डायनासोर्स को बचाने के लिए ओवेन और क्लेयर अपने दो और साथियों के साथ मिशन पर निकलते हैं। वहां पहुंचने पर उन्हें पता चलता है कि डायनासोर्स को बेचने के लिए बचाया जा रहा है। ऐसे में ओवेन और क्लेयर को न केवल डायनासोर्स की जान बचाना है बल्कि उनकी तस्करी को भी रोकना है। इस दोहरे मिशन में उन्हें लगातार कई अड़चनों का सामना करना पड़ता है। फिल्म की कहानी ठीक-ठाक है। जब तक डायनासोर्स को बचाने का मिशन चलता है, तब तक पटरी पर रहती है, लेकिन जानवरों की नीलामी वाली बात ठीक तरह से दर्शाई नहीं गई है। क्यों इन खतरनाक जानवरों को लोग खरीदना चाहते हैं? उनका क्या मकसद है? इनके जवाब संतुष्ट नहीं करते। इसके बावजूद यदि फिल्म बांध कर रखती है तो अपने भरपूर एक्शन के कारण। लगातार स्क्रीन पर ऐसा कुछ चलता रहता है जिससे उत्सुकता बनी रहती है। तरह-तरह के डायनासोर्स, धधकता ज्वालामुखी, खाक कर देने वाला लावा, डायनासोर्स की नई प्रजाति, डायनासोर्स की नीलामी, षड्यंत्र, छोटी बच्ची की मासूमियत जैसे कई प्रसंग आपको फिल्म से जोड़ कर रखते हैं। ज्वालामुखी के फटने के बाद भागते जानवर और इंसान के दृश्य आपको रोमांचित कर देते हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स लंबा है, लेकिन बढ़िया है। अंत खुला हुआ है ताकि जुरासिक वर्ल्ड की ट्रॉयोलॉजी तीसरे भाग के जरिये पूरी हो। सबसे अहम बात यह कि इस फिल्म में आप जिस तरह के दृश्यों की उम्मीद लेकर जाते हैं वो भरपूर देखने को मिलते हैं इस वजह से खामियों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं जाता। फिल्म के निर्देशक जे.ए. बायोना ने कहानी की कमियों को अपने उम्दा प्रस्तुतिकरण से कवर किया है। यह फिल्म उन्होंने अपनी टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रख कर बनाई है। उन्होंने कुछ नए प्रयोग भी किए हैं, दर्शकों को चौंकाया और डराया भी है। पूरी फिल्म क्रिस प्रैट और ब्राइस डलास हॉवर्ड के कंधों पर टिकी हुई है और उन्होंने अपनी दमदार शख्सियत और अभिनय से फिल्म को विश्वसनीय बनाया है। कुछ नए एक्टर्स को भी जोड़ा गया है, लेकिन इससे फिल्म को विशेष फायदा नहीं हुआ है। फिल्म के सीजीआई और स्पेशल इफेक्ट्‍स लाजवाब हैं। एकदम वास्तविक लगते हैं, कहीं भी नकलीपन नजर नहीं आता। इसके लिए तकनीशियन बधाई के पात्र हैं। जुरासिक वर्ल्ड: फॉलन किंगडम में भले ही नवीनता न हो, लेकिन यह फिल्म भरपूर रोमांच और मजा देती है। निर्देशक: जे.ए. बायोना कलाकार: क्रिस प्रैट, ब्राइस डलास हॉवर्ड, जस्टिस स्मिथ, जैफ गोल्डबल्म, जेम्स क्रोमवेल
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अगर हम साठ के दौर के आखिर में बनी बी आर चोपड़ा प्रॉडक्शन की फिल्म इत्तेफाक का जिक्र करें तो उस फिल्म में पहली बार डायरेक्टर ने एक-साथ कई ऐसे प्रयोग किए थे जो उस वक्त बॉक्स आफिस के लिए घातक माने जाते थे। बेशक, उसी दौर में टिकट खिड़की पर कानून जैसी ऑफ बीट फिल्में कामयाब रहीं थीं लेकिन साठ-सत्तर के दौर के सुपरस्टार राजेश खन्ना को लेकर बिना गाने सिर्फ डेढ़ घंटे की फिल्म बनाना रिस्की थी। उस दौर में जब तीन घंटे की फिल्में चला करती थी इस फिल्म को कुल 90 मिनट की अवधि का बनाया गया। बॉक्स आफिस पर फिल्म हिट कराने के लिए ऐक्शन, कॉमिडी और म्यूजिक का तड़का लगाना जरूरी माना जाता था लेकिन चोपड़ा बैनर की उस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं था लेकिन इसके बाद बावजूद फिल्म टिकट खिड़की पर कामयाब रही। वैसे, चोपडा के बैनर तले बनी यह फिल्म भी अमेरिकन मूवी 'साइनपोस्ट: टू मर्डर' की रीमेक थी तो इस शुक्रवार को आई इत्तेफाक राजेश खन्ना की फिल्म का रीमेक है, प्रॉडक्शन कंपनी ने रिलीज से पहले इस फिल्म के सस्पेंस को पूरी तरह से छिपाने के लिए क्या कुछ नहीं किया, मुंबई सहित कहीं भी इस फिल्म की प्रिव्यू स्क्रीनिंग नहीं रखी गई तो फिल्म की स्टारकॉस्ट और क्रू मेम्बर्स को सख्त हिदायत दी थी कि क्लाइमेक्स का कहीं जिक्र ना करें। हद तो उस वक्त हो गई जब प्रॉडक्शन कंपनी ने फिल्म को बिना प्रमोशन ही रिलीज करने का फैसला लिया। स्टोरी प्लॉट: विक्रम सेठी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) एक नामी राइटर हैं। अचानक एक हादसे में विक्रम की वाइफ कैथरीन सेठी की मौत हो जाती है, दूसरी ओर इसी दिन माया (सोनाक्षी सिन्हा) के हज्बंड एडवोकेट शेखर सिन्हा की भी हत्या हो जाती है। पुलिस की जांच के दौरान कैथरीन की मौत शक की दायरे में नजर आती है, हालात ऐसे बनते हैं, इन दोनों मर्डर केस की जांच कर रहे इंस्पेक्टर देव (अक्षय खन्ना) को लगता है कि इन हत्याओं के पीछे कैथरीन के हज्बंड विक्रम सेठी का हाथ है सो मर्डर का चार्ज विक्रम पर लगता है।दरअसल, विक्रम रात को हुए ऐक्सिडेंट के बाद माया के घर मदद मांगने गया था। एडवोकेट शेखर सिन्हा के मर्डर केस में देव का शक शेखर की वाइफ माया सिन्हा पर भी है। इंस्पेक्टर देव इन मर्डर की गुत्थी को अपने ढंग से सुलझाने में लगा हुआ है इसलिए वह विक्रम और माया को अपनी-अपनी बात कहने का मौका देता है। बेशक देव के शक के घेरे में पहला नाम विक्रम ही है लेकिन माया भी शक की सुइयां रुकती हैं, ऐसे में देव के जेहन में एक ही सवाल है कि कातिल का मकसद क्या है और कातिल कौन है ? रिव्यू में अगर हम इस बारे में कुछ भी बताते है तो आपका फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो जाएगा।यंग डायरेक्टर अभय चोपड़ा ने इस डार्क शेड मर्डर मिस्ट्री को कुछ ऐसे असरदार ढंग से पेश किया है कि आप एंड तक जान नहीं पाते कि हत्यारा कौन है, यही वजह है करीब पौने दो घंटे की फिल्म आपको सीट से बांधे रखती है। अभय ने कहानी को कुछ इस एंगल से पर्दे पर उतारा है कि फिल्म में हुए दो मर्डर होते हैं और दर्शक एंड तक अपनी अपनी सोच से हत्यारे का अंदाजा लगाते रहते है। जॉन अब्राहम स्टारर 'ढिशूम' के बाद से अक्षय खन्ना ने अपना स्टाइल बदला है, इस फिल्म में अक्षय ने गजब की ऐक्टिंग की है, इंस्पेक्टर देव के रोल में अक्षय खूब जमे है तो वहीं सिदार्थ मल्होत्रा ने अपने रोल को कुछ अलग ढंग से पेश करने की अच्छी कोशिश की है। वहीं माया के रोल में सोनाक्षी सिन्हा ने अपने किरदार को बस निभा भर दिया है, अगर सोनाक्षी सिन्हा और सिदार्थ के किरदारों पर और ज्यादा काम किया जाता तो यह दोनों किरदार फिल्म को और ज्यादा पावरफुल बना सकते थे।क्यों देखें: अक्षय खन्ना की शानदार ऐक्टिंग और यंग डायरेक्टर अभय की कहानी पर पकड़ फिल्म की यूएसपी है। अगर आपको सस्पेंस थ्रिलर फिल्में पंसद है तो इत्तेफाक आपको अपसेट नहीं करेगी।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com ग्लैमर इंडस्ट्री में आर. बाल्की को बिग बी का ऐसा पक्का फैन माना जाता है जो उनके बिना फिल्म बनाने की कल्पना तक नहीं करता। 2007 में बिग की को लीड किरदार में लेकर बाल्की ने 'चीनी कम' बनाई। इस फिल्म के बाद बाल्की और बिग की का साथ 'पा' और 'शमिताभ' में फिर देखने को मिला। अब जब, बाल्की ने करीना और अर्जुन कपूर को लीड किरदार में लेकर फिल्म बनाई तो इस बार भी उन्होंने अपने चहेते स्टार अमिताभ बच्चन के साथ जया बच्चन को भी अपनी फिल्म में अहम किरदार बनाकर पेश किया। वैसे, अगर हम इस फिल्म की कहानी और किरदारों पर जरा गौर करें तो फिल्म डायरेक्टर बाल्की की पर्सनल लाइफ से कुछ ज्यादा ही प्रभावित नजर आती है। गौरी उम्र में बाल्की से करीब बारह-तेरह साल छोटी हैं। गौरी टोटली करियर ओरियंटेड वुमन हैं, दूसरी ओर बाल्की को रियल लाइफ में घर संभालना कुछ ज्यादा ही रास आता है। गौरी जब बतौर डायरेक्टर श्रीदेवी स्टारर फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' बना रही थीं उस दौरान बाल्की ने पूरा घर संभाला। गौरी खुद को खुशकिस्मत मानती हैं कि उन्हें भगवान ने एक एक पत्नीव्रता हज्बंड दिया। खुद, बाल्की का भी मानना है कि हमेशा पत्नी ही क्यों किचन वगैरह संभाले? पति ऐसा क्यों नहीं करते? अब जब 'की ऐंड का' दर्शकों के सामने है तो ऐसा लगता है इस फिल्म बनाने की प्रेरणा बाल्की को अपनी पर्सनल लाइफ और घर से ही मिली है। कहानी : कबीर (अर्जुन कपूर) और कीया (करीना कपूर खान) की पहली मुलाकात चंडीगढ़-दिल्ली की फ्लाइट में होती है। दोनों दिल्ली से हैं। कबीर के पिता (रंजीत कपूर) शहर के टॉप बिल्डर हैं। कबीर ने एमबीए में टॉप किया है, लेकिन उसे अपने पिता के बिज़नस में कतई दिलचस्पी नहीं। कबीर की मां आर्टिस्ट होने के साथ-साथ हाउसवाइफ थीं। कबीर को अपनी मां से बेइंतहा प्यार था, लेकिन पिता द्वारा मां की बार-बार उपेक्षा किए जाने से कबीर हमेशा अपसेट रहता। पिता-पुत्र के बीच की टसन की एक और वजह कबीर का फैमिली बिज़नस को न संभालने का फैसला था। दिल्ली में कीया और कबीर की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता है। कीया एक कॉर्पोरेट ऐड कंपनी में ऊंचे पद पर काम करती हैं तो वहीं कबीर नकारा। चंद मुलाकातों के बाद कीया यह जानते हुए कि कबीर सर्विस वगैरह जॉइन करने की बजाए घर संभालना चाहता है और उम्र में उससे छोटा है, उससे शादी करने का फैसला करती है। कीया की मां (स्वरूप संपत) को इस शादी से कोई ऐतराज नहीं, सो दोनों कोर्ट मैरिज कर लेते हैं। शादी के बाद कीया रूटीन से ऑफिस जाती है तो कबीर घर में किचन वगैरह का काम संभालता है। कुछ अर्से बाद कीया कंपनी में वीपी बन जाती है। कीया की कंपनी के बॉस और कुलीग को मालूम है कि उसका हज्बंड कबीर घर का सारा काम संभालता है। एक दिन कीया कबीर को एक टीवी चैनल में घर संभालने के अपने फैसले के बारे में इंटरव्यू देने को कहती है, इस इंटरव्यू के बाद कबीर की लोकप्रियता बढ़ने लगती है। अब वह सिलेब्रिटी बन चुका है। मुंबई में उसे सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के घर से बुलावा आता है तो कीया की कंपनी का बॉस अब कबीर को लेकर टीवी ऐड बनाता है, इसी के बाद कीया और कबीर के रिश्तों में ऐसा तनाव शुरू होता है जो उनके बीच की दूरियां बढ़ाता है। ऐक्टिंग: अगर एक हाउस हज्बंड के तौर पर हम अर्जुन कपूर की ऐक्टिंग की बात करें तो यकीनन अर्जुन ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। पिता के साथ तनाव के बीच घर में कीया की मां के साथ वक्त काटने वाले कुछ सीन्स में अर्जुन की ऐक्टिंग देखने लायक है। यकीनन स्क्रीन पर वाइफ के लिए अलग-अलग टेस्ट का खाना बनाने और किचन से लेकर घर का सारा काम संभालने वाले कबीर का किरदार यकीनन लडकियों को कुछ ज्यादा ही पसंद आ सकता है। किया के किरदार में करीना कपूर परफेक्ट हैं। करीना ने अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से कीया के किरदार को स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है और हां, स्क्रीन पर सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और जया बच्चन की ऐंट्री दर्शकों के लिए एक सरप्राइज़ ट्रीट ही कहा जा सकता है। कीया की मां के किरदार में स्वरूप संपत ने अच्छा काम किया है। रंजीत कपूर निराश नहीं करते। डायरेक्शन : यकीनन, आर. बाल्की ने इस फिल्म को एक नए नजरिए और मल्टप्लेक्स कल्चर के साथ-साथ जेन एक्स की पसंद को ध्यान में रखकर बनाने का कोशिश की, लेकिन इंटरवल से पहले फिल्म की बेहद सुस्त रफ्तार और की ऐंड का की मुलाकातों के सीन्स को भी बेवजह खींचा गया। करीना-अर्जुन के बीच कई लिप लॉक सीन्स से बचा जा सकता था। हां, बाल्की ने अपने चहेते सुपर स्टार अमिताभ बच्चन और जया बच्चन का पैकेज फिल्म में दर्शकों को सरप्राइज के तौर पर दिया है, जो कहानी का अहम हिस्सा भी बन जाता है। संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म के दो गाने 'हाई हील' और 'जी हुजूरी' म्यूजिक लवर्स में हिट हो चुका है। बाल्की की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने 'जी हुजूरी' गाने को फिल्म के माहौल के मुताबिक बार-बार सही सिचुएशन पर फिट किया है। क्यों देखें : एक नया सब्जेक्ट, अर्जुन और करीना की अच्छी केमिस्ट्री। अगर आप बाल्की की फिल्मों को मिस नहीं करते हैं तो इस बार उनकी रियल लाइफ से मिलती-जुलती इस फिल्म को मिस न करें। फिल्म की सुस्त रफ्तार और कमजोर स्क्रिप्ट माइनस पॉइंट है।
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निर्माता : सुनीता गोवारीकर, अजय बिजली, संजीव के. बिजली निर्देशक : आशुतोष गोवारीकर संगीत : सोहेल सेन कलाकार : अभिषेक बच्चन, दीपिका पादुकोण, सिकंदर खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 18 रील * 2 घंटे 55 मिनट इतिहास को सिल्वर स्क्रीन पर उतारने वाले आशुतोष गोवारीकर ने इस बार उन शहीदों की कहानी चुनी है‍ जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपनी जान दी है और जो गुमनाम से हैं। आजादी की लड़ाई में इनका योगदान किसी से भी कम नहीं है। अप्रेल 1930 को चिटगाँव में सुरज्य सेन के नेतृत्व में किशोरों ने अँग्रेजों के अलग-अलग ठिकानों पर एक साथ हमला बोला था और इसकी गूँज लंदन तक पहुँची थी। मानिनि चटर्जी की पुस्तक ‘डू एंड डाई - द चिटगाँव अराइजिंग 1930-34’ पर यह फिल्म आधारित है और जिस सत्य घटना को दिखाया गया है उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। सूर्ज्या सेन (अभिषेक बच्चन) और उसके साथियों का आजादी पाने का रास्ता गाँधीजी से अलग था। उनके द्वारा गठित भारतीय गणतंत्र सेना गाँधीजी के आह्वान पर एक वर्ष तक हिंसा का रास्ता नहीं चुनती। एक वर्ष होते ही वे अपने गाँव को अँग्रेजों से मुक्त कराने की योजना बनाते हैं। इसमें उन्हें साथ मिलता है 56 किशोरों का जिनके उस मैदान पर अँग्रेजों ने कब्जा कर‍ लिया जहाँ वे फुटबॉल खेलते थे। वे सुरज्य के पास मैदान आजाद कराने के लिए जाते हैं और देश की आजादी के आँदोलन से जुड़ जाते हैं। कल्पना दत्ता (दीपिका पादुकोण) और प्रीति नामक दो महिलाएँ भी साथ हो जाती हैं। ये सब मिलकर एक ही रात अँग्रेजों के अलग-अलग ठिकानों पर हमला करते हैं। टेलीग्राम ऑफिस ध्वस्त कर देते हैं। रेलवे लाइन अवरुद्ध कर देते हैं। उनकी कोशिश पूरी तरह कामयाब तो नहीं होती है, लेकिन वे भारतीयों में आजादी की लड़ाई जोश भरने में कामयाब होते हैं। भ्रष्टाचार और घोटाले के इस दौर में आशुतोष की प्रशंसा इसलिए की जा सकती है कि उन्होंने याद दिलाने की कोशिश की है इस आजादी के लिए हमारे पूर्वजों ने कितना खून बहाया है। आशुतोष के साथ दिक्कत यह है कि वे अपनी बात कहने में लंबा वक्त लेते हैं। सीन को बहुत लंबा रखते हैं। ‘खेलें हम जी जान से’ को भी अंतिम 40 मिनटों में फिजूल ही खींचा गया है। सिपाहियों द्वारा क्रांतिकारियों को घेरने वाले दृश्य दोहराए गए हैं। कायदे से तो हमलों के बाद ही फिल्म को खत्म किया जा सकता था और चंद मिनटों में ये बताया जा सकता था कि सभी का क्या हुआ। क्रांतिकारियों द्वारा एक साथ किए गए हमलों को और भी बेहतर तरीके से पेश किया जा सकता था क्योंकि इनमें से थ्रिल गायब है और कौन क्या कर रहा है, ये समझना थोड़ा मुश्किल हो गया है। इन कमियों के बावजूद भी फिल्म बाँधकर रखती है क्यों यह अपनी मूल थीम से यह नहीं भटकती है। फिल्म को बांग्लादेश के बजाय गोआ में फिल्माया गया है, लेकिन यह फर्क नजर नहीं आता। कलाकारों की ड्रेसेस, मकान, सामान, कार हमें 80 वर्ष पीछे ले जाते हैं। फिल्म के अंत में क्रांतिकारियों के मूल फोटो दिखाकर भी एक सराहनीय काम किया गया है। फिल्म का सबसे बड़ा माइनस पाइंट है अभिषेक बच्चन। एक क्रांतिकारी में जो जोश, तेवर, आँखों में अंगारे, जुनून दिखाई देना चाहिए था, वो सब अभिषेक में से नदारद है। नीरस तरीके से उन्होंने अपनी भूमिका निभाई है और ज्यादातर उनका चेहरा सपाट नजर आता है। उनसे अच्छा अभिनय तो उनके साथियों के रूप में मनिंदर, सिकंदर खेर, फिरोज वाहिद खान ने किया है। नॉन ग्लैमरस रोल में दीपिका और विशाखा सिंह प्रभावित करती हैं। फिल्म की थीम के अनुरुप कुछ गाने भी हैं, जो नहीं भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। बांग्ला टच लिए हुए डॉयलॉग्स साधारण हैं। फिल्म का संपादन ढीला है और समझा जा सकता है कि निर्देशक ने सीन नहीं काटने के लिए दबाव बनाया होगा। कुल मिलाकर ‘खेलें हम जी जान से’ में एक सत्य घटना को ईमानदारी के साथ पेश करने की कोशिश की गई है और देशभक्ति को बनावटी तथा नाटकीयता से दूर रखा गया है। वंदे मातरम।
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फोर्स 2 उन अंडरकवर एजेंट्स को समर्पित है जो समय आने पर देश के लिए अपनी जान देते हैं और उन्हें 'शहीद' का दर्जा भी नहीं मिलता। इस थीम को लेकर चिर-परिचित कहानी बुनी गई है। एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम) ने पांच वर्ष पूर्व अपनी पत्नी को खोया था और अब उसे कोई दर्द नहीं होता। दूसरी ओर रॉ के तीन एजेंट्स चीन में मारे जाते हैं। इनमें से एक यश का दोस्त भी है। कोई ऐसा है जो इनकी पहचान दुश्मनों को बता रहा है। इसे ढूंढने की जिम्मेदारी यश को सौंपी जाती है। इस काम में उसकी मदद करती है रॉ एजेंट केके (सोनाक्षी सिन्हा)। दोनों पता लगाते हैं कि बुडापेस्ट में कोई ऐसा शख्स है जो यह काम कर रहा है। बुडापेस्ट पहुंच कर वे शिव शर्मा (ताहिर भसीन राज) को बेनकाब कर देते हैं। इसके बाद शिव को पकड़ने का खेल शुरू होता है। शिव ऐसा क्यों कर रहा है, यह राज फिल्म के अंत में खुलता है। फिल्म की कहानी बेहद सरल है और सारा फोकस शिव को पकड़ने में होने वाले रोमांच पर रखा गया है। इसके लिए कॉमेडी या रोमांस की बैसाखियों का सहारा भी नहीं लिया गया है। फिल्म में आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। कुछ उतार-चढ़ाव देकर चौंकाने की कोशिश की गई है, लेकिन ये पैंतरेबाजी बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं है। स्क्रिप्ट में एक्शन के शौकीनों को खुश करने के लिए लॉजिक को किनारे रख दिया है। बुडापेस्ट की सड़कों पर यश और केके जिस तरह की गोलीबारी करते हैं उस पर यकीन करना मुश्किल हो जाता है। शिव तक हर बार यश-केके आसानी से पहुंच जाते हैं। यदि इसमें थोड़ी कठिनाई रखी जाती तो फिल्म का मजा बढ़ सकता था, लेकिन एक्शन सीक्वेंस की अधिकता के कारण इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। केके और यश की अलग-अलग 'वर्किंग स्टाइल' को लेकर होने वाले टकराव से दर्शकों का मनोरंजन होता है। फो र्स 2 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें 'फोर्स' का निर्देशन निशिकांत कामत ने किया था, लेकिन सीक्वल में यह जिम्मेदारी अभिनय देव ने संभाली है। अभिनय के नाम के आगे 'देल्ही बैली' (2011) जैसी फिल्म और '24: सीजन 2' जैसा टीवी शो दर्ज है। यहां पर भी अभिनय ने अपनी जवाबदारी बखूबी संभाली। अपनी टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रख कर उन्होंने फिल्म बनाई है। एक रूटीन कहानी को उन्होंने अपने प्रस्तुतिकरण के दम पर दर्शकों को बांध रखने में सफलता हासिल की है। स्क्रिप्ट की कमियों को बखूबी छिपाते हुए उन्होंने फिल्म को 'कूल' लुक दिया है और 'स्टाइलिश' एक्शन का तड़का लगा कर दर्शकों का मनोरंजन किया है। अभिनय की इसलिए भी तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने फिल्म को भटकने नहीं दिया। एक आइटम सांग का मोह भी वे छोड़ देते तो बेहतर होता। हंगरी की महिला का हिंदी गाना अटपटा लगता है। 'फोर्स 2' के एक्शन डायरेक्टर और उनकी टीम का काम काबिल-ए-तारीफ है। कार चेज़िंग सीन और गन फाइट्स के जरिये वे दर्शकों को रोमांचित करने में सफल रहे हैं। दो-तीन सीक्वेंस तो कमाल के हैं। निश्चित रूप से एक्शन फिल्मों के प्रशंसक इन्हें देख रोमांचित होंगे। जॉन अब्राहम एक स्टाइलिश हीरो हैं। वे फिल्म में बेहतर लगे हैं तो इसका श्रेय निर्देशक को जाता है। जॉन के चेहरे पर आसानी से भाव नहीं आते और उन्हें इस तरह के दृश्य बहुत कम दिए गए हैं। ज्यादातर समय वे एक्शन करते ही नजर आए। उनका एंट्री वाला सीक्वेंस जोरदार है। सोनाक्षी सिन्हा ने जॉन का साथ अच्छे से निभाया है और वे भी रॉ एजेंट के रूप में एक्शन करती नजर आईं। 'मर्दानी' में अपनी खलनायकी से प्रभावित करने वाले ताहिर राज भसीन यहां पर भी बुरे काम करते दिखाई दिए। एक कूल, माउथ आर्गन बजाने वाले और चालाक विलेन के रूप में वे अपना प्रभाव छोड़ते हैं और अंत में कुछ दर्शकों की हमदर्दी भी उनके साथ हो सकती है। सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त है और फिल्म को 'रिच लुक' देती है। क्लाइमैक्स का कुछ हिस्सा वीडियो गेम की तरह शूट किया गया है और यह प्रयोग अच्छा लगता है। एक्शन सीक्वेंस को सफाई के साथ शूट किया गया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक अन्य एक्शन फिल्मों की तरह लाउड नहीं है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। 'फोर्स 2' प्रीक्वल की तुलना में बेहतर है। ज्यादा उम्मीद लेकर न जाए तो पसंद आ सकती है। बैनर : जेए एंटरटेनमेंट प्रा.लि., वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, सनशाइन पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : विपुल शाह, जॉन अब्राहम निर्देशक : अभिनय देव संगीत : अमाल मलिक कलाकार : जॉन अब्राहम, सोनाक्षी सिन्हा, ताहिर राज भसीन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट 48 सेकंड्स
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