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1200 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | औरंगजेब के पिता कौन थे ? | {
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} | Who was the father of Aurangzeb? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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1201 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | लाल किले का निर्माण कितने वर्ष तक चला था? | {
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} | The construction of the Red Fort lasted for how many years? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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1202 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री कौन थे ? | {
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} | Who was the first prime minister of independent India? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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1203 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | मोती मस्जिद का निर्माण किसने करवाया था ? | {
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} | Who built the Moti Masjid? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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1204 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | लाल किले का निर्माण किस वर्ष में शुरु हुआ था? | {
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"1638 ईसवी"
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} | In which year did the construction of the Red Fort begin? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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409
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"AD 1638"
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1205 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | ताजमहल कहां स्थित है? | {
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"आगरा"
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} | Where is the Taj Mahal located? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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998
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"text": [
"Agra"
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1206 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | लाल किला को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में किस वर्ष शामिल किया गया ? | {
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} | In which year was the Red Fort included in the list of World Heritage Sites? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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1207 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | दिल्ली के पांचवें मुगल शासक कौन थे? | {
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"शाहजहां"
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} | Who was the fifth Mughal ruler of Delhi? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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"Shah Jahan."
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1208 | राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय और मुगल वास्तुशैली से बने इस भव्य ऐतिहासिक कलाकृति का निर्माण पांचवे मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था। यह शानदार किला दिल्ली के केन्द्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है, जो कि तीनों तरफ से यमुना नदीं से घिरा हुआ है, जिसके अद्भुत सौंदर्य और आर्कषण को देखते ही बनता है। विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल दुनिया के इस सर्वश्रेष्ठ किले के निर्माण काम की शुरुआत मुगल सम्राट शाहजहां द्धारा 1638 ईसवी में करवाई गई थी। भारत के इस भव्य लाल किले का निर्माण काम 1648 ईसवी तक करीब 10 साल तक चला। मुगल बादशाह शाहजहां के द्धारा बनवाई गई सभी इमारतों का अपना-अपना अलग-अलग ऐतिहासिक महत्व है। जबकि उनके द्धारा बनवाया गया ताजमहल को उसके सौंदर्य और आर्कषण की वजह से जिस तरह दुनिया के सात अजूबों में शुमार किया गया है, उसी तरह दिल्ली के लाल किला को विश्व भर में शोहरत मिली है। इस भव्य ऐतिहासिक किले के प्रति लोगों की सच्ची श्रद्धा और सम्मान है। आपको बता दें कि शाहजहां, इस किले को उनके द्धारा बनवाए गए सभी किलों में बेहद आर्कषक और सुंदर बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1638 ईसवी में ही अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली शिफ्ट कर लिया था, और फिर तल्लीनता से इस किले के निर्माण में ध्यान देकर इसे भव्य और आर्कषक रुप दिया था। मुगल सम्राट शाहजहां ने आगरा में स्थित ताजमहल को भव्य रुप देने वाले डिजाइनर और मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को इस किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। वहीं उस्ताद अहमद अपने नाम की तरह ही अपनी कल्पना शक्ति से शानदार इमारत बनाने में उस्ताद थे, उन्होंने लाल किला को बनवाने में भी अपनी पूरी विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। यही वजह है कि लाल किले के निर्माण के इतने सालों के बाद आज भी इस किले की विशालता और खूबसूरती के लिए विश्व भऱ में जाना जाता है। इस भव्य किला बनने की वजह से भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था, साथ ही यह शाहजहां के शासनकाल की रचनात्मकता का मिसाल माना जाता था। | अंग्रेजों ने लाल किले पर कब कब्जा किया था ? | {
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} | When was the Red Fort captured by the British? | This grand historical artwork made of Indian and Mughal architecture located in the capital Delhi was built by the fifth Mughal ruler Shah Jahan.This magnificent fort is situated on the banks of the Yamuna River in the center of Delhi, which is surrounded by the Yamuna river on all three sides, whose amazing beauty and attraction are made on seeing it.The construction work of this best fort in the world included in the list of World Heritage was started by Mughal Emperor Shah Jahan in 1638 AD.The construction work of this grand Red Fort of India lasted for about 10 years till 1648 AD.All the buildings built by the Mughal emperor Shah Jahan have their own different historical significance.While the Taj Mahal built by him has been included in the seven wonders of the world due to its beauty and attraction, the Red Fort in Delhi has gained fame around the world.People have true reverence and respect for this grand historical fort.Let us tell you that Shah Jahan, wanted to make this fort very attracted and beautiful in all the forts built by him, so he shifted his capital Agra to Delhi in 1638 AD, and then withdrawal, focusIt was given a grand and attractive form by giving it.Mughal Emperor Shah Jahan selected the designer and famous architect of the Mughal period to create a royal design of this fort, who gave a grand appearance to the Taj Mahal in Agra.At the same time, Ustad Ahmed, like his name, was a master in building a magnificent building with his imagination, he also gave it a very beautiful and grand form by using his full wisdom and imagination in building the Red Fort.This is the reason that even after so many years of construction of the Red Fort, even today, the world is known for the vastness and beauty of this fort.Due to the formation of this grand fort, the capital of India was called Shahjahanabad, as well as it was considered as an example of the creativity of Shah Jahan's reign. | {
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1209 | राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा। राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली। कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा। विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। | मलिक काफूर ने चोलो पर किस वर्ष आक्रमण किया था ? | {
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} | In which year did Malik Kafur invade Cholo? | Like Rajraj, Rajendra also sent an ambassador to China.Rajadhiraj I (1018–1054) was the successor of Rajendra.Most of his time was spent in the mitigation of rebellions.Initially, he suppressed the rebellions of many small states, and Cher, Pandya and Sinhala.He died in the battle of Koppam from its Chalukya Someshwar.Rajendra II (1052–1064) was anointed in the battlefield itself.He was conquered in this war against Chalukyas.The war with Chalukyas was long -term.Veer Rajendra (1063–1069), the successor of Rajendra II, conquered many wars and often ruled the entire Chola Empire.Adhirajendra (1067–1070) was the successor of Veer Rajendra, but after a few months of rule, Kulottung I snatched Chola Rajyashree from him.Kulottung I (1070–1120) was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja.Kulottung's mother and Matamahi were Rajendra (first) Chola and Rajaraj I's daughters respectively.Kulottanga I was married to the daughter of Rajendra II himself.Kulottung strengthened his position by suppressing all the rebellions from his opposition and Adhirajendra's favor.During his detailed reign, he successfully faced many invasions and rebellions of Chalukya Emperor Vikramaditya, advocate and brother -in -law of Adhirajendra.Sinhala still became independent.The southern region of Kalinga was merged with the efforts of Yuvraj Vikram Chola in the kingdom of Kulottung.Kulottung ruled the entire Chola Empire and southern Kalinga region in addition to Sinhala till its last days.He also sent an ambassador to China.Vikram Chola (1118–1133) Suffered Kulottung.In around 1118, Vikramaditya sixth snatched away from Vengi Cholas.Hoysals also drove the Cholas beyond Cauvery and authorized the state of Mysore.About a hundred years of Chola history after Kulottung I is not very important.During this period, Vikram Chola, Kulottung II (1133-1150), Rajaraj II (1146-1173), Rajadhiraj II (1163-1179), Kulottung III (1178–1218) ruled.During these kings, the Cholas continued to explode progressively.Rajaraj III (1216–1246) was badly defeated by the Pandya and snatched away his capital.Chola emperors used to take help from powerful hoys against their aggressors and rebels and that is why they gradually became a puppet with them.While running away from the Pandya, Rajraj once ran away and took a prisoner.The last king of the Chola dynasty was Rajendra III (1246–1279).Initially, Rajendra got partial success against the Pandya, but it seems that the Telugu-Chod Empire was ruling in the nominal subjugation of Gandagopal Tikk Rajaraj III.After the Kanchi invasion of Ganapati Kakatiya, Tick accepted the subjugation of the same. | {
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1210 | राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा। राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली। कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा। विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। | चोलों को किसने हराया था ? | {
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"वीर राजेंद्र"
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493
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} | Who defeated the Cholas? | Like Rajraj, Rajendra also sent an ambassador to China.Rajadhiraj I (1018–1054) was the successor of Rajendra.Most of his time was spent in the mitigation of rebellions.Initially, he suppressed the rebellions of many small states, and Cher, Pandya and Sinhala.He died in the battle of Koppam from its Chalukya Someshwar.Rajendra II (1052–1064) was anointed in the battlefield itself.He was conquered in this war against Chalukyas.The war with Chalukyas was long -term.Veer Rajendra (1063–1069), the successor of Rajendra II, conquered many wars and often ruled the entire Chola Empire.Adhirajendra (1067–1070) was the successor of Veer Rajendra, but after a few months of rule, Kulottung I snatched Chola Rajyashree from him.Kulottung I (1070–1120) was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja.Kulottung's mother and Matamahi were Rajendra (first) Chola and Rajaraj I's daughters respectively.Kulottanga I was married to the daughter of Rajendra II himself.Kulottung strengthened his position by suppressing all the rebellions from his opposition and Adhirajendra's favor.During his detailed reign, he successfully faced many invasions and rebellions of Chalukya Emperor Vikramaditya, advocate and brother -in -law of Adhirajendra.Sinhala still became independent.The southern region of Kalinga was merged with the efforts of Yuvraj Vikram Chola in the kingdom of Kulottung.Kulottung ruled the entire Chola Empire and southern Kalinga region in addition to Sinhala till its last days.He also sent an ambassador to China.Vikram Chola (1118–1133) Suffered Kulottung.In around 1118, Vikramaditya sixth snatched away from Vengi Cholas.Hoysals also drove the Cholas beyond Cauvery and authorized the state of Mysore.About a hundred years of Chola history after Kulottung I is not very important.During this period, Vikram Chola, Kulottung II (1133-1150), Rajaraj II (1146-1173), Rajadhiraj II (1163-1179), Kulottung III (1178–1218) ruled.During these kings, the Cholas continued to explode progressively.Rajaraj III (1216–1246) was badly defeated by the Pandya and snatched away his capital.Chola emperors used to take help from powerful hoys against their aggressors and rebels and that is why they gradually became a puppet with them.While running away from the Pandya, Rajraj once ran away and took a prisoner.The last king of the Chola dynasty was Rajendra III (1246–1279).Initially, Rajendra got partial success against the Pandya, but it seems that the Telugu-Chod Empire was ruling in the nominal subjugation of Gandagopal Tikk Rajaraj III.After the Kanchi invasion of Ganapati Kakatiya, Tick accepted the subjugation of the same. | {
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"Veer Rajendra"
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1211 | राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा। राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली। कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा। विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। | अधिराजेंद्र के बहनोई कौन थे? | {
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"विक्रमादित्य"
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1158
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} | Who were the brothers-in-law of Adhirajendra? | Like Rajraj, Rajendra also sent an ambassador to China.Rajadhiraj I (1018–1054) was the successor of Rajendra.Most of his time was spent in the mitigation of rebellions.Initially, he suppressed the rebellions of many small states, and Cher, Pandya and Sinhala.He died in the battle of Koppam from its Chalukya Someshwar.Rajendra II (1052–1064) was anointed in the battlefield itself.He was conquered in this war against Chalukyas.The war with Chalukyas was long -term.Veer Rajendra (1063–1069), the successor of Rajendra II, conquered many wars and often ruled the entire Chola Empire.Adhirajendra (1067–1070) was the successor of Veer Rajendra, but after a few months of rule, Kulottung I snatched Chola Rajyashree from him.Kulottung I (1070–1120) was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja.Kulottung's mother and Matamahi were Rajendra (first) Chola and Rajaraj I's daughters respectively.Kulottanga I was married to the daughter of Rajendra II himself.Kulottung strengthened his position by suppressing all the rebellions from his opposition and Adhirajendra's favor.During his detailed reign, he successfully faced many invasions and rebellions of Chalukya Emperor Vikramaditya, advocate and brother -in -law of Adhirajendra.Sinhala still became independent.The southern region of Kalinga was merged with the efforts of Yuvraj Vikram Chola in the kingdom of Kulottung.Kulottung ruled the entire Chola Empire and southern Kalinga region in addition to Sinhala till its last days.He also sent an ambassador to China.Vikram Chola (1118–1133) Suffered Kulottung.In around 1118, Vikramaditya sixth snatched away from Vengi Cholas.Hoysals also drove the Cholas beyond Cauvery and authorized the state of Mysore.About a hundred years of Chola history after Kulottung I is not very important.During this period, Vikram Chola, Kulottung II (1133-1150), Rajaraj II (1146-1173), Rajadhiraj II (1163-1179), Kulottung III (1178–1218) ruled.During these kings, the Cholas continued to explode progressively.Rajaraj III (1216–1246) was badly defeated by the Pandya and snatched away his capital.Chola emperors used to take help from powerful hoys against their aggressors and rebels and that is why they gradually became a puppet with them.While running away from the Pandya, Rajraj once ran away and took a prisoner.The last king of the Chola dynasty was Rajendra III (1246–1279).Initially, Rajendra got partial success against the Pandya, but it seems that the Telugu-Chod Empire was ruling in the nominal subjugation of Gandagopal Tikk Rajaraj III.After the Kanchi invasion of Ganapati Kakatiya, Tick accepted the subjugation of the same. | {
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1158
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"Vikramaditya"
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} |
1212 | राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा। राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली। कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा। विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। | राजेंद्र द्वितीय ने किसके खिलाफ युद्ध जीता था? | {
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} | Against whom did Rajendra II win the war? | Like Rajraj, Rajendra also sent an ambassador to China.Rajadhiraj I (1018–1054) was the successor of Rajendra.Most of his time was spent in the mitigation of rebellions.Initially, he suppressed the rebellions of many small states, and Cher, Pandya and Sinhala.He died in the battle of Koppam from its Chalukya Someshwar.Rajendra II (1052–1064) was anointed in the battlefield itself.He was conquered in this war against Chalukyas.The war with Chalukyas was long -term.Veer Rajendra (1063–1069), the successor of Rajendra II, conquered many wars and often ruled the entire Chola Empire.Adhirajendra (1067–1070) was the successor of Veer Rajendra, but after a few months of rule, Kulottung I snatched Chola Rajyashree from him.Kulottung I (1070–1120) was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja.Kulottung's mother and Matamahi were Rajendra (first) Chola and Rajaraj I's daughters respectively.Kulottanga I was married to the daughter of Rajendra II himself.Kulottung strengthened his position by suppressing all the rebellions from his opposition and Adhirajendra's favor.During his detailed reign, he successfully faced many invasions and rebellions of Chalukya Emperor Vikramaditya, advocate and brother -in -law of Adhirajendra.Sinhala still became independent.The southern region of Kalinga was merged with the efforts of Yuvraj Vikram Chola in the kingdom of Kulottung.Kulottung ruled the entire Chola Empire and southern Kalinga region in addition to Sinhala till its last days.He also sent an ambassador to China.Vikram Chola (1118–1133) Suffered Kulottung.In around 1118, Vikramaditya sixth snatched away from Vengi Cholas.Hoysals also drove the Cholas beyond Cauvery and authorized the state of Mysore.About a hundred years of Chola history after Kulottung I is not very important.During this period, Vikram Chola, Kulottung II (1133-1150), Rajaraj II (1146-1173), Rajadhiraj II (1163-1179), Kulottung III (1178–1218) ruled.During these kings, the Cholas continued to explode progressively.Rajaraj III (1216–1246) was badly defeated by the Pandya and snatched away his capital.Chola emperors used to take help from powerful hoys against their aggressors and rebels and that is why they gradually became a puppet with them.While running away from the Pandya, Rajraj once ran away and took a prisoner.The last king of the Chola dynasty was Rajendra III (1246–1279).Initially, Rajendra got partial success against the Pandya, but it seems that the Telugu-Chod Empire was ruling in the nominal subjugation of Gandagopal Tikk Rajaraj III.After the Kanchi invasion of Ganapati Kakatiya, Tick accepted the subjugation of the same. | {
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1213 | राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा। राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली। कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा। विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। | राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी कौन थे? | {
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"वीर राजेंद्र"
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492
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} | Who was the successor of Rajendra II? | Like Rajraj, Rajendra also sent an ambassador to China.Rajadhiraj I (1018–1054) was the successor of Rajendra.Most of his time was spent in the mitigation of rebellions.Initially, he suppressed the rebellions of many small states, and Cher, Pandya and Sinhala.He died in the battle of Koppam from its Chalukya Someshwar.Rajendra II (1052–1064) was anointed in the battlefield itself.He was conquered in this war against Chalukyas.The war with Chalukyas was long -term.Veer Rajendra (1063–1069), the successor of Rajendra II, conquered many wars and often ruled the entire Chola Empire.Adhirajendra (1067–1070) was the successor of Veer Rajendra, but after a few months of rule, Kulottung I snatched Chola Rajyashree from him.Kulottung I (1070–1120) was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja.Kulottung's mother and Matamahi were Rajendra (first) Chola and Rajaraj I's daughters respectively.Kulottanga I was married to the daughter of Rajendra II himself.Kulottung strengthened his position by suppressing all the rebellions from his opposition and Adhirajendra's favor.During his detailed reign, he successfully faced many invasions and rebellions of Chalukya Emperor Vikramaditya, advocate and brother -in -law of Adhirajendra.Sinhala still became independent.The southern region of Kalinga was merged with the efforts of Yuvraj Vikram Chola in the kingdom of Kulottung.Kulottung ruled the entire Chola Empire and southern Kalinga region in addition to Sinhala till its last days.He also sent an ambassador to China.Vikram Chola (1118–1133) Suffered Kulottung.In around 1118, Vikramaditya sixth snatched away from Vengi Cholas.Hoysals also drove the Cholas beyond Cauvery and authorized the state of Mysore.About a hundred years of Chola history after Kulottung I is not very important.During this period, Vikram Chola, Kulottung II (1133-1150), Rajaraj II (1146-1173), Rajadhiraj II (1163-1179), Kulottung III (1178–1218) ruled.During these kings, the Cholas continued to explode progressively.Rajaraj III (1216–1246) was badly defeated by the Pandya and snatched away his capital.Chola emperors used to take help from powerful hoys against their aggressors and rebels and that is why they gradually became a puppet with them.While running away from the Pandya, Rajraj once ran away and took a prisoner.The last king of the Chola dynasty was Rajendra III (1246–1279).Initially, Rajendra got partial success against the Pandya, but it seems that the Telugu-Chod Empire was ruling in the nominal subjugation of Gandagopal Tikk Rajaraj III.After the Kanchi invasion of Ganapati Kakatiya, Tick accepted the subjugation of the same. | {
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492
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"Veer Rajendra"
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1214 | राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा। राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली। कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा। विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। | पूर्वी चालुक्य सम्राट राजराजा का पुत्र कौन था? | {
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"कुलोत्तुंग प्रथम"
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696
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} | Who was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja? | Like Rajraj, Rajendra also sent an ambassador to China.Rajadhiraj I (1018–1054) was the successor of Rajendra.Most of his time was spent in the mitigation of rebellions.Initially, he suppressed the rebellions of many small states, and Cher, Pandya and Sinhala.He died in the battle of Koppam from its Chalukya Someshwar.Rajendra II (1052–1064) was anointed in the battlefield itself.He was conquered in this war against Chalukyas.The war with Chalukyas was long -term.Veer Rajendra (1063–1069), the successor of Rajendra II, conquered many wars and often ruled the entire Chola Empire.Adhirajendra (1067–1070) was the successor of Veer Rajendra, but after a few months of rule, Kulottung I snatched Chola Rajyashree from him.Kulottung I (1070–1120) was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja.Kulottung's mother and Matamahi were Rajendra (first) Chola and Rajaraj I's daughters respectively.Kulottanga I was married to the daughter of Rajendra II himself.Kulottung strengthened his position by suppressing all the rebellions from his opposition and Adhirajendra's favor.During his detailed reign, he successfully faced many invasions and rebellions of Chalukya Emperor Vikramaditya, advocate and brother -in -law of Adhirajendra.Sinhala still became independent.The southern region of Kalinga was merged with the efforts of Yuvraj Vikram Chola in the kingdom of Kulottung.Kulottung ruled the entire Chola Empire and southern Kalinga region in addition to Sinhala till its last days.He also sent an ambassador to China.Vikram Chola (1118–1133) Suffered Kulottung.In around 1118, Vikramaditya sixth snatched away from Vengi Cholas.Hoysals also drove the Cholas beyond Cauvery and authorized the state of Mysore.About a hundred years of Chola history after Kulottung I is not very important.During this period, Vikram Chola, Kulottung II (1133-1150), Rajaraj II (1146-1173), Rajadhiraj II (1163-1179), Kulottung III (1178–1218) ruled.During these kings, the Cholas continued to explode progressively.Rajaraj III (1216–1246) was badly defeated by the Pandya and snatched away his capital.Chola emperors used to take help from powerful hoys against their aggressors and rebels and that is why they gradually became a puppet with them.While running away from the Pandya, Rajraj once ran away and took a prisoner.The last king of the Chola dynasty was Rajendra III (1246–1279).Initially, Rajendra got partial success against the Pandya, but it seems that the Telugu-Chod Empire was ruling in the nominal subjugation of Gandagopal Tikk Rajaraj III.After the Kanchi invasion of Ganapati Kakatiya, Tick accepted the subjugation of the same. | {
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696
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"Kulottunga I"
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1215 | राजराज की भाँति राजेंद्र ने भी एक राजदूत चीन भेजा। राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली। कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा। विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। | विक्रम चोल किस प्रदेश का उत्तराधिकारी बना था? | {
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} | Vikram Chola became the successor of which kingdom? | Like Rajraj, Rajendra also sent an ambassador to China.Rajadhiraj I (1018–1054) was the successor of Rajendra.Most of his time was spent in the mitigation of rebellions.Initially, he suppressed the rebellions of many small states, and Cher, Pandya and Sinhala.He died in the battle of Koppam from its Chalukya Someshwar.Rajendra II (1052–1064) was anointed in the battlefield itself.He was conquered in this war against Chalukyas.The war with Chalukyas was long -term.Veer Rajendra (1063–1069), the successor of Rajendra II, conquered many wars and often ruled the entire Chola Empire.Adhirajendra (1067–1070) was the successor of Veer Rajendra, but after a few months of rule, Kulottung I snatched Chola Rajyashree from him.Kulottung I (1070–1120) was the son of Eastern Chalukya Emperor Rajaraja.Kulottung's mother and Matamahi were Rajendra (first) Chola and Rajaraj I's daughters respectively.Kulottanga I was married to the daughter of Rajendra II himself.Kulottung strengthened his position by suppressing all the rebellions from his opposition and Adhirajendra's favor.During his detailed reign, he successfully faced many invasions and rebellions of Chalukya Emperor Vikramaditya, advocate and brother -in -law of Adhirajendra.Sinhala still became independent.The southern region of Kalinga was merged with the efforts of Yuvraj Vikram Chola in the kingdom of Kulottung.Kulottung ruled the entire Chola Empire and southern Kalinga region in addition to Sinhala till its last days.He also sent an ambassador to China.Vikram Chola (1118–1133) Suffered Kulottung.In around 1118, Vikramaditya sixth snatched away from Vengi Cholas.Hoysals also drove the Cholas beyond Cauvery and authorized the state of Mysore.About a hundred years of Chola history after Kulottung I is not very important.During this period, Vikram Chola, Kulottung II (1133-1150), Rajaraj II (1146-1173), Rajadhiraj II (1163-1179), Kulottung III (1178–1218) ruled.During these kings, the Cholas continued to explode progressively.Rajaraj III (1216–1246) was badly defeated by the Pandya and snatched away his capital.Chola emperors used to take help from powerful hoys against their aggressors and rebels and that is why they gradually became a puppet with them.While running away from the Pandya, Rajraj once ran away and took a prisoner.The last king of the Chola dynasty was Rajendra III (1246–1279).Initially, Rajendra got partial success against the Pandya, but it seems that the Telugu-Chod Empire was ruling in the nominal subjugation of Gandagopal Tikk Rajaraj III.After the Kanchi invasion of Ganapati Kakatiya, Tick accepted the subjugation of the same. | {
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],
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""
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} |
1216 | राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं। १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी। १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। | वर्ष 1066 में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना को किसने हराया था? | {
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"वीरराजेन्द्र"
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372
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} | Who defeated the army of Western Chalukya Someshvara in the year 1066? | Dannada, Kulpak, Kopam, Complex Durg, Pundur, Yetigiri and Chalukya capital Kalyani were also taken away under Rajadhiraj Chola 1 (1082–1056) rule.In 1053, Rajendra Chola reached Kollapura after defeating 2 Chalukyas in the battle and also built a Vijay Memorial Pillar there before reaching his capital Gangakondcholpuram in Kalantar.In 108, the army of Western Chalukya Someshwar lost to the next Chola ruler Virrajendra.After this, he again defeated the Western Chalukya army on Kudalsangam and established a victory memorial on the banks of the Tungabhadra River.In 1085, Kulottung Chola 1 defeated Vikramaditya 4 in Nangili in Kolar district and captured Gangwadi.In 1114, Gangwadi was snatched by Hoysalas under the leadership of Vishnuvardhan from Chola Empire.At the beginning of the first millennium, the Hoysal dynasty rebelled in the region.At the same time, Hoysal literature flourished as well as Anupam Kannada music and Hoysal architectural style temples etc.The Hoysal Empire merged small parts of modern Andhra Pradesh and Tamil Nadu under the expansion of its rule.In the early 16th century, Harihar and Bukka Rai established the Vijayanagara Empire and settled their capital in the Hosanpatt (later Vijayanagar) on the banks of the Tungabhadra River in the present Bellary district.This empire prohibited the expansion of Muslim rulers in South India in the next two centuries.In 1585, Karnataka, including the entire South India, saw a major political change, in which the Vijayanagara Empire became subject to Islamic Sultanates after defeat in the war of Talikot. | {
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372
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"Veerrajendra."
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1217 | राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं। १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी। १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। | वर्ष 1075 में कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने विक्रमादित्य VI को कहाँ पर हराया था? | {
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"कोलार जिले में"
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548
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} | In the year 1075, Kulothunga Chola I defeated Vikramaditya VI at which place? | Dannada, Kulpak, Kopam, Complex Durg, Pundur, Yetigiri and Chalukya capital Kalyani were also taken away under Rajadhiraj Chola 1 (1082–1056) rule.In 1053, Rajendra Chola reached Kollapura after defeating 2 Chalukyas in the battle and also built a Vijay Memorial Pillar there before reaching his capital Gangakondcholpuram in Kalantar.In 108, the army of Western Chalukya Someshwar lost to the next Chola ruler Virrajendra.After this, he again defeated the Western Chalukya army on Kudalsangam and established a victory memorial on the banks of the Tungabhadra River.In 1085, Kulottung Chola 1 defeated Vikramaditya 4 in Nangili in Kolar district and captured Gangwadi.In 1114, Gangwadi was snatched by Hoysalas under the leadership of Vishnuvardhan from Chola Empire.At the beginning of the first millennium, the Hoysal dynasty rebelled in the region.At the same time, Hoysal literature flourished as well as Anupam Kannada music and Hoysal architectural style temples etc.The Hoysal Empire merged small parts of modern Andhra Pradesh and Tamil Nadu under the expansion of its rule.In the early 16th century, Harihar and Bukka Rai established the Vijayanagara Empire and settled their capital in the Hosanpatt (later Vijayanagar) on the banks of the Tungabhadra River in the present Bellary district.This empire prohibited the expansion of Muslim rulers in South India in the next two centuries.In 1585, Karnataka, including the entire South India, saw a major political change, in which the Vijayanagara Empire became subject to Islamic Sultanates after defeat in the war of Talikot. | {
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548
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"In Kolar district."
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} |
1218 | राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं। १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी। १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। | बीजापुर सल्तनत किसकी मृत्यु के बाद उभरा था? | {
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} | The Bijapur Sultanate emerged after the death of? | Dannada, Kulpak, Kopam, Complex Durg, Pundur, Yetigiri and Chalukya capital Kalyani were also taken away under Rajadhiraj Chola 1 (1082–1056) rule.In 1053, Rajendra Chola reached Kollapura after defeating 2 Chalukyas in the battle and also built a Vijay Memorial Pillar there before reaching his capital Gangakondcholpuram in Kalantar.In 108, the army of Western Chalukya Someshwar lost to the next Chola ruler Virrajendra.After this, he again defeated the Western Chalukya army on Kudalsangam and established a victory memorial on the banks of the Tungabhadra River.In 1085, Kulottung Chola 1 defeated Vikramaditya 4 in Nangili in Kolar district and captured Gangwadi.In 1114, Gangwadi was snatched by Hoysalas under the leadership of Vishnuvardhan from Chola Empire.At the beginning of the first millennium, the Hoysal dynasty rebelled in the region.At the same time, Hoysal literature flourished as well as Anupam Kannada music and Hoysal architectural style temples etc.The Hoysal Empire merged small parts of modern Andhra Pradesh and Tamil Nadu under the expansion of its rule.In the early 16th century, Harihar and Bukka Rai established the Vijayanagara Empire and settled their capital in the Hosanpatt (later Vijayanagar) on the banks of the Tungabhadra River in the present Bellary district.This empire prohibited the expansion of Muslim rulers in South India in the next two centuries.In 1585, Karnataka, including the entire South India, saw a major political change, in which the Vijayanagara Empire became subject to Islamic Sultanates after defeat in the war of Talikot. | {
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1219 | राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं। १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी। १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। | विष्णुवर्धन के तहत होयसालास ने किस वर्ष चोल साम्राज्य से गंगावाड़ी पर कब्जा किया था? | {
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"१११६"
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640
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} | In which year did the Hoysalas under Vishnuvardhana capture Gangavadi from the Chola Empire? | Dannada, Kulpak, Kopam, Complex Durg, Pundur, Yetigiri and Chalukya capital Kalyani were also taken away under Rajadhiraj Chola 1 (1082–1056) rule.In 1053, Rajendra Chola reached Kollapura after defeating 2 Chalukyas in the battle and also built a Vijay Memorial Pillar there before reaching his capital Gangakondcholpuram in Kalantar.In 108, the army of Western Chalukya Someshwar lost to the next Chola ruler Virrajendra.After this, he again defeated the Western Chalukya army on Kudalsangam and established a victory memorial on the banks of the Tungabhadra River.In 1085, Kulottung Chola 1 defeated Vikramaditya 4 in Nangili in Kolar district and captured Gangwadi.In 1114, Gangwadi was snatched by Hoysalas under the leadership of Vishnuvardhan from Chola Empire.At the beginning of the first millennium, the Hoysal dynasty rebelled in the region.At the same time, Hoysal literature flourished as well as Anupam Kannada music and Hoysal architectural style temples etc.The Hoysal Empire merged small parts of modern Andhra Pradesh and Tamil Nadu under the expansion of its rule.In the early 16th century, Harihar and Bukka Rai established the Vijayanagara Empire and settled their capital in the Hosanpatt (later Vijayanagar) on the banks of the Tungabhadra River in the present Bellary district.This empire prohibited the expansion of Muslim rulers in South India in the next two centuries.In 1585, Karnataka, including the entire South India, saw a major political change, in which the Vijayanagara Empire became subject to Islamic Sultanates after defeat in the war of Talikot. | {
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640
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"1116"
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1220 | राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं। १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी। १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। | 14वीं शताब्दी की शुरुआत में हरिहर और बुक्का राय ने किस साम्राज्य की स्थापना की थी? | {
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"विजयनगर साम्राज्य"
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1032
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} | Which empire was founded by Harihara and Bukka Raya in the early 14th century? | Dannada, Kulpak, Kopam, Complex Durg, Pundur, Yetigiri and Chalukya capital Kalyani were also taken away under Rajadhiraj Chola 1 (1082–1056) rule.In 1053, Rajendra Chola reached Kollapura after defeating 2 Chalukyas in the battle and also built a Vijay Memorial Pillar there before reaching his capital Gangakondcholpuram in Kalantar.In 108, the army of Western Chalukya Someshwar lost to the next Chola ruler Virrajendra.After this, he again defeated the Western Chalukya army on Kudalsangam and established a victory memorial on the banks of the Tungabhadra River.In 1085, Kulottung Chola 1 defeated Vikramaditya 4 in Nangili in Kolar district and captured Gangwadi.In 1114, Gangwadi was snatched by Hoysalas under the leadership of Vishnuvardhan from Chola Empire.At the beginning of the first millennium, the Hoysal dynasty rebelled in the region.At the same time, Hoysal literature flourished as well as Anupam Kannada music and Hoysal architectural style temples etc.The Hoysal Empire merged small parts of modern Andhra Pradesh and Tamil Nadu under the expansion of its rule.In the early 16th century, Harihar and Bukka Rai established the Vijayanagara Empire and settled their capital in the Hosanpatt (later Vijayanagar) on the banks of the Tungabhadra River in the present Bellary district.This empire prohibited the expansion of Muslim rulers in South India in the next two centuries.In 1585, Karnataka, including the entire South India, saw a major political change, in which the Vijayanagara Empire became subject to Islamic Sultanates after defeat in the war of Talikot. | {
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1032
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"Vijayanagara Empire"
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1221 | राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं। १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी। १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। | 16वीं शताब्दी में खाद्य आपूर्ति की कमी और महामारी के कारण, कोंकणी हिंदू कहाँ प्रवासित हो गए थे? | {
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} | Due to shortage of food supplies and epidemics in the 16th century, where did Konkani Hindus migrate? | Dannada, Kulpak, Kopam, Complex Durg, Pundur, Yetigiri and Chalukya capital Kalyani were also taken away under Rajadhiraj Chola 1 (1082–1056) rule.In 1053, Rajendra Chola reached Kollapura after defeating 2 Chalukyas in the battle and also built a Vijay Memorial Pillar there before reaching his capital Gangakondcholpuram in Kalantar.In 108, the army of Western Chalukya Someshwar lost to the next Chola ruler Virrajendra.After this, he again defeated the Western Chalukya army on Kudalsangam and established a victory memorial on the banks of the Tungabhadra River.In 1085, Kulottung Chola 1 defeated Vikramaditya 4 in Nangili in Kolar district and captured Gangwadi.In 1114, Gangwadi was snatched by Hoysalas under the leadership of Vishnuvardhan from Chola Empire.At the beginning of the first millennium, the Hoysal dynasty rebelled in the region.At the same time, Hoysal literature flourished as well as Anupam Kannada music and Hoysal architectural style temples etc.The Hoysal Empire merged small parts of modern Andhra Pradesh and Tamil Nadu under the expansion of its rule.In the early 16th century, Harihar and Bukka Rai established the Vijayanagara Empire and settled their capital in the Hosanpatt (later Vijayanagar) on the banks of the Tungabhadra River in the present Bellary district.This empire prohibited the expansion of Muslim rulers in South India in the next two centuries.In 1585, Karnataka, including the entire South India, saw a major political change, in which the Vijayanagara Empire became subject to Islamic Sultanates after defeat in the war of Talikot. | {
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1222 | राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। सूर्य मंदिर, कोणार्कराज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुरी का जगन्नाथ मन्दिरसुंदर पुरी तटराज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। Puri shree jagannath mandirमालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। | राजा इंद्रद्युम्न ने किस मंदिर के निर्माण के लिए बड़े पत्थर मंगवाए थे? | {
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"जगन्नाथ मंदिर"
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1305
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} | King Indradyumna ordered large stones for the construction of which temple? | Realizing the importance of tourism in the economic development of the state, media management agencies and festival managers have been given the work of publicity and spread.Odisha will be given the work of infrastructural development and tourism development in various important tourism families - Shanti Park, Lalitgiri, Udayagiri and Langudi in Dhauli.(Puri) Efforts are being made to develop the concentrated festival of Bhubaneswar, Konark festival of Konark festival and festivals.The Odisha Tourism Department participated in the trading events of Bangkok, Moscow, London, Kuala Lumpur, Kochi, Kolkata, Raipur etc.373 guides (guides) were trained to encourage private sector participation in the tourism sector.The Sun Temple is famous for the Bhubaneswar Lingaraja Temple, the capital of the Konarkara Rajya.Jagannath Mandirsunder Puri Puri Puri is another famous tourist centers of the Tatar state, Konark, Nandanakanan, Chilka Lake, Dhauli Buddhist Temple, Udayagiri-Khandagiri's ancient caves, gemstones, Lalitagiri and Udayagiri's Buddhist frescoes and caves, pure mountainous visuals of Saptasajya, Saptasajya's Psychiatry Scene National ParkAnd the tiger projects, Hirakund Dam, Duduma Falls, Ushakothi Wildlife Sanctuary, Gopanpur Beach, Harishankar, Narsinghnath, Taratartarini, Taptapani, Bhitarkanika, Bhimkund Kapilash etc. are famous.Puri Shree Jagannath Mandir King Indradyumna of Malwa ordered a big stone from Vindhya to build the Jagannath temple in the ancient times.The temple was built above the Shankhanabhi Mandal.Here King Indradyumna of Malwa had settled a village named Ramakrishnpur.After the temple was built, King Indradyumna went to Brahma ji to give life to the temple.Many years passed in bringing Brahmaji.Meanwhile, the temple was pushed by sand sand. | {
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"Jagannath Temple"
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1223 | राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। सूर्य मंदिर, कोणार्कराज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुरी का जगन्नाथ मन्दिरसुंदर पुरी तटराज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। Puri shree jagannath mandirमालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। | भारत का प्रसिद्द जगरनाथ मंदिर कहाँ पर स्थित है ? | {
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"पुरी"
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} | Where is the famous Jagarnath Temple of India located? | Realizing the importance of tourism in the economic development of the state, media management agencies and festival managers have been given the work of publicity and spread.Odisha will be given the work of infrastructural development and tourism development in various important tourism families - Shanti Park, Lalitgiri, Udayagiri and Langudi in Dhauli.(Puri) Efforts are being made to develop the concentrated festival of Bhubaneswar, Konark festival of Konark festival and festivals.The Odisha Tourism Department participated in the trading events of Bangkok, Moscow, London, Kuala Lumpur, Kochi, Kolkata, Raipur etc.373 guides (guides) were trained to encourage private sector participation in the tourism sector.The Sun Temple is famous for the Bhubaneswar Lingaraja Temple, the capital of the Konarkara Rajya.Jagannath Mandirsunder Puri Puri Puri is another famous tourist centers of the Tatar state, Konark, Nandanakanan, Chilka Lake, Dhauli Buddhist Temple, Udayagiri-Khandagiri's ancient caves, gemstones, Lalitagiri and Udayagiri's Buddhist frescoes and caves, pure mountainous visuals of Saptasajya, Saptasajya's Psychiatry Scene National ParkAnd the tiger projects, Hirakund Dam, Duduma Falls, Ushakothi Wildlife Sanctuary, Gopanpur Beach, Harishankar, Narsinghnath, Taratartarini, Taptapani, Bhitarkanika, Bhimkund Kapilash etc. are famous.Puri Shree Jagannath Mandir King Indradyumna of Malwa ordered a big stone from Vindhya to build the Jagannath temple in the ancient times.The temple was built above the Shankhanabhi Mandal.Here King Indradyumna of Malwa had settled a village named Ramakrishnpur.After the temple was built, King Indradyumna went to Brahma ji to give life to the temple.Many years passed in bringing Brahmaji.Meanwhile, the temple was pushed by sand sand. | {
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"Puri"
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1224 | राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। सूर्य मंदिर, कोणार्कराज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुरी का जगन्नाथ मन्दिरसुंदर पुरी तटराज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। Puri shree jagannath mandirमालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। | श्री लिंगराज मंदिर के पीठासीन देवता कौन हैं? | {
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} | Who is the presiding deity of Sri Lingaraj Temple? | Realizing the importance of tourism in the economic development of the state, media management agencies and festival managers have been given the work of publicity and spread.Odisha will be given the work of infrastructural development and tourism development in various important tourism families - Shanti Park, Lalitgiri, Udayagiri and Langudi in Dhauli.(Puri) Efforts are being made to develop the concentrated festival of Bhubaneswar, Konark festival of Konark festival and festivals.The Odisha Tourism Department participated in the trading events of Bangkok, Moscow, London, Kuala Lumpur, Kochi, Kolkata, Raipur etc.373 guides (guides) were trained to encourage private sector participation in the tourism sector.The Sun Temple is famous for the Bhubaneswar Lingaraja Temple, the capital of the Konarkara Rajya.Jagannath Mandirsunder Puri Puri Puri is another famous tourist centers of the Tatar state, Konark, Nandanakanan, Chilka Lake, Dhauli Buddhist Temple, Udayagiri-Khandagiri's ancient caves, gemstones, Lalitagiri and Udayagiri's Buddhist frescoes and caves, pure mountainous visuals of Saptasajya, Saptasajya's Psychiatry Scene National ParkAnd the tiger projects, Hirakund Dam, Duduma Falls, Ushakothi Wildlife Sanctuary, Gopanpur Beach, Harishankar, Narsinghnath, Taratartarini, Taptapani, Bhitarkanika, Bhimkund Kapilash etc. are famous.Puri Shree Jagannath Mandir King Indradyumna of Malwa ordered a big stone from Vindhya to build the Jagannath temple in the ancient times.The temple was built above the Shankhanabhi Mandal.Here King Indradyumna of Malwa had settled a village named Ramakrishnpur.After the temple was built, King Indradyumna went to Brahma ji to give life to the temple.Many years passed in bringing Brahmaji.Meanwhile, the temple was pushed by sand sand. | {
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null
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1225 | राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। सूर्य मंदिर, कोणार्कराज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुरी का जगन्नाथ मन्दिरसुंदर पुरी तटराज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। Puri shree jagannath mandirमालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। | राजा इंद्रद्युम्न द्वारा बसाए गए गाँव का क्या नाम था? | {
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"रामकृष्णपुर"
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} | What was the name of the village settled by King Indradyumna? | Realizing the importance of tourism in the economic development of the state, media management agencies and festival managers have been given the work of publicity and spread.Odisha will be given the work of infrastructural development and tourism development in various important tourism families - Shanti Park, Lalitgiri, Udayagiri and Langudi in Dhauli.(Puri) Efforts are being made to develop the concentrated festival of Bhubaneswar, Konark festival of Konark festival and festivals.The Odisha Tourism Department participated in the trading events of Bangkok, Moscow, London, Kuala Lumpur, Kochi, Kolkata, Raipur etc.373 guides (guides) were trained to encourage private sector participation in the tourism sector.The Sun Temple is famous for the Bhubaneswar Lingaraja Temple, the capital of the Konarkara Rajya.Jagannath Mandirsunder Puri Puri Puri is another famous tourist centers of the Tatar state, Konark, Nandanakanan, Chilka Lake, Dhauli Buddhist Temple, Udayagiri-Khandagiri's ancient caves, gemstones, Lalitagiri and Udayagiri's Buddhist frescoes and caves, pure mountainous visuals of Saptasajya, Saptasajya's Psychiatry Scene National ParkAnd the tiger projects, Hirakund Dam, Duduma Falls, Ushakothi Wildlife Sanctuary, Gopanpur Beach, Harishankar, Narsinghnath, Taratartarini, Taptapani, Bhitarkanika, Bhimkund Kapilash etc. are famous.Puri Shree Jagannath Mandir King Indradyumna of Malwa ordered a big stone from Vindhya to build the Jagannath temple in the ancient times.The temple was built above the Shankhanabhi Mandal.Here King Indradyumna of Malwa had settled a village named Ramakrishnpur.After the temple was built, King Indradyumna went to Brahma ji to give life to the temple.Many years passed in bringing Brahmaji.Meanwhile, the temple was pushed by sand sand. | {
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1445
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"Ramkrishnapur"
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} |
1226 | राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। सूर्य मंदिर, कोणार्कराज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुरी का जगन्नाथ मन्दिरसुंदर पुरी तटराज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। Puri shree jagannath mandirमालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। | भुवनेश्वर का प्राचीन हिंदू मंदिर का क्या नाम है? | {
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"लिंगराज मन्दिर"
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727
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} | What is the name of the ancient Hindu temple of Bhubaneswar? | Realizing the importance of tourism in the economic development of the state, media management agencies and festival managers have been given the work of publicity and spread.Odisha will be given the work of infrastructural development and tourism development in various important tourism families - Shanti Park, Lalitgiri, Udayagiri and Langudi in Dhauli.(Puri) Efforts are being made to develop the concentrated festival of Bhubaneswar, Konark festival of Konark festival and festivals.The Odisha Tourism Department participated in the trading events of Bangkok, Moscow, London, Kuala Lumpur, Kochi, Kolkata, Raipur etc.373 guides (guides) were trained to encourage private sector participation in the tourism sector.The Sun Temple is famous for the Bhubaneswar Lingaraja Temple, the capital of the Konarkara Rajya.Jagannath Mandirsunder Puri Puri Puri is another famous tourist centers of the Tatar state, Konark, Nandanakanan, Chilka Lake, Dhauli Buddhist Temple, Udayagiri-Khandagiri's ancient caves, gemstones, Lalitagiri and Udayagiri's Buddhist frescoes and caves, pure mountainous visuals of Saptasajya, Saptasajya's Psychiatry Scene National ParkAnd the tiger projects, Hirakund Dam, Duduma Falls, Ushakothi Wildlife Sanctuary, Gopanpur Beach, Harishankar, Narsinghnath, Taratartarini, Taptapani, Bhitarkanika, Bhimkund Kapilash etc. are famous.Puri Shree Jagannath Mandir King Indradyumna of Malwa ordered a big stone from Vindhya to build the Jagannath temple in the ancient times.The temple was built above the Shankhanabhi Mandal.Here King Indradyumna of Malwa had settled a village named Ramakrishnpur.After the temple was built, King Indradyumna went to Brahma ji to give life to the temple.Many years passed in bringing Brahmaji.Meanwhile, the temple was pushed by sand sand. | {
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727
],
"text": [
"Lingaraj Temple"
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} |
1227 | राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। सूर्य मंदिर, कोणार्कराज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुरी का जगन्नाथ मन्दिरसुंदर पुरी तटराज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। Puri shree jagannath mandirमालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। | कोणार्क पर्व मेला किस शहर में मनाया जाता है ? | {
"text": [
"कोणार्क"
],
"answer_start": [
354
]
} | Konark Festival Fair is celebrated in which city? | Realizing the importance of tourism in the economic development of the state, media management agencies and festival managers have been given the work of publicity and spread.Odisha will be given the work of infrastructural development and tourism development in various important tourism families - Shanti Park, Lalitgiri, Udayagiri and Langudi in Dhauli.(Puri) Efforts are being made to develop the concentrated festival of Bhubaneswar, Konark festival of Konark festival and festivals.The Odisha Tourism Department participated in the trading events of Bangkok, Moscow, London, Kuala Lumpur, Kochi, Kolkata, Raipur etc.373 guides (guides) were trained to encourage private sector participation in the tourism sector.The Sun Temple is famous for the Bhubaneswar Lingaraja Temple, the capital of the Konarkara Rajya.Jagannath Mandirsunder Puri Puri Puri is another famous tourist centers of the Tatar state, Konark, Nandanakanan, Chilka Lake, Dhauli Buddhist Temple, Udayagiri-Khandagiri's ancient caves, gemstones, Lalitagiri and Udayagiri's Buddhist frescoes and caves, pure mountainous visuals of Saptasajya, Saptasajya's Psychiatry Scene National ParkAnd the tiger projects, Hirakund Dam, Duduma Falls, Ushakothi Wildlife Sanctuary, Gopanpur Beach, Harishankar, Narsinghnath, Taratartarini, Taptapani, Bhitarkanika, Bhimkund Kapilash etc. are famous.Puri Shree Jagannath Mandir King Indradyumna of Malwa ordered a big stone from Vindhya to build the Jagannath temple in the ancient times.The temple was built above the Shankhanabhi Mandal.Here King Indradyumna of Malwa had settled a village named Ramakrishnpur.After the temple was built, King Indradyumna went to Brahma ji to give life to the temple.Many years passed in bringing Brahmaji.Meanwhile, the temple was pushed by sand sand. | {
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354
],
"text": [
"Konark"
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1228 | राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। सूर्य मंदिर, कोणार्कराज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। पुरी का जगन्नाथ मन्दिरसुंदर पुरी तटराज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। Puri shree jagannath mandirमालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने पुरातनकाल में जगन्नाथ मंदिर बनवाने के निमित्त विंध्या से बड़ा-बड़ा पत्थर मंगवाया। शंखनाभि मण्डल के ऊपर मंदिर बनाया गया। यहाँ मालवा का राजा इन्द्रद्युम्न ने रामकृष्णपुर नाम का एक गाँव बसाए थे। मंदिर बन जाने के बाद राजा इन्द्रद्युम्न मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए ब्रह्मा जी के पास गये थे। ब्रह्माजी को लाने में उनके अनेक वर्ष बीत गये| इस बीच मंदिर बालु रेत से धक चुका था। | इंद्रद्युम्न किस प्रदेश का शासक था? | {
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} | Indradyumna was the ruler of which kingdom? | Realizing the importance of tourism in the economic development of the state, media management agencies and festival managers have been given the work of publicity and spread.Odisha will be given the work of infrastructural development and tourism development in various important tourism families - Shanti Park, Lalitgiri, Udayagiri and Langudi in Dhauli.(Puri) Efforts are being made to develop the concentrated festival of Bhubaneswar, Konark festival of Konark festival and festivals.The Odisha Tourism Department participated in the trading events of Bangkok, Moscow, London, Kuala Lumpur, Kochi, Kolkata, Raipur etc.373 guides (guides) were trained to encourage private sector participation in the tourism sector.The Sun Temple is famous for the Bhubaneswar Lingaraja Temple, the capital of the Konarkara Rajya.Jagannath Mandirsunder Puri Puri Puri is another famous tourist centers of the Tatar state, Konark, Nandanakanan, Chilka Lake, Dhauli Buddhist Temple, Udayagiri-Khandagiri's ancient caves, gemstones, Lalitagiri and Udayagiri's Buddhist frescoes and caves, pure mountainous visuals of Saptasajya, Saptasajya's Psychiatry Scene National ParkAnd the tiger projects, Hirakund Dam, Duduma Falls, Ushakothi Wildlife Sanctuary, Gopanpur Beach, Harishankar, Narsinghnath, Taratartarini, Taptapani, Bhitarkanika, Bhimkund Kapilash etc. are famous.Puri Shree Jagannath Mandir King Indradyumna of Malwa ordered a big stone from Vindhya to build the Jagannath temple in the ancient times.The temple was built above the Shankhanabhi Mandal.Here King Indradyumna of Malwa had settled a village named Ramakrishnpur.After the temple was built, King Indradyumna went to Brahma ji to give life to the temple.Many years passed in bringing Brahmaji.Meanwhile, the temple was pushed by sand sand. | {
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1229 | राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे। राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध मे राणा पूंजा भील का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी। वह जंगल में लौट आया और अपनी लड़ाई जारी रखी। टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए, प्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए: अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की। इस दौरान, उन्हें प्रताप भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। अरावली पहाड़ियों से बिल, युद्ध के दौरान प्रताप को अपने समर्थन के साथ और मोर के दिनों में जंगल में रहने के साधन के साथ। इस तरह कई साल बीत गए। जेम्स टॉड लिखते हैं: "अरावली शृंखला में एक अच्छी सेना के बिना भी, महाराणा प्रताप सिंह जैसे महान स्वतन्त्रता सेनानी के लिए वीर होने का कोई रास्ता नहीं है: कुछ भी एक शानदार जीत हासिल कर सकता है या अक्सर भारी हार। एक घटना में, गोलियाँ सही समय पर बच निकलीं और उदयपुर के पास सावर की गहरी जस्ता खानों में राजपूत महिलाओं और बच्चों को अगवा कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ा के दक्षिणपूर्वी हिस्से में सावन में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावण्ड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावंड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय था। सभी निर्वासित लोग कई सालों तक तलहटी में रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय बिता रहे थे। सभी निर्वासित लोग कई वर्षों तक जंगली जामुन के साथ तोपों में रहते थे और शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप को घास के बीज से बनी चपाती खाने का कठिन समय था। जब निर्वासन वास्तव में भूख से मर रहे थे, तो उन्होंने प्रताप अकबर को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि वह शांति समझौते के लिए तैयार हैं। प्रताप के प्रमुख (उनकी मां की बहन का बच्चा) पृथ्वीराज राठौर, जो अकबर की मंडली के सदस्यों में से एक थे, ने यह कहा:इस प्रकार प्रताप ने उसे उत्तर दियाइस प्रकार संधि अहस्ताक्षरित रही। राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" कहा है। मेवाड़ के उत्तरी छोर का दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था। यहां की उत्पत्यकाताओं में इस जाति के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी बस्तियां आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतरी गिर्वा तक प्रसारित हो गई। | चिकली के पहाड़ी भागों में किस जाति के लोग बड़ी संख्या में बसे हुए हैं ? | {
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} | Which caste is settled in large numbers in the hilly parts of Chikli? | Rana Udai Singh's second queen Dhirbai, known as Rani Bhatiani in the history of the state, wanted to make her son Kunwar Jagmal the successor of Mewar. On becoming Pratap's successor, Jagmal goes to Akbar's camp in protest. The first coronation of Maharana Pratap took place in Gogunda on February 28, 1572, but as per the legal procedure, the second coronation of Rana Pratap took place in Kumbhalgarh Fort in 1572 AD. In the second coronation, Rathore ruler of Jodhpur, Rao Chandrasen was also present. Rana Pratap had done a total of 11 marriages in his life. This war took place between Mewar and Mughals on 18 June 1576 AD. Maharana Pratap led the army of Mewar in this war. The leader of the Bhil army, Rana Poonja was a Bhil. The only Muslim chieftain who fought on behalf of Maharana Pratap in this war was Hakim Khan Suri. The site of the battle was a narrow mountain pass at Haldighati near Gogunda, Rajasthan. Maharana Pratap fielded a force of about 3,000 horsemen and 400 Bhil archers. The Mughals were led by Raja Man Singh of Amer, who commanded an army of about 5,000–10,000 men. After a fierce battle that lasted for more than three hours, Maharana Pratap found himself wounded and while some of his men gave him time, he managed to escape into the hills and survive to fight another day. Mewar casualties numbered about 1,600 men. The Mughal army lost 3500–7800 men, with another 350 injured. This yielded no results. While they (the Mughals) were able to capture Gogunda and the surrounding areas, they were unable to hold on to them for long. As the empire's focus shifted elsewhere, Pratap and his army moved out and recaptured the western areas of his dominion. In this war, the Mughal army was led by Mansingh and Asaf Khan. Abdul Qadir Badayuni described this war with his own eyes. Asaf Khan indirectly termed this war as Jihad. Rana Poonja Bhil had an important contribution in this war. In this war, Jhalaman of Binda saved the life of Maharana Pratap by sacrificing his life. Gwalior king 'Raja Ramshah Tomar' also slept in eternal sleep along with his three sons 'Kunwar Shalivahan', 'Kunwar Bhawani Singh', 'Kunwar Pratap Singh' and grandson Balbhadra Singh and hundreds of brave Tomar Rajput warriors. Historians believe that there was no victory in this war. But if seen, Maharana Pratap Singh was victorious in this war. How long could a handful of Rajputs be able to stand against the huge army of Akbar, but nothing like this happened, this war lasted for a whole day and the Rajputs had defeated the Mughals and the biggest thing is that the war was fought face to face. Maharana's army had forced the Mughal army to retreat and the Mughal army started running away. He returned to the forest and continued his fight. After the failure of one of his attempts at confrontation, Pratap resorted to guerrilla tactics. Using its hills as a base, Pratap began to drive away the Mughal troops from there on a large scale. He was adamant that the Mughal army of Mewar should never find peace: Akbar staged three rebellions and tried unsuccessfully to hide Pratap in the mountains. During this time, he received financial assistance in the form of sympathy from Pratap Bhamashah. Bill from the Aravalli hills, with his support to Pratap during the war and with the means to survive in the jungle during peacetime. Many years passed like this. James Todd writes: "Even without a good army in the Aravali range, there is no way for a great freedom fighter like Maharana Pratap Singh to be heroic: anything could lead to a brilliant victory or often a crushing defeat. In one incident , the bullets escaped just in time and abducted Rajput women and children in the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his position to Sawan in the south-eastern part of Mewada. After the Mughal pursuit wave , all lived for years in the forest in exile, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran out at the right time and he died through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his location to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal invasion, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, Used to hunt and fish. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran away at the right time and abducted Rajput women and children through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his place to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal exploration wave, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap fell on hard times. All the exiles lived for many years in the foothills, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a tough time. All the exiles lived for many years in canoes with wild berries and hunted and fished. According to legend, Pratap had a hard time eating chapatti made from grass seeds. When exile actually When Pratap was dying of hunger, he wrote a letter to Akbar, saying that he was ready for a peace agreement. Pratap's chief (child of his mother's sister) Prithviraj Rathore, who was one of the members of Akbar's circle, said this: Thus Pratap answered him, thus the treaty remained unsigned. The battle of Diwar in 1582 is considered an important battle in the history of Rajasthan, because in this war the lost kingdoms of Rana Pratap were recovered, after this a long conflict took place between Rana Pratap and the Mughals, due to which Colonel James Todd has called this war "Marathon of Mewar". Diwar Naka at the northern end of Mewar is unique from other Nakas. Its position is between the mountain ranges of Madaria and Kumbhalgarh. In ancient times, this hilly area was under the rule of Gurjar Pratihars, who were called Mer because they settled in this area. There are many remains of the habitations of this caste in the ruins here. In the medieval era, the Rajputs of the Deora caste became influential here, whose settlements settled in the surrounding fertile parts and spread up to the inner Girwa near Udaipur. | {
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1230 | राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे। राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध मे राणा पूंजा भील का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी। वह जंगल में लौट आया और अपनी लड़ाई जारी रखी। टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए, प्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए: अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की। इस दौरान, उन्हें प्रताप भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। अरावली पहाड़ियों से बिल, युद्ध के दौरान प्रताप को अपने समर्थन के साथ और मोर के दिनों में जंगल में रहने के साधन के साथ। इस तरह कई साल बीत गए। जेम्स टॉड लिखते हैं: "अरावली शृंखला में एक अच्छी सेना के बिना भी, महाराणा प्रताप सिंह जैसे महान स्वतन्त्रता सेनानी के लिए वीर होने का कोई रास्ता नहीं है: कुछ भी एक शानदार जीत हासिल कर सकता है या अक्सर भारी हार। एक घटना में, गोलियाँ सही समय पर बच निकलीं और उदयपुर के पास सावर की गहरी जस्ता खानों में राजपूत महिलाओं और बच्चों को अगवा कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ा के दक्षिणपूर्वी हिस्से में सावन में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावण्ड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावंड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय था। सभी निर्वासित लोग कई सालों तक तलहटी में रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय बिता रहे थे। सभी निर्वासित लोग कई वर्षों तक जंगली जामुन के साथ तोपों में रहते थे और शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप को घास के बीज से बनी चपाती खाने का कठिन समय था। जब निर्वासन वास्तव में भूख से मर रहे थे, तो उन्होंने प्रताप अकबर को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि वह शांति समझौते के लिए तैयार हैं। प्रताप के प्रमुख (उनकी मां की बहन का बच्चा) पृथ्वीराज राठौर, जो अकबर की मंडली के सदस्यों में से एक थे, ने यह कहा:इस प्रकार प्रताप ने उसे उत्तर दियाइस प्रकार संधि अहस्ताक्षरित रही। राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" कहा है। मेवाड़ के उत्तरी छोर का दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था। यहां की उत्पत्यकाताओं में इस जाति के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी 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} | How many sons did Raja Ramshah Tomar have? | Rana Udai Singh's second queen Dhirbai, known as Rani Bhatiani in the history of the state, wanted to make her son Kunwar Jagmal the successor of Mewar. On becoming Pratap's successor, Jagmal goes to Akbar's camp in protest. The first coronation of Maharana Pratap took place in Gogunda on February 28, 1572, but as per the legal procedure, the second coronation of Rana Pratap took place in Kumbhalgarh Fort in 1572 AD. In the second coronation, Rathore ruler of Jodhpur, Rao Chandrasen was also present. Rana Pratap had done a total of 11 marriages in his life. This war took place between Mewar and Mughals on 18 June 1576 AD. Maharana Pratap led the army of Mewar in this war. The leader of the Bhil army, Rana Poonja was a Bhil. The only Muslim chieftain who fought on behalf of Maharana Pratap in this war was Hakim Khan Suri. The site of the battle was a narrow mountain pass at Haldighati near Gogunda, Rajasthan. Maharana Pratap fielded a force of about 3,000 horsemen and 400 Bhil archers. The Mughals were led by Raja Man Singh of Amer, who commanded an army of about 5,000–10,000 men. After a fierce battle that lasted for more than three hours, Maharana Pratap found himself wounded and while some of his men gave him time, he managed to escape into the hills and survive to fight another day. Mewar casualties numbered about 1,600 men. The Mughal army lost 3500–7800 men, with another 350 injured. This yielded no results. While they (the Mughals) were able to capture Gogunda and the surrounding areas, they were unable to hold on to them for long. As the empire's focus shifted elsewhere, Pratap and his army moved out and recaptured the western areas of his dominion. In this war, the Mughal army was led by Mansingh and Asaf Khan. Abdul Qadir Badayuni described this war with his own eyes. Asaf Khan indirectly termed this war as Jihad. Rana Poonja Bhil had an important contribution in this war. In this war, Jhalaman of Binda saved the life of Maharana Pratap by sacrificing his life. Gwalior king 'Raja Ramshah Tomar' also slept in eternal sleep along with his three sons 'Kunwar Shalivahan', 'Kunwar Bhawani Singh', 'Kunwar Pratap Singh' and grandson Balbhadra Singh and hundreds of brave Tomar Rajput warriors. Historians believe that there was no victory in this war. But if seen, Maharana Pratap Singh was victorious in this war. How long could a handful of Rajputs be able to stand against the huge army of Akbar, but nothing like this happened, this war lasted for a whole day and the Rajputs had defeated the Mughals and the biggest thing is that the war was fought face to face. Maharana's army had forced the Mughal army to retreat and the Mughal army started running away. He returned to the forest and continued his fight. After the failure of one of his attempts at confrontation, Pratap resorted to guerrilla tactics. Using its hills as a base, Pratap began to drive away the Mughal troops from there on a large scale. He was adamant that the Mughal army of Mewar should never find peace: Akbar staged three rebellions and tried unsuccessfully to hide Pratap in the mountains. During this time, he received financial assistance in the form of sympathy from Pratap Bhamashah. Bill from the Aravalli hills, with his support to Pratap during the war and with the means to survive in the jungle during peacetime. Many years passed like this. James Todd writes: "Even without a good army in the Aravali range, there is no way for a great freedom fighter like Maharana Pratap Singh to be heroic: anything could lead to a brilliant victory or often a crushing defeat. In one incident , the bullets escaped just in time and abducted Rajput women and children in the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his position to Sawan in the south-eastern part of Mewada. After the Mughal pursuit wave , all lived for years in the forest in exile, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran out at the right time and he died through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his location to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal invasion, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, Used to hunt and fish. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran away at the right time and abducted Rajput women and children through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his place to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal exploration wave, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap fell on hard times. All the exiles lived for many years in the foothills, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a tough time. All the exiles lived for many years in canoes with wild berries and hunted and fished. According to legend, Pratap had a hard time eating chapatti made from grass seeds. When exile actually When Pratap was dying of hunger, he wrote a letter to Akbar, saying that he was ready for a peace agreement. Pratap's chief (child of his mother's sister) Prithviraj Rathore, who was one of the members of Akbar's circle, said this: Thus Pratap answered him, thus the treaty remained unsigned. The battle of Diwar in 1582 is considered an important battle in the history of Rajasthan, because in this war the lost kingdoms of Rana Pratap were recovered, after this a long conflict took place between Rana Pratap and the Mughals, due to which Colonel James Todd has called this war "Marathon of Mewar". Diwar Naka at the northern end of Mewar is unique from other Nakas. Its position is between the mountain ranges of Madaria and Kumbhalgarh. In ancient times, this hilly area was under the rule of Gurjar Pratihars, who were called Mer because they settled in this area. There are many remains of the habitations of this caste in the ruins here. In the medieval era, the Rajputs of the Deora caste became influential here, whose settlements settled in the surrounding fertile parts and spread up to the inner Girwa near Udaipur. | {
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"Three"
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1231 | राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे। राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध मे राणा पूंजा भील का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी। वह जंगल में लौट आया और अपनी लड़ाई जारी रखी। टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए, प्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए: अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की। इस दौरान, उन्हें प्रताप भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। अरावली पहाड़ियों से बिल, युद्ध के दौरान प्रताप को अपने समर्थन के साथ और मोर के दिनों में जंगल में रहने के साधन के साथ। इस तरह कई साल बीत गए। जेम्स टॉड लिखते हैं: "अरावली शृंखला में एक अच्छी सेना के बिना भी, महाराणा प्रताप सिंह जैसे महान स्वतन्त्रता सेनानी के लिए वीर होने का कोई रास्ता नहीं है: कुछ भी एक शानदार जीत हासिल कर सकता है या अक्सर भारी हार। एक घटना में, गोलियाँ सही समय पर बच निकलीं और उदयपुर के पास सावर की गहरी जस्ता खानों में राजपूत महिलाओं और बच्चों को अगवा कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ा के दक्षिणपूर्वी हिस्से में सावन में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावण्ड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावंड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय था। सभी निर्वासित लोग कई सालों तक तलहटी में रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय बिता रहे थे। सभी निर्वासित लोग कई वर्षों तक जंगली जामुन के साथ तोपों में रहते थे और शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप को घास के बीज से बनी चपाती खाने का कठिन समय था। जब निर्वासन वास्तव में भूख से मर रहे थे, तो उन्होंने प्रताप अकबर को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि वह शांति समझौते के लिए तैयार हैं। प्रताप के प्रमुख (उनकी मां की बहन का बच्चा) पृथ्वीराज राठौर, जो अकबर की मंडली के सदस्यों में से एक थे, ने यह कहा:इस प्रकार प्रताप ने उसे उत्तर दियाइस प्रकार संधि अहस्ताक्षरित रही। राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" कहा है। मेवाड़ के उत्तरी छोर का दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था। यहां की उत्पत्यकाताओं में इस जाति के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी बस्तियां आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतरी गिर्वा तक प्रसारित हो गई। | युद्ध को मेवाड़ का मैराथन किसने कहा था? | {
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"कर्नल जेम्स टाॅड"
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} | Who called the war the Marathon of Mewar? | Rana Udai Singh's second queen Dhirbai, known as Rani Bhatiani in the history of the state, wanted to make her son Kunwar Jagmal the successor of Mewar. On becoming Pratap's successor, Jagmal goes to Akbar's camp in protest. The first coronation of Maharana Pratap took place in Gogunda on February 28, 1572, but as per the legal procedure, the second coronation of Rana Pratap took place in Kumbhalgarh Fort in 1572 AD. In the second coronation, Rathore ruler of Jodhpur, Rao Chandrasen was also present. Rana Pratap had done a total of 11 marriages in his life. This war took place between Mewar and Mughals on 18 June 1576 AD. Maharana Pratap led the army of Mewar in this war. The leader of the Bhil army, Rana Poonja was a Bhil. The only Muslim chieftain who fought on behalf of Maharana Pratap in this war was Hakim Khan Suri. The site of the battle was a narrow mountain pass at Haldighati near Gogunda, Rajasthan. Maharana Pratap fielded a force of about 3,000 horsemen and 400 Bhil archers. The Mughals were led by Raja Man Singh of Amer, who commanded an army of about 5,000–10,000 men. After a fierce battle that lasted for more than three hours, Maharana Pratap found himself wounded and while some of his men gave him time, he managed to escape into the hills and survive to fight another day. Mewar casualties numbered about 1,600 men. The Mughal army lost 3500–7800 men, with another 350 injured. This yielded no results. While they (the Mughals) were able to capture Gogunda and the surrounding areas, they were unable to hold on to them for long. As the empire's focus shifted elsewhere, Pratap and his army moved out and recaptured the western areas of his dominion. In this war, the Mughal army was led by Mansingh and Asaf Khan. Abdul Qadir Badayuni described this war with his own eyes. Asaf Khan indirectly termed this war as Jihad. Rana Poonja Bhil had an important contribution in this war. In this war, Jhalaman of Binda saved the life of Maharana Pratap by sacrificing his life. Gwalior king 'Raja Ramshah Tomar' also slept in eternal sleep along with his three sons 'Kunwar Shalivahan', 'Kunwar Bhawani Singh', 'Kunwar Pratap Singh' and grandson Balbhadra Singh and hundreds of brave Tomar Rajput warriors. Historians believe that there was no victory in this war. But if seen, Maharana Pratap Singh was victorious in this war. How long could a handful of Rajputs be able to stand against the huge army of Akbar, but nothing like this happened, this war lasted for a whole day and the Rajputs had defeated the Mughals and the biggest thing is that the war was fought face to face. Maharana's army had forced the Mughal army to retreat and the Mughal army started running away. He returned to the forest and continued his fight. After the failure of one of his attempts at confrontation, Pratap resorted to guerrilla tactics. Using its hills as a base, Pratap began to drive away the Mughal troops from there on a large scale. He was adamant that the Mughal army of Mewar should never find peace: Akbar staged three rebellions and tried unsuccessfully to hide Pratap in the mountains. During this time, he received financial assistance in the form of sympathy from Pratap Bhamashah. Bill from the Aravalli hills, with his support to Pratap during the war and with the means to survive in the jungle during peacetime. Many years passed like this. James Todd writes: "Even without a good army in the Aravali range, there is no way for a great freedom fighter like Maharana Pratap Singh to be heroic: anything could lead to a brilliant victory or often a crushing defeat. In one incident , the bullets escaped just in time and abducted Rajput women and children in the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his position to Sawan in the south-eastern part of Mewada. After the Mughal pursuit wave , all lived for years in the forest in exile, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran out at the right time and he died through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his location to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal invasion, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, Used to hunt and fish. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran away at the right time and abducted Rajput women and children through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his place to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal exploration wave, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap fell on hard times. All the exiles lived for many years in the foothills, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a tough time. All the exiles lived for many years in canoes with wild berries and hunted and fished. According to legend, Pratap had a hard time eating chapatti made from grass seeds. When exile actually When Pratap was dying of hunger, he wrote a letter to Akbar, saying that he was ready for a peace agreement. Pratap's chief (child of his mother's sister) Prithviraj Rathore, who was one of the members of Akbar's circle, said this: Thus Pratap answered him, thus the treaty remained unsigned. The battle of Diwar in 1582 is considered an important battle in the history of Rajasthan, because in this war the lost kingdoms of Rana Pratap were recovered, after this a long conflict took place between Rana Pratap and the Mughals, due to which Colonel James Todd has called this war "Marathon of Mewar". Diwar Naka at the northern end of Mewar is unique from other Nakas. Its position is between the mountain ranges of Madaria and Kumbhalgarh. In ancient times, this hilly area was under the rule of Gurjar Pratihars, who were called Mer because they settled in this area. There are many remains of the habitations of this caste in the ruins here. In the medieval era, the Rajputs of the Deora caste became influential here, whose settlements settled in the surrounding fertile parts and spread up to the inner Girwa near Udaipur. | {
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1232 | राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे। राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध मे राणा पूंजा भील का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी। वह जंगल में लौट आया और अपनी लड़ाई जारी रखी। टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए, प्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए: अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की। इस दौरान, उन्हें प्रताप भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। अरावली पहाड़ियों से बिल, युद्ध के दौरान प्रताप को अपने समर्थन के साथ और मोर के दिनों में जंगल में रहने के साधन के साथ। इस तरह कई साल बीत गए। जेम्स टॉड लिखते हैं: "अरावली शृंखला में एक अच्छी सेना के बिना भी, महाराणा प्रताप सिंह जैसे महान स्वतन्त्रता सेनानी के लिए वीर होने का कोई रास्ता नहीं है: कुछ भी एक शानदार जीत हासिल कर सकता है या अक्सर भारी हार। एक घटना में, गोलियाँ सही समय पर बच निकलीं और उदयपुर के पास सावर की गहरी जस्ता खानों में राजपूत महिलाओं और बच्चों को अगवा कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ा के दक्षिणपूर्वी हिस्से में सावन में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावण्ड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावंड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय था। सभी निर्वासित लोग कई सालों तक तलहटी में रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय बिता रहे थे। सभी निर्वासित लोग कई वर्षों तक जंगली जामुन के साथ तोपों में रहते थे और शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप को घास के बीज से बनी चपाती खाने का कठिन समय था। जब 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} | In which year was the Battle of Diver fought? | Rana Udai Singh's second queen Dhirbai, known as Rani Bhatiani in the history of the state, wanted to make her son Kunwar Jagmal the successor of Mewar. On becoming Pratap's successor, Jagmal goes to Akbar's camp in protest. The first coronation of Maharana Pratap took place in Gogunda on February 28, 1572, but as per the legal procedure, the second coronation of Rana Pratap took place in Kumbhalgarh Fort in 1572 AD. In the second coronation, Rathore ruler of Jodhpur, Rao Chandrasen was also present. Rana Pratap had done a total of 11 marriages in his life. This war took place between Mewar and Mughals on 18 June 1576 AD. Maharana Pratap led the army of Mewar in this war. The leader of the Bhil army, Rana Poonja was a Bhil. The only Muslim chieftain who fought on behalf of Maharana Pratap in this war was Hakim Khan Suri. The site of the battle was a narrow mountain pass at Haldighati near Gogunda, Rajasthan. Maharana Pratap fielded a force of about 3,000 horsemen and 400 Bhil archers. The Mughals were led by Raja Man Singh of Amer, who commanded an army of about 5,000–10,000 men. After a fierce battle that lasted for more than three hours, Maharana Pratap found himself wounded and while some of his men gave him time, he managed to escape into the hills and survive to fight another day. Mewar casualties numbered about 1,600 men. The Mughal army lost 3500–7800 men, with another 350 injured. This yielded no results. While they (the Mughals) were able to capture Gogunda and the surrounding areas, they were unable to hold on to them for long. As the empire's focus shifted elsewhere, Pratap and his army moved out and recaptured the western areas of his dominion. In this war, the Mughal army was led by Mansingh and Asaf Khan. Abdul Qadir Badayuni described this war with his own eyes. Asaf Khan indirectly termed this war as Jihad. Rana Poonja Bhil had an important contribution in this war. In this war, Jhalaman of Binda saved the life of Maharana Pratap by sacrificing his life. Gwalior king 'Raja Ramshah Tomar' also slept in eternal sleep along with his three sons 'Kunwar Shalivahan', 'Kunwar Bhawani Singh', 'Kunwar Pratap Singh' and grandson Balbhadra Singh and hundreds of brave Tomar Rajput warriors. Historians believe that there was no victory in this war. But if seen, Maharana Pratap Singh was victorious in this war. How long could a handful of Rajputs be able to stand against the huge army of Akbar, but nothing like this happened, this war lasted for a whole day and the Rajputs had defeated the Mughals and the biggest thing is that the war was fought face to face. Maharana's army had forced the Mughal army to retreat and the Mughal army started running away. He returned to the forest and continued his fight. After the failure of one of his attempts at confrontation, Pratap resorted to guerrilla tactics. Using its hills as a base, Pratap began to drive away the Mughal troops from there on a large scale. He was adamant that the Mughal army of Mewar should never find peace: Akbar staged three rebellions and tried unsuccessfully to hide Pratap in the mountains. During this time, he received financial assistance in the form of sympathy from Pratap Bhamashah. Bill from the Aravalli hills, with his support to Pratap during the war and with the means to survive in the jungle during peacetime. Many years passed like this. James Todd writes: "Even without a good army in the Aravali range, there is no way for a great freedom fighter like Maharana Pratap Singh to be heroic: anything could lead to a brilliant victory or often a crushing defeat. In one incident , the bullets escaped just in time and abducted Rajput women and children in the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his position to Sawan in the south-eastern part of Mewada. After the Mughal pursuit wave , all lived for years in the forest in exile, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran out at the right time and he died through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his location to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal invasion, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, Used to hunt and fish. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran away at the right time and abducted Rajput women and children through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his place to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal exploration wave, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap fell on hard times. All the exiles lived for many years in the foothills, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a tough time. All the exiles lived for many years in canoes with wild berries and hunted and fished. According to legend, Pratap had a hard time eating chapatti made from grass seeds. When exile actually When Pratap was dying of hunger, he wrote a letter to Akbar, saying that he was ready for a peace agreement. Pratap's chief (child of his mother's sister) Prithviraj Rathore, who was one of the members of Akbar's circle, said this: Thus Pratap answered him, thus the treaty remained unsigned. The battle of Diwar in 1582 is considered an important battle in the history of Rajasthan, because in this war the lost kingdoms of Rana Pratap were recovered, after this a long conflict took place between Rana Pratap and the Mughals, due to which Colonel James Todd has called this war "Marathon of Mewar". Diwar Naka at the northern end of Mewar is unique from other Nakas. Its position is between the mountain ranges of Madaria and Kumbhalgarh. In ancient times, this hilly area was under the rule of Gurjar Pratihars, who were called Mer because they settled in this area. There are many remains of the habitations of this caste in the ruins here. In the medieval era, the Rajputs of the Deora caste became influential here, whose settlements settled in the surrounding fertile parts and spread up to the inner Girwa near Udaipur. | {
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"1582"
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1233 | राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे। राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध मे राणा पूंजा भील का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी। वह जंगल में लौट आया और अपनी लड़ाई जारी रखी। टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए, प्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए: अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की। इस दौरान, उन्हें प्रताप भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। अरावली पहाड़ियों से बिल, युद्ध के दौरान प्रताप को अपने समर्थन के साथ और मोर के दिनों में जंगल में रहने के साधन के साथ। इस तरह कई साल बीत गए। जेम्स टॉड लिखते हैं: "अरावली शृंखला में एक अच्छी सेना के बिना भी, महाराणा प्रताप सिंह जैसे महान स्वतन्त्रता सेनानी के लिए वीर होने का कोई रास्ता नहीं है: कुछ भी एक शानदार जीत हासिल कर सकता है या अक्सर भारी हार। एक घटना में, गोलियाँ सही समय पर बच निकलीं और उदयपुर के पास सावर की गहरी जस्ता खानों में राजपूत महिलाओं और बच्चों को अगवा कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ा के दक्षिणपूर्वी हिस्से में सावन में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावण्ड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप एक कठिन समय था जब गोलियाँ सही समय पर भाग गईं और उदयपुरा के पास सावर की गहरी जस्ता खानों के माध्यम से राजपूत महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावंड में स्थानान्तरित कर दिया। मुगल खोज लहर के बाद, सभी निर्वासित जंगल में वर्षों से रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय था। सभी निर्वासित लोग कई सालों तक तलहटी में रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय बिता रहे थे। सभी निर्वासित लोग कई वर्षों तक जंगली जामुन के साथ तोपों में रहते थे और शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप को घास के बीज से बनी चपाती खाने का कठिन समय था। जब निर्वासन वास्तव में भूख से मर रहे थे, तो उन्होंने प्रताप अकबर को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि वह शांति समझौते के लिए तैयार हैं। प्रताप के प्रमुख (उनकी मां की बहन का बच्चा) पृथ्वीराज राठौर, जो अकबर की मंडली के सदस्यों में से एक थे, ने यह कहा:इस प्रकार प्रताप ने उसे उत्तर दियाइस प्रकार संधि अहस्ताक्षरित रही। राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" कहा है। मेवाड़ के उत्तरी छोर का दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था। यहां की उत्पत्यकाताओं में इस जाति के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी बस्तियां आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतरी गिर्वा तक प्रसारित हो गई। | रावत शाखा के राजपूतों से पहले चिकली में कौन बसे हुए थे ? | {
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} | Who were settled in Chikli before the Rajputs of the Rawat branch? | Rana Udai Singh's second queen Dhirbai, known as Rani Bhatiani in the history of the state, wanted to make her son Kunwar Jagmal the successor of Mewar. On becoming Pratap's successor, Jagmal goes to Akbar's camp in protest. The first coronation of Maharana Pratap took place in Gogunda on February 28, 1572, but as per the legal procedure, the second coronation of Rana Pratap took place in Kumbhalgarh Fort in 1572 AD. In the second coronation, Rathore ruler of Jodhpur, Rao Chandrasen was also present. Rana Pratap had done a total of 11 marriages in his life. This war took place between Mewar and Mughals on 18 June 1576 AD. Maharana Pratap led the army of Mewar in this war. The leader of the Bhil army, Rana Poonja was a Bhil. The only Muslim chieftain who fought on behalf of Maharana Pratap in this war was Hakim Khan Suri. The site of the battle was a narrow mountain pass at Haldighati near Gogunda, Rajasthan. Maharana Pratap fielded a force of about 3,000 horsemen and 400 Bhil archers. The Mughals were led by Raja Man Singh of Amer, who commanded an army of about 5,000–10,000 men. After a fierce battle that lasted for more than three hours, Maharana Pratap found himself wounded and while some of his men gave him time, he managed to escape into the hills and survive to fight another day. Mewar casualties numbered about 1,600 men. The Mughal army lost 3500–7800 men, with another 350 injured. This yielded no results. While they (the Mughals) were able to capture Gogunda and the surrounding areas, they were unable to hold on to them for long. As the empire's focus shifted elsewhere, Pratap and his army moved out and recaptured the western areas of his dominion. In this war, the Mughal army was led by Mansingh and Asaf Khan. Abdul Qadir Badayuni described this war with his own eyes. Asaf Khan indirectly termed this war as Jihad. Rana Poonja Bhil had an important contribution in this war. In this war, Jhalaman of Binda saved the life of Maharana Pratap by sacrificing his life. Gwalior king 'Raja Ramshah Tomar' also slept in eternal sleep along with his three sons 'Kunwar Shalivahan', 'Kunwar Bhawani Singh', 'Kunwar Pratap Singh' and grandson Balbhadra Singh and hundreds of brave Tomar Rajput warriors. Historians believe that there was no victory in this war. But if seen, Maharana Pratap Singh was victorious in this war. How long could a handful of Rajputs be able to stand against the huge army of Akbar, but nothing like this happened, this war lasted for a whole day and the Rajputs had defeated the Mughals and the biggest thing is that the war was fought face to face. Maharana's army had forced the Mughal army to retreat and the Mughal army started running away. He returned to the forest and continued his fight. After the failure of one of his attempts at confrontation, Pratap resorted to guerrilla tactics. Using its hills as a base, Pratap began to drive away the Mughal troops from there on a large scale. He was adamant that the Mughal army of Mewar should never find peace: Akbar staged three rebellions and tried unsuccessfully to hide Pratap in the mountains. During this time, he received financial assistance in the form of sympathy from Pratap Bhamashah. Bill from the Aravalli hills, with his support to Pratap during the war and with the means to survive in the jungle during peacetime. Many years passed like this. James Todd writes: "Even without a good army in the Aravali range, there is no way for a great freedom fighter like Maharana Pratap Singh to be heroic: anything could lead to a brilliant victory or often a crushing defeat. In one incident , the bullets escaped just in time and abducted Rajput women and children in the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his position to Sawan in the south-eastern part of Mewada. After the Mughal pursuit wave , all lived for years in the forest in exile, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran out at the right time and he died through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his location to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal invasion, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, Used to hunt and fish. According to legend, Pratap was having a hard time when the bullets ran away at the right time and abducted Rajput women and children through the deep zinc mines of Savar near Udaipur. Later, Pratap shifted his place to Chavand, the south-eastern part of Mewar. After the Mughal exploration wave, all the exiles lived for years in the forest, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap fell on hard times. All the exiles lived for many years in the foothills, eating wild berries, hunting and fishing. According to legend, Pratap was having a tough time. All the exiles lived for many years in canoes with wild berries and hunted and fished. According to legend, Pratap had a hard time eating chapatti made from grass seeds. When exile actually When Pratap was dying of hunger, he wrote a letter to Akbar, saying that he was ready for a peace agreement. Pratap's chief (child of his mother's sister) Prithviraj Rathore, who was one of the members of Akbar's circle, said this: Thus Pratap answered him, thus the treaty remained unsigned. The battle of Diwar in 1582 is considered an important battle in the history of Rajasthan, because in this war the lost kingdoms of Rana Pratap were recovered, after this a long conflict took place between Rana Pratap and the Mughals, due to which Colonel James Todd has called this war "Marathon of Mewar". Diwar Naka at the northern end of Mewar is unique from other Nakas. Its position is between the mountain ranges of Madaria and Kumbhalgarh. In ancient times, this hilly area was under the rule of Gurjar Pratihars, who were called Mer because they settled in this area. There are many remains of the habitations of this caste in the ruins here. In the medieval era, the Rajputs of the Deora caste became influential here, whose settlements settled in the surrounding fertile parts and spread up to the inner Girwa near Udaipur. | {
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1234 | रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान आज भी पूरे भारत में याद किया जाता है। मुख्य आलेख- ग्वालियर रियासतग्वालियर पर आज़ादी से पहले सिंधिया वंश का राज था, जो मराठा समूहों में से एक थे। इसमें 18वीं और 19वीं शताब्दी में ग्वालियर राज्य शासक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के सहयोगी और स्वतंत्र भारत में राजनेता शामिल थे। मुरार: पहले यह सैन्य क्षेत्र हुआ करता था, जिसे मिलिट्री ऑफिसर्स रेजिडेंशियल एरिया रिजर्व्ड (M.O.R.A.R.) कहा जाता था और संक्षेप में मोरार। मोरार शब्द का लोप होकर मुरार हो गया। थाटीपुर: रियासत काल में यहाँ सेना के सरकारी आवास थे, जिस का नाम थर्टी फोर लांसर था। आज़ादी के बाद यह आवास मध्य प्रदेश शासन के अधीन आ गए, जिसे थर्टी फोर की जगह थाटीपुर कहा गया। सहस्त्रबाहु मंदिर या सासबहू का मंदिर : ग्वालियर दुर्ग पर इस मंदिर के बारे में मान्यता है की यह सहत्रबाहु अर्थात हजार भुजाओं वाले भगवन विष्णु को समर्पित है। बाद में धीरे-धीरे सासबहू का मंदिर कहा जाने लगा। गोरखी: पुराने रजिस्ट्रार ऑफिस से गजराराजा स्कूल तक सिंधियावंश ने रहने का स्थान बनाया था। यही उनकी कुल देवी गोराक्षी का मंदिर बनाया गया। बाद में यह गोरखी बन गई। पिछड़ी ड्योढ़ी: स्टेट टाइम में महल बनने से पहले सफ़ेद झंडा गाड़ा जाता था। जब महल बना तो इसके पीछे की ड्योढ़ी और बाद में पिछड़ी ड्योढ़ी कहलाने लगी। तेली का मंदिर: ८ वी शताब्दी में राजा के सेनापति तेल्प ने दुर्ग पर दक्षिण और उत्तर भारतीय शैली का मंदिर बनवाया था, जिसे तेल्प का मंदिर कहा जाता था। आज इसे तेली का मंदिर कहा जाता है। पान पत्ते की गोठ: पूना की मराठा सेना जब पानीपत युद्ध से पराजित होकर लौट रही थी, तब उसने यहीं अपना डेरा डाल लिया। पहले इसे पानीपत की गोठ कहा जाता था। | सिंधिया कबीले किस समूह से थे? | {
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} | The Scindia clan belonged to which group? | Rani Laxmibai's sacrifice is still remembered all over India.Main article- Gwalior was the rule of the Scindia dynasty before independence over the princely state of Gwalior, which was one of the Maratha groups.It included the Gwalior state ruler in the 18th and 19th centuries, the 19th and 20th centuries during the 19th and 20th centuries, a collaborator of the colonial British government and politicians in independent India.Murar: Earlier it used to be a military area, which was called Military Officers Residential Area Reserve (M.O.R.A.R.) and briefly Morar.The word Morar was omitted and became Murar.Thatipur: During the princely period, there were government residences of the army, whose name was Thirty Four Lancer.After independence, this house came under the Madhya Pradesh government, which was called Thatipur instead of Thirty Four.Sahastrabahu Temple or Sasbahu Temple: It is believed about this temple on Gwalior fort, that it is dedicated to Bhagavan Vishnu with a thousand arms.Later gradually came to be called the temple of Sasbahu.Gorkhi: Scindia dynasty from the old registrar office to Gajararaja School had made a place to live.This was the temple of his total goddess Gorakshi.Later it became Gorkhi.Backward Deodhi: White flag was buried before the palace was built in state time.When the palace was built, it started to be called the backward and later backward diodhi.Temple Temple: In the 9th century, King's commander Telp built a temple of South and North Indian style on the fort, which was called the temple of Telp.Today it is called the temple of Teli.Paan Leaf Goth: When the Maratha army of Poona was returning after being defeated by the Panipat war, he camped here.Earlier it was called Goth of Panipat. | {
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1235 | रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान आज भी पूरे भारत में याद किया जाता है। मुख्य आलेख- ग्वालियर रियासतग्वालियर पर आज़ादी से पहले सिंधिया वंश का राज था, जो मराठा समूहों में से एक थे। इसमें 18वीं और 19वीं शताब्दी में ग्वालियर राज्य शासक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के सहयोगी और स्वतंत्र भारत में राजनेता शामिल थे। मुरार: पहले यह सैन्य क्षेत्र हुआ करता था, जिसे मिलिट्री ऑफिसर्स रेजिडेंशियल एरिया रिजर्व्ड (M.O.R.A.R.) कहा जाता था और संक्षेप में मोरार। मोरार शब्द का लोप होकर मुरार हो गया। थाटीपुर: रियासत काल में यहाँ सेना के सरकारी आवास थे, जिस का नाम थर्टी फोर लांसर था। आज़ादी के बाद यह आवास मध्य प्रदेश शासन के अधीन आ गए, जिसे थर्टी फोर की जगह थाटीपुर कहा गया। सहस्त्रबाहु मंदिर या सासबहू का मंदिर : ग्वालियर दुर्ग पर इस मंदिर के बारे में मान्यता है की यह सहत्रबाहु अर्थात हजार भुजाओं वाले भगवन विष्णु को समर्पित है। बाद में धीरे-धीरे सासबहू का मंदिर कहा जाने लगा। गोरखी: पुराने रजिस्ट्रार ऑफिस से गजराराजा स्कूल तक सिंधियावंश ने रहने का स्थान बनाया था। यही उनकी कुल देवी गोराक्षी का मंदिर बनाया गया। बाद में यह गोरखी बन गई। पिछड़ी ड्योढ़ी: स्टेट टाइम में महल बनने से पहले सफ़ेद झंडा गाड़ा जाता था। जब महल बना तो इसके पीछे की ड्योढ़ी और बाद में पिछड़ी ड्योढ़ी कहलाने लगी। तेली का मंदिर: ८ वी शताब्दी में राजा के सेनापति तेल्प ने दुर्ग पर दक्षिण और उत्तर भारतीय शैली का मंदिर बनवाया था, जिसे तेल्प का मंदिर कहा जाता था। आज इसे तेली का मंदिर कहा जाता है। पान पत्ते की गोठ: पूना की मराठा सेना जब पानीपत युद्ध से पराजित होकर लौट रही थी, तब उसने यहीं अपना डेरा डाल लिया। पहले इसे पानीपत की गोठ कहा जाता था। | तेलप मंदिर किसके द्वारा बनवाया गया था? | {
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} | The Telap temple was built by whom? | Rani Laxmibai's sacrifice is still remembered all over India.Main article- Gwalior was the rule of the Scindia dynasty before independence over the princely state of Gwalior, which was one of the Maratha groups.It included the Gwalior state ruler in the 18th and 19th centuries, the 19th and 20th centuries during the 19th and 20th centuries, a collaborator of the colonial British government and politicians in independent India.Murar: Earlier it used to be a military area, which was called Military Officers Residential Area Reserve (M.O.R.A.R.) and briefly Morar.The word Morar was omitted and became Murar.Thatipur: During the princely period, there were government residences of the army, whose name was Thirty Four Lancer.After independence, this house came under the Madhya Pradesh government, which was called Thatipur instead of Thirty Four.Sahastrabahu Temple or Sasbahu Temple: It is believed about this temple on Gwalior fort, that it is dedicated to Bhagavan Vishnu with a thousand arms.Later gradually came to be called the temple of Sasbahu.Gorkhi: Scindia dynasty from the old registrar office to Gajararaja School had made a place to live.This was the temple of his total goddess Gorakshi.Later it became Gorkhi.Backward Deodhi: White flag was buried before the palace was built in state time.When the palace was built, it started to be called the backward and later backward diodhi.Temple Temple: In the 9th century, King's commander Telp built a temple of South and North Indian style on the fort, which was called the temple of Telp.Today it is called the temple of Teli.Paan Leaf Goth: When the Maratha army of Poona was returning after being defeated by the Panipat war, he camped here.Earlier it was called Goth of Panipat. | {
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1236 | रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान आज भी पूरे भारत में याद किया जाता है। मुख्य आलेख- ग्वालियर रियासतग्वालियर पर आज़ादी से पहले सिंधिया वंश का राज था, जो मराठा समूहों में से एक थे। इसमें 18वीं और 19वीं शताब्दी में ग्वालियर राज्य शासक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के सहयोगी और स्वतंत्र भारत में राजनेता शामिल थे। मुरार: पहले यह सैन्य क्षेत्र हुआ करता था, जिसे मिलिट्री ऑफिसर्स रेजिडेंशियल एरिया रिजर्व्ड (M.O.R.A.R.) कहा जाता था और संक्षेप में मोरार। मोरार शब्द का लोप होकर मुरार हो गया। थाटीपुर: रियासत काल में यहाँ सेना के सरकारी आवास थे, जिस का नाम थर्टी फोर लांसर था। आज़ादी के बाद यह आवास मध्य प्रदेश शासन के अधीन आ गए, जिसे थर्टी फोर की जगह थाटीपुर कहा गया। सहस्त्रबाहु मंदिर या सासबहू का मंदिर : ग्वालियर दुर्ग पर इस मंदिर के बारे में मान्यता है की यह सहत्रबाहु अर्थात हजार भुजाओं वाले भगवन विष्णु को समर्पित है। बाद में धीरे-धीरे सासबहू का मंदिर कहा जाने लगा। गोरखी: पुराने रजिस्ट्रार ऑफिस से गजराराजा स्कूल तक सिंधियावंश ने रहने का स्थान बनाया था। यही उनकी कुल देवी गोराक्षी का मंदिर बनाया गया। बाद में यह गोरखी बन गई। पिछड़ी ड्योढ़ी: स्टेट टाइम में महल बनने से पहले सफ़ेद झंडा गाड़ा जाता था। जब महल बना तो इसके पीछे की ड्योढ़ी और बाद में पिछड़ी ड्योढ़ी कहलाने लगी। तेली का मंदिर: ८ वी शताब्दी में राजा के सेनापति तेल्प ने दुर्ग पर दक्षिण और उत्तर भारतीय शैली का मंदिर बनवाया था, जिसे तेल्प का मंदिर कहा जाता था। आज इसे तेली का मंदिर कहा जाता है। पान पत्ते की गोठ: पूना की मराठा सेना जब पानीपत युद्ध से पराजित होकर लौट रही थी, तब उसने यहीं अपना डेरा डाल लिया। पहले इसे पानीपत की गोठ कहा जाता था। | स्वतंत्रता से पहले ग्वालियर पर किसका शासन था? | {
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"सिंधिया वंश"
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} | Who ruled Gwalior before independence? | Rani Laxmibai's sacrifice is still remembered all over India.Main article- Gwalior was the rule of the Scindia dynasty before independence over the princely state of Gwalior, which was one of the Maratha groups.It included the Gwalior state ruler in the 18th and 19th centuries, the 19th and 20th centuries during the 19th and 20th centuries, a collaborator of the colonial British government and politicians in independent India.Murar: Earlier it used to be a military area, which was called Military Officers Residential Area Reserve (M.O.R.A.R.) and briefly Morar.The word Morar was omitted and became Murar.Thatipur: During the princely period, there were government residences of the army, whose name was Thirty Four Lancer.After independence, this house came under the Madhya Pradesh government, which was called Thatipur instead of Thirty Four.Sahastrabahu Temple or Sasbahu Temple: It is believed about this temple on Gwalior fort, that it is dedicated to Bhagavan Vishnu with a thousand arms.Later gradually came to be called the temple of Sasbahu.Gorkhi: Scindia dynasty from the old registrar office to Gajararaja School had made a place to live.This was the temple of his total goddess Gorakshi.Later it became Gorkhi.Backward Deodhi: White flag was buried before the palace was built in state time.When the palace was built, it started to be called the backward and later backward diodhi.Temple Temple: In the 9th century, King's commander Telp built a temple of South and North Indian style on the fort, which was called the temple of Telp.Today it is called the temple of Teli.Paan Leaf Goth: When the Maratha army of Poona was returning after being defeated by the Panipat war, he camped here.Earlier it was called Goth of Panipat. | {
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"Scindia dynasty"
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1237 | रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान आज भी पूरे भारत में याद किया जाता है। मुख्य आलेख- ग्वालियर रियासतग्वालियर पर आज़ादी से पहले सिंधिया वंश का राज था, जो मराठा समूहों में से एक थे। इसमें 18वीं और 19वीं शताब्दी में ग्वालियर राज्य शासक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के सहयोगी और स्वतंत्र भारत में राजनेता शामिल थे। मुरार: पहले यह सैन्य क्षेत्र हुआ करता था, जिसे मिलिट्री ऑफिसर्स रेजिडेंशियल एरिया रिजर्व्ड (M.O.R.A.R.) कहा जाता था और संक्षेप में मोरार। मोरार शब्द का लोप होकर मुरार हो गया। थाटीपुर: रियासत काल में यहाँ सेना के सरकारी आवास थे, जिस का नाम थर्टी फोर लांसर था। आज़ादी के बाद यह आवास मध्य प्रदेश शासन के अधीन आ गए, जिसे थर्टी फोर की जगह थाटीपुर कहा गया। सहस्त्रबाहु मंदिर या सासबहू का मंदिर : ग्वालियर दुर्ग पर इस मंदिर के बारे में मान्यता है की यह सहत्रबाहु अर्थात हजार भुजाओं वाले भगवन विष्णु को समर्पित है। बाद में धीरे-धीरे सासबहू का मंदिर कहा जाने लगा। गोरखी: पुराने रजिस्ट्रार ऑफिस से गजराराजा स्कूल तक सिंधियावंश ने रहने का स्थान बनाया था। यही उनकी कुल देवी गोराक्षी का मंदिर बनाया गया। बाद में यह गोरखी बन गई। पिछड़ी ड्योढ़ी: स्टेट टाइम में महल बनने से पहले सफ़ेद झंडा गाड़ा जाता था। जब महल बना तो इसके पीछे की ड्योढ़ी और बाद में पिछड़ी ड्योढ़ी कहलाने लगी। तेली का मंदिर: ८ वी शताब्दी में राजा के सेनापति तेल्प ने दुर्ग पर दक्षिण और उत्तर भारतीय शैली का मंदिर बनवाया था, जिसे तेल्प का मंदिर कहा जाता था। आज इसे तेली का मंदिर कहा जाता है। पान पत्ते की गोठ: पूना की मराठा सेना जब पानीपत युद्ध से पराजित होकर लौट रही थी, तब उसने यहीं अपना डेरा डाल लिया। पहले इसे पानीपत की गोठ कहा जाता था। | लॉर्ड डफरिन ने ग्वालियर क्षेत्र में कितने लोगो की हत्या की थी ? | {
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} | How many people did Lord Dufferin kill in the Gwalior region? | Rani Laxmibai's sacrifice is still remembered all over India.Main article- Gwalior was the rule of the Scindia dynasty before independence over the princely state of Gwalior, which was one of the Maratha groups.It included the Gwalior state ruler in the 18th and 19th centuries, the 19th and 20th centuries during the 19th and 20th centuries, a collaborator of the colonial British government and politicians in independent India.Murar: Earlier it used to be a military area, which was called Military Officers Residential Area Reserve (M.O.R.A.R.) and briefly Morar.The word Morar was omitted and became Murar.Thatipur: During the princely period, there were government residences of the army, whose name was Thirty Four Lancer.After independence, this house came under the Madhya Pradesh government, which was called Thatipur instead of Thirty Four.Sahastrabahu Temple or Sasbahu Temple: It is believed about this temple on Gwalior fort, that it is dedicated to Bhagavan Vishnu with a thousand arms.Later gradually came to be called the temple of Sasbahu.Gorkhi: Scindia dynasty from the old registrar office to Gajararaja School had made a place to live.This was the temple of his total goddess Gorakshi.Later it became Gorkhi.Backward Deodhi: White flag was buried before the palace was built in state time.When the palace was built, it started to be called the backward and later backward diodhi.Temple Temple: In the 9th century, King's commander Telp built a temple of South and North Indian style on the fort, which was called the temple of Telp.Today it is called the temple of Teli.Paan Leaf Goth: When the Maratha army of Poona was returning after being defeated by the Panipat war, he camped here.Earlier it was called Goth of Panipat. | {
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1238 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | रामचरितमानस किसके द्वारा लिखि गई थी? | {
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} | Ramcharitmanas was written by whom? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
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1239 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | बाली की मृत्यु के बाद किष्किंधा राज्य किसे दे दिया गया था? | {
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"सुग्रीव"
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24
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} | To whom was the kingdom of Kishkindha given after Bali's death? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
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24
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"Sugriva"
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1240 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किसके द्वारा किया गया था? | {
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} | The ritual of Ashvamegha Yajna was performed by whom? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
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1241 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | राम अपनी वानरों की सेना के साथ लंका में कहां रहने लगे थे? | {
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"सुबेल पर्वत"
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2313
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} | Where did Rama begin to live in Lanka with his army of monkeys? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
"answer_start": [
2313
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"text": [
"Subail Mountain"
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1242 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | बाली को किसने मारा था? | {
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"राम"
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} | Who killed Bali? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
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"Ram"
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1243 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | हनुमान को समुद्र पार करने के लिए प्रोत्साहित किसने किया था? | {
"text": [
"जाम्बवन्त"
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486
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} | Who encouraged Hanuman to cross the sea? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
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486
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"text": [
"Jambawant"
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1244 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | रावण ने सीता जी का हरण करके उन्हें कहां रखा था? | {
"text": [
"अशोकवाटिका"
],
"answer_start": [
464
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} | Where did Ravana take away Sita and keep her? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
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464
],
"text": [
"Ashokavatika"
]
} |
1245 | राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। | मेघनाथ का वध किसने किया था ? | {
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"लक्ष्मण"
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2512
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} | Who killed Meghnad? | Rama killed Bali and gave Sugriva the kingdom of Kishkindha and Bali's son Angad as Yuvraj.After receiving the state, Sugriva became involved in Vilas and the rain and autumn became spent.On Ram's displeasure, Sugriva sent the monkeys to search for Sita.The monkeys who went in search of Sita saw an ascetic in a cave.Tapaswini took the search party to the beach with yoga power where he met with Sampati.Sampati told the monkeys that Ravana has placed Sita in Lanka Ashokwatika.Jambavant encouraged Hanuman to cross the sea.Hanuman departed towards Lanka.Sursa took the test of Hanuman and blessed him by finding him worthy and powerful.On the way, Hanuman killed the demon who caught the shadow and entered Lanka by attacking Lankini.He met Vibhishan.When Hanuman reached Ashok Vatika, Ravana was threatening Sita.On the departure of Ravana, Trijata comforted Sita.On being solitary, Hanuman ji met Sita Mata and gave him Ram's head.Hanuman destroyed Ashokwatika and killed Ravana's son Akshay Kumar.Meghnath tied Hanuman in Nagpash and took him to Ravana's meeting.In response to Ravana's question, Hanuman introduced himself as the messenger of Rama.Ravana tied a cloth submerged in the oil in Hanuman's tail and set fire to Lanka.Hanuman reached Sita.Sita gave her off her chudamani and sent her off.They came back to the sea and met all the monkeys and all went back to Sugriva.Rama was very happy with the work of Hanuman.Rama reached the beach with the army of monkeys.On the other hand, Vibhishana explained to Ravana that Ravana humiliated Vibhishan from Lanka and removed Vibhishan from Lanka.Vibhishana came under the shelter of Rama and Rama declared him the king of Lanka.Rama requested to give way from the sea.Rama was angry at not accepting the request and fearful of his anger, the sea came and gave a solution to build a bridge by Nal and Neel after pleading for Ram.By order of the brothers of apes Jambavan tap-Nile bridge on the sea with the help of the army tied up.Shri Rama established Shri Rameshwar and worshiped Lord Shankar and came across the sea with the army.Rama camped across the sea.The news of the bridge being tied and the news of Rama crossed the sea, Ravana became very distraught in the mind.Ravana's ego did not go even after convincing Mandodari not to take hatred from Rama.Here Rama started residing on the Subel Mountains with his Vanarsena.Angad went to Ravana in Lanka after becoming a messenger of Rama and gave him a message to come to Ram's shelter, but Ravana did not agree.The war started when all the efforts of peace failed.There was a fierce battle between Laxman and Meghnad.Laxman became unconscious due to the power of Shaktibana.For his treatment, Hanuman brought Sushen Vaidya and went to bring Sanjeevani.On receiving the news from the detective, Ravana sent Kalnemi to obstruct Hanuman's work, which Hanuman killed.Due to the lack of identity of the medicine, Hanuman picked up the entire mountain and went back.In the context of Hanuman being a demon on the way, Bharata unconscious by hitting the arrow, but after knowing the reality, he sat on his arrow and sent it back to Lanka.Seeing the delay in the arrival of medicine here, Ram started to prepared.At the right time, Hanuman came with the medicine and Laxman became healthy due to the treatment of Sushen.Ravana awakened Kumbhakarna for war.Kumbhakarna also gave Ravana unsuccessful mantra to go to the shelter of Rama.In the war, Kumbhakarna attained the ultimate conclusion at the hands of Rama.Laxman fought Meghnad and killed him.There was a lot of fierce battle between Rama and Ravana and finally Ravana was killed by Rama.Handing the kingdom of Lanka to Vibhishana, along with Rama, Sita and Lakshmana climbed on Pushpakaviman and departed for Ayodhya.Uttarakand is the epilogue of Ram Katha.Rama returned to Ayodhya with Sita, Lakshmana and all Vanarsena.Rama received a grand reception, joy spread among the people with Bharata.Ram's coronation took place with the praise of Vedas and Shiva.The farewell to the practitioners was given.Rama preached to the subjects and the subjects expressed gratitude.The four brothers had two sons. | {
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2512
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"text": [
"Laxman."
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1246 | लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप! " वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है। लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था। लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है। लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया – उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। | मार्सिया, युद्ध में किसकी शहादत का वर्णन करता था? | {
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} | Marcia described whose martyrdom in the war? | Lucknow is cherished with great beauty with its inherited culture with modern lifestyle.The culture of Lucknow, which is counted in the best cities of India, has a high class courtesy and love with the warmth of emotions.Since the time of the Nawabs in the society of Lucknow, the style of "first you!"Although selfishly narrated the modern style footsteps, but still a part of the population of the city is handling this Tehzeeb.This Tehzeeb here binds people of two huge religions to a similar culture.This culture has been going on since the time of the Nawabs here.Lucknowi paan is an integral part of the culture here.Without this, Lucknow seems incomplete.Both Hindi and Urdu are spoken in Lucknow, but Urdu has gained special importance here for centuries.When Delhi was in danger, many poets moved to Lucknow.Then there were two hideouts of Urdu poetry- Dehli and Lucknow.While Dehli became the center of Sufi Shayari, Lucknow became the intention of Ghazal Vilasita and Ishq-Mush.For example, during the time of Nawabs, Urdu flourished and emerged as a folding language of India.There are many Hindu poets and Muslim poets here, such as Brijnarayan Chakbast, Khwaja Haider Ali Atish, Vinay Kumar Saroj, Aamir Mein, Mirza Hadi Ruswa, Nasikh, Dayashankar Kaul Nasim, Musafi, Insha, Safi Lakhanvi and Mir Taki "Mir" toIt is famous, who has brought Urdu poetry and Lucknowi language to new heights.Lucknow is one of the great cities of the world for Shia culture.Mir Anees and Mirza Dabir have been famous for the Murcia style in Urdu Shia prose.Murcia reflects martyrdom in the battle of Imam Hussain in the battle of Karbala, which is sung on the occasion of Muharram.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, accused in the Kakori incident, hanged in Kakori by the British government, was greatly influenced by Urdu poetry, and Bismil wrote with the surname.Many nearby towns such as Kakori, Daryabad, Barabanki, Rudauli and Malihabad have given birth to many Urdu poets.Some of these are Mohsin Kakorvi, Majaz, Khumar Barabankvi and Josh Malihabadi.Recently, a novel was released on this subject on the 150th anniversary of the first Indian freedom struggle of 1857 in 2007.On this subject, the first English novel was written by a resident of ReckleSitration, a Lucknow.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, who was hanged in Kakori, was written by Bismil nickname, accused in Kakori incident of Lucknow district.The famous Indian dance Kathak found his form here.Wajid Ali Shah, the last Nawab of Awadh, was a great knowledgeer and lover of Kathak.Lachhu Maharaj, Achchan Maharaj, Shambhu Maharaj and Birju Maharaj have kept this tradition alive.Lucknow has also been the city of famous ghazal singer Begum Akhtar.She was a pioneer in ghazal singing and brought this style to new heights.Aye Mohabbat Tere Aarna Pe Rona Aaya - is one of his best ghazals. | {
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1247 | लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप! " वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है। लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था। लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है। लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया – उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। | उर्दू कविता के दो केंद्रो का क्या नाम था? | {
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"देहली और लखनऊ"
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813
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} | What was the name of the two centres of Urdu poetry? | Lucknow is cherished with great beauty with its inherited culture with modern lifestyle.The culture of Lucknow, which is counted in the best cities of India, has a high class courtesy and love with the warmth of emotions.Since the time of the Nawabs in the society of Lucknow, the style of "first you!"Although selfishly narrated the modern style footsteps, but still a part of the population of the city is handling this Tehzeeb.This Tehzeeb here binds people of two huge religions to a similar culture.This culture has been going on since the time of the Nawabs here.Lucknowi paan is an integral part of the culture here.Without this, Lucknow seems incomplete.Both Hindi and Urdu are spoken in Lucknow, but Urdu has gained special importance here for centuries.When Delhi was in danger, many poets moved to Lucknow.Then there were two hideouts of Urdu poetry- Dehli and Lucknow.While Dehli became the center of Sufi Shayari, Lucknow became the intention of Ghazal Vilasita and Ishq-Mush.For example, during the time of Nawabs, Urdu flourished and emerged as a folding language of India.There are many Hindu poets and Muslim poets here, such as Brijnarayan Chakbast, Khwaja Haider Ali Atish, Vinay Kumar Saroj, Aamir Mein, Mirza Hadi Ruswa, Nasikh, Dayashankar Kaul Nasim, Musafi, Insha, Safi Lakhanvi and Mir Taki "Mir" toIt is famous, who has brought Urdu poetry and Lucknowi language to new heights.Lucknow is one of the great cities of the world for Shia culture.Mir Anees and Mirza Dabir have been famous for the Murcia style in Urdu Shia prose.Murcia reflects martyrdom in the battle of Imam Hussain in the battle of Karbala, which is sung on the occasion of Muharram.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, accused in the Kakori incident, hanged in Kakori by the British government, was greatly influenced by Urdu poetry, and Bismil wrote with the surname.Many nearby towns such as Kakori, Daryabad, Barabanki, Rudauli and Malihabad have given birth to many Urdu poets.Some of these are Mohsin Kakorvi, Majaz, Khumar Barabankvi and Josh Malihabadi.Recently, a novel was released on this subject on the 150th anniversary of the first Indian freedom struggle of 1857 in 2007.On this subject, the first English novel was written by a resident of ReckleSitration, a Lucknow.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, who was hanged in Kakori, was written by Bismil nickname, accused in Kakori incident of Lucknow district.The famous Indian dance Kathak found his form here.Wajid Ali Shah, the last Nawab of Awadh, was a great knowledgeer and lover of Kathak.Lachhu Maharaj, Achchan Maharaj, Shambhu Maharaj and Birju Maharaj have kept this tradition alive.Lucknow has also been the city of famous ghazal singer Begum Akhtar.She was a pioneer in ghazal singing and brought this style to new heights.Aye Mohabbat Tere Aarna Pe Rona Aaya - is one of his best ghazals. | {
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813
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"Delhi and Lucknow."
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1248 | लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप! " वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है। लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था। लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है। लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया – उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। | काकोरी प्रकरण के आरोपी कौन थे? | {
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"राम प्रसाद बिस्मिल"
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1599
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} | Who were the accused in the Kakori case? | Lucknow is cherished with great beauty with its inherited culture with modern lifestyle.The culture of Lucknow, which is counted in the best cities of India, has a high class courtesy and love with the warmth of emotions.Since the time of the Nawabs in the society of Lucknow, the style of "first you!"Although selfishly narrated the modern style footsteps, but still a part of the population of the city is handling this Tehzeeb.This Tehzeeb here binds people of two huge religions to a similar culture.This culture has been going on since the time of the Nawabs here.Lucknowi paan is an integral part of the culture here.Without this, Lucknow seems incomplete.Both Hindi and Urdu are spoken in Lucknow, but Urdu has gained special importance here for centuries.When Delhi was in danger, many poets moved to Lucknow.Then there were two hideouts of Urdu poetry- Dehli and Lucknow.While Dehli became the center of Sufi Shayari, Lucknow became the intention of Ghazal Vilasita and Ishq-Mush.For example, during the time of Nawabs, Urdu flourished and emerged as a folding language of India.There are many Hindu poets and Muslim poets here, such as Brijnarayan Chakbast, Khwaja Haider Ali Atish, Vinay Kumar Saroj, Aamir Mein, Mirza Hadi Ruswa, Nasikh, Dayashankar Kaul Nasim, Musafi, Insha, Safi Lakhanvi and Mir Taki "Mir" toIt is famous, who has brought Urdu poetry and Lucknowi language to new heights.Lucknow is one of the great cities of the world for Shia culture.Mir Anees and Mirza Dabir have been famous for the Murcia style in Urdu Shia prose.Murcia reflects martyrdom in the battle of Imam Hussain in the battle of Karbala, which is sung on the occasion of Muharram.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, accused in the Kakori incident, hanged in Kakori by the British government, was greatly influenced by Urdu poetry, and Bismil wrote with the surname.Many nearby towns such as Kakori, Daryabad, Barabanki, Rudauli and Malihabad have given birth to many Urdu poets.Some of these are Mohsin Kakorvi, Majaz, Khumar Barabankvi and Josh Malihabadi.Recently, a novel was released on this subject on the 150th anniversary of the first Indian freedom struggle of 1857 in 2007.On this subject, the first English novel was written by a resident of ReckleSitration, a Lucknow.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, who was hanged in Kakori, was written by Bismil nickname, accused in Kakori incident of Lucknow district.The famous Indian dance Kathak found his form here.Wajid Ali Shah, the last Nawab of Awadh, was a great knowledgeer and lover of Kathak.Lachhu Maharaj, Achchan Maharaj, Shambhu Maharaj and Birju Maharaj have kept this tradition alive.Lucknow has also been the city of famous ghazal singer Begum Akhtar.She was a pioneer in ghazal singing and brought this style to new heights.Aye Mohabbat Tere Aarna Pe Rona Aaya - is one of his best ghazals. | {
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1599
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"text": [
"Ram Prasad Bismil"
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1249 | लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप! " वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है। लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था। लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है। लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया – उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। | लखनऊ में कौन सी भाषा बोली जाती है? | {
"text": [
"हिन्दी एवं उर्दू"
],
"answer_start": [
617
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} | Which language is spoken in Lucknow? | Lucknow is cherished with great beauty with its inherited culture with modern lifestyle.The culture of Lucknow, which is counted in the best cities of India, has a high class courtesy and love with the warmth of emotions.Since the time of the Nawabs in the society of Lucknow, the style of "first you!"Although selfishly narrated the modern style footsteps, but still a part of the population of the city is handling this Tehzeeb.This Tehzeeb here binds people of two huge religions to a similar culture.This culture has been going on since the time of the Nawabs here.Lucknowi paan is an integral part of the culture here.Without this, Lucknow seems incomplete.Both Hindi and Urdu are spoken in Lucknow, but Urdu has gained special importance here for centuries.When Delhi was in danger, many poets moved to Lucknow.Then there were two hideouts of Urdu poetry- Dehli and Lucknow.While Dehli became the center of Sufi Shayari, Lucknow became the intention of Ghazal Vilasita and Ishq-Mush.For example, during the time of Nawabs, Urdu flourished and emerged as a folding language of India.There are many Hindu poets and Muslim poets here, such as Brijnarayan Chakbast, Khwaja Haider Ali Atish, Vinay Kumar Saroj, Aamir Mein, Mirza Hadi Ruswa, Nasikh, Dayashankar Kaul Nasim, Musafi, Insha, Safi Lakhanvi and Mir Taki "Mir" toIt is famous, who has brought Urdu poetry and Lucknowi language to new heights.Lucknow is one of the great cities of the world for Shia culture.Mir Anees and Mirza Dabir have been famous for the Murcia style in Urdu Shia prose.Murcia reflects martyrdom in the battle of Imam Hussain in the battle of Karbala, which is sung on the occasion of Muharram.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, accused in the Kakori incident, hanged in Kakori by the British government, was greatly influenced by Urdu poetry, and Bismil wrote with the surname.Many nearby towns such as Kakori, Daryabad, Barabanki, Rudauli and Malihabad have given birth to many Urdu poets.Some of these are Mohsin Kakorvi, Majaz, Khumar Barabankvi and Josh Malihabadi.Recently, a novel was released on this subject on the 150th anniversary of the first Indian freedom struggle of 1857 in 2007.On this subject, the first English novel was written by a resident of ReckleSitration, a Lucknow.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, who was hanged in Kakori, was written by Bismil nickname, accused in Kakori incident of Lucknow district.The famous Indian dance Kathak found his form here.Wajid Ali Shah, the last Nawab of Awadh, was a great knowledgeer and lover of Kathak.Lachhu Maharaj, Achchan Maharaj, Shambhu Maharaj and Birju Maharaj have kept this tradition alive.Lucknow has also been the city of famous ghazal singer Begum Akhtar.She was a pioneer in ghazal singing and brought this style to new heights.Aye Mohabbat Tere Aarna Pe Rona Aaya - is one of his best ghazals. | {
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617
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"text": [
"Hindi and Urdu."
]
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1250 | लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप! " वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है। लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था। लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है। लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया – उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। | उर्दू कविता के कितने केंद्र थे? | {
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"दो"
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} | How many centres of Urdu poetry were there? | Lucknow is cherished with great beauty with its inherited culture with modern lifestyle.The culture of Lucknow, which is counted in the best cities of India, has a high class courtesy and love with the warmth of emotions.Since the time of the Nawabs in the society of Lucknow, the style of "first you!"Although selfishly narrated the modern style footsteps, but still a part of the population of the city is handling this Tehzeeb.This Tehzeeb here binds people of two huge religions to a similar culture.This culture has been going on since the time of the Nawabs here.Lucknowi paan is an integral part of the culture here.Without this, Lucknow seems incomplete.Both Hindi and Urdu are spoken in Lucknow, but Urdu has gained special importance here for centuries.When Delhi was in danger, many poets moved to Lucknow.Then there were two hideouts of Urdu poetry- Dehli and Lucknow.While Dehli became the center of Sufi Shayari, Lucknow became the intention of Ghazal Vilasita and Ishq-Mush.For example, during the time of Nawabs, Urdu flourished and emerged as a folding language of India.There are many Hindu poets and Muslim poets here, such as Brijnarayan Chakbast, Khwaja Haider Ali Atish, Vinay Kumar Saroj, Aamir Mein, Mirza Hadi Ruswa, Nasikh, Dayashankar Kaul Nasim, Musafi, Insha, Safi Lakhanvi and Mir Taki "Mir" toIt is famous, who has brought Urdu poetry and Lucknowi language to new heights.Lucknow is one of the great cities of the world for Shia culture.Mir Anees and Mirza Dabir have been famous for the Murcia style in Urdu Shia prose.Murcia reflects martyrdom in the battle of Imam Hussain in the battle of Karbala, which is sung on the occasion of Muharram.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, accused in the Kakori incident, hanged in Kakori by the British government, was greatly influenced by Urdu poetry, and Bismil wrote with the surname.Many nearby towns such as Kakori, Daryabad, Barabanki, Rudauli and Malihabad have given birth to many Urdu poets.Some of these are Mohsin Kakorvi, Majaz, Khumar Barabankvi and Josh Malihabadi.Recently, a novel was released on this subject on the 150th anniversary of the first Indian freedom struggle of 1857 in 2007.On this subject, the first English novel was written by a resident of ReckleSitration, a Lucknow.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, who was hanged in Kakori, was written by Bismil nickname, accused in Kakori incident of Lucknow district.The famous Indian dance Kathak found his form here.Wajid Ali Shah, the last Nawab of Awadh, was a great knowledgeer and lover of Kathak.Lachhu Maharaj, Achchan Maharaj, Shambhu Maharaj and Birju Maharaj have kept this tradition alive.Lucknow has also been the city of famous ghazal singer Begum Akhtar.She was a pioneer in ghazal singing and brought this style to new heights.Aye Mohabbat Tere Aarna Pe Rona Aaya - is one of his best ghazals. | {
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427
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"Two"
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1251 | लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप! " वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है। लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था। लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है। लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया – उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। | भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय किस शहर में स्थित है ? | {
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""
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null
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} | Bhatkhande Music University is located in which city? | Lucknow is cherished with great beauty with its inherited culture with modern lifestyle.The culture of Lucknow, which is counted in the best cities of India, has a high class courtesy and love with the warmth of emotions.Since the time of the Nawabs in the society of Lucknow, the style of "first you!"Although selfishly narrated the modern style footsteps, but still a part of the population of the city is handling this Tehzeeb.This Tehzeeb here binds people of two huge religions to a similar culture.This culture has been going on since the time of the Nawabs here.Lucknowi paan is an integral part of the culture here.Without this, Lucknow seems incomplete.Both Hindi and Urdu are spoken in Lucknow, but Urdu has gained special importance here for centuries.When Delhi was in danger, many poets moved to Lucknow.Then there were two hideouts of Urdu poetry- Dehli and Lucknow.While Dehli became the center of Sufi Shayari, Lucknow became the intention of Ghazal Vilasita and Ishq-Mush.For example, during the time of Nawabs, Urdu flourished and emerged as a folding language of India.There are many Hindu poets and Muslim poets here, such as Brijnarayan Chakbast, Khwaja Haider Ali Atish, Vinay Kumar Saroj, Aamir Mein, Mirza Hadi Ruswa, Nasikh, Dayashankar Kaul Nasim, Musafi, Insha, Safi Lakhanvi and Mir Taki "Mir" toIt is famous, who has brought Urdu poetry and Lucknowi language to new heights.Lucknow is one of the great cities of the world for Shia culture.Mir Anees and Mirza Dabir have been famous for the Murcia style in Urdu Shia prose.Murcia reflects martyrdom in the battle of Imam Hussain in the battle of Karbala, which is sung on the occasion of Muharram.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, accused in the Kakori incident, hanged in Kakori by the British government, was greatly influenced by Urdu poetry, and Bismil wrote with the surname.Many nearby towns such as Kakori, Daryabad, Barabanki, Rudauli and Malihabad have given birth to many Urdu poets.Some of these are Mohsin Kakorvi, Majaz, Khumar Barabankvi and Josh Malihabadi.Recently, a novel was released on this subject on the 150th anniversary of the first Indian freedom struggle of 1857 in 2007.On this subject, the first English novel was written by a resident of ReckleSitration, a Lucknow.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, who was hanged in Kakori, was written by Bismil nickname, accused in Kakori incident of Lucknow district.The famous Indian dance Kathak found his form here.Wajid Ali Shah, the last Nawab of Awadh, was a great knowledgeer and lover of Kathak.Lachhu Maharaj, Achchan Maharaj, Shambhu Maharaj and Birju Maharaj have kept this tradition alive.Lucknow has also been the city of famous ghazal singer Begum Akhtar.She was a pioneer in ghazal singing and brought this style to new heights.Aye Mohabbat Tere Aarna Pe Rona Aaya - is one of his best ghazals. | {
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1252 | लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप! " वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है। लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था। लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है। लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया – उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। | भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय का नाम किसके नाम पर रखा गया है ? | {
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} | Bhatkhande Music University is named after whom? | Lucknow is cherished with great beauty with its inherited culture with modern lifestyle.The culture of Lucknow, which is counted in the best cities of India, has a high class courtesy and love with the warmth of emotions.Since the time of the Nawabs in the society of Lucknow, the style of "first you!"Although selfishly narrated the modern style footsteps, but still a part of the population of the city is handling this Tehzeeb.This Tehzeeb here binds people of two huge religions to a similar culture.This culture has been going on since the time of the Nawabs here.Lucknowi paan is an integral part of the culture here.Without this, Lucknow seems incomplete.Both Hindi and Urdu are spoken in Lucknow, but Urdu has gained special importance here for centuries.When Delhi was in danger, many poets moved to Lucknow.Then there were two hideouts of Urdu poetry- Dehli and Lucknow.While Dehli became the center of Sufi Shayari, Lucknow became the intention of Ghazal Vilasita and Ishq-Mush.For example, during the time of Nawabs, Urdu flourished and emerged as a folding language of India.There are many Hindu poets and Muslim poets here, such as Brijnarayan Chakbast, Khwaja Haider Ali Atish, Vinay Kumar Saroj, Aamir Mein, Mirza Hadi Ruswa, Nasikh, Dayashankar Kaul Nasim, Musafi, Insha, Safi Lakhanvi and Mir Taki "Mir" toIt is famous, who has brought Urdu poetry and Lucknowi language to new heights.Lucknow is one of the great cities of the world for Shia culture.Mir Anees and Mirza Dabir have been famous for the Murcia style in Urdu Shia prose.Murcia reflects martyrdom in the battle of Imam Hussain in the battle of Karbala, which is sung on the occasion of Muharram.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, accused in the Kakori incident, hanged in Kakori by the British government, was greatly influenced by Urdu poetry, and Bismil wrote with the surname.Many nearby towns such as Kakori, Daryabad, Barabanki, Rudauli and Malihabad have given birth to many Urdu poets.Some of these are Mohsin Kakorvi, Majaz, Khumar Barabankvi and Josh Malihabadi.Recently, a novel was released on this subject on the 150th anniversary of the first Indian freedom struggle of 1857 in 2007.On this subject, the first English novel was written by a resident of ReckleSitration, a Lucknow.Famous freedom fighter Ram Prasad Bismil, who was hanged in Kakori, was written by Bismil nickname, accused in Kakori incident of Lucknow district.The famous Indian dance Kathak found his form here.Wajid Ali Shah, the last Nawab of Awadh, was a great knowledgeer and lover of Kathak.Lachhu Maharaj, Achchan Maharaj, Shambhu Maharaj and Birju Maharaj have kept this tradition alive.Lucknow has also been the city of famous ghazal singer Begum Akhtar.She was a pioneer in ghazal singing and brought this style to new heights.Aye Mohabbat Tere Aarna Pe Rona Aaya - is one of his best ghazals. | {
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} |
1253 | लखनऊ उत्तरी भारत का एक प्रमुख बाजार एवं वाणिज्यिक नगर ही नहीं, बल्कि उत्पाद एवं सेवाओं का उभरता हुआ केन्द्र भी बनता जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी होने के कारण यहां सरकारी विभाग एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बहुत हैं। यहां के अधिकांश मध्यम-वर्गीय वेतनभोगी इन्हीं विभागों एवं उपक्रमों में नियुक्त हैं। सरकार की उदारीकरण नीति के चलते यहां व्यवसाय एवं नौकरियों तथा स्व-रोजगारियों के लिए बहुत से अवसर खुल गये हैं। इस कारण यहां नौकरी पेशे वालों की संख्या निरंतर बढ़ती रहती है। लखनऊ निकटवर्ती नोएडा एवं गुड़गांव के लिए सूचना प्रौद्योगिकी एवं बीपीओ कंपनियों के लिए श्रमशक्ति भी जुटाता है। यहां के सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लोग बंगलुरु एवं हैदराबाद में भी बहुतायत में मिलते हैं। शहर में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (एसआईडीबीआई) तथा प्रादेशिक औद्योगिक एवं इन्वेस्टमेंट निगम, उत्तर प्रदेश (पिकप) के मुख्यालय भी स्थित हैं। उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम का क्षेत्रीय कार्यालय भी यहीं स्थित है। यहां अन्य व्यावसायिक विकास में उद्यत संस्थानों में कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) एवं एन्टरप्रेन्योर डवलपमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (ईडीआईआई) हैं। लखनऊ में बड़ी उत्पादन इकाइयों में हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड, टाटा मोटर्स, एवरेडी इंडस्ट्रीज़, स्कूटर इंडिया लिमिटेड आते हैं। संसाधित उत्पाद इकाइयों में दुग्ध उत्पादन, इस्पात रोलिंग इकाइयाँ एवं एल पी जी भरण इकाइयाँ आती हैं। शहर की लघु एवं मध्यम-उद्योग इकाइयाँ चिन्हट, ऐशबाग, तालकटोरा एवं अमौसी के औद्योगिक एन्क्लेवों में स्थित हैं। चिन्हट अपने टेराकोटा एवं पोर्सिलेन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है। रियल एस्टेट अर्थव्यवस्था का एक सहसावृद्धि वाला क्षेत्र है। शहर में विभिन्न शॉपिंग मॉल्स, आवासीय परिसर एवं व्यावसायिक परिसर बढ़ते जा रहे हैं। पार्श्वनाथ, डीएलएफ़, ओमैक्स, सहारा, युनिटेक, अंसल एवं ए पी आई जैसे इस क्षेत्र के महाकाय निवेशक यहाँ उपस्थित हैं। लखनऊ की प्रगति दिल्ली, मुंबई, सूरत एवं गाजियाबाद से कहीं कम नहीं है। यहां के उभरते क्षेत्रों में गोमती नगर, हज़रतगंज, एवं कपूरथला आदि प्रमुख हैं। | चिनहट किस उत्पाद के लिए प्रसिद्ध है ? | {
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"टेराकोटा एवं पोर्सिलेन उत्पादों"
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1399
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} | Chinhat is famous for which product? | Lucknow is becoming a major market of northern India and not only commercial cities, but also an emerging center of products and services.Being the capital of the state of Uttar Pradesh, there are many government departments and public sector undertakings.Most of the middle-class salaries here are appointed in these departments and undertakings.Due to the government's liberalization policy, many opportunities have been opened for business and jobs and self-employment here.Due to this, the number of job professionals keeps increasing continuously here.Lucknow also collects manpower for information technology and BPO companies for nearby Noida and Gurgaon.People of the information technology sector here are also found in abundance in Bangalore and Hyderabad.Headquarters of Small Industries Development Bank of India (SIDBI) and Territorial Industrial and Investment Corporation, Uttar Pradesh (Pickup) are also located in the city.The regional office of Uttar Pradesh State Industrial Development Corporation is also located here.The Confederation of Indian Industry (CII) and Enterprise Development Institute of India (EDII) are among other institutions in other commercial development here.Lucknow produced large production units include Hindustan Aeronautics Limited, Tata Motors, Averedi Industries, Scooter India Limited.Processed product units include milk production, steel rolling units and LPG Bharan Units.The city's small and medium-industry units are located in the industrial enclaves of Aishbagh, Talkatora and Amausi.The identification is famous for its terracotta and porcelain products.The real estate is a military area of the economy.Various shopping malls, residential premises and commercial complexes are increasing in the city.Mahakaya investors of this region like Parshwanath, DLF, Omax, Sahara, Unitech, Ansal and API are present here.The progress of Lucknow is nothing less than Delhi, Mumbai, Surat and Ghaziabad.Gomti Nagar, Hazratganj, and Kapurthala etc. are prominent among the emerging areas here. | {
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1399
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"text": [
"Terracotta and Porcelain Products"
]
} |
1254 | लखनऊ उत्तरी भारत का एक प्रमुख बाजार एवं वाणिज्यिक नगर ही नहीं, बल्कि उत्पाद एवं सेवाओं का उभरता हुआ केन्द्र भी बनता जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी होने के कारण यहां सरकारी विभाग एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बहुत हैं। यहां के अधिकांश मध्यम-वर्गीय वेतनभोगी इन्हीं विभागों एवं उपक्रमों में नियुक्त हैं। सरकार की उदारीकरण नीति के चलते यहां व्यवसाय एवं नौकरियों तथा स्व-रोजगारियों के लिए बहुत से अवसर खुल गये हैं। इस कारण यहां नौकरी पेशे वालों की संख्या निरंतर बढ़ती रहती है। लखनऊ निकटवर्ती नोएडा एवं गुड़गांव के लिए सूचना प्रौद्योगिकी एवं बीपीओ कंपनियों के लिए श्रमशक्ति भी जुटाता है। यहां के सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लोग बंगलुरु एवं हैदराबाद में भी बहुतायत में मिलते हैं। शहर में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (एसआईडीबीआई) तथा प्रादेशिक औद्योगिक एवं इन्वेस्टमेंट निगम, उत्तर प्रदेश (पिकप) के मुख्यालय भी स्थित हैं। उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम का क्षेत्रीय कार्यालय भी यहीं स्थित है। यहां अन्य व्यावसायिक विकास में उद्यत संस्थानों में कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) एवं एन्टरप्रेन्योर डवलपमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (ईडीआईआई) हैं। लखनऊ में बड़ी उत्पादन इकाइयों में हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड, टाटा मोटर्स, एवरेडी इंडस्ट्रीज़, स्कूटर इंडिया लिमिटेड आते हैं। संसाधित उत्पाद इकाइयों में दुग्ध उत्पादन, इस्पात रोलिंग इकाइयाँ एवं एल पी जी भरण इकाइयाँ आती हैं। शहर की लघु एवं मध्यम-उद्योग इकाइयाँ चिन्हट, ऐशबाग, तालकटोरा एवं अमौसी के औद्योगिक एन्क्लेवों में स्थित हैं। चिन्हट अपने टेराकोटा एवं पोर्सिलेन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है। रियल एस्टेट अर्थव्यवस्था का एक सहसावृद्धि वाला क्षेत्र है। शहर में विभिन्न शॉपिंग मॉल्स, आवासीय परिसर एवं व्यावसायिक परिसर बढ़ते जा रहे हैं। पार्श्वनाथ, डीएलएफ़, ओमैक्स, सहारा, युनिटेक, अंसल एवं ए पी आई जैसे इस क्षेत्र के महाकाय निवेशक यहाँ उपस्थित हैं। लखनऊ की प्रगति दिल्ली, मुंबई, सूरत एवं गाजियाबाद से कहीं कम नहीं है। यहां के उभरते क्षेत्रों में गोमती नगर, हज़रतगंज, एवं कपूरथला आदि प्रमुख हैं। | भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) का मुख्यालय कहाँ है ? | {
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"लखनऊ"
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} | Where is the headquarters of Small Industries Development Bank of India (SIDBI)? | Lucknow is becoming a major market of northern India and not only commercial cities, but also an emerging center of products and services.Being the capital of the state of Uttar Pradesh, there are many government departments and public sector undertakings.Most of the middle-class salaries here are appointed in these departments and undertakings.Due to the government's liberalization policy, many opportunities have been opened for business and jobs and self-employment here.Due to this, the number of job professionals keeps increasing continuously here.Lucknow also collects manpower for information technology and BPO companies for nearby Noida and Gurgaon.People of the information technology sector here are also found in abundance in Bangalore and Hyderabad.Headquarters of Small Industries Development Bank of India (SIDBI) and Territorial Industrial and Investment Corporation, Uttar Pradesh (Pickup) are also located in the city.The regional office of Uttar Pradesh State Industrial Development Corporation is also located here.The Confederation of Indian Industry (CII) and Enterprise Development Institute of India (EDII) are among other institutions in other commercial development here.Lucknow produced large production units include Hindustan Aeronautics Limited, Tata Motors, Averedi Industries, Scooter India Limited.Processed product units include milk production, steel rolling units and LPG Bharan Units.The city's small and medium-industry units are located in the industrial enclaves of Aishbagh, Talkatora and Amausi.The identification is famous for its terracotta and porcelain products.The real estate is a military area of the economy.Various shopping malls, residential premises and commercial complexes are increasing in the city.Mahakaya investors of this region like Parshwanath, DLF, Omax, Sahara, Unitech, Ansal and API are present here.The progress of Lucknow is nothing less than Delhi, Mumbai, Surat and Ghaziabad.Gomti Nagar, Hazratganj, and Kapurthala etc. are prominent among the emerging areas here. | {
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"Lucknow"
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} |
1255 | लखनऊ उत्तरी भारत का एक प्रमुख बाजार एवं वाणिज्यिक नगर ही नहीं, बल्कि उत्पाद एवं सेवाओं का उभरता हुआ केन्द्र भी बनता जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी होने के कारण यहां सरकारी विभाग एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बहुत हैं। यहां के अधिकांश मध्यम-वर्गीय वेतनभोगी इन्हीं विभागों एवं उपक्रमों में नियुक्त हैं। सरकार की उदारीकरण नीति के चलते यहां व्यवसाय एवं नौकरियों तथा स्व-रोजगारियों के लिए बहुत से अवसर खुल गये हैं। इस कारण यहां नौकरी पेशे वालों की संख्या निरंतर बढ़ती रहती है। लखनऊ निकटवर्ती नोएडा एवं गुड़गांव के लिए सूचना प्रौद्योगिकी एवं बीपीओ कंपनियों के लिए श्रमशक्ति भी जुटाता है। यहां के सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लोग बंगलुरु एवं हैदराबाद में भी बहुतायत में मिलते हैं। शहर में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (एसआईडीबीआई) तथा प्रादेशिक औद्योगिक एवं इन्वेस्टमेंट निगम, उत्तर प्रदेश (पिकप) के मुख्यालय भी स्थित हैं। उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम का क्षेत्रीय कार्यालय भी यहीं स्थित है। यहां अन्य व्यावसायिक विकास में उद्यत संस्थानों में कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) एवं एन्टरप्रेन्योर डवलपमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (ईडीआईआई) हैं। लखनऊ में बड़ी उत्पादन इकाइयों में हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड, टाटा मोटर्स, एवरेडी इंडस्ट्रीज़, स्कूटर इंडिया लिमिटेड आते हैं। संसाधित उत्पाद इकाइयों में दुग्ध उत्पादन, इस्पात रोलिंग इकाइयाँ एवं एल पी जी भरण इकाइयाँ आती हैं। शहर की लघु एवं मध्यम-उद्योग इकाइयाँ चिन्हट, ऐशबाग, तालकटोरा एवं अमौसी के औद्योगिक एन्क्लेवों में स्थित हैं। चिन्हट अपने टेराकोटा एवं पोर्सिलेन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है। रियल एस्टेट अर्थव्यवस्था का एक सहसावृद्धि वाला क्षेत्र है। शहर में विभिन्न शॉपिंग मॉल्स, आवासीय परिसर एवं व्यावसायिक परिसर बढ़ते जा रहे हैं। पार्श्वनाथ, डीएलएफ़, ओमैक्स, सहारा, युनिटेक, अंसल एवं ए पी आई जैसे इस क्षेत्र के महाकाय निवेशक यहाँ उपस्थित हैं। लखनऊ की प्रगति दिल्ली, मुंबई, सूरत एवं गाजियाबाद से कहीं कम नहीं है। यहां के उभरते क्षेत्रों में गोमती नगर, हज़रतगंज, एवं कपूरथला आदि प्रमुख हैं। | सहारा अस्पताल का निर्माण कितनी मंजिलों तक किया गया है ? | {
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} | Sahara Hospital has been constructed up to how many floors? | Lucknow is becoming a major market of northern India and not only commercial cities, but also an emerging center of products and services.Being the capital of the state of Uttar Pradesh, there are many government departments and public sector undertakings.Most of the middle-class salaries here are appointed in these departments and undertakings.Due to the government's liberalization policy, many opportunities have been opened for business and jobs and self-employment here.Due to this, the number of job professionals keeps increasing continuously here.Lucknow also collects manpower for information technology and BPO companies for nearby Noida and Gurgaon.People of the information technology sector here are also found in abundance in Bangalore and Hyderabad.Headquarters of Small Industries Development Bank of India (SIDBI) and Territorial Industrial and Investment Corporation, Uttar Pradesh (Pickup) are also located in the city.The regional office of Uttar Pradesh State Industrial Development Corporation is also located here.The Confederation of Indian Industry (CII) and Enterprise Development Institute of India (EDII) are among other institutions in other commercial development here.Lucknow produced large production units include Hindustan Aeronautics Limited, Tata Motors, Averedi Industries, Scooter India Limited.Processed product units include milk production, steel rolling units and LPG Bharan Units.The city's small and medium-industry units are located in the industrial enclaves of Aishbagh, Talkatora and Amausi.The identification is famous for its terracotta and porcelain products.The real estate is a military area of the economy.Various shopping malls, residential premises and commercial complexes are increasing in the city.Mahakaya investors of this region like Parshwanath, DLF, Omax, Sahara, Unitech, Ansal and API are present here.The progress of Lucknow is nothing less than Delhi, Mumbai, Surat and Ghaziabad.Gomti Nagar, Hazratganj, and Kapurthala etc. are prominent among the emerging areas here. | {
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1256 | लखनऊ उत्तरी भारत का एक प्रमुख बाजार एवं वाणिज्यिक नगर ही नहीं, बल्कि उत्पाद एवं सेवाओं का उभरता हुआ केन्द्र भी बनता जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी होने के कारण यहां सरकारी विभाग एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बहुत हैं। यहां के अधिकांश मध्यम-वर्गीय वेतनभोगी इन्हीं विभागों एवं उपक्रमों में नियुक्त हैं। सरकार की उदारीकरण नीति के चलते यहां व्यवसाय एवं नौकरियों तथा स्व-रोजगारियों के लिए बहुत से अवसर खुल गये हैं। इस कारण यहां नौकरी पेशे वालों की संख्या निरंतर बढ़ती रहती है। लखनऊ निकटवर्ती नोएडा एवं गुड़गांव के लिए सूचना प्रौद्योगिकी एवं बीपीओ कंपनियों के लिए श्रमशक्ति भी जुटाता है। यहां के सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लोग बंगलुरु एवं हैदराबाद में भी बहुतायत में मिलते हैं। शहर में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (एसआईडीबीआई) तथा प्रादेशिक औद्योगिक एवं इन्वेस्टमेंट निगम, उत्तर प्रदेश (पिकप) के मुख्यालय भी स्थित हैं। उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम का क्षेत्रीय कार्यालय भी यहीं स्थित है। यहां अन्य व्यावसायिक विकास में उद्यत संस्थानों में कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) एवं एन्टरप्रेन्योर डवलपमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (ईडीआईआई) हैं। लखनऊ में बड़ी उत्पादन इकाइयों में हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड, टाटा मोटर्स, एवरेडी इंडस्ट्रीज़, स्कूटर इंडिया लिमिटेड आते हैं। संसाधित उत्पाद इकाइयों में दुग्ध उत्पादन, इस्पात रोलिंग इकाइयाँ एवं एल पी जी भरण इकाइयाँ आती हैं। शहर की लघु एवं मध्यम-उद्योग इकाइयाँ चिन्हट, ऐशबाग, तालकटोरा एवं अमौसी के औद्योगिक एन्क्लेवों में स्थित हैं। चिन्हट अपने टेराकोटा एवं पोर्सिलेन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है। रियल एस्टेट अर्थव्यवस्था का एक सहसावृद्धि वाला क्षेत्र है। शहर में विभिन्न शॉपिंग मॉल्स, आवासीय परिसर एवं व्यावसायिक परिसर बढ़ते जा रहे हैं। पार्श्वनाथ, डीएलएफ़, ओमैक्स, सहारा, युनिटेक, अंसल एवं ए पी आई जैसे इस क्षेत्र के महाकाय निवेशक यहाँ उपस्थित हैं। लखनऊ की प्रगति दिल्ली, मुंबई, सूरत एवं गाजियाबाद से कहीं कम नहीं है। यहां के उभरते क्षेत्रों में गोमती नगर, हज़रतगंज, एवं कपूरथला आदि प्रमुख हैं। | उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी का क्या नाम है ? | {
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"लखनऊ"
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} | What is the name of the capital of Uttar Pradesh state? | Lucknow is becoming a major market of northern India and not only commercial cities, but also an emerging center of products and services.Being the capital of the state of Uttar Pradesh, there are many government departments and public sector undertakings.Most of the middle-class salaries here are appointed in these departments and undertakings.Due to the government's liberalization policy, many opportunities have been opened for business and jobs and self-employment here.Due to this, the number of job professionals keeps increasing continuously here.Lucknow also collects manpower for information technology and BPO companies for nearby Noida and Gurgaon.People of the information technology sector here are also found in abundance in Bangalore and Hyderabad.Headquarters of Small Industries Development Bank of India (SIDBI) and Territorial Industrial and Investment Corporation, Uttar Pradesh (Pickup) are also located in the city.The regional office of Uttar Pradesh State Industrial Development Corporation is also located here.The Confederation of Indian Industry (CII) and Enterprise Development Institute of India (EDII) are among other institutions in other commercial development here.Lucknow produced large production units include Hindustan Aeronautics Limited, Tata Motors, Averedi Industries, Scooter India Limited.Processed product units include milk production, steel rolling units and LPG Bharan Units.The city's small and medium-industry units are located in the industrial enclaves of Aishbagh, Talkatora and Amausi.The identification is famous for its terracotta and porcelain products.The real estate is a military area of the economy.Various shopping malls, residential premises and commercial complexes are increasing in the city.Mahakaya investors of this region like Parshwanath, DLF, Omax, Sahara, Unitech, Ansal and API are present here.The progress of Lucknow is nothing less than Delhi, Mumbai, Surat and Ghaziabad.Gomti Nagar, Hazratganj, and Kapurthala etc. are prominent among the emerging areas here. | {
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"Lucknow"
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} |
1257 | लगभग नवम्बर, +--9-9 में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी। किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं। शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। १४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। | अकबर के संरक्षक का क्या नाम था ? | {
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"बैरम खां"
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} | What was the name of Akbar's patron? | In November, +-9-9, he organized an event in Kabul to start Akbar's education.But the ceremony concluded on the second day when Akbar was lost on one occasion.Mulla Zada Mullah Assamuddin Abraham was appointed as a teacher of Akbar.But Mullah proved to be incompetent.Then this work was first assigned to Maulana Bamjid, but when he did not get success, Maulana Abdul Qadir was assigned this task.But no teacher was successful in educating Akbar.In fact, Akbar was not interested in reading and writing, he was more interested in pigeon bets, horse riding and dog.But he was always interested in earning knowledge.It is said that when he used to go to sleep, a person kept reading something to him.Over time, Akbar emerged as a mature and sensible ruler, who was deeply interested in art, architecture, music and literature.Taking advantage of the chaos arising out of the controversies of the succession of Islam Shah, son of Sher Shah Suri, Humayun again took control of Delhi in 1555.In this, a good part in his army was Persian colleague Tahmasp first.A few months later, at the age of 6, Humayun's accidental demise happened due to falling in a huge intoxication from the ladder of his library.Then Akbar's patron Bairam Khan kept this death hidden in the interest of the empire for some time and prepared Akbar for succession.On February 14, 1557, Akbar's coronation took place.All this happened during the ongoing war with Sikander Shah Suri to return the right to the throne of Delhi from the Mughal Empire.13 -year -old Akbar's Kalanaur, golden cloth in Punjab and a dark turban, was corresponded to a newly constructed platform. | {
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1150
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"Bairam Khan"
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1258 | लगभग नवम्बर, +--9-9 में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी। किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं। शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। १४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। | अकबर को राजा किस वर्ष बनाया गया था? | {
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"१४ फ़रवरी, १५५६"
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} | In which year was Akbar crowned king? | In November, +-9-9, he organized an event in Kabul to start Akbar's education.But the ceremony concluded on the second day when Akbar was lost on one occasion.Mulla Zada Mullah Assamuddin Abraham was appointed as a teacher of Akbar.But Mullah proved to be incompetent.Then this work was first assigned to Maulana Bamjid, but when he did not get success, Maulana Abdul Qadir was assigned this task.But no teacher was successful in educating Akbar.In fact, Akbar was not interested in reading and writing, he was more interested in pigeon bets, horse riding and dog.But he was always interested in earning knowledge.It is said that when he used to go to sleep, a person kept reading something to him.Over time, Akbar emerged as a mature and sensible ruler, who was deeply interested in art, architecture, music and literature.Taking advantage of the chaos arising out of the controversies of the succession of Islam Shah, son of Sher Shah Suri, Humayun again took control of Delhi in 1555.In this, a good part in his army was Persian colleague Tahmasp first.A few months later, at the age of 6, Humayun's accidental demise happened due to falling in a huge intoxication from the ladder of his library.Then Akbar's patron Bairam Khan kept this death hidden in the interest of the empire for some time and prepared Akbar for succession.On February 14, 1557, Akbar's coronation took place.All this happened during the ongoing war with Sikander Shah Suri to return the right to the throne of Delhi from the Mughal Empire.13 -year -old Akbar's Kalanaur, golden cloth in Punjab and a dark turban, was corresponded to a newly constructed platform. | {
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1262
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"February 14, 1556"
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1259 | लगभग नवम्बर, +--9-9 में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी। किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं। शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। १४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। | फारसी में सम्राट को क्या कहा जाता है ? | {
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} | What is the emperor called in Persian? | In November, +-9-9, he organized an event in Kabul to start Akbar's education.But the ceremony concluded on the second day when Akbar was lost on one occasion.Mulla Zada Mullah Assamuddin Abraham was appointed as a teacher of Akbar.But Mullah proved to be incompetent.Then this work was first assigned to Maulana Bamjid, but when he did not get success, Maulana Abdul Qadir was assigned this task.But no teacher was successful in educating Akbar.In fact, Akbar was not interested in reading and writing, he was more interested in pigeon bets, horse riding and dog.But he was always interested in earning knowledge.It is said that when he used to go to sleep, a person kept reading something to him.Over time, Akbar emerged as a mature and sensible ruler, who was deeply interested in art, architecture, music and literature.Taking advantage of the chaos arising out of the controversies of the succession of Islam Shah, son of Sher Shah Suri, Humayun again took control of Delhi in 1555.In this, a good part in his army was Persian colleague Tahmasp first.A few months later, at the age of 6, Humayun's accidental demise happened due to falling in a huge intoxication from the ladder of his library.Then Akbar's patron Bairam Khan kept this death hidden in the interest of the empire for some time and prepared Akbar for succession.On February 14, 1557, Akbar's coronation took place.All this happened during the ongoing war with Sikander Shah Suri to return the right to the throne of Delhi from the Mughal Empire.13 -year -old Akbar's Kalanaur, golden cloth in Punjab and a dark turban, was corresponded to a newly constructed platform. | {
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1260 | लगभग नवम्बर, +--9-9 में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी। किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं। शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। १४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। | अकबर का शिक्षक किसे नियुक्त किया गया था? | {
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"मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम"
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} | Who was appointed as Akbar's tutor? | In November, +-9-9, he organized an event in Kabul to start Akbar's education.But the ceremony concluded on the second day when Akbar was lost on one occasion.Mulla Zada Mullah Assamuddin Abraham was appointed as a teacher of Akbar.But Mullah proved to be incompetent.Then this work was first assigned to Maulana Bamjid, but when he did not get success, Maulana Abdul Qadir was assigned this task.But no teacher was successful in educating Akbar.In fact, Akbar was not interested in reading and writing, he was more interested in pigeon bets, horse riding and dog.But he was always interested in earning knowledge.It is said that when he used to go to sleep, a person kept reading something to him.Over time, Akbar emerged as a mature and sensible ruler, who was deeply interested in art, architecture, music and literature.Taking advantage of the chaos arising out of the controversies of the succession of Islam Shah, son of Sher Shah Suri, Humayun again took control of Delhi in 1555.In this, a good part in his army was Persian colleague Tahmasp first.A few months later, at the age of 6, Humayun's accidental demise happened due to falling in a huge intoxication from the ladder of his library.Then Akbar's patron Bairam Khan kept this death hidden in the interest of the empire for some time and prepared Akbar for succession.On February 14, 1557, Akbar's coronation took place.All this happened during the ongoing war with Sikander Shah Suri to return the right to the throne of Delhi from the Mughal Empire.13 -year -old Akbar's Kalanaur, golden cloth in Punjab and a dark turban, was corresponded to a newly constructed platform. | {
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"Mulla Zada Mulla Asamuddin Abraham"
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1261 | लगभग ६५,००० वर्ष पहले आधुनिक मानव या होमो सेपियन्स अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचे थे। दक्षिण एशिया में ज्ञात मानव का प्राचीनतम अवशेष ३०,००० वर्ष पुराना है। भीमबेटका, मध्य प्रदेश की गुफाएँ भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण हैं। प्रथम स्थाई बस्तियों ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। ६,५०० ईसा पूर्व तक आते आते मनुष्य ने खेती करना, जानवरों को पालना तथा घरों का निर्माण करना शुरू कर दिया था जिसका अवशेष मेहरगढ़ में मिला था जो की पाकिस्तान में है। यह धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुए, जो की दक्षिण एशिया की सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता है। यह २६०० ईसा पूर्व और १९०० ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। यह वर्तमान पश्चिम भारत तथा पाकिस्तान में स्थित है। यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा, और कालीबंगा जैसे शहरों के आसपास केंद्रित थी और विभिन्न प्रकार के निर्वाह पर निर्भर थी, यहाँ व्यापक बाजार था तथा शिल्प उत्पादन होता था। २००० से ५०० ईसा पूर्व तक ताम्र पाषाण युग संस्कृति से लौह युग का आगमन हुआ। इसी युग को हिन्दू धर्म से जुड़े प्राचीनतम धर्म ग्रंथ, वेदों का रचनाकाल माना जाता है तथा पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदानी क्षेत्र को वैदिक संस्कृति का निवास स्थान माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है की इसी युग में उत्तर-पश्चिम से भारतीय-आर्यन का आगमन हुआ था। इसी अवधि में जाति प्रथा भी प्रारंम्भ हुई थी। वैदिक सभ्यता में ईसा पूर्व ६ वीं शताब्दी में गंगा के मैदानी क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम भारत में छोटे-छोटे राज्य तथा उनके प्रमुख मिल कर १६ कुलीन और राजशाही में सम्मिलित हुए जिन्हे महाजनपद के नाम से जाना जाता है। बढ़ते शहरीकरण के बीच दो अन्य स्वतंत्र अ-वैदिक धर्मों का उदय हुआ। महावीर के जीवन काल में जैन धर्म अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित बौद्ध धर्म ने मध्यम वर्ग के अनुयायिओं को छोड़कर अन्य सभी वर्ग के लोगों को आकर्षित किया; इसी काल में भारत का इतिहास लेखन प्रारम्भ हुआ। बढ़ती शहरी सम्पदा के युग में, दोनों धर्मों ने त्याग को एक आदर्श माना, और दोनों ने लंबे समय तक चलने वाली मठ परंपराओं की स्थापना की। राजनीतिक रूप से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक मगध साम्राज्य ने अन्य राज्यों को अपने अंदर मिला कर मौर्य साम्राज्य के रूप में उभरा। मगध ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया लेकिन कुछ अन्य प्रमुख बड़े राज्यों ने इसके प्रमुख क्षेत्रों को अलग कर लिया। मौर्य राजाओं को उनके साम्राज्य की उन्नति के लिए तथा उच्च जीवन सतर के लिए जाना जाता है क्योंकि सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म की स्थापना की तथा शस्त्र मुक्त सेना का निर्माण किया। १८० ईसवी के आरम्भ से मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए। तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का स्वर्णिम काल कहलाया। तमिल के संगम साहित्य के अनुसार ईसा पूर्व २०० से २०० ईस्वी तक दक्षिण प्रायद्वीप पर चेर राजवंश, चोल राजवंश तथा पाण्ड्य राजवंश का शासन था जिन्होंने बड़े सतर पर भारत और रोम के व्यापारिक सम्बन्ध और पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया के साम्राज्यों के साथ व्यापर किया। चौथी-पांचवी शताब्दी के बीच गुप्त साम्राज्य ने वृहद् गंगा के मैदानी क्षेत्र में प्रशासन तथा कर निर्धारण की एक जटिल प्रणाली बनाई; यह प्रणाली बाद के भारतीय राज्यों के लिए एक आदर्श बन गई। गुप्त साम्राज्य में भक्ति पर आधारित हिन्दू धर्म का प्रचलन हुई। विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले, जो शास्त्रीय संस्कृत में रचा गया। | भारत का सबसे पुराना हिंदू ग्रंथ कौन सा है? | {
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"वेदों"
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959
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} | Which is the oldest Hindu scripture of India? | About 75,000 years ago, modern human or Homo Sepians arrived in the Indian subcontinent from Africa.The oldest remains of human known in South Asia are 30,000 years old.Bhimbetka, the caves of Madhya Pradesh are the oldest evidence of human life in India.The first permanent settlements took the form 9000 years ago.By 6,500 BC, a man started farming, raising animals and building houses, which was found in Mehargarh which is in Pakistan.It gradually developed as the Indus Valley Civilization, which is the oldest urban civilization in South Asia.It was at its peak between 2600 BC and 1900 BC.It is located in the present West India and Pakistan.It was concentrated around cities such as Mohenjodaro, Harappa, Dholavira, and Kalibanga and depended on various types of subsistence, there was a broad market and craft production.From 2000 to 500 BCE, the Iron Age came from the copper Stone Age culture.The same era is considered to be the composition of the oldest religious scriptures, Vedas associated with Hinduism and the upper plains of Punjab and the Ganges are considered to be the abode of Vedic culture.Some historians believe that Indian-Aryan had arrived in this era from the north-west.Caste system was also started during this period.In the Vedic civilization, in the 7th century BC, the plains of the Ganges and the small states in the north-west India and their heads together joined the 14 elite and monarchy, who are known as Mahajanapada.Between increasing urbanization, two other independent non-Vedic religions emerged.Jainism came into existence during Mahavira's lifetime.Buddhism based on the teachings of Gautama Buddha attracted people of all other classes except middle class followers;The history writing of India started in this period.In the era of growing urban wealth, both religions considered renunciation to be an ideal, and both established long -lasting monastery traditions.Politically the third century BC, the Magadha Empire, mixed with other states inside it and emerged as the Maurya Empire.Magadha established his dominance over India except parts of South India, but some other major big states separated its major areas.The Mauryan kings are known for the progress of their empire and for the high life Satar because Emperor Ashoka established the Buddhist Dhamma and created the weapon -free army.From the beginning of 180 AD, there were several attacks from Central Asia, resulting in the Greek, Saka, Parthi and finally the Kushan dynasty in the North Indian subcontinent.The time ahead of the third century was called the Golden period of India when India was ruled by the Gupta dynasty.According to the confluence literature of Tamil, the South Peninsula was ruled by the Cher Dynasty, Chola Dynasty and Pandya dynasty from 200 to 200 AD, who traded the business relations between India and Rome and with the empires of West and Southeast Asia.Between the fourth-fifth century, the Gupta Empire created a complex system of administration and tax determination in the plains of large Ganges;This system became an ideal for later Indian states.In the Gupta Empire, Hinduism based on devotion was prevalent.Science, art, literature, mathematics, astronomy, ancient technology, religion, and philosophy flourished during the reign of these kings, which was composed in classical Sanskrit. | {
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959
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"Vedas"
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1262 | लगभग ६५,००० वर्ष पहले आधुनिक मानव या होमो सेपियन्स अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचे थे। दक्षिण एशिया में ज्ञात मानव का प्राचीनतम अवशेष ३०,००० वर्ष पुराना है। भीमबेटका, मध्य प्रदेश की गुफाएँ भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण हैं। प्रथम स्थाई बस्तियों ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। ६,५०० ईसा पूर्व तक आते आते मनुष्य ने खेती करना, जानवरों को पालना तथा घरों का निर्माण करना शुरू कर दिया था जिसका अवशेष मेहरगढ़ में मिला था जो की पाकिस्तान में है। यह धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुए, जो की दक्षिण एशिया की सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता है। यह २६०० ईसा पूर्व और १९०० ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। यह वर्तमान पश्चिम भारत तथा पाकिस्तान में स्थित है। यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा, और कालीबंगा जैसे शहरों के आसपास केंद्रित थी और विभिन्न प्रकार के निर्वाह पर निर्भर थी, यहाँ व्यापक बाजार था तथा शिल्प उत्पादन होता था। २००० से ५०० ईसा पूर्व तक ताम्र पाषाण युग संस्कृति से लौह युग का आगमन हुआ। इसी युग को हिन्दू धर्म से जुड़े प्राचीनतम धर्म ग्रंथ, वेदों का रचनाकाल माना जाता है तथा पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदानी क्षेत्र को वैदिक संस्कृति का निवास स्थान माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है की इसी युग में उत्तर-पश्चिम से भारतीय-आर्यन का आगमन हुआ था। इसी अवधि में जाति प्रथा भी प्रारंम्भ हुई थी। वैदिक सभ्यता में ईसा पूर्व ६ वीं शताब्दी में गंगा के मैदानी क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम भारत में छोटे-छोटे राज्य तथा उनके प्रमुख मिल कर १६ कुलीन और राजशाही में सम्मिलित हुए जिन्हे महाजनपद के नाम से जाना जाता है। बढ़ते शहरीकरण के बीच दो अन्य स्वतंत्र अ-वैदिक धर्मों का उदय हुआ। महावीर के जीवन काल में जैन धर्म अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित बौद्ध धर्म ने मध्यम वर्ग के अनुयायिओं को छोड़कर अन्य सभी वर्ग के लोगों को आकर्षित किया; इसी काल में भारत का इतिहास लेखन प्रारम्भ हुआ। बढ़ती शहरी सम्पदा के युग में, दोनों धर्मों ने त्याग को एक आदर्श माना, और दोनों ने लंबे समय तक चलने वाली मठ परंपराओं की स्थापना की। राजनीतिक रूप से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक मगध साम्राज्य ने अन्य राज्यों को अपने अंदर मिला कर मौर्य साम्राज्य के रूप में उभरा। मगध ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया लेकिन कुछ अन्य प्रमुख बड़े राज्यों ने इसके प्रमुख क्षेत्रों को अलग कर लिया। मौर्य राजाओं को उनके साम्राज्य की उन्नति के लिए तथा उच्च जीवन सतर के लिए जाना जाता है क्योंकि सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म की स्थापना की तथा शस्त्र मुक्त सेना का निर्माण किया। १८० ईसवी के आरम्भ से मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए। तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का स्वर्णिम काल कहलाया। तमिल के संगम साहित्य के अनुसार ईसा पूर्व २०० से २०० ईस्वी तक दक्षिण प्रायद्वीप पर चेर राजवंश, चोल राजवंश तथा पाण्ड्य राजवंश का शासन था जिन्होंने बड़े सतर पर भारत और रोम के व्यापारिक सम्बन्ध और पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया के साम्राज्यों के साथ व्यापर किया। चौथी-पांचवी शताब्दी के बीच गुप्त साम्राज्य ने वृहद् गंगा के मैदानी क्षेत्र में प्रशासन तथा कर निर्धारण की एक जटिल प्रणाली बनाई; यह प्रणाली बाद के भारतीय राज्यों के लिए एक आदर्श बन गई। गुप्त साम्राज्य में भक्ति पर आधारित हिन्दू धर्म का प्रचलन हुई। विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले, जो शास्त्रीय संस्कृत में रचा गया। | मौर्य साम्राज्य में किस शासक द्वारा बौद्ध धर्म की शुरुआत की गई थी ? | {
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"सम्राट अशोक"
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2207
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} | Buddhism was introduced to the Mauryan Empire by which ruler? | About 75,000 years ago, modern human or Homo Sepians arrived in the Indian subcontinent from Africa.The oldest remains of human known in South Asia are 30,000 years old.Bhimbetka, the caves of Madhya Pradesh are the oldest evidence of human life in India.The first permanent settlements took the form 9000 years ago.By 6,500 BC, a man started farming, raising animals and building houses, which was found in Mehargarh which is in Pakistan.It gradually developed as the Indus Valley Civilization, which is the oldest urban civilization in South Asia.It was at its peak between 2600 BC and 1900 BC.It is located in the present West India and Pakistan.It was concentrated around cities such as Mohenjodaro, Harappa, Dholavira, and Kalibanga and depended on various types of subsistence, there was a broad market and craft production.From 2000 to 500 BCE, the Iron Age came from the copper Stone Age culture.The same era is considered to be the composition of the oldest religious scriptures, Vedas associated with Hinduism and the upper plains of Punjab and the Ganges are considered to be the abode of Vedic culture.Some historians believe that Indian-Aryan had arrived in this era from the north-west.Caste system was also started during this period.In the Vedic civilization, in the 7th century BC, the plains of the Ganges and the small states in the north-west India and their heads together joined the 14 elite and monarchy, who are known as Mahajanapada.Between increasing urbanization, two other independent non-Vedic religions emerged.Jainism came into existence during Mahavira's lifetime.Buddhism based on the teachings of Gautama Buddha attracted people of all other classes except middle class followers;The history writing of India started in this period.In the era of growing urban wealth, both religions considered renunciation to be an ideal, and both established long -lasting monastery traditions.Politically the third century BC, the Magadha Empire, mixed with other states inside it and emerged as the Maurya Empire.Magadha established his dominance over India except parts of South India, but some other major big states separated its major areas.The Mauryan kings are known for the progress of their empire and for the high life Satar because Emperor Ashoka established the Buddhist Dhamma and created the weapon -free army.From the beginning of 180 AD, there were several attacks from Central Asia, resulting in the Greek, Saka, Parthi and finally the Kushan dynasty in the North Indian subcontinent.The time ahead of the third century was called the Golden period of India when India was ruled by the Gupta dynasty.According to the confluence literature of Tamil, the South Peninsula was ruled by the Cher Dynasty, Chola Dynasty and Pandya dynasty from 200 to 200 AD, who traded the business relations between India and Rome and with the empires of West and Southeast Asia.Between the fourth-fifth century, the Gupta Empire created a complex system of administration and tax determination in the plains of large Ganges;This system became an ideal for later Indian states.In the Gupta Empire, Hinduism based on devotion was prevalent.Science, art, literature, mathematics, astronomy, ancient technology, religion, and philosophy flourished during the reign of these kings, which was composed in classical Sanskrit. | {
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2207
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"Emperor Ashoka"
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} |
1263 | लगभग ६५,००० वर्ष पहले आधुनिक मानव या होमो सेपियन्स अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचे थे। दक्षिण एशिया में ज्ञात मानव का प्राचीनतम अवशेष ३०,००० वर्ष पुराना है। भीमबेटका, मध्य प्रदेश की गुफाएँ भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण हैं। प्रथम स्थाई बस्तियों ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। ६,५०० ईसा पूर्व तक आते आते मनुष्य ने खेती करना, जानवरों को पालना तथा घरों का निर्माण करना शुरू कर दिया था जिसका अवशेष मेहरगढ़ में मिला था जो की पाकिस्तान में है। यह धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुए, जो की दक्षिण एशिया की सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता है। यह २६०० ईसा पूर्व और १९०० ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। यह वर्तमान पश्चिम भारत तथा पाकिस्तान में स्थित है। यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा, और कालीबंगा जैसे शहरों के आसपास केंद्रित थी और विभिन्न प्रकार के निर्वाह पर निर्भर थी, यहाँ व्यापक बाजार था तथा शिल्प उत्पादन होता था। २००० से ५०० ईसा पूर्व तक ताम्र पाषाण युग संस्कृति से लौह युग का आगमन हुआ। इसी युग को हिन्दू धर्म से जुड़े प्राचीनतम धर्म ग्रंथ, वेदों का रचनाकाल माना जाता है तथा पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदानी क्षेत्र को वैदिक संस्कृति का निवास स्थान माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है की इसी युग में उत्तर-पश्चिम से भारतीय-आर्यन का आगमन हुआ था। इसी अवधि में जाति प्रथा भी प्रारंम्भ हुई थी। वैदिक सभ्यता में ईसा पूर्व ६ वीं शताब्दी में गंगा के मैदानी क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम भारत में छोटे-छोटे राज्य तथा उनके प्रमुख मिल कर १६ कुलीन और राजशाही में सम्मिलित हुए जिन्हे महाजनपद के नाम से जाना जाता है। बढ़ते शहरीकरण के बीच दो अन्य स्वतंत्र अ-वैदिक धर्मों का उदय हुआ। महावीर के जीवन काल में जैन धर्म अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित बौद्ध धर्म ने मध्यम वर्ग के अनुयायिओं को छोड़कर अन्य सभी वर्ग के लोगों को आकर्षित किया; इसी काल में भारत का इतिहास लेखन प्रारम्भ हुआ। बढ़ती शहरी सम्पदा के युग में, दोनों धर्मों ने त्याग को एक आदर्श माना, और दोनों ने लंबे समय तक चलने वाली मठ परंपराओं की स्थापना की। राजनीतिक रूप से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक मगध साम्राज्य ने अन्य राज्यों को अपने अंदर मिला कर मौर्य साम्राज्य के रूप में उभरा। मगध ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया लेकिन कुछ अन्य प्रमुख बड़े राज्यों ने इसके प्रमुख क्षेत्रों को अलग कर लिया। मौर्य राजाओं को उनके साम्राज्य की उन्नति के लिए तथा उच्च जीवन सतर के लिए जाना जाता है क्योंकि सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म की स्थापना की तथा शस्त्र मुक्त सेना का निर्माण किया। १८० ईसवी के आरम्भ से मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए। तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का स्वर्णिम काल कहलाया। तमिल के संगम साहित्य के अनुसार ईसा पूर्व २०० से २०० ईस्वी तक दक्षिण प्रायद्वीप पर चेर राजवंश, चोल राजवंश तथा पाण्ड्य राजवंश का शासन था जिन्होंने बड़े सतर पर भारत और रोम के व्यापारिक सम्बन्ध और पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया के साम्राज्यों के साथ व्यापर किया। चौथी-पांचवी शताब्दी के बीच गुप्त साम्राज्य ने वृहद् गंगा के मैदानी क्षेत्र में प्रशासन तथा कर निर्धारण की एक जटिल प्रणाली बनाई; यह प्रणाली बाद के भारतीय राज्यों के लिए एक आदर्श बन गई। गुप्त साम्राज्य में भक्ति पर आधारित हिन्दू धर्म का प्रचलन हुई। विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले, जो शास्त्रीय संस्कृत में रचा गया। | कन्नोज के राजा हर्ष का गंगा के मैदानी भाग में शासन काल कितने समय तक रहा है ? | {
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""
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"answer_start": [
null
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} | How long has the reign of King Harsha of Kannauj been in the Gangetic plain? | About 75,000 years ago, modern human or Homo Sepians arrived in the Indian subcontinent from Africa.The oldest remains of human known in South Asia are 30,000 years old.Bhimbetka, the caves of Madhya Pradesh are the oldest evidence of human life in India.The first permanent settlements took the form 9000 years ago.By 6,500 BC, a man started farming, raising animals and building houses, which was found in Mehargarh which is in Pakistan.It gradually developed as the Indus Valley Civilization, which is the oldest urban civilization in South Asia.It was at its peak between 2600 BC and 1900 BC.It is located in the present West India and Pakistan.It was concentrated around cities such as Mohenjodaro, Harappa, Dholavira, and Kalibanga and depended on various types of subsistence, there was a broad market and craft production.From 2000 to 500 BCE, the Iron Age came from the copper Stone Age culture.The same era is considered to be the composition of the oldest religious scriptures, Vedas associated with Hinduism and the upper plains of Punjab and the Ganges are considered to be the abode of Vedic culture.Some historians believe that Indian-Aryan had arrived in this era from the north-west.Caste system was also started during this period.In the Vedic civilization, in the 7th century BC, the plains of the Ganges and the small states in the north-west India and their heads together joined the 14 elite and monarchy, who are known as Mahajanapada.Between increasing urbanization, two other independent non-Vedic religions emerged.Jainism came into existence during Mahavira's lifetime.Buddhism based on the teachings of Gautama Buddha attracted people of all other classes except middle class followers;The history writing of India started in this period.In the era of growing urban wealth, both religions considered renunciation to be an ideal, and both established long -lasting monastery traditions.Politically the third century BC, the Magadha Empire, mixed with other states inside it and emerged as the Maurya Empire.Magadha established his dominance over India except parts of South India, but some other major big states separated its major areas.The Mauryan kings are known for the progress of their empire and for the high life Satar because Emperor Ashoka established the Buddhist Dhamma and created the weapon -free army.From the beginning of 180 AD, there were several attacks from Central Asia, resulting in the Greek, Saka, Parthi and finally the Kushan dynasty in the North Indian subcontinent.The time ahead of the third century was called the Golden period of India when India was ruled by the Gupta dynasty.According to the confluence literature of Tamil, the South Peninsula was ruled by the Cher Dynasty, Chola Dynasty and Pandya dynasty from 200 to 200 AD, who traded the business relations between India and Rome and with the empires of West and Southeast Asia.Between the fourth-fifth century, the Gupta Empire created a complex system of administration and tax determination in the plains of large Ganges;This system became an ideal for later Indian states.In the Gupta Empire, Hinduism based on devotion was prevalent.Science, art, literature, mathematics, astronomy, ancient technology, religion, and philosophy flourished during the reign of these kings, which was composed in classical Sanskrit. | {
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1264 | लगभग ६५,००० वर्ष पहले आधुनिक मानव या होमो सेपियन्स अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचे थे। दक्षिण एशिया में ज्ञात मानव का प्राचीनतम अवशेष ३०,००० वर्ष पुराना है। भीमबेटका, मध्य प्रदेश की गुफाएँ भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण हैं। प्रथम स्थाई बस्तियों ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। ६,५०० ईसा पूर्व तक आते आते मनुष्य ने खेती करना, जानवरों को पालना तथा घरों का निर्माण करना शुरू कर दिया था जिसका अवशेष मेहरगढ़ में मिला था जो की पाकिस्तान में है। यह धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुए, जो की दक्षिण एशिया की सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता है। यह २६०० ईसा पूर्व और १९०० ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। यह वर्तमान पश्चिम भारत तथा पाकिस्तान में स्थित है। यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा, और कालीबंगा जैसे शहरों के आसपास केंद्रित थी और विभिन्न प्रकार के निर्वाह पर निर्भर थी, यहाँ व्यापक बाजार था तथा शिल्प उत्पादन होता था। २००० से ५०० ईसा पूर्व तक ताम्र पाषाण युग संस्कृति से लौह युग का आगमन हुआ। इसी युग को हिन्दू धर्म से जुड़े प्राचीनतम धर्म ग्रंथ, वेदों का रचनाकाल माना जाता है तथा पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदानी क्षेत्र को वैदिक संस्कृति का निवास स्थान माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है की इसी युग में उत्तर-पश्चिम से भारतीय-आर्यन का आगमन हुआ था। इसी अवधि में जाति प्रथा भी प्रारंम्भ हुई थी। वैदिक सभ्यता में ईसा पूर्व ६ वीं शताब्दी में गंगा के मैदानी क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम भारत में छोटे-छोटे राज्य तथा उनके प्रमुख मिल कर १६ कुलीन और राजशाही में सम्मिलित हुए जिन्हे महाजनपद के नाम से जाना जाता है। बढ़ते शहरीकरण के बीच दो अन्य स्वतंत्र अ-वैदिक धर्मों का उदय हुआ। महावीर के जीवन काल में जैन धर्म अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित बौद्ध धर्म ने मध्यम वर्ग के अनुयायिओं को छोड़कर अन्य सभी वर्ग के लोगों को आकर्षित किया; इसी काल में भारत का इतिहास लेखन प्रारम्भ हुआ। बढ़ती शहरी सम्पदा के युग में, दोनों धर्मों ने त्याग को एक आदर्श माना, और दोनों ने लंबे समय तक चलने वाली मठ परंपराओं की स्थापना की। राजनीतिक रूप से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक मगध साम्राज्य ने अन्य राज्यों को अपने अंदर मिला कर मौर्य साम्राज्य के रूप में उभरा। मगध ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया लेकिन कुछ अन्य प्रमुख बड़े राज्यों ने इसके प्रमुख क्षेत्रों को अलग कर लिया। मौर्य राजाओं को उनके साम्राज्य की उन्नति के लिए तथा उच्च जीवन सतर के लिए जाना जाता है क्योंकि सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म की स्थापना की तथा शस्त्र मुक्त सेना का निर्माण किया। १८० ईसवी के आरम्भ से मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए। तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का स्वर्णिम काल कहलाया। तमिल के संगम साहित्य के अनुसार ईसा पूर्व २०० से २०० ईस्वी तक दक्षिण प्रायद्वीप पर चेर राजवंश, चोल राजवंश तथा पाण्ड्य राजवंश का शासन था जिन्होंने बड़े सतर पर भारत और रोम के व्यापारिक सम्बन्ध और पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया के साम्राज्यों के साथ व्यापर किया। चौथी-पांचवी शताब्दी के बीच गुप्त साम्राज्य ने वृहद् गंगा के मैदानी क्षेत्र में प्रशासन तथा कर निर्धारण की एक जटिल प्रणाली बनाई; यह प्रणाली बाद के भारतीय राज्यों के लिए एक आदर्श बन गई। गुप्त साम्राज्य में भक्ति पर आधारित हिन्दू धर्म का प्रचलन हुई। विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले, जो शास्त्रीय संस्कृत में रचा गया। | भारत में मानव जीवन का सबसे पुराना प्रमाण कहां मिला है? | {
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"भीमबेटका, मध्य प्रदेश की गुफाएँ"
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163
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} | Where is the oldest evidence of human life found in India? | About 75,000 years ago, modern human or Homo Sepians arrived in the Indian subcontinent from Africa.The oldest remains of human known in South Asia are 30,000 years old.Bhimbetka, the caves of Madhya Pradesh are the oldest evidence of human life in India.The first permanent settlements took the form 9000 years ago.By 6,500 BC, a man started farming, raising animals and building houses, which was found in Mehargarh which is in Pakistan.It gradually developed as the Indus Valley Civilization, which is the oldest urban civilization in South Asia.It was at its peak between 2600 BC and 1900 BC.It is located in the present West India and Pakistan.It was concentrated around cities such as Mohenjodaro, Harappa, Dholavira, and Kalibanga and depended on various types of subsistence, there was a broad market and craft production.From 2000 to 500 BCE, the Iron Age came from the copper Stone Age culture.The same era is considered to be the composition of the oldest religious scriptures, Vedas associated with Hinduism and the upper plains of Punjab and the Ganges are considered to be the abode of Vedic culture.Some historians believe that Indian-Aryan had arrived in this era from the north-west.Caste system was also started during this period.In the Vedic civilization, in the 7th century BC, the plains of the Ganges and the small states in the north-west India and their heads together joined the 14 elite and monarchy, who are known as Mahajanapada.Between increasing urbanization, two other independent non-Vedic religions emerged.Jainism came into existence during Mahavira's lifetime.Buddhism based on the teachings of Gautama Buddha attracted people of all other classes except middle class followers;The history writing of India started in this period.In the era of growing urban wealth, both religions considered renunciation to be an ideal, and both established long -lasting monastery traditions.Politically the third century BC, the Magadha Empire, mixed with other states inside it and emerged as the Maurya Empire.Magadha established his dominance over India except parts of South India, but some other major big states separated its major areas.The Mauryan kings are known for the progress of their empire and for the high life Satar because Emperor Ashoka established the Buddhist Dhamma and created the weapon -free army.From the beginning of 180 AD, there were several attacks from Central Asia, resulting in the Greek, Saka, Parthi and finally the Kushan dynasty in the North Indian subcontinent.The time ahead of the third century was called the Golden period of India when India was ruled by the Gupta dynasty.According to the confluence literature of Tamil, the South Peninsula was ruled by the Cher Dynasty, Chola Dynasty and Pandya dynasty from 200 to 200 AD, who traded the business relations between India and Rome and with the empires of West and Southeast Asia.Between the fourth-fifth century, the Gupta Empire created a complex system of administration and tax determination in the plains of large Ganges;This system became an ideal for later Indian states.In the Gupta Empire, Hinduism based on devotion was prevalent.Science, art, literature, mathematics, astronomy, ancient technology, religion, and philosophy flourished during the reign of these kings, which was composed in classical Sanskrit. | {
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"Caves of Bhimbetka, Madhya Pradesh"
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1265 | लगभग ६५,००० वर्ष पहले आधुनिक मानव या होमो सेपियन्स अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचे थे। दक्षिण एशिया में ज्ञात मानव का प्राचीनतम अवशेष ३०,००० वर्ष पुराना है। भीमबेटका, मध्य प्रदेश की गुफाएँ भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण हैं। प्रथम स्थाई बस्तियों ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। ६,५०० ईसा पूर्व तक आते आते मनुष्य ने खेती करना, जानवरों को पालना तथा घरों का निर्माण करना शुरू कर दिया था जिसका अवशेष मेहरगढ़ में मिला था जो की पाकिस्तान में है। यह धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुए, जो की दक्षिण एशिया की सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता है। यह २६०० ईसा पूर्व और १९०० ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। यह वर्तमान पश्चिम भारत तथा पाकिस्तान में स्थित है। यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा, और कालीबंगा जैसे शहरों के आसपास केंद्रित थी और विभिन्न प्रकार के निर्वाह पर निर्भर थी, यहाँ व्यापक बाजार था तथा शिल्प उत्पादन होता था। २००० से ५०० ईसा पूर्व तक ताम्र पाषाण युग संस्कृति से लौह युग का आगमन हुआ। इसी युग को हिन्दू धर्म से जुड़े प्राचीनतम धर्म ग्रंथ, वेदों का रचनाकाल माना जाता है तथा पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदानी क्षेत्र को वैदिक संस्कृति का निवास स्थान माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है की इसी युग में उत्तर-पश्चिम से भारतीय-आर्यन का आगमन हुआ था। इसी अवधि में जाति प्रथा भी प्रारंम्भ हुई थी। वैदिक सभ्यता में ईसा पूर्व ६ वीं शताब्दी में गंगा के मैदानी क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम भारत में छोटे-छोटे राज्य तथा उनके प्रमुख मिल कर १६ कुलीन और राजशाही में सम्मिलित हुए जिन्हे महाजनपद के नाम से जाना जाता है। बढ़ते शहरीकरण के बीच दो अन्य स्वतंत्र अ-वैदिक धर्मों का उदय हुआ। महावीर के जीवन काल में जैन धर्म अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित बौद्ध धर्म ने मध्यम वर्ग के अनुयायिओं को छोड़कर अन्य सभी वर्ग के लोगों को आकर्षित किया; इसी काल में भारत का इतिहास लेखन प्रारम्भ हुआ। बढ़ती शहरी सम्पदा के युग में, दोनों धर्मों ने त्याग को एक आदर्श माना, और दोनों ने लंबे समय तक चलने वाली मठ परंपराओं की स्थापना की। राजनीतिक रूप से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक मगध साम्राज्य ने अन्य राज्यों को अपने अंदर मिला कर मौर्य साम्राज्य के रूप में उभरा। मगध ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया लेकिन कुछ अन्य प्रमुख बड़े राज्यों ने इसके प्रमुख क्षेत्रों को अलग कर लिया। मौर्य राजाओं को उनके साम्राज्य की उन्नति के लिए तथा उच्च जीवन सतर के लिए जाना जाता है क्योंकि सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म की स्थापना की तथा शस्त्र मुक्त सेना का निर्माण किया। १८० ईसवी के आरम्भ से मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए। तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का स्वर्णिम काल कहलाया। तमिल के संगम साहित्य के अनुसार ईसा पूर्व २०० से २०० ईस्वी तक दक्षिण प्रायद्वीप पर चेर राजवंश, चोल राजवंश तथा पाण्ड्य राजवंश का शासन था जिन्होंने बड़े सतर पर भारत और रोम के व्यापारिक सम्बन्ध और पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया के साम्राज्यों के साथ व्यापर किया। चौथी-पांचवी शताब्दी के बीच गुप्त साम्राज्य ने वृहद् गंगा के मैदानी क्षेत्र में प्रशासन तथा कर निर्धारण की एक जटिल प्रणाली बनाई; यह प्रणाली बाद के भारतीय राज्यों के लिए एक आदर्श बन गई। गुप्त साम्राज्य में भक्ति पर आधारित हिन्दू धर्म का प्रचलन हुई। विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले, जो शास्त्रीय संस्कृत में रचा गया। | कन्नोज के राजा हर्ष किस शासक से पराजित हुए थे ? | {
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} | King Harsha of Kannauj was defeated by which ruler? | About 75,000 years ago, modern human or Homo Sepians arrived in the Indian subcontinent from Africa.The oldest remains of human known in South Asia are 30,000 years old.Bhimbetka, the caves of Madhya Pradesh are the oldest evidence of human life in India.The first permanent settlements took the form 9000 years ago.By 6,500 BC, a man started farming, raising animals and building houses, which was found in Mehargarh which is in Pakistan.It gradually developed as the Indus Valley Civilization, which is the oldest urban civilization in South Asia.It was at its peak between 2600 BC and 1900 BC.It is located in the present West India and Pakistan.It was concentrated around cities such as Mohenjodaro, Harappa, Dholavira, and Kalibanga and depended on various types of subsistence, there was a broad market and craft production.From 2000 to 500 BCE, the Iron Age came from the copper Stone Age culture.The same era is considered to be the composition of the oldest religious scriptures, Vedas associated with Hinduism and the upper plains of Punjab and the Ganges are considered to be the abode of Vedic culture.Some historians believe that Indian-Aryan had arrived in this era from the north-west.Caste system was also started during this period.In the Vedic civilization, in the 7th century BC, the plains of the Ganges and the small states in the north-west India and their heads together joined the 14 elite and monarchy, who are known as Mahajanapada.Between increasing urbanization, two other independent non-Vedic religions emerged.Jainism came into existence during Mahavira's lifetime.Buddhism based on the teachings of Gautama Buddha attracted people of all other classes except middle class followers;The history writing of India started in this period.In the era of growing urban wealth, both religions considered renunciation to be an ideal, and both established long -lasting monastery traditions.Politically the third century BC, the Magadha Empire, mixed with other states inside it and emerged as the Maurya Empire.Magadha established his dominance over India except parts of South India, but some other major big states separated its major areas.The Mauryan kings are known for the progress of their empire and for the high life Satar because Emperor Ashoka established the Buddhist Dhamma and created the weapon -free army.From the beginning of 180 AD, there were several attacks from Central Asia, resulting in the Greek, Saka, Parthi and finally the Kushan dynasty in the North Indian subcontinent.The time ahead of the third century was called the Golden period of India when India was ruled by the Gupta dynasty.According to the confluence literature of Tamil, the South Peninsula was ruled by the Cher Dynasty, Chola Dynasty and Pandya dynasty from 200 to 200 AD, who traded the business relations between India and Rome and with the empires of West and Southeast Asia.Between the fourth-fifth century, the Gupta Empire created a complex system of administration and tax determination in the plains of large Ganges;This system became an ideal for later Indian states.In the Gupta Empire, Hinduism based on devotion was prevalent.Science, art, literature, mathematics, astronomy, ancient technology, religion, and philosophy flourished during the reign of these kings, which was composed in classical Sanskrit. | {
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1266 | लेकिन राजतांत्रिक परिवेश में सम्पन्न राजनैतिक घटनाओं के कुछ न कुछ सामाजिक आधार तो होते ही हैं। एक शासक के रूप में महापद्मनंद की विशेषता है कि उसने मगध को एक बड़े साम्राज्य में तब्दील कर दिया। बिम्बिसार ने उसे एक वृहद महाजनपद बनाया था। उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे मगध-राज में तब्दील कर दिया। लेकिन उस राज को साम्राज्य में परिवर्तित करने वाला महापद्मनंद था, न कि चन्द्रगुप्त मौर्य। पूरब में चंपा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में व्यास और उत्तर में हिमालय तक उसने मगध साम्राज्य की सीमा रेखा खींच दी थी। लगभग सभी महाजनपद इसमें समाहित हो गए थे। वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसने महाजनपदीय व्यवस्था का अंत कर दिया था। यह सब उसने बिना किसी चाणक्य या कौटिल्य और उसके ‘अर्थशास्त्र’ के निदेश के बिना किया था। महापद्मनंद की राजव्यवस्था अत्युत्तम थी, क्योंकि उसके समय मगध का राजस्व इतना पुष्ट था कि वह एक बड़े सैन्य बल का गठन कर सकता था। तत्कालीन अभिलेखों से मिली सूचना के के अनुसार उसकी सेना में ‘बीस हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, चार घोड़ों वाले चार हजार रथ और तीन हजार हाथी थे। ’ नन्द पहला शासक था, जिसने सेना को राजधानी में रखने के बजाय सीमा क्षेत्रों में रखना जरुरी समझा था। सब से बढ़ कर यह कि जिस राष्ट्र की आजकल बहुत चर्चा होती है, उसकी परिकल्पना पहली दफा महापद्मनंद ने ही की थी। एक-राट (एक राष्ट्र ) को उसने साकार किया था। वह स्वयं उसका प्रथम सम्राट बना। हिमालय से लेकर समुद्र तक एक राष्ट्र की उसकी योजना थी। एक जैन ग्रन्थ के अनुसार –समुद्रवसनांशेम्य आसमुद्रमपि श्रियः ,उपायहस्तैराकृष्य ततः सोSकृत नन्दसात। यह वही महापद्मनंद था, जिसे पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इसे ही परशुराम के रूप में चित्रित किया हो। उसने अपने समय के सभी क्षत्रिय राज-कुलों, जिसमें कुरु, इक्ष्वाकु, पांचाल शूरसेन, काशेय, हैहय, कलिंग, अश्मक, मैथिल और वीतिहोत्र थे, को पराजित कर नष्ट कर दिया था। उसके विजय अभियान अपने विशद वर्णन के लिए आज भी किसी समर्थ इतिहासकार का इंतज़ार कर रहे हैं। इस दिशा में इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री ने थोड़ा-सा प्रयास किया है। महापद्मनंद के व्यक्तित्व का आकलन हमें इस नतीजे पर लाता है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है, जात और कुल नहीं। उसके समय तक मनु की संहिता भले ही नहीं बनी थी, लेकिन वर्णव्यवस्था समाज में अपनी जड़ें जमा चुकी थीं और उसी के दृष्टिकोण से वह अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न था, शूद्र था। उसने इन तमाम उलाहनों को अपने व्यक्तित्व विकास में बाधक नहीं बनने दिया। किसी भी आक्षेप की परवाह किये बिना उसने राजसत्ता अपने बूते हासिल की। उसने एक राज, एक देश को अपने राजनैतिक चातुर्य और पराक्रम से एक राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया। कुलीनता की पट्टी लटकाये राजन्यों को मौत के घाट उतार दिया, या किनारे कर दिया और अपने द्वारा निर्मित राष्ट्र को व्यवस्था से बाँधने की पूरी कोशिश की। ऐसा नहीं था कि नंदों ने विद्वानों की कद्र नहीं की; जैसा कि चाणक्य ने अपने अपमान को लेकर ऐतिहासिक कोहराम खड़ा कर दिया था। चाणक्य कितना विद्वान था, यह अलग विमर्श का विषय है और उसके अपमान की कहानी एकतरफा है। लेकिन सच यह है कि नंदों ने विद्वानों को राज्याश्रय देने का आरम्भ किया था। उसने उत्तर पश्चिम इलाके से व्याकरणाचार्य पाणिनि को राजधानी पाटलिपुत्र में आमंत्रित किया। इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री के अनुसार पाणिनि नन्द दरबार के रत्न और राजा के मित्र थे। व्याकरण और भाषा विज्ञान की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘अष्टाध्यायी’ की रचना महापद्मनंद के संरक्षण में पाटलिपुत्र में हुई, जिस पर भारत हमेशा गर्व कर सकता है। कात्यायन, वररुचि, वर्ष और उपवर्ष जैसे प्रकांड विद्वान न केवल इसी युग में हुए बल्कि इन सब से नन्द राजाओं के मधुर रिश्ते रहे और इन सब को राज्याश्रय मिलता रहा। हालांकि कौटिल्य अथवा चाणक्य की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठते रहे हैं, लेकिन उसे लेकर जो आख्यान हैं उससे यही पता चलता है कि नंदों द्वारा विद्वानों को प्रोत्साहन देने की परंपरा से ही आकर्षित होकर आश्रय पाने की अभिलाषा से वह नन्द दरबार में गया और जैसी कि कथा है अपमानित हुआ। अभिलाषा गहरी होती है, तब अपमान भी गहरा होता है। कथा से जो सूचना मिलती है, उससे उसके अपमान का भी अनुमान होता है। लेकिन कथानुसार भी चाणक्य इतना विद्वान तो था ही कि उसने सम्पूर्ण परिदृश्य का जज्बाती नहीं, बल्कि सम्यक विश्लेषण किया। उसने पुष्यमित्र शुंग की तरह मौर्य वंश को ध्वस्त कर द्विज शासन लाने की कोशिश नहीं की। महापद्मनंद ने शूद्र जनता के मनोविज्ञान को झकझोर दिया था। इसकी अहमियत चाणक्य समझता था। उसकी शायद यह विवशता ही थी कि उसे एक दूसरे अनभिजात शूद्र चन्द्रगुप्त को नंदों के विरुद्ध खड़ा करना पड़ा। ऐसा नहीं था कि धननंद के समय मगध की राज-व्यवस्था ख़राब थी। 326 ईसापूर्व में जब सिकंदर भारत आया तब कई कारणों से वह झेलम किनारे से ही लौट गया7 यह सही है कि उसकी सेना एक लम्बी लड़ाई के कारण थक चुकी थी और अपने वतन लौटना चाहती थी। लेकिन यह भी था कि पश्चिमोत्तर के छोटे-छोटे इलाकों में जो राजा थे उन्हें अपेक्षाकृत बड़ी सेना से भयभीत कर देना और पराजित कर देना तो संभव था, लेकिन उसने जैसे ही नन्द साम्राज्य की बड़ी सेना का विवरण सुना तो उसके हाथ-पांव काँप गए। सिकंदर का हौसला पस्त हो गया। सिकंदर मौर्यों से नहीं, नंदों से भयभीत होकर लौटा। इतिहासकारों ने इस तथ्य पर भी कम ही विचार किया है, परवर्ती मौर्य साम्राज्य की शासन-व्यवस्था का मूलाधार नंदों की शासन व्यवस्था ही थी, जिसका ढाँचा महापद्मनंद ने तैयार किया था। चन्द्रगुप्त के समय में इसमें कुछ सुधार अवश्य हुए, लेकिन उसका मूल ढाँचा पहले जैसा ही बना रहा। संस्कृत नाटककार विशाखदत्त की कृति ‘मुद्राराक्षस’ से भी यह बात स्पष्ट होती है कि स्वयं चाणक्य नन्द राज के मंत्री राक्षस को ही क्यों चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाने के लिए उत्सुक था। अंततः उसे सफलता भी मिलती है। इससे स्पष्ट होता है मौर्य काल में केवल राजा बदला था, व्यवस्था और राज-नीति नहीं। चन्द्रगुप्त ने नन्द राजाओं की साम्राज्य-विस्तार की नीति को जारी रखते हुए उसे पश्चिमोत्तर इलाके में हिन्दुकुश तक फैला दिया। लेकिन यह विस्तार नंदों की तुलना में बहुत कम था। इन सब के अलावा नंदों ने भारतीय इतिहास और राजनीति को एक और महत्वपूर्ण सीख दी है, जिसका आज भी महत्व है और दुर्भाग्य से जिसकी चर्चा भी नहीं होती है। आज भी भारतीय राष्ट्र की वैचारिकता की तलाश होती है। इस विषय पर परस्पर विरोधी कई विचार हैं। नंदों ने अपने कार्यों से यह सिद्ध किया था कि ऊंच-नीच वाली वर्णव्यवस्था को आधार बना कर छोटे-छोटे जनपद तो कायम रह सकते हैं, लेकिन इस सामाजिक आधार पर कोई वृहद राष्ट्र नहीं बन सकता। और यह भी कि जो चीज वृहद होगी उसका वैचारिक आधार लचीला और उदार होना आवश्यक है। नंदों ने किसी धर्म को विशेष प्रश्रय नहीं दिया। हम कह सकते हैं वह धर्मनिरपेक्ष राज्य था। यह वही समय था, जब बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारक मगध के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते होते थे। नंदों के पूर्व के हर्यंक राजाओं ने बौद्धों को काफी सहूलियतें दी थी। स्वयं बिम्बिसार ने बुद्ध को वेणुवन प्रदान किया था। लेकिन नंदों ने किसी धर्म विशेष के लिए कुछ किया हो इसकी सूचना नहीं मिलती। इसकी जगह विद्वानों को राज्याश्रय देकर ज्ञान क्षेत्र को विकसित करना उसने जरुरी समझा। पाणिनि को राजदरबार में रखना मायने रखता है। नन्द की चिंता थी कि मागधी भाषा से काम नहीं चलने वाला। एक बड़े राष्ट्र को एक ऐसी जुबान चाहिए, जिससे एक छोर से दूसरे छोर तक संवाद किया जा सके। इसीलिए पाणिनि ने संस्कृत के इलाकाई रूपों को आत्मसात करते हुए एक ऐसी भाषा को विकसित करने का आधार तैयार किया, जहाँ वैविध्य कम हों, एकरूपता अधिक हो। यह काम इतना महत्वपूर्ण है, जिसका अनुमान कर ही हम दंग हो जाते हैं। इन सब के साथ नन्द राजाओं ने अपने नाम-काम के प्रचार हेतु राज खजाने का अशोक की तरह दुरुपयोग नहीं किया। न ही उन्होंने अपने नाम के स्तम्भ लगवाए, न भाड़े के पंडितों को रख अपनी प्रशस्ति लिखवाई। कुल मिला कर मैं इस बात पर पुनः जोर देना चाहूंगा कि नंदों, खास कर महापद्मनंद के साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया है। आज इस ज़माने में जब हमने इतिहास को नीचे से देखने का सिलसिला आरम्भ किया है, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि महापद्मनंद की भूमिका पर समग्रता और ईमानदारी पूर्वक विचार करें। उसे अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न कह कर हम उसकी अब और अधिक अवहेलना नहीं कर सकते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लगभग सभी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी उसकी उपेक्षा की। कोसंबी और नेहरू सरीखे इतिहास-समीक्षकों ने भी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। इतिहासकार के. एल. नीलकंठ शास्त्री की हम सराहना करना चाहेंगे कि उन्होंने पहली दफा स्वतंत्र रूप से नन्द राज वंश पर काम किया और महापद्मनंद की भूमिका को रेखांकित किया। | बिम्बिसार के पुत्र का क्या नाम था ? | {
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} | What was the name of Bimbisara's son? | But political events taking place in a democratic environment definitely have some social basis. Mahapadmananda's specialty as a ruler is that he transformed Magadha into a large empire. Bimbisar had made it a large Mahajanapada. His son Ajatashatru transformed it into Magadha kingdom. But it was Mahapadmananda who converted that kingdom into an empire, not Chandragupta Maurya. He had drawn the boundary line of the Magadha Empire up to Champa in the east, Godavari in the south, Vyas in the west and the Himalayas in the north. Almost all the Mahajanapadas were included in it. He is also important because he ended the Mahajanapada system. He did all this without any guidance from Chanakya or Kautilya and his ‘Arthashastra’. Mahapadmananda's governance was excellent because during his time the revenue of Magadha was so strong that it could form a large military force. According to the information received from the contemporary records, his army had 'twenty thousand horsemen, two lakh infantry, four thousand chariots with four horses and three thousand elephants. Nanda was the first ruler who considered it necessary to keep the army in the border areas instead of keeping it in the capital. Above all, the nation which is much talked about these days was first conceived by Mahapadmananda. He had personified one nation. He himself became its first emperor. His plan was for a nation from the Himalayas to the sea. According to a Jain text – Samudravasansemya Asamudramapi Shriah, Upayahstairakrishya Tatah SoSkrit Nandasat. This was the same Mahapadmananda, whom the Puranas have called Sarva-Kshatrantak (the destroyer of all Kshatriyas). It is possible that Brahmin mythology may have portrayed him as Parashurama. He had defeated and destroyed all the Kshatriya royal clans of his time, including Kuru, Ikshvaku, Panchala Shurasena, Kasheya, Haihaya, Kalinga, Ashmak, Maithil and Vitihotra. His victorious campaigns are still waiting for a capable historian to describe them in detail. Historian Neelkanth Shastri has made a little effort in this direction. The assessment of Mahapadmananda's personality brings us to the conclusion that the individual is important, not the caste and clan. Even though the Code of Manu had not been made by his time, the caste system had taken root in the society and from that point of view he was uncultured and born of low caste, a Shudra. He did not let all these criticisms become a hindrance in his personality development. He achieved kingship on his own without caring about any objection. He converted a kingdom, a country into a nation with his political shrewdness and bravery. Diplomats with the trappings of nobility were killed or sidelined and tried their best to bind the nation they had created to the system. It was not that the Nandas did not respect scholars; As Chanakya had created a historical uproar due to his insult. How scholar Chanakya was is a subject for separate discussion and the story of his insult is one-sided. But the truth is that the Nandas had started giving state patronage to scholars. He invited grammarian Panini from the north-west region to the capital Pataliputra. According to historian Neelkanth Shastri, Panini Nanda was a gem of the court and a friend of the king. The world-famous book of grammar and linguistics ‘Ashtadhyayi’ was composed in Patliputra under the patronage of Mahapadmananda, of which India can always be proud. Not only were great scholars like Katyayana, Vararuchi, Varsha and Upavarsha born in this era, but Nand kings had cordial relations with all of them and they all received royal patronage. Although questions have been raised on the historicity of Kautilya or Chanakya, but the stories about him show that he was attracted by the tradition of encouraging scholars by the Nandas and with the desire of getting shelter, he went to the Nanda court and as per the story Has been insulted. When the desire is deep, the insult is also deep. The information we get from the story also infers his insult. But according to the story, Chanakya was so learned that he analyzed the entire scenario properly and not emotionally. Like Pushyamitra Shunga, he did not try to destroy the Maurya dynasty and bring in Dwija rule. Mahapadmananda had shaken the psychology of the Shudra people. Chanakya understood its importance. Perhaps it was due to his compulsion that he had to field another uneducated Shudra Chandragupta against the Nandas. It was not that the political system of Magadha was bad during the time of Dhananand. When Alexander came to India in 326 BC, due to many reasons he returned from the banks of Jhelum. It is true that his army was tired due to a long battle and wanted to return to their homeland. But it was also true that it was possible to frighten and defeat the kings in the small areas of the North-West with a relatively large army, but as soon as he heard the details of the large army of the Nanda Empire, his hands and legs trembled. . Alexander's courage was shattered. Alexander returned frightened not by the Mauryas but by the Nandas. Historians have given little thought to this fact, the foundation of the governance system of the later Maurya Empire was the governance system of the Nandas, the structure of which was prepared by Mahapadmananda. During the time of Chandragupta, some improvements were made in it, but its basic structure remained the same. It is also clear from Sanskrit playwright Vishakhadutt's work 'Mudrarakshas' that why only Rakshas, the minister of Chanakya Nand Raj himself, was called Chanda. Was eager to make Ragupta's minister. Ultimately he also gets success. This makes it clear that during the Maurya period, only the king changed, not the system and politics. Chandragupta continued the empire-expansion policy of the Nand kings and expanded it to Hindukush in the northwestern region. But this expansion was much less than that of the Nandas. Apart from all this, Nanda has given another important lesson to Indian history and politics, which is important even today and which unfortunately is not even discussed. Even today there is a search for the ideology of the Indian nation. There are many conflicting views on this topic. Nanda had proved through his works that small districts can survive on the basis of high-low caste system, but no big nation can be formed on this social basis. And also that whatever will be big, its ideological base must be flexible and liberal. Nandas did not give special patronage to any religion. We can say that it was a secular state. This was the same time when the preachers of Buddhism and Jainism used to roam around Magadha. The Haryanka kings before the Nandas had given a lot of facilities to the Buddhists. Bimbisara himself had given Venuvan to Buddha. But there is no information that Nanda did anything for any particular religion. Instead, he considered it necessary to develop the field of knowledge by giving state patronage to scholars. It is important to keep Panini in the royal court. Nand was worried that Magadhi language would not work. A big nation needs a language through which it can communicate from one end to the other. That is why Panini, by assimilating the regional forms of Sanskrit, prepared the basis for developing a language where there would be less diversity and more uniformity. This work is so important that we get stunned just imagining it. Along with all this, the Nand kings did not misuse the royal treasury to promote their name and work like Ashoka. Neither did he get pillars erected in his name, nor did he hire hired scholars to write his eulogy. Overall, I would like to re-emphasise that history has not done justice to the Nandas, especially Mahapadmananda. Today, in this era when we have started the process of looking at history from below, our effort should be to consider the role of Mahapadmananda holistically and honestly. We can no longer ignore him by calling him uncultured and of low caste. It is unfortunate that almost all Marxist historians also ignored him. Even historical critics like Kosambi and Nehru did not pay any attention to him. Historian K. l. We would like to appreciate Neelkanth Shastri that for the first time he independently worked on the Nanda dynasty and underlined the role of Mahapadmananda. | {
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"Ajatashatru"
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1267 | लेकिन राजतांत्रिक परिवेश में सम्पन्न राजनैतिक घटनाओं के कुछ न कुछ सामाजिक आधार तो होते ही हैं। एक शासक के रूप में महापद्मनंद की विशेषता है कि उसने मगध को एक बड़े साम्राज्य में तब्दील कर दिया। बिम्बिसार ने उसे एक वृहद महाजनपद बनाया था। उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे मगध-राज में तब्दील कर दिया। लेकिन उस राज को साम्राज्य में परिवर्तित करने वाला महापद्मनंद था, न कि चन्द्रगुप्त मौर्य। पूरब में चंपा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में व्यास और उत्तर में हिमालय तक उसने मगध साम्राज्य की सीमा रेखा खींच दी थी। लगभग सभी महाजनपद इसमें समाहित हो गए थे। वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसने महाजनपदीय व्यवस्था का अंत कर दिया था। यह सब उसने बिना किसी चाणक्य या कौटिल्य और उसके ‘अर्थशास्त्र’ के निदेश के बिना किया था। महापद्मनंद की राजव्यवस्था अत्युत्तम थी, क्योंकि उसके समय मगध का राजस्व इतना पुष्ट था कि वह एक बड़े सैन्य बल का गठन कर सकता था। तत्कालीन अभिलेखों से मिली सूचना के के अनुसार उसकी सेना में ‘बीस हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, चार घोड़ों वाले चार हजार रथ और तीन हजार हाथी थे। ’ नन्द पहला शासक था, जिसने सेना को राजधानी में रखने के बजाय सीमा क्षेत्रों में रखना जरुरी समझा था। सब से बढ़ कर यह कि जिस राष्ट्र की आजकल बहुत चर्चा होती है, उसकी परिकल्पना पहली दफा महापद्मनंद ने ही की थी। एक-राट (एक राष्ट्र ) को उसने साकार किया था। वह स्वयं उसका प्रथम सम्राट बना। हिमालय से लेकर समुद्र तक एक राष्ट्र की उसकी योजना थी। एक जैन ग्रन्थ के अनुसार –समुद्रवसनांशेम्य आसमुद्रमपि श्रियः ,उपायहस्तैराकृष्य ततः सोSकृत नन्दसात। यह वही महापद्मनंद था, जिसे पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इसे ही परशुराम के रूप में चित्रित किया हो। उसने अपने समय के सभी क्षत्रिय राज-कुलों, जिसमें कुरु, इक्ष्वाकु, पांचाल शूरसेन, काशेय, हैहय, कलिंग, अश्मक, मैथिल और वीतिहोत्र थे, को पराजित कर नष्ट कर दिया था। उसके विजय अभियान अपने विशद वर्णन के लिए आज भी किसी समर्थ इतिहासकार का इंतज़ार कर रहे हैं। इस दिशा में इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री ने थोड़ा-सा प्रयास किया है। महापद्मनंद के व्यक्तित्व का आकलन हमें इस नतीजे पर लाता है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है, जात और कुल नहीं। उसके समय तक मनु की संहिता भले ही नहीं बनी थी, लेकिन वर्णव्यवस्था समाज में अपनी जड़ें जमा चुकी थीं और उसी के दृष्टिकोण से वह अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न था, शूद्र था। उसने इन तमाम उलाहनों को अपने व्यक्तित्व विकास में बाधक नहीं बनने दिया। किसी भी आक्षेप की परवाह किये बिना उसने राजसत्ता अपने बूते हासिल की। उसने एक राज, एक देश को अपने राजनैतिक चातुर्य और पराक्रम से एक राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया। कुलीनता की पट्टी लटकाये राजन्यों को मौत के घाट उतार दिया, या किनारे कर दिया और अपने द्वारा निर्मित राष्ट्र को व्यवस्था से बाँधने की पूरी कोशिश की। ऐसा नहीं था कि नंदों ने विद्वानों की कद्र नहीं की; जैसा कि चाणक्य ने अपने अपमान को लेकर ऐतिहासिक कोहराम खड़ा कर दिया था। चाणक्य कितना विद्वान था, यह अलग विमर्श का विषय है और उसके अपमान की कहानी एकतरफा है। लेकिन सच यह है कि नंदों ने विद्वानों को राज्याश्रय देने का आरम्भ किया था। उसने उत्तर पश्चिम इलाके से व्याकरणाचार्य पाणिनि को राजधानी पाटलिपुत्र में आमंत्रित किया। इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री के अनुसार पाणिनि नन्द दरबार के रत्न और राजा के मित्र थे। व्याकरण और भाषा विज्ञान की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘अष्टाध्यायी’ की रचना महापद्मनंद के संरक्षण में पाटलिपुत्र में हुई, जिस पर भारत हमेशा गर्व कर सकता है। कात्यायन, वररुचि, वर्ष और उपवर्ष जैसे प्रकांड विद्वान न केवल इसी युग में हुए बल्कि इन सब से नन्द राजाओं के मधुर रिश्ते रहे और इन सब को राज्याश्रय मिलता रहा। हालांकि कौटिल्य अथवा चाणक्य की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठते रहे हैं, लेकिन उसे लेकर जो आख्यान हैं उससे यही पता चलता है कि नंदों द्वारा विद्वानों को प्रोत्साहन देने की परंपरा से ही आकर्षित होकर आश्रय पाने की अभिलाषा से वह नन्द दरबार में गया और जैसी कि कथा है अपमानित हुआ। अभिलाषा गहरी होती है, तब अपमान भी गहरा होता है। कथा से जो सूचना मिलती है, उससे उसके अपमान का भी अनुमान होता है। लेकिन कथानुसार भी चाणक्य इतना विद्वान तो था ही कि उसने सम्पूर्ण परिदृश्य का जज्बाती नहीं, बल्कि सम्यक विश्लेषण किया। उसने पुष्यमित्र शुंग की तरह मौर्य वंश को ध्वस्त कर द्विज शासन लाने की कोशिश नहीं की। महापद्मनंद ने शूद्र जनता के मनोविज्ञान को झकझोर दिया था। इसकी अहमियत चाणक्य समझता था। उसकी शायद यह विवशता ही थी कि उसे एक दूसरे अनभिजात शूद्र चन्द्रगुप्त को नंदों के विरुद्ध खड़ा करना पड़ा। ऐसा नहीं था कि धननंद के समय मगध की राज-व्यवस्था ख़राब थी। 326 ईसापूर्व में जब सिकंदर भारत आया तब कई कारणों से वह झेलम किनारे से ही लौट गया7 यह सही है कि उसकी सेना एक लम्बी लड़ाई के कारण थक चुकी थी और अपने वतन लौटना चाहती थी। लेकिन यह भी था कि पश्चिमोत्तर के छोटे-छोटे इलाकों में जो राजा थे उन्हें अपेक्षाकृत बड़ी सेना से भयभीत कर देना और पराजित कर देना तो संभव था, लेकिन उसने जैसे ही नन्द साम्राज्य की बड़ी सेना का विवरण सुना तो उसके हाथ-पांव काँप गए। सिकंदर का हौसला पस्त हो गया। सिकंदर मौर्यों से नहीं, नंदों से भयभीत होकर लौटा। इतिहासकारों ने इस तथ्य पर भी कम ही विचार किया है, परवर्ती मौर्य साम्राज्य की शासन-व्यवस्था का मूलाधार नंदों की शासन व्यवस्था ही थी, जिसका ढाँचा महापद्मनंद ने तैयार किया था। चन्द्रगुप्त के समय में इसमें कुछ सुधार अवश्य हुए, लेकिन उसका मूल ढाँचा पहले जैसा ही बना रहा। संस्कृत नाटककार विशाखदत्त की कृति ‘मुद्राराक्षस’ से भी यह बात स्पष्ट होती है कि स्वयं चाणक्य नन्द राज के मंत्री राक्षस को ही क्यों चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाने के लिए उत्सुक था। अंततः उसे सफलता भी मिलती है। इससे स्पष्ट होता है मौर्य काल में केवल राजा बदला था, व्यवस्था और राज-नीति नहीं। चन्द्रगुप्त ने नन्द राजाओं की साम्राज्य-विस्तार की नीति को जारी रखते हुए उसे पश्चिमोत्तर इलाके में हिन्दुकुश तक फैला दिया। लेकिन यह विस्तार नंदों की तुलना में बहुत कम था। इन सब के अलावा नंदों ने भारतीय इतिहास और राजनीति को एक और महत्वपूर्ण सीख दी है, जिसका आज भी महत्व है और दुर्भाग्य से जिसकी चर्चा भी नहीं होती है। आज भी भारतीय राष्ट्र की वैचारिकता की तलाश होती है। इस विषय पर परस्पर विरोधी कई विचार हैं। नंदों ने अपने कार्यों से यह सिद्ध किया था कि ऊंच-नीच वाली वर्णव्यवस्था को आधार बना कर छोटे-छोटे जनपद तो कायम रह सकते हैं, लेकिन इस सामाजिक आधार पर कोई वृहद राष्ट्र नहीं बन सकता। और यह भी कि जो चीज वृहद होगी उसका वैचारिक आधार लचीला और उदार होना आवश्यक है। नंदों ने किसी धर्म को विशेष प्रश्रय नहीं दिया। हम कह सकते हैं वह धर्मनिरपेक्ष राज्य था। यह वही समय था, जब बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारक मगध के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते होते थे। नंदों के पूर्व के हर्यंक राजाओं ने बौद्धों को काफी सहूलियतें दी थी। स्वयं बिम्बिसार ने बुद्ध को वेणुवन प्रदान किया था। लेकिन नंदों ने किसी धर्म विशेष के लिए कुछ किया हो इसकी सूचना नहीं मिलती। इसकी जगह विद्वानों को राज्याश्रय देकर ज्ञान क्षेत्र को विकसित करना उसने जरुरी समझा। पाणिनि को राजदरबार में रखना मायने रखता है। नन्द की चिंता थी कि मागधी भाषा से काम नहीं चलने वाला। एक बड़े राष्ट्र को एक ऐसी जुबान चाहिए, जिससे एक छोर से दूसरे छोर तक संवाद किया जा सके। इसीलिए पाणिनि ने संस्कृत के इलाकाई रूपों को आत्मसात करते हुए एक ऐसी भाषा को विकसित करने का आधार तैयार किया, जहाँ वैविध्य कम हों, एकरूपता अधिक हो। यह काम इतना महत्वपूर्ण है, जिसका अनुमान कर ही हम दंग हो जाते हैं। इन सब के साथ नन्द राजाओं ने अपने नाम-काम के प्रचार हेतु राज खजाने का अशोक की तरह दुरुपयोग नहीं किया। न ही उन्होंने अपने नाम के स्तम्भ लगवाए, न भाड़े के पंडितों को रख अपनी प्रशस्ति लिखवाई। कुल मिला कर मैं इस बात पर पुनः जोर देना चाहूंगा कि नंदों, खास कर महापद्मनंद के साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया है। आज इस ज़माने में जब हमने इतिहास को नीचे से देखने का सिलसिला आरम्भ किया है, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि महापद्मनंद की भूमिका पर समग्रता और ईमानदारी पूर्वक विचार करें। उसे अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न कह कर हम उसकी अब और अधिक अवहेलना नहीं कर सकते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लगभग सभी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी उसकी उपेक्षा की। कोसंबी और नेहरू सरीखे इतिहास-समीक्षकों ने भी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। इतिहासकार के. एल. नीलकंठ शास्त्री की हम सराहना करना चाहेंगे कि उन्होंने पहली दफा स्वतंत्र रूप से नन्द राज वंश पर काम किया और महापद्मनंद की भूमिका को रेखांकित किया। | सिकंदर भारत कब आया था ? | {
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"326 ईसापूर्व"
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4081
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} | When did Alexander come to India? | But political events taking place in a democratic environment definitely have some social basis. Mahapadmananda's specialty as a ruler is that he transformed Magadha into a large empire. Bimbisar had made it a large Mahajanapada. His son Ajatashatru transformed it into Magadha kingdom. But it was Mahapadmananda who converted that kingdom into an empire, not Chandragupta Maurya. He had drawn the boundary line of the Magadha Empire up to Champa in the east, Godavari in the south, Vyas in the west and the Himalayas in the north. Almost all the Mahajanapadas were included in it. He is also important because he ended the Mahajanapada system. He did all this without any guidance from Chanakya or Kautilya and his ‘Arthashastra’. Mahapadmananda's governance was excellent because during his time the revenue of Magadha was so strong that it could form a large military force. According to the information received from the contemporary records, his army had 'twenty thousand horsemen, two lakh infantry, four thousand chariots with four horses and three thousand elephants. Nanda was the first ruler who considered it necessary to keep the army in the border areas instead of keeping it in the capital. Above all, the nation which is much talked about these days was first conceived by Mahapadmananda. He had personified one nation. He himself became its first emperor. His plan was for a nation from the Himalayas to the sea. According to a Jain text – Samudravasansemya Asamudramapi Shriah, Upayahstairakrishya Tatah SoSkrit Nandasat. This was the same Mahapadmananda, whom the Puranas have called Sarva-Kshatrantak (the destroyer of all Kshatriyas). It is possible that Brahmin mythology may have portrayed him as Parashurama. He had defeated and destroyed all the Kshatriya royal clans of his time, including Kuru, Ikshvaku, Panchala Shurasena, Kasheya, Haihaya, Kalinga, Ashmak, Maithil and Vitihotra. His victorious campaigns are still waiting for a capable historian to describe them in detail. Historian Neelkanth Shastri has made a little effort in this direction. The assessment of Mahapadmananda's personality brings us to the conclusion that the individual is important, not the caste and clan. Even though the Code of Manu had not been made by his time, the caste system had taken root in the society and from that point of view he was uncultured and born of low caste, a Shudra. He did not let all these criticisms become a hindrance in his personality development. He achieved kingship on his own without caring about any objection. He converted a kingdom, a country into a nation with his political shrewdness and bravery. Diplomats with the trappings of nobility were killed or sidelined and tried their best to bind the nation they had created to the system. It was not that the Nandas did not respect scholars; As Chanakya had created a historical uproar due to his insult. How scholar Chanakya was is a subject for separate discussion and the story of his insult is one-sided. But the truth is that the Nandas had started giving state patronage to scholars. He invited grammarian Panini from the north-west region to the capital Pataliputra. According to historian Neelkanth Shastri, Panini Nanda was a gem of the court and a friend of the king. The world-famous book of grammar and linguistics ‘Ashtadhyayi’ was composed in Patliputra under the patronage of Mahapadmananda, of which India can always be proud. Not only were great scholars like Katyayana, Vararuchi, Varsha and Upavarsha born in this era, but Nand kings had cordial relations with all of them and they all received royal patronage. Although questions have been raised on the historicity of Kautilya or Chanakya, but the stories about him show that he was attracted by the tradition of encouraging scholars by the Nandas and with the desire of getting shelter, he went to the Nanda court and as per the story Has been insulted. When the desire is deep, the insult is also deep. The information we get from the story also infers his insult. But according to the story, Chanakya was so learned that he analyzed the entire scenario properly and not emotionally. Like Pushyamitra Shunga, he did not try to destroy the Maurya dynasty and bring in Dwija rule. Mahapadmananda had shaken the psychology of the Shudra people. Chanakya understood its importance. Perhaps it was due to his compulsion that he had to field another uneducated Shudra Chandragupta against the Nandas. It was not that the political system of Magadha was bad during the time of Dhananand. When Alexander came to India in 326 BC, due to many reasons he returned from the banks of Jhelum. It is true that his army was tired due to a long battle and wanted to return to their homeland. But it was also true that it was possible to frighten and defeat the kings in the small areas of the North-West with a relatively large army, but as soon as he heard the details of the large army of the Nanda Empire, his hands and legs trembled. . Alexander's courage was shattered. Alexander returned frightened not by the Mauryas but by the Nandas. Historians have given little thought to this fact, the foundation of the governance system of the later Maurya Empire was the governance system of the Nandas, the structure of which was prepared by Mahapadmananda. During the time of Chandragupta, some improvements were made in it, but its basic structure remained the same. It is also clear from Sanskrit playwright Vishakhadutt's work 'Mudrarakshas' that why only Rakshas, the minister of Chanakya Nand Raj himself, was called Chanda. Was eager to make Ragupta's minister. Ultimately he also gets success. This makes it clear that during the Maurya period, only the king changed, not the system and politics. Chandragupta continued the empire-expansion policy of the Nand kings and expanded it to Hindukush in the northwestern region. But this expansion was much less than that of the Nandas. Apart from all this, Nanda has given another important lesson to Indian history and politics, which is important even today and which unfortunately is not even discussed. Even today there is a search for the ideology of the Indian nation. There are many conflicting views on this topic. Nanda had proved through his works that small districts can survive on the basis of high-low caste system, but no big nation can be formed on this social basis. And also that whatever will be big, its ideological base must be flexible and liberal. Nandas did not give special patronage to any religion. We can say that it was a secular state. This was the same time when the preachers of Buddhism and Jainism used to roam around Magadha. The Haryanka kings before the Nandas had given a lot of facilities to the Buddhists. Bimbisara himself had given Venuvan to Buddha. But there is no information that Nanda did anything for any particular religion. Instead, he considered it necessary to develop the field of knowledge by giving state patronage to scholars. It is important to keep Panini in the royal court. Nand was worried that Magadhi language would not work. A big nation needs a language through which it can communicate from one end to the other. That is why Panini, by assimilating the regional forms of Sanskrit, prepared the basis for developing a language where there would be less diversity and more uniformity. This work is so important that we get stunned just imagining it. Along with all this, the Nand kings did not misuse the royal treasury to promote their name and work like Ashoka. Neither did he get pillars erected in his name, nor did he hire hired scholars to write his eulogy. Overall, I would like to re-emphasise that history has not done justice to the Nandas, especially Mahapadmananda. Today, in this era when we have started the process of looking at history from below, our effort should be to consider the role of Mahapadmananda holistically and honestly. We can no longer ignore him by calling him uncultured and of low caste. It is unfortunate that almost all Marxist historians also ignored him. Even historical critics like Kosambi and Nehru did not pay any attention to him. Historian K. l. We would like to appreciate Neelkanth Shastri that for the first time he independently worked on the Nanda dynasty and underlined the role of Mahapadmananda. | {
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"326 BC"
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1268 | लेकिन राजतांत्रिक परिवेश में सम्पन्न राजनैतिक घटनाओं के कुछ न कुछ सामाजिक आधार तो होते ही हैं। एक शासक के रूप में महापद्मनंद की विशेषता है कि उसने मगध को एक बड़े साम्राज्य में तब्दील कर दिया। बिम्बिसार ने उसे एक वृहद महाजनपद बनाया था। उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे मगध-राज में तब्दील कर दिया। लेकिन उस राज को साम्राज्य में परिवर्तित करने वाला महापद्मनंद था, न कि चन्द्रगुप्त मौर्य। पूरब में चंपा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में व्यास और उत्तर में हिमालय तक उसने मगध साम्राज्य की सीमा रेखा खींच दी थी। लगभग सभी महाजनपद इसमें समाहित हो गए थे। वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसने महाजनपदीय व्यवस्था का अंत कर दिया था। यह सब उसने बिना किसी चाणक्य या कौटिल्य और उसके ‘अर्थशास्त्र’ के निदेश के बिना किया था। महापद्मनंद की राजव्यवस्था अत्युत्तम थी, क्योंकि उसके समय मगध का राजस्व इतना पुष्ट था कि वह एक बड़े सैन्य बल का गठन कर सकता था। तत्कालीन अभिलेखों से मिली सूचना के के अनुसार उसकी सेना में ‘बीस हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, चार घोड़ों वाले चार हजार रथ और तीन हजार हाथी थे। ’ नन्द पहला शासक था, जिसने सेना को राजधानी में रखने के बजाय सीमा क्षेत्रों में रखना जरुरी समझा था। सब से बढ़ कर यह कि जिस राष्ट्र की आजकल बहुत चर्चा होती है, उसकी परिकल्पना पहली दफा महापद्मनंद ने ही की थी। एक-राट (एक राष्ट्र ) को उसने साकार किया था। वह स्वयं उसका प्रथम सम्राट बना। हिमालय से लेकर समुद्र तक एक राष्ट्र की उसकी योजना थी। एक जैन ग्रन्थ के अनुसार –समुद्रवसनांशेम्य आसमुद्रमपि श्रियः ,उपायहस्तैराकृष्य ततः सोSकृत नन्दसात। यह वही महापद्मनंद था, जिसे पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इसे ही परशुराम के रूप में चित्रित किया हो। उसने अपने समय के सभी क्षत्रिय राज-कुलों, जिसमें कुरु, इक्ष्वाकु, पांचाल शूरसेन, काशेय, हैहय, कलिंग, अश्मक, मैथिल और वीतिहोत्र थे, को पराजित कर नष्ट कर दिया था। उसके विजय अभियान अपने विशद वर्णन के लिए आज भी किसी समर्थ इतिहासकार का इंतज़ार कर रहे हैं। इस दिशा में इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री ने थोड़ा-सा प्रयास किया है। महापद्मनंद के व्यक्तित्व का आकलन हमें इस नतीजे पर लाता है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है, जात और कुल नहीं। उसके समय तक मनु की संहिता भले ही नहीं बनी थी, लेकिन वर्णव्यवस्था समाज में अपनी जड़ें जमा चुकी थीं और उसी के दृष्टिकोण से वह अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न था, शूद्र था। उसने इन तमाम उलाहनों को अपने व्यक्तित्व विकास में बाधक नहीं बनने दिया। किसी भी आक्षेप की परवाह किये बिना उसने राजसत्ता अपने बूते हासिल की। उसने एक राज, एक देश को अपने राजनैतिक चातुर्य और पराक्रम से एक राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया। कुलीनता की पट्टी लटकाये राजन्यों को मौत के घाट उतार दिया, या किनारे कर दिया और अपने द्वारा निर्मित राष्ट्र को व्यवस्था से बाँधने की पूरी कोशिश की। ऐसा नहीं था कि नंदों ने विद्वानों की कद्र नहीं की; जैसा कि चाणक्य ने अपने अपमान को लेकर ऐतिहासिक कोहराम खड़ा कर दिया था। चाणक्य कितना विद्वान था, यह अलग विमर्श का विषय है और उसके अपमान की कहानी एकतरफा है। लेकिन सच यह है कि नंदों ने विद्वानों को राज्याश्रय देने का आरम्भ किया था। उसने उत्तर पश्चिम इलाके से व्याकरणाचार्य पाणिनि को राजधानी पाटलिपुत्र में आमंत्रित किया। इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री के अनुसार पाणिनि नन्द दरबार के रत्न और राजा के मित्र थे। व्याकरण और भाषा विज्ञान की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘अष्टाध्यायी’ की रचना महापद्मनंद के संरक्षण में पाटलिपुत्र में हुई, जिस पर भारत हमेशा गर्व कर सकता है। कात्यायन, वररुचि, वर्ष और उपवर्ष जैसे प्रकांड विद्वान न केवल इसी युग में हुए बल्कि इन सब से नन्द राजाओं के मधुर रिश्ते रहे और इन सब को राज्याश्रय मिलता रहा। हालांकि कौटिल्य अथवा चाणक्य की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठते रहे हैं, लेकिन उसे लेकर जो आख्यान हैं उससे यही पता चलता है कि नंदों द्वारा विद्वानों को प्रोत्साहन देने की परंपरा से ही आकर्षित होकर आश्रय पाने की अभिलाषा से वह नन्द दरबार में गया और जैसी कि कथा है अपमानित हुआ। अभिलाषा गहरी होती है, तब अपमान भी गहरा होता है। कथा से जो सूचना मिलती है, उससे उसके अपमान का भी अनुमान होता है। लेकिन कथानुसार भी चाणक्य इतना विद्वान तो था ही कि उसने सम्पूर्ण परिदृश्य का जज्बाती नहीं, बल्कि सम्यक विश्लेषण किया। उसने पुष्यमित्र शुंग की तरह मौर्य वंश को ध्वस्त कर द्विज शासन लाने की कोशिश नहीं की। महापद्मनंद ने शूद्र जनता के मनोविज्ञान को झकझोर दिया था। इसकी अहमियत चाणक्य समझता था। उसकी शायद यह विवशता ही थी कि 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क्यों चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाने के लिए उत्सुक था। अंततः उसे सफलता भी मिलती है। इससे स्पष्ट होता है मौर्य काल में केवल राजा बदला था, व्यवस्था और राज-नीति नहीं। चन्द्रगुप्त ने नन्द राजाओं की साम्राज्य-विस्तार की नीति को जारी रखते हुए उसे पश्चिमोत्तर इलाके में हिन्दुकुश तक फैला दिया। लेकिन यह विस्तार नंदों की तुलना में बहुत कम था। इन सब के अलावा नंदों ने भारतीय इतिहास और राजनीति को एक और महत्वपूर्ण सीख दी है, जिसका आज भी महत्व है और दुर्भाग्य से जिसकी चर्चा भी नहीं होती है। आज भी भारतीय राष्ट्र की वैचारिकता की तलाश होती है। इस विषय पर परस्पर विरोधी कई विचार हैं। नंदों ने अपने कार्यों से यह सिद्ध किया था कि ऊंच-नीच वाली वर्णव्यवस्था को आधार बना कर छोटे-छोटे जनपद तो कायम रह सकते हैं, लेकिन इस सामाजिक आधार पर कोई वृहद राष्ट्र नहीं बन सकता। और यह भी कि जो चीज वृहद होगी उसका वैचारिक आधार लचीला और उदार होना आवश्यक है। नंदों ने किसी धर्म को विशेष प्रश्रय नहीं दिया। हम कह सकते हैं वह धर्मनिरपेक्ष राज्य था। यह वही समय था, जब बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारक मगध के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते होते थे। नंदों के पूर्व के हर्यंक राजाओं ने बौद्धों को काफी सहूलियतें दी थी। स्वयं बिम्बिसार ने बुद्ध को वेणुवन प्रदान किया था। लेकिन नंदों ने किसी धर्म विशेष के लिए कुछ किया हो इसकी सूचना नहीं मिलती। इसकी जगह विद्वानों को राज्याश्रय देकर ज्ञान क्षेत्र को विकसित करना उसने जरुरी समझा। पाणिनि को राजदरबार में रखना मायने रखता है। नन्द की चिंता थी कि मागधी भाषा से काम नहीं चलने वाला। एक बड़े राष्ट्र को एक ऐसी जुबान चाहिए, जिससे एक छोर से दूसरे छोर तक संवाद किया जा सके। इसीलिए पाणिनि ने संस्कृत के इलाकाई रूपों को आत्मसात करते हुए एक ऐसी भाषा को विकसित करने का आधार तैयार किया, जहाँ वैविध्य कम हों, एकरूपता अधिक हो। यह काम इतना महत्वपूर्ण है, जिसका अनुमान कर ही हम दंग हो जाते हैं। इन सब के साथ नन्द राजाओं ने अपने नाम-काम के प्रचार हेतु राज खजाने का अशोक की तरह दुरुपयोग नहीं किया। न ही उन्होंने अपने नाम के स्तम्भ लगवाए, न भाड़े के पंडितों को रख अपनी प्रशस्ति लिखवाई। कुल मिला कर मैं इस बात पर पुनः जोर देना चाहूंगा कि नंदों, खास कर महापद्मनंद के साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया है। आज इस ज़माने में जब हमने इतिहास को नीचे से देखने का सिलसिला आरम्भ किया है, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि महापद्मनंद की भूमिका पर समग्रता और ईमानदारी पूर्वक विचार करें। उसे अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न कह कर हम उसकी अब और अधिक अवहेलना नहीं कर सकते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लगभग सभी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी उसकी उपेक्षा की। कोसंबी और नेहरू सरीखे इतिहास-समीक्षकों ने भी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। इतिहासकार के. एल. नीलकंठ शास्त्री की हम सराहना करना चाहेंगे कि उन्होंने पहली दफा स्वतंत्र रूप से नन्द राज वंश पर काम किया और महापद्मनंद की भूमिका को रेखांकित किया। | किसने कहा था कि नंदों के उत्थान को निम्न वर्गों के उत्थान का प्रतीक माना जा सकता है? | {
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} | Who said that the rise of the Nandas could be considered a symbol of the rise of the lower classes? | But political events taking place in a democratic environment definitely have some social basis. Mahapadmananda's specialty as a ruler is that he transformed Magadha into a large empire. Bimbisar had made it a large Mahajanapada. His son Ajatashatru transformed it into Magadha kingdom. But it was Mahapadmananda who converted that kingdom into an empire, not Chandragupta Maurya. He had drawn the boundary line of the Magadha Empire up to Champa in the east, Godavari in the south, Vyas in the west and the Himalayas in the north. Almost all the Mahajanapadas were included in it. He is also important because he ended the Mahajanapada system. He did all this without any guidance from Chanakya or Kautilya and his ‘Arthashastra’. Mahapadmananda's governance was excellent because during his time the revenue of Magadha was so strong that it could form a large military force. According to the information received from the contemporary records, his army had 'twenty thousand horsemen, two lakh infantry, four thousand chariots with four horses and three thousand elephants. Nanda was the first ruler who considered it necessary to keep the army in the border areas instead of keeping it in the capital. Above all, the nation which is much talked about these days was first conceived by Mahapadmananda. He had personified one nation. He himself became its first emperor. His plan was for a nation from the Himalayas to the sea. According to a Jain text – Samudravasansemya Asamudramapi Shriah, Upayahstairakrishya Tatah SoSkrit Nandasat. This was the same Mahapadmananda, whom the Puranas have called Sarva-Kshatrantak (the destroyer of all Kshatriyas). It is possible that Brahmin mythology may have portrayed him as Parashurama. He had defeated and destroyed all the Kshatriya royal clans of his time, including Kuru, Ikshvaku, Panchala Shurasena, Kasheya, Haihaya, Kalinga, Ashmak, Maithil and Vitihotra. His victorious campaigns are still waiting for a capable historian to describe them in detail. Historian Neelkanth Shastri has made a little effort in this direction. The assessment of Mahapadmananda's personality brings us to the conclusion that the individual is important, not the caste and clan. Even though the Code of Manu had not been made by his time, the caste system had taken root in the society and from that point of view he was uncultured and born of low caste, a Shudra. He did not let all these criticisms become a hindrance in his personality development. He achieved kingship on his own without caring about any objection. He converted a kingdom, a country into a nation with his political shrewdness and bravery. Diplomats with the trappings of nobility were killed or sidelined and tried their best to bind the nation they had created to the system. It was not that the Nandas did not respect scholars; As Chanakya had created a historical uproar due to his insult. How scholar Chanakya was is a subject for separate discussion and the story of his insult is one-sided. But the truth is that the Nandas had started giving state patronage to scholars. He invited grammarian Panini from the north-west region to the capital Pataliputra. According to historian Neelkanth Shastri, Panini Nanda was a gem of the court and a friend of the king. The world-famous book of grammar and linguistics ‘Ashtadhyayi’ was composed in Patliputra under the patronage of Mahapadmananda, of which India can always be proud. Not only were great scholars like Katyayana, Vararuchi, Varsha and Upavarsha born in this era, but Nand kings had cordial relations with all of them and they all received royal patronage. Although questions have been raised on the historicity of Kautilya or Chanakya, but the stories about him show that he was attracted by the tradition of encouraging scholars by the Nandas and with the desire of getting shelter, he went to the Nanda court and as per the story Has been insulted. When the desire is deep, the insult is also deep. The information we get from the story also infers his insult. But according to the story, Chanakya was so learned that he analyzed the entire scenario properly and not emotionally. Like Pushyamitra Shunga, he did not try to destroy the Maurya dynasty and bring in Dwija rule. Mahapadmananda had shaken the psychology of the Shudra people. Chanakya understood its importance. Perhaps it was due to his compulsion that he had to field another uneducated Shudra Chandragupta against the Nandas. It was not that the political system of Magadha was bad during the time of Dhananand. When Alexander came to India in 326 BC, due to many reasons he returned from the banks of Jhelum. It is true that his army was tired due to a long battle and wanted to return to their homeland. But it was also true that it was possible to frighten and defeat the kings in the small areas of the North-West with a relatively large army, but as soon as he heard the details of the large army of the Nanda Empire, his hands and legs trembled. . Alexander's courage was shattered. Alexander returned frightened not by the Mauryas but by the Nandas. Historians have given little thought to this fact, the foundation of the governance system of the later Maurya Empire was the governance system of the Nandas, the structure of which was prepared by Mahapadmananda. During the time of Chandragupta, some improvements were made in it, but its basic structure remained the same. It is also clear from Sanskrit playwright Vishakhadutt's work 'Mudrarakshas' that why only Rakshas, the minister of Chanakya Nand Raj himself, was called Chanda. Was eager to make Ragupta's minister. Ultimately he also gets success. This makes it clear that during the Maurya period, only the king changed, not the system and politics. Chandragupta continued the empire-expansion policy of the Nand kings and expanded it to Hindukush in the northwestern region. But this expansion was much less than that of the Nandas. Apart from all this, Nanda has given another important lesson to Indian history and politics, which is important even today and which unfortunately is not even discussed. Even today there is a search for the ideology of the Indian nation. There are many conflicting views on this topic. Nanda had proved through his works that small districts can survive on the basis of high-low caste system, but no big nation can be formed on this social basis. And also that whatever will be big, its ideological base must be flexible and liberal. Nandas did not give special patronage to any religion. We can say that it was a secular state. This was the same time when the preachers of Buddhism and Jainism used to roam around Magadha. The Haryanka kings before the Nandas had given a lot of facilities to the Buddhists. Bimbisara himself had given Venuvan to Buddha. But there is no information that Nanda did anything for any particular religion. Instead, he considered it necessary to develop the field of knowledge by giving state patronage to scholars. It is important to keep Panini in the royal court. Nand was worried that Magadhi language would not work. A big nation needs a language through which it can communicate from one end to the other. That is why Panini, by assimilating the regional forms of Sanskrit, prepared the basis for developing a language where there would be less diversity and more uniformity. This work is so important that we get stunned just imagining it. Along with all this, the Nand kings did not misuse the royal treasury to promote their name and work like Ashoka. Neither did he get pillars erected in his name, nor did he hire hired scholars to write his eulogy. Overall, I would like to re-emphasise that history has not done justice to the Nandas, especially Mahapadmananda. Today, in this era when we have started the process of looking at history from below, our effort should be to consider the role of Mahapadmananda holistically and honestly. We can no longer ignore him by calling him uncultured and of low caste. It is unfortunate that almost all Marxist historians also ignored him. Even historical critics like Kosambi and Nehru did not pay any attention to him. Historian K. l. We would like to appreciate Neelkanth Shastri that for the first time he independently worked on the Nanda dynasty and underlined the role of Mahapadmananda. | {
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1269 | लेकिन राजतांत्रिक परिवेश में सम्पन्न राजनैतिक घटनाओं के कुछ न कुछ सामाजिक आधार तो होते ही हैं। एक शासक के रूप में महापद्मनंद की विशेषता है कि उसने मगध को एक बड़े साम्राज्य में तब्दील कर दिया। बिम्बिसार ने उसे एक वृहद महाजनपद बनाया था। उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे मगध-राज में तब्दील कर दिया। लेकिन उस राज को साम्राज्य में परिवर्तित करने वाला महापद्मनंद था, न कि चन्द्रगुप्त मौर्य। पूरब में चंपा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में व्यास और उत्तर में हिमालय तक उसने मगध साम्राज्य की सीमा रेखा खींच दी थी। लगभग सभी महाजनपद इसमें समाहित हो गए थे। वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसने महाजनपदीय व्यवस्था का अंत कर दिया था। यह सब उसने बिना किसी चाणक्य या कौटिल्य और उसके ‘अर्थशास्त्र’ के निदेश के बिना किया था। महापद्मनंद की राजव्यवस्था अत्युत्तम थी, क्योंकि उसके समय मगध का राजस्व इतना पुष्ट था कि वह एक बड़े सैन्य बल का गठन कर सकता था। तत्कालीन अभिलेखों से मिली सूचना के के अनुसार उसकी सेना में ‘बीस हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, चार घोड़ों वाले चार हजार रथ और तीन हजार हाथी थे। ’ नन्द पहला शासक था, जिसने सेना को राजधानी में रखने के बजाय सीमा क्षेत्रों में रखना जरुरी समझा था। सब से बढ़ कर यह कि जिस राष्ट्र की आजकल बहुत चर्चा होती है, उसकी परिकल्पना पहली दफा महापद्मनंद ने ही की थी। एक-राट (एक राष्ट्र ) को उसने साकार किया था। वह स्वयं उसका प्रथम सम्राट बना। हिमालय से लेकर समुद्र तक एक राष्ट्र की उसकी योजना थी। एक जैन ग्रन्थ के अनुसार –समुद्रवसनांशेम्य आसमुद्रमपि श्रियः ,उपायहस्तैराकृष्य ततः सोSकृत नन्दसात। यह वही महापद्मनंद था, जिसे पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इसे ही परशुराम के रूप में चित्रित किया हो। उसने अपने समय के सभी क्षत्रिय राज-कुलों, जिसमें कुरु, इक्ष्वाकु, पांचाल शूरसेन, काशेय, हैहय, कलिंग, अश्मक, मैथिल और वीतिहोत्र थे, को पराजित कर नष्ट कर दिया था। उसके विजय अभियान अपने विशद वर्णन के लिए आज भी किसी समर्थ इतिहासकार का इंतज़ार कर रहे हैं। इस दिशा में इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री ने थोड़ा-सा प्रयास किया है। महापद्मनंद के व्यक्तित्व का आकलन हमें इस नतीजे पर लाता है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है, जात और कुल नहीं। उसके समय तक मनु की संहिता भले ही नहीं बनी थी, लेकिन वर्णव्यवस्था समाज में अपनी जड़ें जमा चुकी थीं और उसी के दृष्टिकोण से वह अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न था, शूद्र था। उसने इन तमाम उलाहनों को अपने व्यक्तित्व विकास में बाधक नहीं बनने दिया। किसी भी आक्षेप की परवाह किये बिना उसने राजसत्ता अपने बूते हासिल की। उसने एक राज, एक देश को अपने राजनैतिक चातुर्य और पराक्रम से एक राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया। कुलीनता की पट्टी लटकाये राजन्यों को मौत के घाट उतार दिया, या किनारे कर दिया और अपने द्वारा निर्मित राष्ट्र को व्यवस्था से बाँधने की पूरी कोशिश की। ऐसा नहीं था कि नंदों ने विद्वानों की कद्र नहीं की; जैसा कि चाणक्य ने अपने अपमान को लेकर ऐतिहासिक कोहराम खड़ा कर दिया था। चाणक्य कितना विद्वान था, यह अलग विमर्श का विषय है और उसके अपमान की कहानी एकतरफा है। लेकिन सच यह है कि नंदों ने विद्वानों को राज्याश्रय देने का आरम्भ किया था। उसने उत्तर पश्चिम इलाके से व्याकरणाचार्य पाणिनि को राजधानी पाटलिपुत्र में आमंत्रित किया। इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री के अनुसार पाणिनि नन्द दरबार के रत्न और राजा के मित्र थे। व्याकरण और भाषा विज्ञान की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘अष्टाध्यायी’ की रचना महापद्मनंद के संरक्षण में पाटलिपुत्र में हुई, जिस पर भारत हमेशा गर्व कर सकता है। कात्यायन, वररुचि, वर्ष और उपवर्ष जैसे प्रकांड विद्वान न केवल इसी युग में हुए बल्कि इन सब से नन्द राजाओं के मधुर रिश्ते रहे और इन सब को राज्याश्रय मिलता रहा। हालांकि कौटिल्य अथवा चाणक्य की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठते रहे हैं, लेकिन उसे लेकर जो आख्यान हैं उससे यही पता चलता है कि नंदों द्वारा विद्वानों को प्रोत्साहन देने की परंपरा से ही आकर्षित होकर आश्रय पाने की अभिलाषा से वह नन्द दरबार में गया और जैसी कि कथा है अपमानित हुआ। अभिलाषा गहरी होती है, तब अपमान भी गहरा होता है। कथा से जो सूचना मिलती है, उससे उसके अपमान का भी अनुमान होता है। लेकिन कथानुसार भी चाणक्य इतना विद्वान तो था ही कि उसने सम्पूर्ण परिदृश्य का जज्बाती नहीं, बल्कि सम्यक विश्लेषण किया। उसने पुष्यमित्र शुंग की तरह मौर्य वंश को ध्वस्त कर द्विज शासन लाने की कोशिश नहीं की। महापद्मनंद ने शूद्र जनता के मनोविज्ञान को झकझोर दिया था। इसकी अहमियत चाणक्य समझता था। उसकी शायद यह विवशता ही थी कि उसे एक दूसरे अनभिजात शूद्र चन्द्रगुप्त को नंदों के विरुद्ध खड़ा करना पड़ा। ऐसा नहीं था कि धननंद के समय मगध की राज-व्यवस्था ख़राब थी। 326 ईसापूर्व में जब सिकंदर भारत आया तब कई कारणों से वह झेलम किनारे से ही लौट गया7 यह सही है कि उसकी सेना एक लम्बी लड़ाई के कारण थक चुकी थी और अपने वतन लौटना चाहती थी। लेकिन यह भी था कि पश्चिमोत्तर के छोटे-छोटे इलाकों में जो राजा थे उन्हें अपेक्षाकृत बड़ी सेना से भयभीत कर देना और पराजित कर देना तो संभव था, लेकिन उसने जैसे ही नन्द साम्राज्य की बड़ी सेना का विवरण सुना तो उसके हाथ-पांव काँप गए। सिकंदर का हौसला पस्त हो गया। सिकंदर मौर्यों से नहीं, नंदों से भयभीत होकर लौटा। इतिहासकारों ने इस तथ्य पर भी कम ही विचार किया है, परवर्ती मौर्य साम्राज्य की शासन-व्यवस्था का मूलाधार नंदों की शासन व्यवस्था ही थी, जिसका ढाँचा महापद्मनंद ने तैयार किया था। चन्द्रगुप्त के समय में इसमें कुछ सुधार अवश्य हुए, लेकिन उसका मूल ढाँचा पहले जैसा ही बना रहा। संस्कृत नाटककार विशाखदत्त की कृति ‘मुद्राराक्षस’ से भी यह बात स्पष्ट होती है कि स्वयं चाणक्य नन्द राज के मंत्री राक्षस को ही क्यों चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाने के लिए उत्सुक था। अंततः उसे सफलता भी मिलती है। इससे स्पष्ट होता है मौर्य काल में केवल राजा बदला था, व्यवस्था और राज-नीति नहीं। चन्द्रगुप्त ने नन्द राजाओं की साम्राज्य-विस्तार की नीति को जारी रखते हुए उसे पश्चिमोत्तर इलाके में हिन्दुकुश तक फैला दिया। लेकिन यह विस्तार नंदों की तुलना में बहुत कम था। इन सब के अलावा नंदों ने भारतीय इतिहास और राजनीति को एक और महत्वपूर्ण सीख दी है, जिसका आज भी महत्व है और दुर्भाग्य से जिसकी चर्चा भी नहीं होती है। आज भी भारतीय राष्ट्र की वैचारिकता की तलाश होती है। इस विषय पर परस्पर विरोधी कई विचार हैं। नंदों ने अपने कार्यों से यह सिद्ध किया था कि ऊंच-नीच वाली वर्णव्यवस्था को आधार बना कर छोटे-छोटे जनपद तो कायम रह सकते हैं, लेकिन इस सामाजिक आधार पर कोई वृहद राष्ट्र नहीं बन सकता। और यह भी कि जो चीज वृहद होगी उसका वैचारिक आधार लचीला और उदार होना आवश्यक है। नंदों ने किसी धर्म को विशेष प्रश्रय नहीं दिया। हम कह सकते हैं वह धर्मनिरपेक्ष राज्य था। यह वही समय था, जब बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारक मगध के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते होते थे। नंदों के पूर्व के हर्यंक राजाओं ने बौद्धों को काफी सहूलियतें दी थी। स्वयं बिम्बिसार ने बुद्ध को वेणुवन प्रदान किया था। लेकिन नंदों ने किसी धर्म विशेष के लिए कुछ किया हो इसकी सूचना नहीं मिलती। इसकी जगह विद्वानों को राज्याश्रय देकर ज्ञान क्षेत्र को विकसित करना उसने जरुरी समझा। पाणिनि को राजदरबार में रखना मायने रखता है। नन्द की चिंता थी कि मागधी भाषा से काम नहीं चलने वाला। एक बड़े राष्ट्र को एक ऐसी जुबान चाहिए, जिससे एक छोर से दूसरे छोर तक संवाद किया जा सके। इसीलिए पाणिनि ने संस्कृत के इलाकाई रूपों को आत्मसात करते हुए एक ऐसी भाषा को विकसित करने का आधार तैयार किया, जहाँ वैविध्य कम हों, एकरूपता अधिक हो। यह काम इतना महत्वपूर्ण है, जिसका अनुमान कर ही हम दंग हो जाते हैं। इन सब के साथ नन्द राजाओं ने अपने नाम-काम के प्रचार हेतु राज खजाने का अशोक की तरह दुरुपयोग नहीं किया। न ही उन्होंने अपने नाम के स्तम्भ लगवाए, न भाड़े के पंडितों को रख अपनी प्रशस्ति लिखवाई। कुल मिला कर मैं इस बात पर पुनः जोर देना चाहूंगा कि नंदों, खास कर महापद्मनंद के साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया है। आज इस ज़माने में जब हमने इतिहास को नीचे से देखने का सिलसिला आरम्भ किया है, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि महापद्मनंद की भूमिका पर समग्रता और ईमानदारी पूर्वक विचार करें। उसे अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न कह कर हम उसकी अब और अधिक अवहेलना नहीं कर सकते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लगभग सभी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी उसकी उपेक्षा की। कोसंबी और नेहरू सरीखे इतिहास-समीक्षकों ने भी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। इतिहासकार के. एल. नीलकंठ शास्त्री की हम सराहना करना चाहेंगे कि उन्होंने पहली दफा स्वतंत्र रूप से नन्द राज वंश पर काम किया और महापद्मनंद की भूमिका को रेखांकित किया। | शूद्रों के शासन का नेता किस राजवंश को कहा गया है ? | {
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} | Which dynasty is said to have been the leader of the rule of the Shudras? | But political events taking place in a democratic environment definitely have some social basis. Mahapadmananda's specialty as a ruler is that he transformed Magadha into a large empire. Bimbisar had made it a large Mahajanapada. His son Ajatashatru transformed it into Magadha kingdom. But it was Mahapadmananda who converted that kingdom into an empire, not Chandragupta Maurya. He had drawn the boundary line of the Magadha Empire up to Champa in the east, Godavari in the south, Vyas in the west and the Himalayas in the north. Almost all the Mahajanapadas were included in it. He is also important because he ended the Mahajanapada system. He did all this without any guidance from Chanakya or Kautilya and his ‘Arthashastra’. Mahapadmananda's governance was excellent because during his time the revenue of Magadha was so strong that it could form a large military force. According to the information received from the contemporary records, his army had 'twenty thousand horsemen, two lakh infantry, four thousand chariots with four horses and three thousand elephants. Nanda was the first ruler who considered it necessary to keep the army in the border areas instead of keeping it in the capital. Above all, the nation which is much talked about these days was first conceived by Mahapadmananda. He had personified one nation. He himself became its first emperor. His plan was for a nation from the Himalayas to the sea. According to a Jain text – Samudravasansemya Asamudramapi Shriah, Upayahstairakrishya Tatah SoSkrit Nandasat. This was the same Mahapadmananda, whom the Puranas have called Sarva-Kshatrantak (the destroyer of all Kshatriyas). It is possible that Brahmin mythology may have portrayed him as Parashurama. He had defeated and destroyed all the Kshatriya royal clans of his time, including Kuru, Ikshvaku, Panchala Shurasena, Kasheya, Haihaya, Kalinga, Ashmak, Maithil and Vitihotra. His victorious campaigns are still waiting for a capable historian to describe them in detail. Historian Neelkanth Shastri has made a little effort in this direction. The assessment of Mahapadmananda's personality brings us to the conclusion that the individual is important, not the caste and clan. Even though the Code of Manu had not been made by his time, the caste system had taken root in the society and from that point of view he was uncultured and born of low caste, a Shudra. He did not let all these criticisms become a hindrance in his personality development. He achieved kingship on his own without caring about any objection. He converted a kingdom, a country into a nation with his political shrewdness and bravery. Diplomats with the trappings of nobility were killed or sidelined and tried their best to bind the nation they had created to the system. It was not that the Nandas did not respect scholars; As Chanakya had created a historical uproar due to his insult. How scholar Chanakya was is a subject for separate discussion and the story of his insult is one-sided. But the truth is that the Nandas had started giving state patronage to scholars. He invited grammarian Panini from the north-west region to the capital Pataliputra. According to historian Neelkanth Shastri, Panini Nanda was a gem of the court and a friend of the king. The world-famous book of grammar and linguistics ‘Ashtadhyayi’ was composed in Patliputra under the patronage of Mahapadmananda, of which India can always be proud. Not only were great scholars like Katyayana, Vararuchi, Varsha and Upavarsha born in this era, but Nand kings had cordial relations with all of them and they all received royal patronage. Although questions have been raised on the historicity of Kautilya or Chanakya, but the stories about him show that he was attracted by the tradition of encouraging scholars by the Nandas and with the desire of getting shelter, he went to the Nanda court and as per the story Has been insulted. When the desire is deep, the insult is also deep. The information we get from the story also infers his insult. But according to the story, Chanakya was so learned that he analyzed the entire scenario properly and not emotionally. Like Pushyamitra Shunga, he did not try to destroy the Maurya dynasty and bring in Dwija rule. Mahapadmananda had shaken the psychology of the Shudra people. Chanakya understood its importance. Perhaps it was due to his compulsion that he had to field another uneducated Shudra Chandragupta against the Nandas. It was not that the political system of Magadha was bad during the time of Dhananand. When Alexander came to India in 326 BC, due to many reasons he returned from the banks of Jhelum. It is true that his army was tired due to a long battle and wanted to return to their homeland. But it was also true that it was possible to frighten and defeat the kings in the small areas of the North-West with a relatively large army, but as soon as he heard the details of the large army of the Nanda Empire, his hands and legs trembled. . Alexander's courage was shattered. Alexander returned frightened not by the Mauryas but by the Nandas. Historians have given little thought to this fact, the foundation of the governance system of the later Maurya Empire was the governance system of the Nandas, the structure of which was prepared by Mahapadmananda. During the time of Chandragupta, some improvements were made in it, but its basic structure remained the same. It is also clear from Sanskrit playwright Vishakhadutt's work 'Mudrarakshas' that why only Rakshas, the minister of Chanakya Nand Raj himself, was called Chanda. Was eager to make Ragupta's minister. Ultimately he also gets success. This makes it clear that during the Maurya period, only the king changed, not the system and politics. Chandragupta continued the empire-expansion policy of the Nand kings and expanded it to Hindukush in the northwestern region. But this expansion was much less than that of the Nandas. Apart from all this, Nanda has given another important lesson to Indian history and politics, which is important even today and which unfortunately is not even discussed. Even today there is a search for the ideology of the Indian nation. There are many conflicting views on this topic. Nanda had proved through his works that small districts can survive on the basis of high-low caste system, but no big nation can be formed on this social basis. And also that whatever will be big, its ideological base must be flexible and liberal. Nandas did not give special patronage to any religion. We can say that it was a secular state. This was the same time when the preachers of Buddhism and Jainism used to roam around Magadha. The Haryanka kings before the Nandas had given a lot of facilities to the Buddhists. Bimbisara himself had given Venuvan to Buddha. But there is no information that Nanda did anything for any particular religion. Instead, he considered it necessary to develop the field of knowledge by giving state patronage to scholars. It is important to keep Panini in the royal court. Nand was worried that Magadhi language would not work. A big nation needs a language through which it can communicate from one end to the other. That is why Panini, by assimilating the regional forms of Sanskrit, prepared the basis for developing a language where there would be less diversity and more uniformity. This work is so important that we get stunned just imagining it. Along with all this, the Nand kings did not misuse the royal treasury to promote their name and work like Ashoka. Neither did he get pillars erected in his name, nor did he hire hired scholars to write his eulogy. Overall, I would like to re-emphasise that history has not done justice to the Nandas, especially Mahapadmananda. Today, in this era when we have started the process of looking at history from below, our effort should be to consider the role of Mahapadmananda holistically and honestly. We can no longer ignore him by calling him uncultured and of low caste. It is unfortunate that almost all Marxist historians also ignored him. Even historical critics like Kosambi and Nehru did not pay any attention to him. Historian K. l. We would like to appreciate Neelkanth Shastri that for the first time he independently worked on the Nanda dynasty and underlined the role of Mahapadmananda. | {
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1270 | लेकिन राजतांत्रिक परिवेश में सम्पन्न राजनैतिक घटनाओं के कुछ न कुछ सामाजिक आधार तो होते ही हैं। एक शासक के रूप में महापद्मनंद की विशेषता है कि उसने मगध को एक बड़े साम्राज्य में तब्दील कर दिया। बिम्बिसार ने उसे एक वृहद महाजनपद बनाया था। उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे मगध-राज में तब्दील कर दिया। लेकिन उस राज को साम्राज्य में परिवर्तित करने वाला महापद्मनंद था, न कि चन्द्रगुप्त मौर्य। पूरब में चंपा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में व्यास और उत्तर में हिमालय तक उसने मगध साम्राज्य की सीमा रेखा खींच दी थी। लगभग सभी महाजनपद इसमें समाहित हो गए थे। वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसने महाजनपदीय व्यवस्था का अंत कर दिया था। यह सब उसने बिना किसी चाणक्य या कौटिल्य और उसके ‘अर्थशास्त्र’ के निदेश के बिना किया था। महापद्मनंद की राजव्यवस्था अत्युत्तम थी, क्योंकि उसके समय मगध का राजस्व इतना पुष्ट था कि वह एक बड़े सैन्य बल का गठन कर सकता था। तत्कालीन अभिलेखों से मिली सूचना के के अनुसार उसकी सेना में ‘बीस हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, चार घोड़ों वाले चार हजार रथ और तीन हजार हाथी थे। ’ नन्द पहला शासक था, जिसने सेना को राजधानी में रखने के बजाय सीमा क्षेत्रों में रखना जरुरी समझा था। सब से बढ़ कर यह कि जिस राष्ट्र की आजकल बहुत चर्चा होती है, उसकी परिकल्पना पहली दफा महापद्मनंद ने ही की थी। एक-राट (एक राष्ट्र ) को उसने साकार किया था। वह स्वयं उसका प्रथम सम्राट बना। हिमालय से लेकर समुद्र तक एक राष्ट्र की उसकी योजना थी। एक जैन ग्रन्थ के अनुसार –समुद्रवसनांशेम्य आसमुद्रमपि श्रियः ,उपायहस्तैराकृष्य ततः सोSकृत नन्दसात। यह वही महापद्मनंद था, जिसे पुराणों ने सर्व-क्षत्रान्तक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला) कहा है। संभव है, ब्राह्मण पौराणिकता ने इसे ही परशुराम के रूप में चित्रित किया हो। उसने अपने समय के सभी क्षत्रिय राज-कुलों, जिसमें कुरु, इक्ष्वाकु, पांचाल शूरसेन, काशेय, हैहय, कलिंग, अश्मक, मैथिल और वीतिहोत्र थे, को पराजित कर नष्ट कर दिया था। उसके विजय अभियान अपने विशद वर्णन के लिए आज भी किसी समर्थ इतिहासकार का इंतज़ार कर रहे हैं। इस दिशा में इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री ने थोड़ा-सा प्रयास किया है। महापद्मनंद के व्यक्तित्व का आकलन हमें इस नतीजे पर लाता है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है, जात और कुल नहीं। उसके समय तक मनु की संहिता भले ही नहीं बनी थी, लेकिन वर्णव्यवस्था समाज में अपनी जड़ें जमा चुकी थीं और उसी के दृष्टिकोण से वह अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न था, शूद्र था। उसने इन तमाम उलाहनों को अपने व्यक्तित्व विकास में बाधक नहीं बनने दिया। किसी भी आक्षेप की परवाह किये बिना उसने राजसत्ता अपने बूते हासिल की। उसने एक राज, एक देश को अपने राजनैतिक चातुर्य और पराक्रम से एक राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया। कुलीनता की पट्टी लटकाये राजन्यों को मौत के घाट उतार दिया, या किनारे कर दिया और अपने द्वारा निर्मित राष्ट्र को व्यवस्था से बाँधने की पूरी कोशिश की। ऐसा नहीं था कि नंदों ने विद्वानों की कद्र नहीं की; जैसा कि चाणक्य ने अपने अपमान को लेकर ऐतिहासिक कोहराम खड़ा कर दिया था। चाणक्य कितना विद्वान था, यह अलग विमर्श का विषय है और उसके अपमान की कहानी एकतरफा है। लेकिन सच यह है कि नंदों ने विद्वानों को राज्याश्रय देने का आरम्भ किया था। उसने उत्तर पश्चिम इलाके से व्याकरणाचार्य पाणिनि को राजधानी पाटलिपुत्र में आमंत्रित किया। इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री के अनुसार पाणिनि नन्द दरबार के रत्न और राजा के मित्र थे। व्याकरण और भाषा विज्ञान की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘अष्टाध्यायी’ की रचना महापद्मनंद के संरक्षण में पाटलिपुत्र में हुई, जिस पर भारत हमेशा गर्व कर सकता है। कात्यायन, वररुचि, वर्ष और उपवर्ष जैसे प्रकांड विद्वान न केवल इसी युग में हुए बल्कि इन सब से नन्द राजाओं के मधुर रिश्ते रहे और इन सब को राज्याश्रय मिलता रहा। हालांकि कौटिल्य अथवा चाणक्य की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठते रहे हैं, लेकिन उसे लेकर जो आख्यान हैं उससे यही पता चलता है कि नंदों द्वारा विद्वानों को प्रोत्साहन देने की परंपरा से ही आकर्षित होकर आश्रय पाने की अभिलाषा से वह नन्द दरबार में गया और जैसी कि कथा है अपमानित हुआ। अभिलाषा गहरी होती है, तब अपमान भी गहरा होता है। कथा से जो सूचना मिलती है, उससे उसके अपमान का भी अनुमान होता है। लेकिन कथानुसार भी चाणक्य इतना विद्वान तो था ही कि उसने सम्पूर्ण परिदृश्य का जज्बाती नहीं, बल्कि सम्यक विश्लेषण किया। उसने पुष्यमित्र शुंग की तरह मौर्य वंश को ध्वस्त कर द्विज शासन लाने की कोशिश नहीं की। महापद्मनंद ने शूद्र जनता के मनोविज्ञान को झकझोर दिया था। इसकी अहमियत चाणक्य समझता था। उसकी शायद यह विवशता ही थी कि उसे एक दूसरे अनभिजात शूद्र चन्द्रगुप्त को नंदों के विरुद्ध खड़ा करना पड़ा। ऐसा नहीं था कि धननंद के समय मगध की राज-व्यवस्था ख़राब थी। 326 ईसापूर्व में जब सिकंदर भारत आया तब कई कारणों से वह झेलम किनारे से ही लौट गया7 यह सही है कि उसकी सेना एक लम्बी लड़ाई के कारण थक चुकी थी और अपने वतन लौटना चाहती थी। लेकिन यह भी था कि पश्चिमोत्तर के छोटे-छोटे इलाकों में जो राजा थे उन्हें अपेक्षाकृत बड़ी सेना से भयभीत कर देना और पराजित कर देना तो संभव था, लेकिन उसने जैसे ही नन्द साम्राज्य की बड़ी सेना का विवरण सुना तो उसके हाथ-पांव काँप गए। सिकंदर का हौसला पस्त हो गया। सिकंदर मौर्यों से नहीं, नंदों से भयभीत होकर लौटा। इतिहासकारों ने इस तथ्य पर भी कम ही विचार किया है, परवर्ती मौर्य साम्राज्य की शासन-व्यवस्था का मूलाधार नंदों की शासन व्यवस्था ही थी, जिसका ढाँचा महापद्मनंद ने तैयार किया था। चन्द्रगुप्त के समय में इसमें कुछ सुधार अवश्य हुए, लेकिन उसका मूल ढाँचा पहले जैसा ही बना रहा। संस्कृत नाटककार विशाखदत्त की कृति ‘मुद्राराक्षस’ से भी यह बात स्पष्ट होती है कि स्वयं चाणक्य नन्द राज के मंत्री राक्षस को ही क्यों चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाने के लिए उत्सुक था। अंततः उसे सफलता भी मिलती है। इससे स्पष्ट होता है मौर्य काल में केवल राजा बदला था, व्यवस्था और राज-नीति नहीं। चन्द्रगुप्त ने नन्द राजाओं की साम्राज्य-विस्तार की नीति को जारी रखते हुए उसे पश्चिमोत्तर इलाके में हिन्दुकुश तक फैला दिया। लेकिन यह विस्तार नंदों की तुलना में बहुत कम था। इन सब के अलावा नंदों ने भारतीय इतिहास और राजनीति को एक और महत्वपूर्ण सीख दी है, जिसका आज भी महत्व है और दुर्भाग्य से जिसकी चर्चा भी नहीं होती है। आज भी भारतीय राष्ट्र की वैचारिकता की तलाश होती है। इस विषय पर परस्पर विरोधी कई विचार हैं। नंदों ने अपने कार्यों से यह सिद्ध किया था कि ऊंच-नीच वाली वर्णव्यवस्था को आधार बना कर छोटे-छोटे जनपद तो कायम रह सकते हैं, लेकिन इस सामाजिक आधार पर कोई वृहद राष्ट्र नहीं बन सकता। और यह भी कि जो चीज वृहद होगी उसका वैचारिक आधार लचीला और उदार होना आवश्यक है। नंदों ने किसी धर्म को विशेष प्रश्रय नहीं दिया। हम कह सकते हैं वह धर्मनिरपेक्ष राज्य था। यह वही समय था, जब बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारक मगध के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते होते थे। नंदों के पूर्व के हर्यंक राजाओं ने बौद्धों को काफी सहूलियतें दी थी। स्वयं बिम्बिसार ने बुद्ध को वेणुवन प्रदान किया था। लेकिन नंदों ने किसी धर्म विशेष के लिए कुछ किया हो इसकी सूचना नहीं मिलती। इसकी जगह विद्वानों को राज्याश्रय देकर ज्ञान क्षेत्र को विकसित करना उसने जरुरी समझा। पाणिनि को राजदरबार में रखना मायने रखता है। नन्द की चिंता थी कि मागधी भाषा से काम नहीं चलने वाला। एक बड़े राष्ट्र को एक ऐसी जुबान चाहिए, जिससे एक छोर से दूसरे छोर तक संवाद किया जा सके। इसीलिए पाणिनि ने संस्कृत के इलाकाई रूपों को आत्मसात करते हुए एक ऐसी भाषा को विकसित करने का आधार तैयार किया, जहाँ वैविध्य कम हों, एकरूपता अधिक हो। यह काम इतना महत्वपूर्ण है, जिसका अनुमान कर ही हम दंग हो जाते हैं। इन सब के साथ नन्द राजाओं ने अपने नाम-काम के प्रचार हेतु राज खजाने का अशोक की तरह दुरुपयोग नहीं किया। न ही उन्होंने अपने नाम के स्तम्भ लगवाए, न भाड़े के पंडितों को रख अपनी प्रशस्ति लिखवाई। कुल मिला कर मैं इस बात पर पुनः जोर देना चाहूंगा कि नंदों, खास कर महापद्मनंद के साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया है। आज इस ज़माने में जब हमने इतिहास को नीचे से देखने का सिलसिला आरम्भ किया है, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि महापद्मनंद की भूमिका पर समग्रता और ईमानदारी पूर्वक विचार करें। उसे अनभिजात और नीचकुलोत्पन्न कह कर हम उसकी अब और अधिक अवहेलना नहीं कर सकते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लगभग सभी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी उसकी उपेक्षा की। कोसंबी और नेहरू सरीखे इतिहास-समीक्षकों ने भी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। इतिहासकार के. एल. नीलकंठ शास्त्री की हम सराहना करना चाहेंगे कि उन्होंने पहली दफा स्वतंत्र रूप से नन्द राज वंश पर काम किया और महापद्मनंद की भूमिका को रेखांकित किया। | महाजनपद का निर्माण किस शासक द्वारा किया गया था ? | {
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} | Mahajanapada was built by which ruler? | But political events taking place in a democratic environment definitely have some social basis. Mahapadmananda's specialty as a ruler is that he transformed Magadha into a large empire. Bimbisar had made it a large Mahajanapada. His son Ajatashatru transformed it into Magadha kingdom. But it was Mahapadmananda who converted that kingdom into an empire, not Chandragupta Maurya. He had drawn the boundary line of the Magadha Empire up to Champa in the east, Godavari in the south, Vyas in the west and the Himalayas in the north. Almost all the Mahajanapadas were included in it. He is also important because he ended the Mahajanapada system. He did all this without any guidance from Chanakya or Kautilya and his ‘Arthashastra’. Mahapadmananda's governance was excellent because during his time the revenue of Magadha was so strong that it could form a large military force. According to the information received from the contemporary records, his army had 'twenty thousand horsemen, two lakh infantry, four thousand chariots with four horses and three thousand elephants. Nanda was the first ruler who considered it necessary to keep the army in the border areas instead of keeping it in the capital. Above all, the nation which is much talked about these days was first conceived by Mahapadmananda. He had personified one nation. He himself became its first emperor. His plan was for a nation from the Himalayas to the sea. According to a Jain text – Samudravasansemya Asamudramapi Shriah, Upayahstairakrishya Tatah SoSkrit Nandasat. This was the same Mahapadmananda, whom the Puranas have called Sarva-Kshatrantak (the destroyer of all Kshatriyas). It is possible that Brahmin mythology may have portrayed him as Parashurama. He had defeated and destroyed all the Kshatriya royal clans of his time, including Kuru, Ikshvaku, Panchala Shurasena, Kasheya, Haihaya, Kalinga, Ashmak, Maithil and Vitihotra. His victorious campaigns are still waiting for a capable historian to describe them in detail. Historian Neelkanth Shastri has made a little effort in this direction. The assessment of Mahapadmananda's personality brings us to the conclusion that the individual is important, not the caste and clan. Even though the Code of Manu had not been made by his time, the caste system had taken root in the society and from that point of view he was uncultured and born of low caste, a Shudra. He did not let all these criticisms become a hindrance in his personality development. He achieved kingship on his own without caring about any objection. He converted a kingdom, a country into a nation with his political shrewdness and bravery. Diplomats with the trappings of nobility were killed or sidelined and tried their best to bind the nation they had created to the system. It was not that the Nandas did not respect scholars; As Chanakya had created a historical uproar due to his insult. How scholar Chanakya was is a subject for separate discussion and the story of his insult is one-sided. But the truth is that the Nandas had started giving state patronage to scholars. He invited grammarian Panini from the north-west region to the capital Pataliputra. According to historian Neelkanth Shastri, Panini Nanda was a gem of the court and a friend of the king. The world-famous book of grammar and linguistics ‘Ashtadhyayi’ was composed in Patliputra under the patronage of Mahapadmananda, of which India can always be proud. Not only were great scholars like Katyayana, Vararuchi, Varsha and Upavarsha born in this era, but Nand kings had cordial relations with all of them and they all received royal patronage. Although questions have been raised on the historicity of Kautilya or Chanakya, but the stories about him show that he was attracted by the tradition of encouraging scholars by the Nandas and with the desire of getting shelter, he went to the Nanda court and as per the story Has been insulted. When the desire is deep, the insult is also deep. The information we get from the story also infers his insult. But according to the story, Chanakya was so learned that he analyzed the entire scenario properly and not emotionally. Like Pushyamitra Shunga, he did not try to destroy the Maurya dynasty and bring in Dwija rule. Mahapadmananda had shaken the psychology of the Shudra people. Chanakya understood its importance. Perhaps it was due to his compulsion that he had to field another uneducated Shudra Chandragupta against the Nandas. It was not that the political system of Magadha was bad during the time of Dhananand. When Alexander came to India in 326 BC, due to many reasons he returned from the banks of Jhelum. It is true that his army was tired due to a long battle and wanted to return to their homeland. But it was also true that it was possible to frighten and defeat the kings in the small areas of the North-West with a relatively large army, but as soon as he heard the details of the large army of the Nanda Empire, his hands and legs trembled. . Alexander's courage was shattered. Alexander returned frightened not by the Mauryas but by the Nandas. Historians have given little thought to this fact, the foundation of the governance system of the later Maurya Empire was the governance system of the Nandas, the structure of which was prepared by Mahapadmananda. During the time of Chandragupta, some improvements were made in it, but its basic structure remained the same. It is also clear from Sanskrit playwright Vishakhadutt's work 'Mudrarakshas' that why only Rakshas, the minister of Chanakya Nand Raj himself, was called Chanda. Was eager to make Ragupta's minister. Ultimately he also gets success. This makes it clear that during the Maurya period, only the king changed, not the system and politics. Chandragupta continued the empire-expansion policy of the Nand kings and expanded it to Hindukush in the northwestern region. But this expansion was much less than that of the Nandas. Apart from all this, Nanda has given another important lesson to Indian history and politics, which is important even today and which unfortunately is not even discussed. Even today there is a search for the ideology of the Indian nation. There are many conflicting views on this topic. Nanda had proved through his works that small districts can survive on the basis of high-low caste system, but no big nation can be formed on this social basis. And also that whatever will be big, its ideological base must be flexible and liberal. Nandas did not give special patronage to any religion. We can say that it was a secular state. This was the same time when the preachers of Buddhism and Jainism used to roam around Magadha. The Haryanka kings before the Nandas had given a lot of facilities to the Buddhists. Bimbisara himself had given Venuvan to Buddha. But there is no information that Nanda did anything for any particular religion. Instead, he considered it necessary to develop the field of knowledge by giving state patronage to scholars. It is important to keep Panini in the royal court. Nand was worried that Magadhi language would not work. A big nation needs a language through which it can communicate from one end to the other. That is why Panini, by assimilating the regional forms of Sanskrit, prepared the basis for developing a language where there would be less diversity and more uniformity. This work is so important that we get stunned just imagining it. Along with all this, the Nand kings did not misuse the royal treasury to promote their name and work like Ashoka. Neither did he get pillars erected in his name, nor did he hire hired scholars to write his eulogy. Overall, I would like to re-emphasise that history has not done justice to the Nandas, especially Mahapadmananda. Today, in this era when we have started the process of looking at history from below, our effort should be to consider the role of Mahapadmananda holistically and honestly. We can no longer ignore him by calling him uncultured and of low caste. It is unfortunate that almost all Marxist historians also ignored him. Even historical critics like Kosambi and Nehru did not pay any attention to him. Historian K. l. We would like to appreciate Neelkanth Shastri that for the first time he independently worked on the Nanda dynasty and underlined the role of Mahapadmananda. | {
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1271 | वर्तमान बिहार विभिन्न एतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं। सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रत वंश का शासन था। सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया। भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र ( पटना ) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। | ग्रीक के राजा कौन थे? | {
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} | Who was the king of Greece? | The present Bihar is made up of various historical regions.Areas of Bihar such as Magadha, Mithila and Anga-religious texts and epics of ancient India are described.There is an archaeological record on the northern banks of the Ganges river in Saran district, Chiranda, the neolithic era (about 6500-2345 BCE) and the copper era (2385–1424 BCE).For the first time, Indo-Aryan people received the prestige after the establishment of the Videha Empire.During the late Vedic period (c. 1800–1100 BCE), Videha became one of the major political and cultural centers of South Asia, with Kuru and Panchal.The kings of the Vedaha Empire were called here.The daughter of the father of Mithila was Sita, who is described as the wife of Lord Rama in the Hindu epic, written by Valmiki.Later Vajishi was its capital in the city of Vajishi in the state, which joined the Vajji Agreement, is also in Mithila.Vajji had a Republican rule where the kings were elected by the number of kings.Based on the information found in the texts related to Jainism and Buddhism, Vajji was established as the Republic from the 6th century BC, in 583 BCE before the birth of Gautama Buddha, it was the first republic in the world.Lord Mahavira, the last Tirthankara of Jainism, was born in Vaishali.Magadha became the center of power, education and culture in India for 1000 years in the region of modern-western western Bihar.In the Rigvedic period it was ruled by the Brihdrat dynasty.Haryanka dynasty established in 6 BC, ruled Magadha from the city of Rajgriha (modern Rajgir).The two famous king of this dynasty were Bimbisar and his son Ajatashatru, who imprisoned his father to climb the throne.Ajatashatru established the city of Pataliputra which later became the capital of Magadha.He announced the war and won the bet.The Shishunaga dynasty was followed after the Hiruan dynasty.The Nanda dynasty later ruled the vast empire extending from Bengal to Punjab.The Nanda dynasty was replaced by the Maurya Empire, India's first empire.The Maurya Empire and Buddhism are raising this region which now makes modern Bihar.In 325 BC, the Maurya Empire, originating from Magadha, was established by Chandragupta Maurya, which was born in Magadha.Its capital was in Pataliputra (modern Patna).The Mauryan Emperor, Ashoka, who was born in Pataliputra (Patna), is considered the greatest ruler in the history of the world.Maurya Emperor was the biggest emperor of India till Aaj Tak, it was spread all over India from Iran to Burma in the west and Sri Lanka in the north to Sri Lanka in the north. | {
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1272 | वर्तमान बिहार विभिन्न एतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं। सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रत वंश का शासन था। सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया। भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र ( पटना ) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। | रामायण किसके द्वारा लिखि गयी थी? | {
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} | The Ramayana was written by whom? | The present Bihar is made up of various historical regions.Areas of Bihar such as Magadha, Mithila and Anga-religious texts and epics of ancient India are described.There is an archaeological record on the northern banks of the Ganges river in Saran district, Chiranda, the neolithic era (about 6500-2345 BCE) and the copper era (2385–1424 BCE).For the first time, Indo-Aryan people received the prestige after the establishment of the Videha Empire.During the late Vedic period (c. 1800–1100 BCE), Videha became one of the major political and cultural centers of South Asia, with Kuru and Panchal.The kings of the Vedaha Empire were called here.The daughter of the father of Mithila was Sita, who is described as the wife of Lord Rama in the Hindu epic, written by Valmiki.Later Vajishi was its capital in the city of Vajishi in the state, which joined the Vajji Agreement, is also in Mithila.Vajji had a Republican rule where the kings were elected by the number of kings.Based on the information found in the texts related to Jainism and Buddhism, Vajji was established as the Republic from the 6th century BC, in 583 BCE before the birth of Gautama Buddha, it was the first republic in the world.Lord Mahavira, the last Tirthankara of Jainism, was born in Vaishali.Magadha became the center of power, education and culture in India for 1000 years in the region of modern-western western Bihar.In the Rigvedic period it was ruled by the Brihdrat dynasty.Haryanka dynasty established in 6 BC, ruled Magadha from the city of Rajgriha (modern Rajgir).The two famous king of this dynasty were Bimbisar and his son Ajatashatru, who imprisoned his father to climb the throne.Ajatashatru established the city of Pataliputra which later became the capital of Magadha.He announced the war and won the bet.The Shishunaga dynasty was followed after the Hiruan dynasty.The Nanda dynasty later ruled the vast empire extending from Bengal to Punjab.The Nanda dynasty was replaced by the Maurya Empire, India's first empire.The Maurya Empire and Buddhism are raising this region which now makes modern Bihar.In 325 BC, the Maurya Empire, originating from Magadha, was established by Chandragupta Maurya, which was born in Magadha.Its capital was in Pataliputra (modern Patna).The Mauryan Emperor, Ashoka, who was born in Pataliputra (Patna), is considered the greatest ruler in the history of the world.Maurya Emperor was the biggest emperor of India till Aaj Tak, it was spread all over India from Iran to Burma in the west and Sri Lanka in the north to Sri Lanka in the north. | {
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1273 | वर्तमान बिहार विभिन्न एतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं। सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रत वंश का शासन था। सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया। भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र ( पटना ) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। | राजा बिंबिसार के पुत्र का क्या नाम था? | {
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"अजातशत्रु"
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1511
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} | What was the name of the son of King Bimbisara? | The present Bihar is made up of various historical regions.Areas of Bihar such as Magadha, Mithila and Anga-religious texts and epics of ancient India are described.There is an archaeological record on the northern banks of the Ganges river in Saran district, Chiranda, the neolithic era (about 6500-2345 BCE) and the copper era (2385–1424 BCE).For the first time, Indo-Aryan people received the prestige after the establishment of the Videha Empire.During the late Vedic period (c. 1800–1100 BCE), Videha became one of the major political and cultural centers of South Asia, with Kuru and Panchal.The kings of the Vedaha Empire were called here.The daughter of the father of Mithila was Sita, who is described as the wife of Lord Rama in the Hindu epic, written by Valmiki.Later Vajishi was its capital in the city of Vajishi in the state, which joined the Vajji Agreement, is also in Mithila.Vajji had a Republican rule where the kings were elected by the number of kings.Based on the information found in the texts related to Jainism and Buddhism, Vajji was established as the Republic from the 6th century BC, in 583 BCE before the birth of Gautama Buddha, it was the first republic in the world.Lord Mahavira, the last Tirthankara of Jainism, was born in Vaishali.Magadha became the center of power, education and culture in India for 1000 years in the region of modern-western western Bihar.In the Rigvedic period it was ruled by the Brihdrat dynasty.Haryanka dynasty established in 6 BC, ruled Magadha from the city of Rajgriha (modern Rajgir).The two famous king of this dynasty were Bimbisar and his son Ajatashatru, who imprisoned his father to climb the throne.Ajatashatru established the city of Pataliputra which later became the capital of Magadha.He announced the war and won the bet.The Shishunaga dynasty was followed after the Hiruan dynasty.The Nanda dynasty later ruled the vast empire extending from Bengal to Punjab.The Nanda dynasty was replaced by the Maurya Empire, India's first empire.The Maurya Empire and Buddhism are raising this region which now makes modern Bihar.In 325 BC, the Maurya Empire, originating from Magadha, was established by Chandragupta Maurya, which was born in Magadha.Its capital was in Pataliputra (modern Patna).The Mauryan Emperor, Ashoka, who was born in Pataliputra (Patna), is considered the greatest ruler in the history of the world.Maurya Emperor was the biggest emperor of India till Aaj Tak, it was spread all over India from Iran to Burma in the west and Sri Lanka in the north to Sri Lanka in the north. | {
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1511
],
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"Ajatashatru"
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} |
1274 | वर्तमान बिहार विभिन्न एतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं। सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रत वंश का शासन था। सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया। भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र ( पटना ) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। | सेल्यूकस की बेटी का क्या नाम था? | {
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""
],
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null
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} | What was the name of Seleucus' daughter? | The present Bihar is made up of various historical regions.Areas of Bihar such as Magadha, Mithila and Anga-religious texts and epics of ancient India are described.There is an archaeological record on the northern banks of the Ganges river in Saran district, Chiranda, the neolithic era (about 6500-2345 BCE) and the copper era (2385–1424 BCE).For the first time, Indo-Aryan people received the prestige after the establishment of the Videha Empire.During the late Vedic period (c. 1800–1100 BCE), Videha became one of the major political and cultural centers of South Asia, with Kuru and Panchal.The kings of the Vedaha Empire were called here.The daughter of the father of Mithila was Sita, who is described as the wife of Lord Rama in the Hindu epic, written by Valmiki.Later Vajishi was its capital in the city of Vajishi in the state, which joined the Vajji Agreement, is also in Mithila.Vajji had a Republican rule where the kings were elected by the number of kings.Based on the information found in the texts related to Jainism and Buddhism, Vajji was established as the Republic from the 6th century BC, in 583 BCE before the birth of Gautama Buddha, it was the first republic in the world.Lord Mahavira, the last Tirthankara of Jainism, was born in Vaishali.Magadha became the center of power, education and culture in India for 1000 years in the region of modern-western western Bihar.In the Rigvedic period it was ruled by the Brihdrat dynasty.Haryanka dynasty established in 6 BC, ruled Magadha from the city of Rajgriha (modern Rajgir).The two famous king of this dynasty were Bimbisar and his son Ajatashatru, who imprisoned his father to climb the throne.Ajatashatru established the city of Pataliputra which later became the capital of Magadha.He announced the war and won the bet.The Shishunaga dynasty was followed after the Hiruan dynasty.The Nanda dynasty later ruled the vast empire extending from Bengal to Punjab.The Nanda dynasty was replaced by the Maurya Empire, India's first empire.The Maurya Empire and Buddhism are raising this region which now makes modern Bihar.In 325 BC, the Maurya Empire, originating from Magadha, was established by Chandragupta Maurya, which was born in Magadha.Its capital was in Pataliputra (modern Patna).The Mauryan Emperor, Ashoka, who was born in Pataliputra (Patna), is considered the greatest ruler in the history of the world.Maurya Emperor was the biggest emperor of India till Aaj Tak, it was spread all over India from Iran to Burma in the west and Sri Lanka in the north to Sri Lanka in the north. | {
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null
],
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""
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} |
1275 | वर्तमान बिहार विभिन्न एतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं। सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रत वंश का शासन था। सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया। भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र ( पटना ) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। | अजातशत्रु ने किस शहर की स्थापना की थी? | {
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"पाटलिपुत्र"
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1600
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} | Which city was founded by Ajatashatru? | The present Bihar is made up of various historical regions.Areas of Bihar such as Magadha, Mithila and Anga-religious texts and epics of ancient India are described.There is an archaeological record on the northern banks of the Ganges river in Saran district, Chiranda, the neolithic era (about 6500-2345 BCE) and the copper era (2385–1424 BCE).For the first time, Indo-Aryan people received the prestige after the establishment of the Videha Empire.During the late Vedic period (c. 1800–1100 BCE), Videha became one of the major political and cultural centers of South Asia, with Kuru and Panchal.The kings of the Vedaha Empire were called here.The daughter of the father of Mithila was Sita, who is described as the wife of Lord Rama in the Hindu epic, written by Valmiki.Later Vajishi was its capital in the city of Vajishi in the state, which joined the Vajji Agreement, is also in Mithila.Vajji had a Republican rule where the kings were elected by the number of kings.Based on the information found in the texts related to Jainism and Buddhism, Vajji was established as the Republic from the 6th century BC, in 583 BCE before the birth of Gautama Buddha, it was the first republic in the world.Lord Mahavira, the last Tirthankara of Jainism, was born in Vaishali.Magadha became the center of power, education and culture in India for 1000 years in the region of modern-western western Bihar.In the Rigvedic period it was ruled by the Brihdrat dynasty.Haryanka dynasty established in 6 BC, ruled Magadha from the city of Rajgriha (modern Rajgir).The two famous king of this dynasty were Bimbisar and his son Ajatashatru, who imprisoned his father to climb the throne.Ajatashatru established the city of Pataliputra which later became the capital of Magadha.He announced the war and won the bet.The Shishunaga dynasty was followed after the Hiruan dynasty.The Nanda dynasty later ruled the vast empire extending from Bengal to Punjab.The Nanda dynasty was replaced by the Maurya Empire, India's first empire.The Maurya Empire and Buddhism are raising this region which now makes modern Bihar.In 325 BC, the Maurya Empire, originating from Magadha, was established by Chandragupta Maurya, which was born in Magadha.Its capital was in Pataliputra (modern Patna).The Mauryan Emperor, Ashoka, who was born in Pataliputra (Patna), is considered the greatest ruler in the history of the world.Maurya Emperor was the biggest emperor of India till Aaj Tak, it was spread all over India from Iran to Burma in the west and Sri Lanka in the north to Sri Lanka in the north. | {
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1600
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"Pataliputra"
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1276 | वर्तमान बिहार विभिन्न एतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं। सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रत वंश का शासन था। सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया। भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र ( पटना ) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। | राजा जनक की बेटी का क्या नाम था? | {
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"सीता"
],
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632
]
} | What was the name of Raja Janak's daughter? | The present Bihar is made up of various historical regions.Areas of Bihar such as Magadha, Mithila and Anga-religious texts and epics of ancient India are described.There is an archaeological record on the northern banks of the Ganges river in Saran district, Chiranda, the neolithic era (about 6500-2345 BCE) and the copper era (2385–1424 BCE).For the first time, Indo-Aryan people received the prestige after the establishment of the Videha Empire.During the late Vedic period (c. 1800–1100 BCE), Videha became one of the major political and cultural centers of South Asia, with Kuru and Panchal.The kings of the Vedaha Empire were called here.The daughter of the father of Mithila was Sita, who is described as the wife of Lord Rama in the Hindu epic, written by Valmiki.Later Vajishi was its capital in the city of Vajishi in the state, which joined the Vajji Agreement, is also in Mithila.Vajji had a Republican rule where the kings were elected by the number of kings.Based on the information found in the texts related to Jainism and Buddhism, Vajji was established as the Republic from the 6th century BC, in 583 BCE before the birth of Gautama Buddha, it was the first republic in the world.Lord Mahavira, the last Tirthankara of Jainism, was born in Vaishali.Magadha became the center of power, education and culture in India for 1000 years in the region of modern-western western Bihar.In the Rigvedic period it was ruled by the Brihdrat dynasty.Haryanka dynasty established in 6 BC, ruled Magadha from the city of Rajgriha (modern Rajgir).The two famous king of this dynasty were Bimbisar and his son Ajatashatru, who imprisoned his father to climb the throne.Ajatashatru established the city of Pataliputra which later became the capital of Magadha.He announced the war and won the bet.The Shishunaga dynasty was followed after the Hiruan dynasty.The Nanda dynasty later ruled the vast empire extending from Bengal to Punjab.The Nanda dynasty was replaced by the Maurya Empire, India's first empire.The Maurya Empire and Buddhism are raising this region which now makes modern Bihar.In 325 BC, the Maurya Empire, originating from Magadha, was established by Chandragupta Maurya, which was born in Magadha.Its capital was in Pataliputra (modern Patna).The Mauryan Emperor, Ashoka, who was born in Pataliputra (Patna), is considered the greatest ruler in the history of the world.Maurya Emperor was the biggest emperor of India till Aaj Tak, it was spread all over India from Iran to Burma in the west and Sri Lanka in the north to Sri Lanka in the north. | {
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632
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"text": [
"Sita"
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} |
1277 | वर्तमान बिहार विभिन्न एतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं। सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है। मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। वेदहा साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह ब्रिहद्रत वंश का शासन था। सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया। भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र ( पटना ) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है। मौर्य सम्राजय भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। | दुनिया के पहले गणतंत्र का क्या नाम था? | {
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"वज्जि"
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799
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} | What was the name of the world's first republic? | The present Bihar is made up of various historical regions.Areas of Bihar such as Magadha, Mithila and Anga-religious texts and epics of ancient India are described.There is an archaeological record on the northern banks of the Ganges river in Saran district, Chiranda, the neolithic era (about 6500-2345 BCE) and the copper era (2385–1424 BCE).For the first time, Indo-Aryan people received the prestige after the establishment of the Videha Empire.During the late Vedic period (c. 1800–1100 BCE), Videha became one of the major political and cultural centers of South Asia, with Kuru and Panchal.The kings of the Vedaha Empire were called here.The daughter of the father of Mithila was Sita, who is described as the wife of Lord Rama in the Hindu epic, written by Valmiki.Later Vajishi was its capital in the city of Vajishi in the state, which joined the Vajji Agreement, is also in Mithila.Vajji had a Republican rule where the kings were elected by the number of kings.Based on the information found in the texts related to Jainism and Buddhism, Vajji was established as the Republic from the 6th century BC, in 583 BCE before the birth of Gautama Buddha, it was the first republic in the world.Lord Mahavira, the last Tirthankara of Jainism, was born in Vaishali.Magadha became the center of power, education and culture in India for 1000 years in the region of modern-western western Bihar.In the Rigvedic period it was ruled by the Brihdrat dynasty.Haryanka dynasty established in 6 BC, ruled Magadha from the city of Rajgriha (modern Rajgir).The two famous king of this dynasty were Bimbisar and his son Ajatashatru, who imprisoned his father to climb the throne.Ajatashatru established the city of Pataliputra which later became the capital of Magadha.He announced the war and won the bet.The Shishunaga dynasty was followed after the Hiruan dynasty.The Nanda dynasty later ruled the vast empire extending from Bengal to Punjab.The Nanda dynasty was replaced by the Maurya Empire, India's first empire.The Maurya Empire and Buddhism are raising this region which now makes modern Bihar.In 325 BC, the Maurya Empire, originating from Magadha, was established by Chandragupta Maurya, which was born in Magadha.Its capital was in Pataliputra (modern Patna).The Mauryan Emperor, Ashoka, who was born in Pataliputra (Patna), is considered the greatest ruler in the history of the world.Maurya Emperor was the biggest emperor of India till Aaj Tak, it was spread all over India from Iran to Burma in the west and Sri Lanka in the north to Sri Lanka in the north. | {
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"Wajji"
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1278 | विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी। | सावरकर द्वारा स्थापित संस्था का क्या नाम था? | {
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} | What was the name of the institution founded by Savarkar? | Vinayak Savarkar was born in Maharashtra (at that time, 'Bombay Presidency' in Bhagur village near Nashik.His mother's name was Radhabai and father's name was Damodar Pant Savarkar.Their two brothers were Ganesh (Babarao) and Narayan Damodar Savarkar and a sister Nainabai.When he was only nine years old, his mother died in the epidemic of cholera.Seven years later, in 1899, his father also went to heaven in the plague's epidemic.After this, Vinayak's elder brother Ganesh took up the work of raising the family.In this hour of sorrow and difficulty, Ganesha's personality had a profound effect on Vinayak.Vinayak passed the matriculation examination from Shivaji High School Nashik in 1901.Since childhood, he was not only a study but also some poems in those days.Despite the economic crisis, Babarao supported Vinayak's desire for higher education.During this period, Vinayak organized a friend fairs by organizing local young men.Soon, the flame of revolution arose with the spirit of nationality among these young men.In 1901, he was married to Yamunabai, daughter of Ramchandra Trimbak Chiplunkar.His father -in -law raised the burden of his university education.In 1902, after completing matriculation studies, he did his BA from Ferguson College, Pune.His son Vishwas Savarkar and daughter Prabhat were Chiploonkar.In 1904, he founded a revolutionary organization called Abhinav Bharat.After the partition of Bengal in 1905, he lit Holi of foreign clothes in Pune.In Ferguson College, Pune, he also used to give a speech filled with patriotism.He received Shyamji Krishna Verma Scholarship in 1906 on the approval of Bal Gangadhar Tilak.Many of his articles were published in the Indian sociologist and magazines called Talwar, which later also appeared in the emergency of Calcutta.Savarkar was more influenced by Russian revolutionaries.On May 10, 1907, he celebrated the gold birth anniversary of the first Indian freedom struggle at India House, London.On this occasion, Vinayak Savarkar proved to be the first struggle of the 1857 struggle with evidence, but the first struggle of India's freedom.In June 1908, his book The Indian War of Independence: 1857 was ready, but the problem of its printing came.For this, efforts were made from London to Paris and Germany, but all those efforts failed.Later, this book was somehow secretly published from Haland and its copies were transported to France.In this book, Savarkar described the 1857 constable rebellion as the first battle of independence against the British government.In May 1909, he passed the examination of Bar At La (advocacy) from London but he did not get permission to advocate there.This book was reached by Savarkar ji in the name of Peak Week Papers and Scouts Papers. | {
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1279 | विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी। | विनायक सावरकर की पत्नी का क्या नाम था? | {
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"यमुनाबाई"
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} | What was the name of Vinayak Savarkar's wife? | Vinayak Savarkar was born in Maharashtra (at that time, 'Bombay Presidency' in Bhagur village near Nashik.His mother's name was Radhabai and father's name was Damodar Pant Savarkar.Their two brothers were Ganesh (Babarao) and Narayan Damodar Savarkar and a sister Nainabai.When he was only nine years old, his mother died in the epidemic of cholera.Seven years later, in 1899, his father also went to heaven in the plague's epidemic.After this, Vinayak's elder brother Ganesh took up the work of raising the family.In this hour of sorrow and difficulty, Ganesha's personality had a profound effect on Vinayak.Vinayak passed the matriculation examination from Shivaji High School Nashik in 1901.Since childhood, he was not only a study but also some poems in those days.Despite the economic crisis, Babarao supported Vinayak's desire for higher education.During this period, Vinayak organized a friend fairs by organizing local young men.Soon, the flame of revolution arose with the spirit of nationality among these young men.In 1901, he was married to Yamunabai, daughter of Ramchandra Trimbak Chiplunkar.His father -in -law raised the burden of his university education.In 1902, after completing matriculation studies, he did his BA from Ferguson College, Pune.His son Vishwas Savarkar and daughter Prabhat were Chiploonkar.In 1904, he founded a revolutionary organization called Abhinav Bharat.After the partition of Bengal in 1905, he lit Holi of foreign clothes in Pune.In Ferguson College, Pune, he also used to give a speech filled with patriotism.He received Shyamji Krishna Verma Scholarship in 1906 on the approval of Bal Gangadhar Tilak.Many of his articles were published in the Indian sociologist and magazines called Talwar, which later also appeared in the emergency of Calcutta.Savarkar was more influenced by Russian revolutionaries.On May 10, 1907, he celebrated the gold birth anniversary of the first Indian freedom struggle at India House, London.On this occasion, Vinayak Savarkar proved to be the first struggle of the 1857 struggle with evidence, but the first struggle of India's freedom.In June 1908, his book The Indian War of Independence: 1857 was ready, but the problem of its printing came.For this, efforts were made from London to Paris and Germany, but all those efforts failed.Later, this book was somehow secretly published from Haland and its copies were transported to France.In this book, Savarkar described the 1857 constable rebellion as the first battle of independence against the British government.In May 1909, he passed the examination of Bar At La (advocacy) from London but he did not get permission to advocate there.This book was reached by Savarkar ji in the name of Peak Week Papers and Scouts Papers. | {
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"Yamunabai"
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1280 | विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी। | विनायक सावरकर द्वारा वर्ष 1904 में स्थापित क्रांतिकारी संगठन का क्या नाम था? | {
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"अभिनव भारत"
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1242
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} | What was the name of the revolutionary organization founded by Vinayak Savarkar in the year 1904? | Vinayak Savarkar was born in Maharashtra (at that time, 'Bombay Presidency' in Bhagur village near Nashik.His mother's name was Radhabai and father's name was Damodar Pant Savarkar.Their two brothers were Ganesh (Babarao) and Narayan Damodar Savarkar and a sister Nainabai.When he was only nine years old, his mother died in the epidemic of cholera.Seven years later, in 1899, his father also went to heaven in the plague's epidemic.After this, Vinayak's elder brother Ganesh took up the work of raising the family.In this hour of sorrow and difficulty, Ganesha's personality had a profound effect on Vinayak.Vinayak passed the matriculation examination from Shivaji High School Nashik in 1901.Since childhood, he was not only a study but also some poems in those days.Despite the economic crisis, Babarao supported Vinayak's desire for higher education.During this period, Vinayak organized a friend fairs by organizing local young men.Soon, the flame of revolution arose with the spirit of nationality among these young men.In 1901, he was married to Yamunabai, daughter of Ramchandra Trimbak Chiplunkar.His father -in -law raised the burden of his university education.In 1902, after completing matriculation studies, he did his BA from Ferguson College, Pune.His son Vishwas Savarkar and daughter Prabhat were Chiploonkar.In 1904, he founded a revolutionary organization called Abhinav Bharat.After the partition of Bengal in 1905, he lit Holi of foreign clothes in Pune.In Ferguson College, Pune, he also used to give a speech filled with patriotism.He received Shyamji Krishna Verma Scholarship in 1906 on the approval of Bal Gangadhar Tilak.Many of his articles were published in the Indian sociologist and magazines called Talwar, which later also appeared in the emergency of Calcutta.Savarkar was more influenced by Russian revolutionaries.On May 10, 1907, he celebrated the gold birth anniversary of the first Indian freedom struggle at India House, London.On this occasion, Vinayak Savarkar proved to be the first struggle of the 1857 struggle with evidence, but the first struggle of India's freedom.In June 1908, his book The Indian War of Independence: 1857 was ready, but the problem of its printing came.For this, efforts were made from London to Paris and Germany, but all those efforts failed.Later, this book was somehow secretly published from Haland and its copies were transported to France.In this book, Savarkar described the 1857 constable rebellion as the first battle of independence against the British government.In May 1909, he passed the examination of Bar At La (advocacy) from London but he did not get permission to advocate there.This book was reached by Savarkar ji in the name of Peak Week Papers and Scouts Papers. | {
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"Innovative India"
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1281 | विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी। | विनायक सावरकर ने स्नातक की पढाई किस कॉलेज से की थी? | {
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"फर्ग्युसन कालेज"
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} | Vinayak Savarkar did his graduation from which college? | Vinayak Savarkar was born in Maharashtra (at that time, 'Bombay Presidency' in Bhagur village near Nashik.His mother's name was Radhabai and father's name was Damodar Pant Savarkar.Their two brothers were Ganesh (Babarao) and Narayan Damodar Savarkar and a sister Nainabai.When he was only nine years old, his mother died in the epidemic of cholera.Seven years later, in 1899, his father also went to heaven in the plague's epidemic.After this, Vinayak's elder brother Ganesh took up the work of raising the family.In this hour of sorrow and difficulty, Ganesha's personality had a profound effect on Vinayak.Vinayak passed the matriculation examination from Shivaji High School Nashik in 1901.Since childhood, he was not only a study but also some poems in those days.Despite the economic crisis, Babarao supported Vinayak's desire for higher education.During this period, Vinayak organized a friend fairs by organizing local young men.Soon, the flame of revolution arose with the spirit of nationality among these young men.In 1901, he was married to Yamunabai, daughter of Ramchandra Trimbak Chiplunkar.His father -in -law raised the burden of his university education.In 1902, after completing matriculation studies, he did his BA from Ferguson College, Pune.His son Vishwas Savarkar and daughter Prabhat were Chiploonkar.In 1904, he founded a revolutionary organization called Abhinav Bharat.After the partition of Bengal in 1905, he lit Holi of foreign clothes in Pune.In Ferguson College, Pune, he also used to give a speech filled with patriotism.He received Shyamji Krishna Verma Scholarship in 1906 on the approval of Bal Gangadhar Tilak.Many of his articles were published in the Indian sociologist and magazines called Talwar, which later also appeared in the emergency of Calcutta.Savarkar was more influenced by Russian revolutionaries.On May 10, 1907, he celebrated the gold birth anniversary of the first Indian freedom struggle at India House, London.On this occasion, Vinayak Savarkar proved to be the first struggle of the 1857 struggle with evidence, but the first struggle of India's freedom.In June 1908, his book The Indian War of Independence: 1857 was ready, but the problem of its printing came.For this, efforts were made from London to Paris and Germany, but all those efforts failed.Later, this book was somehow secretly published from Haland and its copies were transported to France.In this book, Savarkar described the 1857 constable rebellion as the first battle of independence against the British government.In May 1909, he passed the examination of Bar At La (advocacy) from London but he did not get permission to advocate there.This book was reached by Savarkar ji in the name of Peak Week Papers and Scouts Papers. | {
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"Fergusson College"
]
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1282 | विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी। | सावरकर ने लंदन के किस कॉलेज में पढाई की थी ? | {
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} | Savarkar studied at which college in London? | Vinayak Savarkar was born in Maharashtra (at that time, 'Bombay Presidency' in Bhagur village near Nashik.His mother's name was Radhabai and father's name was Damodar Pant Savarkar.Their two brothers were Ganesh (Babarao) and Narayan Damodar Savarkar and a sister Nainabai.When he was only nine years old, his mother died in the epidemic of cholera.Seven years later, in 1899, his father also went to heaven in the plague's epidemic.After this, Vinayak's elder brother Ganesh took up the work of raising the family.In this hour of sorrow and difficulty, Ganesha's personality had a profound effect on Vinayak.Vinayak passed the matriculation examination from Shivaji High School Nashik in 1901.Since childhood, he was not only a study but also some poems in those days.Despite the economic crisis, Babarao supported Vinayak's desire for higher education.During this period, Vinayak organized a friend fairs by organizing local young men.Soon, the flame of revolution arose with the spirit of nationality among these young men.In 1901, he was married to Yamunabai, daughter of Ramchandra Trimbak Chiplunkar.His father -in -law raised the burden of his university education.In 1902, after completing matriculation studies, he did his BA from Ferguson College, Pune.His son Vishwas Savarkar and daughter Prabhat were Chiploonkar.In 1904, he founded a revolutionary organization called Abhinav Bharat.After the partition of Bengal in 1905, he lit Holi of foreign clothes in Pune.In Ferguson College, Pune, he also used to give a speech filled with patriotism.He received Shyamji Krishna Verma Scholarship in 1906 on the approval of Bal Gangadhar Tilak.Many of his articles were published in the Indian sociologist and magazines called Talwar, which later also appeared in the emergency of Calcutta.Savarkar was more influenced by Russian revolutionaries.On May 10, 1907, he celebrated the gold birth anniversary of the first Indian freedom struggle at India House, London.On this occasion, Vinayak Savarkar proved to be the first struggle of the 1857 struggle with evidence, but the first struggle of India's freedom.In June 1908, his book The Indian War of Independence: 1857 was ready, but the problem of its printing came.For this, efforts were made from London to Paris and Germany, but all those efforts failed.Later, this book was somehow secretly published from Haland and its copies were transported to France.In this book, Savarkar described the 1857 constable rebellion as the first battle of independence against the British government.In May 1909, he passed the examination of Bar At La (advocacy) from London but he did not get permission to advocate there.This book was reached by Savarkar ji in the name of Peak Week Papers and Scouts Papers. | {
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1283 | विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी। | विनायक सावरकर का जन्म कहां हुआ था? | {
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"महाराष्ट्र"
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22
]
} | Where was Vinayak Savarkar born? | Vinayak Savarkar was born in Maharashtra (at that time, 'Bombay Presidency' in Bhagur village near Nashik.His mother's name was Radhabai and father's name was Damodar Pant Savarkar.Their two brothers were Ganesh (Babarao) and Narayan Damodar Savarkar and a sister Nainabai.When he was only nine years old, his mother died in the epidemic of cholera.Seven years later, in 1899, his father also went to heaven in the plague's epidemic.After this, Vinayak's elder brother Ganesh took up the work of raising the family.In this hour of sorrow and difficulty, Ganesha's personality had a profound effect on Vinayak.Vinayak passed the matriculation examination from Shivaji High School Nashik in 1901.Since childhood, he was not only a study but also some poems in those days.Despite the economic crisis, Babarao supported Vinayak's desire for higher education.During this period, Vinayak organized a friend fairs by organizing local young men.Soon, the flame of revolution arose with the spirit of nationality among these young men.In 1901, he was married to Yamunabai, daughter of Ramchandra Trimbak Chiplunkar.His father -in -law raised the burden of his university education.In 1902, after completing matriculation studies, he did his BA from Ferguson College, Pune.His son Vishwas Savarkar and daughter Prabhat were Chiploonkar.In 1904, he founded a revolutionary organization called Abhinav Bharat.After the partition of Bengal in 1905, he lit Holi of foreign clothes in Pune.In Ferguson College, Pune, he also used to give a speech filled with patriotism.He received Shyamji Krishna Verma Scholarship in 1906 on the approval of Bal Gangadhar Tilak.Many of his articles were published in the Indian sociologist and magazines called Talwar, which later also appeared in the emergency of Calcutta.Savarkar was more influenced by Russian revolutionaries.On May 10, 1907, he celebrated the gold birth anniversary of the first Indian freedom struggle at India House, London.On this occasion, Vinayak Savarkar proved to be the first struggle of the 1857 struggle with evidence, but the first struggle of India's freedom.In June 1908, his book The Indian War of Independence: 1857 was ready, but the problem of its printing came.For this, efforts were made from London to Paris and Germany, but all those efforts failed.Later, this book was somehow secretly published from Haland and its copies were transported to France.In this book, Savarkar described the 1857 constable rebellion as the first battle of independence against the British government.In May 1909, he passed the examination of Bar At La (advocacy) from London but he did not get permission to advocate there.This book was reached by Savarkar ji in the name of Peak Week Papers and Scouts Papers. | {
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22
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"text": [
"Maharashtra."
]
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1284 | विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी। | विनायक सावरकर के पिता का क्या नाम था? | {
"text": [
"दामोदर पन्त सावरकर"
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152
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} | What was the name of Vinayak Savarkar's father? | Vinayak Savarkar was born in Maharashtra (at that time, 'Bombay Presidency' in Bhagur village near Nashik.His mother's name was Radhabai and father's name was Damodar Pant Savarkar.Their two brothers were Ganesh (Babarao) and Narayan Damodar Savarkar and a sister Nainabai.When he was only nine years old, his mother died in the epidemic of cholera.Seven years later, in 1899, his father also went to heaven in the plague's epidemic.After this, Vinayak's elder brother Ganesh took up the work of raising the family.In this hour of sorrow and difficulty, Ganesha's personality had a profound effect on Vinayak.Vinayak passed the matriculation examination from Shivaji High School Nashik in 1901.Since childhood, he was not only a study but also some poems in those days.Despite the economic crisis, Babarao supported Vinayak's desire for higher education.During this period, Vinayak organized a friend fairs by organizing local young men.Soon, the flame of revolution arose with the spirit of nationality among these young men.In 1901, he was married to Yamunabai, daughter of Ramchandra Trimbak Chiplunkar.His father -in -law raised the burden of his university education.In 1902, after completing matriculation studies, he did his BA from Ferguson College, Pune.His son Vishwas Savarkar and daughter Prabhat were Chiploonkar.In 1904, he founded a revolutionary organization called Abhinav Bharat.After the partition of Bengal in 1905, he lit Holi of foreign clothes in Pune.In Ferguson College, Pune, he also used to give a speech filled with patriotism.He received Shyamji Krishna Verma Scholarship in 1906 on the approval of Bal Gangadhar Tilak.Many of his articles were published in the Indian sociologist and magazines called Talwar, which later also appeared in the emergency of Calcutta.Savarkar was more influenced by Russian revolutionaries.On May 10, 1907, he celebrated the gold birth anniversary of the first Indian freedom struggle at India House, London.On this occasion, Vinayak Savarkar proved to be the first struggle of the 1857 struggle with evidence, but the first struggle of India's freedom.In June 1908, his book The Indian War of Independence: 1857 was ready, but the problem of its printing came.For this, efforts were made from London to Paris and Germany, but all those efforts failed.Later, this book was somehow secretly published from Haland and its copies were transported to France.In this book, Savarkar described the 1857 constable rebellion as the first battle of independence against the British government.In May 1909, he passed the examination of Bar At La (advocacy) from London but he did not get permission to advocate there.This book was reached by Savarkar ji in the name of Peak Week Papers and Scouts Papers. | {
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152
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"text": [
"Damodar Pant Savarkar"
]
} |
1285 | विष्णु जी का एक मन्दिर है 'सहस्रबाहु का मन्दिर' जिसे अब सास-बहू का मंदिर नाम से भी जानते हैं। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था। यह सिंधिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं, बल्कि एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के 35 कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द दरबार हॉल इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिद्ध चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहाँ हैं। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है। यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है। गोपाचल पर्वत ग्वालियर के किले के अंचल में, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं॰ रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई। | ग्वालियर किले के समीप प्राचीन कलात्मक जैन मूर्तियों का निर्माण किस शासक के शासनकाल में किया गया था? | {
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"वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह"
],
"answer_start": [
1403
]
} | Ancient artistic Jain sculptures near Gwalior Fort were constructed during the reign of which ruler? | A temple of Vishnu is 'Temple of Sahasrabahu', which is now known by the name of mother-in-law's temple.Apart from this, there is a beautiful gurdwara which was built in the memory of Guru Hargobind ji, the sixth Guru of Sikhs, which Jahangir had kept a prisoner here for two years.It is not only the present residence of the Scindia royal family, but also a grand museum.35 rooms of this palace have been made a museum.Most of this palace is affected by Italian architecture.The famous court hall of this palace is a witness to the grand past of this palace, the burden of two phanos installed here is two-tons, they say that they were hung when the strength of the roof was measured by climbing ten elephants on the roof.Another famous thing of this museum is, silver rail whose tracks are on the dining table and in specific feasts this rail drinks are served.And the rare artifacts of Italy, France, China and many other countries are here.The monument of the Indian classical music, the great musician Tansen, who was one of the Navratnas of Akbar, is located here, it is a sample of Mughal architecture.Tansen ceremony is held in Gwalior every year in the memory of Tansen.This is a temple built by Birla, whose inspiration is taken from the Suryamandir of Kornak.In the zone of the fort of Gopachal mountain Gwalior, the ancient artistic Jain statue has a unique place of the statue group.Thousands of huge here.Jain idols no.1398 to No.The mountain between 1536 is carved out.These huge idols were built during the period of Tomarvanshi King Veeramdev, Dungar Singh and Kirtisinh.He had a reputation in the association of Pt. | {
"answer_start": [
1403
],
"text": [
"Viramdeo, Dungarsinh and Kirtisinh."
]
} |
1286 | विष्णु जी का एक मन्दिर है 'सहस्रबाहु का मन्दिर' जिसे अब सास-बहू का मंदिर नाम से भी जानते हैं। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था। यह सिंधिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं, बल्कि एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के 35 कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द दरबार हॉल इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिद्ध चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहाँ हैं। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है। यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है। गोपाचल पर्वत ग्वालियर के किले के अंचल में, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं॰ रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई। | झांसी की रानी किसे कहा जाता है? | {
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]
} | Who is called the Queen of Jhansi? | A temple of Vishnu is 'Temple of Sahasrabahu', which is now known by the name of mother-in-law's temple.Apart from this, there is a beautiful gurdwara which was built in the memory of Guru Hargobind ji, the sixth Guru of Sikhs, which Jahangir had kept a prisoner here for two years.It is not only the present residence of the Scindia royal family, but also a grand museum.35 rooms of this palace have been made a museum.Most of this palace is affected by Italian architecture.The famous court hall of this palace is a witness to the grand past of this palace, the burden of two phanos installed here is two-tons, they say that they were hung when the strength of the roof was measured by climbing ten elephants on the roof.Another famous thing of this museum is, silver rail whose tracks are on the dining table and in specific feasts this rail drinks are served.And the rare artifacts of Italy, France, China and many other countries are here.The monument of the Indian classical music, the great musician Tansen, who was one of the Navratnas of Akbar, is located here, it is a sample of Mughal architecture.Tansen ceremony is held in Gwalior every year in the memory of Tansen.This is a temple built by Birla, whose inspiration is taken from the Suryamandir of Kornak.In the zone of the fort of Gopachal mountain Gwalior, the ancient artistic Jain statue has a unique place of the statue group.Thousands of huge here.Jain idols no.1398 to No.The mountain between 1536 is carved out.These huge idols were built during the period of Tomarvanshi King Veeramdev, Dungar Singh and Kirtisinh.He had a reputation in the association of Pt. | {
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]
} |
1287 | विष्णु जी का एक मन्दिर है 'सहस्रबाहु का मन्दिर' जिसे अब सास-बहू का मंदिर नाम से भी जानते हैं। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था। यह सिंधिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं, बल्कि एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के 35 कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द दरबार हॉल इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिद्ध चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहाँ हैं। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है। यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है। गोपाचल पर्वत ग्वालियर के किले के अंचल में, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं॰ रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई। | तानसेन महोत्सव कहां मनाया जाता है? | {
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"ग्वालियर"
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1016
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} | Where is the Tansen Festival celebrated? | A temple of Vishnu is 'Temple of Sahasrabahu', which is now known by the name of mother-in-law's temple.Apart from this, there is a beautiful gurdwara which was built in the memory of Guru Hargobind ji, the sixth Guru of Sikhs, which Jahangir had kept a prisoner here for two years.It is not only the present residence of the Scindia royal family, but also a grand museum.35 rooms of this palace have been made a museum.Most of this palace is affected by Italian architecture.The famous court hall of this palace is a witness to the grand past of this palace, the burden of two phanos installed here is two-tons, they say that they were hung when the strength of the roof was measured by climbing ten elephants on the roof.Another famous thing of this museum is, silver rail whose tracks are on the dining table and in specific feasts this rail drinks are served.And the rare artifacts of Italy, France, China and many other countries are here.The monument of the Indian classical music, the great musician Tansen, who was one of the Navratnas of Akbar, is located here, it is a sample of Mughal architecture.Tansen ceremony is held in Gwalior every year in the memory of Tansen.This is a temple built by Birla, whose inspiration is taken from the Suryamandir of Kornak.In the zone of the fort of Gopachal mountain Gwalior, the ancient artistic Jain statue has a unique place of the statue group.Thousands of huge here.Jain idols no.1398 to No.The mountain between 1536 is carved out.These huge idols were built during the period of Tomarvanshi King Veeramdev, Dungar Singh and Kirtisinh.He had a reputation in the association of Pt. | {
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1016
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"Gwalior"
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1288 | विष्णु जी का एक मन्दिर है 'सहस्रबाहु का मन्दिर' जिसे अब सास-बहू का मंदिर नाम से भी जानते हैं। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था। यह सिंधिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं, बल्कि एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के 35 कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द दरबार हॉल इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिद्ध चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहाँ हैं। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है। यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है। गोपाचल पर्वत ग्वालियर के किले के अंचल में, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं॰ रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई। | रानी लक्ष्मीबाई स्मारक झाँसी में कहां स्थित है? | {
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} | Where is Rani Lakshmibai Memorial located in Jhansi? | A temple of Vishnu is 'Temple of Sahasrabahu', which is now known by the name of mother-in-law's temple.Apart from this, there is a beautiful gurdwara which was built in the memory of Guru Hargobind ji, the sixth Guru of Sikhs, which Jahangir had kept a prisoner here for two years.It is not only the present residence of the Scindia royal family, but also a grand museum.35 rooms of this palace have been made a museum.Most of this palace is affected by Italian architecture.The famous court hall of this palace is a witness to the grand past of this palace, the burden of two phanos installed here is two-tons, they say that they were hung when the strength of the roof was measured by climbing ten elephants on the roof.Another famous thing of this museum is, silver rail whose tracks are on the dining table and in specific feasts this rail drinks are served.And the rare artifacts of Italy, France, China and many other countries are here.The monument of the Indian classical music, the great musician Tansen, who was one of the Navratnas of Akbar, is located here, it is a sample of Mughal architecture.Tansen ceremony is held in Gwalior every year in the memory of Tansen.This is a temple built by Birla, whose inspiration is taken from the Suryamandir of Kornak.In the zone of the fort of Gopachal mountain Gwalior, the ancient artistic Jain statue has a unique place of the statue group.Thousands of huge here.Jain idols no.1398 to No.The mountain between 1536 is carved out.These huge idols were built during the period of Tomarvanshi King Veeramdev, Dungar Singh and Kirtisinh.He had a reputation in the association of Pt. | {
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1289 | विष्णु जी का एक मन्दिर है 'सहस्रबाहु का मन्दिर' जिसे अब सास-बहू का मंदिर नाम से भी जानते हैं। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था। यह सिंधिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं, बल्कि एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के 35 कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द दरबार हॉल इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिद्ध चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहाँ हैं। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है। यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है। गोपाचल पर्वत ग्वालियर के किले के अंचल में, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं॰ रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई। | सहस्रबाहु के मंदिर का दूसरा नाम क्या है ? | {
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"सास-बहू"
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56
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} | What is another name for the temple of Sahasrabahu? | A temple of Vishnu is 'Temple of Sahasrabahu', which is now known by the name of mother-in-law's temple.Apart from this, there is a beautiful gurdwara which was built in the memory of Guru Hargobind ji, the sixth Guru of Sikhs, which Jahangir had kept a prisoner here for two years.It is not only the present residence of the Scindia royal family, but also a grand museum.35 rooms of this palace have been made a museum.Most of this palace is affected by Italian architecture.The famous court hall of this palace is a witness to the grand past of this palace, the burden of two phanos installed here is two-tons, they say that they were hung when the strength of the roof was measured by climbing ten elephants on the roof.Another famous thing of this museum is, silver rail whose tracks are on the dining table and in specific feasts this rail drinks are served.And the rare artifacts of Italy, France, China and many other countries are here.The monument of the Indian classical music, the great musician Tansen, who was one of the Navratnas of Akbar, is located here, it is a sample of Mughal architecture.Tansen ceremony is held in Gwalior every year in the memory of Tansen.This is a temple built by Birla, whose inspiration is taken from the Suryamandir of Kornak.In the zone of the fort of Gopachal mountain Gwalior, the ancient artistic Jain statue has a unique place of the statue group.Thousands of huge here.Jain idols no.1398 to No.The mountain between 1536 is carved out.These huge idols were built during the period of Tomarvanshi King Veeramdev, Dungar Singh and Kirtisinh.He had a reputation in the association of Pt. | {
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56
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"mother-in-law"
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} |
1290 | वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। | नेपाल में अम्बेडकरवादी आंदोलन का नेतृत्व किसने ने किया था? | {
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} | Who led the Ambedkarite movement in Nepal? | They were imagining a free man who was religious by breaking the network of gods, but did not consider non-equal life value.Ambedkar himself determined twenty -two vows for his Buddhist followers, which is an essence of philosophy of Buddhism.These vows These vows in the trinity of Hinduism, disbelief, refutation of avatarism, shraddha-uplifying, abandonment of pindadan, faith in Buddha's principles and teachings, not participating by Brahmins, not participating by Brahmins, belief in human equality, belief of BuddhaWas related to following the route, kindness towards creatures, not stealing, not lies, not consuming alcohol, renunciation of Hinduism based on inequality and adopting Buddhism.With Navana, Ambedkar and his supporters clearly condemned and abandoned the oddist Hindu religion and Hindu philosophy.Ambedkar, on the second day on 15 October, then gave his 2 to 3 lakh followers initiation of Buddhist Dhamma, it was the follower who could not reach or reach the ceremony of 14 Akubar or reached late.Ambedkar initiated Buddhism in Nagpur, so it became famous as Bhumi Dikshabhoomi.On the last day, on 16 October, Ambedkar went to Chandrapur and there he also initiated Buddhist Dhamma to about 3,00,000 supporters.In this way, in just three days, Ambedkar himself converted more than 11 lakh people into Buddhism and increased the number of Buddhists of the world by 11 lakhs and reinstated Buddhism in India.The incident was greeted by many people and Buddhist countries.He then went to Kathmandu to participate in the fourth World Buddhist Conference in Nepal. | {
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1291 | वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। | नागपूर के बहुत सारे लोगों का बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो जाने के बाद नागपुर को किस नाम से जाना जाने लगा था ? | {
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"दीक्षाभूमि"
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1116
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} | What was the name by which Nagpur came to be known after many of its people converted to Buddhism? | They were imagining a free man who was religious by breaking the network of gods, but did not consider non-equal life value.Ambedkar himself determined twenty -two vows for his Buddhist followers, which is an essence of philosophy of Buddhism.These vows These vows in the trinity of Hinduism, disbelief, refutation of avatarism, shraddha-uplifying, abandonment of pindadan, faith in Buddha's principles and teachings, not participating by Brahmins, not participating by Brahmins, belief in human equality, belief of BuddhaWas related to following the route, kindness towards creatures, not stealing, not lies, not consuming alcohol, renunciation of Hinduism based on inequality and adopting Buddhism.With Navana, Ambedkar and his supporters clearly condemned and abandoned the oddist Hindu religion and Hindu philosophy.Ambedkar, on the second day on 15 October, then gave his 2 to 3 lakh followers initiation of Buddhist Dhamma, it was the follower who could not reach or reach the ceremony of 14 Akubar or reached late.Ambedkar initiated Buddhism in Nagpur, so it became famous as Bhumi Dikshabhoomi.On the last day, on 16 October, Ambedkar went to Chandrapur and there he also initiated Buddhist Dhamma to about 3,00,000 supporters.In this way, in just three days, Ambedkar himself converted more than 11 lakh people into Buddhism and increased the number of Buddhists of the world by 11 lakhs and reinstated Buddhism in India.The incident was greeted by many people and Buddhist countries.He then went to Kathmandu to participate in the fourth World Buddhist Conference in Nepal. | {
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1116
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"Deekshabhoomi"
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1292 | वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। | अंबेडकर ने चंद्रपुर में अनुयायियों को किस धर्म की दीक्षा दी थी ? | {
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"बौद्ध धम्म"
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930
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} | Which religion was initiated by Ambedkar to the followers in Chandrapur? | They were imagining a free man who was religious by breaking the network of gods, but did not consider non-equal life value.Ambedkar himself determined twenty -two vows for his Buddhist followers, which is an essence of philosophy of Buddhism.These vows These vows in the trinity of Hinduism, disbelief, refutation of avatarism, shraddha-uplifying, abandonment of pindadan, faith in Buddha's principles and teachings, not participating by Brahmins, not participating by Brahmins, belief in human equality, belief of BuddhaWas related to following the route, kindness towards creatures, not stealing, not lies, not consuming alcohol, renunciation of Hinduism based on inequality and adopting Buddhism.With Navana, Ambedkar and his supporters clearly condemned and abandoned the oddist Hindu religion and Hindu philosophy.Ambedkar, on the second day on 15 October, then gave his 2 to 3 lakh followers initiation of Buddhist Dhamma, it was the follower who could not reach or reach the ceremony of 14 Akubar or reached late.Ambedkar initiated Buddhism in Nagpur, so it became famous as Bhumi Dikshabhoomi.On the last day, on 16 October, Ambedkar went to Chandrapur and there he also initiated Buddhist Dhamma to about 3,00,000 supporters.In this way, in just three days, Ambedkar himself converted more than 11 lakh people into Buddhism and increased the number of Buddhists of the world by 11 lakhs and reinstated Buddhism in India.The incident was greeted by many people and Buddhist countries.He then went to Kathmandu to participate in the fourth World Buddhist Conference in Nepal. | {
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930
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"text": [
"Buddhist Dhamma"
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} |
1293 | वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। | अम्बेडकर ने स्वयं अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए कितने संकल्प निर्धारित किए थे ? | {
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"बाइस"
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223
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} | How many resolutions did Ambedkar himself set for his Buddhist followers? | They were imagining a free man who was religious by breaking the network of gods, but did not consider non-equal life value.Ambedkar himself determined twenty -two vows for his Buddhist followers, which is an essence of philosophy of Buddhism.These vows These vows in the trinity of Hinduism, disbelief, refutation of avatarism, shraddha-uplifying, abandonment of pindadan, faith in Buddha's principles and teachings, not participating by Brahmins, not participating by Brahmins, belief in human equality, belief of BuddhaWas related to following the route, kindness towards creatures, not stealing, not lies, not consuming alcohol, renunciation of Hinduism based on inequality and adopting Buddhism.With Navana, Ambedkar and his supporters clearly condemned and abandoned the oddist Hindu religion and Hindu philosophy.Ambedkar, on the second day on 15 October, then gave his 2 to 3 lakh followers initiation of Buddhist Dhamma, it was the follower who could not reach or reach the ceremony of 14 Akubar or reached late.Ambedkar initiated Buddhism in Nagpur, so it became famous as Bhumi Dikshabhoomi.On the last day, on 16 October, Ambedkar went to Chandrapur and there he also initiated Buddhist Dhamma to about 3,00,000 supporters.In this way, in just three days, Ambedkar himself converted more than 11 lakh people into Buddhism and increased the number of Buddhists of the world by 11 lakhs and reinstated Buddhism in India.The incident was greeted by many people and Buddhist countries.He then went to Kathmandu to participate in the fourth World Buddhist Conference in Nepal. | {
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223
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"twenty-two"
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1294 | वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। | अम्बेडकर ने नागपुर में कितने लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर दिया था ? | {
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"8 लाख"
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1065
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} | How many people did Ambedkar convert to Buddhism in Nagpur? | They were imagining a free man who was religious by breaking the network of gods, but did not consider non-equal life value.Ambedkar himself determined twenty -two vows for his Buddhist followers, which is an essence of philosophy of Buddhism.These vows These vows in the trinity of Hinduism, disbelief, refutation of avatarism, shraddha-uplifying, abandonment of pindadan, faith in Buddha's principles and teachings, not participating by Brahmins, not participating by Brahmins, belief in human equality, belief of BuddhaWas related to following the route, kindness towards creatures, not stealing, not lies, not consuming alcohol, renunciation of Hinduism based on inequality and adopting Buddhism.With Navana, Ambedkar and his supporters clearly condemned and abandoned the oddist Hindu religion and Hindu philosophy.Ambedkar, on the second day on 15 October, then gave his 2 to 3 lakh followers initiation of Buddhist Dhamma, it was the follower who could not reach or reach the ceremony of 14 Akubar or reached late.Ambedkar initiated Buddhism in Nagpur, so it became famous as Bhumi Dikshabhoomi.On the last day, on 16 October, Ambedkar went to Chandrapur and there he also initiated Buddhist Dhamma to about 3,00,000 supporters.In this way, in just three days, Ambedkar himself converted more than 11 lakh people into Buddhism and increased the number of Buddhists of the world by 11 lakhs and reinstated Buddhism in India.The incident was greeted by many people and Buddhist countries.He then went to Kathmandu to participate in the fourth World Buddhist Conference in Nepal. | {
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1065
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"8 lakh"
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1295 | वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। | आंबेडकर ने अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और कार्ल मार्क्स को पूरा कब किया था? | {
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} | When did Ambedkar complete his last manuscript Buddha and Karl Marx? | They were imagining a free man who was religious by breaking the network of gods, but did not consider non-equal life value.Ambedkar himself determined twenty -two vows for his Buddhist followers, which is an essence of philosophy of Buddhism.These vows These vows in the trinity of Hinduism, disbelief, refutation of avatarism, shraddha-uplifying, abandonment of pindadan, faith in Buddha's principles and teachings, not participating by Brahmins, not participating by Brahmins, belief in human equality, belief of BuddhaWas related to following the route, kindness towards creatures, not stealing, not lies, not consuming alcohol, renunciation of Hinduism based on inequality and adopting Buddhism.With Navana, Ambedkar and his supporters clearly condemned and abandoned the oddist Hindu religion and Hindu philosophy.Ambedkar, on the second day on 15 October, then gave his 2 to 3 lakh followers initiation of Buddhist Dhamma, it was the follower who could not reach or reach the ceremony of 14 Akubar or reached late.Ambedkar initiated Buddhism in Nagpur, so it became famous as Bhumi Dikshabhoomi.On the last day, on 16 October, Ambedkar went to Chandrapur and there he also initiated Buddhist Dhamma to about 3,00,000 supporters.In this way, in just three days, Ambedkar himself converted more than 11 lakh people into Buddhism and increased the number of Buddhists of the world by 11 lakhs and reinstated Buddhism in India.The incident was greeted by many people and Buddhist countries.He then went to Kathmandu to participate in the fourth World Buddhist Conference in Nepal. | {
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1296 | वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। | चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने के लिए अंबेडकर कहाँ गए थे ? | {
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} | Where did Ambedkar go to attend the Fourth World Buddhist Conference? | They were imagining a free man who was religious by breaking the network of gods, but did not consider non-equal life value.Ambedkar himself determined twenty -two vows for his Buddhist followers, which is an essence of philosophy of Buddhism.These vows These vows in the trinity of Hinduism, disbelief, refutation of avatarism, shraddha-uplifying, abandonment of pindadan, faith in Buddha's principles and teachings, not participating by Brahmins, not participating by Brahmins, belief in human equality, belief of BuddhaWas related to following the route, kindness towards creatures, not stealing, not lies, not consuming alcohol, renunciation of Hinduism based on inequality and adopting Buddhism.With Navana, Ambedkar and his supporters clearly condemned and abandoned the oddist Hindu religion and Hindu philosophy.Ambedkar, on the second day on 15 October, then gave his 2 to 3 lakh followers initiation of Buddhist Dhamma, it was the follower who could not reach or reach the ceremony of 14 Akubar or reached late.Ambedkar initiated Buddhism in Nagpur, so it became famous as Bhumi Dikshabhoomi.On the last day, on 16 October, Ambedkar went to Chandrapur and there he also initiated Buddhist Dhamma to about 3,00,000 supporters.In this way, in just three days, Ambedkar himself converted more than 11 lakh people into Buddhism and increased the number of Buddhists of the world by 11 lakhs and reinstated Buddhism in India.The incident was greeted by many people and Buddhist countries.He then went to Kathmandu to participate in the fourth World Buddhist Conference in Nepal. | {
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1297 | वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। | ग्रीस के राजदूत डियो क्राइसोस्टॉम के अनुसार दक्षिण भारतीयों के पास कितने श्लोकों का ग्रंथ है ? | {
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} | According to Dio Chrysostom, the ambassador of Greece, how many shlokas do South Indians have? | It took 3 years for Ved Vyas ji to complete the Mahabharata, the reason may be that at that time the writing script was not developed as much as it is visible today.In that period, the Vedic texts were preserved by the sages from generation to generation by recalling traditional orally.At that time Sanskrit was the language of sages and Brahmi used to be a common language.In this way, the sages remembered the entire Vedic literature orally and remembered for thousands of years from generation to generation.Then gradually when the effect of time disappeared with the fall of the Vedic era, the style of remembering the Vedic literature of the sages, since then it has been practiced to keep Vedic literature safe by writing on manuscripts.It is acceptable that the modern form of Mahabharata is formed through many stages.Four initial stages of its composition have been identified by scholars.These stages are written as follows in the possible composition period: 4) The writing of "Mahabharata", said as this talk of Sut ji and sage-sages, first sparked a script as handwritten manuscripts in Brahmi or Sanskrit when the writing art was developed.Go.The Mahabharata does not even describe Gupta and Maurya carpet kings and Jains (1000–700 BCE) and Buddhism (400–200 BCE).Also, the characters of Mahabharata are also described in Shatapatha Brahmin (1100 BCE) and Chandogya-Upanishad (1000 BCE).Therefore, it must have been composed before 1000 BC.The Ashtadhyayi (400–400 BCE) composed by Panini mentions both Mahabharata and India and along with it, the reference to Shri Krishna and Arjuna also comes, so Mahabharata and Bharat had existed long before the period of Panini. | {
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1298 | वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। | वेदव्यास को संपूर्ण महाभारत को लिखने में कितना समय लगा था ? | {
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"३ वर्ष"
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} | How long did it take Vedavyasa to write the entire Mahabharata? | It took 3 years for Ved Vyas ji to complete the Mahabharata, the reason may be that at that time the writing script was not developed as much as it is visible today.In that period, the Vedic texts were preserved by the sages from generation to generation by recalling traditional orally.At that time Sanskrit was the language of sages and Brahmi used to be a common language.In this way, the sages remembered the entire Vedic literature orally and remembered for thousands of years from generation to generation.Then gradually when the effect of time disappeared with the fall of the Vedic era, the style of remembering the Vedic literature of the sages, since then it has been practiced to keep Vedic literature safe by writing on manuscripts.It is acceptable that the modern form of Mahabharata is formed through many stages.Four initial stages of its composition have been identified by scholars.These stages are written as follows in the possible composition period: 4) The writing of "Mahabharata", said as this talk of Sut ji and sage-sages, first sparked a script as handwritten manuscripts in Brahmi or Sanskrit when the writing art was developed.Go.The Mahabharata does not even describe Gupta and Maurya carpet kings and Jains (1000–700 BCE) and Buddhism (400–200 BCE).Also, the characters of Mahabharata are also described in Shatapatha Brahmin (1100 BCE) and Chandogya-Upanishad (1000 BCE).Therefore, it must have been composed before 1000 BC.The Ashtadhyayi (400–400 BCE) composed by Panini mentions both Mahabharata and India and along with it, the reference to Shri Krishna and Arjuna also comes, so Mahabharata and Bharat had existed long before the period of Panini. | {
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"3 years"
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1299 | वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। | छांदोग्य-उपनिषद कब लिखी गई थी ? | {
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"१००० ईसा पूर्व"
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1212
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} | When was the Chandogya-Upanishad written? | It took 3 years for Ved Vyas ji to complete the Mahabharata, the reason may be that at that time the writing script was not developed as much as it is visible today.In that period, the Vedic texts were preserved by the sages from generation to generation by recalling traditional orally.At that time Sanskrit was the language of sages and Brahmi used to be a common language.In this way, the sages remembered the entire Vedic literature orally and remembered for thousands of years from generation to generation.Then gradually when the effect of time disappeared with the fall of the Vedic era, the style of remembering the Vedic literature of the sages, since then it has been practiced to keep Vedic literature safe by writing on manuscripts.It is acceptable that the modern form of Mahabharata is formed through many stages.Four initial stages of its composition have been identified by scholars.These stages are written as follows in the possible composition period: 4) The writing of "Mahabharata", said as this talk of Sut ji and sage-sages, first sparked a script as handwritten manuscripts in Brahmi or Sanskrit when the writing art was developed.Go.The Mahabharata does not even describe Gupta and Maurya carpet kings and Jains (1000–700 BCE) and Buddhism (400–200 BCE).Also, the characters of Mahabharata are also described in Shatapatha Brahmin (1100 BCE) and Chandogya-Upanishad (1000 BCE).Therefore, it must have been composed before 1000 BC.The Ashtadhyayi (400–400 BCE) composed by Panini mentions both Mahabharata and India and along with it, the reference to Shri Krishna and Arjuna also comes, so Mahabharata and Bharat had existed long before the period of Panini. | {
"answer_start": [
1212
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"text": [
"1000 BCE"
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