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1300 | वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। | अष्टाध्यायी किसके द्वारा लिखी गई थी ? | {
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"पाणिनि"
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1331
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} | Ashtadhyayi was written by whom? | It took 3 years for Ved Vyas ji to complete the Mahabharata, the reason may be that at that time the writing script was not developed as much as it is visible today.In that period, the Vedic texts were preserved by the sages from generation to generation by recalling traditional orally.At that time Sanskrit was the language of sages and Brahmi used to be a common language.In this way, the sages remembered the entire Vedic literature orally and remembered for thousands of years from generation to generation.Then gradually when the effect of time disappeared with the fall of the Vedic era, the style of remembering the Vedic literature of the sages, since then it has been practiced to keep Vedic literature safe by writing on manuscripts.It is acceptable that the modern form of Mahabharata is formed through many stages.Four initial stages of its composition have been identified by scholars.These stages are written as follows in the possible composition period: 4) The writing of "Mahabharata", said as this talk of Sut ji and sage-sages, first sparked a script as handwritten manuscripts in Brahmi or Sanskrit when the writing art was developed.Go.The Mahabharata does not even describe Gupta and Maurya carpet kings and Jains (1000–700 BCE) and Buddhism (400–200 BCE).Also, the characters of Mahabharata are also described in Shatapatha Brahmin (1100 BCE) and Chandogya-Upanishad (1000 BCE).Therefore, it must have been composed before 1000 BC.The Ashtadhyayi (400–400 BCE) composed by Panini mentions both Mahabharata and India and along with it, the reference to Shri Krishna and Arjuna also comes, so Mahabharata and Bharat had existed long before the period of Panini. | {
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1331
],
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"Panini"
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} |
1301 | वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। | वैदिक साहित्य को संरक्षित करने के लिए किस पर लिखा जाता था ? | {
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"पाण्डुलिपियों"
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598
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} | On which was Vedic literature written to be preserved? | It took 3 years for Ved Vyas ji to complete the Mahabharata, the reason may be that at that time the writing script was not developed as much as it is visible today.In that period, the Vedic texts were preserved by the sages from generation to generation by recalling traditional orally.At that time Sanskrit was the language of sages and Brahmi used to be a common language.In this way, the sages remembered the entire Vedic literature orally and remembered for thousands of years from generation to generation.Then gradually when the effect of time disappeared with the fall of the Vedic era, the style of remembering the Vedic literature of the sages, since then it has been practiced to keep Vedic literature safe by writing on manuscripts.It is acceptable that the modern form of Mahabharata is formed through many stages.Four initial stages of its composition have been identified by scholars.These stages are written as follows in the possible composition period: 4) The writing of "Mahabharata", said as this talk of Sut ji and sage-sages, first sparked a script as handwritten manuscripts in Brahmi or Sanskrit when the writing art was developed.Go.The Mahabharata does not even describe Gupta and Maurya carpet kings and Jains (1000–700 BCE) and Buddhism (400–200 BCE).Also, the characters of Mahabharata are also described in Shatapatha Brahmin (1100 BCE) and Chandogya-Upanishad (1000 BCE).Therefore, it must have been composed before 1000 BC.The Ashtadhyayi (400–400 BCE) composed by Panini mentions both Mahabharata and India and along with it, the reference to Shri Krishna and Arjuna also comes, so Mahabharata and Bharat had existed long before the period of Panini. | {
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598
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"Manuscripts"
]
} |
1302 | वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। | पहली शताब्दी में महाभारत में कितने श्लोक थे ? | {
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""
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]
} | How many verses were there in the Mahabharata in the first century? | It took 3 years for Ved Vyas ji to complete the Mahabharata, the reason may be that at that time the writing script was not developed as much as it is visible today.In that period, the Vedic texts were preserved by the sages from generation to generation by recalling traditional orally.At that time Sanskrit was the language of sages and Brahmi used to be a common language.In this way, the sages remembered the entire Vedic literature orally and remembered for thousands of years from generation to generation.Then gradually when the effect of time disappeared with the fall of the Vedic era, the style of remembering the Vedic literature of the sages, since then it has been practiced to keep Vedic literature safe by writing on manuscripts.It is acceptable that the modern form of Mahabharata is formed through many stages.Four initial stages of its composition have been identified by scholars.These stages are written as follows in the possible composition period: 4) The writing of "Mahabharata", said as this talk of Sut ji and sage-sages, first sparked a script as handwritten manuscripts in Brahmi or Sanskrit when the writing art was developed.Go.The Mahabharata does not even describe Gupta and Maurya carpet kings and Jains (1000–700 BCE) and Buddhism (400–200 BCE).Also, the characters of Mahabharata are also described in Shatapatha Brahmin (1100 BCE) and Chandogya-Upanishad (1000 BCE).Therefore, it must have been composed before 1000 BC.The Ashtadhyayi (400–400 BCE) composed by Panini mentions both Mahabharata and India and along with it, the reference to Shri Krishna and Arjuna also comes, so Mahabharata and Bharat had existed long before the period of Panini. | {
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null
],
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""
]
} |
1303 | वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। | प्राचीन समय में ऋषियों की भाषा क्या थी ? | {
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"संस्कृत"
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273
]
} | What was the language of the rishis in ancient times? | It took 3 years for Ved Vyas ji to complete the Mahabharata, the reason may be that at that time the writing script was not developed as much as it is visible today.In that period, the Vedic texts were preserved by the sages from generation to generation by recalling traditional orally.At that time Sanskrit was the language of sages and Brahmi used to be a common language.In this way, the sages remembered the entire Vedic literature orally and remembered for thousands of years from generation to generation.Then gradually when the effect of time disappeared with the fall of the Vedic era, the style of remembering the Vedic literature of the sages, since then it has been practiced to keep Vedic literature safe by writing on manuscripts.It is acceptable that the modern form of Mahabharata is formed through many stages.Four initial stages of its composition have been identified by scholars.These stages are written as follows in the possible composition period: 4) The writing of "Mahabharata", said as this talk of Sut ji and sage-sages, first sparked a script as handwritten manuscripts in Brahmi or Sanskrit when the writing art was developed.Go.The Mahabharata does not even describe Gupta and Maurya carpet kings and Jains (1000–700 BCE) and Buddhism (400–200 BCE).Also, the characters of Mahabharata are also described in Shatapatha Brahmin (1100 BCE) and Chandogya-Upanishad (1000 BCE).Therefore, it must have been composed before 1000 BC.The Ashtadhyayi (400–400 BCE) composed by Panini mentions both Mahabharata and India and along with it, the reference to Shri Krishna and Arjuna also comes, so Mahabharata and Bharat had existed long before the period of Panini. | {
"answer_start": [
273
],
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"Sanskrit"
]
} |
1304 | वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृत) के बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते हैं, बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.उपनिषदों में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते है। हिंदू ग्रंथ और बौद्ध ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थो में से एक है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। | तपस्वियों का उल्लेख वेदों में कब किया गया है? | {
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"९०० से ५०० बी सी ई"
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106
]
} | When are ascetics mentioned in the Vedas? | Under the Vedic Code, about the ascetics of Tapas Tapas (Sanskrit) ((tomorrow | Brahmin)) mentions in the Vedas (900 to 500 BCE) since ancient times, while the inclusion of tapasic practices is received in ancient Vedic comments.Many idols that exhibit general yoga or samadhi posture have been obtained in place of Indus Valley Civilization (C.3300–1700 BCE).According to the archaeological Gregory Possehl, "These idols indicate the relationship of the sum of the yoga of yoga".Although there is no decision-making evidence of this, there is a relationship between Indus Valley Civilization and Yoga-meditation in the opinion of many Pandits.In meditation, the development of customs that achieved high consciousness were developed by the Shramanic traditions and by the tradition of the Upanishads.There is no concrete evidence about meditation in the east and ancient Brahminic texts of Buddha, based on the sentences said to the goals of the meditation of two teachers of Buddha, arguments that the method of Nirguna meditation comes out of the Brahmin tradition, hence the UpanishadsThere is a similarity in the statements of the statements of the creation and the statements of meditation.It can also be potential, not. Not. In the Upanishads, the global statements of the universe argued that the possibility of any meditation in the global statements, saying that Nasi Sukta also indicates a method of meditation even before the Rigveda.Hindu texts and Buddhist texts are one of the ancient texts in which the description of meditation techniques is obtained. | {
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106
],
"text": [
"900 to 500 BCE."
]
} |
1305 | वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृत) के बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते हैं, बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.उपनिषदों में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते है। हिंदू ग्रंथ और बौद्ध ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थो में से एक है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। | सिंधु घाटी की सभ्यता कितने वर्षो तक चली है? | {
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"सी.3300-1700 बी.सी. इ."
],
"answer_start": [
299
]
} | The Indus Valley Civilization has lasted for how many years? | Under the Vedic Code, about the ascetics of Tapas Tapas (Sanskrit) ((tomorrow | Brahmin)) mentions in the Vedas (900 to 500 BCE) since ancient times, while the inclusion of tapasic practices is received in ancient Vedic comments.Many idols that exhibit general yoga or samadhi posture have been obtained in place of Indus Valley Civilization (C.3300–1700 BCE).According to the archaeological Gregory Possehl, "These idols indicate the relationship of the sum of the yoga of yoga".Although there is no decision-making evidence of this, there is a relationship between Indus Valley Civilization and Yoga-meditation in the opinion of many Pandits.In meditation, the development of customs that achieved high consciousness were developed by the Shramanic traditions and by the tradition of the Upanishads.There is no concrete evidence about meditation in the east and ancient Brahminic texts of Buddha, based on the sentences said to the goals of the meditation of two teachers of Buddha, arguments that the method of Nirguna meditation comes out of the Brahmin tradition, hence the UpanishadsThere is a similarity in the statements of the statements of the creation and the statements of meditation.It can also be potential, not. Not. In the Upanishads, the global statements of the universe argued that the possibility of any meditation in the global statements, saying that Nasi Sukta also indicates a method of meditation even before the Rigveda.Hindu texts and Buddhist texts are one of the ancient texts in which the description of meditation techniques is obtained. | {
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299
],
"text": [
"C. 3300-1700 B.C.E."
]
} |
1306 | वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृत) के बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते हैं, बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.उपनिषदों में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते है। हिंदू ग्रंथ और बौद्ध ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थो में से एक है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। | भारतीय दर्शन शास्त्र में योग को कितने दर्शन शास्त्र का स्थान मिला है ? | {
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""
],
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} | How many philosophies have given yoga a place in Indian philosophy? | Under the Vedic Code, about the ascetics of Tapas Tapas (Sanskrit) ((tomorrow | Brahmin)) mentions in the Vedas (900 to 500 BCE) since ancient times, while the inclusion of tapasic practices is received in ancient Vedic comments.Many idols that exhibit general yoga or samadhi posture have been obtained in place of Indus Valley Civilization (C.3300–1700 BCE).According to the archaeological Gregory Possehl, "These idols indicate the relationship of the sum of the yoga of yoga".Although there is no decision-making evidence of this, there is a relationship between Indus Valley Civilization and Yoga-meditation in the opinion of many Pandits.In meditation, the development of customs that achieved high consciousness were developed by the Shramanic traditions and by the tradition of the Upanishads.There is no concrete evidence about meditation in the east and ancient Brahminic texts of Buddha, based on the sentences said to the goals of the meditation of two teachers of Buddha, arguments that the method of Nirguna meditation comes out of the Brahmin tradition, hence the UpanishadsThere is a similarity in the statements of the statements of the creation and the statements of meditation.It can also be potential, not. Not. In the Upanishads, the global statements of the universe argued that the possibility of any meditation in the global statements, saying that Nasi Sukta also indicates a method of meditation even before the Rigveda.Hindu texts and Buddhist texts are one of the ancient texts in which the description of meditation techniques is obtained. | {
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null
],
"text": [
""
]
} |
1307 | वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृत) के बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते हैं, बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.उपनिषदों में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते है। हिंदू ग्रंथ और बौद्ध ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थो में से एक है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। | भगवत गीता कब लिखी गई थी ? | {
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],
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} | When was the Bhagavad Gita written? | Under the Vedic Code, about the ascetics of Tapas Tapas (Sanskrit) ((tomorrow | Brahmin)) mentions in the Vedas (900 to 500 BCE) since ancient times, while the inclusion of tapasic practices is received in ancient Vedic comments.Many idols that exhibit general yoga or samadhi posture have been obtained in place of Indus Valley Civilization (C.3300–1700 BCE).According to the archaeological Gregory Possehl, "These idols indicate the relationship of the sum of the yoga of yoga".Although there is no decision-making evidence of this, there is a relationship between Indus Valley Civilization and Yoga-meditation in the opinion of many Pandits.In meditation, the development of customs that achieved high consciousness were developed by the Shramanic traditions and by the tradition of the Upanishads.There is no concrete evidence about meditation in the east and ancient Brahminic texts of Buddha, based on the sentences said to the goals of the meditation of two teachers of Buddha, arguments that the method of Nirguna meditation comes out of the Brahmin tradition, hence the UpanishadsThere is a similarity in the statements of the statements of the creation and the statements of meditation.It can also be potential, not. Not. In the Upanishads, the global statements of the universe argued that the possibility of any meditation in the global statements, saying that Nasi Sukta also indicates a method of meditation even before the Rigveda.Hindu texts and Buddhist texts are one of the ancient texts in which the description of meditation techniques is obtained. | {
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1308 | वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृत) के बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते हैं, बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.उपनिषदों में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते है। हिंदू ग्रंथ और बौद्ध ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थो में से एक है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। | हिन्दू ग्रंथ के अलावा ध्यान तकनीकों का वर्णन दुसरे किस ग्रंथ में किया गया है ? | {
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"बौद्ध ग्रंथ"
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1306
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} | Apart from the Hindu text, what other texts describe meditation techniques? | Under the Vedic Code, about the ascetics of Tapas Tapas (Sanskrit) ((tomorrow | Brahmin)) mentions in the Vedas (900 to 500 BCE) since ancient times, while the inclusion of tapasic practices is received in ancient Vedic comments.Many idols that exhibit general yoga or samadhi posture have been obtained in place of Indus Valley Civilization (C.3300–1700 BCE).According to the archaeological Gregory Possehl, "These idols indicate the relationship of the sum of the yoga of yoga".Although there is no decision-making evidence of this, there is a relationship between Indus Valley Civilization and Yoga-meditation in the opinion of many Pandits.In meditation, the development of customs that achieved high consciousness were developed by the Shramanic traditions and by the tradition of the Upanishads.There is no concrete evidence about meditation in the east and ancient Brahminic texts of Buddha, based on the sentences said to the goals of the meditation of two teachers of Buddha, arguments that the method of Nirguna meditation comes out of the Brahmin tradition, hence the UpanishadsThere is a similarity in the statements of the statements of the creation and the statements of meditation.It can also be potential, not. Not. In the Upanishads, the global statements of the universe argued that the possibility of any meditation in the global statements, saying that Nasi Sukta also indicates a method of meditation even before the Rigveda.Hindu texts and Buddhist texts are one of the ancient texts in which the description of meditation techniques is obtained. | {
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1306
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"Buddhist texts"
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1309 | वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है। 1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017+11)सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है। यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता। यह 40 अध्यायों में विभाजित है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी। इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। | संहिताओं के तहत निर्धारित अनुष्ठान के नियम किस जाति विशेष में देखे जा सकते हैं ? | {
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} | The rules of ritual prescribed under the Samhitas can be seen in which particular caste? | Vedic literature includes four Vedas and their codes, Brahmins, Aranyaka, Upanishads and Vedangas.The number of Vedas is four- Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda.The Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda are the first authentic texts in the world.The Vedas have been called apaurusheya.The Vedas have been called "Shruti" due to the Guru's disciples orally conceived.1. The Rigveda is a collection of compositions related to the praise of the gods.2. It is divided into 10 mandals.In this, mandals from 2 to 7 are considered to be the oldest.First and tenth mandal are later added.It has 1028 (1017+11) Sukta.3. Its language is poetic.4. In the Rigveda, 33 types of gods (substances with divine qualities) are mentioned.5. Famous Gayatri Mantra which is addressed to Goddess Gayatri related to Surya, is first received in the Rigveda.6. The sentence 'Asato Ma Sadgamay' is taken from the Rigveda.7. In the Rigveda, the names of women are also found in conniving the mantra, including the main ones- Lopamudra, Ghosha, Shachi, Paulomi and Kakshvruti etc.8. His priest's name is Hotri.Yaju means Yajna.It mentions archery.Its reader is called Adhvaryu.The Yajurveda Veda describes the methods of Yajna.In this, the compilation of mantras has been done with the aim of reciting the level at the time of the Holiness Yajna.Along with this, there is a description of mantras as well as religious rituals, which have been suggested to be edited with chanting.The language of Yajurveda is both poetic and prose.Yajurveda has two branches- Krishna Yajurveda and Shukla Yajurveda.Krishna Yajurveda has four branches- Maitrayani Samhita, Kathk Samhita, Kapinthhal and Samhita.Shukla Yajurveda has two branches- Madhyadin and Kanva Samhita.It is divided into 40 chapters.For the first time in this book, two state functions like Rajasuya and Vajpayee are mentioned.Samaveda was composed to make the mantras given in the Rigveda to singable.It has 1810 verses, which except 75 are mentioned in the Rigveda.Samveda is divided into three branches- Kauthum, Ranayayan and Jaimani.Samaveda has the distinction of being India's first musical book.Vedic mantras and codes have been called Brahma.At the same time, the extended form of Brahma has been called Brahmin.Aitareya, Shatapatha, Panchavish, Teatariya etc. are particularly important in the ancient Brahmins.Maharishi Yajnavalkya has received the preaching of Brahmin texts including Mantra from Aditya. | {
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1310 | वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है। 1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017+11)सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है। यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता। यह 40 अध्यायों में विभाजित है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी। इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। | किस धर्म का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ब्राह्मण है ? | {
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} | The most important part of which religion is Brahmanism? | Vedic literature includes four Vedas and their codes, Brahmins, Aranyaka, Upanishads and Vedangas.The number of Vedas is four- Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda.The Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda are the first authentic texts in the world.The Vedas have been called apaurusheya.The Vedas have been called "Shruti" due to the Guru's disciples orally conceived.1. The Rigveda is a collection of compositions related to the praise of the gods.2. It is divided into 10 mandals.In this, mandals from 2 to 7 are considered to be the oldest.First and tenth mandal are later added.It has 1028 (1017+11) Sukta.3. Its language is poetic.4. In the Rigveda, 33 types of gods (substances with divine qualities) are mentioned.5. Famous Gayatri Mantra which is addressed to Goddess Gayatri related to Surya, is first received in the Rigveda.6. The sentence 'Asato Ma Sadgamay' is taken from the Rigveda.7. In the Rigveda, the names of women are also found in conniving the mantra, including the main ones- Lopamudra, Ghosha, Shachi, Paulomi and Kakshvruti etc.8. His priest's name is Hotri.Yaju means Yajna.It mentions archery.Its reader is called Adhvaryu.The Yajurveda Veda describes the methods of Yajna.In this, the compilation of mantras has been done with the aim of reciting the level at the time of the Holiness Yajna.Along with this, there is a description of mantras as well as religious rituals, which have been suggested to be edited with chanting.The language of Yajurveda is both poetic and prose.Yajurveda has two branches- Krishna Yajurveda and Shukla Yajurveda.Krishna Yajurveda has four branches- Maitrayani Samhita, Kathk Samhita, Kapinthhal and Samhita.Shukla Yajurveda has two branches- Madhyadin and Kanva Samhita.It is divided into 40 chapters.For the first time in this book, two state functions like Rajasuya and Vajpayee are mentioned.Samaveda was composed to make the mantras given in the Rigveda to singable.It has 1810 verses, which except 75 are mentioned in the Rigveda.Samveda is divided into three branches- Kauthum, Ranayayan and Jaimani.Samaveda has the distinction of being India's first musical book.Vedic mantras and codes have been called Brahma.At the same time, the extended form of Brahma has been called Brahmin.Aitareya, Shatapatha, Panchavish, Teatariya etc. are particularly important in the ancient Brahmins.Maharishi Yajnavalkya has received the preaching of Brahmin texts including Mantra from Aditya. | {
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1311 | वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है। 1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017+11)सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है। यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता। यह 40 अध्यायों में विभाजित है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी। इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। | सामवेद में कुल कितने श्लोक है ? | {
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"1810"
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1810
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} | How many verses are there in the Samaveda? | Vedic literature includes four Vedas and their codes, Brahmins, Aranyaka, Upanishads and Vedangas.The number of Vedas is four- Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda.The Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda are the first authentic texts in the world.The Vedas have been called apaurusheya.The Vedas have been called "Shruti" due to the Guru's disciples orally conceived.1. The Rigveda is a collection of compositions related to the praise of the gods.2. It is divided into 10 mandals.In this, mandals from 2 to 7 are considered to be the oldest.First and tenth mandal are later added.It has 1028 (1017+11) Sukta.3. Its language is poetic.4. In the Rigveda, 33 types of gods (substances with divine qualities) are mentioned.5. Famous Gayatri Mantra which is addressed to Goddess Gayatri related to Surya, is first received in the Rigveda.6. The sentence 'Asato Ma Sadgamay' is taken from the Rigveda.7. In the Rigveda, the names of women are also found in conniving the mantra, including the main ones- Lopamudra, Ghosha, Shachi, Paulomi and Kakshvruti etc.8. His priest's name is Hotri.Yaju means Yajna.It mentions archery.Its reader is called Adhvaryu.The Yajurveda Veda describes the methods of Yajna.In this, the compilation of mantras has been done with the aim of reciting the level at the time of the Holiness Yajna.Along with this, there is a description of mantras as well as religious rituals, which have been suggested to be edited with chanting.The language of Yajurveda is both poetic and prose.Yajurveda has two branches- Krishna Yajurveda and Shukla Yajurveda.Krishna Yajurveda has four branches- Maitrayani Samhita, Kathk Samhita, Kapinthhal and Samhita.Shukla Yajurveda has two branches- Madhyadin and Kanva Samhita.It is divided into 40 chapters.For the first time in this book, two state functions like Rajasuya and Vajpayee are mentioned.Samaveda was composed to make the mantras given in the Rigveda to singable.It has 1810 verses, which except 75 are mentioned in the Rigveda.Samveda is divided into three branches- Kauthum, Ranayayan and Jaimani.Samaveda has the distinction of being India's first musical book.Vedic mantras and codes have been called Brahma.At the same time, the extended form of Brahma has been called Brahmin.Aitareya, Shatapatha, Panchavish, Teatariya etc. are particularly important in the ancient Brahmins.Maharishi Yajnavalkya has received the preaching of Brahmin texts including Mantra from Aditya. | {
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1810
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"1810"
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1312 | वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है। 1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017+11)सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है। यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता। यह 40 अध्यायों में विभाजित है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी। इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। | महिलाओं के नाम का उच्चारण किस वेद के मंत्र में पाए जाते है ? | {
"text": [
"ऋग्वेद"
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131
]
} | The pronunciation of women's names is found in the mantra of which Veda? | Vedic literature includes four Vedas and their codes, Brahmins, Aranyaka, Upanishads and Vedangas.The number of Vedas is four- Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda.The Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda are the first authentic texts in the world.The Vedas have been called apaurusheya.The Vedas have been called "Shruti" due to the Guru's disciples orally conceived.1. The Rigveda is a collection of compositions related to the praise of the gods.2. It is divided into 10 mandals.In this, mandals from 2 to 7 are considered to be the oldest.First and tenth mandal are later added.It has 1028 (1017+11) Sukta.3. Its language is poetic.4. In the Rigveda, 33 types of gods (substances with divine qualities) are mentioned.5. Famous Gayatri Mantra which is addressed to Goddess Gayatri related to Surya, is first received in the Rigveda.6. The sentence 'Asato Ma Sadgamay' is taken from the Rigveda.7. In the Rigveda, the names of women are also found in conniving the mantra, including the main ones- Lopamudra, Ghosha, Shachi, Paulomi and Kakshvruti etc.8. His priest's name is Hotri.Yaju means Yajna.It mentions archery.Its reader is called Adhvaryu.The Yajurveda Veda describes the methods of Yajna.In this, the compilation of mantras has been done with the aim of reciting the level at the time of the Holiness Yajna.Along with this, there is a description of mantras as well as religious rituals, which have been suggested to be edited with chanting.The language of Yajurveda is both poetic and prose.Yajurveda has two branches- Krishna Yajurveda and Shukla Yajurveda.Krishna Yajurveda has four branches- Maitrayani Samhita, Kathk Samhita, Kapinthhal and Samhita.Shukla Yajurveda has two branches- Madhyadin and Kanva Samhita.It is divided into 40 chapters.For the first time in this book, two state functions like Rajasuya and Vajpayee are mentioned.Samaveda was composed to make the mantras given in the Rigveda to singable.It has 1810 verses, which except 75 are mentioned in the Rigveda.Samveda is divided into three branches- Kauthum, Ranayayan and Jaimani.Samaveda has the distinction of being India's first musical book.Vedic mantras and codes have been called Brahma.At the same time, the extended form of Brahma has been called Brahmin.Aitareya, Shatapatha, Panchavish, Teatariya etc. are particularly important in the ancient Brahmins.Maharishi Yajnavalkya has received the preaching of Brahmin texts including Mantra from Aditya. | {
"answer_start": [
131
],
"text": [
"Rigveda"
]
} |
1313 | वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है। 1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017+11)सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है। यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता। यह 40 अध्यायों में विभाजित है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी। इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। | वेद कितने प्रकार के होते है ? | {
"text": [
"चार"
],
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18
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} | How many types of Vedas are there? | Vedic literature includes four Vedas and their codes, Brahmins, Aranyaka, Upanishads and Vedangas.The number of Vedas is four- Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda.The Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda are the first authentic texts in the world.The Vedas have been called apaurusheya.The Vedas have been called "Shruti" due to the Guru's disciples orally conceived.1. The Rigveda is a collection of compositions related to the praise of the gods.2. It is divided into 10 mandals.In this, mandals from 2 to 7 are considered to be the oldest.First and tenth mandal are later added.It has 1028 (1017+11) Sukta.3. Its language is poetic.4. In the Rigveda, 33 types of gods (substances with divine qualities) are mentioned.5. Famous Gayatri Mantra which is addressed to Goddess Gayatri related to Surya, is first received in the Rigveda.6. The sentence 'Asato Ma Sadgamay' is taken from the Rigveda.7. In the Rigveda, the names of women are also found in conniving the mantra, including the main ones- Lopamudra, Ghosha, Shachi, Paulomi and Kakshvruti etc.8. His priest's name is Hotri.Yaju means Yajna.It mentions archery.Its reader is called Adhvaryu.The Yajurveda Veda describes the methods of Yajna.In this, the compilation of mantras has been done with the aim of reciting the level at the time of the Holiness Yajna.Along with this, there is a description of mantras as well as religious rituals, which have been suggested to be edited with chanting.The language of Yajurveda is both poetic and prose.Yajurveda has two branches- Krishna Yajurveda and Shukla Yajurveda.Krishna Yajurveda has four branches- Maitrayani Samhita, Kathk Samhita, Kapinthhal and Samhita.Shukla Yajurveda has two branches- Madhyadin and Kanva Samhita.It is divided into 40 chapters.For the first time in this book, two state functions like Rajasuya and Vajpayee are mentioned.Samaveda was composed to make the mantras given in the Rigveda to singable.It has 1810 verses, which except 75 are mentioned in the Rigveda.Samveda is divided into three branches- Kauthum, Ranayayan and Jaimani.Samaveda has the distinction of being India's first musical book.Vedic mantras and codes have been called Brahma.At the same time, the extended form of Brahma has been called Brahmin.Aitareya, Shatapatha, Panchavish, Teatariya etc. are particularly important in the ancient Brahmins.Maharishi Yajnavalkya has received the preaching of Brahmin texts including Mantra from Aditya. | {
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18
],
"text": [
"Four"
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} |
1314 | वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है। 1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017+11)सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है। यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता। यह 40 अध्यायों में विभाजित है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी। इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। | यज्ञ की विधियों का वर्णन किस वेद में किया गया है ? | {
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"यजुर्वेद"
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147
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} | The methods of yajna are described in which Veda? | Vedic literature includes four Vedas and their codes, Brahmins, Aranyaka, Upanishads and Vedangas.The number of Vedas is four- Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda.The Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda are the first authentic texts in the world.The Vedas have been called apaurusheya.The Vedas have been called "Shruti" due to the Guru's disciples orally conceived.1. The Rigveda is a collection of compositions related to the praise of the gods.2. It is divided into 10 mandals.In this, mandals from 2 to 7 are considered to be the oldest.First and tenth mandal are later added.It has 1028 (1017+11) Sukta.3. Its language is poetic.4. In the Rigveda, 33 types of gods (substances with divine qualities) are mentioned.5. Famous Gayatri Mantra which is addressed to Goddess Gayatri related to Surya, is first received in the Rigveda.6. The sentence 'Asato Ma Sadgamay' is taken from the Rigveda.7. In the Rigveda, the names of women are also found in conniving the mantra, including the main ones- Lopamudra, Ghosha, Shachi, Paulomi and Kakshvruti etc.8. His priest's name is Hotri.Yaju means Yajna.It mentions archery.Its reader is called Adhvaryu.The Yajurveda Veda describes the methods of Yajna.In this, the compilation of mantras has been done with the aim of reciting the level at the time of the Holiness Yajna.Along with this, there is a description of mantras as well as religious rituals, which have been suggested to be edited with chanting.The language of Yajurveda is both poetic and prose.Yajurveda has two branches- Krishna Yajurveda and Shukla Yajurveda.Krishna Yajurveda has four branches- Maitrayani Samhita, Kathk Samhita, Kapinthhal and Samhita.Shukla Yajurveda has two branches- Madhyadin and Kanva Samhita.It is divided into 40 chapters.For the first time in this book, two state functions like Rajasuya and Vajpayee are mentioned.Samaveda was composed to make the mantras given in the Rigveda to singable.It has 1810 verses, which except 75 are mentioned in the Rigveda.Samveda is divided into three branches- Kauthum, Ranayayan and Jaimani.Samaveda has the distinction of being India's first musical book.Vedic mantras and codes have been called Brahma.At the same time, the extended form of Brahma has been called Brahmin.Aitareya, Shatapatha, Panchavish, Teatariya etc. are particularly important in the ancient Brahmins.Maharishi Yajnavalkya has received the preaching of Brahmin texts including Mantra from Aditya. | {
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"text": [
"Yajurveda"
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1315 | वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है। 1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017+11)सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है। यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्विद्या का उल्लेख है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता। यह 40 अध्यायों में विभाजित है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी। इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। | 33 प्रकार के देवों का उल्लेख किस वेद में किया गया है ? | {
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"ऋग्वेद"
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364
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} | 33 types of Devas are mentioned in which Veda? | Vedic literature includes four Vedas and their codes, Brahmins, Aranyaka, Upanishads and Vedangas.The number of Vedas is four- Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda.The Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda are the first authentic texts in the world.The Vedas have been called apaurusheya.The Vedas have been called "Shruti" due to the Guru's disciples orally conceived.1. The Rigveda is a collection of compositions related to the praise of the gods.2. It is divided into 10 mandals.In this, mandals from 2 to 7 are considered to be the oldest.First and tenth mandal are later added.It has 1028 (1017+11) Sukta.3. Its language is poetic.4. In the Rigveda, 33 types of gods (substances with divine qualities) are mentioned.5. Famous Gayatri Mantra which is addressed to Goddess Gayatri related to Surya, is first received in the Rigveda.6. The sentence 'Asato Ma Sadgamay' is taken from the Rigveda.7. In the Rigveda, the names of women are also found in conniving the mantra, including the main ones- Lopamudra, Ghosha, Shachi, Paulomi and Kakshvruti etc.8. His priest's name is Hotri.Yaju means Yajna.It mentions archery.Its reader is called Adhvaryu.The Yajurveda Veda describes the methods of Yajna.In this, the compilation of mantras has been done with the aim of reciting the level at the time of the Holiness Yajna.Along with this, there is a description of mantras as well as religious rituals, which have been suggested to be edited with chanting.The language of Yajurveda is both poetic and prose.Yajurveda has two branches- Krishna Yajurveda and Shukla Yajurveda.Krishna Yajurveda has four branches- Maitrayani Samhita, Kathk Samhita, Kapinthhal and Samhita.Shukla Yajurveda has two branches- Madhyadin and Kanva Samhita.It is divided into 40 chapters.For the first time in this book, two state functions like Rajasuya and Vajpayee are mentioned.Samaveda was composed to make the mantras given in the Rigveda to singable.It has 1810 verses, which except 75 are mentioned in the Rigveda.Samveda is divided into three branches- Kauthum, Ranayayan and Jaimani.Samaveda has the distinction of being India's first musical book.Vedic mantras and codes have been called Brahma.At the same time, the extended form of Brahma has been called Brahmin.Aitareya, Shatapatha, Panchavish, Teatariya etc. are particularly important in the ancient Brahmins.Maharishi Yajnavalkya has received the preaching of Brahmin texts including Mantra from Aditya. | {
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364
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"Rigveda"
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} |
1316 | शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील 15.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है। सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने 1923 ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। इसी स्थान पर तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में 6 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ 5000 भिक्षु ठहर सकते हैं। यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे। इस स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग 600 साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। | नागपूर में स्थित भगवान राम का मंदिर कितने वर्ष पुराना है ? | {
"text": [
"600 साल"
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1770
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} | How many years old is the temple of Lord Rama located in Nagpur? | Located in the western part of the city, this lake is spread over an area of 15.4 square kilometers.Sailing can be enjoyed in this lake surrounded by beautiful gardens from all around.The musical fountains of the lake add to the beauty of this lake.Along with the lake, there is a very beautiful garden which is included in the most beautiful sites in Nagpur.This temple of Lord Venkatesh Balaji is built in the smooth atmosphere of the Seminari hills.Thousands of devotees arrive here from North and South India to see the amazing architecture of the temple and desire a spiritual environment.The statue of Lord Kartikeya is also installed in the temple premises, which is called the commander of the army of the gods.This temple was built by Shri Jamunadhar Poddar of the Poddar family of Rajasthan in 1923 AD.Statues of Lord Rama and Shiva are installed in the temple.This temple made of white marble and red sandstone has a beautiful carvings.A large number of devotees gather here during the Ram Janmotsav procession to be held on Ram Navami.Deekshabhoomi is located near Ramdas Peeth in Western Nagpur.This place is known as a pilgrimage center.There is also a memorial at this place.A magnificent building like Sanchi's stupa has been constructed here, which was spent 6 crores to get it built.Each section of this building can stop 5000 monks simultaneously.It is a small village in Nagpur.Many ancient and magnificent temples can be seen here.The Ganpati temple here has a statue of Lord Ganesha from a single rock.A temple dedicated to Lord Shiva with three sexes in a hill near Adasa is built.It is believed that the penis of this temple came out of the land on their own.This place is called Ramtek because the holy stages of Lord Rama and his wife Sita were touched here.The temple of Lord Rama is built on the peak of the hill here, which is considered about 600 years old.Ramnavami festival is celebrated with great pomp here. | {
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1770
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"text": [
"600 years"
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} |
1317 | शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील 15.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है। सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने 1923 ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। इसी स्थान पर तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में 6 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ 5000 भिक्षु ठहर सकते हैं। यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे। इस स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग 600 साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। | नागपुर से कितने किमी दूर खेकरानाला में एक सुंदर बांध बनाया गया था? | {
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} | A beautiful dam was built at Khekranala, how many km away from Nagpur? | Located in the western part of the city, this lake is spread over an area of 15.4 square kilometers.Sailing can be enjoyed in this lake surrounded by beautiful gardens from all around.The musical fountains of the lake add to the beauty of this lake.Along with the lake, there is a very beautiful garden which is included in the most beautiful sites in Nagpur.This temple of Lord Venkatesh Balaji is built in the smooth atmosphere of the Seminari hills.Thousands of devotees arrive here from North and South India to see the amazing architecture of the temple and desire a spiritual environment.The statue of Lord Kartikeya is also installed in the temple premises, which is called the commander of the army of the gods.This temple was built by Shri Jamunadhar Poddar of the Poddar family of Rajasthan in 1923 AD.Statues of Lord Rama and Shiva are installed in the temple.This temple made of white marble and red sandstone has a beautiful carvings.A large number of devotees gather here during the Ram Janmotsav procession to be held on Ram Navami.Deekshabhoomi is located near Ramdas Peeth in Western Nagpur.This place is known as a pilgrimage center.There is also a memorial at this place.A magnificent building like Sanchi's stupa has been constructed here, which was spent 6 crores to get it built.Each section of this building can stop 5000 monks simultaneously.It is a small village in Nagpur.Many ancient and magnificent temples can be seen here.The Ganpati temple here has a statue of Lord Ganesha from a single rock.A temple dedicated to Lord Shiva with three sexes in a hill near Adasa is built.It is believed that the penis of this temple came out of the land on their own.This place is called Ramtek because the holy stages of Lord Rama and his wife Sita were touched here.The temple of Lord Rama is built on the peak of the hill here, which is considered about 600 years old.Ramnavami festival is celebrated with great pomp here. | {
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1318 | शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील 15.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है। सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने 1923 ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। इसी स्थान पर तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में 6 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ 5000 भिक्षु ठहर सकते हैं। यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे। इस स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग 600 साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। | भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों के स्पर्श वाले स्थान को क्या कहा जाता है ? | {
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"रामटेक"
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} | The place where the holy feet of Lord Rama and his wife Sita touch is called what? | Located in the western part of the city, this lake is spread over an area of 15.4 square kilometers.Sailing can be enjoyed in this lake surrounded by beautiful gardens from all around.The musical fountains of the lake add to the beauty of this lake.Along with the lake, there is a very beautiful garden which is included in the most beautiful sites in Nagpur.This temple of Lord Venkatesh Balaji is built in the smooth atmosphere of the Seminari hills.Thousands of devotees arrive here from North and South India to see the amazing architecture of the temple and desire a spiritual environment.The statue of Lord Kartikeya is also installed in the temple premises, which is called the commander of the army of the gods.This temple was built by Shri Jamunadhar Poddar of the Poddar family of Rajasthan in 1923 AD.Statues of Lord Rama and Shiva are installed in the temple.This temple made of white marble and red sandstone has a beautiful carvings.A large number of devotees gather here during the Ram Janmotsav procession to be held on Ram Navami.Deekshabhoomi is located near Ramdas Peeth in Western Nagpur.This place is known as a pilgrimage center.There is also a memorial at this place.A magnificent building like Sanchi's stupa has been constructed here, which was spent 6 crores to get it built.Each section of this building can stop 5000 monks simultaneously.It is a small village in Nagpur.Many ancient and magnificent temples can be seen here.The Ganpati temple here has a statue of Lord Ganesha from a single rock.A temple dedicated to Lord Shiva with three sexes in a hill near Adasa is built.It is believed that the penis of this temple came out of the land on their own.This place is called Ramtek because the holy stages of Lord Rama and his wife Sita were touched here.The temple of Lord Rama is built on the peak of the hill here, which is considered about 600 years old.Ramnavami festival is celebrated with great pomp here. | {
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"Ramtek"
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1319 | शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील 15.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है। सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने 1923 ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। इसी स्थान पर तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में 6 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ 5000 भिक्षु ठहर सकते हैं। यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे। इस स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग 600 साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। | पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के पास स्थित किस जगह को तीर्थस्थल के रूप में जाना जाता है ? | {
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"दीक्षाभूमि"
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1018
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} | Which place near Ramdas Peeth in western Nagpur is known as a pilgrimage site? | Located in the western part of the city, this lake is spread over an area of 15.4 square kilometers.Sailing can be enjoyed in this lake surrounded by beautiful gardens from all around.The musical fountains of the lake add to the beauty of this lake.Along with the lake, there is a very beautiful garden which is included in the most beautiful sites in Nagpur.This temple of Lord Venkatesh Balaji is built in the smooth atmosphere of the Seminari hills.Thousands of devotees arrive here from North and South India to see the amazing architecture of the temple and desire a spiritual environment.The statue of Lord Kartikeya is also installed in the temple premises, which is called the commander of the army of the gods.This temple was built by Shri Jamunadhar Poddar of the Poddar family of Rajasthan in 1923 AD.Statues of Lord Rama and Shiva are installed in the temple.This temple made of white marble and red sandstone has a beautiful carvings.A large number of devotees gather here during the Ram Janmotsav procession to be held on Ram Navami.Deekshabhoomi is located near Ramdas Peeth in Western Nagpur.This place is known as a pilgrimage center.There is also a memorial at this place.A magnificent building like Sanchi's stupa has been constructed here, which was spent 6 crores to get it built.Each section of this building can stop 5000 monks simultaneously.It is a small village in Nagpur.Many ancient and magnificent temples can be seen here.The Ganpati temple here has a statue of Lord Ganesha from a single rock.A temple dedicated to Lord Shiva with three sexes in a hill near Adasa is built.It is believed that the penis of this temple came out of the land on their own.This place is called Ramtek because the holy stages of Lord Rama and his wife Sita were touched here.The temple of Lord Rama is built on the peak of the hill here, which is considered about 600 years old.Ramnavami festival is celebrated with great pomp here. | {
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"Deekshabhoomi"
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1320 | शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील 15.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है। सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने 1923 ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। इसी स्थान पर तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में 6 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ 5000 भिक्षु ठहर सकते हैं। यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे। इस स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग 600 साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। | नागपूर में भगवान वेंकटेश बालाजी मंदिर का निर्माण किस वर्ष हुआ था ? | {
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"1923 ई."
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} | In which year was the Lord Venkatesh Balaji Temple built in Nagpur? | Located in the western part of the city, this lake is spread over an area of 15.4 square kilometers.Sailing can be enjoyed in this lake surrounded by beautiful gardens from all around.The musical fountains of the lake add to the beauty of this lake.Along with the lake, there is a very beautiful garden which is included in the most beautiful sites in Nagpur.This temple of Lord Venkatesh Balaji is built in the smooth atmosphere of the Seminari hills.Thousands of devotees arrive here from North and South India to see the amazing architecture of the temple and desire a spiritual environment.The statue of Lord Kartikeya is also installed in the temple premises, which is called the commander of the army of the gods.This temple was built by Shri Jamunadhar Poddar of the Poddar family of Rajasthan in 1923 AD.Statues of Lord Rama and Shiva are installed in the temple.This temple made of white marble and red sandstone has a beautiful carvings.A large number of devotees gather here during the Ram Janmotsav procession to be held on Ram Navami.Deekshabhoomi is located near Ramdas Peeth in Western Nagpur.This place is known as a pilgrimage center.There is also a memorial at this place.A magnificent building like Sanchi's stupa has been constructed here, which was spent 6 crores to get it built.Each section of this building can stop 5000 monks simultaneously.It is a small village in Nagpur.Many ancient and magnificent temples can be seen here.The Ganpati temple here has a statue of Lord Ganesha from a single rock.A temple dedicated to Lord Shiva with three sexes in a hill near Adasa is built.It is believed that the penis of this temple came out of the land on their own.This place is called Ramtek because the holy stages of Lord Rama and his wife Sita were touched here.The temple of Lord Rama is built on the peak of the hill here, which is considered about 600 years old.Ramnavami festival is celebrated with great pomp here. | {
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725
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"1923."
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1321 | शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील 15.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है। सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने 1923 ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। इसी स्थान पर तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में 6 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ 5000 भिक्षु ठहर सकते हैं। यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे। इस स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग 600 साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। | कवि कालिदास किस भाषा के कवि थे? | {
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} | The poet Kalidasa was a poet of which language? | Located in the western part of the city, this lake is spread over an area of 15.4 square kilometers.Sailing can be enjoyed in this lake surrounded by beautiful gardens from all around.The musical fountains of the lake add to the beauty of this lake.Along with the lake, there is a very beautiful garden which is included in the most beautiful sites in Nagpur.This temple of Lord Venkatesh Balaji is built in the smooth atmosphere of the Seminari hills.Thousands of devotees arrive here from North and South India to see the amazing architecture of the temple and desire a spiritual environment.The statue of Lord Kartikeya is also installed in the temple premises, which is called the commander of the army of the gods.This temple was built by Shri Jamunadhar Poddar of the Poddar family of Rajasthan in 1923 AD.Statues of Lord Rama and Shiva are installed in the temple.This temple made of white marble and red sandstone has a beautiful carvings.A large number of devotees gather here during the Ram Janmotsav procession to be held on Ram Navami.Deekshabhoomi is located near Ramdas Peeth in Western Nagpur.This place is known as a pilgrimage center.There is also a memorial at this place.A magnificent building like Sanchi's stupa has been constructed here, which was spent 6 crores to get it built.Each section of this building can stop 5000 monks simultaneously.It is a small village in Nagpur.Many ancient and magnificent temples can be seen here.The Ganpati temple here has a statue of Lord Ganesha from a single rock.A temple dedicated to Lord Shiva with three sexes in a hill near Adasa is built.It is believed that the penis of this temple came out of the land on their own.This place is called Ramtek because the holy stages of Lord Rama and his wife Sita were touched here.The temple of Lord Rama is built on the peak of the hill here, which is considered about 600 years old.Ramnavami festival is celebrated with great pomp here. | {
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1322 | शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह झील 15.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। चारों ओर से खूबसूरत बगीचों से घिरी इस झील में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। झील के संगीतमय फव्वारे इस झील की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। झील के साथ ही एक बेहद खूबसूरत बगीचा है जिसे नागपुर के सबसे सुंदर स्थलों में शामिल किया जाता है। सेमीनरी पहाड़ियों के सुरमय वातावरण में भगवान वेंकटेश बालाजी का यह मंदिर बना हुआ है। मंदिर की अद्भुत वास्तुकारी देखने और आध्यात्मिक वातावरण की चाह में उत्तर और दक्षिण भारत से हजारों की तादाद में श्रद्धालुओं का यहां आगमन होता है। मंदिर परिसर में भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे देवताओं की सेना का सेनापति कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के पोद्दार परिवार के श्री जमुनाधर पोद्दार ने 1923 ई. में करवाया था। मंदिर में भगवान राम और शिव की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सफेद संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर से बने इस मंदिर में खूबसूरत नक्कासी की गई है। राम नवमी को होने वाली राम जन्मोत्सव शोभायात्रा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। पश्चिमी नागपुर में रामदास पीठ के निकट दीक्षाभूमि स्थित है। इसी स्थान पर तीर्थस्थल के तौर पर जाना जाता है। इस स्थान पर एक मेमोरियल भी बना हुआ है। सांची के स्तूप जैसी एक शानदार इमारत का यहां निर्माण किया गया है जिसे बनवाने में 6 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। इस इमारत के प्रत्येक खंड में एक साथ 5000 भिक्षु ठहर सकते हैं। यह नागपुर का एक छोटा-सा गांव है। यहां अनेक प्राचीन और शानदार मंदिर देखे जा सकते हैं। यहां के गणपति मंदिर में भगवान गणेश की एकल शिलाखंड से बनी प्रतिमा स्थापित है। अदासा के समीप ही एक पहाड़ी में तीन लिंगों वाला भगवान शिव को समर्पित मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि इस मंदिर के लिंग अपने आप भूमि से निकले थे। इस स्थान को रामटेक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान राम और उनकी पत्नी सीता के पवित्र चरणों का स्पर्श हुआ था। यहां की पहाड़ी के शिखर पर भगवान राम का मंदिर बना हुआ है, जो लगभग 600 साल पुराना माना जाता है। रामनवमी पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। | देवताओं की सेना का सेनापति किसे कहा जाता है ? | {
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"कार्तिकेय"
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572
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} | Who is called the commander of the army of the gods? | Located in the western part of the city, this lake is spread over an area of 15.4 square kilometers.Sailing can be enjoyed in this lake surrounded by beautiful gardens from all around.The musical fountains of the lake add to the beauty of this lake.Along with the lake, there is a very beautiful garden which is included in the most beautiful sites in Nagpur.This temple of Lord Venkatesh Balaji is built in the smooth atmosphere of the Seminari hills.Thousands of devotees arrive here from North and South India to see the amazing architecture of the temple and desire a spiritual environment.The statue of Lord Kartikeya is also installed in the temple premises, which is called the commander of the army of the gods.This temple was built by Shri Jamunadhar Poddar of the Poddar family of Rajasthan in 1923 AD.Statues of Lord Rama and Shiva are installed in the temple.This temple made of white marble and red sandstone has a beautiful carvings.A large number of devotees gather here during the Ram Janmotsav procession to be held on Ram Navami.Deekshabhoomi is located near Ramdas Peeth in Western Nagpur.This place is known as a pilgrimage center.There is also a memorial at this place.A magnificent building like Sanchi's stupa has been constructed here, which was spent 6 crores to get it built.Each section of this building can stop 5000 monks simultaneously.It is a small village in Nagpur.Many ancient and magnificent temples can be seen here.The Ganpati temple here has a statue of Lord Ganesha from a single rock.A temple dedicated to Lord Shiva with three sexes in a hill near Adasa is built.It is believed that the penis of this temple came out of the land on their own.This place is called Ramtek because the holy stages of Lord Rama and his wife Sita were touched here.The temple of Lord Rama is built on the peak of the hill here, which is considered about 600 years old.Ramnavami festival is celebrated with great pomp here. | {
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"text": [
"Kartikeya"
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1323 | शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंददेवजी का मंदिर, श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं, जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान, राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं। सिटी पैलेसराजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ाऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। जंतर मंतर, वेधशालाएक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए (? ) किया जाता है। हवा महलईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी। हवा महल में कुल 953 खिड़कियाँ हैं| इन खिडकियों से जब हवा एक खिड़की से दूसरी खिड़की में होकर गुजरती हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पंखा चल रहा हैं| आपको हवा महल में खड़े होकर शुद्ध और ताज़ी हवा का पूर्ण एहसास होगा|गोविंद देवजी का मंदिरभगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जय-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था। सरगासूली(ईसरलाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। रामनिवास बागएक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं। गुड़िया घर(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं। बी एम बिड़ला तारामण्डल(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनोखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है। गलता तीर्थएक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है। चूलगिरि जैन मंदिर -जयपुर-आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैंमोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिरमोती डूंगरी एक छोटी पहाडी है इस पर एक छोटे महल का निर्माण किया गया है इसके चारों और किले के समान बुर्ज हैं । यहां स्थित प्राचीन शिवालय है जो वर्ष में केवल एक बार शिवरात्रि के दिन आमजन के लिए पूजा के लिए खोला जाता है । यह किला स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। इसकी तलहटी में जयपुर का सर्वपूजनीय गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी जयपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं । स्टैच्यू सर्किल - चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं। अन्य स्थलआमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं। गैटोरसिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। आमेरआमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। | पर्यटक हाथियों पर सवार होकर कहां जाते है? 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} | Where do tourists go riding elephants? | The city has many tourist attractions, such as Jantar Mantar, Hawa Mahal, City Palace, Govinddevji Temple, Shri Lakshmi Jagdish Maharaj Temple, BM Birla Planetarium, Amer Fort, Jaigarh Fort, etc. The shops in the vibrant markets of Jaipur are filled with colorful goods, including handloom products, precious stones, handcrafted clothes made of vegetable dyes, enamel jewellery, brass decorative items, samples of Rajasthani painting, Nagra-Mojari shoes, blue pottery. , ivory handicrafts and white marble sculptures etc. Famous markets include Johari Bazaar, Bapu Bazaar, Nehru Bazaar, Chauda Rasta, Tripolia Bazaar and M.I. There are markets along the road. City Palace, a former royal residence combining Rajasthani and Mughal styles, is located in the heart of the old city. The carved arches, supported by pillars of brown marble, are decorated with floral motifs of gold and colored stones. Two carved marble elephants stand sentinel at the entrance. Families who have served kings for generations. They work as guides. There is a museum in the palace which has a fine collection of Rajasthani costumes and weapons of Mughals and Rajputs. It also contains carved hilt swords of various colors and sizes, many of which are decorated with enamel inlay work and gems and have magnificent inlaid scabbards. The palace also has an art gallery which houses an excellent collection of miniatures, carpets, royal paraphernalia and rare astronomy works in Arabic, Persian, Latin and Sanskrit which were acquired by Sawai Jai Singh II to study astronomy in detail. . Jantar Mantar, ObservatoryA stone observatory. It is the largest among the five observatories of Jai Singh. Its complex machinery, its configuration and shape have been prepared scientifically. This world-famous observatory, which was included in the UNESCO World Heritage List in 2012, is a living example of the astronomical achievements of medieval India! The most impressive among these is the Ramayantra which is used to measure height (?). Hawa Mahal: Built in 1799, Hawa Mahal is the main symbol of Rajput architecture. This five-storey building along the main streets of the old city is decorated with pink octagonal and sophisticated roofed sandstone windows. The building was built with the purpose of allowing the royal ladies to watch the daily life of the city and the processions of the city. There are a total of 953 windows in Hawa Mahal. When air passes from one window to another through these windows, it feels as if a fan is running. You will completely feel the pure and fresh air while standing in Hawa Mahal. Govind Devji Temple, Jaipur's most famous, peakless temple of Lord Krishna. It is situated in the central courtyard of Jai-Niwas garden built to the east of Chandramahal. The idol of the tutelary deity Govindji was earlier installed in the temple of Vrindavan and was reinstalled here by Sawai Jai Singh II as his family deity. Sargasuli (Isarlat) - A high tower-like building on the western side of Tripolia Bazaar, which was built by Sawai Ishwari Singh in 1749 AD to commemorate his Maratha victory. Ram Niwas Bagh is a spacious green garden with a zoo, a nursery, a botanical museum, and a famous cricket ground. It was built by Sawai Ram Singh II in 1865 AD under the flood relief project. Albert Hall, designed by Sir Winston Jacob, is a refined example of Indian architectural style and was later opened with fine sculptures, paintings, decorated pottery, specimens of natural science, an Egyptian mummy and famous Persian carpets. To promote cultural programs, Rabindra Manch, a modern art gallery and an open theater along with an auditorium have also been built in it. Doll House (Time: 12 noon to 7 pm) – Cute dolls from different countries are displayed here in the premises of the Deaf and Mute School near the Police Memorial. BM Birla Planetarium (Time: 12 noon to 7 pm) - With its modern computerized projection system, this planetarium has a unique facility of means of audio and visual education and entertainment. Concessions are available for school groups. It remains closed on the last Wednesday of every month. Galata Shrine, an ancient pilgrimage site, located beyond the gardens among the low hills. The lush green natural scenery along with temples, pavilions and sacred ponds make it a delightful place. The small temple of Sun God built on the top of the highest peak built by Dewan Kriparam is visible from all places of the city. Chulgiri Jain Temple - Built on the Jaipur-Agra road, this excellent Jain temple has extremely beautiful paintings of the nineteenth century in Jaipur style on the walls. Moti Dungri and Laxmi Narayan TempleMoti Dungri is a small hill, on which a small palace has been built. And there are towers like forts. There is an ancient Shiva temple located here which is opened for worship to the public only once a year on the day of Shivratri. This fort is built like the fort of Scotland. At its foothills, the revered Ganesh Temple of Jaipur and the amazing Lakshmi Narayan Temple are also the main tourist places of Jaipur. Statue Circle - The statue of Sawai Jai Singh is very excellently built in the middle of the circle. It is part of a new regional plan to pay tribute to the founder of Jaipur. It has been created. The sculptor of the grand statue of Sawai Jai Singh installed here is Late Mahendra Kumar Das. Other places: Near the intersection of Ramgarh Road on Amer Road, there are many attractive Maharani's Chhatris built in the memory of queens. Jal Mahal, built by Sawai Madho Singh I, in the middle of Mansagar Lake, is a picturesque place. The ancient perfection of Kanak Vrindavan Bhawan with its sophisticated temples and gardens has been renovated in the past. To the west of this road is the royal cremation ground at Gaitor which contains grand monuments of all the rulers of Jaipur except Sawai Ishwari Singh. It is a very impressive Chhatri of Sawai Jai Singh II with fine carvings and elegant shape. The landscaped gardens spread across the valley at the south-eastern corner of the walled city on the Agra road. The Gatorsisodiya Rani Bagh consists of multi-tiered gardens lined with fountains, water canals, painted pavilions and meeting rooms. AmerAmer and Sheela Mata Temple - is a fascinating edifice of palaces, pavilions, gardens and temples built by Raja Man Singh, Mirza Raja Jai Singh and Sawai Jai Singh about two centuries ago. | {
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1324 | शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंददेवजी का मंदिर, श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं, जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान, राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं। सिटी पैलेसराजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ाऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। जंतर मंतर, वेधशालाएक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए (? ) किया जाता है। हवा महलईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी। हवा महल में कुल 953 खिड़कियाँ हैं| इन खिडकियों से जब हवा एक खिड़की से दूसरी खिड़की में होकर गुजरती हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पंखा चल रहा हैं| आपको हवा महल में खड़े होकर शुद्ध और ताज़ी हवा का पूर्ण एहसास होगा|गोविंद देवजी का मंदिरभगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जय-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था। सरगासूली(ईसरलाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। रामनिवास बागएक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं। गुड़िया घर(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं। बी एम बिड़ला तारामण्डल(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनोखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है। गलता तीर्थएक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है। चूलगिरि जैन मंदिर -जयपुर-आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैंमोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिरमोती डूंगरी एक छोटी पहाडी है इस पर एक छोटे महल का निर्माण किया गया है इसके चारों और किले के समान बुर्ज हैं । यहां स्थित प्राचीन शिवालय है जो वर्ष में केवल एक बार शिवरात्रि के दिन आमजन के लिए पूजा के लिए खोला जाता है । यह किला स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। इसकी तलहटी में जयपुर का सर्वपूजनीय गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी जयपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं । स्टैच्यू सर्किल - चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं। अन्य स्थलआमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं। गैटोरसिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। आमेरआमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। | हवा महल में कुल कितनी खिड़कियाँ है ? 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Two carved marble elephants stand sentinel at the entrance. Families who have served kings for generations. They work as guides. There is a museum in the palace which has a fine collection of Rajasthani costumes and weapons of Mughals and Rajputs. It also contains carved hilt swords of various colors and sizes, many of which are decorated with enamel inlay work and gems and have magnificent inlaid scabbards. The palace also has an art gallery which houses an excellent collection of miniatures, carpets, royal paraphernalia and rare astronomy works in Arabic, Persian, Latin and Sanskrit which were acquired by Sawai Jai Singh II to study astronomy in detail. . Jantar Mantar, ObservatoryA stone observatory. It is the largest among the five observatories of Jai Singh. Its complex machinery, its configuration and shape have been prepared scientifically. 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It is situated in the central courtyard of Jai-Niwas garden built to the east of Chandramahal. The idol of the tutelary deity Govindji was earlier installed in the temple of Vrindavan and was reinstalled here by Sawai Jai Singh II as his family deity. Sargasuli (Isarlat) - A high tower-like building on the western side of Tripolia Bazaar, which was built by Sawai Ishwari Singh in 1749 AD to commemorate his Maratha victory. Ram Niwas Bagh is a spacious green garden with a zoo, a nursery, a botanical museum, and a famous cricket ground. It was built by Sawai Ram Singh II in 1865 AD under the flood relief project. Albert Hall, designed by Sir Winston Jacob, is a refined example of Indian architectural style and was later opened with fine sculptures, paintings, decorated pottery, specimens of natural science, an Egyptian mummy and famous Persian carpets. To promote cultural programs, Rabindra Manch, a modern art gallery and an open theater along with an auditorium have also been built in it. Doll House (Time: 12 noon to 7 pm) – Cute dolls from different countries are displayed here in the premises of the Deaf and Mute School near the Police Memorial. BM Birla Planetarium (Time: 12 noon to 7 pm) - With its modern computerized projection system, this planetarium has a unique facility of means of audio and visual education and entertainment. Concessions are available for school groups. It remains closed on the last Wednesday of every month. Galata Shrine, an ancient pilgrimage site, located beyond the gardens among the low hills. The lush green natural scenery along with temples, pavilions and sacred ponds make it a delightful place. The small temple of Sun God built on the top of the highest peak built by Dewan Kriparam is visible from all places of the city. Chulgiri Jain Temple - Built on the Jaipur-Agra road, this excellent Jain temple has extremely beautiful paintings of the nineteenth century in Jaipur style on the walls. Moti Dungri and Laxmi Narayan TempleMoti Dungri is a small hill, on which a small palace has been built. And there are towers like forts. There is an ancient Shiva temple located here which is opened for worship to the public only once a year on the day of Shivratri. This fort is built like the fort of Scotland. At its foothills, the revered Ganesh Temple of Jaipur and the amazing Lakshmi Narayan Temple are also the main tourist places of Jaipur. Statue Circle - The statue of Sawai Jai Singh is very excellently built in the middle of the circle. It is part of a new regional plan to pay tribute to the founder of Jaipur. It has been created. The sculptor of the grand statue of Sawai Jai Singh installed here is Late Mahendra Kumar Das. Other places: Near the intersection of Ramgarh Road on Amer Road, there are many attractive Maharani's Chhatris built in the memory of queens. Jal Mahal, built by Sawai Madho Singh I, in the middle of Mansagar Lake, is a picturesque place. The ancient perfection of Kanak Vrindavan Bhawan with its sophisticated temples and gardens has been renovated in the past. To the west of this road is the royal cremation ground at Gaitor which contains grand monuments of all the rulers of Jaipur except Sawai Ishwari Singh. It is a very impressive Chhatri of Sawai Jai Singh II with fine carvings and elegant shape. The landscaped gardens spread across the valley at the south-eastern corner of the walled city on the Agra road. The Gatorsisodiya Rani Bagh consists of multi-tiered gardens lined with fountains, water canals, painted pavilions and meeting rooms. 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1325 | शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंददेवजी का मंदिर, श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं, जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान, राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं। सिटी पैलेसराजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ाऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। जंतर मंतर, वेधशालाएक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए (? ) किया जाता है। हवा महलईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी। हवा महल में कुल 953 खिड़कियाँ हैं| इन खिडकियों से जब हवा एक खिड़की से दूसरी खिड़की में होकर गुजरती हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पंखा चल रहा हैं| आपको हवा महल में खड़े होकर शुद्ध और ताज़ी हवा का पूर्ण एहसास होगा|गोविंद देवजी का मंदिरभगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जय-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था। सरगासूली(ईसरलाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। रामनिवास बागएक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं। गुड़िया घर(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं। बी एम बिड़ला तारामण्डल(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनोखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है। गलता तीर्थएक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है। चूलगिरि जैन मंदिर -जयपुर-आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैंमोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिरमोती डूंगरी एक छोटी पहाडी है इस पर एक छोटे महल का निर्माण किया गया है इसके चारों और किले के समान बुर्ज हैं । यहां स्थित प्राचीन शिवालय है जो वर्ष में केवल एक बार शिवरात्रि के दिन आमजन के लिए पूजा के लिए खोला जाता है । यह किला स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। इसकी तलहटी में जयपुर का सर्वपूजनीय गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी जयपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं । स्टैच्यू सर्किल - चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं। अन्य स्थलआमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं। गैटोरसिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। आमेरआमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। | जयपुर के संस्थापक का क्या नाम है ? | {
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"सवाई जयसिंह"
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} | What is the name of the founder of Jaipur? | The city has many tourist attractions, such as Jantar Mantar, Hawa Mahal, City Palace, Govinddevji Temple, Shri Lakshmi Jagdish Maharaj Temple, BM Birla Planetarium, Amer Fort, Jaigarh Fort, etc. The shops in the vibrant markets of Jaipur are filled with colorful goods, including handloom products, precious stones, handcrafted clothes made of vegetable dyes, enamel jewellery, brass decorative items, samples of Rajasthani painting, Nagra-Mojari shoes, blue pottery. , ivory handicrafts and white marble sculptures etc. Famous markets include Johari Bazaar, Bapu Bazaar, Nehru Bazaar, Chauda Rasta, Tripolia Bazaar and M.I. There are markets along the road. City Palace, a former royal residence combining Rajasthani and Mughal styles, is located in the heart of the old city. The carved arches, supported by pillars of brown marble, are decorated with floral motifs of gold and colored stones. Two carved marble elephants stand sentinel at the entrance. Families who have served kings for generations. They work as guides. There is a museum in the palace which has a fine collection of Rajasthani costumes and weapons of Mughals and Rajputs. It also contains carved hilt swords of various colors and sizes, many of which are decorated with enamel inlay work and gems and have magnificent inlaid scabbards. The palace also has an art gallery which houses an excellent collection of miniatures, carpets, royal paraphernalia and rare astronomy works in Arabic, Persian, Latin and Sanskrit which were acquired by Sawai Jai Singh II to study astronomy in detail. . Jantar Mantar, ObservatoryA stone observatory. It is the largest among the five observatories of Jai Singh. Its complex machinery, its configuration and shape have been prepared scientifically. This world-famous observatory, which was included in the UNESCO World Heritage List in 2012, is a living example of the astronomical achievements of medieval India! The most impressive among these is the Ramayantra which is used to measure height (?). Hawa Mahal: Built in 1799, Hawa Mahal is the main symbol of Rajput architecture. This five-storey building along the main streets of the old city is decorated with pink octagonal and sophisticated roofed sandstone windows. The building was built with the purpose of allowing the royal ladies to watch the daily life of the city and the processions of the city. There are a total of 953 windows in Hawa Mahal. When air passes from one window to another through these windows, it feels as if a fan is running. You will completely feel the pure and fresh air while standing in Hawa Mahal. Govind Devji Temple, Jaipur's most famous, peakless temple of Lord Krishna. It is situated in the central courtyard of Jai-Niwas garden built to the east of Chandramahal. The idol of the tutelary deity Govindji was earlier installed in the temple of Vrindavan and was reinstalled here by Sawai Jai Singh II as his family deity. Sargasuli (Isarlat) - A high tower-like building on the western side of Tripolia Bazaar, which was built by Sawai Ishwari Singh in 1749 AD to commemorate his Maratha victory. Ram Niwas Bagh is a spacious green garden with a zoo, a nursery, a botanical museum, and a famous cricket ground. It was built by Sawai Ram Singh II in 1865 AD under the flood relief project. Albert Hall, designed by Sir Winston Jacob, is a refined example of Indian architectural style and was later opened with fine sculptures, paintings, decorated pottery, specimens of natural science, an Egyptian mummy and famous Persian carpets. To promote cultural programs, Rabindra Manch, a modern art gallery and an open theater along with an auditorium have also been built in it. Doll House (Time: 12 noon to 7 pm) – Cute dolls from different countries are displayed here in the premises of the Deaf and Mute School near the Police Memorial. BM Birla Planetarium (Time: 12 noon to 7 pm) - With its modern computerized projection system, this planetarium has a unique facility of means of audio and visual education and entertainment. Concessions are available for school groups. It remains closed on the last Wednesday of every month. Galata Shrine, an ancient pilgrimage site, located beyond the gardens among the low hills. The lush green natural scenery along with temples, pavilions and sacred ponds make it a delightful place. The small temple of Sun God built on the top of the highest peak built by Dewan Kriparam is visible from all places of the city. Chulgiri Jain Temple - Built on the Jaipur-Agra road, this excellent Jain temple has extremely beautiful paintings of the nineteenth century in Jaipur style on the walls. Moti Dungri and Laxmi Narayan TempleMoti Dungri is a small hill, on which a small palace has been built. And there are towers like forts. There is an ancient Shiva temple located here which is opened for worship to the public only once a year on the day of Shivratri. This fort is built like the fort of Scotland. At its foothills, the revered Ganesh Temple of Jaipur and the amazing Lakshmi Narayan Temple are also the main tourist places of Jaipur. Statue Circle - The statue of Sawai Jai Singh is very excellently built in the middle of the circle. It is part of a new regional plan to pay tribute to the founder of Jaipur. It has been created. The sculptor of the grand statue of Sawai Jai Singh installed here is Late Mahendra Kumar Das. Other places: Near the intersection of Ramgarh Road on Amer Road, there are many attractive Maharani's Chhatris built in the memory of queens. Jal Mahal, built by Sawai Madho Singh I, in the middle of Mansagar Lake, is a picturesque place. The ancient perfection of Kanak Vrindavan Bhawan with its sophisticated temples and gardens has been renovated in the past. To the west of this road is the royal cremation ground at Gaitor which contains grand monuments of all the rulers of Jaipur except Sawai Ishwari Singh. It is a very impressive Chhatri of Sawai Jai Singh II with fine carvings and elegant shape. The landscaped gardens spread across the valley at the south-eastern corner of the walled city on the Agra road. The Gatorsisodiya Rani Bagh consists of multi-tiered gardens lined with fountains, water canals, painted pavilions and meeting rooms. AmerAmer and Sheela Mata Temple - is a fascinating edifice of palaces, pavilions, gardens and temples built by Raja Man Singh, Mirza Raja Jai Singh and Sawai Jai Singh about two centuries ago. | {
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"Sawai Jai Singh."
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1326 | शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंददेवजी का मंदिर, श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं, जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान, राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं। सिटी पैलेसराजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ाऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। जंतर मंतर, वेधशालाएक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए (? ) किया जाता है। हवा महलईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी। हवा महल में कुल 953 खिड़कियाँ हैं| इन खिडकियों से जब हवा एक खिड़की से दूसरी खिड़की में होकर गुजरती हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पंखा चल रहा हैं| आपको हवा महल में खड़े होकर शुद्ध और ताज़ी हवा का पूर्ण एहसास होगा|गोविंद देवजी का मंदिरभगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जय-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था। सरगासूली(ईसरलाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। रामनिवास बागएक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं। गुड़िया घर(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं। बी एम बिड़ला तारामण्डल(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनोखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है। गलता तीर्थएक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है। चूलगिरि जैन मंदिर -जयपुर-आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैंमोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिरमोती डूंगरी एक छोटी पहाडी है इस पर एक छोटे महल का निर्माण किया गया है इसके चारों और किले के समान बुर्ज हैं । यहां स्थित प्राचीन शिवालय है जो वर्ष में केवल एक बार शिवरात्रि के दिन आमजन के लिए पूजा के लिए खोला जाता है । यह किला स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। इसकी तलहटी में जयपुर का सर्वपूजनीय गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी जयपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं । स्टैच्यू सर्किल - चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं। अन्य स्थलआमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं। गैटोरसिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। आमेरआमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। | हवा महल का निर्माण किस वर्ष में किया गया था? 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"सन् 1799"
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1917
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} | In which year was the Hawa Mahal built? | The city has many tourist attractions, such as Jantar Mantar, Hawa Mahal, City Palace, Govinddevji Temple, Shri Lakshmi Jagdish Maharaj Temple, BM Birla Planetarium, Amer Fort, Jaigarh Fort, etc. The shops in the vibrant markets of Jaipur are filled with colorful goods, including handloom products, precious stones, handcrafted clothes made of vegetable dyes, enamel jewellery, brass decorative items, samples of Rajasthani painting, Nagra-Mojari shoes, blue pottery. , ivory handicrafts and white marble sculptures etc. Famous markets include Johari Bazaar, Bapu Bazaar, Nehru Bazaar, Chauda Rasta, Tripolia Bazaar and M.I. There are markets along the road. City Palace, a former royal residence combining Rajasthani and Mughal styles, is located in the heart of the old city. The carved arches, supported by pillars of brown marble, are decorated with floral motifs of gold and colored stones. Two carved marble elephants stand sentinel at the entrance. Families who have served kings for generations. They work as guides. There is a museum in the palace which has a fine collection of Rajasthani costumes and weapons of Mughals and Rajputs. It also contains carved hilt swords of various colors and sizes, many of which are decorated with enamel inlay work and gems and have magnificent inlaid scabbards. The palace also has an art gallery which houses an excellent collection of miniatures, carpets, royal paraphernalia and rare astronomy works in Arabic, Persian, Latin and Sanskrit which were acquired by Sawai Jai Singh II to study astronomy in detail. . Jantar Mantar, ObservatoryA stone observatory. It is the largest among the five observatories of Jai Singh. Its complex machinery, its configuration and shape have been prepared scientifically. This world-famous observatory, which was included in the UNESCO World Heritage List in 2012, is a living example of the astronomical achievements of medieval India! The most impressive among these is the Ramayantra which is used to measure height (?). Hawa Mahal: Built in 1799, Hawa Mahal is the main symbol of Rajput architecture. This five-storey building along the main streets of the old city is decorated with pink octagonal and sophisticated roofed sandstone windows. The building was built with the purpose of allowing the royal ladies to watch the daily life of the city and the processions of the city. There are a total of 953 windows in Hawa Mahal. When air passes from one window to another through these windows, it feels as if a fan is running. You will completely feel the pure and fresh air while standing in Hawa Mahal. Govind Devji Temple, Jaipur's most famous, peakless temple of Lord Krishna. It is situated in the central courtyard of Jai-Niwas garden built to the east of Chandramahal. The idol of the tutelary deity Govindji was earlier installed in the temple of Vrindavan and was reinstalled here by Sawai Jai Singh II as his family deity. Sargasuli (Isarlat) - A high tower-like building on the western side of Tripolia Bazaar, which was built by Sawai Ishwari Singh in 1749 AD to commemorate his Maratha victory. Ram Niwas Bagh is a spacious green garden with a zoo, a nursery, a botanical museum, and a famous cricket ground. It was built by Sawai Ram Singh II in 1865 AD under the flood relief project. Albert Hall, designed by Sir Winston Jacob, is a refined example of Indian architectural style and was later opened with fine sculptures, paintings, decorated pottery, specimens of natural science, an Egyptian mummy and famous Persian carpets. To promote cultural programs, Rabindra Manch, a modern art gallery and an open theater along with an auditorium have also been built in it. Doll House (Time: 12 noon to 7 pm) – Cute dolls from different countries are displayed here in the premises of the Deaf and Mute School near the Police Memorial. BM Birla Planetarium (Time: 12 noon to 7 pm) - With its modern computerized projection system, this planetarium has a unique facility of means of audio and visual education and entertainment. Concessions are available for school groups. It remains closed on the last Wednesday of every month. Galata Shrine, an ancient pilgrimage site, located beyond the gardens among the low hills. The lush green natural scenery along with temples, pavilions and sacred ponds make it a delightful place. The small temple of Sun God built on the top of the highest peak built by Dewan Kriparam is visible from all places of the city. Chulgiri Jain Temple - Built on the Jaipur-Agra road, this excellent Jain temple has extremely beautiful paintings of the nineteenth century in Jaipur style on the walls. Moti Dungri and Laxmi Narayan TempleMoti Dungri is a small hill, on which a small palace has been built. And there are towers like forts. There is an ancient Shiva temple located here which is opened for worship to the public only once a year on the day of Shivratri. This fort is built like the fort of Scotland. At its foothills, the revered Ganesh Temple of Jaipur and the amazing Lakshmi Narayan Temple are also the main tourist places of Jaipur. Statue Circle - The statue of Sawai Jai Singh is very excellently built in the middle of the circle. It is part of a new regional plan to pay tribute to the founder of Jaipur. It has been created. The sculptor of the grand statue of Sawai Jai Singh installed here is Late Mahendra Kumar Das. Other places: Near the intersection of Ramgarh Road on Amer Road, there are many attractive Maharani's Chhatris built in the memory of queens. Jal Mahal, built by Sawai Madho Singh I, in the middle of Mansagar Lake, is a picturesque place. The ancient perfection of Kanak Vrindavan Bhawan with its sophisticated temples and gardens has been renovated in the past. To the west of this road is the royal cremation ground at Gaitor which contains grand monuments of all the rulers of Jaipur except Sawai Ishwari Singh. It is a very impressive Chhatri of Sawai Jai Singh II with fine carvings and elegant shape. The landscaped gardens spread across the valley at the south-eastern corner of the walled city on the Agra road. The Gatorsisodiya Rani Bagh consists of multi-tiered gardens lined with fountains, water canals, painted pavilions and meeting rooms. 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1327 | शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंददेवजी का मंदिर, श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं, जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान, राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं। सिटी पैलेसराजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ाऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। जंतर मंतर, वेधशालाएक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए (? ) किया जाता है। हवा महलईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी। हवा महल में कुल 953 खिड़कियाँ हैं| इन खिडकियों से जब हवा एक खिड़की से दूसरी खिड़की में होकर गुजरती हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पंखा चल रहा हैं| आपको हवा महल में खड़े होकर शुद्ध और ताज़ी हवा का पूर्ण एहसास होगा|गोविंद देवजी का मंदिरभगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जय-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था। सरगासूली(ईसरलाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। रामनिवास बागएक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं। गुड़िया घर(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं। बी एम बिड़ला तारामण्डल(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनोखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है। गलता तीर्थएक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है। चूलगिरि जैन मंदिर -जयपुर-आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैंमोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिरमोती डूंगरी एक छोटी पहाडी है इस पर एक छोटे महल का निर्माण किया गया है इसके चारों और किले के समान बुर्ज हैं । यहां स्थित प्राचीन शिवालय है जो वर्ष में केवल एक बार शिवरात्रि के दिन आमजन के लिए पूजा के लिए खोला जाता है । यह किला स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। इसकी तलहटी में जयपुर का सर्वपूजनीय गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी जयपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं । स्टैच्यू सर्किल - चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं। अन्य स्थलआमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं। गैटोरसिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। आमेरआमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। | गोविन्दजी की मूर्ति का सबसे पहले स्थापना कहाँ किया गया था? | {
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"वृंदावन के मंदिर में"
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} | Where was the statue of Govindaji first installed? | The city has many tourist attractions, such as Jantar Mantar, Hawa Mahal, City Palace, Govinddevji Temple, Shri Lakshmi Jagdish Maharaj Temple, BM Birla Planetarium, Amer Fort, Jaigarh Fort, etc. The shops in the vibrant markets of Jaipur are filled with colorful goods, including handloom products, precious stones, handcrafted clothes made of vegetable dyes, enamel jewellery, brass decorative items, samples of Rajasthani painting, Nagra-Mojari shoes, blue pottery. , ivory handicrafts and white marble sculptures etc. Famous markets include Johari Bazaar, Bapu Bazaar, Nehru Bazaar, Chauda Rasta, Tripolia Bazaar and M.I. There are markets along the road. City Palace, a former royal residence combining Rajasthani and Mughal styles, is located in the heart of the old city. The carved arches, supported by pillars of brown marble, are decorated with floral motifs of gold and colored stones. Two carved marble elephants stand sentinel at the entrance. Families who have served kings for generations. They work as guides. There is a museum in the palace which has a fine collection of Rajasthani costumes and weapons of Mughals and Rajputs. It also contains carved hilt swords of various colors and sizes, many of which are decorated with enamel inlay work and gems and have magnificent inlaid scabbards. The palace also has an art gallery which houses an excellent collection of miniatures, carpets, royal paraphernalia and rare astronomy works in Arabic, Persian, Latin and Sanskrit which were acquired by Sawai Jai Singh II to study astronomy in detail. . Jantar Mantar, ObservatoryA stone observatory. It is the largest among the five observatories of Jai Singh. Its complex machinery, its configuration and shape have been prepared scientifically. This world-famous observatory, which was included in the UNESCO World Heritage List in 2012, is a living example of the astronomical achievements of medieval India! The most impressive among these is the Ramayantra which is used to measure height (?). Hawa Mahal: Built in 1799, Hawa Mahal is the main symbol of Rajput architecture. This five-storey building along the main streets of the old city is decorated with pink octagonal and sophisticated roofed sandstone windows. The building was built with the purpose of allowing the royal ladies to watch the daily life of the city and the processions of the city. There are a total of 953 windows in Hawa Mahal. When air passes from one window to another through these windows, it feels as if a fan is running. You will completely feel the pure and fresh air while standing in Hawa Mahal. Govind Devji Temple, Jaipur's most famous, peakless temple of Lord Krishna. It is situated in the central courtyard of Jai-Niwas garden built to the east of Chandramahal. The idol of the tutelary deity Govindji was earlier installed in the temple of Vrindavan and was reinstalled here by Sawai Jai Singh II as his family deity. Sargasuli (Isarlat) - A high tower-like building on the western side of Tripolia Bazaar, which was built by Sawai Ishwari Singh in 1749 AD to commemorate his Maratha victory. Ram Niwas Bagh is a spacious green garden with a zoo, a nursery, a botanical museum, and a famous cricket ground. It was built by Sawai Ram Singh II in 1865 AD under the flood relief project. Albert Hall, designed by Sir Winston Jacob, is a refined example of Indian architectural style and was later opened with fine sculptures, paintings, decorated pottery, specimens of natural science, an Egyptian mummy and famous Persian carpets. To promote cultural programs, Rabindra Manch, a modern art gallery and an open theater along with an auditorium have also been built in it. Doll House (Time: 12 noon to 7 pm) – Cute dolls from different countries are displayed here in the premises of the Deaf and Mute School near the Police Memorial. BM Birla Planetarium (Time: 12 noon to 7 pm) - With its modern computerized projection system, this planetarium has a unique facility of means of audio and visual education and entertainment. Concessions are available for school groups. It remains closed on the last Wednesday of every month. Galata Shrine, an ancient pilgrimage site, located beyond the gardens among the low hills. The lush green natural scenery along with temples, pavilions and sacred ponds make it a delightful place. The small temple of Sun God built on the top of the highest peak built by Dewan Kriparam is visible from all places of the city. Chulgiri Jain Temple - Built on the Jaipur-Agra road, this excellent Jain temple has extremely beautiful paintings of the nineteenth century in Jaipur style on the walls. Moti Dungri and Laxmi Narayan TempleMoti Dungri is a small hill, on which a small palace has been built. And there are towers like forts. There is an ancient Shiva temple located here which is opened for worship to the public only once a year on the day of Shivratri. This fort is built like the fort of Scotland. At its foothills, the revered Ganesh Temple of Jaipur and the amazing Lakshmi Narayan Temple are also the main tourist places of Jaipur. Statue Circle - The statue of Sawai Jai Singh is very excellently built in the middle of the circle. It is part of a new regional plan to pay tribute to the founder of Jaipur. It has been created. The sculptor of the grand statue of Sawai Jai Singh installed here is Late Mahendra Kumar Das. Other places: Near the intersection of Ramgarh Road on Amer Road, there are many attractive Maharani's Chhatris built in the memory of queens. Jal Mahal, built by Sawai Madho Singh I, in the middle of Mansagar Lake, is a picturesque place. The ancient perfection of Kanak Vrindavan Bhawan with its sophisticated temples and gardens has been renovated in the past. To the west of this road is the royal cremation ground at Gaitor which contains grand monuments of all the rulers of Jaipur except Sawai Ishwari Singh. It is a very impressive Chhatri of Sawai Jai Singh II with fine carvings and elegant shape. The landscaped gardens spread across the valley at the south-eastern corner of the walled city on the Agra road. The Gatorsisodiya Rani Bagh consists of multi-tiered gardens lined with fountains, water canals, painted pavilions and meeting rooms. AmerAmer and Sheela Mata Temple - is a fascinating edifice of palaces, pavilions, gardens and temples built by Raja Man Singh, Mirza Raja Jai Singh and Sawai Jai Singh about two centuries ago. | {
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"In the temple of Vrindavan"
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1328 | शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंददेवजी का मंदिर, श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं, जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान, राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं। सिटी पैलेसराजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ाऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। जंतर मंतर, वेधशालाएक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए (? ) किया जाता है। हवा महलईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी। हवा महल में कुल 953 खिड़कियाँ हैं| इन खिडकियों से जब हवा एक खिड़की से दूसरी खिड़की में होकर गुजरती हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पंखा चल रहा हैं| आपको हवा महल में खड़े होकर शुद्ध और ताज़ी हवा का पूर्ण एहसास होगा|गोविंद देवजी का मंदिरभगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जय-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था। सरगासूली(ईसरलाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। रामनिवास बागएक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं। गुड़िया घर(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं। बी एम बिड़ला तारामण्डल(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनोखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है। गलता तीर्थएक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है। चूलगिरि जैन मंदिर -जयपुर-आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैंमोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिरमोती डूंगरी एक छोटी पहाडी है इस पर एक छोटे महल का निर्माण किया गया है इसके चारों और किले के समान बुर्ज हैं । यहां स्थित प्राचीन शिवालय है जो वर्ष में केवल एक बार शिवरात्रि के दिन आमजन के लिए पूजा के लिए खोला जाता है । यह किला स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। इसकी तलहटी में जयपुर का सर्वपूजनीय गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी जयपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं । स्टैच्यू सर्किल - चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं। अन्य स्थलआमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं। गैटोरसिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। आमेरआमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। | राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जय सिंह और सवाई जय सिंह द्वारा किस मंदिर का निर्माण हुआ था? 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"शीला माता मंदिर"
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} | Which temple was built by Raja Man Singh, Mirza Raja Jai Singh and Sawai Jai Singh? | The city has many tourist attractions, such as Jantar Mantar, Hawa Mahal, City Palace, Govinddevji Temple, Shri Lakshmi Jagdish Maharaj Temple, BM Birla Planetarium, Amer Fort, Jaigarh Fort, etc. The shops in the vibrant markets of Jaipur are filled with colorful goods, including handloom products, precious stones, handcrafted clothes made of vegetable dyes, enamel jewellery, brass decorative items, samples of Rajasthani painting, Nagra-Mojari shoes, blue pottery. , ivory handicrafts and white marble sculptures etc. Famous markets include Johari Bazaar, Bapu Bazaar, Nehru Bazaar, Chauda Rasta, Tripolia Bazaar and M.I. There are markets along the road. City Palace, a former royal residence combining Rajasthani and Mughal styles, is located in the heart of the old city. The carved arches, supported by pillars of brown marble, are decorated with floral motifs of gold and colored stones. Two carved marble elephants stand sentinel at the entrance. Families who have served kings for generations. They work as guides. There is a museum in the palace which has a fine collection of Rajasthani costumes and weapons of Mughals and Rajputs. It also contains carved hilt swords of various colors and sizes, many of which are decorated with enamel inlay work and gems and have magnificent inlaid scabbards. The palace also has an art gallery which houses an excellent collection of miniatures, carpets, royal paraphernalia and rare astronomy works in Arabic, Persian, Latin and Sanskrit which were acquired by Sawai Jai Singh II to study astronomy in detail. . Jantar Mantar, ObservatoryA stone observatory. It is the largest among the five observatories of Jai Singh. Its complex machinery, its configuration and shape have been prepared scientifically. This world-famous observatory, which was included in the UNESCO World Heritage List in 2012, is a living example of the astronomical achievements of medieval India! The most impressive among these is the Ramayantra which is used to measure height (?). Hawa Mahal: Built in 1799, Hawa Mahal is the main symbol of Rajput architecture. This five-storey building along the main streets of the old city is decorated with pink octagonal and sophisticated roofed sandstone windows. The building was built with the purpose of allowing the royal ladies to watch the daily life of the city and the processions of the city. There are a total of 953 windows in Hawa Mahal. When air passes from one window to another through these windows, it feels as if a fan is running. You will completely feel the pure and fresh air while standing in Hawa Mahal. Govind Devji Temple, Jaipur's most famous, peakless temple of Lord Krishna. It is situated in the central courtyard of Jai-Niwas garden built to the east of Chandramahal. The idol of the tutelary deity Govindji was earlier installed in the temple of Vrindavan and was reinstalled here by Sawai Jai Singh II as his family deity. Sargasuli (Isarlat) - A high tower-like building on the western side of Tripolia Bazaar, which was built by Sawai Ishwari Singh in 1749 AD to commemorate his Maratha victory. Ram Niwas Bagh is a spacious green garden with a zoo, a nursery, a botanical museum, and a famous cricket ground. It was built by Sawai Ram Singh II in 1865 AD under the flood relief project. Albert Hall, designed by Sir Winston Jacob, is a refined example of Indian architectural style and was later opened with fine sculptures, paintings, decorated pottery, specimens of natural science, an Egyptian mummy and famous Persian carpets. To promote cultural programs, Rabindra Manch, a modern art gallery and an open theater along with an auditorium have also been built in it. Doll House (Time: 12 noon to 7 pm) – Cute dolls from different countries are displayed here in the premises of the Deaf and Mute School near the Police Memorial. BM Birla Planetarium (Time: 12 noon to 7 pm) - With its modern computerized projection system, this planetarium has a unique facility of means of audio and visual education and entertainment. Concessions are available for school groups. It remains closed on the last Wednesday of every month. Galata Shrine, an ancient pilgrimage site, located beyond the gardens among the low hills. The lush green natural scenery along with temples, pavilions and sacred ponds make it a delightful place. The small temple of Sun God built on the top of the highest peak built by Dewan Kriparam is visible from all places of the city. Chulgiri Jain Temple - Built on the Jaipur-Agra road, this excellent Jain temple has extremely beautiful paintings of the nineteenth century in Jaipur style on the walls. Moti Dungri and Laxmi Narayan TempleMoti Dungri is a small hill, on which a small palace has been built. And there are towers like forts. There is an ancient Shiva temple located here which is opened for worship to the public only once a year on the day of Shivratri. This fort is built like the fort of Scotland. At its foothills, the revered Ganesh Temple of Jaipur and the amazing Lakshmi Narayan Temple are also the main tourist places of Jaipur. Statue Circle - The statue of Sawai Jai Singh is very excellently built in the middle of the circle. It is part of a new regional plan to pay tribute to the founder of Jaipur. It has been created. The sculptor of the grand statue of Sawai Jai Singh installed here is Late Mahendra Kumar Das. Other places: Near the intersection of Ramgarh Road on Amer Road, there are many attractive Maharani's Chhatris built in the memory of queens. Jal Mahal, built by Sawai Madho Singh I, in the middle of Mansagar Lake, is a picturesque place. The ancient perfection of Kanak Vrindavan Bhawan with its sophisticated temples and gardens has been renovated in the past. To the west of this road is the royal cremation ground at Gaitor which contains grand monuments of all the rulers of Jaipur except Sawai Ishwari Singh. It is a very impressive Chhatri of Sawai Jai Singh II with fine carvings and elegant shape. The landscaped gardens spread across the valley at the south-eastern corner of the walled city on the Agra road. The Gatorsisodiya Rani Bagh consists of multi-tiered gardens lined with fountains, water canals, painted pavilions and meeting rooms. 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"Sheela Mata Temple"
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1329 | शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं? कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था। सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था। वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं। वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया। अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। | ब्राह्मण धर्म में किस भगवान की पूजा अधिक प्रचलित थी ? | {
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"शिव और विष्णु"
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} | Which god was more commonly worshipped in Brahminism? | Local autonomous institutions had a special place in governance. Some of these were social and religious in nature. The assemblies that managed the cities were famous by the name of Mahajan. Village institutions, which were largely similar to Chola institutions, were more active than before. These collective institutions worked with mutual cooperation and arranged many tasks useful in social life. Among the village officials the names of Urodeya, Perggade, Garwood, Senbow and Kulkarni are found. The taxes collected by the state were mainly of two types: income, such as Siddhaya, Pannaya and Dandaya, and taxes, such as Vaddravulad Sunka, Perjjuk and Manneya Sunka. Apart from these, there are also instructions for Aruvan, Balli, Karvand, Tulbhog and Masatu. Manevana was a house tax, Kannadivana (mirror) was probably taken from the dancers and Balanjiyata was on the traders. There is also mention of tax on tents made for marriages. The culture of this period was eclectic and vast and incorporated influences from other parts of India as well. There were no restrictions on women's participation in social life. There was a proper system of education for upper class women. The number of dancers (sulair) was not less. There are also some mentions of Satipratha. Some examples of sacrifice of life are found through methods like Mahayoga, Shulbrahma and Sallekhan etc. Getting construction done in the memory of deceased relatives, gurus or great persons was called Parokshvinaya. A game like polo was prevalent. Temples were also centers of social and economic life. Dance, song and drama were organized in them. There is mention of the proficiency of some individuals of the dynasty in music. It has been said about Senapati Ravidev that when he used to present his music, people used to ask whether it is not the rain of honey or the stream of Sudha? According to the importance of reservoirs for agriculture, proper arrangements were made for their construction and repair. Economically useful crops like betel nuts, betel nuts, cotton and fruits were also grown. In addition to the categories of industries and crafts, there were also guilds of merchants. Some guilds of traders, and the organization of Nanadeshi and Tishaiyayirattu Ainjurruvar were highly developed and they traded with different parts of India and foreign countries. The names of the coins of this period are – Pon or Gadyan, Pag or Hag, Vis and Kani. Gold and silver coins are available in the names of Jaisingh, Jagadekamalla and Trayokyamall. Mattar, Kammas, Nivartan and Khandug were the units of measuring land but there was no fixed measure of penalty. Probably, there was an attempt by the state to organize and fix the units of measurement. Tolerance and generosity were the characteristics of the religious life of this era. All religions and sects were equally eligible for donations from kings and feudal lords. The worship of Shiva and Vishnu was more prevalent in Brahmin religion, among these also the worship of Shiva was more popular in both the dynasty and the country. The importance of the Lingayat sect increased during the time of the Kalachuryas. Worship of Kollapur Mahalakshmi in Shakta method was also highly popular. After this, the worship of Kartikeya was important. The main centers of Buddhism were Bel, Gave and Dumbal. But Jainism was more popular than Buddhism. For higher education of Vedas, grammar and philosophy, there were schools or colleges in the state for the arrangement of which grants were given from the state. There were many residences or Brahmapuris of Brahmins in the country which were centers of intensive study of various parts of Sanskrit. Vadiraja composed Parshvanathcharita and Yashodharcharita during the time of Jayasimha II. Vilhan's famous work Vikramankadevcharita contains details of the biography of Vikramaditya VI. Vijnaneshwar composed his famous commentary Mitakshara on Yajnavalkya Smriti during the time of Vikramaditya. Vivyaneshwar's disciple Narayan had composed Vyavahashiromani. Mansollas or Abhilshitarthichintamani which discusses many topics of interest and interest to the king was the work of Someshwar III. Vidyamadhav, the author of Parvatiruktimaniya, was in the court of Someshwar. Sagitchudamani was the work of Jagadekamalla II. Sangeet Sudhakar was also the creation of a Chalukya prince. This era was extremely prosperous in the history of Kannada literature. There were some changes in the form of Kannada language also. The use of Shatapadi and Tripadi verses increased. The trend of composing Champu poems came to an end. The composition of a special type of songs named Ragale started during this period. Jain scholars had a major contribution in the development of Kannada literature. Shantinath, the author of Sukumarcharitra and Nagavarmacharya, the author of Chandrachudamanishtak, were born in this day. Ranna, who was Kavichakravarti of Tailapa's court, composed Ajitpuran and Champu named Sahasbhimvijay, Nighantu named Ranna Kand and Parashuramacharita and Chakreshvaracharita. Chamundarai composed Chamundaraipuran in 978 AD. Chhandobudhi and Karnatakakadambari were composed by Nagavarma I. Durg Singh, in his Panchatantra, has mentioned Karnaparya, the author of Melimadhava, Kavitavilas, the author of a policy treatise, and Chandraraj, the author of Madanatilaka, among the contemporary writers. Shridharacharya had the title of Gadyapadyavidyadhar. Apart from Chandraprabhacharita, he had written Jatakatilaka which is the first treatise on astrology in Kannada. Nagchandra, popularly known as Abhinav Pump, composed Mallinathpuran and Ramchandracharitpuran. Before this, Vaadi Kumudchandra had also composed a Ramayana. Apart from Dharmamrit, Nayasen also wrote a grammar book. Neminathpuran Karnapar It is the work of Y. Nagavarma II composed Kavyalokana, Karnataka Bhashabhushan and Vastukosha. Jagaddal Somnath translated Pujyavad's Kalyankaraka into Kannada by the name of Karnataka Kalyankaraka. Veerashaiva people had a special contribution in the development of Kannada prose. Names of almost two hundred writers are found, among whom were some notable women writers. Basava and other Veerashaiva writers gave birth to Vachan literature in which simple language was used to popularize Veerashaiva principles among the common people. Some Lingayat scholars also enriched other parts of Kannada literature. The names of some skilled stone craftsmen are found in the inscriptions such as Shankararya, Nagoj and Mahakal. Subtle ornamentation is found on the outer walls and doors of Chalukya temples. | {
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"Shiva and Vishnu."
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1330 | शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं? कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था। सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था। वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं। वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया। अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। | मल्लिकार्जुन मंदिर कहाँ पर स्थित है ? 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} | Where is the Mallikarjuna Temple located? | Local autonomous institutions had a special place in governance. Some of these were social and religious in nature. The assemblies that managed the cities were famous by the name of Mahajan. Village institutions, which were largely similar to Chola institutions, were more active than before. These collective institutions worked with mutual cooperation and arranged many tasks useful in social life. Among the village officials the names of Urodeya, Perggade, Garwood, Senbow and Kulkarni are found. The taxes collected by the state were mainly of two types: income, such as Siddhaya, Pannaya and Dandaya, and taxes, such as Vaddravulad Sunka, Perjjuk and Manneya Sunka. Apart from these, there are also instructions for Aruvan, Balli, Karvand, Tulbhog and Masatu. Manevana was a house tax, Kannadivana (mirror) was probably taken from the dancers and Balanjiyata was on the traders. There is also mention of tax on tents made for marriages. The culture of this period was eclectic and vast and incorporated influences from other parts of India as well. There were no restrictions on women's participation in social life. There was a proper system of education for upper class women. The number of dancers (sulair) was not less. There are also some mentions of Satipratha. Some examples of sacrifice of life are found through methods like Mahayoga, Shulbrahma and Sallekhan etc. Getting construction done in the memory of deceased relatives, gurus or great persons was called Parokshvinaya. A game like polo was prevalent. Temples were also centers of social and economic life. Dance, song and drama were organized in them. There is mention of the proficiency of some individuals of the dynasty in music. It has been said about Senapati Ravidev that when he used to present his music, people used to ask whether it is not the rain of honey or the stream of Sudha? According to the importance of reservoirs for agriculture, proper arrangements were made for their construction and repair. Economically useful crops like betel nuts, betel nuts, cotton and fruits were also grown. In addition to the categories of industries and crafts, there were also guilds of merchants. Some guilds of traders, and the organization of Nanadeshi and Tishaiyayirattu Ainjurruvar were highly developed and they traded with different parts of India and foreign countries. The names of the coins of this period are – Pon or Gadyan, Pag or Hag, Vis and Kani. Gold and silver coins are available in the names of Jaisingh, Jagadekamalla and Trayokyamall. Mattar, Kammas, Nivartan and Khandug were the units of measuring land but there was no fixed measure of penalty. Probably, there was an attempt by the state to organize and fix the units of measurement. Tolerance and generosity were the characteristics of the religious life of this era. All religions and sects were equally eligible for donations from kings and feudal lords. The worship of Shiva and Vishnu was more prevalent in Brahmin religion, among these also the worship of Shiva was more popular in both the dynasty and the country. The importance of the Lingayat sect increased during the time of the Kalachuryas. Worship of Kollapur Mahalakshmi in Shakta method was also highly popular. After this, the worship of Kartikeya was important. The main centers of Buddhism were Bel, Gave and Dumbal. But Jainism was more popular than Buddhism. For higher education of Vedas, grammar and philosophy, there were schools or colleges in the state for the arrangement of which grants were given from the state. There were many residences or Brahmapuris of Brahmins in the country which were centers of intensive study of various parts of Sanskrit. Vadiraja composed Parshvanathcharita and Yashodharcharita during the time of Jayasimha II. Vilhan's famous work Vikramankadevcharita contains details of the biography of Vikramaditya VI. Vijnaneshwar composed his famous commentary Mitakshara on Yajnavalkya Smriti during the time of Vikramaditya. Vivyaneshwar's disciple Narayan had composed Vyavahashiromani. Mansollas or Abhilshitarthichintamani which discusses many topics of interest and interest to the king was the work of Someshwar III. Vidyamadhav, the author of Parvatiruktimaniya, was in the court of Someshwar. Sagitchudamani was the work of Jagadekamalla II. Sangeet Sudhakar was also the creation of a Chalukya prince. This era was extremely prosperous in the history of Kannada literature. There were some changes in the form of Kannada language also. The use of Shatapadi and Tripadi verses increased. The trend of composing Champu poems came to an end. The composition of a special type of songs named Ragale started during this period. Jain scholars had a major contribution in the development of Kannada literature. Shantinath, the author of Sukumarcharitra and Nagavarmacharya, the author of Chandrachudamanishtak, were born in this day. Ranna, who was Kavichakravarti of Tailapa's court, composed Ajitpuran and Champu named Sahasbhimvijay, Nighantu named Ranna Kand and Parashuramacharita and Chakreshvaracharita. Chamundarai composed Chamundaraipuran in 978 AD. Chhandobudhi and Karnatakakadambari were composed by Nagavarma I. Durg Singh, in his Panchatantra, has mentioned Karnaparya, the author of Melimadhava, Kavitavilas, the author of a policy treatise, and Chandraraj, the author of Madanatilaka, among the contemporary writers. Shridharacharya had the title of Gadyapadyavidyadhar. Apart from Chandraprabhacharita, he had written Jatakatilaka which is the first treatise on astrology in Kannada. Nagchandra, popularly known as Abhinav Pump, composed Mallinathpuran and Ramchandracharitpuran. Before this, Vaadi Kumudchandra had also composed a Ramayana. Apart from Dharmamrit, Nayasen also wrote a grammar book. Neminathpuran Karnapar It is the work of Y. Nagavarma II composed Kavyalokana, Karnataka Bhashabhushan and Vastukosha. Jagaddal Somnath translated Pujyavad's Kalyankaraka into Kannada by the name of Karnataka Kalyankaraka. Veerashaiva people had a special contribution in the development of Kannada prose. Names of almost two hundred writers are found, among whom were some notable women writers. Basava and other Veerashaiva writers gave birth to Vachan literature in which simple language was used to popularize Veerashaiva principles among the common people. Some Lingayat scholars also enriched other parts of Kannada literature. The names of some skilled stone craftsmen are found in the inscriptions such as Shankararya, Nagoj and Mahakal. Subtle ornamentation is found on the outer walls and doors of Chalukya temples. | {
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1331 | शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं? कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था। सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था। वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं। वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया। अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। | कंस, निर्वाण और खंडुगा किसको मापने के लिए प्रयोग किए जाते थे ? | {
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"भूमि नापने"
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2201
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} | Kansa, Nirvana and Khanduga were used to measure whom? | Local autonomous institutions had a special place in governance. Some of these were social and religious in nature. The assemblies that managed the cities were famous by the name of Mahajan. Village institutions, which were largely similar to Chola institutions, were more active than before. These collective institutions worked with mutual cooperation and arranged many tasks useful in social life. Among the village officials the names of Urodeya, Perggade, Garwood, Senbow and Kulkarni are found. The taxes collected by the state were mainly of two types: income, such as Siddhaya, Pannaya and Dandaya, and taxes, such as Vaddravulad Sunka, Perjjuk and Manneya Sunka. Apart from these, there are also instructions for Aruvan, Balli, Karvand, Tulbhog and Masatu. Manevana was a house tax, Kannadivana (mirror) was probably taken from the dancers and Balanjiyata was on the traders. There is also mention of tax on tents made for marriages. The culture of this period was eclectic and vast and incorporated influences from other parts of India as well. There were no restrictions on women's participation in social life. There was a proper system of education for upper class women. The number of dancers (sulair) was not less. There are also some mentions of Satipratha. Some examples of sacrifice of life are found through methods like Mahayoga, Shulbrahma and Sallekhan etc. Getting construction done in the memory of deceased relatives, gurus or great persons was called Parokshvinaya. A game like polo was prevalent. Temples were also centers of social and economic life. Dance, song and drama were organized in them. There is mention of the proficiency of some individuals of the dynasty in music. It has been said about Senapati Ravidev that when he used to present his music, people used to ask whether it is not the rain of honey or the stream of Sudha? According to the importance of reservoirs for agriculture, proper arrangements were made for their construction and repair. Economically useful crops like betel nuts, betel nuts, cotton and fruits were also grown. In addition to the categories of industries and crafts, there were also guilds of merchants. Some guilds of traders, and the organization of Nanadeshi and Tishaiyayirattu Ainjurruvar were highly developed and they traded with different parts of India and foreign countries. The names of the coins of this period are – Pon or Gadyan, Pag or Hag, Vis and Kani. Gold and silver coins are available in the names of Jaisingh, Jagadekamalla and Trayokyamall. Mattar, Kammas, Nivartan and Khandug were the units of measuring land but there was no fixed measure of penalty. Probably, there was an attempt by the state to organize and fix the units of measurement. Tolerance and generosity were the characteristics of the religious life of this era. All religions and sects were equally eligible for donations from kings and feudal lords. The worship of Shiva and Vishnu was more prevalent in Brahmin religion, among these also the worship of Shiva was more popular in both the dynasty and the country. The importance of the Lingayat sect increased during the time of the Kalachuryas. Worship of Kollapur Mahalakshmi in Shakta method was also highly popular. After this, the worship of Kartikeya was important. The main centers of Buddhism were Bel, Gave and Dumbal. But Jainism was more popular than Buddhism. For higher education of Vedas, grammar and philosophy, there were schools or colleges in the state for the arrangement of which grants were given from the state. There were many residences or Brahmapuris of Brahmins in the country which were centers of intensive study of various parts of Sanskrit. Vadiraja composed Parshvanathcharita and Yashodharcharita during the time of Jayasimha II. Vilhan's famous work Vikramankadevcharita contains details of the biography of Vikramaditya VI. Vijnaneshwar composed his famous commentary Mitakshara on Yajnavalkya Smriti during the time of Vikramaditya. Vivyaneshwar's disciple Narayan had composed Vyavahashiromani. Mansollas or Abhilshitarthichintamani which discusses many topics of interest and interest to the king was the work of Someshwar III. Vidyamadhav, the author of Parvatiruktimaniya, was in the court of Someshwar. Sagitchudamani was the work of Jagadekamalla II. Sangeet Sudhakar was also the creation of a Chalukya prince. This era was extremely prosperous in the history of Kannada literature. There were some changes in the form of Kannada language also. The use of Shatapadi and Tripadi verses increased. The trend of composing Champu poems came to an end. The composition of a special type of songs named Ragale started during this period. Jain scholars had a major contribution in the development of Kannada literature. Shantinath, the author of Sukumarcharitra and Nagavarmacharya, the author of Chandrachudamanishtak, were born in this day. Ranna, who was Kavichakravarti of Tailapa's court, composed Ajitpuran and Champu named Sahasbhimvijay, Nighantu named Ranna Kand and Parashuramacharita and Chakreshvaracharita. Chamundarai composed Chamundaraipuran in 978 AD. Chhandobudhi and Karnatakakadambari were composed by Nagavarma I. Durg Singh, in his Panchatantra, has mentioned Karnaparya, the author of Melimadhava, Kavitavilas, the author of a policy treatise, and Chandraraj, the author of Madanatilaka, among the contemporary writers. Shridharacharya had the title of Gadyapadyavidyadhar. Apart from Chandraprabhacharita, he had written Jatakatilaka which is the first treatise on astrology in Kannada. Nagchandra, popularly known as Abhinav Pump, composed Mallinathpuran and Ramchandracharitpuran. Before this, Vaadi Kumudchandra had also composed a Ramayana. Apart from Dharmamrit, Nayasen also wrote a grammar book. Neminathpuran Karnapar It is the work of Y. Nagavarma II composed Kavyalokana, Karnataka Bhashabhushan and Vastukosha. Jagaddal Somnath translated Pujyavad's Kalyankaraka into Kannada by the name of Karnataka Kalyankaraka. Veerashaiva people had a special contribution in the development of Kannada prose. Names of almost two hundred writers are found, among whom were some notable women writers. Basava and other Veerashaiva writers gave birth to Vachan literature in which simple language was used to popularize Veerashaiva principles among the common people. Some Lingayat scholars also enriched other parts of Kannada literature. The names of some skilled stone craftsmen are found in the inscriptions such as Shankararya, Nagoj and Mahakal. Subtle ornamentation is found on the outer walls and doors of Chalukya temples. | {
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2201
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"land measurement"
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1332 | शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं? कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था। सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था। वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं। वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया। अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। | चामुंडाराय ने कब चामुंडाराय पुराण की रचना की थी ? | {
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"978 ई"
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4310
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} | When did Chamundaraya compose the Chamundaraya Purana? | Local autonomous institutions had a special place in governance. Some of these were social and religious in nature. The assemblies that managed the cities were famous by the name of Mahajan. Village institutions, which were largely similar to Chola institutions, were more active than before. These collective institutions worked with mutual cooperation and arranged many tasks useful in social life. Among the village officials the names of Urodeya, Perggade, Garwood, Senbow and Kulkarni are found. The taxes collected by the state were mainly of two types: income, such as Siddhaya, Pannaya and Dandaya, and taxes, such as Vaddravulad Sunka, Perjjuk and Manneya Sunka. Apart from these, there are also instructions for Aruvan, Balli, Karvand, Tulbhog and Masatu. Manevana was a house tax, Kannadivana (mirror) was probably taken from the dancers and Balanjiyata was on the traders. There is also mention of tax on tents made for marriages. The culture of this period was eclectic and vast and incorporated influences from other parts of India as well. There were no restrictions on women's participation in social life. There was a proper system of education for upper class women. The number of dancers (sulair) was not less. There are also some mentions of Satipratha. Some examples of sacrifice of life are found through methods like Mahayoga, Shulbrahma and Sallekhan etc. Getting construction done in the memory of deceased relatives, gurus or great persons was called Parokshvinaya. A game like polo was prevalent. Temples were also centers of social and economic life. Dance, song and drama were organized in them. There is mention of the proficiency of some individuals of the dynasty in music. It has been said about Senapati Ravidev that when he used to present his music, people used to ask whether it is not the rain of honey or the stream of Sudha? According to the importance of reservoirs for agriculture, proper arrangements were made for their construction and repair. Economically useful crops like betel nuts, betel nuts, cotton and fruits were also grown. In addition to the categories of industries and crafts, there were also guilds of merchants. Some guilds of traders, and the organization of Nanadeshi and Tishaiyayirattu Ainjurruvar were highly developed and they traded with different parts of India and foreign countries. The names of the coins of this period are – Pon or Gadyan, Pag or Hag, Vis and Kani. Gold and silver coins are available in the names of Jaisingh, Jagadekamalla and Trayokyamall. Mattar, Kammas, Nivartan and Khandug were the units of measuring land but there was no fixed measure of penalty. Probably, there was an attempt by the state to organize and fix the units of measurement. Tolerance and generosity were the characteristics of the religious life of this era. All religions and sects were equally eligible for donations from kings and feudal lords. The worship of Shiva and Vishnu was more prevalent in Brahmin religion, among these also the worship of Shiva was more popular in both the dynasty and the country. The importance of the Lingayat sect increased during the time of the Kalachuryas. Worship of Kollapur Mahalakshmi in Shakta method was also highly popular. After this, the worship of Kartikeya was important. The main centers of Buddhism were Bel, Gave and Dumbal. But Jainism was more popular than Buddhism. For higher education of Vedas, grammar and philosophy, there were schools or colleges in the state for the arrangement of which grants were given from the state. There were many residences or Brahmapuris of Brahmins in the country which were centers of intensive study of various parts of Sanskrit. Vadiraja composed Parshvanathcharita and Yashodharcharita during the time of Jayasimha II. Vilhan's famous work Vikramankadevcharita contains details of the biography of Vikramaditya VI. Vijnaneshwar composed his famous commentary Mitakshara on Yajnavalkya Smriti during the time of Vikramaditya. Vivyaneshwar's disciple Narayan had composed Vyavahashiromani. Mansollas or Abhilshitarthichintamani which discusses many topics of interest and interest to the king was the work of Someshwar III. Vidyamadhav, the author of Parvatiruktimaniya, was in the court of Someshwar. Sagitchudamani was the work of Jagadekamalla II. Sangeet Sudhakar was also the creation of a Chalukya prince. This era was extremely prosperous in the history of Kannada literature. There were some changes in the form of Kannada language also. The use of Shatapadi and Tripadi verses increased. The trend of composing Champu poems came to an end. The composition of a special type of songs named Ragale started during this period. Jain scholars had a major contribution in the development of Kannada literature. Shantinath, the author of Sukumarcharitra and Nagavarmacharya, the author of Chandrachudamanishtak, were born in this day. Ranna, who was Kavichakravarti of Tailapa's court, composed Ajitpuran and Champu named Sahasbhimvijay, Nighantu named Ranna Kand and Parashuramacharita and Chakreshvaracharita. Chamundarai composed Chamundaraipuran in 978 AD. Chhandobudhi and Karnatakakadambari were composed by Nagavarma I. Durg Singh, in his Panchatantra, has mentioned Karnaparya, the author of Melimadhava, Kavitavilas, the author of a policy treatise, and Chandraraj, the author of Madanatilaka, among the contemporary writers. Shridharacharya had the title of Gadyapadyavidyadhar. Apart from Chandraprabhacharita, he had written Jatakatilaka which is the first treatise on astrology in Kannada. Nagchandra, popularly known as Abhinav Pump, composed Mallinathpuran and Ramchandracharitpuran. Before this, Vaadi Kumudchandra had also composed a Ramayana. Apart from Dharmamrit, Nayasen also wrote a grammar book. Neminathpuran Karnapar It is the work of Y. Nagavarma II composed Kavyalokana, Karnataka Bhashabhushan and Vastukosha. Jagaddal Somnath translated Pujyavad's Kalyankaraka into Kannada by the name of Karnataka Kalyankaraka. Veerashaiva people had a special contribution in the development of Kannada prose. Names of almost two hundred writers are found, among whom were some notable women writers. Basava and other Veerashaiva writers gave birth to Vachan literature in which simple language was used to popularize Veerashaiva principles among the common people. Some Lingayat scholars also enriched other parts of Kannada literature. The names of some skilled stone craftsmen are found in the inscriptions such as Shankararya, Nagoj and Mahakal. Subtle ornamentation is found on the outer walls and doors of Chalukya temples. | {
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1333 | शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं? कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था। सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था। वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं। वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया। अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। | शहरों के प्रबंधन के लिए बैठकों को किसके रूप में जाना जाता था ? | {
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} | Meetings for the management of cities were known as? | Local autonomous institutions had a special place in governance. Some of these were social and religious in nature. The assemblies that managed the cities were famous by the name of Mahajan. Village institutions, which were largely similar to Chola institutions, were more active than before. These collective institutions worked with mutual cooperation and arranged many tasks useful in social life. Among the village officials the names of Urodeya, Perggade, Garwood, Senbow and Kulkarni are found. The taxes collected by the state were mainly of two types: income, such as Siddhaya, Pannaya and Dandaya, and taxes, such as Vaddravulad Sunka, Perjjuk and Manneya Sunka. Apart from these, there are also instructions for Aruvan, Balli, Karvand, Tulbhog and Masatu. Manevana was a house tax, Kannadivana (mirror) was probably taken from the dancers and Balanjiyata was on the traders. There is also mention of tax on tents made for marriages. The culture of this period was eclectic and vast and incorporated influences from other parts of India as well. There were no restrictions on women's participation in social life. There was a proper system of education for upper class women. The number of dancers (sulair) was not less. There are also some mentions of Satipratha. Some examples of sacrifice of life are found through methods like Mahayoga, Shulbrahma and Sallekhan etc. Getting construction done in the memory of deceased relatives, gurus or great persons was called Parokshvinaya. A game like polo was prevalent. Temples were also centers of social and economic life. Dance, song and drama were organized in them. There is mention of the proficiency of some individuals of the dynasty in music. It has been said about Senapati Ravidev that when he used to present his music, people used to ask whether it is not the rain of honey or the stream of Sudha? According to the importance of reservoirs for agriculture, proper arrangements were made for their construction and repair. Economically useful crops like betel nuts, betel nuts, cotton and fruits were also grown. In addition to the categories of industries and crafts, there were also guilds of merchants. Some guilds of traders, and the organization of Nanadeshi and Tishaiyayirattu Ainjurruvar were highly developed and they traded with different parts of India and foreign countries. The names of the coins of this period are – Pon or Gadyan, Pag or Hag, Vis and Kani. Gold and silver coins are available in the names of Jaisingh, Jagadekamalla and Trayokyamall. Mattar, Kammas, Nivartan and Khandug were the units of measuring land but there was no fixed measure of penalty. Probably, there was an attempt by the state to organize and fix the units of measurement. Tolerance and generosity were the characteristics of the religious life of this era. All religions and sects were equally eligible for donations from kings and feudal lords. The worship of Shiva and Vishnu was more prevalent in Brahmin religion, among these also the worship of Shiva was more popular in both the dynasty and the country. The importance of the Lingayat sect increased during the time of the Kalachuryas. Worship of Kollapur Mahalakshmi in Shakta method was also highly popular. After this, the worship of Kartikeya was important. The main centers of Buddhism were Bel, Gave and Dumbal. But Jainism was more popular than Buddhism. For higher education of Vedas, grammar and philosophy, there were schools or colleges in the state for the arrangement of which grants were given from the state. There were many residences or Brahmapuris of Brahmins in the country which were centers of intensive study of various parts of Sanskrit. Vadiraja composed Parshvanathcharita and Yashodharcharita during the time of Jayasimha II. Vilhan's famous work Vikramankadevcharita contains details of the biography of Vikramaditya VI. Vijnaneshwar composed his famous commentary Mitakshara on Yajnavalkya Smriti during the time of Vikramaditya. Vivyaneshwar's disciple Narayan had composed Vyavahashiromani. Mansollas or Abhilshitarthichintamani which discusses many topics of interest and interest to the king was the work of Someshwar III. Vidyamadhav, the author of Parvatiruktimaniya, was in the court of Someshwar. Sagitchudamani was the work of Jagadekamalla II. Sangeet Sudhakar was also the creation of a Chalukya prince. This era was extremely prosperous in the history of Kannada literature. There were some changes in the form of Kannada language also. The use of Shatapadi and Tripadi verses increased. The trend of composing Champu poems came to an end. The composition of a special type of songs named Ragale started during this period. Jain scholars had a major contribution in the development of Kannada literature. Shantinath, the author of Sukumarcharitra and Nagavarmacharya, the author of Chandrachudamanishtak, were born in this day. Ranna, who was Kavichakravarti of Tailapa's court, composed Ajitpuran and Champu named Sahasbhimvijay, Nighantu named Ranna Kand and Parashuramacharita and Chakreshvaracharita. Chamundarai composed Chamundaraipuran in 978 AD. Chhandobudhi and Karnatakakadambari were composed by Nagavarma I. Durg Singh, in his Panchatantra, has mentioned Karnaparya, the author of Melimadhava, Kavitavilas, the author of a policy treatise, and Chandraraj, the author of Madanatilaka, among the contemporary writers. Shridharacharya had the title of Gadyapadyavidyadhar. Apart from Chandraprabhacharita, he had written Jatakatilaka which is the first treatise on astrology in Kannada. Nagchandra, popularly known as Abhinav Pump, composed Mallinathpuran and Ramchandracharitpuran. Before this, Vaadi Kumudchandra had also composed a Ramayana. Apart from Dharmamrit, Nayasen also wrote a grammar book. Neminathpuran Karnapar It is the work of Y. Nagavarma II composed Kavyalokana, Karnataka Bhashabhushan and Vastukosha. Jagaddal Somnath translated Pujyavad's Kalyankaraka into Kannada by the name of Karnataka Kalyankaraka. Veerashaiva people had a special contribution in the development of Kannada prose. Names of almost two hundred writers are found, among whom were some notable women writers. Basava and other Veerashaiva writers gave birth to Vachan literature in which simple language was used to popularize Veerashaiva principles among the common people. Some Lingayat scholars also enriched other parts of Kannada literature. The names of some skilled stone craftsmen are found in the inscriptions such as Shankararya, Nagoj and Mahakal. Subtle ornamentation is found on the outer walls and doors of Chalukya temples. | {
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1334 | शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं? कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था। सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था। वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं। वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया। अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। | काशिविश्वेश्वर मंदिर कहाँ स्थित है ? 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} | Where is the Kashivishweshwar Temple located? | Local autonomous institutions had a special place in governance. Some of these were social and religious in nature. The assemblies that managed the cities were famous by the name of Mahajan. Village institutions, which were largely similar to Chola institutions, were more active than before. These collective institutions worked with mutual cooperation and arranged many tasks useful in social life. Among the village officials the names of Urodeya, Perggade, Garwood, Senbow and Kulkarni are found. The taxes collected by the state were mainly of two types: income, such as Siddhaya, Pannaya and Dandaya, and taxes, such as Vaddravulad Sunka, Perjjuk and Manneya Sunka. Apart from these, there are also instructions for Aruvan, Balli, Karvand, Tulbhog and Masatu. Manevana was a house tax, Kannadivana (mirror) was probably taken from the dancers and Balanjiyata was on the traders. There is also mention of tax on tents made for marriages. The culture of this period was eclectic and vast and incorporated influences from other parts of India as well. There were no restrictions on women's participation in social life. There was a proper system of education for upper class women. The number of dancers (sulair) was not less. There are also some mentions of Satipratha. Some examples of sacrifice of life are found through methods like Mahayoga, Shulbrahma and Sallekhan etc. Getting construction done in the memory of deceased relatives, gurus or great persons was called Parokshvinaya. A game like polo was prevalent. Temples were also centers of social and economic life. Dance, song and drama were organized in them. There is mention of the proficiency of some individuals of the dynasty in music. It has been said about Senapati Ravidev that when he used to present his music, people used to ask whether it is not the rain of honey or the stream of Sudha? 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All religions and sects were equally eligible for donations from kings and feudal lords. The worship of Shiva and Vishnu was more prevalent in Brahmin religion, among these also the worship of Shiva was more popular in both the dynasty and the country. The importance of the Lingayat sect increased during the time of the Kalachuryas. Worship of Kollapur Mahalakshmi in Shakta method was also highly popular. After this, the worship of Kartikeya was important. The main centers of Buddhism were Bel, Gave and Dumbal. But Jainism was more popular than Buddhism. For higher education of Vedas, grammar and philosophy, there were schools or colleges in the state for the arrangement of which grants were given from the state. There were many residences or Brahmapuris of Brahmins in the country which were centers of intensive study of various parts of Sanskrit. Vadiraja composed Parshvanathcharita and Yashodharcharita during the time of Jayasimha II. Vilhan's famous work Vikramankadevcharita contains details of the biography of Vikramaditya VI. Vijnaneshwar composed his famous commentary Mitakshara on Yajnavalkya Smriti during the time of Vikramaditya. Vivyaneshwar's disciple Narayan had composed Vyavahashiromani. Mansollas or Abhilshitarthichintamani which discusses many topics of interest and interest to the king was the work of Someshwar III. Vidyamadhav, the author of Parvatiruktimaniya, was in the court of Someshwar. Sagitchudamani was the work of Jagadekamalla II. Sangeet Sudhakar was also the creation of a Chalukya prince. This era was extremely prosperous in the history of Kannada literature. There were some changes in the form of Kannada language also. The use of Shatapadi and Tripadi verses increased. The trend of composing Champu poems came to an end. The composition of a special type of songs named Ragale started during this period. Jain scholars had a major contribution in the development of Kannada literature. Shantinath, the author of Sukumarcharitra and Nagavarmacharya, the author of Chandrachudamanishtak, were born in this day. Ranna, who was Kavichakravarti of Tailapa's court, composed Ajitpuran and Champu named Sahasbhimvijay, Nighantu named Ranna Kand and Parashuramacharita and Chakreshvaracharita. Chamundarai composed Chamundaraipuran in 978 AD. Chhandobudhi and Karnatakakadambari were composed by Nagavarma I. Durg Singh, in his Panchatantra, has mentioned Karnaparya, the author of Melimadhava, Kavitavilas, the author of a policy treatise, and Chandraraj, the author of Madanatilaka, among the contemporary writers. Shridharacharya had the title of Gadyapadyavidyadhar. Apart from Chandraprabhacharita, he had written Jatakatilaka which is the first treatise on astrology in Kannada. Nagchandra, popularly known as Abhinav Pump, composed Mallinathpuran and Ramchandracharitpuran. Before this, Vaadi Kumudchandra had also composed a Ramayana. Apart from Dharmamrit, Nayasen also wrote a grammar book. Neminathpuran Karnapar It is the work of Y. Nagavarma II composed Kavyalokana, Karnataka Bhashabhushan and Vastukosha. Jagaddal Somnath translated Pujyavad's Kalyankaraka into Kannada by the name of Karnataka Kalyankaraka. Veerashaiva people had a special contribution in the development of Kannada prose. Names of almost two hundred writers are found, among whom were some notable women writers. Basava and other Veerashaiva writers gave birth to Vachan literature in which simple language was used to popularize Veerashaiva principles among the common people. Some Lingayat scholars also enriched other parts of Kannada literature. The names of some skilled stone craftsmen are found in the inscriptions such as Shankararya, Nagoj and Mahakal. Subtle ornamentation is found on the outer walls and doors of Chalukya temples. | {
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1335 | शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं? कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था। सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था। वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं। वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंदोंबुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया। अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। | राज्य द्वारा लगाए जाने वाले कर मुख्य रूप से कितने प्रकार के थे ? | {
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"दो"
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490
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} | What were the main types of taxes levied by the state? | Local autonomous institutions had a special place in governance. Some of these were social and religious in nature. The assemblies that managed the cities were famous by the name of Mahajan. Village institutions, which were largely similar to Chola institutions, were more active than before. These collective institutions worked with mutual cooperation and arranged many tasks useful in social life. Among the village officials the names of Urodeya, Perggade, Garwood, Senbow and Kulkarni are found. The taxes collected by the state were mainly of two types: income, such as Siddhaya, Pannaya and Dandaya, and taxes, such as Vaddravulad Sunka, Perjjuk and Manneya Sunka. Apart from these, there are also instructions for Aruvan, Balli, Karvand, Tulbhog and Masatu. Manevana was a house tax, Kannadivana (mirror) was probably taken from the dancers and Balanjiyata was on the traders. There is also mention of tax on tents made for marriages. The culture of this period was eclectic and vast and incorporated influences from other parts of India as well. There were no restrictions on women's participation in social life. There was a proper system of education for upper class women. The number of dancers (sulair) was not less. There are also some mentions of Satipratha. Some examples of sacrifice of life are found through methods like Mahayoga, Shulbrahma and Sallekhan etc. Getting construction done in the memory of deceased relatives, gurus or great persons was called Parokshvinaya. A game like polo was prevalent. Temples were also centers of social and economic life. Dance, song and drama were organized in them. There is mention of the proficiency of some individuals of the dynasty in music. It has been said about Senapati Ravidev that when he used to present his music, people used to ask whether it is not the rain of honey or the stream of Sudha? According to the importance of reservoirs for agriculture, proper arrangements were made for their construction and repair. Economically useful crops like betel nuts, betel nuts, cotton and fruits were also grown. In addition to the categories of industries and crafts, there were also guilds of merchants. Some guilds of traders, and the organization of Nanadeshi and Tishaiyayirattu Ainjurruvar were highly developed and they traded with different parts of India and foreign countries. The names of the coins of this period are – Pon or Gadyan, Pag or Hag, Vis and Kani. Gold and silver coins are available in the names of Jaisingh, Jagadekamalla and Trayokyamall. Mattar, Kammas, Nivartan and Khandug were the units of measuring land but there was no fixed measure of penalty. Probably, there was an attempt by the state to organize and fix the units of measurement. Tolerance and generosity were the characteristics of the religious life of this era. All religions and sects were equally eligible for donations from kings and feudal lords. The worship of Shiva and Vishnu was more prevalent in Brahmin religion, among these also the worship of Shiva was more popular in both the dynasty and the country. The importance of the Lingayat sect increased during the time of the Kalachuryas. Worship of Kollapur Mahalakshmi in Shakta method was also highly popular. After this, the worship of Kartikeya was important. The main centers of Buddhism were Bel, Gave and Dumbal. But Jainism was more popular than Buddhism. For higher education of Vedas, grammar and philosophy, there were schools or colleges in the state for the arrangement of which grants were given from the state. There were many residences or Brahmapuris of Brahmins in the country which were centers of intensive study of various parts of Sanskrit. Vadiraja composed Parshvanathcharita and Yashodharcharita during the time of Jayasimha II. Vilhan's famous work Vikramankadevcharita contains details of the biography of Vikramaditya VI. Vijnaneshwar composed his famous commentary Mitakshara on Yajnavalkya Smriti during the time of Vikramaditya. Vivyaneshwar's disciple Narayan had composed Vyavahashiromani. Mansollas or Abhilshitarthichintamani which discusses many topics of interest and interest to the king was the work of Someshwar III. Vidyamadhav, the author of Parvatiruktimaniya, was in the court of Someshwar. Sagitchudamani was the work of Jagadekamalla II. Sangeet Sudhakar was also the creation of a Chalukya prince. This era was extremely prosperous in the history of Kannada literature. There were some changes in the form of Kannada language also. The use of Shatapadi and Tripadi verses increased. The trend of composing Champu poems came to an end. The composition of a special type of songs named Ragale started during this period. Jain scholars had a major contribution in the development of Kannada literature. Shantinath, the author of Sukumarcharitra and Nagavarmacharya, the author of Chandrachudamanishtak, were born in this day. Ranna, who was Kavichakravarti of Tailapa's court, composed Ajitpuran and Champu named Sahasbhimvijay, Nighantu named Ranna Kand and Parashuramacharita and Chakreshvaracharita. Chamundarai composed Chamundaraipuran in 978 AD. Chhandobudhi and Karnatakakadambari were composed by Nagavarma I. Durg Singh, in his Panchatantra, has mentioned Karnaparya, the author of Melimadhava, Kavitavilas, the author of a policy treatise, and Chandraraj, the author of Madanatilaka, among the contemporary writers. Shridharacharya had the title of Gadyapadyavidyadhar. Apart from Chandraprabhacharita, he had written Jatakatilaka which is the first treatise on astrology in Kannada. Nagchandra, popularly known as Abhinav Pump, composed Mallinathpuran and Ramchandracharitpuran. Before this, Vaadi Kumudchandra had also composed a Ramayana. Apart from Dharmamrit, Nayasen also wrote a grammar book. Neminathpuran Karnapar It is the work of Y. Nagavarma II composed Kavyalokana, Karnataka Bhashabhushan and Vastukosha. Jagaddal Somnath translated Pujyavad's Kalyankaraka into Kannada by the name of Karnataka Kalyankaraka. Veerashaiva people had a special contribution in the development of Kannada prose. Names of almost two hundred writers are found, among whom were some notable women writers. Basava and other Veerashaiva writers gave birth to Vachan literature in which simple language was used to popularize Veerashaiva principles among the common people. Some Lingayat scholars also enriched other parts of Kannada literature. The names of some skilled stone craftsmen are found in the inscriptions such as Shankararya, Nagoj and Mahakal. Subtle ornamentation is found on the outer walls and doors of Chalukya temples. | {
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490
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"Two"
]
} |
1336 | शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए। शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया। दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। | शिवाजी ने किस शासक को स्वराज में शामिल होने के लिए कहा था? | {
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"चन्द्रराव"
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302
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} | Which ruler was asked by Shivaji to join Swaraj? | According to the terms of Shahaji's liberation, Shivaji Rajane did not attack the areas of Bijapur but tried to increase his power in the south-west.But in this sequence, the kingdom of Jawali was working as obstruction.The kingdom was situated between the Vama and Krishna River in the far northwest of Satara.The king here was Chandrarao More who received this jagir from Shivaji.Shivaji asked the More ruler Chandrarao to join Swaraj but Chandrarao joined the Sultan of Bijapur.In 1656, Shivaji took his army and attacked Javali.Chandrarao More and his two sons fought with Shivaji, but in the end they were made prisoners but Chandrarao ran away.Local people opposed this act of Shivaji but he was successful in crushing the rebellion.With this, Shivaji got the assets of eight dynasties stored in that fort.Apart from this, many Mawal soldiers Murarbaji Deshpande also joined Shivaji's army.Shivaji had both Bijapur and Mughal enemies.At that time, Shahzada was the Subedar of Aurangzeb Deccan.At the same time, Sultan Adilshah of Bijapur died on 1 November 1656, after which an atmosphere of anarchy arose in Bijapur.Taking advantage of this situation, Aurangzeb attacked Bijapur and Shivaji attacked him instead of supporting Aurangzeb.His army invaded Junnar Nagar and looted 200 horses with a lot of wealth.Apart from 700 horses, four elephants from Ahmednagar, he also looted Gunda and Rasin's fort.As a result, Aurangzeb was upset with Shivaji and the friendship dialogue ended.On the orders of Shah Jahan, Aurangzeb took a treaty with Bijapur and at the same time Shah Jahan fell ill.As soon as he became a disease, Aurangzeb moved to North India and became the Shah of the Mughal Empire after imprisoning Shah Jahan there.Knowing the absence of Aurangzeb in South India and the Dawandol political position of Bijapur, Shivaji asked Samarji to attack Zanjira.But his fight with Janjira's Siddis lasted for several days.After this, Shivaji himself attacked Zanjira and took over the south Konkan and collected annual tax from Daman's Portuguese. | {
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302
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"Chandrarao"
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} |
1337 | शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए। शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया। दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। | सुल्तान आदिल शाह की मृत्यु कब हुई थी? | {
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"1 नवम्बर 1656"
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} | When did Sultan Adil Shah die? | According to the terms of Shahaji's liberation, Shivaji Rajane did not attack the areas of Bijapur but tried to increase his power in the south-west.But in this sequence, the kingdom of Jawali was working as obstruction.The kingdom was situated between the Vama and Krishna River in the far northwest of Satara.The king here was Chandrarao More who received this jagir from Shivaji.Shivaji asked the More ruler Chandrarao to join Swaraj but Chandrarao joined the Sultan of Bijapur.In 1656, Shivaji took his army and attacked Javali.Chandrarao More and his two sons fought with Shivaji, but in the end they were made prisoners but Chandrarao ran away.Local people opposed this act of Shivaji but he was successful in crushing the rebellion.With this, Shivaji got the assets of eight dynasties stored in that fort.Apart from this, many Mawal soldiers Murarbaji Deshpande also joined Shivaji's army.Shivaji had both Bijapur and Mughal enemies.At that time, Shahzada was the Subedar of Aurangzeb Deccan.At the same time, Sultan Adilshah of Bijapur died on 1 November 1656, after which an atmosphere of anarchy arose in Bijapur.Taking advantage of this situation, Aurangzeb attacked Bijapur and Shivaji attacked him instead of supporting Aurangzeb.His army invaded Junnar Nagar and looted 200 horses with a lot of wealth.Apart from 700 horses, four elephants from Ahmednagar, he also looted Gunda and Rasin's fort.As a result, Aurangzeb was upset with Shivaji and the friendship dialogue ended.On the orders of Shah Jahan, Aurangzeb took a treaty with Bijapur and at the same time Shah Jahan fell ill.As soon as he became a disease, Aurangzeb moved to North India and became the Shah of the Mughal Empire after imprisoning Shah Jahan there.Knowing the absence of Aurangzeb in South India and the Dawandol political position of Bijapur, Shivaji asked Samarji to attack Zanjira.But his fight with Janjira's Siddis lasted for several days.After this, Shivaji himself attacked Zanjira and took over the south Konkan and collected annual tax from Daman's Portuguese. | {
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970
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"1 November 1656"
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1338 | शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए। शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया। दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। | दक्कन का सूबेदार कौन था? | {
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"औरंगजेब"
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934
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} | Who was the governor of Deccan? | According to the terms of Shahaji's liberation, Shivaji Rajane did not attack the areas of Bijapur but tried to increase his power in the south-west.But in this sequence, the kingdom of Jawali was working as obstruction.The kingdom was situated between the Vama and Krishna River in the far northwest of Satara.The king here was Chandrarao More who received this jagir from Shivaji.Shivaji asked the More ruler Chandrarao to join Swaraj but Chandrarao joined the Sultan of Bijapur.In 1656, Shivaji took his army and attacked Javali.Chandrarao More and his two sons fought with Shivaji, but in the end they were made prisoners but Chandrarao ran away.Local people opposed this act of Shivaji but he was successful in crushing the rebellion.With this, Shivaji got the assets of eight dynasties stored in that fort.Apart from this, many Mawal soldiers Murarbaji Deshpande also joined Shivaji's army.Shivaji had both Bijapur and Mughal enemies.At that time, Shahzada was the Subedar of Aurangzeb Deccan.At the same time, Sultan Adilshah of Bijapur died on 1 November 1656, after which an atmosphere of anarchy arose in Bijapur.Taking advantage of this situation, Aurangzeb attacked Bijapur and Shivaji attacked him instead of supporting Aurangzeb.His army invaded Junnar Nagar and looted 200 horses with a lot of wealth.Apart from 700 horses, four elephants from Ahmednagar, he also looted Gunda and Rasin's fort.As a result, Aurangzeb was upset with Shivaji and the friendship dialogue ended.On the orders of Shah Jahan, Aurangzeb took a treaty with Bijapur and at the same time Shah Jahan fell ill.As soon as he became a disease, Aurangzeb moved to North India and became the Shah of the Mughal Empire after imprisoning Shah Jahan there.Knowing the absence of Aurangzeb in South India and the Dawandol political position of Bijapur, Shivaji asked Samarji to attack Zanjira.But his fight with Janjira's Siddis lasted for several days.After this, Shivaji himself attacked Zanjira and took over the south Konkan and collected annual tax from Daman's Portuguese. | {
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"text": [
"Aurangzeb"
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} |
1339 | शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए। शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया। दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। | युद्ध के उपरांत औरंगजेब ने अहमदनगर से कितने घोड़े लुटे थे? | {
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"700 घोड़े"
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1295
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} | How many horses did Aurangzeb plunder from Ahmednagar after the war? | According to the terms of Shahaji's liberation, Shivaji Rajane did not attack the areas of Bijapur but tried to increase his power in the south-west.But in this sequence, the kingdom of Jawali was working as obstruction.The kingdom was situated between the Vama and Krishna River in the far northwest of Satara.The king here was Chandrarao More who received this jagir from Shivaji.Shivaji asked the More ruler Chandrarao to join Swaraj but Chandrarao joined the Sultan of Bijapur.In 1656, Shivaji took his army and attacked Javali.Chandrarao More and his two sons fought with Shivaji, but in the end they were made prisoners but Chandrarao ran away.Local people opposed this act of Shivaji but he was successful in crushing the rebellion.With this, Shivaji got the assets of eight dynasties stored in that fort.Apart from this, many Mawal soldiers Murarbaji Deshpande also joined Shivaji's army.Shivaji had both Bijapur and Mughal enemies.At that time, Shahzada was the Subedar of Aurangzeb Deccan.At the same time, Sultan Adilshah of Bijapur died on 1 November 1656, after which an atmosphere of anarchy arose in Bijapur.Taking advantage of this situation, Aurangzeb attacked Bijapur and Shivaji attacked him instead of supporting Aurangzeb.His army invaded Junnar Nagar and looted 200 horses with a lot of wealth.Apart from 700 horses, four elephants from Ahmednagar, he also looted Gunda and Rasin's fort.As a result, Aurangzeb was upset with Shivaji and the friendship dialogue ended.On the orders of Shah Jahan, Aurangzeb took a treaty with Bijapur and at the same time Shah Jahan fell ill.As soon as he became a disease, Aurangzeb moved to North India and became the Shah of the Mughal Empire after imprisoning Shah Jahan there.Knowing the absence of Aurangzeb in South India and the Dawandol political position of Bijapur, Shivaji asked Samarji to attack Zanjira.But his fight with Janjira's Siddis lasted for several days.After this, Shivaji himself attacked Zanjira and took over the south Konkan and collected annual tax from Daman's Portuguese. | {
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1295
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"700 horses."
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1340 | शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए। शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया। दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। | शिवाजी द्वारा नौसैनिक अड्डा कहाँ स्थापित किया था ? | {
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} | Where was the naval base established by Shivaji? | According to the terms of Shahaji's liberation, Shivaji Rajane did not attack the areas of Bijapur but tried to increase his power in the south-west.But in this sequence, the kingdom of Jawali was working as obstruction.The kingdom was situated between the Vama and Krishna River in the far northwest of Satara.The king here was Chandrarao More who received this jagir from Shivaji.Shivaji asked the More ruler Chandrarao to join Swaraj but Chandrarao joined the Sultan of Bijapur.In 1656, Shivaji took his army and attacked Javali.Chandrarao More and his two sons fought with Shivaji, but in the end they were made prisoners but Chandrarao ran away.Local people opposed this act of Shivaji but he was successful in crushing the rebellion.With this, Shivaji got the assets of eight dynasties stored in that fort.Apart from this, many Mawal soldiers Murarbaji Deshpande also joined Shivaji's army.Shivaji had both Bijapur and Mughal enemies.At that time, Shahzada was the Subedar of Aurangzeb Deccan.At the same time, Sultan Adilshah of Bijapur died on 1 November 1656, after which an atmosphere of anarchy arose in Bijapur.Taking advantage of this situation, Aurangzeb attacked Bijapur and Shivaji attacked him instead of supporting Aurangzeb.His army invaded Junnar Nagar and looted 200 horses with a lot of wealth.Apart from 700 horses, four elephants from Ahmednagar, he also looted Gunda and Rasin's fort.As a result, Aurangzeb was upset with Shivaji and the friendship dialogue ended.On the orders of Shah Jahan, Aurangzeb took a treaty with Bijapur and at the same time Shah Jahan fell ill.As soon as he became a disease, Aurangzeb moved to North India and became the Shah of the Mughal Empire after imprisoning Shah Jahan there.Knowing the absence of Aurangzeb in South India and the Dawandol political position of Bijapur, Shivaji asked Samarji to attack Zanjira.But his fight with Janjira's Siddis lasted for several days.After this, Shivaji himself attacked Zanjira and took over the south Konkan and collected annual tax from Daman's Portuguese. | {
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1341 | शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए। शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया। दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। | शिवाजी ने जवाली पर हमला किस वर्ष किया था? | {
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"सन् 1656"
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} | In which year did Shivaji attack Jawali? | According to the terms of Shahaji's liberation, Shivaji Rajane did not attack the areas of Bijapur but tried to increase his power in the south-west.But in this sequence, the kingdom of Jawali was working as obstruction.The kingdom was situated between the Vama and Krishna River in the far northwest of Satara.The king here was Chandrarao More who received this jagir from Shivaji.Shivaji asked the More ruler Chandrarao to join Swaraj but Chandrarao joined the Sultan of Bijapur.In 1656, Shivaji took his army and attacked Javali.Chandrarao More and his two sons fought with Shivaji, but in the end they were made prisoners but Chandrarao ran away.Local people opposed this act of Shivaji but he was successful in crushing the rebellion.With this, Shivaji got the assets of eight dynasties stored in that fort.Apart from this, many Mawal soldiers Murarbaji Deshpande also joined Shivaji's army.Shivaji had both Bijapur and Mughal enemies.At that time, Shahzada was the Subedar of Aurangzeb Deccan.At the same time, Sultan Adilshah of Bijapur died on 1 November 1656, after which an atmosphere of anarchy arose in Bijapur.Taking advantage of this situation, Aurangzeb attacked Bijapur and Shivaji attacked him instead of supporting Aurangzeb.His army invaded Junnar Nagar and looted 200 horses with a lot of wealth.Apart from 700 horses, four elephants from Ahmednagar, he also looted Gunda and Rasin's fort.As a result, Aurangzeb was upset with Shivaji and the friendship dialogue ended.On the orders of Shah Jahan, Aurangzeb took a treaty with Bijapur and at the same time Shah Jahan fell ill.As soon as he became a disease, Aurangzeb moved to North India and became the Shah of the Mughal Empire after imprisoning Shah Jahan there.Knowing the absence of Aurangzeb in South India and the Dawandol political position of Bijapur, Shivaji asked Samarji to attack Zanjira.But his fight with Janjira's Siddis lasted for several days.After this, Shivaji himself attacked Zanjira and took over the south Konkan and collected annual tax from Daman's Portuguese. | {
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467
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"AD 1656"
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} |
1342 | शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। | शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता कब दी गई थी? | {
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} | When was Shivaji recognized as an independent ruler by the Sultan of Bijapur? | Shahaji was already asked to keep his son under control, but Shahaji expressed his inability to it.To deal with Shivaji, the Sultan of Bijapur sent Abdullah Bhatari (Afzal Khan) against Shivaji.Afzal traveled in 1659 with 120000 soldiers.While destroying the temples of Tuljapur, he came near Shirwal, 30 km north of Satara.But Shivaji stayed on the fort of Pratapgarh.Afzal Khan sent his messenger Krishnaji Bhaskar for a treaty.He sent a message through him that if Shivaji accepts the subjugation of Bijapur, then the Sultan will give him the right to all the areas which are under the control of Shivaji.Also, Shivaji will receive a respected post in the court of Bijapur.Although Shivaji's ministers and advisors were in favor of the As Term, Shivaji did not like this talk.He kept Krishnaji Bhaskar in his court with proper respect and sent his messenger Gopinath to Afzal Khan to take stock of the situation.From Gopinath and Krishnaji Bhaskar, Shivaji felt that Afzal Khan wants to make Shivaji prisoned by creating a treaty.So he sent a valuable gift to Afzal Khan in exchange for war and thus persuaded Afzal Khan for a treaty.At the treaty site, both of them had ambushed their soldiers and when they met both of them, Afzal Khan attacked Shivaji from his own, Shivaji killed Afzal Khan with his clothes Vaghanko (10 November 1659).After the death of Afzal Khan, Shivaji took control of Panhala's fort.After this, along with taking possession of the fortifications of Pawangarh and Vasantgarh, he also thwarted the invasion of Rustom Khan.Rajapur and Davul were also captured by this.Now an atmosphere of terror has arisen in Bijapur and the feudals there decided to forget the differences and attack Shivaji.On 2 October 1665, the Bijapuri army took control of Panhala Durg.Shivaji was caught in crisis, but he managed to escape by taking advantage of the darkness of the night.The Sultan of Bijapur himself took his authority over Panhala, Pawangarh, looted Rajapur and killed the head of Shringargarh.At the same time, due to the rebellion of Siddijouhar in Karnataka, the Sultan of Bijapur reached an agreement with Shivaji.In this treaty, Shivaji's father Shahaji worked as an arbitration. | {
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1343 | शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। | अफजल खान ने शिवाजी से बातचीत के लिए किस दूत को भेजा था? | {
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"कृष्णजी भास्कर"
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} | Which envoy was sent by Afzal Khan to negotiate with Shivaji? | Shahaji was already asked to keep his son under control, but Shahaji expressed his inability to it.To deal with Shivaji, the Sultan of Bijapur sent Abdullah Bhatari (Afzal Khan) against Shivaji.Afzal traveled in 1659 with 120000 soldiers.While destroying the temples of Tuljapur, he came near Shirwal, 30 km north of Satara.But Shivaji stayed on the fort of Pratapgarh.Afzal Khan sent his messenger Krishnaji Bhaskar for a treaty.He sent a message through him that if Shivaji accepts the subjugation of Bijapur, then the Sultan will give him the right to all the areas which are under the control of Shivaji.Also, Shivaji will receive a respected post in the court of Bijapur.Although Shivaji's ministers and advisors were in favor of the As Term, Shivaji did not like this talk.He kept Krishnaji Bhaskar in his court with proper respect and sent his messenger Gopinath to Afzal Khan to take stock of the situation.From Gopinath and Krishnaji Bhaskar, Shivaji felt that Afzal Khan wants to make Shivaji prisoned by creating a treaty.So he sent a valuable gift to Afzal Khan in exchange for war and thus persuaded Afzal Khan for a treaty.At the treaty site, both of them had ambushed their soldiers and when they met both of them, Afzal Khan attacked Shivaji from his own, Shivaji killed Afzal Khan with his clothes Vaghanko (10 November 1659).After the death of Afzal Khan, Shivaji took control of Panhala's fort.After this, along with taking possession of the fortifications of Pawangarh and Vasantgarh, he also thwarted the invasion of Rustom Khan.Rajapur and Davul were also captured by this.Now an atmosphere of terror has arisen in Bijapur and the feudals there decided to forget the differences and attack Shivaji.On 2 October 1665, the Bijapuri army took control of Panhala Durg.Shivaji was caught in crisis, but he managed to escape by taking advantage of the darkness of the night.The Sultan of Bijapur himself took his authority over Panhala, Pawangarh, looted Rajapur and killed the head of Shringargarh.At the same time, due to the rebellion of Siddijouhar in Karnataka, the Sultan of Bijapur reached an agreement with Shivaji.In this treaty, Shivaji's father Shahaji worked as an arbitration. | {
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"Krishnaji Bhaskar"
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1344 | शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। | बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के खिलाफ युद्ध के लिए किसे भेजा था? | {
"text": [
"अब्दुल्लाह भटारी"
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151
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} | Who was sent by the Sultan of Bijapur to wage war against Shivaji? | Shahaji was already asked to keep his son under control, but Shahaji expressed his inability to it.To deal with Shivaji, the Sultan of Bijapur sent Abdullah Bhatari (Afzal Khan) against Shivaji.Afzal traveled in 1659 with 120000 soldiers.While destroying the temples of Tuljapur, he came near Shirwal, 30 km north of Satara.But Shivaji stayed on the fort of Pratapgarh.Afzal Khan sent his messenger Krishnaji Bhaskar for a treaty.He sent a message through him that if Shivaji accepts the subjugation of Bijapur, then the Sultan will give him the right to all the areas which are under the control of Shivaji.Also, Shivaji will receive a respected post in the court of Bijapur.Although Shivaji's ministers and advisors were in favor of the As Term, Shivaji did not like this talk.He kept Krishnaji Bhaskar in his court with proper respect and sent his messenger Gopinath to Afzal Khan to take stock of the situation.From Gopinath and Krishnaji Bhaskar, Shivaji felt that Afzal Khan wants to make Shivaji prisoned by creating a treaty.So he sent a valuable gift to Afzal Khan in exchange for war and thus persuaded Afzal Khan for a treaty.At the treaty site, both of them had ambushed their soldiers and when they met both of them, Afzal Khan attacked Shivaji from his own, Shivaji killed Afzal Khan with his clothes Vaghanko (10 November 1659).After the death of Afzal Khan, Shivaji took control of Panhala's fort.After this, along with taking possession of the fortifications of Pawangarh and Vasantgarh, he also thwarted the invasion of Rustom Khan.Rajapur and Davul were also captured by this.Now an atmosphere of terror has arisen in Bijapur and the feudals there decided to forget the differences and attack Shivaji.On 2 October 1665, the Bijapuri army took control of Panhala Durg.Shivaji was caught in crisis, but he managed to escape by taking advantage of the darkness of the night.The Sultan of Bijapur himself took his authority over Panhala, Pawangarh, looted Rajapur and killed the head of Shringargarh.At the same time, due to the rebellion of Siddijouhar in Karnataka, the Sultan of Bijapur reached an agreement with Shivaji.In this treaty, Shivaji's father Shahaji worked as an arbitration. | {
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151
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"Abdullah Bhatari"
]
} |
1345 | शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। | शिवाजी ने अफजल खान को कब मारा था? | {
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"10 नवम्बर 1659"
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1341
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} | When did Shivaji kill Afzal Khan? | Shahaji was already asked to keep his son under control, but Shahaji expressed his inability to it.To deal with Shivaji, the Sultan of Bijapur sent Abdullah Bhatari (Afzal Khan) against Shivaji.Afzal traveled in 1659 with 120000 soldiers.While destroying the temples of Tuljapur, he came near Shirwal, 30 km north of Satara.But Shivaji stayed on the fort of Pratapgarh.Afzal Khan sent his messenger Krishnaji Bhaskar for a treaty.He sent a message through him that if Shivaji accepts the subjugation of Bijapur, then the Sultan will give him the right to all the areas which are under the control of Shivaji.Also, Shivaji will receive a respected post in the court of Bijapur.Although Shivaji's ministers and advisors were in favor of the As Term, Shivaji did not like this talk.He kept Krishnaji Bhaskar in his court with proper respect and sent his messenger Gopinath to Afzal Khan to take stock of the situation.From Gopinath and Krishnaji Bhaskar, Shivaji felt that Afzal Khan wants to make Shivaji prisoned by creating a treaty.So he sent a valuable gift to Afzal Khan in exchange for war and thus persuaded Afzal Khan for a treaty.At the treaty site, both of them had ambushed their soldiers and when they met both of them, Afzal Khan attacked Shivaji from his own, Shivaji killed Afzal Khan with his clothes Vaghanko (10 November 1659).After the death of Afzal Khan, Shivaji took control of Panhala's fort.After this, along with taking possession of the fortifications of Pawangarh and Vasantgarh, he also thwarted the invasion of Rustom Khan.Rajapur and Davul were also captured by this.Now an atmosphere of terror has arisen in Bijapur and the feudals there decided to forget the differences and attack Shivaji.On 2 October 1665, the Bijapuri army took control of Panhala Durg.Shivaji was caught in crisis, but he managed to escape by taking advantage of the darkness of the night.The Sultan of Bijapur himself took his authority over Panhala, Pawangarh, looted Rajapur and killed the head of Shringargarh.At the same time, due to the rebellion of Siddijouhar in Karnataka, the Sultan of Bijapur reached an agreement with Shivaji.In this treaty, Shivaji's father Shahaji worked as an arbitration. | {
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1341
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"10 November 1659"
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} |
1346 | शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। | अफजल ने शिवाजी के खिलाफ कूच किस वर्ष किया था? | {
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"1659"
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"answer_start": [
238
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} | In which year did Afzal march against Shivaji? | Shahaji was already asked to keep his son under control, but Shahaji expressed his inability to it.To deal with Shivaji, the Sultan of Bijapur sent Abdullah Bhatari (Afzal Khan) against Shivaji.Afzal traveled in 1659 with 120000 soldiers.While destroying the temples of Tuljapur, he came near Shirwal, 30 km north of Satara.But Shivaji stayed on the fort of Pratapgarh.Afzal Khan sent his messenger Krishnaji Bhaskar for a treaty.He sent a message through him that if Shivaji accepts the subjugation of Bijapur, then the Sultan will give him the right to all the areas which are under the control of Shivaji.Also, Shivaji will receive a respected post in the court of Bijapur.Although Shivaji's ministers and advisors were in favor of the As Term, Shivaji did not like this talk.He kept Krishnaji Bhaskar in his court with proper respect and sent his messenger Gopinath to Afzal Khan to take stock of the situation.From Gopinath and Krishnaji Bhaskar, Shivaji felt that Afzal Khan wants to make Shivaji prisoned by creating a treaty.So he sent a valuable gift to Afzal Khan in exchange for war and thus persuaded Afzal Khan for a treaty.At the treaty site, both of them had ambushed their soldiers and when they met both of them, Afzal Khan attacked Shivaji from his own, Shivaji killed Afzal Khan with his clothes Vaghanko (10 November 1659).After the death of Afzal Khan, Shivaji took control of Panhala's fort.After this, along with taking possession of the fortifications of Pawangarh and Vasantgarh, he also thwarted the invasion of Rustom Khan.Rajapur and Davul were also captured by this.Now an atmosphere of terror has arisen in Bijapur and the feudals there decided to forget the differences and attack Shivaji.On 2 October 1665, the Bijapuri army took control of Panhala Durg.Shivaji was caught in crisis, but he managed to escape by taking advantage of the darkness of the night.The Sultan of Bijapur himself took his authority over Panhala, Pawangarh, looted Rajapur and killed the head of Shringargarh.At the same time, due to the rebellion of Siddijouhar in Karnataka, the Sultan of Bijapur reached an agreement with Shivaji.In this treaty, Shivaji's father Shahaji worked as an arbitration. | {
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238
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"1659"
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1347 | शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। | बीजापुर सेना ने पन्हाला किले पर कब कब्जा किया था? | {
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"2 अक्टूबर 1665"
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1707
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} | When did the Bijapur army capture the Panhala fort? | Shahaji was already asked to keep his son under control, but Shahaji expressed his inability to it.To deal with Shivaji, the Sultan of Bijapur sent Abdullah Bhatari (Afzal Khan) against Shivaji.Afzal traveled in 1659 with 120000 soldiers.While destroying the temples of Tuljapur, he came near Shirwal, 30 km north of Satara.But Shivaji stayed on the fort of Pratapgarh.Afzal Khan sent his messenger Krishnaji Bhaskar for a treaty.He sent a message through him that if Shivaji accepts the subjugation of Bijapur, then the Sultan will give him the right to all the areas which are under the control of Shivaji.Also, Shivaji will receive a respected post in the court of Bijapur.Although Shivaji's ministers and advisors were in favor of the As Term, Shivaji did not like this talk.He kept Krishnaji Bhaskar in his court with proper respect and sent his messenger Gopinath to Afzal Khan to take stock of the situation.From Gopinath and Krishnaji Bhaskar, Shivaji felt that Afzal Khan wants to make Shivaji prisoned by creating a treaty.So he sent a valuable gift to Afzal Khan in exchange for war and thus persuaded Afzal Khan for a treaty.At the treaty site, both of them had ambushed their soldiers and when they met both of them, Afzal Khan attacked Shivaji from his own, Shivaji killed Afzal Khan with his clothes Vaghanko (10 November 1659).After the death of Afzal Khan, Shivaji took control of Panhala's fort.After this, along with taking possession of the fortifications of Pawangarh and Vasantgarh, he also thwarted the invasion of Rustom Khan.Rajapur and Davul were also captured by this.Now an atmosphere of terror has arisen in Bijapur and the feudals there decided to forget the differences and attack Shivaji.On 2 October 1665, the Bijapuri army took control of Panhala Durg.Shivaji was caught in crisis, but he managed to escape by taking advantage of the darkness of the night.The Sultan of Bijapur himself took his authority over Panhala, Pawangarh, looted Rajapur and killed the head of Shringargarh.At the same time, due to the rebellion of Siddijouhar in Karnataka, the Sultan of Bijapur reached an agreement with Shivaji.In this treaty, Shivaji's father Shahaji worked as an arbitration. | {
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1707
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"2 October 1665"
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1348 | शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। | शिवाजी की सेना के पास कितने घुड़सवार थे? | {
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} | How many horsemen did Shivaji's army have? | Shahaji was already asked to keep his son under control, but Shahaji expressed his inability to it.To deal with Shivaji, the Sultan of Bijapur sent Abdullah Bhatari (Afzal Khan) against Shivaji.Afzal traveled in 1659 with 120000 soldiers.While destroying the temples of Tuljapur, he came near Shirwal, 30 km north of Satara.But Shivaji stayed on the fort of Pratapgarh.Afzal Khan sent his messenger Krishnaji Bhaskar for a treaty.He sent a message through him that if Shivaji accepts the subjugation of Bijapur, then the Sultan will give him the right to all the areas which are under the control of Shivaji.Also, Shivaji will receive a respected post in the court of Bijapur.Although Shivaji's ministers and advisors were in favor of the As Term, Shivaji did not like this talk.He kept Krishnaji Bhaskar in his court with proper respect and sent his messenger Gopinath to Afzal Khan to take stock of the situation.From Gopinath and Krishnaji Bhaskar, Shivaji felt that Afzal Khan wants to make Shivaji prisoned by creating a treaty.So he sent a valuable gift to Afzal Khan in exchange for war and thus persuaded Afzal Khan for a treaty.At the treaty site, both of them had ambushed their soldiers and when they met both of them, Afzal Khan attacked Shivaji from his own, Shivaji killed Afzal Khan with his clothes Vaghanko (10 November 1659).After the death of Afzal Khan, Shivaji took control of Panhala's fort.After this, along with taking possession of the fortifications of Pawangarh and Vasantgarh, he also thwarted the invasion of Rustom Khan.Rajapur and Davul were also captured by this.Now an atmosphere of terror has arisen in Bijapur and the feudals there decided to forget the differences and attack Shivaji.On 2 October 1665, the Bijapuri army took control of Panhala Durg.Shivaji was caught in crisis, but he managed to escape by taking advantage of the darkness of the night.The Sultan of Bijapur himself took his authority over Panhala, Pawangarh, looted Rajapur and killed the head of Shringargarh.At the same time, due to the rebellion of Siddijouhar in Karnataka, the Sultan of Bijapur reached an agreement with Shivaji.In this treaty, Shivaji's father Shahaji worked as an arbitration. | {
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1349 | शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई। युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। | कर्नल गोवन आयुक्त कब बने थे? | {
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} | When did Colonel Govan become Commissioner? | After the death of Shiva Dev Joshi, Kumaun's cases were more confused, where there was another then Rani (Deep Chand's wife), and Mohan Singh on the other side, a young Rautela.In the next few years, Mohan Singh succeeded in killing Deep Chand and his two sons in 18 after killing Rani.He then declared himself a king as Mohan Chand.The rule of Mohan Chand, known for the oppression of the Joshi family, lasted till 179, when Kumaon was attacked by King Lalit Shah of Garhwal, who captured the area and put his son, Pradyuman on the throne.Mohan Chand ran away and Joshi, of whom Harakh Dev was now prominent, joined the prominent advisors of the new king.Pradyuman tried to take Garhwal to the capital Srinagar by adding Garhwal to his newly acquired state of Kumayun.During his absence, Mohan Chand again came to the fore.There was a war between him and the passion, who were loyal to the Garhwal rule.Mohan Chand was killed, but he was replaced by his brother, Lal Singh, and in 18, Joshi people lost badly near Bhimtal, after that Lal Singh became supreme, and most of the passion was killed..With the help of defeated Harakh Dev Joshi, the Gurkhas invaded Kumaun, and in recent years across the state, he was successful in subjugating the confusion that arises due to the battle of many rival groups.Very few works were done in the region during Gorkha rule.His policy was of Daman, although the administration in Kumaon was less serious than Garhwal.Gorkha domination did not last long.In 1814, the British government attracted its attention to Kumaon.The East India Company was interested in the hills, due to the cannabis born there, a large amount of which passed through the company's factory located in Kashipur.The then Governor-General, Lord Hastings attempted to exist peacefully Kumaon, and Gardner was sent from Delhi for talks with Kumayun Governor Bam Sah.These talks failed, and, in the beginning of 1815, war was announced.Nepal was defeated in the war and the British attained the suzerainty of Kumaon in December 1815. | {
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1350 | शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई। युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। | गोरखाओं ने कुमाऊं पर हमला किसकी मदद से किया था? | {
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"हरख देव जोशी"
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} | With whose help did the Gurkhas attack Kumaon? | After the death of Shiva Dev Joshi, Kumaun's cases were more confused, where there was another then Rani (Deep Chand's wife), and Mohan Singh on the other side, a young Rautela.In the next few years, Mohan Singh succeeded in killing Deep Chand and his two sons in 18 after killing Rani.He then declared himself a king as Mohan Chand.The rule of Mohan Chand, known for the oppression of the Joshi family, lasted till 179, when Kumaon was attacked by King Lalit Shah of Garhwal, who captured the area and put his son, Pradyuman on the throne.Mohan Chand ran away and Joshi, of whom Harakh Dev was now prominent, joined the prominent advisors of the new king.Pradyuman tried to take Garhwal to the capital Srinagar by adding Garhwal to his newly acquired state of Kumayun.During his absence, Mohan Chand again came to the fore.There was a war between him and the passion, who were loyal to the Garhwal rule.Mohan Chand was killed, but he was replaced by his brother, Lal Singh, and in 18, Joshi people lost badly near Bhimtal, after that Lal Singh became supreme, and most of the passion was killed..With the help of defeated Harakh Dev Joshi, the Gurkhas invaded Kumaun, and in recent years across the state, he was successful in subjugating the confusion that arises due to the battle of many rival groups.Very few works were done in the region during Gorkha rule.His policy was of Daman, although the administration in Kumaon was less serious than Garhwal.Gorkha domination did not last long.In 1814, the British government attracted its attention to Kumaon.The East India Company was interested in the hills, due to the cannabis born there, a large amount of which passed through the company's factory located in Kashipur.The then Governor-General, Lord Hastings attempted to exist peacefully Kumaon, and Gardner was sent from Delhi for talks with Kumayun Governor Bam Sah.These talks failed, and, in the beginning of 1815, war was announced.Nepal was defeated in the war and the British attained the suzerainty of Kumaon in December 1815. | {
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"Harak Dev Joshi"
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1351 | शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई। युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। | मोहन चंद को किसने मारा था? | {
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"जोशियों"
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} | Who killed Mohan Chand? | After the death of Shiva Dev Joshi, Kumaun's cases were more confused, where there was another then Rani (Deep Chand's wife), and Mohan Singh on the other side, a young Rautela.In the next few years, Mohan Singh succeeded in killing Deep Chand and his two sons in 18 after killing Rani.He then declared himself a king as Mohan Chand.The rule of Mohan Chand, known for the oppression of the Joshi family, lasted till 179, when Kumaon was attacked by King Lalit Shah of Garhwal, who captured the area and put his son, Pradyuman on the throne.Mohan Chand ran away and Joshi, of whom Harakh Dev was now prominent, joined the prominent advisors of the new king.Pradyuman tried to take Garhwal to the capital Srinagar by adding Garhwal to his newly acquired state of Kumayun.During his absence, Mohan Chand again came to the fore.There was a war between him and the passion, who were loyal to the Garhwal rule.Mohan Chand was killed, but he was replaced by his brother, Lal Singh, and in 18, Joshi people lost badly near Bhimtal, after that Lal Singh became supreme, and most of the passion was killed..With the help of defeated Harakh Dev Joshi, the Gurkhas invaded Kumaun, and in recent years across the state, he was successful in subjugating the confusion that arises due to the battle of many rival groups.Very few works were done in the region during Gorkha rule.His policy was of Daman, although the administration in Kumaon was less serious than Garhwal.Gorkha domination did not last long.In 1814, the British government attracted its attention to Kumaon.The East India Company was interested in the hills, due to the cannabis born there, a large amount of which passed through the company's factory located in Kashipur.The then Governor-General, Lord Hastings attempted to exist peacefully Kumaon, and Gardner was sent from Delhi for talks with Kumayun Governor Bam Sah.These talks failed, and, in the beginning of 1815, war was announced.Nepal was defeated in the war and the British attained the suzerainty of Kumaon in December 1815. | {
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838
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"Joshis"
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1352 | शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई। युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। | राजा ललित शाह के बेटे का क्या नाम था? | {
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} | What was the name of Raja Lalit Shah's son? | After the death of Shiva Dev Joshi, Kumaun's cases were more confused, where there was another then Rani (Deep Chand's wife), and Mohan Singh on the other side, a young Rautela.In the next few years, Mohan Singh succeeded in killing Deep Chand and his two sons in 18 after killing Rani.He then declared himself a king as Mohan Chand.The rule of Mohan Chand, known for the oppression of the Joshi family, lasted till 179, when Kumaon was attacked by King Lalit Shah of Garhwal, who captured the area and put his son, Pradyuman on the throne.Mohan Chand ran away and Joshi, of whom Harakh Dev was now prominent, joined the prominent advisors of the new king.Pradyuman tried to take Garhwal to the capital Srinagar by adding Garhwal to his newly acquired state of Kumayun.During his absence, Mohan Chand again came to the fore.There was a war between him and the passion, who were loyal to the Garhwal rule.Mohan Chand was killed, but he was replaced by his brother, Lal Singh, and in 18, Joshi people lost badly near Bhimtal, after that Lal Singh became supreme, and most of the passion was killed..With the help of defeated Harakh Dev Joshi, the Gurkhas invaded Kumaun, and in recent years across the state, he was successful in subjugating the confusion that arises due to the battle of many rival groups.Very few works were done in the region during Gorkha rule.His policy was of Daman, although the administration in Kumaon was less serious than Garhwal.Gorkha domination did not last long.In 1814, the British government attracted its attention to Kumaon.The East India Company was interested in the hills, due to the cannabis born there, a large amount of which passed through the company's factory located in Kashipur.The then Governor-General, Lord Hastings attempted to exist peacefully Kumaon, and Gardner was sent from Delhi for talks with Kumayun Governor Bam Sah.These talks failed, and, in the beginning of 1815, war was announced.Nepal was defeated in the war and the British attained the suzerainty of Kumaon in December 1815. | {
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1353 | शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई। युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। | मोहन चंद के भाई का क्या नाम था? | {
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"लाल सिंह"
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} | What was the name of Mohan Chand's brother? | After the death of Shiva Dev Joshi, Kumaun's cases were more confused, where there was another then Rani (Deep Chand's wife), and Mohan Singh on the other side, a young Rautela.In the next few years, Mohan Singh succeeded in killing Deep Chand and his two sons in 18 after killing Rani.He then declared himself a king as Mohan Chand.The rule of Mohan Chand, known for the oppression of the Joshi family, lasted till 179, when Kumaon was attacked by King Lalit Shah of Garhwal, who captured the area and put his son, Pradyuman on the throne.Mohan Chand ran away and Joshi, of whom Harakh Dev was now prominent, joined the prominent advisors of the new king.Pradyuman tried to take Garhwal to the capital Srinagar by adding Garhwal to his newly acquired state of Kumayun.During his absence, Mohan Chand again came to the fore.There was a war between him and the passion, who were loyal to the Garhwal rule.Mohan Chand was killed, but he was replaced by his brother, Lal Singh, and in 18, Joshi people lost badly near Bhimtal, after that Lal Singh became supreme, and most of the passion was killed..With the help of defeated Harakh Dev Joshi, the Gurkhas invaded Kumaun, and in recent years across the state, he was successful in subjugating the confusion that arises due to the battle of many rival groups.Very few works were done in the region during Gorkha rule.His policy was of Daman, although the administration in Kumaon was less serious than Garhwal.Gorkha domination did not last long.In 1814, the British government attracted its attention to Kumaon.The East India Company was interested in the hills, due to the cannabis born there, a large amount of which passed through the company's factory located in Kashipur.The then Governor-General, Lord Hastings attempted to exist peacefully Kumaon, and Gardner was sent from Delhi for talks with Kumayun Governor Bam Sah.These talks failed, and, in the beginning of 1815, war was announced.Nepal was defeated in the war and the British attained the suzerainty of Kumaon in December 1815. | {
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"Lal Singh"
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1354 | शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई। युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। | मोहन चंद का शासन किसके लिए जाना जाता था? | {
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"जोशी परिवार के उत्पीड़न"
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} | What was Mohan Chand's rule known for? | After the death of Shiva Dev Joshi, Kumaun's cases were more confused, where there was another then Rani (Deep Chand's wife), and Mohan Singh on the other side, a young Rautela.In the next few years, Mohan Singh succeeded in killing Deep Chand and his two sons in 18 after killing Rani.He then declared himself a king as Mohan Chand.The rule of Mohan Chand, known for the oppression of the Joshi family, lasted till 179, when Kumaon was attacked by King Lalit Shah of Garhwal, who captured the area and put his son, Pradyuman on the throne.Mohan Chand ran away and Joshi, of whom Harakh Dev was now prominent, joined the prominent advisors of the new king.Pradyuman tried to take Garhwal to the capital Srinagar by adding Garhwal to his newly acquired state of Kumayun.During his absence, Mohan Chand again came to the fore.There was a war between him and the passion, who were loyal to the Garhwal rule.Mohan Chand was killed, but he was replaced by his brother, Lal Singh, and in 18, Joshi people lost badly near Bhimtal, after that Lal Singh became supreme, and most of the passion was killed..With the help of defeated Harakh Dev Joshi, the Gurkhas invaded Kumaun, and in recent years across the state, he was successful in subjugating the confusion that arises due to the battle of many rival groups.Very few works were done in the region during Gorkha rule.His policy was of Daman, although the administration in Kumaon was less serious than Garhwal.Gorkha domination did not last long.In 1814, the British government attracted its attention to Kumaon.The East India Company was interested in the hills, due to the cannabis born there, a large amount of which passed through the company's factory located in Kashipur.The then Governor-General, Lord Hastings attempted to exist peacefully Kumaon, and Gardner was sent from Delhi for talks with Kumayun Governor Bam Sah.These talks failed, and, in the beginning of 1815, war was announced.Nepal was defeated in the war and the British attained the suzerainty of Kumaon in December 1815. | {
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"The Persecution of the Joshi Family"
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1355 | शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई। युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। | अल्मोड़ा में वर्ष 1848 में आयुक्त कौन था? | {
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} | Who was the Commissioner in Almora in the year 1848? | After the death of Shiva Dev Joshi, Kumaun's cases were more confused, where there was another then Rani (Deep Chand's wife), and Mohan Singh on the other side, a young Rautela.In the next few years, Mohan Singh succeeded in killing Deep Chand and his two sons in 18 after killing Rani.He then declared himself a king as Mohan Chand.The rule of Mohan Chand, known for the oppression of the Joshi family, lasted till 179, when Kumaon was attacked by King Lalit Shah of Garhwal, who captured the area and put his son, Pradyuman on the throne.Mohan Chand ran away and Joshi, of whom Harakh Dev was now prominent, joined the prominent advisors of the new king.Pradyuman tried to take Garhwal to the capital Srinagar by adding Garhwal to his newly acquired state of Kumayun.During his absence, Mohan Chand again came to the fore.There was a war between him and the passion, who were loyal to the Garhwal rule.Mohan Chand was killed, but he was replaced by his brother, Lal Singh, and in 18, Joshi people lost badly near Bhimtal, after that Lal Singh became supreme, and most of the passion was killed..With the help of defeated Harakh Dev Joshi, the Gurkhas invaded Kumaun, and in recent years across the state, he was successful in subjugating the confusion that arises due to the battle of many rival groups.Very few works were done in the region during Gorkha rule.His policy was of Daman, although the administration in Kumaon was less serious than Garhwal.Gorkha domination did not last long.In 1814, the British government attracted its attention to Kumaon.The East India Company was interested in the hills, due to the cannabis born there, a large amount of which passed through the company's factory located in Kashipur.The then Governor-General, Lord Hastings attempted to exist peacefully Kumaon, and Gardner was sent from Delhi for talks with Kumayun Governor Bam Sah.These talks failed, and, in the beginning of 1815, war was announced.Nepal was defeated in the war and the British attained the suzerainty of Kumaon in December 1815. | {
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1356 | श्री हरिमन्दिर साहिब परिसर में दो बड़े और कई छोटे-छोटे तीर्थस्थल हैं। ये सारे तीर्थस्थल जलाशय के चारों तरफ फैले हुए हैं। इस जलाशय को अमृतसर, अमृत सरोवर और अमृत झील के नाम से जाना जाता है। पूरा स्वर्ण मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी दीवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है। हरिमन्दिर साहिब में पूरे दिन गुरबाणी (गुरुवाणी) की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। सिक्ख गुरु को ईश्वर तुल्य मानते हैं। स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले वह मंदिर के सामने सर झुकाते हैं, फिर पैर धोने के बाद सीढ़ियों से मुख्य मंदिर तक जाते हैं। सीढ़ियों के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर से जुड़ी हुई सारी घटनाएं और इसका पूरा इतिहास लिखा हुआ है। स्वर्ण मंदिर एक बहुत ही खूबसूरत इमारत है। इसमें रोशनी की सुन्दर व्यवस्था की गई है। मंदिर परिसर में पत्थर का एक स्मारक भी है जो, जांबाज सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि देने के लिए लगाया गया है। श्री हरिमन्दिर साहिब के चार द्वार हैं। इनमें से एक द्वार गुरु राम दास सराय का है। इस सराय में अनेक विश्राम-स्थल हैं। विश्राम-स्थलों के साथ-साथ यहां चौबीस घंटे लंगर चलता है, जिसमें कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। श्री हरिमन्दिर साहिब में अनेक तीर्थस्थान हैं। इनमें से बेरी वृक्ष को भी एक तीर्थस्थल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जब स्वर्ण मंदिर बनाया जा रहा था तब बाबा बुड्ढा जी इसी वृक्ष के नीचे बैठे थे और मंदिर के निर्माण कार्य पर नजर रखे हुए थे। स्वर्ण मंदिर सरोवर के बीच में मानव निर्मित द्वीप पर बना हुआ है। पूरे मंदिर पर सोने की परत चढ़ाई गई है। यह मंदिर एक पुल द्वारा किनारे से जुड़ा हुआ है। झील में श्रद्धालु स्नान करते हैं। यह झील मछलियों से भरी हुई है। मंदिर से 100 मी. की दूरी पर स्वर्ण जड़ित, अकाल तख्त है। इसमें एक भूमिगत तल है और पांच अन्य तल हैं। | स्वर्ण मंदिर में पत्थर का स्मारक किसे श्रद्धांजलि देने के लिए बनाया गया है ? | {
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"सिक्ख सैनिकों"
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} | The stone monument in the Golden Temple is built to pay homage to whom? | The Sri Harimandir Sahib campus has two big and many small pilgrimage site.All these pilgrimage centers are spread all around the reservoir.This reservoir is known as Amritsar, Amrit Sarovar and Amrit Lake.The entire Golden Temple is made of white marble and its walls are carved with gold leaves.In Harimandir Sahib, the vocal waves of Gurbani (Guruvani) continue to echo throughout the day.The Sikh considers the Guru as God.Before entering the Golden Temple, he bowed his head in front of the temple, then after washing his feet, he goes to the main temple to the main temple.Along with the stairs, all the events related to the Golden Temple and its entire history are written.The Golden Temple is a very beautiful building.It has a beautiful arrangement of lights.There is also a stone monument in the temple premises, which has been deployed to pay homage to the Jambaz Sikh soldiers.Shri Harimandir Sahib has four gates.One of these gates is of Guru Ram Das Sarai.There are many resting places in this inn.Along with the resting places, there is an anchor twenty-four hours, in which anyone can receive the offerings.There are many pilgrimage places in Sri Harimandir Sahib.Of these, the berry tree is also considered a pilgrimage center.It is known as Ber Baba Budha.It is said that when the Golden Temple was being built, Baba Budha ji was sitting under this tree and keeping an eye on the construction work of the temple.The Golden Temple is built on a man -made island in the middle of the lake.The entire temple has a layer of gold.This temple is connected to the shore by a bridge.Devotees bathe in the lake.This lake is filled with fish.100 m from the templeThe golden root, the famine, is at a distance.It has an underground floor and five other floors. | {
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"Sikh soldiers"
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1357 | श्री हरिमन्दिर साहिब परिसर में दो बड़े और कई छोटे-छोटे तीर्थस्थल हैं। ये सारे तीर्थस्थल जलाशय के चारों तरफ फैले हुए हैं। इस जलाशय को अमृतसर, अमृत सरोवर और अमृत झील के नाम से जाना जाता है। पूरा स्वर्ण मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी दीवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है। हरिमन्दिर साहिब में पूरे दिन गुरबाणी (गुरुवाणी) की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। सिक्ख गुरु को ईश्वर तुल्य मानते हैं। स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले वह मंदिर के सामने सर झुकाते हैं, फिर पैर धोने के बाद सीढ़ियों से मुख्य मंदिर तक जाते हैं। सीढ़ियों के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर से जुड़ी हुई सारी घटनाएं और इसका पूरा इतिहास लिखा हुआ है। स्वर्ण मंदिर एक बहुत ही खूबसूरत इमारत है। इसमें रोशनी की सुन्दर व्यवस्था की गई है। मंदिर परिसर में पत्थर का एक स्मारक भी है जो, जांबाज सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि देने के लिए लगाया गया है। श्री हरिमन्दिर साहिब के चार द्वार हैं। इनमें से एक द्वार गुरु राम दास सराय का है। इस सराय में अनेक विश्राम-स्थल हैं। विश्राम-स्थलों के साथ-साथ यहां चौबीस घंटे लंगर चलता है, जिसमें कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। श्री हरिमन्दिर साहिब में अनेक तीर्थस्थान हैं। इनमें से बेरी वृक्ष को भी एक तीर्थस्थल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जब स्वर्ण मंदिर बनाया जा रहा था तब बाबा बुड्ढा जी इसी वृक्ष के नीचे बैठे थे और मंदिर के निर्माण कार्य पर नजर रखे हुए थे। स्वर्ण मंदिर सरोवर के बीच में मानव निर्मित द्वीप पर बना हुआ है। पूरे मंदिर पर सोने की परत चढ़ाई गई है। यह मंदिर एक पुल द्वारा किनारे से जुड़ा हुआ है। झील में श्रद्धालु स्नान करते हैं। यह झील मछलियों से भरी हुई है। मंदिर से 100 मी. की दूरी पर स्वर्ण जड़ित, अकाल तख्त है। इसमें एक भूमिगत तल है और पांच अन्य तल हैं। | सरबत खालसा की बैठकें कहाँ आयोजित की जाती है ? | {
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} | Where are the meetings of Sarbat Khalsa held? | The Sri Harimandir Sahib campus has two big and many small pilgrimage site.All these pilgrimage centers are spread all around the reservoir.This reservoir is known as Amritsar, Amrit Sarovar and Amrit Lake.The entire Golden Temple is made of white marble and its walls are carved with gold leaves.In Harimandir Sahib, the vocal waves of Gurbani (Guruvani) continue to echo throughout the day.The Sikh considers the Guru as God.Before entering the Golden Temple, he bowed his head in front of the temple, then after washing his feet, he goes to the main temple to the main temple.Along with the stairs, all the events related to the Golden Temple and its entire history are written.The Golden Temple is a very beautiful building.It has a beautiful arrangement of lights.There is also a stone monument in the temple premises, which has been deployed to pay homage to the Jambaz Sikh soldiers.Shri Harimandir Sahib has four gates.One of these gates is of Guru Ram Das Sarai.There are many resting places in this inn.Along with the resting places, there is an anchor twenty-four hours, in which anyone can receive the offerings.There are many pilgrimage places in Sri Harimandir Sahib.Of these, the berry tree is also considered a pilgrimage center.It is known as Ber Baba Budha.It is said that when the Golden Temple was being built, Baba Budha ji was sitting under this tree and keeping an eye on the construction work of the temple.The Golden Temple is built on a man -made island in the middle of the lake.The entire temple has a layer of gold.This temple is connected to the shore by a bridge.Devotees bathe in the lake.This lake is filled with fish.100 m from the templeThe golden root, the famine, is at a distance.It has an underground floor and five other floors. | {
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1358 | श्री हरिमन्दिर साहिब परिसर में दो बड़े और कई छोटे-छोटे तीर्थस्थल हैं। ये सारे तीर्थस्थल जलाशय के चारों तरफ फैले हुए हैं। इस जलाशय को अमृतसर, अमृत सरोवर और अमृत झील के नाम से जाना जाता है। पूरा स्वर्ण मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी दीवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है। हरिमन्दिर साहिब में पूरे दिन गुरबाणी (गुरुवाणी) की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। सिक्ख गुरु को ईश्वर तुल्य मानते हैं। स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले वह मंदिर के सामने सर झुकाते हैं, फिर पैर धोने के बाद सीढ़ियों से मुख्य मंदिर तक जाते हैं। सीढ़ियों के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर से जुड़ी हुई सारी घटनाएं और इसका पूरा इतिहास लिखा हुआ है। स्वर्ण मंदिर एक बहुत ही खूबसूरत इमारत है। इसमें रोशनी की सुन्दर व्यवस्था की गई है। मंदिर परिसर में पत्थर का एक स्मारक भी है जो, जांबाज सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि देने के लिए लगाया गया है। श्री हरिमन्दिर साहिब के चार द्वार हैं। इनमें से एक द्वार गुरु राम दास सराय का है। इस सराय में अनेक विश्राम-स्थल हैं। विश्राम-स्थलों के साथ-साथ यहां चौबीस घंटे लंगर चलता है, जिसमें कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। श्री हरिमन्दिर साहिब में अनेक तीर्थस्थान हैं। इनमें से बेरी वृक्ष को भी एक तीर्थस्थल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जब स्वर्ण मंदिर बनाया जा रहा था तब बाबा बुड्ढा जी इसी वृक्ष के नीचे बैठे थे और मंदिर के निर्माण कार्य पर नजर रखे हुए थे। स्वर्ण मंदिर सरोवर के बीच में मानव निर्मित द्वीप पर बना हुआ है। पूरे मंदिर पर सोने की परत चढ़ाई गई है। यह मंदिर एक पुल द्वारा किनारे से जुड़ा हुआ है। झील में श्रद्धालु स्नान करते हैं। यह झील मछलियों से भरी हुई है। मंदिर से 100 मी. की दूरी पर स्वर्ण जड़ित, अकाल तख्त है। इसमें एक भूमिगत तल है और पांच अन्य तल हैं। | श्री हरमंदिर साहिब में कितने दरवाजे है ? | {
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"चार द्वार"
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} | How many gates are there in Sri Harmandir Sahib? | The Sri Harimandir Sahib campus has two big and many small pilgrimage site.All these pilgrimage centers are spread all around the reservoir.This reservoir is known as Amritsar, Amrit Sarovar and Amrit Lake.The entire Golden Temple is made of white marble and its walls are carved with gold leaves.In Harimandir Sahib, the vocal waves of Gurbani (Guruvani) continue to echo throughout the day.The Sikh considers the Guru as God.Before entering the Golden Temple, he bowed his head in front of the temple, then after washing his feet, he goes to the main temple to the main temple.Along with the stairs, all the events related to the Golden Temple and its entire history are written.The Golden Temple is a very beautiful building.It has a beautiful arrangement of lights.There is also a stone monument in the temple premises, which has been deployed to pay homage to the Jambaz Sikh soldiers.Shri Harimandir Sahib has four gates.One of these gates is of Guru Ram Das Sarai.There are many resting places in this inn.Along with the resting places, there is an anchor twenty-four hours, in which anyone can receive the offerings.There are many pilgrimage places in Sri Harimandir Sahib.Of these, the berry tree is also considered a pilgrimage center.It is known as Ber Baba Budha.It is said that when the Golden Temple was being built, Baba Budha ji was sitting under this tree and keeping an eye on the construction work of the temple.The Golden Temple is built on a man -made island in the middle of the lake.The entire temple has a layer of gold.This temple is connected to the shore by a bridge.Devotees bathe in the lake.This lake is filled with fish.100 m from the templeThe golden root, the famine, is at a distance.It has an underground floor and five other floors. | {
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"The four gates"
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1359 | श्री हरिमन्दिर साहिब परिसर में दो बड़े और कई छोटे-छोटे तीर्थस्थल हैं। ये सारे तीर्थस्थल जलाशय के चारों तरफ फैले हुए हैं। इस जलाशय को अमृतसर, अमृत सरोवर और अमृत झील के नाम से जाना जाता है। पूरा स्वर्ण मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी दीवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है। हरिमन्दिर साहिब में पूरे दिन गुरबाणी (गुरुवाणी) की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। सिक्ख गुरु को ईश्वर तुल्य मानते हैं। स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले वह मंदिर के सामने सर झुकाते हैं, फिर पैर धोने के बाद सीढ़ियों से मुख्य मंदिर तक जाते हैं। सीढ़ियों के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर से जुड़ी हुई सारी घटनाएं और इसका पूरा इतिहास लिखा हुआ है। स्वर्ण मंदिर एक बहुत ही खूबसूरत इमारत है। इसमें रोशनी की सुन्दर व्यवस्था की गई है। मंदिर परिसर में पत्थर का एक स्मारक भी है जो, जांबाज सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि देने के लिए लगाया गया है। श्री हरिमन्दिर साहिब के चार द्वार हैं। इनमें से एक द्वार गुरु राम दास सराय का है। इस सराय में अनेक विश्राम-स्थल हैं। विश्राम-स्थलों के साथ-साथ यहां चौबीस घंटे लंगर चलता है, जिसमें कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। श्री हरिमन्दिर साहिब में अनेक तीर्थस्थान हैं। इनमें से बेरी वृक्ष को भी एक तीर्थस्थल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जब स्वर्ण मंदिर बनाया जा रहा था तब बाबा बुड्ढा जी इसी वृक्ष के नीचे बैठे थे और मंदिर के निर्माण कार्य पर नजर रखे हुए थे। स्वर्ण मंदिर सरोवर के बीच में मानव निर्मित द्वीप पर बना हुआ है। पूरे मंदिर पर सोने की परत चढ़ाई गई है। यह मंदिर एक पुल द्वारा किनारे से जुड़ा हुआ है। झील में श्रद्धालु स्नान करते हैं। यह झील मछलियों से भरी हुई है। मंदिर से 100 मी. की दूरी पर स्वर्ण जड़ित, अकाल तख्त है। इसमें एक भूमिगत तल है और पांच अन्य तल हैं। | हरमंदिर साहिब में पूरे दिन किसके स्वर गाए जाते है ? | {
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"गुरबाणी"
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} | Whose tunes are sung throughout the day in Harmandir Sahib? | The Sri Harimandir Sahib campus has two big and many small pilgrimage site.All these pilgrimage centers are spread all around the reservoir.This reservoir is known as Amritsar, Amrit Sarovar and Amrit Lake.The entire Golden Temple is made of white marble and its walls are carved with gold leaves.In Harimandir Sahib, the vocal waves of Gurbani (Guruvani) continue to echo throughout the day.The Sikh considers the Guru as God.Before entering the Golden Temple, he bowed his head in front of the temple, then after washing his feet, he goes to the main temple to the main temple.Along with the stairs, all the events related to the Golden Temple and its entire history are written.The Golden Temple is a very beautiful building.It has a beautiful arrangement of lights.There is also a stone monument in the temple premises, which has been deployed to pay homage to the Jambaz Sikh soldiers.Shri Harimandir Sahib has four gates.One of these gates is of Guru Ram Das Sarai.There are many resting places in this inn.Along with the resting places, there is an anchor twenty-four hours, in which anyone can receive the offerings.There are many pilgrimage places in Sri Harimandir Sahib.Of these, the berry tree is also considered a pilgrimage center.It is known as Ber Baba Budha.It is said that when the Golden Temple was being built, Baba Budha ji was sitting under this tree and keeping an eye on the construction work of the temple.The Golden Temple is built on a man -made island in the middle of the lake.The entire temple has a layer of gold.This temple is connected to the shore by a bridge.Devotees bathe in the lake.This lake is filled with fish.100 m from the templeThe golden root, the famine, is at a distance.It has an underground floor and five other floors. | {
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"Gurbani"
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1360 | श्री हरिमन्दिर साहिब परिसर में दो बड़े और कई छोटे-छोटे तीर्थस्थल हैं। ये सारे तीर्थस्थल जलाशय के चारों तरफ फैले हुए हैं। इस जलाशय को अमृतसर, अमृत सरोवर और अमृत झील के नाम से जाना जाता है। पूरा स्वर्ण मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी दीवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है। हरिमन्दिर साहिब में पूरे दिन गुरबाणी (गुरुवाणी) की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। सिक्ख गुरु को ईश्वर तुल्य मानते हैं। स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले वह मंदिर के सामने सर झुकाते हैं, फिर पैर धोने के बाद सीढ़ियों से मुख्य मंदिर तक जाते हैं। सीढ़ियों के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर से जुड़ी हुई सारी घटनाएं और इसका पूरा इतिहास लिखा हुआ है। स्वर्ण मंदिर एक बहुत ही खूबसूरत इमारत है। इसमें रोशनी की सुन्दर व्यवस्था की गई है। मंदिर परिसर में पत्थर का एक स्मारक भी है जो, जांबाज सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि देने के लिए लगाया गया है। श्री हरिमन्दिर साहिब के चार द्वार हैं। इनमें से एक द्वार गुरु राम दास सराय का है। इस सराय में अनेक विश्राम-स्थल हैं। विश्राम-स्थलों के साथ-साथ यहां चौबीस घंटे लंगर चलता है, जिसमें कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। श्री हरिमन्दिर साहिब में अनेक तीर्थस्थान हैं। इनमें से बेरी वृक्ष को भी एक तीर्थस्थल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जब स्वर्ण मंदिर बनाया जा रहा था तब बाबा बुड्ढा जी इसी वृक्ष के नीचे बैठे थे और मंदिर के निर्माण कार्य पर नजर रखे हुए थे। स्वर्ण मंदिर सरोवर के बीच में मानव निर्मित द्वीप पर बना हुआ है। पूरे मंदिर पर सोने की परत चढ़ाई गई है। यह मंदिर एक पुल द्वारा किनारे से जुड़ा हुआ है। झील में श्रद्धालु स्नान करते हैं। यह झील मछलियों से भरी हुई है। मंदिर से 100 मी. की दूरी पर स्वर्ण जड़ित, अकाल तख्त है। इसमें एक भूमिगत तल है और पांच अन्य तल हैं। | श्रद्धालु अमृतसर के चारों ओर किसकी परिक्रमा करते हैं? | {
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} | Whom do devotees circumambulate around Amritsar? | The Sri Harimandir Sahib campus has two big and many small pilgrimage site.All these pilgrimage centers are spread all around the reservoir.This reservoir is known as Amritsar, Amrit Sarovar and Amrit Lake.The entire Golden Temple is made of white marble and its walls are carved with gold leaves.In Harimandir Sahib, the vocal waves of Gurbani (Guruvani) continue to echo throughout the day.The Sikh considers the Guru as God.Before entering the Golden Temple, he bowed his head in front of the temple, then after washing his feet, he goes to the main temple to the main temple.Along with the stairs, all the events related to the Golden Temple and its entire history are written.The Golden Temple is a very beautiful building.It has a beautiful arrangement of lights.There is also a stone monument in the temple premises, which has been deployed to pay homage to the Jambaz Sikh soldiers.Shri Harimandir Sahib has four gates.One of these gates is of Guru Ram Das Sarai.There are many resting places in this inn.Along with the resting places, there is an anchor twenty-four hours, in which anyone can receive the offerings.There are many pilgrimage places in Sri Harimandir Sahib.Of these, the berry tree is also considered a pilgrimage center.It is known as Ber Baba Budha.It is said that when the Golden Temple was being built, Baba Budha ji was sitting under this tree and keeping an eye on the construction work of the temple.The Golden Temple is built on a man -made island in the middle of the lake.The entire temple has a layer of gold.This temple is connected to the shore by a bridge.Devotees bathe in the lake.This lake is filled with fish.100 m from the templeThe golden root, the famine, is at a distance.It has an underground floor and five other floors. | {
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1361 | संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं। गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है . दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था। गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है। "बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। | डेनिप की स्थापना किस वर्ष हुई थी ? | {
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} | In which year was the DENIP founded? | In the United States, Gandhi's statues are on the Mesasushats route near the Indian Embassy near the Indian Embassy in New York City and Martin Luther King Junior National Historical Site and Washington DC.A statue has been installed in his memory near the Indian Embassy near the Indian Embassy, where Gandhi was removed from the first-grade in 1893.Gandhi's idols are installed in the wax museum of Madam Tussaud, in London, New York and many cities of the world.Gandhi never received the Nobel Prize for Peace, although he was nominated five times between 1937 and 1949, including the nomination given by the American Friends Service Committee.After decades, the Nobel Committee in public declared that he was sorry for his mistake and admitted that the reason for not giving the awards was the divided national views.Mahatma Gandhi was to be awarded this award in 1949, but it had to be stopped due to his assassination. This year two new nations were also a complex reason to sparked war in India and Pakistan.Gandhi's death year 1949 was not given the award because there was no living candidate and when the Dalai Lama was rewarded in 1979, the chairman of the committee said that "This is part of the tribute in memory of Mahatma Gandhi.. "Birla Bhavan (or Birla House), New Delhi, where 30 Janwari, Gandhi was killed on 1979, the Government of India acquired in 1971 and opened it to the public in 1973 as Gandhi Smriti.It is a room where Gandhi spent four months of his last and the ground where he was murdered while going for a night walk. | {
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1362 | संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं। गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है . दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था। गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है। "बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। | गांधी को प्रथम श्रेणी के रेल के कोच से किस वर्ष निष्कासित किया गया था ? | {
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"१८९३"
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281
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} | In which year was Gandhi expelled from a first-class railway coach? | In the United States, Gandhi's statues are on the Mesasushats route near the Indian Embassy near the Indian Embassy in New York City and Martin Luther King Junior National Historical Site and Washington DC.A statue has been installed in his memory near the Indian Embassy near the Indian Embassy, where Gandhi was removed from the first-grade in 1893.Gandhi's idols are installed in the wax museum of Madam Tussaud, in London, New York and many cities of the world.Gandhi never received the Nobel Prize for Peace, although he was nominated five times between 1937 and 1949, including the nomination given by the American Friends Service Committee.After decades, the Nobel Committee in public declared that he was sorry for his mistake and admitted that the reason for not giving the awards was the divided national views.Mahatma Gandhi was to be awarded this award in 1949, but it had to be stopped due to his assassination. This year two new nations were also a complex reason to sparked war in India and Pakistan.Gandhi's death year 1949 was not given the award because there was no living candidate and when the Dalai Lama was rewarded in 1979, the chairman of the committee said that "This is part of the tribute in memory of Mahatma Gandhi.. "Birla Bhavan (or Birla House), New Delhi, where 30 Janwari, Gandhi was killed on 1979, the Government of India acquired in 1971 and opened it to the public in 1973 as Gandhi Smriti.It is a room where Gandhi spent four months of his last and the ground where he was murdered while going for a night walk. | {
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281
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"1893."
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1363 | संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं। गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है . दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था। गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है। "बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। | दलाई लामा को किस वर्ष सम्मानित किया गया था ? | {
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"१९८९"
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} | In which year was the Dalai Lama honoured? | In the United States, Gandhi's statues are on the Mesasushats route near the Indian Embassy near the Indian Embassy in New York City and Martin Luther King Junior National Historical Site and Washington DC.A statue has been installed in his memory near the Indian Embassy near the Indian Embassy, where Gandhi was removed from the first-grade in 1893.Gandhi's idols are installed in the wax museum of Madam Tussaud, in London, New York and many cities of the world.Gandhi never received the Nobel Prize for Peace, although he was nominated five times between 1937 and 1949, including the nomination given by the American Friends Service Committee.After decades, the Nobel Committee in public declared that he was sorry for his mistake and admitted that the reason for not giving the awards was the divided national views.Mahatma Gandhi was to be awarded this award in 1949, but it had to be stopped due to his assassination. This year two new nations were also a complex reason to sparked war in India and Pakistan.Gandhi's death year 1949 was not given the award because there was no living candidate and when the Dalai Lama was rewarded in 1979, the chairman of the committee said that "This is part of the tribute in memory of Mahatma Gandhi.. "Birla Bhavan (or Birla House), New Delhi, where 30 Janwari, Gandhi was killed on 1979, the Government of India acquired in 1971 and opened it to the public in 1973 as Gandhi Smriti.It is a room where Gandhi spent four months of his last and the ground where he was murdered while going for a night walk. | {
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1128
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"1989"
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1364 | संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं। गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है . दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था। गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है। "बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। | महात्मा गांधी की पुण्यतिथि कब मनाई जाती है ? | {
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} | When is the death anniversary of Mahatma Gandhi celebrated? | In the United States, Gandhi's statues are on the Mesasushats route near the Indian Embassy near the Indian Embassy in New York City and Martin Luther King Junior National Historical Site and Washington DC.A statue has been installed in his memory near the Indian Embassy near the Indian Embassy, where Gandhi was removed from the first-grade in 1893.Gandhi's idols are installed in the wax museum of Madam Tussaud, in London, New York and many cities of the world.Gandhi never received the Nobel Prize for Peace, although he was nominated five times between 1937 and 1949, including the nomination given by the American Friends Service Committee.After decades, the Nobel Committee in public declared that he was sorry for his mistake and admitted that the reason for not giving the awards was the divided national views.Mahatma Gandhi was to be awarded this award in 1949, but it had to be stopped due to his assassination. This year two new nations were also a complex reason to sparked war in India and Pakistan.Gandhi's death year 1949 was not given the award because there was no living candidate and when the Dalai Lama was rewarded in 1979, the chairman of the committee said that "This is part of the tribute in memory of Mahatma Gandhi.. "Birla Bhavan (or Birla House), New Delhi, where 30 Janwari, Gandhi was killed on 1979, the Government of India acquired in 1971 and opened it to the public in 1973 as Gandhi Smriti.It is a room where Gandhi spent four months of his last and the ground where he was murdered while going for a night walk. | {
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1365 | संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं। गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है . दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था। गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है। "बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। | गांधीजी की हत्या कब की गई थी ? | {
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"३०जन्वरी, १९४८"
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1305
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} | When was Gandhiji assassinated? | In the United States, Gandhi's statues are on the Mesasushats route near the Indian Embassy near the Indian Embassy in New York City and Martin Luther King Junior National Historical Site and Washington DC.A statue has been installed in his memory near the Indian Embassy near the Indian Embassy, where Gandhi was removed from the first-grade in 1893.Gandhi's idols are installed in the wax museum of Madam Tussaud, in London, New York and many cities of the world.Gandhi never received the Nobel Prize for Peace, although he was nominated five times between 1937 and 1949, including the nomination given by the American Friends Service Committee.After decades, the Nobel Committee in public declared that he was sorry for his mistake and admitted that the reason for not giving the awards was the divided national views.Mahatma Gandhi was to be awarded this award in 1949, but it had to be stopped due to his assassination. This year two new nations were also a complex reason to sparked war in India and Pakistan.Gandhi's death year 1949 was not given the award because there was no living candidate and when the Dalai Lama was rewarded in 1979, the chairman of the committee said that "This is part of the tribute in memory of Mahatma Gandhi.. "Birla Bhavan (or Birla House), New Delhi, where 30 Janwari, Gandhi was killed on 1979, the Government of India acquired in 1971 and opened it to the public in 1973 as Gandhi Smriti.It is a room where Gandhi spent four months of his last and the ground where he was murdered while going for a night walk. | {
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1305
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"January 30, 1948"
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1366 | संयोग से यह शहर ब्रिटिश पॉप गायक क्लिफ़ रिचर्ड का भी जन्म-स्थान है। लखनऊ हिन्दी चलचित्र उद्योग की आरंभ से ही प्रेरणा रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि लखनवी स्पर्श के बिना, बॉलीवुड कभी उस ऊंचाई पर नहीं आ पाता, जहां वह अब है। अवध से कई पटकथा लेखक एवं गीतकार हैं, जैसे मजरूह सुलतानपुरी, कैफ़े आज़मी, जावेद अख्तर, अली रज़ा, भगवती चरण वर्मा, डॉ॰कुमुद नागर, डॉ॰अचला नागर, वजाहत मिर्ज़ा (मदर इंडिया एवं गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी एवं के पी सक्सेना जिन्होंने भारतीय चलचित्र को प्रतिभा से धनी बनाया। लखनऊ पर बहुत सी प्रसिद्ध फिल्में बनी हैं जैसे शशि कपूर की जुनून, मुज़फ्फर अली की उमराव जान एवं गमन, सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी और इस्माइल मर्चेंट की शेक्स्पियर वाला की भी आंशिक शूटिंग यहीं हुई थी। बहू बेगम, मेहबूब की मेहंदी, मेरे हुजूर, चौदहवीं का चांद, पाकीज़ा, मैं मेरी पत्नी और वो, सहर, अनवर और बहुत सी हिन्दी फिल्में या तो लखनऊ में बनी हैं, या उनकी पृष्ठभूमि लखनऊ की है। गदर फिल्म में भी पाकिस्तान के दृश्यों में लखनऊ की शूटिंग ही है। इसमें लाल पुल, लखनऊ एवं ला मार्टीनियर कालिज की शूटिंग हैं। अवध क्षेत्र की अपनी एक अलग खास नवाबी खानपान शैली है। इसमें विभिन्न तरह की बिरयानियां, कबाब, कोरमा, नाहरी कुल्चे, शीरमाल, ज़र्दा, रुमाली रोटी और वर्की परांठा और रोटियां आदि हैं, जिनमें काकोरी कबाब, गलावटी कबाब, पतीली कबाब, बोटी कबाब, घुटवां कबाब और शामी कबाब प्रमुख हैं। शहर में बहुत सी जगह ये व्यंजन मिलेंगे। ये सभी तरह के एवं सभी बजट के होंगे। जहां एक ओर १८०५ में स्थापित राम आसरे हलवाई की मक्खन मलाई एवं मलाई-गिलौरी प्रसिद्ध है, वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुण्डे के कबाब भी कम मशहूर नहीं हैं। इसके अलावा अन्य नवाबी पकवानो जैसे 'दमपुख़्त', लच्छेदार प्याज और हरी चटनी के साथ परोसे गय सीख-कबाब और रूमाली रोटी का भी जवाब नहीं है। लखनऊ की चाट देश की बेहतरीन चाट में से एक है। और खाने के अंत में विश्व-प्रसिद्ध लखनऊ के पान जिनका कोई सानी नहीं है। लखनऊ के अवधी व्यंजन जगप्रसिद्ध हैं। यहां के खानपान बहुत प्रकार की रोटियां भी होती हैं। ऐसी ही रोटियां यहां के एक पुराने बाज़ार में आज भी मिलती हैं, बल्कि ये बाजार रोटियों का बाजार ही है। अकबरी गेट से नक्खास चौकी के पीछे तक यह बाजार है, जहां फुटकर व सैकड़े के हिसाब से शीरमाल, नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी। पुराने लखनऊ के इस रोटी बाजार में विभिन्न प्रकार की रोटियों की लगभग १५ दुकानें हैं, जहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक गर्म रोटी खरीदी जा सकती है। कई पुराने नामी होटल भी इस गली के पास हैं, जहां अपनी मनपसंद रोटी के साथ मांसाहारी व्यंजन भी मिलते हैं। एक उक्ति के अनुसार लखनऊ के व्यंजन विशेषज्ञों ने ही परतदार पराठे की खोज की है, जिसको तंदूरी परांठा भी कहा जाता है। लखनऊवालों ने भी कुलचे में विशेष प्रयोग किये। कुलचा नाहरी के विशेषज्ञ कारीगर हाजी जुबैर अहमद के अनुसार कुलचा अवधी व्यंजनों में शामिल खास रोटी है, जिसका साथ नाहरी बिना अधूरा है। लखनऊ के गिलामी कुलचे यानी दो भाग वाले कुलचे उनके परदादा ने तैयार किये थे। । इन्हें भी देखें: लखनऊ का रोटी बाजारचिकन, यहाँ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। | ब्रिटिश पॉप गायक क्लिफ रिचर्ड का जन्म कहाँ हुआ है ? | {
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"लखनऊ"
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} | Where is British pop singer Cliff Richard born? | Incidentally, the city is also the birthplace of British pop singer Cliff Richard.Lucknow Hindi has been inspiration from the movie industry since the beginning.It would not be an exaggeration to say that without Lucknowi touch, Bollywood never comes to the height where he is now.There are many screenwriters and lyricists from Awadh, such as Majrooh Sultanpuri, Cafe Azmi, Javed Akhtar, Ali Raza, Bhagwati Charan Verma, Dr. Kumud Nagar, Dr. Achala Nagar, Vajahat Mirza (Author of Mother India and Ganga Jamuna), Amritlal Nagar, Amritlal Nagar, Ali Sardar Jafri and KP Saxena who made Indian movies rich in talent.Many famous films have been made on Lucknow such as Shashi Kapoor's passion, Muzaffar Ali's Umrao Jaan and Gaman, Satyajit Rai's chess player and Ismail Merchant's Shakespeare Wala were also shot here.Bahu Begum, Mehboob's Mehndi, Mere Hujur, Chaudhi's Chand, Pakiza, I, Sahar, Anwar and many Hindi films are either made in Lucknow, or their background is from Lucknow.The film Gadar also shoots Lucknow in the scenes of Pakistan.It has Lal Bridge, Lucknow and La Martinier Collage shooting.The Awadh region has its own special Nawabi catering style.It has various types of biryanas, kebabs, korma, Nahari kulche, shirmal, zarda, rumali roti and Varki Parantha and Rotis etc., including Kakori kebabs, galavati kebabs, pati kebabs, boti kebabs, khumab, knees and shami kebabs.These dishes will be found in many places in the city.All these types and all budgets will be.While on the one hand, the butter cream and malai-galauri of Rama Asare Halwai, established in 1805, are famous, the kebabs of Haji Murad Ali's Tunde, found at Akbari Gate, are no less famous.Apart from this, there is no response to 'Dampukht' like Nawabi dish, lavishing onion and green chutney.Lucknow's chaat is one of the best chaat in the country.And at the end of the meal, the world-famous Lucknow paan which has no match.Awadhi cuisine of Lucknow is famous.There are also many types of rotis here.Similar loaves are still found in an old market here, but this market is the market of rotis.This is the market from Akbari Gate to behind the Nakhas post, where many other loaves like retail and hundreds will be found in hundreds of shirmal, naan, khameri roti, rumali roti, kulcha.There are about 15 shops of different types of rotis in this roti market of old Lucknow, where hot bread can be purchased from nine in the morning to nine in the morning.Many old -renowned hotels are also near this street, where carnivorous dishes are also found with their favorite bread.According to a utterance, the cuisine experts of Lucknow have discovered the layer paratha, which is also called Tandoori Paratha.The people of Lucknow also made special experiments in Kulche.According to Kulcha Nahari expert Haji Zubair Ahmed, Kulcha is a special roti involved in Awadhi cuisine, with which Nahari is incomplete without.The Gilami Kulcha i.e. two -part Kulche of Lucknow was prepared by his great -grandfather.,See also: Roti Bazaarchakan of Lucknow is an excellent specimen of embroidery here and Lucknowi Zardozi is a small scale industry here which makes his artistry impressed on clothes like kurta and sarees.Most of this industry is spread in the Chowk area of Old Lucknow. | {
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"Lucknow"
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1367 | संयोग से यह शहर ब्रिटिश पॉप गायक क्लिफ़ रिचर्ड का भी जन्म-स्थान है। लखनऊ हिन्दी चलचित्र उद्योग की आरंभ से ही प्रेरणा रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि लखनवी स्पर्श के बिना, बॉलीवुड कभी उस ऊंचाई पर नहीं आ पाता, जहां वह अब है। अवध से कई पटकथा लेखक एवं गीतकार हैं, जैसे मजरूह सुलतानपुरी, कैफ़े आज़मी, जावेद अख्तर, अली रज़ा, भगवती चरण वर्मा, डॉ॰कुमुद नागर, डॉ॰अचला नागर, वजाहत मिर्ज़ा (मदर इंडिया एवं गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी एवं के पी सक्सेना जिन्होंने भारतीय चलचित्र को प्रतिभा से धनी बनाया। लखनऊ पर बहुत सी प्रसिद्ध फिल्में बनी हैं जैसे शशि कपूर की जुनून, मुज़फ्फर अली की उमराव जान एवं गमन, सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी और इस्माइल मर्चेंट की शेक्स्पियर वाला की भी आंशिक शूटिंग यहीं हुई थी। बहू बेगम, मेहबूब की मेहंदी, मेरे हुजूर, चौदहवीं का चांद, पाकीज़ा, मैं मेरी पत्नी और वो, सहर, अनवर और बहुत सी हिन्दी फिल्में या तो लखनऊ में बनी हैं, या उनकी पृष्ठभूमि लखनऊ की है। गदर फिल्म में भी पाकिस्तान के दृश्यों में लखनऊ की शूटिंग ही है। इसमें लाल पुल, लखनऊ एवं ला मार्टीनियर कालिज की शूटिंग हैं। अवध क्षेत्र की अपनी एक अलग खास नवाबी खानपान शैली है। इसमें विभिन्न तरह की बिरयानियां, कबाब, कोरमा, नाहरी कुल्चे, शीरमाल, ज़र्दा, रुमाली रोटी और वर्की परांठा और रोटियां आदि हैं, जिनमें काकोरी कबाब, गलावटी कबाब, पतीली कबाब, बोटी कबाब, घुटवां कबाब और शामी कबाब प्रमुख हैं। शहर में बहुत सी जगह ये व्यंजन मिलेंगे। ये सभी तरह के एवं सभी बजट के होंगे। जहां एक ओर १८०५ में स्थापित राम आसरे हलवाई की मक्खन मलाई एवं मलाई-गिलौरी प्रसिद्ध है, वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुण्डे के कबाब भी कम मशहूर नहीं हैं। इसके अलावा अन्य नवाबी पकवानो जैसे 'दमपुख़्त', लच्छेदार प्याज और हरी चटनी के साथ परोसे गय सीख-कबाब और रूमाली रोटी का भी जवाब नहीं है। लखनऊ की चाट देश की बेहतरीन चाट में से एक है। और खाने के अंत में विश्व-प्रसिद्ध लखनऊ के पान जिनका कोई सानी नहीं है। लखनऊ के अवधी व्यंजन जगप्रसिद्ध हैं। यहां के खानपान बहुत प्रकार की रोटियां भी होती हैं। ऐसी ही रोटियां यहां के एक पुराने बाज़ार में आज भी मिलती हैं, बल्कि ये बाजार रोटियों का बाजार ही है। अकबरी गेट से नक्खास चौकी के पीछे तक यह बाजार है, जहां फुटकर व सैकड़े के हिसाब से शीरमाल, नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी। पुराने लखनऊ के इस रोटी बाजार में विभिन्न प्रकार की रोटियों की लगभग १५ दुकानें हैं, जहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक गर्म रोटी खरीदी जा सकती है। कई पुराने नामी होटल भी इस गली के पास हैं, जहां अपनी मनपसंद रोटी के साथ मांसाहारी व्यंजन भी मिलते हैं। एक उक्ति के अनुसार लखनऊ के व्यंजन विशेषज्ञों ने ही परतदार पराठे की खोज की है, जिसको तंदूरी परांठा भी कहा जाता है। लखनऊवालों ने भी कुलचे में विशेष प्रयोग किये। कुलचा नाहरी के विशेषज्ञ कारीगर हाजी जुबैर अहमद के अनुसार कुलचा अवधी व्यंजनों में शामिल खास रोटी है, जिसका साथ नाहरी बिना अधूरा है। लखनऊ के गिलामी कुलचे यानी दो भाग वाले कुलचे उनके परदादा ने तैयार किये थे। । इन्हें भी देखें: लखनऊ का रोटी बाजारचिकन, यहाँ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। | लखनऊ की प्रसिद्ध राम असरे की दुकान किस वर्ष स्थापित की गई थी ? | {
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"१८०५"
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1367
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} | The famous Ram Asrey shop of Lucknow was established in which year? | Incidentally, the city is also the birthplace of British pop singer Cliff Richard.Lucknow Hindi has been inspiration from the movie industry since the beginning.It would not be an exaggeration to say that without Lucknowi touch, Bollywood never comes to the height where he is now.There are many screenwriters and lyricists from Awadh, such as Majrooh Sultanpuri, Cafe Azmi, Javed Akhtar, Ali Raza, Bhagwati Charan Verma, Dr. Kumud Nagar, Dr. Achala Nagar, Vajahat Mirza (Author of Mother India and Ganga Jamuna), Amritlal Nagar, Amritlal Nagar, Ali Sardar Jafri and KP Saxena who made Indian movies rich in talent.Many famous films have been made on Lucknow such as Shashi Kapoor's passion, Muzaffar Ali's Umrao Jaan and Gaman, Satyajit Rai's chess player and Ismail Merchant's Shakespeare Wala were also shot here.Bahu Begum, Mehboob's Mehndi, Mere Hujur, Chaudhi's Chand, Pakiza, I, Sahar, Anwar and many Hindi films are either made in Lucknow, or their background is from Lucknow.The film Gadar also shoots Lucknow in the scenes of Pakistan.It has Lal Bridge, Lucknow and La Martinier Collage shooting.The Awadh region has its own special Nawabi catering style.It has various types of biryanas, kebabs, korma, Nahari kulche, shirmal, zarda, rumali roti and Varki Parantha and Rotis etc., including Kakori kebabs, galavati kebabs, pati kebabs, boti kebabs, khumab, knees and shami kebabs.These dishes will be found in many places in the city.All these types and all budgets will be.While on the one hand, the butter cream and malai-galauri of Rama Asare Halwai, established in 1805, are famous, the kebabs of Haji Murad Ali's Tunde, found at Akbari Gate, are no less famous.Apart from this, there is no response to 'Dampukht' like Nawabi dish, lavishing onion and green chutney.Lucknow's chaat is one of the best chaat in the country.And at the end of the meal, the world-famous Lucknow paan which has no match.Awadhi cuisine of Lucknow is famous.There are also many types of rotis here.Similar loaves are still found in an old market here, but this market is the market of rotis.This is the market from Akbari Gate to behind the Nakhas post, where many other loaves like retail and hundreds will be found in hundreds of shirmal, naan, khameri roti, rumali roti, kulcha.There are about 15 shops of different types of rotis in this roti market of old Lucknow, where hot bread can be purchased from nine in the morning to nine in the morning.Many old -renowned hotels are also near this street, where carnivorous dishes are also found with their favorite bread.According to a utterance, the cuisine experts of Lucknow have discovered the layer paratha, which is also called Tandoori Paratha.The people of Lucknow also made special experiments in Kulche.According to Kulcha Nahari expert Haji Zubair Ahmed, Kulcha is a special roti involved in Awadhi cuisine, with which Nahari is incomplete without.The Gilami Kulcha i.e. two -part Kulche of Lucknow was prepared by his great -grandfather.,See also: Roti Bazaarchakan of Lucknow is an excellent specimen of embroidery here and Lucknowi Zardozi is a small scale industry here which makes his artistry impressed on clothes like kurta and sarees.Most of this industry is spread in the Chowk area of Old Lucknow. | {
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"1805"
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1368 | संयोग से यह शहर ब्रिटिश पॉप गायक क्लिफ़ रिचर्ड का भी जन्म-स्थान है। लखनऊ हिन्दी चलचित्र उद्योग की आरंभ से ही प्रेरणा रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि लखनवी स्पर्श के बिना, बॉलीवुड कभी उस ऊंचाई पर नहीं आ पाता, जहां वह अब है। अवध से कई पटकथा लेखक एवं गीतकार हैं, जैसे मजरूह सुलतानपुरी, कैफ़े आज़मी, जावेद अख्तर, अली रज़ा, भगवती चरण वर्मा, डॉ॰कुमुद नागर, डॉ॰अचला नागर, वजाहत मिर्ज़ा (मदर इंडिया एवं गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी एवं के पी सक्सेना जिन्होंने भारतीय चलचित्र को प्रतिभा से धनी बनाया। लखनऊ पर बहुत सी प्रसिद्ध फिल्में बनी हैं जैसे शशि कपूर की जुनून, मुज़फ्फर अली की उमराव जान एवं गमन, सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी और इस्माइल मर्चेंट की शेक्स्पियर वाला की भी आंशिक शूटिंग यहीं हुई थी। बहू बेगम, मेहबूब की मेहंदी, मेरे हुजूर, चौदहवीं का चांद, पाकीज़ा, मैं मेरी पत्नी और वो, सहर, अनवर और बहुत सी हिन्दी फिल्में या तो लखनऊ में बनी हैं, या उनकी पृष्ठभूमि लखनऊ की है। गदर फिल्म में भी पाकिस्तान के दृश्यों में लखनऊ की शूटिंग ही है। इसमें लाल पुल, लखनऊ एवं ला मार्टीनियर कालिज की शूटिंग हैं। अवध क्षेत्र की अपनी एक अलग खास नवाबी खानपान शैली है। इसमें विभिन्न तरह की बिरयानियां, कबाब, कोरमा, नाहरी कुल्चे, शीरमाल, ज़र्दा, रुमाली रोटी और वर्की परांठा और रोटियां आदि हैं, जिनमें काकोरी कबाब, गलावटी कबाब, पतीली कबाब, बोटी कबाब, घुटवां कबाब और शामी कबाब प्रमुख हैं। शहर में बहुत सी जगह ये व्यंजन मिलेंगे। ये सभी तरह के एवं सभी बजट के होंगे। जहां एक ओर १८०५ में स्थापित राम आसरे हलवाई की मक्खन मलाई एवं मलाई-गिलौरी प्रसिद्ध है, वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुण्डे के कबाब भी कम मशहूर नहीं हैं। इसके अलावा अन्य नवाबी पकवानो जैसे 'दमपुख़्त', लच्छेदार प्याज और हरी चटनी के साथ परोसे गय सीख-कबाब और रूमाली रोटी का भी जवाब नहीं है। लखनऊ की चाट देश की बेहतरीन चाट में से एक है। और खाने के अंत में विश्व-प्रसिद्ध लखनऊ के पान जिनका कोई सानी नहीं है। लखनऊ के अवधी व्यंजन जगप्रसिद्ध हैं। यहां के खानपान बहुत प्रकार की रोटियां भी होती हैं। ऐसी ही रोटियां यहां के एक पुराने बाज़ार में आज भी मिलती हैं, बल्कि ये बाजार रोटियों का बाजार ही है। अकबरी गेट से नक्खास चौकी के पीछे तक यह बाजार है, जहां फुटकर व सैकड़े के हिसाब से शीरमाल, नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी। पुराने लखनऊ के इस रोटी बाजार में विभिन्न प्रकार की रोटियों की लगभग १५ दुकानें हैं, जहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक गर्म रोटी खरीदी जा सकती है। कई पुराने नामी होटल भी इस गली के पास हैं, जहां अपनी मनपसंद रोटी के साथ मांसाहारी व्यंजन भी मिलते हैं। एक उक्ति के अनुसार लखनऊ के व्यंजन विशेषज्ञों ने ही परतदार पराठे की खोज की है, जिसको तंदूरी परांठा भी कहा जाता है। लखनऊवालों ने भी कुलचे में विशेष प्रयोग किये। कुलचा नाहरी के विशेषज्ञ कारीगर हाजी जुबैर अहमद के अनुसार कुलचा अवधी व्यंजनों में शामिल खास रोटी है, जिसका साथ नाहरी बिना अधूरा है। लखनऊ के गिलामी कुलचे यानी दो भाग वाले कुलचे उनके परदादा ने तैयार किये थे। । इन्हें भी देखें: लखनऊ का रोटी बाजारचिकन, यहाँ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। | मदर इंडिया और गंगा जमुना फ़िल्म के लेखक कौन थे ? | {
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} | Who was the author of the movie Mother India and Ganga Jamuna? | Incidentally, the city is also the birthplace of British pop singer Cliff Richard.Lucknow Hindi has been inspiration from the movie industry since the beginning.It would not be an exaggeration to say that without Lucknowi touch, Bollywood never comes to the height where he is now.There are many screenwriters and lyricists from Awadh, such as Majrooh Sultanpuri, Cafe Azmi, Javed Akhtar, Ali Raza, Bhagwati Charan Verma, Dr. Kumud Nagar, Dr. Achala Nagar, Vajahat Mirza (Author of Mother India and Ganga Jamuna), Amritlal Nagar, Amritlal Nagar, Ali Sardar Jafri and KP Saxena who made Indian movies rich in talent.Many famous films have been made on Lucknow such as Shashi Kapoor's passion, Muzaffar Ali's Umrao Jaan and Gaman, Satyajit Rai's chess player and Ismail Merchant's Shakespeare Wala were also shot here.Bahu Begum, Mehboob's Mehndi, Mere Hujur, Chaudhi's Chand, Pakiza, I, Sahar, Anwar and many Hindi films are either made in Lucknow, or their background is from Lucknow.The film Gadar also shoots Lucknow in the scenes of Pakistan.It has Lal Bridge, Lucknow and La Martinier Collage shooting.The Awadh region has its own special Nawabi catering style.It has various types of biryanas, kebabs, korma, Nahari kulche, shirmal, zarda, rumali roti and Varki Parantha and Rotis etc., including Kakori kebabs, galavati kebabs, pati kebabs, boti kebabs, khumab, knees and shami kebabs.These dishes will be found in many places in the city.All these types and all budgets will be.While on the one hand, the butter cream and malai-galauri of Rama Asare Halwai, established in 1805, are famous, the kebabs of Haji Murad Ali's Tunde, found at Akbari Gate, are no less famous.Apart from this, there is no response to 'Dampukht' like Nawabi dish, lavishing onion and green chutney.Lucknow's chaat is one of the best chaat in the country.And at the end of the meal, the world-famous Lucknow paan which has no match.Awadhi cuisine of Lucknow is famous.There are also many types of rotis here.Similar loaves are still found in an old market here, but this market is the market of rotis.This is the market from Akbari Gate to behind the Nakhas post, where many other loaves like retail and hundreds will be found in hundreds of shirmal, naan, khameri roti, rumali roti, kulcha.There are about 15 shops of different types of rotis in this roti market of old Lucknow, where hot bread can be purchased from nine in the morning to nine in the morning.Many old -renowned hotels are also near this street, where carnivorous dishes are also found with their favorite bread.According to a utterance, the cuisine experts of Lucknow have discovered the layer paratha, which is also called Tandoori Paratha.The people of Lucknow also made special experiments in Kulche.According to Kulcha Nahari expert Haji Zubair Ahmed, Kulcha is a special roti involved in Awadhi cuisine, with which Nahari is incomplete without.The Gilami Kulcha i.e. two -part Kulche of Lucknow was prepared by his great -grandfather.,See also: Roti Bazaarchakan of Lucknow is an excellent specimen of embroidery here and Lucknowi Zardozi is a small scale industry here which makes his artistry impressed on clothes like kurta and sarees.Most of this industry is spread in the Chowk area of Old Lucknow. | {
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"Wajahat Mirza"
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1369 | संयोग से यह शहर ब्रिटिश पॉप गायक क्लिफ़ रिचर्ड का भी जन्म-स्थान है। लखनऊ हिन्दी चलचित्र उद्योग की आरंभ से ही प्रेरणा रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि लखनवी स्पर्श के बिना, बॉलीवुड कभी उस ऊंचाई पर नहीं आ पाता, जहां वह अब है। अवध से कई पटकथा लेखक एवं गीतकार हैं, जैसे मजरूह सुलतानपुरी, कैफ़े आज़मी, जावेद अख्तर, अली रज़ा, भगवती चरण वर्मा, डॉ॰कुमुद नागर, डॉ॰अचला नागर, वजाहत मिर्ज़ा (मदर इंडिया एवं गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी एवं के पी सक्सेना जिन्होंने भारतीय चलचित्र को प्रतिभा से धनी बनाया। लखनऊ पर बहुत सी प्रसिद्ध फिल्में बनी हैं जैसे शशि कपूर की जुनून, मुज़फ्फर अली की उमराव जान एवं गमन, सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी और इस्माइल मर्चेंट की शेक्स्पियर वाला की भी आंशिक शूटिंग यहीं हुई थी। बहू बेगम, मेहबूब की मेहंदी, मेरे हुजूर, चौदहवीं का चांद, पाकीज़ा, मैं मेरी पत्नी और वो, सहर, अनवर और बहुत सी हिन्दी फिल्में या तो लखनऊ में बनी हैं, या उनकी पृष्ठभूमि लखनऊ की है। गदर फिल्म में भी पाकिस्तान के दृश्यों में लखनऊ की शूटिंग ही है। इसमें लाल पुल, लखनऊ एवं ला मार्टीनियर कालिज की शूटिंग हैं। अवध क्षेत्र की अपनी एक अलग खास नवाबी खानपान शैली है। इसमें विभिन्न तरह की बिरयानियां, कबाब, कोरमा, नाहरी कुल्चे, शीरमाल, ज़र्दा, रुमाली रोटी और वर्की परांठा और रोटियां आदि हैं, जिनमें काकोरी कबाब, गलावटी कबाब, पतीली कबाब, बोटी कबाब, घुटवां कबाब और शामी कबाब प्रमुख हैं। शहर में बहुत सी जगह ये व्यंजन मिलेंगे। ये सभी तरह के एवं सभी बजट के होंगे। जहां एक ओर १८०५ में स्थापित राम आसरे हलवाई की मक्खन मलाई एवं मलाई-गिलौरी प्रसिद्ध है, वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुण्डे के कबाब भी कम मशहूर नहीं हैं। इसके अलावा अन्य नवाबी पकवानो जैसे 'दमपुख़्त', लच्छेदार प्याज और हरी चटनी के साथ परोसे गय सीख-कबाब और रूमाली रोटी का भी जवाब नहीं है। लखनऊ की चाट देश की बेहतरीन चाट में से एक है। और खाने के अंत में विश्व-प्रसिद्ध लखनऊ के पान जिनका कोई सानी नहीं है। लखनऊ के अवधी व्यंजन जगप्रसिद्ध हैं। यहां के खानपान बहुत प्रकार की रोटियां भी होती हैं। ऐसी ही रोटियां यहां के एक पुराने बाज़ार में आज भी मिलती हैं, बल्कि ये बाजार रोटियों का बाजार ही है। अकबरी गेट से नक्खास चौकी के पीछे तक यह बाजार है, जहां फुटकर व सैकड़े के हिसाब से शीरमाल, नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी। पुराने लखनऊ के इस रोटी बाजार में विभिन्न प्रकार की रोटियों की लगभग १५ दुकानें हैं, जहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक गर्म रोटी खरीदी जा सकती है। कई पुराने नामी होटल भी इस गली के पास हैं, जहां अपनी मनपसंद रोटी के साथ मांसाहारी व्यंजन भी मिलते हैं। एक उक्ति के अनुसार लखनऊ के व्यंजन विशेषज्ञों ने ही परतदार पराठे की खोज की है, जिसको तंदूरी परांठा भी कहा जाता है। लखनऊवालों ने भी कुलचे में विशेष प्रयोग किये। कुलचा नाहरी के विशेषज्ञ कारीगर हाजी जुबैर अहमद के अनुसार कुलचा अवधी व्यंजनों में शामिल खास रोटी है, जिसका साथ नाहरी बिना अधूरा है। लखनऊ के गिलामी कुलचे यानी दो भाग वाले कुलचे उनके परदादा ने तैयार किये थे। । इन्हें भी देखें: लखनऊ का रोटी बाजारचिकन, यहाँ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। | चिकन कढ़ाई और शिल्पकारों में उस्ताद कौन थे? | {
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} | Who were the masters of chikan embroidery and craftsmen? | Incidentally, the city is also the birthplace of British pop singer Cliff Richard.Lucknow Hindi has been inspiration from the movie industry since the beginning.It would not be an exaggeration to say that without Lucknowi touch, Bollywood never comes to the height where he is now.There are many screenwriters and lyricists from Awadh, such as Majrooh Sultanpuri, Cafe Azmi, Javed Akhtar, Ali Raza, Bhagwati Charan Verma, Dr. Kumud Nagar, Dr. Achala Nagar, Vajahat Mirza (Author of Mother India and Ganga Jamuna), Amritlal Nagar, Amritlal Nagar, Ali Sardar Jafri and KP Saxena who made Indian movies rich in talent.Many famous films have been made on Lucknow such as Shashi Kapoor's passion, Muzaffar Ali's Umrao Jaan and Gaman, Satyajit Rai's chess player and Ismail Merchant's Shakespeare Wala were also shot here.Bahu Begum, Mehboob's Mehndi, Mere Hujur, Chaudhi's Chand, Pakiza, I, Sahar, Anwar and many Hindi films are either made in Lucknow, or their background is from Lucknow.The film Gadar also shoots Lucknow in the scenes of Pakistan.It has Lal Bridge, Lucknow and La Martinier Collage shooting.The Awadh region has its own special Nawabi catering style.It has various types of biryanas, kebabs, korma, Nahari kulche, shirmal, zarda, rumali roti and Varki Parantha and Rotis etc., including Kakori kebabs, galavati kebabs, pati kebabs, boti kebabs, khumab, knees and shami kebabs.These dishes will be found in many places in the city.All these types and all budgets will be.While on the one hand, the butter cream and malai-galauri of Rama Asare Halwai, established in 1805, are famous, the kebabs of Haji Murad Ali's Tunde, found at Akbari Gate, are no less famous.Apart from this, there is no response to 'Dampukht' like Nawabi dish, lavishing onion and green chutney.Lucknow's chaat is one of the best chaat in the country.And at the end of the meal, the world-famous Lucknow paan which has no match.Awadhi cuisine of Lucknow is famous.There are also many types of rotis here.Similar loaves are still found in an old market here, but this market is the market of rotis.This is the market from Akbari Gate to behind the Nakhas post, where many other loaves like retail and hundreds will be found in hundreds of shirmal, naan, khameri roti, rumali roti, kulcha.There are about 15 shops of different types of rotis in this roti market of old Lucknow, where hot bread can be purchased from nine in the morning to nine in the morning.Many old -renowned hotels are also near this street, where carnivorous dishes are also found with their favorite bread.According to a utterance, the cuisine experts of Lucknow have discovered the layer paratha, which is also called Tandoori Paratha.The people of Lucknow also made special experiments in Kulche.According to Kulcha Nahari expert Haji Zubair Ahmed, Kulcha is a special roti involved in Awadhi cuisine, with which Nahari is incomplete without.The Gilami Kulcha i.e. two -part Kulche of Lucknow was prepared by his great -grandfather.,See also: Roti Bazaarchakan of Lucknow is an excellent specimen of embroidery here and Lucknowi Zardozi is a small scale industry here which makes his artistry impressed on clothes like kurta and sarees.Most of this industry is spread in the Chowk area of Old Lucknow. | {
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1370 | संयोग से यह शहर ब्रिटिश पॉप गायक क्लिफ़ रिचर्ड का भी जन्म-स्थान है। लखनऊ हिन्दी चलचित्र उद्योग की आरंभ से ही प्रेरणा रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि लखनवी स्पर्श के बिना, बॉलीवुड कभी उस ऊंचाई पर नहीं आ पाता, जहां वह अब है। अवध से कई पटकथा लेखक एवं गीतकार हैं, जैसे मजरूह सुलतानपुरी, कैफ़े आज़मी, जावेद अख्तर, अली रज़ा, भगवती चरण वर्मा, डॉ॰कुमुद नागर, डॉ॰अचला नागर, वजाहत मिर्ज़ा (मदर इंडिया एवं गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी एवं के पी सक्सेना जिन्होंने भारतीय चलचित्र को प्रतिभा से धनी बनाया। लखनऊ पर बहुत सी प्रसिद्ध फिल्में बनी हैं जैसे शशि कपूर की जुनून, मुज़फ्फर अली की उमराव जान एवं गमन, सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी और इस्माइल मर्चेंट की शेक्स्पियर वाला की भी आंशिक शूटिंग यहीं हुई थी। बहू बेगम, मेहबूब की मेहंदी, मेरे हुजूर, चौदहवीं का चांद, पाकीज़ा, मैं मेरी पत्नी और वो, सहर, अनवर और बहुत सी हिन्दी फिल्में या तो लखनऊ में बनी हैं, या उनकी पृष्ठभूमि लखनऊ की है। गदर फिल्म में भी पाकिस्तान के दृश्यों में लखनऊ की शूटिंग ही है। इसमें लाल पुल, लखनऊ एवं ला मार्टीनियर कालिज की शूटिंग हैं। अवध क्षेत्र की अपनी एक अलग खास नवाबी खानपान शैली है। इसमें विभिन्न तरह की बिरयानियां, कबाब, कोरमा, नाहरी कुल्चे, शीरमाल, ज़र्दा, रुमाली रोटी और वर्की परांठा और रोटियां आदि हैं, जिनमें काकोरी कबाब, गलावटी कबाब, पतीली कबाब, बोटी कबाब, घुटवां कबाब और शामी कबाब प्रमुख हैं। शहर में बहुत सी जगह ये व्यंजन मिलेंगे। ये सभी तरह के एवं सभी बजट के होंगे। जहां एक ओर १८०५ में स्थापित राम आसरे हलवाई की मक्खन मलाई एवं मलाई-गिलौरी प्रसिद्ध है, वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुण्डे के कबाब भी कम मशहूर नहीं हैं। इसके अलावा अन्य नवाबी पकवानो जैसे 'दमपुख़्त', लच्छेदार प्याज और हरी चटनी के साथ परोसे गय सीख-कबाब और रूमाली रोटी का भी जवाब नहीं है। लखनऊ की चाट देश की बेहतरीन चाट में से एक है। और खाने के अंत में विश्व-प्रसिद्ध लखनऊ के पान जिनका कोई सानी नहीं है। लखनऊ के अवधी व्यंजन जगप्रसिद्ध हैं। यहां के खानपान बहुत प्रकार की रोटियां भी होती हैं। ऐसी ही रोटियां यहां के एक पुराने बाज़ार में आज भी मिलती हैं, बल्कि ये बाजार रोटियों का बाजार ही है। अकबरी गेट से नक्खास चौकी के पीछे तक यह बाजार है, जहां फुटकर व सैकड़े के हिसाब से शीरमाल, नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी। पुराने लखनऊ के इस रोटी बाजार में विभिन्न प्रकार की रोटियों की लगभग १५ दुकानें हैं, जहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक गर्म रोटी खरीदी जा सकती है। कई पुराने नामी होटल भी इस गली के पास हैं, जहां अपनी मनपसंद रोटी के साथ मांसाहारी व्यंजन भी मिलते हैं। एक उक्ति के अनुसार लखनऊ के व्यंजन विशेषज्ञों ने ही परतदार पराठे की खोज की है, जिसको तंदूरी परांठा भी कहा जाता है। लखनऊवालों ने भी कुलचे में विशेष प्रयोग किये। कुलचा नाहरी के विशेषज्ञ कारीगर हाजी जुबैर अहमद के अनुसार कुलचा अवधी व्यंजनों में शामिल खास रोटी है, जिसका साथ नाहरी बिना अधूरा है। लखनऊ के गिलामी कुलचे यानी दो भाग वाले कुलचे उनके परदादा ने तैयार किये थे। । इन्हें भी देखें: लखनऊ का रोटी बाजारचिकन, यहाँ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। | कढ़ाई चिकन शैलियाँ कितने प्रकार की होती हैं? | {
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} | How many types of embroidered chikan styles are there? | Incidentally, the city is also the birthplace of British pop singer Cliff Richard.Lucknow Hindi has been inspiration from the movie industry since the beginning.It would not be an exaggeration to say that without Lucknowi touch, Bollywood never comes to the height where he is now.There are many screenwriters and lyricists from Awadh, such as Majrooh Sultanpuri, Cafe Azmi, Javed Akhtar, Ali Raza, Bhagwati Charan Verma, Dr. Kumud Nagar, Dr. Achala Nagar, Vajahat Mirza (Author of Mother India and Ganga Jamuna), Amritlal Nagar, Amritlal Nagar, Ali Sardar Jafri and KP Saxena who made Indian movies rich in talent.Many famous films have been made on Lucknow such as Shashi Kapoor's passion, Muzaffar Ali's Umrao Jaan and Gaman, Satyajit Rai's chess player and Ismail Merchant's Shakespeare Wala were also shot here.Bahu Begum, Mehboob's Mehndi, Mere Hujur, Chaudhi's Chand, Pakiza, I, Sahar, Anwar and many Hindi films are either made in Lucknow, or their background is from Lucknow.The film Gadar also shoots Lucknow in the scenes of Pakistan.It has Lal Bridge, Lucknow and La Martinier Collage shooting.The Awadh region has its own special Nawabi catering style.It has various types of biryanas, kebabs, korma, Nahari kulche, shirmal, zarda, rumali roti and Varki Parantha and Rotis etc., including Kakori kebabs, galavati kebabs, pati kebabs, boti kebabs, khumab, knees and shami kebabs.These dishes will be found in many places in the city.All these types and all budgets will be.While on the one hand, the butter cream and malai-galauri of Rama Asare Halwai, established in 1805, are famous, the kebabs of Haji Murad Ali's Tunde, found at Akbari Gate, are no less famous.Apart from this, there is no response to 'Dampukht' like Nawabi dish, lavishing onion and green chutney.Lucknow's chaat is one of the best chaat in the country.And at the end of the meal, the world-famous Lucknow paan which has no match.Awadhi cuisine of Lucknow is famous.There are also many types of rotis here.Similar loaves are still found in an old market here, but this market is the market of rotis.This is the market from Akbari Gate to behind the Nakhas post, where many other loaves like retail and hundreds will be found in hundreds of shirmal, naan, khameri roti, rumali roti, kulcha.There are about 15 shops of different types of rotis in this roti market of old Lucknow, where hot bread can be purchased from nine in the morning to nine in the morning.Many old -renowned hotels are also near this street, where carnivorous dishes are also found with their favorite bread.According to a utterance, the cuisine experts of Lucknow have discovered the layer paratha, which is also called Tandoori Paratha.The people of Lucknow also made special experiments in Kulche.According to Kulcha Nahari expert Haji Zubair Ahmed, Kulcha is a special roti involved in Awadhi cuisine, with which Nahari is incomplete without.The Gilami Kulcha i.e. two -part Kulche of Lucknow was prepared by his great -grandfather.,See also: Roti Bazaarchakan of Lucknow is an excellent specimen of embroidery here and Lucknowi Zardozi is a small scale industry here which makes his artistry impressed on clothes like kurta and sarees.Most of this industry is spread in the Chowk area of Old Lucknow. | {
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1371 | सड़क यातायातशहर में सार्वजनिक यातायात के उपलब्ध साधनों में सिटी बस सेवा, टैक्सी, साइकिल रिक्शा, ऑटोरिक्शा, टेम्पो एवं सीएनजी बसें हैं। सीएनजी को हाल ही में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु आरंभ किया गया है। नगर बस सेवा को लखनऊ महानगर परिवहन सेवा संचालित करता है। यह उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक इकाई है। शहर के हज़रतगंज चौराहे से चार राजमार्ग निकलते हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग २४ – दिल्ली को, राष्ट्रीय राजमार्ग २५ – झांसी और मध्य प्रदेश को, राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ – वाराणसी को एवं राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मोकामा, बिहार को। प्रमुख बस टर्मिनस में आलमबाग का डॉ॰भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस आता है। इसके अलावा अन्य प्रमुख बस टर्मिनस केसरबाग, चारबाग आते थे, जिनमें से चारबाग का बस टर्मिनस, जो चारबाग रेलवे स्टेशन के ठीक सामने था, नगर बस डिपो बना कर स्थानांतरित कर दिया गया है। यह रेलवे स्टेशन के सामने की भीड़ एवं कंजेशन को नियंत्रित करने हेतु किया गया है। लखनऊ में कई रेलवे स्टेशन हैं। शहर में मुख्य रेलवे स्टेशन चारबाग रेलवे स्टेशन है। इसकी शानदार महल रूपी इमारत १९२३ में बनी थी। मुख्य टर्मिनल उत्तर रेलवे का है (स्टेशन कोड: LKO)। दूसरा टर्मिनल पूर्वोत्तर रेलवे (एनईआर) मंडल का है। (स्टेशन कोड: LJN)। लखनऊ एक प्रधान जंक्शन स्टेशन है, जो भारत के लगभग सभी मुख्य शहरों से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है। यहां और १३ रेलवे स्टेशन हैं:अब मीटर गेज लाइन ऐशबाग से आरंभ होकर लखनऊ सिटी, डालीगंज एवं मोहीबुल्लापुर को जोड़ती हैं। अन्य उपनगरीय स्टेशनों में निम्न स्टेशन हैं:काकोरीमुख्य रेलवे स्टेशन पर वर्तमान में १५ प्लेटफ़ॉर्म हैं और इसके २००९ तक देश के व्यस्ततम स्टेशनों में से एक बनने की आशा है। | लखनऊ शहर को कितने राजमार्गों में बाटा गया है? | {
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336
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} | The city of Lucknow is divided into how many highways? | There are city bus service, taxi, cycle rickshaw, autorickshaw, tempo and CNG buses in the available means of public traffic in road traffic city.CNG has recently been started to control pollution.Lucknow Metropolitan Transport Service operates the city bus service.It is a unit of Uttar Pradesh State Road Transport Corporation.Four highways originate from Hazratganj intersection of the city: National Highway 24 - Delhi to Delhi, National Highway 25 - Jhansi and Madhya Pradesh, National Highway 58 - Varanasi and National Highway 24 Mokama, Bihar.Dr. Kabhimrao Ambedkar bus terminus of Alambagh comes in the major bus terminus.Apart from this, other major bus terminus used to come to Kesarbagh, Charbagh, out of which Charbagh's bus terminus, which was right in front of Charbagh railway station, has been transferred as a city bus depot.This has been done to control the crowd and congestion in front of the railway station.Lucknow has many railway stations.The main railway station in the city is Charbagh railway station.Its magnificent palace building was built in 1923.The main terminal is of Northern Railway (Station Code: LKO).The second terminal belongs to the Northeast Railway (NER) Board.(Station Code: LJN).Lucknow is a main junction station, which is connected by rail to almost all the main cities in India.There are more 13 railway stations here: Now the meter gauge line starts from Aishbagh and connects Lucknow City, Daliganj and Moibullapur.Other suburban stations have the following stations: Kakorimukh railway station currently has 15 platforms and is expected to be one of the busiest stations in the country by 2009. | {
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336
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"text": [
"Four"
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} |
1372 | सड़क यातायातशहर में सार्वजनिक यातायात के उपलब्ध साधनों में सिटी बस सेवा, टैक्सी, साइकिल रिक्शा, ऑटोरिक्शा, टेम्पो एवं सीएनजी बसें हैं। सीएनजी को हाल ही में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु आरंभ किया गया है। नगर बस सेवा को लखनऊ महानगर परिवहन सेवा संचालित करता है। यह उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक इकाई है। शहर के हज़रतगंज चौराहे से चार राजमार्ग निकलते हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग २४ – दिल्ली को, राष्ट्रीय राजमार्ग २५ – झांसी और मध्य प्रदेश को, राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ – वाराणसी को एवं राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मोकामा, बिहार को। प्रमुख बस टर्मिनस में आलमबाग का डॉ॰भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस आता है। इसके अलावा अन्य प्रमुख बस टर्मिनस केसरबाग, चारबाग आते थे, जिनमें से चारबाग का बस टर्मिनस, जो चारबाग रेलवे स्टेशन के ठीक सामने था, नगर बस डिपो बना कर स्थानांतरित कर दिया गया है। यह रेलवे स्टेशन के सामने की भीड़ एवं कंजेशन को नियंत्रित करने हेतु किया गया है। लखनऊ में कई रेलवे स्टेशन हैं। शहर में मुख्य रेलवे स्टेशन चारबाग रेलवे स्टेशन है। इसकी शानदार महल रूपी इमारत १९२३ में बनी थी। मुख्य टर्मिनल उत्तर रेलवे का है (स्टेशन कोड: LKO)। दूसरा टर्मिनल पूर्वोत्तर रेलवे (एनईआर) मंडल का है। (स्टेशन कोड: LJN)। लखनऊ एक प्रधान जंक्शन स्टेशन है, जो भारत के लगभग सभी मुख्य शहरों से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है। यहां और १३ रेलवे स्टेशन हैं:अब मीटर गेज लाइन ऐशबाग से आरंभ होकर लखनऊ सिटी, डालीगंज एवं मोहीबुल्लापुर को जोड़ती हैं। अन्य उपनगरीय स्टेशनों में निम्न स्टेशन हैं:काकोरीमुख्य रेलवे स्टेशन पर वर्तमान में १५ प्लेटफ़ॉर्म हैं और इसके २००९ तक देश के व्यस्ततम स्टेशनों में से एक बनने की आशा है। | आलमबाग में मुख्य बस टर्मिनल का क्या नाम है? | {
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"डॉ॰भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस"
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} | What is the name of the main bus terminal in Alambagh? | There are city bus service, taxi, cycle rickshaw, autorickshaw, tempo and CNG buses in the available means of public traffic in road traffic city.CNG has recently been started to control pollution.Lucknow Metropolitan Transport Service operates the city bus service.It is a unit of Uttar Pradesh State Road Transport Corporation.Four highways originate from Hazratganj intersection of the city: National Highway 24 - Delhi to Delhi, National Highway 25 - Jhansi and Madhya Pradesh, National Highway 58 - Varanasi and National Highway 24 Mokama, Bihar.Dr. Kabhimrao Ambedkar bus terminus of Alambagh comes in the major bus terminus.Apart from this, other major bus terminus used to come to Kesarbagh, Charbagh, out of which Charbagh's bus terminus, which was right in front of Charbagh railway station, has been transferred as a city bus depot.This has been done to control the crowd and congestion in front of the railway station.Lucknow has many railway stations.The main railway station in the city is Charbagh railway station.Its magnificent palace building was built in 1923.The main terminal is of Northern Railway (Station Code: LKO).The second terminal belongs to the Northeast Railway (NER) Board.(Station Code: LJN).Lucknow is a main junction station, which is connected by rail to almost all the main cities in India.There are more 13 railway stations here: Now the meter gauge line starts from Aishbagh and connects Lucknow City, Daliganj and Moibullapur.Other suburban stations have the following stations: Kakorimukh railway station currently has 15 platforms and is expected to be one of the busiest stations in the country by 2009. | {
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555
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"Dr. Bhimrao Ambedkar Bus Terminus"
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1373 | सड़क यातायातशहर में सार्वजनिक यातायात के उपलब्ध साधनों में सिटी बस सेवा, टैक्सी, साइकिल रिक्शा, ऑटोरिक्शा, टेम्पो एवं सीएनजी बसें हैं। सीएनजी को हाल ही में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु आरंभ किया गया है। नगर बस सेवा को लखनऊ महानगर परिवहन सेवा संचालित करता है। यह उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक इकाई है। शहर के हज़रतगंज चौराहे से चार राजमार्ग निकलते हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग २४ – दिल्ली को, राष्ट्रीय राजमार्ग २५ – झांसी और मध्य प्रदेश को, राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ – वाराणसी को एवं राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मोकामा, बिहार को। प्रमुख बस टर्मिनस में आलमबाग का डॉ॰भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस आता है। इसके अलावा अन्य प्रमुख बस टर्मिनस केसरबाग, चारबाग आते थे, जिनमें से चारबाग का बस टर्मिनस, जो चारबाग रेलवे स्टेशन के ठीक सामने था, नगर बस डिपो बना कर स्थानांतरित कर दिया गया है। यह रेलवे स्टेशन के सामने की भीड़ एवं कंजेशन को नियंत्रित करने हेतु किया गया है। लखनऊ में कई रेलवे स्टेशन हैं। शहर में मुख्य रेलवे स्टेशन चारबाग रेलवे स्टेशन है। इसकी शानदार महल रूपी इमारत १९२३ में बनी थी। मुख्य टर्मिनल उत्तर रेलवे का है (स्टेशन कोड: LKO)। दूसरा टर्मिनल पूर्वोत्तर रेलवे (एनईआर) मंडल का है। (स्टेशन कोड: LJN)। लखनऊ एक प्रधान जंक्शन स्टेशन है, जो भारत के लगभग सभी मुख्य शहरों से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है। यहां और १३ रेलवे स्टेशन हैं:अब मीटर गेज लाइन ऐशबाग से आरंभ होकर लखनऊ सिटी, डालीगंज एवं मोहीबुल्लापुर को जोड़ती हैं। अन्य उपनगरीय स्टेशनों में निम्न स्टेशन हैं:काकोरीमुख्य रेलवे स्टेशन पर वर्तमान में १५ प्लेटफ़ॉर्म हैं और इसके २००९ तक देश के व्यस्ततम स्टेशनों में से एक बनने की आशा है। | लखनऊ शहर के मुख्य रेलवे स्टेशन का क्या नाम है? | {
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"चारबाग रेलवे स्टेशन"
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} | What is the name of the main railway station in Lucknow city? | There are city bus service, taxi, cycle rickshaw, autorickshaw, tempo and CNG buses in the available means of public traffic in road traffic city.CNG has recently been started to control pollution.Lucknow Metropolitan Transport Service operates the city bus service.It is a unit of Uttar Pradesh State Road Transport Corporation.Four highways originate from Hazratganj intersection of the city: National Highway 24 - Delhi to Delhi, National Highway 25 - Jhansi and Madhya Pradesh, National Highway 58 - Varanasi and National Highway 24 Mokama, Bihar.Dr. Kabhimrao Ambedkar bus terminus of Alambagh comes in the major bus terminus.Apart from this, other major bus terminus used to come to Kesarbagh, Charbagh, out of which Charbagh's bus terminus, which was right in front of Charbagh railway station, has been transferred as a city bus depot.This has been done to control the crowd and congestion in front of the railway station.Lucknow has many railway stations.The main railway station in the city is Charbagh railway station.Its magnificent palace building was built in 1923.The main terminal is of Northern Railway (Station Code: LKO).The second terminal belongs to the Northeast Railway (NER) Board.(Station Code: LJN).Lucknow is a main junction station, which is connected by rail to almost all the main cities in India.There are more 13 railway stations here: Now the meter gauge line starts from Aishbagh and connects Lucknow City, Daliganj and Moibullapur.Other suburban stations have the following stations: Kakorimukh railway station currently has 15 platforms and is expected to be one of the busiest stations in the country by 2009. | {
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685
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"Charbagh railway station"
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1374 | सड़क यातायातशहर में सार्वजनिक यातायात के उपलब्ध साधनों में सिटी बस सेवा, टैक्सी, साइकिल रिक्शा, ऑटोरिक्शा, टेम्पो एवं सीएनजी बसें हैं। सीएनजी को हाल ही में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु आरंभ किया गया है। नगर बस सेवा को लखनऊ महानगर परिवहन सेवा संचालित करता है। यह उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक इकाई है। शहर के हज़रतगंज चौराहे से चार राजमार्ग निकलते हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग २४ – दिल्ली को, राष्ट्रीय राजमार्ग २५ – झांसी और मध्य प्रदेश को, राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ – वाराणसी को एवं राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मोकामा, बिहार को। प्रमुख बस टर्मिनस में आलमबाग का डॉ॰भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस आता है। इसके अलावा अन्य प्रमुख बस टर्मिनस केसरबाग, चारबाग आते थे, जिनमें से चारबाग का बस टर्मिनस, जो चारबाग रेलवे स्टेशन के ठीक सामने था, नगर बस डिपो बना कर स्थानांतरित कर दिया गया है। यह रेलवे स्टेशन के सामने की भीड़ एवं कंजेशन को नियंत्रित करने हेतु किया गया है। लखनऊ में कई रेलवे स्टेशन हैं। शहर में मुख्य रेलवे स्टेशन चारबाग रेलवे स्टेशन है। इसकी शानदार महल रूपी इमारत १९२३ में बनी थी। मुख्य टर्मिनल उत्तर रेलवे का है (स्टेशन कोड: LKO)। दूसरा टर्मिनल पूर्वोत्तर रेलवे (एनईआर) मंडल का है। (स्टेशन कोड: LJN)। लखनऊ एक प्रधान जंक्शन स्टेशन है, जो भारत के लगभग सभी मुख्य शहरों से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है। यहां और १३ रेलवे स्टेशन हैं:अब मीटर गेज लाइन ऐशबाग से आरंभ होकर लखनऊ सिटी, डालीगंज एवं मोहीबुल्लापुर को जोड़ती हैं। अन्य उपनगरीय स्टेशनों में निम्न स्टेशन हैं:काकोरीमुख्य रेलवे स्टेशन पर वर्तमान में १५ प्लेटफ़ॉर्म हैं और इसके २००९ तक देश के व्यस्ततम स्टेशनों में से एक बनने की आशा है। | काकोरी रेलवे स्टेशन में कितने प्लेटफॉर्म्स है ? | {
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"१५ प्लेटफ़ॉर्म"
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} | How many platforms does Kakori railway station have? | There are city bus service, taxi, cycle rickshaw, autorickshaw, tempo and CNG buses in the available means of public traffic in road traffic city.CNG has recently been started to control pollution.Lucknow Metropolitan Transport Service operates the city bus service.It is a unit of Uttar Pradesh State Road Transport Corporation.Four highways originate from Hazratganj intersection of the city: National Highway 24 - Delhi to Delhi, National Highway 25 - Jhansi and Madhya Pradesh, National Highway 58 - Varanasi and National Highway 24 Mokama, Bihar.Dr. Kabhimrao Ambedkar bus terminus of Alambagh comes in the major bus terminus.Apart from this, other major bus terminus used to come to Kesarbagh, Charbagh, out of which Charbagh's bus terminus, which was right in front of Charbagh railway station, has been transferred as a city bus depot.This has been done to control the crowd and congestion in front of the railway station.Lucknow has many railway stations.The main railway station in the city is Charbagh railway station.Its magnificent palace building was built in 1923.The main terminal is of Northern Railway (Station Code: LKO).The second terminal belongs to the Northeast Railway (NER) Board.(Station Code: LJN).Lucknow is a main junction station, which is connected by rail to almost all the main cities in India.There are more 13 railway stations here: Now the meter gauge line starts from Aishbagh and connects Lucknow City, Daliganj and Moibullapur.Other suburban stations have the following stations: Kakorimukh railway station currently has 15 platforms and is expected to be one of the busiest stations in the country by 2009. | {
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1377
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"15 Platforms"
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1375 | सड़क यातायातशहर में सार्वजनिक यातायात के उपलब्ध साधनों में सिटी बस सेवा, टैक्सी, साइकिल रिक्शा, ऑटोरिक्शा, टेम्पो एवं सीएनजी बसें हैं। सीएनजी को हाल ही में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु आरंभ किया गया है। नगर बस सेवा को लखनऊ महानगर परिवहन सेवा संचालित करता है। यह उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक इकाई है। शहर के हज़रतगंज चौराहे से चार राजमार्ग निकलते हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग २४ – दिल्ली को, राष्ट्रीय राजमार्ग २५ – झांसी और मध्य प्रदेश को, राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ – वाराणसी को एवं राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मोकामा, बिहार को। प्रमुख बस टर्मिनस में आलमबाग का डॉ॰भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस आता है। इसके अलावा अन्य प्रमुख बस टर्मिनस केसरबाग, चारबाग आते थे, जिनमें से चारबाग का बस टर्मिनस, जो चारबाग रेलवे स्टेशन के ठीक सामने था, नगर बस डिपो बना कर स्थानांतरित कर दिया गया है। यह रेलवे स्टेशन के सामने की भीड़ एवं कंजेशन को नियंत्रित करने हेतु किया गया है। लखनऊ में कई रेलवे स्टेशन हैं। शहर में मुख्य रेलवे स्टेशन चारबाग रेलवे स्टेशन है। इसकी शानदार महल रूपी इमारत १९२३ में बनी थी। मुख्य टर्मिनल उत्तर रेलवे का है (स्टेशन कोड: LKO)। दूसरा टर्मिनल पूर्वोत्तर रेलवे (एनईआर) मंडल का है। (स्टेशन कोड: LJN)। लखनऊ एक प्रधान जंक्शन स्टेशन है, जो भारत के लगभग सभी मुख्य शहरों से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है। यहां और १३ रेलवे स्टेशन हैं:अब मीटर गेज लाइन ऐशबाग से आरंभ होकर लखनऊ सिटी, डालीगंज एवं मोहीबुल्लापुर को जोड़ती हैं। अन्य उपनगरीय स्टेशनों में निम्न स्टेशन हैं:काकोरीमुख्य रेलवे स्टेशन पर वर्तमान में १५ प्लेटफ़ॉर्म हैं और इसके २००९ तक देश के व्यस्ततम स्टेशनों में से एक बनने की आशा है। | मोहिबुलपुर स्टेशन किसके द्वारा जुड़ी हुई हैं? | {
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} | Mohibulpur station is connected by? | There are city bus service, taxi, cycle rickshaw, autorickshaw, tempo and CNG buses in the available means of public traffic in road traffic city.CNG has recently been started to control pollution.Lucknow Metropolitan Transport Service operates the city bus service.It is a unit of Uttar Pradesh State Road Transport Corporation.Four highways originate from Hazratganj intersection of the city: National Highway 24 - Delhi to Delhi, National Highway 25 - Jhansi and Madhya Pradesh, National Highway 58 - Varanasi and National Highway 24 Mokama, Bihar.Dr. Kabhimrao Ambedkar bus terminus of Alambagh comes in the major bus terminus.Apart from this, other major bus terminus used to come to Kesarbagh, Charbagh, out of which Charbagh's bus terminus, which was right in front of Charbagh railway station, has been transferred as a city bus depot.This has been done to control the crowd and congestion in front of the railway station.Lucknow has many railway stations.The main railway station in the city is Charbagh railway station.Its magnificent palace building was built in 1923.The main terminal is of Northern Railway (Station Code: LKO).The second terminal belongs to the Northeast Railway (NER) Board.(Station Code: LJN).Lucknow is a main junction station, which is connected by rail to almost all the main cities in India.There are more 13 railway stations here: Now the meter gauge line starts from Aishbagh and connects Lucknow City, Daliganj and Moibullapur.Other suburban stations have the following stations: Kakorimukh railway station currently has 15 platforms and is expected to be one of the busiest stations in the country by 2009. | {
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1376 | सन २००२ से पहले, भारत की आम जनता के लोग केवल गिने-चुने राष्ट्रीय त्योहारों को छोड़ सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज फहरा नहीं सकते थे। एक उद्योगपति, नवीन जिंदल ने, दिल्ली उच्च न्यायालय में, इस प्रतिबंध को हटाने के लिए जनहित में एक याचिका दायर की। जिंदल ने जान बूझ कर, झंडा संहिता का उल्लंघन करते हुए अपने कार्यालय की इमारत पर झंडा फहराया। ध्वज को जब्त कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाने की चेतावनी दी गई। जिंदल ने बहस की कि एक नागरिक के रूप में मर्यादा और सम्मान के साथ झंडा फहराना उनका अधिकार है और यह एक तरह से भारत के लिए अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक माध्यम है। तदोपरांत केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने, भारतीय झंडा संहिता में २६ जनवरी २००२, को संशोधन किए जिसमें आम जनता को वर्ष के सभी दिनों झंडा फहराने की अनुमति दी गयी और ध्वज की गरिमा, सम्मान की रक्षा करने को कहा गया। भारतीय संघ में वी॰ यशवंत शर्मा के मामले में कहा गया कि यह ध्वज संहिता एक क़ानून नहीं है, संहिता के प्रतिबंधों का पालन करना होगा और राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान को बनाए रखना होगा। राष्ट्रीय ध्वज को फहराना एक पूर्ण अधिकार नहीं है, पर इस का पालन संविधान के अनुच्छेद ५१-ए के अनुसार करना होगा। भारतीय कानून के अनुसार ध्वज को हमेशा 'गरिमा, निष्ठा और सम्मान' के साथ देखना चाहिए। "भारत की झंडा संहिता-२००२", ने प्रतीकों और नामों के (अनुचित प्रयोग निवारण) अधिनियम, १९५०" का अतिक्रमण किया और अब वह ध्वज प्रदर्शन और उपयोग का नियंत्रण करता है। सरकारी नियमों में कहा गया है कि झंडे का स्पर्श कभी भी जमीन या पानी के साथ नहीं होना चाहिए। उस का प्रयोग मेजपोश के रूप में, या मंच पर नहीं ढका जा सकता, इससे किसी मूर्ति को ढका नहीं जा सकता न ही किसी आधारशिला पर डाला जा सकता था। सन २००५ तक इसे पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता था। पर ५ जुलाई २००५, को भारत सरकार ने संहिता में संशोधन किया और ध्वज को एक पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग किये जाने की अनुमति दी। हालाँकि इसका प्रयोग कमर के नीचे वाले कपडे के रूप में या जांघिये के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय ध्वज को तकिये के रूप में या रूमाल के रूप में करने पर निषेध है। झंडे को जानबूझकर उल्टा रखा नहीं किया जा सकता, किसी में डुबाया नहीं जा सकता, या फूलों की पंखुडियों के अलावा अन्य वस्तु नहीं रखी जा सकती। किसी प्रकार का सरनामा झंडे पर अंकित नहीं किया जा सकता है। झंडे को संभालने और प्रदर्शित करने के अनेक परंपरागत नियमों का पालन करना चाहिए। यदि खुले में झंडा फहराया जा रहा है तो हमेशा सूर्योदय पर फहराया जाना चाहिए और सूर्यास्त पर उतार देना चाहिए चाहे मौसम की स्थिति कैसी भी हो। 'कुछ विशेष परिस्थितियों' में ध्वज को रात के समय सरकारी इमारत पर फहराया जा सकता है। झंडे का चित्रण, प्रदर्शन, उल्टा नहीं हो सकता ना ही इसे उल्टा फहराया जा सकता है। संहिता परंपरा में यह भी बताया गया है कि इसे लंब रूप में लटकाया भी नहीं जा सकता। झंडे को ९० अंश में घुमाया नहीं जा सकता या उल्टा नहीं किया जा सकता। कोई भी व्यक्ति ध्वज को एक किताब के समान ऊपर से नीचे और बाएँ से दाएँ पढ़ सकता है, यदि इसे घुमाया जाए तो परिणाम भी एक ही होना चाहिए। झंडे को बुरी और गंदी स्थिति में प्रदर्शित करना भी अपमान है। यही नियम ध्वज फहराते समय ध्वज स्तंभों या रस्सियों के लिए है। इन का रखरखाव अच्छा होना चाहिए। झंडे को सही रूप में प्रदर्शित करने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। यदि ये किसी भी मंच के पीछे दीवार पर समानान्तर रूप से फैला दिए गए हैं तो उनका फहराव एक दूसरे के पास होने चाहिए और केसरिया रंग सबसे ऊपर होना चाहिए। यदि ध्वज दीवार पर एक छोटे से ध्वज स्तम्भ पर प्रदर्शित है तो उसे एक कोण पर रख कर लटकाना चाहिए। यदि दो राष्ट्रीय झंडे प्रदर्शित किए जा रहे हैं तो उल्टी दिशा में रखना चाहिए, उनके फहराव करीब होना चाहिए और उन्हें पूरी तरह फैलाना चाहिए। झंडे का प्रयोग किसी भी मेज, मंच या भवनों, या किसी घेराव को ढकने के लिए नहीं करना चाहिए। जब राष्ट्रीय ध्वज किसी कम्पनी में अन्य देशों के ध्वजों के साथ बाहर खुले में फहराया जा रहा हो तो उसके लिए भी अनेक नियमों का पालन करना होगा। उसे हमेशा सम्मान दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि झंडा सबसे दाईं ओर (प्रेक्षकों के लिए बाईं ओर) हो। लाटिन वर्णमाला के अनुसार अन्य देशों के झंडे व्यवस्थित होने चाहिए। सभी झंडे लगभग एक ही आकार के होने चाहिए, कोई भी ध्वज भारतीय ध्वज की तुलना में बड़ा नहीं होना चाहिए। प्रत्येक देश का झंडा एक अलग स्तम्भ पर होना चाहिए, किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज एक के ऊपर एक, एक ही स्तम्भ पर फहराना नहीं चाहिए। ऐसे समय में भारतीय ध्वज को शुरू में, अंत में रखा जाए और वर्णक्रम में अन्य देशों के साथ भी रखा जाए। यदि झंडों को गोलाकार में फहराना हो तो राष्ट्रीय ध्वज को चक्र के शुरुआत में रख कर अन्य देशों के झंडे को दक्षिणावर्त तरीके से रखा जाना चाहिए, जब तक कि कोई ध्वज राष्ट्रीय ध्वज के बगल में न आ जाए। | जब संयुक्त राष्ट्र के ध्वज को भारतीय ध्वज के साथ फहराया जाता है तो इसे कितने दिशाओ में प्रदर्शित करना चाहिए ? | {
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} | In how many directions should the UN flag be displayed when it is flown alongside the Indian flag? | Prior to 2002, people of the general public of India could not hoist the national flag in public except only a few national festivals.An industrialist, Naveen Jindal, in the Delhi High Court, filed a petition in the public interest to lift this ban.Jindal deliberately hoisted the flag on his office building, violating the flag code.The flag was confiscated and warned to prosecute them.Jindal argued that it is his right to hoist the flag with dignity and respect as a citizen and it is a medium to express his love for India in a way.Subsequently, the Union Cabinet amended the Indian Flag Code on 24 January 2002, in which the general public was allowed to hoist the flag all days of the year and asked to protect the dignity, honor of the flag.In the case of V Yashwant Sharma in the Indian Union, it was said that this Flag Code is not a law, the sanctions of the Code will have to follow and maintain the honor of the national flag.It is not a complete right to hoist the national flag, but it has to be followed according to Article 51-A of the Constitution.According to Indian law, the flag should always be seen with 'dignity, loyalty and honor'."Flag Code-2002 of India", has encroached the symbols and names (inappropriate use) Act, 1950 "and now he controls the flag performance and use. Government rules states that the touch of the flag everIt should not be with land or water. It cannot be used as a migration, or on the stage, no idol could be covered or put on any foundation.In or as uniform could not be used. But on 5 July 2005, the Government of India amended the Code and allowed the flag to be used as a dress or as uniform. Although its use of its useCan not be used as a cloth bottom or as a thigh.Can not go, or other items other than the petals of flower cannot be kept. Any type of virtue cannot be inscribed on the flag. Many traditional rules of handling and displaying the flag should be followed.If the flag is being hoisted in the open, then it should always be hoisted at sunrise and should be removed at sunset, no matter what the weather is.In 'certain special circumstances', the flag can be hoisted on the government building at night.The depiction of the flag, performance, cannot be upside down, nor can it be hoisted upside down.The Samhita tradition also states that it cannot be hung in a long form.The flag cannot be rotated in 90 degrees or cannot be upside down.Any person can read the flag from top to bottom and left to right, if it is rotated then the result should also be the same.It is also an insult to display the flag in a bad and dirty state.The same rule is for flag pillars or ropes while hoisting the flag.The maintenance of these should be good.Some rules have to be followed to display the flag correctly.If they are spread parallel on the wall behind any platform, then they should be hoisted with each other and the saffron color should be at the top.If the flag is displayed on a small flag column on the wall, it should be placed at an angle and hanging it.If two national flags are being displayed, then it should be kept in the opposite direction, their flourish should be closer and they should be spread completely.The flag should not be used to cover any table, stage or buildings, or any siege.When the national flag is being hoisted in the open with the flags of other countries in a company, then many rules will have to be followed for it.He should always be respected.This means that the flag should be the most right (to the left for the observers).According to Latin alphabet, flags of other countries should be arranged.All flags should be almost the same size, no flag should be larger than the Indian flag.The flag of each country should be on a separate pillar, the national flag of any country should not be hoisted on one, one column on one.At such a time, the Indian flag should be placed in the beginning, finally and also kept with other countries in the spectrum.If the flags are to be hoisted in the circular, the national flag should be placed at the beginning of the cycle and the flag of other countries should be placed clockwise until a flag comes next to the national flag. | {
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1377 | सन २००२ से पहले, भारत की आम जनता के लोग केवल गिने-चुने राष्ट्रीय त्योहारों को छोड़ सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज फहरा नहीं सकते थे। एक उद्योगपति, नवीन जिंदल ने, दिल्ली उच्च न्यायालय में, इस प्रतिबंध को हटाने के लिए जनहित में एक याचिका दायर की। जिंदल ने जान बूझ कर, झंडा संहिता का उल्लंघन करते हुए अपने कार्यालय की इमारत पर झंडा फहराया। ध्वज को जब्त कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाने की चेतावनी दी गई। जिंदल ने बहस की कि एक नागरिक के रूप में मर्यादा और सम्मान के साथ झंडा फहराना उनका अधिकार है और यह एक तरह से भारत के लिए अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक माध्यम है। तदोपरांत केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने, भारतीय झंडा संहिता में २६ जनवरी २००२, को संशोधन किए जिसमें आम जनता को वर्ष के सभी दिनों झंडा फहराने की अनुमति दी गयी और ध्वज की गरिमा, सम्मान की रक्षा करने को कहा गया। भारतीय संघ में वी॰ यशवंत शर्मा के मामले में कहा गया कि यह ध्वज संहिता एक क़ानून नहीं है, संहिता के प्रतिबंधों का पालन करना होगा और राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान को बनाए रखना होगा। राष्ट्रीय ध्वज को फहराना एक पूर्ण अधिकार नहीं है, पर इस का पालन संविधान के अनुच्छेद ५१-ए के अनुसार करना होगा। भारतीय कानून के अनुसार ध्वज को हमेशा 'गरिमा, निष्ठा और सम्मान' के साथ देखना चाहिए। "भारत की झंडा संहिता-२००२", ने प्रतीकों और नामों के (अनुचित प्रयोग निवारण) अधिनियम, १९५०" का अतिक्रमण किया और अब वह ध्वज प्रदर्शन और उपयोग का नियंत्रण करता है। सरकारी नियमों में कहा गया है कि झंडे का स्पर्श कभी भी जमीन या पानी के साथ नहीं होना चाहिए। उस का प्रयोग मेजपोश के रूप में, या मंच पर नहीं ढका जा सकता, इससे किसी मूर्ति को ढका नहीं जा सकता न ही किसी आधारशिला पर डाला जा सकता था। सन २००५ तक इसे पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता था। पर ५ जुलाई २००५, को भारत सरकार ने संहिता में संशोधन किया और ध्वज को एक पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग किये जाने की अनुमति दी। हालाँकि इसका प्रयोग कमर के नीचे वाले कपडे के रूप में या जांघिये के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय ध्वज को तकिये के रूप में या रूमाल के रूप में करने पर निषेध है। झंडे को जानबूझकर उल्टा रखा नहीं किया जा सकता, किसी में डुबाया नहीं जा सकता, या फूलों की पंखुडियों के अलावा अन्य वस्तु नहीं रखी जा सकती। किसी प्रकार का सरनामा झंडे पर अंकित नहीं किया जा सकता है। झंडे को संभालने और प्रदर्शित करने के अनेक परंपरागत नियमों का पालन करना चाहिए। यदि खुले में झंडा फहराया जा रहा है तो हमेशा सूर्योदय पर फहराया जाना चाहिए और सूर्यास्त पर उतार देना चाहिए चाहे मौसम की स्थिति कैसी भी हो। 'कुछ विशेष परिस्थितियों' में ध्वज को रात के समय सरकारी इमारत पर फहराया जा सकता है। झंडे का चित्रण, प्रदर्शन, उल्टा नहीं हो सकता ना ही इसे उल्टा फहराया जा सकता है। संहिता परंपरा में यह भी बताया गया है कि इसे लंब रूप में लटकाया भी नहीं जा सकता। झंडे को ९० अंश में घुमाया नहीं जा सकता या उल्टा नहीं किया जा सकता। कोई भी व्यक्ति ध्वज को एक किताब के समान ऊपर से नीचे और बाएँ से दाएँ पढ़ सकता है, यदि इसे घुमाया जाए तो परिणाम भी एक ही होना चाहिए। झंडे को बुरी और गंदी स्थिति में प्रदर्शित करना भी अपमान है। यही नियम ध्वज फहराते समय ध्वज स्तंभों या रस्सियों के लिए है। इन का रखरखाव अच्छा होना चाहिए। झंडे को सही रूप में प्रदर्शित करने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। यदि ये किसी भी मंच के पीछे दीवार पर समानान्तर रूप से फैला दिए गए हैं तो उनका फहराव एक दूसरे के पास होने चाहिए और केसरिया रंग सबसे ऊपर होना चाहिए। यदि ध्वज दीवार पर एक छोटे से ध्वज स्तम्भ पर प्रदर्शित है तो उसे एक कोण पर रख कर लटकाना चाहिए। यदि दो राष्ट्रीय झंडे प्रदर्शित किए जा रहे हैं तो उल्टी दिशा में रखना चाहिए, उनके फहराव करीब होना चाहिए और उन्हें पूरी तरह फैलाना चाहिए। झंडे का प्रयोग किसी भी मेज, मंच या भवनों, या किसी घेराव को ढकने के लिए नहीं करना चाहिए। जब राष्ट्रीय ध्वज किसी कम्पनी में अन्य देशों के ध्वजों के साथ बाहर खुले में फहराया जा रहा हो तो उसके लिए भी अनेक नियमों का पालन करना होगा। उसे हमेशा सम्मान दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि झंडा सबसे दाईं ओर (प्रेक्षकों के लिए बाईं ओर) हो। लाटिन वर्णमाला के अनुसार अन्य देशों के झंडे व्यवस्थित होने चाहिए। सभी झंडे लगभग एक ही आकार के होने चाहिए, कोई भी ध्वज भारतीय ध्वज की तुलना में बड़ा नहीं होना चाहिए। प्रत्येक देश का झंडा एक अलग स्तम्भ पर होना चाहिए, किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज एक के ऊपर एक, एक ही स्तम्भ पर फहराना नहीं चाहिए। ऐसे समय में भारतीय ध्वज को शुरू में, अंत में रखा जाए और वर्णक्रम में अन्य देशों के साथ भी रखा जाए। यदि झंडों को गोलाकार में फहराना हो तो राष्ट्रीय ध्वज को चक्र के शुरुआत में रख कर अन्य देशों के झंडे को दक्षिणावर्त तरीके से रखा जाना चाहिए, जब तक कि कोई ध्वज राष्ट्रीय ध्वज के बगल में न आ जाए। | राष्ट्रीय ध्वज को हमेशा किस समय फहराना चाहिए ? | {
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"सूर्योदय पर"
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2217
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} | At what time should the national flag always be flown? | Prior to 2002, people of the general public of India could not hoist the national flag in public except only a few national festivals.An industrialist, Naveen Jindal, in the Delhi High Court, filed a petition in the public interest to lift this ban.Jindal deliberately hoisted the flag on his office building, violating the flag code.The flag was confiscated and warned to prosecute them.Jindal argued that it is his right to hoist the flag with dignity and respect as a citizen and it is a medium to express his love for India in a way.Subsequently, the Union Cabinet amended the Indian Flag Code on 24 January 2002, in which the general public was allowed to hoist the flag all days of the year and asked to protect the dignity, honor of the flag.In the case of V Yashwant Sharma in the Indian Union, it was said that this Flag Code is not a law, the sanctions of the Code will have to follow and maintain the honor of the national flag.It is not a complete right to hoist the national flag, but it has to be followed according to Article 51-A of the Constitution.According to Indian law, the flag should always be seen with 'dignity, loyalty and honor'."Flag Code-2002 of India", has encroached the symbols and names (inappropriate use) Act, 1950 "and now he controls the flag performance and use. Government rules states that the touch of the flag everIt should not be with land or water. It cannot be used as a migration, or on the stage, no idol could be covered or put on any foundation.In or as uniform could not be used. But on 5 July 2005, the Government of India amended the Code and allowed the flag to be used as a dress or as uniform. Although its use of its useCan not be used as a cloth bottom or as a thigh.Can not go, or other items other than the petals of flower cannot be kept. Any type of virtue cannot be inscribed on the flag. Many traditional rules of handling and displaying the flag should be followed.If the flag is being hoisted in the open, then it should always be hoisted at sunrise and should be removed at sunset, no matter what the weather is.In 'certain special circumstances', the flag can be hoisted on the government building at night.The depiction of the flag, performance, cannot be upside down, nor can it be hoisted upside down.The Samhita tradition also states that it cannot be hung in a long form.The flag cannot be rotated in 90 degrees or cannot be upside down.Any person can read the flag from top to bottom and left to right, if it is rotated then the result should also be the same.It is also an insult to display the flag in a bad and dirty state.The same rule is for flag pillars or ropes while hoisting the flag.The maintenance of these should be good.Some rules have to be followed to display the flag correctly.If they are spread parallel on the wall behind any platform, then they should be hoisted with each other and the saffron color should be at the top.If the flag is displayed on a small flag column on the wall, it should be placed at an angle and hanging it.If two national flags are being displayed, then it should be kept in the opposite direction, their flourish should be closer and they should be spread completely.The flag should not be used to cover any table, stage or buildings, or any siege.When the national flag is being hoisted in the open with the flags of other countries in a company, then many rules will have to be followed for it.He should always be respected.This means that the flag should be the most right (to the left for the observers).According to Latin alphabet, flags of other countries should be arranged.All flags should be almost the same size, no flag should be larger than the Indian flag.The flag of each country should be on a separate pillar, the national flag of any country should not be hoisted on one, one column on one.At such a time, the Indian flag should be placed in the beginning, finally and also kept with other countries in the spectrum.If the flags are to be hoisted in the circular, the national flag should be placed at the beginning of the cycle and the flag of other countries should be placed clockwise until a flag comes next to the national flag. | {
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"At sunrise"
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1378 | सन २००२ से पहले, भारत की आम जनता के लोग केवल गिने-चुने राष्ट्रीय त्योहारों को छोड़ सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज फहरा नहीं सकते थे। एक उद्योगपति, नवीन जिंदल ने, दिल्ली उच्च न्यायालय में, इस प्रतिबंध को हटाने के लिए जनहित में एक याचिका दायर की। जिंदल ने जान बूझ कर, झंडा संहिता का उल्लंघन करते हुए अपने कार्यालय की इमारत पर झंडा फहराया। ध्वज को जब्त कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाने की चेतावनी दी गई। जिंदल ने बहस की कि एक नागरिक के रूप में मर्यादा और सम्मान के साथ झंडा फहराना उनका अधिकार है और यह एक तरह से भारत के लिए अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक माध्यम है। तदोपरांत केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने, भारतीय झंडा संहिता में २६ जनवरी २००२, को संशोधन किए जिसमें आम जनता को वर्ष के सभी दिनों झंडा फहराने की अनुमति दी गयी और ध्वज की गरिमा, सम्मान की रक्षा करने को कहा गया। भारतीय संघ में वी॰ यशवंत शर्मा के मामले में कहा गया कि यह ध्वज संहिता एक क़ानून नहीं है, संहिता के प्रतिबंधों का पालन करना होगा और राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान को बनाए रखना होगा। राष्ट्रीय ध्वज को फहराना एक पूर्ण अधिकार नहीं है, पर इस का पालन संविधान के अनुच्छेद ५१-ए के अनुसार करना होगा। भारतीय कानून के अनुसार ध्वज को हमेशा 'गरिमा, निष्ठा और सम्मान' के साथ देखना चाहिए। "भारत की झंडा संहिता-२००२", ने प्रतीकों और नामों के (अनुचित प्रयोग निवारण) अधिनियम, १९५०" का अतिक्रमण किया और अब वह ध्वज प्रदर्शन और उपयोग का नियंत्रण करता है। सरकारी नियमों में कहा गया है कि झंडे का स्पर्श कभी भी जमीन या पानी के साथ नहीं होना चाहिए। उस का प्रयोग मेजपोश के रूप में, या मंच पर नहीं ढका जा सकता, इससे किसी मूर्ति को ढका नहीं जा सकता न ही किसी आधारशिला पर डाला जा सकता था। सन २००५ तक इसे पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता था। पर ५ जुलाई २००५, को भारत सरकार ने संहिता में संशोधन किया और ध्वज को एक पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग किये जाने की अनुमति दी। हालाँकि इसका प्रयोग कमर के नीचे वाले कपडे के रूप में या जांघिये के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय ध्वज को तकिये के रूप में या रूमाल के रूप में करने पर निषेध है। झंडे को जानबूझकर उल्टा रखा नहीं किया जा सकता, किसी में डुबाया नहीं जा सकता, या फूलों की पंखुडियों के अलावा अन्य वस्तु नहीं रखी जा सकती। किसी प्रकार का सरनामा झंडे पर अंकित नहीं किया जा सकता है। झंडे को संभालने और प्रदर्शित करने के अनेक परंपरागत नियमों का पालन करना चाहिए। यदि खुले में झंडा फहराया जा रहा है तो हमेशा सूर्योदय पर फहराया जाना चाहिए और सूर्यास्त पर उतार देना चाहिए चाहे मौसम की स्थिति कैसी भी हो। 'कुछ विशेष परिस्थितियों' में ध्वज को रात के समय सरकारी इमारत पर फहराया जा सकता है। झंडे का चित्रण, प्रदर्शन, उल्टा नहीं हो सकता ना ही इसे उल्टा फहराया जा सकता है। संहिता परंपरा में यह भी बताया गया है कि इसे लंब रूप में लटकाया भी नहीं जा सकता। झंडे को ९० अंश में घुमाया नहीं जा सकता या उल्टा नहीं किया जा सकता। कोई भी व्यक्ति ध्वज को एक किताब के समान ऊपर से नीचे और बाएँ से दाएँ पढ़ सकता है, यदि इसे घुमाया जाए तो परिणाम भी एक ही होना चाहिए। झंडे को बुरी और गंदी स्थिति में प्रदर्शित करना भी अपमान है। यही नियम ध्वज फहराते समय ध्वज स्तंभों या रस्सियों के लिए है। इन का रखरखाव अच्छा होना चाहिए। झंडे को सही रूप में प्रदर्शित करने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। यदि ये किसी भी मंच के पीछे दीवार पर समानान्तर रूप से फैला दिए गए हैं तो उनका फहराव एक दूसरे के पास होने चाहिए और केसरिया रंग सबसे ऊपर होना चाहिए। यदि ध्वज दीवार पर एक छोटे से ध्वज स्तम्भ पर प्रदर्शित है तो उसे एक कोण पर रख कर लटकाना चाहिए। यदि दो राष्ट्रीय झंडे प्रदर्शित किए जा रहे हैं तो उल्टी दिशा में रखना चाहिए, उनके फहराव करीब होना चाहिए और उन्हें पूरी तरह फैलाना चाहिए। झंडे का प्रयोग किसी भी मेज, मंच या भवनों, या किसी घेराव को ढकने के लिए नहीं करना चाहिए। जब राष्ट्रीय ध्वज किसी कम्पनी में अन्य देशों के ध्वजों के साथ बाहर खुले में फहराया जा रहा हो तो उसके लिए भी अनेक नियमों का पालन करना होगा। उसे हमेशा सम्मान दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि झंडा सबसे दाईं ओर (प्रेक्षकों के लिए बाईं ओर) हो। लाटिन वर्णमाला के अनुसार अन्य देशों के झंडे व्यवस्थित होने चाहिए। सभी झंडे लगभग एक ही आकार के होने चाहिए, कोई भी ध्वज भारतीय ध्वज की तुलना में बड़ा नहीं होना चाहिए। प्रत्येक देश का झंडा एक अलग स्तम्भ पर होना चाहिए, किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज एक के ऊपर एक, एक ही स्तम्भ पर फहराना नहीं चाहिए। ऐसे समय में भारतीय ध्वज को शुरू में, अंत में रखा जाए और वर्णक्रम में अन्य देशों के साथ भी रखा जाए। यदि झंडों को गोलाकार में फहराना हो तो राष्ट्रीय ध्वज को चक्र के शुरुआत में रख कर अन्य देशों के झंडे को दक्षिणावर्त तरीके से रखा जाना चाहिए, जब तक कि कोई ध्वज राष्ट्रीय ध्वज के बगल में न आ जाए। | भारत में आम जनता को वर्ष के सभी दिनों में झंडा फहराने की अनुमति कब मिली थी ? | {
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"२६ जनवरी २००२"
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618
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} | When was the general public in India allowed to hoist the flag on all days of the year? | Prior to 2002, people of the general public of India could not hoist the national flag in public except only a few national festivals.An industrialist, Naveen Jindal, in the Delhi High Court, filed a petition in the public interest to lift this ban.Jindal deliberately hoisted the flag on his office building, violating the flag code.The flag was confiscated and warned to prosecute them.Jindal argued that it is his right to hoist the flag with dignity and respect as a citizen and it is a medium to express his love for India in a way.Subsequently, the Union Cabinet amended the Indian Flag Code on 24 January 2002, in which the general public was allowed to hoist the flag all days of the year and asked to protect the dignity, honor of the flag.In the case of V Yashwant Sharma in the Indian Union, it was said that this Flag Code is not a law, the sanctions of the Code will have to follow and maintain the honor of the national flag.It is not a complete right to hoist the national flag, but it has to be followed according to Article 51-A of the Constitution.According to Indian law, the flag should always be seen with 'dignity, loyalty and honor'."Flag Code-2002 of India", has encroached the symbols and names (inappropriate use) Act, 1950 "and now he controls the flag performance and use. Government rules states that the touch of the flag everIt should not be with land or water. It cannot be used as a migration, or on the stage, no idol could be covered or put on any foundation.In or as uniform could not be used. But on 5 July 2005, the Government of India amended the Code and allowed the flag to be used as a dress or as uniform. Although its use of its useCan not be used as a cloth bottom or as a thigh.Can not go, or other items other than the petals of flower cannot be kept. Any type of virtue cannot be inscribed on the flag. Many traditional rules of handling and displaying the flag should be followed.If the flag is being hoisted in the open, then it should always be hoisted at sunrise and should be removed at sunset, no matter what the weather is.In 'certain special circumstances', the flag can be hoisted on the government building at night.The depiction of the flag, performance, cannot be upside down, nor can it be hoisted upside down.The Samhita tradition also states that it cannot be hung in a long form.The flag cannot be rotated in 90 degrees or cannot be upside down.Any person can read the flag from top to bottom and left to right, if it is rotated then the result should also be the same.It is also an insult to display the flag in a bad and dirty state.The same rule is for flag pillars or ropes while hoisting the flag.The maintenance of these should be good.Some rules have to be followed to display the flag correctly.If they are spread parallel on the wall behind any platform, then they should be hoisted with each other and the saffron color should be at the top.If the flag is displayed on a small flag column on the wall, it should be placed at an angle and hanging it.If two national flags are being displayed, then it should be kept in the opposite direction, their flourish should be closer and they should be spread completely.The flag should not be used to cover any table, stage or buildings, or any siege.When the national flag is being hoisted in the open with the flags of other countries in a company, then many rules will have to be followed for it.He should always be respected.This means that the flag should be the most right (to the left for the observers).According to Latin alphabet, flags of other countries should be arranged.All flags should be almost the same size, no flag should be larger than the Indian flag.The flag of each country should be on a separate pillar, the national flag of any country should not be hoisted on one, one column on one.At such a time, the Indian flag should be placed in the beginning, finally and also kept with other countries in the spectrum.If the flags are to be hoisted in the circular, the national flag should be placed at the beginning of the cycle and the flag of other countries should be placed clockwise until a flag comes next to the national flag. | {
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"26 January 2002"
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1379 | सन २००२ से पहले, भारत की आम जनता के लोग केवल गिने-चुने राष्ट्रीय त्योहारों को छोड़ सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज फहरा नहीं सकते थे। एक उद्योगपति, नवीन जिंदल ने, दिल्ली उच्च न्यायालय में, इस प्रतिबंध को हटाने के लिए जनहित में एक याचिका दायर की। जिंदल ने जान बूझ कर, झंडा संहिता का उल्लंघन करते हुए अपने कार्यालय की इमारत पर झंडा फहराया। ध्वज को जब्त कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाने की चेतावनी दी गई। जिंदल ने बहस की कि एक नागरिक के रूप में मर्यादा और सम्मान के साथ झंडा फहराना उनका अधिकार है और यह एक तरह से भारत के लिए अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक माध्यम है। तदोपरांत केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने, भारतीय झंडा संहिता में २६ जनवरी २००२, को संशोधन किए जिसमें आम जनता को वर्ष के सभी दिनों झंडा फहराने की अनुमति दी गयी और ध्वज की गरिमा, सम्मान की रक्षा करने को कहा गया। भारतीय संघ में वी॰ यशवंत शर्मा के मामले में कहा गया कि यह ध्वज संहिता एक क़ानून नहीं है, संहिता के प्रतिबंधों का पालन करना होगा और राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान को बनाए रखना होगा। राष्ट्रीय ध्वज को फहराना एक पूर्ण अधिकार नहीं है, पर इस का पालन संविधान के अनुच्छेद ५१-ए के अनुसार करना होगा। भारतीय कानून के अनुसार ध्वज को हमेशा 'गरिमा, निष्ठा और सम्मान' के साथ देखना चाहिए। "भारत की झंडा संहिता-२००२", ने प्रतीकों और नामों के (अनुचित प्रयोग निवारण) अधिनियम, १९५०" का अतिक्रमण किया और अब वह ध्वज प्रदर्शन और उपयोग का नियंत्रण करता है। सरकारी नियमों में कहा गया है कि झंडे का स्पर्श कभी भी जमीन या पानी के साथ नहीं होना चाहिए। उस का प्रयोग मेजपोश के रूप में, या मंच पर नहीं ढका जा सकता, इससे किसी मूर्ति को ढका नहीं जा सकता न ही किसी आधारशिला पर डाला जा सकता था। सन २००५ तक इसे पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता था। पर ५ जुलाई २००५, को भारत सरकार ने संहिता में संशोधन किया और ध्वज को एक पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग किये जाने की अनुमति दी। हालाँकि इसका प्रयोग कमर के नीचे वाले कपडे के रूप में या जांघिये के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय ध्वज को तकिये के रूप में या रूमाल के रूप में करने पर निषेध है। झंडे को जानबूझकर उल्टा रखा नहीं किया जा सकता, किसी में डुबाया नहीं जा सकता, या फूलों की पंखुडियों के अलावा अन्य वस्तु नहीं रखी जा सकती। किसी प्रकार का सरनामा झंडे पर अंकित नहीं किया जा सकता है। झंडे को संभालने और प्रदर्शित करने के अनेक परंपरागत नियमों का पालन करना चाहिए। यदि खुले में झंडा फहराया जा रहा है तो हमेशा सूर्योदय पर फहराया जाना चाहिए और सूर्यास्त पर उतार देना चाहिए चाहे मौसम की स्थिति कैसी भी हो। 'कुछ विशेष परिस्थितियों' में ध्वज को रात के समय सरकारी इमारत पर फहराया जा सकता है। झंडे का चित्रण, प्रदर्शन, उल्टा नहीं हो सकता ना ही इसे उल्टा फहराया जा सकता है। संहिता परंपरा में यह भी बताया गया है कि इसे लंब रूप में लटकाया भी नहीं जा सकता। झंडे को ९० अंश में घुमाया नहीं जा सकता या उल्टा नहीं किया जा सकता। कोई भी व्यक्ति ध्वज को एक किताब के समान ऊपर से नीचे और बाएँ से दाएँ पढ़ सकता है, यदि इसे घुमाया जाए तो परिणाम भी एक ही होना चाहिए। झंडे को बुरी और गंदी स्थिति में प्रदर्शित करना भी अपमान है। यही नियम ध्वज फहराते समय ध्वज स्तंभों या रस्सियों के लिए है। इन का रखरखाव अच्छा होना चाहिए। झंडे को सही रूप में प्रदर्शित करने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। यदि ये किसी भी मंच के पीछे दीवार पर समानान्तर रूप से फैला दिए गए हैं तो उनका फहराव एक दूसरे के पास होने चाहिए और केसरिया रंग सबसे ऊपर होना चाहिए। यदि ध्वज दीवार पर एक छोटे से ध्वज स्तम्भ पर प्रदर्शित है तो उसे एक कोण पर रख कर लटकाना चाहिए। यदि दो राष्ट्रीय झंडे प्रदर्शित किए जा रहे हैं तो उल्टी दिशा में रखना चाहिए, उनके फहराव करीब होना चाहिए और उन्हें पूरी तरह फैलाना चाहिए। झंडे का प्रयोग किसी भी मेज, मंच या भवनों, या किसी घेराव को ढकने के लिए नहीं करना चाहिए। जब राष्ट्रीय ध्वज किसी कम्पनी में अन्य देशों के ध्वजों के साथ बाहर खुले में फहराया जा रहा हो तो उसके लिए भी अनेक नियमों का पालन करना होगा। उसे हमेशा सम्मान दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि झंडा सबसे दाईं ओर (प्रेक्षकों के लिए बाईं ओर) हो। लाटिन वर्णमाला के अनुसार अन्य देशों के झंडे व्यवस्थित होने चाहिए। सभी झंडे लगभग एक ही आकार के होने चाहिए, कोई भी ध्वज भारतीय ध्वज की तुलना में बड़ा नहीं होना चाहिए। प्रत्येक देश का झंडा एक अलग स्तम्भ पर होना चाहिए, किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज एक के ऊपर एक, एक ही स्तम्भ पर फहराना नहीं चाहिए। ऐसे समय में भारतीय ध्वज को शुरू में, अंत में रखा जाए और वर्णक्रम में अन्य देशों के साथ भी रखा जाए। यदि झंडों को गोलाकार में फहराना हो तो राष्ट्रीय ध्वज को चक्र के शुरुआत में रख कर अन्य देशों के झंडे को दक्षिणावर्त तरीके से रखा जाना चाहिए, जब तक कि कोई ध्वज राष्ट्रीय ध्वज के बगल में न आ जाए। | भारत की आम जनता को सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति किस वर्ष मिली थी ? | {
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1380 | सन २००२ से पहले, भारत की आम जनता के लोग केवल गिने-चुने राष्ट्रीय त्योहारों को छोड़ सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज फहरा नहीं सकते थे। एक उद्योगपति, नवीन जिंदल ने, दिल्ली उच्च न्यायालय में, इस प्रतिबंध को हटाने के लिए जनहित में एक याचिका दायर की। जिंदल ने जान बूझ कर, झंडा संहिता का उल्लंघन करते हुए अपने कार्यालय की इमारत पर झंडा फहराया। ध्वज को जब्त कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाने की चेतावनी दी गई। जिंदल ने बहस की कि एक नागरिक के रूप में मर्यादा और सम्मान के साथ झंडा फहराना उनका अधिकार है और यह एक तरह से भारत के लिए अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक माध्यम है। तदोपरांत केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने, भारतीय झंडा संहिता में २६ जनवरी २००२, को संशोधन किए जिसमें आम जनता को वर्ष के सभी दिनों झंडा फहराने की अनुमति दी गयी और ध्वज की गरिमा, सम्मान की रक्षा करने को कहा गया। भारतीय संघ में वी॰ यशवंत शर्मा के मामले में कहा गया कि यह ध्वज संहिता एक क़ानून नहीं है, संहिता के प्रतिबंधों का पालन करना होगा और राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान को बनाए रखना होगा। राष्ट्रीय ध्वज को फहराना एक पूर्ण अधिकार नहीं है, पर इस का पालन संविधान के अनुच्छेद ५१-ए के अनुसार करना होगा। भारतीय कानून के अनुसार ध्वज को हमेशा 'गरिमा, निष्ठा और सम्मान' के साथ देखना चाहिए। "भारत की झंडा संहिता-२००२", ने प्रतीकों और नामों के (अनुचित प्रयोग निवारण) अधिनियम, १९५०" का अतिक्रमण किया और अब वह ध्वज प्रदर्शन और उपयोग का नियंत्रण करता है। सरकारी नियमों में कहा गया है कि झंडे का स्पर्श कभी भी जमीन या पानी के साथ नहीं होना चाहिए। उस का प्रयोग मेजपोश के रूप में, या मंच पर नहीं ढका जा सकता, इससे किसी मूर्ति को ढका नहीं जा सकता न ही किसी आधारशिला पर डाला जा सकता था। सन २००५ तक इसे पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता था। पर ५ जुलाई २००५, को भारत सरकार ने संहिता में संशोधन किया और ध्वज को एक पोशाक के रूप में या वर्दी के रूप में प्रयोग किये जाने की अनुमति दी। हालाँकि इसका प्रयोग कमर के नीचे वाले कपडे के रूप में या जांघिये के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय ध्वज को तकिये के रूप में या रूमाल के रूप में करने पर निषेध है। झंडे को जानबूझकर उल्टा रखा नहीं किया जा सकता, किसी में डुबाया नहीं जा सकता, या फूलों की पंखुडियों के अलावा अन्य वस्तु नहीं रखी जा सकती। किसी प्रकार का सरनामा झंडे पर अंकित नहीं किया जा सकता है। झंडे को संभालने और प्रदर्शित करने के अनेक परंपरागत नियमों का पालन करना चाहिए। यदि खुले में झंडा फहराया जा रहा है तो हमेशा सूर्योदय पर फहराया जाना चाहिए और सूर्यास्त पर उतार देना चाहिए चाहे मौसम की स्थिति कैसी भी हो। 'कुछ विशेष परिस्थितियों' में ध्वज को रात के समय सरकारी इमारत पर फहराया जा सकता है। झंडे का चित्रण, प्रदर्शन, उल्टा नहीं हो सकता ना ही इसे उल्टा फहराया जा सकता है। संहिता परंपरा में यह भी बताया गया है कि इसे लंब रूप में लटकाया भी नहीं जा सकता। झंडे को ९० अंश में घुमाया नहीं जा सकता या उल्टा नहीं किया जा सकता। कोई भी व्यक्ति ध्वज को एक किताब के समान ऊपर से नीचे और बाएँ से दाएँ पढ़ सकता है, यदि इसे घुमाया जाए तो परिणाम भी एक ही होना चाहिए। झंडे को बुरी और गंदी स्थिति में प्रदर्शित करना भी अपमान है। यही नियम ध्वज फहराते समय ध्वज स्तंभों या रस्सियों के लिए है। इन का रखरखाव अच्छा होना चाहिए। झंडे को सही रूप में प्रदर्शित करने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। यदि ये किसी भी मंच के पीछे दीवार पर समानान्तर रूप से फैला दिए गए हैं तो उनका फहराव एक दूसरे के पास होने चाहिए और केसरिया रंग सबसे ऊपर होना चाहिए। यदि ध्वज दीवार पर एक छोटे से ध्वज स्तम्भ पर प्रदर्शित है तो उसे एक कोण पर रख कर लटकाना चाहिए। यदि दो राष्ट्रीय झंडे प्रदर्शित किए जा रहे हैं तो उल्टी दिशा में रखना चाहिए, उनके फहराव करीब होना चाहिए और उन्हें पूरी तरह फैलाना चाहिए। झंडे का प्रयोग किसी भी मेज, मंच या भवनों, या किसी घेराव को ढकने के लिए नहीं करना चाहिए। जब राष्ट्रीय ध्वज किसी कम्पनी में अन्य देशों के ध्वजों के साथ बाहर खुले में फहराया जा रहा हो तो उसके लिए भी अनेक नियमों का पालन करना होगा। उसे हमेशा सम्मान दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि झंडा सबसे दाईं ओर (प्रेक्षकों के लिए बाईं ओर) हो। लाटिन वर्णमाला के अनुसार अन्य देशों के झंडे व्यवस्थित होने चाहिए। सभी झंडे लगभग एक ही आकार के होने चाहिए, कोई भी ध्वज भारतीय ध्वज की तुलना में बड़ा नहीं होना चाहिए। प्रत्येक देश का झंडा एक अलग स्तम्भ पर होना चाहिए, किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज एक के ऊपर एक, एक ही स्तम्भ पर फहराना नहीं चाहिए। ऐसे समय में भारतीय ध्वज को शुरू में, अंत में रखा जाए और वर्णक्रम में अन्य देशों के साथ भी रखा जाए। यदि झंडों को गोलाकार में फहराना हो तो राष्ट्रीय ध्वज को चक्र के शुरुआत में रख कर अन्य देशों के झंडे को दक्षिणावर्त तरीके से रखा जाना चाहिए, जब तक कि कोई ध्वज राष्ट्रीय ध्वज के बगल में न आ जाए। | भारत सरकार ने ध्वज को पोशाक या वर्दी के रूप में उपयोग करने की अनुमति कब दी थी ? | {
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"५ जुलाई २००५"
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1594
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} | When did the Government of India allow the flag to be used as a dress or uniform? | Prior to 2002, people of the general public of India could not hoist the national flag in public except only a few national festivals.An industrialist, Naveen Jindal, in the Delhi High Court, filed a petition in the public interest to lift this ban.Jindal deliberately hoisted the flag on his office building, violating the flag code.The flag was confiscated and warned to prosecute them.Jindal argued that it is his right to hoist the flag with dignity and respect as a citizen and it is a medium to express his love for India in a way.Subsequently, the Union Cabinet amended the Indian Flag Code on 24 January 2002, in which the general public was allowed to hoist the flag all days of the year and asked to protect the dignity, honor of the flag.In the case of V Yashwant Sharma in the Indian Union, it was said that this Flag Code is not a law, the sanctions of the Code will have to follow and maintain the honor of the national flag.It is not a complete right to hoist the national flag, but it has to be followed according to Article 51-A of the Constitution.According to Indian law, the flag should always be seen with 'dignity, loyalty and honor'."Flag Code-2002 of India", has encroached the symbols and names (inappropriate use) Act, 1950 "and now he controls the flag performance and use. Government rules states that the touch of the flag everIt should not be with land or water. It cannot be used as a migration, or on the stage, no idol could be covered or put on any foundation.In or as uniform could not be used. But on 5 July 2005, the Government of India amended the Code and allowed the flag to be used as a dress or as uniform. Although its use of its useCan not be used as a cloth bottom or as a thigh.Can not go, or other items other than the petals of flower cannot be kept. Any type of virtue cannot be inscribed on the flag. Many traditional rules of handling and displaying the flag should be followed.If the flag is being hoisted in the open, then it should always be hoisted at sunrise and should be removed at sunset, no matter what the weather is.In 'certain special circumstances', the flag can be hoisted on the government building at night.The depiction of the flag, performance, cannot be upside down, nor can it be hoisted upside down.The Samhita tradition also states that it cannot be hung in a long form.The flag cannot be rotated in 90 degrees or cannot be upside down.Any person can read the flag from top to bottom and left to right, if it is rotated then the result should also be the same.It is also an insult to display the flag in a bad and dirty state.The same rule is for flag pillars or ropes while hoisting the flag.The maintenance of these should be good.Some rules have to be followed to display the flag correctly.If they are spread parallel on the wall behind any platform, then they should be hoisted with each other and the saffron color should be at the top.If the flag is displayed on a small flag column on the wall, it should be placed at an angle and hanging it.If two national flags are being displayed, then it should be kept in the opposite direction, their flourish should be closer and they should be spread completely.The flag should not be used to cover any table, stage or buildings, or any siege.When the national flag is being hoisted in the open with the flags of other countries in a company, then many rules will have to be followed for it.He should always be respected.This means that the flag should be the most right (to the left for the observers).According to Latin alphabet, flags of other countries should be arranged.All flags should be almost the same size, no flag should be larger than the Indian flag.The flag of each country should be on a separate pillar, the national flag of any country should not be hoisted on one, one column on one.At such a time, the Indian flag should be placed in the beginning, finally and also kept with other countries in the spectrum.If the flags are to be hoisted in the circular, the national flag should be placed at the beginning of the cycle and the flag of other countries should be placed clockwise until a flag comes next to the national flag. | {
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1594
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"5 July 2005"
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1381 | सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी. जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है.[कृपया उद्धरण जोड़ें]शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये. किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड लिया. परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है. तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसेकर सकते हैं. हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशीका कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे.[कृपया उद्धरण जोड़ें]वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें ओर शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों को धमकी दी कहा कि शिवाजी को राजा मानने से मना करो. ताकि प्रजा भी इसे न माने ! ! लेकिन उनकी नहीं चली. शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की. विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दवी स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। [कृपया उद्धरण जोड़ें]सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। | शिवाजी की मृत्यु कब हुई थी ? | {
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} | When did Shivaji die? | By the year 14, Shivaji had captured all the states which had to give him to the Mughals under the treaty of Purandar.After the establishment of an independent Hindu nation in western Maharashtra, Shivaji wanted to commit his coronation, but Muslim soldiers threatened the Brahmins that whoever coronated Shivaji would be killed.When it reached Shivaji that the Mughal Sardar is threatening such, Shivaji took it as a challenge and said that now he will get anointed from the Brahmin of that state who is in the authority of the Mughals. [Please add quotation] ShivajiBalaji Ji, a private secretary of Kashi, sent three messengers to Kashi, because Kashi was under the Mughal Empire.When the messengers gave the message, the Brahmins of Kashi were very happy.But the Mughal soldiers came to know about this, then they caught those Brahmins.But in a way, those Brahmins told those messengers in front of the Mughal Sainiko that we do not know who Shivaji is.Which dynasty are they from?The messengers did not know so they said, we do not know.Then in front of the Sardar of the Mughal soldiers, those Brahmins said that we have to go somewhere else, Shivaji is from which dynasty you have not told, so how can we do their coronation.We are going on a pilgrimage and any other Brahmin will not coronate until the king is fully introduced, so you can go back.The Mughal Sardar left the Brahmins happy and caught the messengers and sent to Delhi to Delhi, but he also ran out of silence.But surprisingly two days later, the same Brahmins reached Raigarh with their disciples and coronated Shivaji.After this, the Mughals tried to divide and threatened the Brahmins of Pune even after Shivaji's coronation, saying that Shivaji should be considered as king.So that even the people do not listen to it!,But they did not work.Shivaji established the Ashtapradhan Mandal.Apart from the messengers, representatives of various states, foreign traders were also invited to the ceremony.But 12 days after his coronation, his mother died, for this reason, Shivaji took the title of Chhatrapati for the second time on 4 October 1674.About 50 lakh rupees were spent in this ceremony held twice.The establishment of Hindavi Swaraj was announced in this ceremony.It was the first Hindu empire in the south after the fall of Vijayanagar.Like an independent ruler, he got a coin of his name.[Please add quote] In 1677-78, Shivaji's attention went towards Karnataka. | {
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1382 | सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी. जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है.[कृपया उद्धरण जोड़ें]शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये. किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड लिया. परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है. तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसेकर सकते हैं. हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशीका कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे.[कृपया उद्धरण जोड़ें]वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें ओर शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों को धमकी दी कहा कि शिवाजी को राजा मानने से मना करो. ताकि प्रजा भी इसे न माने ! ! लेकिन उनकी नहीं चली. शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की. विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दवी स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। [कृपया उद्धरण जोड़ें]सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। | शिवाजी ने दूसरी बार छत्रपति की उपाधि कब प्राप्त की थी ? | {
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"4 अक्टूबर 1674"
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2031
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} | When did Shivaji attain the title of Chhatrapati for the second time? | By the year 14, Shivaji had captured all the states which had to give him to the Mughals under the treaty of Purandar.After the establishment of an independent Hindu nation in western Maharashtra, Shivaji wanted to commit his coronation, but Muslim soldiers threatened the Brahmins that whoever coronated Shivaji would be killed.When it reached Shivaji that the Mughal Sardar is threatening such, Shivaji took it as a challenge and said that now he will get anointed from the Brahmin of that state who is in the authority of the Mughals. [Please add quotation] ShivajiBalaji Ji, a private secretary of Kashi, sent three messengers to Kashi, because Kashi was under the Mughal Empire.When the messengers gave the message, the Brahmins of Kashi were very happy.But the Mughal soldiers came to know about this, then they caught those Brahmins.But in a way, those Brahmins told those messengers in front of the Mughal Sainiko that we do not know who Shivaji is.Which dynasty are they from?The messengers did not know so they said, we do not know.Then in front of the Sardar of the Mughal soldiers, those Brahmins said that we have to go somewhere else, Shivaji is from which dynasty you have not told, so how can we do their coronation.We are going on a pilgrimage and any other Brahmin will not coronate until the king is fully introduced, so you can go back.The Mughal Sardar left the Brahmins happy and caught the messengers and sent to Delhi to Delhi, but he also ran out of silence.But surprisingly two days later, the same Brahmins reached Raigarh with their disciples and coronated Shivaji.After this, the Mughals tried to divide and threatened the Brahmins of Pune even after Shivaji's coronation, saying that Shivaji should be considered as king.So that even the people do not listen to it!,But they did not work.Shivaji established the Ashtapradhan Mandal.Apart from the messengers, representatives of various states, foreign traders were also invited to the ceremony.But 12 days after his coronation, his mother died, for this reason, Shivaji took the title of Chhatrapati for the second time on 4 October 1674.About 50 lakh rupees were spent in this ceremony held twice.The establishment of Hindavi Swaraj was announced in this ceremony.It was the first Hindu empire in the south after the fall of Vijayanagar.Like an independent ruler, he got a coin of his name.[Please add quote] In 1677-78, Shivaji's attention went towards Karnataka. | {
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2031
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"4 October 1674"
]
} |
1383 | सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी. जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है.[कृपया उद्धरण जोड़ें]शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये. किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड लिया. परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है. तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसेकर सकते हैं. हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशीका कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे.[कृपया उद्धरण जोड़ें]वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें ओर शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों को धमकी दी कहा कि शिवाजी को राजा मानने से मना करो. ताकि प्रजा भी इसे न माने ! ! लेकिन उनकी नहीं चली. शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की. विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दवी स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। [कृपया उद्धरण जोड़ें]सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। | बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के खिलाफ कितने सेनापतियों को भेजा था ? | {
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} | How many generals did the Sultan of Bijapur send against Shivaji? | By the year 14, Shivaji had captured all the states which had to give him to the Mughals under the treaty of Purandar.After the establishment of an independent Hindu nation in western Maharashtra, Shivaji wanted to commit his coronation, but Muslim soldiers threatened the Brahmins that whoever coronated Shivaji would be killed.When it reached Shivaji that the Mughal Sardar is threatening such, Shivaji took it as a challenge and said that now he will get anointed from the Brahmin of that state who is in the authority of the Mughals. [Please add quotation] ShivajiBalaji Ji, a private secretary of Kashi, sent three messengers to Kashi, because Kashi was under the Mughal Empire.When the messengers gave the message, the Brahmins of Kashi were very happy.But the Mughal soldiers came to know about this, then they caught those Brahmins.But in a way, those Brahmins told those messengers in front of the Mughal Sainiko that we do not know who Shivaji is.Which dynasty are they from?The messengers did not know so they said, we do not know.Then in front of the Sardar of the Mughal soldiers, those Brahmins said that we have to go somewhere else, Shivaji is from which dynasty you have not told, so how can we do their coronation.We are going on a pilgrimage and any other Brahmin will not coronate until the king is fully introduced, so you can go back.The Mughal Sardar left the Brahmins happy and caught the messengers and sent to Delhi to Delhi, but he also ran out of silence.But surprisingly two days later, the same Brahmins reached Raigarh with their disciples and coronated Shivaji.After this, the Mughals tried to divide and threatened the Brahmins of Pune even after Shivaji's coronation, saying that Shivaji should be considered as king.So that even the people do not listen to it!,But they did not work.Shivaji established the Ashtapradhan Mandal.Apart from the messengers, representatives of various states, foreign traders were also invited to the ceremony.But 12 days after his coronation, his mother died, for this reason, Shivaji took the title of Chhatrapati for the second time on 4 October 1674.About 50 lakh rupees were spent in this ceremony held twice.The establishment of Hindavi Swaraj was announced in this ceremony.It was the first Hindu empire in the south after the fall of Vijayanagar.Like an independent ruler, he got a coin of his name.[Please add quote] In 1677-78, Shivaji's attention went towards Karnataka. | {
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1384 | सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी. जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है.[कृपया उद्धरण जोड़ें]शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये. किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड लिया. परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है. तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसेकर सकते हैं. हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशीका कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे.[कृपया उद्धरण जोड़ें]वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें ओर शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों को धमकी दी कहा कि शिवाजी को राजा मानने से मना करो. ताकि प्रजा भी इसे न माने ! ! लेकिन उनकी नहीं चली. शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की. विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दवी स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। [कृपया उद्धरण जोड़ें]सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। | शिवाजी के निजी सचिव कौन थे ? | {
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"बालाजी जी"
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} | Who was the personal secretary of Shivaji? | By the year 14, Shivaji had captured all the states which had to give him to the Mughals under the treaty of Purandar.After the establishment of an independent Hindu nation in western Maharashtra, Shivaji wanted to commit his coronation, but Muslim soldiers threatened the Brahmins that whoever coronated Shivaji would be killed.When it reached Shivaji that the Mughal Sardar is threatening such, Shivaji took it as a challenge and said that now he will get anointed from the Brahmin of that state who is in the authority of the Mughals. [Please add quotation] ShivajiBalaji Ji, a private secretary of Kashi, sent three messengers to Kashi, because Kashi was under the Mughal Empire.When the messengers gave the message, the Brahmins of Kashi were very happy.But the Mughal soldiers came to know about this, then they caught those Brahmins.But in a way, those Brahmins told those messengers in front of the Mughal Sainiko that we do not know who Shivaji is.Which dynasty are they from?The messengers did not know so they said, we do not know.Then in front of the Sardar of the Mughal soldiers, those Brahmins said that we have to go somewhere else, Shivaji is from which dynasty you have not told, so how can we do their coronation.We are going on a pilgrimage and any other Brahmin will not coronate until the king is fully introduced, so you can go back.The Mughal Sardar left the Brahmins happy and caught the messengers and sent to Delhi to Delhi, but he also ran out of silence.But surprisingly two days later, the same Brahmins reached Raigarh with their disciples and coronated Shivaji.After this, the Mughals tried to divide and threatened the Brahmins of Pune even after Shivaji's coronation, saying that Shivaji should be considered as king.So that even the people do not listen to it!,But they did not work.Shivaji established the Ashtapradhan Mandal.Apart from the messengers, representatives of various states, foreign traders were also invited to the ceremony.But 12 days after his coronation, his mother died, for this reason, Shivaji took the title of Chhatrapati for the second time on 4 October 1674.About 50 lakh rupees were spent in this ceremony held twice.The establishment of Hindavi Swaraj was announced in this ceremony.It was the first Hindu empire in the south after the fall of Vijayanagar.Like an independent ruler, he got a coin of his name.[Please add quote] In 1677-78, Shivaji's attention went towards Karnataka. | {
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"Balaji Ji"
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1385 | सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी. जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है.[कृपया उद्धरण जोड़ें]शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये. किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड लिया. परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है. तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसेकर सकते हैं. हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशीका कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे.[कृपया उद्धरण जोड़ें]वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें ओर शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों को धमकी दी कहा कि शिवाजी को राजा मानने से मना करो. ताकि प्रजा भी इसे न माने ! ! लेकिन उनकी नहीं चली. शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की. विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दवी स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। [कृपया उद्धरण जोड़ें]सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। | पुरंदर की संधि के तहत मुगलों को सौंपे गए क्षेत्रो पर शिवाजी ने किस वर्ष कब्ज़ा किया था ? | {
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"सन् १६७४"
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} | In which year did Shivaji capture the territories ceded to the Mughals under the Treaty of Purandar? | By the year 14, Shivaji had captured all the states which had to give him to the Mughals under the treaty of Purandar.After the establishment of an independent Hindu nation in western Maharashtra, Shivaji wanted to commit his coronation, but Muslim soldiers threatened the Brahmins that whoever coronated Shivaji would be killed.When it reached Shivaji that the Mughal Sardar is threatening such, Shivaji took it as a challenge and said that now he will get anointed from the Brahmin of that state who is in the authority of the Mughals. [Please add quotation] ShivajiBalaji Ji, a private secretary of Kashi, sent three messengers to Kashi, because Kashi was under the Mughal Empire.When the messengers gave the message, the Brahmins of Kashi were very happy.But the Mughal soldiers came to know about this, then they caught those Brahmins.But in a way, those Brahmins told those messengers in front of the Mughal Sainiko that we do not know who Shivaji is.Which dynasty are they from?The messengers did not know so they said, we do not know.Then in front of the Sardar of the Mughal soldiers, those Brahmins said that we have to go somewhere else, Shivaji is from which dynasty you have not told, so how can we do their coronation.We are going on a pilgrimage and any other Brahmin will not coronate until the king is fully introduced, so you can go back.The Mughal Sardar left the Brahmins happy and caught the messengers and sent to Delhi to Delhi, but he also ran out of silence.But surprisingly two days later, the same Brahmins reached Raigarh with their disciples and coronated Shivaji.After this, the Mughals tried to divide and threatened the Brahmins of Pune even after Shivaji's coronation, saying that Shivaji should be considered as king.So that even the people do not listen to it!,But they did not work.Shivaji established the Ashtapradhan Mandal.Apart from the messengers, representatives of various states, foreign traders were also invited to the ceremony.But 12 days after his coronation, his mother died, for this reason, Shivaji took the title of Chhatrapati for the second time on 4 October 1674.About 50 lakh rupees were spent in this ceremony held twice.The establishment of Hindavi Swaraj was announced in this ceremony.It was the first Hindu empire in the south after the fall of Vijayanagar.Like an independent ruler, he got a coin of his name.[Please add quote] In 1677-78, Shivaji's attention went towards Karnataka. | {
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"AD 1674"
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1386 | सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी। तात्या एक बेजोड सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। नवंबर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच २३ मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब २०,००० सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा। कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई १८ जून, १८५८ को शहीद हो गयीं। इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली। ‘‘ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाडा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से ६० मील दूर थे, वापस लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये। कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल तेजी से बढ रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था। अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज-परस्थ था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और ३० तोपों पर कब्जा कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा पार करके महाराश्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेजों को भारत से खदेडा भी जा सकेगा। सितंबर, १८५८ के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया। माइकिल की फौजें थकी हुई थीं इसलिए उसने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु दूसरे दिन सुबह उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी २७ तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी तात्या की कमान में चंदेरी। तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना उसके साथ हो जाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। | माइकल ने तात्या टोपे को युद्ध में कब हराया था? | {
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} | When did Michael defeat Tatya Tope in battle? | When the flames of the rebellion of 1857 reached Kanpur and the soldiers there declared Nana Saheb as Peshwa and their leader, Tatya Tope took the lead in establishing independence in Kanpur. Nana Saheb appointed Tatya Tope as his military advisor. When the British army under the command of Brigadier General Havelock attacked Kanpur from Allahabad, Tatya devoted his life to the security of Kanpur, but on July 16, 1857, he was defeated and had to leave Kanpur. Soon Tatya Tope reorganized his forces and reached Bithoor, twelve miles north of Kanpur. From here they started looking for an opportunity to attack Kanpur. Meanwhile, Havelock suddenly attacked Bithoor. Although Tatya was defeated in the battle of Bithoor, the Indian soldiers under his command displayed so much bravery that even the British commander had to praise him. Tatya was an unmatched commander. Undeterred by the defeat, he reached Rao Saheb Scindia's area from Bithoor. There he was successful in attracting the famous military contingent named Gwalior Contingent to his side. From there he reached Kalpi with a large army. In November 1857 he attacked Kanpur. The British army deployed to protect Kanpur under the command of Major General Vindal dispersed and ran away, but this victory was short-lived. Sir Colin Campbell, Commander-in-Chief of the British Army, defeated Tatya on 6 December. Therefore Tatya Tope went to Khari and captured the city there. At Khari he obtained many cannons and three lakh rupees which were necessary for the army. Meanwhile, on 23 March, Sir Hugh Rose laid siege to Jhansi. At such a critical time, Tatya Tope arrived with about 20,000 soldiers to help Rani Lakshmi Bai. The British army was surrounded by Tatya Tope and Rani's army. Ultimately the queen won. Rani and Tatya Tope then reached Kalpi. In this war, Tatya Tope once again had to face defeat against Heros. The command of the battles of Kanpur, Charkhari, Jhansi and Konch was in the hands of Tatya Tope. Unfortunately, except Charkhari, he was defeated at other places. Tatya Tope was a very capable commander. After the defeat of Konch, it did not take long for them to understand that if no new and forceful steps were taken then the freedom fighters would be defeated. Therefore, Tatya left the responsibility of the security of Kalpi to the Queen of Jhansi and his other associates and he himself went to Gwalior in disguise. While Heoros was celebrating the victory of Kalpi, Tatya achieved a remarkable success which astonished Heoros. Tatya's counter attack was incredible. He had joined the army of Maharaja Jayaji Rao Scindia and captured the famous fort of Gwalior. Rani of Jhansi, Tatya and Rao Saheb entered Gwalior with trumpets of victory and declared Nana Saheb as Peshwa. This thrilling success filled the hearts of the freedom fighters with joy, but before Tatya Tope could organize his forces, the Heros attacked. Rani Lakshmibai was martyred in the battle near Phulbagh on June 18, 1858. After this, the ten months of Tatya Tope's life is full of unique bravery story. The rebellion was crushed almost everywhere, but Tatya held on to the British army with a handful of soldiers for a long period of a year. During this time, he conducted such a tremendous raid war against the enemy, which placed him in the first line of raid warriors of the world. During this raiding war, Tatya Tope made such a long trek through inaccessible hills and valleys, across rain-swollen rivers and dangerous forests in Madhya Pradesh and Rajasthan, which created a stir in the British camp. Repeatedly attempts were made to surround him from all sides and Tatya had to fight again and again, but this guerrilla warrior, with his extraordinary intelligence, went beyond the circles and traps of the British. The then English writer Sylvester has written that "Tatya Tope was chased thousands of times and horses were made to run for forty miles a day, but there was never any success in capturing Tatya Tope." “After leaving Gwalior, Tatya crossed Chambal and went to Tonk, Bundi and Bhilwara in Rajasthan. His intention was to capture Jaipur and Udaipur first, but Major General Roberts reached there already. The result was that Tatya had to return when he was 60 miles away from Jaipur. Then he intended to capture Udaipur, but Roberts laid siege to it. He sent Lieutenant Colonel Holmes to chase Tatya, who had made full preparations to block Tatya's path, but this could not happen. Tatya had a fierce encounter with the British army at Kankroli ahead of Bhilwara in which he was defeated. After the defeat of Kankroli, Tatya fled towards the east, so that he could cross the Chambal. It was the month of August. Chambal was growing rapidly, but Tatya enjoyed taking risks. The British were chasing them, so they crossed Chambal in the flood and reached Jhalar Patan, the capital of Jhalawar. The ruler of Jhalawar was pro-British, so Tatya extorted lakhs of rupees from him and captured 30 cannons in front of the British army. From here his intention was to reach Indore and win over the freedom fighters there and then reach the south. Tatya was confident that if it was possible to reach Maharashtra by crossing the Narmada then his Not only will the struggle for oppression be continued, but the British will also be driven out of India. In early September 1858, Tatya moved towards Rajgarh. From there their plan was to reach Indore, but before Tatya could leave for Indore, the British army under Major Jan. Under the command of Michael, Tatya's army was surrounded near Rajgarh. Michael's forces were tired so he decided to attack in the morning, but the next morning he was surprised to see that Tatya's army had escaped his trap. Tatya had set up a barricade after reaching Biaora. Here the British attacked simultaneously with infantry, cavalry and artillery squads. Tatya lost this war also. 27 of his cannons fell into the hands of the British. Tatya moved towards the east towards Betwa valley. Tatya captured four cannons at Sironj and rested for a week. From Sironj they reached Ishagarh in the north and looted the town and captured five more cannons. Tatya's army got divided into two parts from Ishagarh. One contingent went to Lalitpur under the command of Rao Saheb and the other to Chanderi under the command of Tatya. Tatya believed that Scindia's army would join him in Chanderi, but this did not happen. | {
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1387 | सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी। तात्या एक बेजोड सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। नवंबर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच २३ मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब २०,००० सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा। कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई १८ जून, १८५८ को शहीद हो गयीं। इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली। ‘‘ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाडा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से ६० मील दूर थे, वापस लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये। कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल तेजी से बढ रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था। अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज-परस्थ था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और ३० तोपों पर कब्जा कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा पार करके महाराश्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेजों को भारत से खदेडा भी जा सकेगा। सितंबर, १८५८ के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया। माइकिल की फौजें थकी हुई थीं इसलिए उसने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु दूसरे दिन सुबह उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी २७ तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी तात्या की कमान में चंदेरी। तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना उसके साथ हो जाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। | तात्या टोपे को सैन्य सलाहकार किसने नियुक्त किया था ? | {
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"नाना साहब"
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69
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} | Who appointed Tatya Tope as a military advisor? | When the flames of the rebellion of 1857 reached Kanpur and the soldiers there declared Nana Saheb as Peshwa and their leader, Tatya Tope took the lead in establishing independence in Kanpur. Nana Saheb appointed Tatya Tope as his military advisor. When the British army under the command of Brigadier General Havelock attacked Kanpur from Allahabad, Tatya devoted his life to the security of Kanpur, but on July 16, 1857, he was defeated and had to leave Kanpur. Soon Tatya Tope reorganized his forces and reached Bithoor, twelve miles north of Kanpur. From here they started looking for an opportunity to attack Kanpur. Meanwhile, Havelock suddenly attacked Bithoor. Although Tatya was defeated in the battle of Bithoor, the Indian soldiers under his command displayed so much bravery that even the British commander had to praise him. Tatya was an unmatched commander. Undeterred by the defeat, he reached Rao Saheb Scindia's area from Bithoor. There he was successful in attracting the famous military contingent named Gwalior Contingent to his side. From there he reached Kalpi with a large army. In November 1857 he attacked Kanpur. The British army deployed to protect Kanpur under the command of Major General Vindal dispersed and ran away, but this victory was short-lived. Sir Colin Campbell, Commander-in-Chief of the British Army, defeated Tatya on 6 December. Therefore Tatya Tope went to Khari and captured the city there. At Khari he obtained many cannons and three lakh rupees which were necessary for the army. Meanwhile, on 23 March, Sir Hugh Rose laid siege to Jhansi. At such a critical time, Tatya Tope arrived with about 20,000 soldiers to help Rani Lakshmi Bai. The British army was surrounded by Tatya Tope and Rani's army. Ultimately the queen won. Rani and Tatya Tope then reached Kalpi. In this war, Tatya Tope once again had to face defeat against Heros. The command of the battles of Kanpur, Charkhari, Jhansi and Konch was in the hands of Tatya Tope. Unfortunately, except Charkhari, he was defeated at other places. Tatya Tope was a very capable commander. After the defeat of Konch, it did not take long for them to understand that if no new and forceful steps were taken then the freedom fighters would be defeated. Therefore, Tatya left the responsibility of the security of Kalpi to the Queen of Jhansi and his other associates and he himself went to Gwalior in disguise. While Heoros was celebrating the victory of Kalpi, Tatya achieved a remarkable success which astonished Heoros. Tatya's counter attack was incredible. He had joined the army of Maharaja Jayaji Rao Scindia and captured the famous fort of Gwalior. Rani of Jhansi, Tatya and Rao Saheb entered Gwalior with trumpets of victory and declared Nana Saheb as Peshwa. This thrilling success filled the hearts of the freedom fighters with joy, but before Tatya Tope could organize his forces, the Heros attacked. Rani Lakshmibai was martyred in the battle near Phulbagh on June 18, 1858. After this, the ten months of Tatya Tope's life is full of unique bravery story. The rebellion was crushed almost everywhere, but Tatya held on to the British army with a handful of soldiers for a long period of a year. During this time, he conducted such a tremendous raid war against the enemy, which placed him in the first line of raid warriors of the world. During this raiding war, Tatya Tope made such a long trek through inaccessible hills and valleys, across rain-swollen rivers and dangerous forests in Madhya Pradesh and Rajasthan, which created a stir in the British camp. Repeatedly attempts were made to surround him from all sides and Tatya had to fight again and again, but this guerrilla warrior, with his extraordinary intelligence, went beyond the circles and traps of the British. The then English writer Sylvester has written that "Tatya Tope was chased thousands of times and horses were made to run for forty miles a day, but there was never any success in capturing Tatya Tope." “After leaving Gwalior, Tatya crossed Chambal and went to Tonk, Bundi and Bhilwara in Rajasthan. His intention was to capture Jaipur and Udaipur first, but Major General Roberts reached there already. The result was that Tatya had to return when he was 60 miles away from Jaipur. Then he intended to capture Udaipur, but Roberts laid siege to it. He sent Lieutenant Colonel Holmes to chase Tatya, who had made full preparations to block Tatya's path, but this could not happen. Tatya had a fierce encounter with the British army at Kankroli ahead of Bhilwara in which he was defeated. After the defeat of Kankroli, Tatya fled towards the east, so that he could cross the Chambal. It was the month of August. Chambal was growing rapidly, but Tatya enjoyed taking risks. The British were chasing them, so they crossed Chambal in the flood and reached Jhalar Patan, the capital of Jhalawar. The ruler of Jhalawar was pro-British, so Tatya extorted lakhs of rupees from him and captured 30 cannons in front of the British army. From here his intention was to reach Indore and win over the freedom fighters there and then reach the south. Tatya was confident that if it was possible to reach Maharashtra by crossing the Narmada then his Not only will the struggle for oppression be continued, but the British will also be driven out of India. In early September 1858, Tatya moved towards Rajgarh. From there their plan was to reach Indore, but before Tatya could leave for Indore, the British army under Major Jan. Under the command of Michael, Tatya's army was surrounded near Rajgarh. Michael's forces were tired so he decided to attack in the morning, but the next morning he was surprised to see that Tatya's army had escaped his trap. Tatya had set up a barricade after reaching Biaora. Here the British attacked simultaneously with infantry, cavalry and artillery squads. Tatya lost this war also. 27 of his cannons fell into the hands of the British. Tatya moved towards the east towards Betwa valley. Tatya captured four cannons at Sironj and rested for a week. From Sironj they reached Ishagarh in the north and looted the town and captured five more cannons. Tatya's army got divided into two parts from Ishagarh. One contingent went to Lalitpur under the command of Rao Saheb and the other to Chanderi under the command of Tatya. Tatya believed that Scindia's army would join him in Chanderi, but this did not happen. | {
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1388 | सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी। तात्या एक बेजोड सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। नवंबर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच २३ मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब २०,००० सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा। कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई १८ जून, १८५८ को शहीद हो गयीं। इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली। ‘‘ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाडा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से ६० मील दूर थे, वापस लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये। कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल तेजी से बढ रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था। अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज-परस्थ था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और ३० तोपों पर कब्जा कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा पार करके महाराश्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेजों को भारत से खदेडा भी जा सकेगा। सितंबर, १८५८ के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया। माइकिल की फौजें थकी हुई थीं इसलिए उसने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु दूसरे दिन सुबह उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी २७ तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी 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} | Where did Tatya go after crossing Betwa? | When the flames of the rebellion of 1857 reached Kanpur and the soldiers there declared Nana Saheb as Peshwa and their leader, Tatya Tope took the lead in establishing independence in Kanpur. Nana Saheb appointed Tatya Tope as his military advisor. When the British army under the command of Brigadier General Havelock attacked Kanpur from Allahabad, Tatya devoted his life to the security of Kanpur, but on July 16, 1857, he was defeated and had to leave Kanpur. Soon Tatya Tope reorganized his forces and reached Bithoor, twelve miles north of Kanpur. From here they started looking for an opportunity to attack Kanpur. Meanwhile, Havelock suddenly attacked Bithoor. Although Tatya was defeated in the battle of Bithoor, the Indian soldiers under his command displayed so much bravery that even the British commander had to praise him. Tatya was an unmatched commander. Undeterred by the defeat, he reached Rao Saheb Scindia's area from Bithoor. There he was successful in attracting the famous military contingent named Gwalior Contingent to his side. From there he reached Kalpi with a large army. In November 1857 he attacked Kanpur. The British army deployed to protect Kanpur under the command of Major General Vindal dispersed and ran away, but this victory was short-lived. Sir Colin Campbell, Commander-in-Chief of the British Army, defeated Tatya on 6 December. Therefore Tatya Tope went to Khari and captured the city there. At Khari he obtained many cannons and three lakh rupees which were necessary for the army. Meanwhile, on 23 March, Sir Hugh Rose laid siege to Jhansi. At such a critical time, Tatya Tope arrived with about 20,000 soldiers to help Rani Lakshmi Bai. The British army was surrounded by Tatya Tope and Rani's army. Ultimately the queen won. Rani and Tatya Tope then reached Kalpi. In this war, Tatya Tope once again had to face defeat against Heros. The command of the battles of Kanpur, Charkhari, Jhansi and Konch was in the hands of Tatya Tope. Unfortunately, except Charkhari, he was defeated at other places. Tatya Tope was a very capable commander. After the defeat of Konch, it did not take long for them to understand that if no new and forceful steps were taken then the freedom fighters would be defeated. Therefore, Tatya left the responsibility of the security of Kalpi to the Queen of Jhansi and his other associates and he himself went to Gwalior in disguise. While Heoros was celebrating the victory of Kalpi, Tatya achieved a remarkable success which astonished Heoros. Tatya's counter attack was incredible. He had joined the army of Maharaja Jayaji Rao Scindia and captured the famous fort of Gwalior. Rani of Jhansi, Tatya and Rao Saheb entered Gwalior with trumpets of victory and declared Nana Saheb as Peshwa. This thrilling success filled the hearts of the freedom fighters with joy, but before Tatya Tope could organize his forces, the Heros attacked. Rani Lakshmibai was martyred in the battle near Phulbagh on June 18, 1858. After this, the ten months of Tatya Tope's life is full of unique bravery story. The rebellion was crushed almost everywhere, but Tatya held on to the British army with a handful of soldiers for a long period of a year. During this time, he conducted such a tremendous raid war against the enemy, which placed him in the first line of raid warriors of the world. During this raiding war, Tatya Tope made such a long trek through inaccessible hills and valleys, across rain-swollen rivers and dangerous forests in Madhya Pradesh and Rajasthan, which created a stir in the British camp. Repeatedly attempts were made to surround him from all sides and Tatya had to fight again and again, but this guerrilla warrior, with his extraordinary intelligence, went beyond the circles and traps of the British. The then English writer Sylvester has written that "Tatya Tope was chased thousands of times and horses were made to run for forty miles a day, but there was never any success in capturing Tatya Tope." “After leaving Gwalior, Tatya crossed Chambal and went to Tonk, Bundi and Bhilwara in Rajasthan. His intention was to capture Jaipur and Udaipur first, but Major General Roberts reached there already. The result was that Tatya had to return when he was 60 miles away from Jaipur. Then he intended to capture Udaipur, but Roberts laid siege to it. He sent Lieutenant Colonel Holmes to chase Tatya, who had made full preparations to block Tatya's path, but this could not happen. Tatya had a fierce encounter with the British army at Kankroli ahead of Bhilwara in which he was defeated. After the defeat of Kankroli, Tatya fled towards the east, so that he could cross the Chambal. It was the month of August. Chambal was growing rapidly, but Tatya enjoyed taking risks. The British were chasing them, so they crossed Chambal in the flood and reached Jhalar Patan, the capital of Jhalawar. The ruler of Jhalawar was pro-British, so Tatya extorted lakhs of rupees from him and captured 30 cannons in front of the British army. From here his intention was to reach Indore and win over the freedom fighters there and then reach the south. Tatya was confident that if it was possible to reach Maharashtra by crossing the Narmada then his Not only will the struggle for oppression be continued, but the British will also be driven out of India. In early September 1858, Tatya moved towards Rajgarh. From there their plan was to reach Indore, but before Tatya could leave for Indore, the British army under Major Jan. Under the command of Michael, Tatya's army was surrounded near Rajgarh. Michael's forces were tired so he decided to attack in the morning, but the next morning he was surprised to see that Tatya's army had escaped his trap. Tatya had set up a barricade after reaching Biaora. Here the British attacked simultaneously with infantry, cavalry and artillery squads. Tatya lost this war also. 27 of his cannons fell into the hands of the British. Tatya moved towards the east towards Betwa valley. Tatya captured four cannons at Sironj and rested for a week. From Sironj they reached Ishagarh in the north and looted the town and captured five more cannons. Tatya's army got divided into two parts from Ishagarh. One contingent went to Lalitpur under the command of Rao Saheb and the other to Chanderi under the command of Tatya. 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1389 | सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी। तात्या एक बेजोड सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। नवंबर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच २३ मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब २०,००० सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा। कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई १८ जून, १८५८ को शहीद हो गयीं। इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली। ‘‘ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाडा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से ६० मील दूर थे, वापस लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये। कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल तेजी से बढ रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था। अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज-परस्थ था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और ३० तोपों पर कब्जा कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा पार करके महाराश्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेजों को भारत से खदेडा भी जा सकेगा। सितंबर, १८५८ के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया। माइकिल की फौजें थकी हुई थीं इसलिए उसने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु दूसरे दिन सुबह उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी २७ तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी तात्या की कमान में चंदेरी। तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना उसके साथ हो जाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। | बिठूर पर आक्रमण किसके द्वारा किया गया था ? | {
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"हैवलॉक"
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} | The invasion of Bithoor was carried out by whom? | When the flames of the rebellion of 1857 reached Kanpur and the soldiers there declared Nana Saheb as Peshwa and their leader, Tatya Tope took the lead in establishing independence in Kanpur. Nana Saheb appointed Tatya Tope as his military advisor. When the British army under the command of Brigadier General Havelock attacked Kanpur from Allahabad, Tatya devoted his life to the security of Kanpur, but on July 16, 1857, he was defeated and had to leave Kanpur. Soon Tatya Tope reorganized his forces and reached Bithoor, twelve miles north of Kanpur. From here they started looking for an opportunity to attack Kanpur. Meanwhile, Havelock suddenly attacked Bithoor. Although Tatya was defeated in the battle of Bithoor, the Indian soldiers under his command displayed so much bravery that even the British commander had to praise him. Tatya was an unmatched commander. Undeterred by the defeat, he reached Rao Saheb Scindia's area from Bithoor. There he was successful in attracting the famous military contingent named Gwalior Contingent to his side. From there he reached Kalpi with a large army. In November 1857 he attacked Kanpur. The British army deployed to protect Kanpur under the command of Major General Vindal dispersed and ran away, but this victory was short-lived. Sir Colin Campbell, Commander-in-Chief of the British Army, defeated Tatya on 6 December. Therefore Tatya Tope went to Khari and captured the city there. At Khari he obtained many cannons and three lakh rupees which were necessary for the army. Meanwhile, on 23 March, Sir Hugh Rose laid siege to Jhansi. At such a critical time, Tatya Tope arrived with about 20,000 soldiers to help Rani Lakshmi Bai. The British army was surrounded by Tatya Tope and Rani's army. Ultimately the queen won. Rani and Tatya Tope then reached Kalpi. In this war, Tatya Tope once again had to face defeat against Heros. The command of the battles of Kanpur, Charkhari, Jhansi and Konch was in the hands of Tatya Tope. Unfortunately, except Charkhari, he was defeated at other places. Tatya Tope was a very capable commander. After the defeat of Konch, it did not take long for them to understand that if no new and forceful steps were taken then the freedom fighters would be defeated. Therefore, Tatya left the responsibility of the security of Kalpi to the Queen of Jhansi and his other associates and he himself went to Gwalior in disguise. While Heoros was celebrating the victory of Kalpi, Tatya achieved a remarkable success which astonished Heoros. Tatya's counter attack was incredible. He had joined the army of Maharaja Jayaji Rao Scindia and captured the famous fort of Gwalior. Rani of Jhansi, Tatya and Rao Saheb entered Gwalior with trumpets of victory and declared Nana Saheb as Peshwa. This thrilling success filled the hearts of the freedom fighters with joy, but before Tatya Tope could organize his forces, the Heros attacked. Rani Lakshmibai was martyred in the battle near Phulbagh on June 18, 1858. After this, the ten months of Tatya Tope's life is full of unique bravery story. The rebellion was crushed almost everywhere, but Tatya held on to the British army with a handful of soldiers for a long period of a year. During this time, he conducted such a tremendous raid war against the enemy, which placed him in the first line of raid warriors of the world. During this raiding war, Tatya Tope made such a long trek through inaccessible hills and valleys, across rain-swollen rivers and dangerous forests in Madhya Pradesh and Rajasthan, which created a stir in the British camp. Repeatedly attempts were made to surround him from all sides and Tatya had to fight again and again, but this guerrilla warrior, with his extraordinary intelligence, went beyond the circles and traps of the British. The then English writer Sylvester has written that "Tatya Tope was chased thousands of times and horses were made to run for forty miles a day, but there was never any success in capturing Tatya Tope." “After leaving Gwalior, Tatya crossed Chambal and went to Tonk, Bundi and Bhilwara in Rajasthan. His intention was to capture Jaipur and Udaipur first, but Major General Roberts reached there already. The result was that Tatya had to return when he was 60 miles away from Jaipur. Then he intended to capture Udaipur, but Roberts laid siege to it. He sent Lieutenant Colonel Holmes to chase Tatya, who had made full preparations to block Tatya's path, but this could not happen. Tatya had a fierce encounter with the British army at Kankroli ahead of Bhilwara in which he was defeated. After the defeat of Kankroli, Tatya fled towards the east, so that he could cross the Chambal. It was the month of August. Chambal was growing rapidly, but Tatya enjoyed taking risks. The British were chasing them, so they crossed Chambal in the flood and reached Jhalar Patan, the capital of Jhalawar. The ruler of Jhalawar was pro-British, so Tatya extorted lakhs of rupees from him and captured 30 cannons in front of the British army. From here his intention was to reach Indore and win over the freedom fighters there and then reach the south. Tatya was confident that if it was possible to reach Maharashtra by crossing the Narmada then his Not only will the struggle for oppression be continued, but the British will also be driven out of India. In early September 1858, Tatya moved towards Rajgarh. From there their plan was to reach Indore, but before Tatya could leave for Indore, the British army under Major Jan. Under the command of Michael, Tatya's army was surrounded near Rajgarh. Michael's forces were tired so he decided to attack in the morning, but the next morning he was surprised to see that Tatya's army had escaped his trap. Tatya had set up a barricade after reaching Biaora. Here the British attacked simultaneously with infantry, cavalry and artillery squads. Tatya lost this war also. 27 of his cannons fell into the hands of the British. Tatya moved towards the east towards Betwa valley. Tatya captured four cannons at Sironj and rested for a week. From Sironj they reached Ishagarh in the north and looted the town and captured five more cannons. Tatya's army got divided into two parts from Ishagarh. One contingent went to Lalitpur under the command of Rao Saheb and the other to Chanderi under the command of Tatya. Tatya believed that Scindia's army would join him in Chanderi, but this did not happen. | {
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"Havelock"
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1390 | सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी। तात्या एक बेजोड सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। नवंबर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच २३ मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब २०,००० सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा। कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई १८ जून, १८५८ को शहीद हो गयीं। इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली। ‘‘ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाडा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से ६० मील दूर थे, वापस लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये। कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल तेजी से बढ रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था। अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज-परस्थ था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और ३० तोपों पर कब्जा कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा पार करके महाराश्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेजों को भारत से खदेडा भी जा सकेगा। सितंबर, १८५८ के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया। माइकिल की फौजें थकी हुई थीं इसलिए उसने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु दूसरे दिन सुबह उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी २७ तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी तात्या की कमान में चंदेरी। तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना उसके साथ हो जाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। | तात्या टोपे अपनी सेना को पुनर्गठित करने के बाद कहां गए थे ? | {
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} | Where did Tatya Tope go after reorganising his army? | When the flames of the rebellion of 1857 reached Kanpur and the soldiers there declared Nana Saheb as Peshwa and their leader, Tatya Tope took the lead in establishing independence in Kanpur. Nana Saheb appointed Tatya Tope as his military advisor. When the British army under the command of Brigadier General Havelock attacked Kanpur from Allahabad, Tatya devoted his life to the security of Kanpur, but on July 16, 1857, he was defeated and had to leave Kanpur. Soon Tatya Tope reorganized his forces and reached Bithoor, twelve miles north of Kanpur. From here they started looking for an opportunity to attack Kanpur. Meanwhile, Havelock suddenly attacked Bithoor. Although Tatya was defeated in the battle of Bithoor, the Indian soldiers under his command displayed so much bravery that even the British commander had to praise him. Tatya was an unmatched commander. Undeterred by the defeat, he reached Rao Saheb Scindia's area from Bithoor. There he was successful in attracting the famous military contingent named Gwalior Contingent to his side. From there he reached Kalpi with a large army. In November 1857 he attacked Kanpur. The British army deployed to protect Kanpur under the command of Major General Vindal dispersed and ran away, but this victory was short-lived. Sir Colin Campbell, Commander-in-Chief of the British Army, defeated Tatya on 6 December. Therefore Tatya Tope went to Khari and captured the city there. At Khari he obtained many cannons and three lakh rupees which were necessary for the army. Meanwhile, on 23 March, Sir Hugh Rose laid siege to Jhansi. At such a critical time, Tatya Tope arrived with about 20,000 soldiers to help Rani Lakshmi Bai. The British army was surrounded by Tatya Tope and Rani's army. Ultimately the queen won. Rani and Tatya Tope then reached Kalpi. In this war, Tatya Tope once again had to face defeat against Heros. The command of the battles of Kanpur, Charkhari, Jhansi and Konch was in the hands of Tatya Tope. Unfortunately, except Charkhari, he was defeated at other places. Tatya Tope was a very capable commander. After the defeat of Konch, it did not take long for them to understand that if no new and forceful steps were taken then the freedom fighters would be defeated. Therefore, Tatya left the responsibility of the security of Kalpi to the Queen of Jhansi and his other associates and he himself went to Gwalior in disguise. While Heoros was celebrating the victory of Kalpi, Tatya achieved a remarkable success which astonished Heoros. Tatya's counter attack was incredible. He had joined the army of Maharaja Jayaji Rao Scindia and captured the famous fort of Gwalior. Rani of Jhansi, Tatya and Rao Saheb entered Gwalior with trumpets of victory and declared Nana Saheb as Peshwa. This thrilling success filled the hearts of the freedom fighters with joy, but before Tatya Tope could organize his forces, the Heros attacked. Rani Lakshmibai was martyred in the battle near Phulbagh on June 18, 1858. After this, the ten months of Tatya Tope's life is full of unique bravery story. The rebellion was crushed almost everywhere, but Tatya held on to the British army with a handful of soldiers for a long period of a year. During this time, he conducted such a tremendous raid war against the enemy, which placed him in the first line of raid warriors of the world. During this raiding war, Tatya Tope made such a long trek through inaccessible hills and valleys, across rain-swollen rivers and dangerous forests in Madhya Pradesh and Rajasthan, which created a stir in the British camp. Repeatedly attempts were made to surround him from all sides and Tatya had to fight again and again, but this guerrilla warrior, with his extraordinary intelligence, went beyond the circles and traps of the British. The then English writer Sylvester has written that "Tatya Tope was chased thousands of times and horses were made to run for forty miles a day, but there was never any success in capturing Tatya Tope." “After leaving Gwalior, Tatya crossed Chambal and went to Tonk, Bundi and Bhilwara in Rajasthan. His intention was to capture Jaipur and Udaipur first, but Major General Roberts reached there already. The result was that Tatya had to return when he was 60 miles away from Jaipur. Then he intended to capture Udaipur, but Roberts laid siege to it. He sent Lieutenant Colonel Holmes to chase Tatya, who had made full preparations to block Tatya's path, but this could not happen. Tatya had a fierce encounter with the British army at Kankroli ahead of Bhilwara in which he was defeated. After the defeat of Kankroli, Tatya fled towards the east, so that he could cross the Chambal. It was the month of August. Chambal was growing rapidly, but Tatya enjoyed taking risks. The British were chasing them, so they crossed Chambal in the flood and reached Jhalar Patan, the capital of Jhalawar. The ruler of Jhalawar was pro-British, so Tatya extorted lakhs of rupees from him and captured 30 cannons in front of the British army. From here his intention was to reach Indore and win over the freedom fighters there and then reach the south. Tatya was confident that if it was possible to reach Maharashtra by crossing the Narmada then his Not only will the struggle for oppression be continued, but the British will also be driven out of India. In early September 1858, Tatya moved towards Rajgarh. From there their plan was to reach Indore, but before Tatya could leave for Indore, the British army under Major Jan. Under the command of Michael, Tatya's army was surrounded near Rajgarh. Michael's forces were tired so he decided to attack in the morning, but the next morning he was surprised to see that Tatya's army had escaped his trap. Tatya had set up a barricade after reaching Biaora. Here the British attacked simultaneously with infantry, cavalry and artillery squads. Tatya lost this war also. 27 of his cannons fell into the hands of the British. Tatya moved towards the east towards Betwa valley. Tatya captured four cannons at Sironj and rested for a week. From Sironj they reached Ishagarh in the north and looted the town and captured five more cannons. Tatya's army got divided into two parts from Ishagarh. One contingent went to Lalitpur under the command of Rao Saheb and the other to Chanderi under the command of Tatya. 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1391 | सन् १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन् १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन् १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। | अकबर राजा किस वर्ष बने थे ? | {
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"सन् १५६०"
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} | In which year Akbar became the king? | In 1580, Akbar himself took power and took out his patron Bairam Khan.Now Akbar had power in his hands but also had many difficulties.Such as-Jan outrage (1583), Uzbek Rebellion (157-75) and Mirza brothers rebellion (157–4), who emerged on the murder of Shamsuddin Atka Khan (158-7) but Akbar very skillfully solved these problems.With his imagination, he increased the number of his feudatories.In 1582, he compromised with the ruler of Amer - thus the Rajput king also turned to him.Similarly, he also gave great help to those coming from Iran.He also turned Indian Muslims with his efficient behavior.He gave a unique introduction to religious tolerance - Jaziya was removed by putting it at Hindu pilgrimage places (1573).This led to the experience of the entire kingdom that he is capable of adopting a converted policy.Apart from this, he forcibly stopped changing the religion.Akbar introduced copper, silver and son's postures during his reign.The back part of these currencies used to have beautiful Islamic printing.Akbar made several changes in the currencies of his era.He introduced an open mint system, if any person was able to pay a mint fee, then he could change the currency of Akbar with any other currency or gold.Akbar wanted the same posture to his entire empire.After the Second War of Panipat, Akbar again captured Delhi by killing Hemu. | {
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"AD 1560"
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1392 | सन् १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन् १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन् १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। | अकबर ने किस वर्ष गुजरात को अपने अधीन किया था? | {
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} | In which year did Akbar subjugate Gujarat? | In 1580, Akbar himself took power and took out his patron Bairam Khan.Now Akbar had power in his hands but also had many difficulties.Such as-Jan outrage (1583), Uzbek Rebellion (157-75) and Mirza brothers rebellion (157–4), who emerged on the murder of Shamsuddin Atka Khan (158-7) but Akbar very skillfully solved these problems.With his imagination, he increased the number of his feudatories.In 1582, he compromised with the ruler of Amer - thus the Rajput king also turned to him.Similarly, he also gave great help to those coming from Iran.He also turned Indian Muslims with his efficient behavior.He gave a unique introduction to religious tolerance - Jaziya was removed by putting it at Hindu pilgrimage places (1573).This led to the experience of the entire kingdom that he is capable of adopting a converted policy.Apart from this, he forcibly stopped changing the religion.Akbar introduced copper, silver and son's postures during his reign.The back part of these currencies used to have beautiful Islamic printing.Akbar made several changes in the currencies of his era.He introduced an open mint system, if any person was able to pay a mint fee, then he could change the currency of Akbar with any other currency or gold.Akbar wanted the same posture to his entire empire.After the Second War of Panipat, Akbar again captured Delhi by killing Hemu. | {
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1393 | सन् १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन् १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन् १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। | शम्सुद्दीन अटका खान की हत्या कब हुई थी ? | {
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"१५६३"
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} | When was Shamsuddin Atka Khan assassinated? | In 1580, Akbar himself took power and took out his patron Bairam Khan.Now Akbar had power in his hands but also had many difficulties.Such as-Jan outrage (1583), Uzbek Rebellion (157-75) and Mirza brothers rebellion (157–4), who emerged on the murder of Shamsuddin Atka Khan (158-7) but Akbar very skillfully solved these problems.With his imagination, he increased the number of his feudatories.In 1582, he compromised with the ruler of Amer - thus the Rajput king also turned to him.Similarly, he also gave great help to those coming from Iran.He also turned Indian Muslims with his efficient behavior.He gave a unique introduction to religious tolerance - Jaziya was removed by putting it at Hindu pilgrimage places (1573).This led to the experience of the entire kingdom that he is capable of adopting a converted policy.Apart from this, he forcibly stopped changing the religion.Akbar introduced copper, silver and son's postures during his reign.The back part of these currencies used to have beautiful Islamic printing.Akbar made several changes in the currencies of his era.He introduced an open mint system, if any person was able to pay a mint fee, then he could change the currency of Akbar with any other currency or gold.Akbar wanted the same posture to his entire empire.After the Second War of Panipat, Akbar again captured Delhi by killing Hemu. | {
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205
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"1563"
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1394 | सन् १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन् १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन् १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। | अकबर ने आमेर के शासक के साथ समझौता कब किया था ? | {
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"सन् १५६२ में"
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386
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} | When did Akbar make a pact with the ruler of Amer? | In 1580, Akbar himself took power and took out his patron Bairam Khan.Now Akbar had power in his hands but also had many difficulties.Such as-Jan outrage (1583), Uzbek Rebellion (157-75) and Mirza brothers rebellion (157–4), who emerged on the murder of Shamsuddin Atka Khan (158-7) but Akbar very skillfully solved these problems.With his imagination, he increased the number of his feudatories.In 1582, he compromised with the ruler of Amer - thus the Rajput king also turned to him.Similarly, he also gave great help to those coming from Iran.He also turned Indian Muslims with his efficient behavior.He gave a unique introduction to religious tolerance - Jaziya was removed by putting it at Hindu pilgrimage places (1573).This led to the experience of the entire kingdom that he is capable of adopting a converted policy.Apart from this, he forcibly stopped changing the religion.Akbar introduced copper, silver and son's postures during his reign.The back part of these currencies used to have beautiful Islamic printing.Akbar made several changes in the currencies of his era.He introduced an open mint system, if any person was able to pay a mint fee, then he could change the currency of Akbar with any other currency or gold.Akbar wanted the same posture to his entire empire.After the Second War of Panipat, Akbar again captured Delhi by killing Hemu. | {
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386
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"In the year 1562"
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1395 | सन् १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन् १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन् १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। | हेमू को मारकर फिर से दिल्ली पर कब्जा किसने किया ? | {
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"अकबर"
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14
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} | Who killed Hemu and captured Delhi again? | In 1580, Akbar himself took power and took out his patron Bairam Khan.Now Akbar had power in his hands but also had many difficulties.Such as-Jan outrage (1583), Uzbek Rebellion (157-75) and Mirza brothers rebellion (157–4), who emerged on the murder of Shamsuddin Atka Khan (158-7) but Akbar very skillfully solved these problems.With his imagination, he increased the number of his feudatories.In 1582, he compromised with the ruler of Amer - thus the Rajput king also turned to him.Similarly, he also gave great help to those coming from Iran.He also turned Indian Muslims with his efficient behavior.He gave a unique introduction to religious tolerance - Jaziya was removed by putting it at Hindu pilgrimage places (1573).This led to the experience of the entire kingdom that he is capable of adopting a converted policy.Apart from this, he forcibly stopped changing the religion.Akbar introduced copper, silver and son's postures during his reign.The back part of these currencies used to have beautiful Islamic printing.Akbar made several changes in the currencies of his era.He introduced an open mint system, if any person was able to pay a mint fee, then he could change the currency of Akbar with any other currency or gold.Akbar wanted the same posture to his entire empire.After the Second War of Panipat, Akbar again captured Delhi by killing Hemu. | {
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14
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"Akbar"
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1396 | सन् १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन् १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन् १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। | अकबर ने अपने किस संरक्षक को निष्कासित कर दिया था ? | {
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"बैरम खां"
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59
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} | Which of his patrons was expelled by Akbar? | In 1580, Akbar himself took power and took out his patron Bairam Khan.Now Akbar had power in his hands but also had many difficulties.Such as-Jan outrage (1583), Uzbek Rebellion (157-75) and Mirza brothers rebellion (157–4), who emerged on the murder of Shamsuddin Atka Khan (158-7) but Akbar very skillfully solved these problems.With his imagination, he increased the number of his feudatories.In 1582, he compromised with the ruler of Amer - thus the Rajput king also turned to him.Similarly, he also gave great help to those coming from Iran.He also turned Indian Muslims with his efficient behavior.He gave a unique introduction to religious tolerance - Jaziya was removed by putting it at Hindu pilgrimage places (1573).This led to the experience of the entire kingdom that he is capable of adopting a converted policy.Apart from this, he forcibly stopped changing the religion.Akbar introduced copper, silver and son's postures during his reign.The back part of these currencies used to have beautiful Islamic printing.Akbar made several changes in the currencies of his era.He introduced an open mint system, if any person was able to pay a mint fee, then he could change the currency of Akbar with any other currency or gold.Akbar wanted the same posture to his entire empire.After the Second War of Panipat, Akbar again captured Delhi by killing Hemu. | {
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59
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"text": [
"Bairam Khan"
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} |
1397 | सन् १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन् १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन् १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। | अकबर ने मुगल राजधानी को कहां स्थानांतरित करने का फैसला किया था? | {
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} | Where did Akbar decide to shift the Mughal capital? | In 1580, Akbar himself took power and took out his patron Bairam Khan.Now Akbar had power in his hands but also had many difficulties.Such as-Jan outrage (1583), Uzbek Rebellion (157-75) and Mirza brothers rebellion (157–4), who emerged on the murder of Shamsuddin Atka Khan (158-7) but Akbar very skillfully solved these problems.With his imagination, he increased the number of his feudatories.In 1582, he compromised with the ruler of Amer - thus the Rajput king also turned to him.Similarly, he also gave great help to those coming from Iran.He also turned Indian Muslims with his efficient behavior.He gave a unique introduction to religious tolerance - Jaziya was removed by putting it at Hindu pilgrimage places (1573).This led to the experience of the entire kingdom that he is capable of adopting a converted policy.Apart from this, he forcibly stopped changing the religion.Akbar introduced copper, silver and son's postures during his reign.The back part of these currencies used to have beautiful Islamic printing.Akbar made several changes in the currencies of his era.He introduced an open mint system, if any person was able to pay a mint fee, then he could change the currency of Akbar with any other currency or gold.Akbar wanted the same posture to his entire empire.After the Second War of Panipat, Akbar again captured Delhi by killing Hemu. | {
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"text": [
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1398 | समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है। हिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है)टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद। पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं। मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक। इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है। समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद। तिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है। आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है। इस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है। अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है। डार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है। चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है। स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। | दार्जिलिंग रेलवे की लम्बाई कितनी है ? | {
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"७० किलोमीटर"
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} | What is the length of Darjeeling Railway? | Time: Open all day.Photography is allowed only outside the monastery.The Himalayan Mountaining Institute was established in 1956 AD.It may be known that the Himalayas were conquered for the first time in 1953 AD.Tanzing was the director of this institute for many years.There is also a mountaining museum here.The museum has objects related to many historical campaigns for climbing the Himalayas.A gallery of this museum is known as the Everest Museum.In this gallery, obresting obresting objections are kept.Mountaineering training is also imparted in this institution.Entrance Shul: 25 Rs.Brihaspati closed.The Padmaja-Nadu-Himalayan biological park is located on the right side of the Mountnigment Institute.This garden is famous for the breeding program of icy tendua and Lal Pandey.You can also see the Siberian tiger and Tibetian Bhedia here.The main bus is the leordus bastardly garden in the old market under the stop.This name to this garden is Malu Lewu.It is given after Lioard.Lioard was a famous banker from here who donated land for this park in 14 AD.This park has a valuable collection of 50 castes of orchids.Time: 4 am to 5 pm.There is a natural history museum near this monotonical garden.This museum was founded in 1903 AD.Here, various varieties of birds, reptiles, animals and insect-moths have been kept in the preservation.Time: 10 am to 6:30 pm.Brihaspati closed.The Tibetian Refugee Swayam Sahanta Center (Tele: 0357-2252552) is located on a 75-minute walk from the square.This camp was established in 1959 AD.A year before this, the Dalai Lama sought shelter from India in 1956.In this camp, the 13th Dalai Lama (currently the 14th Dalai Lama) spent his exile time from 1910 to 1912.The building in which the 13th Dalai Lama lived is in the Bhagavanti today.Today this Refugee Camp is a shelter of 450 Tibetan families.These Tibetan people sell various types of goods here.These accessories include carpets, woolen fabrics, wooden artefacts, toys made of metal.But if you want to take full joy to visit this refugee camp, then definitely look at the workshop to make these goods.This workshop remains open to tourists.This unique train was constructed in the 19th century of 19th century.Dargerying is a surprising sample of Himalayan railroad, engineering.This railroad is 40 km long.This entire railway block is located at an altitude of 758 feet above sea level.Engineers had to work hard in the construction of this railway block.This railway block passes through many crooked routes and circular routes.But the most beautiful part of this railway block is Batia Loop.At this place the railway block is in the size of eight digits.If you do not want to roam the entire dargling by train, then you can go from this train to the dargling station from the dargling station.While traveling by this train, you can enjoy the natural views around it.To travel on this train either go too in the morning or late evening.Other times there is a lot of crowd here.Darurgeling was once famous for spices.Darurgeling for tea is known at the world.Dr. Campbell, who was the first inspector appointed by East India Company in Dargeling, first planted tea seeds in his garden in about 1830 or 60s.The Christian religious Branus brothers planted average tea plants in the 180s.The Baren brothers had done a lot of work in this direction.The tea garden installed by Baren Bandhas is currently known as the Banukavarna Tea Park (Tele: 0357-22412).The first seed of tea which was of the Chinese bush was brought from Kumaon Hill.But over time it became famous as Dargoring Tea.In 14 AD, TT Copper estimated that Tibet used to consume 60,000,000 LB of LB Chinese tea every year.It was produced mainly in Sejhwan province.Copper's view was that if people of Tibet used Chinese tea instead of India's tea, then India would get a very valuable market.After this, everyone knows the history.Due to local soil and Himalayan wind, the dargerying tea is of good quality.Currently there are about 6 tea gardens in and around dargling.About 5000 people have got work in these gardens.Each tea garden has its own history.Similarly, every tea garden tea is different.But this tea is collectively known as 'Dargling Tea'.The best time to roam these gardens is the summer period when tea leaves are broken.Happy-Valley-Cay Park (Tele: 2252605) which is 3 kilometers from the city can be easily reached. | {
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1399 | समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है। हिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है)टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद। पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं। मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक। इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है। समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद। तिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है। आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है। इस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है। अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है। डार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है। चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है। स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। | शरणार्थी के तौर पर दलाई लामा भारत किस वर्ष आए थे ? | {
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} | In which year did the Dalai Lama come to India as a refugee? | Time: Open all day.Photography is allowed only outside the monastery.The Himalayan Mountaining Institute was established in 1956 AD.It may be known that the Himalayas were conquered for the first time in 1953 AD.Tanzing was the director of this institute for many years.There is also a mountaining museum here.The museum has objects related to many historical campaigns for climbing the Himalayas.A gallery of this museum is known as the Everest Museum.In this gallery, obresting obresting objections are kept.Mountaineering training is also imparted in this institution.Entrance Shul: 25 Rs.Brihaspati closed.The Padmaja-Nadu-Himalayan biological park is located on the right side of the Mountnigment Institute.This garden is famous for the breeding program of icy tendua and Lal Pandey.You can also see the Siberian tiger and Tibetian Bhedia here.The main bus is the leordus bastardly garden in the old market under the stop.This name to this garden is Malu Lewu.It is given after Lioard.Lioard was a famous banker from here who donated land for this park in 14 AD.This park has a valuable collection of 50 castes of orchids.Time: 4 am to 5 pm.There is a natural history museum near this monotonical garden.This museum was founded in 1903 AD.Here, various varieties of birds, reptiles, animals and insect-moths have been kept in the preservation.Time: 10 am to 6:30 pm.Brihaspati closed.The Tibetian Refugee Swayam Sahanta Center (Tele: 0357-2252552) is located on a 75-minute walk from the square.This camp was established in 1959 AD.A year before this, the Dalai Lama sought shelter from India in 1956.In this camp, the 13th Dalai Lama (currently the 14th Dalai Lama) spent his exile time from 1910 to 1912.The building in which the 13th Dalai Lama lived is in the Bhagavanti today.Today this Refugee Camp is a shelter of 450 Tibetan families.These Tibetan people sell various types of goods here.These accessories include carpets, woolen fabrics, wooden artefacts, toys made of metal.But if you want to take full joy to visit this refugee camp, then definitely look at the workshop to make these goods.This workshop remains open to tourists.This unique train was constructed in the 19th century of 19th century.Dargerying is a surprising sample of Himalayan railroad, engineering.This railroad is 40 km long.This entire railway block is located at an altitude of 758 feet above sea level.Engineers had to work hard in the construction of this railway block.This railway block passes through many crooked routes and circular routes.But the most beautiful part of this railway block is Batia Loop.At this place the railway block is in the size of eight digits.If you do not want to roam the entire dargling by train, then you can go from this train to the dargling station from the dargling station.While traveling by this train, you can enjoy the natural views around it.To travel on this train either go too in the morning or late evening.Other times there is a lot of crowd here.Darurgeling was once famous for spices.Darurgeling for tea is known at the world.Dr. Campbell, who was the first inspector appointed by East India Company in Dargeling, first planted tea seeds in his garden in about 1830 or 60s.The Christian religious Branus brothers planted average tea plants in the 180s.The Baren brothers had done a lot of work in this direction.The tea garden installed by Baren Bandhas is currently known as the Banukavarna Tea Park (Tele: 0357-22412).The first seed of tea which was of the Chinese bush was brought from Kumaon Hill.But over time it became famous as Dargoring Tea.In 14 AD, TT Copper estimated that Tibet used to consume 60,000,000 LB of LB Chinese tea every year.It was produced mainly in Sejhwan province.Copper's view was that if people of Tibet used Chinese tea instead of India's tea, then India would get a very valuable market.After this, everyone knows the history.Due to local soil and Himalayan wind, the dargerying tea is of good quality.Currently there are about 6 tea gardens in and around dargling.About 5000 people have got work in these gardens.Each tea garden has its own history.Similarly, every tea garden tea is different.But this tea is collectively known as 'Dargling Tea'.The best time to roam these gardens is the summer period when tea leaves are broken.Happy-Valley-Cay Park (Tele: 2252605) which is 3 kilometers from the city can be easily reached. | {
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